धूप

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

धूप ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. देवपूजन में या सुगंध के लिये कपूर, आग, गुग्गुल, आदि गंधद्रव्यों को जलाकर उठाया हुआ धुआँ । सुगंधित धूम । क्रि॰ प्र॰—देना ।

२. गंधद्रव्य जिसे जलाने से सुगंधित धुआँ उठता और फैलता है । जलाने पर महकवाली चीज । विशेष—धूप के लिये पाँच प्रकार के द्रव्यों में से किसी न किसी का व्यवहार होता है—(१) निर्यात अर्थात् गोंद । जैसे, गुग्गुल, राल । (२) चूर्ण । जैसे, जायफल का चूर्ण । (३) गंध । जैसे, कस्तूरी । (४) काष्ठ । जैसे, अगर की लकड़ी । (५) कृत्रिम अर्थात् कई द्रव्यों के योग के बनाई हुई धूप । कृत्रिम धूप कई प्रकार की होती है; जैसे, पंचांग धूप, अष्टांग धूप, दशांग धूप, द्वादशांग धूप, षोडशांग धूप । इनमें से दशांग धूप अधिक प्रसिद्ध है जिसमे दस चीजों का मेल होता है । ये इस चीजें क्या क्या होनी चाहिए इसमें मतभेद है । पद्यपुराण के अनुसार कपूर, कुष्ठ, अगर, चंदन, गुग्गुल, केसर, सुगंधबाला तेजपत्ता, खस और जायफल से दस चीजें होनी चाहिएँ । सारांश यह कि साल और सलई का गोंद, मैनसिल, अगर, देवदार, पद्याख, मोचरस, मोथा, जटामासी इत्यादि सुगंधित द्रव्य धूप देने के काम में आते हैं ।

धूप ^२ संज्ञा पुं॰ [हिं॰]

१. सूर्य का प्रकाश और ताप । घाम । आतप । जैसे,—धूप में मत निकलो । मुहा॰—धूप खाना = इस स्थिति में होना कि धूप ऊपर पड़े । धूप में गरम होना या तपना । जैसे,—(क) चार दिन धूप खायगी तो लकड़ी सूख जायगी । (ख) जाड़े में लोग बाहर धूप खाते हैं । धूप खिलाना = धूप में रखना । धूप लगने देना । धूप चढ़ना = सूर्योदय के पीछे प्रकाश और ताप फैलना । घाम आना । धूप पड़ना = सूर्य का ताप अधिक होना । धूप में बाल या चूँड़ा सफेद करना = बूढ़ा हो जाना और कुछ जानकारी न प्राप्त करना । बिना कुछ अनुभव प्राप्त किए जीवन का बहुत सा भाग बिता देना । धूप लेना = गरमी के लिये शरीर को धूप में रखना । धूप ऊपर पड़ने देना । जैसे, जाड़े में धूप लेने के लिये बाहर बैठना ।

२. चीढ़ या धूप सरल नाम का वृक्ष जिससे गंधाबिरोजा निक- लता है । वि॰ दे॰ 'चीढ़' ।