विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/गो

विक्षनरी से

गोंइँठा †
संज्ञा पुं० [सं० गो + विष्ठा] गोबर का सूखा हुआ चिप्पड़ । कंडा । उपला । गोहरा ।

गोंइंड़ †
संज्ञा० पुं० [हिं० गाँव + मेंड़] गाँव का किनारा । गाँव का सिवान । गाँव के आस पास की भूमि ।

गोंइँड़ा
संज्ञा० पुं० [हिं० गोंइँड़] दे० 'गोंइँड़' ।

गोंइँया †
संज्ञा पुं०,स्त्री० [हिं० गोइयाँ] दे० 'गोइयाँ' ।

गोंईं †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोहन] बैलों की जोड़ी ।

गोंगवाल
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति ।

गोंच †
संज्ञा पुं० [सं० गोगोचन्दना] जोंक ।

गोंचना
क्रि० अ० [देश०] १. कोंचना ।धँसाना । २.मिट्टी या कागज पर अस्त्र व्यस्त रेखाएँ खींचना ।

गोंछ
संज्ञा स्त्री० [हिं० गलमोछ] गलमोछ । गलमोंछा ।

गोंजना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गींजना' ।

गोंजना (२)
क्रि० स० [हिं० कोंचना] गड़ते हुए दबाना । उ०— शेख ने एक चौअन्नी अपने मोहरिर की मुट्ठी में गोंज दी ।— नई०, पृ० ९७ ।

गोंजना (३)
क्रि० अ० [हिं० गोंचना] दे० 'गोंचना' ।

गोंटा
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का छोटा पेड़ । विशेष—यह उत्तर भारत में पेशावर से भूटान तक, दक्षिण भारत तथा जावा में होता है । बरसात में इनमें बहुत छोटे छोटे फूल और जाड़े में काले रंग के छोटे मीठे फल लगते हैं जो खाने में बहुत स्वादिष्ट होते हैं । इसकी लकड़ी कड़ी होती है ।

गोंठ
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्ठ] धोती की लपेट जो कमर पर रहती है । मुर्री ।

गोंठना (१)
क्रि० स० [सं० गोष्ठ , प्रा० गोट्ठ + ना (प्रत्य०) ] १. चारों ओर लकीर से घेरना । जैसे,— चौका गोंठना, घर गोंठना (आसाढ़ी पूर्णिमा को) । २. परिक्रमा करना । फेरा करना ।

गोंठना (२)
क्रि० स० [सं० कुणठन] किसी वस्तु की नोक या कोर को गुठला कर देना । २. पकवान बनाने में गोझे या पुवे की कोर को मोड़ मोड़कर उभड़ी हुई लड़ी के रूप में करना ।

गोंठनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोंठना] लोहे या पीतल का एक औजार जिससे गोझिया गोंठते हैं ।

गोंठिल
वि० [हिं० गोठिल] दे० 'गोठिल' उ०— कैसे नये नये तीर छूटे हैं मौत की गोंठिल घात गई अब ।—बेला पृ० १०१ ।

गोंड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० गोणड] १. एक जंगली जाति जो मध्यप्रदेश में पाई जाती है । गोंड़वाना प्रदेश का नाम इसी जाति का निवासस्थान होने के कारण पड़ा । २. बंग और भुवनेश्वर के बीच का देश । ३. एक राग जो बर्षाकाल में गाया जाता है । विशेष—कोई इसे मेघ राग का पुत्र और कोई धनाश्री मल्लार और बिलावल के मेल से बना एक संकर राग मानते हैं ।

गोंड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] गायों के रहने का स्थान ।

गोंड़ (३)
संज्ञा पुं० [सं० गोरणड] नाभि का लटकता हुआ मांस ।

गोंड़ (४)
संज्ञा पुं० [सं० कुणठ] लंगर के ऊपर का भाग जो गोल होता है ।

गोंड़ (५)
संज्ञा पुं० [सं० (नाभि) कुण्ड] वह मनुष्य जिसकी नाभि निकली हो ।

गोंडकिरो
संज्ञा स्त्री० [सं० गोंड = राग + किरी] एक रागिनी जो गोंड राग का एक भेद मानी जाती है ।

गोंडरा †
संज्ञा पुं० [सं० कुणडल] [स्त्री० गोंडरी] १. वह कुंडला— कार गोल लकड़ी या लोहे की छड़ जो मोट के मुँह पर बँधी रहती है । लोहे का मँडरा जिसपर मोट का चरसा लटकता है । २. कोई गोल वस्तु जो कुंडल के आकार की हो । मँड़रा । ३. लकीर का गोल घेरा । क्रि० प्र०—खींचना ।—डालना ।

गोंडरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुणडली] १. कुंडल के आकार की कोई वस्तु । मँड़रा । २. इँड़ुरी ।

गोंडला
संज्ञा पुं० [सं० कुणडल] लकीर का गोल घेरा । क्रि० प्र०—खींचना ।—डालना । विशेष— प्रायः भोजन आदि के समय इस प्रकार का घेरा,छूत— छात से बचने के लिये बनाया जाता है ।

गोंडवाना
संज्ञा पुं० [हिं० गोंड़] मध्यप्रदेश का उत्तरी भाग जो गोंड जाति का आदि निवासस्थान माना जाता है ।

गोंड़वानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोंडवाना] गोंडवाना प्रदेश की बोली ।

गोंड़ा (१)
संज्ञा स्त्री० [?] एक प्रकार की बड़ी लता जो देहरादून, अवध, गोरखपूर बुंदेलखंड, बंगाल और मध्यभारत के जंगलों में, विशेषतः जहाँ साल के वृक्ष हों, अधिकता से होती है । विशेष— यह बहुत फैलती है और समय पर काटी न जाय तो जंगलों को बहुत हानि पहुँचाती है । इसकी पत्तियाँ बड़ी और चौड़ी होती हैं और चारे के काम आती हैं । इसकी डालियों से एक प्रकार का रेशा भी निकाला जाता है । इसकी टहनी के सिरे पर गुच्छों के फूल भी लगते हैं जो गरमी के दिनों में फूलते हैं ।

गोंड़ा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] १. बाड़ा । घेरा हुआ स्थान । (विशेष— कर चौपायों के लिये) रखने या बाँधने का स्थान । उ०— पिता गए गौवों के गोड़े । माता घर लड़के धाए हैं ।— आराधना, पृ० ७४ । २. मोहल्ला । पुरा । गाँव । खेड़ा । बस्ती । ३. खेतों का उतना घेरा जितना एक किसान का हो और एक ही जगह पर हो । ४. बड़ी चौड़ी सड़क । ५. सहन । चौक आँगन । ६. वह न्योछावर जो लड़कीवाले के घर पर बारात के पहुँचने पर की जाती है । परछन । मुहा०—गोंड़ा सीजना=बारात के पहुँचने पर कन्या के घरवालों का न्योछावर के रूप में कुछ द्रव्य बाँटना या लुटाना ।

गोंड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़] दे० 'गोंडवानी' ।

गोंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुंदरु या हिं० गूदा] गूदेदार पेड़ों के तने से निकला हुआ चिपचिपा या लसदार पसेव जो सूखने पर कड़ा और चमकीला हो जाता है । वृक्षों का निर्यास । उ०— एक अंश वृक्षन को दीनों । गोंद होइ प्रकाश तिन कीनो । —सूर (शब्द०) । यौ०—गोंददानी = वह बरतन जिसमें गोंद भिगोकर रखा रहे ।

गोंद (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुन्द्रा] एक प्रकार की घास जिससे गोंदरी बनाई जाती है ।

गोंद (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोंदि] दे० 'गोंदी' । उ०—गोंद कली सम बिकसी ऋतु बसंत औ फाग । —जायसी (शब्द०) ।

गोंदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोंद] गोंदी का पेड़ । दे० 'गोंदी' ।

गोंदपँजीरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोंद + पँजीरी] गोंद मिली हुई पँजीरी जिसे प्रसूता स्त्रियों को खिलाते हैं ।

गोंदपटेर
संज्ञा स्त्री० [सं० गुन्द्र + पर्या० पटेर] पानी में होनेवाली एक प्रकार की वनस्पति । विशेष—इसके पत्ते मोटे और प्रायः एक इंच चौड़े चार पाँच फुट लंबे होते है । इसके पत्तों में से नए पत्ते निकलते हैं । इसमें ऊपर की ओर बाजरे की बाल के समान बाल भी लगती है जिसके ऊपर सीकें होती हैं । इन सीकों से चटाइयाँ आदि बनती हैं । वैद्यक में यह कसैली, मधुर, शीतल, रक्तपित्त नाशक और स्तन का दूध, शुक्र, रज तथा मूत्र को शुद्ध करने वाली कही गई है ।

गोंदपाग
संज्ञा पुं० [हिं० गोंद + पाग] गोंद और चीनो के मेल से बनी हुई एक प्रकार की मिठाई । पपड़ी । उ०— पेठा, पाग, जलेबी, पेरा । गोंदपाग, तिनगरी , गिंदोरा ।—सूर (शब्द०) ।

गोंदमखाना
संज्ञा पुं० [हिं० गोंद + मखाना] भूना हुआ मखाना जिसमें और मसाले से साथ गोंद मिला होता है और जो प्रसूता स्त्रियों को दिया जाता है ।

गोंदरा †
संज्ञा पुं० [ सं० गुन्द्रा = एक घास ] १. नरम घास या पयाल का बना हुआ एक आसन जिस पर किसान लोग साधारण तौर पर या चौपायों को चारा काटने के समय बैठते हैं । २. गोनरा घास ।

गोंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुन्द्रा] एक प्रकार की घास जो पानी में उत्पन्न होती है और बहुत लंबी, कोमल और गरम होती है । २. इस घास की बनी हुई चटाई । ३. पयाल की बनी हुई चटाई ।

गोंदला
संज्ञा पुं० [सं० गुन्द्रा] १.बड़ा नागरमोथा जो जलाशयों के किनारे उगता और प्रायः एक गज तक ऊँचा होता है । २. एक प्रकार की घास जिससे गोंदरी बनाई जाती है ।

गोंदा
संज्ञा पुं० [हिं० गूँधना] १. भुने चनों का बेसन जो पानी में गूँधकर बुलबुलों को खिलाया जाता हैं । मुहा०—गोंदा दिखाना = (१) बुलबुलों को लड़ाने के लिये उन्हें दिखाकर बीच में चारा फेंकना । (२) कोई ऐसी बात उपस्थित करना जिससे दो पक्ष परस्पर लड़ जायँ । लड़ाई लगाना । २. गारा । मिट्टी का कपसा ।

गोंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोवन्दनी = प्रियंगु] १. मौलसिरी की तरह का एक पेड़ जिसके पत्ते मौसली के पत्तों से कुछ लंबे होते हैं । विशेष—फागुन चैत में इसमें लाल रंग के छोटे छोटे फूल लगते हैं । यह जंगलों और मैदानों में होता है । बहुत से स्थानों मेंलोग प्रियंगु शब्द से इसी का ग्रहण करते हैं ओर इसके फूल, फल, छाल आदि का औषध में प्रयोंग करते हैं । २. इंगुदी । हिंगोट । मुहा०—गोंदी सा लदना =(१) बहुत अधिक फलना । फलों से गुछ जाना । (२) शरीर में शीतला के या किसी प्रकार के बहुत से दाने निकलना ।

गोंदीला
वि० [हिं० गोंद + ईला (प्रत्य०)] जिस (वृक्ष) में से गोंद निकलता हो । जैसे,— बबूल, ढाक आदि ।

गो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गाय । गऊ । २. प्रकाशरश्मि । किरण । ३. वृष राशि । ४. ऋषभ नाम की औषधि । ५. इंद्रिय । ६. बोलने की शक्ति । वाणी । उ०— गोकुल की छबि कबि क्यों कहै । गो जब लौं गोकुल नहिं गहै ।— घनानंद०, पृ० २९२ । ७. सरस्वती । ८. आँख । दृष्टि । देखने की शक्ति । ९. बिजली । १०. पृथ्वी । जमीन । ११. दिशा । १२. माता । जननी । १३. किसी धातु की बनी गोमूर्ति । १४. बकरी, भैंस, भेड़ी इत्यादि दूध देनेवाले पशु । १५. जीभ । जबान । जिह्वा । १६. ज्योतिष में नक्षत्रों की नौ वीथियों में से एक ।

गो (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल । २. नंदी नामक शिवगण । ३. घोड़ा । ४. सूर्य । ५. चंद्रमा । ६. बाण । तीर । ७. गवैया । गानेवाला । ८. प्रशंसक । ९. आकाश । १०, स्वर्ग । ११. जल । १२. वज्र । १३. शब्द । १४. नौ का अंक । १५. शरीर के रोम । १६. पशु (को०) । १७. हीरा (को०) । १८. गोमेध नामक यज्ञ (को०) ।

गो (३)
अव्य० [फा०] यद्यपि । जैसे—गो ऐसी बात है, पर मैं कह तो नहीं सकता । यौ०—गोकि = यद्यपि । गो ।

गो (४)
प्रत्य० [फा०] कहनेवाला । जैसे— कानूनगो, दरोगगो । विशेष— इस अर्थ में यह शब्द यौगिक के अंत में आता है ।

गो (५) पु
क्रि० अ० [हिं०, गा] दे० 'गया' । उ०— राव अमर गो अमरपुर । —भूषण ग्रं०, पृ० ४९ ।

गोआर (१) पु
वि० [हिं० गँवार] दे० 'गँवार' । उ०— सखि हे बुझल कान्ह गोआर । विद्यापति, पृ० ११७ ।

गोआर (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० गोपाल, प्रा० गोआल] दे० 'ग्वाला' । उ०— मथुरा मरि गौ कृष्णा गोआरा ।— कबीर बी०, पृ० २०२ ।

गोआरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गँवार] गँवारी । मूर्खा । उ०— दूती भए जनु जनमए नारि, बिनु, भेले भेलिहु गोआरि ।— विद्यापति, पृ० १३६ ।

गोइँजी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली जिसका मुँह और पूँछ दोनों एक ही तरह के होते हैं । इसपर छिलका नहीं होता ।

गोइँठा
संज्ञा पुं० [सं० गो + बिष्ठा] ईंधन के लिये सुखाया हुआ गोबर । उपला । कंडा । गोहरा ।

गोइँठौरा
संज्ञा पुं० [हिं० गोइँठा + औरा (प्रत्य०)] उपले जमा करने या रखने का स्थान । कंडौरा ।

गोइँड़
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ = ग्राम] १. गाँव की सीमा । गाँव का घेरा । २.गाँव के पास की जमीन । ३. आस पास का स्थान ।

गोइँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० गोइँड़] दे० 'गोइँड़' ।

गोइंद पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रा० गोविन्द] दे० 'गोविंद' (६) । उ०—हरि दर्शन परसे भया आनंद । नानक सर्व सखा गोइंद । —प्राण०, पृ० २२५ ।

गोइंदा
संज्ञा पुं० [फा० गोइंदह्] वह मनुष्य जो छिपे छिपे किसी बात का भेद लेने के लिये किसी के द्बारा नियत हो । गुप्त भेदिया । गुप्तचर । गुप्त रूप से समाचार पहुँ चानेवाला ।

गोइ †
संज्ञा पुं० [हिं० गोय] दे० 'गोय' ।

गोइन
संज्ञा सं० [?] एक प्रकार का मृग । उ०— हिरन रोझ लगना बन बसे । चीतर गोइन झाँख और ससे ।—जायसी (शब्द०) ।

गोइनका
संज्ञा पुं० [देश०] मारवाड़ी वैश्यों की एक जाति ।

गोइयाँ
संज्ञा पुं० स्त्री० [हिं० गोहनिगाँ] साथ में रहनेवाला । साथी । सहचर । उ०—रामलखन एक ओर भरत रिपुदवनलाल एक ओर भए । सरजुतीर सम सुखद भूमि थल गनि गनि गोइयाँ बाटि लए ।—तुलसी (शब्द०) ।

गोइयार
संज्ञा पुं० [देश०] खाकी रंग का एक छोटा पक्षी ।

गोइलवाला
संज्ञा पुं० [देश०] वैश्यों की एक जाति ।

गोईं †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोइयाँ] दे० 'गोइयाँ' । उ०— सुनि निरुचै नैहर की गोईं । गरे लागि पदमावत रोईं । —जायसी (शब्द०) ।

गोई †
वि० [हिं० जोई] बैलों की जोड़ी ।उ०—पतली पेंडुली मोटी रान । पूँछ होय भुँइ में तरियान । जाते होवै ऐसी गोई । वाको तकैं और सब कोई ।— घा घ०, पृ० १०५ ।

गोऊ
वि० [हिं० गोना + ऊ (प्रत्य०)] चुरानेवाला । छिपानेवाला । हरण करनेवाला । उ०— श्याम बनी अब जोरी नीकी सुनहु सखी मान तौऊ हैं । सूर श्याम जितने रंग काछत युवती जन मन के गोऊ हैं । —सूर (शब्द०) ।

गोकंटक
संज्ञा पुं० [सं० गोकणटक] १. गोक्षुर । गोखरू । २. गाय का खुर (को०) । ३. गाय के खुर का निशान (को०) । ४. वह मार्ग जो बैलों के चलने के कारण जाने लायक न रह गया हो (को०) ।

गोकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कामधेनु । उ०—सुनि वशिष्ट हिय हर्षित भयऊ । दोउ मिलि गोकन्या ढिंग गयऊ ।—विश्राम (शब्द०) ।

गोकर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । भानु । रवि । उ०—प्रणत गिरा गिरि ईश गवरि गौरी गिरिधारन । गोकर गायत्री सुगोधरन तिय गोहारन । —सूदन (शब्द०) ।

गोकरन पु
संज्ञा पुं० [सं० गोकर्ण] दे० 'गोकर्ण' ।उ०—गोकरन गइ ले जानिए जी ।—कबीर रे०, पृ० ४४ ।

गोकर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं का एक शैव क्षेत्र जो मालावार में है । रावण, कुंभकर्ण आदि ने यहीं पर तप किया था ।२. इस स्थान में स्थापित शिवमूर्ति का नाम । ३. नीलगाय । ४. खच्चर । ५. [स्त्री० गोकर्णा] एक प्रकार का साँप जिसके कान होते है । ६. बालिश्त । बित्ता । ७. काश्मीर देश के एक प्राचीन राजा का नाम । ८. शिव के एक गण का नाम । ९. धुंधकारी के भाई का नाम जिससे भागवत सुनकर धुंधकारी तर गया था । १०. एक मुनि का नाम । ११. गाय का कान । १२, नुत्य में एक प्रकार का हस्तक । १३. एक प्रकार का बाण (को०) ।

गोकर्ण (२)
वि० [सं०] जिसके गऊ के से लंबे कान हों ।

गोकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता । मुरहरी । चुरनहार । विशेष— इसकी पत्तियाँ घीकुआर की तरह चिकनी और मोटी होती हैं और इसमें छोटे मीठे फल लगते हैं ।

गोकल पु
संज्ञा पुं० [सं० गोकुल] दे० 'गोकुल' उ०—ब्रह्मा कहै सुर सकल सों, गोकल हरि अवतार ।—पृ० रा०, २ ।८१ ।

गोकिराटा. गोकिराटिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारिका पक्षी [को०] ।

गोकिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल । २. मूसल [को०] ।

गोकील
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल । २. मूसल ।

गोकुंजर
संज्ञा पुं० [सं० गोकुञ्जर] १. खूब मोटा ताजा और बलिष्ट बैल । साँड़ । १. शिव जी का नंदी गण ।

गोकुंद
स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली दो दक्षिण की नदियों में पाई जाती है ।

गोकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौओं का झुंड । गोसमूह । २. गौओं के रहने की जगह गोशाला, खरिक आदि । ३. एक प्राचीन गाँव । विशेष—यह वर्तमान मथुरा से पूर्व दक्षिण की ओर प्रायः तीन कोस दूर जमुना के दूसरे पार था और इसे आजकल महाबन कहते हैं । श्रीकृण्षचंद्र ने अपनी बाल्यावस्था यही बिताई थी । आजकल जिस स्थान को गोकुल कहते हैं वह नवीन और इससे भिन्न है ।

गोकुलनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण ।

गोकुलपति
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण ।

गोकुलराय पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रा० गोकुल + हिं० राय] नंद । उ०— गोकुलराय की पोरि रच्यो है हिंडोरना ।—नंद ग्र०, पृ० ३७४ ।

गोकुलस्थ (१)
वि० [सं०] १. गोकुलनिवासी । जो गोकुल ग्राम में रहता हो । २. गायों के समूह या बाड़े में स्थित (को०) ।

गोकुलस्थ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वल्लभी गोस्वामियों का एक भेद । २. तैलंग ब्राह्मणों का एक भेद । पद्याकर कवि इसी वंश के थे ।

गोकुलधिपति
संज्ञा पुं० [सं०] नंद । उ०—आपु याके प्रभु गोकुलाधिपति कहावत हो । —दो सौ०, बावन०, भा० १, पृ० २५१ ।

गोकुलिक
वि० [सं०] १. कीचड़ में फँसी हुई गाय की सहायता न करनेवाला । २. ऐंचाताना । भेंगा [को०] ।

गोकुलोदभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का नाम [को०] ।

गोकुशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] गोवध । गोहत्या [को०] ।

गोकृत
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर [को०] ।

गोकोस
संज्ञा पुं० [सं० गो + क्रोश] १. उतनी दूरी जहाँतक गाय के बोलने का शब्द सुन पड़े । २. छोटा कोस । हलका कोस ।

गोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जोंक नामक कीड़ा । उ०—कच्छप मकर कूरम ईरग ग्राह गोक्ष शिशुमार । विछलत पछिलत उच्छलत धावत सुरधुनि धार ।—विश्राम (शब्द०) ।

गोक्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] गाय का दूध [को०] ।

गोक्षुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोखरू नामक क्षुप या उसका फल । २. गाय का खुर (को०) ।

गोक्षुरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोक्षुर' [को०] ।

गोख
संज्ञा पुं० [सं० गोखा] दे० 'गोखा' । उ०—अटा अटारी बाहर मोखन, छज्जैं छापन गोख झरोखन ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २. पृ० ७०५ ।

गोखग
संज्ञा पुं० [सं० गो + खग] थलचर । पशु । जानवर । उ०— गोखग, खेखग, वारि खग तीनों माह विसेक । तुलसी पीवै फिरि चलै, रहैं फिरै सँग एक ।—तुलसी (शब्द०) ।

गोखरू
संज्ञा पुं० [सं० गोखुर] १. एक प्रकार का क्षुप । विशेष—इसमें चने के आकार के कड़े और कँटीले फल लगते हैं । ये फल ओषिधि के काम में आते हैं और वैद्यक में इन्हें शीतल, मधुर, पुष्ट, रसायन, दीपन और काश, वायु, अर्श और ब्रणनाशक कहा है । यह फल बड़ा और छोटा दो प्रकार का होता है । कहीं कहीं गरीब लोग इसके बीजों का आटा बनाकर खाते हैं । पर्या०—त्रिकंटक । गोकटंक । त्रिपुट । कंटक फल । स्नादुकंटक । क्षुरक । वनशृंगाटक । श्वदंष्ट्रका । भक्ष्यकंटक । क्षुरंग । २. गोखरू के फल के आकार के धातु के बने हुए गोल कँटीले टुकड़े । विशेष—ये प्राय; मस्त हथियों को पकड़ने के लिये उनके रास्ते में फैला दिए जाते हैं और जिनके पैरों में गड़ने के कारण हाथी चल नहीं सकते । शत्रुसेना की गति रोकने के लिये भी पहले ऐसे ही काँटे बिछाए जाते थे । ३. गोटे और बादले के तारों से गूँथकर बनाया हुआ एक प्रकार का साज जो स्त्रियो और बालकों के कपड़ों में टाँका जाता है । ४. कड़े के आकार का एक प्रकार का आभूषण जो हाथों और पैरों में पहना जाता है । ५. तलवे, हथेली आदि में पड़ा हुआ वह घट्ठा जो काँटा गड़ने के कारण होता है ।

गोखा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष] दीवार में बना हुआ वह छोटा छेद जिसमें से बाहर की चीजें देखी जायँ । मोखा । झरोखा । गौखा । उ०—झाँकिफिरी झँझँरीन झरोखन गोखनहूँ खिनहूँ सुख सैनन ।—देव (शब्द०) ।

गोखा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गोखाल] गाय या बैल का कच्चा चमड़ा ।

गोखा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाखून । नख [को०] ।

गोखी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोख + ई (प्रत्य०)] गोखा । छोटागोखा । झरोखा । उ०—चावल वीणती गोखी बयठ ।—बी० रासो, पृ० ८४ ।

गोखुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ का पैर । २. गौ के खुर का वह चिह्न जो उसके चलने से जमीन पर पड़ता है ।

गोखुरा
संज्ञा पुं० [हिं० गो + खुरा] करैत साँप । विशेष—इसका फन गौ के खुर के समानहोता है, इसी से इसका यह नाम पड़ा ।

गोखुरू
संज्ञा पुं० [हिं० गोखरू] दे० 'गोखरू' ।

गोगन पु
संज्ञा पुं० [सं० गोगण] गोयूथ । गायों का झुंड । उ०— सो फल सखिन सहित बन घन में । बल समेत डोलत गोगन में ।—नंद ग्रं०, पृ० २९३ ।

गोगा (१) †
संज्ञा पुं० [ देश०] छोट काँटा । मेख ।

गोगा (२)
संज्ञा पुं० [अ० गौगह्] दे० 'गोगा' ।

गोगापीर
संज्ञा पुं० [हिं० गोगा + फा० पीर] एक पीर या देवता जिसकी पूजा अधिकतर साधारण श्रेणी ते हिंदू और मुसलमान राजपूताना, पंजाब आदि में करते हैं । विशेष—गोगा के बिषय में भिन्न भिन्न प्रकार की कथाएँ प्रसिद्ब हैं ।—कोई कहते हैं कि वह जाति का चौहान राजपूत था और बीकानेर की राजगढ़ तहसील के अंतर्गत ओड़ेरा में उत्पन्न हुआ था । माँ बाप से रूठकर वह जोगी हुआ और फिर मुसलमान हो गया । कहते हैं कि मुसलमान होते ही वह घोड़े और हथियारों समेत तौहर नामक स्थान में पृथ्वी में समा गया जहाँ उसकी समाधि अबतक बनी हूई है और भादों सुदी ८-/?/९ को बड़ा मेला लगता है । दूर दूर से लोग आकार मनौती चढ़ाते हैं । कुछलोग यह भी कहते हैं कि गोगा जब मुसलमान होकर अपनी स्त्री को भी मुसलमान करना चाहता था तब प्रतापसिंह नामक किसी राजा ने उसे पृथ्वी में चुनवा दिया । साँपों को दूर रखने के लिये गोगा की पूजा दूर दूर तक होती है ।

गोगृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जवान गाय जिसे केवल एक ही बछड़ा हुआ हो [को०] ।

गोगृह
संज्ञा पुं० [सं०] गोशाला [को०] ।

गोग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० गोग्रन्थि] १. सूखा हुआ गाय का गोबर । २. गोशाला । ३. गोजिह्निका [को०] ।

गोग्रास
संज्ञा पुं० [सं०] पके हुए अन्न का वह थोड़ा सा भाग जो भोजन, श्राद्धादिक के आरंभ में गौ के लिये अलग रख दिया जाता है ।

गोधरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कपास जो भड़ौंच और बरौदा में होती है ।

गोघात
संज्ञा पुं० [सं०] गोहत्या ।

गोघातक
संज्ञा पुं० [सं०] गोहिंसक । बूचर । कसाई ।

गोघाती
संज्ञा पुं० [सं० गोघातिन्] गोघातक ।

गोघृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्षा । २. गाय का घी [को०] ।

गोघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ को मारनेवाला । गौ का वध करने— वाला । २. अतिथि । मेहमान । पाहुना । विशेष— प्राचीन काल में किसी अतिथि के आने पर गोहत्या करने की प्रथा थी, इसी से 'अतिथि' को 'गोघ्न' कहने लगे । ३. गाय के लिये हानिकर या विनाशक (को०) ।

गोचंदन
संज्ञा पुं० [सं० गोचन्दन] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का चंदन ।

गोचंदना
संज्ञा स्त्री० [सं० गोचन्दना] एक प्रकार की जहरीली जोंक । विशेष—इसकी दुम कुछ मोटी और प्रायः दो भागों में बँटी सी मालूम होती है । सुश्रुत के अनुसार इसके काटने से कटा हुआ स्थान सूज आता है, शरीर सुन्न हो जाता है और मनृष्य को कै और मूर्च्छा होती है ।

गोचना (१) †
क्रि० स०[ पू० हिं० अगोछना] रोकना । छेंकना । किसी वस्तु की गति रोकना ।

गोचना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गों + चना] चना मिला हुआ गेहूँ ।

गोचना (३) †
क्री० स० [देश०] किसी चीज को उछालकर फेंकना ।

गोचनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गोचना' ।

गोचर (१)
वि० [सं०] १. जिसका ज्ञान इंद्रियों द्बारा हो सके । २. गायों द्बारा चरा हुआ (को०) । ३. रहनेवाला । बिचरनेवाला (को०) । ४. पृथ्वी पर रहने या चलनेवाला (को०) ।५. गम्य । बोध्य (को०) ।

गोचर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह विषय जिसका ज्ञान इंद्रियों द्बारा हो सके । वह बात जो इंद्रियों की सहायाता से जानी जा सके । जैसे—रूप, रस, गंध, आदि । २.गौओं के चरने का स्थान । चरागाह । चरी । ३. देश । प्रांत । ४. ज्योतिष में किसी मनृष्य के प्रसिद्ध नाम की राशि अनुसार गणित करके निकाले हुए ग्रह जो जन्मराशि के ग्रहों से कुछ भिन्न होते और स्थूल माने जाते हैं । ५ वासास्थान । निवासभूमि [को०] । ६. ज्ञानैद्रियों के संचार का क्षेत्र या विषय जैसे श्रवणगोचर, नयनगोचर । ७. क्षितिज (को०) ।

गोचरभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० गोचर + भूमि] वह भूमि जो गायों के चरने के लिये होती है । चरागाह ।

गोचरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गो + चरा] १. भिक्षावृत्ति । २. हठयोग की पाँच मुद्राओं में से एक ।

गोचर्म
संज्ञा पुं० [सं० गोचर्मन्] १. गौ का चमड़ा जिसपर कुछ विशेष कर्म आदि करने के समय बैठते हैं । २. जमीन, खेत आदि की एक प्राचीन काल की नाप, जो २१०० हाथ लंबी और इतनी ही चौड़ी होती है । इसे चरस या चरसा भी कहते हैं ।

गोचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गायों की तरह आहार के लिये घूमना [को०] ।

गोचारक
संज्ञा पुं० [सं०] गाय चरानेवाला । ग्वाला (को०) ।

गोचारण
संज्ञा पुं० [सं०] गाय चराना [को०] ।

गोचारी
संज्ञा पुं० [सं० गोचारिन्] ग्वाला । गोचारक (को०) ।

गोची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मछली । २. हिमालय की स्त्री का नाम ।

गोछ
संज्ञा पुं० [हिं० गोंछ] दे० 'गोंछ' । ऊ०—मोछ गोछ शिर मुंडि विरूपी कीन्हेउ ।—अकबरी, पृ० ३४४ ।

गोज (१)
संज्ञा पुं० [फा० गोज] अपानवायु । पाद । क्रि० प्र०—करना ।

गोज (२)
वि० [सं०] १. धरती से उत्पन्न (चावल आदि) । २. दूध से बनाया गया (पदार्थ) [को०] ।

गोज (३)
संज्ञा पुं० १. दूध से बना हुआ एक पदार्थ । २. एक प्रकार के क्षत्रिय जो अभिषेक के अनधिकारी होते हैं [को०] ।

गोजई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोहू + जव] गोहूँ और जौ मिला हुआ अन्न । जौ और गेहूँ की मिलावट ।

गोजर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बूढ़ा बैल ।

गोजर (२)
संज्ञा पुं० [सं० खर्जू या हिं० गुजगुजा] कनखजूरा नाम का कीड़ा । शतपदी । एक विषैला कीड़ा जिसके बहुत से पाँव होते हैं ।

गोजरा
संज्ञा पुं० [हिं० गोहूँ + जव] जौ मिला हुआ गेहूँ ।

गोजल
संज्ञा पुं० [सं०] गोंमूत्र [को०] ।

गोजा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गवाजन] १.छोटे पौधों का नया कल्ला जो सीधा निकलता है । २. सेहुँड़ का कल्ला जिसे भीतर पोला करके गलका आदि होने पर उँगली में औषधि के रूप में पहन लेते हैं ।

गोजा (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० गोजी] वह लकड़ी जो चरवाहे अपने साथ पशुओं को हाँकने के लिये रखते हैं ।

गोजागरिक
संज्ञा पुं० [सं० गोसजागरिकम्] १. आनंद । प्रसन्नता । पाचक । रसोइया [को०] ।

गोजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोसमष्टि । गायों की जाति [को०] ।

गोजाह
संज्ञा पुं० [हिं० गोजा] दे० 'गोजा'—१. । उ०—जंगल गया और दातोन के लिये नीम का एक गोजाह लेकर लौटा ।— काले०, पृ० १० ।

गोजाही (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोजाह] नया कल्ला या कनखा ।

गोजाही (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोजा] १. गोजी । लाठी । २. लाठी का युद्ध । लाठियों की मारपीट ।

गोजिया
संज्ञा स्त्री० [सं० गोजिह्वा] गोभी या बनगोभी नाम की घास । वि० दे० 'गोभी' ।

गोजिह्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोभी या गरमगोभी नाम की घास जो औषधि के काम आती है । दे० 'गोभी' । विशेष—कुछ लोग भूल से गावजबाँ को भी गोजिह्वा कहते हैं ।

गोजी †
संज्ञा स्त्री० [सं० गवाजन] १. गौ हाँकने की लकड़ी । २. बड़ी लाठी । लठ्ठ । मुहा०—गोजी चलना = लाठियों से मारपीट होना । ३. एक प्रकार का खेल जिसमें पटे, बनेठी आदि को तरह लकड़ी भाँजते हैं । क्रि० प्र०—खेलना ।

गोजीत
वि० [सं० गो + जित्] जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो । जितेंद्रिय ।

गोजीव
संज्ञा पुं० [सं०] गोपाल । ग्वाला [को०] ।

गोझनवट †
संज्ञा पुं० [देश०] स्त्रियों की साड़ी का वह भाग जो सिर पर रहता है । अंचल । पल्ला ।

गोझा
संज्ञा पुं० [सं० गुह्यक] [स्त्री० अल्पा० गोझिया, गुझिया] १. गुझिया नामक पक्वान्न जो मौदे में चूरमा या मेवा आदि भरकर बनता है । उ०—(क) गोझा बहुपूरग पूरे । भरि भरि कपूर रस चूरे ।—सूर (शब्द०) । (ख) भए जीव बिन नाउत ओझा । विष भइ पूरि काल भए गोझा ।—जायसी (शब्द०) । २. लकड़ी की कील जो काठ के सामान में सरेस लगाकर ठोंकी या धँसाई जाती है और जिसका बाहर निकला हुआ भाग आरी से काटकर लकड़ी की सतह के बराबर कर दिआ जाता है । गुज्झा । बँसकीला । ३. एक प्रकार की कँटीली घास । गुज्झा । ४. जेब । खीसा । खलीता ।

गोट (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्टी] १. वह पट्टी या फीता जिसे किसी कपड़े के किनारे खूबसूरती के लिये लगाते हैं । मगजी । २. किसी प्रकार का किनारा । क्रि० प्र०—चढ़ाना ।—टाँकना ।—लगना ।

गोट (२)
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] गाँव । खेड़ा । टोली ।

गोट (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौष्ठी] १. मंडली । गोष्ठी । २. वह सैर जो नगर के बाहर किसी बाग या उपवन आदि में हो और जिसमें खाने पीने, विशेषतः कच्ची रसोई आदि, का प्रबंध हो ।

गोट (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोटी] दे० 'गोटी' ।

गोट (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटीका] चौपड़ का मोहरा । नरद । गोटी ।

गोट (६)
संज्ञा पुं० [हिं० गोल] तोप का गोला । उ०—जिन्ह के गोट कोट पर जाहीं । जेहि ताकहिं चूकहिं तेहि नाहीं ।—जायसी (शब्द०) ।

गोटबस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोटवस्ती] वह भूमि जिसपर गाँव बसा हो ।

गोटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोट] १. सुनहले या रुपहले बादले का बुना हुआ पतला फीता जो प्रायः सुंदरता के लिये कपड़े के किनारे पर लगाया जाता है । यौ०—गोटा पट्ठा । २. धनियाँ की सादी या भूनी हुई गिरी । ३. छोटे छोटे टुकड़ों में कतरी और एक में मिली हुई इलायची, सुपारी और खरबूजे तथा बादाम की गिरी । ४. सूखा हुआ मल । कंडी । सुद्दा । ५. गुटिका । उ०—मंगल गोटा सुखि फलै मरकट मुगदन जान ।—रज्जब०, पृ० १२ ।

गोटा (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुटिका] १. चौपड़ का मोहरा । गोट । गोटी । उ०—अलक भुअंगिनि तेहिं पर लोटा । हिय घर एक खेल दुइ गोटा ।—जायसी (शब्द०) । २. तोप का गोला । उ०—औ जौ छुटहिं ब्रज कर गोटा । बिसरहिं भुगुति होइ सब रोटा ।—जायसी (शब्द०) । ३. जटा । अलक । तट ।

गोटिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] दे० 'गुटिका' । उ०—सिद्ध गोटिका जा पहँ नाहीं । कौन धातु पूँछहु तेहि पाहीं ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२१ ।

गोटी
संज्ञा स्त्री० [सं० गुटिका] १. कंकड़, गेरू, पत्थर इत्यादि का छोटा गोल टुकड़ा जिससे लड़के अनेक प्रकार के खेल खेलते हैं । २. हाथीदाँत, हड्डी, लकड़ी इत्यादि का बना हुआ चौपड़ खेलने का मोहरा । नरद । विशेष—ये गैलियाँ गिनती में कुल १६ होती हैं जिनमें से ४ लाल, ४ हरे, ४ पीले और ४ काले रंग की रहती हैं । मुहा०—गोटी जमना या बैठना = खेल के आरंभ में पौ आदि दाँव पड़ने पर नई गोटी का चलने योग्य बनना ।स गोटी मरना =खेल के मध्य में पीछे से दूसरे खिलाड़ी की किसी नई गोटी के उस स्थान पर आ जाने के कारण पहलेवाली गोटी का अपने स्थान से हटाकर खेल से अलग कर दिया जाना । गोटी बैठना =एक ही घर में एक खिलाड़ी की दो गोटियों का एक साथ रखा जाना । इस दिशा में पीछे से आनेवालसी गोटियों का एक साथ रखा जाना । इस दिशा मं पीछे से आनेवाली गोटियों का मार्ग रुक जाता है और वह उस समय तक आगे नहीं बढ़ सकती जबतक कि दोनों गोटियाँ अलग अलग घरों में न चल जायँ । इस प्रकार बैठी हुई गोठियाँ मारी भी नहीं जा सकतीं । गोटी मारना =खेल में किसी गोटी का चलने योग्य न रहना । किसी गोटी के खाने में विपक्षी की गोटी का आ जाना जिससे पहली गोटी खाने से हटा दी जाती है । गोटी मारना =चाल द्वारा किसी खाने से कोई गोटी हटाकर अपनी गोटी बैठाना । विपक्षी की गोटी को बेकाम करना । गोटी लाल होना =लाभ होना । प्राप्ति होना । ३. एक खेल जो ९, १५, १८ या इनसे अधिक गोटियों से भूमि पर एक दूसरी को काटती हुई आड़ी और सीधी रेखाएँ बनाकर खेला जाता है । यौ०—गोटिया चाल =दाँव पेंच की चाल । कुटिल नीति । ४. उपाय । युक्ति । तदबीर । लाभ का आयोजन । प्राप्ति का डौल । आमदनी की सूरत । जैसे,—वहाँ (२००) की गोटी हैं, वे क्यों न जाएँगे । मुहा०—गोटी जमन या बैठना =युक्ति चलना । उपाय या युक्ति सफल होना । प्राप्ति का डौल होना । आमदनी की सूरत होना । गोटी बैठाना या जमाना =युक्ति लगाना । तदबीर लड़ाना । जैसे,—उन्होंने अपनी गोटी बँठा ली है, अब वहाँ किसी की दाल न गले गी ।

गोटू
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घटिया चिकनी सुपारी ।

गोठ
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्ठ] १. गोशाला । गोस्थान । उ०—जे अघ मातु पिता सुत मारे । गाइ गोठ महिसुरपुर जारे ।—तुलसी (शब्द०) । २. गोष्ठी श्राद्ध । ३. सैर सपाटा । वि० दे० 'गोट' ।

गोठणी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्ठ] सखी । साथिन । सहेली । उ०— मारू म्हाँजी गोढणि, सैं मारूँदा सैर ।—ढीला०, दू० ४३८ ।

गोठि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोठ] दे० 'गोठ' । उ०—जहँ हुई गोठि भोजन नरिंद । तहँ हुते सकल सामंत वृंद ।—पृ० रा०, ६ ।१०९ ।

गोठल †
वि० [सं० कुण्ठित] जिसकी धार खराब हो गई हो । कुंठित । कुंद ।

गोड़ †
संज्ञा पुं० [सं० गम, गो] १. पैर । पावँ । उ०—(क) गोड़ न मूड़ न प्राण अधारा । तामे भरमि रहा संसारा ।—कबीर (शब्द०) । (ख) मकर महीधव सो माखि कै मतंगज को ग्रस्यो गाँसि गाढ़ो गोड़े गैयर चिकारयो है ।—रघुराज (शब्द०) । मुहा०—गोड़ भरना =(१) पैर में महावर लगाना । (२) ब्याह की४ एक रसम जिसमें वर की माता या चाची उसे गोद में लेकर मंडप में बैठती है और नाइन उसके पैर में महावर लगाती है । २. भूजों की एक जाति । ३. जहाज के लंगर की फाल ।—(लश०) ।

गोड़ पु
संज्ञा पुं० [हिं० गौढ़] दे० 'गौड़' । उ०—खइराडया आया खुरसाँण गोड चढ्या गजकेसरी कछवाह कहुँ नीरवाण ।—बी० रासो, पृ० १७ ।

गोड़इत
संज्ञा पुं० [हिं० गोंहन + ऐन (प्रत्य०)] १. गाँव में पहरा देनेवाला चौकीदार । २. वह हरकारा या कर्मचारी जो पुराने जमाने में एक गाँव की चिटि्ठयाँ दूसरे गाँव में पहुँचाया करता था ।

गोड़ई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़+ ई (प्रत्य०)] करघे की वे लकड़ियाँ जो पाई करने में पाई के दोनों ओर खड़ी की जाती हैं ।—(जोलाहे) ।

गोड़गाव
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़+ गाव] वह छोटी रस्सी जिसे गिरावँ की तरह बनाकर और पिछाड़ीवाली रस्सी के सिरों पर बाँधकर घोड़े के पिछले पैर में फँसा देते हैं ।

गोड़धरावन पु
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ + धरावना] १. पैर पुजाना । ३. अपनी महत्ता बढ़ाना । उ०—सिद्ध सिद्धई करै पर्भुता कारन जाई । गोड़धरावन हेतु महंत उपदेस चलाई ।— पलटु०, पृ० ७५ ।

गोड़न
संज्ञा पुं० [देश०] वह क्रिया जिसके अनुसार ऐसी मिट्टी से भी नमक बना लिया जाता है जो नोनी न हो ।

गोड़ना (१)
क्रि० स० [हिं० कोड़ना] मिट्टी की किसी भूमि को कुछ गहराई तक खोदकर उलट पुलट देना जिसमें वह पोली और भुरभुरी हो जाय । कोड़ना । जैसे,—खेत गोड़ना, अखाड़ा गोड़ना । विशेष—जब पेड़ गोड़ना कहेंगे तब उससे तात्पर्य होगा पेड़ की जड़ की मिट्टी को जल देने के लिये खोदकर पीली और भुरभुरी करना । जैसे,—नाम जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि तुलसी विहाइ कै बबूर रेंड़ गोड़िये ।—तुलसी (शब्द०) ।

गोड़ना (२) †
वि० [वि० स्त्री० गोड़नी] १. चौपट करनेवाला । नष्ट करनेवाला । २. गोड़नेवाला ।

गोड़ली
संज्ञा स्त्री, पुं०, [सं० कणाँटी] वह पुरुष स्त्री जो संगीत, विशेषतः नृत्य, में बहुत प्रवीण हो ।

गोड़वाँस
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ = पैर + रस्सी] वह रस्सा जो पशुओं के पैर में फँसाकर खूँटे से बाँध दिया जाता है ।

गोड़वाना
क्रि० अ० [हिं० गोड़ना का प्रे० रूप] गोड़ने का काम कराना ।

गोड़वारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़ + वारी (प्रत्य०)] पायताना । पैताना ।

गोड़सँकर †
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ + साकर] पैरों में पहनने का स्त्रियों का एक गहना ।

गोड़सिहा †
वि० [हिं० गोड़ + सिहाना] ईर्ष्यालु । डाह करनेवाला । कुढ़नेवाला जलनेवाला ।

गोड़हरा †
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ + हरा (प्रत्य०)] पैर में पहनने का कोई जेवर, विशेषतः कड़ा ।

गोड़ाँगी (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ + अँगिया] पायजामा ।

गोड़ाँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़ + सं० अङ्ग] जूता ।

गोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़] पैर और जाँघ के बीच का जोड़ । घुटना ।

गोड़ा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोड = पैर] १. पलँग आदि का पाया । २. घोड़िया । उ०—चाँद सूर्य दोउ गोड़ा कीन्हों माझ दीप किय ताना ।—कबीर (शब्द०) । ३. वह रस्सी जो खेतों में पानी चलाने की दौरी से बँधी रहती है और जिसे पकड़कर पानी उलीचते हैं ।

गोडा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ना] थाला । आलबाल । क्रि० प्र०—बनाना ।—मारना ।—लगाना ।

गोड़ाई
संज्ञा पुं० [हिं० गोड़ना] १. गोड़ने की क्रिया । २. गोड़ने का भाव । ३. गोड़ने का मजदूरी ।

गोड़ाना
क्रि० स० [हिं० गोड़ना का प्रे० रूप] गोड़ने का काम दूसरे से कराना ।

गोड़ापाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़ (= पाँव) + पाई (= ताने के सूत फैलाने का ढाँचा)] १. किसी मंडल में घूमने की क्रिया । पाई । मंडल देना । २. किसी स्थान पर बार बार आने की क्रिया । तानापाई ।

गोड़ारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़ाई] हरी घास जो अभी खोदकर लाई गई हो ।

गोड़ारी (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़(= पैर) + आरी (प्रत्य०)] १. पलंग आदि का वह भाग जिधर पैर रहता है । पैताना । २. जूता ।

गोड़ाली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाँडर] गाँडर दूब ।

गोड़िया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोड़ (= पैर) का अल्पा०] छोटा पैर । उ०—छोटी छोटी गोड़ियाँ अँगुरियाँ छबीली छोटी नख जोती मोती मानो कमल दलन पर ।—तुलसी (शब्द०) ।

गोड़िया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गोटी = युक्ति] युक्ति लगानेवाला । तरकीब लड़ानेवाला ।

गोड़िया (३)
संज्ञा पुं० [देश०] केवट । मल्लाह । उ०—गोड़िया पसारा जाल ऊटे एक बाझा हो ।—धरम०, पृ० ३६ ।

गोड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोटी] लाभ । फायदा । लाभ का आयोजन । प्राप्ति का डौल । क्रि० प्र०—करना । मुहा० = गोडी जमना या लगाना =उद्योग में सफलता होना । फायदे के लिये जो चाल चली गई हो उसका सफल होना । लाभ होना । गाडी हाथ से जाना = कुछ हाथ न लगना । कुछ लाभ न होना ।

गोड़ी (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौड] पैर । चरण । मुहा०—गोडी अगा या पड़ना =चरण पड़ना । किसी का किसी स्थान पर प्राप्त होना ।

गोडुंबा
संज्ञा स्त्री० [सं० गोडुम्बा] तरबूज [को०] ।

गोड़ैत
संज्ञा पुं० [हिं० गोडइत] दे० 'गोड़इत' । उ०—गोड़ैत और सिपाहियों की दौड़धूप चलने लगी ।—आकाश०, पृ० १०८ ।

गोढ़ पु
वि० [सं० गूढ़, हिं० गूढ़] दे० 'गूढ़' । उ०—इण सू हँसि न बोलज्यो, राजनि उइ भीतरी गोढ़ ।—बी० रासो, पृ० ५१ ।

गोढ़ै पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'ग्वैंड़' । उ०—पंचोली हरिकिसन वड़ै पण, गोढ़ै इंद्रभाँण साचै गुण ।—रा०, रू०, पृ० ३१६ ।

गोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टाट का दोहरा बोरा जिसमें अनाज आदि भरा जाता है । गोन । २. एक पुरानी माप या तौल जो सुश्रुत के अनुसार दो सूप के बराबर होती थी । ३. भीना कपड़ा । छनना ।

गोत
संज्ञा पुं० [सं० गोत्र] १. कुल । वंश । खानदान । उ०—राम भक्त वत्सले निज बानो । जाति गोत कुल नाम गनत नहिं रंक होइ कै रानो ।—सूर (शब्द०) । २. समूह । जत्था । गरोह । उ०—(क) सुनि यह स्याम विरह भरै ।........ सखिन तब भुज गहि उठाए बावरे होत । सूर प्रभ तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत ।—सूर (शब्द०) । (ख) दिन रैनि मै भावन के रचै गोत उदोत मई नित जान्यो परै ।— हरिसेवक (शब्द०) ।

गोतउचार पु
संज्ञा पुं० [सं० गोत्र + उच्चार] दे० 'गोत्रोच्चार (१)' । उ०—दुहूँ नाउँ होइ गोत उचारा । करहिं पदुमिनी मंगल— चारा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१५ ।

गोतम
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोत्रप्रवर्तक एक ऋषि । २. एक मंत्रकार ऋषि ।

गोतमक
संज्ञा पुं० [सं०] गौतम बुद्ध के अनुयायी । उ०—बुद्ध के धर्मप्रचार के समय भारतवर्ष में ६२ विविध संप्रदाय थे जिनमें मागंदिक, गोतमक आदि मुख्य थे ।—आ० भा०, पृ० १४० ।

गोतमपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शातानंद [को०] ।

गोतमस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ ।

गोतमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या का एक नाम ।

गोतर पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोत्र' । उ०—ऐसे ढीठ ढिग ढुकौ ताके होइ तिहारी गोतर ।—घनानंद, पृ० ३९० ।

गोता
संज्ञा पुं० [अ० गोतह्] जल आदि तरल पदार्थों में डूबने की क्रिया । डुब्बी । मुहा०—गोता खाना = (१) जल आदि तरल पदार्थों में डूबना । डुबकी लगाना । उ०—यङ जग जीव थाह नहि पावै । बिनसतगुर बस गोता खावे । (२) धोखे में आना । फरेब में आना । गोता देना =(१) डुबाना । (२) धोखा देना । गोता मारना = (१) डुबकी लगाना । डूबना । (२) स्त्रीप्रसंग करना (अशिष्ट) । (३) बीच में अनुपस्थित रहना । नागा करना । गोता लगाना = दे० 'गोता मारना' । यौ०—गोताखोर । गोतामार ।

गोताखोर
संज्ञा पुं० [अ० गोताखोर] डुबकी लगानेवाला । डुबकी मारनेवाला । विशेष—गोताखोर प्रायः कुएँ या तालाब आदि में गोता लगाकर उनमें से कोई गिरी हुई चीज लाते अथवा समुद्र आदि में गोता लगाकर सीप; मोती आदि निकालते हैं ।

गोतामार
संज्ञा पुं० [हिं० गोता + मार] दे० 'गोताखोर' ।

गोंतिया
वि० [सं० गोत्र + इया (प्रत्य०)] [वि० स्त्री गोतिनी] अपने गोत्र का । गोती ।

गोती
वि० [सं० गोत्रीय] अपने गोत्र का । जिसके साथ शौचाशैच का संबंध हो । गोत्रीय । भाई बंधु । उ०—विधु आनन पर दीरघ लोचन नासा मोती लटकत री । मानो सोम संग करि लीनो जानि आपनो गोती री ।—सूर (शब्द०) ।

गोतीत
वि० [सं०] जो ज्ञानेंद्रियों द्वारा न जाना जा सके । ज्ञानोंद्रियों द्वारा न जानने योग्य । अगोचर । उ०—भक्त हेतु नर विग्रह सूर वर गुन गीतीत ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) देव ब्रह्म व्यापक अमल सकल पर धर्महित ज्ञान गोतीत गुन वृत्ति हर्ता ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) अतुलित बल वीर्य विरक्ति वरं । गुण ज्ञान गिरा गोतीत परं ।—विश्राम (शब्द०) ।

गोतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] गोशाला [को०] ।

गोतीर्थक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार फोड़े आदि चीरने का एक प्रकार जिसके अनुसार कई छेदोंवाले फोड़े चीरे जाते हैं ।

गोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. संतति । संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । वर्त्म । ४. राजा का छत्र । ५. समूह । जत्था । गरोह । ६. वृद्धि । बढ़ती । ७. संपत्ति । धन । दौलत । ८. पहाड़ । ९. बंधु । भाई । १०. एक प्रकार का जातिविभाग । ११. वंश । कुल । कानदान । १२. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।

गोत्रकर
संज्ञा पुं० [सं०] गोत्रप्रवर्तक ऋषि । उ०—ये सारे गोत्रकर ऋषि गंगा के आसपासवाले प्रदेश में १५०० ई० पू० के आसपास दासता और सामंतवादी युग में हुए थे ।—भा० इ० रू०, पृ० २० ।

गोत्रकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० गोत्रकर्तृ] गोत्रप्रवर्तक [को०] ।

गोत्रकार
संज्ञा पुं० [सं०] गोत्रप्रवर्तक [को०] ।

गोत्रकारी
संज्ञा पुं० [सं० गोत्रकारिन्] गोत्र प्रवर्तक [को०] ।

गोत्रज
वि० [सं०] एक ही गोत्र में उप्तन्न एक ही पूर्वज की संतान । एक ही वंशपरंपार का । विशेष—धर्मशास्त्रों के अनुसार गोत्रज दो प्रकार के होते हैं— गोत्रज सपिंड और गोत्रज समानोदक । सात पीढ़ी के अंदर जिसके एक ही पूर्वज हों वे गोत्रज सपिंड और सात से ऊपर चौदह पीढ़ियों तक जिनके पूर्वज एक हों वे गोत्रज समानोदक कहलाते हैं ।

गोत्रपट
संज्ञा पुं० [सं०] वंशवृक्ष [को०] ।

गोत्रप्रवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] गोत्र चलानेवाला । गोत्रकार । गोत्रका मूल पुरुष [को०] ।

गोत्रभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वतों का भेदन करनेवाला इंद्र [को०] ।

गोत्रसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पर्वत की पुत्री । पार्वती । उ०—बदंत देव अदेव सबै मुनि गोत्रसुता अरंधग धरी है ।—केशव (शब्द०) ।

गोत्रस्खलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी को गलत नास से पुकारना । २. किसी का नाम लेने में गलती करना [को०] ।

गोत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गायों का समूह ।२. पृथ्वी [को०] ।

गोत्री
वि० [सं० गोत्रिन्] समान गोत्रवाला । गोत्रज । गोतिया ।

गोत्रीय
वि० [सं०] गोत्रवाला । अमुक गोत्र का [को०] ।

गोत्रोच्चार
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाह के समय वर वधू के गोत्र का दिया जानेवाला परिचय । २. (हास्य व्यग्य में प्रयुक्त) किसी के पूर्वजों तक दी जानेवाली गालियाँ (को०) ।

गोथरा
वि० [अनु० या हिं० गोठल] मुंडी धारवाला । कुंद ।

गोथल
संज्ञा पुं० [सं० गोस्थल] खरिक । गायों के बाँधने का स्थान । गोठ । उ०—गोकुल गोथल घोष ब्रज खरग कहत पुनि नाम । अनेकार्थ०, पृ० २६ ।

गोदंती (१)
वि० [सं० गोदन्त] कच्चा । सफेद । विशेष—इस अर्थ में यह विशेषण केवल हरताल के लिये आता है ।

गोदंती (२)
वि० [सं० गोदन्त] एक प्रकार की मणि या बहुमूल्य पत्थर ।

गोदंड पु
संज्ञा पुं० [?] गुबरैला । उ०—गोदंडा ज्यों मारग आगे षौज बिलाए ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ८७५ ।

गोद (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्रोड] १. वह स्थान जो वक्षस्थल के पास एक या दोनों हाथों का घेरा बनाने से बनता है और जिसमें प्रायः बालकों को लेते हैं । उत्संग । कोरा । ओली । उ०—व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत विनोद । सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या की गोद ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—उठाना ।—लेना । मुहा०—गोद का = (१) छोटा बालक । बच्चा । (२) बहुत समीप का । पास का । जैसे—गोद की चीज छोड़कर इतनी दूर जाना ठीक नहीं । गोद बैठना = दत्तक बनाना । गोद लेना = दत्तक बनाना । गोद देना = अपने लड़के को दूसरे को दत्तक बनाने के लिये देना । यो०—गोदभरी = बाल बच्चोंवाली स्त्री । गोद में = पास में । अत्यंत समीप । जैसे,—गोद में लड़का शहर में ढिंढोरा । २. स्त्रियों की साड़ी का वह भाग जो अंचल के पास रहता है । अंचल । उ०—शवरी कटुक बेर तजि मीठे भावि गोद भर लाई । जूठे की कछु शंक न मानी भक्ष किए सत भाई ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—पसारना ।— - भरना ।मुहा०—गोद पसारकर विनती करना या माँगना = अत्यंत अधीरता से माँगना या प्रार्थना करना । उ०—इह कन्या मैं स्याम को माँगौं गोद पसारि ।—नंद ग्रं० पृ० १९४ । गोद भरना = (१) विवाह आदि शुभ अवसरों पर अथवा किसी के आने जाने के समय सौभाग्यवती स्त्री के अंचरे में नारियल आदि पदार्थ देना जो शुभ समझा जाता है । (२) संतान होना । औलाद होना ।

गोद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] मस्तिक । दिमाग [को०] ।

गोदगुदालो
संज्ञा पुं० [देश०] गुलू नाम का पेड़ ।

गोदनशीं
वि० [हिं० गोद + फा० नशीं (प्रत्य०)] गोद लिया हुआ । दत्तक ।

गोदनशीनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोद + फा० नशीनी (प्रत्य०)] गोद लेने का कार्य । गोद लिया जाना ।

गोदनहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोदनहारी] दे० 'गोदनहारी' ।

गोदनहरा
संज्ञा पुं० [हिं० गोदना + हारा (प्रत्य०)] टीका लगानेवाला । माता छापनेवाला ।

गोदनहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोदना + हारी (प्रत्य०)] कंजड़ या नट जाति की स्त्री जो गोदना गोदने का काम करती है ।

गोदना (१)
क्रि० स० [हिं० खोदना + गड़ाना] १. किसी नुकीली चीज को भीतर चुभाना । गड़ाना । २. किसी कार्य के लिये बार बार जोर देना । कोई काम करने के लिये बार बार जोर देना । कोई काम कराने के लिये पीछे पड़ना । ३. छेड छाड़ करना । चुभती या लगती हुई बात कहना । ताना देना । ४. हाथी को अंकुस देना । † ५. गोड़ना । ६. भद्दी लिखाई लिखना ।

गोदना (२)
संज्ञा पुं० १. तिल के आकार का एक विशेष प्रकार का काला चिह्न जो कंजड़ या नट जाति की स्त्रियाँ लोगों के शरीर में नील कोयले के पानी में डूबी हुई सूइयों से पाछकर बनाती हैं । इसमें पहले दो एक रोज तक पीड़ा होती है पर पीछे वह चिह्न स्थायी हो जाता है । विशेष—भारत में अनेक जाति की स्त्रियाँ गाल, ठोढ़ी, कलाई तथा अन्य अंगों पर सुंदरता के लिये इस प्रकार के चिह्न बनवाती हैं । बिहार प्रांत की स्त्रियाँ तो अपने शरीर पर इस क्रिया से बेल बूटों तक के चिह्न बनवाती हैं । क्रि० प्र०—गोदना ।—गोदाना । २. वह सूई जिसकी सहायता से शीतला रोग से रक्षित रहने के लिये बालकों को टीका लगाते हैं । क्रि० प्र०—लगाना । ३. वग औजार जिससे खेत गोड़ते हैं ।

गोदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गदना] १. वह सूई जिससे गोदना गोदा जाता है । २. चुभाने गड़ाने या गोदने की कोई चीज ।

गोदर पु
वि० [हिं० गदराना या गददर] १. गदराया हुआ । गद्दर । २. पूर्णतः यौवनप्राप्त । यौवन से परिपूर्ण ।

गोदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोदवरी नदी । उ०—पंचवटी गोदाहि प्रनामं करि । कुटी दाहिनी लाई ।—तुलसी (शब्द०) । २. गायत्रीस्वरूपा महादेवी ।

गोदा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कटवाँसी बाँस ।

गोदा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गोंजा] १. पेड़ों की नई शाखा । ताजी डाल । २. किसी पेड़ की लंबी और पतली टहनी । क्रि० प्र०—बनाना ।—मारना ।

गोदा (४)
संज्ञा पुं० [हिं० घौद] बड़, पीपल या पाकर के पक्के फल । गूलर, पिपरी इत्यादि । क्रि० प्र०—खाना ।—चुनना ।—बीनना ।

गोदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ को विधिवत् संकल्प करके ब्राह्मण को दान करने की क्रिया । विशेष—इसका विधान साधारण दान, पुण्य, रोग, विवाह आदि संस्कार अथवा किसी प्रकार के प्रायश्चित्त के अवसर के लिये हैं । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।—लेना । २. एक संस्कार जो विवाह से पहले ब्राह्मण को १६ वें वर्ष, क्षत्रिय को २२वें वर्ष और वैश्य को २४वें वर्ष करना आवश्यक है । इसे केशांत या गोदानमंगल भी कहते हैं । उ०—पुनि करवाय मुनिन गोदाना । मंगल मंडित वेद विधाना ।—रघुराज (शब्द०) ।

गोदाम
संज्ञा पुं० [अं० गोडाउन] वह बड़ा सुरक्षित स्थान जहाँ बहुत सा माल असबाब रखा जाता हो । विशेष—साधारणतः बहुत बड़े बड़े व्यापारी अपना सारा माल दूकानों में न रख सकने के कारण एक बड़ा स्थान भी ले लेते हैं जिसमें उनका अधिकांश थोक माल पड़ा रहता है ।

गोदारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमीन खोदने के कुदाल । २. हल [को०] ।

गोदारुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुदाल । २. हल [को०] ।

गोदावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षिण भारत की एक नदी जो नासिक के पास से निकलकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है । २. मदरास का एक जिला ।

गोदि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोद] दे० 'गोद' । उ०—तब इन छल करि श्री ठाकुर जी को अपनी गोदि में लिए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १३६ ।

गोदी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बड़ी नदी या समुद्र में वह घेरा हुआ स्थान जहाँ जहाज मरम्मत के लिये या तूफान आदि के उपद्रव से रक्षित रहने के लिये रखे जाते हैं । डाक ।—(लश०) । यौ०—गोदी मजदूर = जहाजों पर माल चढ़ाने उतारनेवाले मजदूर ।

गोदी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोद] दे० 'गोद' ।

गोदी (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बबूल । विशेष—यह बरार पंजाब और अवध में होता है । यह नहरों के किनारे के बाँधों पर प्रायः लगाया जाता है ।

गोदुह
संज्ञा पुं० [सं०] गाय दुहनेवाला । ग्वाला । उ०—बल्लब गोदुह गोप पुनि कहि अभीर गोपाल ।—अनेकार्थ०, पृ० २९ ।

गोदूनिका
संज्ञा स्त्री० [बँ०] बेंत की जाति का एक वृक्ष । विशेष—यह पूर्वीय बंगाल और आसाम आदि प्रदेशों में बहुतहोता है । इसकी चिकनी और चमकीली टहनियों से शीतल- पाटी बनाई जाती है जो दूर दूर भेजी जाती है ।

गोदाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय का दोहन । २. गाय का दूध । ३. गाय के दुहने का समय [को०] ।

गोदाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय के दुहने की क्रिया । गाय दुहा जाना । २. गाय के दोहन का काल या समय [को०] ।

गोदोहनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बरतन जिसमें गाय का दूध दुहा जाता है । दोहनी [को०] ।

गोद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] गाय या बैल का मूत्र । गोमूत्र ।

गोध
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधा] गोह नामक जंगली जानवर ।

गोधन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौओं का समूह । गौओं का झुड । उ०—कमल नयन घनश्याम मनोहर सब गोधन को भूप ।— सूर (शब्द०) । २. गौ रूपी संपत्ति । उ०—गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान । जब आवे संतोषधन सब धन धूरि समान ।—तुलसी (शब्द०) । ३. एक प्रकार का तीर जिसका फल चौड़ा होता है ।

गोधन (२) †पु
संज्ञा पुं० [सं० गोवर्द्धन] गोवर्द्धन पर्वत । उ०—अलि गोधन पूजा को उमह्यो ब्रज मोहिं चढ़ी तप सोगन तें ।—बेनी (शब्द०) ।

गोधन (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी । विशेष—यह पक्षी सारे एशिया, युरोप और अफ्रीका में पाया जाता है । इसकी चोंच लाल, सिर भूरा और पैर हरे होते हैं । य़ह प्रायः जलाशयों के निकट रहता और ५ से ९ तक अंडे देता है ।

गोधर
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ ।

गोधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पशुओं की भाँति समागम करना । समागम में अपने पराए का कुछ विचार न रखना ।

गोधाँ पु
संज्ञा पुं० [सं० गोधन] गोधन । बैल । उ०—झूसर झालर झल्लही गोधाँ गावड़ियाँह ।—बाकी० ग्रं०, भा०२, पृ० १५ ।

गोधा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोह नामक जंतु ।

गोधा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० गोध्न] गोधन । बैल । उ०—मेरे गाय गोधा अन्न । मेरे ऊँट घोड़ा धन्न ।—राम० धर्म०, पृ० १६६ ।

गोधापदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोधपदी' [को०] ।

गोधापदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूसली नाम की ओषधि । २. हंसपदी नाम की लता ।

गोधावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोधापदी' ।

गोधास्कंध
संज्ञा पुं० [सं० गोधास्कन्ध] एक प्रकार का बदबूदार खैर । विट् खदिर [को०] ।

गोधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. माथा । ललाट । २. मगर । घड़ियाल [को०] ।

गोधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छिपकली । २. मादा घड़ियाल [को०] ।

गोधिकात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का जानवर जो नर साँप और माँदा गोह के संयोग से उत्पन्न होता है । २. गोह के आकार का एकप्रकार का छोटा जानवर जो पेड़के खोंड़रे में रहता है और जिसका शब्द बहुत कठोर होता है । ३. एक प्रकार का गिरगिट ।

गोधी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधूम] एक प्रकार का गेहूँ । विशेष—यह दक्षिण भारत में अधिकता से होता है और इसकी भूसी जल्दी नहीं छूटती । इसमें विशेषता यह है कि यह खरीफ की फसल है और कहीं कहीं यह साल में दो बार भी बोया जाता है । यह बहुत ही साधारण भूमि में भी, जहाँ और गेहूँ नहीं हो सकता, उत्पन्न होता है । ऊपरी छिलका बहुत कड़ा होने के कारण इसकी फसल का पक्षी भी हानि नहीं पहुंचा सकते ।

गोधुम
संज्ञा पुं० [सं०] गोधूम । गेहूँ [को०] ।

गोधूम
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेहूँ । २. नारंगी ।

गोधूमक
संज्ञा पुं० [सं] गेहुअन या गोहुअन नाम का साँप ।

गाधूमचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ का आटा [को०] ।

गोधूमसार
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ का सत्त [को०] ।

गोंधूरक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधूलि] दे० 'गोधूलि । उ०—चहुआँन रत्त तोरन समय, लगन गोधरक संधयौ ।—पृ० रा०, १४ ।२२ ।

गोधूलक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधूलि] दे० 'गोधूलि' । उ०—चैत सुकल पख तीज, लगन गोधूलक रज्जिय ।—पृ० रा०, १६ । १४ ।

गोधूलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह संमय जब जंगल से चरकर लौटती हुई गायों के खुरों से धूलि उड़ने का कारण धुँधली छा जाय । संध्या का समय । विशेष—(क) ऋतु के अनुसार गोधूलि के समय में कुछ अंतर भी माना जाता है । हेमंत और शिशिर ऋतु में सूर्य का तेज बहुत मंद हो जाने और क्षितिज में लालिमा फैल जाने पर, वसंत और ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य आधा अस्त हो जाय, और वर्षा तथा शरत् काल में सूर्य के बिलकुल अस्त हो जाने पर गोधूलि होती है । (ख) फलित ज्योतिष के अनुसार गोधूलि का समय सब कार्यों के लिये बहुत शुभ होता है और उसपर नक्षत्र, तिथि, करण, लग्न, वार, योग और जामित्रा आदि के दोष का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । इसके अतिरिक्त इस संबंध में अनेक विद्वानों के और भी कई मत हैं ।

गोधूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोधूलि' ।

गोधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] सवत्सा दुधारू गाय (को०) ।

गोधरे
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षक । २. अभिभावक [को०] ।

गोंध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ । पर्वत ।

गोनंद
संज्ञा पुं० [सं० गोनन्द] १. कार्तिकेय के एक गण का नाम । २. अनेक पुराणों के अनुसार एक देश ।

गोनंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० गोनन्दा] पार्वती । दुर्गा [को०] ।

गोनंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोनन्दी] सारस की मादा । सारसी [को०] ।

गान (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोणी] १. टाट, कंबल या चमड़े आदि की बनी हुई वह खुरजी किसमें दो ओर अनाज आदि भरने का स्थान होता है और जो भरकर बैलों की पीठ पर रखी जाती है । लदने पर इसका एक भाग बैल के एक तरफ और दूसरा दूसरी तरफ रहता है । उ०—भरी गोन गुड़ तजौ तहाँ से साँझै भागै ।—पलटू, भा० १, पृ० १०७ । २. साधारण बोरा । खास बोरा । ३. टाट का कोई थैला ।—(लश०) । ४. अनाज की तौल जौ १६ मानी (२५६ सेर) की होती है ।

गोन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुण] मूँज आदि की बनी हुई वह रस्सी जिसे नाव खींचने के लिये मस्तूल में बाँधते हैं ।

गोन (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास । विशेष—यह थूथी की तरह की होती है औऱ इसका साग बनता है ।

गोन (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० गमन, प्रा० गमण] दे० 'गमन' । उ०— करी सेन गोनं मिलानं दवानं । बढ़ी बेय वाजू सरित्ता कि जानं ।—पृ० रा०, १२ । १८० ।

गोनरखा
संज्ञा पुं० [हिं० गोन = रस्सी + रखना] नाव का वह मस्तूल जिसमें गौन बाँधकर उसे खींचते हैं ।

गोनरा
संज्ञा पुं० [सं० गुन्द्रा] उत्तरी भारत में होनेवाली एक प्रकार की लंबी घास । वि० दे० 'गोंदरा' । विशेष—यह पशुओं के चारे के काम में आती है । इससे चटाई भी बनती है जो बहुत मुलायम और गरम होती है ।

गोनर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. नागरमोथा । २. सारस पक्षी । ३. एक प्राचीन देश जहाँ महर्षि पतंजलि का जन्म हुआ था । ४. महादेव ।

गोनर्दीय
संज्ञा पुं० [सं०] महाभाष्यकार पतंजलि [को०] ।

गोनस
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का साँप । २. वैक्रांत मणि ।

गोनसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय का मुँह [को०] ।

गोना (१)—पु
क्रि० स० [सं० गोपन] छिपाना । लुकाना । पोशीदा करना । उ०—(क) मुकुलित कच तन धनिक ओट ह्वै अँसुवन चीर निचोवति । सूरदास प्रभु तजी गर्व से भए प्रेम गति गोवति ।—सूर (शब्द०) । (ख) ऐसिउ पीर बिहँसि तेई गोई । चोर नारि जिमि प्रकट न रोई ।—तुलसी (शब्द०) ।

गोना (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० गौना] द्विरागमन । गौना ।

गोनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल । साँड़ । २. भूमिपति । ३. पशुपालक । गोपालक [को०] ।

गोनाय
संज्ञा पुं० [सं०] ग्वाला [को०] ।

गोनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वृक । भेड़िया [को०] ।

गोनास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोनस' [को०] ।

गोनासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोज्ञसा । गाय या बैल का मुँह [को०] ।

गोनिया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कोण, हिं० कोना + इया (प्रत्य०)] बढ़ई, लोहार और राज आदि का एक औजार जिससे वे किसी दीवार या कोने की सिधाई जाँचते हैं । साधन । विशेष—यह समकोण होता है और बिलकुल लकड़ी या लोहे का अथवा आधा लकड़ी का और आधा लोहे लोहे का बनता है ।

गोनिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गोन = बोरा + इया (प्रत्य०)] स्वयं अपनी पीठ पर या बैलों की पीठ पर लादकर बोरे ढोनेवाला ।

गोनिया (३)
संज्ञा पुं० [हिं० गोन = रस्सी + इया (प्रत्य०)] रस्सी बाँधकर नाव खींचनेवाला ।

गोनिष्ठ
वि० [सं०] इंद्रियासक्त । उ०—सहज समाधि अडिग मन आसन गोनिष्ठन के दहत उपाद ।—राम०, धर्म०, पृ० ३४२ ।

गोनिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० गोनिष्यन्द] गोमूत्र [को०] ।

गोनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोणी] १. टाट का थैला । बोरा । २. पटुआ । सन । पाट ।

गोनी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पकाए हुए कत्थे का वह गोला जो राख की सहायता से उसका जल सुखा लेने के बाद बनाया जाता है ।—(तंबोली) ।

गोनी (३) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] एक प्रकार का साग जो चैती की फसल के साथ होता है । विशेष—इसमें चार से बारह तक गोफे पूती से निकलते हैं जा भीतर से पोले होते हैं ।

गोप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ की रक्षा करनेवाला । २. ग्वाला । अभीर । अहीर । ३. गोशाला या गोष्ठ का अध्यक्ष या प्रबंध करनेवाला । ४. भूपति । राजा । ५. रक्षा या उपकार करनेवाला । ६. एक गंधर्व का नाम । ७. मुर या बोल नाम की ओषधि । ८. गाँव का मुखिया या पटवारी जो गाँव के हिस्सों और लोगों के स्वत्व आदि का लेखा रखता था ।

गोप (२)
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फ] सिकरी या जंजीर के आकार का गले में पहनने का एक प्रकार का आभूषण, जो पतले तारों को गथकर फुलावदार बनाया जाता है ।

गोप † (३)पु
वि० [सं० गुप्त] छिपा हुआ । गुप्त । उ०—(क) छा छाया जस बुंद अलोपू । ओठईं सो आनि रपा करि गोपू ।— जायसी (शब्द०) ।

गोपक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० गोपिका] १. गोप । २. अनेक गाँवों का स्वामी या अध्यक्ष । ३. रक्षा करनेवाला । रक्षक ४. छिपानेवाला [को०] ।

गोपकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोपवाला । गोपी । ग्वालिन [को०] ।

गोपचाप
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रधनुष [को०] ।

गोपज
संज्ञा पुं० [सं०] गोप से उत्पन्न । गोप जाति का पुरुष । उ०—देते लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजों के, जी में होता उदय, यह था क्यों नहीं श्याम आए ।—प्रिय०, पृ० ५० ।

गोपजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोपी । २. राधिका [को०] ।

गोपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव । २. विष्णु । ३. श्रीकृष्ण । ४. सूर्य । ५. राजा । पृथ्वीपति । ६. वृष । साँड़ । बैल । ७. ऋषभ नाम की ओषधि । ८. नौ उपनंदों में से एक । ९. ग्वाल । गोपाल । आभीर । १०. वाचाल । मुखर ।

गोपथ
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद का एक ब्राह्मण ।

गोपद
संज्ञा पुं० [सं० गोष्पद] १. गौओं के रहने का स्थान २. पृथ्वी पर पड़ा हुआ गाय के खुर का चिह्न । उ०—(क) सादर सुमिरन जे नर करहीं । भव वारिधि गोपद इव तरहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) रघुबर की लीला ललित,मैं बंदौ सिर नाय । जे गावत गोपद सरिस जन भवनिधि लँधि जाय ।—रघुराज (शब्द०) । यौ०—गोपदजल = गाय की खुर के गड्ढे में आनेवाला जल । उ०—गोपद जल बूड़हिं घटजोनी ।—मानस, २ ।२३१ ।

गोपदल
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी का पेड़ ।

गोपदी
वि० [सं० गो + पद + ई (प्रत्य०) अथवा सं० गोष्पदी] गाय के खुर के समान, अत्यंत छोटा । उ०—खैंचत दुशासन बसनठ बाढयो बेप्रमाण कीन्हों निज दासी को समुद्र गोपदी ।—रघुराज (शब्द०) ।

गोपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. छिपाव । दुराव । २. छिपाना । लुकाना । ३. रक्षा । ४. व्याकुलता । ५. दीप्ति । ६. तेजपत्ता नाम का मसाला । ७. निंदा । भर्त्सना [को०] । ८. खतरा । आतंक (को०) । ९. हड़बड़ाहट । जल्दी [को०] । १०. ईर्ष्या (को०) । ११. घबड़ाहट । परेशानी (को०) ।

गोपना पु †
क्रि० स० [सं० गोपन] छिपाना । लुकाना । संयो० क्रि०-देना ।—रखना ।

गोपनीय
वि० [सं०] १. छिपाने योग्य । छिपाने लायक । गोप्य । २. रक्षणीय । रक्षा के योग्य ।

गोपभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] कुईं की जड़ या भसींड [को०] ।

गोपयिता
वि० [सं० गोपयितृ] १. गोपनकर्ता । २. रक्षक (को०) ।

गोपराइ पु
वि० [सं० गोपराज] गोपेश । गोपों का स्वामी । उ०— राजत गोपराइ तहँ नंद ।—नंद ग्रं०, पृ० २२४ ।

गोपराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] ग्वालियर प्रांत का प्राचीन नाम ।

गोपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्थानविशेष । विशेष—कहते हैं, यहाँ पाणिनि ने तपस्या की थी और शिव को प्रसन्न कर उनसे वर प्राप्त किया था ।

गोपशु
संज्ञा पुं० [सं०] गोमेध की गाय [को०] ।

गोपसुत
संज्ञा पुं० [सं०] गोपपुत्र । श्रीकृष्ण । उ०—गोपीनाथ गोविंद गोपसुत गुनी गीतप्रिय गिरिवरधर रसाल के ।—घनानंद, पृ० ३६५ ।

गोपांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० गोपाङ्गना] १. गोप जाति की स्त्री । २. अनंतमूल नाम की ओषधि ।

गोपा (१)
वि० [सं०] १. लुप्त करनेवाला । छिपानेवाला । २. नाशक ।

गोपा (२)
संज्ञा स्त्री० १. गाय पालनेवाली, अहीरिन । ग्वालिन । २. श्यामा नाम की लता । ३. महात्मा बुद्ध की स्त्री का नाम । इसका दूसरा नाम यशोधरा भी है ।

गोपाचल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्वालियर का प्राचीन नाम । उ०— गोपाचल ऐसे गढ़, राजा रामसिंघ जू से ।—केशव ग्रं०, पृ० १३२ । २. ग्वालियर के निकट का एक पहाड़ ।

गोपानसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] टेढ़ी शहतीर जो छप्पर को टेकने के काम आती है । वलभी (को०) ।

गोपायक
वि० [सं०] रक्षक । रखवाला [को०] ।

गोपायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोपन । रक्षण [को०] ।

गोपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ का पालन पोषण करनेवाला २. अहीर । ग्वाला । विशेष—पराशर के मत से 'गोपाल' एक संकर जाति है जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और शु्द्रा माता से है । ब्राह्मणों के लिये इसका अन्न भोज्य कहा गया है । ३. श्रीकृष्ण । ४. राजा । ५. इंद्रियों का पालनेवाला, मन । एक छंद जिसका प्रत्येक चरण १५ मात्राओं का होता है और ८ और ७ पर यति होती है । जैसे,—दया बेलि की ललित निकुंज । गुंजित सुख पक्षिन के पुंज । गुरु की हानि मिठाई माँह । पापरचित भोजन की चाह । इसको 'भुजंगिनी' भी कहते हैं ।

गोपालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्वाला । गोपाल । अहीर ।

गोपालकक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार पश्चिमभारत का एक प्राचीन प्रदेश ।

गोपालकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा [को०] ।

गोपालतापन
संज्ञा पुं० [सं०] एक उपनिषद् जिसकी टीका शंकराचार्य तथा और विद्वानों ने की है ।

गोपालतापनीय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोपालतापन' ।

गोपालदारक
संज्ञा पुं० [सं०] जौनियों के एक आचार्य का नाम ।

गोपालमंदिर
संज्ञा पुं० [सं० गोपालमंदिर] वल्लभ संप्रदाय के अनुयायियों का एक मंदिर ।

गोपालि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रवर । २. शंकर ।

गोपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्वालिन । अहीरिन । २. सारिवा नाम की ओषधि । ग्वालिन नाम का कीडा । गिंजाई । घिनौरी ।

गोपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गौ पालनेवाली । २. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम ।

गोपाष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक शुक्ला अष्टमी । विशेष—इसी दिन श्रीकृष्ण ने गोचारण आरंभ किया था । इस दिन गोपूजन, गोग्रास, गोप्रदक्षिणा, गौओं के पीछे चलना इत्यादि कर्म करने का काफी माहात्म्य कहा गया है । इस दिन गायों को खिलाने और सजाने की भी रीति है ।

गोपि पु
वि० [सं० गोप्य] गुप्त । गायब । उ०—(क) गई गोपि ह्वैं भक्ति आगिली काढ़े प्रगट पुरातम खआस ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १५३ । (ख) दे० गोप्य । उ०—गोपि कहूँसौ अगोपि कहा ।—सुंदर ग्रं, भा० २, पृ० ६१७ ।

गोपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोप की स्त्री । गोपी । २. अहीरिन । ३. छिपानेवाली ।

गोपित
वि० [सं०] छिपा हुआ । गुप्त । २. रक्षित ।

गोपिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] छिपानेवाली । उ०—गोपिनी भक्ति बिलोपिनि ज्ञान की तैसि विराग पै कोपिनि गाई ।— रघुराज (शब्द०) ।

गोपिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्यामालता । २. तांत्रिकों की एक नायिका ।

गोपिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोफन] गोफना । ढेलवाँस ।

गोपिल
वि० [सं०] १. छिपानेवाला । २. रक्षा करनेवाला [को०] ।

गोपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्वालिनी । गोपपत्नी । २. व्रज कीगोपजातीय वे स्त्रियाँ या कन्याएँ जो श्रीकृष्ण के साथ प्रेम रखती थीं, जिन्होंने उनके साथ बालक्रीड़ा तथा अन्य लीलाएँ की थीं । ३. सारिवा नाम की लता । ४. छिपानेवाली स्त्री ।

गोपी कामोदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक संकर रागिनी जो कामोद और केदारी के योग से बनती है ।

गोपीगोता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रीमदभागवत के दशम स्कंध में गोपियों द्वारा की गई कृष्ण जी की स्तुति [को०] ।

गोपीचंद
संज्ञा पुं० [सं० गोपी + हिं० चंद] रंगपुर (बंगाल) के एक प्राचीन राजा जो भर्तृहरि की बहन मैनावती के पुत्र कहे जाते हैं । विशेष—इन्होंने अपनी माता से उपदेश पाकर अपना राज्य छोड़ा और वैराग्य लिया था । कहा जाता है कि ये जलंधरनाथ के शिष्य हुए थे और त्यागी होने पर इन्होंने अपनी पत्नी पाटमदेवी से, महल में जाकर भिक्षा माँगी थी । इनके जीवन की घटनाओं के गीत आजकल के जोगी सारंगी पर गाया करते हैं ।

गोपीचंदन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की पीली मिट्टी जिसका वैष्णव लोग तिलक लगाते हैं और द्वारिका के एक सरोवर से निकलती है । विशेष—(क) कहते हैं, श्रीकृष्ण के स्वर्गवासी होने पर उनके विरह में अनेक गोपियों ने इसी सरोवर के किनारे अपने प्राण तेज थे, इसीलिये उसकी मिट्टी का बहुत माहात्म्य कहा है । (ख) आजकल बाजारों में गोपाचंदन के नाम से एक प्रकार की बनाई हुई पीली मिट्टी मिलती है जिसका व्यवहार प्रायः बैरागी करते हैं ।

गोपीजन
संज्ञा पुं० [सं०] गोपियों का समूह । गोपियाँ [को०] ।

गोपिजनवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०] ।

गोपीजननाथ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०] ।

गोपीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खंजन पक्षी जिसका देखना अशुभ समझा जाता है ।

गोपीता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोपी] गोपकन्या । गोपी । (क्व०) । उ०—उन्ह भौंहनि सरि केउ न जीता । अछरी छपीं छपीं गोपीता ।—जायसी (शब्द०) ।

गोपीथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह सरोवर जिसमें गौएँ जल पीती हों । २. एक प्राचीन तीर्थ । ३. रक्षण । रक्षा । ४. राजा ।

गोपीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] गोपियों के स्वामी श्रीकृष्ण । उ०—इहि न होई गिरि को धिरबो हो सुनहु कुँवर गोपीनाथ । आपुन को तुम बड़े कहावत काँपन लागे हैं दोउ हाथ ।—सूर (शब्द०) ।

गोपीयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गोपी + यन्त्र] सारंगी । —नाथ सिद्धों० पृ० २२ ।

गोपुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ की पूँछ । गौ की दुम । २. एक प्रकार के बंदर जिनकी दुम गाय की दुम की तरह होती है । ३. एक प्रकार का गावदुमा हार । ४. एक प्रकार का बाजा जिसका व्यवहार प्राचीन काल में होता था ।

गोपुटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची ।

गोपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य के पुत्र, कर्ण ।

गोपुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर का द्वार । शहर का फाटक । उ०—ऐसे कहत गए अपने पुर सबहिं विलक्षण देख्यो । मणिमय महल फटिक गोपुर लखि कनक भूमि अवरेख्यो ।— मूर (शब्द०) । २. किले का फाटक । ३. फाटक । दरवाजा । ४. स्वर्ग । गोलोक । ५. सुश्रुत के अनुसार वैद्यक शास्त्र के प्रणेता एक प्राचीन ऋषि ।

गोपुरीष
संज्ञा पुं० [सं०] गोमय । गोबर [को०] ।

गोपेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० गोपेन्द्र] १. श्रीकृष्ण । २. गोपों में श्रेष्ठ, नंद ।

गोप्ता (१)
वि० [सं० गोप्तृ] रक्षा करनेवाला । रक्षक ।

गोप्ता (२)
संज्ञा पुं० विष्णु ।

गोप्ता (३)
संज्ञा स्त्री० गंगा ।

गोप्य (१)
वि० [सं०] १. रक्षणीय । २. गोपनीथ [को०] ।

गोप्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नौकर । सेवक । २. दासीपुत्र [को०] ।

गोप्यक
संज्ञा पुं० [सं०] दास । नौकर [को०] ।

गोप्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह धन जो घर में छिपाकर रखने के लिये गिरवी रखा जाय ।

गोप्रचार
संज्ञा पुं० [सं०] चरागाह [को०] ।

गोप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] गौओं के चरकर लौट आने का समय । गोधूली । संध्या ।

गोफ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दास । सेवक । २. दासीपुत्र । ३. गोपियों का समूह । ४. रेहन या गिरवी का वह प्रकार जिसमें रेहन रखी हुई चीज के आयव्यय पर उसके स्वामी का ही अधिकार रहे और जिसके पास चीज रेहन रखी जाय वह केवल सूद लेने का अधिकारी हो । दृष्टबंधक ।

गोफ (२)
वि० १. गुप्त रखने योग्य । छिपाने लायक । २. रक्षा करने के योग्य । ३. छिपाया हुआ । गुप्त ।

गोफण
संज्ञा पुं० [हिं० गोफन] दे० 'गोफन' ।

गोफणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार फोड़े और जख्म आदि बाँधने का एक प्रकार का बंधन जिसका व्यवहार ठोड़ी, नाक, ओंठ और कंधे आदि को बाँधने के लिये होता है ।

गोफन
संज्ञा पुं० [सं० गोफण] खेत के आसपास पक्षियों को उड़ाने या मारने के लिये रस्सी के एक सिरे पर बुना हुआ छींके के आकार का एक जाल । ढेलवाँस । फन्नी । विशेष—इसमें ढेले, पत्थर, कंकड़ आदि भरकर रस्सी की सहा- यता से सिर के ऊपर चारों ओर घुमाते हैं और जिसमें से बड़े वेग से निकले हुए ढेले, कंकड़ आदि की बहुत तेज चोट लगती है । पहले कभी कभी छोटी मोटी लड़ाइयों में भी शत्रुओं पर मिट्टी आदि के गोले चलाने के लिये इसका व्यवहार होता था ।

गोफना
संज्ञा पुं० [सं० गोफण] दे० 'गोफन' ।

गोफा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फ] १. नया निकला हुआ मुँहबँधा पत्ता । जैसे,—केले, अरुई, सूरन आदि का गोफा । †२. एक हाथ की उँगलियों को दूसरे हाथ की उँगलियों के अंतर में ले जाकर गठना ।

क्रि० प्र०—जोड़ना ।

गोफा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गुफा] दे० 'गुफा' ।

गोब †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोभ] धँसान । चुभान । छेदन । वेधन ।

गोबछ पु
संज्ञा पुं० [सं० गोवत्स] गाय का बच्चा । बछड़ा । यौ०—गोबछपद = बछड़े के पैर रखने से बना हुआ गढ़ा । उ०—तिन कौं भवसागर भयौ ऐसौं । गोवछपद कौ पानी जैसौ ।—नंद ग्रं०, पृ० २२६ ।

गोबना
क्रि० अ० [हिं० गोव] चुसाना । छुभाना । छेदना । गड़ाना । खोंसना ।

गोबर
संज्ञा पुं० [सं० गोमल] गाय का विष्ठा । गौ का मल । मुहा०—गोबर करना = (१) गौ बैल आदि का विष्ठा त्याग करना । (२) गौ बैल आदि के नीचे का गोबर हटाना । (३) गोबर आदि से कंडे पाथना या इसी प्रकार का और कोई गंदा काम करना । गोबर खाना = प्रायश्चित्त करना । गोबर की चोंथ होना = (१) भद्दा और बेड़ौल होना । (२) जड़ और मूर्ख होना । गोबर पाथना = (१) हाथ से गोबर के कंडे बनाना अथवा इसी प्रकार का और कोई गंदा काम करना । (२) काम को बिगाड़ना । गोबर बीनना = ईंधन के लिये सूखा हुआ गोबर इकट्ठा करना ।

गोबरकढ़ा
वि० [गोबर + कढ़ा] [वि० स्त्री० गोबरकढ़िन] १. चौपायों का गोबर इकट्ठा करके उसे नियतस्थान पर पहुँचानेवाला सेवक । २. गोबर साफ करके उपले थापनेवाला ।

गोबरकढ़ाई, गोबरकढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोबर + कढ़ाई] १. गोबर काढ़ने या साफ करने का काम । २. गोबर काढ़ने की मजबूरी ।

गोबरगणेश
वि० [हिं० गोबर + गणेश] १. जो देखने में भला न मालूम हो । भद्दा । बदसूरत । २. मूर्ख । बेवकूफ । जो कुछ न कर सके ।

गोबरगनेश
वि० [हिं० गोबर + सं० गणेश] दे० 'गोबरगणेश' ।

गोबरधन पु
संज्ञा पुं० [सं० गोबर्धन] दे० 'गोवर्द्धन' । उ०—बहुज्यौ फिरि गोबरधन धरौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १६८ । यौ०—गोबरधनधारी = श्रीकृष्ण जी ।

गोबरहारा
संज्ञा पुं० [हिं० गोबर + हारा (प्रत्य०)] गोबर उठाने या पाथनेवाला नौकर ।

गोबराना †
क्रि० अ० [हिं० गोबर + आना (प्रत्य०)] गोबरी करना । गोमय से लीपना । २. कोई काम बिगाड़ना या नष्ट करना ।

गोबरिया
संज्ञा पुं० [हिं० गोबर] बछनाग की जाति का एक पौधा । विशेष—यह हिमालय पर गढ़वाल से लेकर नैपाल तक होता है । इसकी जड़ विष है ।

गौबरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोबर + ई (प्रत्य०)] १. कुंडा । उपला । गोहरा । गोहरी । २. गोबर का लेपन । गोबर की लिपाई । क्रि० प्र०—करना ।—फेरना । मुहा०—गोबरी फेरना—अन्न की राशि के चारों ओर गोबर का चिह्न डालना ।

गोबरी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] जहाज के पेंदे का छेद ।—(लश०) । मुहा०—गोबरी निकालना = जहाज के पेंदे में छेद करना ।

गोबरैला
संज्ञा पुं० [हिं० गोबर + ऐला या औला (प्रत्य०)] एक प्रकार का छोटा कीड़ा । विशेष—यह गोबर या इसी प्रकार की किसी दूसरी गंदी चीज में उत्पन्न होता और रहता है ।

गोबरौरा
संज्ञा पुं० [हिं० गोबर + औरा (प्रत्य०)] दे० 'गौबरैला' ।

गोबरौला
संज्ञा पुं० [हिं० गाबर + औला (प्रत्य०)] दे० 'गोबरौरा' ।

गोबिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बाँस । विशेष—यह आसाम की पहाड़ियों में अधिकता से होता है । यह देखने में सुंदर होता है और इसकी छाया सघन होती है । इसकी पत्तियाँ पशुओं के चारे के काम आती हैं और लकड़ी से जंगली लोग तीर, कमान और टोकरे बनाते हैं । अकाल के समय गरीब लोग इसके बीजों का भात भी बनाकर खाते हैं ।

गोबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोभी] दे० 'गोभी' ।

गोभ
संज्ञा पुं० [सं० गुम्फ या हिं० गाफा] पौधों का एक रोग । विशेष—इसमें पौधों की जड़ों में नए कल्ले निकल आते हैं जिससे पौधे दूर्बल हो जाते हैं । कोई कोई इसे गोभी भी कहते हैं ।

गोभ
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोंप या अनु०] किसी तेज नुकीले शस्त्र द्वारा चुभाव । धँसन ।

गोभना
क्रि० स० [हिं० गोभ] धँसना । चुभाना । गड़ाना । छेदना ।

गोभा पु
संज्ञा पुं० [हिं० गाभा] अंकुर । घास । उ०—पसु सुभाउ तैं लुबधे लोभा । चलि गए चरत चरत बन गोभा ।—नंद०, ग्रं०, पृ० २८७ ।

गोभिल
संज्ञा पुं० [सं०] सामवेदीय गृह्यसूत्र के रचयिता एक प्रसिद्ध ऋषि ।

गोभी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोजिह्वा (= बनगोभी) या गुम्भ (= गुच्छा)] एक प्रकार की घास, जिसके पत्ते लंबे, खरखरे, कटावदार और फूलगोभी के पत्तों के रंग के होतो हैं । गोजिया । बनगोभी । विशेष—इसमें पीले रंग के चक्राकार फूल लगते हैं और पत्तों के बीच में एक बाल निकलती है । इसे पशु बड़े चाव से खाते हैं । वैद्यक में यह शीतल, कडुई, हलकी, वातकारक और कफ, पित्त, खाँसी, रुधिरविकार, अरुचि, फोड़ा, ज्वर और सब प्रकार के विष का दोष दूर करनेवाली मानी गई है ।

गोभी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० कैबेज] एक प्रकार का शाक । विशेष—इसकी खेती इधर कुछ दिनों भारत में अधिकता से होने लगी है । वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता इसके क्षुप को रोई या सरसों की जाति का मानते हैं । यह तीन प्रकार की होती है—फूल गोभी, गाँठगोभी (दे० 'गाँठगोभी') और पातगोभी या करमकल्ला (दे० 'करमकल्ला') । फूलगोभी को साधारणतःगोभी ही कहते हैं । इसका डंठल, जो जमीन में गड़ा होता है, साधारण गन्ने के बराबर मोटा होता है और एक बालिश्त या इससे कुछ अधिक लंबा होता है । इसके ऊपर चारो ओर चौडे मोटे और बड़े पत्ते होते हैं जिनके बीच में बहुत छोटे छोटे मुँहबँधे फूलों का गुथा हुआ समूह रहता है । खिले हुए फूलोंवाली गोभी खराब समझी जाती है । यह कार्तिक के अंत तक तैयार हो जाती है और जाड़े भर रहती है । इसके फूल की तरकारी बनती है और मुलायम पत्तों का साग बनाया जाता है । यह सुखाकर भी पखी जाती है और दूसरी ऋतुओं में काम आती है । ३. पौधों का गोभ नामक एक रोग ।

गोभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] राजा [को०] ।

गोभुज
संज्ञा पुं० [सं० गोभुज्] राजा ।

गोभृत
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ ।

गोमंडल
संज्ञा पुं० [सं० गोमण्डल] १. पृथ्वीमंडल । २. गायों का समूह [को०] ।

गोमंडीर
संज्ञा पुं० [सं० गोमण्डीर] एक जलपक्षी [को०] ।

गोमंत
संज्ञा पुं० [सं० गोमन्त] १. सह्याद्रि के अंतर्गत एक पहाड़ी जहाँ गोमती देवी का स्थान है । यह सिद्धपीठ माना ाजाता है । २. कुत्ते पालने या बेचनेवाला ।

गोम
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. घोड़ों की एक भँवरी जो नाभि से ऊपर छाती की ओर रहती है । इसे लोग बहुत खराब समझते हैं । २. पृथ्वी । धरती । (डिं०) ।

गोमकंट पु
संज्ञा सं० [?] गोमुख । एक वाद्य विशेष । उ०—घननंक सघन घंट । किलकंट गोमकंट ।—पृ० रा० ६१ ।१८४१ ।

गोमाक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] डाँस । कुकुरौंछी [को०] ।

गोमगा
वि० [फा०] १. गोपनीय । न कहने लायक । २. जो स्पष्ट न हो । अस्पष्ट [को०] ।

गोमठ
संज्ञा पुं० [सं० गो + मठ] गोशाला । उ०—गोरि गोमठ पुरिलमही, पएरहु देवा एकठाम नही ।—कीर्ति०, पृ० ४४ ।

गोमतल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बढ़िया गाय । श्रेष्ठ गाय [को०] ।

गोमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी जो शाहजहाँपुर की एक झील से निकलकर सैदपुर के पास गंगा में मिली है । वाशिष्ठी । २. टिपरा (बंगाल) की एक छोटी नदी । ३. एक देवी जिनका प्रधान स्थान गोमंत पर्वत पर है । ४. एक वैदिक मंत्र । ५. ग्यारह मात्राओं का एक छंद । जैसे,—पुत्रबंधु पुत्रजे । राम ब्याह कै तिते । फेरि धाम आइए । चित्त मोद ढाइए ।

गोमतीशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमालय की वह चट्टान जिसपर पहुँचकर अर्जुन का शरीर गल गया था ।

गोमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार की मछली ।

गोमथ
संज्ञा पुं० [सं०] गोपालक । ग्वाला [को०] ।

गोमथ
संज्ञा पुं० [सं०] गौ का गू । उ०—गो गोमय चोको बिचित्र चित्र अति चावक ।—पृ० रा०, ६३ ।७० ।

गोमर
संज्ञा पुं० [हिं० गौ + मर (प्रत्य०)] गौ मारनेवाला । बूचर । कसाई । गोहिंसक । उ०—हा बल सिंधु लखन सुखदाई । परी तात गोमर कर गाई । विश्राम (शब्द०) ।

गोमल
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर ।

गोमा
संज्ञा पुं० [देश०] गोमती नदी ।

गोमता
संज्ञा स्त्री० [सं० गोमातृ] १. मातृतुल्य गोजाति । २. गोवंश की आदिमाता । ३. कश्यप की पत्नी जिसका नाम सुरभि था [को०] ।

गोमाया पु
संज्ञा पुं० [सं०गोमायु] दे० 'गोमायु' । उ०—उचित होय सो करिय करत लाजहिं नहिं मरियैं । बारन बृंद बिदारन बलि गोमायन डरियैं ।—नंद ग्रं०, पृ० २०६ ।

गोमायु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सियार । गीदड । श्रृगाल । उ०—(क) चल्यो भाजि गोमायु जंतु ज्यों लै केहरि कौ भाग । इतने रामचंद्र तहँ आए परम पुरुष बड़ भाग ।—सूर (शब्द०) । २. एक गंधर्व का नाम । ३. एक प्रकार का मेंढक (को०) । ४. गाय की खाल (को०) ।

गोभी
संज्ञा पुं० [सं० गोमिन्] १. श्रृगाल । सियार । गीदड़ । २. पृथ्वी ।—(डिं०) ।

गोमीन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

गोमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ का मुँह । मुहा०—गोमुख नाहर, गोमुख व्याध्र = वह मनुष्य जो देखने में बहुत ही सीधा पर वास्तव में बड़ा क्रूर और अत्याचारी हो । उ०—देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनि के न्याय ।—तुलसी (शब्द०) । २. बजाने का एक शंख जिसका आकार गौ के मुँह के समान होता है । उ०—गोमुख, किन्नरि, झाँझ, बीच बिच मधुर उपंगा ।—नंद ग्रं०, पृ० ३८३ । ३. नरसिंहा नाम का बाजा । उ०—एक पटह एक गोमुख एक आवझ एक झालरी । एक अमृत कुंडली रबाब भाँति सों दुरावे ।—सूर (शब्द०) । ४. गौ के मुख के आकार की वह थैली जिसमें माला रखकर जप करते हैं । गोमुखी । ५. नाक नामक जलजंतु । ६. योग का एक आसन । ७. एक प्रकार की सेंध जो गौ के मुँह के आकार की होती है । ८. टेढ़ा मेढ़ा घर । ९. ऐपन । १०. एक यज्ञ का नाम । ११. इंद्र के पुत्र जयंत के सारथी का नाम ।

गोमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊन आदि की बनी हुई एक प्रकार की थैली जिसमें हाथ रखकर जप करते समय माल फेरते हैं । इसका आकार गाय के मुँह का सा होता है । इसे जपमाली या जलगुथली भी कहते हैं । विशेष—जप करते समय माला को सबकी दृष्टि की ओट में रखने का विधान है; इसी लिये गोमुखी का व्यवहार होता है । २. गौ के मुँह के आकार का गंगोत्तरी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है । ३. राढ़ देश की एक नदी जिसे आजकल गोमुड़ कहते हैं । ४. घोडों की एक भँवरी जो उनके ऊपरी होठों पर होती है और जो अच्छी समझी जाती है ।

गोमुद्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा रहता था ।

गोमूढ़
वि० [सं० गोमूढ] बैल के समान मूर्ख [को०] ।

गोमूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] गाय का मूत्र [को०] ।

गोमूत्रक
संज्ञा [सं०] १. वैदूर्य मणि का एक भेद । २. गादायुद्ध का एक दाँव [को०] ।

गोमूत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके अक्षरों को पढ़ने में उस क्रम से चलते हैं, जिस क्रम से बैलों के मूतने से बनी हुई रेखा जमीन पर गई रहती है । विशेष—इस चित्रकाव्य के पढ़ने का क्रम यह है कि पहली पंक्ति का एक अक्षर पढ़कर फिर दूसरी पंक्ति का दूसरा, फिर पहली का तीसरा, फिर दूसरी का चौथा फिर पहली का पाँचवाँ और दूसरी का छठा और फिर आगे इसी क्रम से पढ़ते चलते हैं । ऐसी कविता के पद बनाने में यह आवश्यक होता है कि उनके पहले और दूसरे (और आवश्यकता पड़ने पर तीसरे, चौथे और पाँचवें, छठे आदि) चरणों के दूसरे, चौथे, छठे आठवें दसवें, बारहवें, चौदहवें और सोलहवें (और यदि चरण आधिक लंबा हो तो संमसंख्या पर पड़नेवाले सभी) अक्षर एक हों । इसे बरधामूतन भी कहते हैं । २. एक प्रकार की घास जिसके बीज सुगंधित होते हैं और जो औषध के काम में आती है । वैद्यक में इसे मधुर, वीर्यवर्धक और गौओं का दूध बढानेवाली कहा है । पर्या०—रक्ततृणा । क्षेत्रजा । कृष्णभूमिजा । ३. कौटिल्य कतित सर्पसारी नामक व्यूह । ४. पीतमणि जिसका रंग लाली लिए पीला होता है (को०) । ५. शीतल चीनी (को०) ।

गोमृग
संज्ञा पुं० [सं०] गवय । नीलगाय [को०] ।

गोमेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोमेदक मणि । २. शीतल चीनी । कबाब चीनी ।

गोमदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध मणि जिसकी गणना नौ रत्नों में होती है । उ०—हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमे— दकों के ।—प्रिय०, पृ० १३२ । विशेष—इसका रंग सुर्खी लिए हुए पीला होता है और यह हिमालय पर्वत तथा सिंधु नदी में पाई जाती है । जो दोष हीरे में होते हैं वे ही इसमें भी होते हैं । सुश्रुत के मत से इस मणि से गंदा जल बहुत शाफ हो जाता है । यह राहु ग्रह की मणि मानी जाति है, इसीलिये इसे राहुग्रह या राहुरत्न भी कहते हैं । पर्या०—राहुमणि । तमोमणि । स्वभीनव । लिंगस्फटिक । २. काकोल नामक विष जो काला होता है । ३. पत्रक नामक साग । ४. अंगराग लेपन (को०) ।

गोमेध
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमेध के ढंग का एक यज्ञ । विशेष—इसमें गौ से हवन किया जाता था । इसका अनुष्ठान कलियुग में वर्जित है । मनु के अनुसार ब्रह्महत्या के प्रायश्चित के लिये और गोभिल गृह्मसूत्र के अनुसार पुष्टि- कामना से इस यज्ञ का अनुष्ठान होता है । इसे गोसव यज्ञ भी कहते हैं ।

गोमेधक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोमेदक' । उ०—भर गया साँझ को लाजवर्द का नभ विशाल, घन पुष्पराग, गोमेधक, माणिकमणि प्रवाल ।—हंस०, पृ० ६२ ।

गोयँड़
संज्ञा स्त्री० [सं० गोष्ठ या हिं० गाँव + मेड़] गाँव के आस पास की भूमि । वि० दे० 'गोइँड़' ।

गोयँद पु
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्द] दे० 'गोविंद' । उ०—मनहर कौ गोयँद पूरै मन, जोडै़ कीरतसिंघ जसाबत ।—रा० रू०, पृ० १४२ ।

गोय
संज्ञा पुं० [फ़ा० या हिं० गोल] गेंद । उ०—चहुं दिस आया अलेपरत भानू । अब इहै गोय इहै मैदानू ।—जायसी (शब्द०) ।

गोयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोमेध' [को०] ।

गोयठा
संज्ञा पुं० [हिं० गोइँठा] दे० 'गोइँठा' । उ०—पीछे गोयठों के गंधमय अंबार ।—इत्यलम्, पृ० १६७ ।

गोया
क्रि० वि० [फ़ा०] मानो । जैसे,—आप तो ऐसी बातें करते हैं, गोया आप वहाँ थे ही नहीं । विशेष—फारसी में यह शब्द 'बोलनेवाले' या 'कहनेवाले' के अर्थ में भी आता है; पर हिंदी में इस का अर्थ में इस शब्द का प्रयोग शायद ही कहीं होता हो । उ०—तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४६२ ।

गोयान
संज्ञा पुं० [सं०] बैलगाड़ी [को०] ।

गोरंकु
संज्ञा पुं० [सं० गोरङ्कु] १. एक जलपक्षी । २. कैदी । ३. वस्त्रविहीन व्यक्ति । दिगंबर साधु । ४. मंत्रों का पाठ करनेवाला [को०] ।

गोरंगी पु
वि० स्त्री० [सं० गौराङ्गी] गौर वर्णवाली । गोरी । उ०—कूँझ बचाँ, गोरंगियाँ, खजर जेहा नेत ।—ढोला०, दू० ४५७ ।

गोर (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वह गड्ढा जिसमें मृत शरीर गाड़ा जाय । कब्र । उ०—फूलन सेज बिछावतें फिर गोर मुकामा ।— पलटू०, भा० ३, पृ० ९७ ।

गोर (२)
संज्ञा पुं० [अ० ग़ोर] [वि० गोरी] फारस देश के एक प्रांत का नाम । उ०—बहुरि गंजि गुजरात बहादुर इति काबिल उत गोर लेयाऊँ ।—अकबरी०, पृ० २७ ।

गोर (३)
वि० [सं० गौर] १. गोरा । उज्ज्वल वर्ण का । सफेद । उ०—जहाँ जैसो तहँ तैसो साहब लाल गोर कहुँ स्यामै ।— भीखा० श०, पृ० २ ।

गोरकन
वि० [फ़ा० गोर + कन] १. कब्र खोदनेवाला । २. बिज्जू । एक प्राणी जो मुर्दे खोदकर खा जाता है ।

गोरकनी
संज्ञा स्त्री [फ़ा०] कब्र खोदने का कार्य ।

गोरका
संज्ञा पुं० [देश०] अरयल नाम का वृक्ष जो दक्षिणी भारत में होता है ।

गोरक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्वाला । २. गोक्षरण । ३. नारंगी । ४. शिव [को०] ।

गोरक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गायों की रक्षा करनेवाला । गोपालक । २. ग्वाला [को०] ।

गोरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] गाय का चराना पालना और रखना [को०] ।

गोरक्षजंबू
संज्ञा पुं० [सं० गोरक्षजम्बू] १. गोधूम । २. गोरक्षतंडुला [को०] ।

गोरक्षतंडुला
संज्ञा स्त्री० [सं० गोरक्षतण्डुला] एक प्रकार की लता [को०] ।

गोरक्षतुंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोरक्षतुम्बी] दे० 'कुभतुंबी' [को०] ।

गोरक्षदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की झाड़ी [को०] ।

गोरक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोरक्षण । २. गाय को मारने से बचाना । यौ०—गोरक्षा आंदोलन = गोपालन करने और गोवध को बंद कराने का आंदोलन ।

गोरक्षी
वि० [सं० गोरक्षिन्] गायों की रक्षा करनेवाला । गोरक्षक [को०] ।

गोरख
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोरखनाथ' ।

गोरख प्रमली
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरख + इमली] एक प्रकार का बहुत बड़ा पेड़ जो मध्य तथा दक्षिण भारत में अधिकता से होता है । विशेष—इसका तना बहुत मोटा होता है और इसकी डालियाँ दूर दूर तक फैलती हैं । यह वृक्ष बहुत दिनों तक जीवित भी रहता है । इसकी लकड़ी कमजोर होती है और उसमें जल्दी कीडे़ लग जाते हैं । इसकी छाल बहुत मुलायम होती है और उसके रेशे से चटाइयाँ, रस्से और कहीं कपडे भी बनाए जाते हैं । सावन भादों में यह पेड़ फूलता है और इसमें कमल के आकार के बडे फूल लगते हैं । इसके फूलों में से पके हुए संतरे की सी सुगंध आती है । इसके हरएक सींके में सेमल की तरह के पाँच पाँच पत्ते होते हैं । अफ्रीका के निवासी इसके पत्तों का चूर्ण बनाकर भोजन के साथ खाते हैं । उनके कथनानुसार इसके खाने से पसीना नहीं मालूम होता और गर्मी कम मालूम होती है । इसमें छोटी लौकी के आकार के फल लगते हैं जिनके बीज दवा के काम आते हैं । ये बीज कई प्रकार के ज्वरों के लिये बहुत उपयोगी होते हैं और इनका बहुत बडा व्यापार होता है । वैद्यक के अनुसार यह मधुर, शीतल और दाह, वमन, पित्त, अतिसार तथा ज्वर को दूर करनेवाली है । इसे कल्पवृक्ष भी कहते हैं । वि० दे० 'कल्पवृक्ष'—२ ।

गोरखइमली
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरख + इमली] दे० 'गोरकअमली' ।

गोरखककड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरख + ककड़ी] वह ककड़ी जिसमें फूट होता है ।

गोरखडिब्बी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरक + डिब्बी] गरम या खनिज जल का कुंड या स्रोत ।

गोरकधंधा
संज्ञा पुं० [हिं० गोरख + धंधा] १. कई तारों, कड़ियों या लकड़ी के टुकड़ों इत्यादि का समूह । विशेष—इनको विशेष युक्ति से परस्पर जोड़ या अलग कर लेते हैं । इनके जोड़ने या अलग करने की क्रिया जटिल होती है । गोरखधंधे कई प्रकार के होते हैं । एक प्रकार का गोरकधंधा । गोरखपंथी साधु लिए रहते हैं जिसमें एक डंडे में बहुत सी कड़ियाँ जड़ी होती हैं । २. कोई ऐसी चीज या काम जिसमें बहुत झगड़ा या उलझन हो । झगड़ा । उलझन । पेंच ।

गोरखनाथ
संज्ञा पुं० [सं० गोरक्षनाथ] एक प्रसिद्ध अवधूत जो पंद्रहवीं शताब्दी में हुए थे । विशेष—ये बहुत सिद्ध माने जाते हैं और इसका चलाया हुआ संप्रदाय अबतक जारी है । गोरखपुर इनका प्रधान निवास— स्थान था और वहीं इन्होंने सिद्धि प्राप्त की थी ।

गोरखपंथ
संज्ञा पुं० [सं०] गोरखनाथ का चलाया हुआ संप्रदाय जिसे नाथ संप्रदाय भी कहते हैं ।

गोरखपंथी
वि० [हिं० गोरख + पंथी] गोरखनाथ का अनुगामी । गोरखनाथ के चलाए हुए संप्रदायवाला ।

गोरखमुंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरख + मुण्डी] प्रसर जाति की एक प्रकार की घास जिसमें उँगली के समान लंबे लंबे पत्ते होते हैं और घुँडी के समान गोल और गुलाबी रंग के फूल लगते हैं । विशेष—ये पुष्प रक्त शोधन के लिये बहुत ही गुणकारी होते हैं । वैद्यक के अनुसार यह चरपरी, कसैली, हलकी, बलकारक है तथा रक्तविकार के लोगों के लिये बहुत ही लाभ दायक है । इसे खाली मुंडी भी कहते हैं ।

गोरखर
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोरख़र] गधे की जाति का एक जंगली पशु जो गधे से बड़ा और घोडे़ से छोटा होता है । विशेष—यह पश्चिमी भारत तथा मध्य और पश्चिम एशिया में पाया जाता है । इसकी ऊँचाई प्रायः तीन हाथ और लंबाई पाँच छह हाथ तक होती है । इसका पेट सफेद और बाकी शरीर हिरन के रंग का होता है । इसके कान बडे़ और दुम पर रोएँ होती हैं । यह सदा चौकन्ना रहता है और बहुत तेज दौड़ता है । ये मैदानों में २५-२० का झुंड बना कर रहते हैं और इनके झुंड का एक सरदार भी होता है । ये प्रायः हरी घास और पत्तियाँ खाते हैं ।

गोरखा
संज्ञा पुं० [हिं० गोरख] १. नैपाल के अंतर्गत एक प्रदेश । २. इस देश का निवासी ।

गोरखाली (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोरखा] नैपाल के अंतर्गत गोरखा नामक प्रदेश ।

गोरखाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] नेपाल भाषा का एक नाम ।

गोरखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरख + ई (प्रत्य०)] दे० 'गोरख ककडी' ।

गोरचकरा
संज्ञा पुं० [देश०] सन की जाति का एक जंगली पौधा जिसके पत्ते घीकुआर की तरह चिकने और लंबे होते हैं । विशेष—अब यह पौधा बगीचों में शोभा के लिये भी लगाया जाने लगा है । इसका रेशा बहुत अच्छा होता है और प्राचीन काल में उससे धनुष की डोरी बनाई जाती थी । इसमें चोटे छोटे मीठे फल लगते हैं । इसका व्यवहार दवा में भी होता है । वैद्यक के अनुसार यह कडुआ, गरम, भारी दस्तावर और प्रमेह, कोढ़, त्रिदोष, रुधिरविकार तथा विषमज्वर को धूर करनेवाला है । इसे मूर्वा, मौर्वा या धनुर्गुण भी कहते हैं ।

गोरज
संज्ञा पुं० [सं०] गौ के खुरों से उड़ती हुई गर्द या धूल ।

गोरज्या पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गिरिजा] दे० 'गौरी' । उ०—ज्यूँ ईश्वर संग गोरज्या ।—बी० रासो, पृ० २७ ।

गोरटा
वि० पुं० [हिं० गोरा] [वि० स्त्री० गोरटी] गोरे रंगवाला । गोरा । उ०—डगकु डगति सी ठठकि चित चितई चली निहारि । लिये जात चित चोरटी वहै गोरटी नारि । बिहारी (शब्द०) ।

गोरड़ी पु
संज्ञा स्त्री० [गोर + ड़ी (प्रत्य०)] गोरी । सुंदरी । उ०—बारह बरस की गोरडी, कूँ समरयो उडसिउ जगं- नाथ ।—बी० रासो, पृ० ३४ ।

गोरण
संज्ञा पुं० [सं०] अध्यवसाय । उद्योग [को०] ।

गोरन
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा पेड़ जिसकी लकड़ी लाल रंग की और बहुत मजबूत होती है । विशेष—इसकी लकड़ी किश्तियाँ बनाने और इमारत के काम में आती है और छाल से चमड़ा सिझाया जाता है । यह वृक्ष सिंध तथा बंगाल में नदियों और समुद्र के किनारे की नम जमीन में अधिकता से होता है ।

गोरपरस्त
वि० [फ़ा०] १. कब्रपूजक । २. मुसलमानों का वह संप्रदाय जो महात्माओं की कब्रों का आदर करता है और उनपर चिराग जलाता तथा फूल चढ़ाता है ।

गोरया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान । विशेष—यह अगहन के महीने में तैयार होता है और इसका चावल बहुत दिनों तक रख सकते हैं ।

गोरल (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] गौरी । पार्वती । उ०—गोरल पूजन नवल किसोरी ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६५ ।

गोरव
संज्ञा पुं० [सं०] जाफरान । केसर [को०] ।

गोरवा
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बाँस । विशेष—इसकी छोटी छोटी टहनियों से हुक्के ते नैचे बनाए जाते हैं । २. नर गोरैया ।

गोरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूध । दुग्ध । २. दधि । दही । ३. तक्र । मठा । छाछ । ४. इंद्रियों का सुख । उ०—गोरस चाहत फिरत हो गेरस चाहत नाहिं ।—बिहारी (शब्द०) ।

गोरसर
संज्ञा पुं० [देश०] वह पतली कमाची जिसे बाँस के पंखों की डंडी के आसपास देकर बंधन से जकड़ देते हैं ।

गोरसा
संज्ञा पुं० [सं० गोरस] वह बच्चा जो गाय के दूध से पला हो ।

गोरसो
संज्ञा स्त्री० [सं० गोरस + ई (प्रत्य०)] दूध गरम करने की अँगीठी । बोरसी ।

गोरा
वि० [सं० गौर] सफेद और स्वच्छ वर्णवाला (मनुष्य) । जिसके शरीर का चमड़ा सफेद साफ हो । यौ०—गोरा भभूका = ललाई लिए गोरा । गोरा चिट्टा ।

गोरा (२)
संज्ञा पुं० गौरा वर्णवाला व्यक्ति; विशेषतः युरोप, अमेरिका आदि देशों का निवासी । फिरंगी ।

गोरा (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार की कल जो नील के कार- खानों में बट्टी काटने के लिये रहा करती है । २. एक प्रकार का नीबू जो लंबोतरा होता है ।

गोराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरा + ई या आई (प्रत्य०)] १. गोरापन । २. सुंदरता । सौंदर्य ।

गोराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारिका । मैना [को०] ।

गोराटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सारिका । मैना [को०] ।

गोराडू
संज्ञा पुं० [देश०] वह बालू मिली मिट्टी जिसमें कोदो बहुत उत्पन्न होता है । विशेष—यह गुजरात में बहुत होती है ।

गोराधार पु
क्रि० वि० [हिं० गोरा + धार] मूसलधार । उ०— थर थर कँपकति रहति आनँदघन बरसत गोराधारन ।—घना- नंद, पृ० ४९८ ।

गोरान
संज्ञा पुं० [अं० मैनग्रोव] चौरी नाम का वृक्ष जिसकी छाल से रंग निकाला और चमड़ा सिझाया जाता है ।

गोरामूँग
संज्ञा पुं० [हिं० गोरा + मूँग] एक प्रकार की जंगली मूँग जिसे दक्षिण में लोग अकाल के समय खाते हैं ।

गोरि (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोरी] दे० 'गोरी' । उ०—ओलिनि पुहुप पराग भरी रूप अनूपम गोरि ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८३ ।

गोरि (२)पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोर] दे० 'गोर' । उ०—गोरि गोमठ पुरिल मँही, पएरहु देवा एक ठाम नहीं ।—कीर्ति०, पृ० ४४ ।

गोरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोराटिका' [को०] ।

गोरिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गोरी' । उ०—गोरिया गरब करहु जिनि, अपने गोरे गात ।—संतवाणी०, भा० १, पृ० ११३ ।

गोरिल्ला
संज्ञा पुं० [अफ्रिका] चिपैजी की जाति का बहुत बडे़ आकार का एक प्रकार का बनमानुष । विशेष—इसके झुड अफ्रिका में पाए जाते हैं । इनके शरीर का चमड़ा काला, कान छोटे और हाथ बहुत लंबे होते हैं । इसकी । ऊँचाई प्रायः साढे़ पाँच फुट होती है और इसके शरीर में बहुत बल होता है । यह फल आदि खाता और पेडों पर बडे़ बडे़ झोपडे़ बनाकर रहता है । इसकी आवाज साधारण भूँकने की सी होती है; पर यदि इसे छेड़ा या दिक किया जाय, तो यह बहुत जोर से चिल्लाने लगता है । इसके शरीर की बनाबट मनुष्य से बहुत कुछ मिलती होती है ।

गोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] सुंदर और गौर वर्ण की स्त्री । रूपवती स्त्री । उ०—हेरितहि दीठि चिन्हसि हरि गोरी ।— विद्यापति०, पृ० २०९ ।

गोरी (२)
वि० [फ़ा० गोरी] गोर निवासी । गोर का बाशिंदा ।

गोरी (३)
संज्ञा पुं० गोर निवासी व्यक्ति । शहाबुद्दीन गोरी ।

गोरीसर
संज्ञा पुं० [सं०] लालसा । उशवा ।

गोरुत
संज्ञा पुं० [सं०] दो कोस की दूरी की एक माप (को०) ।

गोरू
संज्ञा पुं० [सं० गो] १. सींगवाला पशु । गाय, बैल, भैंसइत्यदि चौपाया । मवेशी । २. दो कोस का मान ।—(डिं०) । ३. गाय ।

गोरूप
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव ।

गोरोच
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल ।

गोरोचन
संज्ञा पुं० [सं०] पीले रंग का एक प्रकार का सुगंधद्रव्य जो गौ के हृदय के पास पित्त में से निकलता है । उ०—(क) तिलक भाल पर परम मनोहर गोरोचन को दीनों ।—सूर (शब्द०) । (ख) चुपरि उबटि अन्हवाई कै नयन आजे रचि रचि तिलक गोरोचन को कियो है ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—यह अष्टगंध के अतर्गत है और बहुत पवित्र माना जाता है । कभी कभी यह लड़कों की घोंटी में भी पड़ता है और इसका तिलक लगाया जाता है । तांत्रिक इसे मंगलजनक, कांतिदायक, दरिद्रतानाशक और वशीकरण करनेवाला मानते हैं । वैद्यक में इसे शीतल, कडुआ और विष, उन्माद, गर्भस्रव, नेत्ररोग, कृमि, कुष्ठ और रक्तविकार को दूर करनेवाला माना गया है । कुछ लोगों का विश्वास है कि यह गौ के मस्तक का पित्त है; अथवा गौ में इसे उत्पन्न करने के लिये उसको बहुत दिनों तक केवल आम की पत्तियाँ खिलाकर रखते हैं । जिससे उसको बहुत कष्ट होता है; पर ये बातें ठीक नहीं हैं ।

गोरोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरोचन नामक सुगंधद्रव्य ।

गोर्खा
संज्ञा पुं० [हिं० गोरखा] दे० 'गोरखा' ।

गोर्खाली
वि०, स्त्री [हिं० गोरखाली] दे० 'गोरखाली' ।

गोर्द
संज्ञा पुं० [सं०] मस्तिष्क [को०] ।

गोर्ध
संज्ञा पुं० [सं०] मस्तिष्क [को०] ।

गोलंदाज
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोलंदाज] तोप में गोला रखकर चलनेवाला । तोप में बत्ती देनेवाला ।

गोलंदाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गोलंदाजी] गोला चलाने का काम या विद्या ।

गोलंबर
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + अंबर] १. गुंबद । गुंबद के आकार का कोई गोल ऊँचा उठा हुआ पदार्थ । ३. गोलाई । ४. कलबूत जिसपर रककर टोपी सीते हैं । कालिब । ५. बगीचे में बना हुआ गोल चबूतरा या रविश ।

गोलंमदाज—पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोलंदाज] दे० 'गोलंदाज' । उ०— गोलंमदाज तब करि सलाँम । दागी सुतौप लखि ताव ताँम ।—ह० रासो, पृ० १०८ ।

गोल (१)
वि० [सं०] जिसका घेरा या परिधि वृत्ताकार हो । चक्र के आकार का । वृत्ताकार । जैसे,—पहिया, अँगूठी, सिक्का इत्यादि । ऐसे धनात्मक आकार का जिसके पृष्ठ का प्रत्येक विंदु उसके भीतर के मध्य विंदु से समान अंतर पर हो । सर्ववर्तुल । अंडाकार । गेंद, नीबू, बेल आदि के आकार का । यौ०—गोल गोल = (१) स्थूल रूप से । मोटे हिसाब से । (२) अस्पष्ट रूप से । साफ साफ महीं । जैसे,—यों ही गोल गोल समझाकर लह चला गया; साफ खुला नहीं । गोल बात = अस्पष्ट बात । ऐसी बात जिससे अर्थ का कुछ आभास मिले पर वह स्पष्ट न हो । गोलमगोल = दे० 'गोल गोल' । गोल मटोल = (१) दे० 'गोल गोल' । (२) मोटा और ढिंगना । नाटा और मोटा । गुलगुथना । (३) ऊँचाई के हिसाब से जिसकी चौड़ाई बहुत अधिक हो गोल । मोल = दे० 'गोल गोल' । मुहा०—गोल होना = (१) चुप हो रहना । मौन हो जाना । (२) गायब होना । बिना जानकारी कराए चल देना ।

गोल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंडलाकार क्षेत्र । वृत्त । २. गोलाकार पिंड । गोला । सर्ववर्तुल पिंड । वटक । ३. गोला यंत्र । ४. विधवा का जारज पुत्र । ५. मुर नाम की ओषधि । ६. मदन नाम का वृक्ष । मैनफल का पेड़ । ७. एक देश का नाम जिसके अंतर्गत योरप का बहुत सा भाग विशेषतः उत्तरी इटली और फ्रांस, बेलजियम आदि थे । विशेष—यह शब्द रोमन भाषा या लैटिन से हेमचंद्र के परिशिष्ट पर्वण में आया है । ८. मिट्टी की गोल घड़ा ।

गोल (३)
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोल । सं० गोल(= मंडल)] मंडली । झुंड । समूह । मुहा०—गोल बाँधना = मंडली या झुंड बनाना ।

गोल (४)
संज्ञा पुं० [सं० गोल (योग)] गड़बड़ । गोलमाल । उपद्रव । खलबली । हलचल । यौ०—गोलमाल । मुहा०—गोल पारना या डालना = गड़बड़ मचाना । हलचल मचाना । उ०—ऊधो सुनत तिहारो बोल । ल्याओ हरि कुशलात धन्य तुम घर घर पारयो गोल ।—सूर (शब्द०) ।

गोल (५)
संज्ञा पुं० [अं०] १. हाकी, फुटबाल आदि खेलों में वह स्थान जहाँ गेंद पहुँचा देने से विरोधी पक्ष की जीत हो जाती है । २. उक्त प्रकार से होनेवाली जीत । क्रि० प्र०—करना ।—बनाना ।—मारना ।—होना । यौ०—गोलकीपर—गोल बचाने के लिये नियुक्त खिलाड़ी ।

गोलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोलोक । २. गोलपिंड । ३. विधवा का जारज पुत्र । ४. मिट्टी का बड़ा कुंडा । ५. फूलों का निकला हुआ सार । इत्र । ६. आँख का डेला । उ०—(क) अति उनींद अलसात कर्मगति गोलक चपल सिथिल रछु थोरे ।— सूर (शब्द०) । (ख) जोगवहिं प्रभु सिय लकनहिं कैसे । पलक बिलोचन गोलक जैसे ।—तुलसी (शब्द०) । ७. आँख की पुतली । उ०—उनके हित उनहीं बने कोऊ करौ अनेक । फिरत काक गोलक भयौ दुहूँ देह ज्यों एक ।—बिहारी (शब्द०) ८. गुंबद । उ०—बिसुकरमा मनु मनि खंभ पै उडगण को गोलक धरयो ।—गोपाल (शब्द०) । ९. वह संदूक या थैली आदि जिसमें किसी विशेष कार्य के लिए थोड़ा थोड़ा धन संग्रह करके रखा जाय । फंड । ११. वह संदूक या थैला जिसमें बिक्री, कर द्वारा या और किसी प्रकार से आई हुई रोजाना आमदानी रखी जाती है । गल्ला । गुल्लक ।

गोलकलम
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + कलम] एक प्रकार की छेनी जो चाँदी के पत्तर पर की नक्काशीं में पत्ती उभारने के काम में आती है ।

गोलकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोल + कली] एक प्रकार का अंगूर जो दक्षिण और मध्यप्रदेश में होता है ।

गोलगप्पा
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + अनु० गप्प] घी में तली एक प्रकार की महीन और करारी फुलकी जिसे खटाई के रस में डुबोकर खाते हैं ।

गोलडाँ पु
संज्ञा पुं० [सं० गोल (= जारज)?] गुलाम । उ०— गाडभरिया गोलणाँ, सूनो सदन सुरंग ।—बाँकी ग्र, भा० ३. पृ० २० ।

गोलपंजा
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + पंजा] बिना मुड़ी नोक का जूता । मुंडा जूता ।

गोलपत्ता
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + पत्ता] गुल्गा नामक ताड़ का पत्ता जो सुंदरबन में होता है । दे० 'गुल्गा' ।

गोलफल
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + फल] गुल्गा नामक ताड़ का फल जो सुंदरबन में होता है । दे० 'गुल्गा' ।

गोलमाल
संज्ञा पुं० [सं० गोल (= योग)] गड़बड़ । अव्यवस्था । क्रि० प्र०—करना ।—डालना ।—मचाना ।

गोलमिर्च
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोल + सं० मरिच] काली मिर्च ।

गोलमुहाँ
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + मुहँ] कसेरों की एक प्रकार की हथौड़ी जिसका अगला भाग बिलकुल गोल होता है और जिससे बरतन गहरा किया जाता है ।

गोलमेज कान्फरेन्स
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोल + मेज + अं० कान- फरेंस] दे० 'राउंड टेबुल कान्फरेन्स' ।

गोलमेथी
संज्ञा स्त्री० [गोल + मोथा] मोथे की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह उत्तरी भारत में कुमाऊँ से बरमा तक, तथा अफ्रीका और अमेरिकी में होता है । इसके डंठलों से चटाइयाँ बनती हैं । इसे बेढुआ भी कहते हैं ।

गोलयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० गोलयन्त्र] वह यंत्र जिससे सूर्य, चंद्र, पृथिवी आदि की स्थिति, नक्षत्रों की गति और अयन परिवर्तन आदि जाने जाते हों । विशेष—प्रचीन कील में यह यंत्र प्रायः बाँस की तीलियों आदि सो बनाया जाता था ।

गोलयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में एक योग जो एक राशि में किसी के मत से छह और किसी के मत से सात ग्रहों के एकत्र होने से होता है । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार इसका फल दुर्भिक्ष और राष्ट्र तथा राजाओं का नाश है । २. गडबड । गोलमाल ।

गोलर
संज्ञा पुं० [सं०] कसेरू ।

गोलरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत लंबा और सुंदर पेड़ जो हिमालय पर्वत पर तीन हजार फुट की ऊँचाई तक होता है । विशेष—इसकी छाल चिकनी और सफेद तथा हीर की लकड़ी चमकीली और बहगुत कड़ी होती है । इसके पत्तों से चमड़ा सिझाया जाता है और लकड़ी से नावें, हजार और खेती के औजार बनाए जाते हैं ।

गोललट्टू
संज्ञा पुं० [हिं० गोल + लट्टू] जहाज के मस्तूल के सिरे पर की एक गोल लकड़ी जिसपर से पाल की रस्सियाँ खींची जाती हैं ।—(लश०) ।

गोलवाल पु
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठपाल] गायों के समूह का पालक । गोस्वामी । उ०—बुल्लाय जैत सिय गोलवाल । तुम भूमि पास नागरह चाल ।—पृ० रा०, १ ।३८० ।

गोलविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष विद्या का वह अंग जिससे पृथ्वी की गोलाई, आकार, विस्तार, चाल, ऋतुपरिवर्तन आदि बातें जानी जायँ । आकाश के गोल पिंडों का हाल चाल जानना भी इसी के अंतर्गत हैं ।

गोलांगुल
संज्ञा पुं० [सं० गोलाङ्गुल] दे० 'गोलांगूल' [को०] ।

गोलांगूल
संज्ञा पुं० [सं० गोलाङ्गूल] एक प्रकार का बंदर जिसकी पूँछ गौ की पूँछ के समान होती है ।

गोला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० गोल] १. किसी पदार्थ का कुछ बड़ा गोल पिंड । जैसे,—लोहे का गोला, रस्सी का गोला, भाँग का गोला । मुहा०—गोला उठाना = एक प्रचीन प्रथा जिसमें लोग अपनी सत्यता प्रमाणीत करने के लिये जलता हुआ आग का गोला हाथ में उठा लिया करते थे, और यदि उनका हाथ न जलता था तो वे निर्दोष समझे जाते थे । २. लोहे का वह गोला पिंड जिसमें बहुत सी छोटी छोटी गोलियाँ, मेखें आदि भरकर युद्ध में तोपों की सहायता से शत्रुओं पर फेंकते हैं । उ०—ढाहे महीधर शिखर कोटिन्ह विविध विधि गोल चले ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—चलाना ।—छोडना ।—फेंकना ।—बरसाना । विशेष—तोपों के आधुनिक गोले केवल गोल ही नहीं बल्कि लंबे भी बनते हैं । ३. एक प्रकार का रोग जिसमें थोड़ी थोड़ी देर पर पेट के अंदर नाभि से गले तक वायु का एक गोला आता जाता जान पड़ता है; और जिसमें रोगी को बहुत अधिक कष्ट होता है । वायुगोला । ४. खंभों के सिरों पर का कुछ चौड़ा गढ़ा हुआ भाग । ५. दीवार के ऊपर की लकीर जो शोभा के लिये बनाई जाती है । ६. भीतर से खोखला किया हुआ बैल का फल या उसी आकार का काठ आदि का बना हुआ और कोई पदार्थ जो सुँघनी, भभूत या इसी प्रकार की और कोई बुकनी रखने के काम में आता है । ७. मिट्टी, काठ आदि का बना हुआ वह गोलाकार पिंड जिसके ऊपर रखकर पगड़ी बाँधते हैं । ८. जंगली हबूतर । ९. नारियल का वह भाग जो ऊपर की जटा छीलने के बाद बच रहता है । गरी का गोला । १०. वह बाजार या मंड़ी जहाँ अनाज या किराने की बहुत बड़ी बड़ी दूकानें हों । ११. घास का गट्ठर । १२. लकड़ी का गोल पेटे का सीधा लंबा लट्ठा जो छाजन में लगाने तथा दूसरे कामों में आता है । काँड़ी । बल्ला । १३. रस्सी, सूत आदि की गोल लपेटी हुई पिंडी । १४. एक प्रकार का जंगली बाँस जो पोला नहीं होता और छड़ी या लाठी बनाने के काम में आता है ।मुहा०—गोला लाठी करना = लड़कों के हाथ पैर बाँधकर दोनों घुटनों के बीच डंड़ा ड़ालना । विशेष—यह दंड मौवबी मकतबों में लड़कों को दिया करते हैं । १५. एक प्रकार का बेंत जो बंगाल और आसाम में होता है । विशेष—यह बहुत लंबा और मुलायम होता है तथा टोकरे आगदि बनाने के काम में आता है । १६. गुलेल से चलाया जानेवाला गेला या बड़ी गोली । उ०— गोला लगै गिलोल गुरु, छटै म तौ इसरार ।—पृ० रा०, ६ ।१६० ।

गोला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोदावरी नदी । २. सहेली । सखी । ३. मंडल । ४. किसी चीज की छोटी गोली । ५. दुर्गा ।

गोला पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० गोला जारज०] गुलाम । दास । उ०— गोला सूँ कीजे गुसट, ऊभी गिनका आँण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३ ।

गोलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोला + आई (प्रत्य०)] गोल का भाव । गोलापन ।

गोलाकार
वि० [सं०] जिसका आकार गोल हो । गोल शक्लवाला ।

गोलाकृति (१)
वि० [सं०] गोलाकार ।

गोलाकृति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोल + आकृति] किसी वस्तु के गोल होने की स्थीति या भाव ।

गोलाधार
वि० [हिं० गोल + धार] मूसलाधार । गोराधार ।

गोलाध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] भास्कराचार्य का एक ग्रंथ जिसमें भूगोल ओर खगोल का वर्णन है ।

गोलाबारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोला + फा़० बारी] तोप से होनेवाली गोलों की वर्षा । उ०—रात भर बिकट, तीक्ष्ण, भीषण गोलाबारी किले और बाहार पर की बुर्जों पर से हुई ।— झाँसी०, पृ० ४०६ ।

गोलाबारूद
संज्ञा स्त्री० [गोला + फा़० बारूद] १. तोप के गोले और बारूद । २. युद्धसामग्री ।

गोलार्ध
संज्ञा पुं० [सं० गोलार्द्ध या गोलार्ध] पृथ्वी का आधा भाग जो एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक उसे बीचो बीच काटने से बनता है ।

गोलास
संज्ञा पुं० [सं०] कुकुरमुत्ता । छत्रक [को०] ।

गोलासन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तोप [को०] ।

गोलिंग
संज्ञा पुं० [सं० गोंलिंङ्ग] कौटिल्य कथित प्राचीन काल की एक प्रकार की गाड़ी ।

गोलियाना †
क्रि० स० [हिं० गोल] १. किसी चीज को गोल आकार का करना या बनाना । किसी पिंड या तूदे से छोटी छोटी गोलियाँ बनाना । २. सम पक्ष के लोगों को एक करना । गोल बाँधना ।

गोली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोला का स्त्री० और अल्पा०] १. किसी चीज का छोटा गोलाकार पिंड । वटिया । जैसे,— सूत की गोली, अफीम की गोली, खेलने की गोली । २. औषध की वटिका । बटी । क्रि० प्र०—खाना ।—खिलाना ।—देना । ३. मिट्टी, काँच आदि का बना हुआ वह छोटा गोला पिंड जिसे बालक खेलते हैं । क्रि० प्र०—खेलना ।—मारना ।—लगाना । ४. गोली का खेल । ५. पशुओं का एक रोग । ६. पीले या बादामी रंग की गाय । ७. मदक की गोली जो अफीम से तैयार की जाती है और जिसे तंबाकू की तरह पीते हैं । ८. सीसे आदि का ढला हुआ वह गोल पिंड जो बंदूक में भरकर घायल करने या मारने के लिये चलाया जाता है । क्रि० प्र०—चलना ।—चलाना ।—छोड़ना ।—मारना ।— लगाना । मुहा०—गोली खाना = बंदूक की गोली का आघात सहना । गोली बचाना = किसी संकट या आपति से धूर्ततापूर्वक अपना बचाव करना । विपत्ति के स्थान से या अवसर पर टल जाना । गोली मारते हैं = उपेक्षापूर्वक छेड़ देते हैं । तुच्छ समझकर ध्यान छोड़ देते हैं । मिलने न मिलने या होने न होने की परवा नहीं करते हैं । जैसे—ऐसी नौकरी को हम गोली मारते हैं । गोली मारो = उपेक्षापूर्वक छोड़ दो । तुच्छ समझकर ध्यान छोड़ दो । मिलने न मिलने या होने न होने की परवा न करो । जाने दो । दूर हटाओ । जैसे,—अजी गोली मारो, ऐसे रोजगार में क्या रखा है । ९. मिट्टी की गोल ठिलिया । छोटा घड़ा ।

गोली पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोला] दासी । सेविका । उ०— छोट सी भैस सोहनै सींगनि, टहलि करनि को गोली जू ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३३७ ।

गोलीय
वि० [सं०] १. गोल विषयक । २. खगोल भूगोल आदि । से संबंधित [को०] ।

गोलैंदा †
संज्ञा पुं० [देश०] महुए का फल । कोइँदा ।

गोलोंक
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु या कृष्ण का निवासस्थान । विशेष—यह पुराणनुसार ब्रह्मांड में सब लोकों से ऊपर माना जाता है । अनेक पुराणों में यह लोक बहुत ही मनोहर और रम्य बतलाया गया है । तंत्र के अनुसार वैकुंठ के दक्षिण ओर गोलोक है । २. स्वर्ग । ३. ब्रजभूमि ।

गोलकवास
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्गवास । देहांत [को०] ।

गोलोकेम
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण चंद्र ।

गोलोचन
संज्ञा पुं० [सं० गोरोचन] दे० 'गोरोचन' ।

गोलोभिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या । २. सफेद दूब । ३. एक झाड़ी । कर्चूर । आमाहल्दी [को०] ।

गोलोभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोलोभिका' [को०] ।

गोलोवा †
संज्ञा पुं० [हिं० गोल] बड़ा दौरा । टोकरा । खाँचा ।

गोल्ड
संज्ञा पुं० [अं०] सोना । स्वर्ण ।

गोल्डन
वि० [अं० गोल्डेन] १. सोने का । २. सोने के रंग का । सुनहरा ।

गोल्फ
संज्ञा पुं० [अं० गोल्फ या गोफ] एक प्रकार का अँगरेजी खेल जो डंडे और गेंदों से खेला जाता है ।

गोवँद पु
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्द] दे० 'गोविंद' । उ०—नाम गोवँद थयौ नमाँ नँदराय नंद ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२४ ।

गोवध
संज्ञा पुं० [सं०] गौ को मारना । गौ की हत्या । गोहिंसा । यौ०—गोवधनिषेध, गोबधबंदी = गो की हत्या बंद करना ।

गावना पु
क्रि० स० [सं० गोपन, प्रा० गोवण] दे० 'गोना' । उ०—गोवन गोवत गोइ धरयो धन, खोवत खोवत तैं सब खोयो ।—संतवाणी, भा० २, पृ० १२४ ।

गोवर
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर का चूर्ण [को०] ।

गोवरधन
संज्ञा पुं० [सं० गोवर्धन] दे० 'गोवर्द्धन' । उ०—गोवरधन आजानुभुज, साँम सुजाव सगाह । श० रू० पृ० १२३ ।

गोवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्री वृंदावन का एक पर्वत जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि उसे एक बार वर्षा होने पर श्रीकृष्ण ने अपनी उँगली पर उठाया था । यौ०—गोवर्द्ध नधर, गोवर्द्ध नधारण, गोवर्द्ध नधारी = श्रीकृष्ण । २. मथुरा जिले के अंतर्गत एक प्रचीन नगर और तीर्थ ।

गोवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोवर्द्धन' ।

गोवल
संज्ञा पुं० [सं० गोपाल, प्रा० गोवाल] ग्वाला । गोप । उ०—सुर नर मोहइ देवता जिमि गोवल माँहि सोवइ गोव्यंद ।—बी० रासो० पृ० ७ ।

गोवलिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाला] ग्वालिन । उ०—और नाम रूप नहिं गोवलियो, 'तुका' प्रभु माखनखाया ।—दक्खिनी०, पृ० १०४ ।

गोवाना पु
क्रि० स० [हिं० गोवना का प्रे० रूप] छिपाने के लिये प्रेरित करना । छिपवाना । ढकवाना । उ०—लै माटी कलबूत बनाया । अब खाक आतिश गोवाया ।—प्राण०, पृ० ७४ ।

गोविंद
संज्ञा पुं० [सं० गोपेंद्र या गोविन्द, पा० गोविंद] १. श्रीकृष्ण २. वेदांतवेत्ता । तत्वज्ञ । ३. बृहस्पति । ४. शंकराचार्य के गुरु का नाम । ५. सिक्खों के दस गुर्ओं में से एक । ६. परब्रह्म । ७. गोशाला या गौओं का अध्यक्ष ।

गोविंदद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं० गोविन्दद्वादशी] फागुन महीने के उजाले पक्ष का बारहवाँ दिन । फाल्गुन शुक्ल द्वादशी ।

गोविदपद
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्दपद] मोक्ष । निर्वाण ।

गोविंदपाद, गोविंदपादचार्य
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्दपाद, गोविन्द- पादचार्य] शंकराचार्य के गुरु [को०] ।

गोवि
संज्ञा पुं० [सं०] संकीर्ण राग का एक भेद ।

गोविसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] तड़का । भोर [को०] ।

गोविथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा के मार्ग का वह अंश जिसमें भाद्रपद, रेवती ओर अश्विनी तथा किसी किसी के मत से हस्त, चित्रा ओर स्वाती नक्षत्रों का समूह है ।

गोवैद्य
संज्ञा पुं० [सं०] नीम हकीम । अज्ञानी वैद्य [को०] ।

गोव्याधि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम ।

गायों गोव्रज
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोशला । गोठ । २. गोसमूह । ३. गायों के चरने का स्थान । चरागाह ।

गोव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जो गोहत्या के प्रयश्चित्त के लिये किया जाता है और जिसमें बराबर किसी गौ के पीछे पीछे घूमना और केवल गाय का दूध पीकर रहना पड़ता है ।

गोव्रद्धन पु
संज्ञा पुं० [सं० गोवर्द्धन] दे० 'गोवर्द्धन' । उ० उप्पारि सस्त्र गोव्रद्धनह । निप रखि वज्री जेम कल ।— पृ० रा०, ६७ ।१३०४ ।

गोश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] सुनने की इंद्रिय । कान ।

गोशकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] गोबर [को०] ।

गोशगुजार
वि० [फ़ा० गोशगुजार] १. काहा हुआ । २. प्रार्थित ।

गोशपेच
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कान में पहनने का जेवर ।

गोशम
संज्ञा पुं० [हिं० कोसम] दे० 'कोसम' ।

गोशमायल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] पगड़ी में एक ओर लगा हुआ मोतियों की लड़ी का वह गुच्छा जो कान के पास लटकता रहता है ।

गोशमाली
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. कान उमेठना । २. ताड़ना । कडी चेतावनी । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।

गोशवारा
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. खंजन नामक पेड़ का गोंद । विशेष—यह मस्तगी का सा होता है और मस्तगी ही की जगह काम में आता है । २. कान का बाल । कुंडल । ३. बड़ा मोती जो सीप में अकेला हो । ४. कलाबत्तू से बुना हुआ पगड़ी का आँचल । ५. तुर्रा । कलगी । सिरपेच । ६. जोड़ । मीजान । ७. वह संक्षिप्त लेखा जिसमें हर एक मद का आयाव्यय अलग अलग दिखलाया गया हो । ८. रजिस्टर आदि में खानों के ऊपर का वह भाग जिसमें उन खानों का नाम लिखा रहता है ।

गोशा
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोशह] १. कोना । अंतराल । कोण । २. एकांत स्थान । जहाँ कोई न हो । तनहाई । ३. तरफ । दिशा । ओर । ४. कमान की दोनों नोकें । धनुष की कोटि । कमान का सिरा ।

गोशानशीन
वि० [फ़ा० गोशहनशीन] एकांतवासी । घर गृहस्थी से विरक्त ।

गोशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] गौओं के रहने का स्थान । गोष्ठ ।

गोशि पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोश] दे० 'गोश' । उ०—गोशि बातिन हो कुशादा जो करे कुछ दिन अमल ।—तुरसी श०, पृ० ५ ।

गोशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम । २. उक्त पर्वत पर होनेवाला चंदन । ३. एक प्रकार का अस्त्र ।

गोशृंग
संज्ञा पुं० [सं० गोश्रृङ्ग] १. एक पर्वत जिसका वर्णन रामायण और महाभारत में आया है । २. एक ऋषि का नाम । ३. बबूल की पेड़ ।

गोश्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] मांस । आमिष ।

गोषरा † पु
संज्ञा पुं० [सं० गोशाला] गोशाला । पशुशाला । उ०—चंद बिन रेनि जैसे पुत्र बिन परिवार दारा बिन ग्रह जैसे गऊ बिन गोषरा ।—अकबरी०, पृ० ५३ ।

गोष्टि पु
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] साथी । संगी । मित्र । उ०—काहु न जीतै गोष्टि सो मेरा ।—कबीर सा०, पृ० ४२२ ।

गोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौओं के रहने का स्थान । गोशाला । २. किसी जाति के पशुओं के रहने का स्थान । जैसे,—महिष गोष्ठ, अश्वगोष्ठ । ३. मनु के अनुसार एक प्रकार का श्राद्ध जो कई व्यक्ति एक साथ मिलकर करते हैं । ४. परामर्श । सलाह । ५. दल । मंडली । ६. अहीरों का गाँव (को०) ।

गोष्ठपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रधान ग्वाला । ग्वालों का सरदार । २. गोष्ठ का स्वामी [को०] ।

गोष्ठशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ कोई सभा हो । सभाभवन ।

गोष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वहुत से लोगों का समूह । सभा । मंडली । २. वार्तालाप । बातचीत । ३. परामर्श । सलाह । ४. एक ही अंक का वह रूपक या नाटक जिसमें पाँच या सात स्त्रियाँ और नौ या दस पुरुष हों ।

गोष्पद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौओं के रहने का स्थान । गोष्ठ । २. गो के खुर के बराबर गड्ढा । उ०—पार जिया मकरालय मैंन उसे एक गोष्पद सा मान ।—साकेत, पृ० ३८८ । ३. प्रभास क्षेत्र के अंतर्गत एक तीर्थ ।

गोसंख्य
संज्ञा पुं० [सं० गोसङ्ख्य] गाय चरानेवाला ग्वाला [को०] ।

गोस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का झाड़ जिसमें से गोंद निकलता है । २. प्रातःकाल से दो घड़ी पहले का समय । प्रभात । तड़का । ३. ग्रीष्म ऋतु (को०) । ४. लोबान (को०) । यौ०—गौसमूह = भीतरी कक्ष ।

गोस (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोशा ?] हवा लगने के लिये चलते हुए जहाज का रुख कुछ तिरछा करना । माँच ।—(लश०) ।

गोस (३)पु
संज्ञा पुं० [हिं० गुस्सा, गुसा] दे० 'गुस्सा' । उ०— बचन मेचि मैं कहौं गरज बसि दरदवंद प्रभु करौ न गोसो ।—भीखा श०, पृ० २९ ।

गोसई
संज्ञा स्त्री० [देश०] कपास के पौधों का एक रोग जिसमें उनका फूलना बंद हो जाता है ।

गोसट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौष्ठ] गोष्ठी । संग । साथ । उ०—भगतन सेटी गोसटे जो कीने सो लाभ ।—कबीर ग्रं०, पृ० २५० ।

गोसठि पु
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठि] दे० 'गोष्ठ' । उ०—दई गऊ बाह्मन की आई । सो गोसठि में आना समाई ।— घट०, पृ० १३१ ।

गोसदृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] गवय । नीलगाय [को०] ।

गोसमाल
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोशमायल] दे० 'गोशमायल' । उ०— दादू नफस नाँव सौ मारिये, गोसमाल दे पंद ।—दादू०, पृ० २५५ ।

गोसमावल पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोशमायल] दे० 'गोशमायल' । उ०— पाग ऊपर गोसमावल रंग रंग रचि बनाय ।—सूर (शब्द०) ।

गोसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] गायों को चरने के लिये छोड़ने का समय । भोर । तड़का [को०] ।

गोसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] गोह [को०] ।

गोसलखाना पु
संज्ञा पुं० [हिं० गुसलखाना] दे० 'गुस्सलखाना' । हयाँ ते गयो चकतै सुख देन को गोसलखाने गयो दुख दीनो ।—भूषण ग्रं०, पृ० २०५ ।

गोसल्ल
संज्ञा पुं० [हिं० गुस्ल] दे० 'गुस्ल' । उ०—कर गोसल्ल पवित्र होइ चिंते रबमान ।—पृ० रा०, ९ ।११४ ।

गोसव
संज्ञा पुं० [सं०] गोमेध यज्ञ । विशेष—यह कलि में वर्जित है ।

गोसहस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का एक हजार गायों का महादान [को०] ।

गोसहस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक और ज्येष्ठ की आमावस्या [को०] ।

गोसा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गो] गोइँठा । उपाला । कंडा ।

गोसा (२) पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० गोशह्] १. कमान का सिरा । गोशा । उ०—प्रथम करी टंकार फेरि गोसा सँवारि तेहिं ।— हम्मीर, पृ० ३४ । २. कोना । अंतराल । कोण । उ०—गोसै गहि रसता दसन बसन कँपायौ बाम ।—स० सप्तक, पृ० ३७७ ।

गोसाई (१)
संज्ञा पुं० [सं० गोस्वामी] १. गौओं का स्वामी या अधि— कारी । २. स्वर्ग का मालिक, ईश्वर । ३. संन्यासियों का एक संप्रदाय दस भेद होते हैं और जिसे दशनाम भी कहते हैं । गिरि, पुरी, भारती, सरस्वती आदि इसी के अंतर्गत हैं । ४.विरक्त साधु । अतीत । ५. वह जिसने इंद्रियों को जीत लिया हो । जितेंद्रिय । ६. मालिक । प्रभु । स्वामी ।

गोसाई (२)
वि० श्रेष्ठ । बड़ा ।

गोसाउनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोस्वामिनी] गोस्वामिनी । उ०— सहज सुमतिबर दिअओ गोसाउनि, अनुगति गति दुअ पाया ।—विद्यापति (शब्द०) ।

गोसाञनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गोस्वामिनी] स्वामिनी । उ०—दास गोसाञनि गहिअ धम्म गए धंध निमज्जिय ।—कीर्ति०, पृ० १६ ।

गोसाती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० गोशह्] वह हवा जो पाल उतार लेने पर भी जहाज के चलने में बाधा डाले । —(लश०) ।

गोसावित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] गायत्री [को०] ।

गोसी
संज्ञा पुं० [देश०] समुद्र में चलनेवाली एक प्रकार की नाव जिसमें २ से लेकर ७ तक मस्तूल होते हैं ।

गोसीपरवान
संज्ञा पुं० [देश०] धातु की एक लंबी जो जहाज के मस्तूल में पाल ऊपरी छोर को हटाने बढ़ाने के लिये लगी होती है ।—(लश०),

गोसुत
संज्ञा पुं० [सं०] गौ का बच्चा । बछड़ा । उ०—(क) गो गोसुतनि सों मृगी मृगसुतनि सों ओर तन नेकु न जोहनी ।— हरिदास (शब्द०) । (ख) गोकुल पहुंचे जाइ रहे बालक अपने घर । गोसुत अरु नारि मिली अति हेत लाइ गर ।—सूर (शब्द०) ।

गोसूक्त
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद का वह अंश ज्समें ब्रह्मांड़ की रचना का गो के रूप वर्णन किया गया है । गोदान के समय इसका पाठ किया जाता है ।

गोसैयाँ †
संज्ञा पुं० [सं० गोस्वामी, हिं० गोसाई] प्रभु । नाथ । मालिक ।

गोस्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय का थन । २. कली आदि का गुच्छा । ३. चार लड़ी का मोती का हार । ४. एक प्रकार का दुर्ग । गढ़ [को०] ।

गोस्तना
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्राक्षा । दाख । मुनक्का ।

गोस्तानी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'गोस्तना' ।

गोस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] गोशाला । गोठ [को०] ।

गोस्वामी
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने इंद्रियों को वश में कर लिया हो । जितेंद्रिय । २. वैष्णव संप्रदाय में आचार्यों के वंशधर या उनकी गद्दी के अधिकारी । ३. गायों को पालने— वाला व्यक्ति । गोपालक (को०) ।

गोस्सा †
संज्ञा पुं० [हिं० गुस्सा] दे० 'गुस्सा' । उ०—गोस्सा मत होइए साहब—मैला०, पृ० ३५६ ।

गोह (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधा] छिपकली की जाति का एक जंगली जंतु जो आकर में नेवले से कुछ बड़ा होता है । विशेष—इसकी फुफकार में बहुत विष होता है । इसके काटने पर पहले मांस गलने लगता है और तब सारे शरीर में विष फैलने के कारण मनुष्य मर जाता है । इसका चमड़ा बहुत मोटा और मजबूत होता है जिससे प्रचीन काल में लड़ाई के समय उँगलियों की रक्षा करने के लिये दस्ताने बनते थे । कभी कभी इसके चमड़े से खँजरी भी मढ़ी जाती है । इसका मांस बहुत पुष्ट होता है और प्रचीन काल में खाया जाता था । अब भी जंगली जातियाँ गोह का मांस खाती हैं । यह दीवार में चपक जाती है और उसे बहुत कठिनता से छोड़ती है । ऐसा प्रसिद्ध है कि पहले चोर इसकी कमर में रस्सी बाँधकर इसे मकान के ऊपर फैंक देते थे और जब यह वहाँ पहुँचकर चिपक जाती थी, तो वे उस रस्सी की सहायता से ऊपर चढ़ जाते थे । गोह दो प्रकार की होती है, एक चंदन गोह जो छोटी होती है और दूसरी पटरा जो बड़ी और चिपटी होती है ।

गोह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गेह । घर । २. माँद । छिपने का स्थान [को०] ।

गोह (३)
संज्ञा पुं० उदयपुर राजवंश के एक पूर्वपुरुष का नाम जो बाप्पा रावल से पहले हुआ था ।

गोहतीत पु
वि० [सं० गोतीत] दे० 'गोतीत' । उ०—गुना गोहतीतं बना बास कींतं ।—घट०, पृ० ३८७ ।

गोहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोबध । यौ०—गोहत्या निवारण = गोवध बंद करना ।

गोहन (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० गोधन (= गौओं का समूह)] १. संग रहनेवाला । साथी । उ०—सूरदास प्रभु मोहन गोहन की छबि बाढ़ी मेटति दुख निरखि नैन मैन के दरद को ।—सूर (शब्द०) । २. संग । साथ । उ०—(क) औराता सोने रथ साजा । भई बरात गोहन सब राजा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) भाजे कहाँ चलोगे मोहन । पीछे आइ गई तुव गोहन ।— सूर (शब्द०) । यौ०— गोहनलगुआ = दूसरा पति करनेवाली स्त्री के साथ जाने— वाला पूर्वपति से उत्पन्न लड़का ।

गोहन (२)
वि० [सं०] छिपनेवाला [को०] ।

गोहनियाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० गोहन + इया (प्रत्य०)] संगी । साथी ।

गोहर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोधा] बिसपोखरा नामक जंतु ।

गोहर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गौहर] दे० 'गौहर' । उ०—गोहरे मुराद का दस्तयाब होना भी आसान नहीं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १५ ।

गोहरा
संज्ञा पुं० [सं० गो + ईल्ल या गोहल्ल या गोहल ?] [ स्त्री० अल्पा० गोहरी] सुखाया हुआ गोबर जो जलाने के काम आता है । कंड़ा । उपला ।

गोहराना
क्रि० अ० [हिं० गोहार] पुकारना । बुलाना । आवाज देना । उ०—पारब्रह्म जेहि कह गोहराई । ताने सतगुरु भेद न पाई—घट०, पृ० २५४ ।

गोहरीर
संज्ञा पुं० [हिं० गोहरा + और (प्रत्य०)] पाथ कर रखे हुए कंड़ों का ढेर ।

गोहलोत
संज्ञा पुं० [गोह (नाम)] क्षत्रियों की एक जाति । वि० दे० 'गोहलौत' । उ०—तोमर बैस पनवार सवाई । औ गोहलेत आय सिर नाई ।—जायसी (शब्द०) ।

गोहसम
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष ।

गोहानी †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोंइँड़' ।

गोहार
संज्ञा स्त्री० [सं० गो + हार (हरण)] १. पुकार । दुहाई । रक्षा या सहायता के लिये चिल्लाना । उ०—धाई धारि फिरि कै गोहार हितकरी होत आई मीच मिटत जपत राम नाम को ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—प्राचीन काल में जब किसी की गाय कोइ छोड़ ले जाता था, तब वह उसकी रक्षा के लिये पुकार मचाता था । क्रि० प्र०—करना ।—मचना ।—मचाना ।—लगाना ।— लगाना । मुहा०—गोहार मारना = सहायता के लिये पुकार मचाना । गोहार लड़ना = (१) सबको ललकार कर लड़ना । गँवारों का लाठियों से लड़ना । (३) एक आदमी का कई आदमियों से लड़ना । २. हल्ला गुल्ला । शोर । चिल्लाहट । क्रि० प्र०—मचाना ।—मचाना ।—लगना ।—लगाना । ३. वह भीड़ जो रक्षा के लिये किसी की पुकार सुनकर इकट्ठी हो गई हो ।

गोहारि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोहार] दे० 'गोहार' ।

गोहरीं †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गोहार] १. गोहार । २. वह धन जो कोई हानि पूरी करने के लिये हो ।—(लश०) । ३. वह धनजो बंदरगाह में जहाज की आवश्यकता से अधिक रहने के कारण हरजाने के तौर पर दिया या लिया जाय ।—(लश०) ।

गोहित
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. गोरक्षक । २. विष्णु [को०] ।

गोहिर
संज्ञा पुं० [सं०] एँड़ी [को०] ।

गोही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पु गुह् या गूहन] १. दुराव । छिपाव । २. छिपी हुई बात । गुप्त वार्ता । उ०—अपनो बनिज दुरावत हो कत नाउँ लियो इतनो ही । कहा दुरवति हौ मो आगे सब जानत तुव गोही ।—सूर (शब्द०) । ३. महुए का बीज । ४. फलों का बीज गुठली ।

गोहुँअन
संज्ञा पुं० [हिं० गोहुअन] दे० 'गोहुवन' ।

गोहुअन
संज्ञा पुं० [हिं० गोहुवन] दे० ' गोहुवन' ।

गोहुवन
संज्ञा पुं० [हिं० गेहूँ] एक प्रकार का विषधर साँप ।

गोहूँ
संज्ञा पुं० [सं० गोधूम] गेहूँ । उ०—गोहूँ शालि सु करै अहारा । साठी चाँवर अधिक पियारा ।—सुंदर ग्रं०, भा, १, पृ० १०३ ।

गोहेरा
संज्ञा पुं० [सं० गोधा] बिसखोपरा नामक विषैला जंतु ।

गौंजिक, गौंजिग
संज्ञा पुं० [सं० गौञ्जिक, गौञ्जिग] १. स्वर्ण— कार । २. जौहरी [को०] ।

गौं
संज्ञा स्त्री० [सं० गम, प्रा० गँव] १. प्रयोजन सिद्ध होने का स्थान या अवसर । सुयोग । मौका । घात । दाँव । उ०— मनहुँ इंदु बिंब मध्य, कंज मीन खंजन लखि, मधुप मकर, कीर आएतकि तकि निज गौंहैं ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—ताकना ।—देखना । यौ०—गौं घात = उपयुक्त अवसर या स्थिति । मौका । २. प्रयोजन । मतलब । गरज । अर्थ । उ०—यह स्थिति । मौका । पहिले कहि राकी असित न अपने होहीं । सूर काटि जो माथो दीजै चलत आपनो गौंही ।—सूर (शब्द०) । यौ०—गौं का = (१) मतलब का । काम का । प्रयोजनीय (वस्तु) । जैसे,—बाजार जाते हो; कौई गौं की चीज मिले तो लेते आना । (२) स्वार्थी । मतलबी । खुदगरज (व्यक्ति) । गौं का यार = कोवल अपना मतलब गाँठने के लिये साथ में रहनेवाला । मतलबी । स्वार्थी । मुहा०—गौं गाँठना = अपना मतलब निकालना । स्वार्थ साधन करना । कान निकालना । गौं निकलना = काम निकलना । प्रयोजन सिद्ध होना । स्वार्थ साधन होना । उ०—अब तो गौं निकल गई; वे हमसे क्यों बोलेंगे ।गौं निकलना = काम निकलना । प्रयोजन सिद्ध करना । स्वार्थ साधन करना । मतलब पूरा करना । गौं पड़ना = काम पड़ना । गरज होना । दरकार होना । आवाश्यकता होना । जैसे,—हमें ऐसी क्या गौं पड़ी है जो हम उनके यहाँ जायँ । वि० दे० 'गवँ' । ३. ढब । चाल । दंग । उ०—कल कुंड़ली चौतनी चारु अति चलत मत्त गज गौं हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

गौंच
संज्ञा पुं० [हिं० क्रौंच] दे० 'कौंच' ।

गौंट
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का छोटा वृक्ष । विशेष—यह उत्तर और पश्चिम भारत में अधिकता से होता है और इसका लकड़ी पीलापन लिये बहुत कड़ी होती है ।

गौंटा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँव + टा (प्रत्य०) ] ३. वह खर्च जो किसी गाँव में प्रजा के विशेष लाभ के लिये, परोपकार, धर्म आदि के विचार से जमींदार की ओर से किया जाय । विशेष—प्रायः गुमाश्तों को जमींदारों की ओर से इस प्रकार के खर्च करने का अधिकार होता है; और कभी कभी खर्च होने के बाद उसका कुछ अंश प्रजा से भी वसूल किया जाता है । २. छोटा गाँव ।

गौंटा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गौं + टा (प्रत्य०)] ३. गौं । अवसर । घात । २. अलगाव रखना । ३. गुट बनाना ।

गौंटिया
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] गाँव का प्रधान । गाँव का मुखिया । उ०—भादों की गणेश चतुर्थी को गाँव के पुराने गौंटियों के यहाँ की परंपरा के अनुसार गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १३८ ।

गौंटियाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०गौंटा] माफी गाँव ।

गौंठिया
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] दे० 'गौंटिया' । उ०—कलचुरिया काल में गढ़ाधीशों को दीवान अथवा ठाकुर कहा जाता था और ताल्लुकाधीशों को दाऊ तथा ग्रामप्रमुख गौंठिया ।— शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० २०१ ।

गौंड़ा पु
क्रि० वि० [हिं० ग्वैंड़ा] दे० 'ग्वैड़े' । उ०—जोगिनु पै मृगछाला कहिऐ, सोभा कही न जाई, पहुँचे निकट जनकपुर गौंड़े, जोति दई छुड़काई ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १७९ ।

गौंनि पु
संज्ञा पुं० [हिं० गौन] दे० 'गौन' । उ०—बैल उलटि नाइक कौं लाघौ बस्तु माँहि भरि गौंनि अपार ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५५२ ।

गौंवा पु †
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम] दे० 'गाँव' । उ०—पहिरि ओढ़ि के चली ससुररिया, गौंवा के लोग कहै बड़ी फुहरी ।— कबीर श०, पृ०२४ ।

गौंहानि पु
संज्ञा पुं० [हिं० गोहन] दे० 'गोहन—१' । उ०—मैं सासने पीव गौंहनि आई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १६४ ।

गौंहाँ
वि० [हिं० गाँव + हा (प्रत्य०)] गाँव संबंधी । गाँव का । देहाती ।

गौ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाय । गैया । वि० दे० 'गो' ।

गौ (२) पु
क्रि० अ० [हिं० गा = गया] दे० 'गया' । उ०—एक बाट गौ सिंघल दोसर लंकल सदीप ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २१३ ।

गौख †
संज्ञा स्त्री० [सं० गवाक्ष] ३. वह छोटी खिड़की जो दीवार या छत में हवा और रोशनी आने के लिये बनाई जाती है । झरोखा । २. वह दालानया दरवाजा जो प्रायः देहाती मकानों के दरवाजे पर बैठने आदि के लिये बना रहता है । चौपाल । उ०—बनी गौख बेजोख की मौख सो हैं । पताकानु केकी पिकी हौ अरौ है ।—सूदन (शब्द०) ।

गौखा (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष] झरोखा । गौख ।

गौखा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गौ = गाय + खाल] गाय का चमड़ा ।

गौखी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौखा] जूता ।

गौगा
संज्ञा पुं० [अ० गौगाह] ३. शोर । गुल गपाड़ा । हल्ला । २. अफवाह । जनश्रुति ।

गौगाई
वि० [अ० गौग़ह + फ़ा० ई (प्रत्य०)] शोर मचानेवाला । कोलाहल करनेवाला ।

गौचरी
संज्ञा स्त्री० [गौ + चरना] गाय चराने का कर जो जमीदार अपनी प्रजा से लेता है और जिसके बदले वह गायों को चरने के लिये कुछ भूमि छोड़ देता है ।

गौड़
संज्ञा पुं० [सं० गौड़] वंग देश का एक प्राचीन विभाग । जो किसी की मत से मध्य बंगाल से उड़ीसा की उत्तरी सीमा तक और किसी के मत से वर्तमान बर्दवान के आस पास था । विशेष—कूर्मपुराण और लिंग पुराण से जाना जाता है कि वर्तमान गौंड़ा का आसपास का एक प्रदेश, जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी, गौड़ प्रदेश कहलाता था । हितोपदेश में कौशांबी को भी इसी गौड़ प्रदेश के अंतर्गत लिखा है । दसवीं और ग्यारहवीं सदी के चेदि राजाओं के ताम्रपत्रों और शिला- लेखों से पता लगता है कि वर्तमान गोंड़वाना के पास का देश भी गौड़ ही कहलाता था । राजतरंगिणी में 'पंचगौड़' शब्द आया है जिससे जान पड़ता है कि किसी समय पाँच गौड़ देश थे । स्कदपुराण के सह्याद्रि खंड़ में से जिन जिन स्थानों के ब्राम्हणों को पंचगौड़ के अंतर्गत लिखा है, वे ऊपर के बतलाए हुए स्थानों से भिन्न है । २. स्कंदपुराण के सह्याद्रि खंड़ के अनुसार ब्राम्हणों की एककोटि जिसमें सारस्वत, कान्यकुब्ज, उत्कल, मैथिल और गौड़ संमि- लित हैं । ३. ब्राम्हणों की एकजाति जो पश्चिमी उत्तरप्रदेश, दिल्ली के आसपास तथा राजपूताने में पाई जाती है । ४. गौड़ देश का निवासी । ५. ३६ प्रकार के राजपूतों में से एक जो उत्तर पश्चिम भारत में अधिकता से पाए जाते हैं । विशेष—टाड़ साहब का मत है कि बंगाल (गौड़) के राजा इसी कोटि के राजपूत थे । ३. कायस्थों का एक भेद । ७. संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । विशेष— यह श्रीराग का पुत्र माना जाता है और इसके गाने का समय तीसरा पहर और संध्या है । इसके कान्हड़ा, गौड़, केदार गौड़, नारायण गौड़, रीति गौड़ आदि अनेक भेद हैं ।

गौड़नट
संज्ञा पुं० [सं०गौड़नट] संगीत में गौड़ और नट के योग से बना हुआ एक संकर राग ।

गौड़पाद
संज्ञा पुं० [सं० गौड़पाद] स्वामी शंकराचार्य के गुरु के गुरु जिन्होंने माड़ूक्योपनिषद् पर कारिका लिखि थी और सायण कारिका का भाष्य किया था ।

गौड़पादाचार्य
संज्ञा पुं० [सं० गौड़पादाचार्य] दे० 'गौड़पाद' ।

गौड़मल्लार
संज्ञा पुं० [सं० गौड़मल्लार] गौड़ और मल्लार के योग से बना हुआ एक संकर राग । विशेष—यह प्रायः वर्षा ऋतु में रात के दूसरे पहर गाया जाता है । कुछ लोग इसे मल्लार राग की रागिनी भी मानते हैं ।

गौड़सारंग
संज्ञा पुं० [सं० गौड सारङ्ग] गौड़ और सारंग के योग से बना हुआ एक संकर राग । विशेष—यह ग्रीष्म ऋतु में दोपहर से पहले गाया जाता है । इसमें ऋषभ वादी और मध्यम संवादी होता है और यह वीर तथा शांत रस के वर्णन के लिये अधिक उपयुक्त समझा जाता है ।

गौडिक (१)
वि० [सं०] १. गुड़ से संबंधित । २. गुड़ का [को०] ।

गौडिक (२)
संज्ञा पुं० १. ईख । २. एक प्रकार की गुड़ की शराब [को०] ।

गौड़िया †
वि० [हिं० गौड़+इया (प्रत्य०)] १. गौड़ देश का । गौड़ देश संबंधी । २. गौड़ जातीय । गौड़ । उ०—मधुसूदन- दास गौडिया ब्राह्मन वृंदावन में रहते ।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० १८४ । यौ०—गौड़िया संप्रदाय=चैतन्य महाप्रभु को चलाया हुआ वैष्णव संप्रदाय ।

गौड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० गौडी] १. एक प्रकार की मदिरा जो गुड़ से बनती है । वैद्यक में इसे वात और पित्तनाशक, बल और कांतिवर्द्धक, दीपन, पथ्य और रुचिकर कहा है । २. काव्य में एक प्रकार की रीति या वृत्ति जिसे परुषा भी कहते हैं । यह ओजगुणप्रकाशक मानी जाती है और इसमें टवर्ग, संयुक्त अक्षर अथवा समास अधिक आते हैं; जैसे,—(क) कटकटहिं मर्कट विकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) वक्र वक्र करि पुच्छ करि रुष्ट ऋच्छ कपि गुच्छ । सुभट ठट्ट धन धट्ठ सम मर्दहि रच्छन तुच्छ- (शब्द०) । २. संपूर्ण जाति की एक रागिनी जो रात के पहले पहर में गाई जाती है । विशेष—कुछ लोग इसे कल्याण राग का एक भेद मानते हैं । यह वीर और शृंगार रस के वर्णन के लिये बहुत उपयुक्त होती है ।

गौड़ीय (१)
वि० [सं० गौडीय] [वि० स्त्री० गौडीया] १. गौड़ देश से संबंधित । २. (साहित्यिक रचना) जिसमें गौड़ी वृत्ति प्रधान हो [को०] । यौ०—गौड़ीया वृत्ति ।

गौड़ीय (२)
संज्ञा पुं० गौड़ देश का व्यक्ति [को०] ।

गौड़ीय भाषा
संज्ञा पुं० [सं० गौड़ीय भाषा] बँगला भाषा [को०] ।

गौड़ेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० गौडेश्वर] कृष्णचैतन्य स्वामी जिन्हें गौरांग महाप्रभु भी कहते हैं ।

गौण
वि० [सं०] जो प्रधान या मुख्य न हो । २. सहायक । संचारी । ३. गुण संबंधी [को०] ।

गौणाचांद्र
संज्ञा पुं० [सं०गौड़चान्द्र] दो प्रकार के चांद्र मासों में से एक जो किसी मास की कृष्ण प्रतिपदा से उस मास की कृष्ण पूर्णिमा तक होता है । इसका मान प्रायः उत्तर में ही अधिक है ।

गौणपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] साधारण पक्ष । किसी विषय का वह पक्ष जो अप्रधान या महत्वहीन हो [को०] ।

गौणिक
वि० [सं०] १. जिससे वाच्य का गुण प्रकाशित हो ।गुणद्योतक । २. सत्, रज, तम आदि गुणों से संबंध रखनेवाला । ३. गुणी ४. एक प्रकार के बोरे या गौन से संबंध रखनेवाला [को०] ।

गौणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] अप्रधान । साधारण । जो मुख्य न मानी जाय ।

गौणी (२)
संज्ञा स्त्री० अस्सी प्रकार की लक्षणाओं में से एक जिसमें केवल किसी वस्तु का गुण लेकर दूसरे में आरोपित किया जाता है । जैसे,—कल्पवृक्ष हैं अवधपति जगजाहर यशवंत । इस पद में कल्पवृक्ष के मुख्य गुण उदारता को अवधपति में आरोपित कर उसी के द्वारा उनका जगत के यशस्वी होना प्रकट किया गया है । यहाँ कल्पवृक्ष शब्द में गौणी लक्षणा है । साहित्यदर्पण के अनुसार 'सादृश्यात्तु मता गौणी' अर्थात् सादृश्य संबंध ही प्रयोजक हो तो गौणी लक्षणा होती है ।

गौणी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौणिक] दे० 'गौन' ।

गौतम
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोतम ऋषि के वंशज । २. न्याय शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य और प्रणेता एक ऋषि । विशेष—यह इसा से प्रायः६०० वर्ष पहले हुए थे । ३. रामायण, महाभारत और पुराणों आदि के अनुसार एक ऋषि । विशेष—इन्होंने अपनी स्त्री अहिल्या को इंद्र के साथ अनुचित संबंध करने के कारण शाप देकर पत्थर बना दिया था, जिसका उद्धार भगवान रामचंद्र ने किया था । ४. बुद्धदेव का एक नाम । ५. सप्तर्षिमंड़ल के ताराओं में से एक । ६. एक पर्वत का नाम । विशेष—यह नासिक के पास है और इसमें से गोदावरी नदी निकलती है । ७. क्षत्रियों का एक भेद । ८. भूमिहारों का एक भेद । ९. एक ऋषि जिन्होने स्मृति बनाई है । १०. गौतम ऋषि के पुत्र शतानंद [को०] । ११. कृपाचार्य [को०] । १२. एक विष [को०] ।

गौतमतिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौतम + हिं० तिय] गौतमपत्नी । अहिल्या । उ०—गौतमतियं तारन चरन कमल आनि उर देषु ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८४ ।

गौतमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या । २. कृपाचार्य की स्त्री जो प्रसिद्ध तपस्विनी थी । ३. गोदावरी नदी जो गौतम नामक पर्वत से निकली है । ४. गौतम ऋषि की बनाई हुई स्मृति । ५. दुर्गा का एक नाम । ६. बुद्ध के उपदेश [को०] । ७. गोरोचन [को०] । ८. दुर्गा [को०] ।

गौता पु
संज्ञा पुं० [हिं० गोता] दे० 'गोता' । उ०—सुंदर अंदर पैसि करि दिल मौ गौता मारि ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ६८७ ।

गौंद
संज्ञा पुं० [हिं० घौद] दे० 'घौद' ।

गौदा
संज्ञा पुं० [हिं० घौद] दे० 'घौद' ।

गौदान †
संज्ञा पुं० [हिं० गोदान] दे० 'गोदान' ।

गौदुमा
वि० [हिं० गौ + दुम + आ (प्रत्य०)] गाय की पूँछ के आकार का । जो एक ओऱ अधिक मोटा हो और दूसरी और क्रमशः कम होता जाय । उतार चढ़ाव का । गावदुम ।

गौधार, गौधेय, गौधेर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोधिकात्मज' [को०] ।

गौधूमीन
संज्ञा पुं० [सं०] गेहूँ का खेत । गेहूँ का मैदान या क्षेत्र [को०] ।

गौन (१) †
संज्ञा पुं० [सं० गमन, प्रा० गमण, गवण] दे० 'गमन' ।

गौन (२)
संज्ञा पुं० [अं० गाउन] दे० 'गाउन' ।

गौन † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौणिक, प्रा० गोण] एक प्रकार का बोरा । विशेष—इसको किसान स्वंय ही रस्सियों से बिनकर तैयार करते हैं ।

गौन (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० गौण] दे० 'गौण' । उ०—या प्रकार श्री गुसाई जी आप भक्ति मार्ग के रक्षक हैं । यह गौन भाव है ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ११३ ।

गौनई †
संज्ञा स्त्री० [सं०गायन] गान । संगीत ।

गोनर्द
संज्ञा पुं० [सं०] महाभाष्यकार पतंजलि [को०] ।

गौनहर
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौनहरी] दे० 'गौनहारि' ।

गोनहरि
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौन (=गाना)+हरि (प्रत्य०)] दे० 'गौनहारी' ।

गोनहाई †
वि० [हिं० गौना + हाई (प्रत्य०)] जिसका गौना हाल में हुआ हो । जो गौना होने के बाद ससुराल में पहले पहल आई हो । उ०—एती चतुराई धौं कहाँ ते पाई रघुनाथ हौं तो देखि रीझ रही गोनहाई तिय की ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

गौनहार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौना+हार (प्रत्य०)] वह स्त्री जो दुलहिन के साथ उसके ससुराल जाय ।

गोनहारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गौनहारी' ।

गौनहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाना + हारी (=वाली)] एक प्रकार की गानेवाली स्त्रीयाँ जो कई एक साथ मिलकर ढोलक पर या शहनाई आदि पर गाती हैं । इनकी कोई विशेष जाति नहीं होती । प्रायः घर से निकली हुई छोटी जाति की स्त्रियाँ ही आकर इसमें समिलित हो जाती हैं और गाने बजाने तथा कसब कमाने लगती हैं ।

गौना
देश० पुं० [सं० गमन] विवाह के बाद एक रस्म जिसमें वर अपने ससुराल जाता है और कुछ रीति रस्म पूरी करके बधू को अपने साथ ले आता है । द्विरागमन । मुकलावा । उ०—तुलसी जिनकी धूल परसि अहल्या तुरी गौतम सिधारे गृह गौनो सो लिवाइ कै ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—गौना देना=वधू को वर के साथ पहले पहल ससुराल भेजना । गौना लाना=वर का अपने ससुराल जाकर वधू को अपने साथ ले आना । क्रि० प्र०— लेना ।—माँगना । विशेष—पूरब में 'गौने जाना' और 'गौने आना' आदि भी बोलते हैं ।

गौनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गमन] दे० 'गमन । उ०— मनु कोमल पग गौनि चुकरगन फूल पाँवड डारै ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४६ ।

गौनियाँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौणिक] दे० 'गौन (३)' । उ०—काहेक टटुआ काहेक पाखऱ भरी गौनियाँ ।—कबीर श०, पृ० २२ ।

गौपिक
संज्ञा पुं० [सं०] गोपि का पुत्र । ग्वाले का पुत्र [को०] ।

गौपुच्छ
वि० [सं०] गाय की पूँछ के समान [को०] ।

गौपुच्छिक
वि० [सं०] गाय की पूँछ से संबंधित ।

गौप्तेय
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्य स्त्री का पुत्र [को०] ।

गौमुख
संज्ञा पुं० [सं० गोमुख] दे० 'गोमुख' ।

गौमुखी
संज्ञा स्त्री०[हिं० गौमुख + ई (प्रत्य०)] गौ के मुख के आकार की बनी हुई थैली जिसमें माला रखकर जप करते हैं । वि० दे० 'गोमुखी' ।

गौमेद
संज्ञा पुं० [सं० गोमेद] एक प्रकार का रत्न जो चार रंग का होता है—श्वेत, पीताभ, लाल, और गहरा निला । इसकी गणना उपरत्नों में होती है ।

गौमोदिक पु
संज्ञा पुं० [सं०गोमेदक] दे० 'गौमेद' । उ०—पदिपन्ना मानिक मँगवाए । गौमोदिक लीलागन ल्याए ।—प० रासो० पृ०, २२ ।

गौरंड
संज्ञा पुं० [सं० गौराङ्ग] गोरों का देश । विलायत ।

गौर (१)
वि० [सं०] १. गोरे चमडे़वाला । गोरा । २. श्वेत । उज्ज्वल । सफेद ।

गौर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल रंग । २. पीला रंग । ३. चंद्रमा । ४. धव नाल का पेड़ । ५. सोना । ६. याज्ञवल्क्य के अनुसार एक प्रकार का बहुत छोटा मान जो तौलने के काम आता और प्रायः तीन सरसों को बराबर होता है । ७. केसर । ८. एक प्रकार का मृग जिसके खुर बीच से फटे नहीं होते । ९. सफेद सरसों । १०. चैतन्य महाप्रभु का एक नाम । ११. एक पर्वत जो ब्रह्मांडपुराण के अनुसार कैलास के उत्तर में हैं । १२. एक प्राकर का भैंसा [को०] । १३. बृहस्पति ग्रह (को०) ।

गौर (३)
संज्ञा पुं० [सं० गौड] दे० 'गौड़' ।

गौर (४)
संज्ञा पुं० [अ० गौर] १. सोचविचार । चिंतन । २. ख्याल । ध्यान । उ०—सो दीसै सब ठौर ब्याप रहो मन माहिं जो । सज्जन करिके गौर वाही को निज जानिए ।—रसनिधि (शब्द०) । यौ०—गौर से = ध्यानपूर्वक । ध्यान देकर ।

गौर (५) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] पार्वती । उ०— जनम हुकै जगजीत रौ सुप्रसन संकर गौ ।—रा० रू०, पृ० २६ ।

गोरक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान (को०) ।

गोरक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] गायों की रक्षा । गोपालन [को०] ।

गौरग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक देश जो कूर्मविभाग के मध्य में है ।

गौरचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० गौरचन्द्र] महाप्रभु चैतन्य देव (को०) ।

गौरतलब
वि० [अ० गौरतलब] गौर करने योग्य । विचारणीय ।

गौरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोराई । गोरापन । २. सफेदी ।

गौरमदाइनि पु
संज्ञा पुं० [देश०] इंद्रधनुष । उ०—धनु है यह गौर- मदाइनि नाहीं । शर जाल बहै जलधार बृथा हीं ।—रामचं०, पृ० ८८ ।

गौरव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़प्पन । महत्व । २. गुरुता । भारीपन । ३. सैमान । आदर । इज्जत । ४. उत्कर्ष । ५. अभ्युत्थान । ६. छंदःशास्त्र में गुरु होने का भाव या स्थिती (को०) ।

गौरव (२)
वि० गुरु संबंधी [को०] ।

गौरवर्ण
वि० [सं०] गोरे रंग का । गोरा ।

गौरवशाली
वि० [सं० गौरवशालिन्] संमानपूर्ण । गौरवमय ।

गौरवा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० गौरिया] चटक पक्षी । चिड़ा ।

गौरवा (२) पु
वि० [सं० गौरव] गौरवयुक्त । गौरवमय । बड़ा । उ०—करै मेराव सोइ गौरवा ।—जायसी ग्रं०, पृ० १५८ ।

गौरवान्वित
वि० [सं०] संमानप्राप्त । गौरवयुक्त ।

गौरवासन
संज्ञा पुं० [सं०] गौरवपूर्ण पद । संमानित पद [को०] ।

गौरवास्पद
वि० [सं०] गौरवपूर्ण । संमानित । उ०—वीरपुरुष युद्धक्षेत्र से भागकर अपमानित एवं विताड़ित होने की अपेक्षा वहीं मर जाना अधिक गौरवास्पद समझते हैं ।—शैली, पृ०१४३ ।

गौरावित
वि० [सं०] गोरवान्वित । संमानपूर्ण [को०] ।

गौरशाक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शालिधान्य ।

गौरशालि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शालिधान्य ।

गौरवशाली
वि० [सं० गौरवशालिन्] [ वि० स्त्री० गौरवशालिनी] गौरवमय [को०] ।

गौरसुवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साग जो चित्रकूट के तर स्थानों में अधिकता से होता है । विशेष—इसके पत्ते छोटे और सुनहले होते हैं और हाथ में लेकर मलने से उनके बहुत से छोटे छोटे टुकडे़ हो जाते हैं जिनमें से बहुत अच्छी गंध निकलती है । वैद्यक में यह शीतल और त्रिदोष ज्वर तथा थकावट को दूर करनेवाला माना गया है ।

गौरांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० गौराङ्ग] १. विष्णु । २. श्रीकृष्ण । २. चैतन्य महाप्रभु ।

गौरांग (२)
वि० गोरे रंग वाला (योरप का, विशेषतया अंग्रेज) ।

गौरांगमहाप्रभु
संज्ञा पुं० [सं० गौराङ्ग महाप्रभु] चैतन्य महाप्रभु । २. (व्यंग्य में) अंग्रेज ।

गौरांगी (१)
वि० [सं०गौराङ्गि] १. गोरी । २. सुंदरी [को०] ।

गौरांगी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अँगरेज स्त्री । मेम ।

गोरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० गौर का स्त्री०] १. गोरे रंग की स्त्री । २. पार्वती । गिरजा । ३. हल्दी । ४. एक रागिनी जिसे कुछ लोग श्री राग की स्त्री मानते हैं ।

गौरा (२)
संज्ञा पुं० [सं०गोरोचन] गोरोचन नामक सुगंधित द्रव्य । उ०—रचि रचि राखे चंदन चौरा । पोते अगर मेध औ गौरा ।—जायसी (शब्द०) ।

गौराटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का कौवा [को०] ।

गौराद्रर्क
संज्ञा पुं० [सं०] अफीम, संखिया, कनेर आदि स्थावर विष ।

गौरास्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बंदर [को०] ।

गौराहिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।

गौरि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आंगिरस ऋषि ।

गौरि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गौरी] दे० 'गौरी' ।

गौरि † (३)
संज्ञा पुं० [अ० गौ़र] दे० 'गौर' । उ०—फते अली सों रारि है जो कछु करनी गौरि ।—सुजान०, पृ० १७ ।

गौरिक (१)
वि० [सं०] गोरा [को०] ।

गौरिक (२)
संज्ञा पुं० सफेद सरसों [को०] ।

गोरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्वाँरी लड़की । गौरी [को०] ।

गौरिबर पु
संज्ञा पुं० [हिं० गौरी + बर] महादेव । शंकर । उ०— शिव शिव हर शंकर गौरिबर गंगाधर हर हर कहत ।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ११६ ।

गौरिया
संज्ञा स्त्री० [सं० गौर + इया (प्रत्य०)] १. काले रंग का एक प्रकार का जलपक्षी । विशेष—इसका सिर भूरा और गर्दन सफेद होती है । ऋतुभेदा- नुसार इसकी चोंच का रंग बदला करता है । २. मिट्टी का बना हुआ एक प्रकार का छोटा हुक्का । ३. एक प्रकार का मोटा कपड़ा ।

गोरिल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद सरसों । २. लौहचूर्ण । लोहे का चूरा [को०] ।

गौरिष्य पु
संज्ञा पुं० [सं० गौरीश] शिव । महादेव । उ०—कहुँ ध्यान गौरिष्य को इष्ट धारै ।—प० रासो, पृ० १७६ ।

गौरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोरे रंग का स्त्री । पार्वती । गिरिजा । विशेष—इस अर्थ में गौरी शब्द के बाद पतिवाची शब्द लगाने से 'शिव' और पुत्रवाची शब्द लगाने से 'गणेश' या 'कार्तिकेय' अर्थ होता है । ३. आठ वर्ष की कन्या । ४. हल्दी । ५. दारुहल्दी । ६. तुलसी । ७. गोरोचन । ८. सफेद दूब । ९. सफेद रंग का गाय । १०. मजीठ । ११. गंगा नदी । १२. चमेली । १३. सोन कदली । १४. प्रियंगु नाम का वृक्ष १५. पृथिवी । १६. बुद्ध की एक शक्ति का नाम । १७. शरीर का एक नाड़ी । १८. एक बहुत प्राचीन नदी जो पूर्व काल में भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर थी और जिसका वर्णन वेदों और महाभारत में आया है । १९. गुड से बनी हुई शराब । गौड़ी । २०. वरुण की पत्नी (को०) । २१. वाणी (को०) । २२. एक प्रकार का राग जिसे गौरी राग कहते हैं । उ०—मुरली में गौरी धुनि ढौरी घनआनंद तें, तेरे द्वार ठठकनि उदम घने ठनै ।—घनानंद, पृ० १२५ । २३. आनाहत चक्र की आठवीं मात्रा ।

गौरीकांत
संज्ञा पुं० [सं० गौरीकान्त] शिव [को०] ।

गौरीगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय [को०] ।

गौरीचंदन
संज्ञा पुं० [सं० गौरीचन्दन] लाल चंदन ।

गौरीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभ्रक । २. कार्तिकेय । ३. गणेश ।

गौरीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

गौरीपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] शिवा जी की जलहरी जिसे जलधरी या अरघा भी कहते हैं ।

गौरीपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियंगु का वृक्ष ।

गौरीबेंत
संज्ञा पुं० [हिं० गौरी + बेंत] एक प्रकार का बेंत जिसे पक्का बेंत कहते हैं ।

गौरीभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० गौरी + भर्तृ] शिव (को०) ।

गौरिललित
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल ।

गौरीवर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव ।

गौरीशंकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । शिव । २. हिमालय पर्वत की सबसे ऊँची चोटी का नाम ।

गौरीश
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

गौरीशिखर
संज्ञा पुं० [सं०] हिमालय पर्वत की वह चोटी जिसपर पार्वति जी ने तपस्या की थी [को०] ।

गौरीसर
संज्ञा पुं० [?] हंसराज नाम की बूटी । सँमलपत्ती ।

गौरुतल्पिक
संज्ञा पुं० [सं०] गुरुपत्नी से अनुचित संबंध रखनेवाला शिष्य [को०] ।

गौरूबटो
संज्ञा स्त्री० [देश०] करमर्द या अमली नाम का झाड़ीदार पौधा । वि० दे० 'करमर्द' ।

गौरैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गौरिया] दे० 'गौरिया' ।

गौलक्षणिक
संज्ञा पुं० [सं०] गाय बैलों के अच्छे बुरे लक्षणों को पहचाननेवाला [को०] ।

गौला
संज्ञा स्त्री०[सं०] गौरी । पार्वती । गिरिजा ।

गौंलिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुष्कक नामक वृक्ष । २. एक प्रकार का वृक्ष [को०] ।

गौंलोचन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोरोचन' । उ०—गौलोचन गौ सीस मिरग मद नाभि ते जानौ ।— पल्टू०, भा० १, पृ० ६६ ।

गौंल्मिक
संज्ञा पुं० [सं०] ३० सिपाहियों का नायक या अफसर ।

गौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरबत । २. शराब [को०] ।

गौविंद पु
संज्ञा पुं० [सं० गोविन्द] दे० 'गोविंद' । उ०—षेतरपाल को पूजे कौनं । जो परिहरि गोविंदह मौनं ।— पृ० रा०, ७ ।२९ ।

गौशतिक
वि० [सं०] सौ गायों को रखनेवाला [को०] ।

गौशाला
संज्ञा पुं० [सं० गोशाला] दे० 'गोशाला' ।

गौशृंग
संज्ञा पुं० [सं० गोश्रृङ्ग] एक प्रकार का सामगान ।

गौष्ठीन
संज्ञा पुं० [सं०] पुरानी गोशाला का स्थान [को०] ।

गौस पु
संज्ञा पुं० [अ० ग़ौस] १. वली से बड़ा पद रखनेवाला मुसलमान । २. मुसलमानों की उपाधि । उ०—गौस औ कुतुब दिल फिकिर का करैं ।—कबीर रे०, पृ० २१ ।

गौसम
संज्ञा पुं० [हिं० कोसम] कोसम नाम का पेड़ ।

गौसहस्त्रिक
वि० [सं०] सहस्र गायें रखने या पालनेवाला [को०] ।

गौहन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोहन' । उ०—देखि रूप घन छाया करही । पसु पंछी सब गौहन फिरहीं ।—नंद० ग्रं०, पृ० १२० ।

गौहनि पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गोहन' । उ०—गौहनि लागा धई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १० ।

गोहर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. मोती । मुक्ता । २. जौहर ।

गौहरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० गी+हरा] गायों का रहने का एक स्थान । गोंड़ा ।

गौह्यक
वि० [सं०] गृह्यकों से संबंध रखनेवाला (को०) ।

ग्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी (को०) ।

ग्यांबिर
संज्ञा पुं० [देश०] कीकर की जाति का एक पेड़ जिसके पत्ता और लकड़ियाँ से पपड़िया खैर बनाया जाता है ।

ग्याँन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ज्ञान' । उ०—ग्याँन ध्यान धारना धरि धरि समाधि देखे पै न देखे ।—घनानंद, पृ० ४३७ ।

ग्यान पु
क्रि० अ० [हिं० गया ] दे० 'गया' । उ०—हेरा ग्या ऊँमर कन्हइ, कहिजइ एही बात ।—ढोला०, दू० ६२६ ।

ग्यान †
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञान] दे० 'ज्ञान' ।

ग्याभन पु †
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'गाभिन' । उ०—हे पिता, जब यह कुटी के निकट चरनेवाली ग्याभन हरिनी क्षेमकुशल से जने, तुम किसीस के हाथों यह मंगल समाचार मुझे कहला भेजना, भूल मत जाना ।—शकुंतला, पृ० ७४ ।

ग्यारमै पु
वि० [सं० एकादश] ग्यारहवाँ । उ०—पंच दुअ थान परि सोम भोम । ग्यारमै राह खल करन होम ।—पृ० रा०, १ ।७०८ ।

ग्यारस †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्यारह] एकादशी तिथि ।

ग्यारह (१)
वि० [सं० एकादश, प्रा० एगारस] दस और एक ।

ग्यारह (२)
संज्ञा पुं० दस और एक की सूचक संख्या जो इस प्रकार लिखि जाती है—११ ।

ग्यारहजीव पु
संज्ञा पुं० [हिं० ग्गारह + जीव] ग्यारह भक्त । वे ये हैं-ध्रूव, प्रल्हाद, गणिका, शेषनाग, गज, नामदेव, वाल्मीकी अजामील, शिव, गोपियाँ (या मीरा) और तुलसी ।

ग्यारहवाँ
वि० [हिं० ग्यारह+वाँ (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० ग्यारहवीं] ग्यारह की संख्यावाला । वह जो दस के बाद आए ।

ग्यारा पु
वि० [हिं०] दे० 'ग्यारह' । उ०—तिय वियोग ऋषि तन तज्यौ ग्यारा से चालीस ।—ह० रासो, पृ० २९ ।

ग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ] १. पुस्तक । किताब । यौ०—ग्रंथकार । ग्रंथकर्ता । ग्रंथसाहब । ग्रंथसंधि, आदि । २. गाँठ देना या लगाना । ग्रंथन । ३. धन । ४. अनुष्टूप् छंद में रचित काव्य (को०) ।

ग्रंथकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थकर्तृ] पुस्तक बनाने वाला या लिखनेवाला । ग्रंथ की रचना करनेवाला ।

ग्रंथकार
संज्ञा पुं० [सं०ग्रन्थकार] दे० 'ग्रंथकर्ता' ।

ग्रंथकु़टी, ग्रंथकूटी
संज्ञा स्त्री० [सं०ग्रन्धकुटी, ग्रन्थकूटी] पुस्तकालय (को०) ।

ग्रंथकृत
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थकृत] ग्रंथकार (को०) ।

ग्रंथचुंबक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ + चुम्बक (= चूमनेवाला)] जो किसी विषय का पूर्ण विद्वान न हो । जो ग्रंथो का केवल पाठ मात्र कर गया हो, उसके विषय को न समझा हो । अल्पज्ञ । उ०— साधारण योग्यतावाले ग्रंथचुंबकों की उसके सामने मुँह खोलने की हिम्मत नहीं पड़ती थी ।—सौ ओजान एक सुजान (शब्द०) ।

ग्रंथचुंबन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थ + चुम्बन ] पुस्तक का पाठ मात्र । किताब को सरसरी तौर पर पढ़ना ।

ग्रंथन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थन] दो चीजों को इस प्रकार जोड़ना कि गाँठ पड़ जाय । २. जोड़ना । ३. गूँथना ।

ग्रंथमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थमाला] एक शृंखला या क्रम में प्रकाशित विशिष्ट पुस्तकें [को०] ।

ग्रंथलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थ + लिपि] एक प्रकार की लिपि जो दक्षिण में प्रचलित है । विशेष—'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' की भूमिका (पृ० ४३) में इसके संबंध में कहा गया है कि यह लिपि मद्रास के इहाते के उत्तरी और दक्षिणी आर्कट, सलेम, त्रिचनापल्ली, मदुरा और तिन्नेवेल्लि जिलों में मिलती है । ई० स० की सातवीं शताब्दी से १५ वीं शताब्दी तक इसके कई रूपांतर होते होते इससे वर्तमान ग्रंथलिपि बनी और उससे वर्तमान मलयालम और तुलु लिपियाँ निकलीं ।

ग्रंथसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थसन्धि] ग्रंथ का विभाग । जैसे,— सर्ग, परिच्छेद, अध्याय, अंक, पर्व, आदि ।

ग्रंथसाहब
संज्ञा पुं० [हिं० ग्रन्थ + साहब] सिक्खों की धर्मपुस्तक जिसमें सब गुरुओं के उपदेश एकत्र किये हुए हैं ।

ग्रथांतर
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थान्तर] अन्य ग्रंथ । भिन्न ग्रंथ [को०] ।

ग्रंथागार
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थागार] वह स्थान जहाँ विविध विषयों की पुस्तकें एकत्र हों । पुस्तकालय [को०] ।

ग्रंथालय
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थालय] पुस्तकालय ।

ग्रंथावलि, ग्रंथावली
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थावलि, ग्रन्थावली] दे० 'ग्रंथालय' [को०] ।

ग्रंथावलोकन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थावलोकन] ग्रंथ का अध्ययन । पुस्तक का पढ़ना [को०] ।

ग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थि] १. गाँठ । २. बंधन । ३. मायाजाल । ४— ग्रंथिपर्ण नाम का वृक्ष । एक प्रकार का रोग जो खून बिगड़ जाने के कारण होता है और जिसमें गोल गाँठों की तरह सूजन हो जाती है । यै गाँठे प्रायः पक जाती हैं और चिरवानी पड़ती है । ६. आलू । ७. भद्रमोथा । ८. कुटिलता । ९. गुठली (को०) । १०. ईख, बाँस आदि की गाँठ (को०) । ११. शरीर के अंगो का जोड़ (को०) । १२. शरीर के अंदर की वे गाँठ जिनसे एक प्रकार के रस का स्राव होता है (को०) । १३. अंटी (को०) । १४. गिरह (को०) ।

ग्रंथिक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिक] १. पिपरामूल । २. ग्रंथिपर्ण या गठिवन नामक वृक्ष । ३. गुग्गुल । ४. करीर । ५. ज्योतिषी (को०) । ६. नकुल के अज्ञातवास के समय का नाम (को०) । ७. सहदेव का नाम (को०) ।

ग्रंथिच्छेदक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिछेदक] जेब काटनेवाला । गिरहकट [को०] ।

ग्रंथित
वि० [सं० ग्रन्थन] १. गुँथा हुआ । २. गाँठ दिया हुआ । जिसमें गाँठ लगी हो । उ०—(क) जैसो कियो तुम्हारे प्रभु अलि तैसो भयो तत्काल । ग्रंथित सूत धरत तेहि ग्रिवा जहाँ धरत बनमाल ।—सूर (शब्द०) । (ख) मंगलमय दोउ अंग मनोहर ग्रंथित चूनरी पीत पिछौरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

ग्रंथिदूर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थिदूर्वा] गाड़र दूब ।

ग्रंथिपत्र
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिपत्र] चोरक नाम का गंधद्रव्य ।

ग्रंथिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिपर्ण] गठिवन का पेड़ ।

ग्रंथिपर्णक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिपर्णक] एक प्रकार का सुगंधित पौधा [को०] ।

ग्रंथिपर्णि
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिपर्णी] गाड़र दूब ।

ग्रंथिफल
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिफल] १. कैथ का पेड़ । २. मैंनफल का पेड़ ।

ग्रंथिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिबन्धन] विवाह के समय वर और कन्या के कपड़ों को कोनों को परस्पर गाँठ देकर बाँधने की क्रिया । गँठबंधन ।

ग्रंथिभेद
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिभेद] १. गिरहकट । गँठकटा । २. वह चोरी जो द्रव्य के साथ बँधी गाँठ काटकर की जाय । गाँठ काटना । गिरहकटी ।

ग्रंथिमान (१)
वि० [सं०ग्रन्थिमत्] बँधा हुआ । ग्रंथित [को०] ।

ग्रंथिमान (२)
संज्ञा पुं० एक वृक्ष [को०] ।

ग्रंथिमूल
संज्ञा पुं० [सं०ग्रन्थिमूल] सलगम, गाजर, मूली आदि मूल जो गाँठों के रूप में जमीन के अंदर होते है ।

ग्रंथिमूला
स्त्री० [सं० ग्रन्थिमूला] माला दूब ।

ग्रंथिमोचक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिमोचक] गँठकटा । गिरहकट [को०] ।

ग्रंथिल (१)
वि० [सं०ग्रन्थिल] गाँठदार । गँठीला ।

ग्रंथिल (२)
संज्ञा पुं० १. करील वृक्ष । २. पिपरामूल । ३. अदरक । आदि । ४. कँटाय नामक कटीला वृक्ष जिसकी लकड़ी के प्राचीन काल में यज्ञपात्र बनते थे । इसकी पत्तियाँ छोटी और फल के बराबर गोल होते हैं जो दवा के काम, आते हैं । ५. चौराई का साग । ६. आलू । ७. चोरक नामक गंधद्रव्य ।

ग्रंथिला
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थिला] १. गाड़र दूब । २. माला दूब । ३. भद्रमोथा ।

ग्रंथिहर
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थिहर] मंत्री [को०] ।

ग्रंथी (१)
वि० [सं० ग्रन्थिन्] १ अनेक पुस्तकों का अध्येता । २. पुस्तकीय ज्ञान से संपन्न । ३. अनेक ग्रंथ रखनेवाला [को०] ।

ग्रंथी (२)
संज्ञा पुं० १. ग्रंथकार । २. ग्रंथ का पाठ करनेवाला [को०] ।

ग्रंथीक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रन्थीक] पिपरामूल ।

ग्रंदप पु †
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व] दे० 'गंधर्व' । उ०—सुरगण ग्रंदप सुपह उहै बध तासु छुड़ाणूँ ।—रघु० रू०, पृ० ४८ ।

गंध्रप पु †
संज्ञा पुं० [सं० गन्धर्व] दे० 'गंधर्व' । उ०—तेतीस करोड़ देवता इट्ठ्यासी हजार ऋषि विद्याधर ग्रंध्रप, जक्ष देस देस रा राजा बैठा है ।—रघु रू०, पृ० २४२ ।

ग्रंस †
संज्ञा पुं० [सं० ग्रंथि = कुटिलता] १. कुटिलता । छल कपट । उ०—सखी री मथुरा में द्वै हंस । वै अक्रूरए उधौ सजनी जानत नीके गंस ।—सूर (शब्द०) । २. वह जो छल कपट करता हो । कुटिल । ३. दुष्ट । उपद्रवी ।

ग्रज्जंत पु
वि० [सं०गर्जन्त] गरजता हुआ । उ०—हलमिलग सेन वे बाह बीर । बरसें अनंग ग्रज्जंत धीर ।—पृ० रा०, १ ।६५९ ।

ग्रज्जना पु
क्रि० अ० [सं० गर्जन] गर्जन करना । गंभीर और जोर का शब्द करना । उ०—झरं सीस तुट्टै बिछूट्टै बिहारं । करैं गल्ल ग्रज्जै पिसाचं चिहारं ।—पृ० रा०, १२ ।१०४ ।

ग्रथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रंथन । गूँथने की क्रिया । २. एक जगह नत्थी करना । ३. जमा का कार्य । गाढ़ा करना । ग्रंथ- रचना करना । लिखना [को०] ।

ग्रथित (१)
वि० [सं०] १.एक जगह नत्थी किया हुआ या बाँध हुआ । ग्रंथित । उ०—प्रतिक्षण में उलझा है कल्पों का ग्रंथित जाल ।—अपलक०, पृ० ८७ । रचा हुआ । रचित । ३. क्रमबद्ध । श्रेणीबद्ध । वर्गीकृत । ४. जमा हुआ । गाढ़ा किया हुआ । ५. आहत । क्षत । ६. अधिकृत । ७. वर्जित । ७. गाँठ युक्त । गाँठवाला [को०] ।

ग्रथित (२)
संज्ञा पुं० कठिन गाँठवाली गिल्टी [को०] ।

ग्रभ (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्भ] दे० 'गर्भ' । उ०—मास सपत अजमाल मात ग्रभ वास महाबल ।—रा० रू०, पृ० २५ ।

ग्रभ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० गर्व] दे० 'गर्भ' । उ०—गिरतनयापत सिख ग्रभ गंजण सुध निस बासर सेवै ।—रघु० रू०, पृ० २५ ।

ग्रम्भनी पु
वि० स्त्री० [सं० गर्भिणी] गर्भवती । हामिला । उ०— षुरसान थान खलभल परिय । ग्रम्भपात भय ग्रम्भनिय ।—पृ० रा० १ ।७१६ ।

ग्रसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भक्षण । निगलना । २. पकड । ग्रहण । ३. खाने के लिये पकड़ना । इस प्रकार चंगुल में फाँसना जिसमें छूटने न पावे । ४. ग्रास । ५. एक असुर का नाम । ६. ग्रहण । ७. दस प्रकार के ग्रहणों में से एक जिसमें चंद्र या सूर्यमंडल पाद, अद्ध या त्रिपाद ग्रस्त हो । विशेष—फलित ज्योतिष के अनुसार ऐसे ग्रहण का फल घमंडी राजाओं का धननाश और घमँडी देशों का पीड़ित होना है । ८. मुख । जबड़ा (को०) ।

ग्रसना
क्रि० स० [सं० ग्रसन] १. बुरी तरह पकड़ना । इस प्रकार पकड़ना कि छूटने न पावे । उ०—टेढ़ जानि शंका सब काहू । बक्र चंद्रमा ग्रसै न राहू ।—तुलसी (शब्द०) । २. सताना ।

ग्रसपति
संज्ञा पुं० [सं०] एक सीधी पंक्ति में पत्थरों पर खोदी हुई मनुष्यमुख की आकृतियाँ । विशेष—इसका व्यवहार प्राचीन काल में देवमंदिरों में शोभा के लिये होता था ।

ग्रसान
वि० [हिं० ग्रसना] दे० 'ग्रस्त' । उ०—तिन मुख्य सोम मिल चाहुवान । मानो कि रिष्षि दरिया ग्रसान ।—पृ० रा०, १ ।६६३ ।

ग्रसित
वि० [सं० ग्रस्त] दे० 'ग्रस्त' ।

ग्रसिष्णु (१)
वि० [सं०] निगलने का अभ्यस्त । २. ग्रसनशील [को०] ।

ग्रसिष्णु (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्म [को०] ।

ग्रस्त
वि० [सं०] १. पकड़ा हुआ । २. पीड़ित । ३. खाया हुआ । ४. आधे उच्चारण किए हुए । अर्ध उच्चारित (शब्द०) (को०) । ५. ग्रहण युक्त [को०] ।

ग्रस्ता
वि० [सं०ग्रस्तृ] ग्रास करनेवाला । भक्षक [को०] ।

ग्रस्तास्त
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहण लगने पर सूर्य या चंद्रमा का बिना मोक्ष हुए अस्त होना ।

ग्रस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रसने की क्रिया । ग्रसन [को०] ।

ग्रस्तोदय
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा या सूर्य का उस अवस्था में उदय होना जब उनपर ग्रहण लगा हो ।

ग्रस्य
वि० [सं०] ग्रसने योग्य । खा जाने योग्य [को०] ।

ग्रह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे तारे जिनकी गति, उदय और अस्त काल आदि का पता ज्योतिषियों ने लगा दिया था । विशेष—(क) प्राचिन काल के ज्योतिषियों में इन ग्रहों की संख्या के संबध में कुछ मतभेद था । वराहमिहिर ने केवल सात ग्रह माने हैं; यथा—सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि । फलित ज्योतिष में इन सात ग्रहों के अतिरिक्त राहु और केतु नामक दो और ग्रह माने जाते हैं और अनेक मांगलिक अवसरों पर इन ९ ग्रहों का विधिवत् पूजन होता है । एक विद्वान् के मत से ग्रहों की संख्या दस है; पर यह कहीं मान्य नहीं है । अधिकांश लोग फलित ज्योतिष के अनुसार ग्रहों की संख्या नौ ही मानते हैं और इसी लिये ग्रह नौ की संख्या का बोधक भी है । फलित ज्योतिष में प्रत्येक ग्रह को कुछ विशिष्ट देशों, जातियों, जीवों और पदार्थों का स्वामी माना है और उनका वर्णविभाग किया गया है । उनमें गुरु और शुक्र को ब्राम्हण, मंगल और रवि को क्षत्रिय, बुध और चंद्रमा को वैश्य और शनि, राहु तथा केतु को शूद्र कहा गया है । मंगल और सूर्य का रंग लाल, चंद्रमा और शुक्र का रंग सफेद गुरु और बुध का रंग पीला और शनि, राहु और केतु का रंग काला बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त फलित ज्योतिष में जो कुंडली बनाई जाती है, उसमें प्रत्येक ग्रह की दूसरे ग्रहों पर एक विशेष रूप से 'दृष्टि' भी होती है । शुभ ग्रह की दृष्टि का फल शुभ और अशुभ ग्रह की दृष्टि का फल अशुभ होता है । यह दृष्टि चार प्रकार की होती है ।—पूर्ण, त्रिपाद, अर्द्ध औऱ एकपाद । पूर्ण दृष्टि का फल पूर्ण, त्रिपाद का तीन चतुर्थांश, अर्द्ध का आधा और एकपाद का एक चतुर्थांश होता है । इस दृष्टि की संबंध में फलित ज्योतिष के ग्रंथो में कहा गया है कि प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें घरो को एकपाद, पाँचवें और नवें घरों के ग्रहों का अर्द्ध, चौथे और आठवें घरो के ग्रहों को त्रिपाद और सातवें घर के ग्रहों को पूर्ण दृष्टि से देखता है । (ख) 'ग्रह' शब्द में पति या पतिवाची कोई दूसरा शब्द जोड़ देने से उसका अर्थ 'सूर्य' हो जाता है । २. आकाशमंडल में वह तारा जो अपने सौर जगत् में सूर्य की परिक्रमा करे । एक निश्चित कक्षा पर किसी सूर्य की परिक्रमा करनेवाला तारा । विशेष—हमारे सौर जगत् में सूर्य के क्रमानुसार अंतर पर बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेपच्यून ये आठ बड़े या प्रधान ग्रह हैं । अब एक नए ग्रह का पता चला है जिसे प्लेटो (कुबेर) कहते हैं । इनके अतिरिक्त, मंगल और बृहस्पति के मध्य में बहुत से छोटे छोटे ग्रह हैं जिनमें से अबतक ४६० से अधिक ग्रहों का होना प्रमाणित हो चुका हैं । ये सब प्रायः एक ही समतल पर हैं और युरेनस तथा नेपच्यून के अतिरिक्त शेष सब ग्रह अपनी कक्षा पर सूर्य की परिक्रमा करते हैं । नेपच्यून और युरेनस का मार्ग कुछ भिन्न है । इन ग्रहों की गति भी अलग अलग है । किसी किसी बड़े ग्रह के साथ उपग्रह भी हैं जो उसी समतल पर अपनी कक्षा में अपनी ग्रह की परिक्रमा करते हैं । जैसे,—हमारी इस पृथिवी के साथ चंद्रमा । इसी प्रकार नेपच्यून के साथ एक, मंगल के साथ दो, युरेनस और बृहस्पति के साथ चार चार और शनी के साथ आठ उपग्रह या चंद्रमा हैं । इनमें से कुछ उपग्रहों का मार्ग और उनकी गति भी साधारण से भिन्न है । प्रत्येक ग्रह सूर्य से कुछ निश्चित अंतर पर है । साधारणतः स्थूल रूप से, सूर्य के ग्रहों का आपोक्षिक अंतर जानने का एक बहुत सरल उपाय यह है —०, ३, ६, १२, २४, ४८, ९६, १९२ इनमें से प्रत्येक संख्या में चार जोड़ दें तो वही संख्या आपेक्षिक अंतर सूचित करनेवाली होगी— ४  ७  १०  १६  २८  ५२  १००  १९६ बुध  शुक्र  पृथ्वी  मंगल  ०  बृहस्पति  शनि  युरेनस अर्थात् यदि सूर्य और बुध का अंतर ४ मान लिया जाय, तो सूर्य से शुक्र का अंतर, लगभग ७, पृथ्वी का १०, मंगल का १६ और शेष ग्रहों का भी इसी प्रकार होगा । प्रत्येक ग्रह का सूर्य से ठीक अंतर, ब्यास और परिक्रमाकाल नीचे लिखे कोष्ठक से विदित होगा । ३. नौ की संख्या । ४. ग्रहण करना । लेना । ५. अनुग्रह । कृपा । ६. चंद्रमा या सूर्य का ग्रहण । ७.वह पात्र जिससे यज्ञ मेंदेवताओं को हविष्य दिया जाता है । ८. राहु । ९. स्कंद, शकुनी आदि रोग जो बहुत ही छोटे बालकों को हो जाते हैं और जिन्हें लोग भूत प्रेत आदि का उपद्रव समझते हैं । बालग्रह ।

ग्रह (२) †
वि० बुरी तरह तंग करनेवाला । दिक करनेवाला ।

ग्रह पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० गृह] दे० 'गृह' । उ०—ड़ारौ ड़र गुरुजनन कौ कहुँ इकंत पाइ । अति रुचि दोउन उर बढ़ी अधरन अधर मिलाइ ।—सं० सप्तक, पृ० ३७६ ।

ग्रहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो ग्रहण करनेवाला हो । ग्राहक । २. कैदी (को०) ।

ग्रहकल्लोल
संज्ञा पुं० [सं०] राहु नामक ग्रह ।

ग्रहकुंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहकुण्डलिका] ग्रहों का परस्पर संबंध और उसके आधार पर कथित या लिखित भविष्यफल [को०] ।

ग्रहकुष्मांड़, ग्रहकूष्माण्ड़
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहकुष्माण्ड़ ग्रहकूष्माण्ड़] पुराणानुसार एक प्रकार की देवयोनि ।

ग्रहगणित
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों के संबंध का गणित । गणित ज्योतिष [को०] ।

ग्रहगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ग्रहदोष । २. ग्रहों की गति [को०] ।

ग्रहगोचर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गोचर' ।

ग्रहगस्त
वि० [सं०] १. बुरे ग्रहों सो ग्रसित । २. प्रेतबाधा से प्रभावित [को०] ।

ग्रहग्रहीत
वि० [सं० ग्रह + गृहीत] ग्रहपीड़ित । उ०—ग्रहग्रहित पुनि बातबस तेहि पुनी बीछी मार ।—मानस, २ ।१८० ।

ग्रहग्रामणी
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।

ग्रहचिंतक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहचिन्तक] ज्योतिषी ।

ग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य, चंद्र या किसी दूसरे आकाशचारी पिंड की ज्योति की आवरण जो दृष्टि और उस पिंड के मध्य में किसी दूसरे आकाशचारी पिंड के आ जाने के कारण उसकी छाया पड़ने से होता है; अथवा उस पिंड और उसे ज्योति पहुँचानेवाले पिंड़ के मध्य में आ पड़नेवाले किसी अन्य पिंड की छाया पड़ने से होता है । जैसे,—चंद्र औऱ (उसे ज्योति पहुँचानेवाला) सूर्य के मध्य में पृथिवी के आ जाने के कारण चंद्रग्रहण और सूर्य तथा पृथिवी के मध्य में चंद्रमा के आ जाने के कारण सूर्यग्रहण का होना । विशेष—पुराणानुसार सूर्य या चंद्रग्रहण का मुख्य कारण राहु नामक राक्षस का उक्त पिंड़ों को ग्रसने या खाने के लिये दौ़ड़ना है (देखो 'राहु') । इसीलिये इस देश में ग्रहण लगने के समय, सूर्य या चंद्रमा की इस विपत्ति से मुक्त कराने के अभिप्राय सो लोग दान, पुण्य ईश्वरप्रार्थना तथा अन्य अनेक प्रकार के उपाय करते हैं । ग्रहण लगने और छूटने के समय स्नान करने की प्रथा भी यहाँ है । पर प्राचीन भारतीय ज्योतिषियों नें ग्रहण का मुख्य कारण उक्त छाया को ही माना है और किसी न किसी रूप में आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों के सिद्धांत के समान ही उसके कारण का निरूपण किया है । सूर्यग्रहण केवल अमावस्या के दिन और चंद्रग्रहण केबल पूर्णिमा के रात को लगता है । सूर्य और चंद्रग्रहण एक वर्ष में कम से कम दो बार और अधिक से अधिक सात बार लगते हैं । पर साधारणतः एक वर्ष में तीन या चार ही ग्रहण लगते हैं और सात ग्रहण बहुत ही कम होते हैं । प्रायः एक समय में ग्रहण पृथ्वी के किसी विशिष्ट भाग में ही दिखाई पड़ता है, समस्त भूमंडल पर नहीं । ग्रहण में कभी तो सूर्य या चंद्र आदि का कुछ अंश ही आवृत होता है और कभी पूरा मंडल । जिस ग्रहण में पूरा मंडल आवृत हो जाय, उसे सर्वग्रास या खग्रास कहते हैं । फलित ज्योतिष में भिन्न भिन्न अवस्थाओं में ग्रहण लगने के भिन्न भिन्न फल आदि भी माने जाते हैं । अवस्था या स्थितिभेद से ग्रहण दस प्रकार के माने गए हैं—सव्य, अपसव्य, लेह, ग्रसन, निरोध, अवमर्द्द, आरोह, आघ्रात मध्मतम और तमोंत्य । इसी प्रकार ग्रहण का मोक्ष भी दस प्रकार का माना गया है—हणुभेद (दक्षिण और वाम दो प्रकार के), कुक्षिभेद (दक्षिण और वाम दो प्रकार के), वायुभेद (दक्षिण और वाम दो प्रकार के), संच्छर्द्दन, जरण, मध्यविदारण और अंतविदारण । हिंदू ग्रहण लगने से कुछ पहर पूर्व और कुछ पहर उपरांत उसकी छाया मानते हैं और छायाकाल में अन्न जल ग्रहण नहीं करते । सूर्य और चंद्रमा के अतिरिक्त दूसरे ग्रहों को भी ग्रहण लगता है, पर उसका इस पृथिवी के निवासियों से कोई संबंध नहीं है । बिना किसी आवरण के सूर्यग्रहण को नहीं देखना चाहिए क्योंकी इससे दृष्टिविकीर होता है । क्रि० प्र० —लगाना । छूटना । २. पकडने, लेने या हस्तगत करने की क्रिया । २. स्वीकार । मंजूरी । ४. अर्थ । ताप्तर्य । मतलब । ५. कथन । उल्लेख । (को०) । ६. धारण । पहनना (को०) । ७. अधिकार करना । मनसा ग्रहण करना (को०) ।८. ध्वनि ग्रहण (को०) । ९. हाथ (को०) । १०. ज्ञानेंद्रिय (को०) ।११. कैदी (को०) । १२. पाणिग्रहण । विवाह (को०) । १३. कैद करना (को०) । १४. क्रय । खरीद (को०) । १५. चयन । चुनना (को०) । १६. आकर्षण (को०) । १७. सेवा (को०) । १८. प्रशंसापूर्ण उल्लेख समादर (को०) । १९. संबोधन (को०) ।

ग्रहणक
वि० [सं०] ग्रहण करनेवाला [को०] ।

ग्रहणांत
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहणान्त] अध्ययन की समाप्ति [को०] ।

ग्रहणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ग्रहणी' ।

ग्रहणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० १. सुश्रुत के अनुसार उदर में पक्वाशय और आमाशय के बीच की एक नाड़ी जो अग्नि या पित्त का प्रधान आधार है । २. इस नाड़ी के दूषित होने से उत्पन्न एक प्रकार का रोग जिसमें खाया हुआ पदार्थ पचता नहीं और ज्यों का त्यों दस्त की राह से निकल जाता है । वि० दे० 'संग्रहणी' । यौ०—ग्रहणीहर = लौंग ।

ग्रहणी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहण] ग्रहण करने की क्रिया । ग्रहण । उ०—ग्रहणो मैं सिवनेम सहणी में अहीस ।— रा० रू०, पृ० ९७ ।

ग्रहणीय
वि० [सं०] ग्रहण करने योग्य । जो ग्रहण किया जा सके ।

ग्रहदशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोचर ग्रहों की स्थिति । २. ग्रहों की स्थिति के अनुसार किसी मनुष्य की भली बुरी अवस्था । ३. अभाग्य । कमबख्ती । दुरवस्था । क्रि० प्र०—आना ।—छाना ।—बीतना ।

ग्रहदाय
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों की स्थिति के आधार पर किसी जातक की आयु का निर्धारण [को०] ।

ग्रहदायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] जन्म समय के ग्रहों की स्थिति के अनुसार किसी जातक की आयु । उम्र ।

ग्रहदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रहों की दृष्टि । दे० 'ग्रह (१)'—१ का विशेष—(क) ।

ग्रहदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] वह देवता जो किसी विशेष ग्रह का अधिष्ठाता होता है [को०] ।

ग्रहदोष
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहविशेष की अशुभ या अरिष्टकारक दृष्टि [को०] ।

ग्रहद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] काकड़ा सींगी ।

ग्रहन पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहण] स्वीकार । अंगीकरण । उ०—जे बुद्धिमंत है, तेई ग्रहन करि सकें ।—पोद्यार अभि० ग्रं०, पृ० ५२० ।

ग्रहनपानिग पु †
संज्ञा पुं० [सं० पाणिग्रहण] दे० 'पाणिग्रहण' । उ०—सुभ सोमेस नरिंद ग्रहनपानिंग मंडि कर ।—पृ० रा० १ ।६७० ।

ग्रहनायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. शनि [को०] ।

ग्रहनाश
संज्ञा पुं० [सं०] सतिवन नाम का पेड़ ।

ग्रहनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहनाश वृक्ष [को०] ।

ग्रहनिका पु
वि० [सं० ग्रहण] ग्रहणीय । ग्राह्य । उ०— द्वापरे षिति बशंस्य । कलिजुगे सूद्र ग्रहनिका ।—पृ० रा०, २४ ।४३० ।

ग्रहनिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] पुरस्कार और दंड (को०) ।

ग्रहनेम
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश (डिं०) ।

ग्रहनेमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंद्रमा के मार्ग का वह भाग जो मूल और मृगाशिरा नक्षत्रों के बीच में पड़ता है । २. चंद्रमा । ३. आकाश (डिं०) ।

ग्रहपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. शनि । ३. आक का पेड़ ।

ग्रहपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० गेरहपीड़न] ग्रहों की स्थीति से उत्पन्न होनेवाली पीड़ा [को०] ।

ग्रहपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहपीडा] दे० 'ग्रहपीड़न' [को०] ।

ग्रहपुष
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।

ग्रहभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधिष्ठाता ग्रहों के अनुसार देशों आदि का विभाजन [को०] ।

ग्रहभीतिजित्
संज्ञा पुं० [सं०] चीड़ नाम का गंधद्रब्य ।

ग्रहभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों को दिया जानेवाला भोग [को०] ।

ग्रहमंडल
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहमण्डल] [संज्ञा स्त्री० ग्रहमंडली] ग्रहों का समूह [को०] ।

ग्रहमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रहयुद्ध' [को०] ।

ग्रहमैत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वर और कन्या के ग्रहों के स्वामियों की मित्रता या अनुकूलता, जिसका विचार विवाह के समय होता है ।

ग्रहमैत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ग्रहमैत्र' ।

ग्रहयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष और पुराणों के अनुसार ग्रहों की उग्रता या कोप संबंधी दोषों को दूर करने के लिये एक प्रकार का पूजन या यज्ञ ।

ग्रहयाग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रहयज्ञ' [को०] ।

ग्रहयुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राशि के एक ही अंश पर दो ग्रहों का एकत्र होना ।

ग्रहयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यसिद्धांत के अनुसार बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि या मंगल में से किसी एक ग्रह के चंद्रमा के साथ अथवा उक्त ग्रहों में से किसी दो ग्रहों का एक साथ एक राशि के एक अंग पर इस प्रकार एकत्र होना कि उस ग्रह पर ग्रहण लगा हुआ जान पडे़ । फलित ज्योतिष के अनुसार इसका फल भयंकर होता है ।

ग्रहयुद्धभ
संज्ञा पुं० [सं०] वह नक्षत्र जिसपर कोई दो ग्रह एक साथ एकत्र हों ।

ग्रहयोग
संज्ञा पुं० [सं०] 'ग्रहयुति' ।

ग्रहराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । २. चंद्रमा । ३. बृहस्पति ।

ग्रहवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों की गति के अनुसार प्रचलित वर्ष [को०] ।

ग्रहविचारी
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहविचारिन् ] ग्रहों पर विचार करने— वाला । ग्रहचिंतक [को०] ।

ग्रहविप्र
संज्ञा पुं० [सं०] बंगाल और दक्षिण में होनेवाले एक प्रकार के ब्राम्हण जो कुछ विशिष्ट क्रियाओं से ग्रहों का शुभाशुभ फल बतलाते हैं ।

ग्रहवेध
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रह की स्थिति के आदि का जानना ।

ग्रहशांत
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रहशान्ति] अशुभ ग्रहों की निवृत्ति के लिये जप, यज्ञ आदि करना [को०] ।

ग्रहशृंगाटक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहशृंङ्गाटक] बृहत्संहिता के अनुसार ग्रहों का एक प्रकार का योग जिसके अवस्थानुसार शुभ और अशुभ फल होते हैं ।

ग्रहसंगम
संज्ञा पुं० [सं०ग्रहसङ्गम] अनेक ग्रहों का एकत्र होना [को०] ।

ग्रहसमागम
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा के साथ मंगल, बुध आदि ग्रहों का योग ।

ग्रहसाल पु
वि० [सं० ग्रह (=ग्राह)+सालना] ग्राह को सालनेवाला या नाश करनेवाला । उ०—गोबर्धन श्री गदाधर; गजतारन ग्रहसाल ।—दरिया बा०, पृ० १९ ।

ग्रहस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] किसी राग में वह स्वर जिससे वह राग आरंभ होता है—(संगीत) ।

ग्रहा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्रह+आ (प्रत्य०)] गृहिणी ।

ग्रहागम
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेतावेश । प्रेतबाधा [को०] ।

ग्रहाग्रेसर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।

ग्रहाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रहविप्र' ।

ग्रहाधार
संज्ञा पुं० [सं०] ध्रुव नक्षत्र । ध्रुवा ।

ग्रहाधीन
वि० [सं०] ग्रहों से प्रभावित । ग्रहों के अधीन [को०] ।

ग्रहाधीश
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।

ग्रहामय
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृगी । मूर्च्छा । २. प्रेतबाधा । भूतावेश [को०] ।

ग्रहालुंचन
संज्ञा पुं० [सं० ग्रहालुञ्चन] शिकार पर झपटकर उसे चीर फाड़ डालना ।

ग्रहावमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] १.राहु । २. ग्रहयुद्ध ।

ग्रहावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मपत्री [को०] ।

ग्रहाशी
संज्ञा पुं० [सं०ग्रहाशिन्] ग्रहनाश वृक्ष [को०] ।

ग्रहाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रहाधार' ।

ग्रहाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] भूतांकुश नामक वृक्ष ।

ग्रहिल
वि० [सं०] १. ग्रहण करनेवाला । २. हठी । दुराग्रही । ३. प्रेतबाधित [को०] ।

ग्रहीत
वि० [सं०गृहित] दे० 'गृहीत' ।

ग्रहीतव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रहण करने योग्य । ग्राह्य । २. लेने या उडलने योग्य (को०) । ३. बोध्य । ज्ञेय । जानने, सीखने या समझने योग्य (को०) ।

ग्रहीता
वि० [सं० ग्रहीतृ] [वि० स्त्री० ग्रहीत्री] १. लेनेवाला । ग्रहण करनेवाला । उ०— दाता और ग्रहीता दोऊ । दोहुन सम दिगंत नहिं कोऊ ।—रघुराज (शब्द०) । २. निरक्षणकर्त्ता (को०) । ३. ऋणी । कर्ज लेनेवाला (को०) । ४. खरीदनेवाला । क्रेता (को०) । ५. पकड़नेवाला (को०) ।

ग्रहीस पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रह+ईश] सूर्य । उ०—ग्रहस दीठि ना परै । दुहूँ सरीस धाईयौ ।—सुजान०, पृ० ४१ ।

ग्रहेश
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०] ।

ग्रहोपराग
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों का ग्रहण ।

ग्रह्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञपात्र ।

ग्रांडील
वि० [अं० ग्रैंठियर; ग्रैंडडील] ऊँचे कद का । बहुत बड़ा या ऊँचा । जैसे,—ग्रांडील हाथी, ग्रांडील जवान ।

ग्राम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटी बस्ती । गाँव । २. मनुष्यों के रहने का स्थान । बस्ती । आबादी । जनपद । ३. समूह । ढेर । उ०—सिगरे राज समाज के कहे गोत्रगुण ग्राम । देश सुभाव प्रभाव अरु कुल बल विक्रय नाम ।—केशव (शब्द०) । विशेष—इस अर्थ में यह शब्द केवल यौगिक शब्दों के अंत से आता है । जैसे,—गुणग्राम । ४. शिव । ५. जाति (को०) । ६. क्रम से सात स्वरों का समूह । सप्तक (संगीत) । विशेष—संगीत में सुभीते के लिये षड़ज, मध्यम और गांधार नामक तीन ग्राम निश्चित कर लिए गए हैं, जिन्हें क्रमशः नंद्यावर्त्त, सुभद्र और जीमूत भी कहते हैं और जिनके देवता एक क्रम से ब्रह्मा, विष्णु और शीव हैं । प्रत्येक ग्राम में सात सात मूर्च्छनाएँ होती हैं । सा (षड़ज) से आरंभ करके (सा रे ग म प ध नि) जो सात स्वर हों, उनके समूह को षड़ज ग्राम; म (मध्यम) से आरभ करके (म प ध नि सा रे ग) जो सात स्वर हों, उनके समूह को मध्यम ग्राम और इसी प्रकार गा (गांधार) या प (पंचम) से आरंभ करके जो स्वर हों, उनके समूह को गांधार अथवा पंचम (जैसी अवस्था हो) ग्राम मानते हैं । इनमें से पहले दो ग्रामों का व्यवहार तो इसी लोक में मनुष्यों द्वारा होता है; पर तीसरे ग्राम का व्यवहार स्वर्गलोक में नारद करते हैं । वास्तव में तीसरा ग्राम होता भी बहुत ऊँचा है और उसके स्वर केवल सितार सारंगी, हारमोनिम आदि बाजों में ही निकल सकते हैं, मनुष्यों कि गले से नहीं ।

ग्राम (२)
संज्ञा पुं० [अं०] एक अंग्रेजी तौल ।

ग्रामकंटक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामकण्टक] १. वह जो गाँव के लिये कष्ट का कारण हो । २. चुगलखोर (को०) ।

ग्रामक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रामीण । २. आनंददायक समूह [को०] ।

ग्रामकाम
वि० [सं०] १. ग्राम पर अधिकार करने का इच्छुक २. ग्रामवास का इच्छुक [को०] ।

ग्रामकायस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का कायस्थ या लेखक [को०] ।

ग्रामकुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] पालतू मुरगा ।

ग्रामकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ग्रामकुमारी] ग्राम का सुंदर तरुण । २. ग्राम का कुमार या बालक ।

ग्रामकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र । २. गाँव का मुखिया या चौधरी । विशेष—कौटिल्य के समय में इनके पीछे भी गुप्तचर रहते थे । इनकी ईमानदारी की जाँच करते रहते थे ।

ग्रामकूटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र । ३. गाँव का मुखियाँ या चौधरी [को०] ।

ग्रामगृह्य
वि० [सं०] गाँव के बाहर होनेवाला । गाँव के बाहर का [को०] ।

ग्रामगृह्यक
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामीण बढ़ई [को०] ।

ग्रामगेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार क साम ।

ग्रामगोदुह
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का ग्वाल [को०] ।

ग्रामघात
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव को लूटना [को०] ।

ग्रामघोषी
वि० [सं० ग्रामघोषिन्] १. जनसमूह या सेना में घोष या ध्वनि करनेवाला (जैसे दुंदुभि) । २. इंद्र का विशेषण [को०] ।

ग्रामचर
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव का निवासी [को०] ।

ग्रामचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री संभोग । रति [को०] ।

ग्रामचैत्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाँव का पवित्र पीपल वृक्ष [को०] ।

ग्रामज, ग्रामजात
वि० [सं०] १. गाँव में उत्पन्न । ग्रामीण । २. कृषि या खेत में उपजा हुआ [को०] ।

ग्रामजाल
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामों का समूह या मंडल [को०] ।

ग्रामटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटा गाँव । कुछ घरों का पुरा । बस्ती । उ०—ग्रामटिका बनिजात नगर वह उभय मासलौं । प्रेमघन०, भा०१, पृ० ३० । २. अभागा या दरिद्र गाँव (को०) ।

ग्रामणी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाँव, दाति, या समूह का मालिक या मुखिया । २. प्रधान । अगुआ । ३. विष्णु । ४. यक्ष । ५. नाऊ । हज्जाम । ६. कामी पुरुष । ७. एक यक्ष (को०) ।

ग्रामणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. वेश्या । यौ०—ग्रामणीपुत्र = वेश्यापुत्र । २. नील का पेड़ ।

ग्रामणीसव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का याग जो एक दिन में होता है ।

ग्रामतक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामीण बढ़ई [को०] ।

ग्रामदेव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रामदेवता' ।

ग्रामदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी एक गाँव में पूजा जानेवाला देवता । २. गाँव की रक्षा करनेवाला देवता । विशेष—भारत के प्रायः प्रत्येक गाँव में एक न एक ग्रामदेवता होता है ।

ग्रामद्रोही
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामद्रोहिन्] ग्राम की मर्यादा या नियम का भंग करनेवाला । ग्रामकंटक । विशेष—प्राचीन काल में ग्राम के प्रबंध और आदि निबटाने का भार गाँव की पंचायत पर ही रहता था । जो उक्त पंचायत के निर्णय के विरुद्ध काम करते या उसका नियम तोड़ते थे, वे ग्रामद्रोही कहलाते और दंड के भागी होते थे ।

ग्रामधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. ग्रामीण परंपराएँ । गाँव की रीति- नीति । २. स्त्रीसंभोग । मैथुन [को०] ।

ग्रामपंचायत
संज्ञा स्त्री० [ग्राम+ हिं० पंचायत] ग्रामीण व्यक्तियों की वह आधिकारिक व्यवस्था जो गाँव के झगड़ों का न्याय, गाँव में सफाई, स्वच्छता की व्यवस्था करने आदि का कार्य करती है ।

ग्रामधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] कृषि की उपज । खेती की उपज [को०] ।

ग्रामपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाँव का मालिक या स्वामी । २. गाँव की रक्षा करनेवाला सैनिक या सेना ।

ग्रामपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का मुखिया [को०] ।

ग्रामप्रेष्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो गाँव सब लोगों की सेवा करता हो । मनु के अनुसार ऐसे व्यक्ति को यज्ञ और श्राद्ध आदि कार्यों में संमिलित न करना चाहिए ।

ग्रामभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत से लोगों की सेवा करनेवाला मनुष्य । विशेष—ऐसा मनुष्य यदि ब्राह्मण हो तंब भी अब्राह्मण हो जाता है ।

ग्राममदगुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झगड़ा । टंटा । कलह । २. एक मछली का नाम । ३. एक पौधा [को०] ।

ग्राममुख
संज्ञा पुं० [सं०] बाजार । हाट ।

ग्राममृग
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता ।

ग्रामयाजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह ब्राह्मण जो ऊँच नीच सभी जाति के लोगों का पुरोहित हो । विशेष—शतातपर के अनुसार ऐसा ब्राह्मण अपने धर्म और वर्ण से पतित होता है और महाभारत के अनुसार ऐसे ब्राह्मण को दान देने का कोई फल नहीं होता । २. पुजारी (को०) ।

ग्रामयाजी
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामयाजिन्] दे० 'ग्रामयाजक' [को०] ।

ग्रामयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] बलवा । दंगा [को०] ।

ग्रामर
संज्ञा पुं० [अं०] व्याकरण ।

ग्रामरथ्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाँव की गली [को०] ।

ग्रामवधू
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्राम + वधू] गाँव की बहू । ग्रामीण स्त्री । ग्रमीण बधू । उ०—लौटी ग्रामवधू पनघट से ।—आराधना, पृ० ३७ ।

ग्रामवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या । कसबी । रंडी । २. पालकी का साग ।

ग्रामवास
संज्ञा पुं० [सं०] गावँ में निवास या वास करना [को०] ।

ग्रामषंड
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामषण्ड] क्लीब । नपुंसक [को०] ।

ग्रामसंकर
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामसङ्कर] गाँव की नाली [को०] ।

ग्रामसंघ
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामसङ्घ] ग्रामों का समूह या मंडल [को०] ।

ग्रामसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता । उ०—चित्रमृग श्रमर गवै गण बिलोकि बन, ढील चटकीले ग्रामसिंह चले धाय कै ।—रघुराज (शब्द०) ।

ग्रामस्थ
वि० [सं०] ग्रामवासी । ग्रामीण [को०] ।

ग्रामहट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का मुखिया या चौधरी । ग्रामकूट ।

ग्रामहासक
संज्ञा पुं० [सं०] बहनोई [को०] ।

ग्रामांत
संज्ञा पुं० [सं० ग्रमान्त] गाँव की सीमा । २. गाँव से सटा हुआ भाग । सिवान [को०] ।

ग्रामांतर
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामान्तर] दूसरा गाँव [को०] ।

ग्रामांतिक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामान्तिक] ग्राम का पड़ोस [को०] ।

ग्रामांतीय (१)
वि० [सं० ग्रामान्तीय] ग्राम के पास स्थित [को०] ।

ग्रामांतीय (२)
संज्ञा पुं० ग्राम के पासपड़ोस की भूमि [को०] ।

ग्रामाक्षपटलिक
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव के लोगों को जुआ खेलाने का प्रबंध करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

ग्रामाचार
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव के रीतिरिवाज [को०] ।

ग्रामाधान
संज्ञा पुं० [सं०] आखेट । मृगया । शिकार ।

ग्रामाधिकृत, ग्रामाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम का प्रधान । गाँव का मुखिया ।

ग्रमाधिपति
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम + अधिपति] ग्राम का प्रबंध करनेवाला एक अधिकारी । उ०—गाँव का प्रबंध ग्रामा- धिपति गाँववालों की सालह से करता था ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १७३ ।

ग्रामाध्यक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामप्रधान । गाँव का मुखिया ।

ग्रामानग्राम पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रामानुग्राम] एक गाँव से दूसरेगाँव । प्रति गाँव । उ०—ग्रामानग्राम तोरनउतंग । बन बढि्ढ कढि्ढ विधि निधि पुरंग ।—पृ० रा०, १ ।६०६ ।

ग्रामिक (१)
वि० [सं०] १. गाँव संबंधी । गाँव का । २. देहाती । गँवार (को०) ।

ग्रामिक (२)
संज्ञा पुं० १. वह मनुष्य जिसे गाँववाले अपनी रक्षा के लिये अपनी मुखिया चुनें । २. ग्रामीँ । ग्रामवासी (को०) ।

ग्रामीणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का पौधा [को०] ।

ग्रामी (१)
वि० [सं० ग्रामिन्] १. देहाती । गँवार । २. गाँव का । ३. कामी । लंपट । ३. संगीत विषयक [को०] ।

ग्रामी (२)
संज्ञा पुं० १. ग्रामप्रधान । गाँव का मुखिया । ३. ग्राम- निवासी [को०] ।

ग्रामीण (१)
वि० [सं०] १. देहाती । गँवार । २. ग्राम (संगीत) संबंधी (को०) । ३. ग्राम या गाँव संबंधी (को०) ।

ग्रामीण (२)
संज्ञा पुं० १. मुरगा । २. कौआ । ३. सूअर । ४. कुत्ता । ५. ग्राम का वासी या निवासी (को०) ।

ग्रामीणा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पेड़ । २. पालकी का साग ।

ग्रामीणा (२)
संज्ञा स्त्री० गाँव की रहनेवाली स्त्री । ग्रामनिवासिनी [को०] ।

ग्रामीन पु
वि० [सं०] १. गाँव में उत्पन्न । २. गँवार [को०] ।

ग्रामीय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ग्रामीय] गाँव का । गाँव से संबंधित [को०] ।

ग्रामीय (२)
संज्ञा पुं० ग्रामवासी । देहाती [को०] ।

ग्रामेय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ग्रामेयी] १. गाँव में उत्पन्न । २. देहाती । गँवार [को०] ।

ग्रामेय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रामवासी [को०] ।

ग्रामेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या । रंडी [को०] ।

ग्रामेरुक
संज्ञा पुं० [सं०] चंदन का एक प्रकार या भेद [को०] ।

ग्रामेश, ग्रामेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रामाधिपति' [को०] ।

ग्रामोद्योग
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम+ उद्योग] गाँव के धंधे । ग्रामीण उद्योग ।

ग्रामोफोन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा जिसमें गीत आदि भरे और इच्छानुसार समय समय पर सुने जा सकते हैं । विशेष—इस बाजे में कुछ विशिष्ट द्रव्यों से बने एक प्रकार के गोल तवे पर, जिसे चूड़ी कहते हैं, और जिस पर गोल रेखाएँ रहही हैं, सूई लगे हुए एक यंत्र की सहायता से सब प्रकार के बोले हुए वाक्य या गाए हुए गीत आदि एक विशेष रूप से अकित हो जाते हैं और उन अकित वाक्यों या गीतों को जब इच्छा हो ध्वनि उत्पन्न करनेवाले एक दूसरे यंत्र की सहायता से सुन सकते हैं ।

ग्राम्य (१)
वि० [सं०] १. गाँव से संबंध रखनेवाला । ग्रामीण । २. बेवकूफ । ३. मूढ़ । ३. प्राकृत । असली ।

ग्राम्य (२)
संज्ञा पुं० १. एक प्रकार का रतिबध । २. काव्य का एक दोष । वह काव्य जिसमें गँवारू शब्दों की अधिकता हो अथवा जिसमें गँवारू विषयों का वर्णन हो, इस दोष से दूषित समझा जाता है । ३. अश्लील शब्द या वाक्य । ४. मैथुन । स्त्री- प्रसंग । ५. मिथुन राशि । ६. गधा, घोड़ा, खच्चर, बैल आदि पशु जो पाले जाते और गाँवों में रहते हैं ।

ग्राम्यकंद
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम्यकंद] स्थलकंद [को०] ।

ग्राम्यकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुष्मांड [को०] ।

ग्राम्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम्यकर्मन्] २. ग्रामवालों का पेशा । २. स्त्रीसंभोग । मैथुन [को०] ।

ग्राम्यकुंकुम
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम्यकुङ्कुम] कुसुंब ।

ग्राम्यदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्रामदेवता' ।

ग्राम्यदोष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ग्राम्य' [को०] ।

ग्राम्यधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैथुन । स्त्रीप्रसंग । २. ग्रामीण का कर्तव्य (को०) ।

ग्राम्यधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव की फसल । खेती । उपज [को०] ।

ग्राम्यपशु
संज्ञा पुं० [सं०] पालतू जानवर [को०] ।

ग्राम्यबुद्धि
वि० [सं०] मूढ़ । मूर्ख [को०] ।

ग्राम्यमृग
संज्ञा पुं० [सं०] कुता [को०] ।

ग्राम्यवल्लभ
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या । रंडी [को०] ।

ग्राम्यवादी
संज्ञा पुं० [सं० ग्राम्यवादिन्] ग्राम के वाद या झगड़ों आदि का निर्णय करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

ग्राम्यसुख
संज्ञा पुं० [सं०] मैथुन । स्त्रीप्रसंग [को०] ।

ग्राम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नील का पेड़ । २. तुलसी ।

ग्राम्याश्व
संज्ञा पुं० [सं०] गधा [को०] ।

ग्राव
संज्ञा पुं० [सं० ग्रावन्] १. पत्थर । ओला । बिनौरी । ३. पर्वत । पहाड़ । ४. बादल (को०) ।

ग्राव (२)
वि० १. कठोर । २. ठोस [को०] ।

ग्रावस्तुत्
संज्ञा पुं० [सं०] सोलह् ऋत्विजों में से तेरहवाँ ऋत्विज जिसे अच्छावाक् भी कहते हैं ।

ग्रावह
संज्ञा पुं० [सं० ग्रावन्] पत्थर की कील ।

ग्रावहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में एक ऋत्विक् जिसके हाथ में अभिषव का पत्थर रहता है ।

ग्रावायण
संज्ञा पुं० [सं०] एक पकार का नाम ।

ग्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. उतना भोजन जितना एक बार मुँह में डाला जाय । गस्सा । कौर । निवाला । २. पकड़ने की क्रिया । पकड़ । गिरफ्त । ३. सूर्य या चंद्रमा में ग्रहण लगना । जैसे,— खग्रास, सर्वग्रास । ४. संगीत का एक भेद । उ०—आछी भाँति तान गावन बाँकी रीतिन सुरग्राम ग्रास गहि चोख चटक सों ।—घनानंद, पृ० ४२५ । ५. आहार निगलने का कार्य (को०) । ६. आहार (को०) । ७. अस्पष्ट उच्चारण (को०) ।

ग्रासक
वि० [सं०] १. पकड़नेवाला । ३. निगलनेवाला । ३. छिपाने या दबानेवाला ।

ग्रासकट
संज्ञा पुं० [अं०] घास काटनेवाला । घसियारा ।

ग्रासकारी
वि० [अं० गांसकारिन्] ग्रसनेवाला । निगलनेवाला [को०] ।

ग्रासना
क्रि० स० [सं० ग्रास] १. पकड़ना । धरना । निगलना । उ०—ग्रासत चित्त गयंद को ग्राह जब आय । हरिप्यारे मन कमल लै नेही छुड़ाय ।—रसनिधि (शब्द०) । २. कष्ट देना । सताना ।

ग्रासप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रास या कौर का आकार [को०] ।

ग्रासशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] गले में किसी बाह्य वस्तु का अटक जाना [को०] ।

ग्रासाच्छादन
संज्ञा पुं० [सं०] खाना कपड़ा । भोजनवस्त्र [को०] ।

ग्राह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मगर । घड़ियाल । २. ग्रहण । उपराग । ३. पकड़ना । लेना । ग्रहण करना । ४. ज्ञान । ५. ग्रहण करनेवाला । ग्राहक । ६. आग्रह (को०) । ७. कैदी (को०) । ८. समझ । बोध (को०) । ९. प्राप्ति (को०) । १०. चयन (को०) । ११. निश्चिय (को०) । १२. रोग (को) । १३. बड़ा मत्स्य (को०) । १५. कार्यारंभ (को०) । १६. लकवा । पक्षाघात (को०) । १७. हत्था । मुठिया (तलवार आदि का) ।

ग्राह (२)
वि० १. ग्रहण करनेवाला । लेनेवाला । २. पकड़नेवाला [को०] ।

ग्राहक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ग्राहिका] १. ग्रहण करनेवाला । २. मोल लेनेवाला । खरीदनेवाला । खरीददार । ३. लेने या पाने की इच्छा रखनेवाला । चाहनेवाला । ४. वह ओषधि जिसके सेवन से पतला दस्त आना बंद हो जाय और बँधा पाखाना होने लगे । ५. बाज पक्षी । ६. एक प्रकार का साग जिसे चौपतिया कहते हैं । ७. शरीर में यविष्ट विष को चिकित्सा द्वारा दूर करनेवाला वैद्य । विष वैद्य । ८. लोगों को कैद करनेवाला व्यक्ति । पुलिस अधिकारी (को०) ।

ग्राहक (२)
वि० [वि० स्त्री० ग्राहिका] १. ग्रहण करनेवाला । २. मल रोकनेवाला । बंदी करनेवाला । ४. समझानेवाला [को०] ।

ग्राहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिबली का तीसरा बल ।

ग्राहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्भाग्य [को०] ।

ग्राही (१)
संज्ञा पुं० [सं० ग्राहिन] १. वह जो ग्रहण करे । स्वीकार करनेवाला । जैसे,—दानग्राही । २. मल को रोकनेवाला पदार्थ । कब्ज करनेवाली चीज । ३. कैथ । कपित्थ ।

ग्राही (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्राह या घड़ियाल की मादा [को०] ।

ग्राहुक
वि० [सं०] ग्राहक । ग्रहण करनेवाला [को०] ।

ग्राह्य
वि० [सं०] १. लेने योग्य । २. स्वीकार करने योग्य । मानने- लायक । ३. जानने योग्य । समझने योग्य । ३. कैद करने योग्य (को०) । ५. मान्य । स्वीकृत (को०) ।

ग्रिव पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्रीवा] उ०—भेख बनावै सोभा बड़ि सुंदरि सेली गुँथि ग्रिव नावै ।—सं० दरिया, पृ० १०४ ।

ग्रीक (१)
वि० [अं०] यूनान देश का । यूनान देश संबंधी ।

ग्रीक (२)
संज्ञा स्त्री० ग्रीस या यूनान देश की भाषा ।

ग्रीक (३)
संज्ञा पुं० ग्रीस या युनान देश का निवासी ।

ग्रीखम पु
संज्ञा पुं० [सं० ग्रीष्म] दे० 'ग्रीष्म' ।

ग्रीज
संज्ञा पुं० [अं० ग्रीज या ग्रोस] १. पशुओं की चर्बी । २. गाढ़ा किया हुआ तेल मिश्रित कोई पदार्थ जो कागज चिपकाने, जिल्द बंदी, करने, रबर आदि जोड़ने, कल पुर्जों आदि को चलता रखने के काम में इस्तेमाल किया जाता है ।

ग्रीव पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ग्रीव' । उ०—कर चरन न्यास भुज ग्रीव ढोरि मुरि चलत लटक सों ।—घनानंद, पृ० ४२५ ।

ग्रीवत पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ग्रीवा' । उ०—पवंग मोर पष्परह मोर ग्रीवत गज गाहिय ।—पृ० रा०, ६१ ।१७९० ।

ग्रीवांकुश
संज्ञा पुं० [सं० ग्रीवाङ्कुश] अंकुश की तरह गर्दनवाला । ऊँट [को०] ।

ग्रीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिर और धड़ को जोड़नेवाला अंग । गर्दन । विशेष—समस्त होने पर इस शब्द का रूप ग्रीव हो जाता है । जैसे, हयग्रीव, सुग्रीव ।

ग्रीवाघंटा
संज्ञा पुं० [सं० ग्रीवाघण्टा] बैल, गाय आदि के गले में बजनेवाली घंटी [को०] ।

ग्रीवोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ग्रीवा' [को०] ।

ग्रीवी (१)
संज्ञा पुं० [सं० ग्रीविन्] १. वह जिसकी गर्दन लंबी हो । २. ऊँट ।

ग्रीवी (२)
वि० १. लंबी गर्दनवाला । २. सुंदर गर्दनवाला [को०] ।

ग्रीषम पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रीष्म] दे० 'ग्रीष्म' । उ०—ऋतु ग्रीषम कौ आज्ञा सुदिन्न । तिहिं अति प्रताप जाज्वल्लि किन्न—हम्मीर रा०, पृ० १९ ।

ग्रीष्म
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गरमी की ऋतु । विशेष—कुछ लोग बैसाख और जेठ तथा कुछ लोग जेठ और आषाढ़ मास को ग्रीष्म ऋतु मानते हैं । संक्रांति के हिसाब से वृष और मिथुन की संक्रांति भर ग्रीष्म ऋतु मानी जाती है । पर्या०—उष्णाक । ऊष्ण । ऊष्मागम । निदाव । तप । धर्म । तापन, आदि । २. उष्ण । गरम ।

ग्रीष्मकाल
संज्ञा पुं० [सं०] गरमी का मौसम [को०] ।

ग्रीष्मकालीन
वि० [सं०] ग्रीष्मकालका । ग्रीष्म ऋतु से संबंधित [को०] ।

ग्रीष्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेवारी का फूल [को०] ।

ग्रीष्मधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] गरमी में उत्पन्न होनेवाला अनाज [को०] ।

ग्रीष्मप्रधान
वि० [सं० ग्रीष्म + प्रधान] अधिक गरमीवाला । जहाँ अधिक गरमी पड़ती हो । जैसे, ग्रीष्मप्रधान देश ।

ग्रीष्मभवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेवारी का फूल ।

ग्रीष्मसुंदरक
संज्ञा पुं० [सं० ग्रीष्मसुन्दरक] एकप्रकार का शाक [को०] ।

ग्रीष्महास
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुढ़िया का सूत । २. छोटे बारीक बीज जो हवा में गरमी के दिनों में उड़ते रहते हैं [को०] ।

ग्रीष्मी
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रीष्मिन्] नेवारी का फूल [को०] ।

ग्रीष्मोद्भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेवारी का फूल [को०] ।

ग्रीस
संज्ञा पुं० [अं०] यूनान नामक देश जो योरप के पूरब—दक्षिण में है ।

ग्रूप
संज्ञा पुं० [अ०] झुंड । समूह । गरोह ।

ग्रेट प्राइमर
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का छापे का अक्षर जिसका जो १६ प्वाइंट का होता है और आकार प्रकार ऐसा होता है—'ग्रट प्राइमर ।'

ग्रेट बिटन
संज्ञा पुं० [अँ० ग्रेट ब्रिट्न] इंगलैंड और स्काटलैंड देश ।

ग्रेटब्रिटेन
संज्ञा पुं० [अं०] इंग्लैंड, वेल्म और स्काटलैंड द्वीपसमूह ।

ग्रेन
संज्ञा पुं० [अं०] एक अँगरेजी तौल जो एक जौ के बराबर होती है ।

ग्रेनाइट
संज्ञा पुं० [अं०] एक तरह का आग्नेय पत्थर जो बहुत कड़ा होता है । विशेष—यह हलके भूरे अथवा पीले रंग का और कोई प्रकार का होता है । कोई कोई ग्रेनाइट संगमरमर की भाँति सफेद भी होता है । इसे काटने में बहुत अधिक खर्च पड़ता है और साधारण इमारतों में इसका बहुत कम व्यवहार होता है । पुल की कोठियाँ बनाने अथवा ऐसे स्थानों में जहाँ बहुत अधिक मजबूती की आवश्यकता हो, इसका उपयोग किया जाता है । गरमी पाकर यह और पत्थरों की अपेक्षा जल्दी चटक जाता है । इसपर पालिश बहुत अच्छी होती है पर अधिक कड़े और खुरदरे होने के कारण न तो इसकी मूर्तियाँ बन सकती हैं और न इनपर खुदाई का महीन काम हो सकता है । इसमें अबरक का भी बहुत कुछ अंश मिला रहता है । इसे संगखारा भी कहते हैं ।

ग्रेह पु †
संज्ञा पुं० [सं० गृह अथवा गेह] दे० 'गेह' या 'गृह' ।

ग्रहि पु
संज्ञा पुं० [हिं० गृहिन्] दे० 'गिरही' । उ०—ऐसी रहाक ग्रेही जो धरहै ।—कबीर सा०, पृ० २२३ ।

ग्रेही पु
वि० [हिं० ग्रेह+ ई (प्रत्य०)] १. गृही । संसारी । २. मायाग्रस्त । उ०—जाका गुरु ग्रेही अहै, चेला ग्रेही होइ ।— कबीर सा०, पृ० १५ ।

ग्रैजुएट
संज्ञा पुं० [अं०] १. कोई उपाधिपरीक्षा पास किया हुआ विद्वान् । २. स्नातक । उ०—आँथौ फूटे भरा न पेट । क्यों सखि सज्जन नहिमं ग्रैजुएट ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ८१० ।

ग्रैम
संज्ञा पुं० [अं० ग्राम] एक अँगरेजी तौल जो १५ ग्रेन से कुछ अधिक होती है ।

ग्रैव, ग्रैवेय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ग्रेवी, ग्रैवेयी] दे० 'गैवेयक' [को०] ।

ग्रैवेयक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गले में पहनने का गहना । जैसे,—हार, माला, हैकल, हुमेल आदि । २. हाथी की हैकल । ३. जैनियों के एक प्रकार के देवता जो लोकपुरुष की गर्दन पर स्थित माने गए हैं । इनकी संख्या नौ है ।

ग्रैवयक (२)
वि० गला संबंधी [को०] ।

ग्रैष्म
वि० [सं०] ग्रीष्म से संबंधित [को०] ।

ग्रैष्मक
वि० [सं०] जो गरमी में बोया जाय ।

ग्रैष्मिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० ग्रैष्मिका] ग्रीष्म से संबंधित [को०] ।

ग्लपन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्राम । थकान को दूर करना । २. मुरझाना । कुँभलाना । कुम्हलाना [को०] ।

ग्लपन (२)
वि० थकानेवाला [को०] ।

ग्लपित
वि० [सं०] १. थकित । क्लांत । २. उतारा हुआ । काटा हुआ । जैसे, गर्दन ।

ग्लस्त
वि० [सं०] १. भक्षित । २. चीरा फाड़ा हुआ [को०] ।

ग्लह
संज्ञा पुं० [पुं०] १. वह जो पासा खेलता हो । २. पण । बाजी । जैसे,—प्राणग्लह समर । ३. जुआ खेलना । द्यूतक्रीड़ा । ४. अक्ष । पाँसा । ५. अक्षपेटिका । ६. अक्ष की आय या प्राप्ति । ७. जुआ खिलानेवाला व्यक्ति [को०] ।

ग्लान (१)
वि० [सं०] १. ज्वर आदि रोगों से पीड़ित । बीमार रोगी । २. थका हुआ । ३. कमजोर ।

ग्लान (२)
संज्ञा स्त्री० १. दीनता । २. थकान । श्रांत (को०) । ३. बीमारी । रोग (को०) ।

ग्लानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० ग्लेय] १. शारीरिक या मानसिक शिथिलता । अनुत्साह । खेद । अक्षमता । २. मन की एक वृत्ति जिसमें अपने किसी की बुराई या दोष आदि को देखकर अनुत्साह, अरुचि खिन्नता उत्पन्न होती है । पश्चात्ताप । ३. साहित्य में वीभत्स रस का एक स्थायी भाव । विशेष—साहित्यदर्पण के अनुसार यह व्यभिचारी भाव के अंतर्गत है । रति, परिश्रम, मनस्ताप और भूख, प्यास आदि उत्पन्न दुर्बलता ही ग्लानि है । इसमें शरीर काँपने लगता है, शक्ति घट जाती है और किसी कार्य के करने का उत्साह नहीं होता । ४. पतन । ह्रास । उ०—जब जब धर्म की ग्लानि होती है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तब युग युग में वह अवतार लेता है ।—हिंदू० सभ्यता, पृ० १८८ ।

ग्लानी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ग्लानि' । उ०—धर्म ग्लानी भई जब ही जब, तब तब तुम बपु धारयौ ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १६२ ।

ग्लास
संज्ञा पुं० [अं०] १. शीशा । २. दे० 'गिलास' ।

ग्लास्नु
वि० [सं०] श्रांत । थका हुआ [को०] ।

ग्लूकोज
संज्ञा पुं० [अं० ग्लूकोज] १. फलों की चीनी । २. अंगूर की चीनी । जो रासायनिक रीति से तैयार की जाती है । उ०—बच्चे का ग्लूकोज पिलाने का प्रयत्न करके विफल होकर.....सिर झुकाए थी ।—जिप्सी, पृ० ५११ ।

ग्लेशियर
संज्ञा पुं० [अं०] हिमखंड । हिमशिला जो गतिशील होती है । यह धीरे धीरे चलकर नीचे उतरता जाता है और फिर किसी नदी में मिल जाता है । उ०—अजपथों से जा जाकर पहाड़ो पर के सरोवरों और ग्लेशियरों में पांडवों के तपस्या स्थल और नए तीर्थों का आविष्कार करना भी आसान नहीं है ।—किन्नर०, पृ० ९३ ।

ग्लौ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर । ३. पृथ्वी [को०] ।

ग्लौता
दे० [सं० ग्लोतृ] श्रांत । थका हुआ [को०] ।

ग्वाँड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० गुण्ड़] १. घेरा । वृत्त । २. किसी मकान के चारों ओर का बाड़ा । ३. चहारदीवारी के अदिर घिरा हुआ स्थान । उ०—ग्वाँड़ा बिच आसण जिनि माँड़ौ ।—गोरख०, पृ० २३९ ।

ग्वाड़ पु
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वाँड़ा] दे० 'ग्वाँड़ा' । उ०—धवला सूँ राजै धणी चंगौ दीसै ग्वाड़ ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४३ ।

ग्वाड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वाँड़ा] उ०—ग्वाड़ा माँहैं आनंद उपनौं ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३७ ।

ग्वायख पु
संज्ञा पुं० [सं० गवाक्ष, हिं० गौख, गौखा] दे० 'गोखा' । उ०—सिल विकट पास सुखेण रे, तिरसूल ग्वायख तेणरे ।—रघु० रू०, पृ० २२४ ।

ग्वार
संज्ञा स्त्री० [सं० गोराणी] एक वार्षिक पौधा जिसकी फलियों की तरकारी और बीजों की दाल होती है । कौरी । खुरथी । विशेष—इसकी कई जातियाँ होती हैं । इसकी पत्तियों की खाद बहुत अच्छी होती है और उन्हें चौपाए बहुत चाव से खाते हैं । कहीं कहीं इसे अदरक के पौधों पर छाया करने के लिये भी लगाते हैं । यह वर्षा के आरंभ में बोई जाती है और जाड़े के मध्य में तैयार हो जाती है । इसमें पीले रंग के एक प्रकार के लंबे फूल भी लगते है । वैद्यक में इसके फली को बादी, मधुर, भारी, दस्तावर, पित्तनाशक, दीपक और कफकारक माना है और पत्तों को रत्तौधी दूर करनेवाला और पित्त नाशक कहा है ।

ग्वारनट
संज्ञा स्त्री० [अं० गारनेट] एक प्रकार का बढ़िया रंगीन रेशमी कपड़ा ।

ग्वारनेट
संज्ञा स्त्री० [अं० गारनेट] दे० 'ग्वारनट' ।

ग्वारपाठा
संज्ञा पुं० [सं० कुमारी + पाठा] घीकुआँर ।

ग्वारफली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार+फली] ग्वार नामक पौधे की फली जिसकी तरकारी बनती है । वि० दे० 'ग्वार' ।

ग्वारि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाली] दे० 'ग्वालिन' । उ०— पुछति पाहुनि ग्वारि हा हा हो मेरी आली, कहा नाउँ, को है चित बित को चोर ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३४२ ।

ग्वारिया पु
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वार+ इया (प्रत्य०)] दे० 'ग्वाल' । उ०—ग्वारिया कौ भेषु धरैं गाँइनि में आवै ।—छीत०, पृ० ५४ ।

ग्वारिन (१) पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार+ इन (प्रत्य०)] दे० 'ग्वार' ।

ग्वारिन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वालिन] १. ग्वाले की स्त्री । ग्वाली । २. गोपी ।

ग्वारो (३) पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ग्वार' । उ०—फेनी फूलनिमोना डिंड़सा रूप रतालू ग्वारी जी ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

ग्वारो (४)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाली] १. ग्वाला की स्त्री । २. गोपी ।

ग्वाला
संज्ञा पुं० [सं० गो+ पाल, प्रा० गोवाल] १. अहीर ।२. एक छंद का नाम जिसे सार और शानु भी कहते हैं । इसके प्रत्येक चरण में दो अक्षर होते हैं, जिनमें से पहला गुरु और दूसरा लघु होता है । जैसे—ग्वाल । धार । कृष्ण । सार ।

ग्वालककड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाल+ ककड़ी] जंगली चिचड़ा जिसके बीज, जड़ और पत्तियाँ आदि ओषधि के काम में आती हैं । इसमें छोटे छोटे फलभी लगते हैं जो पकने पर गहरे लाल रंग के हो जाते हैं ।

ग्वालककरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाल + ककड़ी] दे० 'ग्वालककड़ी' ।

ग्वालदाड़िंम
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वाल + दाड़िम] मालकंगनी की जाति का एक छोटा पेड़ या क्षुप । विशेष—यह अफगानिस्तान, पंजाब और उत्तर भारत में चार हाजर फुट की ऊँचाई तक होता है । इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी छोटी और लाल या भूरे रंग की होती हैं । इसकी लकड़ी मुलायम होती है और उसपर (छापेखाने में) छापने के लिये चित्र आदि खोदे जाते है ।

ग्वालबाल
संज्ञा पुं० [हिं० ग्वाल+ बाल] १. अहीरों के लड़के । २. कृष्ण के संगी साथी [को०] ।

ग्वाला
संज्ञा पुं० [सं० गोपालक; प्रा० गोवालअ] दे० 'ग्वाल' ।

ग्वालिन (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाल+ इन (प्रत्य०)] ग्वाले की स्त्री । ग्वाल जाति की स्त्री ।

ग्वालिन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वार] ग्वार । खुरथी । कौरी ।

ग्वालिन (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोपालिका] तीन चार अंगुल लंबा एक बरसाती कीड़ा जिसे घिनौरी या गिंजाई भी कहते हैं ।

ग्वाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० ग्वाला] ग्वाले की स्त्री ।

ग्वैंठना पु †
क्रि० स० [सं० गुणठन, हिं० गुमेठना] मरोड़ना । ऐँठना । घुमाना या टेढ़ा करना । उ०—सौहे हू चाह्यौ न तैं केती घाई सौह । एहो क्यों बैठी किए ऐँठी ग्वैठी भौंह ।— बिहारी (शब्द०) ।

ग्वैंठा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० गोंइँठा] दे० 'गोइँठा' ।

ग्वैंठा (२) †
वि० [हिं० ऐठा का अनु०] [वि० स्त्री० ग्वैंठी] ऐंठा हुआ । टेढ़ा । मेढ़ा ।

ग्वै़ड़ा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० गाँव+ इड़ा] गाँव के आसपास की भूमि । उ०—(क) घर घर ते पकवान चलाये । निकसि गाँव के ग्वैंड़े आये ।—सूर (शब्द०) (क) यदपि तेज रौहाल बर लगी न पलकौ बार । तउ ग्वैंड़ों घर को भयो पैंड़ो कोस हजार ।—बिहारी (शब्द०) ।

ग्वैंड़ी †
क्रि० वि० [हिं० ग्वैंड़ा] निकट । पास । करीब । उ०—ग्वैड़े आय टेरत है, नेह निबेरत है, जातें भरि पावत है भाव भरि ग्वारई ।—घनानंद, पृ० २०४ ।

ग्वैयाँ †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] [गोइँयाँ] दे० 'गोइँया' ।