विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/कू

विक्षनरी से

कूँआ
संज्ञा पुं० [सं० कूप दे०] 'कुआँ' ।

कुँई पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० कूई] दे० 'कई' ।

कूँख
संज्ञा स्त्री० [सं० कुक्षि] कोख । पेट । गर्भ ।

कूँखना
क्रि० अ० [स० कुन्थन = क्लेश] दुःख या पीड़ा से उहँ उहुँ शब्द करना । काँखना ।

कूँग
संज्ञा पुं० [हि० कुनना] एक यंत्र जिसपर कसेरे पीतल ताँबे के बरतन खरादते और जिला करते है । खराद चरख ।

कूँगा
संज्ञा पुं० [देश०] बबूल की छाल का काढा़ जिसमे डुबोकर चमड़ा मिझाया जाता है ।

कूँच (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कूँचा] १. खस या नारियलके रेशे का बना हाथ ड़ेढ़ हाथ लंबा एक बड़ा बुश जिससे जोलाहे ताने का सूत साफ करते हैं । २. लोहारों की बड़ी सँड़सी ।

कूँच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुचिका = नली] मोटी नस जो मनुष्यों की एँड़ी के ऊपर और पशुओं के टखने के नीचे होती है । पै । घोड़ा नस । मुहा०—कूँचे काटना = घोड़े की नस काटकर उसे बेकाम कर देना ।

कूँचना †
क्रि० स० [हि० कूटना या अनु० 'कुच कुच'] कूटना । कूचलना । उ०— कह आसंग अहैं हम पाथर साँथ बात बरनी । समर शत्रु मुखकूँचत छन में कठिन करै करनी ।—गोपाल (शब्द०) । मुहा०— मुँहकूँचना = (ल) मारना पीटना (२) मान ध्वंस करना । ध्वस्त करना ।

कूँचा (१)
संज्ञा पुं० [सं०कुर्च या कून] [स्त्री० कूची] १. किसी रेशेदार लकड़ी या मूँज आदि का कूटकर बनाया हुआ झाड़ू जिसमें चीजों की झड़ने या साफ करते हैं । २. बोहारी । ३. टूटे हुए जहाज के टुकड़े ।

कूँचा (२)
संज्ञा पुं० [हि० करछा] भड़भूजे का बड़ा करछा ।

कूँची (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कूँचा] १. छोटा कूचा । छोटी झाड़ू । २. कूटी हई मूँज या बालों का गुच्छा , जिससे चीजों की मैल साफ करते या उनपर रंग फेरते हैं । जैसे—सफेदी करने की कूँची, सोनार की कूँची, तसबीर रँगनी की कूँची । मुहा०— कूँची देना = (१) कूँची से रंग चढाना । (२) कूँची से साफ करना । निखारना । † (३) खेत की एक कोने से दुसरे कोने तक जोतना । ३. चित्रकार की रंग भरने की कूँची । तूलिका ।

कूँची (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कूजह] १. कुल्हिया जिसमें मिस्त्री जमाई जाती है । जैसे—कूँची की चीनी । २. मिट्टी का वह बरतन जिसमें कोल्हू से निकलकर रस इकट्ठा होता है ।

कूची (३) पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कुँची] ताली । कुंजी ।

कूँज
संज्ञा पुं० [सं० क्रौञ्च पा कौच] क्रौच पक्षी । करकुल ।

कूँजड़ा
संज्ञा पुं० [हि० कुँजड़ा] दे० 'कुंजड़ा' ।

कूँजड़ी
संज्ञा स्त्री० [हि० कुँजड़ा] १. कुँजडे की स्त्री । २. वह स्त्री जो शाक तरकारी इत्यादि बेचती हो । कबाड़िन ।

कूँजना पु †
क्रि० अ० [हिं० कूजना] दे० 'कूजना' ।

कुँजरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुँजड़ा' ।

कूँजरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुँजड़ी' ।

कूँझाँ
संज्ञा पुं० [सं० क्रौञ्च] दे० 'कूँज' ।

कूँट
संज्ञा पुं० [हिं० सं० कूट] पैर का बंधन । शृंखला ।

कूँड़
संज्ञा स्त्री० [सं० कुणु] १. सिर को बचाने के लिये लोहे की एक ऊँची टीपी० जिसे लड़ाई के समय पहनते थे । खोद उ०— अँगरी पहिरि कूँड़ सिर धरही । फरसा बाँस सेल सम करहीं ।—तुलसी (शब्द०) । २. चौगोशिया टोपी के आकार का मिटटी या लोहे का गह्वरा बरतन, जिसे ढेकुल में लगाकर सिंचाई के लिये कुएँ से पानी निकांलते हैं । ३. वह गहरी लकीर जो खेत में हल जोतने से बन जाती है । कुंड़ । ४. मिट्टी, ताँबे या पीतल आदि का बना हुआ लह गहरा पात्र जिसके ऊपर चमड़ा मढ़कर 'बायाँ' या ठेका बजाते है ।

कूँड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़] [स्त्री०कूँड़ी] १. पानी रखने का मिट्टी का गहरा बरतन । २. छोटे पौधे लगाने का थाला । गमला । ३. रोशनी करने की एक प्रकार की बड़ी हाँड़ी, जिसे ड़ोल भी कहते हैं । ४. मिट्टी या काठ का बड़ा बरतन जिसमें आटा गूँथते हैं । कठौता । मठौता ।

कूँड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूँड़ा] १. पत्थर का बना हुआ कटोरे के आकार का बरतन । पत्थर की प्याली । पथरी । २. छोटी नाँद । ३. कोल्हू के बीच का वह गड़ढा जिसमें जाठ रहता है ।

कूँड़ी (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड़ली] एँड़ुरी जिसे सिर पर रखकर स्त्रियाँ घड़ा उठाती हैं ।

कूँथना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० कुन्थन = दुःख उठाना] १. दु?ख से अस्पष्ट शब्दद मुँह से निकालना । कराहना । २. कबूतरों का गुटरगूँ करना । उ०— गूढ़ गुहचरी चिरौ चुरी चहचर करैं कुँथत कपोत भट काम के कटक के । —देव (शब्द०) ।

कूँथान पु † (२)
संज्ञा पुं० १. कराह । दुःख या कष्ट में निकलनेवाला अस्पष्ट शब्द । २. कबूतरों की गुटरगूँ की ध्वनि ।

कूँदना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'कुनना' ।

कू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिशाची । डाइन । २. पृथ्वी । धरती [को०] ।

कूआं
संज्ञा पुं० [सं० कूप, प्रा० कूव, हि० कुआँ, कुवाँ] दे० 'कुआँ' ।

कूईं
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] जल में होनेवाला कमल की तरह का एक पौधा, जिसके पत्ते कमल ही के पत्तों के समान, पर कुछ लंबै और कटावदार होते हैं । विशेष—यह पौधा भारतबर्ष भर में ऐसे तालों, पोखरों या गड़ढों में होता है, जिनमें बरसात का पानी इकट्ठा होता है । यह बरसात के प्रारंभ में बीजों या पुरानी जड़ों से निकलता है । इसके पत्तें पानी के ऊपर रहते हैं और ड़ंठल अंदर । शरद् ऋतु अर्थात् क्वार कार्तिक में, इसमें सुँदर सुंदर सफेद फूल लगते हैं, जो लंबी लंबी नालों या इंठलों में लगे रहते हैं । इसकी ताल और कमल की नाल में इतना भेद होता है कि कमल की नाल के ऊपर गड़नेवाली रोई होती है, पर इसकी नाल चिकनी होनी है । कुई या कुमुदनी के फूल रात कोखिलते हैं और चौदनी रात में बहुत मनोहर लगते हैं । इसी से कवियों ने चंद्रमा का नाम 'कुमुदबाँधव' आदि रखा है । सफेद फूल ही की कूईं अधिक देखने में आती है, पर कहीं कहीं लाल और पीले फूलों की कूईँ भी होती है । कमल के फूल की तरह इसके फूल के अंदर छत्ता नहीं होता, बाल्कि एक कार्णिका मंड़ल होता है, जिसके नीचे नाल की घुंड़ी होती है । यह घुंड़ी बढ़कर लड़डू की तरह हों जाती है और बीजों से भर जाती है । ये बीज काली सरसों की तरह के होते हैं और 'बेरा' कहलाते हैं । भूनने पर इनके सफेद लावे या खीलें हो जाती हैं । व्रत के दिन इन बीजों के लावे खाए जाते हैं । पटने में बेरे के लड़ड़ू अच्छे बनते हैं । कूई की जड़ खाई जाती है और दवा के काम में भी आती है । वैद्यक में कूँई— का फूल शीतल । कफ और पित्तनाशक तथा दाह और श्रम को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या०—कैरव । कुमुदिनी । कुमुद । गर्दभ । सौगंधिक । कच्छ । कुव । सितोत्पल । कुवल । हल्लक (लाल कूईं) । कोका । उत्पख (सफेद कूईं) रात्रिपुष्प । हिमाब्ज । शीतजलज । निशाफुल्ल । कुवल । कुवेलय । कुवेल ।

कूक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कूज] १. लंबी सुरीली ध्वनि । २. मोर या कोयल की बोली । उ०— (क) तोरन मनहुँ इंद्रधनु सोहत मोर कूक सहनाई । बरसत आनँद आँसु अँबु सोई अबध प्रजा समुदाई ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) कोकिल कूक कपोतन के कुल कोलि करै, अति आनँद बारी । —मतिराम (शब्द०) । क्रि० प्र०— मारना । ३. महीन और सुरीले स्वर से रोने का शब्द (जैसे स्त्रियों का) ।

कूक (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० कुँजी] घड़ी या बाजे आदि में कुंजी देने की क्रिया, जिससे गति उत्पन्न हो । जैसे,—यह आठ दिनों की कूक की घड़ी है ।

कूकना (१)
क्रि० अ० [सं० कूजन या अनु०] १. लंबी सुरीली ध्वनि निकालना । २. कोयल या मोर का बोलना । उ०—(क) कौंधत दामिनी कूकत मोर रटै मिलि भेकी भयानक ठोढ़े ।— रघुनाथ (शब्द०) । (ख) कारी कुरुप कसाइनैं ये सु कुहू कुहू क्वैलिया कूकन लागी ।—पद्माकर (शब्द०) ।

कूकना (२)
क्रि० स० [हि० कुंजी] कमानी कसने के लिये घड़ी या बाजे के पेंच को घुमाना । घड़ी चलाने या बाजा बजाने के लिये कुंजी घुमाना । कुंजी भरना ।

कूकर †
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुर] [स्त्री० कूकरी] कुत्ता । श्वान । यौ०—कूकरकोर । कूकरंचदी । कूकरनिंदिया ।

कूकरकौर
संज्ञा पुं० [हि० कूकर+कौर] १. वह बचा खुचा जूठा भोजन जो कुत्ते के आगे डाला जाता है । टुकड़ा । २. तुच्छ वस्तु । उ०— ताको कहाय कहै तुलसी तू लजात न माँगत कूकरकौरहि ।—जानकीजीवन को जन ह्वै जरि जाठ सो जीभ जो जाँवच औरही ।—तुलसी (शब्द०) ।

कूकरचंदी
संज्ञा स्त्री० [हि० कूकर + सं० चण्ड] एक जंगली ज़ड़ी का नाम, जीसकी पत्तियों को पीसकर कुत्ते के काटे हुए स्थान पर रखते है ।

कूकरनिंदिया
संज्ञा स्त्री० [हि० कूकर+ नींद+इया (प्रव्य०)] वह हलकी नींद जो थोड़े ही खटके से टूट जाय ।

कूकरबसेरा
संज्ञा पुं० [हि० कूकर+बसेरा] थोड़ा विश्राम । क्रि० प्र०— करना ।—लेना ।

कूकरभँगरा
संज्ञा पुं० [हि० कूकुर + हिं० भँगरा] १. काला भँगरा । २. कुकरौंधा ।

कूकरमुत्ता †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कुकुरमुत्ता' ।

कूकरलेंड़
संज्ञा पुं० [हि० कूकुर + लेंड] कुत्तों का मैथुन ।

कूका
संज्ञा पुं० [हिं० कूकना = चिल्लाना] १. चिल्लाहट भरी लंबी पुकार । २. सिक्खों का एक पंथ । विशेष—सन् १८६७ में रामसिह नामक एक बढ़ई ने यह पंथ चलाया था । वह अपना उपदेश बहुत चिल्ला चिल्लाकर देता था और श्रोता लोगा भी खूब भक्ति में लीन होकर चिल्ला चिल्लाकर ग्रंथ साहब के पद गाते थे, इसी से इस पंथ का नाम ही कूका । पड़ गया ।

कूकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का कीड़ा जो जा़ड़े की फसलों को हानि पहुँचाता है ।

कूकुद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुकुद (१)' ।

कूख †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुक्षि] दे० 'कोख' ।

कूच (१)
संज्ञा पुं० [तु०] १. प्रस्थान । रवानगी । २. मृत्यु । मौत । परलीकयात्रा [को०] । मुहा०—कूच कर जाना = मर जाना । (किसी के) देवता कूच कर जाना = होश हवाश जाता रहना । भय या किसी और कारण से विवेक नष्ट हो जाना । कुच का डंका या नक्कारा बाजाना = (१) फौज या समूह का रवाना होना । (२) मर जाना । कूच बोलना = प्रस्थान करना ।

कूच (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुच' [को०] ।

कूच (३)
संज्ञा पुं० [देश०] महुए से पेड़ में पतझड़ के बाद चहनिय़ों में लगनेवाला वह गुच्छा, जिसमें फूल निकलते हैं ।

कूच (४)
संज्ञा पुं० [सं० कुचिका, हि० कूँच] पैर केनचले भाग की एक नस । घोड़ा नस ।

कूचा
संज्ञा पुं० [फा० कूचह] १. छोटा रास्ता । गली । यौ०—कूचागर्दी = इधर फिरना । व्यर्थ घूमना । मुहा०— कूचा झाँकना = इधर उधर ठोकर खाना । गली गली मारा फिरना । २. रेशदार लकड़ी या मूँज को कूट कर बनाया हुआ झा़ड़न । ३. झाड़ू । बोहारी ।

कूचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कूँची । कूर्चिका । २. कुंजी । ताली [को०] ।

कूची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दो० 'कूँची' । २. दे० कूचिका' (को०) ।

कूज
संज्ञा स्त्री० [हि० कूजना] १. ध्वनि । शब्द । आवाज । २. शब्द करने की क्रिया । ३. पहियों की घरघराहट (को०) । ४. कूजने की क्रिया । कूकुकी ध्वनि [को०] ।

कूजना
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० कूजित्] दे० 'कूज' ।

कूजना
क्रि० अ० [सं० कूजन] १. कोमल और मधुर शब्द करना । उ०—(क) विमल सलिल सरसिज बहुरंग । जल खग कूजत गुंजत भुंगा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कनक किंकणी नूपुर कलरव कूजत बाल मराल । —सूर (शब्द०) ।

कूजा (१)
संज्ञा पुं० [फा० कूज़ह्] १. प्य़ाले या पुस्वे के आकार का मिट्टी का बरतन । कुल्हड़ । २. मिट्टी के पुरवे में जमाई हुई अर्द्ब गोलाकार मिसरी । ३. कुब्ज । कुबड़ा [को०] ।

कुजा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुब्जक] मोतिया या बेले का फूल । उ०— कोइ कूजा सतबर्ग चमेली । कोई कदम सुरस रस बेली ।— जायसी (शब्द०) ।

कूजित
वि० [सं०] १. जो बोला या कहा गया हो । ध्वनित । २. गूँजा हुआ या ध्वनिपूर्ण । (स्थान आदि) उ०— कोकिल कूजित कुंज कुटीर ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) ।

कूट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाहाड़ की ऊँची चोटी । जैसे—हेमकूट, चित्रकूट । २. सींग । ३. (प्रनाज आदि की) ऊँची और बड़ी राशि या ढेरी । उ०— कोस भरे लोंहेम मणि अन्नन के करि कूट विप्रन दीन्हों नंद नृप भई अलौकिक लूट । गोपाल (शब्द०) । यौ०— अन्नकूट । ४. हल की वह लकड़ी जिसमें फल लगा रहता है । खोंपी । परिहारी । ५. लोहे का मोंगरा । हथौड़ा । ६. हरिनों के फँसाने का फंदा या जाल । ७. लकड़ी के म्यान में छिपा हुआ हथियार । जैसे—तलावार, गुप्ती आदि । ८. छल । धोखा । फरेब । जैसे—कूटनीति । ९. मिथ्या । असत्य । झूठ । १०. अगस्त्य मुनि का एक नाम । ११. घड़ा । १२. गुप्त वैर । कीना । १३. नगर का द्बार । १४. गूढ़ भेद । गुप्त रहस्य । १५. जिसके अर्थ में हेर फेर हो । जिसका समझना कठिन हो । जैसे, सूर का कूट । १६. वह हास्य या व्यंग्य जिसका अर्थ गुढ़ हो । उ०— करहिं कूट नारदहिं सुनाई । नोक दीन्ह हरि सूंदरताई ।—तुलसी (शब्द०) । १७ । निहाई । १८. वह बैल जिसके सींग टूटे हों । १९. घर । आवास (को०) । २० घट । घड़ा (को०) । २१. उभार सहित माथे की हड़ड़ी [को०] । २२. सिरा छोर । किनारा [को०] ।

कूट (२)
वि० [सं०] १. झूठा । मिथ्यावादी । २. धोखा देनेवाला । छलिया । ३. कृत्रिम । बनावटी । नकली । ४. प्रधान । श्रेष्ठ । ५. निश्चल । ६. धर्मभ्रष्ट ।

कूट (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूट] कुट नाम की ओषधि ।

कूट (४)
संज्ञा स्त्री० [हि० काटना या कूटना] काटने, कूटने या पीटने आदि की क्रिया । जैसे— मारकूट, काटकूट ।

कूट (५)
संज्ञा स्त्री० [हि० कुटी] झोप़ड़ी ।

कूटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छल । कपट धोख । धूर्तता । २. उठान । मुख्यता । ३. हल का फाल । ४. वेणी । कबरी । ५.एक सुगंधद्रव्य [को०] । यौ०— कूटकाख्यान = दे० 'कूटाख्यान' ।

कूटकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. छल । कपट । धोखा । २. कौटिल्य के अनुसार जूआ खेलते समय बेईमानी करना या हाथ की चतुराई या सफाई से पासे उलटना ।

कूटकर्मा
वि० [सं० कूटकर्मन्] छली । कपटी धोखेबाज ।

कूटकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्ट या धोखा देनेवाला व्यक्ति । २. झुठा गवाह [को०] ।

कूटकृत् (१).
वि० [सं०] १. धोखेबाज । ठगनेवाला । २. जाली दस्तावेज बनानेवाला । ३. उत्कोच या घूस देनेवाला [को०] ।

कूटकृत् (२)
संज्ञा पुं० १. कायस्थ । २. शिव [को०] ।

कूटकोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकान का सबने ऊपर का भाग । २. कूटशाला [को०] ।

कूटखड़ग
संज्ञा पुं० [सं०] वह तलवार जो किसी छड़ी में छिपी हो [को०] गुप्ती ।

कूटच्छदमा
संज्ञा पुं० [सं०कूटच्छद्मन्] ठग । धूर्त । धोखेबाज [को०] ।

कूटता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कठिनाई । २. झठाई । ३. छल । कपट ।

कूटतुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह तराजू जिसमें पसेगा हो या जिसकी ड़ंड़ी में कुछ हेर फेर हो । ड़ाँड़ीचार तराजू ।

कूटत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूटता' ।

कूटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूटना] १. कूटने की क्रिया या भाव । २. मारना । पीटना । कुटाई । उ०— फेरत नैन चोरि सों छूटीं । भई कूटनी तस कूटीं ।—जायसी (शब्द०) ।

कूटना
क्रि० स० [सं० कुटृन] १. किसी चीज बो नोचे रखकर) ऊपर से लगातार बलपूर्वक आघात पहुँचाना । जैसे—धान कूटना, सड़क कूटना, छाती कूटना । मुहा०—कूट कूटकर भरना = ठूँस ठूँस कर भरना । कस कस कर भरना । ठसाठस भरना । जैसे,—उसमें कूट कूटकर चालाकी भरी है । २. मारना । पीटना । ठोंकना ३. मिल, चक्की आदि में टाँकी से छोटे छोटे गड़ढे करना या दाँत निकालना । ४. बैल या भैंसे का अंड़कोष कूटकर उसे बधिया करना ।

कूटनाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाँव पेंच की नीति या चाल । वह चाल या नीति जिसका रहस्य कठिनता से खुले ।

कूटपणकारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जाली सिक्का या माल तैयार करनेवाला । २, जाली दस्तावेज बनानेवाला । जाल- साज ।—(को०) ।

कृटपर्व, कृटपाकल
संज्ञा पुं० [सं०] पित्तज्वर । दे० 'कूटपूर्व' ।

कूटपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] (सगीत में) मृदंग के चार वर्णो में एक वर्ण ।

कूट पालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुम्हार । कुंभकार । २. कुम्हार का आँवाँ । ३. दे० 'कूटपूर्व' [को०] ।

कूटपाश
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षियों को फँसाने का जाल । फंदा ।

कूटपूर्व
संज्ञा पुं० [सं०] हाथियों का त्रिदोषज ज्वर ।

कूटप्रशन
संज्ञा पुं० [सं०] पहेली । बुभौवल । प्रहेलिका [को०] ।

कूटबंध
संज्ञा पुं० [सं० कूटबध] दे० कूटपाश' [ को०] ।

कूटमात
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पैमाना जो ठीका नाप से बडा़ या छोटा हो । २ वह बाट जो ठीक तौल से हलका या भारी हो ।

कुटमुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जाली मुहर या सिक्का बनानेवाला ।

कूटमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के मत में जाली मुहर या परवाना ।

कूटमोहन
संज्ञा पुं० [सं०] स्कंद । कुमार कार्तिकेय [को०] ।

कूटयत्र
संज्ञा पुं० [सं० कूट्यन्त्र] पशुओं और पक्षियों को फँसाने का जाल ।

कुटयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह लड़ाई जिसमें शत्रु को धोखा दिया जाय । धोखे की लड़ाई ।

कुटरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जाल । फंदा । २. कुटनियों का मायाजाल [को०] ।

कूटरुप
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य़ के अनुसार जाली रुपया या सिक्का ।

कूटरूपकारक
संज्ञा पुं० [सं०] जाली सिक्कातैयार करनेवाला । विशेष—कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणाक्य ने लिखा है कि यो लोग भिन्न भिन्न प्रकार के लोहे के औजार खरीदते हों तथा जिनके पास सैकड़ों प्रकार के रासायनिक द्रव्य हों और जो धूएँ में सने हो, उनको जाली् सिक्का तैयार करनेवाला समझना चाहिए । इनको गुप्त दूत लगाकर पकड़ना और देश से निकाल देना चाहिए ।

कूटरूपनिर्यादण
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जाली सिक्का निकालना या चलाना ।

कूटरूपप्रातिग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जाली सिक्का ग्रहण करना ।

कूटलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] झुठा या जाली दस्तावेज । फरजी कागज पत्र [को०] ।

कूटलेख
संज्ञा पुं० [सं०] झूठा या जाली दस्तवेज ।

कूटलेख्य
संज्ञा पुं० [सं०] जाली दस्तावेज लिखनेवाला । जालसाज ।

कूटलेख्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूटलेख' [को०] ।

कूटशाल्मालि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का शाल्मालि जो जंगलों में होता है । विशेष—इसक पत्ते जिगनी के समान और फूल गहरे लाल रंग के होते हैं । इसकी जड़ ओषध के काम में आती है । वैद्यक में इसे कड़ुआ, चरपरा, गरम औरकफ, प्लीहा, उदररोग और रूधिरविकार को दूर करनेवाला माना है । २.यमराज की गदा । ३. पुराणानुसार नरक में शाल्प्रलि के आकार का लोहे का एक कँटोला वृक्ष ।

कूटशासन
संज्ञा पुं० [सं०] जाली या फरजी आज्ञापत्र [को०] ।

कूटासाक्षी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कूटसाक्षिन्] झूठा गवाह ।

कूटसाक्षी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] झूठी गावाही । झूठी शहादत ।

कूट साक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] फरजी गवाही । बनावटी साक्षी [को०] ।

कूटस्थ (१)
वि० [सं०] १. सर्वापरि स्थिति । आला दर्जे का । २. जिसमें कुछ अदल बदल न हो सके । अटल । अचल ३. अविनाशी । विनाशरहित । ४. छिपा हुआ । गुप्तष अंतर्व्याप्त । पोशीदा ।

कूतस्थ (२)
संज्ञा पुं० १. व्याघ्रनख नाम का सुगधित द्रव्य । २. परमेश्वर । परमात्मा । ३. जीव । विशेष—सांख्य में 'कूटस्थ' ऐसे आत्मा पुरूष को कहते हैं जो परिमाणरहित हो और जाग्रत, स्वप्न् और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में एक समान रहे । न्याय में परमेश्वर को 'कूटस्थ' कहा है और उसे जन्म—गुण—रहित अर्थात् किसी से न उत्पन्न होनेवाला माना है ।

कृटस्वर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] खोटा सोना । बनावटी सोना ।

कूटा †
संज्ञा पुं० [हिं० कूटना] [स्त्री० कूटी] कुटनपन करनेवाला । कुटना ।

कूटाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जाली पासा । बनावटी पासा ।

कूटाख्यान
संज्ञा पुं० [सं०] ३. कूट अर्थवाले शब्दों में लिखी गई कहानी । २. कल्पित कथा [को०] ।

कूटागार
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार वह मंदिर जो मानुषी बुदधों के लिये बना हो ।

कूटायुध
संज्ञा पुं० [सं०] छिपाकर रखा गया हथियार [को०] ।

कूटाथ
संज्ञा पुं० [सं०] वह छिपा हुआ अर्थ जिसे बौद्धिक प्रयत्न से समझा जाय ।

कूटावपात
संज्ञा पुं० [सं०] ऊपर से छिपा हुआ गड़ाढ़ा जो जंगली जानवरों को फँसाने के लिये बनाय़ा जाता है ।

कूटि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कूट] वह व्यंग्य भरी बात जिससे किसी का परिहास ध्वनित हो ।

कूटी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कूट+ई (प्रत्य०)] १. हँसी उडा़नेवाला । मसखरा । २. जालसाल । जालिया ।

कूटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० कुटनी या कूटा का स्त्री०] कुटनी । दूती ।

कूटू
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधा जो हिमालय पर्वत पर ४००० फुट से १०,००० फुट की ऊँचाई तक होता है । वहाँ इसे प्राय? तरकारी के लिये बोते हैं । मैदानों में भी इसकी खेती होती है । फाफर । कुल्टू । काठू । तुंबा । कसपत । कोटू । विशेष—इसकी खेती बंगाल, आसाम, बरमा, दक्षिण भारत, मध्य प्रदेश और उत्तरप्रदेश में भी होती है । बीज जुलाई में बोया जाता है और अक्टुबर में इसकी फसल तैयार होती हैं । पौधा ड़ेढ़ दो फुट ऊँचा होता है और उसके सिरे पर नीले फूलों का गुच्छा लगता है । फूल देखने में बहुत सुंदर होते हैं । फूल गीर जाने पर फल लगते हैं । पकने पर बीजों की इंठल से मलकर अलग कर लेते हैं । बीज काले रंग के तिकोने लंबे और नुकीलै होते हैं । भूसी निकल जाने उनके अंदर से दाने निकालकर आटा पीसते हैं जो फलाहार के लिये ब्रतों में काम आता है ।

कूड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कूट, प्रा०, कूड़ = ढेरा] १. जमीन पर पड़ी हई गर्द खर पत्ते आदि जिन्हें साफ करने के लिंये झाड़ू दिया जाता है । कतवार । यौ०—कूड़ा करकट । कूड़ाखाना ।क्रि० प्र०—करना । बटोरना । —आड़ना । उठाना ।— फेंकना । फैलाना ।—लगाना । २. व्यर्थ और निकम्मी चिज । बेकाम चीज ।

कूड़ाखाना
संज्ञा पुं० [हि० कूड़ा + फा० खाना] वह स्थान जहाँ कूड़ा फेंका जाता हो । कतवारखाना ।

कूड़य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुडय' [को०] ।

कूढ़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुष्टि, प्रा०, कुड़ढि] १. हल का वह भाग जिसके एक सिरे पर मुठिया और दूसरे पर खोंपी होती है । जाँघा । हलपत । परिहत । बोने की वह प्रथा जिसमें हल की गरारी में बीज ड़ाला जाता है । छोंटा का उलटा । विशेष—जब खेत में तरी कम रह जाती है तब रबी की फसल इसी तरह बोई जाती है । गेहूँ, तीसी आदिकी बोवाई भी इसी तरह होती है ।

कूढ़ (२)
वि० [सं० कु + ऊह = कूह, पा०, कूध अथवा कुष्ठ] नासमझ । अज्ञानी । बेवकूफ । यौ०—कूढ़मग्ज ।

कूढ़मग्ज
वि० [हिं० कूढ़ + फा़०, मगज] जिसे कोई बात समझने में बहुत कठिनता हो । मंदबुदिध । कुंदजिहन ।

कूण पु †
सर्व० [ड़ि०] दे० 'कुण' ।

कूणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीणा, सितार, सारंगी या चिकार आदि तंत्री बीजों की वह खूँटी जिसमें तार बँधे रहते हैं और समय समय पर जिसे मरोड़कर तार को ढीला या कडा़ करते है ।

कूणित
वि० [सं०] बंद । संकृचित । सिमटा हुआ । अविकसित [को०] ।

कूणितेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] श्येन । बाज पक्षी [को०] ।

कूत
संज्ञा पुं० [सं० आकूत=आशय] १. वस्तु को बिना गिने, नापे या तौल उसकी संख्या, मूल्य या परिमाण का अनुमान । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. दे० 'कनकूत' ।

कूतना
क्रि० स० [हि० कूत + ना (प्रत्य०) १ अनुमान करना । अंदाज लगाना । उ०—बैर सुनै न परै श्रुति लौ मुसकैबो मिलै अधरान को कूते ।—सेवक (शब्द०) । २. किसी वस्तु को बिना गिने नापे या तौले उसकी संख्या मूल्य या परिमाण आदि का अनुमान करना ३. कनकूत करना ।

कूथना (१)
क्रि० सं० [सं० कुन्थन्] बहुत मारना । बुरी तरह पीटना ।

कूथना (२)
क्रि० अ० दे० 'कूँथना' ।

कूद
संज्ञा स्त्री० [सं०] कूदने या उछलने की क्रिया या भाव । यौ०— कूदफाँद = कूदने या उछलने की क्रिया ।

कूदना (१)
क्रि० अ,० [सं० स्कृन्दन या सं,० कुर्दन प्रा० कुंदन] १. दोनों पैरों को पृथिवी या किसी दूसरे आधार पर से बलपूर्वक उठा कर शरीर को किसी और फेंकना । उछलना । फाँदना । जैसे—वह यहाँ से कूदकर वहाँ चला गया । २. जान बूझकर ऊपर से नीचे की ओर गिरना । जैसे—वह स्त्री कुएँ में कुद पड़ी । ३. किसी काम या बात के बीच में सहसा आ मिलना या दखल देना । कैसे—तुम यहाँ कहाँ से कूद पड़े? ४. क्रम भंग करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाना । जैसे,— तुम तो अभी चौथा पन्ना पढ़ने थे; बीसबें पन्ने में केसे कूद गए ? ५. अत्यंत प्रसन्नहोना । खुशी से फूलना । उछलना । ६. बढ़ बढ़कर बातें करना । शेखी बघारना । मुहा०—किसी के बल पर कूदना = किसी का सहारा पाकर बहुत बढ़ बढ़कर बोलना ।

कूदना (२)
क्रि० स० किसी वस्तु की एक और से दूसरी ओर चला जाना । उल्लंघन कर जाना । लाँघ जाना । फलाँग जाना । जैसे—जब महाबीर जी समुद्र कूद गए, तब सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । यौ०.—कूदाकूदी । कूदफाँद ।

कूदर
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुमती ब्राह्मणी और ऋषि के संयोग से उत्पन्न संतान [को०] ।

कूदा †
संज्ञा पुं० [हि० कुटना] खेत आदि नापने का एक प्रकार का परिमाण, जिसमें कुछ निश्चित कुदानें कूदनी पड़ती हैं ।

कूदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैर बाँधने की श्रुंखला या जजीर [को०] ।

कूद्दाल
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ी कचनार [को०] ।

कून
संज्ञा पुं० [ हिं ] १. दे० 'कूँड़ा' । २. दे० 'कुद' ।

कूनी
संज्ञा पुं० [हि० कूँड़ी] कोल्हू का वह गड़ढा जिसमें ऊख के टुकड़े ड़ालकर पेरते है । कूँड़ी ।

कूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुआँ । इनारा । २. छिद्र । छेद । सूराख । जैसे—रोमकूप । ३. गहरा गड़ढा । कुंड़ । यौ०— कूपमंड़ूक । ४. चमड़े का कुप्पा (को०) । ५. नदी के बीच की चट्टान या वृक्ष (को०) । ६. नाव आदि बाँधने का खूँटा (को०) । मस्तूल (को०) ।

कूपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा कुआँ । २. चमड़े का बना हुआ तेल । या घी रखने का पात्र । कृप्पा । ३. नाव बाँधने का खूँटा । ४. नाव या जहाज का मस्तूल । ५. चिता । ६. कूल्हे के नीचे का गड़ढ़ा (को०) । ७. नौका । नाव । किश्ती (को०) । ८. छिद्र छेद ।

कूपकच्छप
संज्ञा पुं० [सं०] १. कूएँ में रहनेवाला । कछुआ । २. सीमित जानकारी रखनेवाला मनुष्य । कूपमंड़ूक । अनुभवहीन व्यक्ति [को०] ।

कूपकार
संज्ञा पुं० [सं०] कुआँ बनाने या कुआँ खोदनेवाला आदमी [को०] ।

कूपखानक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूपकार' [को०] ।

कूपचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] कुएँ से पानी खींचने की चरखी । रहट । कूपयंत्र [को०] ।

कूपदंड़
संज्ञा पुं० [सं० कूपदण्ड़] जहाज या नाव का मस्तूल [को०] ।

कूपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनीआईर फार्म का वह भाग जिसपर रुपया भेजनेवाला कुछ समाचार आदि लिख सकता है और जो रुपया पानेवाले के पास रह्व जाता है २. नियंत्रित या सीमित किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की चिट या पुरजा ।

कूपमंड़ूक
संज्ञा पुं० [सं० कूपमण्डूक] १. कूएँ का मेढक । कूएँ में रहनेवाला मेढक । २. वह मनुष्य जो अपना स्थान छोड़कर ।कहीं बाहर न गाया हो,या बाह्वया जगत् की जिसको कुछ भी खबर न हो ।

कूपयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० कूपयन्त्र] दे० 'कूपचक्र' [को०] । यौ०—कूपयंत्रघटिका, कूपयंत्रघटी = कुएँ से पानी खोंद्रने के यंत्र में लगी छोटी ड़ोल । रहट में लगी हुई डोलची जिनसे पानी क्रमशः गिरता रहता है । कूपयंत्रघटिका न्याय= सासारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं को व्यक्त करने का न्याय जिसमें रहट की ड़ोलों के क्रमश? उँचा नीचा, भरा खाली, भरता हुआ खाली होता हुआ आदि के द्बारा सांसारिक स्थिति व्यक्त की जाती है (मृच्छकटिक) ।

कूपार
संज्ञा पुं० [सं०] सागर । समुद्र [को०] ।

कूपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा कुआँ । २. कुप्पी । बोतल । ३. नाभि [को०] ।

कूपुष
संज्ञा पुं० [सं०] मुत्राशय ।

कूब
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूबड़' ।

कूबड़
संज्ञा पुं० [सं० कूबर] १. पीठ का टेढ़ापन २. किसो वस्तु का टेढ़ापन । क्रि० प्र०— —उठना ।—निकलना ।

कृबर (१)
संज्ञा पुं० [पुं०] १. कुबड़ा व्याक्ति । २, गाड़ी या रथ की वह वल्ली जिससे जुआ बाँधा जाता है [को०] ।

कूबर (२)
वि० १. सुंदर । रुचिकर । प्रिय २. कूबड़वाला [को०] ।

कूबरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'कुबरी' । २. पदें आदि से ढँकी गाड़ी (को०) । ३. रथ या गाड़ी की बल्ली जिससे जुआ बाँधा जाता है (को०) ।

कूबा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कूबड़] २. वह धनुषाकर लकड़ी जिसपर बँड़ेरा रखा जाता है । इसके दोनों सिरे दीवार पर रहते है, और इसके बीच के टेढें उभड़े हुए भाग पर बँड़ेरा रखा जाता है ।

कूबा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बिटाई करनेवालों का सीसे का एक गोलाकार औजार जिसे टेकुरी को भारी करने के लिये उसके नीचे चिपका देते हैं । यह दुअन्नी या एकन्नी के बराबर गोल गोल होता है ।

कुम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तालाब । जलाशय [को०] ।

कूम (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पे़ड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबुत होती है । विशेष—गड़ावाल और चटगाँव में यह पेड़ बहुत होता है । इसकी लकड़ी इमारत के काम में आती है और कही कहीं जहाँ यह अधिक होता है, जलाई भी जाती है ।

कूमटा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जो राजपूताने और सिंध देश में होता है ।

कूमटा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] धारवार प्रांत में पैदा होनेवाली एक प्रकार की कपास ।

कूर (१)
वि० [सं० कूर] १. दयारहित । निर्दय । २. भयंकर । ड़रावना । ३. मनहुस । असगुनियाँ । दुष्ट । बुरा । कुमार्णी । उ०—राम नाम ललित ललाम कियो लाखन को बड़ो कूर कायर कपूत कौड़ी आध की । —तुलसी (शब्द०) । ५. जिसका किया कुछ न हो सके । असर्मण्य । निकम्मा । उ०— सुभट शरीर वीर चारी भारी भारी तहाँ सूरन उछाह कूर कादर ड़रत है ।—तुलसी (शब्द०) । ६. नासमझ । उनजान । मूर्ख । उ०— हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी । जे परदूषन भूषन धारी ।—मानस, १ ।८ ।

कूर (२
संज्ञा० पुं० [हिं० कूरा=अंश] लगान की वह कमी जो उच्च जातियों को मुजरा दी जाती है, जिससे वे लोग हलवाहा रख सकें ।

कूर (३
संज्ञा० पुं० [सं०] उबाला हुआ चावल । भात [को०] ।

कूर (४) †
संज्ञा० पुं० [हिं० पूर = भरना] गुझिया, समोसे आदि में भरने का मसाला ।

कूरता
संज्ञा० स्त्री० [सं० कूरता वा हिं० कूर+ता (प्रत्य०)] १. निर्दयता । कठोरता । बेरहमी । २. जड़ता । मूर्खता । ३. अरसिकता । उ०— कृष्णचरित रस रस पूर, नमो सूर कलि सूर कवि । जासु भणित रसमूर, होत दूरि सुनि कूरता । —रघुराज (शब्द०) । ४. कायरता । ड़रपोकपन ।

कूरपन
संज्ञा० पुं० [सं० कूर + पन (प्रत्य०)] दे० 'कूरता' ।

कूरम पु
संज्ञा० पुं० [सं० कूर्म] दे० 'कूर्म' । उ०— कूरम पै कोल कोलहू पै सेष कुंडली है, कुंड़ली पै फबी फैल सुफ़न हजार की ।—पद्याकर ग्रं० पृ०, २५३ ।

कूरा
संज्ञा० पुं० [सं० कूट प्रा० कूड़ = ढेर] [स्त्री०कूरी] १. ढेर । राशि । उ०—सीस धतूरो बिभूति को कूरो निवास तहाँ सब लै बरदा है । धाम धतूरो बिभूति को कूरो निवास तहाँ सब लै मरदा है ।—तुलसी (शब्द०) । २. भाग । अंश । हिस्सा ।

कूरी (१
संज्ञा० स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे चपरेला या मोतिय़ा भी कहते हैं ।

कूरी (२
संज्ञा० स्त्री० [हि०कूरा] छोटा ढेर । ढेरी ।

कूर्च
संज्ञा० पुं० [सं०] १. मुट्ठी भर कुश । २. दोनों भौहौ के बीच का स्थान । ३. अँगूठे और तर्जनी के बीट का स्थान । ४. झुठ । असत्य । ५. दंभ । ६. एक प्रकार का आसन । ७. एक बीजमंत्र । ८. कूँची । ९. मस्तक सिर । ९. गोदाम । भांड़ार । ११. पूला (को०) । १२. दाढी़ (को०) १३ मोर पंख (को०) ।

कूर्चक
संज्ञा० पुं० [सं०] १. कूँची । २. दाँतों को स्वच्छ करने की कूँचा । ३. एक माप या तौल [को०] ।

कूचिका
संज्ञा० स्त्री० [सं०] १. कूँची । २. कली । ३. कुंजी । ४. सूई । ५. फटा हुआ दूध । छेना

कूर्दन
संज्ञा० पुं० [सं०] १. कूदने की क्रिय़ा । उछलना कूदना [को०] ।

कूर्दनी
संज्ञा० स्त्री० [सं०] चैत्र मास की पूर्णिमा । इस तिथि को कामदेव का उत्सव होता था ।

कूर्प
संज्ञा० पुं० [सं०] भौहौं के बीच का स्थान । त्रिकुटी [को०] ।

कूर्पर
संज्ञा० पुं० [सं०] १. पैर के बीट का जोड़ा । घुटना । २. हाथ के बीच का जोड़ा । कुहनी [को०] ।

कूर्टाम
संज्ञा० पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार धड़ की रक्षा के लिये ल हे की जालियों का छोटा कवच ।

कूर्म
संज्ञा० पुं० [सं०] १. कच्छप । कछुआ । २. पृथिवी । ३. प्रजापति का एक अवतार । ४. एक ऋषि जिन्होंने ऋगवेद के कई सूत्रों का विकास किया था । ५. एक वायु जिसका निवास आँखों में है और जिसने प्रभाव से पलकें खुलती और बंद होती है । यह दस प्राणों में से एक है । ६. नाभिचक के पास की एक नाड़ी । कछुआ । पोतनहर । ७. विष्णुका दूसरा अवतार ८. तंत्रके अनुसार एक मुद्रा या आसन जिसका व्यवहार देवता के ध्यान के समय किया जाता है १. दे० 'कूर्मासन' ।

कूर्मक्षेत्र
संज्ञा० पुं० [सं०] हिदुओं का एक तीर्थ, जहाँ कूर्मावतार भगवान् के दर्शन होते है ।

कूर्मखंड
संज्ञा० पुं० [सं०कूर्मखण्ड़] पुराण के अनुसार एक वर्ष या खंड का नाम [को०] ।

कुर्मचक्र
संज्ञा० पुं० [सं०] एक प्रकार का चक्र, जो तांत्रिक लोग बनाते हैं और जिससे शुभाशुभ का शकुन और फल जाना जाता है ।

कर्मद्बादश
संज्ञा० स्त्री० [सं०] पौष शुक्ला द्बादशी । इसी तिथि को कूर्मावतार का होना माना जाता है ।

कुमपुराण
संज्ञा० पुं० [सं०] अठारह मुख्य पुराणों में से एक ।

कूर्मपृष्ठ
संज्ञा० पुं० [सं०] १. कछुए की पीठ । २. वह स्थल जो कछए की पीठ तरह ऊँचा नीचा हो । ३. बाणपुष्प या अम्लान नामक वृक्ष । ४. तश्तरी या किसी वस्तु का ढक्कन (को०) ।

कूर्ममुद्रा
संज्ञा० स्त्री० [सं०] तांत्रिकों की उपासना में एक प्रकार की मुद्रा जिसमें एक हथेली दूसरी हथेली पर इस प्रकार रखते हैं कि कछुए की आकृति वन जाती है ।

कुर्मराज
संज्ञा० पुं० [सं०] १. विष्णुका कूर्मावतार । २. बहुत बड़ा कछुवा [को०] ।

कूर्मा
संज्ञा० स्त्री० [सं०] एक प्रकार की वीणा ।

कूर्मासन
संज्ञा० पुं० [सं०] योग में एक आसन का नाम । इसमें दोनों पैरों को तले ऊपर रखकर एँड़ियों से गुदा को दबाकर घुटनों के बल खड़ा होना पड़ता है ।

कूर्मिका, कूर्मी
संज्ञा० स्त्री० [पुं० कूर्मिका] एक प्रकार का बहुत प्राचीन बाजा, जिसमे बजाने के लिये तार लगे होते थे ।

कूलंकष
वि० [सं० कूलङ्कष] तट को छूनेवाला [को०] ।

कूलंकष
संज्ञा० पुं० १. नदी की धारा या प्रवाह । २. समुद्र । सागर [को०] ।

कूलंकषा
संज्ञा० स्त्री० [सं० कूलङ्कषा] सरिता । नदी [को०] ।

कूलंज
संज्ञा० पुं० [अ०] आँत का दर्द । अँताड़ियों की पीड़ा [को०] ।

कूल
संज्ञा० पुं० [सं०] १. किनारा । तट । तीर । यौ०— कूलवती = नदी । २. सेना के पींछे का भाग । ३. समीप । पास । ४. बड़ा नाला । नहर । ५. तालाब । ६. ढूहा टीला (को०) ।

कूलक
संज्ञा० पुं० [सं०] १. तट । किनारा । २. बल्मीक । बाँली ३. ढूह । टीला [को०] ।

कूलचर
संज्ञा० पुं० [सं०] आय़ुर्वेद के अनुसार नदी किनारे विचरनेवालै हायी, भैस, हिरन, सूर आदि पशु ।

कूला
संज्ञा० पुं० [सं० कुल्या] [स्त्री० कुलिया] १. वह छोटा माला जो किसी नदी नाले आदि में से पानी लाने के लिये खोदा गया हो । छोटी नहर । २. दे०'कूल्हा' ।

कूलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीणा या सितार के नीचे का भाग ।

कूलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी ।

कूली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बहुत छोटी मछली जो दक्षिण भारत की नदियों में होती है ।

कूलेचर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूलचर' ।

कूल्हना †
क्रि० अ० [सं० कुन्थ = क्लेश] पीड़ा्सूचक शब्द करना । काँखना । कराहना ।

कूल्हा
संज्ञा पुं० [सं० क्रोड़ = कोड़, कोल अथवा देश०] १. कोख के नीचे, कमर में पेड़ के दोनों ओर निकली हुई हड़िडयाँ । मुहा०—कूल्हा उतरना या सरकना = गिरने या किसी प्रकार का आघात लगने के कारण कूल्हे का अपने स्थान से हट जाना । कूल्हा मटकाना = चूतड़ मटकाना । २. कुश्ती का एक पेच, जिसमें पहलवान सामने खड़े हुए विपक्षी की पीठ पर दाहिनी तरफ से अपना दाहिना हाथ ले जाकर उसका दाहिना जाँघिया पकड़ता है और अपने बाएँ हाथ से से लाद कर सामने चित गिराना है ।

कूल्ही
संज्ञा स्त्री० [देश०] पीतल (सोनारों की बोली) ।

कूवत
संज्ञा स्त्री० [अ कूवत] शक्ति । बल । जोर । ताकत । यौ०— कूवतेजिस्मानी = शारीरिक शक्ति । कूवतेबाजू = भुजबल । कूवतेबाह = रतिकर्म की शक्ति । कुवते रूहानी = आत्मबल । मनोबल ।

कूवर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रथ का वह भाग जिसपर जूआ बाँधा जाता है । युगंधर । हरसा । उ०— किए हेमदंड़न पै मंड़न विचित्र चित्र, बने कीर मोर चार ओर मनभावते । कूवर अनूप रूप छतरी छजत तैसै, छज्जन में मोती लटकत छवि छावते ।—(शब्द०) । २. रथ में रथिक के बैठने का स्थान । ३. कुबड़ा । ४. कुब्जक । कूजा । कूल ।

कूवर (२)
वि० मनोहर । सुंदर ।

कूवार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूपार' [को०] ।

कूश्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के हवनीय देवता ।

कूष्मांड़
संज्ञा पुं० [सं० कूष्माण्ड़] १. कुम्हड़ा । २. पेठा । ३. वैदिक काल के एक ऋषि । ४, एक प्रकार के पिशाच जो शिव के गण हैं । ५. बाणासुर का प्रधान मंत्री ।

कूष्मांड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० कूष्माणडा] नौ दुर्गा में चौथी दुर्गा । दुर्गा का एक रूप ।

कूष्मांड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० कूष्माण्ड़ी] १. दुर्गा । २. यजुर्वेद का एक ऋचा० जिसके द्रष्टा कूष्मांड़ ऋषि थे ।

कूसल
संज्ञा पुं० [सं० कुश] एक प्रकार की घास जिसके डंठलों का झाड़ बनता है ।

कूह पु
संज्ञा स्त्री० [कूक] १. चिग्घाड़ । हाथी की चिक्कार । २. चीख । चिल्लाहट । उ०— संभु सतावत है जग को हैं ।कठोर महा सब को मग तूरत । कूह कै कै कर मारै कहीं लखि कुंभन वारन छारन पूरत ।—शभुनाथ (शब्द०) ।

कूहा †
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुहरा' ।

कूही
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाज की जाति की एक प्रकार की शिकारी चिड़िया । कुही ।

कृंतत्र
संज्ञा पुं० [सं० कृन्तत्र] १. खंड । भाग । विभाग । २. टुक़ड़ा । चिप्पी ३. हल [को०] ।

कृंतन
संज्ञा पुं० [दे० कुन्तन] काटना । कतरना । र्खड़ खंड़ करना । टुकड़े टुकड़े करना [को०] ।

कृंतनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कृन्तनिका] १. कतरनी । कैंची । २. छोटा चाकू [को०] ।

कृतनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कृन्तने] दे० 'कृंतनिका' [को०] ।

कृक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रीवा । गला । २. नाभि [को०] ।

कृकण
संज्ञा पुं० [पुं०] १. एक प्रकार का तीतर । २. एक कीड़ा । ३.शिव का एक नाम [को०] ।

कृकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मस्तक की वह वायु जिसके वेग से छींक आती है । १. शिव । ३. चाव । चव्य । ४. एक प्रकार का पक्षी । ५. कनेर का पेड़ा ।

कृकल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृकर' ।

कृकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी पीपर [को०] ।

कृकलास
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट ।

कृकवाकु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मयूर । २. मुर्गा । ३. छिपकली [को०] ।

कृकाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंध और गले का जो़ड़ । घाँटी । उ०— सुगढ़ पुष्ट उन्नत कृकाटिका कबु कंठ सोभा मन मानति ।— तुलसी (शब्द०) ।

कृच्छ
वि० [सं कृच्छा = कष्टसाध्य] १. कष्टसाध्य । उ०— तेज के प्रताप गात कृच्छहू लखात नीको दिपत चढ़ायों सान हीरा जिमि छीनी है ।— शकुंतला० पृ० ११० ।

कृच्छ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कष्ट । दु?ख । २. पाप ।३. मूत्रकृच्छ्र रोग । ४. कोइ व्रत जिसमें पंचगव्य प्राशान कर दुसरे दिन उपवास किया जाय । जैसे, कृच्छ्रसांतपन ।

कृच्छ (२)
वि० १. कष्टसाध्य ।२. कष्टयुक्त । ३. दुष्ट । बुरा (को०) । ४.पापी । पापात्मा [को०] ।

कृच्छपराक
संज्ञा पुं० [सं०] १२ दिन तक निराहार रहने का ब्रत ।

कृच्छातिकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] २६ दिन तक दूध पर निर्वाह करने का व्रत । विशेष—गौतम के मत से इस व्रत में दूध के स्थान पर पानी पीकर ही रहना चाहिए ।

कृत् (१)
वि० [सं०] करने या बनानेवाला । कर्ता । प्राय? समासांत में प्रयुक्त, जैसे०, ग्रंथकृत् [को०] ।

कृत् (२)
संज्ञा पुं० १. धातु के साथ मिलकर विशेषण आदि बनानेवाले प्रत्यय । २. उक्त प्रत्ययों के योग से बना हुआ शब्द [को०] ।

कृत (१)
वि० [सं०] १. किया हुआ । संपादित । २. बनाया हुआ । रचित । जैसे—तुलसीकृत रामायण । ३. संबंध रखनेवाला । तत्संबंधी । उ०— फूले काँस सकल महि छाई । जनु बरषा । कृत प्रगट बुढाई ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—यहाँ 'कृत' संबंध विभक्ति 'का' के स्थान पर आया है ।

कृत (२)
संज्ञा पुं०, [सं०] १. चार युगों में से पहला युग । सतयुग । २. पंद्रह प्रकार के दासों में से एक । वह दास जिसने कुछ नियत काल तक सेवा करने की प्रतिज्ञा की हो । ३. एक प्रकार का पासा, जिसमें चार चिह्वन बने होते हैं । ४. चार की संख्या । ५. फल । परिणाम । ६. उद्देश्य । लक्ष्य । ७. उपकार । उ०—कृत चित चकोर कछूक धरौ । सिय देहु बताय सहाय करौ ।—राम० चं० पृ०, ७९ । ८. कर्म । काम । कृत्य । उ०—रोवत समुझि कुमातु कृत, मीजि हाय धुनि माथ ।—तुलसी ग्र०, पृ०, ७४ ।९. सेवा । लाभ (को०) । १०. युद्ध में प्राप्त धन या इनाम (को०) । ११. देवता या संमानित व्याक्तिको आर्पित वस्तु । भेंट (को०) ।

कृतक (१)
वि० [सं०] १. किया हुआ । २. अनित्य । नैसर्गिक का उलटा (न्याय) । ३. कृत्रिम । फरजी । बनावटी । ४. कल्पित । दिखावटी । उ०— ये राज्य, प्रजा ,जन, साम्य तंत्र, शासन चालन के कृतक यान । —युगांत, पृ०, ६०, ।५. दत्तक । गोद लिया हुआ (को०) । यौ०— कृतकपुत्र = दत्तक पुत्र ।

कृतक (२)
संज्ञा पुं०, एक प्रकार का नमक । विटूलवण [को०] ।

कृतकर्मा (१)
वि० [सं० कृतकर्मन्] १. जो अपना काम सिद्ध कर चुका हो । सफलताप्राप्त । कामयाब । २. चतुर । प्रवीण । कुशल ।

कृतकर्मा (२)
संज्ञा पुं०, १. तोनों ऋणों (ऋषि, देव और पितृ) से युक्त संन्यासी । २. परमेश्वर ।

कृतकाम
वि० [सं०] जिसकी कामना पूरी हो गई हो ।

कृतकारज पु
वि० [सं० कृतकार्य] दे० 'कृतकार्य' ।

कृतकार्य
वि० [सं०] जिसका प्रयोजन सिद्ध हो चुका हो । सफल— मनोरथ । कामयाब ।

कृतकाल
संज्ञा पुं०, [सं०] विशिचत समय । निर्धारित काल [को०] ।

कृतकालदास
संज्ञा पुं०, [सं०] वहु दास जिसने कृछ ही समय के लिये अपने को दास अनाया हो ।

कृतकृत पु
वि० [सं० कृतकृत्य] दे० 'कृतकत्य' । उ०—हौं तो कृतकृत ह्वैगयो इनके दर्शन मात्र । —नंद० ग्रं०, पृ०, १५६ ।

कृतकृत्य
वि० [सं०] जिसका काम पूरा हो चुका हो । कृतार्थ । सफलमनोरथ । जैसे—इस आपके दर्शन से कृतकृत्य हो गए । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्राय; आदर, संमान, श्रद्धा आदि सूचित करने में होता है ।

कृतक्रय
संज्ञा पुं० [सं०] क्रय करनेवाला व्यक्ति । खरीददार [को०] ।

कृतक्षण
वि० [सं०] १. निर्धारित समय की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करनेवाला । २. सुप्रवसर पानेवाला । सुयोगप्राप्त [को०] ।

कृतघन पुं०
वि० [सं० कृतइन] दे० 'कृतघ्न' । उ०— संकट परैं तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं । कोटिक करै एक नहि मानै सूर महा कृतघन कौ० ।—सूर० १ ।९ ।

कृतघ्न
वि० [सं०] किए हुए उपकार को न माननेवाला । अकृतज्ञ । नमकहराम ।

कृतघ्नता
संज्ञा स्त्री०, [सं०] किए हुए उपकार को मानने का भाव । अकृतज्ञता । नमकहरामी ।

कृतघ्नताई पु
संज्ञा स्त्री, [सं० कृतघ्नता+हिं० ई (प्रत्य०)] । दे० 'कृतघ्नता' ।

कृतघ्नी पु †
वि० [सं० कृतघ्न+हि० ई (प्रत्य०)] दे० 'कृतघ्न' । २. मुक्तिदाता । कर्मनाश करनेवाला । बंधन से छुड़ानेवाला । उ०— कृतघ्नी कुहाता कुकन्याहि चाहै ।—राम चं, पृ०, ९६ ।

कृतज्ञ (१)
वि० [सं०] [संज्ञा रृतज्ञता] किए हुए उपकार को मानने वाला । एहसान माननेवाला ।जैसे,—यह कार्य कर दीजिए, तो हम आपके बड़े कृतज्ञ होंगे ।

कृतज्ञ (२)
संज्ञा पुं० कुत्ता । श्वान [को०] ।

कृतज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] किए हुए उपकार को मानने का भाव । निहोरा मानना । एहसानमंदी ।

कृततीर्थ
वि० [सं०] १. जो तीर्थस्थानों में भ्रमण कर चुका हो । २. अध्यापन वृतिवाले अध्यापक से शिक्षा प्राप्त करनेवाला । ३. जिसे तरकीब खूब सूझती हो । ४. पथप्रदर्शक । ५. सरल किया हुआ [को०] ।

कृतदंड़
संज्ञा पुं० [सं० कृतदण्ड़] यमराज । उ०— गोपन सखा भाव करि देखे, दुष्ट नृपति कृतदंड़ । पुत्र भाव बसुदेव देवकी, देखे नित्य अखंड़ ।—सूर (शब्द०) ।

कृतधी
वि० [सं०] १. दूरदशी । २. विद्बान । शिक्षित । ज्ञानवान् [को०] ।

कृतर्निदक
वि० [सं० कृतनिन्दक] कृतघ्न । नाशुकरा । नमकहराम । उ०—जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ । सो कृत- निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ।—मानस, ७ । ४४ ।

कृतनिश्चय
वि० [सं०] जिसने दृढ़ निश्चय कर लिया हो । कृत संकल्प । दृढ़प्रतिज्ञ [को०] ।

कृतपूखं
वि० [सं० कृतपुङ्ख] बाणविद्या या धनुर्विद्या में कुशल [को०] ।

कृतपूर्व
वि० [सं०] पहले किया हुआ । पूर्वत? संपन्न [को०] ।

कृतप्रतिज्ञ
वि० [सं०] जिसने प्रतिज्ञा कर ली हो [को०] ।

कृतफल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सफल [को०] ।

कृतफल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शीतल चीनी । २. कोलशिंवी । सुअरा सेम ।

कृतम पु
वि० [सं० कृत्रिम] दे० 'कृत्रिम' । —आतम मौहै ऊपजै दादू पंगुल ज्ञान । कृतम जाइ उलंधि करि, जहाँ निरंजन थान ।—दादू०, पृ० ५ ।

कृतबुद्बि
वि० [सं०] दे० 'कृतधी' [को०] ।

कृतमाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमिलतास । २. चितकबरा सृग । धब्बेदार हिरन (को०) । ३. कसौंदा का एक भेद । कासमर्द (को०) ।

कृतमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्षिण (द्रविड़) देश की एक छोटी नदी, जिसके जल के पान का माहात्म्य भागवत में लिखा है ।

कृतमुख
संज्ञा पुं० [सं०] पंडित ।

कृतयुग
संज्ञा पुं० [सं०] सतयुग ।

कृतवर्मा
संज्ञा पुं० [सं० कृतबर्मन्] १. राजा कनक का पुत्र ओर कृतवीर्य का भाई । २. ह्वदिक का पुत्र । ३. जैन मतानुसार वर्तमान अवसर्पिणी के तेरहवें अर्हतू के पिता ।

कृतविदूषण संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० कृतविदूषण सन्धि] कौटिल्य के अनुसार शत्रु के बागियों या अपने गुप्तचरों द्बारा यह सिद्ध करके कि शत्रु ने संधिभंग किया है, संधिभंग करना ।

कृतविद्य
वि० [सं०] जिसे विद्या का अभ्यास हो । जानकर । उ०— हुआ रूप दर्शन जब कृतविद्य तुम मिले ।—अपरा, पृ० १४१ ।

कृतवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा कनक का पुत्र और कृतवर्मा का भाई । २. सहस्रार्जुन का पिता (को०) ।

कृतवेदी
वि० [सं० कृतवेदिन्] उपकार माननेवाला । कृतज्ञ ।

कृतवेश
वि० [सं०] सुसज्ज । विभूषित [को०] ।

कृतशुल्क
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार (माल) जिसपर चुंगी दी जा चुकी हो ।

कृतशोभ
वि० [सं०] १. शानदार । २. सुंदर । ३. पटु । चतुर । दक्ष [को०] ।

कृतशौच
वि० [सं०] पवित्र । शुद्ध किया हुआ । २. जिसने स्नानादि नित्यकर्म कर लिया हो [को०] ।

कृतश्लेषण संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० कृतश्लेषण सन्धि] कौटिल्य के अनुसार वह पक्की संधि जो मित्रों को बीच में ड़ालकर की जाय और जिससे युद्ब या विग्रह की संभावना न रह याज ।

कृतसंकल्प
वि० [सं० कृतसङ्कल्प] दे० 'कृतनिश्चय' [को०] ।

कृतसंज्ञ
वि० [सं०] १. होश में लाया हुआ । चेतनाप्राप्त । २. उद्बबोधित । जगाया हुआ । ३. पैनी बुद्बिवाला । तीक्षण- बुद्बि [को०] ।

कृतसापत्सी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके पति ने उसके जीवन- काल में ही दूसरा विबाह कर लिया हो ।

कृतहस्त
वि० [सं०] १. किसी काम के करने में होशियार । चतुर । कुशल । २. बाण चलाने में निपुण ।

कृतांक (१)
वि० [सं० कृताङ्क] १. चिह्वित । दागी । २. संख्यांकित ।

कृतांक (२)
संज्ञा पुं० पासे का वह भाग जिसपर चार बिंदु हों [को०] ।

कृतांजलि (१)
वि० [सं० कृताञ्जलि] हाथ जोड़े हुए । हाथ बाँधे हुए ।

कृतांजलि (२)
संज्ञा स्त्री० लाजवंती । लजाधुर ।

कृतांत (१)
वि० [सं० कृतान्त] १. समाप्त करनेवाला अंत करनेवाला ।

कृतांत (२)
संज्ञा पुं० १. यम । धर्मराज । यौ०—कृतांतजनक = सूर्य । कृतांतपुर = यमलोक । कृतांतभ- गिनी = यमुना । २. पूर्व जन्म में किए हुए शुभ और अशुभ कमों का फल । ३. सिद्धांत । ४. मृत्यु । ५. पाप । ६. शनिवार । ७. देवतामात्र । ८. भरणी नक्षत्र । ९. दो की संख्या । १०. शनि ग्रह [को०] ।

कृतांता
संज्ञा स्त्री० [सं० कृतान्ता] रेणुका नाम का गंध द्रव्य ।

कृताकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. किया और बिना किया हुआ । २. अधुरा काम । ३. कार्य और कारण । ४. सोना और चाँदी । ५. वह हव्य द्रव्य जो कच्चा और अपक्व हो । जैसे—कच्चे चावल आदि ।

कृतागम (१)
वि० [सं०] प्रवीण । समर्थ । कुशल [को०] ।

कृतागम (२)
संज्ञा पुं० परमात्मा । व्रह्मा [को०] ।

कृतात्मा
संज्ञा पुं० [सं० कृतात्मन्] वह मनुष्य जिसकी आत्मा शुद्ध हो । महात्मा ।

कृतात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य दर्शन के अनुसार भोग द्बारा कर्मो का नाश । विशेष—सांख्य का मत है कि एक बार जो कर्म उत्पन्न होता है वह बिना भोग किए हुए नष्ट नहीं होता । यद्यपि ज्ञान उत्पन्न होने पर कर्म का अंत हो जाता है और नए कर्म की उत्पत्ति नहीं होती, पर इससे पहले का किया हुआ कर्म बिना भोग किए नष्ट नहीं हो सकता । इसीलिये मुक्त पुरुष की दो अवस्थाएँ होती हैं—जीवन्मुक्ति और विदेहकैवल्य । ज्ञान उत्पन्न होने पर मनुष्य के कर्मों का अंत हो जाता है और उसे जीवन्मुक्ति मिलती है । लेकिन पूर्वसंचित या प्रारब्ध कर्म का फल भोगने के लिये या तो मुक्त पुरुष का शरीर विद्यमान रहता है और या उसे पुन? शरीर धारण करना पड़ता है । इसी अवस्था में फल भोगकर कर्म की जो समाप्ति की जाती है उसे 'कृतात्यय' कहते है । विदेहकैवल्य इसके बाद मिलता है ।

कृतान्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकाया हुआ अन्न । २. (भोजन के बाद) पचाया हुआ अन्न ।

कृतापराध
वि० [सं०] दोषी । अपराधी । मुजरिम [को०] ।

कृताभिषेक
वि० [ सं०] (राजा) जिसका अभिषेक हो चुका हो [को०] ।

कृतायास
वि०[ सं० कृत + आयास] १. परिश्रम करनेवाला । २. कष्ट उठानेवाला [को०] ।

कृतारथ
संज्ञा पुं० [सं० कृतार्थ] दे० 'कृतार्थ' । उ०—(क) माइ है जनम कृतारथ भेला ।—विद्यापति, पृ०, १९२ । (ख) हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेंहु । —मानस, २ । २४९ ।

कृतार्घ
संज्ञा पुं० [सं०] गत अवसर्पिणी के १९ वे अर्हत् का नाम ।

कृतार्थ
वि० [सं०] १. जिसका अभिप्राय पूरा हो चुका हो । जो अपने सब काम कर चुका हो । कृतकृत्य । सफल मनोरथ । २. संतुष्ट । ३. कुशल । निपुण । होशियार । ४. जो मुक्ति प्राप्त कर चुका हो ।

कृतालक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक अनुचर ।

कृतालय (१)
वि० [सं०] जिसने कही घर बना लिया हो । घर बना लेनेवाला [को०] ।

कृतालय (२)
संज्ञा पुं० १. मेढक । मंड़ूक । २. कुत्ता [को०] ।

कृतावधि
वि० [सं०] १. जिसकी समयसीमा निश्चित हो । निश्चित समय का । २. सीमित [को०] ।

कृतास्त्र
वि० [सं०] १. अस्त्रवाला । शस्त्रास्त्रायुक्त । २. अस्त्र के प्रयोग में कुशल [को०] ।

कृतह्वान
वि० [सं० कृत+आह्नान] जिसे पुकारा वा ललकारा गया हो [को०] ।

कृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. करतूत । करनी । २. कार्य । काम । ३. आघात । क्षति ४. इंद्रजाल । जादू । ५. गणित में दो समान अकों का घात । वर्गसंख्या । ६. डाकिनी । ७. अनुष्टुप जाति का एक छंद, जिसमें बीस बीस अक्षरों के चार चरण होते है । जैसे—रोज रोज राज गैल तें गुपाल खाल तीन सात । वायु सेवनार्थ प्रति बाग जात आब लै सुफूल पात । लाय कै धरे सबै सुफल पात मोदयुक्त मातु हात । धन्य मान मातु बाल वुत्त देखि हर्ष रोम रोम गात ।—(शब्द०) । ८. बीस की संख्या । ९ . कटारी । १०. रचना (को०) । ११. चाकू । छुरी (को०) । १२. मारण । वध । हनन (को०) ।

कृति (२)
संज्ञा पुं० विष्णु ।

कृतिकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. (बीस हाथवाला) रावण । २. जादूगर (को०) ।

कृतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कृत्तिका] दे० 'कृत्तिका' ।

कृतिकार
संज्ञा पुं० [सं० कृति = रचना + कार = कर्ता] गद्या पुद्य आदि में रचना करनेवाला व्यक्ति । रचनाकार । काव्यस्रष्टा । उ०— कृति का रूप कृतिकार के सामने पहले से हो उपस्थित नहीं होता ।—पा० सा० सि०, पृ०, १. ।

कृती (१)
वि० [सं० कृतिन] १. कुशल । निपुण । दक्ष । उ०— कितने कृती हुए, पर किसने इतना गौरव पाया है ।?—साकेत, पृ० ३७२ । २. साधु । ३. पुण्यात्मा । ४. कृतकार्य । सफल (को०) । ५. सौभाग्यशाली । भाग्यवान् (को०) । ६. अनुवर्त्ता । आज्ञाकारी (को०) ।

कृती (२)
संज्ञा पुं० च्यवन के पुत्र और उपरिचर वसु के पिता का नाम ।

कृतु पु
संज्ञा पुं० [सं०क्रतु] दे० 'क्रतु' । उ०—लगति है जाइ कंठ नाग दिगपालन के, मेरे जान सोई कृतु कीरति तिहारी को । —केशव ग्रं०, भा०, १. पृ०, १५३ ।

कृतोत्साह
वि० [सं०] १. उत्साहयुक्त । २. परिश्रमी । उद्योगी [को०] ।

कृतादक
वि० [सं०] नहाया हुआ । स्नात [को०] ।

कृतोद्बाह
वि० [सं०] जिसका विवाह हो चुका हो । विवहित [को०] ।

कृत्त
वि० [सं०] १. छिन्न । विभक्त । कटा हुआ । २. इच्छित । आकांक्षित [को०] ।

कृत्तम पु †
बि० [सं० कृत्रिम] दे० 'कृत्रिम' । उ०—नाँ मैं कृत्तम कर्म बखानौ । नां रसूल का कलमा जानों । —सुंदर० ग्र०, भा०, १. पृ०, ३०३ ।

कृत्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृगचर्म । २. चमड़ा । खाल । ३. भोजपत्र । ४. कृत्तिका नक्षत्र । ५. भूर्ज वृक्ष (को०) । ६. गृह । मकान (को०) ।

कृत्ति (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कृत्य] दे० 'कृत्य' । उ०— तदपि केई तजि तजि सब कृत्ति । निर्मल करत चित्त की वृत्ति । —नंद० ग्र०, पृ०, २६९ ।

कृत्तिकांजि
संज्ञा पुं० [सं० कृत्तिकाञ्जि] वह शकटाकार तिलक जो अशमेध यज्ञ में घोड़े को लगाया जाता था ।

कृ्त्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सत्ताईस नक्षत्रों में से तीसरा नक्षत्र । विशेष—इस नक्षत्र में छह तारे हैं, जिनका संयुक्त आकार अग्निशिखा के समान होता है । य़ह चंद्रमा की पत्नी और कार्तिकेय का पालन करनेवाली मानी जाती है और इसको आधिष्ठात्री 'अग्नि' है । यौ०— कृत्तिकातय—कृत्तिकापुत्र । कृ्त्तिकासुत = कार्तिकेय । २. छकड़ा । बैलगाड़ी ।

कृत्तिवास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृत्तिवासा' ।

कृत्तिवासा
संज्ञा पुं० [सं० कृतिवासस्] शिव । महादेव । विशेष—महादेव । जो ने गजासुर को मारकर उसकी खाल ओढ़ ली थी, इसी से उनका यह नाम पड़ा ।

कृत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्त्तव्य कर्म । वेदविहित आवश्यक कार्य । विशेष—बौद्धों के मत से ज्ञानानुसार कृत्य प्रकार के होते है । यथा—(१) प्रतिसंधि, (२) भवांग, (३) आवर्जन, (४) दर्शन, (५) श्रवण (६) घ्राण, (७) शयन, (८) स्पर्श, (९) संप्रतिच्छन, (१०) संतीर्ण, (११) उत्थान, (९ २) गमन, (१३) तदालंबन और (१४) च्युति, इसके अतिरिक्त काला- नुसार उन्होंने इसके पाँच और भेद किए है—(१) पूर्व भाक्त कृत्य, (२) पश्चात्भाक्त कृत्य, (३) प्रथमयाम कृत्य, (४)ट मध्यमयाम कृत्य और (५) पश्चिमयाम कृत्य जैनियों के अनुसार कृत्य छह प्रकार के होते है । —(१) दिनकृत्य (२) रात्रिकृत्य, (३) पर्वकत्य, (४) चातुमास्यि कृत्य, (५) संवत्सर कृत्य और (९) जन्मकृत्य । २. भूत, प्रेत, य़क्षादि जिनका पूजन अमिचार के लिये होता है । ३. कार्य । व्यवसाय । कर्म (को०) । ४. प्रयोंजन । लक्ष्य । उद्देश्य । कारण (को०) । ५. कर्मवाच्य कृदंत के चार प्रत्यय अनोय, एलिम, तव्य और य (को०) ।

कृत्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जो हत्या आदि बड़े बडें भयंकर कार्य़ कर सकती हो । २. चुड़ै़ल । ड़ाकिनी (को०) ।

कृत्यकृत्य पु
वि० [सं० कृतकृत्य] दे० 'कृतकृत्य' । उ०— तदपि तनक अभिमान के साथ । हम सब कृत्यकृत्य भए नाथ ।—नंद० ग्र० प०, २७२ ।

कृत्यम पु †
वि० [सं० कृत्रिम, प्रा० कित्तिम] दे० 'कृत्रिम' । उ०— कृत्यम घट कला नाही, सकल रहित सोई । दादू निज अगम निगम, दूजा नहि कोई ।—दादू० प०, ५२० ।

कृत्यवाह
संज्ञा पुं० [सं०] करणीय कार्य को संपन्न करनेवाला [को०] ।

कृत्यविद्
वि० [सं०] कर्तव्य कर्म जाननेवाला । कर्तव्य में चतुर । कुशल । निपुण ।

कृत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तंत्र के अनुसार एक राक्षसी, जिसे तांत्रिक लोग अपने अनुष्ठान से उत्पन्न करके किसी शत्रु को विनष्ट करने के लिये भेजते हैं । यह बहुत भयंकर मानी जाती है । इसका वर्णन वेदों तक में आया है । २. अभिचार । ३. काम । कर्म (को०) । ४. जादू (को०) । ५. दुष्टा या कर्कशा स्त्री । यौ०— कत्यादूषण ।

कृत्याकृत्य
वि० [सं०] करने और न करने योग्य काम । भला और बुरा काम ।

कृत्यादूषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कृत्य जो कृत्या के प्रतिकार के लिये किया जाता है । २. एक प्रकार की ओषधि जिससे कृत्या के दोष का निवारण होता है, ३. अगिरम वंश के एक ऋषि, जो कृत्या के दोष का निवारण किया करते थे ।

कृत्यार पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृत्या] क्रिया । उ०— हंस कहैं नृप राज विचारं जो पूछौ कारन कृत्यारं । —पृ० रा०, २5 । १६5 ।

कृत्रिम (१)
वि० [सं०] १. जो असली न हो । नकली । बनावटी । जाली । २. बारह प्रकार के पुत्रों में से एक । विशेष—पुत्रामिलाषी पुरुष यदि किसी माता—पिता—हीन बालक को धन संपत्ति का लोभ दिखाकर उससे अपना पुत्र बनना स्वीकार कराके उसे पुत्रवत् अपने संग रखे तो वह बालक उस पुरुष का कृत्तिम पुत्र कहलाएगा ।

कृत्रिम (२)
संज्ञा पुं० १. काच लवण । कचिया नीन । २. जवादि गंधद्रव्य । ३. रसौत । रसांजन ।

कृत्रिम अरिप्रकृति
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजा जो किसी दूसरे को विजेता के विरुद्ध भड़काता हो ।

कृत्रिमधूप
संज्ञा पुं० [सं०] दशांगादि धूप जो अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्यों की मिलाकर बनाया जाता है ।

कृत्रिमपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुत्र जो माता पिता की सहमति के बिना गोद लिया गया हो [को०] ।

कृत्रिमभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह चबूतरा जो किसी मकान या इमारत के नोचे उसे सीड़ आदि से बचाने के लिये बनाया जाता है । कृर्सी ।

कृत्रिमपुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] गुड़ड़ा । गुडुवा [को०] ।

कृत्रिम मित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह मित्र जिसके साय किसी उपकार आदि के कारण मित्रता स्थापित हो । शास्त्रों में ऐसा मित्रओर प्रकार के मित्रों से श्रष्ठ माना गया है ।

कृत्रिम मित्रप्रकृति
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजा जो धन तथा जीवन के हेतु मित्र बन गया हो ।

कृत्रिमवन
संज्ञा पुं० [सं०] उपवन । उद्यान । बगीचा [को०] ।

कृत्रिमाराति प्रकृति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृत्रिम अरिप्रकृति' ।

कृत्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल । २. भीड़ । समूह । ३. कलुष । पाप । अघ । [को०] ।

कृत्स्न (१)
वि० [सं०] संपूर्ण । सब । पूरा [को०] ।

कृत्स्न (२)
संज्ञा पुं० १. जल । २. उदर । कुक्षि [को०] ।

कृदंत
संज्ञा पुं० [सं० कृदन्त] वह शब्द जो धातु में कृतु प्रत्यय लगने से बने । जैसे,—पाचक, नंदक, नंदन, भुक्त, भोक्तव्य, भोक्ता आदि ।

कृप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैदित काल के एक राजर्षि का नाम । २. दे० कृपाचार्य ।

कृपण (१)
वि० [सं०] [संज्ञा कृपणता] १. कंजूस । सूम । अनुदार । कदर्य । २. क्षुद्र । नीच । ३. विवेकरहित (को०) । ४. गरीब । दयनीय । अभागा (को०) ।

कृपण (२)
संज्ञा पुं० १. अनुदार या सूम व्यक्ति । २. प्रकार का कीट । ३. बुरी हालत । दुर्दशा [को०] ।

कृपणाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंजूसी । २. दीनता । दैन्य (को०) ।

कृपणाधी
वि० [सं०] क्षद्रबुद्धि ।

कृपणी
वि० [सं० कृपणिन्] दुःखी । विपन्न । दयनीय [को०] ।

कृपन पु
संज्ञा पुं० [सं० कृपण] दे० 'कृपण' । उ०— मींजि हाथ सिरु धुनि पछिताई । मनहु कृपन धन रासि गँवाई ।—मानस, २ । १४४ ।

कृपनाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपण + हि० आई (प्रत्य०)] कृपणता । कंजूसी । उ०— दानि कहाउब अरु कृपनाई । होई कि खेम कुशल रौताई ।—मानस, २ । ३5 ।

कृपनु पु
वि [हिं०] दे० 'कृपण' । उ०— कृपनु देइ, पाइय परो, बिन साधन सिधि होइ— तुलसी ग्रं, पृ०, .६ ।

कृपया
क्रि० वि० [सं०] कृपापूर्वक । अनुग्रहपूर्वक । जैसे—कृपया हमारा यह काम करदीजिए ।

कृपाँन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपाण] दे० 'कृपाण' । उ०— दाँत कृपाँन विधाँन अखिल भूपति मन मोहै । —ह० रासो, पृ०, १३ ।

कृपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि०कृपालु] १. बिना किसी प्रतिकार की आशा के दुसरे की भलाई करने की इच्छा या वृत्ति । अनुग्रह । दया । मेहरबानी । यौ०— कृपादृष्टि = दया की दृष्टि । कृपानिकेत = दे०'कृपायतन' । कृपापात्र, कृपाभाजन = दया का पात्र । दया के योग्य । कृपायतन = दया के निवास । दयालु । कृपासिंधु = कृपा के सागर (भगवान्) । २. क्षमा । माफी । जैसे—जो कुछ हो गया, सो हो गया; अब कृपा करो ।

कृपाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] गौतम के पोत्र और शरद्बत् के पुत्र । अश्वत्थामा के मामा । विशेष—इनकी बहन कृपा से द्गौणाचार्य का विवाह हुआ था । ये धनुर्विद्या में बड़े प्रविण थे । द्रोणाचार्य की भाँति इन्होंने भी कौरवों और पाँड़वों को अस्त्रशिक्षा दी थी । कुरुक्षेत्र के युद्ब में ये कौरवों की ओर से लड़े थे; पर युद्ब समाप्त होने पर युधिष्ठिर के यहाँ रहने लगे थे । राजा परीक्षित् को भी इन्होंने अस्त्रविद्या सिखाई थी ।

कृपाण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० कृपाणी] १. तलवार । २. कटार । ३. दंड़क वृत्त का एक भेद । विशेष—यह छंद ३२ वर्णों का होता है । आठ आठ वर्णा पर यति होती है । इसमें ३१ वाँ वर्ण गुरु और ३२वाँ लघु होता है । यतियों पर अनुप्रासों का मिलान और अंत में 'निकार' का होना इस छंद की जान है । उ०— चली ह्वँ कै विकराल, महा कालहू को काल, किये दोऊ दुग लाल, धाय रण समुहान । तहाँ लागे लहरान, निसिचरहू पराव, वहाँ कालिका रिसान, झुकि झारी किरपान ।

कृपाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. तलवार । २. कटार ।

कृपाणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी तलवार । २. कैटारी ।

कृपाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी तलवार । २. कैंची । कतरनी (को०) । ३. कटारी या बर्छी (को०) ।

कृपान पु
संज्ञा पुं० [सं० कृपाण] तलवार । छुरी । कटारी । उ०— रिष्ट कुसेय कृपान असि मंड़लाग्र करवाल ।—अनेकार्थ०, पृ०, २६ ।

कृपापात्र
संज्ञा पुं० [सं० कृपा + पात्र] वह व्यक्ति जिसपर कृपा हो । कृपा का अधिकारौ । जैसे—आप उनके बड़े कृपापात्र हैं ।

कृपायतन
संज्ञा पुं० [सं०] कृपा के भवन । कृपा के भांडार । अत्यंत कृपालु । उ०—तो में जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ ।— मानस, १ । ६१ ।

कृपाल पु †
वि० [सं० कृपालु] दे० 'कृपालु' उ०— सत्यवद सत्यस्व- रूप सत्यप्रतिज्ञ पूरन कृपाल ।— घनानंद, पृ०, ५०५ ।

कृपालता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपालुता] दे० 'कृपालुता' ।

कृपालु
वि [सं०] कृपा करनेवाला । दयालु । उ०— सबल जिआये सगुन सुभ सुमिरहु राम कृपालु ।—तुलसी ग्रं० पृ०, ९० ।

कृपालुता
संज्ञा० स्त्री० [सं०] दया का भाव । मेहरबानी ।

कृपासिंधु
वि० [सं० कृपासिन्धु] दयाविधि । अकारण कृपा करनेवाला (परमात्मा) । उ०— बरदायक प्रनतारति भंजन । कृपासिंधु सेवक मनरजन ।—मानस, १ । ७० ।

कृपिंण पु †
वि० [सं० कृपण] दे० 'कृपण' ।

कृर्पिणाता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपणता] दे० 'कृपणता' ।

कृपिन पु †
वि० [सं० कृपण० हिं० कृपिया] दे० 'कृपण' । उ०— कहा कृपिन की माया गनियै करत फिरत अपनी अपनी ।— सूर० १ । ३९ ।

कृपिनता पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० कृपिन+आई (प्रत्य०)] दे० 'कृपनाई' ।

कृपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपाचार्य की बहन जो द्रोणचार्य को व्याही थी और अश्वत्थामा की माता थी । यौ०—कृपीपति = द्रोणाचार्य । कृपीसुत = अश्वत्थामा ।

कृपोट
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगल की लकड़ी । २. जलाने की लकड़ी । ईँधन । ३. जल । ४. कुक्षि । उदर । पेट [को०] । यौ०— कृपीटपाल =(१)पतवार । (२) समुद्र । (३) वायु । कृपीटयोनि = अग्नि ।

कृबाल
संज्ञा स्त्री० [सं०] करवाल । तलवार । उ०— ढनंकत मूठिनु लागि कृबाल । ठनंकत ढ़ाय परे छूटि नाल ।— सुजान०, पृ०, ३४ ।

कृमि
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कृमिल] १. क्षुद्र कीट छोटा कीड़ा । २. हिरमिजी कोड़ा या मिट्टी । किरमिजी । ३. लाह ४. गदहा (को०) । ५. मकड़ा (को०) । यौ०—कृमिकोश = कुसवारी ।

कृमिकंटक
संज्ञा पुं० [सं० कृमिकण्टक] १. बायाविड़ंग । भाभी रंग । बिडंग । २. चित्रांग । ३. गूलर । उदुंबर [को०] ।

कृमिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक छोटा कीड़ा [को०] ।

कृमिकर
संज्ञा पुं० [सं०] एक जहरीला कीड़ा [को०] ।

कृमिकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कान की जूँ या कीड़ा । कान का एक रोग [को०] ।

कृमिकर्णाक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृमिकर्ण' [को०] ।

कृमिकोश
संज्ञा पुं० [सं०] रेशम के कीड़े का घर । कोया । ककून । कुसवारी ।

कृमिकोष
संज्ञा पुं० [सं०] दे०, 'कृमिकोश' ।

कृमिघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] कान के रोग की ओषधि के रूप में काम में आनेवाला पौधा । सुदर्शन [को०] ।

कृमिघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हलदी । हरिद्रा [को०] ।

कृमिज (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कृमिजा] कीड़ों से उत्पन्न ।

कृमिज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रेशम । २. अगर । ३. किरमिजी । हिरमिजी ।

कृमिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कीड़े से उत्पन्न लाल रंग । लाल [को०] ।

कृमिण
वि० [सं०] दे० 'कृमिल' [को०] ।

कृमिदंतक
संज्ञा पुं० [सं० कृमिदन्तक] दाँत की पीड़ा । दाँतों में होनेवाला रोग [को०] ।

कृमिपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] दे०, 'कृमिशैल' [को०] ।

कृमिफल
संज्ञा पुं० [सं०] उदुंबर वृक्ष । गूलर [को०] ।

कृमिभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम ।

कृमिरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] वायबिडंग का पौधा जो कृमिनाशक है [को०] ।

कृमिरोग
संज्ञा पुं० [सं०] आमाशय और पक्कश्य में केंचुए या कीड़े उत्पन्न होने का रोग ।

कृमिल
वि० [सं०] जिसमें कीड़े पड़ गए हों ।

कृमिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके बहुत लड़के पैदा होते हों । बहुप्रसवा स्त्री ।

कृमिलाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार आजमीढ़ वश का एक राजा ।

कृमिवर्णा
संज्ञा पुं० [सं०] लाल वस्त्र [को०] ।

कृमिशंख
संज्ञा पुं० [सं० कृमिषङ्ख] शंख के भीतर रहनेवाला मस्त्य [को०] ।

कृमिशत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे०, 'कृमिरिपु' [को०] ।

कृमिशुक्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीप का कीट । २. दोहरी पीठ- बाला घोंघा । ३. सीप [को०] ।

कृमिशैल
संज्ञा पुं० [सं०] वल्मीक । विमौट । बाँबी । वामी ।

कृमीलक
संज्ञा पुं० [सं०] वन्य मुद्गग । जंगली मूंग [को०] ।

कृश
वि० [सं०] १. दुबला पतला । क्षीण । २. गरीब । नगण्य (को०) । ३. अल्प । छोटा सूक्ष्म । यौ०— कुशकूट = एक प्रकार का पक्षी । कूशनास । कृशभृत्य । कूशोदरी ।

कृशता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुबलापन । दुर्बलता । क्षीणता । पतलापन । २. अल्पता । सूक्ष्मता । कमी ।

कृशताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृशता+ हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'कृशता' ।

कृशत्व
संज्ञा पु० [सं०] १. क्षीणता । दुबलापन । २. अल्पता । सूक्ष्मता । कमी ।

कृशन
संज्ञा पु० [सं०] १. मुक्ता । मोती । २. सोना । हिरण्य । ३. आकार । आकृति । गठन [को०] ।

कृशनास
संज्ञा पु० [सं०] शिव ।

कृशभृत्य
वि० [सं०] भृत्य या नौकरों को कम खाना देनेवाला ।

कृशर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कृशरा] १. तिल और चावल की खिचड़ी । २. खिचड़ी । ३. लोबिया मटर । केसारी । दुबिया ।

कृशरान्न
संज्ञा पुं० [सं०] खिचड़ी ।

कृशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर के केश । शिरोरुह [को०] ।

कृशांग (१)
संज्ञा पु० [सं० कृशाङ्ग] शिव [को०] ।

कृशांग (२)
वि० [सं० कृशाङ्ग] दुबला पतला । क्षीणकाय [को०] ।

कृशांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० कृशाङ्गी] १. दुबले पतले शरीर की युवती । तन्वंगी । २. प्रियंगु लता [को०] ।

कृशाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ऊर्णनाभ । अष्टपद । मकड़ा [को०] ।

कृशातिथि
वि० [सं०] १. अतिथियों को कम भोजन देनेवाला । २. कृपणता के कारण जिसके घर अतिथि कम आते हों [को०] ।

कृशानु
संज्ञा पु० [सं०] १. अग्नि । २. चित्रक । चीता । यौ०—कृशानानुयंत्र । कृशानुरेता ।

कृशानुयंत्र
संज्ञा पु० [सं० कृशानुयन्त्र] अग्नि यंत्र ।

कृशानुरेता
संज्ञा पुं० [सं० कृशानुरेतस्] शिव । महादेव ।

कृशाश्व
संज्ञा पु० [सं०] १. भागवत के अनुसार तृणविंदु वंश का एक राजर्षि जो संयम का पुत्र और महादेव का का बड़ा भाई था । २. दक्ष के एक जामाता । विशेष—भागवत के अनुसार इन्होंने दक्ष अर्चि और धीषणा नाम की कन्याओं से विवाह किया था । अर्चि के गर्भ से धूमकेश और धीषणा के गर्भ से देवल नामक पुत्र हुए थे । रामायण के मत से कृशाश्व ने दक्ष की जया और सुप्रभा नाम की कन्याओं को व्याहा था, जिनसे पचास पचास शस्त्रस्वरूप पुत्र हुए थे । ३. हरिवंश के अनुसार धुंधुमारवंशी एक राजा, जो नाटयशास्त्र के एक आचार्य माने जाते हैं ।

कृशाश्वी
संज्ञा पुं० [सं० कृशाश्विन] १. कृशाश्वकृत नाटयशास्त्र का पढ़नेवाला या पढ़ानेवाला । २. नाटयकला में कुशल व्यक्ति । नट ।

कृशित
वि० [सं०] दुबला पतला । दुर्बल । क्षीणकाय ।

कृशोदर
वि० [सं०] जिसका पेट बढ़ा न हो । कृश उदरवाला [को०] ।

कृशोदरी (१)
वि० स्त्री० [सं०] पतली कमरवाली (स्त्री) ।

कृशोदरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनंतमूल ।

कृषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसान । खेतिहर । काश्तकार । २. हल का फाल । ३. बैल (को०) ।

कृषाण
संज्ञा पुं० [सं०] किसान । खेतिहर । काश्तकार ।

कृषि
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० कृष्य] १. खेती । काश्त । किसानी । २. हल चलाना । जोतना बोना (को०) । ३. पृथिवी । जमीन । धरती (को०) ।

कृषिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेतिहर । किसान । २. हल का फाल ।

कृषिकर्म
संज्ञा पु० [कृषिकर्मन्] खेती का काम । किसानी [को०] ।

कृषिकार
संज्ञा पु० [सं०] किसान । खेतिहर ।

कृषिजीवी
वि० [सं० कृषिजीविन्] खेती के द्वारा जीविका उपार्जित करनेवाला (किसान) [को०] ।

कृषी (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कृषि] दे० 'कृषि' ।

कृषी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्षण भूमि । खेत [को०] ।

कृषीवल
संज्ञा पु० [सं०] किसान । खेतिहर । कृषिकार [को०] ।

कृष्कर
संज्ञा पु० [सं०] शिव । महादेव [को०] ।

कृष्ट
वि० [सं०] १. जोता हुआ । हल चलाया हुआ । उ०—उसे उचित है कि कृष्ट भूमि पर न रहे ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १३३ । २. खींचा हुआ । घसीटा हुआ ।

कृष्टपच्य
वि० [सं०] खेत में बोने से पैदा होनेवाला । खेत में पकने या तैयार होनेवाला । उ०—अन्न दो प्रकार के होते थे, कृष्ट- पच्य तथा अकृष्टपच्य ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २४८ ।

कृष्टपाक्य
वि० [सं०] दे० 'कृष्टपच्य' [को०] ।

कृष्टफल
संज्ञा पु० [सं०] खेत में पैदा होनेवाली फसल [को०] ।

कृष्टि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विद्वान् पुरुष [को०] ।

कृष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खींचना । आकृष्ट करना । २. खेत जोतना । खेत कमाना [को०] ।

कृष्टोप्त
वि० [सं०] (खेत) जोता बोया हुआ हो [को०] ।

कृष्ण (१)
वि० [सं०] १. श्याम । काल । सिपाह । २. नीला या आसमानी ३. दुष्ट । अनिष्टकर [को०] ।

कृष्ण (२)
संज्ञा पु० [स्त्री० कृष्णा] १. विष्णु के दस अवतारों में आठवाँ अवतार । यदुवंशी वसुदेव के पुत्र, जो भोजवंशी देवक की कन्या देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । विशेष—उस समय देवक के भाई राजा उग्रसेन का पुत्र कंस अपने पिता को कैद करके मथुरा का राज्य करता था । देवकी के विवाह के समय कंस को किसी प्रकार यह बात मालूम हो गई थी कि देवकी के आठवे गर्भ से जो बालक उत्पन्न होगा, वह मुझको मार डालेगा । इसलिये कंस ने देवकी और वसुदेव को अपने यहाँ कैद कर लिया था । देवकी के सात बालकों को तो कंस ने जन्म लेते हो मार डाला था, पर आठवें बालक कृष्ण को, जिनका जन्म भादों की कृष्ण अष्टमी को आधी रात के समय हुआ था, वसुदेव जी गोकुल में जाकर नद के घर रख आए थे । बड़े होने पर कृष्ण ने अनेक अदभुत कार्य किए थे, जिनके कारण शंकित होकर कंस ने उन्हें मरवा डालने के अनेक उपाय किए, पर सब व्यर्थ हुए । अंत में कृष्ण ने कंस को मार डाला । इन्होंने विदर्भ के राजा की कन्या रुक्मणी से विवाह किया था । पीछे ये द्वारका चले गए और वहाँ इन्होंने यादवों का राज्य स्थापित किया । महाभारत के युद्ध में इन्होने पांडवों को बहुत सहायता दी थी । इनकी मृत्यु एक बहेलिए का तीर लगने से हुई थी । ये विष्णु दस अवतारों में से आठवें अवतार माने जाते हैं । २. एक असुर जिसका जिक्र वेदों में आया है और जिसे इंद्र ने मारा था । ३. एक ऋषि जिन्होंने ऋग्वेद के कई मंत्रों का प्रकाश किया था । ४. अथर्ववेद के अंतर्गत एक उपनिषद् । ५. छप्पय छंद का एक भेद, जिसमें २२ गुरु और १०८ लघु, कुल १३० वर्ण या १५२ मात्राएँ अथवा २२ गुरु १०४ लघु, कुल १२६ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती हैं । ६. चार अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक 'तगण' और एक लघु होता है । जैसे—तू ला मन । गोपीधन । तृष्णै तज । कृष्णै भज । ७. वेदव्यास । ८. अर्जुन । ९. कोयल । १०. कौवा । ११. कदम का पेड़ । १२. मास का वह पक्ष जिसमें चद्रमा का ह्रास हो । अँधरा पक्ष । १३. कलियुग । १४. शाल्मिलि द्वीप के निवासी शुद्र । १५. करौंदा । १६. नील । १७. पीपल । १८. जैनियों के मतानुसार नौ काले वसुदेवों में से एक । १९. बौद्धों के मतानुसार एक राक्षस जो बुद्ध का शत्रु माना जाता है । २०. चंद्रमा का धब्बा । २१. लोहा । २२. सुरमा ।

कृष्णकंचुक
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णाकच्चुक] काला चना [को०] ।

कृष्णाकंद
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णाकन्द] रक्त कमल । लाल रंग का कमल [को०] ।

कृष्णक
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण वर्ण के मृग का चर्म [को०] ।

कृष्णकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसा आदि पापपूर्ण कर्म । २. वह कर्म जो बिना फल की कामना के किया जाय । २. फोड़े की चिकित्सा की एक प्रक्रिया ।

कृष्मकर्मा
वि० [सं० कृष्णकर्मन्] दुष्कर्म करनेवाला । अपराधी । पापी [को०] ।

कृष्णकाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. महिष । भैंसा । २. कोई भी वस्तु या प्राणी जो काले रंग का हो ।

कृष्णाकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णागुरु । काला चदन या अगर [को०] ।

कृष्णकेलि (१)
संज्ञा पुं० [सें०] १. गुल अब्बास । गुलाबाँस का फूल । २. गुलाबाँस का पेड़ ।

कृष्णकेलि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्ण की क्रीड़ा । कृष्णलीला । उ०— कृष्णकेलि कोतिग कहौ ताकी कथा बनाय—ब्रज० ग्रं०, पृ० १ ।

कृष्णाकोहल
संज्ञा पुं० [सं०] जुआ खेलनेवाला । जुआरी [को०] ।

कृष्णागंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्णगङ्गा] कृष्णा नदी । कृष्ण वेणी ।

कृष्णगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्णगन्धा] सहिजन । शोभाजन ।

कृष्णगति
संज्ञा पु० [सं०] अग्नि । आग [को०] ।

कृष्णगर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कायफल ।

कृष्णागर्भ (२)
संज्ञा स्त्री० कृष्णा नामक असुर की भार्या ।

कृष्णागिरि
संज्ञा पुं० [सं०] नीलगिरि पर्वत [को०] ।

कृष्णगोधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जहरीला कीड़ा । विषकीट [को०] ।

कृष्णग्रीव
संज्ञा पु० [सं०] नीलकंठ । शिव [को०] ।

कृष्णाचंचुक
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णाचञ्चुक] नीले रंग की मटर । काली केराव [को०] ।

कृष्मचंद्र
संज्ञा पु० [सं० कृष्णचन्द्र] दे० 'कृष्ण' ।

कृष्णचूडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुंजा । घुँघुची । २. एक प्रकार का कँटीला वृक्ष जिसके फुल पीले या लाल होते है और जिनमें हलकी सुगंध होती है । यह साधारणतः सब ऋतुओं में और विशेषतः बरसात में फूलता और फलता है ।

कृष्णचूडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कृष्णचुड़ा' [को०] ।

कृष्णचुर्ण
संज्ञा पु० [सं०] लोहे का चूरा । लौहमल [को०] ।

कृष्णचैतन्य
संज्ञा पु० [सं० कृष्ण+ चैतन्य] दे० 'चैतन्य' ।

कृष्णच्छवि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काले हिरन का चमड़ा । २. काला बादल ।

कृष्णजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी ।

कृष्णजीरक
संज्ञा पु० [सं०] काला जीरा ।

कृष्णाताम्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चंदन [को०] ।

कृष्णातार
संज्ञा पुं० [सं०] १. काले मृग का एक भेद या जाति । २. मृग या हरिण [को०] ।

कृष्णदेह
संज्ञा पुं० [सं०] काले रंग की बड़ी मधुमक्खी या भ्रमर [को०] ।

कृष्णाद्वैपायन
संज्ञा पुं० [सं०] पराशर के पुत्र वेदव्यास । पाराशर्य ।

कृष्णधन
संज्ञा पुं० [सं०] अनैतिक उपाय से अर्जित धन [को०] ।

कृष्णपक्ष
संज्ञा पु० [सं०] १. वह पक्ष जिसमें चंद्रमा का ह्रास हो । अँधियारा पक्ष । २. अर्जुन का एक नाम [को०] ।

कृष्णपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काले पत्ते की तुलसी । कृष्णा ।

कृष्णापवि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

कृष्णापही
संज्ञा पु० [सं०] एक प्रकार की गानेवाली चिड़िया । विशेष—लंबाई में यह एक बालिश्त होती है । यह कश्मीर से भूटान तक पाई जाती है और जाड़ों में नीचे उतर आती है । यह वृक्षों की जड़ में घोंसला बनाती है और एक बार में चार अडे देती है ।

कृष्णापक
संज्ञा पुं० [सं०] करौंदा ।

कृष्णापिंगला
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्णापिङ्गला] दुर्गा [को०] ।

कृष्णापुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] रोहू मछली ।

कृष्णपुष्प
संज्ञा पु० [सं०] काला धतूरा ।

कृष्णाफल
संज्ञा पु० [सं०] करौंदा ।

कृष्णफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मिर्च की लता । २. एक प्रकार का छोटा जामुन ।

कृष्णबीज
स्त्री० पुं० [सं०] तरबूज ।

कृष्णाभुजंग
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णभुजङ्न] करेत साँप । काला सर्प ।

कृष्णाभामि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ की मिट्टी काली हो ।

कृष्णाभेदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटकी ।

कृष्णामंडल
संज्ञा पु० [सं० कृष्णमण्डल] आँख की पुतली ।

कृष्णमणि
संज्ञा पुं० [सं०] नीलम ।

कृष्णमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्णपर्णी । काली पत्तियोंवाली तुलसी ।

कृष्णमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंगुर । २. एक दानव का नाम ।

कृष्णमृग
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णसार मृग । काला हिरन [को०] ।

कृष्णयजुष
संज्ञा पुं० [सं०] यजुर्वेद के दो भेदों में से एक । इसमें ८६ शाखाएँ हैं, जिनमें तैत्तिरीय और आपस्तंब आदि शाखाएँ प्रधान है । वि० दे० 'यजुर्वेद' ।

कृष्णयाम
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

कृष्णरक्त (१)
संज्ञा पु० [सं०] गहरा सुर्ख रंग । लाल टेस रंग [को०] ।

कृष्णरक्त (२)
वि० गहरे लाल रंगवाला [को०] ।

कृष्णराज
संज्ञा पुं० [सं०] भुजंगा पक्षी ।

कृष्णरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जतुका नाम की लता [को०] ।

कृष्णाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. घुँघुची । गुंजा । २. गुंजा का पौधा [को०] ।

कृष्णाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घुँघची । २. शीशम का वृक्ष । ३. रत्ती (परिमाण) ।

कृष्णलोह
संज्ञा पुं० [सं०] चुंबक पत्थर [को०] ।

कृष्णवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जतुका [को०] ।

कृष्णवेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्णानदी । दे० 'कृष्णा' ३ ।

कृष्णसखा
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन ।

कृष्णसखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्रौपदी । २. जीरा ।

कृष्णसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला मृग । काला हिरन । करसा- यल । २. सेंहुड । ३. शीशम का वृक्ष । ४. खैर का वृक्ष ।

कृष्णसरथि
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन ।

कृष्णस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णस्कन्ध] सुरती का पेड़ ।

कृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्रौपदी । २. पीपल । पिप्पली । ३. दक्षिण देश की एक नदी जो पश्चिमी घाट से निकलकर (मछली- पटटम् में) बंगाल की खाड़ी में गिरती है । कृष्णगंगा । कृष्ण- वेणी । ४. कच्चे नील की बट्टी । नीलबरी । ५. काली दाख । ६. काला जीरा । ७. अगर । ऊद (लकड़ी) । ८. काली (देवी) । ९. एक प्रकार की जहरीली जोंक । १०. पपरी नाम का गंधद्रव्य । ११. कुटकी । १२. राई १३. अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक । १४. एक योगिनी । १५. काले पत्ते की तुलसी । १६. आँख की पुतली ।

कृष्णागरु
संज्ञा पु० [सं० कृष्णागुरु] काला अगर । काले रंग का अगर । उ०—ऊपर तें कृष्णगरु भरि भरि डारति कनक कमौरी ।—छीत०, पृ० २२ ।

कृष्णागुरु
संज्ञा पुं० [सं०] काला अगर । काला चंदन [को०] । यौ०—कृष्णागुरुवर्तिका = काले अगर की बत्ती । उ०—कृष्णगुरु वर्तिका जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में ।—लहर, पृ० ८२ ।

कृष्णाचल
संज्ञा पुं० [सं०] १. रैवतक पर्वत । (प्राचीन द्वारका इसी पर्वत पर थी ।) २. नीलागिरि पर्वत ।

कृष्णाजिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काले मृग का चमड़ा । मृगचर्म । २. एक प्राचीन ऋषि का नाम ।

कृष्णाघ्वा
संज्ञा पु० [सं० कृष्णाघ्वन्] अग्नि । आग [को०] ।

कृष्णाभिसारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह अभिसारिका नायिका जों अँधेरी रात में अपने प्रेमी के पास संकेतस्थान में जाय ।

कृष्णायस
संज्ञा पु० [सं०] लोहा । काला लोह [को०] ।

कृष्णार्चि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

कृष्णार्जक
संज्ञा पुं० [सं०] बनतुलसी । बर्बरी [को०] ।

कृष्णार्पण
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णा के निर्मित्त द्यर्पण करना या देना ।

कृष्णार्पन पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णार्पण] कृष्ण के निमित प्रदान करना या देना । उ०—या प्रकार निष्काम भाव सों कृष्णार्पन किए कर्म ब्रह्मरूप होई भक्ति को उत्पन्न करत हैं ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ८४ ।

कृष्णावास
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थ । पीपल का वृक्ष [को०] ।

कृष्णाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों कृष्ण पक्ष की अष्टमी, जिस दिन श्रीकृष्म का जन्म हुआ था ।

कृष्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राई । २. श्यामा पक्षी ।

कृष्णिमा
संज्ञा स्त्री० [कृष्णिमन्] कालापन । कालिमा [को०] ।

कृष्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंधकारमयी रात्रि । अँधियारी रात [को०] ।

कृष्णोदर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप ।

कृष्णोदुंबरक
संज्ञा पु० [सं० कृष्ण + उदुम्बरक] एक प्रकार का गूलर । कठगूलर [को०] ।

कृष्न पु
संज्ञा पु० [सं० कृष्ण] दे० 'कृष्ण' । उ०—अंग अंग सुभग अति, चलति गजराज गति, कृष्न सौं एक मति जमुन जाहीं ।—सूर०, १० ।१७५१ ।

कृष्य
वि० [सं०] कर्षण या खेती के योग्य (भूमि) ।

कृस पु
वि० [सं० कृश] दे० 'कृश' ।

कृसर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कृशर' [को०] ।

कृसान
संज्ञा पु० [सं० कृशानु] दे० 'कृशानु' । उ०—नाहिन या मृग मदुल तन लगन जोंग यह बान । ज्यों फूलन की राशि में उचित न घरन कृसान ।— 'शकुंतला' पृ० ९ ।

कृसोदगी पु
वि० [सं० कृशोदरी] दे० 'कृशोदरी' ।

कृस्न पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण] वसुदेव देवकी के पुत्र । कृष्ण ।

कृस्नला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्णला] घुँघची । गुँजा । उ०—काक चंचुका कृस्नला गुंजा करति प्रनाम ।—अनेकार्थं, पृ० २८ ।

कृस्ना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्ण] पिप्पली । उ०—काला कृस्ना मागधी तिग्मतंदुला होइ ।—अनेकार्थ०, पृ० ५८ ।

केँ केँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चिड़ियों का कष्टसूचक शब्द । २. झगड़ा या अंसतोषसूचक शब्द । क्रि० प्रा०—करना । मचाना ।

केचुआ
संज्ञा पुं० [सं० किञ्चिलिक, प्रा० केचुओ] १. एक बरसाती कीड़ा । विशेष—इसके अनेक प्रकार होते हैं । यह एक बालिश्त भर या इससे आधिक लंबा होता है । इसके शरीर में हड्डी नहीं होती । यह कभी अपने शरीर को सिकोड़ लेता है, और कभी लंबा कर देता है । यह मिट्टी ही खाता है । इससे पीले रंग की एक लसदार वस्तु निकलती है, जो रात को चमकती है । २. केंचुए के आकार का सफेद कीड़ा जो पेट से मल द्वारा बाहर निकलता है । क्रि० प्र०—गिरना । पड़ना ।

केँचुकी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुकी] दे० 'कंचुकी' । उ०—बेधे भवरं कंठ केतुकी । चाहहिं बेध कीन्ह केंचुकी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९५ ।

केँचुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'केंचुली' । उ०—अनंग के घाट नहाय नसैं भलैं पातक केँचुरी मानो भुजंग ।—श्यामा०, पृ० १२६ ।

केँचुल
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चुक] [वि० केँचुली] सर्प आदि के शरीर पर की खोल जो प्रति वर्ष आपसे आप पृथक् होकर गिर जाती है । उ०—निज केँचुल मिस धरत है, फाहा तरु ब्रन पास ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० २२१ । क्रि० प्र०—छोड़ना ।—झगड़ना ।—बदलना । मुहा०—केँचुल बदलना = पोशाक बदलना । कपड़ा बदलना ।— (व्यंग्य) । केँचुल में आना या भरना=केंचुल छोड़ने पर होना ।

केचुली (१)
वि० [हिं० केँचुल] केंचुल का तरह का । यौ०—केंचुली लचका या केंचुली का लचका = एक प्रकार का लचका जो खींचने पर साँप की तरह बढ़ता है ।

केँचुली (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'केंचुल' ।

केँचुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केँचुआ' ।

केँत
संज्ञा पुं० [बेंत का अनु या० अँ० केन] एक प्रकार का मोटा बेंत जिसकी छड़ियाँ बनती हैं ।

केंदु
संज्ञा पुं० [सं० केन्दु] तेदूँ ता पेड़ ।

केंदुक
संज्ञा पुं० [सं० केन्दुक] १. एक माप । २. एक प्रकार का तेंदू [को०] ।

केंदुवाल
संज्ञा पुं० [सं० केन्दुवाल] नाव खेने का डाँड़ । बल्ला । अरित्र । केनिपात ।

केंद्र
संज्ञा पुं० [सं० केन्दु] तेंदू ।

केंद्र
संज्ञा पुं० [सं० केन्द्र, यू० केण्ट्रन] १. किसी वृत्त के अंदर का वह विंदु जिससे परिधि तक खींची हुई सब रेखाएँ परस्पर बराबर हों । नाभि ।२. किसी निश्चित अंश से ९०, १८०, २७० और ३६० अंश के अंतर का स्थान । ३. ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों के दो केंन्द्र—शीघ्र केंद्र और मंद केंद्र । ग्रह के मध्य में से मंटोच्च घटाने से मंद केंद्र और शीघ्रोच्च घटाने से शीघ्र केंद्र का ज्ञान होता है । ४. फलिंत के अनुसार कुंडली में पहला, चौथा, सातवाँ और दसवाँ स्थान । ५. मुख्य या प्रधान स्थान । ६. सदा रहने का स्थान । ७. बीच का स्थान । ८. किसी वस्तु के उत्पादन, वितरण आदि का स्थान सेंटर । यौ०—केंद्रग । केंद्रगामी = केंद्र की गमन ओर करनेवाला । केंद्रस्थ = केंद्र में स्थिति । केंद्रस्थान ।

केंद्रातीत
वि० [सं० केन्द्र+ अतीत] केंद्र का प्रतिगामी । केंद्र से बहिर्मुख । केंद्रापग । उ०—पुरुष केंद्रातीत शक्ति के प्रति आकर्षित होकर विश्वविजय की आकांक्षा करके बाह्य जगत् में अपनी कीर्ति प्रसारित करना चाहता है ।—प्रेम० और गोर्की०, पृ० १०७ ।

केंद्रापगामी (१)
वि० [सं० केन्द्रापगामिन्] केंद्र की विपरीत दिशा में जानेवाला ।

केंद्रापगामी (२)
वि० दे० 'केंद्रापमुखी' ।

केंद्रापमुखी
वि० [सं० केन्द्रापमुखिन्] केंद्र का विरोधी । केंद्र से बाहर रहनेवाल । उ०—जो भारतवर्ष के जीवन में केंद्राप- मुखी प्रवृत्ति जगने पर अलग राष्ट्र बन जाते हैं ।—भारत० नि०, पृ० १९२ ।

केंद्राभिगामी
वि० [सं० केन्द्राभिगामिन्] केंद्र की ओर जानेवाला । केंद्र का समर्थन करनेवाला । उ०—मौर्य काल की राज्य- संस्था में केंद्राभिगामी और केंद्रापगामी प्रवृत्तियों की किस प्रकार कशमकश थी, उसका उल्लेख कर चुके हैं ।—भा० इ०, रू०, पृ० ६६१ ।

केंद्री
वि० [सं० केन्द्रिन्] केंद्र में स्थित । केंद्रस्थित । उ०—केंद्री है नवये कर स्वामी योग चंद्र चड़ामणि । गुरु द्विज भक्त सकल गुणसागर दाता शूर शिरोमणि ।—रघुराज (शब्द०) ।

केंद्रिभूत
वि० [सं० केन्द्रीभूत] केंद्र में स्थित वा एकत्रित । पुंजीभूत । उ०—सुख, केवल सुखका वह संग्रह केंद्रीभूत हुआ इतना, छायापथ में नव तुषार का सघन मिलन होता जितना ।— कामायनी, पृ० ८ ।

केंद्रीय
वि० [सं० केंद्रीय] १. केंद्र संबंधी । २. केंद्रस्थ । केंद्र में स्थित । ३. प्रधान । मुख्य । वरिष्ठ । श्रेष्ठ ।

केंद्राभिमुखी
वि० [सं० केन्द्राभिमुखिन्] दे० 'केंद्राभिगामी' ।

केंद्रिक
वि० [सं०केन्द्रिक] केंद्र संबंधी । केंद्र का । केंद्रीय । उ०— कई मामलों में जनसत्ता का सिद्धांत मानते हुए भी यहाँ केंद्रिक शासन में जनसत्ता का रूप लाना टेढ़ी खीर थी ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० १२ ।

केंद्रित
वि० [सं० केन्द्रित] १. केंद्र में स्थित । २. निश्चित स्थान पर एकत्रित [को०] ।

के (१)
प्रत्य० [हिं० का] संबंधसूचक 'का' विभक्ति का बहुवचन रूप । जैसे, —राम के घोड़े । विशेष—यदि संबंधवान् के आगे कोई विभक्ति होती है, तो एक वचन में 'भी' का के स्थान पर 'के' आता है । जैसे— (क) वह राम के घोड़े से गिर पड़ा । (ख) हम उसके घर (पर) गए थे ।

के (२) †
सर्व० [सं० 'क' का बहु० व०] कौन? उ०—कहहु कहिहि के कीन्हि भलाई ।—मानस, २ ।१८१ ।

के० †
सर्व० [हिं०] क्या? । उ०—के और हूमन के संदेह हैं ।— दो सौ बावन०, भा०२, पृ० ३११ ।

केइ पु
सर्व० [हिं० कोई] १. दे० 'कोई' । उ०—तहँ केइ धीरा केइ अधीरा । केइ धीरा धीरा रस भीरा ।—नंद ग्रं०, पृ० पृ० १४७ । २. किसने । उ०—केइ तव नासा कान निपाता ।—तुलसी (शब्द०) ।

केइक पु
वि० [हिं०] कुछ । कई एक । उ०—सुंदर घर घर रोवणौं परयो काल की मास । केइक जारन कौ गए फिर केइक कौ नास ।—सुदंर०, ग्रं०, भा०२, पृ० ७०४ ।

केउँआ
संज्ञा पुं० [सं० केमुक] १. कच्चू । २. चुकंदर । ३. शलगम ।

केउ †
सर्व० [हिं० के+ उ (प्रत्य०)—भी] कोई । उ०—अलख अलौकिक रूप तव, तरकि सकै नहिं केउ । जानै सोई करि कृपा, तुम, जाहि जनावौ देउ ।—विश्राम (शब्द०) ।

केउक पु
वि० [हिं०] कुछ । कितने एक । उ०—केउक कलप बीतें लोन सपरत हैं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ४१४ ।

केउटा †
संज्ञा पुं० [सं० कर्कोट] एक प्रकार का बहुत विषैला काला साँप । औषधों में इसी का विष काम में आता है । करैत ।

केउटी †
वि० [हिं०] दे० 'केवटी' ।

केउर पु
संज्ञा पुं० [सं० केयूर] दे० 'केयूर' ।

केऊ (१)पु †
वि० [हिं०] कुछ । कई ।

केऊ (२)पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'केउ' ।

केक (१) पु
सर्व० [हिं० कई+ एक] कितने । कुछ ।

केक (२)
संज्ञा पु० [अं०] चीनी फल और आटे के मिश्रण द्वारा तैयार की हुई एक तरह की अँगरेजी मिठाई जो गोलार्द्ध लिये हुई ऊँची होती है । विशेष—यह छोटे मँझोले और बड़े आकार में कई प्रकार की होती है । जन्मोत्सव के लिये बड़ा केक बनाया जाता है । क्रि० प्र०—काटना = जिसका जन्म दिन मनाया जा रहा हो उसके द्वारा या जिसका सम्मान स्वागत किया जा रहा हो उसके द्वारा केक काटा जाना और उपस्थित जनों में वितरण ।

केकड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कर्कट, पा० ककट] पानी का एक कीड़ा जिसे आठ टाँगें और दो पंजे होते हैं । विशेष—यह साधारण गड़हियों से लेकर समुद्र तक में पाया जाता है और भिन्न भिन्न आकार का, छोटा बड़ा और कई रंगों का होता है । यह अंडज है और इसके विषय में कहा जाता है कि इसकी माता अंडा देने से पहले मर जाती है । बरसात में केकड़े जोड़ा खाते है; और जब मादा का पेट अंड़ो से भर जाता है तब वह मर जाती है; और अंडे में से पकने पर, छोटे छोटे बच्चे निकलते हैं । कहते हैं कि पाँच खोल बदलने पर यह पूरा केकड़ा होता है । यह सुखी भूमि पर भी चल सकता है । गरमी में छिछले पानी या किनारे पर रहता है और जाड़े में गहरे जल में चला जाता है, जहाँ झुंड बाँधकर किसी दरार या गड्ढे में रहता है । बड़ा केकड़ा अपने छोटे और निर्बल केकड़ों को खा जाता है । भिन्न भिन्न प्रदेशों में लोग इसका मांस भी खाते हैं । वैद्यक में सफेद केकड़े का मांस वायु और पित्त का नाश करनेवाला और रुधिकारक तथा काले केकड़े का मांस बलकारक, गरम और वातनाशक माना गया है । मुहा०—केकड़े की चाल = टेढ़ी तिरछी चाल ।

केकय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम । विशेष—रामायण के अनुसार यह देश व्यास और शाल्मली नदी की दूसरी ओर था और उस समय वहाँ की राजधानी गिरिव्रज या राजग्रह थी । अब यह देश कश्मीर राज्य के अंतर्गत है और कक्का कहलाता है । यहाँ के निवासी गक्कर, गक्खर या कक्का कहलाते हैं । २. [स्त्री० केकयी] केकय देश का राजा या निवासी । ३. दशरथ के श्वशुर और कैकेयी के पिता का नाम ।

केकया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केकय देश की स्त्री । २. राजा दशरथ की रानी जिससे भरत जी उत्पन्न हुए थे । दे० 'कैकेयी' ।

केकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऐंचा । भेंगा । २. तंत्र में चार अक्षरों का एक मंत्र । यौ०—केकराक्ष । केकरनेत्र । केकरलोचन = वक्र दृष्टि का । ऐंची आँखवाला ।

केकर (२) †
सर्व० [हिं० के + कर (प्रत्य०)] किसका ।

केकरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केकड़ा' ।

केकसी
संज्ञा स्त्री० [सं० कैकसी] दे० कैकसी' ।

केका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोर की बोली । मोर की कूक । यौ०—केकारव = मोरकी बोली । उ०—एक ओर गहरी खाई में सोय तरुओं का तम । केकारव से चकित बखेरे सुख स्वाप्नों का संभ्रम ।—ग्राम्या, पृ० १०५ ।

केकाण
संज्ञा पुं० [सं०] केकाण देश का घोड़ा । उ०—हाथी चाल्य दोढ़सो । असीय सेहस चाल्या केंकाण ।—बी० रासो, पृ० १२ ।

केकान पु
संज्ञा पुं० [सं० केकाण, राज० केकाँण, केकाण, गुज० ककाण] केकाण देश का घोड़ा । उ०—दुरद अयुत रथ अयुत एक हज्जार केकानं ।—पृ० रा० २ ।२१७ ।

केकावल
संज्ञा पुं० [सं०] मोर । मयूर [को०] ।

केकिंधा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० किष्किन्धा] दे० 'किष्किंधा' । उ०— बालअजो घ्याकांड विध, मुणिया सूक्षम मांड । कहै मंछ जिमिही कहूँ, केकिंधा हिव कांड ।—रघु० रू०, पृ० १४४ ।

केकिक
संज्ञा पुं० [सं० केकिकस] मयूर । मोर [को०] ।

केकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मयूरी । उ०—जो छा जाती गगन तल के अंक में मेघ माला । जो केको ही नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा ।—प्रिय० पृ० २६३ ।

केकि, पु केकी
संज्ञा पुं० [सं० केकिन्] मोर । मयूर । उ०—(क) केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित विनिंदक बसन सुरंगा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कोकिल केकी कपोतन के कुल केलि करै अति आनँद बारी ।—मतिराम (शब्द०) ।

केचित्
सर्व० [सं०] कोई । कोई कोई ।

केचुआँ पु †
संज्ञा पुं० [सं० कञ्चक = चोली] दे० 'कंचुकी' उ०— झिलमिल केचुआँ उनत थन हार ।—विद्यापति, पृ० १३१ ।

केछुवारी
वि० [सं० कच्छ + हिं० वाली] कच्छ की । कच्छवाली । उ०—कहुँ केछुवारी सुपारी नियारी ।—प० रासो, पृ० ५५ ।

केजा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केना' ।

केडवारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० केन=साग भाजी+वारी] वह बाग जिसमें साग, तरकारी, फलादि बोए ओर लगाए जायँ । नए पौधों का बाग । नौरंगा ।

केडा
संज्ञा पुं० [सं० करीर = बाँस का कल्ला] १. नया पौधा या अंकुर । कोंपल । कल्ला । २. नवयुवक । उ०—वह सदा इसी ताक में रहता था कि किस घराने में कौन नए केडे़ हैं ।—सौ अजान और एक सुजान (शब्द०) । ३. खेत से काटी हुई फसल या घास का गट्टा ।

केणिक पु
संज्ञा पुं० [सं० कोणिका = खेमा] खेमा । तंबू । रावटी ।—(डिं०) ।

कोणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'केणिक' ।

केत
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर । भवन । २. स्थान । जगह । बस्ती । उ०—फूल छूल फिर पूछौ जो पहूँ जो वहि केत । तन नेउछावर कं मिलौं ज्यों मधुकर जिउ देत ।—जायसी (शब्द०) । ३. केतु । ध्वजा । ४. बुद्धि । प्रज्ञा । ५. संकला । इच्छाशक्ति । ६. मंत्रणा । सलाह । ७. अन्न । जैसे,—केतपू । ८. पु केतु नाम का एक ग्रह । उ० शनिवार तीसरौ छठौ केत ।— प० रासो, पृ० ५४ । ९. आमंत्रण । निमंत्रण (को०) । १०. संपत्ति (को०) । ११. आकाश (को०) । १२. पु केवड़ा ।

केतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] केवड़ा । उ०—लखि केतक केतकि जाति गुलाब ते तीक्षण जानि तजे डरि कै ।—केशव (शब्द०) ।

केतक (२)
वि० [सं० कति + एक] १. कितने । किस कदर । २. बहुत । उ०—केतक दिवस राज्य तव कियऊ । एक दिवस नारद मुनि गयऊ ।—सबल (शब्द०) ।

केतकर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'केतकी' । उ०—तूहू जौ प्रीति निबाहै आँटा । भौंरै न देख केंतकर काँटा ।—जायसी (शब्द०) ।

केतकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का छोटा झाड़ या पौधा । केवड़ा । उ०—गमक रहा था केतकी का गंध चारों ओर ।— साकेत, पृ० २७४ । विशेष—इसकी पत्तियाँ लंबी, नूकीली, चिपटी, कोमल और चिकनी होती हैं और जिनके किनारे और पीठ पर छोटे छोटे काँटे होते हैं । केतकी दे प्रकार की होती है—एक सफेद और दूसरी पीली । सफेद केतकी को हिंदी में केवड़ा और पीली या सुवर्ण केतकी को केतकी कहते हैं । इसकी पत्तियों से चटाइयाँ, छाते और टोपियाँ बनता हैं । इसका तना नरम होता है और बोतलों में डाट लगाने के काम में आता है । कहीं कहीं इसकी नरम पकत्तियों का साग भी बनाया जाता है । बरसात में इसमें फूल लगते हैं जो लंबे सफेद रंग के और बहुत सुगंधित होते हैं । इसका फूल बाल की तरह होकता है और ऊपर से लंबी लंबी पत्तियों से ढका हुआ होता है । फूल से अतर और सूगंधित जल बनाया जाता है और उससे कत्था भी बसाया जाता है । ऐसा प्रसिद्ध है कि इस फूल पर भौंरा नहीं बैठता । पूराणों के अनुसार यह फूल शिव जी को नहीं चढ़ाया जाता । वैद्यक में सफेद केतकी बालों की दुर्गंधि दूर करनेवाली मानी गई है । और इसका शाक या मूल स्वाद में कडुवापन लिये हुए मीठा और गुण में कफनाशक ता लघुपाक कहा गया है । पर्या०—शूचीपत्र । हलीन । जंबूल । जंबूक । तीक्ष्ण पुष्पा । विफला ।धूलिपुष्पा । मेध्या । इंदुकलिका । शिवदिष्टा । क्रकचा । दीर्घपत्रा । स्थिरगंधा । कटकदला । दलपुष्पा । केवढ़ा । एक रागिनी का नाम । उ०—रामकली, गुनकली, कैतकी, सुर सघराई गायो । जैजैवंती, जगतमोहिनी, सुर सों बीन बजाओ ।—सूर (शब्द०) ।

केतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. निमंत्रण । आह्वान । २. ध्वजा । उ०— प्रकट सजीव चित्र सा था शून्य पट पर दंडहीन केतन दश के निकेतन में ।—साकेत, पृ० ३६७ । ३. चिह्न । प्रतीक । ४. घर । ५. धब्बा । दाग (को०) । ६. शरीर (को०) । ७. स्थान । जगह ।

केतपू
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न साफ करनेवाला ।

केतली
संज्ञा स्त्री० [अ० केटिल] पानी गरम करने का एक टोंटीदार बरतन, जिसके मुँह पर ढक्कन रहता है । इसमें विशेषतः चाय के लिये पानी गरम करते हैं । उ०—स्टोव चलाकर शांति ने चाय की केतली चढा दी ।—सन्यासी, पृ० ७८ ।

केता पु
वि० [सं० कियत्] [स्त्री० केती] कितना ।

केतान पु
वि० [हिं० 'केता' का बहु० व०] कितने । उ०—सूर बीर कोमान गया सब लोग रे । वारो वार बिह य सुपन को जोग रे ।—राम० धर्म०, पृ० २५४ ।

कतिक पु
वि० [सं० कति + एक] कितना । किस कदर । उ०—कहौ बात अपने गोकुल की केतिक प्रीति ब्रजबालहिं—सूर (शब्द०) ।

केती पु
वि० [हिं०] दे० 'केता' । उ०—भूषन जहाँ लौं गनौं तहाँ लौं भचकि हारयौ लखिए कछू न केती बातैं चित चुनियै ।— भूषण ग्रं०, पृ० ३२ ।

केतीहेक पु †
वि० [सं० कियदेक, प्रा० केत्तिअ + राज० हेक = एक] दे० 'केतिक' । उ०—ढोलउ मारू एकठा कहि केतीहेक दूर ।— ढोला० दू०, ६४६ ।

केतु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्ञान २. दीप्ति । प्रकार । ३. ध्वजा । पताका । ४. निशान । चिह्न । ५. पुराणानुसार एक राक्षस का कबंध । विशेष—यह राक्षस समुद्रमंथन के समय देवताओं के साथ बैठकर अमृतपान कर गया था । इसलिये विष्णु भगवान् ने इसका सिर काट डाला । पर अमृत के प्रभाव से यह मरा नहीं और इसका सिर राहु और कबांध केतु हो गया । कहा है इसे सूर्य और चेद्रमा ही ने पहचाना था; इसीलिये यह अबतक ग्रहण के समय सूर्य और चंद्रमा को ग्रसता है । ६. एक प्रकार का तारा जिसके प्रकाश की पुँछ जिखाई देती है । यह पुच्छल तारा कहलाता है । उ०—कह प्रभु हँसि तनि हृदय डेराहू । लूक न असनि केतु नहि राहू ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इस प्रकार के अनेक तांरे हैं, जो कभी कभी रात को झाड़ की तरह भिन्न भिन्न आकार के दिखाई देते हैं । भारतीय ज्योतिषियों में इनकी संख्या के विषय में मतभेद है । कोई हजार, कोई १०१ कोई कुछ, कोई कुछ मानता है । नारदी जी का मत है कि केतु एक ही है और वही भिन्न भिन्न रूप का दिखाई पजता है । फलित में भिन्न भिन्न केतुओं के उदय का भिन्न भिन्न फल माना गया है । ज्योतिषियों का मत है कि केतु अपने उदयकाल ही में या उदय से पंद्रह दिन पीछे शुभ या अशुभ फल दिखाते हैं । आजकल के पाश्चात्य ज्योतिषियों ने दूरबीन द्वारा यह निश्चित किया है कि केतुओं की संख्या अनिश्चित है और वे भिन्न भिन्न पटलों में भिन्न भिन्न दीर्घवृत या परलयवृत्त कक्षाओं में भिन्न भिन्न वोगों सो घूमते हैं । इन कक्षाओं की दो नाभियों में सूर्य एक नाभि होता है । दीर्घवृत्तात्मक कक्षा होने से ये तारे जब रविनीच के या सूर्य के समीपवर्ती कक्षांश में होते हैं, तभी दिखाई पडते हैं । रविनीच के कक्षांश में आते ही ये तारे कुछ दिखाई पड़ने लगते हैं और पहले पहल प्रकाश के धब्बे की तरह दूरबीनों से दिखाई पडते हैं । ज्यो जेयों ये सूर्य के समीप आते जाते हैं इनकी केतुनाभि दिखाई पडने लगती है फिर क्रमशः स्पष्ट होती जाती है । पर कितने ही केतुओं की केतुनाभि नहीं दिखाई पड़ती । उनमें केतुनाभि है या नहीं, यह संदिग्ध है । इन तारों की केतुनाभि उनके आवरण में लिपटी हुई सूर्य से २ अश से ९० अंश तक में दिखाई पडती है । इन तारों के साथ प्रकाश की एक घड़ी लगी होती है जिसे केतुपुच्छ कहते हैं । इस केतुपुच्छ में स्वयं प्रकाश नहीं होता । यह स्वयं स्वच्छ पारदर्शी और वायुमय होता है जिसमें सूर्य के सान्निध्य से प्रकाश आ जाता है । यही कारण है कि पुच्छ की दूसरी ओर का छोटे से छोटा तारा तक दिखाई पड़ता है । सन् १६८२ ई० के पूर्व के ज्योतिषियों की यह धारणा ती कि पुच्छल तारे बिना ठीक ठिकाने के मनमाने घूमा करते हैं; न इनकी कोई नियत कक्षा है और न इनके घुमने का कोई नियम है । पर सन् १८६२ ई० में हेली साहब ने हिसाब लगाकर एक तारे के विषय में यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि वह बहेल्ले की तरह नहीं घूमता, बल्कि लगभग ७६ वर्ष के बाद दिखाई पड़ता है । इस तारे को हेली साहब का पुच्छल तारा या 'हेली केतु' कहते हैं । तब से ज्योतिषियों का ध्यान इन केतुओं की गति की ओर आकर्षित हुआ और अबतक कितने ही तारों की गति और कक्षा आदि का पुरा पता लग चुका है । ऐसे तारों को ज्योतिष में नियत- कालिक केतु कहते हैं । सबसे विलक्षण बात—जिसका पता सन् १८६२ ई० में इटली के शेपरले नामक ज्योतिष ने लगाया—यह है कि कितने ही पुच्छल तारों की कक्षा और कितने ही उल्कापुंजो की कक्षा एक ही है । उसने इस बात को सिद्ध कर दिया कि १८६२ के केतु और सिंहगत उल्का, ये एक ही कक्षा में भ्रमण करते हैं । केतु को पुच्छलतारा, बढनी, झाडू आदि भी कहते हैं । ७. नवग्रहों में से एक ग्रह । यद्यपि फलित में इसे ग्रह माना है तथापि सिद्धात ग्रंथों में चंद्रकक्ष और क्रांतिरेखा के अधःपात के बिंदु को केतु माना है । विशेष—दे० 'पात' । ८. प्रकाशकिरण [को०] । ९. प्रधान या विशिष्ट व्यक्ति [को०] । १०. दिन का समय । दिन [को०] । ११. आकार । रूप । आकृति (को०) । १२. एक वामन या बौनी जाति (को०) । १३. शत्रृ । वैरी (को०) । १४. एक प्रकार का रोग (को०) ।

केतु पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० केतकी] केवडा ।

केतुकि पु केतुकी †
संज्ञा पुं० [सं० केतकी] केतकी । केवड़ा । उ०— (क) पल्लव सुबीर केतुकि नवल, बर बसंत वायह हले । तम तेज रुधिर भीज्यौ बहुल कलह किति जावक षुलै ।—पृ० रा० ७ । १३० । (ख) कोइ केतुकि मालति फलवारी ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४७ ।

केतुकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० केतुकुण्डली] फलित ज्योतिष के अनुसार बारह कोष्ठों का एक चक्र, जिसमें प्रत्येक वर्ष का स्वामी निकाला जाता है । विशेष—इस चक्र के बनाने की रीति यह है कि कोष्ठों में पहले कोष्ठ से आरंभ करके ग्रहों के नाम इस क्रम से रखते हैं— सूर्य, केतु, बुध, मंगल, केतु, वृहस्पति, चंद्रमा, केतु, शुक्र, राहु, केतु और शनि । फिर उत्तराभाद्र से आरंभ करके नक्षत्रों को कोष्ठों में इस प्रकार भरते हैं कि सूर्य आदि ग्रहें के नीचे तीन तीन नक्षत्र और केतु के नीचे एक एक नक्षत्र यथाक्रम पडे । इसके उपरांत चक्र में कुंडलीवाले के जन्ममक्षत्र को देखते हैं । वह मक्षत्र जिस ग्रह के केष्ठ में होता है, वही प्रथम वर्ष का वर्षेश होता है इसी प्रकार दूसरे, तीसरे आदि वर्षो का भी निकलते हैं । इसका प्रचार वंग देश में विशेष है ।

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केतुचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'केतुकुंडली' [को०] ।

केतुतारा
संज्ञा पुं० [सं०] पुच्छल तारा [को०] ।

केतुपताका
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार नौ कोष्ठों का एक चक्र जिससे वर्षेश निकाला जाता है । विशेष—इस चक्र में नवों ग्रह, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, शनि, वृहस्पति, राहु, शुक्र, केतु क्रम से रके जाते हैं । फिर कृत्तिका से लेकर भरणी तक और सूर्य से लेकर शुक्र तक प्रत्येक ग्रह के कोठे में तीन तीन अक्षर लिखे जाते हैं । इस प्रकार जन्म- नक्षत्र से वर्षेश का निश्चय किया जाता है । वर्षेश के वर्ष में अन्य ग्रहों का अंतर्दिन होता है । इसका भी प्रचार बंगाल में अधिक है ।

केतुभ
संज्ञा पुं० [सं०] बादल । मेघ [को०] ।

केतुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक वर्णार्ध समवृत्त का नाम जिसके विषम पादों में सगण, जगण, सगण और एक गुरू होता है और समपादों में भगण, रगण, नगण और दो गुरु होते हैं । जैसे,—प्रभु जी हरी हमहिं तारो, मो मन तें सभी अध निकारो । अपने हिये यह विचारो, राम अनाथ को लखि उबारो ।—२. रावण की नानी अर्थात् सुमाली राक्षस की पत्नी का नाम ।

केतुमान् (१)
वि० [सं० केतुमत्] १. तेजवान । तेजस्वी । २. ध्वजावाला । जिसके पास पताका हो । ३. बुद्धिमान् । ४. चिह्न या प्रतीकवाला । प्रतीकयुक्त [को०] ।

कोतुमान् (२)
संज्ञा पुं० १. हरिवंश के अनुसार काशिराज दिवोदास के वंश का एक राजा जो धन्वंतरि का पुत्र था । २. एक दानव का नाम ।

केतुमाल
संज्ञा पुं० [सं०] जंबूद्वीप के नौ खंडों से एक खंड । विशेष—ब्रह्मांड पुराण के अनुसार इसमें सात पर्वत और कई नदियाँ हैम । सिद्ध और देवर्षि प्रायः इन्हीं नदियों में स्नान करना पसद करते हैं । इस खड में प्रायः जंगली जानवर भी रहते हैं ।

केतुमालक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'केतुमाल' ।

केतुयष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वज का दंड । पताका का डंडा [को०] ।

केतुरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] लहसुनिया नामक रत्न ।

केतुवसन
संज्ञा पुं० [सं०] पताका । ध्वजा । झंडा [को०] ।

केतुवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार मेरु के चारों और के पर्वतों पर के चार वृक्षों के नाम । विशेष—विष्णुपुराण के अनुसार मेरु की पूर्वदिशा में मंदराचल है जिसपर कदब का वृक्ष है; दक्षिण और गधमादन पर जँबू, पश्चिम और विपुल गिरि पर पीपल और उत्तर ओर सुपार्श्व पर्वत पर वट वृक्ष है । इन्हीं चारों वृक्षों को केतुवृक्ष कहते हैं ।

केतेक पु
वि० [सं० कियत + एक ] कितने एक । कितने ही । उ०— ऐसे करत केतक दिन भए ।—दो सौ बावन, पृ० १९५ ।

केतो (१)
संज्ञा पुं० [देश०] अमेरिका के गरम देशों में रहनेवाला एक जानवर जो लोमड़ी के आकार का होता है और ईख के खेतों को बड़ी हानि पहुँचाता है ।

केतो (२) पु
वि० [सं० कति] कितना ।

केथि पु †
क्रि० वि० [सं० कुत्र; अप०, केत्थु; पं० कित्थु, कित्थे] दे० 'कहाँ' । उ०—करहा पानी खंच पिउफ, त्रासा घणा सहेसि । छीलरियउ ढूकिसि नहीं, भरिया केथि लहेस् ।—ढोला० दू०, ४२६ ।

केद पु
संज्ञा पुं० [अ० कैद] दे० 'कैद' । उ०— बंदीखाने में केद राखे ।—दो सौ बावन०, पृ० १३८ ।

केदर (१)
वि० [सं०] ऐची या भेंगी आँखवाला । भेगा [को०] ।

केदर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. संव्यवहार । व्यवहार । २. एक पौधा का नाम [को०] ।

केदली †
संज्ञा पुं० [सं० कदली] कैले का पेड़ । कदली वृक्ष । उ०—विधिहिं बदि तिन कीन्ह अरंभा । विरचे कनक केदली खंभा ।—तुलसी (शब्द०) ।

केंदार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह खेत जिसमें धान बोया या रोपा जाता है । कियारी । २. वृक्ष के नीचे जमीन पर वना हुआ थाला । थवाँला । ३. मेघ राग का चौथा पुत्र । यह सपूर्ण जाति का राग है और रात के दूसरे पहर में गया जाता है । उ०— मुख मुरली मैं केदारो कैसे गावै ।—घनानंद, पृ० ५४५ । ४. हिमालय पर्वत का एक शिखर और प्रसिद्ध तीर्थ जहाँ केदार- नाथ नाम का एक शिवलिंग है । ५. शिव का एक नाम । विशेष— दे० 'केदारनाथ' । ५. कानरूप देश का एक तीर्थ ।

केदारक
संज्ञा पुं० [सं०] साठी धान ।

केदारखंड
संज्ञा पुं० [सं० केदारखण्ड] १. स्कदपुराण का खंड या भाग जिसमें केदारतीर्थ के महात्म्य का वर्णन है । २. स्कंद- पुराण (काशीखंड) के अनुसार वाराणसी के तीन खंड या भूभाग में से एक का नाम । काशी का दक्षिणवर्ती खंड जहाँ केदारनाथ का मंदिर है । ३. जल रोकने के लिये बनाया हुआ मिट्टी का छोटा बंधा [को०] ।

केदारगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० केदारगग्ङा] गढ़वाला प्रात की एक प्रसिद्ध नदी जो गंगा में मिलती है ।

केदारनट
संज्ञा पुं० [सं० केदार + नट] पाड़व जाति का एक संकर राग जो नट औरु केदार को मिलाकर बनता है । विशेष—यह रात के दूसरे पहर में गाया जाता है । इसमें ऋषभ वर्जित है । संगीतपारिजात में इसे ओड़व जाति का राग माना है और इसमें ऋषभ तथा धैवत वर्जित बतलाया है । किसी किसी के मत से यह नटनारायण ता छटा पुत्र भी है ।

कोदारनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय के अंतर्गत एक पर्वत का नाम, जिसके शिखर पर केदारनाथ नामक शिवलिंग है । विशेष—यह समुद्र से ७३३३ फुट ऊँचा है । इसका ऊपरी भाग महापथ कहलाता है और सदा बरफ से ढका रहता है । बहुत प्राचीन काल से यह स्थान एक पवित्र तीर्थ माना जाता है । इसके आसपास और भी अनेक छोटे छोटे तीर्थ है । वैशाखा से कार्तिक तक भारत के भिन्न भिन्न प्रांत से अनेक यात्री दर्शनों के लिये यहाँ जाते हैं ।

केदारा
संज्ञा पुं० [सं० केदारी] दे० 'केदारी' ।

कोदारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीपक राग की पाँचवीं रागिनी जो रात के समय दूसरे पहर की पहली घड़ी में गाई जाती है । इसे केदार भी कहते हैं । विशेष—यह ओड़व जाति की रागिनी है और इसमें ऋषभ तथा धैवत स्वर वर्जित हैं । इसका सरगम यह है ।—नि स ग म प नि नि । पर सोमोश्वर के मत से यह सपूर्ण जाति की रागिनी है और संध्या के समय गाई जाति है । इसका व्यवहार प्रायः वीर और शृंगार रस के वर्णन में किया जाता है ।

केन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध उपनिषद् जिसका पहला मंत्र 'कोनोषितम्.....' 'केन' शब्द से आरंभ होता है । इसे तवल्कार उपनिषद् भी कहते हैं । यह सामवेदी है और इसमें चार खंडो में ३४ मंत्र हैं ।

केन (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] जिला बांद की एक मदी जो विंध्याचल सो निकलकर यमुना नदी में गिरती है ।

केना †
संज्ञा पुं० [सं० क्रेणि = मोल लेना] १. वह थोडा सा अन्न जिसे देकर देहात में लोग तरकारी इत्यादि मोल लेते हैं । कानूका । केजा । २. सागपात । तरकारी । भाजी । ३. एक प्रकार की बरसाती घास जो साग के रूप में काम आती है ।

केनार
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम । कुंभीपाक नरक । २. कपोल । ३. खोपडी । ४. सिर । ५. संधि । जोड [को०] ।

केनिपात, केनिपातक
संज्ञा पुं० [सं०] डाँड या बल्ली जिससे नाव चलाई जाती है । बहाना । अरित्र ।

केनिपातन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोनिपात' ।

कोम (१)
संज्ञा पुं० [सं० कदमाब, प्रा० कयम्ब] कदंब । कदम । उ०— अब तजि नाउँ उपाय कौ आए पावस मास । खेलु न रहिबौ खेम सौं केम कुसुम की बास ।—विहारी (शब्द०) ।

केम (२) पु †
क्रि० वि० [सं० किम, गुज०] किस प्रकार । कैसे । क्यों । उ०—बीसलह राज कथि पुबाब कथ्य । जरौं ताप उधरौं केम नथ्थ ।—पृ० रा० १ । ५५६ ।

केमद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० केनोड्रोमस्] ज्योतिष में चंद्रमा का एक योग । विशेष—वृहज्जातक में वाराहमिहिर के अनुसार यह योग उस समय होता है जवकि चंद्रमावसी राशि के आगे या पीछेवाली राशि पर कोई और ग्रह न हो । फलित के अनुसार यदि इस योग में किसी राजकुमार का भी जन्म हो, तो वह सदा दुःखी और दरिद्र रहता है ।

केमरा
संज्ञा पुं० [अ० कैमरा] फोटो कीचने का यंत्र । दे० 'कमरा'— २ । उ०—केमरा कंधे से उतारकर रखा और कुर्सी पर बैठ भी गए ।—किन्नर, पृ० १४ ।

केमि पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'किमि' । उ०—ब्रत हरै कैमि छत्री अभंग ।—ह० रासो०, पृ० १०७ ।

केमुक
संज्ञा पुं० [सं०] केउआँ । बंडा ।

केयूर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँह में पहनने का एक आभूषण । बिजायठ । बजुल्ला । अंगद । बहुँठा । भुजबंद । भुजभूषण । उ०—कोऊ विशाल मृणाल के केयूर वलय बनावते ।— प्रेमघन०, पृ० ११३ । २. एक प्रकार का रतिबंध (को०) ।

केयूरबल
संज्ञा पुं० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक बोद्ध देवता ।

केयूरी
[सं० कोयूरिन्] जो केयूर पहने हो । केयूरधारी ।

केर
अव्य० [सं० कृत; ] [सं० केरि; केरी] [अन्थ रूप—केरा, केरो]संबंध सूचक अव्यय जो अवधी भाषा तथा अन्य भाषाओं में 'का' और 'के' विभाक्तियों के स्थान में आता है । उ०—(क) छमहु चूक अनजानत कोरी । चहिय विप्र उर कृपा घनेरी ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) मुँजे गेहूँ केरा झाड़ दिखलाया तूँ ।—दक्खिनी०, पृ० ३०० । (ग) सुनत जु बेगुगीत पिय केरो ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९५ ।

केरक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन देश ।

केरल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण भारत का एक देश । विशेष—यह कन्याकुमारी से गोकर्ण तक मलयवार (मलाबार) पर समुद्र के किनारे किनारे फैला हुआ है । इस देश की सीमा भिन्न भिन्न समयों में बदलती रही है । तंर्त्रो के अनुसार केरल के तीन विभाग थे । (१) सिद्ध केरल (सुव्रह्मण्य से जनार्दन तक), (२) हंस केरल (रामेश्वर से वेंकटगिरि तक) और (३) केरल (अनंतशैल से अव्यय तक) । आजकल इस देश को कनारा (कन्नड़) कहते हैं और यहाँ कनारी (कन्नड़) भाषा बोली जाती है । २. [स्त्री० केरली] केरल देशवासी पुरूष । ३. एक प्रकार का पलित ज्योतिष, जिसका आविष्कार केरल देश में हुआ था । इसमें स्वर और व्यंजन अक्षरों के लिये कुछ अंक नियत होते हैं और उन्हीं की सहायता से गणित करके प्रश्न का फल या उत्तर निकाला जाता है । ४. एक घंटे के बराबर का समय । होरा (को०) ।

केरा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केला' उ०—सफल रसाल पुंगफल केरा ।—मानस, २ । ६ ।

केरा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बत्तक जिसे 'पतारी' भी कहते हैं ।

केराना (१)
क्रि० स० [सं० किरण या हिं० गिराना] सूप में अन्न रखकर उसे हिला हिलाहकर बडे़ और छोटे दाने अलग करना ।

केराना (२)
संज्ञा पुं० [सं० क्रयण] नमक, मशाला, हलदि आदी चीजें जो नित्य के व्यवहार में आती और पंसारियों के यहाँ मिलती हैं ।

केरनी (२)
संज्ञा पुं० [अ० क्रिश्चियन] १. वह मनुष्य जिसके माता पिता में से कोई एक यूरेपियन और दूसरा हिंदुस्तानी हो । किरंटा । यूरेशियन । २. अँगरेज दफ्तर में लिखने पढने का काम करनेवाला मुंशी । क्लार्क । यौ०—केरानी खाना = अंगरेजी दफ्तर ।

केराया †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'किराया' ।

केराव †
संज्ञा पुं० [सं० कलाय] मटर ।

केरावल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'किरावल' ।

केरि (१) पु
प्रत्य० [सं० कृत] दे० 'केरी' । उ०—हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ५ ।

केरि (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० केलि] दे० 'केलि' । उ०—तिन ठाम आइ नाहार सुघेरि । वाहंत हथ्थ जनु करिय केरि ।—पृ० रा०, ७ ।१०१ ।

केरी (१)
प्रत्य० [प्रा० केर, केरक] की ।— सुरपति रवनी रमा का चेरी । सो वह चेरी जसुमति केरी ।— नंद० ग्र०, पृ० २५७ । विशेष— यह 'केर' का स्त्री० रूप है ।

केरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] आम का कच्चा और छोटा नया फल । अँबिया ।

केरोसिन
संज्ञा पुं० [अं०] मिट्टी का तेल ।

केल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कदल, प्रा० कयल] दे० 'केला' । उ०— केल रहे नित काँपती कायर जणे कपूर ।— बाँकी ग्रं०, भा० १. पृ० २४ ।

केल (२)
संज्ञा पुं० [सं० केलिक, प्रा० केलिय] एक वृक्ष जो हिमालय पर ६००० से ११००० फुट की ऊँचाई तक होता है । विशेष— यह पेड़ सीधा और बहुत बड़ा होता है । इसकी लकड़ी प्रति घनफुट १७ सेर भारी होती है । इसके दो भेद होते हैं— देशी और बिलायती । दोनों की लकड़ी प्रायः इमारत के काम में आती है । देशी केल की लकड़ी में से चीड़ के तेल की तरह तेल निकलता है और उसका कोयला भी अच्छा होता है जिससे लोहा पिघल जाता है । विलायती केल की लकड़ी जलाने के काम में नहीं आती वह जलाने से चिड़चिड़ाती और जल्दी बुझ जाती है । दोनों की छाल दृढ़ होती है और छत पाटने के काम में आती है । केल की पत्तियाँ और ड़ालियाँ विलाची के काम में लाई जाती है । विलायती केल के पेड़ देखने में सीधे और सुंदर होते है; इसलिये सड़कों पर और मैदानों में लगाए जाते है ।

केलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के नाचनेवाले जो हाथ में तलवार, कटारी आदि लेकर नाचते हैं ।

केला
संज्ञा पुं० [सं० कदलक, प्रा० कयल] एक प्रसिद्ध पेड़ । कदली । विशेष—यह भारतवर्ष, बरमा, चीन, मलाया के टापुओं, अफ्रीका, अमेरिका, दक्षिणी युरोप आदि गरम स्थानों में होता है । इसके पत्ते गज डेढ़ गज लबे और हाथ भर चौड़े होते हैं । इस पेड़, में ड़ालियाँ नहीं होती; अरुई, बंडे आदि की तरह पेड़ी या पूती ही से ऐक पत्ता निकलता है । पेड़ी चिकनी, पर्तदार, छिद्रमय और पानी से भरी होती है । केले के लिये पानी की आवश्यकता बहुत होती है, इसी से इसे नालियों में लगाते हैं । पेड़ साल भर में पूरी बाढ़ को पहुँचता है और तब उसके नीचे से कमस के आकार का कालापन लिए लाल रंग का बहुत बड़ा फूल निकलता है, जो नीचे की ओर झुका होता हैं । यह फूल एकबारगी नहीं खिलता । प्रति दिन एक एक दल खुलता हैं, जिसके अंदर आठ दस छोटी छोटी फलियों की पंक्तीयाँ दिखाई पड़ती हैं । इन फलियों के सिरों पर पीले पीले फूल लगते हैं । इन फलियों की पँक्ति को पंजा कहते हैं । प्रत्येक दल के नीचे एक एक पंजा निकलता है । पीले फूलों के गिर जाने पर यही फलियां ब़ढ़कर बडी़ बडी़ होती हैं । पूरे डंठल को, जिसमें फलियों के कई पंजे होते हैं, घौद कहते हैं । केले की अनेक जातियाँ होती हैं, जिनमें मर्तवान, चंपा, चीनिया मालभोग आदि प्रसिद्ध हैं । केले के फल साधारणतया पकने पर पीले होते हैं, पर कहीं लाल, गुलाबी, सुनहरे औरहरे रंग के केले भी मिलते हैं । केले की फलीयाँ चार अंगुर से लेकर डेढ़ बित्ते तक की होती हैं । जावा में एक प्रकार का केला इतना बड़ा होता हैं जिससे चार आदिमियों का पेट भर सकता है । इस केले का फूल पेड़ी के बाहर नहीं निकलता, भीतर ही भीतर फलता फूलता है । पेड़ी में एक ही फल लगता है जिसके पकने पर पेड़ी फट जाती है । फिलीपाइन द्वीप में भी बहुत बड़े बड़े केले होते हैं बहुत से कैले बीजू होते हैं, जिनकी फलियों में काले काले गोल बीज भरे रहते हैं । इन्हें कटकेल कहते हैं । कच्चे केले की लोग तरकारी बनाते हैं । कच्चे केले को सुखा कर आटा भी बनाया जाता है जो हलका होता है और दवा के काम में आता है । बंगाल में कैले को डंठल की भी तरकारी बनती है । पत्तों के ड़ंठल से जो रेशे निकलते हैं, उनसे चटाई बुनी जाती है और कागज भी बनता है । आसाम और चटगाँव की ओर केलों के जंगल भी है । २. केले का फल । पर्या०—रंभा । मोचा । कदली । अंशुमत्फल । वारणबुषा वारबुषा । सुफला । निःसारा । भानुफला । गुच्छफला । वारणवल्लभा । वन लक्ष्मी । रोचक । चर्मण्वती । ३. पुरुषेंद्रियि (बाजारू) ।

केलि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खेल । क्रीड़ा । २. रति । मैथुन । समागमन । स्त्रीप्रसंग । उ०— अस कहि अमित बनाये एंगा । कीन्ही केलि सबन के संगा ।— रघुनाथ (शब्द०) । यौ०— केलिगृह । केलिनिकेतन । केलिमंदिर । केलिभवन, केलि- सदन = रति या क्रीडा़ का स्थान । केलिनगर = कामासक्त । केलिपर = विलासी । केलिपल्लव = क्रीड़ार्थ तालाब । क्रीड़ा- सरोवर । केलिरंग = क्रीड़ा स्थान । केलिवन = क्रीड़ाउपवन । कोलिशयन= विलासशय्या । केलिसचिव = नर्मसचिव । ३. हँसी । ठट्ठा । मजाक । दिल्लगी । ४. पृथ्वी ।

केलि (२) † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कवली] दे० 'कदली' । उ०— केलि फूल दासी कौ हेतू ।— माधवानल० पृ० २७९ ।

केलित
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक वृक्ष ।

केलिकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती । की वीणा । २. रति । केलि । रतिक्रीड़ा ।

केलिकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाटक का विदूषक । २. शिव कें कुष्मांडक नामक अनुचर का एक नाम ।

केलिकिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामदेव की स्त्री । रति ।

केलिकिलावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'केलिकिला' [को०] ।

कलिकीर्ण
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'क्रमेलक । ऊँट [को०] ।

केलिकुंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० केलिकुञ्चिका] स्त्री की छोटा बहन । छोटी साली [को०] ।

केलिकोष
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नट । अभिनेता । नर्तक । [के०] ।

केलिनि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कदली प्रा० कयली हिं० केलि, केली,] दे० 'केली' उ०— पंथी एक संदेसड़इ लग ढोलइ पैहच्याइ । जंघा केलिनि फलि गई स्वात जुबरसउ और ।— ढोला० दू०, १३२ ।

कोलिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] हास परिहास । हँसी । मजाक [को०] ।

केलिवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कदंब वृक्ष का एक प्रकार [को०] ।

केलिशुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी । धरती [को०] ।

केली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कदली, प्रा० कयली] केले की एक जाति जिसके फल छोटे होते हैं । वि० दे० 'केला' ।

केली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खेल । क्रिडा । २. कामकेलि [को०] । यौं०— केलीपिक = मनोविनोदन के लिये रखी कोयल । केली- वनी = प्रमोदवाटिका । केलीशुक = मनोरंजनार्थ पाला गया सुग्गा ।

केलुराव
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'केल' ।

केलो
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'केल (१)' ।

केव
संज्ञा पुं० [ देश०] एक प्रकार का वृक्ष । विशेष — यह सिंध की पहाड़ियों में और पश्चिमी हिमालय में होता है । इसकी लकडी भूरे रंग की और भारी होती है तथा सजावट के सामान और खिलौने आदि बनाने के काम आती है । इसके फल खाए जाते हैं और बीजों से तेल निकलता है । इसके पौधे पर विलायती जैतून की कलम लग जाती है ।

केवका
संज्ञा पुं० [ सं० कवक = ग्रास] वह मशाला जो प्रसूता स्त्रियों को दिया जाता है ।

केवकी
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दे० 'केवटी' ।

केवट
संज्ञा पुं० [ सं० केवर्त, प्रा० केवट्ट] म्मृतियों के अनुसार कैवर्त क्षत्रिय पिता और वेश्या माता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति थी । इस जाति के लोग आजकल नाव चलाने तथा मिट्टी खोदने का काम करते हैं । उ०— तब केवट ऊँचे चढि जाई । कहेउ भरत सन भुजा उठाई । — तुलसी (शब्द०) । यौ०— केवटपाल = केवट के पालनेवाले श्रीराम । उ०— तुलसी जाके होयगी अंतर बाहिर दीठि । सो कि कृपालुहिं देइगो केवटपालहिं पीठि ? । — तुलसी ग्रं०, पृ० ९० ।

केवटी
संज्ञा स्त्री० [ देश०] एक प्रकार का बहुत छोटा कीड़ा ।

केवटीदाल
संज्ञा स्त्री० [ हिं० केवट = एक संकर जाति + दाल ] दो या अधिक प्रकार की, एक में मिली हुई दाल ।

केवटीमोथा
संज्ञा पुं० [ सं० कैपमुर्त मुस्तक] एक प्रकार का सुगंधित मोथा जो मालवा में होता है । विशेष— इसकी जड़ बहुत सुगंधित होती है और ओषधि के काम में आती हे । वैद्यक में इसे गरम और कफ और वात का नाश करनेवाला तथा दाह, शूल, ब्रण और रक्तविकार को दूर करनेवाला माना है ।

केवड़ई (१)
वि० [हिं० केवडा + ई (प्रत्य०) ] केवड़े के रंग का ।

केवड़ई (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रंग जो केवडे़ की तरह का हलका पीला मिला हुआ सफेद होता है और जो शाहाब, खटाई और तुन के फूलों को मिलाने से बनता है ।

केवड़ा
संज्ञा पुं० [सं० केविका ] १. सफेद केतकी का पौधा जो केतकी से कुछ बड़ा होता है ।विशेष — इसके फूल और पतियाँ केतकी से बड़ी होती हैं । केतकी की पतियों की भाँति इसकी पतियाँ भी चटाइयाँ आदि बनाने के काम आती हैं और इसके फूल से भी अतर और सुगंधित जल बनता तथा कत्था बसाया जाता है । इसमें भी केतकी के प्रायः सब गुण हैं । इसके सिवा वैद्यक में इसके केसर को गरम कंडुनाशक माना है और इसके फल को बात, प्रमेह मौर कफ का नाशक कहा है । विशेष— दे० 'केतकी' । २. इस पौधे का फूल ३. इसके फूल से उतारा हुआ सुगंधित जल या आसव । ४. एक पेड़ जो हरद्वार के जंगलों और बरमा में होता है । विशेष—यह गरमी के दिनों में फुलता है । इसकी लकड़ी सागवन अदि की तरह मजबूत होती है । जिसके तख्तो से मेज, कुरसी संदूक आदि बनाए जाते हैं ।

केवर पु
संज्ञा पुं० [हिं० केवड़ा ] दे० 'केवड़ा' उ०— बहु फुल्लि केवर फूलि । बग बैठि पावस भूमि । — पृ० रा० १४ ।१३८ ।

केवरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'केवड़ा' । उ०— कहुँ रहे केवरा जुही जाय । — ह० रासी० पृ० ६३ ।

केवल (१)
वि० [सं०] १. एकमात्र । अकेला । २. शुद्ध । पवित्र । ३. अमिश्रित । उत्कृष्ट । उत्तम श्रेष्ठ । ४. पूर्ण । समस्त । पूरा (को०) । ५. नग्न । आनावृत (भूमि) (को०) ।

केवल (२)
क्रि० वि सिर्फ । उ० केवल हूँमा की हुँकारी की झांई पर्वत के कंदरों में बोलती है । — श्यामा० , पृ० ७९ ।

केवल (३)
संज्ञा पुं० [वि० केवली] १. वह ज्ञान जो भ्राँतिशून्य और विशुद्ध हो । विशेष — सांख्य के अनुसार इस प्रकार का ज्ञन तत्वाभ्यास से प्राप्त होता है । यह ज्ञान मोक्ष का साधक होता है । इससे ज्ञानी को यह साक्षात हो जाता है किन में कर्ता हूँ, न मेरा किसी से कुछ संबंध है और न मैं स्वयँ पृथक कुछ हुँ । इस प्रकार के ज्ञान से वह पुरुष को साक्षी मात्र के रूप में देखतां है । २. जैन शास्त्रानुसार सम्यक् ज्ञान । ३. वास्तु विद्या में स्तंभ के आधार अर्थात् कुंभी के ऊपर का ढाँचा ।

केवल्वयतिरेकी
संज्ञा पुं० [सं० केवलब्यतिरेकिन्] न्याय के अनुसार एक प्रकार का हेतु जिसका बिलोम 'केवलान्वयी' होता है जिसकी सहायता अनुमान में ली जाती है और जिसे 'शेषवत्' भी कहते हैं । वि० दे० 'अनुमान' ।

केवलात्मा
संज्ञा पुं० [सं० केवलात्मन्] १. पाप और पुण्य से रहित- ईश्वर । २. शुद्धस्वभाववाला मनुष्य ।

कोवलान्वयी
संज्ञा पुं० [सं० केवलान्वयिन्] न्याय में एक प्रकार का हेतु जिसकी सहायता अनुमान में ली जाती है जिसे 'पूर्ववत्' भी कहते हैं । वि० दे० 'अनुमान' ।

केवली (१)
संज्ञा पुं० [सं० केवलिन्] [स्त्री० केवलिनी] १. मुक्ति का अधिकारी साधु । केवलज्ञानी । २. मुक्तिप्राप्त साधु । तीर्थकर (जैन) ।

केवली (२)
वि० १. अकेला । निःसंग २. विशुद्ध । आत्मैक्य कें सिद्धांत को माननेवाला ।३. पूर्ण ज्ञान प्राप्य ज्ञानी [को०] ।

किवाँई
संज्ञा स्त्री० [हिं० केवा ] कुई ।

केवाँच, केंवाँछ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोंच' । उ०— सेज केवांछ जाजु कोइ लावा । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३३ ।

केवांण पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृपाण ] तलवार । उ०— इंद्र भाँण मुकनेश रौ, ग्रह केवांण तरस्स । आसमान छिब आखियो, भाई भांण सरस्स । — रा० रू०, पृ० ७५ ।

केवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुव = कमल] कमल कली । उ०— (क) तोहि अलि कीन्ह आप भा केवा । हौं पठवा गुरु बीच परेवा ।— जायसी (शब्द०) । (ख) स्वर्ग सूर भुई सरवर केवा । बनखंड भवँर होय रस लेवा । — जायसी (शब्द०) ।

केवा (२)
संज्ञा पुं० [ सं० किंवा ] बहाना । मिस आनाकानी । संकोच । उ०— रघुराज कौनहू विसंच नहिं होन पैहै, खासे खासे खुसी खेल खूब खेलवैहौं मैं । केवा जनि कीजै मीरि सेवा सब भाँति लीजै, मीठ मीठ मेवा लै कलेवा करवैहों मै । — रघुराज (शब्द०) ।

केवाड़ †
संज्ञा पुं० [सं० कपाट] दे० 'किवाड़' ।

केवाड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० कपाटक ] दे० 'किवाड़' ।

केवार (१)
क्रि० वि० [सं० कति + वार ] कई बार । अनेक बार । उ०— कई बार साहि बंधयो पाँन । दीनो कैवार जिहि जोव दांन ।— पृ० रा०, २४ ३१२ ।

केवार (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'किवाड़' ।

केवारा पु
संज्ञा पुं० [सं० कपाट] दे० 'किवाड़' । उ०— पौरि पौरि गढ़ लाम केवारा । औ राजा तौं भई पुकारा । — जायसी ग्रं०, पृ० ९४ ।

केविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक फूल का नाम जो कोंकड़ प्रदेश में होता है । सदगंधा ।

केवि पु †
संज्ञा पुं० [सं० के + आपि = केsपि (अन्येsपि) ] शत्रु । दुश्मन । उ०— (क) काँकणि कह काम, काल कहकँवी ।— बोलि०, दू० ७६ । (ख) चूरलियो औ यौतरफ़ केवी वयण कहंत । —बाँकी० ग्रं० भा०, १, पृ० ३४ ।

केश
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिर का बाल । यौ० — केशविन्याश = बाल सँवारना । केशाकेशी= वह लडाई जिसमें दो आदमी एक दूसरे के बाल पकड कर खींचे । २. रश्मि । किरण २. ब्रह्मा की शक्ति का एक भेद । ४. वरुण । ५. शिव । ६. विष्णु ७. सूर्य । ८. शेर या घोडे़ के गले पर बाल । ९. केशी नामक दैत्य । १०. एक ग्रंधद्रव्य (को०) ।

केशक
वि० [सं०] केशरचना में दक्ष [को०] ।

केशकर्म
संज्ञा पुं० [सं० केशकर्मन्] १. बाल झाड़ने और गूँथने की कला । केशविन्यास । २. केशांत नामक संस्कार ।

केशकार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गन्ना [को०] ।

केशकीट
संज्ञा पुं० [सं०] जूँ ।

केशगर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेणी । कवरी २. वरुणदेव [को०] ।

केशघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] सिर कै बाल उड़ना । गंजापन [को०] ।

केशच्छिद
संज्ञा पुं० [सं०] नापित । हज्जाम [को०] ।

केशट
संज्ञा पुं० [सं०] १. खटमल । २. विष्णु । ३. छाया । ४. कामदेव के पाँच वाणों में से शोषण नामक बाण । ५. श्योनोक वृक्षा टेंटू ७. भाई । सहोदर (को०) । ८. ढिल । जँ (को०) ।

केशपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपामार्ग । चिचड़ा ।

केशपाश
संज्ञा पुं० [सं०] बालों की लट । काकुल ।

केशप्रसाधनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंधी [को०] ।

केशबंध
संज्ञा पुं० [सं० केशबन्ध] नृत्य का एक हस्तक जिसमें हाथों को कंघे पर से घुमाते हुए कमर पर लाते हैं और फिर ऊपर सिर की ओर ले जाते हैं ।

केशमथनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शमी का पेड़, जिसके काँटो मे बाल उलझ जाते हैं ।

केशमार्जक, केशमार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] केशप्रसाधनी । ककही । कंघी [को०] ।

केंशरंजन
संज्ञा पुं० [ सं० केशरञ्जन] भृगंराज । भँगरैया ।

केशर
संज्ञा पुं० [सं० केसरी ] दे० 'केसर' ।

केशराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का भुजंगा पक्षी । २. भँगरैया । भृंगराज ।

केशराम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनार । दाड़िम । २. बिजौरा नीबू ।

केशरी
संज्ञा पुं० [सं० केसरी ] दे० 'केसरी' ।

केशरूपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेड़पर का बाँदा ।

केशलुंचक
१) संज्ञा पुं० [ सं० केशलुञ्चक] सिर के बाल नोचनेवाला, जैन यति ।

केशव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम २. कृष्णचंद्र का एक नाम । राधारमण । गौपीनाथ ३. ब्रह्मा । परमेश्वर । विशेष— इस अर्थ का विवरण महाभारत में इस प्रकार वर्णित हैं— अंशवों ये प्रकाशंते मम केशसंझिताः । सर्वझाः केशवं तस्मात् प्राहुर्मा द्विजसत्तमाः । — महाभारत । ४. विष्णु के चौबिस मूर्तिभेदों में से एक । ५. पुंनाग वृक्ष । ६. मार्गशीर्ष का महीना । अगहन (को०) । ७. हिंदी के एक कवि जिनकी लिखी रामचंद्रिका है ।

केशव (२)
वि० सुंदर बालोंवाला । प्रशस्त केशवाला [को०] ।

केशवपन
संज्ञा पुं० [सं०] बाल बनवाला या कटाना [को०] ।

केशवपनीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अतिरात्र यझ जो दो पशु बंध यागों के अनंतर किया जाता है । इस यज्ञ के अंत में ज्येष्टा पौर्णमासी सुत्य सोमयाग करना पड़ता है ।

केशवर्धिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेवी नाम की बूटी । सहदेइया ।

केशवायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का आयुध । २. आम ।

केशवालय
संज्ञा पुं० [सं०] वासुदेव पृक्ष । पीपल ।

केशवावास
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल का वृक्ष [को०] ।

केशविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] बालों की सजावट । बालों का सँवारना ।

केशवेश
संज्ञा पुं० [सं०] वेणी । कवरीबंध [को०] ।

केशवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] सीमंत । माँग [को०] ।

केशशूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या । वारांगना [को०] ।

केशहंत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० केशहन्त्री] समी का पृक्ष । केशघ्न ।

केशांत
संज्ञा पुं० [सं० केशान्त] १. सोलह संस्कारों में से एक । विशेष ब्राह्मण को यह संस्कार सोलहवें बर्ष, क्षत्रिय को बाईसवें वर्ष और वैश्य को चौबीसवें वर्ष करने का विधान है । यह संस्कार यज्ञोपवीत के बाद और समावर्तन के पहले होता था और इसमें ब्रह्मचारी के सिर के बाल मूडे़ जाते थे । इसे गोदानकर्म भी कहते हैं । २. मूंडन । ३. बाल का सिरा ।

केशारुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेवी नामक बूटी । सहदेइया ।

केशि
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस जिसे कृष्ण ने मारा था ।

केशिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० केशिकी] अलंकृत या सुंदर घुँघराले चिकने बालोंवाला [को०] ।

केशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सतावरी ।

केशिती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जटामासी । २. चोरपुष्पी नाम की एक औषधि । ३. वह स्त्री जिसके सिर के बाल सुंदर और बडे़ हों । ४. एक अप्सरा का नाम जो कश्यप की पत्नी और प्रधा की कन्या थी । ५. पार्वती की एक सहचरी । ६. राजा अजमीढ़ की रानी का नाम । ७. राजा सगर की एक रानी का नाम । ८. भागवत के अनुसार रावण की माता कैकसी का एक नाम । ९. एक प्राचीन नगरी का नाम । १०. दमयती की उस दूती का नाम जो नल के भेस बदलकर आने पर उसके पास दमयंती का संदेसा लेकर गई थी ।

केशी (१)
संज्ञा पुं० [सं० केशिन्] [स्त्री० केशिनी] १. प्राचीन काल के एक गृहपति का नाम । २. एक असुर जिसे कृष्ण ने मारा था । ३. घोडा ४. सिंह ।५. एक यादव का नाम ।

केशी (२)
वि० १. किरण या प्रकाशवाला । २. अच्छे बालोंवाला ।

केशी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पौधा । २. भूतकेश नाम की ओषधि । ३. केवांच । कौंच ४. एक वृक्ष जिसकी पतियाँ खजूर की पतियों से मिलती जुलती होती हैं । ५. दुर्गा (को०) । ६. चोटी (को०) ।

केश्य (१)
वि० [सं०] १. केश संबंधी । २ बाल बढ़ानेवाला [को०] ।

केश्य (२)
संज्ञा पुं० १. काला अगर । २. महाबला नामक पौधा (को०) ।

केस (१)
संज्ञा पुं० [सं० केश] दे० १.'केश' । २. आँख का एक रोग जिसमें आँख के कोनो में लाल मांस निकलता है, जो क्रमशः बढ़ता जाता है और धीरे धीरे सारी आँख को ढक लेता है ।

केस (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी चीज को रखने का खाना या घर । जैसे— चश्मे का केस २. मुकदमा । ३. दुर्घटना । ४. लकड़ी का एक प्रकार का चौकोर घेरा जो प्रायः एक हाथ चौड़ा दो हाथ लंबा और तीन चार अंगुल ऊँचा होता है जिससे टाइप रखने के लिये बहुत छोटे छोटे खाने बने रहते हैं । — (छापाखाना) ।

केसई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कसई' या 'कसी' ।

केसर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाल की तरह पतले पतले वे सींकै जो फुलों के बीच रहते हैं । किंजल्क । विशेष — यह दो प्रकार का होता है । एक वह जो घुंडी के किनारे किनारे होता है और जिसमें नोक पर छोटे, चिपटें दाने होते हैं । इसमें पराग रहता है और यह 'परागकेसर' कहलाता है । दूसरा वह जो घुडी के बीच में होता है । इसमें पराग नहीं होता और यह 'गर्भकेसर' कहलाता है । २. एक प्रकार के फूल का बीच का पतला सींका या केसर जिसका पौधा बहुत छोटा होता है और पत्तियाँ घास की तरह लंबी और पतली होती हैं । विशेष — केसर का पौधा स्पेन, फारस, कश्मीर, तिब्बत और चीन में होता है । कश्मीर का केंसर रंग में सर्वोंत्तम माना जाता है और स्पेन का सुगंध में । इसका फूल बैगनी रंग की झाई लिए बहुत रंगों का होता है और पौधे में फूल निकलने के बाद पत्तियाँ लगती हैं । प्रत्येक फूल में केवल तीन केंसर होते हैं, इसीलिये आधी छटाँक असल केसर के लिये प्रायः चार हजार फूलों की आवश्यकता होती है । केसर निकाल लेने के बाद फूल को धूप में सुखाकर हलकें डंडों से कूटते हैं और तब उसे किसी जलभरे बरतन में डाल देते हैं । उसमें से जो अंश नीचे बैठ जाता है, वह 'मोंगला' कहलाता है और मध्यम श्रेणी का केसर होता है । जो अंश जल में न डूबकर पानी के ऊपर रह जाता है, बह फीर सूखकर और कूटकर पानी में डाला जाता है । इस बार जो केसर जल में डूब जाता है, वह निकृष्ट श्रेणी का होता है और 'नीबल' या 'निर्बल' कहलाता है । केसर का पौधा विशेष प्रकार की ढालुआँ जमीन में होता है, जो इसी कार्य के लिये आठ बर्ष पहले से बिलकुल परती छोड़ दी जाती है । इस पौधे की गाँठों से चौदह वर्ष तक फूल निकलते रहते हैं । इसके फूल कातिक में लगते और संग्रह किए जाते हैं । केसर बहुत ही सुगंधित और गरम होता है और खाने पीने की चीजों मे सुगंध के लिये डाला जाता है । केसर का रंग देखने में गहरा लाल होता है, पर पीसने पर पोला हो जाता है । वैद्यक में केसर को सुगंधित, तिक्त, उष्णवीर्य, रुचिकारक, कांतिवर्द्धक, कंडुनाशक, विरेचक और कास, वायु, कफ, कृमि तथा त्रिदेष का नाशक माना है । डाक्टरी मत मे यह ज्वर और यकृत् का नाशक और रजोनिस्सारक है, पर आजकल के कुछ नए डाक्टर इसका कोई गुण स्वीकार नहीं करते । पर्या०—काश्मीरजन्म । अग्निशिख । पीतन । रक्त । संकोच । पिंडन । लौहित चंदन । चारु । रुधिर । शठ । शोणित । अरुण । काँत । खल । रज । दीपक । सौरभ । चंदन । ३. घोडें, सिंह आदि जानवरों की गरदन पर के बाल । अयाल । ४. नागकेसर । ५. बकुल । मौलसिरी । ६. पुन्नाग । ७. हींग का पेड़ । ८. एक प्रकार का विष । ९. स्वर्ग । १०. कसीस ।

केशर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० केसरी ] सिंह । उ०— धक धकहि धुकहि तक्कहि चकहि, दिघ्घ उसामन उल्हसहि । प्रथिराज कुँवर कोबंड डर, गिर कंदर केसर बसहि । — पृ० रा० ६ ।१०३ ।

केसराचल
संज्ञा पुं० [सं०] मेरु पर्वत [को०] ।

केसराम्ल (१
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नामक नींबू [को०] ।

केसरि (१
पु दे० संज्ञा स्त्री०[सं० केसर ] दे० 'केसर' (१) । उ०— पेट पत्र चंदन जनु लावा । कुंकुह केसर बरन सोहावा । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९५ ।

केसरि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] हनुमान के पिता का नाम [को०] । यौ०— केसरिकिशोर = (२) हनुमान । (२) सिंहशावक । केसरितनय । केसरिनंदन । केसरिपुत्र । केसरिसुत = हनूमान ।

केसरीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सहदेई ।

केसरीया
वि० [सं० केसर + हिं० ईया (प्रत्य०) ] १. केसर के रंग का पीला । जर्द । जैसे, — केसरिया बाना । २. केसर के रंग में रँगा हूआ । ३. केसरमिश्रित । केसरयुक्त । जैसे— केसरिया चंदन । केसरिया बरफी ।

केसरी
संज्ञा पुं० [सं० केसरिन्] १. सिंह । घोड़ा ३. नागकेसर । ४. पुन्नाग । ५. बिजौरा नीबू । ६. हनुमान जी के पिता का नाम । ७. उड़ीसा का एक प्राचीन राजवंश । ८. एक प्रकार का बगुला । ९ एक प्रकार का चारखाना (कपडा) ।

केसारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कृसर, प्रा० किसर] मटर की जाति का एक अन्य, जिसे दुबिया मटर भी कहते हैं । विशेष— इसके दाने छोटे चिपटें चौकोर और मटमैले होते हैं और पत्तियाँ लंबी तथा पतली होती हैं, इसकी फलियाँ छोटी और निपटी होती हैं जिनपर कभी कभी छोटे दाग भी होते हैं । वैद्यक में यह कदन्न कहा गया है और डाक्टरी मत से इसे खाने से लकवा हों जाता है । इसे कसारी, खेसारी और लतरी भी कहते हैं ।

केसु †, केसू †
संज्ञा पुं० [सं० किंशुक] ढाक । टेसूपलास । उ०— (क) केसु कुसुम सिंदूर सम मास' केतकी धूल विथुरलह पर वास । — विद्यापति, पृ० १०६ । (ख) कहाँ ऐसी राँचनि हरदि केसू केसरी मैं, जैसी पियराई गात पगियै रहति है । घनानंद, पृ० ७१ ।

केसौ पु
संज्ञा पुं० [सं० केशव] दे० 'केशव' । उ०— ता पाछे एक बार ही रोईं सकल ब्रजनारि हो करुणामय नाथ हो केंसौ कृष्ण मुरारि । — नंद ग्रं०, पृ० १८६ ।

केहइ
वि० [ सं० किदृश, अपठ केह] दे० 'कैसा' उ०— थल मथ्यइ, ऊजासडउ, थे इण केहइरंग । धण लीजइ, प्री मारिजइ, धाँड़ि विडाँणउ संग । — ढोला०, दू० ६५३ ।

केहर
संज्ञा पुं० [सं० केसरी > पुं० हीं० केसर] कैहरी । सिंह । उ०— केहर रै हाथल करी, कीधी दात बराह । — बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २ ।

केहरी, पु केहरी (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० केसरी] सिंह । शेर । उ०— (क) लंक पुहुमि अस आहि न काहूँ । कहौं केहरि न ओहि सर ताहूँ । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९७ ।(ख)किहरि कंधर बाहु बिसाला, उर अति रुचिर नाग मनि माला ।— तुलसी (शब्द०) । २. घोड़ा ।

केहरी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कीसा = थैली] एक छोटा जुजदान जिसमें दर्जी, मोची आदि अपने सीने की चीजे या स्त्रीयाँ आवश्यक समान रखती हैं । छोटी थैली ।

केहा
संज्ञा पुं० [ सं० केका० प्रा० केआ] १. मोर । मयूर । २. एक छोटा जंगली पक्षी जो बटेर के समान हेता हैं । उ०— धरी परेव पांडुक टेरी । केहा कदरो उतर बगेरी ।— जायसी (शब्द०) ।

कोहि पु
वि० [प्रा० किस्स] किस । उ० केहि कारण आगमन तुम्हारा । कहहु सो करत न लावहु बारा । —तुलसी (शब्द०) विशेष — यह अवधी के का कमं; संप्रदान ओर अधिकरण रूप है ।

केहु पु
सर्व० [ सं० केsपि] कोई । उ०— सतगुरु जानु सत्त सुख बानी, । शब्द साँच बिरला केहु जानी । — दरिया० बानी पृ० ८ ।

केहुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कफोणी] १. कोहनी । कुहनी । २. पीतल या ताँबे की बह टेढ़ी नली जो नैचे में नै और जलेबी को जोडती है ।

केहूँ पु
क्रि० वि० [सं० कथम्] किसी प्रकार । किसी भाँति । किसी तरह ।

कैंकर्य
संज्ञा पुं० [सं० कैङ्कर्य ] किंकरता । सेवकाई । सेवा । खिदमत । उ०— मज्जहिं मदाकिनी नित जाई । निज कर करि कैंकर्य सदाई — रघुराज (शब्द०) ।

कैंचा (१)
वि० [हिं० काना + ऐंचा] ऐचाताना । भेंगा ।

कैंचा (२)
संज्ञा पुं० [?] वह बैल जिसका एक सींग सीधा खड़ा हो और दूसरा शींग आँख के ऊपर होता हुआ नीचे को जाता है ।

कैजा (३)
संज्ञा पुं० [ हिं० कैंची] बड़ी कैची ।

कैंची
संज्ञा स्त्री० [ तु०] १. लाल कपडे़ आदि काटने या कतरने का एक औजार । कतरनी । विशेष—इसमें समान आकृति के दो लंबे फाल होते हैं जो परस्पर एक दूसरे के ऊपर रखकर कील से जडे़ जाते हैं । कैंची कई प्रकार की होती है — जैसे बाल काटने की कैंची, बत्ती काटने की कैची, दर्जी की कैची लोहार की कैंची बागबान की कैची, डाक्टर की कैंची इत्यादि । मुहा०— कैंची करना = काटना छाँटना । जैसे— बागवान पेड़ो को कैंची कर रहा है । कैची काटना = नजर बचाकर निकल जाना । रास्ता काटकर निकल जाना । कतराना । (२) पहले कहकर किसी बात मे इनकार कर जाना । काट जाना । कैंचि बाँधना = (१) दोनों रानों से दबाना । — (सवार) । (२) बिपक्षी को अपने नीचे लाकर दोनों रानों से दबाना ।— (कुश्ती) । कैंची लगाना = (१) काटना । बाल छाँटना कलम करना । (२) सिर के बालों को कैंची से काटना । छाँटना । २. दो सीधी तीलियाँ या लकड़ियाँ जो कैंची की तरह एक दूसरी के ऊपर तिरछी रखी, बाँधी या जडी हों । विशेष — छाजन में कभी कभी एक सीधी धरन के स्थान पर दो उठी हुई लकड़ियाँ लगाते हैं, जो सिरों के पास एक दूसरी पर आड़ी बाँध दी जाती हैं । यौ०—कैंची का जंगला =वह जिसमें पतली पतली तीलियाँ एक दूसरी पर तिरछी लगी हों । मुहा०—कैंची लगाना = दो या अधिक लकड़ियों को कैंची की तरह एक दूसरी के ऊपर तिरछा रखना या बाँधना । ३. सहारे के लिये धरन के बहुए में लगी हुई दो तिरछी लकड़ियाँ । ४.कुश्ती का एक पेच, जिसमें प्रतिपक्षी की दोनों टाँगों में अपनी टाँगे फँसाकर उसे गिराते हैं । क्रि० प्र०—बाँधना । ५. मालखंभ की एक ककसरत जिसमें खिलाड़ी दौड़ता हुआ या उड़कर सीधे बिना मालखंभ को हाथ लगाए, कमरपेटे की रीति से मालखंभ को बांधता है । क्रि० प्र०— बाँधना ।

कैंटीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] जलपानगृह । ऐसे जलपान गृह छात्रावासों, सैनिक छावनियों आदि में होते हैं, जहाँ उस विभाग के लोगों के लिये चाय, बिस्कुट जलपान आदि की व्यवस्था रहती है ।

कैडल
संज्ञा पुं० [ हिं० कैडा वा दैश०] एक प्रकार का पक्षी । बनतीतर ।

कैड़ा
संज्ञा पुं० [सं० काण्ड = एक प्रकार की वर्गमाप ] १. वह यंत्र जिससे किसी चीज का नकशा ठीक किया जाता है । डोल डालने का औजार । २. किसी वस्तु का विस्तार आदि नापने का अँहड़ा । पैमाना । मान । मुहा०—कैंडा करना = (१) सरसरी तौर से नापना । अंदाज करना । (२) डौल डालना । कैड़ा लेना = चिट्ठा लेना । खाका बनाना । ३. चाल । ढंग । तर्ज । काटछाँट । जैसे, — वह न जाने किस कैंडे़ का आदमी है । ४. चालबाजी । चतुराई ।

कैता
संज्ञा पुं० [हिं० कैत = किनारा ] पत्थर की वह पट्टी जो दीवार में फरकी के दोनों तरफ जौड़ाई के बल उसे रोकने के लिये आड़ी लगाई जाती है ।

कैंप
संज्ञा पुं० [अं०] हाकिमों या सेना के ठहरने का स्थान । पड़ाव । लश्कर । छावनी । कंपू ।

कैंबा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कैमा' ।

कैवच
संज्ञा पुं० [सं० कपिकच्छु; प्रा० कइ कच्छु, कवियच्छु] दे० 'केवाँच' । उ०—बैरी कंटक नाग विष बीछु कैंवच बाघ । यासू दूर रहंतड़ा, दूर रहै दुख दाघ । — बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६४ ।

कै (१)
वि० [सं० कति प्रा० कइ ] कितना । किस कदर । जैसे — कै आदमी आए हैं ।

कै (२)पु
अव्य० [सं० किम्] या । वा । अथवा । या तो । उ०— जन्म सिरानो ऐसे ऐसे । कै घर घर भरमत जदुपति बिन, कै सोवत कै जैसे । कै कहुँ खान पान रसनादिक, के कहुँ वाद अनैसे । —सूर (शब्द०) ।विशेष — इस शब्द के साथ प्रश्न में 'धौं' 'धौं' प्रायः आता है । जैसे, — (क) कैधों व्योमबीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु कैधों रस बीर तरवारि सी उधारी है । — तुलसी ग्रं०, पृ० १७० । (ख) कैधों अनंग सिंगार को रंग लिख्यो नर मंत्र बसीकर पी को । — दिनेश (शब्द०) ।

कै (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा जड़हन धान ।

कै (४)†
प्रत्य० [सं० प्रत्य० क ] संवंधवाचक का, की के स्थान पर प्रयुक्त विभक्ति । उ०— (क) रामकथा कै मिति जग नाहीं ।— मानस, १ ।३३ । (ख) धोबी कै सो कूकर न घर को न घाट को । तुलसी ग्रं०, पृ० ११२ । विशेष — करण कारक के रूप में भी इसका प्रयोग होता है; जैसे, — कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा । — मानस, १ । २७० ।

कै (५)
संज्ञा स्त्री० [ अ० कै] वमन । छाँट । उलटी । क्रि० प्र०— आना ।—करना — होना ।

कैइक पु
वि० [सं० कति + एक ] कई एक । अनेक । उ० — कैइक रहे तही अरगाने । अक्रूरादिक अनसनमाने । — नंद० ग्रं०, पृ० २२४ ।

कैउ पु †, कैउक पु †
वि० [ सं० कति + एक] दे० कैऊ' । उ०— (क) कैउ बरस में काटि कै, महि पारयो अरिमाथ । — पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९४ । (ख) मन कौन सौ जाय अटक्यौ रे । एसै बंध्यौ छोरयौ न छूटै कैउक बरियाँ भटक्यौ रे । — सुंदर ० ग्रं० भा० २, पृ० ९२४ ।

कैऊ पु
वि० [सं० कति + एक ] कई एक । अनेक । उ०— ऐसे कैऊ जुद्ध जीते सिंह सुजान ने । तब मलार ह्वै सुद्ध, कुरम सों एकौ कियौ । — सुजान०, पृ० ३५ ।

कैक पु
वि० [सं० कति + एक ] कितने ही । कई एक । उ०—कैक बचन कहे नर्म कैक रसवर कवनि पर । एक कहै तिय धर्म परम भेदक सुंदर पर । — नंद० ग्रं०, पृ० २७ ।

कैकई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कैकेयी] दे० 'कैकेयी' । उ०— कैकइ सुअन जोगु जगु जोई । चतुर विरंचि दीन्ह मोहि सोई ।— मानस, २ । १८१ ।

कैकट
संज्ञा पुं० [सं० कीकट] देशविशेष । कीकट । उ०— उतपन कैकट देश कलि असुर जग्य जय हारि । जयु जय बुद्ध सरूप सजि है सुर सिद्धि सुधार । — पृ० रा०, २ । ५६५ ।

कैकय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश । दे० 'केकय' ।

कैकयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] केकय जनपद की स्त्री [को०] ।

कैकस
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस ।

कैकसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुमाली राक्षस की कन्या और रावण की माता ।

कैकेय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कैकेयी] १. कैकय गोत्र का पुरुष । २. कैकय देश का राजा ।

कैकैयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कैकय गोत्र में उत्पन्न स्त्री । २. राजा दशरथ की वह रानी जो भरत की माता थी और जिसने मंथरा के बहकाने से रामचंद्र के वनवास दिलवाया था ।

कैगर
संज्ञा पुं० [सं० कीकट = कीकर] एक प्रकार का ऊँचा और सुंदर पेड़ ।

कैट
वि० [सं०] कीट संबधी । कीटयुक्त [को०] ।

कैटज
संज्ञा पुं० [सं०] कुटज वृक्ष [को०] ।

कैटभ
संज्ञा पुं० [सं०] मधु नामक दैत्य का छोटा भाई जिसे विष्णु ने मारा था । यौ०— कैटभजित् । कैटभारिपु । कैटभहा । कैटभार्दन = दे०' कैटभारि' ।

कैटभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम ।

कैटभारि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

कैटर्य
संज्ञा पुं० [सं० कैटर्य्य, कैटर्य] १. कायफल । २. नीम । ३. महानिंब । ४. मदन वृक्ष । मदनी ।

कैटलग
संज्ञा पुं० [अं०] सूचीपत्र । फेहरिस्त । फर्द ।

कैड़र्य
संज्ञा पुं० [सं० कैड़र्य, कैड़र्य्य] १. कायफल । २. करंज । ३. पूतिकरंज ।

कैत (१
† संज्ञा स्त्री० [हि० कित] और । तरफ ।

कैत (२)
संज्ञा पुं० [सं० कपित्थ] दे० 'कैथ' ।

कैतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] केतकी का फूल ।

कैतक (२)
वि० केतकी का । केतकीवाला । केतकी सबंधी [को०] ।

कैतव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धोखा । छल । कपट । धूर्तता । २. जुआ । द्यूत क्रिड़ा । ३. वैदूर्य मणि । लहसुनियाँ । ४. धतुरा ।

कैतव (२)
वि० १. धोखेबाज छली । २. धूर्त । शठ । ३. जुआ खेलनेवाला । जुआरी ।

कैतवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुआ खेलना । द्यूतक्रिड़ा । २. जुए में की जानेवाली धूर्तता [को०] ।

कैतवापहनुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपहनुति अलंकार का एक भेद जिसमें प्रकृत अर्थात् वास्तविक विषय का गोपन या निषेध स्पष्ट शब्दों में न करके व्याज से किया जाय । इसमें प्रायः व्याज, मिस आदि शब्द आ जाते हैं । जैसे,— 'रसना मिस विधि ने धरि साँपिनि खल मुख माहि' । इसमें जिह्वा का निषेध शब्दों द्वारा नहीं बल्कि अर्थ से होता है । इसे आर्थी भी कहते हैं ।

कैतसाली †
संज्ञा स्त्री० [अ० कहत + फा० साली] दुर्भिक्ष । अकाल । भुखमरी । उ०— जैती भूमि भँरू रावराजा की दुहाई । कीनू राज जेतं कैतसाली भी न आई । —शिखर०, पृ०, ११२ ।

कैतून
संज्ञा स्त्री० [अ० कै़तून] एक प्रकार की बारीक लैस जो कपड़ों में किनारे किनारे लगाई जाती है । यह प्रायः सुनहले तार और रेशम से बनती है; पर कभी कभी खाली ऊन या रेशम को भी बनाई जाती है ।

कैथ
संज्ञा संज्ञा पुं० [सं० कापित्थ, प्रा० कइत्थ] एक कँटीला पेड़ जो बेल के पेड़ के समान होता है और जिसमें बेल के आकार के फल लगते है । विशेष—इसकी पत्तियाँ छोटी, जड़ की ओर लंबोतरी और आगे की और गोल होती हैं और एक सीके में लगी रहती हैं । फल खाने में कसैला और खटमिट्ठा होता है और उससे चटनीतथा अचार बनाते है । लोग कहते है, हाथी पूरा कैथ बिना चबाए निगल जाता है और कुछ समय बाद उसकी लीद के साथ पूरा कैथ निकलता है, जिसमें गूदे के स्थान में लीद भरी होती है । इसीलिये संस्कृतवालों ने एक 'गजकपित्य' न्याय बना रखा है । इसकी लकड़ी जरदी लिए सफेद और मदबूत होती है और सगहे बनाने के काम में आती है । पर्या०— कर्पित्थ । दघित्थ । ग्राही । मनमथ । दधिफल । पुष्पफल । दंतशाठ । कगित्थ । मालूर । मंगल्य । नील मल्लिका । ग्राहि- फल । चिरपाकी । ग्रंथिफल । कुचफल । कपिष्ठ । गंधफल । दंतफल । करवल्लभ । कठिन्यफल । करंजफलक ।

कैथा †
संज्ञा पुं० [हि० कैथ] दे० 'कैथ' ।

कैथिन †
संज्ञा स्त्री० [हि० कायथ] कायस्थ जाति की स्त्री ।

कैथी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कैथ] एक प्रकार का कैथ जिसके फल छोटे छोटे होते हैं ।

कैथी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० कायथ] एक पुरानी लिपि जो नागरी से मिलती जुलती होती है । विशेष—यह शीघ्र लिखी जाती है और इसमें टेक या शीर्ष रेखा नहीं होती । इसमें एक ही सरकार होता है और ऋ, लृ, लू, स्वर तथा ङ् ञ ण व्यंजन नहीं होते । संयुक्तप्रांत तथा बिहार में चिट्ठी पत्री और हिसाब किताब प्रायः इसी लिपि में लिखे जाते हैं ।

कैद
संज्ञा स्त्री० [अ० कै़द] [वि० कैदी] १. बंधन । अवरोध । २. एक प्रकार का दंड़ जों राजनियम के अनुसार या राजाज्ञा से दिया जाता है और जिसमें अभियुक्त को किसी बंद स्थान में रखते हैं । कारागारवास । कारावास । विशेष—आजकल अंग्रेजी कानून में कैद तीन प्रकार की होती है । कैद महज या सादी कैद, कैद सख्त और कैद तनहाई । यौ०— कैदखाना । क्रि० प्र०—करना ।—भुगतना ।—रखना ।—होना । मुहा०—कैद काटना या भरना = कैद में दिन बिताना । कैद में रहना । ३. किसी प्रकार की शर्त, अटक या प्रातिबध । जैसे, (क) —पहले मिडिल पास मुखतारी की परीक्षा दे सकते थे; पर अब इसमें एंट्रेस की कैद लग गई है । (ख) सरकारी नौकरी में उम्र की कैद हैं । क्रि० प्र०—रखना ।—लगाना ।—लगाना ।—होना ।

कैदक
संज्ञा स्त्री० [अ० कैदक] एक प्रकार का कागज का बंद या पट्टी जिसमें किसी एक बिषय या व्यक्ति से संबध रखनेवाले कागज आदि रखे जाते हैं ।

कैदखाना
संज्ञा पुं० [फा० कैदखानह] वह स्थान जहाँ कैदी रखे जाते हों । कारागर । बंदीगृह । जेलखाना ।

कैदतनहाई
संज्ञा स्त्री० [अ० कैद + फा० तनहाई] वह कैद जिसमें कैदी को बहुत हो छोटी और तंग कोठरी में अकेले रखा जाय । कालकोठरी ।

कैदमहज
संज्ञा स्त्री० [अ० कृदमहज] वह कैद जिसमें कैदी को किसी प्रकार का परिश्रम या काम न करना पड़े । सादी कैद ।

कैदसख्त
संज्ञा स्त्री [अ० कैद+फा० सख्त] वह कैद जिसमें कैदी को कठिन परिश्रम करना पड़े । कड़ी कैद ।

कैदसोवारी
संज्ञा स्त्री० [हि० कै़द + सोवारी] तबले की एक गत जिसका बोल यह है— +  ०  ।  । केटे  ता  दिनता  त्रेकेटे,  धकिटे ०  ।  ।  ०  + दिनत धाकेट धाकेट । दिनता । धा ।

कैदार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्माख नाम की लकड़ी । पद्मकाष्ठ । २. शालि धान । ३. एक प्रकार का बढ़िया धान । ४. खेतों का समूह [को०] ।

कैदी
संज्ञा पुं० [अ० कै़दी] वह जो कैद किया गया हो । वह जिसे कैद की सजा दी गई हो । बंदी । बँधुवा ।

कैधौं
अव्य० [हि० कै + धौं] या । वा । अथवा । उ०— प्यारो की ठोढ़ी के बिंदु दिनेश किधौं बिसराम गोविंद के जी को । चारु चुभ्यों कनिका मनि नील को केधौं जमाव जम्यो रजनी को । कैधौं अनंग सिंगार को रंग लिख्यो नर मंत्र बसीकर पी को । फूले सरोज में भौंरी बसी किधौं फूल ससी में लग्यो अरसी को ।—दिनेश (शब्द०) ।

कैन †
संज्ञा स्त्री० [सं० कञ्चिका] १. बाँस की टहनी । २. किसी वृक्ष की पतली टहनी ।

कैना
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का क्षुप या पौधा, जिसकी पत्तियों का लोग साग बनाते हैं ।

कौनित
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक खनिज पदार्थ जो खाद के काम में आता है । इसमें जवाखार या पुटाश का अंश अधिक होता है ।

कैप
संज्ञा पुं० [अ०] टोपी ।

कैपिटल
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी व्यक्ति या समुदाय का ऐसा । समस्त धन जिसे वह किसी व्यवसाय या काम सें लगा सके । धन । संपत्ति । पूँजी । २. वह धन जो किसी व्यापार या व्यवसाय में लगाया गया हो । या जिससे कारोबार आरंभ किया गया हो । किसी दूकान, कोठी, कारखाने, बैंक आदि को निज की चर या अचर संपत्ति । पूंजी । मूलधन । ३. वह सब सामग्री जिसने द्वारा संपत्ति अर्जित की जा सके । ४. कीसी देश का मुख्य या प्रधान नगर जिसमें राजा या राज प्रतिनिधि या प्रधान सरकार हो ।

कैपिटलिस्ट
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'पूँजीपति' ।

कैफ
संज्ञा पुं० [अ० कैफ] नशा । मद । उ०— हरो हरो रंग दिखि कै भूलत है मन हैफ । नीम पतौवन में मिलै कहू भाँग को कैफ । —रसनिधि (शब्द०) । २. बुलबुल को खिलाने का वह चारा जिसमें भाँग या और कोई मादक द्रव्य मिला रहता है और जो उसे लड़ाने के पहले दिया जाता है ।

कैफियत
संज्ञा स्त्री० [सं कैफ़ियत] १. समाचार । हाल । वर्णन । २. विवरण । तफसील । क्रि० प्र०—देना । पूछना ।—माँगना ।—लिखना ।मुहा०—कैफियत तलब करना = नियमानुसार विवरण माँगना । कारण पूछना । ३. आश्चर्यजनक या हर्षात्पादक घटना । जैसे—आज बड़ी कैखियत हुई । क्रि० प्र०—दिखाना ।—होना ।

कैफां
वि० [अ० कैफ़ी] १. मतवाला । मद भरा । उ०— नोहिन उर आवत लख्यो जबही धीरज सैन सैफी हेरन में पटे कैफी तेरे नैन । —रसनिधि (शब्द०) । २. नशीबाज ।

कैफीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० कैफ़ीयत] दे० 'कैफियत' [को०] ।

कैंबर
संज्ञा स्त्री० [देश०] तीर ता फल या गाँसी । उ०— (क) सीस झरेखे ड़रि कै, झँकी घूँघट टारि । कैबर सी कसकै हिये, बाँकी चितवन नारि ।—शृं० सत० (शब्द०) । (ख) रंगी नैन मैं औरी ललाई दैरि आई है, कि साँचौ काम कैंबर विश्व शौनित में ड़ुबाई हैँ । —प्रताप (शब्द०) । (ग) विष भरे कैबर नसै बर गरव एरे तेरे तुल्य बचन प्रपंचित को गायो है ।—दुलह (शब्द०) ।

कैबा
अव्य० [सं० कति + बार] अनेक बार । बार बार । कई बार ।

कैबार पु
संज्ञा पुं० [सं० कपाट] किवाड़ । द्वार का पल्ला ।

कैबिनेट
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. वह कमरा जिसमें राजा महाराज आदि अपने विश्वासपात्र मंत्रियों के साथ प्रबंध संबंधी सलाह करते हैं । २. मुख्य मंत्रियों की वह विशेष सामिति जो किसी एकांत स्थान में बैठकर राज्यप्रबंध पर विचार करे । मत्रिसमाज । मंत्रिमंडल । ३. लकड़ी का बना हुआ सामान । जैसे, मेज, आलमारी, दराज इत्यादि । ४. फोटो का एक आकार जो काई साइज से दूना होता है ।

कैम (१)
संज्ञा पुं० [सं० कदम्ब, प्रा०, कयंब, कलंब,] दे० 'कैमा' —उ०— अब तज नाम उपाय को आयो सावन मास । खेल न रहिबो खेम सो कैम कुसुम की बास । —(शब्द०) ।

कैम (२) †
वि० [अ० कायम] १. स्थित । २. दृढ़ ।

कैमा
संज्ञा पुं० [सं० कदम्ब] एक प्रकार का कदंब । करमा । विशेष—इसके पत्ते कचनार की तरह चौड़ै सिर के होते है । उसकें फूल कदंब की ही तरह पर उसले छोटे होते हैं और उनके ऊपर सफेद सफेद जीरे नहीं लगते । इसकी लकड़ी पीले रंग की और बहुत मजबूत होती है तथा इमारतों में लगती है ।

कैमुतिक न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] एक न्याय या उक्ति जिसका प्रयोग यह दिखलाने के लिये होता है कि जब इतना बड़ा काम हो गाय़ा, तब यह क्या है ।

कंमेरा
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'कमरा' ।

कैयक
वि० [सं० कियत् + एक] कितने ही । उ०— ड़ढ़ै मनरूप लसै इह रूप । गढ़ै जिन कैयक हैं महिभूप । —सुजान० , पृ०, ३४ ।

कैया
संज्ञा पुं० [देश०] १. टीन का काम करनेवालों का एक औजार जिसमे बरतन राजे जाते हैं । यह करछी के आकार का ओर लोहे का होता है और इसमें एक ओर लकड़ी की मूठ लगी रहती है । २. मध्य भारत का घी, तेल आदि नापने का एक मास जो लगभग आध पाव का होता है ।

कैर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० झकर, प्रा०, कयर] दे० 'करील' ।

कंरि (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कदंर, प्रा०, कइर] खदिर का वृक्ष । उ०— सुन कैरि कदंब कपथ्य करील । —पृ० रा०, २ । ३५५ ।

कैरट
संज्ञा पुं० [ अं० मि० अ० किरात] १. साढ़े तीन ग्रेन की एक तौल । दे० 'करात' । २. एक प्रकार का मान जिसमे सोने की शुद्धता और उसमें दिए हुए मेज का हिसाब जाना जाता है । विशेष—युरोप और अमेरिका में बिलकुल खालिस सोने का व्यवहार प्रायः नहीं होता और उसमें अपेक्षाकृत अधिक मेल दिया जाता है । इसीलिये जो सोना बिलकुल शुद्ध होता है उसे २४ कैरट का कहा जाता है ।— यदि आधा सोना और आधा दूसरी धातु का मेल हो तो वह सोना । १२ कैरट का और यदि तीन चौथाई सौना और एक चौथाई मेल हो तो वह सोना १८ कैरट का कहा जाता है । इसी प्रकार १४, १६, २० और २२ कैरट का भी सोना होता है जिनमें से अंतिम सबसे इच्छा समझा जाता है ।

कैरव
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कैरवी] १. कुमुद । २. सफेद कमल । ३. शत्रु । ४. जुआरी ।

कैरवबंधु
संज्ञा पुं० [सं० कैरवबन्धु] चंद्रमा । निशाकर [को०] ।

कैरविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुमुदयुक्त वापी । ३. कुमुद पुष्पों की ढ़ेरी या समूह [को०] ।

कैरवी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कैरविन्] चंद्रमा ।

कैरवी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चाँदनी (रात) । २. मेथी ।

कैरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कैरब = कुमुद] [स्त्री० कैरी] १. भूरा (रंग) । २. वह सफेदी जिसमें ललाई की झलक या आभा हो । ३. रंग के भेद से एक प्रकार का बैल जिसके सफेद रोओं के अंदर से चमड़े की ललाई झलकती है । एसे बैल बड़े तेज पर सुकुमार होते हैं । सोकना । सोकन ।

कैरा (२)
वि० १. कैरे रंगका । २. जिसकी भूरी आँखें हों । कंजा ।

कैराटक
संज्ञा पुं० [वि०] स्थावर विष का एक भेद, जिसके अंतर्गत । अफीम, कनेर, संखिया आदि हैं ।

कैरात (१)
वि० [सं०] १. किरात जाती संबधी । किरात देश संबंधी ।

कैरात (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिरायता । २. शबर चंदन । ३. बलवान् मनुष्य । ४. करैत साँप । ५. एक प्रकार की चिड़िया । ६. शुद्ध राग का एक भेद (संगीत) । ७. किरात देश का राजा (को०) ।

कैरातक, कैरातिक
वि० [सं०] दे० 'कैरात' (१) [को०] ।

कैराल
संज्ञा [सं०] वायाविंडग ।

कैरी (१)
वि० स्त्री० [हि० कैरा] १. भूरे रंग की । जैसे—कैरी आँख । २. ललाई मिले सफेद रंग की । जैसे—कैरी गाय ।

कैरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'केरी' ।

कैलंड़र
संज्ञा पुं० [अ०] १. अंगरेजी तिथिपत्र या पंचाग जिसमें महीना, वार और तारीख छपी रहती है । २. सूची । फेहरिस्त । रजिस्टर ।

कैल
संज्ञा स्त्री० [हि० कल्ला] किसी वृक्ष की नई निकली हुई लंबी पहली शाखा । कनखा ।

कैल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] खैल । मनोविनोद । क्रोड़ा [को०] ।

कैलकिल
संज्ञा पुं० [सं०] यवन [को०] ।

कैलातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुरा । मदिरा । २. मधु [को०] ।

कैलास
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिमालय की एक चोटी का नाम, जो तिब्बत में राक्षसताल या रावणह्रद से उत्तर ओर पचास मील की दूरी पर है । पुराणनुसार यह शिव जी तथा कुबेर का निवासस्थान माना जाता है । यौ०—कैलासनाथ । कैलासपति = शिव । कैलासावास = मरण । मुत्यु । २. एक प्रकार का षटकोण देवमंदिर, जिसमें आठ भूमियाँ और अनेक शिखर होते हैं । इसका विस्तार अठारह हाथ होता है । पु ३. स्वर्ग । उ० —ऊँची पैवरी ऊँच उड़ासा । जनु कैलास इंद्र कर बासा ।—जायसी (शब्द०) ।

कैंलासी
संज्ञा पुं० [सं० कैलास + ई (प्रत्य०)] १. कैलास निवासी महादेव । १. कुबेर ।

कैंलैंया
संज्ञा पुं० [सं० कोकिलाक्ष] ताल मखाना ।

कैवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार भार्गव पिता और अयौगवी माता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति । व्रह्मवैवर्त पुराण में कैवर्त की उत्पात्ति क्षत्रिय पिता और वैश्य माता से लिखी है । इसी शब्द से व्युत्पन्न आजकल का केवट शब्द है ।

कैवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] मछुवा । केवट [को०] ।

कैवर्तमुस्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कैवर्तमुस्तक' [को०] ।

कैवतमुस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] केवटी मोथा ।

कैवर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक लता का नाम जो औषध के काम आती है । विशेष—यह अधिकतर मालवा में होती है तथा हल्की, वृष्य और कसैली होती है । यह कफ, खाँसी और मंदग्नि को दूर करनेवाली समाझी जाती है । पर्या०—सुरंगा । दशारुहा । रंगिनी । वस्त्र गा । सुभाग ।

कैवल
संज्ञा पुं० [सं०] वायाबिड़िग । वाभिरग ।

कैवल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुद्धता । बेलपन । निलिप्तता । एकता । २. मुक्ति । अपवर्ग निर्वाण । विशेष—दर्शनों का यह सिद्धांत है कि जीवात्मा या तो आवरणों के क रणअथवा अविद्या । से भ्रमवश संसार में सुख दुःख भोम रहा है । उसे शुद्ध या भ्रमरहित करना ही शास्त्रों ने अपना परम कर्तव्य समझा है और उसके भिन्न भिन्न साधन बतलाए हैं । सांख्य शास्त्र में— त्रिबिध दुःखों की अत्यत निवृत्ति को कैवल्य माना है और विवेक को उसका एकमात्र साधन बतलाया है । योगशास्त्र में विशेषदर्शी आत्मभाव की भावना अर्थात् अहंकार की निवृत्ति को कैवल्य बतलाया है और चित्र की वृत्तियो के निरोध को ही उसका साधन कहा है । वेदांत में अद्वितिय ब्रह्मभाव की प्राप्ति को कैवल्य माना है और अविद्या की निरोध को इसका साधन ठहराया है । न्याय में दुःख की अत्यंत विमुक्ति को कैवल्य या अपर्वग कहा और उसका साधन प्रमादि षोडश पदार्थों का तत्वज्ञान बतलाया है । ३. एक उपनिषद का नाम ।

कैवा पु०
क्रि वि० [सं० कति + वार, हि० कै (= कई) + वा (बार)] कई बार । कई दफा । उ०— मैं तोसौं कैवा कह्यौ तू जिन इन्हैं पत्याइ । लगालगी करि लोइननु उर में लाई लाइ ।— बिहारी र०, दो०, ६६ ।

कैश (१)
संज्ञा पुं० [अं०] रुपया पैसा । सिक्का । नगदी । यौ०—कैशबुक = रोकड़ बही ।

कैश (२)
वि० जिसका दाम नगद दिया गया हो । सिक्का देकर लिया हुआ । यौ०—कैशमेमों = नकद खरीदे माल की रसीद ।

कैशिक (१)
वि० [सं०] १. केशवाला । बड़े बड़े वालोंवाला । २. बाल के समान । केश के समान सूक्ष्म (को०) ।

कैशिक (२)
संज्ञा पुं० १. केशसमूह । २. शृंगार । ३. नूत्य का एक भाव जिसमें सुकुमारता से किसी की नकल की जाती है । ४. प्रेम । प्रणाय (को०) ।

कैशिक निषाद
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक विकृत स्वर जो तीव्र नामक श्रुति से आरंभ होता है और जिसमें तान श्रुतियाँ लगती हैं ।

कैशिक पंचम
संज्ञा पुं० [सं० कौशिक पञ्चम] संगीत में एक विकृत स्वर जो संदीपनी नामक श्रुंति से आरंभ होता है और जिसमें चार श्रुतियाँ लगती हैं ।

कैशिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाटक की चार वृत्तियों में से एक । विशेष— यह वृत्ति शृंगार—रस—प्रधान नाटकों में होती है । इसमें नृत्य, गीत, वाद्य और भोग विलास का अधिक वर्णन किया जाता है । ऐसे नाटकों में स्त्रीपात्र अधिक होते हैं । २. दुर्गा (को०) ।

कैशियर
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह कर्मचारी जिसके पास रुपया पैसा जमा रहता हो और जो उसे खचै करता हो । आमदनी लेने और खर्च करनेवाला आदमी । खजानंची ।

कैशोर
संज्ञा पुं० [सं०] किशोर अवस्था । बचपन । अल्प वय [को०] ।

कैशोर्य
संज्ञा पुं० [सं०] बृहदारण्यक उपनिषद् में उल्लिखित एक ऋषि [को०] ।

कैश्य
संज्ञा पुं० [सं०] केशसमूह । केशभार [को०] ।

कैसन †
वि० [हि०] दे० 'कैसा' । उ०— कैसन देश राज वह आही । चित इच्छा प्रभु देखन ताही । —कबीर सा०, पृ०, ४३९ ।

कैसर
संज्ञा पुं० [लै० सीजर] १. सम्राट । बादशाह । जैसे,—कैसर हिंद । २. जर्मनी के सम्राट् की उपाधि ।

कैसा (१)
वि० [सं० कीदृश, प्रा०, केरस] [स्त्री० कैसी] [क्रि० वि० कैसे] १. किस प्रकार का । किस ढंग का । जैसे,—यह कैसा आदमी है । ? २. (निषेधार्थक प्रश्न के रूप में) किस प्रकार का? किसी प्रकार का नहीँ । जैसी,—जब हम उस मकान में रहते नहीं तब किराय़ा कैसा । ?

कैसा (२)
क्रि० वि० [हि० का +सा] के समान । कासा । की तरह का ।

कैसे
क्रि० वि० [हि० कैसा] किस प्रकार से । किस ढंग से? जैसे,— यह काम कैसे होगा? । २. किस हेतु? किसालिये? क्यों? जैसे,—तुम यहाँ कैसे आए?

कैसौ (१)पु †
वि० [हि० कैसा] दे० 'कैसा' ।

कैसो (२)पु †
क्रि० वि० के समान । का सा । उ०— झिझिया कैसो घट भयो, दिन ही में बन कुंज । —मतिराम (शब्द०) ।

कों †पु
प्रत्य० [हि०] दे० 'को' । उ०— व्रह्मादिक कों जीति महामद मदन भरयौ जब । दर्पदलन नँदललन रास रस प्रगट कययो तब । —नंद० ग्रं० पृ० ३९ ।

कोंइछा †
संज्ञा पुं० [हि० खूँट] दे० 'खोंइचा' ।

कोंई पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कुईं] दे० 'कुँई' । उ०— —झरक पानी ड़ोभक कोंई गरब उपज जाहिं ।—विद्यापति, पृ०, २४६ ।

कोंकण
संज्ञा पुं० [सं० कोङ्कण] दक्षिण भारत का एक प्रदेश, जिसके अतर्गत कनारा, रत्नगिरि, कोलाबा, बंबई और थाना आदि हैं । विशेष— प्राचीन काल में केरल, तुलव, सौराष्ट्र कोंकण, करहाट, कर्णाट और बर्बर मिलकर सप्तकोंकण कहलाते थे । २. उक्त देश का निवासी । ३. एक प्रकार का शस्त्र (को०) ।

कोंकणी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोङ्क] परशुराम की माता रेणुका । इन्हे कोंकणावती भी कहतें हैं । यौ०—कोंकणासुत = परशुराम ।

कोंकणी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोङ्कणी] कोंकण देश की भाषा जो भाषाओं के मेल से बनी है ।

कोंचना
क्रि० स० [सं० कुच = लिखना, खरोचना या देश०] चुभाना गोदना । गाड़ना । उ०— कोंचत करेजन कजाकी कमजात काम कानन कमान तान कानन दिखावतो ।—श्यामा०, पृ०, १३५ ।

कोंचफली
संज्ञा स्त्री० [हि० कैवाँच + फली] दे० 'कौंछ' ।

कोंचा (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्रौञ्च] एक प्रकार का जलपक्षी ।

कोंचा (२)
संज्ञा पुं० [हि० कोंचना] १. बहेलिय़ों की वह लंबी लग्घी जिसके पतले सिरे पर वे लोग लासा लगाए रहते हैं और जिससे बृक्ष पर बैठे हुए पक्षी को कोंचकर फँसा लेते हैं । खोचा । २. भड़भूजे का वह कलछा जिससे बालू निकाला जाता है । ३. मोटी लिट्टी ।

कोंछ
संज्ञा पुं० [सं० कक्ष, प्रा०, कच्छा] [क्रि० कोछियाना] १. स्त्रियों के अंचल का एक कोना । मुहा०—कोंछ भरना = अंचल के कोने में चावल, मिठाई, हलदी आदि मंगलद्रव्य ड़ालना (सौभाग्यवती स्त्री के प्रस्थान के़ समय तथा सीमंतोन्नयन संस्कार में यह रीति होती है) ।

कांछना
क्रि० सं० [हि० कोछ + ना (प्रत्य०)] कोंछियाना । उ०— केसर सों उबटी अन्हवाइ चुनी चुनरी चुटकीन सों कोंछी । बेनी जु मांग भरे मुझा ब़ड़ी बेनी सुगंध फुलेल तिलोंछी ।— बेनी (शब्द०) ।

कोंछियाना (१)
क्रि० सं० [हि० कौंछी] (स्त्रियों की) साड़ी का वह भाग चुनना जो पहनने में पेट के आगे खोंसा जाता है । फुबती चुनना ।

कोछियाना (२)
क्रि० सं० [हि० कोंछ] (स्त्रियों के) कोंछ में कोई चिज भरकर उसके दोनों छोरों की अगे की ओर कमर में खोंस लेना ।

कोंछी †
संज्ञा स्त्री० [हि० काछा] साड़ी या धोति का वह भाग जिसे चुनकर स्त्रियाँ पेट के आगे खोंसती हैं । फुबती । तिन्नी । नीबी ।

कोंड़ई
संज्ञा पुं० [देश०] एक कँटीला झाड़ या पेड़ । विशेष—यह झाड़ जेहरादून, कुमाऊँ, बगाल और दक्षिण भारत में होता है । इसकी पत्तियाँ ३—४अँगुल लंबी होती हैं । इसमें बहुत छोटे फूल छोटे छोटें गुच्छों में लगते हैं । पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं, फल खाए जाते हैं तथा जड़ और छाल की दवा बनती है ।

कोंड़रा †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड़ल] लोहे का वह कड़ा जो मोट के मुँह पर लगा रहता है । गोंड़रा ।

कोंड़री
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड़ली] हुड़क बाजे की वह लकड़ी जिसपर चमड़ा मढा रहता है ।

कोँड़हा
वि० [हि० कोढ़ा] दे० 'कोढ़ा' ।

कोड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'कोड़ा' । उ०— रैयत जगत सब्द कै कोंड़ी, दूजी मार न मारी ।—धरनी०, पृ०, ३ ।

कोँढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़ल] धातु का वह छल्ला या कड़ा जिसमें जंजीर या और कोई वस्तु अटकाई जाती है ।

कोँढ़ा (२)
वि० [हिं० कोंढ़ा + हा (प्रत्य०)] (रुपया) जिसमें कोंढ़ा लगा हो या जिसमें कोंढ़ा लगे रहने का चिह्न हो । विशेष— इस देश में रुपयों में छेद करके उनकी माला पिरोकर स्त्रियों और बच्चों को पहनाते हैं । ऐसे रुपयों को माला में से निकालकर बाजार में चलाने से पहले उनके छेद चाँदी से बंद कर देते हैं । इस प्रकार के रुपयों को कोंढ़ा या कोड़हा कहते हैं ।

कोँढ़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० कोंढ़ा, का अल्पा०] दे० 'कोढ़ा' ।

कोँढ़ा †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोष्ठ] मुँहबँधी कली । अनखिली कली ।

कोँथ †
संज्ञा पुं० [देश०] कुम्हारों की परिभाषा में बरतन आदि का वह पूर्वरूप जो मिट्टी को चाकपर रखने के बाद बनता है ।

कोथँना
क्रि० अ० [सं० कुन्यन] दे 'कूँखना' या 'कूखना' ।

कोँप पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कोंपल' । उ०— उठे कोंप जनु दखिं दाखा । भई ओनंत प्रेम की साखा ।—जायसी ग्र०, (गुप्त), पृ०, १६० ।

कोँपना †
क्रि० अ० [हि० कोंपल या कोंप + ना (प्रत्य०)] कोंपल निकलना या लगना ।

कोँपर †
संज्ञा पुं० [हि० कोंपल] छोटा अधपका या ड़ाल का पका हुआ आम ।

कोँपल †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोमल या कु + (अल्य), छोटा + पल्लव] वृक्ष आदि की छोटी, नई और मुलायम पत्ती । अंकुर । कल्ला । कनखा ।

कोँवर पु †
वि० [सं० कोंमल] नरम । मुलायम । नाजुक । उ०— (क) कोंवरे पानि रची मेंहदो डफ नीके बजाय हरै हियरा री ।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) (ख) माखन सी जीम मुख कंज सो कोंवर कहु काठ सी कठैठी बातै कैसे निकरति हैं ।— केशव ग्रं०, भा०, १, पृ०, ७२ ।

कोँवरि पु कोँवरी पु
वि० स्त्री० [सं० कोमल] मुलायम । नाजुक । कोमल । उ०—(क) ग्रेदर्हु चाहि धानि कोंवरि भई ।— जायसी ग्रं० (गुप्त) पृ० ३३६ । (ख) एक तौ ताती सुठि कोवरी ।—जायसी ग्रं०, पृ०, १२४ ।

कोँवल पु †
वि० [हिं०] दे० 'कोमल' । उ०— कोंवल कुटिल केस नग कारे ।— जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ०, १८५ ।

कोँवलि पु †
वि० स्त्री० [हि०] दे० 'कोमल' । उ०— सुआ सो नाक कठोर पँवारी । वह कोंवलि तिल पुहुप सँवारी ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त,), पृ०, १८९ ।

कोँस
संज्ञा पुं० [सं० कोश] लंबी फली । छीमी ।

कोँहड़ा— †
संज्ञा पुं० [सं०कूष्माण्ड़, प्रा०, कोहंड़] दे० 'कुम्हड़ा' ।

कोँहड़ौरी †
संज्ञा स्त्री० [हि० कोंहड़ा + बरी] कुम्हड़े या पेठे की बनाई हुई बरी ।

कोँहरा †
संज्ञा पुं० [देश०] [कोँहरी] उबाले हुए खड़े चने या मटर जिनको तेल में छौंककर और नमक मिर्च लगाकर खाते हैं । घुँघनी ।

कोँहराना †
संज्ञा पुं० [हि० कोंहार] वह बस्ती जहाँ कोंहार रहते हैं ।

कोँहना
क्रि० अ० [हि०] दे० 'कोहना' ।

कोँहरा †
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकार, प्रा०, कुम्भार] दे० 'कुम्हार' । उ०— तुरी औ नाव दाहिन रथ हाँका । बाए फिरै कोहार क चाका ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ०, ३६८ ।

को (१) पु
सर्व [सं० कः] १. कौन । उ०— तू को, कौन देस है तेरी । कै छल गह्यो राज सब मेरो ।— सुर०, १ । २९० । २. कोई । उ०— पैदा जाको हुआ है वो सब उनों किया है ।—दक्खिनी० पृ०, २१२ । ३. क्या । उ०— इतर धातु पाह- नहि परसि कंचन ह्वै सोहैं । नंदसुवन को परम प्रेम इह इचरज को है ।—नंद० ग्रं०, पृ०, ८ ।

को (२)
(प्रत्य०) [हिं०] कर्म और संप्रदान का विभक्ति प्रत्यय । जैसे—साँप को मारी । राम को दो । उ०— और विद्या की अभ्यास विशेष हतो ।— अकबरी० पृ०, ३८ ।

कोआ
संज्ञा पुं० [सं० कोशा या हि० कोसा] १. रेशम के कोड़े का घर । कुसियारी । २. टसर नामक रेशम का कीड़ा । ३. महुए का पका फल । कोलैदा । गोलेंदा । ४. कटहल के पके हुए बीज- कोश ।— ५, धुने हुए ऊन की पोनी, जिसे कातकर ऊन का तागा निकालते हैं । (गड़रिया) । ६. दे० 'कोया' ।

कोआर
संज्ञा पुं० [देश०] कोरा नाम का वृक्ष ।

कोइँदा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'कोइना' ।

कोइँदी †
संज्ञा स्त्री० [कोइँदा] महुए का बीज ।

कोह पु
सर्व० [हि० कोई] दे० 'कोई' उ०— लोग कहहिं यह होइ न जोगी । राजकुँवर कोई अहै वियोगी । —जायसी ग्रं०, (गुप्त)० पृ०, २९४ ।

कोइक पु
सर्व० [सं० कति + एक या कियत् + एक हि० कोई एक] दे० 'कोई' । उ०—(क) कोइक दिन गुर राम पै पढ़ी सुविद्या अप्प । चवदसु विद्या चतुर बर लई सीष पर लिप्ष । —पृ०, रा०, १ । ७१९ । (ख) कोंइक आखर मति बस्यउ उड़ी पंख संमार ।—ढोला०, दू०, ६७ ।

कोइड़ार †
संज्ञा पुं० [हि० कोइड़ी+आर (प्रत्य०)] वह खेत या स्थान जहाँ कोइरी लोग साग, तरकारी आदि बोते हों ।

कोइना †
संज्ञा० पुं० [हि० कोआं +इना (प्रत्य०)] महुए का पका फल । गोलैंदा ।

कोइरान †
संज्ञा पुं० [हिं० कोइरी] वह बस्ती जना कोहरी रहते हों ।

कोइरन †
[हि० कोइरी] दे० 'कोइड़ार' ।

कोइरी
संज्ञा० पुं० [हिं० कोयर=साग पात] एक जाति । इस जाति के लोग,तरकारी आदि बोते और बेचते हैं । काछी ।

कोइल (१)
संज्ञा० स्त्री० [सं० कुण्ड़ली] १, गोल छेददार लकड़ी जो मक्खन निकालने के समय दूध के मटके या मेहँड़े के मुँह पर रखी जाती है और जिसके छेद में मथानी । इसलिये डाल दी जाती है कि जिसमें वह सीधी घुमे और उससे मटका न फूटे । २. करघे में की वह लकड़ी जो ढरकी के बगल में लगी रहती है ।—(जुलाहा) ।

कोइल (२)
संज्ञा० स्त्री० [हि० कोलना] दे० 'कोइलारी' ।

कोइल (३)
संज्ञा० स्त्री० [सं० कोकिल] दे० 'कोयल' 'कोकिल' । उ०— या ठोढ़ी सरि कों जबै सफल भप बैराय । तबहिं रसालनि को गई कोइल दाग लगाय ।—राम०, धर्म०, पृ०, २३४ ।

कोइलरी
संज्ञा० पुं० [अ० कोलियरी] कोयले की खान ।

कोइलाँस
संज्ञा० पुं० [हि० कोइल+आँस] (प्रत्य०) दे० 'कोइली (१)' ।

कोइला
संज्ञा० पुं० [हिं०] दे०, 'कोयला' । उ०— करम काट कोइला किया ब्रह्म अगिन परचार । —कबीर श०, पृ०, २५ ।

कोइलारी
संज्ञा० स्त्री० [हिं० कोलना] १. गराँव की मुद्धी । १. लकड़ी का वह गोल कढ़ा जिसे बदमाश चौपायों के गराँव में इसलिये फँसा देते हैं जिसमें झटका देने या खींचने से उनका गला दबे । इस व्यवहार से बदमाश चौपाये सीधे हो जाते हैं और चुपचाप खड़े रहते हैं ।

कोइलिया पु †
संज्ञा० स्त्री० [हिं० कोयल+इया] (प्रत्य०) [दे० 'कोयल' ।

कोइली
संज्ञा० स्त्री० [हि० कोयल] १. वह कच्चा आम जिसमें किसी प्रकार का आघात लगने से एक काला सा दाग पड़ जाता हैं । ऐसा आम कुछ सुगंधित और स्वादिष्ट होता है । विशेष— साधारण लोगों का यह विश्वास कि आम की यह दशा उसपर कोयल के पादने या बैठने से हो जाती है । २. आम की गुठली । ३. दे० 'कोयल' ।

कोई (१)
सर्व० [सं० कोपि, प्रा०,, कोवि] १., ऐसा एक (मनुष्य या पदार्थ) दो अज्ञात हो । न जाने कौन एक । जैसे,— वहाँ कोई खड़ा था, इसी से मैं नहीं गया । मुहा०— कोई न कोई=एक नहीं तो दूसरा । यह न सही वह । जैसे—कोई न कोई तो हमारी वात सुनेगा । २. ऐसा एक जो अनिदिष्ट हो । बहुतों में से चाई जो एक । अविशेष वस्तु या व्यक्ति । जैसे,—(क) वहाँ बहुत सी पुस्तकपड़ी हैं, उनमें से कोई ले लो । (ख) हमारा कोई क्या कर लेगा ? मुहा०— कोई एक या कोई सा=जो चाहे सो एक । ३. एक भी (मनुष्य) जैसे—वहाँ कोई नहीं हैँ ।

कोई (२)
वि० १. ऐसा एक (मनुष्य या पदार्थ) जो अज्ञात हो । मुहा०—कोई दम का मेहमान= थोड़े ही काल तक ओर जीनेवाला । शीघ्र मरनेवाला । २. बहुतों में से चाहे जो एक । ऐसा एक जो अनिर्दिष्ट हो । जैस,—इनमें से कोई एक पुस्सक ले लो । ३. एक भी । कुछ भी । जैसे—(क) कोई चिंता नहीं (ख) यह कोई पढ़ना नहीं है । मुहा०— यह भी कोई बात है ? = यह कोई बात नहीं है । ऐसा नहीं हो सकता । ऐसा नहीं होना चाहिए । जैसे, —(क) जब हम आते हैं तब तुम चल देते हो । यह भी कोई बात है । (ख) यह भी कोई बात है कि जो हम कहें वह न हो ।

कोई (३)
क्रि० वि० लगभग । करीब करीब । जैसे—कोई दस आदमियों ने चंदा दिया होगा ।

कोउ पु †
सर्व०, बि० [हिं० को +हू=भी] कोई । उ०— कोउ नप होउ हमाहि का हानी ।—मनस, २ । १६५ । वि० दे० 'कोई' ।

कोउक पु †
सर्व० [हि० कोऊ+एक] कोई एक । कतिपय । कुछ लोग । उ०— जौं इह फागुन पीय, फाग न खेलहु आय ब्रज । कै हों कै इहु जीय, कोउक तुम पर आय है ।—नंद० ग्रं०, पृ०, १७१ ।

कोऊ †पु
सर्व०[हिं० को+हू=भी] कोई । उ०— सावन सरित न रुकै करै जौं जतन कोऊ आति । कृष्ण गहे जिनको मन ते क्यों रुकहि अगम अति ।—नंद० ग्रं० पृ०, ९ ।

कोकंब
संज्ञा० पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसके सब अंग खट्टे होते हैं । वि० दे० "विसाँविल' ।

कोक (१)
संज्ञा० पुं० [सं०] [स्त्री० कोकी] चकवा पक्षी । चक्रवाक । सुरखाब । यौ०— कोकबंधु=सूर्य । २. एक पंडित का नाम जो रतिशात्र का आचार्य माना जाता है । इसका पूरा नाम कोकदेव कहा जाता है । यौ०—पु कोक आगम । कोककला । कोकशास्त्र् । ३. संगीत का छठा भेद जिसमें नायिका, नायक , रस, रसाभास, अलंकार, उद्दीपन, आलंबन, समय और समाजादि का ज्ञान आवश्यक होता है ।४. विष्णु । ५. भोड़िया । यौ०—कोकमुख । कोकाक्ष । ६. मेंढक । यौ०— कोकाट= लोमड़ी । ७. जंगली खजूर । ८. कोयल । पिक (को०) । ९. छिपकली या गिरगिट (को०) । १०. कामशास्त्र । रति कला । उ०— तरुनाइयै कोक पढ़ै सुघराई सिखावति है रसिकाई रसै । —घनानंद, पृ०, २८ ।

कोक (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] कच्ची सिलाई ।

कोकआगम पु
संज्ञा पुं० [सं० कोक+आगमन] कामशास्त्र । कामकला । उ०— काव्य कोक आगमहिं बखानहुँ ।—माधवानल० पृ०, १०८ ।

कोकई (१)
वि० [तु कोक] ऐसा नीला जिसमें गुलाबी की झलक हो । कोड़ियाला ।

कोकई (२)
संज्ञा पुं० [तु० कोक] ऐसा नीला रंग जिसमें गुलाबी की झलक हो । कोड़ियाला रंग । विशेष— यह नील, शहाब और मजीठ के संयोग से बनता है ।

कोककला
संज्ञा स्त्री० [सं०] रतिबिद्या संभीग संभोग संबंधी विद्या । उ०— गहि अंग संग आसन दियव, कोक कला रस विस्तरिय ।—ह० रासो, पृ०,४१ ।

कोकट
वि० [सं० कुककुटी] मटमैले रंग का । गंदा । मैल से भरा हुआ (कपड़ा) ।

कोकटी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुक्कुटी, हि०, कुकटी] दे० 'कुकटी' । उ०— कोकटी की रूई खरीदकर उसने दो सेर सूत इसलिये काते ।—रति० पृ०, १३१ ।

कोकदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोकशास्त्र या रतिशास्त्र का रचयिता । २. सूर्य (को०) । ३. कपोत । कबूतर (को०) ।

कोकन
संज्ञा पुं० [देश०] एक ऊँचा पेड़जो आसाम और पूरबी बंगल में होता है । विशेष— इसकी पत्तियाँ शिशिर में झड़ जाती हैं । इसकी लकड़ी अंदर से सफेद निकलती है जिसपर पीली पीली धारियाँ होती हैं । लकड़ी का वज्न प्रति घन फूट १०से १८ सेर तक होता है । दिखने में तो मुलायम होती है । पर न फटती है और न झुकती है । यह चाय के संदूक और नाव बनाने के काम में आती है तथा मकानों में भी लगती है ।

कोकनद
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल । १. लाल कुमुद । लाल कुई ।

कोकना (१)
क्रि० सं० [फा़० कोक (=कच्ची सिलाई)+हिं० ना (प्रत्य०)] कच्ची सिलाई करना । कच्चा । करना । लंगर डालना ।

कोकना (२)पु †
क्र० अ० [हि० कूकना] बुलाना । चिल्लाना । उ०— कोकँ पांड़यों अरी परधान । दीधो छै़जब तिहा चउगुणउ मान । —बी०, रासी ० पृ०, ८७ ।

कोकनी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कोक= चकवा] एक प्रकार का तीतर ।

कोकनी (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का संतरा जो सहारनपुर और दिल्ली में होता है ।

कोकनी (३)
संज्ञा पुं० [तु० कोक+आसमानी] एक प्रकार का रंग जो शहाव , लाजवर्द और फिटकिरी से बनता है ।

कोकनी (४)
वि० [देश०] १. छोटा । नन्हा । जैसे,—कोकनी बेर, कोकनी केला । २. घटिंया । निकृष्ट । जैसे,—कोकनी कलाबतू ।

कोकबंधु
संज्ञा पुं० [सं० कोकबंधु] रवि । सूर्य । दिनकर [को०] ।

कोकम
संज्ञा पुं० [सं०] एक छोटा सदाबहार पेड़ ,जो केवल दक्षिण भारत में होता है । विशेष—दे० 'अमसूल' ।

कोकव
संज्ञा पुं० [सं०] एक संकर राग जो पूरबी बिलावल, केदारा, मारू और देवगिरि से मिलाकर बनाया गया हैं ।

कोकवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो बरमा और आसाम में बहुतायत से होता है । यह टोकरे बनाने के काम में आता हैं ।

कोकशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] कोककृत रतिशास्त्र ।

कोकहर
संज्ञा पुं० [सं० कोक+हर] चकवा का आनंद हरण करनेवाला —चंद्रमा । शशि ।

कोका (१)
संज्ञा पुं० [अ०] दक्षिणी अमेरिका का एक वृक्ष । विशेष— इसकी सुखाई हुई पत्तियाँ चाय या कहवे की भाँति शक्तिवर्धक समझि जाती हैं । इसके व्यबहार से थकावट ओर भूख नहीं मालूम होती, इसलिये वहाँ के निवासी पहाड़ों पर चढ़ने से पहले थोड़ी सी सुखी पत्तियाँ चबा लेते हैं । इनमें एक प्रकार का नशा होता है, इसलिये एक बार इनका व्यवहार आरंभ करके फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है । कोकेन इसी से निकलता है ।

कोका (२)
संज्ञा स्त्री० [तु० कोकह] धाय की संतान । दूध पिलानेवाली की संतति । दुधभाई या दूधबहिन ।

कोका (३)
संज्ञा पुं० [हिं० को] एक प्रकार का कबूतर ।

कोका (४)
संज्ञा स्त्री० [?] नीली कुमुदिनी । विशेष—दे० 'कोकाबेरी' ।

कोकाबेरी
संज्ञा स्त्री० [कोका+देलो] नीली कुमुदिनी । नीली कुई । विशेष— यह पुरानी झीलों या तालाबों में होती है । इसका फूल नीले रँग का, बड़ा और सुहावना होता है । इसमें भी कुई की तरह बीज होते हैं, जिनका आटा व्रत में फलाहार की तरह खाया जाता है । इसके बीज भूनने से लावा हो जाते हैं । जिसे चीनी में पागकर लड़ड़ू बनाने हैं ।

कोकाबेली
संज्ञा स्त्री० [सं० कोका+हिं० बेली] दे० 'कोकाबेरी' । उ०— कोकाबेली, पवन सियरी वारि की चारुताई । को है ऐसी, करहिं नहिं ०ये जासु तल्लीनताई ।—द्बिवेदी (शब्द०) ।

कोकामुख
संज्ञा पुं० [सं०] भारत का एक प्राचीन तीर्थ जिसका उल्लेख महाभारत में आया हैं ।

कोकाह
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद रंग का घोड़ा । उ०— हरै कुरंग महुअ बहु भाँती । गरर कोकाह बलाह सुपाँती ।—जायसी (शब्द०) ।

कोकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोयल । पर्या०—पिका । परभृत । ताभ्राक्ष । वनप्रिय । परपुष्ट । अन्यपुष्ट । वसंतदूत । रक्ताक्ष । मधुगायन । कलकंठ । कामांध । काकली- रव । कुहूख । यौ०— कोलकंठी= दे० 'कोकीलबैनी' । कौकिलनयन= ताल मखाना । कोकलिबैनी=कोयल जैसा मधुर बोलनेवाली । उ०— लंक सिंधिनी सारंगनैनी । हंसगमिनी । कोकिलबैनी ।—जायसी ग्रं०, पृ०, १२ । कोकिलरव । दे० 'कोकिलारव' । २. नीलम की एक छाया । ३. एक प्रकार का चूहा जिस केकाटने से ज्वर आता है और बहुत जलन होती है । ४. छप्पय का १९ वाँ भेद जिसमें ५२ गुरु, ४८ लघु अर्थात् १०० वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं । ५. जलता हुआ अंगारा ।

कोकिलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छंद [को०] ।

कोकिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १,कोयल । पिक । २. आग का अंगारा । उ०— चकई निसि बिछरै, दिन मिला । हाँ दिन रति बिरह कोकिला । —जायसी ग्रं० पृ०, १५४ ।

कोकिलाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] तालमखाना ।

कोकिलाप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल जिसमें एक प्लुत (प्लुत की तीन मात्राएँ), एक लघु (लघु की एक मात्रा) और तब फिर एक प्लुत होता है । इसे लोग परमलु भी कहते हैँ । इसके मृदंग के बोल ये है—धीकृत धीकृत धिधिकिट/?/तक थीं । तकिड़िगि ड़िधिगिन थों थों (१)/?/।

कोकिलारव
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक ।

कोकिलावास
संज्ञा पुं० [सं०] आम का वृक्ष । रसालतरु [को०] ।

कोकिलासन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार एक आसन ।

कोकिलेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा जामुन । फरेंदा ।

कोकिलोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़ । सहकार वृक्ष [को०] ।

कोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चक्वी । चक्रवाकी । उ— छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी । रहिहौं मुदित दिवस जिमि कोकी ।— मानस, २ । 66 ।

कोकीन
संज्ञा स्त्री० [सं० कोकेन] दे० 'कोकेन' ।

कोकुआ
संज्ञा पुं० [सं० कोकाग्र] समष्ठिल नाम का पौधा । पर्या०— मद्याग्र । अभ्रगेधक । कोकाम्र । कंटकफल । उपदेश ।

कोकेन
संज्ञा स्त्री० [अ०] कोका नामक वृक्ष की पत्तियों से तैयार की हुई एक प्रकार की औषध, जो गंधहीन और सफेद रग की होती है । विशेष— यह दवा की भाँति, मरहमों में मिलाने और आँख आदि कोमल अंगों पर अस्त्रचिकित्सा करने से पहले उन स्थानों की सुन्न करने के काम में आती है । कुछ दिनों पूर्व भारत में इसका प्रयोग मादक द्रव्यों की भाँति होने लगा था और लोग इसे पान के साथ खाते थे, पर अब इसका प्रयोग केवल डाक्टर ही कर सकते हैं । कानून द्बारा साधारण लोगों में इसकी बिक्रि बंद है । यौ०— कौकेनची= मादक द्रव्य की भाँति कोकेन का उपयोग करनेवाला । कोकेन का नशा खानेवाला ।

कोको (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] कौआ । लड़कों को बहकाने का शब्द । उ०— मैं तो सोय रही सुख नींद पिया को कोको ले गई रे । (गीत) । विशेष— जब किसी वस्तु वो बच्चों के सामने से हटाना होता है, तब उसे हाथ में लेकर कहीं छिपा देते हैं और उनके वह- काने के लिये कहते है कि कोआ ले गया । 'कोको ले गई' ।

कोको (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोकोआ] १. बिषुक्त् रेखा के आसपास के देशों में होनेवाला एक पेड़ जो ताड़ वृक्ष के आकार का होता है ।उ०— उसी ने कोको वृक्ष लगाना आरंभ किया । —प्रा० भा० पृ०, पृ० १३ । २. कोको फल का चूर्ण । ३. कोको के बीज के चुर्ण से बनाया हुआ पेय ।

कोकोजम, कोकोजेम
संज्ञा पुं० [अ० कोको= नारियल] साफ करके जमाया हुआ; निर्गध गरी का तेल जिसका व्यवहार घी के स्थान पर होता है ।

कोख
संज्ञा पुं० [सं० कुक्षि , प्रा०, कुक्खि] १. उदर । जठर । पेट । २. पसलियों के नीचे, पेट के दोनों बगल का स्थान । मुहा०— कोखे लगना या सटना=पेट खाली रहने या बहुत अधिक भूख लगने के कारण पेट अंदर धँस जाना । ३. गर्भाशय । विशेष— इस अर्थ के सब मुहावरों और यौगिक शब्दों का प्रयोग केवल स्त्रियों के लिये होता है । यौ०— कोखबंद । कोखजली । मुहा०— कोख उजड़ना =(१) संतान मर जाना । बालक मर जाना । (२) गर्भ गिर जाना । कोख बंद होना= बंध्या होना । संतति उत्पन्न करने के अयोग्य होना । कोख या कोख माँग से ठंड़ी या भरी पूरी रहना=बालक या, बालक और पति का सूख देखते रहना—(आसीस) । कोख मारी जाना=दे० "कोख बंद होना' । कोख की बीमारी या रोग= संतति न होने या होकर मर जाने का रोग । कोख की आँच=संतान का वियोग । संतान का कष्ट । जैसे —सब दु?ख सहा जाता है, पर कोख की आँच नहीं सही जाती । कोख खुलना=बाँझपन दूर होना । उ०— पर मिला पूत जो सपूत नहीं । क्या खुली कोख जो न भाग खुला ।—चोखे०, पृ०, ३९ ।

कोंखजली
वि० स्त्री० [हिं० कोख+जलना] जिसकी संतति होकर मर जाती हो । जिसके बालक मर जाते हों ।

कोंखबंद
वि० [हिं० कोख +बंद] जिसे संतति न होती हो । बंध्या । बाँझ ।

कोखा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोख' । उ०— बालक जन्मा मोरे कोखा । जन्म भरे की भागी धोखा । —कबीर सा०, पृ०, ५३८ ।

कोंगी
संज्ञा पुं० [देश०] लोमड़ी से मिलता जुलता एक जानवर । विशेष— यह झुँड़ में रहता और फसल को बहुत हानि पहुँ चाता है । कहते है इनका झुँड़ मिलकर शेर पर टूट पड़ता है और उसके शरीर का सारा मांस खा जाता है । जिस जंगल में कोगी का झुंड़ जाता है, उसमें से शेर ड़रकर निकल जाते हैं ।

कोच (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक प्राकार की चौपहिया बढ़िया घोड़ा गाड़ी । यौ०— कौचबकस । कोचवान । २. गद्दुँदार बढ़िय़ा पलंग बेच या आरामकुरसी ।

कोच (२)
संज्ञा पुं० [हि० कोचना] वह लंबी छड़ जिसकी सहापता से भट्ठे मे से ढले हुए बरतन निकाले जाते हैं ।

कोच (३)
संज्ञा पुं० [?] टूटे हुए जहाज का टुकड़ा —(लश०) ।

कोच (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सँकोव । संकोचन । २. एक मिश्र जाति । कैवर्त और कसाई स्त्री के संयोग से उप्तन्न जाति [को०] ।

कोचकी
संज्ञा पुं० [देश०] मकोइया सेमिलता जुलता एक प्रकार का रंग जो ललाई लिये भूरा होता है और कई प्रकार से बनाया जाता है ।

कोचना
क्रि० स० [सं० कुच=लकीर करना, लिखना] घँसाना । चुभाना । गड़ाना । मुहा०— कोचा करेला=वह चेहरा जिसपर शीतला के बहुत से दाग हों । (व्यंग्य़ में) ।

कोचनी
संज्ञा स्त्री० [हि० कोचना] १. लोहे का एक छोटा औजार जो सुई के आकार का होता है और जिससे तलवार ती म्यान के ऊपर का चमड़ा सीया जाता है । २. बैल हाँकने की छ़ड़ी । पैना । ओगी । ३. कोचने की कोई भी वस्तु ।

कोचबकस
संज्ञा पुं० [अँ० कोच+वाँकस] घोड़ा गाड़ी में वह ऊँचा स्थान जिसपर हाँकनेवाला बैठंता है ।

कोंचरा
संज्ञा पुं० [देश०] बड़े पेड़ों पर च़ढ़नेवाला एक प्रकार की घनी लता । विशेष— इसकी पत्तिय़ाँ एक अँगुल लंबी तथा दोनों ओर नुकीली होती हैं । जेठ, अषाढ़ में इसमें पीले रंग के फूल गुच्छों में लगते हैं । और दूसरे बैसाख तक फल पक जाते हैं । यह लता गोंड़ा, बहराइच तथा खसिया और भूटान में होती है ।

कोचरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी । उ०— करै कलोल कोचरी उलूक उद्ध ढूकहीं ।—सुजान०, पृ०, ३० ।

कोचवान
संज्ञा पुं० [अँ० कोचमैन] घोड़ागाड़ी हाँकनेवाला ।

कोचा
संज्ञा पुं० [हि० कोंचना] १. तलवार, कटार, आदि का हलका घाव जो पार न हुआ हो । क्रि० प्र० —देना ।—मारना ।—लगाना । २. लगती हुई बात । चुटीली बात । ताना । व्यंग्य । क्रि० प्र० —देना ।

कोचिड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] जंगली प्याज जो दक्षिण हिमालय में होता है और खाने तथा तबा के काम में आता है । कौड़ा ।

कोचिला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुचला' ।

कोची
संज्ञा पुं० [देश०] बबूल की तरह का एक जंगली पेड़ । बनरीठा । सीकाकाई । विशेष— यह पूरब और दक्षिण भारत के जंगलों में अधिकता से होता हैं । इसकी छाल और पत्तियाँ प्राय?औषध के काम में आती हैं । इसकी सूखी फलियों को लोग आँवले या इमली की भाँति रगड़ कर उससे सिर के बाल धोते हैं ।

कोचीन
संज्ञा पुं० [देश०] मदरास प्रांत की एक देशी रियासत जो ट्रावनकोर राज्य के उत्तर में है ।

कोजागर
संज्ञा पुं० [सं०] अश्विन मास की पूर्णिमा । शरद पूनो । विशेष— ऐसा माना गया है कि इस रात को लक्षमी संसार का भ्रमण करती हैं और जिसे जागरण करते और उत्सव मनाते पाती हैं, उसपर प्रसन्न होती और उसे धन देती हैं । मानोंलक्ष्मी तलाश करती फिरती है कि 'कि को जागर' अर्यात कौन जागता है ।

कोजागरी
वि० [सं० कोजागरीय] कोजागर के पर्ववाला । कोजागर या आशि्वन पूर्णिमा संबंधी । उ०— दीप कोजागरी बाले कि फिर आवे वियोगी सब ।—हरी घास०, पृ०, ३६ ।

कोट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्ग । गढ़ । किला । यौ०— कोटप । कोटपाल । २. शहरपनाह । प्राचीर । ३. राजमदिर । महल । राजप्रासाद । ४. छप्पर । झोपड़ा (को०) । ५. दाढ़ी (को०) । ६. कुटिलता । कुटिलपन (को०) ।

कोट (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोटि] समूह । यूथ । जत्था । उ०— चले तुरंग अपार कोटि कोटि को कोट करि ।— सोहत सकल सवार रामा- गमन अनंद भरि ।—रघुराज (शब्द०) । २ कोटि । करोड़ । उ०—अनंतहि चंदा ऊगिया सूर्य कोट परकास । —दरिया० बानी, पृ०, १५ ।

कोट (३)
संज्ञा पुं० [अ०] अंगरेजी ढंग का एक पहनावा जो कमीज या कुरते के ऊपर पहना जाता है और जिसका सामना बटनदार होता है । यौ०— कोट्पतलून=साहबी पहनावा । योरोपीय़ पहनावा ।

कोट अरलू
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जो समुद्र में होती है और जिसका मांस खानें में बहुत स्वादिष्ट होता है ।

कोटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. झोपड़ी बनानेवाल व्यक्ति । २. एक वर्णसंकर जाति । संगतराश ओर कुम्हार की लड़की से उत्पन्न व्यक्ति [को०] ।

कोटगंधल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ । विशेष— इसकी लकड़ी कड़ी, चिकनी और मजबूत होती है और इमारत के काम में आती है । बंगाल, मध्य प्रदेश ओर मदरास में यह पेड़ अधिकता से होता है ।

कोटचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के आनुसार एक प्रकार का चक्र जिसका प्रयोग युद्ब से पहले अपने दुर्ग का शुभाशुम परिशाम जानने के लिये होता है । विशेष— यह आठ प्रकार का होता है, जिनके नाम ये हैं— मृण्मय, जलकोटक,ग्रामकोटक, गह्मर, गिरि, ड़ामर० वक्रमूमि और विषम ।

कोटड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोठरी' । उ० —प्रौर नारायनदास ने अपने घर के आगें दोऊ और वैष्णवन के उतरिबे को न्यारी न्यारी कोटड़ी करि राखी ह्वती ।—दो सौ बावन०, भा०, १. पृ०, ११६ ।

कोटन
संज्ञा पुं० [सं०] शीत ऋतु । हेमंत ऋतु [को०] ।

कोटपाल
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्ग की रक्षा करनेवाला । किलेदार ।

कोंटपिस
संज्ञा पुं० [अ० कोर्टपीस] दे० 'कोर्ट पीस' ।

कोटभरिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोष्ठ+हि भरना] वह लकड़ी जो नाव के किनारे किनारे ऊपर की और जड़ी रहती है ।

कोटमास्टर
संज्ञा पुं० [अं० कवार्टर मास्टर] दे० 'क्वार्टर मास्टर' ।

कोटर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ का खोखला भाग । उ०— रूखन तर मुनि अन्न परयो है । शुक्र कोटर ते यह जु गिरयौ है ।—शकुं— तला, पृ०, ११ । २. दुर्ग के आसपास का वह कृत्रिम वन जो रक्षा के लिये लगाया जाता हैं ।

कोटरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाणपुर की माता का नाम ।

कोटरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा । चंड़िका । काली । २. नग्न स्त्री । नंगी महिला [को०] ।

कोटल †—पु
संज्ञा पुं० [तु० कोतल] दे० 'कोतल (३)' । उ०— दुअ कोटल दुअ नृपति के किन्ने हाजुर आनि । —पृ०, रा०, ७ । १०६ ।

कोटवार पु
संज्ञा पुं० [सं० कोटपाल, प्रा०, कोटवार] दुर्गरक्षक । किलेदार । उ०— पौंरि पंथ कोटवार बईठा । पेम क लुबुधा सुरंग पईठा । —पदमावत, पृ०, २९२ ।

कोटवाल पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कोटपाल' । उ०— पायक चेतन कोटवालं । रामनंद०, पृ०, १५ ।

कोटवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोटरी' [को०] ।

कोटा
संज्ञा पुं० [अं०] वह निर्धारित अंश जो किसी को देने या लेने के लिये हो । यौ०— कोटा परमिट ।

कोटि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धनुष का सिरा । कमान का गोशा । उ०—क्षत्रियों के चाप कोटि समक्ष , लोक में है कौन दुर्गम लक्ष ।—साकेत, पृ०, १८१ । २. किसी अस्त्र की नोक या धार । ३. वर्ण । श्रेणी । दरजा । ४. किसी वादविबाद का पूर्वपक्ष । ५. उत्कृष्टता । उत्तमता । ६. अर्धचंद्र का सिरा । ७. समूह । जत्था । ८. किसी ९० अंश के चाप के भागों दो में एक । (क से घ तक का चाप ९० अंश का है । उसका एक अंश क ग उसके दूसरे अंश ग घ की कोटि है और ग घ उसके दूसरे अंश क ग की कोटि है ।) ९. किसी त्रिभुज या चतुर्भुज की भूमि या आधार और कर्णा से भिन्न रेखा । १०. रशिचक्र का तुतीय अंश । ११. असबरग नामक सुगंध द्रव्य जो औषध के काम में आता है । १२. आखिरी सीमा या सिरा ।

कोटि
वि० [सं०] सौ लाख की संख्या, करोड़ ।

कोटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेढक । दादुर । २. इंद्रवधृटी । गोपबधूटी [को०] ।

कोटिक (२)
वि० [सं० कोटि+का] १. करोड़ । उ०— कोऊ कोटिक संग्रहौ कोऊ लाख हजार । मो संपति जदुभति सदा बिपति बिदारनहार —बिहारी (शब्द०) । २. अनेक करोड़ ।करोड़ों । अमित । असंख्य । अनगिनत । बहुत अधिक । उ०— कीनै हूँ कोटिक जतन अब कहि काढँ कौनु । भो मनमोहन रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु ।—बिहारी (शब्द०) ।

कोटिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] श्रोणी का क्रम । विकासक्रम । उ०— हमने उपन्यास कला और उसके कोटिक्रम पर ही अधिक ध्यान रखकर .... ऊपर की पक्तियाँ लिखी हैं । —साहित्य०, पृ०, १५७ ।

कोटिज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रहों की स्पष्टता के लिये बनाए हुए एक प्रकार के क्षेत्र का एक विशेष अंश । विशेष— इस क्षेत्र में ख—झ या घ—झ, और ख— ज या घ— छ अंशकोटिज्या है ।

कोटितीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] तीर्थविशेष । इस नाम के तीर्थ उनेक है । पर उज्जैन और चित्रकूट के तीर्थ अधिक प्रसिद्ध हैं ।

कोटिघ्वज
संज्ञा पुं० [सं०] कोटयधीश । करोड़पति [को०] ।

कोटिपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] नाव का पतवार [को०] ।

कोटिफली
संज्ञा पुं० [सं०] गोदावरी नदी के सागरसंगम के निकट का प्रसिद्ब तीर्थ है । विशेष— जब सिंह राशी पर बृहस्पति आता है, तब इस स्थान पर बड़ा मेला लगता है । उस समय तीर्थ में स्नान करने का बड़ा फल है । कहते है । इंद्र का अहल्यागमन का पाप इसी तीर्थ के स्नान से छूटा था ।

कोटिर
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधुऔं के सिर पर सींग के आकार की बनाई हुई जटा । २. इंद्र । ३. नकुल । नेवाला । ४. बीरबहूटी [को०] ।

कोटिश? (१)
क्रि० वि० [सं० कोटिशस्] अनेक प्रकार से । बहुत प्रकार से ।

कोटिश? (२)
वि० बहुत अधिक । बहुत बहुत । अनेकानेक । जैसे,— आपको कोटिश? धन्यवाद ।

कोटिवेधी
वि० [सं० कोटिवेधिन्] १. नियत बिंदु पर प्रहार करनेवाला । २. (लाक्ष०) उत्यंत कठिन कार्य करनेवाला ।

कोटिश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०] ।

कोटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोटि' [क०] ।

कोटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. (माधु के माथे पर) सींग के आकार की जटा । २. शिखा । चूड़ा । ३. किरीट [को०] ।

कीटीश
संज्ञा पुं० [सं०] करोड़पति । कोठयधीश [को०] ।

कोटिश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोटीश' ।

कोटीस पु
वि० [सं० कोटीश] करोड़पति । कोटयधीश । उ०— नयर मध्य कोटीस बसै बानिक अनंत लछि ।—पृ० रा०, २५ । १७३ ।

कोटू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कूटू' ।

कोटेशन
संज्ञा पुं० [अं०] लेख या वाक्य का उदधृत अंश । उद्धरण । २. सीसे का ढला हुआ चौकोर पोला टुकड़ा जो कंपोज करने में, खाली स्थान भरने के काम में आता है । विशेष—यह क्वाड्रेट स बड़ा होता है । इसकी चौड़ाई ४ एम पाइका और लंबाई २, ४, ६ या ८ एम पाइका तक होती है ।

कोट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. किला । दुर्ग । २. नगर ।—देशी०, पृ० ११० ।

कोट्ठवी
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाणासुर की माता । विशेष—जब श्रीकृष्ण और बाणासुर में युद्ध हुआ था, तब यह अपने पुत्र की रक्षा के लिये नंगी होकर युद्धक्षेत्र में उतरी थी । २. नंगी स्त्री जिसके बाल बिखरे हों । ३. दुर्गा ।

कोट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] १. किला । दुर्ग । २. किलेबंदीवाला नगर । ३. कूप । कुआँ । ४. तालाब की सीढ़ी । ५. दुराचारी । लंपट [को०] ।

कोटयधीश
संज्ञा पुं० [सं०] करोड़पति । करोड़ी । बहुत बड़ा धनी ।

कोठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ़ जो मंडलाकार होता है ।

कोठ (२) †
वि० [सं० कुष्ठ] जिससे कोई वस्तु कूँची या चबाई न जा सके । कुंठित । विशेष—इस शब्द का प्रयोग दाँतों के लिये उस समय होता है, जब वे खट्टी वस्तु लगने के कारण कुछ देर के लिये बेकाम से हो जाते हैं ।

कोठ (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० कोट्ट] कोट । किला । उ०—दहति कोस बिसतार कोठ मरहथ्थ त्रिपुंची ।—पृ० रा०, २६ । ७५ ।

कोठ (४)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कोठ] दे० 'अंकोल' । उ०—सो उनके द्वारे एक कोठ को वृक्ष हतो ।—दो० सौ बावन०, भा० १, पृ० ५१ ।

कोठड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोठरी] दे० 'कोठरी' ।

कोठर
संज्ञा पुं० [सं०] अंकोल का पेड़ ।

कोठरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिधारा नामक वृक्ष ।

कोठरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोठरी+इया (प्रत्य०)] दे० 'कोठरी' ।

कोठरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोठा+डी (री) (अल्पा०) (प्रत्य०)] (मकान आदि में) वह छोटा स्थान जो चारों ओर दीवारों या दरवाजों आदि से घिरा और ऊपर से छाया हो । छोटा कमरा । तंग कोठा । मुहा०—अँधेरी कोठरी=दे० 'अँधेरी (२)' का यौगिक । अँधेरी कोठरी का यार=वि० दे० 'अँधेरी२' का मुहावरा । कालकोठरी =वि० दे० 'कालकोठरी' ।

कोठली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोठरी' । उ०—सार की कोठली बैठ तालिया पूरा, पच मुआ संसार ।—रामानंद०, पृ० २६ ।

कोठा
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठक] १. बड़ी कोठरी । चौड़ा कमरा । २. कमरा । वह स्थान जहाँ बहुत सी चीजें संग्रह करके रखी जाय । भंडार । यौ०—कोठादार । कोठारी । ३. मकान में छत या पाटन के ऊपर का कमरा । अटारी । बड़ा मकान । व्यापारी, महाजन या संपन्न व्यक्ति का पक्का बड़ा मकान । यौ०—कोठेवाली=बाजारू स्त्री । वेश्या । मुहा०—कोठे पर चढ़ना=किसी ऐसे स्थान पर पहुँचाना जहाँ सब लोग देख सकें । अधिक ज्ञात या प्रसिद्ध होना । जैसे,— (बात) ओठो निकली, कोठों चढ़ी । कोठे पर बैठना=वेश्या बनाना । कसब कमाना । ४. उदर । पेट । पक्वाशय । मुहा०—कोठा बिगड़ना=अपच आदि रोग होना । कोठा साफ होना=साफ दस्त होने के बाद पेट का हलका हो जाना । ५. गर्भाशय । धरन । मुहा०—कोठा बिगड़ना=गर्भाशय में किसी प्रकार का रोग होना । ६. खाना । घर । जैसे,—शतरंज या चौपड़ के कोठ । मुहा०—कोठा खींचना=लकीरों से खाना बनाना । कोठा भरना= हिंदुओं में कार्तिक स्नान करनेवाली स्त्रियों का विशेष तिथियों को भूमि पर ३५ खाने खींचकर ब्राह्मण को दान देने के अभिप्राय से उनमें अन्न, वस्त्र आदि पदार्थ भरना । ७. किसी एक अंक का पहाड़ा जो एक खाने में लिखा जाता है । जैसे,—आज उसने चार कोठे पहाड़े याद किए । ८. शरीर या मस्तिष्क का कोई भीतरी भाग, जिसमें कोई विशेष शक्ति रहती हो । मुहा०—कोठों में चित्त भरमना या जाना=अनेक प्रकार की आशंकाएँ होना । जैसे,—तुम्हारे चले जाने पर मुझे बहुत चिंता हुई, न जाने कितने कोठों में चित्त भरमा । किसी कोठे में चित्त जाना=किसी प्रकार की प्रवृत्ति या वासना होना । अंधें कोठे का=मूर्ख । बेवकूफ । विचारशून्य । कोठा न होना या कोठा साफ होना=अंतःकरण शुद्ध होना । हृदय में कोई बुरा विचार न रहना ।

कोठाकुचाल
संज्ञा पुं० [हिं० कोठा+कुचाल] हाथियों की वह बीमारी जिसमें उनकी भूख मारी जाती है ।

कोठादार
संज्ञा पुं० [सं० कोठा+फा० दार] भंडारी । कोठारी भंडार का अधिकारी ।

कोंठार
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठागार] अन्न, धनादिं रखने का स्थान । भंडार । उ०—कोठार और रसोई घर की गृहस्थ को रोज आवश्यकता पड़ती है ।—रस०, पृ० ८२ ।

कोठारी
संज्ञा पुं० [हिं० कोठार+ई (प्रत्य०)] वह अधिकारी जो भंडार का प्रबंध करता और उसके लिये पदार्थ आदि का संग्रह करता हो । भंडारी । उ०—करिंदे कौच कोठारी । खरीदे माल सब झारी ।—संत तुरसी०, पृ० ६६ ।

कोठिला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुठला' ।

कोठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोठा+ई (प्रत्य०)] १. बड़ा पक्का मकान । हवेली । उ०—तब वह स्त्री कोठी में सो निकसन लागी ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ७८ । २. अँगरेजों के रहने का मकान । बँगला । ३. वह मकान जिसमें रुपए का लेनदेन या कोई बड़ा कारबार हो । बड़ी दूकान जिसमें थोक की बिक्रि होती हो या ऋण दिया जाता हो अथवा बंक की तरह रुपया जमा किया जाता हो ।—(को) महाजन की कोठी । (ख) नील की कोठी । मुहा०—कोठी करना या खोलना=(१) महाजनी का काम शुरू करना । लेनदेन का व्यवहार करना । (२) कोई बड़ा कारबार शुरू करना । बड़ी दूकान खोलना । कोठी चलना= महाजनी का कारबार होना । लेनदेन का व्यवहार होना । जैसे,—उनकी इस समय कई कोठियाँ चलती हैं । कोठी बैठना=दिवाला निकलना । कारबार में घाटा आना । यौ०—कोठीवाला । ४. अनाज रखने का कुठला । बखार । गज । जैसे—कोठी में चावल भरा पड़ा है । ५. ईंट या पत्थर की वह जोड़ाई जो कुएँ की दीवार या पुल के खंभे में पानी के भीतर जमीन तक होती है । विशेष—यह जोड़ाई जमवट या गोल के ऊपर होती है । जमवट ज्यों ज्यों नीचे धँसता जाता है त्यों त्यों जोड़ाई होती जाती है । क्रि० प्र०—बाँधना । मुहा०—कोठी उतारना, बैठना या डालना=दे० 'कोठी गलाना' । कोठी गलाना=कुएँ या पुल के खंभे में जमवट या गोले के ऊपर की जोड़ाई को नीचे धँसाना । लाल कोठी= व्याभिचारिणी स्त्रियों का अड्डा । (पंजाब) । ६. बंदूक में वह स्थान जहाँ बारूद ठहरती है । ७. गर्भशय । बच्चादानी । ८. म्यान की साम । ९. कोल्हू के बीच का वह स्थान या घेरा जिसमें पेरने के लिये ऊख या गन्ने के टुकड़े डाले जाते हैं ।

कोठी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोटि या कूट=समूह] उन बाँसों का समूह जो एक साथ मंडलाकार उगते हैं । जैसे—चार कोठी बाँस कट गए ।

कोठीवाल
संज्ञा पुं० [हिं० कोठी+वाला (प्रत्य०)] १. वह जिसके यहाँ कोठी चलती हो । वह जिसके यहाँ लेनदेन या हुँडी पुरजे का व्यवहार होता हो महाजन । साहूकार ।उ०— सम्रथ की कोठी आए । तब कोठीवाल कहाए ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८८८ ।२. कोई बड़ा कारबार करनेवाला । बड़ा व्यापारी । ३. महाजनी अक्षर जो कई प्रकार के होते हैं, और जिनमें शीर्ष रेखाएँ और मात्राएँ नहीं होतीं । कोठीवाली । मुड़िया । उ०—क्या तो पढ़ैं कैथी कोठीवलिये कि होइ बरिस्टर धाय हो दुइ रंगी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५०१ ।

कोठीवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोठी] १. कोठी चलाने का काम । २. कोठीवाल अक्षर ।

कोडंड †
संज्ञा पुं० [सं० कोदण्ड प्रा० कोडंड] दे० 'कोदंड' । उ०— कर तीन नयन पिनाक कोडंड ताणवैं तिहताल ।—रघु० रू० पृ० ७२ ।

कोड पु †
वि० [सं० कोटि] करोड़ । कोटि । उ०—कीन्हेसि सुख औ कोड अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ दंदू ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२२ । (ख) तहें अनंद बिनोंद कोड अखारे । तहँ शोभावंत संत हरि पिआरे ।—प्राण०, पृ० १८९ । (ग) कोड़ प्रकारां खून कर, मूकै नहीं मुकाम ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० १० ।

कोड (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह पुस्तक जिसमें किसी प्रकार के संकेत और उनके प्रयोग के नियम लिखे हों । संकेतपद्धति । संकेत- विधान । २. किसी विषय के प्रयोग के नियम आदि का संग्रह । संहिता ।

कोड़ना
क्रि० स० [सं० कुण्ड=खंडित] खेत की मिट्टी को कुछ गहराई तक खोदकर उलट देना । गोड़ना ।

कोड़वाना
क्रि० स० [हिं० कोड़ना का प्रे० रूप] दूसरों के द्वारा कोड़ने का काम कराना ।

कोड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कवर=गुँथे हुए बाल] १. छोटा डंडा या दस्ता जिसमें चमड़ा या सूत आदि बटकर लगाया जाता है । और जो मनुष्यों या जानवरों को मारने के काम आता है । चाबुक । साँटा । दुर्ग । क्रि० प्र०—जड़ना ।—फटकारना ।—बैठना ।—मारना ।—लगाना । २. उत्तेजक बात । मर्मस्पर्शी बात । जैसे—मैं तो स्वयं ही यह काम करने को था, इसपर तुम्हारा कहना और भी एक कोड़ा हुआ । क्रि० प्र०—लगाना ।—होना आदि । ३. चेतावनी ।

कोड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो दक्षिण में होता है । २. कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें विपक्षी के दाहिने पैतरे पर खड़े होने पर बाएँ हाथ की कोहनी से इसकी दाहिनी रान दबाते और दाहिने हाथ की कलाई से उसके दाहिने पैर का गट्टा उठाकर दोनों हाथों को मिलाकर जोर करके उसे चित्त गिरा देते हैं ।

कोडा (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कपर्द, प्रा० कवडु] कौड़ी । पूँजी । धन । उ०—राम मिलन की बाट । सुंदर सबकौ कहत है कोडा बिना न हाट ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७३ ।

कोड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोड़ना] १. खेत गोड़ने की मजदूरी । २. खेत गोड़ने का काम ।

कोड़ना
क्रि० स० [हिं० कोड़ना का प्रे० रूप] दूसरे के द्वारा कोड़ने का काम कराना ।

कोड़ार
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डल] लोहे का एक प्रकार का गोल बंद जो कोल्हू की लकड़ी के चारो ओर इसलिए जड़ा होता है जिसमें वह फट न जाय । पश्चिम में इसे चरस कहते है । कुंडरा । तौक ।

कोड़ी
वि० [हिं०] दे० 'कोटि' । उ०—नरपति व्यास कहाइ करि जोड़ि । तो तूठा तैंतीसो कोड़ि ।—बी० रासो, पृ० ३० ।

कोडी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कौड़ी' । उ०—(क) सुंदर मनुषा देह यह पायो रतन अमोल । कोडी सटै न पोइये मांनि हमारौ बोल ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६९६ । (ख) गुन को न लेश ताको बड़े गुनवान कहैं, दानी कहत जाकी कोडी करते ढरै नहीं ।—रघु० रू०, पृ० २८४ ।

कोडी (२) †
संज्ञा पुं० [देश० कुड्ड, कोड्ड] आश्चर्य । कुतूहल । कौतुक । उ०—सींगण काँइ न सिरजियाँ प्रीतम हाथ करंत । काठी साहत मूठि माँ, कोडी कासी संत ।—ढोला०, दू० ४१६ ।

कोड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [अं० सकोर या सं० कोटि] १. बीस का समूह । बीसी । २. तालाब का पक्का निकास जिससे तालाब भर जाने पर अधिक पानी निकल जाता है । पक्का ओना ।

कोड़ी (२)
वि० बीस ।

कोढ़
संज्ञा पुं० [सं० कुष्ठ] [वि० कोढ़ी] एक प्रकार का रक्त और त्वचा संबंधी रोग जो संक्रामक और पुरुषानुक्रमिक होता है । विशेष—वैद्यक के अनुसार कोढ़ १८ प्रकार का होती है जिनमें से कापाल, उदुंबर, मंडल, सिध्म, काकणक, पुंडरीक और ऋक्षजिह्व नामक सात प्रकार के कोढ़ महाकुष्ठ कहे और असाध्य समझे जाते हैं; और एक कुष्ठ, गजचर्म, चर्मदल, विचर्चिका, विपादिका, पामा, कच्छू, दद्रु, विस्फोट, किटिंम और अलसक नामक शेष ग्यारह प्रकार के कोढ़ क्षुद्र कुष्ठ कहे और साध्य समझे जाते हैं । कोढ़ होने से पहले चमड़ा लाल हो जाता है और उसमें बहुत जलन होती है । गलित कोढ़ से हाथ पैर की उँगलियाँ गल गलकर गिर जाती हैं । डाक्टरों के मत से यह सर्वांगव्यापी रोग है और श्लीपद आदि भी इसी के अंतर्गत हैं । इस रोग से पीड़ित मनुष्य घृणित और अस्पृश्य समझा जाता है । मुहा०—कोढ़ चूना या टपकना=कोढ़ के कारम अंगों का गल गलकर गिरना । कोढ़ की खाज या कोढ़ में खाज=दुःख पर दुःख । विपत्ति पर विपत्ति । उ०—एक तो कराल कलिकाल सूलमूल तामें, कोढ़ में की खाजु सी समीचरी है मीन की ।— तुलसी (शब्द०) ।

कोढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठ, प्रा० कोड्ड] १. खेत में वह बाड़ा या स्थान जहाँ खाद के लिये गोबर आदि संग्रह करने के अभिप्राय से पशुओं को रखते हैं । †२—साँकल आदि लगाने या फँसाने का लौह आदि निर्मित गोला ।

कोढ़िन, कोढ़िनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोढ़ी] १. वह स्त्री जिसे कोढ़ हुआ हो । २. (लाक्ष०) माया ।

कोढ़िया
संज्ञा पुं० [हिं० कोढ़] एक प्रकार का रोग जो तमाखू के पत्तों में होता है और जिसके कारण उसपर चकत्ते या दाग पड़ जाते हैं ।

कोढ़िला †
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधा ।

कोढ़ी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कोढ़] [स्त्री० कोढ़िन] कोढ़ रोग से पीड़ित मनुष्य ।

कोढ़ी (२)
वि० कुष्ठ रोग से ग्रस्त ।

कोण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक बिंदु पर मिलती या कटती हुई दो ऐसी रेखाओं के बीच का अंतर, जो मिलकर एक न हो जाती हों । कोना । गोशा ।विशेष—जिन दो रेखाओं से कोण बनता है उनकी लंबाई के घटने बढ़ने से कोण के मान में कुछ अंतर नहीं पड़ता । कोण का मान निकालने का ढंग यह है कि जिस बिंदु पर दोनों रेखाएँ मिलती हैं उसे केंद्र मानकर दोनों रेखाओं को काटता हुआ एक वृत्त बनावे । फिर उसकी परिधि को ३६० अंशों में विभक्त करे । जितने अंश कोण बनानेवाली रेखाओं के बीच में पड़ेगे, उतने अंशों का वह कोण कहा जायगा । रेखागणित में कोण कोई प्रकार के होते हैं, जैसे—समकोण (९० अंश का) न्यूकोण (९० अंश से कम का), इत्यादि । २. दो दिशाओं के बीच की दिशा । विदिशा । विशेष—कोण चार हैं—अग्निकोण (पूर्व और दक्षिण के बीच का कोण), नैऋति (पश्मि और दक्षिण का), ईशान (पूर्व और उत्तर का) तथा वायव्य (उत्तर और पश्मि का) । ३. सारंगी का कमानी । ४. हथियारों की बाढ़ । तलवार आदि की धार । ५. सोंटा । डंडा । लाठी । ६. ढोल पीटने का चोब ।

कोण (२)
संज्ञा पुं० [यू० कोनस] १. शनि ग्रह । २. मंगल ग्रह ।

कोणकुण
संज्ञा पुं० [सं०] मत्कुण । खटमल [को०] ।

कोणनर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोणशंकु' ।

कोणप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कौणप' ।

कोणवादी
संज्ञा पुं० [सं० कोणवादीन्] शंकर । शिव [को०] ।

कोणवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह देशांमतर वृत्त जो उत्तर पूर्व से दक्षिण- पश्चिम या उत्तरपश्चिम से दक्षिणपूर्व की ओर गया हो ।

कोणशकु
संज्ञा पुं० [सं० कोणशङ्कु] सूर्य की वह स्थिति जब कि वह न तो कोणवृत्त में हो और न उन्मंडल में हो ।

कोणस्पृगवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] ह वृत्त जो किसी क्षेत्र के सब कोनों को धूता हुआ खींचा जाय ।

कोणाकोणी
अव्य० [सं०] एक कोने से दूसरे कोने तक ।

कोणाधात
संज्ञा पुं० [सं०] दस हजार ढोलों और एक हजार हुड़को के एक साथ बजने का शब्द० ।

केणार्क
संज्ञा पुं० [सं०] जगन्नाथपुरी का प्रसिद्ध तीर्थ । यहाँ का सूर्य मंदिर बहुत प्रसिद्ध है ।

कोणि
वि० [सं०] जिसका हाथ टेढ़ा हो । वक्रहस्त [को०] ।

कोत (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० कुबत] बल । शक्ति । जोर । उ०—कौंहर, कौंल, जपादल, विद्रुम का इतनी जो बंदूक में कोत है ।— शंभु (शब्द०) ।

कोत (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोद' ।

कोतक †
संज्ञा पुं० [सं० कोतुक] दे० 'कोतुक' । उ०—ज्याँरौ कोतक देख जुध, हुवै मुनिंद्रा हास ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३ ।

कोतकहार †
वि० [सं० कौतुक+हिं० हार (प्रत्य०)] कौतुकी । खेल रचनेवाला । तमाशा दिखानेवाला । उ०—आप निरंजन हुय रह्या कायमो कोतकहार । दादू निर्गुण गुण कहै जाऊँगा बलिहार ।—राम० धर्म०, पृ० २५ ।

कोतर पु †
संज्ञा पुं० [सं० कोटर] दे० 'कोटर' । उ०—जुबती जन चढि़ काम जाही कोतर तर पंषी । अवृत वृत्त सुंदरिय काम वदिय बह अंषी । — पृ० रा०, २५ ।६७५ ।

कोतरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली ।

कोतल (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. सजा सजाया घोडा़ जिसपर कोई सबार न हो । जलूसी घोडा़ । २. स्वयं राजा की सवारी का घोडा़ । उ० — गवनहिं भरत पयादेहि पाये । कोतल संग जाहि डोरिआये । — तुलसी (शब्द०) । ३. बह घोडा़ जो जरूरत के वक्त के लिये साथ रखा जाता है ।

कोतल (२)
वि० जिसे कोई काम न हो । खाली ।

कोतल गारद
संज्ञा पुं० [अं० क्वार्टर गार्ड] छावनी का बह प्रधान स्थान जहां हर समय गारद रहती है और जहाँ दलेलवालों की निगरानी होती है ।

कोतबार
संज्ञा पुं० [सं० कोटपाल] दै० 'कोतवाल' । उ०— भरमहुँ भोंरी न देअ कोतवार । काहु न के ओ नहि करये विचार ।— विद्यापति , पृ० ३८९ ।

कोतवाल
संज्ञा पुं० [सं० कोटपाल, प्रा० कोटवाल ] १. पुलिस का एक प्रधान कर्मच्री जो किसी जिले के प्रधान नगर में रहता है और जिसके अधीन कई थाने और थानेदार होते हैं । इसपर नगर की शांतिरक्षा का भार रहता है । डिप्टी सुपरिटेंडेंट पुलिस । २. बह कार्यकर्ता जिसका काम पंडितों की सभा या पंचायतवाली विरादरी अथवा साधुओं के अखाडे़ की बैठक, भोज आदि का निमंत्रण दैना और उनका ऊपरी प्रबंध करना हो ।

कोतवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोतवाल + ई (प्रत्य) ] १. वह स्थान या मकान जहां पुलिस के कोतवाल का कार्यालय हो । २. कोतवाल का पद या ओहदा ।

कोतह
वि० [फा०] छोटा । कम ।

कोतह् गर्दन
संज्ञा पुं० [फा] वह जिसकी गर्दन छोटी अर्थात् बहुत कम लंबी हो ।

कोतहगरदनी पु
वि० [फा० कोतद्वगर्दन + ई ] छोटी गरदनवाली । उ०— कोतहगरदनी ऐंचा तानी । कुवजा गाडर विष की खानी । कबीर सा०, पृ० १५९६

कोतहनजर
वि० [फा० कोतह नजर ] स्थूल बुद्धिवाला । अदूरदर्शी [को०] ।

कोता पु †
वि० [फा० कोतह] [स्त्री० कोती ] छोटा । कम । अल्प । उ०— सुर गंधर्व सरिस नर नारी, नहिं विद्या बुद्धि कोती ।—रघुराज (शब्द०) ।

कोताह
वि० [फा० ] छोटा । अल्प । कम ।

कोताही
संज्ञा स्त्री० [फा०] त्रुटी । कमी । कोर कसर ।

कोति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुत्र = किधर या कुत? ] दिशा । ओर । उ०— दामिनि निज दुति दरपि कै चमुक न अब इहि कोति । श्रुं० संत० (शब्द) ।

कोतिक पु †
वि० [हिं०] दै० ' केतिक' ।उ०— राजा येतौ दुख जिनिकरही । कोतिक नारि पुरुष जो मरही । — हिंदी प्रेमा ०, पृ० २१६ ।

कोतिक (२)पु †
संज्ञा पुं० [सं० कौतुक ] दै० 'कौतुक' । उ०— कौतिक लखे हुय विकराल दिरघ रद किया । रघु० रु०, पृ० १२९ ।

कोतिग पु †
संज्ञा पुं०[हिं०] दै० 'कौतुक' । उ०— गनपति सारद मानिकै, राधे पूजौं प्राय । कृष्णकेलि कोतिग कहौं, ताकी कथा बनाय । — ब्रज ग्रं०, पृ १

कोतिल पु †
संज्ञआ पुं० [तु० कोतल ] दै० 'कोतल' । उ०— चपल कोतिल कलल चंचल, विहद मद गल भ्रमर अलवल ।— रघु० रु०, पृ० २२८ ।

कोथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख की पलक के भीतक का एक रोग । कथुआ । २. भगंदर । ३.मंथन । मथना (को०) । ४. सड़न ।

कोथ (२)
वि० पीडा़ से युक्त । २. मथित [को०] ।

कोथमीर
संज्ञा पुं० [?] हरा धनिया ।

कोथरी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] १. कोठरी । २. दै० 'कोथली' । उ०— राम रतन मुख कोथरी पारख आगै खोलि । — कबिर ग्रं०, पृ० २५९ ।

कोथला
संज्ञा पुं० [हिं० गूथल अथवा कोठला ] १. बडा थैला । २. पेट । मुहा०—कोथला भरना= भोजन करना । (व्यंग्य) ।

कोथली
संज्ञा स्त्री० [हिं० केथला ] रुपए आदि रखने की एक प्रकार की लंबी पतली थऐळी जिसे लोग कमर में बाँधकर रखते हैं । हिमयानी । उ०— खरे दाम घर मैं धरे खोटे ल्यायौ जोरि । मिहि कोथली माहिं धरि दीनी गाँठि मरोरि । — अर्ध ०, पृ० ४७ । पु २. कोठरी ।

कोथी
संज्ञआ स्त्री० [देश०] (तलवार के) म्यान के सिरे पर लगा हुआ धातु का छल्ला या ट्कडा । म्यान की साम ।

कोदंड
संज्ञा पुं० [सं० कोदण्ड] १. धनुष । कमान । यौ०— कोदंडकला= धनुर्विघा । २. धनराशि । ३. भौंह । ४. एक प्राचीन देश ।

कोद पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोण अथवा कुत्र] १. दिशा । और । तरफ । उ०— भाग के भाजन जात जहाँ चहुँ कोदनि माँह बिनोद निपाये । — गुमान (शब्द०) । २. कोना । उ०— साखी हैं बेनी प्रवीन जु पै अबहीं इतै भाजि दुरे कहुँ कोद मैं ।—बेनी (शब्द०) ।

कोदईता †
संज्ञा पुं० [हिं० कोदो + ऐत (प्रत्य)] कोदो दलनेवाला ।

कोदई †
संज्ञा स्त्री० [ सं० कोद्रव] दे० 'कोदो' ।

कोदरा
संज्ञा पुं० [सं० कोद्रव] दै० 'कोदो' ।

कोदरैत †
संज्ञा पुं० [हिं० कोदो + दरना ] कोदो दलने की चक्की जो प्राय? चिकनी मिट्टी की बनती है ।

कोदव
संज्ञा पुं० [सं० कोद्रव] कोदो ।

कोदवला
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोदो ] कोदो के पेड़ के आकार की एक प्रकार की घास, जिसके नरम पत्ते चौपाए शौक से खाते हैं ।

कोदार
संज्ञा पुं० [सं०] अन्नबिशेष [को०] ।

कोदैकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मोरनी । बिडोर ।

कोदों
संज्ञा पुं० [सं० कोद्रव] दै० 'कोदो' ।

कोदो
संज्ञा पुं०[सं० कोद्रव] एक प्रकार का कदन्न जो प्राय?सारे भारतबर्ष में होता है । कोदरा । कोदई । विशेष—इसका पौधा धान या बडी़ घास के आकार का होता है । इसकी फसल पहली बर्षा होते ही बो दी जाती है और भादों में तैयार हो जाती है । इसके लिये बढि़या भूमि या अधिक परिश्रम की आवस्यकता नहीं होती । कहीं कहीं यह रूई या अरहर के खेत में भी बो दिया जाता है । अधिक पकने पर इसके दाने झडकर खेत में गिर जाते हैं, इसलिये इसे पकने से कुछ पहले ही चकाटकर खलिहान में डाल देते हैं । छिलका उतरने पर इसके अंदर से एएक प्रकार के गोल चावल निकलते हैं जो खाए जाती हैं । कभी कभी इसके खेत में अगिया नाम की घास उत्पन्न हो जाती है जो इसके पौधों को जला देती है । यदि इसकी कटाई से कुछ पहले बदली हो जाय, तो इसके चावलों में एक प्रकार का विष आ जाता है । वैद्यक के मत से यह मधुर, तिक्त, रूखा, कफ और पित्तानाशक होता है । नया कोदो कुरु पाक होता है । फोडे़ के रोगी को इसका पथ्य दिया जाता है । मुहा०—कोदो देकर पढ़ना या सीखना = अधूरी या बोढंगी शिक्षा । पाना । कोदो दलना = निकृष्ट पर अधीक परिश्रम का काम करना । छाती पर कोदो दलना = किसी को दिखलाकर कोई ऐसा काम करना जिससे उसे ईर्ष्या और ताप हो । किसी को जलाने या कुढा़ने के लिये उसे दिखलाकर या उसकी जानकारी में कोई काम करना ।

कोदो पु
संज्ञा पुं० [सं० कौद्रव] दै० 'कोदो' । उ०— फटै नाक न टूटै काधन कोदो गों भुल खैहै । — कबीर ग्रं०, पृ० २८५ ।

कोद्रव
संज्ञा पुं० [सं० ] कोदो । कोदई ।

कोद्रा †
संज्ञा पुं० [सं० कोद्रव] मडु़आ नामक अन्न । उ० और कोद्रा भी हैं किंतु वह हमारे देश का कोदो नहीं म़डुआ (रागी) है ।— किन्नर०, पृ० ७० ।

कोध पु
संज्ञा स्त्री०[ सं०कुत्र, हिं० कोति कोद] दै० 'कोद' । उ०— नर नारी सब देखि चकित भे दावा लग्यो चहुँ कांध ।— सूर (शब्द०) ।

कोन (१)
संज्ञा पुं० [सं० कोण] कोना । मुहा० — कोन देना = कोने से हल को घुमाना । कोन मारना = जोतने में छुटे हुए कोनों को गोड़ना ।

कोन (२)
संज्ञा पुं०[देश०] नौ की संख्या । — (दलाल) । यौ० — कोनलाय ।

कोन (३)पु
सर्व० [हिं० ] दै० 'कौन' । उ०— (क) कहौ सर कौन करै पतिसाह । करै तब जंग बचों नहिं ताहि । — ह० रासो, पृ० ५५ । (ख) फिरि फेरि बोलावहिं साहि मोहि सो आनि दिखावउँ कोन मुख । — अकबरी , पृ ६९ ।

कोनलाय
संज्ञा पुं० [देश०] १९ की संख्या ।— (दलाल) ।

कोनसिला
संज्ञा पुं० [हिं० कोना + सिरा] कोनिया की छाजन में बह मोटी लकडी़ जो बेडेर के सिरे से दीवार के कोने तक तिरछी गई हो । कोरो इसी के आधार पर रखे जाते हैं ।

कोना
संज्ञा पुं० [सं० कोण ] १. एक बिंदु पर मिलती हुई ऐसी दो रेखाओं के बिच का अतर जो मिलकर एक रेखा नहीं हो जाती । अंतराल । गोशा । २. नुकीला किनारा या छोर । नुकीला सिरा । जैसे — उसके हाथ में शीशे का कोना धँस गया । मुहा० — कोना निकालना = किनारा बनाना । कोना मारना या छाँटना = दै० 'कोर मारना ' । ३.छोर का वह स्थान जहाँ लंबाई चौडाई मिलती हो । खूँट । जैसे,— दुपट्टे का कोना । मुहा० —कोना दबना = दै० 'कोर दबना ' । ४. कोठरी या घर के अंदर की वह सँकरी जगह जहाँ लंबाई चौडाई की दीवारें मिलती हैं । गोशा । मुहा०— कोना अँतरा = घर के अंदर का ऐसा स्थान जहाँ दृष्टि जल्दी न पड़ती हो । छिपा स्थान । जैसे,— (क) उसने सारा कोना अँतरा ढूँढ़ डाला । (ख) छडी़ कहीं कोने अँतरे में पडी़ होगी । ५. एकांत और छिपा हुआ स्थान । जैसे, — कोने में बैठकर गाली दैना वीरता नहीं है । उ०— पर नारी का राँचना, ज्यों लह— सुन की खान । कोने बैठ के खाइए, परगट होय निदान ।— कबीर (शब्द०) । मुहा० — कोना झाँकना = किसी बात के पड़ने पर बय या लज्जा से जी चुराना । किसी बात मे बचने का उपाय करना । — जैसे— तुम कहने को तो सब कुछ कहते हो पर पीछे कोना झाकने लगते हो । ६. चार भागों में से एक । चौथाई । चहारुम । — (दलाल) । मुहा०— कोने से= चार आने रुपए के हिसाब से ।

कोनालक
संज्ञा पुं० [सं०] दै० एक प्रकार का जलपक्षी [को०] ।

कोनालका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दै० 'कोनालक' ।

कोनिया
संज्ञा स्त्रई० [हिं० कोना + इया (प्रत्य०) ] वह छाजन जिसमें बँडेर के दोनों सिरे पाखों पर नहीं रहते, बल्कि दीवार के कनों से कुछ दूर पर रखी हुई धरन के ऊपर रहते हैं जहाँ से दीवार के कोनों तक दो धरने (कोनसिले) तिरछी रखी जाती है । ऐसी छाजन के लिये पाखों की आवस्यकता नहीं होती । २. काठ की पटरी या पत्थर की पटिया जो दीवार के कोने पर चीजें रखने के लिये बेठाई जाती है । पटनी । ३. पानी के नल आदि में मोड पर लगाया जानेवाला लोहें का छोटा टुकडा जो कुहनी के आकार का होता है ।

कोनेदंड
संज्ञा पुं० [हिं० कोना + दंड] वह दंड नामक कसरत जो घर के गोने में दोनों ओर की दीवारों पर हाथ रखकर की जाती है ।

कोन्वशिर
संज्ञा पुं० [सं०] वह क्षत्रिय जो ब्राह्मण द्वारा शापित होने से शूद्रत्व को प्राप्त हुआ हो [को०] ।

कोप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कुपित] १. क्रोध । रिस । गुस्सा । यौ०—कोपभवन् । कोपभाजन । २. आयुर्वेद में शारीरिक त्रिदोष विकार (को०) ।

कोपक
संज्ञा पुं० [सं०] वह लाभ, जो मंत्रियों के उपदेश से या राज- द्रोही मंत्रियों के अनादर से हुआ हो । विशेष—कौटिल्य ने कहा हौ कि पहली अवस्था में मंत्री यह सम— झने लगते हैं कि हम न होते तो राज्य की बहुत हानि हो जाती; और दूसरी अवस्था में शेष मत्री यह समझते हैं कि जहाँ हमने लाभ न पहुँचेगा, वहाँ हमारा नाश होगा ।

कोपड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] पहटा । सरावँ । हेंगा । विशेष—दे० 'हेंगा' ।

कोपन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रुद्ध होना । क्रोध करना [को०] ।

कोपन (२)
वि० क्रोधी । उग्र स्वभाव का । २. दोष या विकार उत्पन्न करनेवाला [को०] ।

कोपनक (१)
वि० [सं०] क्रोधी । क्रुद्ध [को०] ।

कोपनक (२)
संज्ञा पुं० चोवा नामक गंधद्रव्य ।

कोपना (१) पु
क्रि० अ० [सं० कोप+ हिं० ना० (प्रत्य०)] क्रोध करना । क्रुद्ध होना । नाराज होना । उ०—कोप्यो समर श्रीराम ।—तुलसी । (शब्द०) ।

कोपना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रोधी स्वभाववाली स्त्री [को०] ।

कोपना (३)
वि० स्त्री० क्रोध करनेवाली । क्रेधी स्वभाव की (स्त्री) ।

कोपपद
संज्ञा पुं० [सं०] कोप का कारण । क्रोध का कारण [को०] ।

कोपभवन
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ कोई मनुष्य क्रोध करके या अपने घर के प्राणियों से रूठकर जा रहे । उ०—कोपभवन गवनी कैकेयी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कोपर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० कपाल] पीपल या अन्य किसी धातु का बड़ा थाल जिसमें एक ओर उसे सरलता से उठाने कि लिये कुंडा लगा रहता है । उ०—कनक कलस भरि कोपर थारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा ।—तुलसी (शब्द०) ।

कोपर (२)
संज्ञा पु० [हिं० कोपल] डाल का पका हुआ आम । टपका । सीकर । साँप ।

कोपर (३)पु †
संज्ञा पुं० [सं० कूपँर प्रा० कोप्पर] [स्त्री० कोपरी] भुजा और हाथ के मध्य की संधि । कुहनी उ०—(क) पाँच कोपर चरावे ? चित सौं वाछा राखीला ।—दक्खिनी०, पृ० ३३ । (ख) दंतकुली अंगुली, करी कोपरी कपाली । बीच खेत वित्थरी, फरी बिहरी किरमाली ।—रा० रू०, पृ० २५१ ।

कोपल
संज्ञा पुं० [सं० कोमल या कुपल्लव] वृक्ष आदि की नई मुलायन पत्ती । कल्ला । अंकुर ।

कोपलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कनफोड़ा नाम की बेल ।

कोपली (१)
वि० [हिं० कोपर] कोपल के रंग का । आम के नए निकले हुए पत्ते के रंग का । बैंगनी ।

कोपली (२)
संज्ञा पुं० एक रंग जो आम के तुरंत निकले हुए पत्ते के रंग अर्थात् कालापन लिए लाला बैगनी होता है और मजीठ और नील के मिलाने से बनता है ।

कोपिका पु
वि० स्त्री० [सं०] कौप करनेवाली । कोपपूर्ण । उ०— कूबरी इलाज सो अवाज करो कोपिका ।—सुजान० पृ० ४ ।

कोपित
वि० [सं०] क्रोध में लाया गया । क्रुद्ध [को०] ।

कोपिन पु
संज्ञा पुं० [हिं० कौपीन] दे० 'कौवीन' । उ०—कोपिन बाँधे मूल दुवार, उलटे पवन उठए झनकार ।—गुलाब०, पृ० ५८ ।

कोपिलाँस †
संज्ञा पुं० [हिं० कोइलाँस] दे० 'कोइली' ।

कोपी (१)
वि० [सं० कोपीन्] १. कोप करनेवाला । क्रोधी । २. एक प्रकार का पक्षी जो जल के किनारे रहता है । ३. संकीर्ण राग का एक भेद ।

कोपी (२)
वि० [सं० कोपि] कोई । कोई भी । उ०—बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कोपीन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौपीन' ।

कोप्यापणायात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार ऐसे जाली सिक्कों का चलना जिनका रोकना जरूरी हो ।

कोफर
संज्ञा पु० [फा० कोफ़त] १. रंज । दुःख । खेद । तरद्दुद । परेशानी । हैरानी । क्रि० प्र०—उठाना ।—गुजरना ।—होना । ३. लोहे आदि पर सोने चाँदी की पच्चीकारी ।

कोफ्तगरी
संज्ञा स्त्री० [फा० कोफ्तनगरी] लोहे के बरतनों या हथियारों पर चाँदी या सोने की पच्चीकारी करने का काम ।

कोफ्ता
संज्ञा पुं० [फा़० कोंफ्तह] कूटे हुए माँस अथवा आलू आदि का बना हुआ एक प्रकार का कबाब जो जामुन के आकार का होता है और जिसके अंदर अदरक पुदीना, खसखस, भुने चने का आटा आदि भरा रहता है । उ०—कोफ्ता तो ऐसा बना कि क्या कहिए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८४ । २. वह कमाई जो भड़वेपन से प्राप्त हो (को०) ।

कोबड़ी
संज्ञा पु० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो बरमा और नेपाल में अधिकता से होता है ।

कोबर
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठगृह या हिं० कोहबर] १. निवास । कोठरी । कोठर । उ०—काया कोबर भरि भरि लीन्हों ज्ञान अबीर उड़ोरी ।—गुलाल०, पृ० १०५ । २. दे० 'कोपर (१)' ।

कोबिद पु
वि० [सं० कोंविद] [वि० स्त्री० कोविदा] दे० 'कोविद' ।

काबिदार
संज्ञा पुं० [सं० कोविदार] दे० 'कोविदार' ।

कोबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोभी] गोभी का फूल ।

कोम पु
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म्म, प्रा० कुम्म] दे० 'कूर्म' । उ०—चलंत धाव वेग वाव धाव पाव चचले । अही कपाल नीठ धीर पीठ कोम आकुले ।—रा०, रू०, पृ० १७६ ।

कोमता
संज्ञा पुं० [देश०] कीकर की जाति का एक बड़ा, सुहावना और सदाबहार पेड़ जो सिंध और अजमेर के रेतीले इलाकों में अधिकता से होता है । इसमें काँटे बहुत अधिक होते हैं ।

कोमर †
संज्ञा पुं० [देश०] खेत का वह कोना जो किसी ओर कुछ अधिक बढ़ गया हो ।

कोमल (१)
वि० [सं०] [संज्ञा कोमलता] १. मृदु । मुलायम । नरम । २. सुकुमार । नाजुक । ३. अपरिपक्व । कच्चा । जैसे— कोमलमति बालक । ४. सुंदर । मनोंहर । यौ०—कोमलचित्त=वह चित्त जो शीघ्र द्रवित हो जाय । दयापूर्ण चित्त ।

कोमल (२)
संज्ञा पुं० १. संगीत में स्वर का एक भेद । विशेष—संगीतच में स्वर तीन प्रकार के होते हैं—शुद्ध, तीव्र और कोमल । षड़ज और पंचम शुद्ध स्वर है, और इनमें किसी प्रकार का विकार नहीं होता । शेष पाँचों स्वर (ऋषभ, गंधर्व, मध्यम, धैवत और निषाद) कोमल और तीव्र दो प्रकार के होते हैं । जों स्वर धीमा और अपने स्थान से कुछ नीचा हो, वह कोमल कहलाता है । धीमेपन के विचार से कोमल के भी तीन भेद होते हैं—कोंमल, कोंमलतर और कोंमलतम । २. मृत्तिका । मिट्टी (को०) । ३. जातीफल (को०) । ४. जल (को०) । ५. रेशम (को०) ।

कोमलक
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की नाल का रेशा । मृणालतंतु [को०] ।

कोमलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृदुलता । मुलायमियत । नरमी । २

कोमलांग
वि० [सं० कोमलांङ्ग] [वि० स्त्री० कोमलांगी] कोंमल अंगोंवाला । जिसका शरीर मृदुल हों ।

कोमलांगी
वि० [सं० कोमलाङ्गी] सुकुमार अंगोंवाली ।

कोमला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह वृत्ति जिसके अनुप्रासों में व्यासपद हो, पर उसकी मधुरता बनी रहे । इसके दूसरे नाम प्रसाद और लाटी या लाटानुप्रास हैं । २. खिरनी का पेड़ ।

कोमासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] फलों के लिये छोटी जाली [को०] ।

कोय पु
सर्व० [सं० कोपि, हिं० कोई] कोई भी । उ०—(क) जुगन, जुगन समझावत हारा, कही न मानत कोय रे ।—कबीर श०, पृ० ३५ । (ख) मंदामंद बोलए सबै कोय पिबइत नीम बाँक मुँह होय ।—विद्यापति, पृ० २८३ ।

कोयता
संज्ञा पुं० [सं० कर्ता, प्रा० कत्ता=छुरा] ताड़ी टपकानेवालों का एक औजार जिससे वे छेद लगाते हैं ।

कोयर †
संज्ञा पुं० [सं० कोंपल] १. साग पात । सब्जी । तरकारी । २. वह हरा चारा जों गौ बैल आदि को दिया जाता है ।

कोयरी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोइरी' । उ०—यौ ही कोइरी और काछी भी अच्छी तरकारी और भाजी देख राजी हुए ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८ ।

कोयल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कोकिल] काले रंग की एक प्रकार की चिड़िया । कोंकिला । कोंइली । विशेष—यह आकार में कौवे से कुछ छोटी होंती है और मैदानों में बसंत ऋतु के आरंभ से वर्षा के अंत तक रहती है यह चिड़िया सारे संसार में पाई जाती है; और प्रायः सभी भाषाओं में इसके नाम भी स्वर के अनुकरण पर बने है । भारत में कोयल अपने अंडे कौवे के घोसले में रख देती और वही उसमें से बच्चा निकलता है । इसी लिए इसे संस्कृतमें 'अन्यपुष्ट' 'परभृत' भी कहते हैं । इसकी आँखे लाला, चोंच कुछ झुकी हुई और दुम चौड़ी तथा गोल होंती है । इसका स्वर बहुत ही मधुर और प्रिय होता है । वैद्यक के अनुसार इसका माँस पित्तनाशक और कफ बढ़ानेवाला है ।

कोयल (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की लता । अपराजिता । विशेष—इसकी पत्तियाँ गुलाब से मिलती जुलती पर कुछ छोंटी होती हैं । इसमें नीले और सफेद फूल होते हैं, और एक प्रकार की फलियाँ लगती हैं । इसका प्रयोग ओषधियों में बहुत होता है । वैद्यक के अनुसार यह ठंढ़ी विरेचक ओर वमनकारक होती है । इसकी पत्तियों का रस पीने से साँप का विष उतर जाता है कभी कभी इसका प्रयोंग अँगरेजी दवाओं में भी होता है ।

कोयला (१)
संज्ञा पु० [सं० कोकिल=जलता हुआ अंगारा] २. वह जला हुआ अंश या पदार्थ जो जली हुई लकड़ी के अगारों को बुझाने से बच रहता है । २. एक प्रकार का खनिज पदार्थ जो कोयले के रूप का होता हैं और जलाने के काम में आता है । विशेष—यह कई रंग और प्रकार का होता है । जहाजों और रेलों के इंजिनों तथा भट्ठों आदि में यही तक ठहरती है । इसकी आंच बहुत तेज होती है और बहुत देर तक ठहरती है । इसकी खाने संसार के प्रायः सभी भागों में पाई जाती है । बनस्पति और वृक्ष आदि के मिट्टी के नीचे दब जाने और बहुत दिनों तक उसी दशा मे पड़े रहने का कारण उनकी सड़ी लकड़ियाँ आदि जमकर पत्थर या चटटान का रूप धारण कर लेती है और अंदर की गरमी से जलकर उसे वह रूप प्राप्त होता है जिसमें वह खानों से निकलता है । इसलिए इसे पत्थर का कोयला भी कहते हैं । इसमें मिट्टी का भी कुछ अंश मिला रहता है जो इसके जल चुकने पर राख के साथ बाकी रह जाता है । मुहा०—कोयलों पर मोहर होना=केवल छोटे और तुच्छ खरचों की अधिक जाँच पड़ताल होना । छोटे और चुच्छ पदार्थ की अधिक और अनावश्यक रक्षा होना ।

कोयला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जो आसाम में होता है । इसकी लकड़ी चिकनी, कड़ी और बहुत मजबूत होती है और इमारत के काम में आती है । इसकी पत्तियाँ रेशम के कीड़ों को खिलाई जाती हैं । इसे सोम भी कहते हैं ।

कोयष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] एक जलपक्षी । श्वेत बक । कराँकुल [को०] ।

कोयष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोयष्टि' [को०] ।

कोया (१)
संज्ञा पुं० [सं० कोंण] १. आँख का डेला । उ०—(क) कहत भरे जल लोचन कोये ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बाल काह लाली परी लोयन कोयन माँह । लाल तिहारे दृगन की परी दृगन में छाँह ।—बिहारी (शब्द०) । २. आँख का कोचा ।

कोया (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोश] कटहल के फल के अंदर की वह गुठली जो चारों ओर गूदे से ढँकी होती है और जिसके अंदर बीज होता है । कटहल का बीजकोश । २. रेशम से कीड़े की खोल या आवरण ।

कोरंड
संज्ञा पुं० [सं० ओरण्ड] १. अँडवृद्धि का रोग । २. एक पौधा (को०) ।

कोरंगा
संज्ञा पुं० [देश०] गोबर और मिट्टी से पोती हुई एक प्रकार की दौरी जिसमें अनाज आदि रखते हैं ।

कोरंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोरङ्गी] १. छोटी इलायची । २. पिप्पली ।

कोरंजा
संज्ञा पुं० [हिं० कोर+ अनाज] वह अन्न जो मजदूरों को मजदूरी में दिया जाता है ।

कोर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कोण] १. किनारा । तट । उपकंठ । उ०— चारि जना मिलि लेइ चले हैं, जाइ उतारे जमुनवा के कोर ।—धरम०, पृ० ७४ । २. किनारा । सिरा । हाशिया । उ०— केसरी वन्यो है बागो मोतिन की कोर लगो । फूल झरै जब वह मुख बोलै ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४६१ । मुहा०—कोर निकालना=किनारा बनाना । कोर मारना या छाँटना=बढ़ें हुए या धारदार किनारे का कम या बराबर करना ।—(बढ़ई या संगतराश) । ३. कोना । गोशा । अंतराल । मुहा०—कोर दबना=किसी प्रकार के दबाब या वश में होना । कस में होना । जैसे,—(क) अब तो उनकी कोर दबती है, अब वे कहाँ जायँगे? (ख) जबतक उनकी कोर न दबेगी, तब तक वे रुपया न देगे । ४. द्वेष । बैर । वैमनस्य । उ०—उतते सूत्र न टारत कतहूँ, मोसों मानत कोर ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—मानना ।—रखना । ५. द्वेष । ऐब । बुराई । ६. कमी । कसर । उ०—सुतौ पूरबला अकरम मोर । बलि जाउँ करौ जिन कोर ।—रै०, बानी, पृ० १७ । क्रि० प्र०—निकालना । यौ०—कोरकसर । ७. हथियार की धार । बाढ़ । ८. पंक्ति । श्रेणी । कतार । उ०— कोर बाँधि पाँचो भये ठाढ़े । आगे धरे जँजालन गाढ़े ।— सूदन (शब्द०) । क्रि० प्र०—बाँधना ।

कोर (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. चैती फसल की पहली सिंचाई । २. वह चबैना या और खाद्य पदार्थ जो मजदूरों या कुलियों को जलपान के लिये दिया जाता है । पनपियाव । छाक । क्रि० प्र०—देना ।—बाँटना ।—पाना ।—लेना आदि ।

कोर (३)
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार शरीर की आठ प्रकार की संधियों में से एक प्रकार की संधि । इस संधि पर से अवयव मुड़ सकते हैं । उँगली, कलाई, कुहनी और घुटने की संधियाँ इसी के अंतर्गत है । २. कुड्मल । कली (को०) ।

कोर (४)
संज्ञा पुं० [अं०] पलटन । सैन्यदल । जैसे, —वालंटियर कोर ।

कोर (५)
वि० [फा़०] सूर । अंधा । बिना आँखोवाला [को०] ।

कोर पु
वि० [हिं०] करोड़ । कोटि ।

कोरई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास । विशेष—यह घास हिमालय में काश्मीर से बरमा तक ६०००फुट उँची पहाड़ियों और तराइयों में पौदा होती है । बंगाल और मदरास में अधिकता से इसकी चटाइयाँ बनती हैं । इसे कहीं कहीं मदरकटी भी कहते हैं ।

कोरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कली । मुकुल । २. फूल या कली का वह बाहरी भाग जो प्रायः हरा होता है और जिसके अंदर । पुष्पदल रहते हैं । फूल की कटोरी । उ०—कोरक सहित अगस्तिया लाख्यो राहु अवतार । कला कलाधर की गिली जनु उगलत एहि बार ।—गुमान (शब्द०) । ३. कमल की नाल या डंडी । मृणाल । ४. चोरक नाम का गंधद्रव्य । ५. शीतल तीनी ।

कोरक (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोरक=मृणाल] एक प्रकार का मोटा और मजबूत बेत जो आसाम और बरमा में होता है और जिसकी छड़ियाँ बनती हैं ।

कोर कसर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोर+ फा० कसर] १. दोष और त्रुटि । ऐब और कमी । २. अधिकता या न्यूनता । कमी बेशी । जैसे; —अगर इसके दाम में कुछ कोर कसर हो तो उसे ठीक कर दीजिए । क्रि० प्र०—निकलना ।—निकालना ।

कोरट
संज्ञा पुं० [अं० कोर्ट आफ वार्डस] १. दे० 'कोर्ट आफ् वार्ड्स' । जैसे,—कोरट का मुहर्रिर । २. किसी जायदाद का कोर्ट आफ वार्डस में आना या लिया जाना । क्रि० प्र०—करना ।—होना । मुहा०—करोट छूटना=किसी जायदाद का कोर्ट आफ् वार्ड्स के प्रबंध से निकलना । किसी जायदाद पर से कोरट का प्रबंध उठना । कोरट बैठना=किसी जायदाद का कोरट के प्रबंध में आना ।

कोरड पु
संज्ञा पुं० [देश०] चाबुक । कशा । कोड़ा । उ०—(क) हने कटेले कोरड़े कीने मृतक समान । दिए छोड़ तिस बार तिनि आए निज निज थान ।—अर्ध०, पृ० १२ । (ख) कोला राव बोला ई लुगाई नैं उतारो । आडा जो फिरै तो कोरड़ाँ सूँ फेरि मारो ।—शिखर०, पृ० ९ ।

कोरदार
वि० [हिं० कोर+फा० दार] किनारेदार । नुकीला । अनियारा । उ०—ये न कंज खंजन चकोर भौर गंजन सो, करत कजाकी कजरारे नैन कोरदार ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५७३ ।

कोररदूष, कोरदूषक
संज्ञा पुं० [सं०] कोदो । कोद्रव [को०] ।

कोरना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'कोड़ना' ।

कोरना (२)
क्रि० स० [हिं० कोर+ ना (प्रत्य०)] १. लकड़ी आदि में कोर निकालना । २. छील छालकर ठीक करना । दुरुस्त करना । उ०—बनाबासी पुर लोंग महामुनि किए हैं काठ से कोंरि ।—तुलसी (शब्द०) । ३. किनारा बनाना । छाँटना । ३. खरोंचना । खोंदकर गड्ढ़ा बनाना । उ०—ओझरी की झोंरी काँधे आंतनि की सेल्ही बाँधे, मुँड़ के कमंडलु, खपर किये कोरिकै ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १९५ ।

कोरनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पत्थर पर खुदाई का काम । संगतराशी ।

कोरम
संज्ञा पुं० [अं०] किसी सभा या समिति के उतने सदस्य जितने की उपस्थिति कार्यनिर्वाह के लिये आवश्यक होती है । किसी सभा या समिति के उतने सदस्य जितने के उपस्थित रहने पर सभा का कार्य प्रारंभ होता है । कार्यनिर्वाहक सदस्य- सख्या । गणपूर्ति । जैसे, —साधारण सभा का कोरम ९ सदस्यों का है, दर ६ ही उपस्थित हुए, कोरम पूरा न होने के कारण अधिवेशन न हो सका ।

कोरमकोर
वि० [हिं० कोरमकोर] १. पुर्णतः । पूरी तोर से । २. एकमात्र । सिर्फ । उ०—ये दोनों लेखक मनुष्य के नैतिक व्यक्तित्व को कोरमकोर अर्थाश्रित मानते है और क्षण क्षण में उसकी खिल्ली उड़ाने को तौयार रहते हैं ।—नया०, पृ० १७ ।

कोरमा
संज्ञा पुं० [तुं०] अधिक घी में भुना हुआ एक प्रकार का मांस जिसमें जल का अंश या शोरबा बिलकुल नहीं होता ।

कोरवस
संज्ञा पुं० [देश०] मदरास के आसपास रहनेवाली एक जाति । विशेष—इस जाति के लोग प्रायः दैरियाँ आदि बनाते और सारे भारत में घूम घूमकर अनेक प्रकार के पक्षियों के पर एकत्र करते हैं ।

कोरवा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. पान की खेती का दूसरा वर्ष । विशेष—जो पान पौधों में दूसरे वर्ष लगता है वह अधिक उत्तम माना जाता है । २. दे० 'कोरा' ।

कोरस
संज्ञा पुं० [अं०] पाँच सात व्यक्तियों का एक साथ गान । समवेत गान । सामूहिक गान । उ०—रंगभूमि को कारस सो रस कब बरसावै ।—प्रमेघन०, भा०१, पृ० ४९ ।

कोरसाकेन
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा और सुहावना पेड़ । विशेष—यह अवध, बंगाल, आसाम और मदरास में अधिकता से होता है । लगाते ही यह पेड़ बहुत जल्दी बढ़ जाता है और घना तथा छायादार हो जाता है । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत होती है जो अधिक दामों पर बिकती और इमारत के काम में आती है ।

कोरहन †
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का धान । उ०—कोरहन बड़हन जड़हन मिला । औ संसार तिलक खँडविला ।—जायसी (शब्द०) ।

कोरहा (१) †
वि० [हिं० कोर+ हा (प्रत्य०)] [स्त्री० कोरही] कोरदार । नोकदार । २. मन में किसी बात की कोर कसर बनाए रखनेवाला । बुराई का बदला लेनेवाला । यौ०—कोरही सबरी=कसेरों की वह पतली और छोटी सबरी जो महीन काम करने के लिये होती हैं ।

कोरहा (२)
वि० [हिं० कोरा=गोद] गोद में बहुत रहनेवाला ।

कोराँ †
संज्ञा पुं० [सं० क्रोड] गोद । उद्दंग । उ०—नैन जो चक्र फिरै चहुँ ओराँ । चरचै धाइ समाइ च कोराँ ।—जायसी ग्रं०, पृ० २३७ ।

कोरा (१)
वि० [सं० केवल] [स्त्री० कोरी] १. जो बरता न गया हो । जिसका व्यवहार न हुआ हो । न्या । अछुता ।मुहा०—कोरा छुरा या उम्तरा=वह उस्तरा जिसपर ताजा सान रखा हो । वह सान रखा हुआ छुरा जो चलाया न गया हो । कोरे छुरे या उस्तरे से मुँडना=(१) ताजी धार के छुरे से सिर मूँडना, जिसमें बाल जड़से मुड़जाय अथवा बड़ा कष्ट हो । (२) सुखा मूँडन । बिना पानी लगाए मूडना । (३) खूब लूटना । खूब झँसना । कोरी धार या बाढ़=हथियार की धार जिसपर सान रखा हो । तीक्ष्ण धार । कोरा पिंडा= अछूता शरीर । बिना ब्याहा पुरुष या बिनब्याही स्त्री । २. (कपड़ा या मिट्टी का बरतन) जो धोया न गया हो । जिससे जल का स्पर्श न हुआ हो । जैसे, कोरा घड़ा । कोरा कपड़ा । कोरा नैनसुख । मुहा०—कोरा बरतन=(१) मिट्टी का वह बरतन जिसमें पानी न डाला गया हो (२) नवोढ़ा स्त्री । अछूती कुमारी । (बाजारू) । कोरा सिर=(१) वह सिर जिसमें छुरा न लगा हो । वह सिर जिसमें पेट के बाल हों । (२) वह मला हुआ सिर जिसमें तेल न लगा हो । ३. जो रँगा न गया हो । जिसपर कुछ लिखा या चित्रित न किया गया हो । जिसपर कोई दाग या चिह्न न हो । सादा । साफ । जैसे,—कोरा कागज । मुहा०—कोरा जवाब=साफ इनकार । स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार । ४. खाली । रहित । वंचित । विहीन । जैसे,—उन्हें कुछ नहीं मिला, वे कोरे लौट आए । मुहा०—कोरा रह जाना=कुछ न पाना । सिद्धिलाभ न करना । वंचित रह जाना । ५. जिनपर कोई आघात या बुरा प्रभाव न पड़ने पाया हो । आपत्ति या दोष से रक्षित । निरापद या निष्कलंक । बेदाग । मुहा०—कोरा बचना=किसी आपत्ति या दोष से साफ बचना । ६. विद्याविहीन । मूर्ख । अपढ़ । जड़ । ७. धनहीन । अकिंचन । ८. केवल । सिर्फ । खाली । जैसे—कोरी बातों से काम न चलेगा ।

कोरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० करक] एक चिड़िया जो तालों के किनारे रहती है । इसकी चोंच पीली और पैर लाल होते हैं । यह जेठ असाढ़ में अंडा देती है और ऋतु के अनुसार रंग बदलती है ।

कोरा (३)
संज्ञा पुं० [?] बिना किनारे की रेशमी धोती ।

कोरा (४) †
संज्ञा पुं० [सं० क्रोड़] गोद । उछंग । क्रि० प्र०—लेना ।

कोरा (५)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक छोटा पेड़ । विशेष—यह गढ़वाल, बारार, मध्यप्रदेश, और आसाम में बहतायत से होता है । यह पेड़ कद में छोटा होता है । इसके हीर की लकड़ी सफेद, चिकनी और नरम होती है । देहरादून और सहारनपुर में इसपर खोदाई का काम होता है । इसकी छआल फल और पत्ते दवा के काम में आते हैं । २. एक प्रकार का सलमा जो कारचोबी के काम में आता है । ३. ऊख के खेत की पहली सिंचाई ।

कोरा (६)पु
संज्ञा पुं० दे० 'चकोर' । उ०—जैसे स्नेह चंद करु कोरा । कबीर सा०, पृ० ९०८ ।

कोरान
संज्ञा पुं० [फा० कुशन] दे० 'कुरान' ।

कोरापन
संज्ञा पुं० [हिं० कोरा+ पन (प्रत्य०)] नवीनता । अछूतापन ।

कोराहर पु †
संज्ञा पु० [सं० कोलाहल] दे० 'कोलाहल' । उ०— कुहकहिं मोर सुहावन लागा । होइ कोराहर बोलहिं कागा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३९ ।

कोरि पु
वि० [सं० कोटि] दे० 'कोटि' । उ०—ब्रजनिधि चतुर सुजान उनसो कबहु न तोरिए । वे ही जीवन प्रान कोरि भाँति करि जोरिए ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ३५ ।

कोरिया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कोरी] १. दे० 'कोरी' (१) । उ०—ढूँढि फिरे घर कोउ न बानायौ स्वपच कोरिया लौ ।— सूर०, १ ।१५१ ।

कोरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कोल=सुअर] [स्त्री० कोरिन] हिंदुओं की एक जाति जो सादे और मोटे कपड़े बुनती है । हिंदू जुलाहा । उ०—ज्यों कोरी रैजा बुनै, नियरा आवै छोर ।— कबीर सा०, सं०, पृ० ७७ ।

कोरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कोटि या अं० स्कोर] बीस वस्तुओं का समूह । कोड़ी ।

कोरी (३)
वि० स्त्री० [हिं० कोरा] १. जो काम में न लाई गई हो । अछूती । नवीन । २. जिसपर रंग न चढ़ा हो । जिसपर कुछ न लिखा गया हो । सादि । वि० दे० 'कोरा' ।

कोरैया †
संज्ञा पुं० [सं० कटुज या देश०] बनबेला । कुरैया । उ०— बनबेले (कौरैया) ने फूलकर बाग के बेलों को लजाया ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १२ ।

कोरो
संज्ञा पुं० [हिं० कोर] १. वह लकड़ी जिससे पनवारी का भीटा छाया जाता है । २. काँड़ी जो खपरैल में लगती है । ३. रेंड़ का सूखा पेड़ ।

कोर्ट (१)
संज्ञा पुं० [अं०] अदालत । कचहरी ।

कोर्ट (२)
संज्ञा पुं० [अं०] कोर्ट पीस नामक ताश के खेल में एक प्रकार की जीत जो लगातार सात हाथ जीतने से होती और सात बाजियाँ जीतनें के बराबर समझी जाती है ।

कोर्ट आफ वार्डस्
संज्ञा पुं० [अं०] वह सरकारी विभाग जिसके द्वारा किसी अनाथ, विधवा या अयोग्य मनुष्य की भारी जायदाद का प्रबंध होता है । कोरट । विशेष—जब से जमींदारी प्रथा समाप्त हुई यह विभाग बंद कर दिया गया ।

कोर्ट इसपेक्टर
संज्ञा पुं० [अं०] पुलिस का वह कर्मचारी जो पुलिस की और से फौजदारी मुकदमों की पैरवी करता है ।

कोर्टपीस
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का ताश का खेल जो चार आदामियों में होता है ।

कोर्टफीस
संज्ञा स्त्री० [अं० कौर्ट+ फी] अदालती रसूम । विशेष—दे० 'रसूम' ।

कोर्ट मार्शल
संज्ञा पुं० [अं०] फौजी अदालत जिसमें सेना के नियमोंकौ भंग करनेवाले, सेना छोड़कर भागनेबाले तथा बागी सिपाहियों का विचार होता है ।

कोर्टशिप
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक पाश्चात्य प्रथा जिसके अनुसार पुरुष किसी स्त्री को अपने विवाह करने के लिये उद्यत और अनुकूल करता है । कन्यासंवरण । विशेष—यह प्रथा युरोप अमेरिका आदि सभ्य देशों में प्रचलित है । प्राचीन काल में आर्यों में भी यह प्रथा थी, पर अब भारत की केवल कुछ असभ्य जातियों में ही देखी जाती है । यह प्रथा स्मृतियों के आठ प्रकार के विवाहों में से गांधर्व विवाह के अंतर्गत समझी जाती है ।

कोर्निस
संज्ञा स्त्री० [तु० कुतुर्श] १. अभिवादन । नमस्कार । सलाम । बंदगी । २. संतों में एक आसन का नाम जो भजन के समय लगाया जाता है । उ०—जप और भजन दो आसनों में किए जाते हैं । प्रथम आसन को 'कोर्निस' कहते हैं ।— सं० दरिया०, पृ० ३२ ।

कोर्निसि पु
संज्ञा पु० [तु० कुतुर्श] अभिवादन । उ०—दस्त जोरि कौर्निसि किया प्रीति लव लाय ।—सं०, दरिया पृ० ५ ।

कोर्मा
संज्ञा पुं० [तुं० कौर्मह्] घी में बना हुआ मांस । उ०—पहले वह दस दस दोस्तों के साथ, नबाबी दस्तरखान सजाकर बैठते, कोर्मा होता, कलिया होता,.. और रात रात भर बोतलों के काग फटाफट खुलते रहते ।—शराबी, पृ० १०४ ।

कोर्स
संज्ञा पु० [अं०] उन विषयों का क्रम जी किसी विश्वविद्यालय स्कूल, कालेज, आदि में पढ़ाए जातै हैं । पाठयक्रम । जैसे,— इस बार बी० ए० के कोर्स में शकुंतला के स्थान पर भवभूति कृत 'उत्तररामचरित' रखा गया है ।

कोलंबक
संज्ञा पुं० [सं० कोलम्बक] वीणा का तूँबा और डंडा ।

कोल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूअर । शूकर । उ०—कमठ पीठ पर कोल कोल पर फन फनिंद फन ।—अकबरी०, पृ० १४६ । २. गोद । उत्संग । ३. आलिंगन करने में दोनों भुजाओं के बीच का स्थान ४. चीता नाम की औषधि । चित्रक । ५. शनैश्चर ग्रह । ६. बेर । बदरीफल । ७. एक तौल जो तोले भर की होती है । ७. काली मिर्च । ९. शीतलचीनी । चव्य नाम की औषधि । १०. पुरुवंशी आक्रीड़ नामक राजा का पुत्र । ११. एक प्रदेश या राज्य का प्राचीन नाम । विशेष—हरिवंश में कोल राज्य का नाम दक्षिण के पांडय और केरल के साथ आया है । पर बौद्ध ग्रंथों में कोल राज्य कपिलवस्तु के पूर्व रोहिणी नदी के उस पार बतलाया गया है । शु्द्धौदन और सिद्धार्थ दोनों का विवाह इसी वंश में हुआ था । इस कोल वंश के विषय में बौद्धों मे ऐसा प्रसिद्ध कि इक्ष्वाकुवंश के चार पुरुष अपनी कोढ़िन बहन को हिमालय के अंचल में ले गए और उसे एक गुफा में बंद कर आए । कुछ दिनों के उपरांत काशी का एक कोढ़ी राजा भी उसी स्थान पर पहुँचा और काली मिर्च (कौल) खाकर अच्छा हो गया । राजा ने एक दिन देखा कि एक सिंह उस गुफा के द्वार पर रखे हुए पत्थर को हटाना चाहता है । राजा ने सिंह को मारा और गुहा से उसे कन्या का उद्धार करके उसका कुष्ट रोग छुड़ा दिया । उन्ही दोनों के संयोग से कौल वंश की उत्पत्ति हुई । स्कंद पुराण के हिमवत् खंड लिखा में है कि कोल एक म्लेच्छ जाति थी जो हिमालय में शिकार करती हुई घूमा करती थी । १२. एक जगली जाति । उ०—बन हित कोल किरात किसोरी । रची बिरंचि विषय सूख भोरी ।—मानस २ ।६० । विशेष—ब्रह्मवैवर्त पुराण में कोंल को लेट पुरुष और तीवर स्त्री से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति लिखा है । स्कंदपुराण में इसे म्लेच्छ जाति लिखा है । पद्मपुराण में लिखा है कि जब पवन, पल्लव, कोलि, सर्प आदि सगर के भय से वशिष्ठ की शरण में आए, तब उन्होंने उनका सिर आदि मुँड़ाकर उन्हें केवल संस्कारभ्रष्ट कर दिया । आजकल जो कोल नाम की एक जंगली जाति है, वह आर्यों से स्वतत्र एक आदिम जाति जान पड़ती है, और छोटा नागपुर से लेकर मिरजापुर के जंगलों तक फैली हुई है ।

कोल (२)
संज्ञा पुं० [सं० कवल] चेबना । दाना । चरबन ।

कोलकंद
संज्ञा पुं० [सं० कोलकन्द] एक प्रकार का कंद । विशेष—काश्मीर में इसे पटालू कहते हैं । यह गरम होता हौ और कृमिदोष दूर करता है । इस कंद के ऊपर सूअर के से रोएँ होते हैं, इसलिये इसे वाराही कंद भी कहते हैं ।

कोलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट का पेड़ । २. काली मिरिच । २. शीतलचीनी ।

कोलक (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा लंबा औजार जिसकी सतह पर दनदाने होते हैं । इससे रेती और औरी तेज की जाती है ।

कोलकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खजूर का एक प्रकार [को०] ।

कोलका
संज्ञा स्त्री० [सं० कोलक] गोल मिर्च । उ०—तिक्ता उखना कोलका क्रस्नफला पुनि नाँउ ।—अनेकार्थ०, पृ० ८० ।

कोलकुण
संज्ञा पुं० [सं०] मत्कुण । खटमल [को०] ।

कोलगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण भारत का कोलाचल नामक पर्वत । इसे कोलमलय भी कहते हैं ।

कोलदल
संज्ञा पुं० [सं०] नख नामक गंधद्रव्य ।

कोलना
क्रि० स० [सं० क्रौडन] लकड़ी, पत्थर आदि को बीच से खोदकर पोला या खाली करना । † २. काढ़ लेना । उ०— धुनि सुनि औरै हौति पिर चर गति भौरि बिचरिनि की मति कौलौ ।—घनानंद, पृ० ४७५ ।

कोलपार
संज्ञा पु० [देश०] मझौले कद का एक प्रकार का वृक्ष । विशेष—यह बराबर और दारजिलिंग की तरातियों में होता है । इसमें एक प्रकार की कलियाँ लगती है, जिनका मुरब्बा बनता है । जिसकी लकड़ी मजबूत होती है और खेती के औजार बनाने और इमारत के काम में आती है । चीरने के समय लकड़ी का रंग अँदर से गुलाबी निकलता है; पर हवा लगने से वह काला हो जाता है । इसे सोना भी कहते हैं ।

कोलपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद चील । काँक । कंक ।

कोलमूल
संज्ञा पुं० [सं०] पिप्लीमुल [को०] ।

कोलशिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोलाशिम्बी] सेम की फली ।

कोलसा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'इंगनी' ।

कोला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी पीपल । पिप्पली । २. चव्य । ३. बेर का पेड़ ।

कोला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] गीदड़ ।

कोला (३)
संज्ञा पुं० [अं०] अफ्रिका के गर्म प्रदेशों में होनेवाला एक पेड़ जिसके फल अखरोट की तरह होते हैं । विशेष—इसके फलों के बीजों में थकावट दूर करने और नशे का चस्का छुड़ाने का गुण होता है । ये बीज निर्मली के समान जल साफ करने के काम में भी आते हैं ।

कोलाहट
संज्ञा पुं० [सं०] वह नृत्य में प्रवीण मनुष्य जिसके अंग खूब टूटे हों, जो अंगों को खूब मोडमाड़ सकता हो जो तलवार की धार पर नाच सकता हो और जो मुँह से मोंती पिरों सकता हो ।

कोलाहल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत से लोगों की अस्पष्ट चिल्लाहट । शोर । हौरा । हल्ला । रौला । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।—होंना । २. संपूर्ण जाति का एक संकर राग जो कल्याण, कान्हड़ा और बिहाग के मेल से बनता है । इसमें सब शुद्धस्वर लगते हैं ।

कोलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बदरी । बेर । कर्कंधु [को०] ।

कोलिआर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का झाड़ीदार पेड़ । विशेष—यह वृक्ष हिमालय, बरमा और मध्य तथा दक्षिण भारत में होता है । इससे एक प्रकार का गोंद निकलती है और इसकी छाल रँगने और चमड़ा सिझाने के काम में आती है इसकी पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं । बंबीई में इसकी पत्तियों में तमाकू या सुरती लपेटकर बीड़ी बनाती हैं ।

कोलिक
संज्ञा स्त्री० [सं० कौलिक] जुलाहा । तंतुवाय ।

कोलिबल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कोलवल्लिका] कपिलता । केवाँच ।—अनेकार्थ०, पृ० २४ ।

कोलिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कोल = रास्ता] १. तंग रास्ता । पतली गली । २. वह खेत जिसका आकार पतला और लंबा हो ।

कोलियाना (१) †
क्रि० अ० [हिं० कोलिया + ना (प्रत्य०)] १.

कोलियाना (२)
संज्ञा पुं० [हिं०कोली + आना (प्रत्य०)] किसी गाँव का वह भाग या स्थान जहाँ कोली रहते हो कौलियों के रहने का स्थान ।

कोली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रोड़, प्रा० कोल] १. आलिंगन के समय दोनों भुजाओं के बीच का स्थान । गोद । अँकवार । क्रि० प्र०—में भरना या लेना ।—भरना । २. कोना । कोण । ३. दे० 'कोलियाँ' ।

कोली— (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कोरी] हिंदू जुलाहा । कोरी । उ०—हाड़ देखि के तजत तिय ज्यौ कोली की रूप । त्योंही धौरे केस लखि बुरौ लगत नर रूप ।—ब्र० ग्रं०, पृ० ७८ ।

कोली (३) †
संज्ञा स्त्री० [?] वह कालापन जो हाथों और पौरों में मेंहदी लगाने के काम में आता है ।

कोली (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेर का पेड़ । बदरी [को०] ।

कोंलैंदा
संज्ञा पुं० [सं० कोंल=बेर + अण्ड] महुए का पका फल । गोलैंदा । कोइना ।

कोल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीपर । पिप्पली [को०] ।

कोल्हाड़
संज्ञा पुं० [हिं० कोल्हू+ आर (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ ऊख पेरकर रस निकाला और गुड़ बनाया जाता हो ।

कोल्हुआ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कूल्हा] कुश्ती का एक पेंच । दे० 'कूल्हा' ।

कोल्हुआ (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोल्हू' ।

कोल्हुआड़ †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोल्हाड़' ।

कोल्हू
संज्ञा पुं० [हिं० कूल्हा या देश०] तेल या ऊख पेरने का यंत्र जो कुछ कुछ डमरू के आकार का बहुत बड़ा होता है । विशेष—यह प्रायः पत्थर का और कभी कभी लकड़ी या लोहे का भी होता है । इसके बीच में थोड़ा सा खोखला स्थान होंता है जिसे हाँड़ी या कूँड़ी कहते है । इसके पेंदे में एक नाली होती है जिसमें से तेल या रस निकलकर बाहर की ओर रखे हुए बरतन में गिरता है । कूँड़ी के मध्य में लकड़ी का मोटा और ऊँचा लट्ठा लगा रहता है जिसे जाठ कहते हैं । यह जाठ नंधे हुए बैल या बैलों के चक्कर काटने से घूमती हैं, जिसके कारण कूँड़ी में डाली हुई चीज पर उसकी दाब पड़ती है । क्रि० प्र०—पेरना ।—चलाना । मुहा०—कोल्हू काटकर मोंगरी बनाना = कोई छोटी चीज बनाने के लिये बड़ी चीज नष्ट करना । थोड़े से लाभ के लिये बहुत सी हानि करना । कोल्हू का बैल =(१) बहुत कठन परिश्रम करनेवाला । दिन रात काम करनेवाला । (२) एक ही जगह बार बार चक्कर लगानेवाला । कोल्हू में डालकर पेरना = बहुत अधिक कष्ट पहुँचाकर प्राण लेना । बहुत दुःख देकर जान से मारना ।

कोल्हेना †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का मोटा चावल जो पंजाब में होता है ।

कोवंड पु, कोबँड पु
संज्ञा पुं० [सं० कोदण्ड] दे० 'कोदंड' । उ०— कर करषि कोवँड बान ।—पृ० रा०, ६६ । १४८५ ।

कोवा
संज्ञा पुं० [सं० कोश] कटहल का बीज जिस कोश में रहना है । कोया । उ०—कटहर कोवा मेवा ल्यावौं सोड पवात्रौं प्यारा ।—जग० श०, भा० १, पृ० ११ ।

कोवारी
संज्ञा पु० [देश०] एक प्रकार का जलपक्षी ।

कोविद
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कोविदा] पंडित । विद्वान् । कृतविद्या । उ०—केलि कलाप कोविदा रहै । प्रेम भरी मद गज जिमि चहै ।—नंद ग्रं०, पृ० १४७ ।

कोविदार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कचनार का पेड़ । २. कचनार का फूल ।

कोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंड । अंडा । २. संपुट । डिब्बा । गोलक । जैसे, नेत्रकोश । ३. फूलों की बँधी कली । ४. मद्यपात्र । शराब का प्याला । ५. पंचपात्र नामक पूजा का बरतन । ६.तलवार, कटार आदि का म्यान । ७. आवरण । खोल । जैसे, —बीजकोश । विशेष—वेदांती लोग मनुष्य में पाँच कोशों की कल्पना करते हैं— अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आर्नदमय । अन्न से उत्पन्न और अन्न ही के आधार पर रहने के कारण वेह को अन्नमय कहते हैं । पंच कर्मोंद्रियों के सहित प्राण, अपान आदि पंचप्राणों को प्राणमय कोश कहते हैं, जिसके साथ मिलकर देह सब क्रियाएँ करती है । श्रोत्र, चक्षु आदि पाँच ज्ञानद्रियों के सहित मन को मनोमय कोश कहते हैं । यही मनोमय कोश अविद्या रूप है और इसी से सांसारिक विषयों की प्रतीत होती है । पंच ज्ञानेद्रियों के सहित बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहते हैं । यही विज्ञानमय कोश कर्तृत्व, भोक्तृत्व सुख- दुःख आदि अहंकारविशिष्ट पुरुष के संसार का कारण है । सत्वगुणबिशिष्ट परमात्मा के आवरक का नाम आनंदमय कोश है । ८. थैली । ९. संचित धन । १०. वह ग्रंथ जिसमें अर्थ या पर्याय के सहित शब्द इकट्ठे किए गए हों । अभिधान । जैसे, अमरकोश । मेदिनीकोश । ११. समूह । १२. खान से ताजा निकला हुआ सोना या चाँदी । १३. अंडकोश । १४. योनि । १५. सुश्रुत के अनुसार घाव पर बाँधने की एक प्रकार की पट्टी । १६. एक प्रकार का पात्र जिसका व्यवहार प्राचीन काल में दो राजाओं के बीच संधि स्थिर करने में होता था । १७. ज्योतिष में एक योग जो शनि और वृहस्पति के साथ किसी तीसरे ग्रह के आने से होता है । १८. रेशम का कोया । कुसयारी । १९. कटहल आदि फलों का कोया । २०. दे० 'कोशपान' । २१. धनागार । खजाना (को०) । २२. बादल । मेघ (को०) । २३. लिंग । शिश्न (को०) । २४. तरल वस्तुओं के रखने का पात्र । (को०) ।

कोशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडा । २. अंडकोश [को०] ।

कोशकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. तलवार, कटार आदि के लिये म्यान बनानेवाला । २. शब्दकोश बनानेवाला । अर्थ सहित शब्दों का क्रमनुसार संग्रह करनेवाला । ३. रेशम का कीड़ा । ४. एक प्रकार की ऊख । कुसियार ।

कोशकार
संज्ञा पुं० [सं०] रेशम का कीड़ा [को०] ।

कोशकीट
संज्ञा पुं० [सं०] रेशम का कीड़ा ।

कोशकृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की ईख [को०] ।

कोशगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. भंडारघर । २. धनागार । खजाना [को०] ।

कोशग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की प्राचीन काल की परीक्षा- विधि । कोशपान [को०] ।

कोशचंचु
संज्ञा पुं० [सं० कोशचञ्चु] सरहंस पक्षी । सारस [को०] ।

कोषचक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] सारस ।

कोशज
संज्ञा [सं०] १. रेशम । २. सीप, शंख, घोंघे आदि में रहनेवाले जीव । २. मोती । मुक्ता ।

कोशनायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कर्मचारी जिसके जिम्मे खजाने का हिसाब किताब और उसकी रक्षा का भार हो । खजानची । कोशाध्यक्ष । २. कुबेर का नाम (को०) ।

कोशपति
संज्ञा पुं० [सं०] कोशाध्यक्ष । खजानची ।

कोशपान
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की प्राचीन परीक्षाविधि । विशेष—इस परीक्षाविधि के अनुसार यह जाना जाता था कि अभियुक्त अपराधी है अथवा नहीं । इसमें अभियुक्त को एक दिन उपवास करने के बाद परीक्षा के समय कुछ प्रतिष्ठित लोगों के सामने तीन चुल्लू जल पीना पडता था ।

कोशपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. खजाने की रक्षा करनेवाला । २. खजानची । ३. कुबेर (को०) ।

कोशपेटक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पेटी या संदूक जिसमें खजाना रखा जाता है [को०] ।

कोशफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंडकोश । २. जायफल, । ३. घिया, तरोई, लौकी, ककड़ी, खीरा, कुम्हड़ा इत्यादि का गाछ ।

कोशफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] घिया, तरोई, लौकी, ककड़ी, खीरा, कुहड़ा आदि की लता ।

कोशल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सरयू या घाघरा नदी के दोनों तटों पर का देश । विशेष—उत्तर तटवाले को उत्तर कोशल और तटवाले कों दक्षिण कोशल कहते हैं । किसी पुराण में इस देश के पाँच खंड और किसी में सात खंड बतलाए गए हैं । प्राचीन काल में इस देश की राजधानी । अयोध्या थी । २. उपर्युक्त देश में बसनेवाली क्षत्रिय जाति । ३. अयोध्या नगर । ४. एक राग जिसमें गांधार और धैवत तो कोमल और शेष सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।

कोशला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोशल की राजधानी । अयोध्या ।

कोशलिक
संज्ञा पुं० [सं०] उत्कोच । घूस । रिश्वत ।

कोशवासी
संज्ञा पुं० [सं० कोशावासिन्] सीप, शंख, घोंघा आदि में रहनेवाले जीव [को०] ।

कोशवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंडवृद्धि का रोग । २. खजाने का बढ़ना [को०] ।

कोशशायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटार छुरिका आदि शस्त्र जो म्यान में रखे जायँ [को०] ।

कोशशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दिव्य परीक्षा आदि से प्राप्त या होनेवाली शुद्धता [को०] ।

कोशसंधि
संज्ञा स्त्री० [कोशसन्धि] कोश देकर संधि करना । धन देकर किया जानेवाला मेल । विशेष—कौटिल्य़ ने लिखा है कि यदि शत्रु कोशसंधि करना चाहे तो उसको ऐसे बहुमूल्य पदार्थ दे जिनका कोई खरीदने वाला न हो या जो युद्ध के लिये अनुपयोगी हों या जों जाँगलिक पदार्थ हों ।

कोशस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार पाँच प्रकार के जीवों में से एक । शंख, घोंघा आदि इसी के अंतर्गत हैं । इस जाति केजीव का मांस, मधुर, शीतल, वायुनाशक और कफ बढ़ानेवाला होता है ।

काशांग
संज्ञा पुं० [सं० कोशाङ्ग] एक प्रकार का नरकुल या सरकंडा [को०] ।

कोशांड
संज्ञा पुं० [सं० कोशाण्ड] अंडकोश ।

कोशांबी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोशाम्बी] दे० 'कौशांबी' ।

कोशागार
संज्ञा पुं० [सं०] खजाना । भंडार ।

कोशातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजुर्वेद की कठ नाम की शाखा । ३. केश । बाल (को०) । ३. तरोई (को०) ।

कोशातकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तोरई । तरोई । २. शुक्ल पक्ष की रात (को०) । ३. एक वृक्ष का नाम । पटोल (को०) ।

कोशातकी (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोशातर्किन्] १. व्यापारा । वाणिज्य । २. व्यापारी । २. बडवानल । बड़वाग्नि [को०] ।

कोशाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] कोशाध्यक्ष । खजानची ।

कोशाधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशाधिप' ।

कोशाधीश
संज्ञा पु० [सं०] खजानची । भंडारी ।

कोशाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशाधिप' ।

कोशाभिसंहरण
संज्ञा पुं० [सं०] खजाने की कमी पूरा करना । विशेष—चाणक्य ने इसके कई ढंग बताए हैं, जैसे—(१) बाकी राजकर को एकदम वसूल करना । (२) धान्य का तृतीय या चतुर्थ अंश टैक्स में लेना । ३. सोने, चाँदी के उत्पादक, व्यापारियों, व्यवसायियों तथा पशुपालकों से भिन्न भिन्न ढंग पर राजकर लेना । (४) मंदिरों की आमदनी में से कर लेना । (५) धनियों के घर्रौ से धन गुप्त दुर्तों द्वारा चोरी करके प्राप्त करना ।

कोशाम्र
संज्ञा पुं० [सं०] कोसम नामक वृक्ष या उसका फल ।

कोशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पानपत्र । आबखोरा [को०] ।

कोशिन
संज्ञा पुं० [सं०] आम का वृक्ष । रसाल वृक्ष [को०] ।

कोशिश
संज्ञा पुं० [फा़०] प्रयत्न । चेष्टा । उद्योग । श्रम ।

कोशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कली । कुड्मल । २. बीजकोश । ३. पादुका । ४. अन्न की बालों का टूँड [को०] ।

कोष
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'कोश' ।

कोषकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशकार' ।

कोषफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंकोल मिर्च । २. दे० 'कोशफल' ।

कोषफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोशफला' ।

कोषवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोशवृद्धि' ।

कोषातक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशातक' [को०] ।

कोषाध्यक्ष
संज्ञा पु० [सं०] १. कोष का अध्यक्ष या स्वामी । वह जिसके पास कोष रहता है । २. वह जिसके पास किसी व्यक्ति या संस्था का आयव्यय और रोकड़ आदि रहती है । रोकड़िया । खजानची ।

कोषिन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशिन' [को०] ।

कोषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'काशी' [को०] ।

कोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदर का मध्य भाग । पेट का भीतरी हिस्सा । यौ०—कोष्ठबद्ध । कोष्ठशुद्धि । २. शरीर के अंदर का कोई वह भाग जो किसी आवरण से घिरा हो और जिसके अंदर कोई विशेष शक्ति रहती हो । जैसे,— पक्वाशय, मूत्राशय, गर्भाशय, आदि । ३. कोठा । घर का भीतरी भाग । ४. वह स्थान जहाँ अन्नसंग्रह किया जाय । गोला । ५. कोश । भंडार । खजाना । ६. प्राकार । कोट । शहरपनाह । चहारदीवारी । ७. वह स्थान जो किसी प्रकार चारो ओर से घिरा हो । ८. शरीर के भीतरी छह चक्रों में से एक, जो नाभि के पास है । इसे मणिपुर भी कहते हैं । ९. दे० 'कौष्ठक' —३ ।

कोष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रकार की दावार, लकीर या और कोई चीज जो किसी स्थान या पद को घेरने का काम में आती हो । २. किसी प्रकार का चक्र जिसमें बहुत से खाने या घर हों । सारणी । ३. लिखने में एक प्रकार का चिह्नों का जोड़ा जिसके अंदर कुछ वाक्य या अंक आदि लिखे जाते हैं । यह कई प्रकार का होता है, जैसे,—(), [ ] आदि । विशेष—(क) जब यह चिह्न किसी वाक्य के अंतर्गत आता है, तब इसके अंदर आए हुए शब्दों का परस्पर तो व्याकरण संबंध होता है,
[कोष्ठक सारणी] पर प्रधान वाक्य से व्याख्यान या निदर्शनरूप अर्थसंबंध होते हुए भी प्रायः उसका व्याकरणसंबंध नहीं होता । (ख) गणित में इन चिह्नों के अंतर्गत आए हुए अंक कुल मिलाकर एक समझे जाते है और उनमें से किसी एक अंक का कोष्ठक के बाहरवाले किसी अंक से कोई स्वतत्र संबंध नहीं होता । ४. कोष्ठ । अन्नभंडार । ५. चहारदीवारी । ६. ईंट, चूना आदि से निर्मित वह स्थान जहाँ पशु जल पीते हों (को०) ।

कोष्ठपाल
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नगर या स्थान की रक्षा करनेवाला व्यक्ति ।

कोष्ठबद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पेट में मल का रुकना । कब्जियत ।

कोष्ठबद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोष्ठबद्ध' ।

कोष्ठशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेट का मलरहित और बिल्कुल साफ हो जाना ।

कोष्ठागारा
संज्ञा पु० [सं०] भांडार । भंडारखाना ।

कोष्ठागारिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भंडारी । भंडारगृह का प्रधान । २. कोश में रहनेवाला जीव [को०] ।

कोष्ठाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाचन शक्ति । जठरानल [को०] ।

कोष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी मनुष्य के जन्मकाल और ग्रह, नक्षत्र आदि दिए हों । जन्मपत्री ।

कोष्ण
वि० [सं०] कुछ गरम और कुछ ठंढ़ा । कदुष्ण । कुनकुना ।

कोस (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्रोश] दूरी की एक नाप जो प्राचीन काल में ४००० हाथ, या किसी किसी के मत से ८००० हाथ का होती थी । आजकल कोस प्रायः दो मील का माना जाता है । मुहा०—कोसों या काले कोसों=बहुत दूर । कासों दूर रहना= अलग रहना । बहुत बचना । कोसों भागना=दे० कोसों दूर रहना' ।

कोस (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोश] फूल का संपुट । फूल के भीतर का वह स्थान जहाँ मकरंद रहता है । उ०—कँवल प्रवेश भँवर जो किया । कोस झकोर सकल रस लिया ।—माधवानल०, पृ० १९८ ।

केसक †
संज्ञा पुं० [सं० कौशिक] दे० 'कौशिक' । उ०—एकण दिहाड़े मुनिराज अजोध्या कोसक आव कीधौ ।—रघु० रू०, पृ० ६४ ।

कोसना
क्रि० स० [सं० क्रोशन] शाप के रूप में गालियाँ देना दुर्वचन कहकर बुरा मानना । मुहा०—पानी पी पीकर कोसना=बहुत अधिक कोसना । कौसना काटना=शाप और गाली देना ।

कोसभ
संज्ञा पुं० [सं० कोशाम्र] दे० 'कोसम' ।

कोसम
संज्ञा पुं० [सं० कोशाम्र] एक प्रकार का बड़ा पेड़ जिसके बीज औषध के काम आते हैं । विशेष—यह पेड़ पंजाब, मध्य भारत और मदरास में अधिकता से होता है और इसका पतझड़ प्रतिवर्ष होता है । इसके हीर की लकड़ी ललाई लिए हुए भूरी, बहुत कड़ी और मजबुत होती है और इमारत के काम में आती हैं । इसमें हल और खेती के औजार भी बनाए जाते हैं । इसमें लाख बहुत लगता है और बहुत अच्छी होती है । इसका फल कुछ खट्टापन लिए हुए मीठा होता है । वैद्यक में इसका फल ऊष्ण, गुरु, पित्तवर्द्धक और दाहकारक माना गया है । इसके बीजों से एक प्रकार का तेल निकलता है, जो वैद्यक के अनुसार सारक, पाचक और बलकारक होता है । सुश्रुत में लिखा है कि इस तेल के मलने से कोढ़ या फोड़ा अच्छा हो जाता है ।

कोसल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशल' ।

कोसला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अयोध्या नगरी [को०] ।

कोसली
संज्ञा स्त्री० [सं०] षाड़व जाति की एक रागिनी जिसमें ऋषभ वर्जित हैं ।

कोसा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कोश] एक प्रकार का रेशम जो मध्यभारत में अधिक होता है ।

कोसा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोश=प्याला] [स्त्री० कोसिया] मिट्टी का बड़ा दिया जों घड़ा ढकने या खाने पीने की वस्तुएँ रखने के काम में आता है ।

कोसा (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोसाकाटी' ।

कोसा (४)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गाढ़ा रस या अवलेह जो चिकनी सुपारी बनाते समय सुपारियों को उबालने पर तैयार होता है और जिसकी सहायता से घटिया दर्जे की सुपारियाँ रँगी और स्वादिष्ट बनाई जाती है ।

कोसाकाटी
संज्ञा स्त्री० [कोसना+काटना] शाप के रूप में गाली । बददुआ ।

कोसिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कोशिका] १. मिट्टी का छोटा कसोरा । २. चूना रखने की कूँडी ।—(तँबोली) ।

कोसिला †
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशल्या] दे० 'कौशल्या' । उ०—बिहँग आइ माता सों मिला । रामहिं जनु भेंटी कोसिला ।—जायसी (शब्द०) ।

कोसिली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. पिराक या गुझिया नाम का पक्वान । २. आम्रफल के भीतर की गुठली जिसमें बीज रहता है ।

कोसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशिकी] एक नदी जो नेपाल के पहाड़ों से निकलकर चंपारन के पास पास गंगा में मिलती है । विशेष—इसका बहाव बहुत तेज है । रामायण में लिखा है कि विश्वमित्र की बहन सत्यवती (दूसरा नाम कौशिकी) जब अपने पति के साथ स्वर्ग चली गई, तब इस नदी की उत्पत्ति हुई थी । एक मास तक इसके किनारे पर रहने से एक अश्वमेध यज्ञ का फल होता है ।

कोसी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कोंशिका] अनाज के वे दाने जो दायने के बाद बाल या फली में लगे रह जाते हैं । गूड़ी । चँचरी । विशेष—इस शब्द का प्रयोग प्रायः जुआर या मूँग के लिये ही होता है ।

कोसोस पु
संज्ञा पुं० [सं० कपिशीर्षक] दे० 'कौसीस' । उ०—कोट कोसीसा नयर विसाल । धार नग्री माहइगम कीयउ ।—बी० रासो, पृ० १०४ ।

कोहँड़ौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुम्हाड़ा+ बरी] उर्द की पीठी और कुम्हड़े के गूदे से बनाई हुई बरी ।

कोहँरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुम्हार' । उ०—एकै मिट्टी कै घड़ा घड़ैला, एकै कोहँरा सानो ।—कबीर० श०, पृ० ८९२ ।

कोह (१)
संज्ञा पुं० [फा०] पर्वत । पहाड़ । यौ०—कोहिस्तान ।

कोह (२) †
संज्ञा पुं० [सं० क्रोध] क्रोध । गुस्सा । उ०—किंकर, कंचन, कोह काम के ।—तुलसी (शब्द०) ।

कोह (३)
संज्ञा पुं० [सं० ककुभ, प्रा० कउह] अर्जुन वृक्ष ।

कोह (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० खेह, पुं० हिं० खोहिं खोह] धूल । गर्द । उ०— राण दिस हालिया ठांण आराण रुख, कोह आसमाँण चढ़ भाण ढंका ।—रघु रू०, पृ० १४९ ।

कोहकन
वि० [फा०] १. पर्वत काटनेवाला । पर्वतभेदी । २. शीरी के प्रेमी फरहाद की उपधि [को०] ।

कोहकाफ
संज्ञा पुं० [फा० कोह=पहाड़+का़फ] एक पहाड़ जो यूरोप और एशिया के बीच में है । इसके आसपास के स्थानों के निवासी बहुत सुंदर होते हैं । फारस आदि देशों के निवासियों का विश्वास है कि इस पहाड़ पर देव और परियाँ रहती हैं । काकशेस । उ०—कुछ का मत है कि आर्यो का आदि स्थान कोहकाफ के पास था ।—प्रा० भा० प०, पृ० ५६ ।

कोहुकुन पु
वि० [फा़० कोहकन] खोदने का काम करनेवाला । खनिक । उ०—है तुझ दर अस्ल गौहर के लगन, लाँल के इश्कों हुई हूँ कोहकुन ।—दक्खिन०, पृ० १८२ ।

कोहकुनी
संज्ञा पु० [फा० कोहकनी] पहाड़ खोदना । परिश्रम । उ०—शीरीं लबाँ सूँसंग दिलों को असर नहीं । फरहाद काम कोहकुनी का किया तो क्या ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४१ ।

कोहन (१)
वि० [सं० क्रोधन, प्रा० कोहण] १. क्रोधी । २. तुनक- मिजाज । उ०—हेरि चितै तिरछी करि दृष्टि चली गई कोहन मूठि सो मारे ।—रसखान, पृ० १४ ।

कोहन (२) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुहनी' ।

कोहनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुहनी' ।

कोहनूर
संज्ञा पुं० [फ़ा० कौह+ अ० नूर] एक बहुत बड़ा और प्रसिद्ध हीरा । विशेष—इसके विषय में कहा जाता है कि यह राजा कर्ण के पास था और पीछे मालवा के राजा विक्रमादित्य के हाथ लगा था । सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में यह हीरा ग्वालियर के एक राजा ने गोलकुंडा के बादशाह को दिया था । सन् १७३९ में करमाल के युद्ध के बाद वह नादिरशाह को मिला था । उसके बंशज शाहशुजा से यह हीरा राजा रणजीतसिंह ने ले लिया । अंत में सन् १८ ९ में यह अंगरेजों के हाथ आया और दूसरे वर्ष इंगलैड में महारानी विक्टोरिया की भेंट हुआ और अबतक वहाँ के राजकोश में वर्तमान है । पहले यह हीरा ३१९ रत्ती का था और संसार में सबसे बड़ा समझा जाता थ पर अब यह यह फिर से तराशा गया और तौल में केबल १० २ १/२ रत्ती रह गया ।

कोहबर
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठवर या कौतुकगृह] वह स्थान या घर जहाँ विवाह के समय कुलदेवता स्थापित किए जाते हैं और जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ की जाती हैं । उ०—कोहबरहिं आने कुँवर कुवरि सुआसिनिन सुख पाइकै । अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइकै ।—तुलसी (शब्द०) ।

कोहर पु
संज्ञा पुं० [सं० कोटर या कुहर] गुफा । कदर । खोह । उ०—नदी सु एक जल किंदु तहँ सु एकह सुभ कोहर ।— पृ० रा०, २४ ।३४२ ।

कोहरा
संज्ञा पुं० [हिं० कुहरा] कुहासा । कुहिर । कुहरा ।

कोहरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] उबाले या तले हुए चने आदि । घुघनी ।

कोहल (१)
संज्ञा पु० [सं०] १. एक मुनि जिन्होने सोमेश्वर से संगीत सीखा था और जो नाटयशास्त्र के प्रणेता कहे जाते हैं २. जौ की शराब । ३. कुम्हड़े की शराब । ४. एक प्रकार का बाजा ।

कोहल (२)
वि० [सं०] अस्पष्ट बोलनेवाला । साफ साफ उच्चारण न करनेवाला [को०] ।

कोहाँर †
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'कुम्हार' ।

कोहा (१) †
संज्ञा पु० [सं० कोश=पात्र] १. मिट्टी का बड़ा कूँड़ा जिसमें प्रायः ऊख का रस या काँजी आदि रखते हैं । नाँद । २. कपाल की आकृति का मिट्टी का बर्तन ।

कोहा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुक्ष, हिं० कोख, कोखा] पेट । उदर ।

कोहान
संज्ञा पुं० [फा०] ऊँट की पीठ पर का डिल्ला या कूबड ।

कोहोना †पु
क्रि० अ० [हिं० कोह ] १. रुठना । नाराज होना । मान करना । उ०— तुमहि कोहाब परम प्रिय अहई ।— तुलसी (शब्द०) । २. गुस्सा होना । क्रोध करना ।

कोहिरा— †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'कोहरा' । उ०— दुर्ग के पूर्व त्रिवेणी अपनी गौरव्युक्त झाँकी को कोहिरे से आवेष्ठित किये हुए हैं ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३८ ।

कोहिल
संज्ञा पुं० [देश० ] नर शाही बाज ।

कोहिस्तान
संज्ञा पुं० [फा०] पर्वतस्थली । पहाडी देश ।

कोही (१)
वि० [हि० कोह +ई (प्रत्य०) ] क्रोध करनेवाला । क्रोधी । गुस्सैल । उ०— बाल ब्रह्मचारी अति कोही । दिश्वविदित क्षत्री- कुल द्रोही । — तुलसी (शब्द०) ।

कोही (२)
वि० [फा० कोह ] पहाडी । यौ०— कोही भाँग = एक प्रकार की भाँग जो सिंध में होती है और जिससे गाँजा या चरस नहीं निकलता । इसके बीजों का तेल निकाला जाता है और रेशे से रस्सी आदि बनती है ।

कोही (३)
संज्ञा स्त्री० [देश० ] शाही नामक बाज पक्षी की मादा ।

कोहु पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्रोध, प्रा० कोह ] दे० 'कोह' । उ०— तुम्ह जोगी बैरागी कहत न मानहु कोहु । — जायसी ग्रं०, पृ० ९४ ।

कोहु (२)
सर्व० [हि० ] दे० 'कोऊ' । उ०— जा दिन दौरि कहै कोहु सजनी, आए कुँवर कन्हाई । — पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३८ ।

कौक
संज्ञा पुं० [सं० कौङ्क] १. भारत के एक प्रदेश का प्राचीन नाम । कोँकण ।२. कोँकण का रहनेवाला ।३. कोंकण का शासक [को०] ।

कोंकण
संज्ञा पुं० [सं० कौंङ्कण ] दै० 'कौंक' [को०] ।