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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/चप

विक्षनरी से

चप
संज्ञा स्त्री० [देश०] घोली हुई वस्तु । जैसे,—चूले का चप ।

चपकन
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपकना] १. एक प्रकार का अंगा । अँगरखा । २. लोहे या पीतल काएक साज जिसे किवाड़, संदूक आदि में इसलिये लगाते हैं, जिसमें बंद संदूकया किवाड़, के पल्ले अटके रहें और झटके आदि से खुल न सकें । इसी के कोढे़ में ताला लगाया जाता है । ३. एक छोटी कील जो हल की हरिष में आगे की ओर लगी होती है ।

चपकना †
क्रि० अ० [हिं० चिपकना] दे० 'चिपकना' ।

चपका
संज्ञा पुं० [हिं० चपकना] एक प्रकार का कीड़ा ।

चपकाना
क्रि० स० [हिं० चिपकाना] दे० 'चिपकाना' ।

चपकलश
संज्ञा स्त्री० [तु०] १. तलवार का युद्ध । २. दंगा । ३. लड़ाई झगड़ा । ४. स्थान की कमी । ५. भीड़ । ६. दिक्कत । अड़चन । कठिनाई (को०) ।

चपकुलिश
संज्ञा स्त्री० [तु०] १. कठिन स्थिति । अड़चन । फेर । कठिनाई । झंझट । अंडस । क्रि० प्र०—में पड़ना । २. कसामसी । बहुत झींड़भाड़ । अंडस ।

चपट
संज्ञा पुं० [सं० या अनु०] १. चपत । तमाचा । २. दे० चपेट (को०) ।

चपटना †
क्रि० अ० [हिं० चिपटना] दे० 'चिपकना' या 'चिमटना' ।

चपटा †
वि० [हिं० चिपटा ] दे० 'चिपटा' ।

चपटा गाँजा
संज्ञा पुं० [हिं० चपटा + गाँजा] दबाया हुआ गाँजा । बालूचर गाँजा ।

चपटाना †
क्रि० स० [हिं० चिपटना का प्रे० रूप] दे० 'चिपकाना' या 'चिमटाना' ।

चपटी (१)
वि० स्त्री० [हिं० चिपटी] दे० 'चिपटी' ।

चपटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा] १. एक प्रकार की किलनी जो चौपाये को लगती है । २. ताली । थपोड़ी । ३. योनि । भग । मुहा०—चपटी खेलना = दो स्त्रियों का परस्पर योनि मिलाकर रगड़ना । चपटी लड़ाना = दे० 'चपटी खेलना' ।

चपड़कनातिया
वि० [हिं० चपरकनातिया] दे० 'चपरकनातिया' ।

चपड़गट्टू (१)
वि० [हिं० चौपट + गटपट] आफत का मारा ।

चपजगट्टू (२)
वि० गुत्थमगुत्था ।

चपड़चपड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. वह शब्द जो कुत्तों के मुँह से खाते या पानी पीते समय निकलता है । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

चपड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० चपटा] १. साफ की हुई लाख का पत्तर । साफ की हुई काम में लाने योग्य लाख । २. लाल रंग का एक कीड़ा या फतिंगा जो प्रायः पाखानों तथा सीड़ लिए हुए गंदे स्थानों में होता है । २. कोई पिटी हुई या चिपटी वस्तु पत्तर ।

चपड़ा लेना
क्रि० अ० [हिं० चपढ़ा ] मस्तूल के जोड़ पर रस्सी लपेटना ।—(लश०) ।

चपड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा] १. तखती । पटिया । २. दे० 'चिपड़ी' ।

चपत
संज्ञा पुं०, स्त्री० [सं० चपट] १. तमाचा या थप्पड़ जो सिर या गाल पर मारा जाय । विशेष—कुछ लोग चपत केवल उसी थप्पड़ को कहते हैं, जो सिर पर लगे । क्रि० प्र०—जमना ।—जमाना ।—बैठना ।—मारना ।—लगाना । उ०—बैठती आन बान से तो क्यों । बात बैठी अगर चपत बैठे ।—चुभते०, पृ० ५२ । मुहा०—चपत झाड़ना या धरना = चपत मारना । यो०—चपतगाह = खोपड़ा । गुददी । २. धक्का । हानि । नुकसान । जैसे, बैठे बैठाए चार रुपए का चपत बैठ गया । क्रि० प्र०—पड़ना ।—बैठना ।

चपतियाना
क्रि० स० [हिं० चपत ] चपत लगाना । उ०—पाँच हिंदुओं के सबारों ने मुझे पकड़ लिया और तुरक तुरक करके लगे चपतियाने ।—भारतेंदु ग्र०, भा० १. पृ० ५२५ ।

चपदस्त
संज्ञा पुं० [फ़ा०] वह घोड़ा जिसका अगला दाहिना पैर सफेद हो ।

चपनक पु †
संज्ञा स्त्री [हिं० चपटी] दे० 'चपटी' । उ०—कूले तले स्थल है कीनी । गोड़े ऊपर चपनक दीनी ।—प्राण०, पृ० २४ ।

चपना
क्रि० अ० [सं० चपन(= कूटना, कुचलना)] १. दबाना । दाव में पड़ना । कुचल जाना । उ०—चपति चंचला की चमक हीरा दमक हिराय । हाँसी हिमकर जोति की होति हास तिय पाय ।—राम० धर्म०, पृ० २४२ । २. लज्जा से गड़ जाना । लज्जित होना । सीर नीचा करना । शरमाना । झेंपना । झिप जाना । चौपट होना । नष्ट होना ।

चपनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपना] १. छिछला कटोरा । कटोरी । मुहा०—चपनी भर पानी में ड़ूब मरना = लज्जा के मारे किसी को मुँह न दिखाना । १. एक प्रकार का कमंड़ल जो दरियाई नारियल का होता है । ३. वह लकड़ी जिसमें गड़ेरिए ताना बाँधकर कंबल की पट्टियाँ बुनते हैं । ४. हाँड़ी का ढक्कन । मुहा०—चपनी चाटना = बहुत थोड़ा अंश पाकर रह जाना । ५. घुटने की हड़्ड़ी । चक्की ।

चपरउनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०चपटा] लोहारों का एक औजार जिससे बालटू पिटकर फैलाया जाता है ।

चपरकनातिया
वि० [हिं० चपरकनाती] दे० 'चपरकनाती' ।

चपरकनाती
वि० [हिं० चपर + तु० कनात + हिं० ई (प्रत्य०)] खुशामद करनेवाला ।

चपरगट्ट
वि० [हिं० चौपट + गटपट] १. सत्यानाशी । चौपटा । २. आफत का मारा । अभागा । ३. गुत्यमगुत्था । एक में उलझा हुआ ।

चपरना (१)पु
क्रि० स० [अनु० चपचप] १. किसी गीली या चिप- चिपी वस्तु को दूसरी वस्तु पर फैलाकर लगाना । वि० दे० 'चुपड़ना' । उ०—ऊधो जाके माथे भागु । अबलन योग सिखावन आए चेरिहिं चपरि सोहागु । सूर (शब्द०) । २. परस्पर मिलाना । सानना । ओतप्रोत करना । उ०— विषय चिंता दोउ है माया । दोउ चपरि च्यौं तरुवर छाया । सूर (शब्द०) । †३. भाग जाना । खिसक जाना ।

चपरना (२)पुं०
क्रि० सं० [सं० चपल] तेजी करना । जल्दी करना । उ०—सरल बक्रगति पंचग्रह चपरि न चितवत कहु । तुलसी सूधे सूर ससि समय बिड़ंबत राहु ।—तुलसी (शब्द०) ।

चपरनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मुजरा । गाना ।—(वेश्याओं की बोली) ।

चपरा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चपड़ा] दे० 'चपड़ा' ।

चपरा (२) †
वि० कोई बात कहकर या कोई काम करके उससे इनकार करनेवाला । मुकर जानेवाला । झूठा ।

चपरा (३)
अव्य० [हिं० चपरना] हठात् । मान न मान । ख्वाहमख्वाह । जैसे हो तैसे । उ०—देखा भाला तोपची चपरा सैयद होय ।

चपराना (१)
क्रि० स० [देश०] झूठा बनाना । झुठलाना ।

चपराना (२)पु †
क्रि० स० [हिं०] बहकाना । उ०—चोरी करि चपरावत सौहँनि काहे कौ इतनो फाँफट फाँकत ।—घनानंद, पृ० ३३९ ।

चपरास
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपरासी] १. पीतल आदि धातुओं की एक छोटी पट्टी जिसे पेटी या परतले में लगाकर सिपाही, चौकीदार, अरदली आदि पहनते हैं और जिसपर उनके मालिक, कार्यालय आदि के नाम खुदे रहते हैं । बिल्ला । बैज । २. मुलम्मा करने की कलम । ३. मालखंभ की एक कसरत जो दुबगली के समान होती है । दुबगली में पीठ पर से बेंत आता है और इसमें छाती परसे आता है । ४. बढ़इयों के आरे के दाँतो का दाहिने और बाँएँ झुकाव । विशेष—बढ़ई आरे के कुछ दाँतों को दाहिनी ओर और कुछ को बाई ओर थोड़ा मोड़ देते हैं, जिसमें आरे के पत्ते की मोटाई से चिराव के दरज की मोटाई कुछ अधिक हो और लकड़ी आरे को पकड़ने न पावे । ५. कुरतों के मोढे़ पर की चौड़ी धज्जी ।

चपरासी
संज्ञा पुं० [फा़० चप (= बायाँ)+रास्त(= दाहिना)] वह नौकर जो चपरास पहने हो और मालिक के साथ रहे । सिपाही । प्यादा । मिरदहा । अरदली ।

चपरी पु
क्रि० वि० [सं० चपल ] फुरती से । चपलता से । तेजी से जोर से । सहसा । एकबारगी । उ०—(क) जीवन से जागी आगि चपरि चौगुनी लागि तुलसी बिलोकि मेघ चले मुँह मोरि कै ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तहाँ दशरथ के समर्थ नाथ तुलसी को चपरि चढ़ायो चाप चंद्रमा ललाम को ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) राम चहत सिव चापहि चपरि चढ़ावन ।—तुलसी (शब्द०) । (घ) चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु ।—तुलसी (शब्द०) । (च) कियो छुड़ापन विविध उपाई । चपरि गह्यो तुलसी बरियाई ।—रघुराज (शब्द०) ।

चपरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा] एक कदन्न या घास जिसमें चिपटी चिपटी फलियाँ लगती हैं । खेसारी । चिपटैया ।

चपरैला
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिमे कूरी भी कहते हैं ।

चपल
वि० [सं०] १. कुछ काल तक एक स्थिति में न रहनेवाला । बहुत हिलने ड़ोलनेवाला । चंचल । तेज । फुरतीला । चुलबुला । उ०—(क) भोजन करत्त चपल चित इत उत्त अवसर पाय ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जस अपजस देखति नहीं देखति साँवर गात । कहा करौं लालच भरे, चपल नैन ललचात । — बिहारी (शब्द०) । २. बहुत काल तक न रहनेवाला । क्षणिक । ३. उतावला । हड़बड़ी मचानेवाला । जल्दबाज । ४. अभिप्रायसाधन में उद्यत । अवसर न चूकनेवाला । चालाक । धृष्ट । उ०—मधुप तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है ? यह बतकही चपल चेरी की चिपट चरेरी और ही है ।—तुलसी (शब्द०) ।

चपल (२)
संज्ञा पुं० १. पारा । पारद । २. मछली । मत्स्य । ३. चातक । परीहा । ४. एक प्रकार का पत्थर । ५. चौर नामक सुगंधद्रव्य । ६. राई । ७. एक प्रकार का चूहा । यौ०—चपलगति = तेज चाल । चपलचित = चंचल चित्त । चपलस्पर्धा = तीव्र स्पर्धा ।

चपलक
वि० [सं०] १. अस्थिर । चंचल । २. बीना सोचे समझे कार्य करनेवाला । अविचारी । जन—गण—मन की चंचलता के थे चपलक अभिव्यंजन आए । मेरे आँगन खंजन आए ।— क्वासि, पृ० ८८ ।

चपलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंचलता । तेजी । जल्दी । उतावली । २. धृष्टता । ढिठाई । उ०—चूक चपलता मेरियै तूँ बड़ी बड़ाई । बंदि छोर बिरदावली निगमागम गाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

चपलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] चपलता । चंचलता ।

चपलफाँटा
संज्ञा पुं० [सं०चपल + हिं० फट्टा = धज्जी ] जहाज के फर्श के तख्तों के बीच की खाली जगह में खड़े बैठाए हुए तख्ते या पच्चड़ जनसे मस्तूल आदि फँसे रहते हैं ।

चपलस
संज्ञा पुं० [देश०] एक ऊँचा पेड़ । विशेष—इसके भीतर की लकड़ी पीलापन लिए भूरी और बहुत ही मजबूत होती है । इससे सजावट के सामान, चाय के संदूक, नाव के तख्ते आदि बनते हैं । यह ज्यों ज्यों पुरानी होती है, त्यों त्यों कड़ी और मजबूत होती जाती है ।

चपला (१)
वि० स्त्री० [सं०] चंचला । फुरतीली । तेज ।

चपला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी । २. बिजली । चंचला । ३. आर्या छंद का एक भैद । विशेष—जिस आर्या दल के प्रथम गण के अंत में गुरु हो, दूसरा गण जगण हो, तीसरा गण दो गुरु का हो, चौथा गण जगण हो, पाँचवा गण का आदि गुरु का हो, छठा गण जगण हो, सातवाँ जगण न हो, अंत में गुरु हो, उसे चपला कहते हैं । परंतु केदारभट्ठ और गंगादास का मत है कि जिस आर्या मेंदूसरा और चौथा गण जगण हो वही चपला है । जैसे,— रामा भजौ सप्रेमा, सुभक्ति पैहौ सुभुक्तिहू पैहौं । इसके तीन भेद हैं । (क) मुखचपला । (ख) जघनचपला । (ग) महचपला । ४. पुंश्चली स्त्री । ५. पिप्पली । पीपल । ६. जीभ । जिह्वा । ७. विजया । भाग । ८. मदिरा । ९. प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव जो ४८ हाथ लंबी, २४ हाथ जौड़ी और २४ हाथ ऊँची होती थी और केवल नदियों में चलती थी ।

चपला (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चप्पड़] जहाज में लोहे या लकड़ी की पट्टी जो पतवार के दोनों ओर उसकी रोक के लिये लगी रहती है ।—(लश०) ।

चपलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चपल] चपलता । उ०—रही विलोकि विचारि चारु छबि परमिति पार न पाई री । मंजुल तारत की चपलाई चितु चतुरानन करषै री ।—सूर (शब्द०) ।

चपलान
संज्ञा पु० [हिं० चप्पड़] जहाज की गलही के अगल बगल के कुंदे जो धक्के सम्हालने के लिए लगाए जाते हैं—(लश०) ।

चपलाना (१)पु
क्रि० अ० [सं० चपल] चलना । हिलना । ड़ोलना ।

चपलाना (२)
क्रि० स० चलाना । हिलाना । डोलाना ।

चपली
संज्ञा स्त्री [हिं० चपटा ] जूती । चट्टी ।

चपवाना †
क्रि० स० [हिं० चपना प्रे० रूप] चापने या दाबने का कार्य कराना । दबवाना ।

चपाक
क्रि० वि० [अनु०] १. अचानक । २. चटपट । झटपट । तुरंत ।

चपाकि पु
क्रि० वि० [हिं० चपाक] दे० 'चपाक' । उ०—करत करत धंध कछूव न जाने अंध, आवत निकट दिन आगिलौ चपाकि दै ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ०४१२ ।

चपाट
संज्ञा पुं० [हिं० चपाट] वह जूता जिसकी एँड़ी उठी न हो । चपौरा जूता ।

चपाती
संज्ञा स्त्री० [सं० चपैटी] वह पतली रोटी जो हाथ से बेलकर वढ़ाई जाती है । रोटी । मुहा०—चपाती सा पेट = वह पेट जो बहुत निकला हुआ न हो । कृशोदर ।

चपातीसुमा
वि० [हिं० चपाती + फा० सुम + हिं० आ (प्रत्य०)] रोटी के से सुमवाला (घोड़ा) ।

चपाना
वि० [हिं० चपना] १. एक रस्सी के सूत को दूसरी रस्सी के सूत के साथ बुनकर जोड़ना या फँसाना । रस्सी जोड़ना । २. दबाने का काम कराना । दबवाना । ३. लज्जा से दबाना । लज्जित करना । झिपाना । शरमिंदा करना ।

चपेकना
क्रि० स० [हिं० चिपकाना] दे० 'चिपकाना' ।

चपेट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपाना(= दबाना)] १. रगड़ के साथ वह दबाब जो किसी भारी वस्तु के वेगपूर्वक चरने से पड़े । झोंका । रगड़ा । धक्का । आघात । घिस्सा । उ०—चारिहु चरन की चपेट चपिट चापे चिपटिगो उचकि चारि आँगुल अचुल गो ।—तुलसी (शब्द०) । २. झापड़ । थप्पड़ । तमाचा । उ०—याको फल पावहुगे आगे । वानर भालु चपेटन्हि लागे ।—तुलसी (शब्द०) । ३. दबाबा । संकट । मुहा०—चपेट में आना = संकट में फँसना । मारा जाना । उ०— हैं हरिन ही चपेट में आते । बाघ पर टूटते नहीं चीते ।—चुभते०, पृ० ७० ।

चपेटना
क्रि० स० [हिं० चपेट] १. दबाना । दबोचना । दबाव में डालना । रगड़ा देना । २. बलपूर्वक भगाना । आघात पहुँचाते हुए हटाना । जैसे,—सिख लोग शत्रुओं की सेना को चारो ओर से चपेटने लगे । ३. फटकार बताना । डाँटना । जैसे,—उसको हम ऐसा चपेटेंगे कि वह भी क्या समझेगा ।

चपेटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चपेट] १. दे० 'चपेट' ।

चपेटा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दोगला । वर्णसंकर ।

चपेटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तमाचा । थप्पड़ [को०] ।

चपेटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादो सुदी छठ । भाद्रपद की शुक्ला षष्ठी । विशेष—यह स्कंदपुराण में संतान के हितार्थ पूजन के लिये गिनाई हुई द्वादश षष्ठियों में से एक है ।

चपेड़ †
संज्ञा स्त्री० [सं० चपेट] थप्पड़ । तमाचा ।

चपेरना पु
संज्ञा पुं० [हिं० चापना (= दबाना)] चापना । दबाना । उ०—दुर्मति केर दोहागिनि भेटै ढोटै चापि चपेरै । कह कबीर सोई जन मेरा घर की रार निबेरै ।—कबीर (शब्द०) ।

चपेहर
संज्ञा पुं० [देश०] एक फूल का नाम ।

चपेहा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौदा तथा उसका फूल ।

चपोट सिरीस
संज्ञा स्त्री० [देश०] सिरीस या शीशम की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह शिशिर मेम अपनी पत्तियाँ झाड़ देता है और जमुना के पूर्व हिमालय की तराई में होता है । यह मध्य भारत, दक्षिण तथा बंबई प्रांत में भी होता है । इसके बिजों में से तेल निकलता है और इसकी पत्ती तथा छाल दवा के काम में आती है । इस पेड़ में से बहुत मजबूत और लंबी धरन निक- लती है जो इमारत आदि के काम में आती है ।

चपौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपाना या चिपटा] छोटी टोपी । सिर में जमी हुई टोपी ।

चपौर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक जलपक्षी । विशेष—यह शरद ऋतु में बंगाल तथा आसाम में दिखाई पड़ता है । इसकी चोंच और पैर, पीले तथा सिर, गर्दन और छाती हलकी भूरी होती है ।

चपौर (२)
[हिं० चपटा] वह जूता जिसकी एँडी उठी न हो । चपाट जूता ।

चप्पड़
संज्ञा पुं० [हिं० चिप्पड़] दे० 'चिप्पड़' ।

चप्पल
संज्ञा पुं० [हिं० चपना + दबना] छिछला कटोरा । दबी हुई या नीची बारी का कटोरा ।

चप्परि पु
क्रि० वि० [प्रा० चंपण(चाँपना दबाना)] बलपूर्वक । उ०—(क) ठाकुर ठक भए गेल चोरें चप्परि घर लिजिज्अ । —कीर्ति०, पृ० १६ । (ख) तेजी ताजि तुरअ चारि दश चप्परि छुट्टड । तरुण तुरुक असवार, बाँस जञै चाबुक फुट्टइ ।—कीर्ति०, पृ० ८८ ।

चप्पल
संज्ञा पुं० [हिं० चपटा ?] १. एक प्रकार का जूता जिसकी एँड़ी चिपटी होती है । वह जूता जिसकी एँड़ी पर दीवार न हो । २. वह लकड़ी जिसपर जहाज की पतवार या और कोई खंभा जड़ा होता है ।—(लश०) ।

चप्पल सेहुँड
संज्ञा पुं० [हिं० चपटा + सेहुँड] नागफनी ।

चप्पा
संज्ञा पुं० [सं० चपुष्पाद, प्रा० चऊप्पाव] १. चतुर्थांश । चौथाई भाग । चौथाई हिस्सा । २. थोड़ा भाग । न्यून अंश । ३. चार अगुल या चार बालिस्त जगह । ४. थोड़ी जगह । उ०—उस राज तक अधर में छत सी बध दो, चप्पा चप्पा कहीं न रहे जहाँ धूम धडक्का भीड़ भड़क्का न हो ।— इंशाअल्ला (शब्द०) ।

चप्पी
संज्ञा स्त्री० [हिं चपना + दबना] धीरे धीरे हाथ पैर दबाने की क्रिया । चरणसेवा ।
क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

चप्पू
संज्ञा पुं० [हिं० चापना ] एक प्रकार का डाँड़ जो पतवार का भी काम देता है । कलवारी । क्रि० प्र०—मारना ।

चफाल
संज्ञा पुं० [हिं० चो + फाल] वह भूमि जिसके चारों ओर कीचड़ या दलदल हो ।

चबक (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] रह रहकर उठनेवाला दर्द । चिलक । टीस । हूल । पीड़ा ।

चबक (२)
वि० [हिं० चपना] दब्बू । डरपोक ।

चबकना
क्रि० अ० [हिं० चबक ] रह रहकर दर्द करना । टीसना । चमकना । चिलकाना । हूल मारना । पीड़ा उठना ।

चबका
संज्ञा पुं० [हिं० चाबुक] दे० 'चाबुक' । उ०—सहज पलांण पवन करि घोड़ा लै लगांम चित सबका । चेतंनि असवार ग्यांन गुरु करि और तजौ सब दबका ।—गोरख०, पृ० १०३ ।

चबको
संज्ञा स्त्री० [देश०] सूत या ऊन की वह गुथी हुई रस्सी जिससे स्त्रीयाँ केश बाँधती हैं । पराँदा । मुड़बँधना । चँवरी ।

चबड़चवड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'चपड़ चपड़' । उ०—बाजीराव ने हँसकर टोका, और बात बनाना, चबड़—चबड़ करना इन सबसे बढ़कर अच्छा लगता है ।—झाँसी०, पृ० ३७ ।

चबनी हड्डी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चबाना + हड्डी] वह हड्डी जो भुरभुरी और पतली हो ।

चबर चबर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. मुँह में कुछ चबाने से होनेवाली ध्वनि ।२. व्यर्थ की बकवास ।

चबला †
संज्ञा पुं० [देश०] पशुओं के मुँह का एक रोग । लाल रोग ।

चबवाना
क्रि स० [हिं० चबना का प्रे० रूप] चबाने का काम करना ।

चबाई—पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चवाई] दे० 'चवाई' । उ०—हिलि- सिलि भाँति भाँति हेत करि देख्यो तऊ चेटकी चबाइन के पेट की न पाई मैं ।—ठाकुर०, पृ० ५ ।

चबाना
क्रि० स० [सं० चर्वण] १. दाँतों मे कुचलना । जुगालना । मुहा०—चबा चबाकर बातें करना = स्वर बना बनाकर एक एक शब्द धीरे धीरे बोलना । मठार मठार कर बातें करना । चबे को चबाना = एक ही काम को बार बार करना । किए हुए काम को फिर फिर करना । पिष्टपेषण करना । उ०—बरस पचासक लौ बिषय ही में वास कियौ तऊ ना उदास भये चबे को चबाइए—प्रिया० (शब्द०) । २. दाँत मे काटना ।

चबारा †
संज्ञा पुं० [हिं० चौबारा] घर के ऊपर का बँगला । चौबारा । उ०—उज्वल अखंड खंड सातएँ महल महामंडल चबारो चंद मंडल की चोट ही —देव (शब्द०) ।

चबाव पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चबाव] दे० 'चवाव' ।

चवीणा पु
संज्ञा पुं० [हिं० चबेना] दे० 'चबेना' । उ०—झूठे सुख को सुख कहैं मानत है मन मोद । खलक चबीणाँ काल का कुछ मुख में कुछ गोद —कबीर ग्रं० पृ० ७१ ।

चबूतरा
संज्ञा पुं० [सं० चत्वाल० हिं० चौतरा] १. बैठने के लिये चौरस बनाई हुई ऊँची जगह । चौतरा । † २. कोतवाली । बड़ा थाना ।

चबेना
संज्ञा पुं० [हिं० चबाना] चबाकर खाने के लिये भूना हुआ आनाज चर्वण भूजा । क्रि० प्र०—करना —होना ।

चबेनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०चबाना] १. तली दाल और मिठाई आदि जो बरातियों को जलपान के लिये दी जाती है । २. जलपान का सामन । ३. जलपान का मूल्य । ४. रूखा सूखा खाना ।

चबेरा पु †
संज्ञा पुं० [सं०] [चर्पट, हिं० चबरा] थप्पड़ । झापड़ । चाँटा । उ०—सिर पर काल बसतु निसु बासर मारत तुरत चबेना ।—भीखा० श०, पृ० ४ ।

चबेल
वि० [सं० चतुर्वेल प्रा० चउवेल्ल] चारो ओर । चतुर्दिक् । उ०—कपोल लोल हल्लते । चबेल मुंड झल्लते ।—पृ० रा०, १७ । ६२ ।

चबैना पु †
संज्ञा पुं० [सं० चर्वण] दे० 'चबेना' । उ०—सबै चबैना रकाल का पलट उन्हैं नकाल । तीन लोक से जुदा है उन संतन की चाल ।—पलटू०, भाग १, पृ० १३ ।

चबैनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चबेनी] दे० 'चबेनी' । उ०—चना चबैनी गंगजल जो पुरवै करतार । काशी कबहुँ न छाँड़िए विश्वनाथ दरबार ।

चाब्बा †
संज्ञा पुं० [सं० चतुष्पाद, हिं० चौवा] दे० 'चौवा' ।

चब्बू †
वि० [हिं० चबना] बहुत चबानेवाला । बहुत खानेवाला ।

चब्भ
संज्ञा [अनु०] गोता मारने से तालों या नदियों के पानी से होनेवाली ध्वनि । उ०—आबी चिड़ियाएँ मछलिंयों पर निशाना साध, चब्भ से घुस पानी में से शिकार ले चलीं ।—प्रेमघन ,भा० १, पृ० २० । विशेष—इसका प्रयोग क्रि० वि० रूप में 'से' के साथ ही मिलता है अतः लिंग गौण हो जाता है ।

चब्भा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. डुबकी । बुड़की । गोता । २. एकजलपक्षी जो गोताखोर होता है । उ०—कौडै़नी, चब्भा इत्यादि (वारी विहंग) ।—प्रेमघन०, भाग २, पृ० २० ।

चब्भू †
वि० [हिं० चब्बू] दे० 'चब्बू' ।

चब्भो †
संज्ञा पुं० [हिं० चपकना] दूसरे का दिया हुआ गोता । डुब्बी । डुबकी । क्रि प्र०—देना ।

चभक (१)
संज्ञा [अनु०] पानी में किसी वस्तु के चभ की ध्वनि करते हुए डूबने का शब्द । विशेष—'से' विभक्ति के साथ ही क्रि वि० वत् आता है ।

चभक (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] काटने या डंक मारने की क्रिया ।

चभकना †
क्रि० स० [अनुध्व] १. चबा चबाकर खाना ।२. तृप्तिपूर्वक खाना । ३. अधिक खाना । संयो० क्रि०—डालन । लेना ।

चभका
संज्ञा स्त्री० [हिं० चभक] 'चभक (२)' उ०—वायु धातु रूप त्वचा में प्राप्त होने से त्वचा काली कर्कश हो जाय और उसमें चभका चले तथा तन जाय ।—माधव०, पृ० १३५ ।

चभच्चा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चहबच्चा' । उ०—विधवा सहुआ- इन ने बडी उत्साह से चभच्चा खुदवाया था ।—नई०, पृ० ३ ।

चभड़ चभड़
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. वह शब्द जो किसी वस्तु को खाते समय मुँह के हिलने आदि से होता है २. कुत्ते, बिल्ली आदि के जीभ से पानी पीने का शब्द ।

चभना (१) †
क्रि० अ० [सं० चर्वण, हिं० चाबना] खाया जाना ।

चभना (२)
क्रि० अ० [हिं० चपना] कुचल जाना । कुचला जाना । रौंदा जाना । दरेरा खाना । उ०—रहयो ढीठु ढारसु गहैं ससहरि गयौ न सूरु । मुरयौ न मनु मुराबानु चभि, भौ चूरनु चपि चूस । बिहारी (शब्द०) ।

चभाना
क्रि० [हिं० चभना का प्रे० रूप] खिलाना । भोजन । कराना ।

चभोक †
संज्ञा पुं० [देश०] बेवकुफ । मूर्ख । गावदी । यौ०—चभोकनंदन = अत्यंत मूर्ख । निहायत बेवकूफ ।

चभोकना †
सि० [हिं० चुभकी] १. डुबाना । गोता देना । २. भिगोना । तर करना ।

चभोरना
क्रि० स० [हिं० चुभकी] १. डुबोना । गोता देना ।२. आप्लावित करना । तर करना । भिगोना । उ०—(क) घेवर अति धिरत चभोरे । लै खाँड़ उपर तर बोरे ।—सूर (शब्द०) । (ख) मीठे अति कोमल हैं नीके । ताते तुरत चमोरे घी के ।—सूर (शब्द०) ।

चमंक पु
संज्ञा पुं० [हिं० चमक] दे० 'चमक' ।

चमंकना पु
क्रि० अ० [हिं० चमकना] दे० 'चमकना' । उ०—बहु कृपान तरवारि चमंकहि जनु दहदिसि दामिनी दमंकहि । मानस, ६ ।८६ ।

चमइया
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चमार' । उ०—हमसे दीन दयाल न तुमसे, चरन सरन रैदास चमइया ।—रे० बानी, पृ० ६८ ।

चमक
संज्ञा स्त्री० [सं० चमत्कृत् या अनु०] १. प्रकाश । ज्योति । रोशनी । जैसे,—आग या सूर्य की चमक बिजली की चमक । २. कांति । दीप्ति । आभा । झलक । दमक । जैसे,—सोने की चमक । कपड़े की चमक । यौ०—चमक दमक । दमक चाँदनी । मुहा०—चमक देना या मारना = चमकना । झलकना । चमक लाना = चमक उत्पन्न करना । झलकाना । ३. कमर आदि का वह दर्द जो चोट लगने या एकबारगी अधिक बल पड़ने के कारण होता है । लचक । चिक । झटका जैसे,—उसकी कमर में चमक आ गई है । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना । ४. बढ़ना । उ०—रात को जाड़ा यद्यपि चमक चला था ।— प्रेमघन० भा० २ । ५. चौंक । भड़क । उ०—जइ तूँ ढोला तावियउ काललयारा तीज । चमक मरेसी मारवी, देख खिवंता बीज ।—ढोला०, दू० १५० ।

चमक चाँदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक + चाँदनी] बनी ठनी रहनेवाली दुशचरित्रा स्त्री० ।

चमक दमक
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक + दमक अनु०] १. दीप्ति । आभा । झलक । तड़क भड़क । २. ठाठ बाट । लक दक ।— जैसे,—दरबार की चमक दमक देखकर लोग दंग हो गए ।

चमकदार
वि० [हिं० चमक + फा़० दार] जिसमें चमक हो । चमकीला । भड़कीला ।

चनकना
क्रि० अ० [हिं० चमक से नामिक धातु] १. प्रकाश या ज्योति से युक्त दिखाई देना । प्रकाशित होना । देदीप्यमान होना । प्रभामय होना । जगमगाना । जैसे, सूर्य का चमकना, आग का चमकना । संयो० क्रि०—उठना ।—जाना । २. कांति या आभा से युक्त होना । झलकना । भड़कीला होना । दमकना । जैसे,—सोने चाँदी का चंमकना । कपड़े का चम- कना । ३. कीर्तिलाभ करना । प्रसिद्ध होना । समृद्धिलाभ करना । श्रीसंपन्न होना । उन्नति करना । जैसे,—देखो, वहाँ जाते ही वे कैसे चमक गए । ४. वृद्धि प्राप्त करना । बढ़ती पर होना । बढ़ना । जैसे,—आजकल उनकी वकालत खूब चमकी है । मुहा०—किसी की चमकना = किसी की श्रीवृद्धि होना । किसी की बढ़ती और कीर्ति होना । ५. चौकना । भड़कना । चंचल होना (घोड़े आदि के लिये) । उ०—चमक तमक हाँसी सिसक मसक झपट लपटानि । जेहि रति सो राते मुकत और मुकति अति हानि ।—बिहारी (शब्द०) । ६. फुरती से खसक जाना । झट से निकल जाना । उ०—सखा साथ के चमकि गए सब गह्यो श्याम कर धाइ । औरन जानि जान मैं दीनो तुम कहँ जाहु पराइ ।—सूर (शब्द०) ७. एकबारगी दर्द हो उठना । हिलने डोलने में किसी अंग की स्थिति में विपर्यय या गड़बड़ होने से उस अंग में सहसा तनाव लिए हुए पीड़ा उत्पन्न होना । जैसे,—बोझ उठाने में उसकी कमर चमक गई है । ८. मटकना । उंगलियाँआदि हिलाकर भाव बताना । (जैसा स्त्रियाँ प्रायः करती हैं) । ९. मटककर कोप प्रकट करना । १०. लड़ाई ठनना । झगड़ा होना । उ०—आजकल उन दोनों के बीच खूब चमक रही है । ११. कमरे में चिक आना । अधिक बल पड़ने या चोट पहुँचने के कारण कमर मे दर्द उठना । झटका लगना । लचक आना । जैसे,—बोझ इतना भारी था कि उसे उठाने में कमर चमक गई । क्रि० प्र०—जाना ।

चमकनी
वि० स्त्री० [हिं० चमकना] १. चमक जानेवाली । जल्दी चिढ़ या भड़क जानेवाली । २. हाव भाव करनेवाली ।

चमकवाना
क्रि० स० [हिं० चमकना का प्रे० रूप ] चमकाने का काम कराना ।

चमका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चमत्कार] चमक । प्रकाश ।

चमकाना
क्रि० स० [हिं० चमकाना] १. चमकीला करना । चमक लाना । दीप्तिमान करना । कांति लाना । ओपना । झलकाना । २. उज्वल करना । निर्मल करना । साफ करना । झक करना । ३. भड़काना । चौंकाना । ४. चिढ़ाना । खिझाना । ५. घोड़े की चंचलता के साथ बढ़ाना । ६. भाव बताने के लिये अँगुली आदि हिलाना । मटकाना । जैसे, उँगली चमकाना ।

चमकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक + आर (प्रत्य०)] चमक । कौंधा । उ०—जब आगे कूँयाद देखकर जगमग जोती । बिन दामिनि चमकार सीप बिन उपजै मोती ।—सहजो०, पृ० ५१ ।

चमकारा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चमक + आरा (प्रत्य०)] चकाचौंध करनेवाला प्रकाश । चमक ।

चमकारा पु (२)
वि० चमकदार । चमकीला । उ०—शब्द करीगर रूप चमकारा । शशि अनेक ताही जनु ढारा ।—कबीर सा०, पृ० १०४ ।

चमकारी (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०चमकार] १. चमक । प्रकाश । उ०—अधरबिंब दसनन की शोभा दुति दामिनि चमकारी ।— सूर (शब्द०) । २. बनाव । तड़क भड़क । उ०—अंग अंग तोरे चमकारी कैसे कहौं तोहिं मैं नारी ।—कबीर सा०, पृ० ७८ ।

चमकारी (२)
वि० चमकीली ।

चमकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक] कारचौबी में रुपहले या सुनहले या तारों के छोटे छोटे गोल या चकोर चिपटे टुकड़े जो जमीन भरने के काम आते हैं । सितारे । तारे ।

चमकीला
वि० [हिं० चमक + ईला (प्रत्य०)] १. जिसमें चमक हो । चमकनेवाला । चमकदार । ओपदार । २. भड़कदार । भड़कीला । शानदार ।

चमकौवल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक + औवल (प्रत्य०)] १. चमकाने की क्रीया । २. मटकाने की क्रिया ।

चमक्क
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक] दे० 'चमक' । उ०—चौदिस चकमक चमक होइ खग्गग्ग तरंगे ।—कीर्ति०, दे० १०२ ।

चमक्कना
क्रि० अ० दे० 'चमकना' । उ०—(क) तरवारि चमक्कइ बिज्जुझला ।—कीर्ति०, पृ० ११० ।

चमक्को
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमकना] १. चमकने मटकनेवाली स्त्री । चचल और निर्लज्ज स्त्री । २. कुलटा स्त्री । व्यभिचारिणी स्त्री । ३. जल्दी चिढ़ जानेवाली स्त्री । झल्लानेवाली स्त्री । झगड़ालू स्त्री ।

चमगादड़
संज्ञा पुं० [सं० चर्मचटका, पुं० चमचिचड़ी, हिं० चमगिदड़ी] एक उड़नेवाला बड़ा जंतु जिसके चारों पैर परदार होते हैं । विशेष—यह जमीन पर अपने पैरों से चल फिर नहीं सकता, या तो हवा में उड़ता रहता है या किसी पेड़ की डाल में चिपटा रहता है । दिन के प्रकाश में यह बाहर नहीं निकलता, किसी अँधेरे स्थान में पैर ऊपर और सिर नीचे करके औधा लटका रहता है । इनके झुंड के झुंड पुराने खंडहरों आदि में लटके हुए पाए जाते हैं । इस जंतु के कान बड़े बड़े होते हैं और उनमें आहट पाने की बड़ी शक्ति होती है । यद्यपि यह जंतु हवा में बहुत ऊपर तक उड़ता है, पर उसमें चिड़ियों के लक्षण नहीं हैं । इसकी बनावट चुहे की सी होती है, इसे कान होते हैं और यह अंडा नहीं देता, बच्चा देता है । अगले पर बहुत लबे होते हैं और उनके छोटों के पास से पतली हड्डियों की तीलियाँ निकली होती हैं, जिनके बीच में झिल्ली मढ़ी होती है । यही झिल्ली पर का काम देती है । तोलियों के सहारे से यह जंतु झिल्ली को छाते की तरह फैलाता और बंद करता है । यह प्रायः कीडे़ मकोड़े और फल खाता है । चमगादड़ अनेक प्रकार के होते हैं । कुछ तो छोटे छोटे होते हैं और कुछ इतने बड़े होते हैं कि परों को दोनों ओर फैलाकर नापने से वे गज डेढ़ गज ठहरते हैं ।

चमचम (१)
संज्ञा स्त्री० [देद्ध०] एक प्रकार की बँगला मिठाई जो दूध फाड़कर उसके छेने से बनाई जाती है ।

चमचम (२)
क्रि० वि० [हिं० चमाचम] दे० 'चमाचम' ।

चमचमाना (१)
क्रि० अ० [हिं० चमक] चमकना । प्रकाशमान होना । दीप्तिमान होना । झलकना । दमकना । उ०—बादर घुमड़ि घुमड़ि आए ब्रज पर बरसत कारे घूम घटा अति ही जल । चपला अति चमचमाति ब्रज जन सब डरडरात टेरत शिशु पिता मत ब्रज गलबल ।—सूर (शब्द०) ।

चमचमाना (२)
क्रि० स० चमकाना । झलकाना । चमक लाना । दमक लाना ।

चमचा
संज्ञा पुं० [फ़ा० मि० सं० चमस] [स्त्री० चमची] १. डाँड़ी लगी हुई एक प्रकार की छोटी कटोरी या पात्र जिससे दूध, चाय आदि उठा उठाकर पीते हैं । एक प्रकार की छोटी कलछी । चम्मच । डोई । कफचा । †२. चिपटा । ३. नाव में डाँड़ का चौड़ा अग्रभाग । हाथा । हलेसा । पँगई । बैठा । ४. कोयला निकालने का एक प्रकार का फावड़ा । डूँगा । ५. जहाज के दरजों में अलकतरा डालने की चोंचदार कलछी ।—(लश०) ।

चमचिच्चड़
वि० [हिं० चाम + चिचड़ी] चिचड़ी या किलनी की तरह चिपचनेवाला । पिंड या पीछा न छोड़नेवाला ।

चमचिचोर †
वि० [हिं० चाम + चिचोरना] दे० 'चमचिच्चड़' ।

चमची
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमना] १. छोटा चम्चच । २. आमचनी ।३. छोटा चिमटा । ४. घुसा हुआ चूना तथा कत्था निकालने और पान पर फैलानी की चिपटे और चौड़े मुँह की सलाई ।

चमच्चना पु
क्रि० अ० [हिं० चमचमाना] दे० 'चमकना' । उ०— पलक्की चमच्ची उठै वीर नच्ची ।—हम्मीर रा०, पृ० १३६ ।

चमजुई
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मयूका] १. एक प्रकार का छोट कीड़ा जो पशुओं और कभी कभी मनुष्यों के शरीर पर उत्पन्न हो जाता है । एक पकार की बहुत छोटी किलनी । चिचड़ी । २. चिचड़ी की तरह चिमचनेवाली वस्तु या व्यक्ति । उ०— जगमगी जोन्ह ज्वाल जालन सों जारती न जमजोई जामिनि जुगत सम ह्वै जाती क्यों ? —देव (शब्द) ।

चमजोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमजुई] दे० 'चमजुई' ।

चमटना †
क्रि० स० [हिं० चिमटना] दे० 'चिमटना' ।

चामटा
संज्ञा पुं० [हिं० चिमटा] दे० 'चिमटा' ।

चमड़ा
संज्ञा पुं० [सं० चर्म + अप० डा (स्वा० प्रत्य०)] १. प्राणियों के सारे शरीर का वह ऊपरी आवरण जिसके कारण मांस, नसें आदि दिखाई नहीं देतीं । चर्म । त्वचा । जिल्द । विशेष—चमड़े के दो विभाग होते हैं, एक भीतरी और दूसरा ऊपरी । भीतरी एसे तंतु पात्र के रूप में होता है जिसके अंदर रक्त, मजा आदि रहते और संचारित होते हैं । इसमें छोटी छोठी गुलथियाँ होती हैं । स्वेदधारक गुलयियाँ एक नली के रूप में होती है जिनका ऊपरी मुँह बाहरी चमड़े के ऊपर तक गया रहता है और निचला भाग कई फेरों में घूमी हुई गुलझटी के रूप में होता है । इसका अंश न पिघलकर अलग होता है और न छिलके के रूप में छूटता है । बाहरी चमड़ा या तो समय समय पर झिल्ली के रूप में छूटता या पिघलकर अलग होता है । यह वास्तव में चिपटे कोशों से बनी हुई सूखी कड़ी झिल्ली है जो झड़ती है और जिसके नाखून, पेंजे, खुर, बाल बनते हैं । मुहा०—चमड़ा उधेड़ना या खींचता = (१) चमड़े को शरीर से अलग करना । (२) बहुत मार मारना । विशेष—दे० 'खाल खींचना' । २. प्राणियों के मृत शरीर पर से उतरा हुआ चर्म जिससे जुते, बैग आदि बहुत सी चीजें बनती हैं । खाल । चरसा । विशेष—काम में लाने के पहले चमड़ा सिझाकर नरम किया जाता है । सिझाने की क्रिया एक प्रकार की रासायनिक क्रिया है, जिसमें टनीन, फिटकरी, कसीस आदि द्रव्यों के संयोग से चर्मस्थित द्रव्यों में परिवर्तन होता है । भारतवर्ष में चमड़े को सिझाने के लिये उसे उसे बबूल, बहेड़े, कत्थे, बलूत, आदि की छाल के काढ़े में डुबाते हैं । पशुभेद से चमड़ों के भिन्न भिन्न नाम होते हैं । जैसे—बरदी (बैर का), भैंसोरी (भैंस का), गोखा (गाय का), किरकिल, कीमुख्त, (गदहे या घो़ड़े का दानेदार), मुरदरी (मरी लाश का), साबर, हुलाली इत्यादि । मुहा०—चमड़ा सिझाना—चमड़े को बबूल की छाल, सज्जी, नमक आदि के पानी में डालकर मुलायम करना । ३. छाल । छिलका ।

चमड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमड़ा] चर्म । त्वचा । खाल । मुहा०—दे० 'चमड़ा' और 'खाल' ।

चमत्करण
संज्ञा पुं० [सं०] चमत्कार करने या होने की क्रिया ।

चमत्कार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चमत्कारी, चमत्कृत] १. आश्चर्य । विस्मय । २. आश्चर्य का विषय । वह जिसे देखकर चित्त में विस्मययुक्त आह्लाद उत्पन्न हो । अद्भुत व्यापार । विचित्र घटना । असाधारण और अलौकिक व्यापार । करामात । ३. अनूठापन । विचित्रता । विलक्षणता । जैसे,—इस कविता में कोई चमत्कार नहीं हैं । ४. डमरू । ५. अपामार्ग । चिचड़ा

चमत्कारक
वि० [सं०] चमत्कार उत्पन्न करनेवाला । आश्चर्यजनक । विलक्षण । अनूठा ।

चमत्कारिक
वि० [सं०] १. चमत्कार संबंधी । २. चमत्कार पैदा कर देनेवाला । चौंका देनेवाला । ३. विचित्र या असंभव प्रतीत होनेवाला (को०) ।

चमत्कारित
वि० [सं०] चमत्कृत । विस्मित [को०] ।

चमत्कारिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमत्कृत करने का भाव या शक्ति । चमत्कारपन [को०] ।

चमत्कारवाद
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में वह मत जो बाह्य सौंदर्य अर्थात् अलकारादि को कविता के लिये आवश्यक मानता है । काव्य में चमत्कार का समर्थन करनेवाला वाद या सिद्धांत । उ०—अलंकारों को प्रधानता देने पर किस तरह के चमत्कार- वाद का जन्म होता है, उसकी मिसालें उन्होंने रीतिकालीन कवियों से दी हैं ।—आचार्य०, पृ० १२ ।

चमत्कारी
वि० [सं० चमत्कारिन्] [वि० स्त्री० चमत्कारिणी] जिसमें चमत्कार हो । जिसमें कुछ विलक्षणता हो । अदभुत । २. चमत्कार दिखानेवाला । अदभुत दृश्य उपस्थित करनेवाला । विलक्षण बातें करनेवाला । करामाती ।

चमत्कृत
वि० [सं०] आश्चर्यित । विस्मित ।

चमत्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आश्चर्य । विस्मय ।

चमदृष्टि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्म + दृष्टि] देखो 'चर्मदृष्टि' । उ०— सुंदर सतगुरु ब्रह्मा, पर सिध की चमदृष्टि । सूधी ओर न देखई, देखै दर्पन पृष्ट ।—संतबानी०, पृ० १०७ ।

चमन
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. हरी क्यारी । २. फुलवारी । घर के अदर का छोटा बगीचा । ३. गुलजार बस्ती । रौनकदार शहर ।

चमर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चमरा] १. सुरा गाय । २. सुरा गाय की पूँछ का बना चँवर । चामर । ३. एक दैत्य का नाम ।

चमर (२)
वि० [हिं० चमार] चमार से संबंधित । तुच्छ । हीन । विशेष—यह यौगिक शब्दों का पूर्व पद होता है । जैसे, चमरपन, चमरटोला आदि ।

चमरक
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमक्खी [को०] ।

चमरख (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाम + रक्षा] मूँज या चमड़े की बनी हुई चकती जो चरखे के आगे की ओर छोटी पिढ़ई के आस पास की खूँटियों में लगी रहती है और जिसमें से होकरतकला या तेकुला घूमता है । चरखे की गुड़ियों में लगाने की चकती । उ०—(क) एक टका कै चरखा बनावल ढेवुवहिं टेकुआ चमरख लाबल ।—कबीर (शब्द०) । (ख) और कुबड़ी कमर हो गई सिर हो गया दगला । मुँह सूख कै चमरख हुआ तुम हो गया तकला ।—नजीर (शब्द०) ।

चमरख (२)
वि० स्त्री० दुबली पतली (स्त्री) । जैसे,—वह तो सूखकर चमरख हो गई है ।

चमरखा
संज्ञा पुं० [सं० चर्मकशा] एक सुगंधित जड़ जो उबटन आदि में पड़ती है ।

चमरगाय
संज्ञा स्त्री० [सं० चमर + हिं० गाय] सुरा गाय । हिमालय पर्वत के प्रदेशों की वह गाय जिसकी पूँछ का चँवर बनता है । चँवरी गाय । उ०—सब फसल छाँई में मिल गई, सैकड़ों भेड़ें और बीसों चमरगाय मर गई और छतें उड़ गई ।— बो दुनिया, पृ० ७५ ।

चमरगिद्ध
संज्ञा पुं० [चर्म > हिं० चमर + गीध] एक बड़ा गिद्ध । नोंचकर मांस खानेवाला गीध ।

चमरचलाक
वि० [हिं० चमार + फ़ा० चालाक] निम्न कोटि की चालाकी करनेवाला । गर्हित युक्ति लगानेवाला ।

चमरजुलाहा
संज्ञा पुं० [हिं० चमार + जुलाहा] कपड़ा बुननेवाला हिंदू । हिंदू जुलाहा । कोरी ।

चमरदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमर + सं० दृष्टि] दे० 'चर्मदृष्टि' । उ०—चमरदृष्टि की कुलफी दीनो, चौरासी भरमावै हो ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ५ ।

चमरटोला
संज्ञा पुं० [हिं० चमार + टोला] चमारों का मुहल्ला या निवास ।

चपरटोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + टोली] १. चामरों की बस्ती । २. चमारों का झुंड ।

चमरपुच्छ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चँवर । २. लोमड़ी । ३. गिलहरी [को०] ।

चमरयुच्छ (२)
वि० चँवर की तरह पूँछवाला (पशु) जिसकी पूँछ चँवर के काम आवे [को०] ।

चमरबकुलिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमरबगली] दे० 'चमरबगली' ।

चमरबगली
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + बगाल] बगले की जाति की काले रंग की एक चिड़िया ।

चमरबैल
संज्ञा पुं० [सं० चमर + हिं० बैल] याक नाम् का एक पहाड़ी बैल जिसके कंधों पर बड़े बड़े बाल होते हैं । उ०— चमरबैल, सिर हिला हिलाकर भुसा रौंदकर खा रहे थे ।—वो दुनिया, पृ० ७२ ।

चमररग (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + रग] निम्न प्रकृति । तुच्छ प्रकृति । निम्नता । तुच्छता ।

चमररग (२) †
वि० निम्न या तुच्छ स्वभाववाला । नीच ।

चमरशिखा
संज्ञा स्त्री० [सं० चमार + शिखा] घोड़ों की कलँगी । उ०—जबहि रास ढीली मैं कीनी । तानि देह अगली इन लीनी । चलत कनौती लई दबाई । चमरशिखा हूँ हलन न पाई ।—लक्ष्मण (शब्द०) ।

चमरस
संज्ञा पुं० [हिं० चाम] वह घाव जो चमड़े या जुते की रगड़ से हो जाय ।

चमराखारी
संज्ञा पुं० [हिं० चमार + खारी] खारी नमक ।

चमरावत
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार] चमड़ा या मोट आदि बनाने की मजदूरी जो जमीदार या काश्तकार की ओर से चमारों को मिलती है ।

चमरिक
संज्ञा पुं० [सं०] कचनार का पेड़ ।

चमरिया सेम
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + सेम] सेम का एक भेद ।

चमरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुरा गया । २. चँवरी । ३. मंजरी ।

चमरू
संज्ञा पुं० [देश०] चमड़ा । खाल । चरसा । —(लश०) ।

चमरेशियन
संज्ञा पुं० [हिं० चमार] चमरपन । नीचपन । उ०— यह तो आपकी जबान है, उसे किरंट, चमेरिशयन, गाली जो चाहे कहें लेकिन रंग को छोड़कर वह अँगरेजों से किसी बात में कम नहीं ।—गबन, पृ० ११० ।

चमरोर
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा पेड़ जिसकी छाया बहुत घनी होती है ।

चमरौट
संज्ञा पुं० [हिं० चमार + औट (प्रत्य०)] खेत, फसल आदि का वह भाग जो गाँव में चमारों को उनके काम के बदले में मिलता है ।

चमरौटिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चमरौटी' ।

चमरौटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार > चमर + औटी (प्रत्य०)] चमारों की बस्ती ।

चमरौधा
संज्ञा पुं० [हिं० चमर + औधा (प्रत्य०)] दे० 'चमौधा' ।

चमला
संज्ञा पुं० [देश०] [अल्पा० चमली] भीख माँगने का ठोकरा । भिक्षापात्र ।

चमस
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० चमसी] १. सोमपान करने का चम्मच के आकार का एक यज्ञपात्र जो पलाश आदि की लकड़ी का बनता था । २. कलछा । चम्मच । ३. पापड़ । ४. मोदक । लड्डु । ५. उर्द का आटा । धुआँस । ६. एक ऋषि का नाम । ७. नौ योगिश्वरों में से एक ।

चमसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चमस] चमचा । चम्मच । यज्ञपात्र ।

चमसा (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० चौमासा] दे० 'चौमासा' ।

चमसि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की रोटी या लिट्टी (को०) ।

चमसि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चम्मच के आकार का लकड़ी का एक यज्ञपात्र । २. उर्द, मूँग, मसूर आदि की पीठी ।

चमसी (२)
वि० [सं० चमसिन्] सोमरस से पूर्ण चमस पाने का अधिकारी (को०) ।

चमसोदभेद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रभासक्षेत्र के पास का एक तीर्थ । विशेष—महाभारत में लिखा है कि सरस्वती नदी यहीं अदृश्य हुई है । यहाँ पर स्नान करने का बड़ा फल लिखा है ।

चमाइन (१) †
संज्ञा स्त्री० [देश०] चमार की स्त्री । चमारिन ।

चमाइन (२) †
वि० निम्न प्रकृतिवाली (स्त्री) ।

चमाऊ पु
संज्ञा पुं० [सं० चामर] चमर । चामर । चँवर । उ०— हाड़ा रायठौर, कछवाहे, गौत और रहे, अटल चकत्ता को चमाउ धरि डरि कै ।—भूषण (शब्द०) ।

चमाऊ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चमौवा] दे० 'चमौवा' ।

चमाक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमक] दे० 'चमक' ।

चमाकना पु
क्रि० अ० [हिं० चमकना] दे० 'चमकना' ।

चमाचम
क्रि० वि० [हिं० चमकना की अनु० द्धिरुक्ति] उज्वल कांति के सहित । झलक के साथ । जैसे,—देखो बरतन कैसे चमाचम चमक रहे हैं ।

चमार (१)
संज्ञा पुं० [सं० चर्मकार] [स्त्री० चमारिन, चमारी] एक नीच जाति जो चमड़े का काम बनाती है । २. उक्त जाति का व्यक्ति । ३. तुच्छ व्यक्ति । निम्न प्रकृतिवाला व्यक्ति । यौ०—चमार चौदस = (१) चमारों का उत्सव । (२) वह धुम— धाम जो छोटे और दरिद्र लोग इतराकर करेतै हैं । चार दिन का जलसा ।

चमार (२)
वि० निम्न प्रकृतिवाला । तुच्छ ।

चमारिनौ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + नी (प्रत्य०)] दे० 'चमारी' ।

चमारिन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमार + इन (प्रत्य०)] दे० 'चमारी' ।

चमारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं चमार + ई (प्रत्य०)] १. चमार जाति की स्त्री । चमार की स्त्री । २. चमार का काम । ३. चमारी की प्रकृतिवाली स्त्री । ४. कमल का वह फुल जिसमें कमलगट्टे के जीरे खराब हो जाते हैं ।

चमारी (३)
वि० १. चमार संबंधी । २. चमारों जैसा । चमारों की तरह का ।

चमालसि पु
वि० [हिं० चौवालीस] दे० 'चौवालीस' । उ०—वर्ष वदीत भये कलिकाल के छैसै चमालसि चार हजारा । सुंदर ग्रं० (जी०), भा०१, पृ० १२९ ।

चमियारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पद्म काठ ।

चमीकर
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल की एक खान जिससे सोना निकलता था । इसी से सोने को चामीकर कहते हैं ।

चमीर पु
संज्ञा पुं० [सं० चामीकर, प्रा० चामीअर] दे० 'चामीकर' । उ०—मोताहल रहती नहीं, हैबर हरि चमीर । जेहलिया जाताँ जुगाँ, बा तें रहसी वीर ।—बाँकी० ग्रं०, भा०३, पृ० ८ ।

चमुंड (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चामुण्ड] दे० 'चामुण्ड' । उ०—जै चमुंड जै चंड—मुंड—भंडासुर—खंडिनि । जै सरकत जै रक्तबीज विड्डाल बिहंडिनि ।—भुषण ग्रं०, पृ० ३ ।

चमुंड † (३)
वि० [देश०] दुष्ट । पाजी ।

चमुव पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमु] दे० 'चमु' । उ०—विजहर चमुव न आवन पाइय । आल्हन घेर लीन्ह तहँ जाइय ।—प० रासो पृ० १३८ ।

चमू
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना । फौज । २. नियत संख्या की सेना जिसमें ७२९ हाथी, ७२९ रथ, २१८७ सवार और ६३४५ पैदल होते थे । यौ०—चमुनाथ, चमुनायक, चमुप, चमुपति = सेनानायक । सेनापति ।

चमूकन
संज्ञा पुं० [हिं० चमोकन] एक प्रकार की किलनी जो चौपायों के शरीर में चिपटी रहती है ।

चमूचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिपाही । २. सेनापति ।

चमूरु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मृग । बालदार पूँछवाला मृग ।

चमूहर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

चमेठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पालकी के कहारों की एक प्रकार की बोली । विशेष—सवारी लेकर जब कहार खेतों में चलते हैं और रास्ते में अरहर गेहूँ, तीसी आदि की खूटियाँ पड़ती हैं, तो उनसे बचने के लिये अगला कहार 'चमेठी' 'चमेठी' कहकर पिछले कहारों को सावधान करता हैं ।

चमेलिया
वि० [हिं०] चमेली के रंग का । सोनजर्द ।

चमेली
संज्ञा स्त्री० [सं० चम्पकवेलि (यद्यपि वैद्यक निघंटु में 'चमेली' शब्द आया है, तथापि वह संस्कृत नहीं प्रतीत होता)] १. झाड़ी या लता जो अपने सुगंधघित फूलों के लिये प्रसिद्ध है । विशेष—इसमें लंबी पतली टहनियाँ निकलती हैं, जिनके दोनों ओर पतली सींकों में लगी हुई छोटी छोटी पत्तियाँ होती हैं । चमेली दो प्रकार की होती है । एक साधारण चमेली जिसमें सफेद रंग के फूल लगते हैं और दूसरी जर्द चमेली जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं । फूलों की महक बड़ी मीठी होती है । चमेली के फूलों से बासा जाता है जो चमेली का तेल कहलाता है । यौ०—चमेली का जाल = एक तरह का कसीदा । २. मल्लाहों की बोली में पानी की वह थपेड़ जो ऊँची लहर उठने के कारण दोनों ओर लगती है और जिसके कारण प्रायः नावें डूब जाती हैं ।

चमोई
संज्ञा [देश०] एक पेड़ जिसकी छाल से नेपाली कागज बनाया जाता है । विशेष—इसे घनकोटा, सतपूरा, सतबरसा इत्यादि भी कहते हैं । यह पेड़ सिक्किम से भूटान तक होता है ।

चमोकना †
संज्ञा पुं० [हिं० चमोकना] एक प्रकार की बड़ी किलनी या किलना ।

चमोकना †
क्रि० स० [हिं०] १. किलनी का चमड़े से चिपट जाना । २. किलनी की तरह चिपटना । ३. चुटकी से चमड़ा पकड़कर खींचना या तानना जिससे पीड़ा की अनुभूति होती है ।

चमोटा
संज्ञा पुं० [हिं० चाम + औटा (प्रत्य०)] पाँच छह अंगुल का मोटे चमड़े का टुकड़ा जिसपर नाई छुरे को उसकी धार तेज करने के लिये बार बार रगड़ते हैं ।

चमोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाम + औटा (प्रत्य०)] १. चाबुक । कोड़ा । उ०—(क) माखनचोर री मैं पायो । मैं जु कही सखी होतु कहा है भाजन लगत झुझायो । जै चाहौ तो जान क्यों पैहै बहुत दिननु है खायो । बार बार हौं ढूँका लागी मेरी बात न आयो । नोई नेत की करौं चमोटी घूँघट में डरवायो । विहँसति निकसि रही दो दँतियाँ तब लै कंठ लगायो । मेरे लाल को मारि सकै को रोहिन गाहि हलरायो । सूरदास प्रभु बालक लीला विमल बिमल यश गायो ।—सूर (शब्द०) । (ख) खोटी परै उचटै सिर चोटी चमोटी लगै मनो काम गुरु की ।—(शब्द०) २. पतली छड़ी । कमची । बैंत । उ०— चमोटी लगै छमाछम । विद्या आवै झमाझम ।—(पाठशाला के लड़के) । ३. वह चमड़ा जिसे कैदियों की बेड़ियों में लोहें की रगड़ से बचने के लिये लगाते हैं । ४. चमड़ें का वह टुकड़ा जिसपर नाई छुरे की धार घिसते हैं । ५. चमड़े का चार पाँच हाथ लंबा तस्मा जो खराद या सान में लपेटा रहता है और जिसे खींचने से खराद या सान का चक्कर घूमता है ।

चमौआ †
संज्ञा पुं० [हिं० चमौवा] दे० 'चमौवा' ।

चमौवा
संज्ञा पुं० [हिं० चाम + औवा (प्रत्य०)] वह भद्दा जूता जिसका तला चमड़े से सिया गया हो । चमरौधा ।

चम्मच
संज्ञा पुं० [फा० तुल० सं० चमस्] एक प्रकार की हलकी कलछी जिससे दूध, चाय तथा और भी खाने पीने की चीजें चलाते और निकालते हैं ।

चम्म चम्म
क्रि० वि० [हिं० चमचम या चमाचम] तेज या तीखी चमक सहित । झलाझल चमक के साथ ।

चम्मड पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चमड़ा] १. चमड़ा । २. शरीर (लाक्ष०) । उ०—चम्मड़ दई बलाइ बिरह बिरह दी किसे हाइ गया ।—घनानंद, पृ० ३४० ।

चम्मल
संज्ञा पुं० [हिं० चमला] दे० 'चमला' ।

चम्मोरानी
संज्ञा पुं० [देश०] लड़कों का एक खेल जिसे 'सात समुंदर' भी कहते हैं ।

चम्रिन्न
संज्ञा स्त्री० [सं०] चम्मच में रखा हुआ अन्न या खाने की वस्तु ।

चम्रोथ
वि० [सं०] चम्मच में रखा हुआ ।

चय
संज्ञा पुं० [सं०] १. समूह । ढेर । राशि । २. धुस्स । टीला । ढूह । ३. गढ़ । किला । ४. किसी किले या शहर के चारों ओर रक्षा के लिये बनाई हुई दीवार । धुस । कोट । चहार— दीवारी । प्राकार । ५. बुनियाद जिसके ऊपर दीवार बनाई जाती है । नींव । ६. चबूतरा । ७. चौकी । ऊँचा आसन । ८. कफ, वात या पित्त की विशेष अवस्था । ९. यज्ञ के लिये अग्नि आदि का एक विशेष संस्कार । चयन । १०. दुर्ग का द्वार या फाटक [को०] । ११. तिपाई [को०] । १२. लकड़ों का ढेर (को०) । १३. आवरण [को०] । १४. त्रिदोषों में से वात, पित्त या कफ किसी एक का उभर जाना [को०] ।

चयक
वि० [सं०] चनय करनेवाला [को०] ।

चयन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इकट्ठा करने का कार्य । संग्रह । संचय । २. चुनने का कार्य । चुगाई । ३. यज्ञ के लिये अग्नि का संस्कार । ४. क्रमसे लगाने की क्रिया । चुनने की क्रिया । ५. क्रम से रखना या लगाना [को०] । यौ०—चयनशील = संगह करनेवाला या चुननेवाला ।

चयन (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चैन] दे० 'चैन' ।

चयनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चुनी हुई रचनाओं का संग्रह । वह संग्रह जिसमें कविता, कहानी, लेखादि, चुनकर रखे गए हों । २. चयन करनेवाली स्त्री [को०] ।

चयनीय
वि० [सं०] चयन करने योग्य ।

चयित
वि० [सं०] चुना हुआ [को०] ।

चरेद
संज्ञा पुं० [फा० चरिंद] चरनेवाले पशु ।

चर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा की ओर से नियुक्त किया हुआ वह मनुष्य जिसका काम प्रकाश या गुप्त रूप से अपने तथा पराए राज्यों की भीतरी दशा का पता लगाना हो । गूढ पुरुष । उ०—पठए अवध चतुर चर चारी ।—तुलसी (शब्द०) । २. किसी विशेष कार्य के लिये कहीं भेजा हुआ आदमी । दूत । कासिद । ३. वह जो चले । जैसे,—अनुचर, खेचर निशिचर । ४. ज्योतिष में देशांतर जिसकी सहायता दिनमान निकालने में ली जाती है । ५. खंजन पक्षी । ६. कौडी । कपर्दिका । ७. मंगल । भौम । ८. पास से खेला जानेवाला एक प्रकार का जूआ । ९. नदियों के किनारे या संगमस्थान पर की वह गीली भूसि जो नदी के साथ बहकर आई हुई मिट्टी के जमने से बनती है । १०. दलदल । कीचड़ । ११. नदियों के बीच में बालू का बना हुआ टापू ।

चर (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. छिछला पानी ।—(लश०) । २. नदी का तट ।—(लश०) । ३. नाव या जहाज में एक मूढे़ अर्थात् आड़ी लगी हुई लकड़ी के बाहर की ओर निकले हुए भाग मे दूसरे मूढे़ के बीच का स्थान ।—(लश०) ।

चर (३)
वि० [सं०] १. आपसे आप चलनेवाला । जंगम । जैसे,—चर जीव, चराचर । २. एक स्थान पर न ठहरनेवाला । अस्थिर । जैसे,—चर राणि । चर नक्षत्र । ३. खानेवाला । आहार करनेवाला ।

चर (४)
संज्ञा [अनु०] कागज, कपड़े आदि के फटने का शब्द । विशेष—खट, पट आदि शब्दों के समान इसका प्रयोग भी 'से' विभक्ति के साथ ही क्रि० वि० वत् होता है अतः इसका लिंगविचार व्यर्थ है ।

चरअन्नी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार आना] दे० 'चरन्नी' । उ०— दे अन्नी और चरअन्नी भुजाने में भी एक एक पैसा भुजाना । लगता है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ९४९ ।

चरई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] पत्थर पर ईट आदि का बना हुआ वह गहरा गड्ढा जिसमें जानवरों को चारा या पानी दिया जाता है ।

चरई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चरिका] तार की वह खूँटी जिसमें जुलाहे तार आदि बाँधते हैं ।

चरक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूत । कासिद । चर । २. गुप्चर । भेदिया । जासूस । ३. वैद्यक के एक प्रधान आचार्य जो शेषनाग के अवतार माने जाते हैं, और जिनका रचा हुआ 'चरकसंहिता' वैद्यक का सर्वमान्य ग्रंथ है । इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु ग्रंथकर्ता अग्निवेश ओर प्रतिसंस्कारक चरक हैं । ४. मुसाफिर । बटोही । पथिक । ५. दे० 'चटक' ६. चकरसंहिता नाम का ग्रंथ । ७. बौद्धों का एक संप्रदाय । ८. भिखमंगा । भिक्षुक ।

चरक (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की मछली । उ०—मारे चरक चाल्ह पर हासी । जल तजि कहाँ जारिं जलवासी ।—जायसी (शब्द०) ।

चरक (३)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] कुष्ठ का दाग । सफेद दाग । फूल ।

चरक (४) †
संज्ञा पुं० [अनु०] फटना । दरकना ।

चरकटा
संज्ञा पुं० [हिं० चारा + काटना] १. ऊँट या हाथी के लिये चारा काटकर लानेवाला आदमी । २. तुच्छ मनुष्य । छोटे वित्त का आदमी ।

चरकना पु †
क्रि० वि० [अनु०] चिटकना । फटना ।

चरकगसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] चरक मुनि का बनाया हुआ वैद्यक संबंधी सर्वमान्य एवं अति प्राचीन उपलब्ध संस्कृत ग्रंथ ।

चरका (१)
संज्ञा पुं० [फा़० चरकह्] १. हलका घाव । जख्म । क्रि० प्र०—खाना । देना । लगाना । उ०—गबरू जवान के नश्तरे हुस्न का मैं भी चरका खाए हुए हूँ । फिसाना०, भा० ३, पृ० २६ । २. गरम धातु से दागने का चिह्न । ३. हानि नुकसान । धक्का । क्रि० प्र०—देना । ४. धोखा । क्रि० प्र०—खाना ।—देना ।—पढ़ना ।

चरका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] गडुवा नामक अन्न का एक भेद ।

चरकाल
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार समय का कुछ विशेष अंश जिसका काम दिनमान स्थिर करने में पड़ता है । २. वह समय जो किसी ग्रह को एक अंश से दूसरे अंश पर जाने में लगता है ।

चरकीन
संज्ञा पुं० [हिं० चिरकीन] मल । पाखाना । वि० दे० 'चिरकीन' । उ०—चुगली उगली चीज है, चुगली है चरगीन । काग हुवै कै कूथरो इण रे रस आधिन ।—बाँकी० ग्रं०, भाग २, पृ० ५४ ।

चरक्का पु
संज्ञा पुं० [फा़० चरकह्] घाव । चोट । उ०—जंपै न वीर सारंग तं, भोरा नाम अभंग भर । भुग्वै कौन को भुग्गि हैं, करौं चरक्का षग्गवर ।—पृ० रा०, १२ । १२४ ।

चरख
संज्ञा पुं० [फा० चर्ख] १. पहिए के आकार का अथवा इसी प्रकार का और कोई घूमनेवाला गोल चक्कर । चाक । विशेष—इस प्रकार की चक्कर की सहायता से कुएँ से पानी खींचा जाता है, अतिशबाजी छोड़ी जाती है तथा इसी प्रकार के और बहुत से काम होते हैं । २. खराद । यौ०—चरखकश । क्रि० प्र०—चढ़ना । चढ़ाना । ३. लकडी का एक ढाँचा जिसमें चार अंगुल की दूरी पर दो छोटी चरखियाँ लगी रहती हैं और जिनके बीच में रेशम या कलवत्त लपेटा जाता है । ४. सूत कातने का चरखा । ५. कुम्हार का चाक । ६. गोफन । ढेलवाँस ७, वह गाड़ी जिस— पर तोप चढ़ी रहती है । उ०—चरखिनु आकरषैं सदजल बरसै परदल घरषैं भले भले ।—सूदन (शब्द०) ।

चरख (३)
संज्ञा पुं० [फा़० चरग] तेंदुए की जाति का लकड़बग्घा नाम का जानवर । बाज की जाति की एक शिकारी चिड़िया ।

चरखकश
वि० [फ़ा० चर्खकश] १. खराद की डोरी या पट्टा खींचनेवाल । २. खराद चलानेवाला ।

चरखड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरख] एक प्रकार का दरवाजा ।

चरखपूजा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० चर्ख + सं० पूजा ] एक प्रकार की पूजा जो चैत की संक्रांति को होती है । विशेष—इसका आयोजन ७ या ८ दिन पहले होता है । यह पूजा शिव को प्रसन्न करने के लिये की जाती है । इसमें भक्त लोग गाते बजाते और नाचते हुए भक्ति में उन्मत्त से हो जाते हैं, यहाँ तक कि कोई कोई अपनी जीभ छेदते हैं, कोई लेहि के काँटे पर कूदते हैं और कोई अपनी पीठ को बरछी से नाथकर चारों ओर घूमते हैं । जिस खंभे पर इस बरछे को लगाकर चारो ओर घूमते हैं, उसे चरख कहते हैं । ये सब क्रियाएँ एक प्रकार के संन्यासी करते हैं । अंग्रेजी शासन- काल में ये क्रियाएँ बहुत संक्षिप्त हो गई । बृहद्धर्म पुराण नामक ग्रंथ में इस पूजा का विधान और फल लिखा हुआ है । ऐसी कथा है कि चैत्र की संक्रांति को वाण नामक एक शैव राजा ने भक्ति के आवेश में अपने शरीर का रक्त चढ़ाकर शिव को प्रसन्न किया था ।

चरखा
संज्ञा पुं० [फ़ा० चर्ख] १. पहिए के आकार का अथवा इसी प्रकार का कोई और घूमनेवाला गोल चक्कर । चरख । २. लकड़ी का बना हुआ एक प्रकार का यंत्र जिसकी सहायता से ऊन, कपास या रेशम आदि को कातकर सूत बनाते हैं । रहट । विशेष—इसमें एक ओर बडा गोल चक्कर होता है, जिसे चर्खी कहते हैं और जिसमें एक ओर एक दस्ता लगा रहता है । दूसरी ओर लोहे का एक बड़ा सूआ होता है, जिसे तकुआ या तकला कहते हैं । जब चरखी घुमाई जाती है तब एक पतली रस्सी की सहायता से, जिसे माला कहते हैं, तकुआ घूमने लगता है । उसी तकूए के घूमने से उसके सिरे पर लगे हुए ऊन कपास आदि का कतकर सूत बनता जाता है । क्रि० प्र०—कातना ।—चलाना । ३. कुएँ से पानी निकालने का रहट ।४. ऊख का रस निकालने के लिये बनी हुई लोहे की कल । ५. एक प्रकार का बेलन जिससे पौटिए तार खींचते हैं । ६. सूत लपेटने की गराड़ी । चरखी । रील । ७. गराड़ी । घिरनी । ८. बड़ा या बेडौल पहिया । ९. रेशम खोलने का 'उड़ा' नाम का औजार । १० गाड़ी का वह ढाँचा जिसमें जोतकर नया घोड़ा निकालते हैं । खड़खड़िया । ११. वह स्त्री या पुरुष जिसके सब अंग बुढापे के कारण बहुत शिथिल हो गए हों । १२. झगडे़ बखेडे़ या झंझट का काम । क्रि० प्र०—निकलना । १३. कुश्ती का एक पेंच जो उस समय किया जाता है जब जोड़ (विपक्षी) नीचे होता है । विशेष—इसमें जोड़ की दाहिनी ओर बैठकर अपनी बाईं टाँग जोड़ भी दाहिनी टाँग में भीतर से जालकर निकालने हैं और अपनी दाहिनी टाँग जोड़ की गर्दन में डालकर दोनों पैर मिलाकर दंड करते हैं जिससे जोड़ चित्त हो जाता है ।

चरखाना †
संज्ञा पुं० [हिं० चारखाना] दे० 'चारखाना' ।

चरखी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरखा का स्त्री० (अल्पा०)] १. पहिए की तरह घूमनेवाली कोई वस्तु । २. छोटा चरखा । ३. कपास ओटने की चरखी । बेलनी । ओटनी । ४. सूत लपेटने की फिरकी । ५. धनुष के आकार का लकड़ी का एक यंत्र जिसमें एक खूँटी लगी रहती है ओर जिसकी सहायता से मोटी रस्सियाँ बनाई जाती हैं । कुएँ आदि मे पानी खींचने की गराड़ी । घिरनी । ७. पतली कमानियों से बना हुआ जुलाहों का एक औजार जिसकी सहायता मे कई सूत क में लपेटे जाते हैं । ८. कुम्हार का चाक । ९. एक प्रकार की आतिशबजी जो छूटने के समय खूब घूमती है ।

चरखे का गलखोड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] कुस्ती का एक पेंच । विशेष—जब विपक्षी उलटे उखाड़ से फेंकना चाहता है तब उसकी पीठ पर से चरखे के समान करवट लेकर अपनी टाँग उसकी गर्दन पर चढ़ाते हैं और उसका एक हाथ और एक पाँव गलखोडे़ से बाँधकर उसे गिरा देते हैं । इसी को चरखे का गलखोड़ा कहते हैं ।

चरग †
संज्ञा पुं० [फ़ा० चरगी] १. बाज की जाति की एक शिकारी चिड़िया । चरख । उ०—चरग चंगुगत चातकहि नेम प्रेम की पीर । तुलसी परबस हाड़पर परिहैं पुहुमी नीर ।—तुलसी (शब्द०) । २. लकड़बग्घा नामक जंतु जो कुतों का शिकार करता है ।

चरगजी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार + गज + ई (प्रत्य०)] कफन । अर्थी का कपड़ा । शव ढाँकने का कपड़ा । उ०—चारगजी चरगजी मँगाया, चढ़ा काठ की घोड़ी । चारों कोने आग लगाय, फूँक दियो जस होरी ।—संतवाणी०, भाग २, पृ० ४ ।

चरगल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का शिकारी पक्षी । चरग । उ०—मृगमद मृगवन स्वान नखानहु । ग्राम स्वान बहु गढ़ महँ आनहु । जुरर बाज बहु गुही कुहोला । चरगल गरवा सोकर भेला ।—प० रा०, पृ० १८ ।

चरगह, चरगेह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरराशि' ।

चरचना (१)पु †
क्रि० स० [सं० चर्चन] १. देह में चंदन आदि लगाना उ०—चरचति चंदन अंग हरन अति ताप पीर के ।—व्यास । (शब्द०) २. लेपना । पोतना । ३. भाँपना । अनुमान करना । समझ लेना । उ०—चरचहिं चेष्टा परखहिं नारी निपट नाहिं औषध तहँ वारी ।—(शब्द०) । ४. पहचानना । उ०—चेला चरचन गुरु गुन गावा । खोजत पूछि परम रस पावा ।—जायसी (शब्द०) ।

चरचना— (२)
क्रि० स० [सं० चर्चन] पूजन करना । उ०—तबहिं नंद जू कही श्याम सो हमरे सुरपति पूजा । गोधन गिरि पै वाहिं चंरचिहैं याही है मुखपूजा ।—सुदन (शब्द०) ।

चरचर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] चरचराने की ध्वनि या स्थिति ।

चरचरा (१)
संज्ञा पु० [अनु०] खाकी रंग कीएक चिड़िया जिसकी जिसकी छाती सफेद होती है और जिसके शरीर के उपरी भाग पर चारखानेदार धारियाँ होती हैं । विशेष—यह प्रायः ६ से १० अंगुल तक लंबी होती है और समस्त भारत में पाई जाती है । इसका अंडा देने का कोई निश्चित समय नहीं है । इसके मुनिया (लाल, हरा, तेलिया आदि) और सिंघाड़ा आदि अनेक भेद हैं ।

चरचरा † (२)
वि० [हिं० चिड़चिड़ा] दे० 'चिड़चिड़ा' ।

चरचराटा
संज्ञा पुं० [देश०] रोबदाब । दबदबा । उ०—नाना अब तो सब तरफ अंग्रेजों का चरचराटा है ।—झाँसी०, पृ० ४७ ।

चरचराना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. चर चर शब्द के साथ टूटना या जलना । उ०—गगड़ गड़गड़ान्यो खंभ फाटयो चरचराय कै निकस्यो नर नाहर को रूप अति भयानो है ।—(शब्द०) । २. घाव आदि का खुश्की से तनना और दर्द करना । चर्राना ।

चरचराना (२)
क्रि० स० चर चर शब्द के साथ (लकड़ी आदि) तोड़ना ।

चरचराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरचराना + हट (प्रत्य०)] १. चरचराना का भाव । २. चर चर शब्द के साथ किसी चीज के टूटने या फटने का शब्द ।

चरचरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्चरी] दे० 'चर्चरी या 'चाँचर' ।

चरचा
संज्ञा स्त्री० [हिं० चर्चा] दे० 'चर्चा' । उ०—(क) हरिजन हरि चरचा जो करै । दासी सुत जो हिरदै धरै ।—सूर (शब्द) । (ख) निज लोक बिसरे लोकपति घर की न चरचा चालहीं ।—तुलसी (शब्द०) ।(ग) पुरवासियों के प्यारे राम के अभिषेक की उस चरचा ने प्रत्येक पुरवासी को हर्षित किया ।—लक्ष्मण (शब्द०) ।

चरचारी पु
वि० [हिं० चरचा] १. चरचा चलानेवाला । २. निंदक । शिकायत करनेवाल । उ०—हौं हारी समुझाइ कै चरचारीहिं डरै न । लगै लगौहैं नैन ये नित चित करत अचैन ।—शृं० सत० (शब्द०) ।

चरचित पु
वि० [सं० चर्चित] दे० 'चर्चित' ।

चरचित्त पु
वि० [सं० चलचित्त] दे० 'चलचित्त' ।

चरज
संज्ञा पुं० [फा़० चरग] चरख नाम का पक्षी । उ०—हारिल चरज आप बँद परे । बनकुकरी जलकुकरी चरे ।—जायसी (शब्द०) ।

चरजना पु
क्रि० अ० [सं० चर्चन] १. बहकावा या भुलावा देना । बहाली देना । उ०—चंचला चमाकैं चहुँ औरन ते चाय भरी, चरज गई ती फेर चरजन लागी री ।—पद्माकर (शब्द०) । २. अनुमान करना । अंदाज लगाना । उ०—अरज गरज सुनि चरजि चित्त महँ हरज मरज बरकाई ।—रघुराज (शब्द०) ।

चरट
संज्ञा पुं० [सं०] खंजन पक्षी ।

चरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पग । पैर । पाँव । कदम । यौ०—चरणपादुका । चरणपीठ । चरणवदन = चरण छूना । चरणसेवा = बड़ों की सेवा शुश्रूषा । मुहा०—चरण छूना = दंडपत या प्रणाम आदि करना । बडे़ का अभिवादन करना । चरण देना = पैर रखना । उ०—जेहिगिरि चरश देइ हनुमंता ।—तुलसी (शब्द०) । चरण पड़ना = आगमन होना । कदम जाना । जैसे—जहँ जहँ चरण पडैं संतन के तहँ तहँ बंटाधार ।—(शब्द०) । चरण लेना = पैर पड़ना । पैर छूकर प्रणाम करना । २. बड़ों का सांनिध्य । बड़ों की समीपता । बड़ों का संग । उ०—ग्वाल सखा कर जोरि कहत है हमहिं श्याम तुम जनि बिसरायहु । जहाँ जहाँ तुम देह धरत हौं तहाँ तहाँ जनि चरण छुडायहु ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—में आना ।—में रखना ।—में रहना ।—छूटना ।— छोडना । ३. किसी छंद, श्लोक या पद्य आदि का एक पद । दल । यौ०—चरणगुप्त । ४. किसी पदार्थ का चतुर्थांश । किसी चीज का चौथाई भाग । जेसे,—नक्षत्र का चरण, युग का चरण आदि । ५. मूल । जड़ । ६. गोत्र । ७. क्रम । ८. आचार । ९. विचरण करने का स्थान । घूमने की जगह । १०. सूर्य आदि की किरण । ११. अनुष्ठान । १२. गमन । जाना । १३. भक्षण । चरने का काम । १४. नदी का वह भाग जो तटवर्ती पर्वत, गुफा आदि तक चला गया हो (को०) । १५. वेद की कोई शाखा (को०) । १६. खंभा । स्तंभ (को०) ।१७. किसी संप्रदाय का विहित कर्म (को०) । १८. आधार । सहारा (को०) ।

चरणकमल
संज्ञा पुं० [सं०] कमलवत् चरण । कमल के समान पैर ।

चरणकरणानुयोग
संज्ञा पुं० [सं०] जैन साहित्य में वे ग्रंथ आदि जिसमें किसी के चरित्र पर बहुत ही सूक्ष्म रूप से विचार या व्याख्या की गई हो ।

चरणगत
वि० [सं०] १. चरणों पर गिरा हुआ । २. आश्रित । अधीन ।

चरणगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चित्रकाव्य जिसके कई भेद होते हैं । इसमें कोष्ठक बनाकर अक्षर भरे जाते हैं, जिनके पढ़ने के क्रम भिन्न होते हैं । जैसे, (१)— इंद्रजीत संगीत लै किये राम रस लीन । क्षुद्र गीत संगीत लै भये काम बस दीन ।—(शब्द०) । (२)— दो०—राकराज जराकारा मासमास समासमा । राधा मीत तमीधारा साल सीस सुसील सा (शब्द०) ।

चरणचार
संज्ञा पुं० [सं० चरण + चार] गमन । गति । चलना । उ०—कितने वन उपवन उद्यान कुसुम कलि सजे निरुपमिते, सहज भार चरणचार से लजे ।—अनामिका, पृ० १४१ ।

चरणग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० चरणग्रंथि] पैरों के नीचे की तरफ की गाँठ [को०] ।

चरणचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैरों के तलुए की रेखा । पाँव की लकीरें । २. कीचड़, धूल या बालू आदि पर पड़ा हुआ पैर का निशान । ३. पत्थर आदि पर बनाया हुआ चरण के आकार का चिह्न जिसका पूजन होता है ।

चरणतल
संज्ञा पुं० [सं०] पैर का तलुआ ।

चरणदास
संज्ञा पुं० [हिं०] दिल्ली के रहनेवाले एक महात्मा साधु का नाम जो जाति के ढूसर बनिए थे । विशेष—इनका जन्म सं० १७६० वि० में और शरीरांत सं० १८३८ वि० में हुआ था । इनके बनाए कई ग्रंथ हैं जिनमें से स्वरोदय बहुत ही प्रसिद्ध है । इन्होंने अपना एक पृथक् संप्रदाय चलाया था । इस संप्रदाय के साधु अबतक पाए जाते हैं और चरणदासी साधू कहलाते हैं ।

चरणदासी (१)
वि० [हिं० चरणदास + ई (प्रत्य०)] महात्मा चरण— दास के संप्रदाय का । चरणदास का अनुयायी ।

चरणदासी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चरण + दासी] १. स्त्री । पत्नी । २. जूता । पनही ।

चरणप
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष । पादप [को०] ।

चरणपर्व
संज्ञा पुं० [सं० चरणपर्वन्] दे० 'चरणपर्वण' [को०] ।

चरणपर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] गुल्फ । एँड़ी ।

चरणपादुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खड़ाऊँ । पाँवड़ी । २. पत्थर आदि पर बना हूआ चरण के आकार का चिह्न जिसका पूजन होता है । चरण चिह्न ।

चरणपीठ
संज्ञा पुं० [सं०] चरणपादुका । पाँवड़ी । खड़ाऊँ ।

चरणयुग, चरणयुल
संज्ञा पुं० [सं०] दोनों चरण या पैर [को०] ।

चरणरज
संज्ञा पुं० [सं०] पाँव की धूल ।

चरणलग्न
वि० [सं०] दे० 'चरणगत' ।

चरणव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] वेद की शाखाओं का विभाग करनेवाला एक ग्रंथ [को०] ।

चरणशरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] चरण का आश्रय । अधीनता । उ०—मरा हूँ हजार मरण, पाई तव चरण शरण ।— आराधना, पृ० ६ ।

चरणशुश्रूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चरणसेवा' ।

चरणसेवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो पाँव दबाए या सेवा करे । २. भृत्य । नौकर [को०] ।

चरणसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं० चरण + सेवा] पैर दबाना । बड़ों की सेवा ।

चरणसेवी
संज्ञा पुं० [सं० चरणसेविन्] १. सेवक । नौकर । २. चरणों में रहनेवाला [को०] ।

चरणा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चरण] काछा । वि० दे० 'चरना' । क्रि० प्र०—काछना ।

चरणा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्रियों की योनि का एक रोग । इस रोग में मैथुन के समय स्त्री का रज बहुत जल्दी स्खलित हो जाता है ।

चरणाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अक्षपाद । गौतम ।

चरणाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] चुनार नामक स्थान जो काशी और मिर्जापुर के बीच है । विशेष—यहाँ एक छोटा सा पहाड़ है, जिसकी एक शिला पर बुद्धदेव का चरणचिह्न है । आजकल यह शिला एक मसजिद में रखी हुई है और मुसलमान उसपर के चिह्न को 'कदम— रसूल' बतलाते हैं ।

चरणागति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैरों पर गिरना [को०] ।

चरणानुग
वि० [सं०] १. किसी बडे़ के साथ या उसकी शिक्षा पर चलनेवाला । अनुगामी । २. शरणागत ।

चरणामृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पानी जिसमें किसो महात्मा या बडे़ के चरण धोए गए हों । पादोदक । मुहा०—चरणामृत लेना=किसी महात्मा या बडे़ का चरण धोकर पीना । २. एक में मिला हुआ दूध, दही, घी शक्कर और शहद जिसमें किसी देवमूर्ति को स्नान कराया गया हो । विशेष—हिंदू लोग बडे़ पूज्य भाव से चरणामृत पीते हैं । चरणामृत बहुत थोड़ी मात्रा में पीने का विधान हैं । क्रि० प्र०—लेना । मुहा—चरणामृत लेना = बहुत ही थोड़ी मात्रा में कोई तरल पदार्थ पीना । चरणामृत पीना = पंचामृत लेना । चरणामृत माथे या सिर लगाना = किसी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिये उसके पादोदक को माथे पर रखना । चरणामृत को प्रणाम करना ।

चरणायुध
संज्ञा पुं० [सं०] मुरगा । अरुणशिखा ।

चरणारविंद
संज्ञा पुं० [सं०] कमल के समान चरण । चरणकमल ।

चरणार्द्ध
वि० [सं०] १. चरण या चतुर्थांश का आधा । किसी चीज का आठवाँ भाग । २. किसी श्लोक या छंद के पद का आधा भाग ।

चरणास्कंदन
संज्ञा पुं० [सं० चरणास्कंदन] पैरों से रौंदना । कुचलना [को०] ।

चरणि
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य ।

चरणोदक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरणामृत' ।

चरणोपधान
संज्ञा पुं० [सं०] पाँव रखने का स्थान । पाँवदान [को०] ।

चरणयु
वि० [सं०] चरणशील । चलनेवाला । गतिशील [को०] ।

चरत
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बड़ा पक्षी जिसका शिकार किया जाता है । वि० दे० 'चीनी मोर' ।

चरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चलने का भाव । २. पृथ्वी ।

चरतिरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] मिर्जापुर के जिले में पैदा होनेवाली एक प्रकार की कपास जो मामूली होती है ।

चरती
संज्ञा पुं० [हिं० चरना (= खाना)] वह जो ब्रत न हो । व्रत के दिन उपवास न करनेवाला । यौ०—बरती चरती ।

चरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] चलने का भाव ।

चरथ (१)
वि० [सं०] चलनेवाला । जंगम ।

चरथ (२)
संज्ञा पुं० १. वह जो चलनेवाला या गतिशील हो । २. गति । चलनशीलता । ३. जीवन । ४. मार्ग [को०] ।

चरदास
संज्ञा स्त्री० [देश०] मथुरा जिले में होनेवाली एक प्रकार की कपास जो कुछ घटिया होती है ।

चरद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह संपत्ति जिसका स्थानांतर किया जा सके । चल संपत्ति [को०] ।

चरनं पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण + अङ्ग] पैर ।

चरन पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण] दे० 'चरण' । चूक परी सेवन नहिं पाए, चरन सरोज पुनीत ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३७ । विशेष—'चरन' के यौगिक आदि के लिये देखो 'चरण' के यौगिक ।

चरनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाती, पुनर्वसू श्रवण और धनिष्ठा आदि कई नक्षत्र जिनकी संख्या भिन्न आचार्यों के मत से अलग अलग है ।

चरनचर †
संज्ञा पुं० [सं०चरण + चर] पैदल सिपाही ।

चरनदासी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चरण + दासी] जूता । पनही ।—(साधु) ।

चरन धरन
संज्ञा पुं० [सं० चरण + हिं० धरना] खड़ाऊँ ।

चरनपीठ पु
संज्ञा पुं० [सं० चरणपीठ] दे० 'चरणपीठ' । उ०— (क) तुलसी प्रभु निज चरनपीठ मिस भरत प्रान रखवारो ।— तुलसी (शब्द०) ।(ख) सिंहासन सुभग राम चरनपीठ धरत । चालत सब राज काज आयसु अनुसरत ।—तुलसी (शब्द०) ।

चरनबरदार पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण + फ़ा० बरादार] बडे़ आदमियों का जूता उठाने और रखनेवाला नौकर ।

चरनबस्त्र पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण + वस्त्र] पाँव के वस्त्र । उ०— जो जहाँ लौ श्रीगुसांई जी नारायनदास के घर विराजे तहाँ लौ नारायनदास नित्य नौतन सामग्री, धोती, उपरेना, वागा, सिज्या, वस्त्र, चलनवस्त्र सब नए नराई करते ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ११२ ।

चरना (१)
क्रि० स० [सं० चर (= चलना) मि० फ़ा० चर्रादन] पशुओं का खेतों या मैदानों में घूम घूमकर घास चारा आदि खाना । मुहा०—अक्ल का चरने जाना = दे० 'अक्ल' के मुहावरे ।

चरना (२)
क्रि० अ० [सं० चर (= चलना)] घूमना फिरना । विचरना । उ०—जेहि ते विपरीत क्रिया करिये । दुख से सुख मानि सुखी चरिये ।—तुलसी (शब्द०) ।

चरना (३)
संज्ञा पुं० [सं० चरण (=पैर)] काछा । उ०—इस बात केसुनते ही राजा ने चरना काछकर उस देव को ललकारा ।— लल्लू (शब्द०) ।

चरना (४)
संज्ञा पुं० [देश०] सुनारों का एक औजार जिससे नक्काशी करने में सीधी लकीर या लंबा चिह्न बनाया जाता है ।

चरनायुध पु
संज्ञा पुं० [सं० चरणायुध] दे० 'चरणायुध' । उ०— परै न पहर चरनायुध करैं न सोर पसरै न प्राची और कर दिनकर को ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

चरनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चर (= गगन)] चाल । गति । उ०—लसत कर प्रतिबिंब मनि आँगन घटुरुवनि चरनि ।—तुलसी (शब्द०) ।

चरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना] १. पशुओं के चरने का स्थान । चरी । चरागाह । २. वह नाद जिसमें पशुओं को खाने के लिये चारा दिया जाता है । ३. चौतरे के आकार का बना हुआ वह लंबा स्थान जिसपर पशुओं को चारा दिया जाता है । ४. पशुओं का आहार, घास, चारा आदि । उ०—कमल बदन कुम्हिलात सबन के गौवन छाँडी तृन की चरनी ।—सूर (शब्द०) । विशेष—कहीं कहीं चरही शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है ।

चरन्नी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार + आना] दे० 'चवन्नी' ।

चरपट
संज्ञा पुं० [सं० चर्पट] १. चपत । तमाचा । थप्पड़ । २. किसी की वस्तु उठाकर भाग जानेवाला । चाईं । उचक्का । उ०—(क) जौ लौं जीवै तौ लौं हरि भजि रे मन और बात सब बादि । द्योस चारि के हला भला तूँ कहा लेइगो लादि । धनमद जोबनमद राजमद भूल्यो नगर विवादि । कहि हरिदास लोभ चटपट यों काहे की लगै फिरादि ।—स्वामी हिरदास (शब्द०) । (ख) चरपट चोर गाँठि छोरा मिले रहहिं तेहि माँच । चो तेहि हाट सजग रहइ गाँठि ताकरि गाइबाँच ।—जायसी (शब्द०) । ३. एक प्रकार का छंद । चर्पट । उ०—तेमर उनईस चरपट साता । हरियक आठ भुजंगप्रयाता ।—विश्राम (शब्द०) ।

चरपनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वेश्या का गाना । मुजरा । (वेश्याओं और सपर्दाइयों की परिभाषा) ।

चरपर
वि० [हिं० चरपरा] दे० 'चरपरा' ।

चरपरा (१)
वि० [अनु०] स्वाद में तीक्ष्ण । झालदार । तिता । उ०—(क) खंडहि, कीन्ह आँब चरपरा । लौंग इलाची सो खँडबरा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) मीठे चरपरे उज्वल कौरा । हौंस होइ तौ ल्याऊ औरा ।—सूर (शब्द०) । विशेष—नमक, मिर्च, खटाई आदि के संयोग से यह स्वाद उत्पन्न होता है ।

चरपरा (२)
वि० [सं० चपल अथवा हिं० अनु०] चुस्त । तेज । फुरतीला ।

चरपराना
क्रि० अ० [हिं० चरचर] घाव का चर्राना । घाव में खुश्की के कारण तनाव लिए हुए पीड़ा होना ।

चरपराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरपरा + आहट(प्रत्य०)] १. स्वाद की तीक्ष्णता । झाल । २. घाव आदि की जलन । ३. द्वेष । डाह । ईर्ष्या ।

चरपरी
वि० स्त्री० [अनु०] दे० 'चटपटी' । उ०—चरपरी बोली द्वादस प्रकार के बचन साध के ।—सहजो०, पृ० १८ ।

चरफरा
वि० [हिं०] दे० 'चरपरा' ।

चरफराना †पु
क्रि० अ० [अनु०] तड़फड़ाना । तड़पना । उ०— चरफराहिं मग चलहिं न घोरे । बन मृग मनहु आनि रथ जोरे ।—तुलसी (शब्द०) ।

चरब
वि० [फा० चर्ब] १. तेज । तीखा । उ०—समर सुरब से चरब शस्त्र सत परब सरिस धरि । गोपाल (शब्द०) । २. चरबीदार । चिकना । स्त्रिग्ध । यौ०—चरबजवानी = (१) बहुत अधिक और जल्दी जल्दी बोलना । (२) चिकनी चुपड़ी बातें करना । खुशामद करना ।

चरबदस्त
वि० [हिं० चरब + फा० दस्त] १. कुशल चालाक । २. कारीगर [को०] ।

चरबजबान
वि० [हिं० चरब + फा० जबान] १. बहुभाषी । २. वाचाल । ३. चापलूस । ४. बिना सोचे समझे बोलनेवाला ।

चरबन †
संज्ञा पुं० [सं० चर्वण] भुना हुआ अन्न । चबैना । दाना ।

चरबजुबानी
संज्ञा स्त्री० [फा० चरबजुबानी] १. चापलूसी । वाचा- लता । उ०—चरबजुबानी हाय हाय । शोखबपानी हाय हाय ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग २, पृ० ६७८ ।

चरबाँक
वि० [फा० चर्ब (= तेज)] १. चतुर । चालक । होशियार । २. शोख । नर्भय । निडर । चंचल । उ०—राखे हैं सुर मदन ये ऐसे ही चरबाँक । पैनी भौंहन की दरी अब नैननि कौं बाँक ।—रसनिधि (शब्द०) । मुहा०—चरबाँक दीदा = (१) जिसकी दुष्टि चंचल हो । चंचल नेत्रवाला । (२) ढीठ । निडर । शोख ।

चरबा
संज्ञा पुं० [फा० चरबह्] प्रतिमूर्त्ति । नकल । खाका । मुहा०—चरबा उतारना = (१)खाका खींचना । नक्शा उता— रना । चित्र खींचना । (२) किसी की नकल करना ।

चरबाई पु
वि० [हिं०] दे० 'चरबाँक' । उ०—सूधो राधे कुँवारि । श्याम हो अति चरबाई ।—नंद० ग्रं०, पृ० १९५ ।

चरबाक
वि० [हिं० चरबाँक] दे० 'चरबाँक' ।

चरबाना
क्रि० स० [सं० चर्म] ढोल पर चमड़ा मढ़ाना ।

चरबी
संज्ञा स्त्री० [फा०] सफेद या कुछ पीले रंग का एक चिकना गाढ़ा पदार्थ जो प्राणियों के शरीर में ओर बहुत से पौधों और वृक्षों में भी पाया जाता है । मेद । वपा । पीह । विशेष—वैद्यक के अनुसार यह शरीर की सात धातुओं में से एक है और मांस से बनता है । अस्थि इसी का परिवर्तित और परिवर्धित रूप है । पाश्चात्य रासायनिकों के अनुसार सब प्रकार की चरबियाँ गंध और स्वादरहित होती है और पानी में घुल नहीं सकतीं । बहुत से पशुओं ओर वनस्पतियों की चरबियाँ प्रायः दो या अधिक प्रकार की चरबियों के मेल से बनी होती हैं । इसका व्यवहार औषध के रूप में खाने, मरहम आदि बनाने, साबुन, और मोमबत्तियाँ तैयार करने, इंजिनो या कलों में तिल की जगह देने ओर इसी प्रकार के दूसरे कामों में होता है । शरीर के बाहर निकाली हुई चरबी गरमी में पिघलती और सरदी में जम जाती है ।मुहा०—चरबी चढ़ना = मोटा होना । चरबी छाना= (१) (किसी मनुष्य या पशु आदि का) बहुत मोटा हो जाना । शरीर में मेंद बढ़ जाना । विशेष—ऐसी अवस्था में केवल शरीर की मोटाई बढ़ती है, उसमें बल नहीं बढ़ता । (२) मदांध होना । गर्व के कारण किसी को कुछ न समझना । आखों में चरबी छाना = दे० 'आँख' के मुहावरे ।

चरभ
संज्ञा पुं० [सं०] चर राशी । चरगृह ।

चरभवन
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में चर राशि ।

चरभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान जहाँ पशु चरते हैं । चरागाह ।

चरम (१)
वि० [सं०] अतिम । हद दर्ज का । सबसे बढ़ा हुआ । चोटी का । पराकाष्ठा ।

चरम (२)
संज्ञा पुं० १. पश्चिम । यौ०—चरमगिरि = अस्ताचल । उ०—रुचिरचर निज कनक किरणों की तपन, चरमगिरि को खींचता था कृपण सा ।— ग्रंथि०, पृ० ६६ । २. अत । यौ०—चरमकाल = अंतकाल । मुत्यु का समय ।

चरम (३)
संज्ञा पुं० [सं० चर्मन्] दे० 'चर्म' । यौ०—चरमदृष्टि पु = दे० 'चर्मदृष्टि' ।

चरमर
संज्ञा पुं० [अनु०] किसी से तनी हुई या चीमड़ वस्तु (जैसे, जूता ,चारपाई) के दबने या मुड़ने का शब्द । जैसे,—उनका जूता खूब चरमर बोलता है ।

चरमरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे तकड़ी भी कहते हैं । वि० दे० 'तकड़ी' ।

चरमरा (२)
वि० [हिं० चरमराना अनु०] चरमरा शब्द करनेवाला । जिससे चरमर शब्द निकले । जैसे,—चरमरा जूता ।

चरमराना (१)
क्रि० अ० [अनु०] चरमर शब्द होना । जैसे,—जूते का चरमराना ।

चरमराना (२)
क्रि० स० किसी चीज में से चरमर शब्द उत्पन्न करना ।

चरमवती पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मण्वती] चंबल नदी ।

चरमवया
वि० [सं० चरमवयस्] वृद्ध [को०] ।

चरमराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेष, कर्क, तुला, और मकर राशि ।

चरमावल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरमगिरि' [को०] ।

चरमाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरमगिरि' [को०] ।

चरमूँ
संज्ञा पुं० [हिं० चर्म] चर्म । त्वचा । उ०—चरमूँ सपरस मिलि गयौ सुधि बुधि रहयौ न कोई ।—सुदर० ग्रं०, भा० १ पृ० १८० ।

चरमूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह मूर्ति जो एक ही जगह स्थपित न रहे, बल्कि आवश्यकतानुसार अन्य स्थान पर भी लाई जा सके [को०] ।

चरमोत्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत उन्नति । सर्वापरि विकास । उ०—शाहजहाँ के शासन काल में मुगल साम्राज्य अपनै चरमोत्कर्प पर पहुँच चुका था ।—हिं० आ० प्र०, पृ० ७ ।

चरम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० चर्मन्] ढाल । उ०—खड़ाखड़ी चरम्म है, झड़ाझड़ी खड़ग्गरा । गले बलावली दले करे वली गरज्जरा ।—रघु० रू०, पृ० ६१ ।

चरलीता
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की काष्ठौषध । उ०—जब चिराइता चित्रक चीता । चोक चोब चीनी चरलीता ।—सूदन (शब्द०) ।

चरवाँक
वि० [हिं० चरबाँक] दे० 'चरबाँक' ।

चरवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बढ़िया और मुलायम चारा । घम्मन । विशेष—यह खेत या खेत की जमीन में बारहो माल अधिकता से उत्पन्न होता है । बैल और घोड़े इसे बड़े चाव से खाते हैं । कही कहीं वह गायों और भैसों को उनका दुध बढ़ाने के लिये भी दिया जाता है ।

चरवा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] एक बर्तन का नाम । ताँबे या पीतल का एक पात्र । उ०—शिष्य एक भूमि कौ ताम्र विकारा ताके पात्र कहावहिं । पुनि चरवा चरई तष्टी तुषला झारी लोटा गावहिं ।—सुंदर०, ग्रं०, भा० १, पृ० ७४ ।

चरबाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चराना] १. चराने का काम । २. चराने की मजदूरी ।

चरवाना
क्रि० स० [हिं० चराना का प्रे० रूप] चराने का काम कराना ।

चरवाह †
संज्ञा पुं० [हिं० चरना + वाहा (प्रत्य०)] दे० 'चरवाह' ।

चरवाहा
संज्ञा पुं० [हिं० चरना + वाहा (=वाहक)] गाय भैंस आदि चरानेवाला । पशुओं को चराई पर ले जानेवाला । वह जो पशु चरावे । चौपायों का रक्षक ।

चरवाही (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चर + वाही (प्रत्य०)] पशु चराने का काम । २. वह धन या वेतन जो पशु चराने के बदले में दिया जाय । चराने की मजदूरी ।

चरवाही पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना + वाही] इधर उधर फिरना । आवारा की तपह घूमना । उ०—सुरत निशानी गात तकि सकुचत नहिं समुहात । चरवाही जानो करो बेपरवाही बाम ।—स० सप्तक, पृ० २६४ ।

चरवी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कहारों का एक सांकेतिक शब्द । इसमें आगेवाला कहार पीछेवाले कहार को इस बात की सूचना देता है कि रास्ते में गाड़ी में गाड़ी एक्का आदि है ।

चरवैया †
वि० [हिं० चरना + वैया (प्रत्य०)] १. चरनेवाला । २. चरानेवाला ।

चरव्य
वि० [सं०] चरु बनाने योग्य ।

चरस (१)
संज्ञा पुं० [सं० चर्म] १. भैंस या बैल आदि के चमड़े से बना हुआ थैला । २. चमड़े का बना हुआ वह बहुत बड़ा डोल जिससे प्रायः खेत सींचने के लिये पानी निकाला जाता हैं । चरसा । तरसा । पुर । मोट । उ०—चिबुक कूप, रसरी अलक, तिल सु चरस दुग बैल । बारी बैस गुलाब की. सींचत मनमथ छैल ।—(शब्द०) । विशेष—इसमें पानी बहुत अधिक आता है और उसे खींचने के लिये प्रायः एक या दो बैल लगते हैं ।३. भूमि नापने का एक परिमाण जो किसी किसी के मत से २१०० हाथ का होता है । गोचर्म । ४. गाँजे के पेड़से निकला हुआ एक प्रकार का गोद या चेप जो देखने में प्राय; मोम की तरह का और हरे अथवा कुछ पीले रंग का होता है और जिसे लोग गाँजे या तंबाकू की तरह पीते हैं । नशे में यह प्रायः गाँजे के समान ही होता है । विशेष—यह चेष गाँजे के डंठलों और पत्तियों आदि से उत्तरपश्चिम हिमालय में नेपाल, कुमाऊँ, काश्मीर से अफगानिर- तानौं और तुर्किस्तान तक बराबर अधिकता से निकलता है, और इन्ही प्रदेशों का चरस सबसे अच्छा समझा जाता है । बंगाल, मध्यप्रदेश आदि देशों में और योरप में भी, यह बहुत ही थोड़ी मात्रा में निकलता है । गाँजे के पेड़यदि बहुत पास पास हों तो उनमें से चरस भी बहुत ही कम निकलता है । कुछ लोगों का मत है कि चरस का चेप केवल नर पौधों से निकलता है । गरमी के दिनों में गाँजे के फूलने से पहले ही इसका संग्रह होता है । यह गाँजे के डंठलों को हावन दस्ते में कूटकर या अधिक मात्रा में निकलने के समय उस पर से खरोचकर इकट्ठा किया जाता है । कहीं कहीं चमड़े का पायजामा पहनकर भी गाँजे के खेतों में खूब चक्कर लगाते हैं जिससे यह चेप उसी चमड़े में लग जाता है, पीछे उसे खरोचकर उस रूप में ले आते हैं जिसमें वह बाजारों में बिकता है । ताजा चरस मोम की तरह मुलायम और चमकीले हरे रंग का होता है पर कुछ दिनों बाद वह बहुत कड़ा और मटमैले रंग का हो जाता है । कभी कभी व्यापारी इसमें तीसी के तेल और गाँजे की पत्तियों के चूर्ण की मिलावट भी देते हैं । इसे पीते ही तुरंत नशा होता है और आँखें बहुत लाल हो जाती हैं । यह गाँजे और भाँग की अपेक्षा । बहुत अधिक हानिकारक होता है और इसके अधिक व्यवहार से मस्तिष्क में विकार आ जाता है । पहले चरस मध्यएशिया से चमड़े के थैलों या छोटे छोटे चरसों में भरकर आता था । इसी से उसका नाम चरम पड़ गया ।

चरस (२)
संज्ञा पुं० [फा० चर्ज] आसान प्रांत में अधिकता से होनेवाला एक प्रकार का पक्षी जिसका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है । इसे वन मोर या चीनी मीर भी कहते हैं ।

चरसा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चरस] १. भैंस बैल आदि का चमड़ा । २. चमड़े का बना हुआ थैला । ३. चरस । मोट । पुर । ४. भूमि का एक परिमाण । गोचर्म । वि० दे० 'चरस' ।

चरसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चरस] चरस पक्षी ।

चरसिया
संज्ञा पुं० [हिं० चरस + इया (प्रत्य०) ] दे० 'चरसी' ।

चरसी
संज्ञा पुं० [हिं० चरस + ई (प्रत्य०)] १. वह जो चरस की सहायता से कुएँ से पानी निकलता हो । चरस द्बारा खेत सींचनेवाला । २. वह जो चरस पीता हो । चरस का नशा करनेवाला । जैसे—चरसी यार किसके ? दम लगाया खिसके ।—कहावत ।

चरहल पु
वि० [हिं० चरना] चरनेवाला । उ०—आँब कै बोरे चरहल करहल, निबिया छोलि छोलि खाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १४८ ।

चरहा †
वि० [हिं० चरना + हा (प्रत्य०)] चारा युक्त । चारेवाला (खेत या मैदान) ।

चरही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना + ही (प्रत्य०)] दे० 'चरनी' ।

चराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना] १. चरने का काम । चरने की क्रिया । २. चराने का काम । चराने की मजदूरी ।

चराऊ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना] वह स्थान जहाँ पशु चरते हैं । चरागाह । चरनी ।

चराक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।

चराक (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चिराग] रोशनी । दिपक । उ०—भैंसे को चाँदी की हाँसली आदि अच्छे अच्छे गहणे पहनाय रात को चराकों से भिड़काते हैं ।—राम० धर्म०, पृ० २८६ ।

चराकी
संज्ञा पुं० [हिं० चराक (= चिराग) ] रोशनी करना । प्रकाश करना । उ०—शेष नाग सेवा करै चंद्र पूरै चराकी । लेखण वाके हाथ है कछू काढ़त वाकी ।—राम० धर्म०, पृ० ४६ ।

चराग †
संज्ञा पुं० [हिं० चिराग] दे० 'चिराग' ।

चरागान
संज्ञा पुं० [फा० चराग का बहु०] दीपोत्सव [को०] ।

चरागाह
संज्ञा पुं० [फा०] वह मैदान या भूमि जहाँ पशु चरते हों । पशुओं के चरने का स्थान । चरनी । चरी ।

चराचर
वि० [सं०] १. चर और अचर । जड़ और चेतन । स्थावर और जंगम । उ०—त्रिभुवन हार सिंगार भगवती सलिल चराचर जाकै ऐन । सूरजदास विधाता के तप प्रकट भई सतन सुखदैन ।—सूर (शब्द०) । २. जगत् । संसार । ३. कौड़ी ।

चराचरगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. परमेश्वर ।

चरान (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चरना] चौपायों के चरने की भूमि ।

चरान (२)
संज्ञा स्त्री० चरने की क्रिया या भाव ।

चरान (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चर (= दलदल)] समुद्र के किनारे का वह दलदल जिसमें से नमक निकाला जाता हैं ।

चराना
क्रि० स० [हिं० चरना] १. पशुओं को चारा खिलाने ते लिये खेतों या मैदानों में ले जाना । जैसे,—गाय, भैंस चराना । २. किसी को धोखा देना । बातों में बहलाना । मूर्ख बनाना । जैसे,—हम तुम्हारे सरीखे सैकड़ों को रोज चराया करते हैं ।

चराव
संज्ञा पुं० [सं० चर] पशुओं के चरने का स्थान । चरनी । चरागाह ।

चरावना †पु
क्रि० स० [हिं० चराना] दे० 'चराना' ।

चरावर (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] व्यर्थ की बात । बकवाद । उ०— फागुन मैं एक प्रेम को राज है काहे बेकाज करो हौ चरावर ।—(शब्द०) ।

चरावर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चरना] चरागाह । उ०—शादी गमी में रियासत से लकड़ियाँ मिलती हैं, सरकारी चरावर में लोगों की गउएँ चरती हैं; और भी कितनी बातें हैं । —काया० पृ० १६२ ।

चरिंद
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'चरिंदा' [को०] । यौ०—चरिंद परिंद = पशुपक्षी ।

चरिंदा
संज्ञा [फा० चरिंदह्] चरनेवाला जीव । जैसे,—गाय, भैंस, बैल आदि पशु । हैवान ।

चरि
संज्ञा पुं० [सं०] पशु ।

चरिचना पु
क्रि० स० [हिं० चरचना] दे० 'चरचना' । उ०—मिलि नारि सबनि अचरिज्ज करि, जल धोए उज्वल करयौ । साषंड धूप दीपह चरिच, सित मन सिद्बौ आचरयौ ।—पृ० रा०, १ ।५८१ ।

चरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रहन सहन । आचरण । २. काम । करनी । करतूत । कृत्य । जैस,—अभी आप उनकै चरित नहीं जानते । ३. किसी के जीवन की विशेष घटनाओं या कार्यों आदि का वर्णान । जीवनचरित । जीवनी । उ०— लघुमति मोरि चरित अवगाहा ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—किसी किसी के मत से चरित दो प्रकार का होता है— एक अनुभव, दूसरा लीला । पर यह भेद सर्वसंमत नहीं है ।

चरित (२)
वि० १. गया हुआ । गत । २. किया हुआ । आचरित । ३. प्राप्त । ४. जाना हुआ । ज्ञात [को०] ।

चरितकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरितलेखक' [को०] ।

चरितनायक
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रधान पुरुष जिसके चरित्र का आधार लेकर कोई पुस्तक लिखी जाय ।

चरितलेखक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी की जीवनसंबंधी घटनाएँ या जीवनी लिखनेवाला लेखक [को०] ।

चरितवान्
वि० [सं०] दे० 'चरित्रवान्' ।

चरितव्य
वि० [सं०] आचरण करने योग्य । करने योग्य ।

चरितार्थ
वि० [सं०] १. जिसके उददेश्य या अभि्प्राय की सिद्बि हो चुकी हो । कृतकृत्य । कृतार्थ । २. जो ठीक ठीक घटे । जो पूरा उतरे । जैसे,—आपवाली कहावत यहीं चरितार्थ होती है ।

चरितार्थी
वि० [सं० चरितार्थिन्] सफलता की इच्छा रखनेवाला [को०] ।

चरित्तर
संज्ञा पुं० [सं० चरित्र] धूर्तता की चाल । मिस । बहाना । क्रि० प्र०—करना ।—खेलचा ।—दिखाना । नखरेबाजी । नकल । जैसे,—यह सब स्त्रियों के चारित्तर हैं ।

चरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वभाव । २. वह जो किया जाय । कार्य । ३. करनी । करतूत । ४. चरित । वि० दे० 'चरित' । यौ०—चरित्रचित्रण = चरित्रवर्णन । ५. व्यवहार । आचार (को०) ।

चरित्रण
संज्ञा पुं० [सं०] चरित्रवर्णन । चरित्रकथन । उ०— ज्योतिर्विज्ञान एक ऐसा विषय है कि प्रायः अपरिचितों का चरित्रण उसकी ग्रहस्थिति की गहराई देखकर किया जा सकता है ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (जीवनी), पृ० ६७ ।

चरित्रनायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चरितनायक' ।

चरित्रबंधक
संज्ञा पुं० [सं० चरित्रबन्धक] मैत्री निभाने की प्रतिज्ञा । वि० दे० 'चरित्रबंधककृत' [को०] ।

चरित्र-बंधक-कृत
संज्ञा पुं० [सं० चरित्रबन्धककृत] १. वह धन जो किसी के पास किसी शर्त पर गिरवी रखा जाय । २. उक्त प्रणाली [को०] ।

चरित्रवान्
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चरित्रवती०] अच्छे चरित्रवाला । उत्तम आचरणोंवाला । अच्छे चाल चलनवाला । सदाचारी ।

चरित्रांकन
संज्ञा पुं० [सं० चरित्न + उङ्कन] चरित्र का पूरा विवरण देना । चरित्र का निरूपण या विवेचन । व्याख्या सहित चरित्र प्रस्तुत करना ।

चरित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली का पेड़ ।

चरिम
संज्ञा पुं० [सं० चर] चर्या । आचरण । उ०—युआन चाँग यहाँ धर्म पाल को उधृत करते हैं जो कहते हैं कि बीजाश्रम में पूर्व चरिम नहीं है ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३६४ ।

चरिष्णु
वि० [सं०] चलनेवाला । जंगम ।

चरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चर या हिं० चारा] १. वह जमीन जो किसानों को अपने पशुओं के चारे के लेय जमींदार से बिना लगान मिलती है । ३. वह प्रथा या नियम जिसके अनुसार किसान ऐसी जमीन जमींदार से लेता है । ३. वह खेत या मैदान जो इस प्रथा के अनुसार चारे के लिये छोड़ दिया गया हो । ४. छोटी ज्वार के हरे पेड़ जो चारे के काम आते हैं । कड़वी ।

चरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चर(= टूत)] १. संदेशा ले जानेवाली दूती । २. मजदूरनी । दासी । नौकरानी ।

चरीद
संज्ञा पुं० [फा० चरिंद या हिं० चरना] वह जानवर जो चरने के लिये निकाला हो ।—(शिकारी) ।

चरु
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चरव्य] १. हवन या जज्ञ की आहुति के लिये पकाया हुआ अन्न । हव्यान्न । हविष्यान्न । उ० हाँड़ी हाटक घटित चरु राँधे स्वाद सुनाज ।—तुलसी (शब्द०) । २. वह पात्र जिसमें उक्त अन्न पकाया जाय । ३. मिट्टी के कसोरे में पकाया हुआ चार मुट्ठी चावल । ४. बिना माँड़ पसाया हुआ भात ।—वह भात जिसमें माँड़ मौजूद हो । ५. पशुओं के चरने की जमीन । ६. वह महसूल जो ऐसी जमीन पर लगाया जाया । ७. यज्ञ । ८. बादल । मेघ ।

चरुआ †
संज्ञा पुं० [सं० चरु] [स्त्री० अल्पा० चरुई] मिट्टी के चौड़े मुँह का बरतन, खासकर वह बरतन जिसमें प्रसूता स्त्री के लिये कुछ औषध मिला हुआ जल पकाया जाता है । क्रि० प्र०—चढाना ।

चरुई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरुआ] छोटा चरुआ । उ०—चरुई के भात चूल्हि ने खाया दालि जो हँसी ठठाई ।—सं० दरिया, पृ० ११८ ।

चरुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का धान । चरक ।

चरुखला †
संज्ञा पुं० [हिं० चरखा] सूत कातने का चरखा । उ०—जो चरखा जरि जाय बढ़ैया ना मरै । मैं कातौं सूत हजार चरुखला ना जरै ।—कबीर (शब्द०) ।

चरुचेली
संज्ञा पुं० [सं० चरुचेलिन्] शिव ।

चरुपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पात्र जिसमें हविष्यान्न रखा या पकाया जाय ।

चरुब्रण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पकवान । एक प्रकार का पूआ जिसमें चित्र से बने रहते हैं ।

चरुस्थाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह पात्र जिसनें हविष्यान्न रखा या पकाया जाय । चरुपात्र ।

चरू पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० चरु] दे० 'चरु' ।

चरू (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरी] दे० 'चरी' ।

चरेर
वि० [हिं० चरेरा] दे० 'चरेरा' ।

चरेरा (१)
वि० [चरचर से अनु०] [वि० स्त्री० चरेरी] १. कड़ा और खुरदुरा २.कर्कश । रूखा । उ०—मधुप तुम कान्ह ही की कही क्यों न कही है । यह बतकही चपल चेरी को निपट चरेरिए रही है । —तुलसी (शब्द०) ।

चरेरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई और पूर्वी बंगाल में अधिकता से होता है । विशेष—इसके हीर की लकड़ी कुछ ललाई लिए हुए सफेद रंग की और बहुत मजबूत होती है । यह प्रायः इमारत के काम में आती है ओर इसके फलों से एक प्रकार का तेल भी निकलता है ।

चरेरू †
संज्ञा पुं० [हिं० चरना] चिड़िया । पक्षी ।

चरेला
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरना ?] ब्राह्मी बूटी ।

चरैया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चरना] १. चरानेवाला । २. चरनेवाला ।

चरैया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चिरैया] दे० 'चिड़िया' ।

चरैला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चार + ऐला(= चूल्हे का मुँह)] एक प्रकार का चूल्हा जिसपर एक साथ चार चीजें पकाई जा सकती हैं ।

चरैला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का जाल जिसमें झील या तालाब के किनारे रहनेवाले पक्षी पकड़े जाते हैं ।

चरोखर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चारा + खर] पशुओं के चरने की जगह । चरी ।

चरोतर
संज्ञा पुं० [सं० चिरोत्तर] वह भूमि जो किसी मनुष्य को उसके जीवन भर के लिये दी गई हो ।

चरौवा †
संज्ञा पुं० [हिं० चराना] १. पशुओं के चरने का स्थान । २. चरी ।

चर्क
संज्ञा पुं० [देश०] जहाज का मार्ग । रूस ।—(लश०) ।

चर्कृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चर्चा । २. स्तुति । ३. महिमा [को०] ।

चर्ख (१)
संज्ञा पुं० [सं० चक्र] चक्र । उ०—यक यक अर्जुन सिफत तीराँ कमान धर चलावें चर्ख के अंदर जते पर ।—दक्खिनी०, पृ० १५७ ।

चर्ख
संज्ञा पुं० [फा० चर्ख] १. चक्र । चक्कर । २. कुम्हार का चाक । ३. आकाश । ४. खराद । यौ०—चर्खकश = खराद की डोरी खींचनेवाला आदमी । ५.खिंची हुई कमान । ६. ढेलवाँस । गोफन । ७. चरखी । चरखा । यौ०—चर्खजन = चरखा कातनेवाला । ९. एक प्रकार का बाज । १०. पहिया । चक्र । ११. रहट । कुएँ से पानी निकालने का गर्रा । १२. दामन का घेरा । १३. चारों ओर घूमना । फिरना । १४. कुर्ते का गाला (को०) ।

चर्खकश
संज्ञा पुं० [फा० चर्खकश] १. खराद की डोरी या पट्टा खींचनेवाला । २. खराद चलानेवाला ।

चर्खा
संज्ञा पुं० [हिं० चरखा] दे० 'चरखा' ।

चर्खी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरखी] दे० 'चरखी' ।

चर्च (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. वह मंदिर जिसमें ईसाई प्रार्थना करते हैं । गिरजा । २. ईसाई धर्म का कोई संप्रदाय । विशेष—ईसाई धर्म में अनेक संप्रदाय हैं और अनेक संप्रदाय के चर्च या प्रार्थनामंदिर भिन्न भिन्न होते हैं । जो ईसाई जिस संप्रदाय का होता है, वह उसी संप्रदाय के चर्च में जाता और फलतः उसी चर्च का अनुयायी कहलाता है ।

चर्च (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विचार । ध्यान । चिंतन [को०] ।

चर्चक
संज्ञा पुं० [सं०] चर्चा करनेवाला ।

चर्चन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चर्चा । २. लेपन ।

चर्चर
वि० [सं०] गमनशील । चलनेवाला ।

चर्चरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चर्चरी । २. नाटक में वह गान जो किसी एक विषय की समाप्ति और जवनिकापात होने पर और किसी दूसरी विषय के आरंभ होने और जवनिका उठने से पहले होता रहता है । इसी बीच में पात्र तैयार होते रहते हैं और दर्शकों के मनोरंजन के लिये यह गान होता है । विशेष—(क) कालिदास के विक्रमोर्वशी नाटक में अनेक चर्चरि- काएँ हैं । (ख) आधुनिक नाटकों में केवल किसी अंक की समाप्ति पर ही पात्रों को तैयार होने का समय मिलता है । गर्भांक या दृश्य की समाप्ति पर दूसरा अंक आरंभ होने से पहले जो गान होता है वह भी चर्चरिका ही है ।

चर्चरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का गाना जो बसंत में गाया जाता है । फाग । चाँचर । २. होली की धूमधाम । होली का उत्सव । होली का हुल्लड़ । ३. एक वर्णावृत्त जिसमें रगण भगण, दो जगण, भगण और तब फिर रगण (र, स, ज, ज, भ, र) होता है ।जैसे,—बैन ये सुनिकै चली मिथिलेशजा हरषाय कै । हाँकिकै पहुँचै रथै सुरआपगा ढिग जायकै । ४. करतलध्वनि । ताली बजाने का शब्द । ५. ताल के मुख्य ६० भेदों में से एक । ६. चर्चरिका । ७. प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल या बाजा जो चमड़े से मढ़ा हुआ होता था । ८. आमोद प्रमोद । क्रीड़ा । ९. गाना बजाना । नाचता कूदना । आनंद की धूम ।

चर्चरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाकाल भैरव । २. साग । भाजी । ३. केशविन्यास । बाल सँवारने की क्रिया ।

चर्चस्
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर की नौ निधियों में से एक ।

चर्चा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जिक्र । वर्णन । बयान । उ०—(क) हरिजन हरि चरचा जो करैं । दसी सुत सौ हिरदै धरैं ।— सूर (शब्द०) । (ख) निज लोक बिसरै लोक पति घर की न चरचा चालहीं ।—तुलसी (शब्द०) । वार्तालाप । बातचीत । ३. किंवदंती । अफवाह । उ०—पुरवासियों के प्यारे राम के अभिषेक की उस चर्चा ने प्रत्येक पुरवासी को हर्षित किया ।—लक्ष्मण (शब्द०) । क्रि० प्र०—उठना ।—करना ।—चलना ।—छिड़ना ।—होना । ४. लेपन । पोतना । ५. गायत्रीरूपा महादेवी । ६. दुर्गा ।

चर्चि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आवृत्ति । २. विचारण [को०] ।

चर्चिक
वि० [सं०] वेद आदि जाननेवाला ।

चर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चर्चा । जिक्र । २. दुर्गा । ३. एक प्रकार का सेम ।

चर्चिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन आदि का लेपन । २. लेपन की वस्तु । अंगराग [को०] ।

चर्चित (१)
वि० [सं०] १. लगा या लगाया हुआ । पोता हुआ । लेपित । जैसे ।—चंदन चर्चित नील कलेवर पितवसन वनमाली ।— (शब्द०) । २. जिसकी चर्चा हो । ३. विचारित (को०) । ४. (वेदपाठ) इति जुड़ा हुआ (को०) ।

चर्चित (२)
संज्ञा पुं० लेपन ।

चणरिबिंद पु
संज्ञा पुं० [सं० चराणरविन्द] दे० 'चरणरविंद' । उ०—उनको चणरिविंद धरो तुम जायी । दर्शन करत जलन मिट जायी ।—कबीर सा०. पृ० १५१० ।

चर्न पु
संज्ञा पुं० [सं० चरण] दे० 'चरण' । उ०—चप्यौ पील तर चर्न चहुवान राय ।—प० रासो, पृ० ८४ ।

चर्नार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चुनार] दे० 'चरणाँद्रि' या 'चुनार' ।

चर्पट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चपत । थप्पड़ । २. हाथ की खूली हुई हथेली । ३. चेतावनी (ला०) ।

चर्पट (२)
वि० विपुल । अधिक ।

चर्पट (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों सुदी छठ ।

चर्पटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की रोटी या चपाती ।

चर्परा
वि० [हिं० चरपरा] दे० 'चरपरा' ।

चर्पण
संज्ञा पुं० [सं० चर्वण] दे० 'चर्वण' ।

चर्बजबानी
वि० [फा० चरबजबानी] दे० 'चरबजबानी' । उ०— आप ज्यादे चर्बजबानी न करैं, मैं आपके कौल फैल से बखूबी वाकिफ हूँ ।—श्रीनिवास, ग्रं०, पृ० १२२ ।

चर्बन पु
संज्ञा पुं० [सं० चर्वण] चबेना । अन्न के दाने । उ०—ऐसी विधि फंद पसारा । कछु बाहरि चर्बन डारा ।—सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० १३१ ।

चर्बाना पु
क्रि० स० [सं० चर्दण] दे० 'चबाना' । उ०— इस ब्रह्म पोष सम करत घोष । पौरान प्रगट इक बचन मोष । दाढ़ग्र इक्क चर्बत फुनिंद । इक धरत ध्यान जानिक मुनिंद ।—पृ० रा०, ६ । ४४ ।

चर्बित
वि० [सं० चर्वित] दे० 'चर्वित' ।

चर्बी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चरबी] दे० 'चरबी' ।

चर्भट
संज्ञा पुं० [सं०] ककड़ी ।

चर्भटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चर्चरी गीत । २. चर्चा । ३. आनंद । क्रीड़ा । ४. आनंध्वनि ।

चर्म
संज्ञा पुं० [सं० चर्मन्] १. चमड़ा । यौ०—चर्मकार । २. ढाल । सिपर ।

चर्मकरंड
संज्ञा पुं० [सं० चर्मकरणड] कौटिल्य अर्थशास्त्र में कथित चमड़े का बड़ा कुप्पा जिसके सहारे नदी के पार उतर जाय ।

चर्मकरण
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े की वस्तु बनाने का कार्य [को०] ।

चर्मकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक सुगंधद्रव्य । २. मांसरोहिणी लता । रोहिनी ।

चर्मकशा, चर्मकषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का सुगंधद्रव्य । चमरखा । २. मांसरोहिणी नाम की लता । ३. एक प्रकार का थूहड़ जिसे सातला कहते हैं ।

चर्मकार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चर्मकारी] चमड़े का काम करनेवाली जाति । चमार । विशेष—मनु के अनुसार निषाद पुरुष और वैदही स्त्री के गर्भ से इस जाति की उत्पत्ति है । पराशर ने तीवर और चांडाली से चर्मकार की उत्पत्ति मानी है । पर्या०—चमार । कारावर । पादुकृत् । चर्मकृत् । चर्मक । कुवट । पादुकाकार ।

चर्मकारक
संज्ञा पुं० [सं०] चर्मकार [को०] ।

चर्मकारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मकार्य? अथवा चर्मकार + हिं० ई (प्रत्य०)] चर्मकार का काम [को०] ।

चर्मकारी (२)
संज्ञा पुं० [सं० चर्मकारिन्] दे० 'चर्मकार' ।

चर्मकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] चर्मकार का काम । चमड़े के जूते, जीन आदि की सिलाई का काम ।

चर्मकील
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बवासीर । २. एक प्रकार का रोग जिसमें शरीर में एक प्रकार का नुकीला मसा निकल आता है और जिसमें कभी बहुत पीड़ा होती है । न्यच्छ ।

चर्मकूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर छिद्र । रोमछिद्र । उ०—जो स्वरलहरी उत्पन्न हो रही है वह उसके चर्मकूपों को भेदकर उसके रक्त में प्रविष्ट हो रक्त को उत्तप्त कर रही है ।—बैशाली० पृ० ११७ । २. चमड़े का कुप्पा (को०) ।

चर्मकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चर्मकार' [को०] ।

चर्मधाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक [को०] ।

चर्मग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम ।

चर्मचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० चर्मचक्षुष्] साधारण चक्षु । ज्ञानचक्षु का उलटा ।

चर्मचटका, चर्मचटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमगादड़ ।

चर्मचित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत कुष्ठ । कोड़ का रोग ।

चर्मचेल
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़ा उलटकर बनाया गया पहनावा या ओढ़ना [को०] ।

चर्मज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोआँ । रोम । २. लहू । खून ।

चर्मक (२)
वि० चमड़े से उत्पन्न होनेवाला ।

चर्मणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मक्खी [को०] ।

चर्मण्य (१)
वि० [सं०] चमड़े का बना हुआ [को०] ।

चर्मण्य (२)
संज्ञा पुं० चमड़े का काम [को०] ।

चर्मरावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंबल नदी । विशेष—यह विंध्याचल पर्वत से निकलकर इटावे के पास यमुनामें मिलती है । इसका दुसरा नाम शिवनद भी हैं । २. केले का पेड़ ।

चर्मतरंग
संज्ञा पुं० [सं०चर्मतरङ्ग] चमड़े पर पड़ी हुई शिकन । झुर्री ।

चर्मतिल
वि० [सं०] फुंसियोंवाला (शरीर) [को०] ।

चर्मदंड
संज्ञा पुं० [सं० चर्मदण्ड] चमड़े का बना हुआ कोड़ा या चाबुक ।

चर्मदल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कोढ़ । विशेष—इसमें किसी स्थान पर बहुत सी फुंसियाँ हो जाती हैं और तब वहाँ का चमड़ा फट जाता है । इसमें बहुत पीड़ा होती है और दूषित स्थान किसी प्रकार छुआ नहीं जा सकता ।

चर्मदूषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाद का रोग ।

चर्मदुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] साधारण दुष्टि । आँख । ज्ञानदृष्टि का उलटा ।

चर्मदेहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मशक के ढंग का एक प्रकार का बाजा जो प्राचीन काल में मुँह से फूँककर बजाया जाता था ।

चर्मद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र का पेड़ ।

चर्मनालिका, चर्मनासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़े का बना हुआ कोड़ा या चाबुक ।

चर्मपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमोटी । [को०] ।

चर्मपत्रा, चर्मपत्री,
संज्ञा [सं०] चमगादड़ ।

चर्मपादुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जूता ।

चर्मपीड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मपीडिका] एक प्रकार की शीतला (रोग) जिसमें रोगी का गला बंद हो जाता है ।

चर्मपुट, चर्मपुटक
संज्ञा पुं० [सं०] तेल, घी आदि रखने का चमड़े का बना हुआ कुप्पा ।

चर्मप्रभेदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़ा काटने का औजार । सुतारी ।

चर्मप्रसेवक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चर्मप्रसेविका] दे० 'चर्मपुट' [को०] ।

चर्मबंध
संज्ञा पुं० [सं० चर्मबन्ध] चाबुक ।

चर्ममंडल
संज्ञा पुं० [सं० चर्ममण्डल] एक प्राचीन देश का नाम जिसका वर्णन महाभारत में आया है ।

चर्ममय
वि० [सं०] चर्मयुक्त । चमड़े का बना हुआ [को०] ।

चर्मसूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मसूरिका रोग का एक भेद । विशेष—इसमें रोगी के शरीर में छोटी फुंसियाँ या छाले निकल आते हैं, कंठ रुक जाता है और अरुचि, तंद्रा प्रलाप तथा विकलता होती है ।

चर्ममुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्ममुण्डा] दुर्गा ।

चर्ममुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तंत्र में एक प्रकार की मुद्रा जिसमें बायाँ हाथ फैलाकर उँगली सिकोड़ लेते हैं । २. चमड़े का सिक्का (को०) ।

चर्मयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमड़े का कोड़ा या चाबुक ।

चर्मरंग
संज्ञा पुं० [सं० चर्मरङ्ग] पौराणिक भूगोल के अनुसार एक देश जो कूमखिंड के पश्चिमोत्तर में है ।

चर्मरंगा
संज्ञा स्त्री. [सं० चर्मरङ्गा] एक प्रकार की लता जिसे आवर्तकी और भगवदवल्ली भी कहते हैं ।

चर्मरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लता जिसका फल बहुत विषैला होता है । इसकी गणना स्थावर विषों में की गई है ।

चर्मरु
संज्ञा पुं० [सं०] चमार [को०] ।

चर्मस्र
संज्ञा पुं० [सं०] चमार ।

चर्मवंश
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक बाजा जो मुँह से फुँककर बजाया जाता था ।

चर्मवसन
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव । शिव ।

चर्मवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] एसे वाद्य जिनपर चमड़ा मढ़ा होता है, जैसे, ढोल, नगाड़ा आदि [को०] ।

चर्मवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपत्र का पेड़ ।

चर्मव्यवसायी
संज्ञा पुं० [सं० चर्मव्यसायिन्] वह व्यक्ति जो चमड़े का व्यापार करे [को०] ।

चर्मसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्मसम्मवा] इलायची ।

चर्मसार
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में शरीर के अंतर्गत चमड़े के अंदर रहनेवाला वह रस जो खाए हुए पदार्थों से बनता है ।

चर्मात
संज्ञा पुं० [सं० चर्मान्त] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का उपयंत्र जिसका व्यवहार प्राचीन काल में चीर फाड़ आदि में होता था ।

चर्माभस्
संज्ञा पुं० [सं० चर्माम्मस्] चमड़े में का रस । चमड़े के अंदर होनेवाला रस जो खाए हुए पदार्थों से बनता है । चर्मसार । लसीका ।

चर्मारख्य
संज्ञा पुं० [सं०] कोढ़ रोग का भेद ।

चर्मानला
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राचीन काल की एक नदी का नाम ।

चर्मानुरंजन
संज्ञा पुं० [सं० चर्मानुरंजन] बदन रंगने के लिये प्रयुक्त सिंदूर की तरह का एक द्रव्य [को०] ।

चर्मार
संज्ञा पुं० [सं०] चर्मकार । चमार ।

चर्मारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चर्मानुरंजन' [को०] ।

चर्मावकर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े का काम [को०] ।

चर्मावकर्ता
संज्ञा पुं० [चर्मावकर्तृ] दे० 'चर्मकार' [को०] ।

चर्मावकर्ती
संज्ञा पुं० [सं० चर्मावकर्तृन्] दे० 'चर्मकार' [को०] ।

चर्मिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो ढाल में लेकर लड़े । हाथ में ढाल लेकर लड़नेवाला योद्धा ।

चर्मिक (२)
वि० ढालवाला या जिसके हाथ में ढाल हो ।

चर्मी (१)
संज्ञा पुं० [सं० चर्मिन्] १. चर्म धारण करनेवाला सैनिक । २. भोजपत्र का वृक्ष । ३. केला । ४. दे० 'चर्मिक' ।

चर्मी (२)
वि० १. ढालवाला । २. चमड़ेवाला या चमड़े का ।

चर्य
वि० [सं०] १. जो करने योग्य हो । २. जिसका करना आवश्यक हो । कर्तव्य ।

चर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो किया जाय । आचरण । जैसे,— व्रतचर्या, दिनचर्या आदि । २. आचार । चाल चलन । ३. कामकाज । ४. वत्ति । जीविका । ५. सेवा । ६. विहित कार्यका अनुष्ठान ओर निषिद्ध का त्याग । ७. खाने की क्रिया का भाव । भक्षण । ८. चलने की क्रिया का भाव । गमन ।

चर्यापरीषत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्थान पर न रहना, बल्कि निर्द्ब द्बतापूर्वक चारो ओर विचरना ।(जैन धर्म) ।

चर्र
संज्ञा [अनु०] कोई चीज फाड़ने से उत्पन्न ध्वनि । जैसे, कागज कपड़ा, चमड़ा आदि । विशेष—इसका क्रि० वि० रूप में व्यवहार होता है अतः लिंग— निर्वचन अनावश्यक है । मुहा०—चर्र चर्र फाड़ना=चर्र चर्र की आवाज पैदा करते हुए फाड़ते जाना ।

चर्राना
क्रि० अ० [अनु०] १. लकड़ी आदि का टूटने या तडकने के समय चर चर शब्द करना । २. शरीर के थोड़ा छिल जाने या घाव पर जमी हुई पपड़ी आदि के उखड़ जाने के कारण खुजली या सुरसुरी मिली हुई हलकी पीड़ा होना । ३. खुश्की और रुखाई के कारण (जैसा प्रायः जाड़े में होता है) किसी अंग में तनाव ओर हलकी पीड़ा होना । जैसे —बहुत दिनों सें तेल नहीं लगाया, इससे बदन चर्राता है । ४. किसी बात की वेगपूर्ण इच्छा होना । किसी बात की आवश्यकता से अधिक और बेमौके चाह होना । जैसे,— शौक चर्राना, मुहव्बत चर्राना ।

चर्री
संज्ञा स्त्री० [हिं० चर्राना] लगती हुई व्यंगपूर्ण बात । चुटीली बात । क्रि० प्र०—छोड़ना ।—बोलना ।—सुनना ।

चर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चर्व्य] १. किसी चीज को मुँह में रखकर दाँतों से बराबर तो़ड़ने की क्रिया । चबाना । २. वह वस्तु जो चबाई जाय । ३. भुना हुआ दाना आदि जो चबाकर खाया जाता है । चबैना । बहुरी । दाना । ४. आस्वादन (को०) । ५. रसास्वादन [को०] ।

चर्वणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चर्वण करना । २. चर्वण करनेवाला दाँत । ३. आस्वादन । ४. रसास्वादन [को०] ।

चर्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. थप्पड़ । चाँटा । झापड़ । २. चबाने का कार्य या स्थिति [को०] ।

चर्वित
वि० [सं०] १. चबाया हुआ । दाँतों से कुचला हुआ । २. आस्वादित (को०) । ३. रसास्वादित (को०) ।

चर्वितचर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] जो हो चुका हो, उसे फिर से करना । किसी किए हुए काम या कही हुई बात को फोर से करना या कहना । पिष्टपेषण ।

चर्वितपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] उगालदान । पीकदान [को०] ।

चर्विल
संज्ञा पुं० [सं०] गाजर की तरह एक अँग्रेजी तरकारी जो कुआर कातिक में क्यारियों में बोई जाती है ।

चर्व्य (१)
वि० [सं०] १. चबाने योग्य । २. जो चबाकर खाया जाय ।

चर्व्य (२)
संज्ञा पुं० आहार । भोजन । खाद्य [को०] ।

चर्षणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य । आदमी ।

चर्षणि (२)
संज्ञा स्त्री० कुलटा स्त्री० । बंधकी ।

चर्षणि (३)
वि० १. निरीक्षक । पर्यवेक्षक । २. गमनशील । गतिशील । फुर्तीला । सक्रिय [को०] ।

चर्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनुष्य जाति । मानव जाति । २. कुलटा स्त्री (को०) ।

चर्स
संज्ञा पुं० [हिं० चरस] दे० 'चरस' ।

चहनाना पु †
क्रि० स० [हिं० चढ़ाना] दे० 'चढ़ाना' । उ०— तुलसी माला बहुत चह्वावे हरजी के गुण न निर्गुण गावे ।— दक्खिनी०, पृ० ९७ ।

चलंत
वि० [हिं० चलना] १. चलनेवाला । २. चलता हुआ ।

चलंता
वि० [हिं० चलना] १. चलता हुआ । २. चलनेवाला ।

चलंदरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलना + दरी] पौसला । प्याउ । पौसरा ।

चल (१)
वि० [सं०] १. चंचल । अस्थिर । चलायमान । उ०—आवन समै में दुखदाइनि भई री लाज चलन समै में चल पलन दगा दई ।—इतिहास, पृ० ४०० । २. हिलने डुलनेवाला । ३. एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने योग्य । यौ०—चलदल । चल संपत्ति । चलधन । चलचित्र । ३. जंगम । गतिशील [को०] । ४. घबराया हुआ । (को०) । ५. क्षणिक । क्षणस्थायी [को०] ।

चल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारा । २. दोहा छंद का एक भेद जिसमें ११ गुरु और ३६ लघु मात्राएँ होती हैं । जैसे,—जन्म सिंधु पुनि बंधु विष दिन मलीन सकलंक । सिय मुख समता पाव किमि चंद्र बापुरो रंक ।—तुलसी (शब्द०) । ३. शिव । महादेव । ४. विष्णु । ५. कंपन । काँपना । ६. दोष । ऐब । नुक्स । ७. भूल । चूक । ८. धोखा । छल कपट । ९. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा जिसमें हाथ के इशारे से किसी को बुलाया जाता है । १०. नृत्य में शोक, चिंता, परिक्षम या उत्कंठा दिखलाने के लिये कुछ गहरी साँस लेना । ११. वायु [को०] । १२. काक । कौआ (को०) ।

चल (३)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाल] चाल । गड़बड़ । भागना । उ०— सम वेष ताके तहाँ सरजा सिवा के बाँके, बीर जाने हाँके देत. मीर जाने चल तें ।—भूषण ग्रं०, पृ० ३०८ ।

चलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. माल । धन । २. वह राशि जिसके कई मान या मूल्य हों । ३. चलक राशि का प्रतीक चिह्न (को०) ।

चलक (२)पु †
वि० [हिं० चिलक] दे० 'चमक' । उ०—नासा सुक तुंड वारौं ओठन पै बिंब वारौं मोतिन की माल वारौ दंतन चलक पै ।—मोहन०, पृ० ९४ ।

चलकना
क्रि० अ० [अनु०] १. चमकना । उ०—नर नारिन के मुख कमलन की शोभा दूनी चलकि उठी ।—देवस्वामी (शब्द०) । २. दे० 'चिलकना' ।

चलकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी से ग्रहों का स्वाभाविक अंतर । १. वह जिसके कान सदा हिलते रहें । ३. हाथी ।

चलकर्न पु
संज्ञा पुं० [सं० चलकर्ण] हाथी । उ०—मत महाउत हाथ में, मंद चलनि चलकर्न ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १४३ ।

चलका
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की साधारण नाव ।

चलकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष या पुच्छल तारा जो पशिचम दिशा में उदय होता है ।विशेष—इसमें दक्षिण की ओर उठी हुई एक चोटी भी होती है । उदय होने के उपरांत यह क्रमशः उत्तर की ओर बढ़ता और पीछे आकाश में किसी स्थान में अस्त हो जाता है । कभी कभी यह उत्तरी ध्रुव, सप्तार्षि मंडल या अभिजित् नक्षत्र तक भी पहुँच जाता है । फलित के अनुसार किसी के मत से इसके उदय होने के दस महीने और किसी के मत से उठारह महीने बाद देश में दुर्भिक्ष और कई प्रकार का अनिष्ट होता है ।

चलचंचु
संज्ञा पुं० [सं० चलचञ्चु] चकोर ।

चलचलाव
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. प्रस्थान । यात्रा । चलाचली । २. महाप्रस्थान । मृत्यु । मौत ।

चलचा
संज्ञा पुं० [देश०] ढाक । पलास ।

चलचाल
वि० [सं०] चल विचल । चंवल । अस्थिर । उ०— होन न देहुँ कहूँ चलचाल सुराखौं हिए पै मिलाय कै मालाहिं ।—(शब्द०) ।

चलचित्त
वि० [सं०] चंचल चित्तावाला । अनिश्चय पूर्णा मनवाला ।

चलचलिय पु
[सं० चल + चलित] चंचल । अस्थिर । उ०— चहुँ चक्क चलचलिय सेस चलचलिय सहससिर ।—रघु० रू०, पृ० ४२ ।

चलचूक
संज्ञा स्त्री० [सं० चल(= चंचल) + हिं० चूक (भूल)] धोखा । छल । कपट । उ०—जो चलचूक गने कछु या महँ तो यह न्याउ अनंग के आगे ।—गुमान (शब्द०) ।

चलचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. गतिशील चित्र । २. चलता फिरता दिखनेवाला चित्र । उ०—श्यामा श्याम के अगणित लीला, विलास स्वामी जी के नेत्रों के आगे किसी अनंत चलचित्र के बदलते दृश्यों की भाँति निरंतर आते चले जाते हैं ।—पोददार अभि० ग्रं०, पृ० १८८ । २. सिनेमा ।

चलणा पु
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] मार्ग । रास्ता । राह । उ०— करहा वामन रुप करि, चिहुँ चलणे पग पूरि ।—ढोला, दू० ४९७ ।

चलता (१)
वि० [हिं० चलना] [वि० स्त्री० चलती] १. चलता हुआ । गमन करता हुआ । गतिवान् । जैसे,—चलती गाड़ी । यौ०—चलता खाता = बैंक का वह खाता जिसका हिसाब हमेशा चालू रहता है, जब चाहे उसमें रुपया जमा किया जा सकता है और निकाला जा सकता । चलता छप्पर = छाता (फकीरों की भाषा) । चलता पुरजा = व्यवहारकुशल । चालाक । चुस्त । व्यवहारतत्पर । चलता लेखा = दे० 'चलता- खाता' । चलता समय = जीवन का अंतिम समय । जीवनांत । चलता समाँ =दे० 'चलता समय' । मुहा०—चलता करना = (१) हटाना । भगाना । भेजना । जैसे,—(क) अबइन्हें क्यों बैठाए हो ? चलता करो । (ख) इस कागज को आज चलता करो । (२) किसी प्रकार निपटाना । झगड़ा दूर करना । जैसे,—किसी प्रकार इस मामले को चलता करो । चलती गाड़ी में रोड़ा अटकाना= होते हुए कार्य में बाधा डालना । चलता बनना = चल देना । प्रस्थान करना । उ०—तुम तो वहाँ से चलते बने, पकड़े गए हम ।चलता होना=चल देना । प्रस्थान करना ।चलता फिरता नजर आना=चलता बनना । २. जिसका क्रमभंग न हुआ हो । जो बराबर जारी हो । मुहा०—चलता लेखा या खाता=वह हिसाब जिसके संबंध का लेनदेन बराबर होता रहे और जिसकी बाकी न गिराई गई हो । ३. जिसका चलन अधिक हो । जिसका रवाज बहुत हो । प्रचलित । उ०—यह चलती चीज है दुकान पर रख लो । यौ०— चलता गाना=वह गाना जो शुद्बु राग रागनियों के अत- र्गत न हो, पर जिसका प्रचार सर्वसाधारण में हो । जैसे,— दादरा, लावनी इत्यादि । ४. काम करने योग्य । जो असक्त न हुआ हो । जैसे, चलता बैल । ५. व्यवहार में तत्पर । व्यवहारपटु । चालाक । चुस्त ।

चलता (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का सदाबहार पेड़ जिसकी लकड़ी चिकनी, बहुत मजबूत और अंदर से लाल होती है । विशेष—यह बंगाल, मदरास और मध्यभारत में बहुत अधिकता से उत्पन्न होता है । इसकी लकड़ी प्रायः इमारत में काम आती है और पानी में जल्दी नहीं सड़ती । इसके पुराने पत्तों से हाथीदाँत साफ किया जाता है । इसमें बेल के आकार का बड़ा फल लगता है जो कच्चा भी खाया जाता है और जिसकी तरकारी भी बनती है । फल में रेशा बहुत अधिक होता है इसलिये उसे कच्चा या तरकारी बनने पर चूस चूस कर खाते हैं । २. रास्ते में वह स्थान जहाँ फिसलन और कीचड़ बहुत अधिक हो । (कहारों की परि०) । ३. कवच । झिलम ।

चलता (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चल होने का भाव । चंचलता । अस्थिरता ।

चलती
संज्ञा स्त्री० [हिं०चलना] मान मर्यादा । प्रभाव अधिकार । जैसे,—आजकन उस दरबार में उनकी बड़ी चलती है ।

चलतू
वि० [हिं०चलना] १. दे० 'चलता' । २. (भूमि) जो जोती बोई जाती हो । आबाद ।

चलत्पूर्णिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रक नामक मछली [को०] ।

चलत्तरबाज
वि [हिं० चरित्तर+फा० बाज] चालबाज । चरि- त्तर या चरित्रवाली । धूर्ता । नखरा करनेवाली । नकल करनेवाली ।उ०—लाडो—हमको यह बातें जरा नहीं भाती हैं । बन्नो—अरी चल चलत्तरबाज । हमसे उड़ती है ।—सैर०, भा० १. पृ० २१ ।

चलदंग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली जिसे झींगा कहते हैं ।

चलदल
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल का वृक्ष । उ०—चलदल पत्र पताक- पट दमिनि कच्छप माथ । भूत दीप दीपक शिखा त्यों मन भृत्ति अनाथ ।—(शन्द०) । यौ०— चलदलदल=पीपल का पत्ता । उ०—थिर नहीं तरंग बुदबुद तड़ित अग्निसिखा पन्नग सरित त्यौंही धन जोबन तन अथिर चलदलदल कैसो चरित । ब्रज० ग्रं०, पु० ११८ ।

चलद्बिष
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल [को०] ।

चलन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. चलने का भाव । गति । चाल ।यौ०—चलनहार । २. रिवाज । रस्म । व्यवहार । रीति । मुहा०—चलन से चलना=अपने पद या मर्यादा आदि के अनुकूल काम करना । उचित रीति से व्यवहार करना । ३. किसी चीज का व्यवहार, उपयोग या प्रचार । जैसे— (क) आजकल ऐसी टोपी का बहुत चलन है । (ख) बादशाही जमाने के रुपयों का चलन अब उठ गया । क्रि० प्र०—उठना ।—चलना । होना । यौ०—चलनसार ।

चलन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में एक क्रांतिपात गति अथवा विषुवत् की उस समय की गति, जब दीन और रात बराबर होते हैं । यौ०—चलनकलन ।

चलन (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गति । भ्रमण । २. काँपना । कंपन । ३. हिरन । ४. चरण । पैर । उ०—चरन चलन गतिवंत पुनि अंघ्रिपाद पद पाइ ।—अनेकार्थ०, पृ० ३२ । ५. नृत्य में एक प्रकार की चेष्टा ।

चलनक
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्रियों के पहनने का छोटा साया [को०] ।

चलनकलन
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में एक प्रकार का गणित । विशेष—इसके द्बारा पृथ्वी की गति के अनुसार दिन रात के घटने बढ़ने का हिसाब लगाया जाता है ।

चलनदरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलन+दर; जलंदरी] वह स्थान जहाँ रास्ता चलनेवालों को पुण्यार्थ जल पिलाया जाता हो । पौसरा ।

चलन समीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] गणित की एक क्रिया । वि० दे० 'समीकरण' ।

चलनसार
वि० [हिं० चलन+सार (प्रत्य०)] १. जिसका उपयोग या व्यवहार प्रचलित हो । जैसे,—चलनसार सिक्का । २. जो अधिक दिनों तक काम में लाया जा सके । जो बहुत दिनों तक चले । टिकाऊ । जैसे,—चलनसार कपड़ा ।

चलनसारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलनसार+ई (प्रत्य०)] १. प्रचलित या चालू उपयोग या व्यवहार । २. बहुत दिनों तक टिकाऊ होने की स्थिति । दीर्घकालिक उपयोगिता ।

चलनहार †
वि० [हिं० चलना+हार (प्रत्य०)] जो अभी चल रहा हो । २. जो चलने को तैयार हो । ३. दे० 'चलनसार' ।

चलना (१)
क्रि० अ० [सं० चलन] १. एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना । गमन करना । प्रस्थान करना । विशेष—यद्यपि 'जाना' और 'चलना' दोनों क्रियाएँ कभी कभी समान अर्थ में प्रयुक्त होती हैं. तथापि दोनों के भावों में कुछ अंतर है । 'जाना' क्रिया में स्थान की ओर विशेष लक्ष्य रहता है, पर 'चलना' में गति की ओर विशेष लक्ष्य रहता है । जैसे,—चलती गाड़ी पर सावार होना ठीक नहीं है । चलना क्रिया से भूतकाल में भी क्रिया की समाप्ति अर्थात् किसी स्थान पर पहुँचने का बोध नहीं होगा । जैसे,—वह दिल्ली चला । पर जाना' से भूतकाल में पहुँचने का बोध हो सकता है । जैसे,— 'वह गाँव में गया' । वक्ता अपने साथ प्रस्थान करने के संबंध में जब किसी से प्रशन या अनुरोध करेगा, तब वह 'चलना' क्रिय़ा का प्रयोग करेगा, 'जाना' का नहीं । जैसे—(क) तुम मेरे साथ चलोगे ? (ख) अब यहाँ से चलो । २. गति में होना । हिलना डोलना । हरकत करना । जैसे— नाड़ी चलना, कल चलना, पुरजा चलना, घड़ी चलना । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । मुहा०—किसो का चलना=किसी का काम चलना । गुजर होना । निर्वाह होना । जैसे,—इतने में हमारा नहीं चल सकता । पेट चलना=(१)दस्त आना । (२) निर्वाह होना । गुजर होना । जैसे—इतने में पेट कैसे चलोगा ? मन चलना या दिन चलना=इच्छा होना । लालसा होना । किसी वस्तु के लिये चित्त चंचल होना । प्राप्ति की इच्छा होना । जैसे,— (क) जिस किसी की चीज हुई, उसी पर तुम्हारा मन चल जाता है । (ख) उसका मन पराई स्त्री पर कभी नहीं चलता । मुँह चलना= (१) खाते समय मुँह का हिलना । खाया जाना । भक्षण होना । जैसे,—जब देखो, तव उसका मुँह चलता रहता है । (२) मुँह से बकवाद या अनुचित शब्द निकालना । जैसे,—तुम्हारा मुँह बहुत चलता है, तुमसे चुप नहीं रहा जाता । (३) कै होना । वमन होना । जैसे,—उसका मुँह चल रहा है, कोई चीज पेट में ठहरती नहीं । मुँह पेट चलना=कै दस्त होना । हाथ चलना=(१) मारने के लिये हाथ उठाना । (२) मारना । जैसे,—उसके ऊपर जब देखो तब तुम्हारा हाथ चलता है । चल बसना= मर जाना । अपने चलते=भरसक । यथाशक्ति । उ०—(क) अपने चलत न आजु लगि अनभल काहु क कीन्ह ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) अपने चलते तो हम ऐसा कभी न होने देंगे । इसके चलते=इस बात के होते हुए । इसके कारण । ३. कार्यनिर्वाह में समर्थ होना । निभना । जैसे,—यह लड़का इस दरजे में चल जायगा । मुहा०—चल निकलना=किसी कार्य में उन्नाति करना । किसी विषय में क्रमशः आगे बढ़ना । जैसे,—उन्हें काम सीखते थोड़े ही दिन हुए; पर वे चल निकले हैं । ४. प्रवाहित होना । बहना । जैसे,—मोरी चलना, हवा चलना । ५. वृद्दि पर होना । बाढ़ पर होना । जैसे,—अब यह पौधा भी चला । ६.किसी कार्य में अग्रसर होना । किसी कार्य का आगे बढ़ना । किसी युक्ति का काम में आना । जैसे—सब उपाय करके तो तुम हार गए? अब कोई और तरकीब चलो । ७. आरंभ होना । छिड़ना । जैसे,—बात चलना, जिक्र चलना, चर्चा चलना । ८. जारी रहना । क्रम या परंपरा का निवर्हि होना । जैसे,—(क) वंश चलना, नाम चलना । (ख) जब तक रामचरितमानस रहेगा, तब तक तुलसीदास जी का नाम चला जायगा । ९. खाने पीने की वस्तु का परोसा जाना । खाने के लिये रखा जाना । जैसे—इसके बाद अब मिठाई चलेगी । १०, बराबर काम देना । टिकना । ठहरना । खटाना ।जैसे,— यह जूता कुछ भी न चला । ११. व्यवहार में आना । लेन देन के काम में आना । जैसे,—यह रुपया यहाँ नहीं चलेगा । १२.प्रचलित होना । प्रचार पाना । जारी होना । रवाज पाना । जैसे—रिति चलना, चाल चलना । (ख) कुछ दिनों तक गोल टोपी खूब चली, पर अब उसकी चाल उठती जाती है । उ०— रघुकुल रीति सदा चलि आई । प्रान जाई बरु बचन न जाई ।—तुलसी (शब्द०) । १३. प्रयुक्त होना । व्यवह्रत होना । काम में लाया जाना । जैसे, तलवार चलना, फावड़ा चलना । १४. अच्छी तरह काम देना । उपयोग या व्यवहार में अनुकूल होना । जैसे—कलम चलती नहीं । १५. तीर गोली आदि का छूटना । १६. लड़ाई झगड़ा होना । विरोध होना । शत्रुता होना । जैसे,—आजकल उन दोनों में खूब चल रही है । १७. कि सी व्यवसाय की वृद्बि होना । किसी व्यापार का बढ़ना । काम चमकना । जैसे,—(क) यह दूकान खूब चली । (ख) कुछ दिनों तक लाख का काम खूब चला था । मुहा०—चल निकलना=किसी काम का ढर्रे पर आना । किसी कार्य का निर्वाह होने लगना । किसी कार्य में सफलता होना । जैसे,—अब तो तुम्हारा रोजगार चल निकला । १८. पढ़ा जाना । बाँचा जाना । उचरना । जैसे,—यह लिखावट तो हमसे नहीं चलती । १९. कृतकार्य होना । सफल होना । प्रभाव करना । कारगर होना । उपाय लगना । वश चलना । जैसे,—(क) यहाँ तुम्हारी एक भी न चलेगी । (ख) उस पर जादू टोना कुछ नहीं चल सकता । मुहा०—किसी की चलना= (किसी का) उपाय लगना । वश चलना । प्रयत्न सफल होना । उ०—अग निरखि अनंग लज्जित सकै नहिं ठहराय । एक को कहा चलै शत शत कोटि रहत लजाय ।—सूर (शब्द०) । २०. आचरण करना । व्यवहार करना । जैसे,—बड़ों के आज्ञा- नुसार चलने से कभी धोखा नहीं होता । २१. गले के नीचे उतरना । निगला जाना । खाया जाना । जैसे—अब बिना घी के एक कौर नहीं चलता । २२. थान में से कपड़ा उतारते समय कपड़े का बीच में मोटा सूत आदि पड़ जाने के कारण सीधा न फटना, कुछ इधर उधर हो जाना । (बजाज) । †२३. बासी होना । सड़ना । जैसे,—सालन चल गया । दाल चल गई । २४. अटना । पूरा पड़ना ।—जैसे, राशन पाँच दिन और चलेगा ।

चलना (२)
क्रि० स० शतरंज या चौसर आदि खेलों में किसी मोहरे या गोटी आदि को अपने स्थान से बढ़ाना या हटाना, अथवा ताश या गंजीफे आदि खेलों में किसी पत्ते को खेल के कामों के लिये सब खेलनेवालों के सामने फेंकना । जैसे,—हाथी चलना, वजीर चलना दहला चलना, एक्का चलना आदि ।

चलना (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चलनी] बड़ी चलनी या छलनी । २. चलनी की तरह का लोहे का एक बड़ा कलछुला या डोई जिससे खँड़सार में उबलते हुए रस के ऊपर का फेन, मैल आदि साफ करते है । ३. हलवाइयों का एक औजार जो छेददार डोई के समान होता है और जिससे शीरा या चाशनी इत्यादि साफ की जाती है । छन्ना ।

चलनार पु †
वि० ([हिं० चलना+आर(प्रत्य०)] चलनहार । उ०—कहे तुका सबहि चलनार । एक राम बिन नहीं वा सार ।—दक्खिनी०, पृ० १०४ ।

चलनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलन] दे० 'चलन' ।

चलनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्रियों के पहनने का घाघरा या साया । २. रेशमी झालर ।

चलनी (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० चालनी, हिं०] दे० 'छलनी' ।

चलनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साधारण कोटि की स्त्रियों के पहनने का एक प्रकार का छोटा साया । २. हाथी बाँधने का रस्सा [को०] ।

चलनौस
संज्ञा पुं० [हिं० चलना + औंस (प्रत्य०)] वह पदार्थ जो चलने से छलनी में रह जाय । चोकर । चालन ।

चलनौसन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चलनौस' ।

चलपत (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० चलपत्र (=चंचल पत्रवाला अर्थात् पीपल)] दे० 'चलपत्र' ।

चलपत (२)
वि० पीपल के पत्ते की तरह चंचल । अत्यंत चंचल । उ०—ढोलउ मन चलपत थयउ ऊमउ साहइ लाज । साहमउ बीसू अवियउ, आइ कियउ सुभराज ।—ढोला०, दू० ४४७ ।

चलपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पीपल का वृक्ष ।

चलपूँजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चल + पूँजी] वह पूँजी जिससे एक मनुष्य केवल एक बार उत्पादन कर सकता है ।

चलबाँक (१)
वि० [हिं०] दे० 'चरबाँक' ।

चलबाँक (२)
वि० [हिं० चलना + बाँका] तेज चलनेवाला । शीघ्रगामी ।

चलबिचल
वि० [हिं०] दे० 'चलविचल' ।

चलमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय मत से वह मित्र (राजा) जो सदा साथ न दे सके । वि० दे० 'अनर्थ सिद्धि' ।

चलमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० चल + मुद्रा] जो मुद्रा चलन में हो । वह मुद्रा जिसका चलन पूरे देश में समान रूप से हो ।

चलवंत पु †
संज्ञा पुं० [सं० चल + वत] पैदल सिपाही । प्यादा ।

चलवाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०चलना] चलने का कार्य या स्थिति ।

चलवाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चालना] १. चालने का काम या स्थिति । २. चालने की मजदूरी ।

चलवाना
क्रि० स० [हिं० चलना का प्रे० रूप] १. चलने का कार्य दूसरे से कराना । २. चालने का काम कराना ।

चलविचल (१)
वि० [सं० चल + विचल] १. जो अपने स्थान से हट गया हो । जो ठीक जगह से इधर उधर हो गया हो । उखड़ा पुखड़ा । अंडबंड । बेठिकाने । जैसे,—(क) इतने ऊपर से कूदते हो, कोई हड्ड़ी चलविचल हो जायगी, तो रह जाओगे । (ख) उसका सब काम चलविचल हो गया । २. जिसके क्रम या नियम का उल्लंघन हुआ हो । अव्यवस्थित ।

चलविचल (२)
संज्ञा स्त्री० किसी नियम या क्रम का उल्लंघन । नियमपालन में त्रुटि । व्यतिक्रम । उ०—जहाँ जरा सी चल- विचल हुई, कि सब काम बिगड़ जायगा । विशेष—इस शब्द को कहीं कहीं पुं० भी बोलते हैं ।

चलवैया (१)
वि० [हिं० चलना] चलनेवाला ।

चलवैया (२)
वि० [हिं० चालना] चालनेवाला ।

चलसंपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० चलसम्पत्ति] वह संपत्ति जिसका स्थानां- तर हो सके । वह संपत्ति जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सके ।

चला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिजली । दामिनी । २. पृथ्वी । भूमि । ३. लक्ष्मी । ४. पिप्पली । पीपल । ५. शिलारस नाम का गंध द्रव्य ।

चला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चाल या चलना] १. व्यवहार । प्रचार । रिवाज । चाल । रीति रस्म । दस्तूर । २. अधिकार । प्रभुत्व । स्वामित्व । उ०—अभी तो ऐसा नहीं हो सकता; जब तुम्हारा चला हो, तब तुम जो चाहे सो करना ।

चलाऊ
वि० [हिं० चल + आँऊ (प्रत्य०)] १. जो बहुत दिन तक चले । चिरस्थायी । मजबूत । टिकाऊ । २. बहुत चलने फिरने या घूमनेवाला ।

चलाँक †
वि० [फा० चालाक] दे० 'चालाक' ।

चलाँकी †
संज्ञा स्त्री० [फा० चालाकी] दे० 'चालाकी' ।

चलाऊ
वि० [हिं० चल + आऊ (प्रत्य०)] १. चिरस्थायी । टिकाउ । २. चलने फिरने या घूमनेवाला । ३. चलने को तैयार ।

चलाका पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० चला (= बिजली)] बिजली । विद्युत् । तड़ित् । उ०—सुंदर कसौटी बीच ललित लकीर जिमि मेघ मैं चलाका जैसे शोभा प्रेम जाल की ।—(शब्द०) ।

चलाचल (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलना] १. चलाचली । २. गति । चाल । उ०—उपदेव विराट भिरे बल सों । पुरई धुनि चाप चलाचल सों ।—गोपाल (शब्द०) ।

चलाचल (२)पु
वि० [सं०] चंचल । चपल । उ०—बैनिन की गति गूढ़ चलाचल केशवदास आकाश चढ़ैगी ।—केशव (शब्द०) ।

चलाचली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलना] १. चलने के समय की घबराहट, धूम या तैयारी । चलने की हड़बड़ी । रवारवी । २. बहुत से लोगों का प्रस्थान । बहुत से लोगों का किसी एक स्थान से चलना । उ०—हय चले, हाथी चले संग छाँड़ि साथी चले, ऐसी चलाचली में अचल हाड़ा ह्वै रहचे ।—भूषण (शब्द०) । ३. चलने की तैयारी या समय । ४. महाप्रस्थान की तैयारी या समय । अंतिम समय । क्रि० प्र०—लगना ।—होना ।

चलाचलो (२)
वि० जो चलने के लिए तैयार हो । चलनेवाला । उ०— बिरह विपत्ति दिन परत ही तजे सुखन सब अंग । रहि अब लौं अब दुख भए चलाचली जिय संग ।—बिहारी (शब्द०) ।

चलातंक
संज्ञा पुं० [सं० चलातङ्क] एक प्रकार का वातरोग, जिसमें हाथ पाँव आदि अंग काँपने लगते हैं । कंपवाई । राशा ।

चलान
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलना] १. भेजे जाने या चलने की क्रिया । २. भेजने या चलने की क्रिया । ३. किसी अपराधी का पकड़ा । जाकर न्याय के लिये न्यायालय में भेजा जाना । जैसे, कल संध्या को वह पकड़ा गया; और आज उसकी चलान हो गई । ४. माल असबाब आदि का एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाना । जैसे, आज यहाँ से दस बोरों की चलान हो गई है, आठ दिन में माल आपको वहा मिल जायगा । २. एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा या आया हुआ माल । जैसे,—हाल में एक नई चलान आई है, उसमें आपके काम की बहुत सी चीजें हैं । क्रि० प्र०—आना ।—भेजना ।—मँगाना । ६. वह कागज जिसमें किसी की सूचना के लिये भेजी हुई चीजों की सूची या विवरण आदि हो । रवन्ना विशेष—(क) उस प्रकार की चलान प्रायः सरकारी खजानों या तहसीलों आदि से दूसरे दफ्तरों में भेजे जानेवाले रुपए के साथ भेजी जाती है (ख) वह चलान चुं गी आदि के संबंध में माल के लिये राहदारी के परवाने का भी काम देती है । क्रि० प्र०—देना ।—भेजना ।—लिखना, आदि । विशेष—(क) उर्दूवालों ने इस शब्द को 'चालान' बना लिया है । (ख) पश्चिम में यह शब्द प्रायः पुं लिंग माना जाता है ।

चलानदार
संज्ञा पुं० [हिं० चलान+फा० दार (प्रत्य०)] वह मनुष्य जो माल की चलान के साथ उसकी रक्षा के लिये जाता है ।

चलाना
क्रि० स० [हिं० चलना] १. किसी को चलने में लगाना । चलने के लिये प्रेरित करना । जैसे,—गाड़ी, घोड़ा, नाव या रेल आदि चलाना । २. गति देना । हिलाना डुलाना । हरकत देना । जैसे,—चरखा चलाना । (कलछी आदि से) दाल भात चलाना, घड़ी चलाना । मुहा०—(किसी) की चलाना = प्रसंगवश किसी का जिक्र करना । किसी के बारे में कुछ कहना । जैसे,—हम और किसी की नहीं चलाते, अपने बारे में ही कह सकते हैं । पेट चलाना = (१) दस्त लाना । जैसे,—यह दवा एकदम पेट चला देगी । (२) निर्वाह करना । गुजर करना । मन या दिल चलाना = इच्छा करना । लालसा करना । जैसे,—वह चीज तुम्हें मिलने की नहीं; क्यों व्यर्थ मन चलाते हो । मुँह चलाना = खाना । भक्षण करना । जैसे,—तुम खाली क्यों बैटे हो, धीरे धीरे मुँह चलाते चलो । मुँह पेट चलाना = कै दस्त लाना । हाथ चलाना = मारने के लिये हाथ उठाना । पीटना । ३. कार्यनिर्वाह में समर्थ करना । निभाना । जैसे,—हम इन्हें भी जैसे तैसे अपने साथ चला ले जायँगे । ४. प्रवाहित करना । बहाना । जैसे,—मोरी चलाना, हवा चलाना । २. वृद्धि करना । उन्नति करना । ६. किसी कार्य को अग्रसर करना । किसी काम को जारी या पूरा करना । जैसे,—(क) हमने यह काम चला दिया है । (ख) काम चलाने भर को इतना बहुत है । ७. आरंभ करना । छेड़ना । जैसे,—बात चलाना । जिक्र चलाना । ८. बराबर बनाए रखना । जारी रखना । जैसे,—वंश चलाना, नाम चलाना, कारखाना चलाना । ९. खाने पीने की वस्तु परोसना । खाने की चीज आगे रखना ।१०. बराबर काम में लाना । टिकाना । जैसे,—वह कोट अभी आप तीन बरस और चलावेंगे । ११. व्यवहार में लाना । लेन देन के काम में लाना । जैसे, इन्होंने यह खोटा रुपया भी चला देया । १२. प्रचलित करना । प्रचार करना । जैसे,— (क) रीति चलाना, धर्म चलाना । (ख) आप तो यह एक नई रीति चलाते हैं । (ग) मुहम्मद साहब ने मुसलमानी धर्म चलाया था । १३. व्यवहृत करना । प्रयुक्त करना । जैसे,— तलवार चलाना, लाठी चलाना, कलम चलाना, हाथ पैर चलाना । १४ तीर, गोली आदि छोड़ना । किसी वस्तु को किसी ओर लक्ष्य करके वेग के साथ फेंकना । जैसे०—ढेला या गुलेला चलाना । १५. किसी वस्तु से प्रहार करना । किसी जीज से मारना । जैसे,—हाथ चलाना । डंडा चलाना । १६. किसी व्यवसाय या व्यापार की बृद्धि करना । काम चमकाना । जैसे, जब सब लोग हार गए, तब उन्होंने कारखाना चलाकर दिखला दिया । १७. आचरण कराना । व्यवहार कराना । १८. थान में से कपड़ा उतारते समय उसे सीधा न फाड़कर असावधानी आदि के कारण टेढ़ा या तिरछा फाड़ना । (बजाज) ।

चलानी (१) †
संज्ञा स्त्री० [चलान] खरीद तथा विक्री के लिये माल बाहर भेजने तथा लाने का कार्य ।

चलानी (२)
वि० हिं० चलान संबंधी । चलानवाला । उ०—ऊँहतुम खाँटी चलानी घी हो । मैला०, पृ० ९५ ।

चलायमान
वि० [सं०] १. चलनेवाला । जो चलता हो । २. चंचल । ३. विचलित ।

चलाव †
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. चलने का भाव । यात्रा । प्रयाण । पयान । रवानगी । उ०—तपावंत छाला लिथ दीन्हा । वेग चलाव चहूँ दिसि कीन्हा ।—जायसी (शब्द०) । २ दे० 'चलावा' ।

चलावक पु
वि० [हिं०] चलानेवाला । उ०—राज माहँइ ईणि परिरहई । राज चलावकै और परधान । ईण सुँ विरोध नहुं बोलिजइ ।—बीसल० रास०, पृ० ५३ ।

चलावनहार पु †
वि० [हिं० चलावना + हार (प्रत्य०)] प्रवर्तक ।

चलावनहार पु †
वि० [हिं० चलावन + हारा (प्रत्य०)] चलानेवाला । प्रवर्तक । उ०—श्री गुसाई जी आप पुष्टिमार्ग के चलावनहारे हैं ।—दो सौ बावन०, भा० १. पृ० ११२ ।

चलावना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'चलाना' ।

चलावा
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. रीति । रस्म । रवाज । क्रि० प्र०—चलना । २. द्रिरागमन । गौना । मुकलावा । ३. एक प्रकार का उतारा जो प्रायः गावों में भयंकर बीमारी पड़ने के समय किया जाता है । विशेष—इसे लोग बाजा बजाते हुए अपने गाँव की सीमा के बाहर ले जाकर किसी दूसरे गाँव की सीमा पर रख जाते हैं और समझते हैं कि बीमारी इस गाँव से निकलकर उस गाँव में चली गई । ४. शव की श्मशानयात्रा । मुर्दे को श्मशान ले जाना । उ०— बड़े ठाटबाट धूमधाम से चलावा हुआ । —सुंदर० ग्रं०, भा०१, पृ० १४२ ।

चलार्थ
वि० [सं०] प्रचलनवाला । हमेशा चलनेवाला । यौ०—१. चलार्थपत्र = चलपत्र । २. चलार्थ मुद्रा = वह मुद्रा जिसका व्यवहार निरंतर होता है ।

चलासन
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के मत से एक प्रकार का दोष जो सामयिक व्रत में आसन बदलने के कारण होता है ।

चलि
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवरण । २. अँगरख ।

चलित (१)
वि० [सं०] १. अस्थिर । चलायमान । २. चलता हुआ । यौं—चलितग्रह । चलिरूचित्त ।

चलित (२)
संज्ञा पुं० नुत्य में एक प्रकार की चेष्टा जिसमें ठोड़ी की गति से क्रोध या क्षोभ प्रकट होता है ।

चलितग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष शास्त्र में वह ग्रह जिसके फल का कुछ अंश भोगा जा चुका हो और कुछ भोगने को बाकी रह गया हो ।

चलित्र (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० चरित्र] दे० 'चरित' या 'चरित्र' । उ०—आगे चले चलित्र अनंता । पंचि गुणाँ का किया सथंता ।—प्राण०, पृ० ४२ ।

चलित्र (२)
वि० [सं०] अपनी ही शक्ति से चलनेवाला ।

चलिष्णु
वि० [सं०] चलने का इच्छुक । चलने को उद्यत [को०] ।

चलु
संज्ञा पुं० [सं०] पूरे मुँह से भरा हुआ पानी । मुँह भर पानी [को०] ।

चलुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चुल्लु में लिया हुआ जल [को०] ।

चलुक (२)
वि० चुल्लु भर (पानी) [को०] ।

चलैया (१) †
वि० [हिं० चलना] चलनेवाला ।

चलैया (२) †
वि० [हिं० चलना] चालनेवाला ।

चलौना †
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. वह कलछा या लकड़ी का डंडा जिससे दूध, पानी या और कोई द्रव्य पदार्थ हिलाया जाता है । २. वह लकड़ी का टुकड़ा जिससे चरखा चलाया जाता है ।

चलौवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चलावा' ।

चल्लना पु
क्रि० अ० [हिं० चलना] दे० 'चलना' । उ०—चढ़ै लोक चल्लै, मसीतां महल्लै । झरोखो सझायौ, उठी साह आयौ ।—रा० रू०, पृ० ३२ ।

चल्लवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चिलवा] दे० 'चेल्हा' ।

चल्ला पु
संज्ञा पुं० [हिं० चिल्ला(= धनुष को डोरी)] प्रत्यंचा । रोदा । उ०—सुनतंहि जोधार पुर चोगडद तूटे, कवान चल्ले तें सायद से छूटे ।—रघु० रू०, पृ० २३९ ।

चल्ली †
संज्ञ स्त्री० [देश०] तकले पर लपेटा हुआ सुत या ऊन आदि । कुकड़ी ।

चल्हवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] चेल्हा ।

चवंवेद पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्वेद] उ०—चवंदेद वंभं हरी कित्ति भाखी । जिनैं ध्रम्म साध्रम्म संसार साखी ।—पृ० रा०, १,६ ।

चवको पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० चौकी] दे० 'चौकी' ।

चवठ्ठी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुष्षष्टि] चौंसठ । यहाँ योगिनियों से तात्पर्य है जिनकी संख्या चौंसठ कही जाती है । उ०—चवट्ठी चिकारै फिकारैं फिकौर । गमं गिद्ध गड्ढ़ैं पलं षूचि चड़ढै ।— पृ० रा०, ७ । १२४ ।

चवड़ै पु
क्रि० वि० [देश०] प्रगट में । उ०—भिडै सचेत वडाला भारथ, चवडै खेत करै चित चोज ।—रघु० रू, पृ० १२ ।

चवद पु
वि० संज्ञा पुं० [हिं चौद्ह] चौदह । उ०—कल चवद चवदैं तणी दुय तुक मिलैं मोहरा तामही । कल त्रितिय षोडस बले दसकल चतुरथी तुक में चही ।—रघु० रू०, पृ० ६६ ।

चवदसु पु
संज्ञा पुं० [सं० चतुर्दश] 'चतुर्दश' । उ०—कोइक दिन गुर राम पै पढी सु विद्या अप्प । चवदसु विद्या चतुरवर लई सीख पट लिप्प ।—पृ० रा०, १ ७२१ ।

चवदा
वि० [हिं०चौहद] दे० 'चौदह' । उ०—चवदा ही सब लोक नौछावरि व्रज पर करौ । फाग अनोखी नोक और न परके सम धरौ ।—व्रज० ग्रं०, पृ० ३२ ।

चवन्नी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौ (चार) + आना + ई (प्रत्य०)] चार आने मूल्य का चाँदी या निकल का सिक्का ।

चवना पु
क्रि० अ० [सं० च्यवन] चूना । टपकना ।

चवना पु
[सं०] कहना । बोलना । उ०—जै जै सबद्ध बंदिन चवहिं, मागध पुत्र पवित्र मति । अनधन प्रवाह बहु पुहवि परि, वरष्षौ जेम पुरंद गति—पृ० रा०, १ । ४७२ ।

चवपैया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चौपैया' ।

चवर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चंवर] दे० 'चँवर' ।

चवर (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोहड, जोहड़] जलकुंड । उ०—ऊसर खेत कै कुस मँगाए, चाँलर चवर कै पानी ।—कबीर श०, भा० २. पृ० ४३ ।

चवरना पु
क्रि० अ० [सं० चपल, हिं० चपर] तेजी या विग से बढ़ाना । उ०—आवहि सावज धात जब मारहु खाँड़पचारि । चवरि जो आगे ह्वै चले छाड़हु सोनहा झारि ।—चित्रा०, पृ० २४ ।

चवरा
संज्ञा पुं० [सं० चवल] लोबिया ।

चबरार पु
क्रि० वि० [देश०] चतुर्दिक् । चारो ओर । उ०—गुर लज्ज ऊवर भर सज्जि रहि है पष्षर चवरार हथ । पृ० रा० २४ । १०४ ।

चवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चवर्गेय] च से ञ तक के अक्षरों का समुह । इन अक्षरों का उच्चारण तालु से होता है ।

चवल
संज्ञा पुं० [सं०] लोबिया ।

चवा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौवाई] चारों ओर से चलनेवाली हवा । एक साथ सब दिशाओं से बहनेवाली वायु । उ०—लागि दवारि पहार टही टहकी कपि लंक यथा खरखौकी । चारु चवा चहुँ ओर चली झपटी लपटै सो तमीचर तौकी ।—तुलसी (शब्द०) ।

चवाई
वि० [हिं० चवाव] [वि० स्त्री० चवाइन] १. बदनामी की चर्चा फैलानेवाला । कलंकसूचक प्रवाद फैलानेवाला । दूसरों की बुराई करनेवाला । निंदक । उ०—(क) मैं तरुनी तुम तरुन तन चुगल चवाई गाँव । मुरली लै न बजाइयो कबहुँ हमारे गाँवा—पद्मारकर (शब्द०) । (ख) चौचँद चार चवाइन के चहुँ ओर मचैं बिरचैं करि हाँसी (शब्द०) । (ग) चार चवा- इनै लै दुरबीनन धाओ न आज तमाशे लखात हैं ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । २. झूठी बात करनेवाला । व्यर्थ इधर की उधर लगनेवाला । चुगलखोर । उ०—सुनहु कान्ह बलभद्र चवाई जनमत ही को धूत । सूरश्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत । (सूर शब्द०) ।

चवाउ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चवाव' ।

चवाय पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चवाव' । उ०—(क) डारि दियो गुरु लोगानि को डर गाँव चवाय मैं नाँव धराए ।—मति० ग्रं०, पृ० ४२१ । (ख) गोकुल की गैल मैं गोपाल ग्वाल गोधन मैं गोरज लपेटे लेखे ऐसी गति कीनी है । चौंकि चौंकि चतुर चवायन चलावत, रही चुपचाप चोय चित्त मति चीनी है । नट०, पृ०५ ।

चवाली (१)पु
वि० [देश०] हीन खराब । निकम्मा । उ०—कवल बदन काया करि कचन चेचनि करौ जपमाली । अनेक जनम लां पातिग छूटै जपत गोरष चवाली । गोरख०, पृ० १०१ ।

चवाली (२)
वि० संज्ञा पुं० [हिं० चौवालीस] दे० 'चौवालीस' । उ०— इकतीस चवाली रात्रि मानि । सब घुटिय साठि दिन राति जानि ।—ह० रासो, पृ० ३१ ।

चवालीस
संज्ञा पुं० [हिं० चौवालीस] दे० 'चौवालीस' ।

चवाव
संज्ञा पुं० [हिं० चौवाई] १. चारों ओर फैलनेवाली चर्चा । प्रवाद । अफवाह । २. चारों ओर फैली हुई बदनामी । निंदा की चर्चा । किसी की बुराई की चर्चा । उ० (क) नैनन तें यह भई बड़ाई । घर घर यहै चवाव चलावत हमसों भेंट न माई ।—सूर (शब्द०) । (ख) ये घरहाई लोगाई सबै, निसि द्योस निवाज हमैं दहती हैं । बातें चवाव भरी सुनि कै रिस लागति पै चुप ह्वै रहती हैं ।—निवाज (शब्द०) । (ग) ज्यों ज्यों चवाव चलै चहुँ ओर धरै चित चाव ये त्योहि त्यों चोखे—(शव्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—चलना ।—चलाना । ३. पीठ पीछे की निंदा । चुगलखोरी ।

चवि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चविका' ।

चविक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पेड़ [को०] ।

चविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चव्य नाम की ओषधि । वि० दे० 'चव' ।

चबैया †
संज्ञा पुं० [हिं० चवाई] दे० 'चवाई' ।

चव्य-चव्यका
संज्ञा पुं० [सं०] एक औषधि । वि० दे० 'चाव' ।

चव्यजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपीपल ।

चव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० चव्य' ।

चशक
संज्ञा स्त्री० [हि० चसका] वह भोजन जो साहबों के यहाँ से किसी विशेष अवसर पर बावर्चियों को मिलता है ।

चशम
संज्ञा स्त्री० [फा० चश्म] दे० 'चश्म' । विशेष—चशम के यौ० आदि के लिये देखो 'चश्म' ।

चशमा
संज्ञा पुं० [फा० चश्मह्] दे० 'चश्मा' ।

चश्म
संज्ञा स्त्री० [फा०] नेत्र । आँख । लोचन । नयन । यौ०—चश्मदीद । चश्मनुमाई । चश्मपोशी । आदि । मुहा०—चश्म बद दूर = बुरी नजर दूर हो । बुरी नजर न लगे । विशेष—इस वाक्य का व्यवहार किसी चोज की प्रशंसा करते समय उसे नजर लगने से बचाने के अमिप्राय से किया जाता है ।

चश्मक
संज्ञा स्त्री० [फा० चश्म] १. मनमोटाव । वैमनस्य । ईर्ष्या । द्वेष । २. चश्मा । ऐनक । ३. आँख का इशारा ।

चश्मजन
संज्ञा पुं० [फा० चश्मजन] वह जो आँख से इशारा करता है [को०] ।

चशणजदन
संज्ञा पुं० [फा० चश्मजदन] १. क्षण । निमेष लमहा । २. पलक झपकना । [को०] ।

चश्मदीद
वि० [फा०] जो आँखों से देखा हुआ हो । यौ०—चश्मदीद गवाह = वह साक्षी जो अपनी आँखों से देखी घटना कहे । वह गवाह जो चश्मदीद माजरा बयान करे ।

चरमनुमाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] घूरकर किसी के मन में भय उत्पन्न करना । धमकी या घुड़की । आँख दिखाना ।

चश्मपोशी
संज्ञा स्त्री० [फा०] आँख चुराना । सामने न होना । कतराना ।

चश्मा
संज्ञा पुं० [फा० चश्मह्] १. कमानी में जड़ा हुआ शीशे या पारदर्शी पत्थर के तालों का जोड़ा, जो आँखों पर उनका दोष दूर करने, दृष्टि बढ़ाने अथवा धूप, चमक या गर्द आदि से उनकी रक्षा करने और उन्हें ठढ़ा रखने के अभिप्राय से लगाया जाता है । ऐनक । विशेष—चश्मे के ताल हरे, लाल, नीले, सफेद, और कई रंग के होते हैं । दूर की चीजें देखने के लिये नतोदर और पास की चीजे देखने के लिये उन्नतोदर तालों का चश्मा लगाया जाता है । क्रि० प्र०—चढ़ाना ।—लगाना ।—लगना । मुहा०—चश्मा लगना = आँखों में चश्मा लगाने की आवश्यकता होना । जैसे, अब तो उनकी आँखें कमजोर हो गई है; चश्मा लगता है । २. पानी का सोता । स्त्रोत । यौ०—चश्म ए-खिज्र, चरम-ए-हैवाँ = अमृत का कुंड या सोता । चश्म-ए-सार = जहाँ पर बहुत से चश्मे हों । ३. छोटी नदी । छोटा दरिया । ४. कोई जलशय । ५. सुई का छेद ।

चष पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] नेत्र । आँख । यौं०—चषचोल ।

चषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मद्य पीने का पात्र । वह बरतन जिसमें शराब पीते हैं । प्याला । उ०—(क) प्राण ये मन रसिक ललिता घी लोचन चषक पिवति मकरंद सुख रासि अंतर सची ।—सूर (शब्द०) । (ख) इंद्रनील मणि महा चषक था सोम रहित उलटा लटका ।—कामायनी, पृ० २४ । २. मधु । शहद । ३. एक विशेष प्रकार की मदिरा ।

चषचोल पु
संज्ञा पुं० [हिं० चष + चोल (= वस्त्र)] आँख की पलक । आँख का परदा । उ०—चलिगो कुंकुम गात तें दलिगो नयो निचोल । दुरै दुरायो क्यों सुरत मुरत जुरत चषचोल ।—शृं० सत० (शब्द०) ।

चषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन । भक्षण । २ वध करना । क्षय करना । हनन करना ।

चषति
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजना । भक्षण । २ वध । हनन । ३ पतन । क्षय । ह्वास [को०] ।

चषाल
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ के यूप में लगी हुई पशु बाँधने की गराड़ी ।

चष्षि पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्षु] चक्षु । नेत्र । उ०—अति उंच उतंग कुरंग कुरं । धरि चष्पि गिलंद उडंद षुरं ।—पृ० रा०, १२ । ३५ ।

चस
संज्ञा स्त्री० [देश०] किसी किनारदार कपड़े के ऊपर या नीचे की ओर बनी हुई कलाबत्तू या किसी दूसरे रंग के रेशम या सूत की पतली लकीर या धारी ।

चसक (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. हलका दर्द । कसक । २. गोटे या अतलस आदि की पतली गोट जो संजाफ या मगजी के आने लगाई जाती है ।

चसक (२)
संज्ञा पुं० [सं० चषक] दे० 'चषक' ।

चसकना
क्रि० अ० [हिं० चसक] हलकी पीड़ा होना । मीठा दर्द होना । टीसना ।

चसका
संज्ञा पुं० [सं० चषण] १. किसी वस्तु (विशेषतःखाने पीने की वस्तु) या किसी काम में एक या अनेक बार मिला हुआ आनंद, जो प्रायः उस चीज के पुनः पाने या उस काम के पुनः करने की इच्छा उत्पन्न करता है । शौक । चाट ।२. इस प्रकार की पड़ी हुई आदत । लत । जैसे,—उसे शराब पीने का चसका लग गया है । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना । लगना ।

चसकी पु
वि० [हिं० चसका] चाववाला । चाह या चसकावाला । उ०—भाव के कुंड नेह के जल में, प्रेम रंग दइ बोर । चसकी चास लगाइ के रे, खूब रँगी झकझोर ।—संतवारी० भा० २, पृ० २ ।

चसना (१)
क्रि० अ० [सं० चषण] १. प्राण त्यगना । मरना । २. फंदे से फँसकर किसी मनुष्य का कुछ देना, विशेषतः किसी गाहक का माल खरीदन ।—(दलाल) । पु ३ चखना । स्वाद लेना । चाटना । उ०—गिरि मद्धि गहिर गुझ्झइ वस्त्रहि, नीर समीप न संचरहिं । सोमेस सुतन आषेट डर, इम डढाल उस सह चसहि ।—पृ० रा०, ६ । १०२ ।

चसना (२)
क्रि० अ० [हिं० चाशनी] दो चीजों का एक में सटना ।लगना । चिपकना । उ०—ज्यौं नाभी सर एक नाल नव कनक कमल विवि रहे चसी री ।—सूर (शब्द०) ।

चसम † (१)
संज्ञा पुं० [फा चश्म] सं० 'चश्म' ।

चसम (२)
संज्ञा पुं० [देश०] रेशम में तागों में से निकला हुआ निकम्मा अंश । रेशम का खुज्झा ।

चसमा †
संज्ञा पुं० [फा० चश्मह्] दे० 'चश्मा' ।

चस्का
संज्ञा पुं० [हिं० चसका] दे० 'चसका' ।

चस्पा
वि० [फा०] चिपकाया हुआ । सटाया हुआ । लेई आदि से लगाया हुआ । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

चस्म पु †
संज्ञा पुं० [फा० चश्म] दे० 'चश्म' । उ०—हूर बिना सरोद सब बाजै चस्म बिना सब दरमै ।—मलूक० बानी, पृ० ४ ।

चस्मा पु †
संज्ञा पुं० [फा० चश्मह्] दे० 'चश्मा' उ०—दिए ललाट लगाए चस्मा घुरकत हरदम ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १४ ।

चस्सी
संज्ञा पुं० [देश०] हथेली और तलवों की खजली ।

चह (१)
संज्ञा पुं० [सं० चय] १. नदी के किनारे कच्चे घाटों पर लकड़ियाँ गाड़कर और घासफूस तथा बालू आदि से पाटकर बनाया हुआ चबूतरा, जिसपर से होकर मनुष्य और पशु आदि नावों पर चढ़ते है । पाट । २ बाँस या तख्ते बिछाकर आरपार आने जाने के लिये बनाया हुआ अस्थायी पुल । क्रि० प्र०—बाँधना ।

चह (२)पु
संज्ञा स्त्री० [फा० चाह] गड्ढा । गर्त । यौ०—चहबच्चा ।

चहक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहकना] 'चहकना' का भाव । लगातार होनेवाला पक्षियों का मधुर शब्द । चिड़ियों का चहचह शब्द ।

चहक (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'चहला' ।

चहकना (१)
क्रि० अ० [अनु०] १. पक्षियों का आनंदित होकर मधूर शब्द करना । चहचहाना । २. उमंग या प्रसन्नता से अधिक बोलना ।—(बाजारू) ।

चहकना (२)
क्रि० स० [हिं० चहका] जलाना । आग लगाना । उ०—सीरी समीर सरीर दहै, चहकै चपला चख लै करि ऊकैं ।—घनानंद, पृ० २७ । २. दे० 'चमकना' ।

चहका (१)
संज्ञा पुं० [सं० चय] ईट या पत्थर का फर्श ।

चहका (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. जलती हुई लकड़ी लुआठी । लुका । मुहा०—चहका देना या लगाना = लूका लगाना । आग लगाना । जलाना ।—(स्त्रियों की गाली) । २. बनेठी । ३. होली के अवसर पर गाया जानेवाला एक प्रकार का गाना ।

चहका (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चहला] कीचड़ । चहला ।

चहकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहक] दे० 'चहक' ।

चहकारना †
क्रि० अ० [हिं० चहकार] वे 'चहकना' ।

चहकारा (१)पु
वि० [हिं०चहकना] कलरव करनेवाला । चहकनेवाला ।

चहकारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चहकार] चहक ।

चहचहा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चहचहाना] १. 'चहचहाना' का भाव । चहक । २. हँसी दिल्लगी । ठट्ठा । चुहलबाजी । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना ।

चहचहा (२)
वि० [वि० स्त्री० चहचही] १. जिसमें चह चह शब्द हो । उल्लास शब्दयुक्त । उ० चहचही चुहिल चहूँकित अलीन की ।—रसखान (शब्द०) । २. आनंद और उमंग उत्पन्न करनेवाला । बहुत मनोहर । उ० चहचही चहल चहूँधा चारु चंदन की चंद्रक चुनीन चौक चौकनि चढ़ी है आव ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० १२५ । ३. ताजा । हाल का ।

चहचहाना
क्रि० अ० [अनु०] पक्षियो का चह चह शब्द करना । चहकना । चहकारना ।

चहचहाट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहचहाना + आट(प्रत्य०)] दे० 'चहचहाहट' ।

चहचहाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहचहाना + आहट (प्रत्य०)] चहचहाने का भाव या स्थिति ।

चहटा †
संज्ञा पुं० [अनु०] कीचड़ा । पंक ।

चहडुना पु
वि० [प्रा० चड़ (भध्यागम ह) > चहड + ना (प्रत्य०)] ऊँचे चढ़ना । उ०—बीज न देख चहडि्डयाँ प्री परदेस गयाँह । आपण लीय झबुक्कड़ा, गलि लागी सहराँह ।—ढोला०, दू० १५२ ।

चहता †
संज्ञा पुं० [हिं० चाहता या चहेता] दे० 'चहेता' ।

चहनना †
क्रि० स० [हि० चहलना] चहलना । दबाना । रौंदना । मुहा०—चहनकर खाना = बहुत अच्छी तरह खाना । कसकर खाना ।उ०—लुचुई पोइ घी भेई । पाछे चहन खाँड़ सो जेई । जायसी (शब्द०) ।

चहना पु
क्रि० स० [हिं० चाहना] १. चाहना । पसंद करना । २. देखना । उ०—जब हसि हलधर हरि तन चहयौ । हरि तब सब हलधर सौं कहयौ ।—नंद ग्रं०, पृ० २६६ ।

चहिन †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाहना] दे० 'चाह' ।

चहबचा
[हिं० चहबच्चा] दे० 'चहबच्चा' । उ०—बाँपी बापी कूप तड़ाग तै भरै चहबचा लाय । प० रा०, पृ० ५५ ।

चहबच्चा
संज्ञा पुं० [फा० चाह=(कुऔ) + बच्चा] १. पानी (विशेषतः गदा या नल आदि का) भर रखने का छोटा गड्ढा या हौज । २. धन गाड़ने या छिपा रखने का छोटा तहखाना । विशेष—कुछ लोग इसे 'चौबच्चा' कहते हैं ।

चहब्ब पु
संज्ञा, पुं० [हिं० चहबच्चा] दे० 'चहबच्चा' । उ०— जनु रंक पाए दब्ब, नल नलन नीर चहब्ब ।—पृ० रा०, २० । १३७ ।

चहर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहल] १. आनंद की धूम । आनंदो— त्सव । रौनक । उ०—हरख भए नँद करत बधाई दान देत कहा कहो महर की । पच शब्द ध्वनि बाजत नाचत गावत मंगलचार चहर की ।—सूर (शब्द०) । २. जोर का शब्द । शोर गुल । हल्ला । उ०—मथति दधि जसुमति मथानी धुनि रही घर गहरि । श्रवन सुनति न महरि बातें जहाँ तहँ गई चहरि ।—सूर (शब्द०) । ३. उपद्रव । उत्पात । उ०— सुत को बरजि राखौ महरि । जमुन तट हरि देखठाढ़े डरनि आवें बहुरि । सूर श्यामहि नेक बरजौ करत है अति चहरि ।—सूर (शब्द०) ।

चहर (२)
वि० १. बढ़िया । उत्तम । २. चुलबुला । तेज । उ०—गूढ़ गिरिगिरि गुलगुल से गुलाब रंग चहर चगर चटकीले हैं बालक के ।—सूदन (शब्द०) ।

चहर (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चौहट] चौक । बाजार । चत्वर । उ०— इह देही का गरब न करना माँटी में मिल जासी । यो संसार चहर की बाजी साँझ पड़चा उठि जासी ।—सुंदर ग्रं०, भा० १. पृ० ६९ ।

चहरना (१)पु †
क्रि० अ० [हिं० चहर] आनंदित होना । प्रसन्न होना । उ०—आनंद भरी जसोदा उमगि अंग न समाति आनंदित भइँ गोपी गावती चहरि के ।—सूर (शब्द०) ।

चहरना (२)
क्रि० स० [?] निदा करना । उ०—गह चढ़िया संतोव गज, धर पड़ ज्यानूँ धोक । चढ़िया ज्यानूँ चहरजे, लालच गरधम लोक ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५६ ।

चहराना †पु (१)
क्रि० अ० [हिं०] १. दे० 'चहरना' । २. दे० 'चर्रांना' ।

चहराना (२)
क्रि० अ० [देश०] दरकना । फटना । तड़कना । चटकना ।

चहर्रुम
वि० [फा० चहारुम] दे० 'चहारुम' ।

चहल (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. कीचड़ । कीच । कर्दम । उ०— चहचही चहल चहूँ घा चारु चंदन की चंदक चुनीन चौक चौकनि चढ़ी है आब ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० १२५ । २. कीचड़ मिली हुई कड़ी चिकनी मिट्टी की जमीन जिसनें बिना हल चलाए जोताई होती है ।

चहस (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहचहाना] आनंद की धूम । आनंदोत्सव । रौनक । यौ०—चहल पहल ।

चहल (२)पु †
वि० [फा० चिहिल] चालीस । जैसे,—चहल्लुम में चहल । उ०—कहे हैं बाजरूरत ता चहल माल परियाँ कूँ ही समज बेलाड़ का हाल ।—दक्खिनी० पृ० १७९ ।

चहलकदमी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहल + अ० कदम x हिं० ई (प्रत्य०)] धीरे धीरे टहलना, घूमना या चलना ।

चहलना (१) †
क्रि० स० [हिं० चहनना] १. दे० 'चहनना' । मुहा०—चहलकर खाना = दे० 'चहनकर खाना' । †२. किसी वस्तु को पैरों से दबाना । रौंदना' ।

चहलपहल
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. किसी स्थान पर बहुत से लोगों के आने जाने की घूम । अबादानी । २. बहुत से लोगों के आने जाने के कारण किसी स्यान पर होनेवाली रौनक । आनंदोत्सव । आनंद की धूम । क्रि० प्र०—मचाना । होना ।

चहला †
संज्ञा पुं० [सं० चिकिल] कीचड़ । पंक । उ०—(क) चंदन के चहला मै परी परी पंकज की पँखरी नरमी मैं ।— (शब्द०) । (ख) इक भीजैं, चहलैं परै, बूड़ैं, बहैं हजार ।— बिहारी र०, दो० ४६१ ।

चहलो †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कुएँ से पानी खीचने को चरखी । गराड़ी । घिरनी ।

चहलुम
संज्ञा पुं० [फा० चेहलूम] दे० 'चेहलुम' ।

चहा
संज्ञा स्त्री० [हि० चाह] चाह । इच्छा । मनोरथ । कामना । उ०—औरन के अनबाढ़े कहा अरु बाढ़े कहा नहिं होत चहा है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ६३ ।

चहार
वि० संज्ञा पुं० [फा०] चार । चार की संख्या । यौ०—चहारगोशा = चौकोना । चहारचंद = चौगुना । चहारदह = चौद्ह । चौदह की संख्या । चहारयारी = मुसलमानों का सुन्नी नामक संप्रदाय जो मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी चार खलीफों में विश्वास रहता है जिनके नाम अबूबकर (६३२-३४ ई०), उमर (६३४-४४), उसमान (६४४-५५ ई०) और अली (६५५-६६ ई०) हैं ।

चहारदीवारो
संज्ञा स्त्री० [फा०] किसी स्थान के चारी ओर की दीबार । प्राचीर । कोट । परिखा । परकोटा ।

चहारम †
वि० [फा० चहारुम] दे० 'चहारुम' । उ०—चहारम उस कते सकरात जब होय । जबान बंद होयगा सब ओ अकल खोय ।—दक्खिनी०, पृ० ११४ ।

चहारुम (१)
वि० [फा०] चौथा । चतुर्थ ।

चहारुम (२)
संज्ञा पुं० किसी वस्तु के चार भागों में से एक भाग । चतुर्थांश । चौथाई भाग ।

चहीला पु †
संज्ञा पुं० [देश०] मार्ग । रास्ता । उ०—दियै चहीलै चालताँ आर गाल इक दोय । खाड़ेती खोटी हुवै, धवल न खोटौ होय ।—बाँकी० ग्रं० भा० १. पृ० ४२ ।

चहुँ पु
वि० [हिं० चार] चार । चारो । उ०—चहुँ का संगी चहुँ संगि हेंतु ।—प्राण०, पृ० ९० । विशेष—यह शब्द यौगिक के पहले आता है । जैसे, चहूँघा, चहुँचक्र (चारो ओर) आदि ।

चहुंक
संज्ञा स्त्री० [हिं० चौंक] दे० 'चिहुँक' ।

चहुँकना
क्रि० अ० [हिं० चौकना] दे० 'चिहुँकना' ।

चहुँखाँ पु
वि० [हिं० चहु + खौ (घर)] चारों ओर । चतुर्दिक् । उ०—अब सुनहु वंस तिनकै अपार यह । भइय सृष्टि चहुँखाँ (चहुँधा) निवार ।—ह० रासो, पृ० २ ।

चहुँटना †
क्रि० स० [हिं०] चोट पहुँचाना । चपेटना ।

चहुआन
संज्ञा पु० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' । उ० —दक्खिन दिसि रनथंभगढ़, तहँ हमीर चहुआन ।—हम्मीर०, पृ० १ ।

चहुरा †
क्रि० स० [हिं०] चोट पहुँचाना । चपेटना ।

चहुआन
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' । उ०—दक्खिन दिसि रनथंभगढ़, तहँ हमीर चहुआन ।—हम्मीर०, पृ० १ ।

चहुरा †
वि० पुं० [हिं०] १. 'चौघरा' । २. 'चौहरा' ।

चहुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहु] एक पात्र या मान ।

चहुवान
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' ।

चहूँ पु †
वि० [सं० चतुर, हिं० चौ] दे० 'चहुँ' ।

चहूँटना †
क्रि० अ० [हिं० चिमटना] सटना । लगना । मिलना । उ०—डोरी लागी भय मिटा, मन पाया विश्राम । चित्त चहूँटा राम सों, याही केवल धाम ।—कबीर (शब्द०) ।

चहेटना
क्रि० स० [देश०] १. किसी चीज को दबाकर उसका रस या सार भाग निकालना । गारना । निचोड़ना । उ०—चंद चहेट समेटि सुधारस कीन्हों तबै सिय के अधरान को । २. दे० 'चपेटना' ।

चहेना
वि० [हि० चाहना + एता (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० चहेती] जिसके साथ प्रेम किया जाय । जिसे चाहा जाय । प्यारा ।

चहेती
वि० स्त्री० [हिं० चहेता] जिसे चाहा जाय । प्यारी । जैसे,— चहेती स्त्री ।

तहेल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चहल] १. चहला । कीचड़ा २. वह भूमि जहाँ कीचड़ बहुत हो । दलदली भूमि ।

चहोड़ना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'चहोरना' ।

चहोड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चहोना' ।

चहोरना † (१)
क्रि० अ० [देश०] १. धान या अन्य किसी वृक्ष के पौधे को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाना । रोपना । बैठाना । २. सहेजना । सँभालना । देख भालकर सुरक्षित करना । उ०—काटी कूटी माछरी छीके धरी चहोरि । कोई एक औगुन मन बसा दह में परी बहोरि ।—कबीर (शब्द०) ।

चहोरना (२)
क्रि० स० दे० 'चगोरना' ।

चहोरा
संज्ञा पुं० [हि० चहीरना] जड़हन धान जिसे रोपुवा धान भी कहते हैं ।

चांग
संज्ञा पुं० [सं० चाङ्ग] १. दाँतों की सफेदी या सुंदरता । २. चांगेरी या अमलोनी नामक साग [को०] ।

चांगेरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चाङ्गेरिका] एक वनोषधि जो बात— पित्त—नाशक होती है [को०] ।

चांगेरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चाङ्गेरी] अमलोनी जिसका साग होता है । खट्टी लोनी ।

चांचल्य
संज्ञा पुं० [सं० चाञ्चल्य] चंचलता । चपलता ।

चांड़
संज्ञा पुं० [सं० चाण्यय] १. तेजी । वेग । प्रचंडता [को०] ।

चांडाल
संज्ञा पुं० [सं० चाण्डाल] [स्त्री० चांड़ाली, चांडालिन] १. अत्यंत नीच जाति । डोम । श्वपच । विशेष—मनु के अनुसार चांडाल शूद्र पिता और व्राह्मणी माता से उत्पन्न हैं और अत्यंत नीचमाने गए हैं । उनकी बस्ती ग्राम के बाहर होनी चाहिए, भीतर नहीं । इनके लिये सोने चाँदी आदि के बरतनों का व्यवहार निषिद्ध है । ये जूठे बरतनों में भोजन कर सकते हैं । चाँदी सोने के बरतनों को छोड़ और किसी वरतन में यदि चाँडाल भोजन करले तो वह किसी प्रकार शुद्ध नहीं हो सकता । कुत्ते, गदहे आदि पालना, मुरदे का कफन आदि लेना, तथा इधर उधरफिरना इनका व्यवसाय ठहाराया गया है । यज्ञ और किसी धर्मानुष्ठान के समय इनके दर्शन का निषेध हैं । इन्हें अपने हाथ से भिक्षा तक न देनी चाहिए, सेवकों के हाथ से दिलवानी चाहिए । रात्रि के समय इन्हें बस्ती में नहीं निकलना चाहिए । प्राचीन काल में अपराधियों का वध इन्हीं के द्गारा कराया जाता था । लावा- रिसों की दाह आदि क्रिया भी वही करते थे । पर्या०—श्ववपच । प्लव । मातंग । दिवारकोति । जनंगम निषाद । श्वपाक । अतेवासी । पुव्कस । निष्क । २. कुकर्मीं, दुष्ट, दुरात्मा, क्रूर या निष्टुरमनुष्य । पतित मनुष्य ।

चांडालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० चाण्डालिका] १. दे० 'चंडालिका' । २. दुर्गा का एक नाम [को०] ।

चांडालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० चाण्डालिनी] तंत्रसाधना की एक देवी [को०] ।

चांडाली
संज्ञा स्त्री० [सं० चाण्डाली] १. चांडाल जाति की स्त्री । वह स्त्री जो चांडाल जाति की हो । २. चांडाल की स्त्री (को०) ।

चांदनिक
वि० [सं० चान्दनिक] [वि० स्त्री० चांदानिकी] १. चदन का बना हुआ । २. चंदन संबंधी । ३. चंदन से बासा हुआ । ४. चंदन में होने, रहने या पाया जानेवाला [को०] ।

चांद्र (१)
वि० [सं० चान्द्र] [वि० को० चान्द्री] चंद्रमा संबंधी । जैसे,—चाद्रमांस । चांद्रवत्सर ।

चांद्र (२)
संज्ञा पुं० १. चांद्रायण व्रत । २. चंद्रकांत मणि । ३. अदरख । ४. मृगशिरा नक्षत्र । ५. लिंग पुराण के अनुसार प्लक्ष द्रीप का एक पर्वत ।

चांद्रक
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रक] सोंठ ।

चांद्रपुर
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रपुर] बृहत्संहिता के अनुसार एक नगर जिसमें एक प्रसिद्ध शिवमूर्ति के होने का उल्लेख है ।

चांद्रभागा
संज्ञा स्त्री० [सं० चान्द्रभाग] दे० 'चद्रभागा' [को०] ।

चांद्रमस (१)
वि० [सं० चान्द्रमस] चंद्रमा संबंधी ।

चांद्रमस (२)
संज्ञा पुं० १. मृगशिरा नक्षत्र । २. चांद्र वर्ष (को०) ।

चांद्रमसायन
संज्ञा पुं० [स० चान्द्रमसायन] बुध ग्रह ।

चांद्रमसायनि
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रमसायनि] दे० 'चाद्रमसायन' [को०] ।

चांद्रमसी (१)
वि० स्त्री० [सं० चान्द्रमसी] चंद्रमा की । चंद्रमा संबंधी [को०] ।

चांद्रमसी (२)
संज्ञा स्त्री० बृहस्पति की पत्नी [को०] ।

चांद्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०चान्द्रमाण] काल का वह परिमाण जो चंद्रमा की गति के अनुसार निर्धारित किया गया हो ।

चांद्रमास
संज्ञा पु० [सं० चान्द्रमास] वह मास जो चंद्रमा की गति के अनुसार हो । उतना काल जितना चंद्रमा का पृथ्वी की एक परिक्रमा करने में लगता है । विशेष—चांद्रमास दो प्रकार का होता है । एक गौण, दूसरा मुख्य । कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक का काल गौण या पूर्णिमांत और सुक्ल प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक का काल मुख्य या अमांत चांद्रमास कहलाता है ।

चाद्रवत्सर
संज्ञा पुं० [पुं० चान्द्रवत्सर] वह वर्ष जो चंद्रमा की गती के अनुसार हो ।

चांद्रवर्ष
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रवर्ष] दे० 'चांद्रवत्सर' [को०] ।

चांद्रव्रतिक (१)
वि० [सं० चान्दव्रतिक] जो चांद्रायण व्रत करे ।

चांद्रव्रतिक (२)
संज्ञा पुं० राजा ।

चांद्राख्य
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्राख्य] अदरक [को०] ।

चांद्रायण
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रायण] [वि० चान्द्रायाणिक] १. महीने भर का एक कठिन व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने, बढ़ने के अनुसार आहार घटाना बढ़ाना पड़ता है ।विशेष—मिताक्षरा के अनुसार इस व्रत का करनेवाला शुक्ल प्रतिपदा के दिन त्रिकालस्नान करके एक ग्रस मोर के अंडे के बराबर का खाकर रहे । द्रितीया को दो ग्रास खाय । इसी प्रकार क्रमशः एक एक ग्रास नित्य बढ़ाता हुआ पूर्णिमा के दिन पंद्रह ग्रास खाय । फिर कृष्णप्रतिपदा को चौदह ग्रास खाय । द्रितीया को तेरह, इसी प्रकार क्रमशः एक एक ग्रास नित्य घटाता हुआ कृष्ण चतुर्दशी के दिन एक ग्रास खाय और अमावस्या के दिन कुछ न खाय, उपवास करे । इस व्रत में ग्रासों की संख्या आरंभऔर अत में कम तथा बीच में अधिक होती है, इसी से इसे यदमध्य चांद्रायण कहते हैं । इसी ब्रत को यदि कृष्ण प्रतिपदा से पूर्वेंक्त क्रम से (अर्थात् प्रतिपदा को चौदह ग्रास, द्रितीया को तेरह इत्यादि) आरंभ करे और पूर्णिमा को पूरे पंद्रह ग्रास खाकर समाप्त करे तो वह पिपि- लिका तनुमध्य चांद्रायण भी होगा । कल्पतरु के मत से एक यतिचांद्रायण होता है, जिसमें एक महीने तक नित्य तीन तीन ग्रास खाकर रहना पड़ना है । सुभीते के लिये चांद्रायण व्रत का एक और विधान भी है । इसमें महीने भर के सब ग्रासों को जोड़कर तीस से भाग देने से जितने ग्रास आते हैं, उतने ग्रास नित्य खाकर महीने भर रहना पड़ता है । महीने भर के ग्रासो की संख्या २५ होती है, जिसमें तीस का भाग देने से ७/?/१/२; ग्रास होते हैं । पल प्रमाण का एक ग्रास लेने से पाव भर के लगभग अन्न होता है अतः इतना ही हविष्यान्न नित्य खाकर रहना पड़ता है । मनु, पराशर, बौद्धायन, इत्यादि सब स्मिृतियों में इसव्रत का उल्लेख है । गोतम के मत से इस व्रत के करनेवाले को चंद्रलोक की प्राप्ति होती है । सिमृतियों में पापों और अपराधों के प्रायश्चित्त के लिये भी इस व्रत का विधान है । २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ ओर १० के विराम से २१ मात्राएँ होती है पहले विराम पर जगण और दूसरे पर रगण होना चाहिए । जैसे,—हरि हर कृपानिधान परम पद दीजिए । प्रभु जू दयानिकेत, शरण रख लीजिए ।

चांद्रायणिक
वि० [सं० चांद्रायणिक] [वि० स्त्री० चांद्रायाणिकी] चांद्रायण व्रत करनेवाला [को०]

चांद्रि
संज्ञा पुं० [सं० चान्द्रि] बुधग्रह [को०] ।

चांद्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चान्द्री] १. चंद्रमा की स्त्री । २. चाँदनी । ज्योत्स्ना । ३. सफेद भटकटैया ।

चांद्री (२)
वि० चंद्रमा संबंधी ।

चांपिला
संज्ञा स्त्री० [सं० चाम्पिला] चंपा नदी (सभ्यता, आधुनिक चंबल) [को०] ।

चांपेय
संज्ञा पुं० [सं० चाम्पेय] १. चपक । २. नागकेसर । ३. किंजल्क । ४. सोना । सुवर्ण । ५. धतुरा (को०) ।

चांपेयक
संज्ञा पुं० [सं० चाम्पेयक] किंजल्क । बेसर । [को०] ।

चांस
संज्ञा पुं० [अं०] अवसर । मौका । उ०—रानी साहब चदा को आपके मुकाबले में रुपये मैं एक आना चांस भी नहीं है ।—गोदान पृ० १२९ ।

चांसलर
संज्ञा पुं० [अ०] विश्वविद्यालय का वह प्रधान अधिकारी जिसके बाद वाइस चांसलर होता है ।

चाँइयाँ
वि० [हिं० चाँई] दे० 'चाँई' ।

चाँई (१)
वि० [सं० चञ्चुर (दक्ष) या देश० चई (=नैपाल की एक जैगली जाति जो डाका डालती है ।)] १. ठग । उचक्का । २. होशियार । छली । चालाक ।

चांई (२)
संज्ञा पुं० वह जो चाँईपन करता है । चाँई का कार्य करने— वाला व्यक्ति ।

चाँई (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सिर में होनेवाली एक प्रकार की फुंसियाँ जिनसे बाल झड़ जाते हैं ।

चाँई (४)
वि० जिसके बाल झड़ गए हों । गंजा ।

चाँईचूईं
संज्ञा स्त्री० [देश०] सिर में होनेवाली एक प्रकार की फुंसियाँ जिनके कारण बाल गिर जाते हैं ।

चाँक
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + अंक=चिह्न)] १. काठ की वह थापी जिसपर अक्षर या चिह्न खुदे होते हैं और जिससे खलियान में अन्न की राशि पर ठप्पा लगाते हैं । २. खलियान में अन्न की राशि पर डाला हुआ चिह्न । ३. टोटके के लिये शरीर के किसी पीड़ित स्थान के चारों ओर खींचा हुआ घेरा । गोंठ ।

चाँकना
क्रि० सं० [हिं० चाँक] १. खलियान में अनाज की राशि पर मिट्टी, राख या ठप्पे से छापा लगाना जिसमें यादि अनाज निकाला जाय, तो मालूम हो जाय । उ० तुलसी तिलोक की समृद्धि सौज संपदा सकेलि चाँकि राखी राशि जागरु जहान गो ।—तुलसी (शब्द०) । २. सीमा बाँधने के लिये किसी वस्तु को रेखा या चिन्ह खींचकर चारों ओर से घेरना । हद खींचना । हद बाँधना । उ०—सकल भुवन शोभा जनु चाँकी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. पहचान के लिये किसी वस्तु पर चिहन डालना ।

चाँका
संज्ञा पुं० [हिं० चाँक] दे० 'चाँक' । २. दे० 'चक्का' ।

चाँगज
संज्ञा पुं० [देश०] पुं० 'चाँगड़ा' ।

चाँगड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] तिब्बत देश का एक प्रकार का बकरा ।

चाँगला † (१)
वि० [हिं० चंगा] १. स्वस्थ । तंदुरुस्त । हृष्टपुष्ट । २. चतुर । चालाक ।

चाँगला (२)
संज्ञा पुं० घोड़ों का एक रंग ।

चाँच पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चोंच, अन्य रूप, चंच, चाँच, चूँच] दे० 'चंचु' । उ०—बाबहिया तू चोर थारी चाँच कराविसूँ । राति ज दीन्हीं लोर मँइ जाणयउ प्री आवियउ ।—ढोला०, दू० ३० ।

चाँचर
संज्ञा पुं० [देश०] सालपान नाम का क्षुप । वि० दे० 'सालपान' ।

चाँचर, चाँचरि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्चरी] बसंत ऋतु में गाया जानेवाला एक राग । चर्चरी राग जिसके अंतर्गत, होली, फाग, लेद इत्यादि माने जाते हैं । उ०—तुलसीदास चाँचरि मिसु, कहे राम गुणग्राम ।—तुलसी (शब्द०) ।

चाँचर, चाँचरि (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. वह जमीन जो एक वर्ष तकया कई वर्षें बिना जोती बोई छोड़ दी जाय । परती छोड़ी हुई जमीन । २. एक प्रकार की मटियरी भूमि ।

चाँचर, चाँचरि (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. टट्ठी या परदा जो किवड़ के बदले काम में लाया जाय ।

चाँचिया
संज्ञा पुं० [हिं० चाँई ?] १. एक प्रकार की छोटी जाति जो चाँईगिरी, चोरी, लूट मार का काम करती है । २. दे० 'चाँई' । ३. चोर । ४. डाकू ।

चाँचियागलवत, चाँचियाजहाज
संज्ञा पुं० [हिं० चाँई ?] डाकुओं का जहाज जो समुद्र में सौदागरों के जहाजों को लूटता है ।

चाँचियागिरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँचिया + फा० गीरी] चाँईपन, चोरी, डाका आदि का धंधा ।

चाँर्चा
संज्ञा पुं० [हिं० चाँचिया] दे० 'चाँचिया' ।

चाँचु पु
संज्ञा पुं० [देश०] चोंच । उ०—बकासुर रचि रूप माया रह्वो छल करि आइ । चाँचु पकरि पुहुमी लगाई इक अकास समाइ ।—सूर (शब्द०) ।

चाँट
संज्ञा पुं० [हिं० छींटा] हवा में उड़ता हुआ जलकण का प्रवाह जो तुफान आने पर समुद्र में उठता है ।—(लश०) । मुहा०—चाँट मारना = जहाज के बाहरी किनारों के तख्ते पर या पाल पर पानी छिड़कना । विशेष—यह पानी इसलिये छिड़का जाता है जिसमें तख्ते धूप की गरमी से न चिटकें या पाल कुछ भारी हो जाय ।

चाँटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चिमटना] [स्त्री० चाँटी] च्यूँटा । चिउँटा । उ०—(क) नेरे दूर फूल जस काँटा । दूर जो नेरे जस गुरु चाँटा ।—जायसी (शब्द०) (ख) अदल कहौं प्रथमै जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ।—जायसी (शब्द०) ।

चाँटा (२)
संज्ञा पुं० [अनु० चट या सं० चट (= तोड़ना)] थप्पड़ । तमाचा । चपत । क्रि० प्र०—जड़ना ।—देना ।—मारना ।—लगाना ।

चाँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँटा] १. चीटी । उ०—कीन्हेसि लावा, एंदुर चाँटी ।—जायसी (शब्द०) । २. वह कर जो पहले कारीगरों पर लगाया जाता था । ३. तबले की संजाफदार मगजी जिसपर तबला बजाते समय तर्जनी उँगली पड़ती है । ४. तबले का वह शब्द जो इस स्थान पर तर्जनी उँगली का आघात पड़ने से होता है ।

चाँड़ (१)
वि० [सं० चंड़] १. प्रबल । बलवान् । उ०—दान कृपान बुद्धि बल चाँड़े ।—लाल (शब्द०) । २. उग्र । उद्धत । शोख । उ०—धीर धरहु फल पावहुगे । अपने ही पिय के मुख चाँडे कबहूँ तो बस आवहुगे ।—सूर (शब्द०) । ३. बढ़ा चढ़ा । श्रेष्ठ । ४. अघाया हुआ । अफरा हुआ । तृप्त । उ०—ऊधो तुम्हरी बात इमि जिमि रोगी हित माँड़ा । जो जेंवत है सेर भर सो किमि होवै चाँड़ ।—विश्राम (शब्द०) । २. चतुर । चालाक ।

चाँड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चणड (= प्रबल)] १. भार संभालने का खंभा । टेक । थूनी । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना । २. किसी ऐसी बात को आवश्यकता जिसके बिना कोई काम तुरंत बिगड़ता हो । तात्कालिक आवश्यकता । किसी अभाव की पूर्ति के निमित्त आकुलता । भारी जरूरत । गहरी चाह । भारी लालसा । उ०—तुम्हें जब रूपए की चाँड़ लगती है, तब हमारे पास आते हो । क्रि० प्र०—लगना । मुहा०—चाँड़ सरना = इच्छा पूरी होना । काम पूरा होना । लालसा पूरी होना । उ०—तोरे धनुष चाँड़ नहिं सरई । जीवत हमहिं कुँवरि को बरई ।—तुलसी (शब्द०) । चाँड़ सराना = इच्छा पूरी करना । लालसा मिटाना । उ०—पुरुष भँवर दिन चारि आपने अपनो चाँड़ सरायो ।—सूर (शब्द०) । ३. दबाव । संकट । उ०—तुम जब गहरी चाँड़ लगाओगे तभी रुपया निकलेगा । ४. प्रबल इच्छा । गहरी चाह । छटपटी । वि० दे० 'चाँड़ (१)' । ५. प्रबलता । अधिकता । बढ़ती । उ०— भोज बली रतनेस भए मतिराम सदा यश चाँड़न ही में ।— मतिराम (शब्द०) ।

चाँड़ना
क्रि० सं० [?] खोदना । खोदकर गिराना । खोदकर गहरा करना । २. उखाड़ना । उजाड़ना । उ०—प्रविशि बाटिका चाड़न लागे । घुरघुरात रखवारे भगो ।—विश्राम (शब्द०) ।

चाँड़िला पु †
वि० [सं० चणड़] [वि० स्त्री० चाँड़िली] १. प्रचंड । प्रबल । उग्र । उद्धत । नटखट । शोख । उ०—नंद सुत लाड़िले प्रेम के चाँड़िले सौहु दै कहत है नारि आगे ।— सूर (शब्द०) २. बहुत अधिक । बहुत ज्यादा । उ०— मोती नग हीरन गहीरन बनत हार चीरन चुनत चितै चोप चित चाँड़िली ।—देव (शब्द०) ।

चांडू पु
वि० [सं० चाटुक (= खुशामदी), प्रा० चाड़ू] चाहवाला । चाहनेवाला । उ०—मान करत रिस मानै चाडू । —जायसी ग्रं० पृ० १३३ ।

चाँडू †
संज्ञा पुं० [हिं० चंड़ू] दे० 'चंडू' ।

चाँढा
संज्ञा पुं० [हिं० संधि] जहाज की बनावट में वह स्थान जहाँ दो तख्ते आकर मिलते हैं ।

चाँद (१)
संज्ञा पुं० [सं० चन्द्र] १. चंद्रमा । क्रि० प्र०—निकलना । मुहा०—चाँद का कुंडल या मडल बैठना = बहुत हल्की बदली पर प्रकाश पड़ ने के कारण चंद्रमा के चारों ओर एक वृत्त या घेरा सा बन जाना । चाँद का खेत करना = चंद्रोदय का प्रकाश क्षितिज पर दिखई पड़ना । चंद्रमा के निकलने के पहले उसकी आभा का फैलना । चाँद का टुकड़ा होना = अत्यंत सुंदर होना । चाँद चढ़ना = चंद्रमा का ऊपर आना । चाँद दीखे = शुक्ल द्रितीया के पीछे । जैसे,—चाँद दीखे आना, तुम्हारा हिसाब चुकता हो जायग । चाँद पर यूकना = किसी महात्मा पर कलंक लगाना, जिसके कारण स्वयं अपमानित होना पड़े । विशेष—ऊपर की ओर थूकने से अपने ही मुँह पर थूक पड़ता है, इसी से यह मुहावरा बना है । चाँद पर धूल डालना=किसी निर्दोंष पर कलंक लगाना । किसीसाधु या महात्मा पर दोषारोपण करना । चांदसा मुखड़ा होना = अत्यत सुंदर मुख होना । किधर चांद निकला है = आज कैसे दिखाई पड़े ? क्या अनहोनी बात हुई जो आप दिखाई पड़े ? विशेष—जब कोई मनुष्य बहुत दिनों पर दिखाई पड़ता है, तब उसके प्रति इ स मुहावरे का प्रयोग किया जाता है । २. चांद्रमास । महीना । उ०—एक चांद के अंदरै तुम्हें आवना रास । यह लिखि सुतुर सवार को भेजो दखिनिन पास ।— सूदन (शब्द०) । क्रि० प्र०—चढ़ना । ३. द्रितीया के चंद्रमा के आकार का एक आभूषण । ४. ढाल के ऊपर की गोल फुलिया । ढाल के ऊपर जड़ा हुआ गोल फूलदार काँटा । चाँदमारी का वह काला दाग जिसपर निशाना लगाया जाता है । ६. टीन आदि चमकीली वस्तुओं का वह गोल टुकड़ा जो लंप की चिमनी के पीछे प्रकाश बढ़ाने के लिये लगा रहता है । कमरखी । ७. घोड़े के सिर की एक भोंरी का नाम । ८ । एक प्राकर का गोदना जो स्त्रियों की कलाई के ऊपर गोदा जाता है । ९. भालू की गरदन में नीचे की ओर सफेद बालों का एक घेरा ।—(कलंदर) ।

चाँद (२)
संज्ञा स्त्री० १. खोपड़ी का मध्य भाग । खोपड़े का सबसे ऊँचा भाग । २. खोपड़ी । मुहा०—चाँद गंजी करना या चाँद पर बाल छोड़ना = (१) सिर पर इतने जूते लगाना कि बाल झड़ जायँ । सिर पर खूब जूते लगाना । (२) खूब मूँड़ना । सर्वस्व हरण करना । कुछ ले लेना ।

चाँदतारा
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद + तार] १. एक प्रकार की बारीक मलमल जिसपर चाँद और तारों के आकार की बूटियाँ होती हैं । २. एक प्रकार की पतंग या कनकौवा जिसमें रंगीन कागज के चाँद और तारे चिपके होते हैं ।

चाँदना
संज्ञा पुं० [हिं० चाँद] १. प्रकाश । उजाला । २. चाँदनी ।

चाँदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद] १. चंद्रमा का प्रकाश । चंद्रमा का उजाला । चंद्रिका । ज्योत्स्ना । कौमुदी । यौ०—चाँदनी का खेत = चंद्रमा का चारों ओर फैल हुआ प्रकाश । चाँदनी रात =वह रात जिसमें चंद्रमा का प्रकाश हो । उजाली रात । शुक्ल पक्ष की रात्रि । मुहा०—चाँदनी खिलना या छिटकना = चंद्रमा के स्वच्छ प्रकाश का खूब फैलना । शुभ्र ज्योत्स्ना का फैलना । चाँदनी मारना = (१) चाँदनी का बुरा प्रभाव पड़ने के कारण घाव या जखम का अच्छा न होना । (कुछ लोगों में यह प्रवाद प्रचलित है कि घाव पर चाँदनी पड़ने से वह जल्दी अच्छा नहीं होता ।) (२) चाँदनी पड़ने के कारण घोड़ों को एक प्रकार का आकस्मिक रोग हो जाना, जिससे उनका शरीर ऐंठने लगता है और वे तड़प तड़पकर मर जाते हैं । कहते हैं, यह रोग किसी पुरानी चोट के कारण होता । चार दिन की चाँदनी है = थोड़े दिन रहनेवाला सुख या आनंद है । क्षणिक समृद्धि है । २. बिछाने की बड़ी सफेद चद्दर । सफेद फर्श । ३. ऊपर तानने का सफेद कपड़ा । छतगीर । ४. गुलचाँदनी । तगर ।

चाँदमारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद + मारना] बंदूक का निशाना लगाने का अभ्यास । दीवार या कपड़े पर बने हुए चिह्नों को लक्ष्य करके गोली चलाने का अभ्यास ।

चाँदला †
सं० [हिं० चाँद] १. (दूज के चंद्रमा के समान) टेढ़ा । वक्र । कुटिल । २. दे० 'चँदला' ।

चाँदनी वस्त्र पु
संज्ञा पुं० [हिं० चाँदनी + सं० वस्त्र] सफेद बारीक मलमल । उ०—राधे निरखति चाँदनी पहिरी चाँदनीवस्त्र । बदन-चंद्रिका-चाँदनी चतुरानन कौ अस्त्र ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १८ ।

चाँदवाला
संज्ञा पुं० [हिं० चाँद + बाला] कान में पहनने का एक प्रकार का बाल जो अर्ध चंद्राकार होता है ।

चाँद सूरज
संज्ञा पुं० [हिं० चाँद + सूरज] एक प्रकार का गहना जिसे स्त्रियाँ चोटी में गूँथकर पहनती हैं ।

चाँदा
संज्ञा पुं० [हिं० चाँद] १. वह लक्ष्य स्थान जहाँ दूरबीन लगाई जाती है । २. पैमाइश या भूमि की माप में वह विशेष स्थान जिसकी दूरी को लेकर हदबंदी की जाती है । ३. छप्पर का पाखा । ४. एक लकड़ी का पटरा जिसपर अभ्यास के लिये निशान बने रहते हैं । ५. ज्यामिति न्म प्रयुक्त होनेवाला एक उपकरण जो चंद्रमा की आकृति का होता है और कोण बनाने या नापने के काम आता है ।

चाँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँद] १. एक सफेद चमकीली धातु जो बहुत नरम होती है । इसके सिक्के, आभूषण और बरतन इत्यादि बनते हैं । विशेष—यह खानों में कभी शुद्ध रूप में कभी दूसरे खनिज पदार्थों में गंधक, संखिया सुरमे आदि के साथ मिली हुई पाई जाती है । इसका गुरुत्व सोने के गुरुत्व का आधा होता है । इसका अम्लक्षार बड़ी कठिनता से बनता है । चाँदी के अम्लक्षार को नौसादर के पानी में घोलकर सुखाने से ऐसा रासायनिक पदार्थ तैयार होता है, जो हलकी रगड़ से भी बहुत जोर से भड़कता है । वैद्य लेग इसे भस्म करके रसौषध बनाते हैं । हकीम लोग भी इसका वरक रोगियों को देते हैं । चाँदी का तार बहुत अच्छा खिंचता है जिससे कारचोबी के अनेक प्रकार के काम बनते हैं । चाँदी से कई एक ऐसे क्षार बनाए जाते हैं, जिनपर प्रकाश का प्रभाव बड़ा विलक्षण पड़ता है । इसी से उनका प्रयोग फोटोग्राफी में होता है । पर्या०—रौप्य । रजत । चामीकर । यौ०—चाँदी का जूता = वह धन जो किसी को अपने अनुकूल या वश में करने को दिया जाता है । जैसे,—घूस इनाम आदि । चाँदी का पहरा = सुख समृद्धि का समय । सौभाग्य की दशा । धनधान्य की पूर्णता की अवस्था । मुहा०—चाँदी कर ड़ालना या देना = जला कर राख कर ड़ालना जैसे,—तुम तो तमाकू को चाँदी कर ड़ालते हो, तब दूसरे को देते हो । चाँदी काटना = (१) खूब रुपया पैदा करना ।खूब माल मारना । (२) स्त्री से प्रथम समागम करना । सुंदर स्त्री से प्रथम समागम करना । २. धन की आय । आर्थिक लाभ । उ०—आजकल तो उनकी चाँदी है । ३. खोपड़ी का मध्य भाग । जाँद । चँदिया । मुहा०—चाँदी खुलवाना = चाँद के ऊपर बाला मुड़ाना । ४. एक प्रकार की मछली जो दो या तीन इंच लंबी होती है ।

चाँप (१)
संज्ञा पुं० [सं० चाप] दे० 'चाप' ।

चाँप (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपना] १. चँप या दब जाने का भाव । दबाब । २. रेल पेल । धक्का : उ०—कोई काहू न सम्हारै होत आप तस चाँप । धरति आपु कहै काँपै सग्ग आपु कहँ काँप । —जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना । २. बंदूक का वह पुरजा जिसके द्वारा कुंदे से नली जुड़ी रहती है । ३. पैर की आहट । पैर जमीन पर पड़ने का शब्द । वि० दे० 'चाप' ।

चाप (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सोने की वे कीलें जिन्हें लोग अगले दाँतों पर जड़वाते हैं ।

चाँप (४) पु
संज्ञा पुं० [हिं० चंपा] चंपा का फूल । उ०—कोई परा भँवर होय बास कीन जनु चाँप । कोइ पतंग भा दीपक कोइ अधजर तन काँप ।—जायसी (शब्द०) ।

चाँपना
क्रि० स० [सं० चपन (= माँड़ना)] १. दबाना । मोड़ना । उ०—बड़ भागी अगद हनुमान । चाँपत चरणकमल विधि नाना ।—तुलसी (शब्द०) । २. जहाज का पानी निकलने के लिये पंप का पेंच चलाना ।—(लश०) ।

चाँपर
वि० [सं० चपल] दे० 'चपल' । उ०—तागो तेसी तोड़ बंधन कोई बाँधै नहीं । चापर चल्यो चहोड़ सरहट हक में मीरिया ।—राम० धर्म०, पृ० ७१ ।

चाँपाकल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँपना + कल] वह कल या मशीन जिससे हाथ से दबाकर पानी निकालते हैं ।

चाँयँचाँयँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] व्यर्थ की बकवाद । बकबक । क्रि० प्र०—करना । मचाना ।

चाँवँचाँवँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'चाँय चाँय' ।

चाँवर (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० चमार] दे० 'चँवर' । उ०—चित चाँवर हेत हरि ढारै दीपक ज्ञान हरि जोति बिचारै ।—दादू०, पृ० ६९८ ।

चाँवर (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० चावल] [स्त्री० चाँवरी] दे० 'चावल' । उ०—(क) सो एक दिन वह बाई अपने घर में बैठी चाँवर बीनत हती ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१७ । (ख) तिल चाँवरी बतासे मेवा दियौ कुँवरि की गोद ।—सूर० १० । ७०४ ।

चा
संज्ञा स्त्री० [चीनी० चा] दे० 'चाय' ।

चाइ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रा० चय,] शरीर । देह । उ०—सा पंजर दिय राज बर । सस्त्र लगै नहिं चाइ ।—पृ० रा० २५ । ५२५ ।

चाइ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चाय] उमंग । उ०—किय हाइलु चित— चाइ लगि बजि पाइल तुव पाइ । पुनि सुनि सुनि मुँह मधुर धुनि क्यों न लालु ललचाइ ।—बिहारी र०, दो० २१२ ।

चाउ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चाव] दे० 'चाव' ।

चाउर †
संज्ञा पुं० [हिं० चावल] दे० 'चावल' ।

चाऊ (१) पु
संज्ञा पुं० [हिं० चाव] दे० 'चाव' ।

चाऊ (२)
संज्ञा पुं० [देश०] ऊँट या बकरे का बाल ।—(पहाड़ी) ।

चाक
संज्ञा पुं० [सं० चक्र, प्रा० चक्क] १. पहिए की तरह का वह गोल (मंडलाकार) पत्थर जो एक कील पर घूमता है और जिसपर मिट्टी का लोंदा रखकर कुह्मार बरतन बनाते हैं । कुलालचक्र । विशेष—इसके किनारे पर एक जगह रुपए के बराबर एक छोटा सा गड्ढा होता है जिसे कुह्मार 'चित्ती' कहते हैं । इसी चित्ती में डंडा अटकाकर चाक घुमाते हैं । २. गाडी या रथ का पहिया । उ०—विविध कता के लगे रताके छुवैं जे रविरथ जाके ।—रघुराज (शब्द०) । ३. चरखी जिसपर कुएँ से पानी खींचने की रस्सी रहती है । गराड़ी । घिरनी । ४. मिट्टी की वह गोल घरिया जिसमें मिस्त्री जमाते हैं । ५. थापा जिससे खलियान की राशि पर छापा लगाते हैं । वि० दे० 'चाकना' । ६. सान जिसपर छुरी, कटार आदि की धार तेज की जाती है । ७. ढेंकली के पिछले छोर पर बोझ के लिये रखी हुई मिट्टी की पिंडी । ८. मिट्टी का वह बरतन जिससे ऊख का रस कड़ाह में पकने के लिये डाला जाता है । ९. मंडलाकार चिह्न की रेखा । गोंड़ला ।

चाक (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. दरार । चीर । मुहा०—चाक करना देना = चीरना । फाड़ना । चाक होना = चीर जाना । फाड़ जाना । २. आस्तीन का खुला हुआ मोहरा । यौ०— चाके गरेबाँ = गरेबान का खुला हुआ भाग ।

चाक (३)
वि० [तु० चाक] १. दृढ । मजबूत । पुष्ट । २. हृष्ट पुष्ट । तदुरुस्त । यौ०—चाक चौबद = (१) हृष्ट पुष्ट । तगड़ा । (२) चुस्त । चालाक । फुरतीला । तत्पर ।

चाक (४)
संज्ञा पुं० [अं०] खरिया । मिट्टी । दुद्धी । यौ०—चाक प्रिंटिंग = एक प्रकार की सफेद रंग की छपाई जो प्रायः पुस्तकों के टायटिल पेज (आवरणपत्र) आदि पर होता है । इसकी स्याही खरिया के योग से बनती है ।

चाकचक
वि० [तु० चाक + अनु० चक] चारों ओर से सुरक्षित । दृढ़ । मजबूत । उ०—चाकचक चमूके अचानक चहूँ ओर चाकसी फिरत धाक चंपति के लाल की ।—भूषण (शब्द०) ।

चाकचक्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमक दमक । चमचमाहट । उज्वलता । २. शोभा । सुंदरता ।

चाकचिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चाकचक्य' [को०] ।

चाकचिच्चा
देश० स्त्री० [सं०] बनतिक्ता यो श्वेतबुह्रा नाम का एक विशेष पौधा [को०] ।

चाकट †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कड़ा जो हाथ में पहना जाता है ।

चाकदिल
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का बुलबुल ।

चाकना
क्रि० स० [हिं० चाँक] १. सीमा बाँधने के लिये किसी वस्तु को रेखा या चिह्न खींचकर चारों ओर से घेरना । हद खींचना । उ०—सकल भुवन शोभा जनु चाकी ।—तुलसी (शब्द०) २. खलियान में अनाज की राशि पर मिट्टी या राख से छाप लगाना जिसमें यदि अनाज निकला जाय, तो मालूम हो जाय । उ०—तुलसी तिलोक की समृद्धि सौंज संपदा सकेलि चाकि राखी राशि जाँगरु जहान भो ।—तुलसी (शब्द०) । ३. पहचान के लिये किसी वस्तु पर चिह्न डालना ।

चाकर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] [स्त्री० चाकरनी] दास । भृत्य । सेवक । नौकर ।

चाकरनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाकर + नी (प्रत्य०)] दे० 'चाकरनी' ।

चाकरानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाकर + आनी (प्रत्य०)] नौकरानी । दासी । लौंड़ी ।

चाकरी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] सेवा । नौकरी । टहल । खिदमत । क्रि० प्र०—करना । मुहा०—चाकरी बजाना = सेवा करना । खिदमत करना ।

चाकल †
वि० [हिं० चकला] दे० 'चकला' ।

चाकलेट
संज्ञा पुं० [अं०] १. ककाओ के बीज को पीसकर तैयार किया गया पदार्थ । २. इस पदार्थ के योग से बनी मिठाई या मधुर पेय पदार्थ । एक विशेष विदेशी मिठाई । ३. सुंदर लड़का जिसके साथ प्रकृतिविरुद्ध संभोग किया जाय । लौंडा ।

चाकसू
संज्ञा पुं० [सं० चक्षुष्या] १. बमकुलथी का पौधा । २. बनकुलथी का बीज । विशेष—ये बीज बहुत छोटे और काले होते हैं । औषध के रूप में ये पीसकर आँख में डाले जाते हैं । ३. निर्मल का वृक्ष या बीज ।

चाका
संज्ञा पुं० [हिं० चाक] १. दे० 'चाक' । २. पहिया ।

चाकि पु
संज्ञा पुं० [हिं० चाक] दे० 'चाक' । उ०—कबीर हरि रस यौं पिया बाकी रही न थकि । पाका कलस कुँभार का बहुरि न चढ़ई चाकि ।—कबीर ग्रं०, पृ० १६ ।

चाकी (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाक] आटा पीसने का यंत्र । चक्की ।

चाकी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चक्र] १. बिजली । वज्र । क्रि० प्र०—गिरना ।—पड़ना । २. पटे की एक चोट जो सिर पर की जाती है ।

चाकू
संज्ञा पुं० [तु० चाकू] कलम, फल तथा छोटी मोटी चीजों को काटने, छीलने आदि का औजार । छुरी ।

चाक्र
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चाक्री] १. चक्र संबंधी । २. चक्र की आकृतिवाला । ३. जिसमें पहिए लगे हों (गाड़ी) । ४. चक्र द्वारा किया जानेवाला (युद्ध) [को०] ।

चाक्रायण
संज्ञा पुं० [सं०] चक्र नामक ऋषि के वंशधर जिनका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद् में है ।

चक्रिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरों की स्तुति गानेवाला । चारण । भाट । विशेष—याज्ञवल्क्य स्मृति में चाक्रिक के अन्नभोजन का निषेध है । २. तेली । ३. गाड़ीवान । ४. कुह्मार । ५. अनुचर । सहचर ।

चाक्रिक (२)
वि० [वि० स्त्री चाक्रिकी] १. चक्राकार । २. चक्र संबंधी । ३. किसी चक्र या मंडली से संबंध रखनेवाला ।

चक्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक फूल का नाम ।

चक्रिण
संज्ञा पुं० [सं०] तेली या कुह्मार का लड़का [को०] ।

चाक्रेय
वि० [सं०] चक्र संबंधी [को०] ।

चाक्षुष (१)
वि० [सं०] १. चक्षु संबंधी । २. आँख से देखने का । जिसके बोध नेत्र से हो । चक्षुर्ग्राह्य ।

चाक्षुष (२)
संज्ञा पुं० १. न्याय में प्रत्यक्ष प्रमाण का एक भेद । ऐसा प्रत्यक्ष जिसका बोध नेत्रों द्वारा हो । २. छठे मनु का नाम । विशेष—भागवत के मत से ये विश्वकर्मा के पुत्र थे । इनकी माता का नाम आकृति और स्त्री का नाम नद्वला था । पुरु कृत्स्न, अमृत, द्यमान्, सत्यवान्, धृत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिवि और उल्लुक इनके पुत्र थे । जिस मन्वंतर के ये स्वामी थे, उसके इंद्र का नाम मंध्रद्रुम था । मत्स्यपुराण में पुत्रों के नामों में कुछ भेद है । मार्कंडेय पुराण में चाक्षुष मनु की बड़ी लंबी चौड़ी कथा आई है । उसमें लिखा है कि अनमित्र नामक राजा को उनकी रानी भद्रा से एक पुत्र उत्पन्न हुआ । एक दिन रानी उसपुत्र को लेकर प्यार कर रही थी । इतने में पुत्र एकबारगी हँस पड़ा । जब रानी ने कारण पूछा, तब पुत्र ने कहा—मुझे खाने के लिये एक बिल्ली ताक में बैठी है । मैं तुह्मारी गोद में ८-९-दिन से अधिक नहीं रहने पाऊँगा, इसी से तुम्हारा मिथ्या प्रेम देखकर मुझे हँसी आई । रानी यह सुनकर बहुत दुखी हुई । उसी दिन विक्रांत नामक राजा की रानी को भी एक पुत्र हुआ था । भद्रा कौशल से अपने पुत्र को विक्रांत की रानी की चारपाई पर रखआई और उसका पुत्र लाकर आप पालने लगी । विक्रांत राजा ने उस पुत्र का नाम आनंद रखा । जब आनंद का उपनयन होने लगा, तब आचार्य ने उसे उपदेश दिया 'पहले अपनी माता की पूजा करो' । आनंद ने काहा—मेरी माता तो यहाँ है नहीं; अतः जिसने मेरा पालन किया है, उसी की पूजा करता हूँ' । पूछने पर आनंद ने सब व्यवस्था कह सुनाई । पीछे राजा और रानी को ढारस बँधाकर वे स्वयं तपस्या करने लगे । आनंद की तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा ने उसे मनु बना दिया और उसका नाम चाक्षुष रखा । ३. स्वायंभुव मनु के पुत्र का नाम । ४. चौदहवें मन्वतर के एक देव गण का नाम ।

चाक्षुषयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदर दृश्यों को देखकर तृप्त होने की क्रिया का भाव । नाटक आदि देखना [को०] ।

चाख
संज्ञा पुं० [सं० चाष] दे० 'चाष' ।

चाखनहार
वि० [हिं० चाखना + हार (प्रत्य०)] १. चखनेवाला । खानेवाला । २. रस लेनेवाला । उ०—दारिंव दख लेहिं रस, विरसहि आँव सहार । हरिअर तन सुवटा कर जो अस चाखन- हार ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४९ ।

चाखना †
क्रि स० [हिं० चखना] दे० 'चखना' ।

चाखुर † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] घास जो खेतों की निराई करके निकाली गई हो ।

चाखुर † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चेखुर] गिलहरी ।

चाचपुट
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के ६० मुख्य भेदों में से एक । इसमें एक गुरु, एक लघु और एक लुप्त स्वर होता है ।

चाचर पु †
संज्ञा पुं० [देशी चड (शिखा), तुलनीय हिं० टाँटर] मस्तक । उ०—अवतारी छात नमो अवधेसर सझतोवाला प्रतसमैं चरणाँ नहीं नमायो चाचर नर वे अवराँ चरण नमैं ।—रघु० रू०, पृ० २५१ ।

चाचर, चाचरि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० चंर्चरी] १. होली में गाया जानेवाला एक प्रकार का गीत । चर्चर राग जिसके अंतर्गत होली, फाग, लेद आदि माने जाते है । उ०—तुलसिदास चाचरि मिस कहै राम गुन ग्राम ।—तुलसी (शब्द०) । २. होली में होनेवाले खेल तमाशे । होली का स्वाँग और हुल्लड़ । होली की धमार । हर्षक्रीड़ा । उ०—(क) श्रुति, पुराण बुध सम्मत चाचरि चरित मुरारि ।—तुलसी । (ख) तैसी ये बसंत पाँचैं चाय सों चाचरि माचै, रंग राचै कीच माचै केसर के नीर की ।—देव (सब्द०) । ३. उपद्रव । दंगा । हलचल । हल्ला गुल्ला । ४. युद्धक्षेत्र । क्रि० प्र०—मचना ।—मचाना ।

चाचरी
संज्ञा स्त्री० [सं० चर्चरी] योग की एक मुद्रा । उ०— महदाकाश चाचरी मुद्रा शक्ती जाना ।—कबीर (शब्द०) ।

चाचा
संज्ञा पुं० [सं० तात] [स्त्री० चाची] काका । पितृव्य । बापा का भाई । वि० दे० 'चचा' ।

चाची
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाचा] चाचा की स्त्री । काकी ।

चाट
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाटना] १. चटपटी चीजों के खाने या चाटने की प्रबलइच्छा । स्वाद लेने की इच्छा । मजे की चाह । २. एक बार किसी वस्तु का आनंद लेकर फिर उसी का आनंद लेने की चाह । चकसा । शौक । लालसा । क्रि० प्र०—लगना । ३. प्रबल इच्छा । कड़ी चाह । लोलुपता । जैसे,—तुम्हें तो बस रुपए की चाट लगी है । क्रि० प्र०—लगना ।—होना । ४. लत । आदत । चेव । धत । ५. मिर्च, खटाई, नमक आदि डालकर बनाई हुई चरपरे स्वाद की वस्तु । चरपरी और नमकीन काने की चाजें । गजक । जैसे, सेव, दही बड़ा, दालमोट इत्यादि । ऐसी चाजें शराब पीने के पीछे ऊपर से भी खाई जाती हैं । जैसे,—चाट की दुकान ।

चाट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्वासघाती चोर । वह जो किसी का विश्वासपात्र बनकर उसका धन हरण करे । ठग । विशेष—स्मृतियों में ऐसे व्यक्ति का दंडविधान है । २. उचक्का । चाँई । उ०—चाट, उचाट सी चेटक सी चुटकी भ्रुकुटीन जम्हाति अमेठी ।—देव (शब्द०) ।

चाटक पु †
वि० [हिं० चटक] दे० 'चटक' । उ०—लोकचार चाटक दिन चारी ।—चरनी०, पृ० ४४ ।

चाट की टँगड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कुश्ती का एक पेंच जो उस समय काम में लाया जाता है जब प्रतिपक्षी (जोड़) पहलवान के पेट के नीचे घुस आता है और अपना बायाँ हाथ उसकी कमर पर लेता है । विशेष—इसमें पहलवान अपने बाएँ हाथ से प्रतिपक्षी का बायाँ हाथ (जो पहलवान की कमर पर होता है) दबाते हुए उसकी दाहिनी कलाई को पकड़ता है और अपना दाहिना हाथ और पैर बढ़ाकर बाई जाँघ और पिंडली पर धक्का मारकर उसे गिरता है ।

चाटना
क्रि० स० [अनु० चट चट (= जीभ चटने का शब्द०)] १. खाने या स्वाद लेने के लिये किसी वस्तु को जीभ से उठाना । किसी पतली या गाढ़ी चीज को जीभ से पोंछकर मुँह में लेना । जीभ लगाकर खाना । जैसे,—शहद चाटना, अवलेह चाटना । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।—डालना । २. पोंछकर खा लेना । चट कर जाना । जैसे,—इतना हलुआ था, सब चाट गए । मुहा०—चाट पोंछकर खाना = सब खा जाना । कुछ भी न छोड़ना । ३. (प्यार आदि से) किसी वस्तु पर जीभ फेरना । जैसे,— गाय अपने बछडे़ को चाट रही है । यौ०—चूमना चाटना = प्यार करना । ४. कीड़ों का किसी वस्तु को का जाना । जैसे, जितना कागज था, सब दीमक चाट गए । ५. धन संपति बेच डालना । ६. खुशामद करना ।

चाटपुट
संज्ञा पुं० [सं०] तबले का एक ताल । दे० 'चाचपुट' ।

चाटनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाटना] चाटने का कार्य । उ०— चुषनि, चुषावनि, चाटनि चूमनि । नहि कहि परति प्रेम की घूरनि ।—नंद० ग्रं०, पृ० २६६ ।

चाट
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० अल्पा० चाटी] वह बरतन जिसमें कोल्हू का पेरा हुआ रस इकट्ठा होता है । नाँद ।

चाटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मिट्टी की मटकी जिसका दल खूब मोटा हो ।

चाटु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मीठी बात । प्रिय बात । उ०—घनआनँद जीवन प्रान सुजान तिहारियै बातनि जीजिऐ जू । नित नीके रहौ तुम चाटु कहाय असीस हमारियौ लीजियै जू ।— रसखान०, पृ० ५६ । २. झूठी प्रशंसा या विनय से भरी हुई ऐसी बात जो केवल दूसरे के प्रसन्न या अनुकूल करने के लिये कही जाय । खुशामद । चापलूसी ।

चाटुक
संज्ञा पुं० [सं०] मीठी बात [को०] ।

चाटुकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. खुशामद करनेवाला । झूठी प्रशंसा करनेवाला । चापलूस । खुशामदी । २. वृहत्संहिता के अनुसार सोने के तार में पिरोए मोतियों की वह माला जिसके बीच में एक तरलक मणि हो ।

चाटुकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० चाटुकार + हिं० ई (प्रत्य०)] झूठी प्रशंसा या खुशामद करने का काम । चापलूसी ।

चाटुता
संज्ञा स्त्री० [सं० चाटु + ता (प्रत्य०)] दे० 'चाटुकारी' ।

चाटुपटु
संज्ञा पुं० [सं०] भंड । भाँड़ ।

चाटुबटु, चाटुवटु
संज्ञा पुं० [सं०] विदूषक । जोकर । भाँड़ [को०] ।

चाटुलोल
वि० [सं०] १. चाटुकार । कुशल चाटुकार । २. खूब— सूरती से हिलनेवाला [को०] ।

चाटूक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाटुकारिता । चापलूसी । उ०—कथा क्रूरता ही पुरुषार्थ का परिचय है ? ऐसी चाटूक्तियाँ भावी शासक को अच्छा नहीं बनातीं ।—अजात०, पृ० २४ ।

चाटुल्लोल
वि० [सं०] दे० 'चाटलोल' [को०] ।

चाठ
संज्ञा पुं० [देश०] खाद्य वस्तु । वि० दे० 'चाट' । उ०—परनिंदा आठूँ पहर चाटै विष री चाट । क्यों नँह तुम प्राणी करै पंच रतन रो पाठ ।—बाँकी ग्रं०, भाग ३, पृ० २५ ।

चाठा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'चाटा' । उ०—ल्यौकी लेज पवन का ढींकू मन मटका ज बनाया । सत की पाटि सुरति का चाठा सहजि नीर मुकलाया ।—कबीर ग्रं०, पृ० १६१ ।

चाड़ (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाँड़ सं० चण्ड (= प्रबल)] गहरी चाह । चाव । प्रेम । वि० दे० 'चाँड़' । उ०—(क)हित पुनीत सब स्वारथहि अरि अशुद्ध बिन चाड़ । निज मुख मारिकसम दसन भूमि परे ते हाड़ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) कुच गिरि चड़ि अति ह्वै चली दीठि मुख गाड़ । फिरि न ढरी परियै रही परी चिबुक के गाड़ ।—बिहारी (शब्द०) । (ग) काहे को काहु को दीजै उराहनो ईवै इहाँ हम आपनी चाड़ैं ।—(शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।

चाड़ (२) पु
वि० [सं० चाटु, प्रा० चाडु] चुगलखोर । उ०—साह दुकानाँ चोरटा, साहब कांनां चाड़ । लागे वित मत हर लिए, बे शोभा का फाड़ ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५० ।

चाड़िला
वि० [हिं० चाँडिला] दे० 'चाँड़िला' ।

चाड़ी †
संज्ञा स्त्री० [सं० चाटु] पीठ पीछे की निंदा । चुगली । क्रि० प्र०—खाना ।

चाडू पु †
वि० [सं० चण्ड, हिं० चाँड़ (= तेज)] तेज प्रखर । अधिक । उ०—मान न करु तोरा करु लाडू । मान करत रिस मानै चाडू ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त) पृ० ३२६ ।

चाढ़ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाह] १. इच्छा । २. प्रेम । ममता ।

चाढ़ † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चढ़ना] चढ़ाई ।

चाढ़ा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चाढ़] [स्त्री० चाढ़ी] १. प्रेमपात्र । प्यार । प्रिय । उ०—धन्य धन्य भक्तन के चाढे ।—सूर (शब्द०) । २. चाहनेवाला । प्रेमी । आशिक । आसक्त । उ०—(क) तुम हम पर रिस करति हौ हम हैं तुव चाढे़ । निठुर भई हौं लड़िली कब के हम ठाढे़ ।—सूर (शब्द०) (ख) दिन खोरी भोरी अति कोरी देखत ही जु श्याम भए चाढे़ ।—सूर (शब्द०) ।

चाणक
संज्ञा पुं० [सं० चाणक्य] १. ईर्ष्या । २. धूर्तता । चाल । दगाबाजी । होशियारी । उ०—आगे चाणन के तड़ाके लगाए हैं ।—सुन्दर ग्रं०, पृ० ५६ ।

चाणक्य
संज्ञा पुं० [सं०] चणक ऋषि के वंश में उत्पन्न एक मुनि जिसके रचे हुए अनेक नीति ग्रंथ प्रचलित हैं । ये पाटलिपुत्र के सम्राट् चंद्रगुप्त के मंत्री थे और कौटिल्य नाम से भी प्रसिद्ध हैं । मुद्राराक्षस के अनुसार इनका असली नाम विष्णु गुप्त था । विशेष—विष्णुपुराण, भागवत आदि पुराणों तथा कथासरित्सागर आदि संस्कृत ग्रंथों में तो चाणक्य का नाम आया ही है, बौद्ध ग्रंथो में भी इसकी कथा बराबर मिलती है । बुद्धघोष की बनाई हुई विनयपिटक की टिका तथा महानाम स्थविर- रचित महावंश की टीका में चाणक्य का वृत्तांत दिया हुआ है । चाणक्य तक्षशिला (एक नगर जो रावलापिंडी के पास था) के निवासी थे । इनके जीवन की घटनाओं का विशेष संबंध मौर्य चंद्रगुप्त की राज्यप्राप्ति से है । ये उस समय के एक प्रसिद्ध विद्वान थे, इसमें कोई संदेह नहीं । चद्रगुप्त के साथ इनकी मैत्री की कथा इस प्रकार है । पाटलिपुत्र के राजा नंद या महानंद के यहाँ कोई यज्ञ था । उसमें ये भी गए और भोजन के समय एक प्रधान आसन पर जा बैठे । महाराज नंद ने इनका काला रंग देख इन्हें आसन पर से उठवा दिया । इसपर क्रुद्ध होकर इन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जबतक मैं नंदों का नाश न कर लूँगा तबतक अपनी शिखा न बाँधूँगा । उन्हीं दिनों राजकुमार चंद्रगुप्त राज्य से निकाले गए थे । चद्रगुप्त ने चाणक्य से मेल किया और दोनों आदमियों ने मिलकर म्लेच्छ राजा पर्वतक की सेना लेकर पटने पर चढ़ाई की और नंदों को युद्ध में परास्त करके मार डाला । नंदों के नाश के संबंध में कई प्रकार की कथाएँ हैं । कहीं लिखा है कि चाणक्य ने शकटार के यहाँ निर्माल्य भेजा जिसे छूते ही महानंद और उसके पुत्र मर गए । कहीं विषकन्या भेजने की कथा लिखी है । मुद्राराक्षस नाटक के देखेने से जाना जाता है कि नंदों का नाश करने पर भी महानंद के मंत्री राक्षस के कौशल और नीति के कारण चंद्रगुप्त को मगध का सिंहासन प्राप्त करने में बड़ी बड़ी कठिना- इयाँ पडीं । अंत में चाणक्य ने अपने नीतिबल से राक्षस को प्रसन्न किया और चंद्रगुप्त को मंत्री बनाया । बौद्ध ग्रंथो में भी इसी प्रकार की कथा है, केवल महानंद के स्थान पर धननंद है (दे० 'चंद्रगुप्त') । चाणक्य के शिष्य कामंदक ने अपने 'नीतिसार' नामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकरनीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला । चाणक्य का 'अर्थशास्त्र' संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है । इसके नीति के श्लोक तो घर घर प्रचलित हैं । पीछे से लोगों ने इनके नीति ग्रंथों से घटा बढाकर वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य, बोधिचाणक्यआदि कई नीतिग्रंथ संकलित कर लिए । चाणक्य सब विषयों के पंडित थे । 'विष्णु गुप्त सिद्धांत' नामक इनका एक ज्योतिष का ग्रंथ भी मिलता है । कहते हैं, आयुर्वेद पर भी इनका लिखा वैद्यजीवन नाम का एक ग्रंथ है । न्याय भाष्यकार वात्स्यायन और चाणक्य को कोई कोई एक ही मानते हैं, पर यह भ्रम है जिसका मूल हैमचंद का यह श्लोक है वात्स्या- यन मल्लनागः, कौटिल्यश्चणकात्मजः । द्रामिलः पक्षिलस्वामी विष्णु गुप्तो/?/ङ्गु लश्च सः ।

चाणाक्ष
वि० [सं० चण्ड, हिं० चाँड़ = तेज + अक्ष] तेज निगाहवाला ।

चाणूर
संज्ञा पुं० [सं०] कंस का एक मल्ल जिसे धनुषयज्ञ के समय श्रीकृष्ण ने मारा था ।

चाणूरमर्दन, चाणूरसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण [को०] ।

चातक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० चातकी] एक पक्षी जो वर्षाकाल में बहुत बोलता है । पपीहा । वि० दे० 'पपीहा' । विशेष—इस पक्षी के विषय में प्रसिद्ध है कि यह नदी, तड़ाग आदि का संचित जल नहीं पीता, केवल बरसात हुआ पानी पीता है । कुछ लोग यहाँ तक कहते हैं कि यह केवल स्वाती नक्षत्र की बूँदों ही से अपनी प्यास बुझाता है । इसी से यह मेघ की ओर देखता रहता है और उससे जल की याचना करता है । इस प्रवाद को कवि लोग अपनी कविता में बहुत लाए हैं । तुलसीदास जी ने तो अपनी सतसई में इसी चातक को लेकर न जाने कितनी सुंदर उक्तियाँ कही हैं । पर्या०—स्तोकक । सारंग । मेघजीवन । तोकक । यौ०—चातकनंदवर्धन = (१) मेघ । बादल । (२) वर्षाकाल ।

चातकनी
संज्ञा स्त्री० [सं० चातक + हिं० नी (प्रत्य०)] चातकी । पपीहरी । उ०—मैं न चाहती तब वह हार, करे, जननि ! मेरा शृंगार । पर मैं ही चातकनी बनकर तुझे पुकारूँ बारंबार ।—पल्लव, पृ० १०१ ।

चातकानंदन
संज्ञा पुं० [सं० चातकानन्दन] १. वर्षाकाल । २. मेघ ।

चातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मादा पपीहा । माता चातक ।

चातर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चादर] १. मछली पकड़ने का बड़ा जाल । २. षड्यंत्र । साजिश ।

चातर (२) †
वि० [सं० चातपर या चतुर] दे० 'चातुर' या 'चतुर' ।

चातुरंत
वि० [सं० चातुरन्त] चारो तरफ से चार समुद्रों से निर्धारित होनेवाली (भूमि की सीमा) । उ०—मौर्य चातुरंत राज्य की नीति और संगठन । भा० इ० रू०, पृ० ६३७ ।

चातुर (१)
वि० [सं०] १. नेत्रगोचर । २. चतुर । ३. खुशामदी । चापलूस ।

चातुर (२)
संज्ञा पुं० १. गोल तकिया या मसनद । २. चार पहियों की गाड़ी ।

चातुरई †
संज्ञा स्त्री० [सं० चातुर + हिं० ई (प्रत्य०), अथवा सं० चतुरी, हिं० चतुराई] दे० 'चतुराई' । उ०—ज्यों कुच त्यों ही नितंब चढे़ कछु त्यों ही नितंब त्यों चातुराई सी ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८३ ।

चातुरक (१)
वि० [सं०] 'चातुर' [को०] ।

चातुरक (२)
संज्ञा पुं० दे० 'चातुर' [को०] ।

चातुरक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार पासों का खेल । २. छोटा गोला तकिया [को०] ।

चातुरता †
संज्ञा स्त्री० [सं० चतुरता] दे० 'चतुरता' ।

चातुरमास पु
संज्ञा पुं० [सं० चातुर्मास्य] दे० 'बरसात' । चातुर्मास्य उ०—नटनागर वृच्छलता लिपटी, लखि कै सुधि का नहिं लावहिंगे ? सखिचातुरमास मैं आतुर ह्वै करि, चातुर का नहिं आवहिंगे ।—नट०, पृ० ७७ ।

चातुराश्रमिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चातुराश्रमिकी] चार आश्रमों से किसी एक में रहनेवाला [को०] ।

चातुराश्रमी
वि० [चातुराश्रमिन्] [वि० स्त्री० चातुराक्षमिणी] दे० 'चातुराश्रमिक' [को०] ।

चातुराश्रम्य
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम ।

चातुरिक
संज्ञा पुं० [सं०] सारथी । रथवान ।

चातुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चतुरता । चतुराई । व्यवहारदक्षता । २. चालाकी । धूर्तता ।

चातुरीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कलहंस । हंस । २. कारण्ड [को०] ।

चातुर्जात, चातुर्जातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भावप्रकाश के अनुसार चार सुगंध द्रव्य—नागरकेसर, इलायची, तेजपात और दालचीनी । २. गुजरात के प्राचीन राजाओं के प्रधान कर्मचारी की उपाधि । प्रशासक ।

चतुर्थाक, चातुर्थिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्त्री० चातुर्थिकी] चौथे दिन आनेवाला ज्वर । चौथिया बुखार ।

चातुर्थक, चातुर्थिक (२)
वि० चौथे दिन होनेवाला ।

चातुर्दश
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस । २. वह जो चतुर्दशी को उत्पन्न हो ।

चतुर्दशिक
वि० [सं०] चतुर्दशी की तिथि से विद्या आरंभ करनेवाला [को०] ।

चातुर्भद्र, चारभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार पदार्थ—अर्थ, धर्म काम और मोक्ष । २. वैद्यक के अनुसार ये चार ओषधियाँ- नागरमोथा, पीपल (पिप्पली), अतीस और काकड़ासिंगी । कोई कोई चक्रदत्त के अनुसार इन चार चीजों को लेते हैं— जायफल, पुष्करमूल, काकड़ासिंगी और पीपल ।

चातुर्भद्रावलेह
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक का एक प्रसिद्ध अवलेह जो जायफल, पुष्करमूल, काकड़ासिंगी और पीपल के एक साथ पीसकर शहद मिलने से बनाता है । चौहद्दी । विशेष—यह अवलेह श्वास, कास, अतीसार और ज्वर से उपकारी होता है और बच्चों के बहुत दिया जाता है ।

चातुर्महाराजिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु भगवान् । २. बुद्ध का एक नाम ।

चातुर्मास
वि० [सं०] चार महीनों में होनेवाला । चार महीने का ।

चातुर्मासिक
वि० [सं०] चार महीने में होनेवाला । (यज्ञ, कर्म आदि) ।

चातुर्मासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पौर्णमासी ।

चातुर्मास्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार महीने में होनेवाला एक वैदिक यज्ञ । विशेष—कात्यायन श्रौतसूत्र अध्याय ८ में इस यज्ञ का पूरा विधान लिखा हे । सूत्र के अनुसार फाल्गुनी पौर्णमासी से इस यज्ञ का आरंभ होना चाहिए, पर भाष्य और पद्धति में लिखा है कि इसका आरंभ फाल्गुन, चैत्र या वैशाख की पूर्णिमा से हो सकता है । इस यज्ञ के चार पर्व हैं—वैश्वदेव, वरुणघास, शाकमेघ और सुनाशीरीय । २. चार महीने का एक पौराणिक व्रत जो वर्षा काल में होता है । विशेष—वराह के मत से अषाढ़ शुक्ल द्वादसी या पूर्णिमा से इसका उद्यापन करना चाहिए । मत्स्य पुराण में इस व्रत के अनेक विधान और फल लिखे हैं । जैसे,—गुड़त्याग करने से स्वर मधुर होता है, मद्य मांस त्याग करने से योगसिद्धि होती है, बटलोई में पका भोजन त्यागने से संतान की वृद्धि होती है, इत्यादि, इत्यादि । यह विष्णु भगवान् का व्रत है, अतः 'नमो- नारायण' मंत्र के जप का भी विधान है । सनत्कुमार के मत से इसका आरंभ आषाढ़ शुक्ल एकादशी, पूर्णिमा या कर्क की संक्राति से होना चाहिए । इन चार महीनों में काठक गृहयसूत्र के मत से यात्रियों को एक ही स्थान पर जमकर रहना चाहिए । इस नियम का पालन बौद्ध भिक्षु (यति) करते हैं ।

चातुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] चतुराई । निपुणता । दक्षता ।

चातुर्वर्ण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चारों वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । २. चारों वर्णों का अनुष्ठेय धर्म । जैसे,— ब्राह्मण का धर्म यजन, याजन, दान, अध्यापन, अध्ययन और प्रतिग्रह; क्षत्रिय का धर्म बाहुबल से प्रजापालन इत्यादि ।

चातुर्विद्य (१)
वि० [सं०] चारो का ज्ञाता [को०] ।

चातुर्विद्य (२)
संज्ञा पुं० चारों वेद [को०] ।

चातुर्विध्य
वि० [सं०] चार विधि या प्रकार का [को०] ।

चातुर्होत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चातुर्होत्रिय] वह यज्ञ जो चार होताओं द्वारा संप्पन हो ।

चातृंगि पु †
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' । उ०—उक्कंवी सिर हथ्थड़ा, चाहंती रस लुब्ध । ऊँची चढ़ि चातृंगि जिउँ मागि निहालइ मुध्ध ।—ढोला०, दू० १६ ।

चातृक
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' । उ०—पिया पिया चातृक प्रिय कहहीं । बिरहिनि लाग मदन दुख जरहीं ।— कबीर सा०, पृ० २४९ ।

चातृग पु चातृगा पु
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' । उ०—(क) मन चित चातृग ज्यू रटै, पिव पिव लागी प्यास । दादू दरसन कारनै पुरवहु मेरी आस ।—दादू०, पृ० ५५ । (ख) इक अभिमानी चातृगा विचरत जग माहिं ।—रै० बानी, पृ० ९ ।

चात्र
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निमंथन यंत्र का एक अवयव । विशेष—यह बारह अंगुल की खैर की लकड़ी होती है जिसके अगले छोर में लोहे की एक कील लगी होती है और पीछे की ओर छेद होता है ।

चात्रक पु
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' । उ०—मनो चात्रक मोर आनंद बने ।—हम्मीर०, पृ० १४४ ।

चात्रिक (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातक' ।

चात्रिग
संज्ञा पुं० [सं० चातक] दे० 'चातिक' । उ०—देह गेह नहिं सुधि सरीरा निसदिन चितवत चात्रिग मीरा ।—दादू०, पृ० ४६९ ।

चात्वाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवनकुंड । २. उत्तर वेदी । ३. दर्भ । डाभ । कुश । ४. गड्ढा ।

चादर
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. कपडे़ का लंबा चौड़ा टुकड़ा जो ओढ़ने के काम में आता है । हलका ओढ़ना । चौड़ा दुपट्टा । पिछौरी । यौ०—चादर छिपौवल = लड़कों का एक खेल जिसमें वे किसी लड़के के ऊपर चादर डाल देते हैं और दूसरी गोल के लड़कों से उसका नाम पूछते हैं । जो ठीक नाम बता देता है वह चादर से ढके लड़के को स्त्री बनाकर ले जाता है । मुहा०—चादर उतरना = बेपर्द करना । इज्जत उतारना । अपमानित करना । मर्यादा बिगाड़ना । विशेष—स्त्रियों के संबंध में इस मुहावरे को उसी अर्थ में बोलते हैं, जिस अर्थ में पुरुषों के लिये 'पगड़ी उतारना' बोलते हैं । चादर ओढ़ाना या डालना = किसी विधवा को रख लेना । चादर रहना या लाज की चादर रहना = इज्जत रहना । कुल की मर्यादा रहना । प्रतिष्ठा का बना रहना । उ०— लाल बिनु कैसे लाज चादर रहेगी आज कादर करत आप बादर नए नए ।—श्रीपति (शब्द०) । चादर से बाहर पैर फैलाता = (१) अपनी हद से बाहर जाना । (२) अपने वित्त से अधिक खर्च आदि करना । चादर हिलाना = युद्ध में शत्रुओं से घिरे हुए सिपाही का युद्घ रोकने या आत्मसमर्पण करने के लिये कपड़ा हिलाना । युद्ध रोकने का झंडा दिखाना । २. किसी धातु का बड़ा चौखूँटा पत्तर । चद्दर । ३. पानी की चौड़ी धार जो कुछ ऊपर से गिरती हो । ४. बढ़ी हुई नदी या और किसी वेग से बहते हुए प्रवाह में स्थान स्थान पर पानी का वह फैलाव जो बिलकुल बराबर होता है, अर्थात् जिसमें भँवर या हिलोर नहीं होता । ५. फूलों की राशि जो किसी देवता या पूज्य स्तान पर चढाई जाती है । जैसे, मजार पर चादर चढ़ाना । ६. खेमा । तंबू । शिविर । उ०—दक्खिन की ओर तेरे चादर की चाह सुनि, चाहि भाजी चाँदबीबी चौंकि भाजैं चक्कवै । = गंग०, पृ० १०३ ।

चादरा
संज्ञा पुं० [हिं० चादर] मरदानी चादर । बड़ी चादर ।

चादरी
संज्ञा पुं० [हिं० चादर] एक प्रकार की हथियार । उ०— तोप, बाण, चादरि हथनालि, जंबूर बंदूक । तमंचा कमान, सेल इन नै त्यागो ।—ह० रासो, पृ० १५६ ।

चान पु †
संज्ञा पुं० [चाँद] दे० 'चाँद' । उ०—आध बदन तन्हि देखल मोर । चान अँएठ करि चलल चकोर ।—विद्यापति, पृ० ५६४ ।

चानक (१)—पु
क्रि० वि० [हिं० अचानक] अचानक । सहसा । अकस्मात । उ०—हरिनी जनु चानक जाल परी जनु सोन चिरी अबहीं पकरी ।—गुमान (शब्द०) ।

चानक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गहरी चाह । प्रेम । चाव । उ०—मूरति अनुप एक आय कै अचानक मैं चानक लगाय अजों हिय को हरति है ।—दीन, ग्रं०, पृ० १० ।

चानण पु †
संज्ञा पुं० [हिं० चाँदनी] दे० 'चाँदना' । उ०— कवन खंड बोले सो होय । नानक गुरुमुख चानण लोय ।—प्राण० पृ० ५ ।

चानणी
संज्ञा पुं० [हिं० चाँदनी] चाँदनी अर्थात् शुक्ल पक्ष । उ०— भड़भड़िया सादूल रा, वीस विखम्मी वार । चैत इग्यारस चाँदणी असुरा सुणी पुकार ।—रा० रू०, पृ० २४१ ।

चानन
संज्ञा पुं० [सं० चन्दन] दे० 'चंदन' । उ०—चानन भरम सेवाल हम सजनी पूछत सकल मन काम ।—विद्यापति पृ० ४६६ ।

चनायल
वि० [हिं० चान] चाँदनी या प्रकाश । उ०—ओअंकार हुआ चनायल । तदहुँ तीन देव उपायल ।—प्राण०, पृ० १ ।

चानस †
संज्ञा पुं० [अं० चांस] ताश का एक खेल । २. दे० 'चांस' ।

चाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनुष । कमान । २. गणित में आधा वृत्तक्षेत्र । विशेष—सूर्यसिद्धांत में ग्रहादि के चाप निकालने की क्रिया दी हुई है । ३. वृत्त की परिधि का कोई भाग । ४. धनुराशि ।

चाप (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चपना] १. दबाव । क्रि० प्र०—पड़ना । २. पैर की आहट । पैर जमीन पर पड़ने का शब्द । जैसे,—इतने में किसी के पैर की चाप सुनाई दी ।

चापक
संज्ञा पुं० [सं० चाप + क] धनुष । उ०—लखिन बतिस बहुतरि कला बाल बेस पूरन सगुन । क्रिड़त गिलोल जब लाल कर (तब) मार जानि चापक सुमन ।—पृ० रा० १ । ७२७ ।

चापजरबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाप + अ० जरीब] किसी जमीन की सीधी नाप । लंबाई की नाप ।

चापट (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चिपटना] दानो की वह भूसी जो आटा पीसने पर निकलता है । चोकर ।

चापट (२)
वि० [हिं० चापड़] दे० 'चापड़' ।

चापड़ (१)
वि० [सं० चिपिट, हिं० चिपटा, चपटा] १. जो दबकर चिपटा हो गया हो । जो कुचले जाने के कारण जमीन के बराबर हो गया हो । २. बराबर । समतल । हमवार । ३. मटियामेट । चौपट । उजाड़ । जैसे,—ऐसी बाढ़ आई कि कई गाँव चापड़ हो गए ।

चापड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चापट] चोकर । भूसी ।

चापदंड
संज्ञा पुं० [सं० चापदण्ड] वह डंडा जिससे कोई वस्तु आगे की ओर बेली जाय ।

चापना
क्रि० स० [सं० चाप (= धनुष)] दबाना । मींड़ना । उ०— चापत चरण लखन उर लाए । समय सप्रेम सचुपाए ।— तुलसी । (शब्द०) ।

चापर
वि० [हिं० चापड] दे० 'चापड़' ।

चापल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंचलता । शोखी । २. अस्थिरता । ३. क्षोभ (को०) ।

चापल पु (२)
वि० [हिं० चपल] चंचल ।

चापलता
संज्ञा स्त्री० [हिं० चापल + ता (प्रत्य०)] चंचलता । ढिलाई । उ०—लघुमति चापलता कवि छमहूँ ।—तुलसी (शब्द०) ।

चापलूस
वि० [फ़ा०] लल्लो चप्पो करनेवाला । खुशामदी । चाटुकार ।

चापलूसी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वह झूठी प्रशंसा जो केवल दूसरे को प्रसन्न और अनुकूल रखने के लिये की जाय ।

चापल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चापल' [को०] ।

चापी
संज्ञा पुं० [सं० चापिन्] १. वह जो धनुष धारण करे । धनुर्धर । २. शिव । ३. धनुराशि ।

चाप्
संज्ञा पुं० [देश०] हिमालय के आसपास के प्रदेशों की एक प्रकार की छोटी बकरी जिसके बाल बहुत लंबे और मुलायम होता हैं । विशेष—इसके बालों के कंबल आदि बनते हैं ।

चाफंद
संज्ञा पुं० [हिं० चौ (= चार) + फंदा] मछली पकड़ने का एक प्रकार का जाल ।

चाब (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० चव्य] १. गजपिप्पली की जाति का एक पौधा जिसकी लकड़ी और जड़ औषध के काम में आती है । विशेष—एशिया के दक्षिण और विशेषतः भारत में यह पौधा या तो नदियों के किनारे आपसे आप उगता है या लकड़ी और जड़ के लिये बोया जाता है । इसकी जड़ में बहुत दिनों तक पनपने की शक्ति रहती है और पौधे को काट लेने पर उसमें फिर नया पौधा निकलता है । इसमें काली मिर्च के समान छोटे फल लगते हैं जो पहले हरे रहते हैं और पकने पर लाल हो जाते हैं । यदि कच्चे फल तोड़कर सुखा लिए जायँ, तो उनको रंग काला हो जाता है । ये फल भी औषध के काम में आता हैं और 'चव' कहलाते हैं । कुछ लोग भूल से इसी के फल को 'गजपिप्पली' कहते हैं; पर 'गजपिप्पली' इससे भिन्न है । बंगाल में इसकी लकड़ी और जड़ से कपडे़ आदि रँगने के लिये एक प्रकार का पीला रंग निकाला जाता है । डाक्टरों के मत से 'चव' के फल के गुण बहुत से अंशों में काली मिर्च के समान ही हैं । वैद्यक में चाव को गरम, चरपरी, हल्की, रोचक, जठराग्नि प्रदीपक और कृमि, स्वास, शूल और क्षय आदि को दूर करनेवाली तथा विशेषतः गुदा के रोगों को दूर करनेवाली माना है । पर्या०—चविका । चव्य । चबी । रत्नावली । तेजोवती । कोला । नाकुली । कोलवल्ली । कुटिल । सप्तक । कृकर । २. इस पौधे का फल । ३. चार की संख्या ।—(डिं०) । ४. कपड़ा ।—(डिं०) ।

चाब (२)
संज्ञा पुं० [सं० चप (= एक प्रकार का बाँस)] एक प्रकार का बाँस ।

चाब (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चावन] १. वे चौखूँटे दाँत जिनसे भोजन कुचलकर खाया जाता है । २. डाढ़ । दाढ़ । चौभड़ ।३. बच्चे के जन्मोत्सव की एक राति जिसमें संबंध की स्त्रियाँ गाती बजाती और खिलौने कपड़े आदि लेकर आती हैं ।

चाबक
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कोड़ा । दे० 'चाबुक' । उ०—चढ़ि घोड़ों लीयउ चाबकउ ।—बी० रासो, पृ० ५८ ।

चाबन
संज्ञा पुं० [सं० चर्वण] चबेना । दाना । उ०—मूंड पलोसि कमर बँधि पोथी । हमको चाबन उनकौ रोटी ।—कबीर ग्रं० पृ० २९६ ।

चाबना (१)
क्रि० स० [सं, चर्वण, प्रा० चब्बण] १. दाँतो से कुचल कुचलकर खाना । चबाना । जैसे,—चने चबाना । उ०—चाबत पान चली झमकि पूतनिका मदमान ।—सुकवि (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।—डालना ।—लेना । २. खूब भोजन करना । खाना ।

चाबना (२)
क्रि० स० [सं० चर्वण] रसास्वादन करना (ला०) (जैसे, रसचर्वणा) । उ०—चारयो बेद चाबति, पढ़ति छओ दरसन, नव रस निरूपति, षट खाति है ।—गंग, पृ० ३ ।

चाबस †
अव्य० [हिं० शाबस] शाबास । वाह वाह ।

चाबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाप (= दबाव) या पुर्त्त चेब] १. वुंजी । ताली । क्रि० प्र०—लगाना । मुहा०—चाबी देना = (१) कुंजी ऐठकर ताला बंद करना । (२) कुंजी के द्वार किसी कल की कमानी को ऐंठकर कसना जिसमें झटके के कारम उसके सब पुरजे फिर ज्यों के त्यों चलने लगें । जैसे,—घड़ी में चाबी देना । चाबी भरना = दे० 'चाबी देना' । २. कोई ऐसा पच्चड़ जिसे दो जुड़ी हुई वस्तुओं की संधि में ठोंक देने से जोड़ दृढ हो जाय । क्रि० प्र०—भरना । मुहा०—चाबी भरना = वह युक्ति करना जिसके द्वारा किसी व्यक्ति से अपने इच्छानुसार काम कराया जा सकें ।

चाबुक (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. कोड़ा । हंटर । सोंटा । क्रि० प्र०—जडना ।—देना ।—फटकारना ।—मारना । लगाना । यौ०—चाबुकसवार । २. कोई ऐसी बात जिससे किसी कार्य के करने की उत्तेजना उत्पन्न हो । जैसे,—तुम्हारी व्यंग्यभरी बात ही उसके लिये चाबुक हो गई ।

चाबुक (२)
वि० तेज । तीव्र । फुर्तीला ।

चाबुक (३)
संज्ञा पुं० [तु० चाबुक] प्याला ।

चाबुकजन
वि० [फ़ा० चाबुकजन] कोड़ा मारनेवाला ।

चाबुकजनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० चाबुकजनी] कोड़ा मारना ।

चाबुकदस्त
वि० [फ़ा०] कुशल । दक्ष ।

चाबुकदस्ती
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] कुशलता । दक्षता [को०] ।

चाबुकसवार
संज्ञा पुं० [फ़ा०] [संज्ञा चाबुक सवारी] घोडे़ को विविध प्रकार की चलें सिखानेवाला । घोडे़ की चाल दुरुस्त करनेवाला । घोडे़ को निकालनेवाला ।

चाबुकसवारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] चाबुक सवार का काम या पेशा ।

चाभ
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाब] दे० 'चाब' ।

चाभना
क्रि० स० [हिं० चाबना] खाना । भक्षण करना । उ०— चुपचाप चटपट चाभ चूभकर चले भी आते ।—प्रेमघन०, भा २, पृ० ८५ । मुहा०—माल चाभना = (१) अनेक प्रकार के स्वादिष्ट और पौष्टिक पदार्थ खाना । बढ़िया बढ़िया चीजें खाना । (२) मौज करना । सुख से रहना ।

चाभा
संज्ञा पुं० [हिं० चबाना] बैलों का एक रोग जिसमें उनकी जीभ पर साँटे से उभड़ आते हैं और उनसे कुछ खाते नहीं बनता ।

चाभी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाबी] दे० 'चाबी' ।

चाम
संज्ञा पुं० [सं० चर्म] चमड़ा । खाल । चमड़ी । यौ०—चाम के दाम = चमडे़ के सिक्के । वि०—ऐसा प्रसिद्ध है कि निजाम नामक एक भिश्ती ने हुमायूँ को डूबने से बचाया था और इसके बदले में आधे दिन की बादशाही पाई थी । उसी आधे दिन की बादशाहत में उसने चमडे़ के सिक्के चलाए थे । मुहा०—चाम के दाम चलाना = अपनी जबरदस्ती के भरोसे कोई काम करना । अन्याय करना । अंधेर करना । उ०—(क) ऊधो अब कछु कहत न आवै । सिर पै सौति हमारे कुबजा चाम के दाम चलावै ।—सूर (शब्द०) । (ख) बतियान सुनाय के सौतिन की छतियान में साल सलाय ले री । सपने हू न कीजय मान अए अपने जोबना बलाय ले री । परमेस जू रूप तरंगन सों अँग अँगन रूप रुलाय ले री । दिन चारिक तू पिय प्यारे के प्यार सों चाम के दाम चलाय ले री ।— परमेश (शब्द०) ।

चाम (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] हल की नोक से चिरी हुई भूमि की रेखा । उ०— एक दो चाम रावल ने खींचकर निकाली, वहाँ मोती पैदा हो गए । बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ८१ ।

चामचोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाम + चोरी] गुप्त रूप से पर स्त्री गमन ।

चामड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चमड़ी] दे० 'चमड़ी' ।

चामर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौर । चँवर । चौंरी । २. मोरछल । ३. एक वर्णवत्त जिसके प्रत्येक चरण में रगण जगण, रगण, जगण और रगण होते हैं । जैसे,—रोज रोज राधिका सखीन संग आइ कै । खेल रास कान्ह संगचित हर्ष लाइ कै । बाँसुरी समान बोल सप्त ग्वाला गाइ कै । कृष्ण ही रिझावही सु चामरै डुलाई कै ।

चामरग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] वह सेवक जो चँवर डुलाने का कार्य करता है [को०] ।

चामरग्राहिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चामरग्राह' [को०] ।

चामरग्राही
संज्ञा पुं० [सं० चामरग्राहिन्] दे० 'चामरग्राह' [को०] ।

चामरपुष्प, चामरपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँस । २. सुपारी का पेड़ । ३. केतकी । ४. आम ।

चामरपाल †
संज्ञा पुं० [हिं० चामर + पाल] तुर्क । उ०—भाँण चले रिण भाँजिया, चौडे़ चामरपाल ।—रा० रू०, पृ० २७४ ।

चामरपुष्पक
देश० पु० [सं०] दे० 'चामरपुष्प' [को०] ।

चामरव्यंजन
संज्ञा पुं० [चामर + व्यंजन] चँवर [को०] ।

चामरिक
संज्ञा पुं० [सं०] चँवर डुलानेवाला ।

चामरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुरा गाय ।

चामरी (२)
संज्ञा पुं० [चामरिन्] घोड़ा [को०] ।

चामिल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चबल] दे० 'चवल' । उ०—चामिल तेरे वालौं आये ।—लाल (शब्द०) ।

चामीकर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना । स्वर्ण । उ०—चारु चामीकर चंद चपला चमक चोखी, केलरि चटक कौन लेखे लेखिपति है ।—घनानंद, पृ० ५८ । २. स्वर्ण संबंधी ।

चमीकर (२)
वि० १. स्वर्णमय । सुनहरा । २. स्वर्ण संबंधी ।

चमीकराचल, चमीकराद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] समेरु पर्वत [को०] ।

चामुंडराज
संज्ञा पुं० [सं० चामुण्डराज] गुजरात का एक राजा जो चापोत्कट वंशीय सामंतराज का भांजा था । इसकी मृत्यु १०२५ ईसवी में हुई थी ।

चामुंडराय
संज्ञा पुं० [सं० चामुण्ड + प्रा० राय] महाराज पृथिवी- राज का एक सामंत जो 'बयाण' के राजा दाहर का पुत्र और दाहिमा क्षत्रिय था ।

चामुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० चामुण्डा] एक देवी का नाम जिन्होंने शुंभ, निशुंभ के चंड, मुंड नामक दो सेनापति दैत्यों का बध किचा था । पर्या०—चर्विका । चर्ममुंडा । माजीरकर्णिका । कर्णमोटी । महागंधा । भैरवी । कापालिनी ।

चाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] खाद्य पदार्थ [को०] ।

चाय (१)
संज्ञा स्त्री० [चीनी० चा] एक पौधा या झाड़ जो प्रायः दो से चार हाथ तक ऊँचा होता है । विशेष—इसकी पत्तियाँ १०-१२ अंगुल लम्बी, ३-४ अंगुल चौड़ी और दोनों सिरों पर नुकीली होती हैं । इसमें सफेद रंग के चार पाँच दलों के फूल लगते हैं जिनके झड़ जाने पर एक दो, या तीन बीजों से भरे फल लगते हैं । यह पौंधा कई प्रकार का होता है । इसकी सुगंधित और सुखाई हुई पत्तियों को उबालकर पीने की चाल अब प्रायः संसार भर में फैल गई है । चाय पीने का प्रचार सबसे पहले चीन देश में हुआ । वहाँ से क्रमशः जापान, बरमा, श्याम, आदि देशों में हुआ । चीन देश में कहीं कहीं यह कहानी प्रचलित है कि धर्म नामक कोई ब्राह्मण चीन देश में धर्मोपदेश करने गया । वहाँ वह एक दिन चलते चलते थककर एक स्थान पर सो गया । जागने पर उसे बहुत सुस्ती मालूम हुई । इसपर क्रुद्ध होकर वह अपनी भौ के बाल नोच नोचकर फेंकने लगा । जहाँ जहाँ उसने बाल फेंके, वहाँ वहाँ कुछ पौधे उग आए जिनकी पत्तियों को खाने से वह आध्यात्मिक ध्यान में मग्न हो गया । वे ही पौधे चाय के नाम से प्रसिद्ध में मग्न चीन में पहले औषध के रूप में इसका व्यवहार चाहे बहुत प्रचीन काल से हो रहा हो पर इस प्रकार उबालकर पीने की चाल वहाँ ईसा की सातवीं या आठवीं शताब्दी के पहले नहीं थी । भारतवर्ष में आसाम तथा मनीपुर आदि प्रदेशों में यह पौधा जंगली होता है । नागा की पहाड़ियों पर भी इसके जंगल पाए गए हैं । पर इसके पीने की प्रथा का प्रचार भारतवर्ष में नहीं था । चीन से चाय मँगा मँगाकर जबसे ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोप को भेजने लगी तभी से इसकी ओर ध्यान आकर्षित हुआ और भारत में उसके लगाने का भी उद्योग आरंभ हुआ । पहले पहल यहाँ मालाबार के किनारे पर चीन से बीज मँगाकर चाय उत्पन्न करने की चेष्टा अंग्रेजों द्वारा की गई क्योंकि तब तक यह नहीं ज्ञात था कि यह पौधा भारतवर्ष में भी जंगल में होता है । पर यह चाय उस चाय से भिन्न थी जो आसाम में होती है । लुशाई चाय की पत्तियाँ सबसे बडी होती हैं । नागा चाय की पत्तियाँ पतली और छोटी होती हैं । चाय की पत्तियाँ यों ही सुखाकर नहीं पी जाती हैं । वे अनेक प्रक्रियाओं से सुगंधित और प्रस्तुत की जाती है । चाय के अनेक प्रकार के जो नाम आजकल प्रचलित हैं, उनमें से अधिकांश क्षुपभेद के सूचक नहीं हैं, केवल प्रक्रिया के भेद से या पत्तियों की अवस्था के भेद के रखे गए हैं । साधारणतः चाय के दो भेद प्रसिद्ध हैं काली चाय और हरि चाय । यद्यपि चीन में कहीं कहीं पत्तियों में यह भेद देखा जाता है; जैसे,— कियाङसू पर्वत की हरी चाय जिसे सुंगली कहते हैं और कानटन (कैंटन) की घाटिया काली चाय, पर अधिकतर यह भेद भी अब प्रक्रिया पर निर्भर है । काली चायों में पाको, बोहिया कांगो, सूचंग बहुत प्रसिद्ध हैं और हरी चायों में से द्वांके, हैसन, बारूद आदि । काली चायों में से पीको सबसे स्वादिष्ट और उत्तम होती है और हरी चायों में से बारूद चाय सबसे बढ़िया मानी जाती है । नारंगी पीको में बहुत अच्छी सुगंध होती है । ये दोनों प्रकार की चाय पहली चुनाई की होती हैं, जब कि पत्तियाँ बिल्कुल नए कल्लों के रूप में रहती हैं । चाय बीजों से उत्पन्न की जाती है । २. चाय उबाला हुआ । चाय का काढ़ा । ३. दूध तथा चीनी मिश्रित चाय का काढ़ा या पानी । क्रि० प्र०— पीना ।—बनाना ।—लेना । यौ०—चायपती जलपान ।

चाय पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चाव] दे० 'चाव' ।

चाय पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० चय] समूह । उ०—सुपन सुफल दिल्ली कथा, कही चदबरदाय । अब आगे करि उच्चरौं पिथ्थ अंकुर गुन चाय ।—पृ० रा०, ३ । ५८ ।

चाय † (४)
संज्ञा पुं० [देशज] पुत्र । उ०— नाथावत बाघ आसक्रन कवि— राय सांम के काम सादूल से चाय ।—रा० रू०, पृ० १५१ ।

चायक पु
संज्ञा पुं० [हिं० चाय] चाहनेवाला । प्रेमी । उ०—जय यदु- कुल उडु इंदु सत चकोर चायक चतुर ।—रघुराज (शब्द०) ।

चायक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चुननेवाला । चयन करनेवाला ।

चायदान
संज्ञा पुं० [हिं० चाय + फा० + दान] वह बर्तन जिसमें चाय बनाई जाती है या बनाकर रखी जाती है ।

चायदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाय + दानी] दे० 'चायदान' ।

चायचौकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाय + चौकी] चौकी । उ०— तिब्बती ढंग की चायचौकी और बैठने की गद्दी के साथ मेज, कुर्सी, पलंग और आलमारी भी है ।—किन्नर०, पृ० ५४ ।

चायल
वि० [हिं० चायक] १. चाहने योग्य । २. चाह वारी । उ०— चाय भरीं चायल चपल दृग जोरती ।—हम्मीर०, पृ० २ ।

चार (१)
वि० [सं० चत्वारः, > प्रा० चत्तारो] १. जो गिनती में दो और दो हो । तीन से एक अधिक जैसे, चार आदमी । यौ०—चार ताल = तबले या मृदंग के एक ताल का नाम । चौताला । चार पाँच = (१) इधर उधर की बात । हीला- हवाला । (२) हुज्जत । तचकरार । चार मगज = हकीम में चार वस्तुओं के बीजों की गिरी खीरा, ककड़ी, कद्दू और खरबूजा । मुहा०—चार आँखें करना = आँखें मिलाना । देखा देखी करना । सामने आना । साक्षात्कार करना । मिलना । जैसे—अब वह हमारे सामने चार आँखें महीं करता । चार आँखें होना = नजर से नजर मिलाना । देखा देखी होना । साक्षात्कार होना । चार चाँद लगना = (१) चौगुनी प्रतिष्ठा होना । (२) चौगुनी शोभा होना । सौंदर्य बढ़ना (स्त्री) । चार के कंधे पर चढ़ना या चलना = मर जाना । मशान को जाना । चार पगड़ी करना = जहाज का लंगर डालना । चार पाँच करना = (१) हीला हवाला करना । इधर उधर करना । बातें बनाना । (२) हुज्जत करना । तकरार करना । चार पाँच लाना = दो० 'चार पाँच करना' । चारों फूटना = चारों आँखें फूटना (दो हिये की दो उपर की) । अंधा होना । उ०—आछो गात अकारथ गारयो । करी न प्रीति कमल लोचन सों जन्म जुवा ज्यों हारयो । निसि दिन विषय विलासिनि विलसत फूटि गई तब चारयो ।—सूर (शब्द०) । चारो खाने चित्त गिरना या पड़ना = ऐसा चित्त गिरना जिससे हाथ पाँव फैल जायँ । हाथ पाँव फैलाए पीठ के बल गिरना । किसी दारुण संवाद को पाकर स्तंभित होना । अकस्मात् कोई प्रतिकूल बात सुनकर रुका रह जाना । बेसुध होना । सकपका उठना । २. कई एक । बहुत से । जैसे,—चार आदमी जो कहें उसे मानों । ३. तोडा बहुत । कुछ । जैसे,—चार आँसू गिराना । यौ०—चार तार = चार थान कपडे़ या गहने । कुछ कपड़ा लत्ता और जेवर । चार दिन = थोडे़ दिन । कुछ दिन । जेसे,-चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी पाख । चार पैसे = कुछ धन । कुछ रुपया पैसा । जैसे,—जब चार पैसे पास रहेंगे तब लोग हाँ जी हाँ जी करेंगे ।

चार (२)
संज्ञा पुं० चार की संख्या । चार का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है —४ ।

चार (३)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० चारित, चारी] १. गति । चाल । गमन । २. बंधन । कारागार । ३. गुप्त दूत । चर । जासूस । ४. दास । सेवक । उ०—लोभी जसु चह चार गुमानी । नभ दुहि दूध चहत ये प्रनी ।—मानस, ३ । ७१ । ५. चिरौजी का पेड़ । पियार । अचार । ६. कृत्रिम विष । जैसे,—मछली फँसाने की कँटिया में लगा चारा, चिड़ियों को बेहोश करने की गोली आदि । ७. आचार । रीति । रस्म । जैसे,—ब्याहचार, द्वारचार । उ०—(क) फेरे पान फिरा सब कोई । लाग्यो ब्याहचार सब होई ।—जायसी (शब्द०) । (ख) भइ भाँवरि न्योछावरि राज चार सब कीन्ह ।— जायसी (शब्द०) । (ग) औरहु चार करावहु सुनिवर शशि सूरत सुत देखें ।— रघुराज (शब्द०) । (घ) अर्ध रात्रि लौं सकल चार करि आप जाहु जनवासे ।—रघुराज (शब्द०) ।

चार आइना
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का कवच या बकतर जिसमें लो की चार पटरियाँ होती हैं; एक छाती पर एक पीठ पर और दो दोनों बगल में (भुजा के नीचे) ।

चारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाय भैंस चरानेवाला । चरवाहा । २. चलानेवाल । संचारक । ३. गति । चाल । ४. चिरौंजी का पेड़ । पियाल । ५. कारागार । ६. गुप्तचर । जासूस । ७. सहचर । साथी ।८. अश्वारोही । सवार । ९ घूमनेवाला ब्राह्मण छात्र या ब्रह्मचारी । १०. मनुष्य ।११. चरक निर्मित ग्रंथ या सिद्धंत ।

चारक (२)
वि० चार एक । थोडे । उ०— यह संपदा दिवस चारक की सोच समझ मन माहीं । सूर सुनत उठि चली राधिका, दै दूती गलबाहीं ।— संतवाणी०, भा० २, पृ० ६१ ।

चारक
संज्ञा पुं० [सं०] वह कैद जिसमें न्यायाधीश विचारकाल में किसी को रखे । हवालात ।

चारकर्म
संज्ञा पुं० [सं० चारकर्मन्] जासूसी । गुप्तचर का काम [को०] ।

चारकाने
संज्ञा पुं० [हिं० चार +काना=मात्रा] चौसर या पासे का एक दाँव । विशेष— यह उस समय होता है जब नई बाजी के तीनो पासे इस प्रकार पड़ते हैं कि एक पासे में तो दो चित्ती और बाकी दोनों पासों में एक एक चित्ती ऊपर की ओर दिखाई पड़ती है ।

चारखाना
संज्ञा पुं० [फ़ा० चार खानह्] एक प्रकार का कपड़ा जिसमें रंगीन धारियों के द्वारा चौखूटे घर बने रहते हैं ।

चारचंचु
वि० [सं० चारचञ्चु] सुंदर गति या चालवाला [को०] ।

चारचंद
वि० [सं० चार + फ़ा० चंद] चौगुना ।

चारमारग
संज्ञा पुं० [सं० चार + मार्ग] व्यवहार आदि में धूर्तता । क्रि० प्र०—बूझना । लेना = भेद का पता लगाना । रहस्य की बात जान लेना ।

चारचक्षु
संज्ञा पुं० [सं० चारचक्षुष्] वह जो दूतों ही के द्वारा सब बातों की जानकारी प्राप्त करे । राजा ।

चारचण
वि० [सं०] दे० 'चारचंचु' ।

चारचश्म
वि० [फ़ा०] १. निर्लज्ज २. नमकहराम । ३. असौजन्यवाला ।

चारज
संज्ञा पुं० [अं० चार्ज] १. कार्यभार । काम की जिम्मेदारी । चार्ज । मुहा०—चारज देना = किसी काम को छोड़ते समय उसका भार अपने स्थान पर आए हुए मनुष्य को सहेजकर देना । चारज लेना = किसी कार्य के भार को उससे अलग होनेवाले मनुष्य से सहेजकर लेना । २. सुपुर्दगी । निगरानी । संरक्षा का भार ।

चारजामा
संज्ञा पुं० [फ़ा० चारजामह्] चमडे़ या कपडे़ का बना हुआ वह आसन जिसे घोडे़ की पीठ पर कसकर सवारी करते हैं । जीन । पलान । काठी । गद्दी ।

चारटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पद्यचारिणी वृक्ष । भूम्यामलकी ।

चारटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नली नामक गंधद्रव्य ।

चारटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चारटा' [को०] ।

चारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंश की कीर्ति गानेवाला । भाट । बंदीजन ।२. राजस्थान की एक जाति । विशेष— सह्याद्रिखंड में लिखा है कि जिस प्रकार वैतालिकों की उत्पत्ति वैश्य और शूद्रा से है, उसी प्रकार चारणों की भी है; पर चारणों का वृषलत्व कम है । इनका व्यवसाय राचाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है । चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं । ३. भ्रमणकारी ।

चारणविद्या, चारणवैद्य
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद का अंश ।

चारताल
संज्ञा पुं० [हिं० चारताल] दे० 'चौताला' ।

चारतूल
संज्ञा पुं० [सं०] चँवर [को०] ।

चारदा
संज्ञा पुं० [हिं० चार+दा(प्रत्य०)] १. चौपाया ।२. (कुम्हारों की बोली में) गदहा ।

चार दिन
संज्ञा पुं० [सं० चार +दिन] थोडे़ दिन । यौं०—चार दिन की चाँदनी = चंदरोजा चमक दमक ।

चारदिवारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० चहारदीवारी] १. वह दीवार जो किसी स्थान की रक्षा के लिये उसके चारो ओर बनाई जाय । घेरा । होता । २. शहरपनाह । प्राचीर । कोट ।

चारधाम
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं के चार तीर्थों का सामुहिक नाम । इनका नाम इस तरह है—१. जगन्नाथपुरी, २. बदरिकाश्रम, ३. रामेश्वरम्, ४. द्वारका ।

चारन पु
संज्ञा पुं० [हिं० चारण] दे० 'चारण' ।

चारना पु
क्रि० सं० [सं०चारण] चराना । उ०—(क) गो चारत मुरली ध्वनि कीन्हा । गोपी जन के मन हर लीन्हा ।— गोपाल (शब्द०) । (ख) जहँ गो चारत नित गोपाला । संग लिये ग्वालन की माला ।

चार नाचार
क्रि० वि० [फ़ा०] विवश होकर । लाचार होकर । मजबूरन् ।

चारपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौमुहानी । २. राजमार्ग [को०] ।

चारपाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार +पाया] छोटा पलंग । खाट । खटिया । मंजी । माचा । मुहा०—चारपाई पर पड़ना =(१) चारपाई पर लेटना । (२) बीमार होना । अस्वस्थ होना । रोगग्रस्त होना । चारपाई घरना, पकडना या लेना = (१) इतना बीमार होना कि चारपाई से उठ न सके । अत्यंत रुग्ण होना । (२) चारपाई पर लेटना । सोना । जैसे,—तुम खाते ही चारपाई पकड़ते हो । चारपाई में कान निकलना = चारपाई का टेढा होना । चारपाई में कज पड़ना । चारपाई से (किसी की) पीठ लगना = बीमारी के कारण चारपाई से उठ न सकना । (किसी का) चारपाई से लगाना = दे० चारपाई से पीठ लगना ।

चारपाया
संज्ञा पुं० [फ़ा०] चौपाया । चार पाँववाला पशु । चानवर ।

चारप्रचार
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्तचर छोड़ना । खुपिया पुलिस पीछे लगना (को०) ।

चारवाक
संज्ञा पुं० [सं० चार्वाक] दे० 'चार्वाक' । उ०— जैन बोध अरु साकत सैना । चारबाक चतुरंग विछूँना ।— कबीर ग्रं०, पृ० २४० ।

चारपाल
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्तचर । जासूस [को०] ।

चारपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चारपाल' [को०] ।

चारबंद
संज्ञा पुं० [फ़ा०] अंग । अवयव । अंगों में गाँठ या जोड़ ।

चारबाग
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. चौखूँटा बगीचा । २. वह चौखूँटा शाल या रूमाल जो भिन्न रगों के द्वारा चार बराबर खानो में बँटा होता है ।

चारबालिश
संज्ञा पुं० [फ़ा०] एक प्रकार का गोल तकिया ।

चारभट
संज्ञा पुं० [सं०] वीर सैनिक [को०] ।

चारभटी
संज्ञा पुं० [सं०] साहस [को०] ।

चारभानु
वि० [सं० चारु+भानु] सुंदर गौर वर्ण वाली । अनेक सूर्यो के समान ओपवाली । उ०— चारभनु कामिन उजियारी । मानसरेवर है वह नारी ।— कबीर सा०, पृ० ७१ ।

चारमग्ज
संज्ञा पुं० [फ़ा० चार + भग्ज] १. अखरोट । २. मिट्टी की गोलो जिसे बच्चे खेलते हैं । ३. खरबूजा, खीरा, ककड़ी तथा कद्दू का बीज ।

चारमेख
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार +फ़ा० सेख ] एक प्रकार का दंड़ जिसका मध्यकाल में प्रचलन था । इसमें अपराधी को लिटाकर उसके हाथ तथा पैर चार खूँटी में बाँध दिए जाते थे ।

चारयारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चार +फ़ा० मारी] १. चार मित्रों की मंड़नी । २. मुसलमानों में सुन्नी संप्रदाय की एक मंड़ली जो अबूबक्र, उमर, उसमान और अनी इन्हीं चारों को खलीफा मानती है । ३. चाँदी का एक चौकोर सिक्का जिसपर मुहम्मद साहब के चार मित्रों या खलीफों के नाम अथवा कलमा लिखा रहता है । चारयारी का रुपया । विशेष— यह सिक्का अकबर तथा जहाँगीर के समय में बना था । इस सिक्के या रूपए के बराबर चावल तौलकर उन लोगों को खिलाते हैं जिनपर कोई वस्तु चुराने का संदेह होता है, और कह देते हैं कि जो चोर होगा उसके मुँह से खून निकलने लगेगा । इस धमकी में आकर कभी कभी चुरानेवाले चीजों को फेंक या रख जाते हैं ।

चारवा
संज्ञा पुं० [हिं० चार + पाँव] चौपाया । पशु । जानवर ।

चारवात
संज्ञा स्त्री० [सं०] [हिं० चार +बात] चौवाई । चक्रवात । उ०— आती जग की छवि स्वर्ण प्रात, स्वप्नों की नभ सी रजत रात । भरती दश दिशि को चारवात, तुझमें बन वन की सुरभी साँस ।—ग्राम्या, पृ० १०४ ।

चारवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] ग्रीष्म की गरम हवा । लू ।

चारस पु
वि० [हिं०] चार । चारों । उ०— लिपंत रूप नारसं । वदंत वेद चारस । अरुन्न तेज उग्गयं । मरक्कि देव भग्गयं ।—पृ० रा०, २ ।१७६ ।

चारा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चारना] १. पशुओं के खाने की घास, पत्ती, ड़ंठल आदि । २. चिड़ियों, मछलियों या और जिवों के खाने की वस्तु । ३. आटा या और कोई वस्तु जिसे कटिया मे लगाकर मछली फँसाते हैं ।

चारा (२)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] उपाय । इलाज । तदबीर ।

चाराजोई
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दूसरे से पहुँची हुई या पहुँचनेवाली हानि के प्रतिकार या बचाव का उपाय । नालिश । फरियाद । जेसे, —अदालत से चारजोई करना ।

चारायण
संज्ञा पुं० [सं०] कामशास्त्र के एक आचार्य जिनके मत का उल्लेख वात्स्यायन ने किया है ।

चारासाज
वि० [फ़ा० चार + साज] विपत्ति के समय का परोपकारी । आपत्ति काल में सहायक बननेवाल । उ०— य कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह । कोई चारासाज होता कोई गमगुसार होता ।—कविता कौ० भा० ४, पृ० ४६५ ।

चारि पु
वि० [हिं०] दे० 'चार' ।

चारिक
वि० [हिं० चार +एक] १. चार । दो चार । कुछ । किंचित् । थोड़ी । उ०— काहू कै कहे सुनेते जाही ओर चाहें ताही ओर इक टक घरी चारिक चहत है ।— शिखर०, पृ० ३२९ । २. कुछ समय या दिनों का ।

चारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दासी । २. यात्रा । भ्रमण [को०] ।

चारिटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चारटी' (को०) ।

चारिणी (१)
वि० स्त्री० [सं०] आचरण करनेवाली । चलनेवाली ।

चारिणी (२)
संज्ञा स्त्री० करुणी वृक्ष ।

चारित (१)
वि० [सं०] १. जो चलाया गया हो । चलाया हुआ । २. भभके द्वारा खींचा हुआ । उतारा हुआ (अर्क) ।

चारित (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चार] पशुओं के चरने का चारा । धरनि धेनु चारितु चरत प्रजा सुवच्छ पेन्हाइ । हाथ कछू नहिं लागिहै किये गोड की गाइ ।—तुलसी (शब्द०) ।

चारित (३)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चलाया जाय । चलाया जानेवाला । आरा । उ०— चारितु चारित करम कुकरम कर मरत जीवगन घासी । — तुलसी (शब्द०) ।

चारितार्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] चरितार्थ होने की अवस्था या भाव [को०] ।

चारित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुलक्रमागत आचार । २. चालचलन । व्यवहार । स्वभाव ।३. संन्यास (जैन) । यौ०—चारित्र धर्म=संन्यास धर्म । ४. मरुतगणों में से एक ।

चारित्रविनय
संज्ञा पुं० [सं०] चरित्र द्वरा नम्र या विनीत भाव प्रदर्शन । शिष्टाचार । नम्रता ।

चारित्रमार्गणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चरित्र की खोज । चरित्र का अनुसरण । (जैन) । विशेष— चारत्र पाँच प्रकार का है — (क) सामयिक, (ख) छेदोपस्थापनीय, (ग) परिहारविशुद्धि, (घ) सूक्ष्म सपर्या, (ङ) आधारन्यास । इनके विपक्षी संयम और असंयम है ।

चारित्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की समाधि ।

चारित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इमली ।

चारित्रिक
वि० [सं०] १. चरित्र सबंध । २. उत्तम चरीत्रवाला । [को०] ।

चारित्री
वि० [सं० चारित्रिन्] १. उत्तम चरित्रवाला सदा- चारी [को०] ।

चारित्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] चरित्र ।

चारिवाच
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकड़ासिंगी ।

चारी (१)
वि० [सं० चारिन्] [वि० स्त्री० चारिणी] १. चलनेवाला । जैसे, — आकाशचारी । २. आचरण करनेवाला । व्यवहार करनेवाला । जैसे, स्वेच्छाचारी । विशेष— इस शब्द का प्रयोग हिंदी में प्रायः समास में ही होता है ।

चारी (२)
संज्ञा पुं० १. पदाति सैन्य । पैदल सिपाही । २. संचारी भाव ।

चारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नृत्य का एक अंग । विशेष— शृंगार आदि रसों का उद्दीपन करनेवाली मधुर गति को चारी कहते हैं । किसी किसी के मत से एक या दो पैरों से नाचने का ही नाम चारी है । चारी के दो भेद हैं— एक भूचारी, दूसरा आकाशचारी । भूचारी २६ प्रकार की होती है । यथा— समनखा, नूपुरबिद्धा, तिर्यङमुखी, सरला, कातरा, कवीरा, विश्लिष्ट, रथचक्रिका, पांचिरेतिका, तलदर्शनी, गज- हस्तिका, परावृत्ततला, चारुताड़िता, अर्द्ध मंडला, स्तंभक्रीडनका, हरिणत्रासिका चारुरेचिका, तलोर्द्वत्ता, संचारिता, स्फूरिका, लघितजंघा, संघटिता, मदालशा, उत्कुंचिता, अतितिर्यककु चिंता, और अपकु चिंता । मतांतर से भूचारी १६ प्रकार की होती है — समपादस्थिता, विद्धा, शकवर्द्धिका, बिकाधा, ताड़िता, आबद्धा, एड़का, क्रीडिता, उरुवृत्ता, द्वंदिता, जनिता, स्पंदिता, स्पदितावती, समतन्वी, समोत्सारितघट्टिता और उच्छृवंदिता । आकाशचारी १६ प्रकार की होती हैं — विपेक्षा, अधरी, अघ्रिता डिता, भ्रमरी, पुरुःक्षेपा, सूचिका, अपक्षेपा, जंघापती, विद्धा, हरिणप्लुता, उरुजंघांदोलिता, जंघा, जंघनिका, विद्युत्कांता, भ्रमरिका और दंडपार्श्र्वा । मतांतर से—विभ्रांता, अतिक्राता, अपक्राता, पार्श्वक्रातिका, उदर्ध्वजानु, दोलोदवृत्ता, पादोदवृत्ता, नुपुरपादिका, भुजंगभासिका, शिप्ता, आविद्धा, ताला, सूचिका, विद्युत्क्रांता, भ्रमरिका और दंडपाटा ।

चारु (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चार्वी] सुंदर मनोहर ।

चारु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति । २. रुक्मिणी से उत्पन्न कृष्ण के एक पुत्र । ३. कुंकुम । केसर ।

चारुक
संज्ञा पुं० [सं०] सरपत के बीज जो दवा के काम में आते हैं । वैद्यक में ये बीज मधुर, रूखे, रक्तपित्तनाशक, शीतल, वृष्य, कसेले और वात उत्पन्न करनेवाले माने जाते हैं ।

चारुकेशरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागरमोथा । २. तरुणी तुष्प । सेवती का फूल ।

चारुगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम ।

चारुगच्छा
संज्ञा पुं० [सं० चारु + हिं० गुच्छा] अंगूर ।

चारुगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम ।

चारुघोण
वि० [सं०] सुंदर नाकवाला [को०] ।

चारुचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम ।

चारुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरता । मनोहरता । सुहावनापन ।

चारुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'चारुता' [को०] ।

चारुदर्शन
वि० [सं०] देखने में सुंदर लगनेवला [को०] ।

चारुदेष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रुक्मिणी से उत्पन्न कृष्ण के एक पुत्र जिन्होंने निकुंभ आदि दैत्यों के साथ युद्ध किया था (हरिवंश) । २. गंडूष के एक पुत्र का नाम ।

चारुधामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'चारुधारा' [को०] ।

चारुधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की पत्नी शची ।

चारुधिष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] ग्यारहवें मन्वंतर के सप्तर्षियों में से एक ।

चारुनालक
संज्ञा पुं० [सं०] कोकनद । रक्त कमल ।

चारुनेत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हरिण ।

चारुनेत्र (२)
वि० सुंदर नेत्रवाला ।

चारुपद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसारणी । पसरन । गंधपसार ।

चारुपुट
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के ६० मुख्य भेदों में से एक ।

चारुफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंगूर या दाख की एक बैल । द्राक्षालता ।

चारुबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम ।

चारुभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम ।

चारुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुकिमणी से उत्पन्न कृष्ण की एक पुत्री (हरिवंश) ।

चारुयश
संज्ञा पुं० [सं० चारुपशस्] श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम (महाभारत अनुशासन पर्व) ।

चारुरावा
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्राणी । शची ।

चारुलोचन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चारुलोचना] सुंदर नेत्रवाला [को०] ।

चारुलोचन (२)
संज्ञा पुं० हिरन [को०] ।

चारुवक्त्र
वि० [सं०] सुंदर । सुंदर चेहरेवाला [को०] ।

चारुवर्धना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर स्त्री । सुंदरी [को०] ।

चारुविंद
संज्ञा पुं० [सं० चारुविन्द] श्रीकुष्ण के एक पुत्र का नाम (हरिवंश) ।

चारुवेश
संज्ञा पुं० [सं०] रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र (हरिवंश) ।

चारुव्रता
वि० [सं०] महीने भर व्रत करनेवाली [को०] ।

चारुशिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रत्न [को०] ।

चारुशील
वि० [सं०] अच्छे स्वभाववाला [को०] ।

चारुश्रवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० चारुश्रवस्] रुक्मिणी के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण के एक पुत्र ।

चारुश्रवा (२)
वि० सुंदर कानवाला ।

चारुसार
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण । सोना [को०] ।

चारुहासिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] सुंदर हँसनेवाली । मनोहर मुसकानवाली ।

चारुहासिनी (१)
संज्ञा स्त्री० १. मनोहर मुसकानवाली स्त्री । २. वैताली नामक छंद का एक भेद ।

चारुहासी
वि० [सं० चारुहासिन्] [वि० स्त्री० चारुहासिनी] सुंदर हँसनेवाला ।

चारेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] भूपाल । राजा [को०] ।

चारोली †
संज्ञा पुं० [देश०] गुठली ।

चार्घा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की सड़क जो छह हाथ चौड़ी होती थी ।

चार्चा पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] चर्चा । उ०— अच्छर बारि पंडित पढ़ि भूले करै चार्चा सोई ।— जग० श०, पृ० ५४ ।

चार्चिक
वि० [सं०] कुशल या दक्ष (वेदपाठी) । वेदपाठ में कुशल [को०] ।

चार्चिक्य
संज्ञा पु० [सं०] १. अंगराग । २. अंगराग लेपन [को०] ।

चार्ज
संज्ञा पुं० [अं०] १. किसी काम का भार । कार्यभार । जैसे, - (क) उन्होंने ३ तारीख को आफिस का चार्ज ले लिया । (ख) लार्ड रीडिंग ने २ तारीख को बंबई में, जहाज पर, नए वायसराय को चार्ज दिया । क्रि० प्र०— देना । लेना । २. संरक्षण । सुपुर्दगी । देखरेख । अधिकार । जैसे, — सरकारी अस्पताल सिविल सर्जन के चार्ज मैं है । ३. अभियोग । आरोप । इलजाम । जैसे,— मालूम नहीं अदालत ने उनपर क्या चार्ज लगाया है । यौ०— चार्जशीट । क्रि० प्र०— लगना ।— लगाना । दाना ।— लेना । ४. दाम । मूल्य । जैसे, — (क) आपके प्रेस में छपाई का चार्ज अन्य प्रेसों की अपेक्षा अधिक है । (ख) इतना चार्ज मत कीजिए । क्रि० प्र०— करना ।— देना ।— पडना । ५. किराया । भाड़ा । जैसे, — अगर आप ड़ाकगाड़ी से जायँगे तो आपको इयोढ़ा चार्ज देना पडे़गा । क्रि० प्र०— देना ।— लगना । ६. हमला । आक्रमण । जैसे, लाठी चार्ज ।

चार्जशीट
संज्ञा पुं० [अं०] अभियोगपत्र । फर्द जुर्म । उ०— जसींदारों से इच्छानुसार रपोटें लेते रहे । चार्जशीट तैयार करते रहे ।— काले०, पृ० ७० ।

चाटर (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह लेख जिसमें किसी सरकार की ओर से किसी को कोई स्वत्व या अधिकार देने की बात लिखी रहती है । सनद । अधिकारपत्र । जैसे, — चार्टर ऐक्ट । २.किसी शर्त पर जहाज को किराए पर लेना या देना । जैसे— चीनी व्यापारियों ने माल लादने के लिये हाल में दो जापानी जहाज चार्टर किए हैं ।

चार्टर (२)
वि० [अ० चार्टर्ड] जो राजा की सनद से स्थापित हुआ हो । जैसे, — महारानी के लेटर्स पेटेंट्स से स्थापित होने के कारण कलकत्ता, मद्रास, बंबई और इलाहाबाद के हाइकोर्ट चार्टर्ड हाइकोर्ट कहाते हैं ।

चार्म (१)
संज्ञा पुं० [अं०] [वि० चार्मिंग] आकर्षण [को०] ।

चार्म (२)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चार्मी] १. चर्म संबंधी । २. चमडे़ का । ३. चमडे़ में मढ़ा हुआ । जैसे, रथ आदि । ४. ढालवाला । ढालयुक्त [को०] ।

चार्मण (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चार्मणी] चमडे़ से ढेंका हुआ [को०] ।

चार्मण (२)
संज्ञा पुं० १. खालों का समूह । २. ढालों का समूह [को०] ।

चार्मिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० चार्मिकी] चमडे़ का बना हुआ [को०] ।

चार्मिण
संज्ञा [सं०] ढालधारियों का समूह [को०] ।

चार्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रात्य वैश्य द्वारा सवर्ण स्त्री से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति (मनु) । २. दूतकार्य । दौत्य (को०) । ३. जासूसी । भेद लेने का कार्य (को०) ।

चार्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित एक प्रकार का मार्ग या पथ जो एक दंड चौड़ा होता था ।

चार्वाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक । पर्या०— बार्हस्पत्य । नास्तिक । लौकायतिक । विशेष— ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं । बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है । बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है । सर्वदर्शनसंग्रह में इनका मत दिया हुआ मिलता है । पद्यपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था । नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की । विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग मे भ्रष्ट किया । मायामोह ने अपुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है । जैसे, - मायामोह ने कहा है कि यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु स्वर्ग जाता है दो यजमान अपने पिता को क्यों नहीं मार डालता इत्यादि । लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक ठिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है । वाल्मीकिरामायण अयोध्या कांडमें महर्षि जावालि ने रामचंद्र को बनबाम छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है । इन सब बातों से सिद्ध होता है कि नास्तिक मत बहुत प्राचीन है । इसका अविर्भाव उसी समय मे समझना चाहिए जव वैदिंक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते । परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं । सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है । संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं । मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि । चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते । उनके मत से जिस प्रकार गुड़ तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है । इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है । इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता । ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं । पर चार्वाक प्रत्यक्ष को छोड़कर अनुमान को प्रमाण में नहीं लेते । उनका तर्क है कि अनुमान व्याप्तिज्ञान का आश्रित है । जो ज्ञान हमें बाहर इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भूत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है । मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों का ही आश्रित है । यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो । चार्वाक का मत सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि और बृहस्पतिसूत्र में देखना चाहिए । नैषध के १७वें सर्ग में भी इस मत का विस्तृत उल्लेख है । यौ०— चार्वाक दर्शन = चार्वाक निर्मित दर्शन ग्रथ । चार्वाक मत = चार्वाक का सिद्धांत या दर्शन । २. एक राक्षस जो कौरवों के मारे जाने पर ब्राह्मण वेश में युधिष्ठिर की राजसभा में जाकर उलको राज्य के लोभ से भाई बंधुओं को मारने के लिये धिक्कारने लगा । इसपर सभास्थित ब्राह्मण लोग हुंकार छोड़कर दौडे़ और उन्होंने छद्यवेशधारी राक्षस को मार डाला ।

चार्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ बुद्धि । २. चाँदनी । ज्योत्स्ना । ३. दीप्ति । आभा । ४. सुंदर स्त्री । ५. कुबेर की पत्नी । ६. दारु हलदी ।

चाल (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चलना, सं० चार ] १. गति । गमन । चलने की क्रिया । जैसे— इस गाड़ी की चाल बहुत धीमी है । २. चलने का ढंग । चलने का ढब । गमन प्रकार । जैसे, —यह घोड़ा बहूत अच्छी चाल चलता है । उ०— रहिमन सूधी चाल ते प्य़ादा होत वजीर । फरजी मीरन ह्वै सकै, टेढे़ की तासीर ।— रहीम (शब्द०) । ३. आचरण । चलन । बर्ताव । व्यवहार । जैसे, — (१) अपनी इसी बुरी चाल से तुम कहीं नहीं टिकने पाते । (२) अपने सुत की चाल न देखत उलटी तू हम पै रिस ठानति । — सुर (शब्द०) ।यौ०— चालचलन । चालढाल । मुहा०— चाल सुधारना = आचरण ठीक करना । ४. आकार प्रकार । ढब । बनावट । आकृति । गढ़न । जैसे, -इस चाल का लोटा हमारे यहाँ नहीं बनता । ५. चलन । रीति । रवाज । रस्म । प्रथा । परिपाटी । जैसे, — हमारे यहाँ इसकी चाल नहीं है । ६. गमनका मुहूर्त । चलने की सायत । चाला । उ०— पोथी काढ़ि गवन दिन देखै कौन दिवस है चाल ।— जायसी (शब्द०) । ७. कार्य करने की युक्ति । कृतकार्य होने का उपाय । ढंग । तदबीर । ढब । जैसे, — किसी चाल से यहाँ से निकल चलो । ८. धोखा देने की युक्ति । चालाकी । कपट । छल । धूर्तता । उ०— जोग कथा पठई ब्रज को सब सठ चेरी की चाल चलाकी ।— तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०— करना । यौ०— चालबाली । मुहा०— चाल चलना (अकर्मक) =धोखा देने की युक्ति का कृतकार्य होना । धूर्तता से कार्य सिद्ध होना । जैसे, — यहाँ तुम्हारी चाल नहीं चलेगी । चाल चलना(सकर्मक) = धोखा देने का आयोजन करना चालाकी करना । धूर्तता करना । जैसे, — हमसे चाल चलते हो, बचा चाल में आना = धोखे में पड़ना । धोखा खाना । प्रतारित होना । ९. ढंग । प्रकार । विधि । तरह । जैसे, — मैंने उसे कई चाल मे समझाया पर उसकी समझ में न आया । १०. शतरंज । चौसर, ताश आदि के खेल में गोटी को एक घर से दूसरे घर में ले जाने अथवा पत्ते या पासे को दाँव पर डालने की क्रिया । जैसे, — देखते रहो, मैं एक ही चाल में मात करता हूँ । क्रि० प्र०— चलना । ११. हलचल । धूम । आदोलन । उ०— सातहू पताल काल सबद कराल राम भेदे मात ताल चाल परी सात सात में । — तुलसी (शब्द०) । १२. आहट । हिलने जोलने का शब्द । खटका । उ०— देखो सब बृक्ष निश्चल हो गए, मृग और पक्षियों की कुछ भी चाल नहीं मिलती । —(शब्द०) । मुहा०— चाल मिलना= हिलने डोलने का शब्द सुनाई देना । आहट मिलना । †१३. वह मकान जिसमें बहुत मे किराएदार रहते हों । किराए का बड़ा मकान (बंबई) ।

चाल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का छप्पर या छत । छाजन । २. स्वर्णचूड़ पक्षी । ३. चलना । गतिशील होना (को०) । ४. नीलकठ (को०) ।

चालक (१)
वि० [सं०] १. चलानेवाला । संचालक ।

चालक (२)
संज्ञा पुं० १ वह हाथी जो अंकुश न माने । नटखट हाथी । २. नृत्य में भाव बताने या सुंदरता लाने के लिये हाथ चलाने की क्रिया ।

चालक पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चाल (= धूर्तता)] चाल चलनेवाला । धूर्त । छली । उ०— घरघाल, चालक, कलहप्रिय कहियत परम परमारथी । — तुलसी (शब्द०) ।

चालकुंड
संज्ञा पुं० [सं० चालकुण्ड] चिलका नाम की झील जो उड़ीसा में है ।

चालचलन
संज्ञा पुं० [हिं० चाल + चलन] आचरण । व्यवहार । चरित्र । शील । जैसे,— उसका चालचलन अच्छा नहीं है ।

चालढाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाल + ढाल] १. आचरण । व्यवहार । २. ढंग । तौर तरीका ।

चालण पु
संज्ञा पुं० [सं० चालन] दे० 'चलन' । यौ०— चालणहार = चलनेवाला । उ०— छउ सातम दिन आवीयो । निहचइ औलगि चालणहार ।— बीसल० रास, पृ० ४९ ।

चालणी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चालनी या चालनी] दे० 'चालनी' । उ०— बाँका ठहरै वार जो, मिल चालणी मझार ।— बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ४९ ।

चालन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चलाने की क्रिया । परिचालन । २. चलने की क्रिया । गति । गमन । ३. चलनी । छलनी । ३. चालने की क्रिया (को०) ।

चालन
संज्ञा पुं० [हिं० चालना] भूसी या चोकर जो आटा चलने के पीछे रह जाता है । चलनौस ।

चालनहार (१)पु
संज्ञा पुं० [हिं० चालन + हार (प्रत्य०)] चलानेवाला । ले जानेवाला ।

चालनहार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] चलनेवाला । उ०— तौ दिसि उत्तर चालनहार के मारग केतोइ फेर परै किन । वा उजयीनि के आछे अटा परसे बिन तू चलियो कितहू जिन ।— लक्ष्मण सिंह (शब्द०) ।

चालना (१)पु †
क्रि० स० [सं० चालन] १. चलाना । परिचालित करना । २. एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाना । ३. बिदा करा ले आना (बहु आदि) । ३. हिलाना । डोलाना । इधर उधर फेरना । उ०— चालत न भुजबल्ली विलोकनि बिरह वस भइ जानकी ।—तुलसी (शब्द०) । ५. कार्यनिर्वाह करना । भुगताना । उ०— चालत सब राज काज आयसु अनुसरत ।— तुलसी (शब्द०) । ६. बात उठाना । प्रसंग छेड़ना । उ०— बनमाली दिसि सैन कै ग्वाली चाली बात ।—(शब्द०) । ७. आटे को चलनी में रखकर इधर उधर हिलाना जिसमें महीन आटा नीचे गिर जाय और भूसी या चोकर चलनी में रह जाय । छानना ।

चालना (२)
क्रि० अ० [सं० चालन] १. चलना । गति में होना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । यौ०— चालनहार = चलनेवाला । २. बिदा होकर आना । चाना होना (नवबधू का) । उ०— पाखहू न बीत्यो चलिआए हमै पीहर तें नीके कै नजानी सासु ननद जेठानी है । — शिवराम (शब्द०) ।

चालना (३)
संज्ञा पुं० [सं० चालन] बड़ी चलनी ।

चालनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चलनी । छलनी । उ०—चालनी कहे सूई से कि तेरी पेंदी में छेद ।— मैला०, पृ० ७० ।

चालनीय
वि० [सं०] जो चलाया या हिलाया जा सके [को०] ।

चालबाज
वि० [हिं० चाल + फ़ा० बाज] धूर्त । छली ।

चालबाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० चालबाज] चालाकी । छल । धोखेबाजी । धूर्तता ।

चाला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चाल] १. प्रस्थान । कूच । रवानगी । २. नई बहू का पहले पहल मायके से ससुराल या ससुराल से मायके जाना । ३. यात्रा का मुहूर्त । प्रस्थान के लिये शुभ दिन । चलने की सायत । जैसे, आज पूरब का चाला नहीं है । मुहा०— चाला देखना = यात्रा का मुहूर्त बिचारना । चाला निकालना = मुहूर्त निश्चित करना ।

चाला (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चालाक= छानना] १. एक प्रकार का कृत्य जो किसी व्यक्ति के मर जाने पर उसकी षोड़शी आदि की क्रिया की समाप्ति पर रात के समय किया जाता है । विशेष — इसमें एक चलनी में राख या बालू डालकर उसे छानते हैं; और जमीन पर गिरी हुई राख या बालू में बननेवाली आकृतियों से इस बात का अनुमान करते हैं कि मृत व्यक्ति अगले जन्म में किस योनि में जायगा । यह कृत्य प्रायः घर की कोई बड़ी बूढ़ी स्त्री एकांत में करती है, और उस समय किसी को, विशेषतः बालकों को, वहाँ नहीं आने देती ।

चालाक
संज्ञा [फ़ा०] १. चतुर । व्यवहारकुशल । दक्ष । २. धूर्त । चालबाज ।

चालाकी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. चतुराई । व्यवहारकुशलता । दक्षता । पटुता । २. धूर्तता । चालबाजी । क्रि० प्र० करना । मुहा० — चालाकी खेलना = चालाकी करना । ३. युक्ति । कौशल ।

चालान
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] १. भेजे हुए माल की फिहरिस्त । बीजक । इनवायस (व्यापारी) । २. भेजा हुआ माल या रुपया अथवा उसका ब्योरेवार हिसाब । यौ०— चालानदार । चालानबही । ३. रवन्ना । चले जाने या माल आदि ले जाने का आज्ञापत्र । ४. मुजरिमों का विचार के लिये अदालत में भेजा जाना । अपराधियों का सिपाहियों के पहरे में थाने या न्यायालय की ओर प्रस्थान । क्रि० प्र० करना ।— होना ।

चालानदार
संज्ञा पुं० [हिं० चालान+ फ़ा० दार] १. वह व्यक्ति जो भेजे हुए माल के साथ जाता है और जिसकी जिम्मेदारी पर माल भेजा जाता है । चढ़नदार । जमादार । २. जिसके जिम्मे या जिसके पास चालान का कागज हो ।

चालानबही
संज्ञा स्त्री० [हिं० चालान+बही] १. वह बही जिसमें बाहर से आनेवाले या बाहर जानेवाले माल का ब्योरा लिखा जाता है ।

चालिया
[हिं० चाल + इया(प्रत्य०)] चालबाज । धूर्त । छली । धोखेबाज ।

चालिस †
वि० [हिं० चालीस] दे० 'चालीस' ।

चाली (१)
वि० [हिं० चाल] १. चालिया । धूर्त । चालबाज । २. चंचल । नटखट । शरीर । उ०—जनम को चाली ए री अदभुत दै ख्याली आजु काली की फनाली पै नचत बनमाली है ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २३१ ।

चाली † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाल] १. चाल । रस्म रिवाज । २. चलने का तरीका । चाल ।

चाली † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० चलना] व्यक्तियों का वह दल जो अपने दल से हटा दिया गया हो ।

चालीस (१)
वि० [सं०चत्वारिंशत्, प्रा० चत्तलीस, चालीस] जो गिनती में बीस और बीस हो । तीस से दस अधिक । जैसे,— चालिस दिन ।

चालीस (२)
संज्ञा पुं० बीस और बीस की संख्या । बीस और बीस का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—४० ।

चालिसवाँ (१)
वि० [हिं० चालीस] जिसका स्थान उनतालीसवें के आगे हो । जिसके पीछे उनतालीस और हों । जो क्रम में उनतालीस वस्तुओं के आगे पड़ता हो । जैसे, चालीसवाँ प्रकरण ।

चालीसवाँ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० चालीस] मुसलमानों में मृतक कर्म करने में चालीसवें दिन का कृत्य । चहलुम ।

चालीससरा †
वि० [हिं० चालीस + सरा] १. विशुद्ध । शुद्ध (घी) । २. अज्ञ । मूर्ख (व्यक्ति) ।

चालिसा
संज्ञा पुं० [हिं० चालीस] [स्त्री० चालीसी] १. चालीस वस्तुओं का समूह । जैसे, चालिसा चूरन (जिसमें चालीस चीजें पड़ती हैं) । २. चालीस दिन का समय । चिल्ला । ३. चालीस वर्ष का समय । क्रि० प्र०—लगना = (१) चालीस वर्ष का होना । (२) पढ़ने आदि के लिये चश्मे की आवश्यकता पड़ना । ४. चालीस पद्यों का ग्रंथ वा काव्य । जैसे, हनुमानचालीसा । ५. दे० 'चालीसवाँ' ।

चालुक्य
संज्ञा [सं०] सं० दक्षिण का एक अत्यंत प्रवल और प्रतापी राजवंश जिसके शक संवत् ४११ से लेकर ईसा की १२ वीं शताब्दी तक राज्य किया । विशेष—विल्हण के विक्रमांकचरित् में लिखा है कि चालुक्य वंश का आदिपुरुष ब्रह्मा के चुलुक (चूल्लू) से उत्पन्न हुआ था । पर चालुक्य नाम का यह कारण केवल कविकल्पित ही है । कई ताम्रपत्रों में लिखा पाया गया है कि चालुक्य चंद्रवंशी थे और पहले अयोध्या में राज्य करते थे । विजयादित्य नाम के एक राजा ने दक्षिण पर चढ़ाई की और वह वहीं त्रिलोचन पल्लव के हाथ से मारा गया । उसकी गर्भवती रानी ने अपने कुलपुरोहित विष्णुभट्ट सोमयाजी के साथ मूड़िवेमु नामक स्थान में आश्रय ग्रहण किया । वहीं उसे विष्णुवर्धन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने गंग और कादंब राजाओं को परास्त करके दक्षिण में अपना राज्य बनाया । विष्णुवर्धन का पुत्र पुलिकेशी (प्रथम) हुआ जिसने पल्लवों से वातापी नगरी (आजकल की आदामी) को जीतकर उसे अपनी राजधानीबनाया । पुलिकेशी (प्रथम) शक ४११ में सिंहासन पर बैठा । पुलिकेशी (प्रथम) का पुत्र किर्तिवर्मा हुआ । किर्तिवर्मा के पुत्र छोटे थे इससे किर्तिवर्मा के मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई मंगलीश गद्दी पर बैठे । पर जब किर्तिवर्मा का जेठा लड़का सत्याश्रय बड़ा हुआ तब मंगलीश ने राज्य उसके हवाले कर दिया । वह पुलिकेशी द्वितीय के नाम से शक ५३१ में सिंहासन पर बैठा और उसने मालवा, गुजरात, महाराष्ट्र, कोंकण, काँची, आदि को अपने राज्य में मिलाया । यह बड़ा प्रतापी राजा हुआ । समस्त उत्तरीय भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करनेवाला कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन तक ने दक्षिण पर चढ़ाई करके इस राजा से हार खाई । चीनी यात्री हुएनसांग ने इस राज का वर्णन किया है । ऐसा भी प्रसिद्ध है की फारस के बादशाह खूसरो (दूसरा) से इसका व्यवहार था, तरह तरह की भेंट लेकर दूत आते जाते थे । पुलिकेशी के उपरांत चंद्रादित्य, आदित्यवर्मा, विक्रमादित्य क्रम से राजा हुए । शक ६०१ में विनयादित्य गद्यी पर बैठा । यह भी प्रतापी राजा हुआ और शक ६१८ तक सिंहासन पर रहा । शक ६७८ में इस वंश का प्रताप मंद पड़ गया, बहुत से प्रदेश राज्य से निकल गए । अंत में विक्रमादित्य (चतुर्थ) के पुत्र तैल (द्वितीय) ने फिर राज्य का उद्धार किया और चालुक्य वंश का प्रताप चमकाया । इस राजा ने प्रबल राष्ट्रकूटराज का दमन किया । शक ८९१ में महाप्रतापी त्रिभुवनमल्ल विक्रमादित्य (छठा) के नाम से राजसिंहासन पर बैठा और इसने चालुक्य विक्रमवर्ष नाम का संवत् चलाया । इस राजा के समय के अनेक ताम्रपत्र मिलते हैं । विल्हण कवि ने इसी राजा को लक्ष्य करके विक्रमांकदेवचरित् नामक काव्य लिखा है । इस राजा के उपरांत थोडे़ दिनों तक तो चालुक्य वंश का प्रताप अखंड रहा पर पीछे घटने लगा । शक ११११ तक वीर सोमेश्वर ने किसी प्रकार राज्य बचाया, पर अंत में मैसूर के हयशाल वंश के प्रबल होने पर वह धीरे धीरे हाथ से निकलने लगा । इस वंश की एक शाखा गुजरात में और एक शाखा दक्षिण के पूर्वी प्रांत में भी राज्य करती थी ।

चाल्य
वि० [सं०] दे० 'चालनीय' [को०] ।

चाल्ह पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] चेल्हवा मछली । उ०—बात कहत भइदेस गुहारी । केवटहिं चाल्ह समुँद महँ मारी । —जायसी (शब्द०) ।

चाल्हा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'चाल्ह' । उ०—तत खन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २२७ ।

चाल्ही
संज्ञा स्त्री० [देश०] नाव में वह स्थान जो नरिया के पास ही बाँस की फट्टियों से पटा रहता है और जहाँ खेनेवाला मल्लाह बैठते हैं ।

चावँचावँ
संज्ञा दे० [अनुध्व०] दे० 'चायँ चायँ' ।

चाव (१)
संज्ञा पुं० [हिं० चाह] १. प्रबल इच्छा । अभिलाषा । लालसा । अरमान । उ०—(क) चित्रकेतु पृथ्विपतिराव । सुतोहित भयो तासु हिय चाव । —सूर (शब्द०) । (ख) चहौ दीप वह देखा, सुनत उठा तस चाव ।—जायसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—उठना ।—करना ।— होना । मुहा०—चाव निकालना = लालसा पूरी करना । २. प्रेंम । अनुराग । चाह । उ०—ज्यों ज्यों चवाव चलै चहुँ ओर धरैं चित चाव पै त्यों ही त्यों चोखे—(शब्द०) । ३. शौक । उत्कंठा । उ०—चोप घटी कि मिटी चित चाव, कि आलस नींद, कि बेपरवाही ।—(शब्द०) । लाड़ ४. प्यार । दुलार । नखरा । यौ०—चावचोचला = नाजनखरा । चावभाव = प्रेमभाव । यौ०—उमंग । उत्साह । आनंद । उ०—यहि बिधि जासु प्रभाव, श्री दसरथ महिपाल मणि । और सबै चित चाव, सुत बिनु तपित रहत हिय ।—रघुराज (शब्द०) ।

चाव (२) †
संज्ञा पुं० [सं० चप] एक प्रकार का बाँस । वि० दे० 'चाब' ।

चावड़ा
संज्ञा पुं० [चावण] चावण । खत्रियों का एक वर्ग ।

चावड़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पथिकों के उतरने का स्थान । चट्टी । पड़ाव । जैसे, चावड़ी बाजार ।

चावण
संज्ञा पुं० [देश०] गुजरात का एक प्रसिद्ध और प्राचीन राज- पूत वंश जिसने कई शताब्दियों तक गुजरात में राज्य किया । इस वंश की राजधानी अनहलवाड़ा थी । विशेष—जिस समय महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आक्रमण किया था उस समय सोमनाथ चावण राजा के अधिकार में था । इस वंश का उत्पत्ति का ठीक पता नहीं हैं । कोई कोई चावडों को विदेश से आया बतलाते हैं पर अधिकांश लोग इन्हें विस्तृत प्रमार वंश की शाखा मानते हैं । इनके सबसे प्राचीन पूर्वज का नाम बछराज मिलता है । बछराज दीव या दीउ नामक स्थान में राज्य करते थे । बछराज के पुत्र वेणीराज के समय जब दीउ टापू का अधिकांश समुद्रमग्न हो गया तब उनकी रानी वहाँ से चंदू नामक स्थान में भागी जहाँ उसके गर्भ से बनराज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । यह पुत्र बड़ा प्रतापी हुआ और डाकुओं का बड़ा भारी दल इकट्ठा करके इधर उधर लूट मार करने लगा । अंत में अनहल नामक चरवाहे ने पट्टन नगर के खँडहरों में प्रमारों का बहुत सा सचित धन उसे दिखा दिया । इसी धन के बदले उसने उसी स्थान पर संवत् ८०२ में अनहलवाड़ा नामक नगर बसाया ।

चावर †
संज्ञा पुं० [हिं० चावल] दे० 'चावल' ।

चावरि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० चावल] चवाल । उ०—रतन मिलैं तिल चावरि कीनी । भरि भरि गोद सबनि को दीनी ।— नंद० ग्रं०, पृ० २४१ ।

चावल
संज्ञा पुं० [ तणडुल अथवा मुंडारी] १. अक प्रसिद्ध अन्न । धान के बीज के गुठली । तंडुल । मुहा०—चावल चबवाना = जिन जिन पर किसी वस्तु के चुराने का संदेह हो उन्हें चारयारी रुपया भर चावल यह कहकर चबवाना कि जो चोर होगा उसके मुँह से थूकने पर खून निकलेगा । यह वास्तव में एक प्रकार की धमकी है जिससे डरकर कभी कभी चोर चिजें फेंक देते हैं ।२. राँधा चावल । भात । ३. छोटे छोटे बीज के दाने जो किसी प्रकार खाने के काम में आवें । जैसे, लटजीरा के चावल, जवाइन के चावल, इत्यादि । ४. एक रत्ती का आठवाँ भाग या उसके बराबर का तौल । मुहा०—चावल भर = रत्ती के आठवें भाग के बराबर ।

चावा पु
वि० [हिं० चाहना] प्रसिद्ध । उ०—मेछ महाबल मारियौ चौडे़ एकण चोट । जवन अभायो जांणता जो चावौ नवकोट ।—रा० रू, पृ० २९३ ।

चाशनी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. चीनी, मिस्री या गुड़ का रस जो आँच पर चढाकर गाढ़ा और मधु के समान लसीला किया गया हो । शीरा । मुहा०—चाशनी में पागना = मीठा करने के लिये चाशनी में डुबाना । २. किसी वस्तु में थोडे़ से मीठे आदि की मिलावट । जैसे,—तमाकू में खमीरे की चाशनी । क्रि० प्र०—देना । ३. चसका । मजा । जैसे,—अब उसे इसकी चाशनी मिल गई है । ४. नमूने का सोना जो सुनार को गहने बनाने के लिये सोना देनेवाला गाहक अपने पास रखता है और जिससे वह बने हुए गहने के सोने का मिलान करता है । विशेष—जब किसी सोनार को बहुत सा सोना जेवर बनाने के लिये दिया जाता है तब बनानेवाला उसमें का थोडा सा (लगभग १ माशा) सोना निकालकर अपने पास रख लेता है और जब सोनार जेवर बनाकर लाता है तब वह उस जेवर के सोने को कसौटी पर कसकर अपने पास नमूने से मिलाता है । यदि जेवर का सोना नमूने से न मिला तो समझा जाता है कि सुनार ने सोना बदल लिया या उसमें कुछ मिला दिया ।

चाशनीगिर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] बादशाहों या नबाबों का वह कर्मचारी जो भोज्य पदार्थ का निरिक्षण चखकर करता था ।

चाष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीलकंठ पक्षी । उ०— चारा चाषु बाम दिसि लेई । मनहु सकल मंगल कहि देई ।—मानस, १३०३ । २. चाहा पक्षी ।

चाष (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० चक्ष्] आँख । नेत्र । उ०—अचरज देखि चाष लागै न निमेष कहुँ ।—प्रिया (शब्द०) ।

चास † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० चासा] १. जोत । बाह । २. दे० 'चस' ।

चास (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] किसी चीज की जाँच के लिये उसमें में निकाला हुआ भाग । चाशनी । उ०—चसकी चास लगायकै, खूब रँगी झकझोरा ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ८३ ।

चासना
क्रि० अ० [हिं० चास] जोतना ।

चासनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाशनी] दे० 'चाशनी' ।

चासा
संज्ञा पुं० [देश०] १. उड़ीसा की एक जाती जो किसानी पर निर्वाह करती है । २. हलवाहा । हल जोतनेवाला । ३. किसान । खेतिहर ।

चासू पु
वि० [हिं०] दे० 'चुस्त' । उ०—बाँहे सुंदरि वहरखा, चासू चुढ़ स विचार । मनुहरि कटि तर मेखला, पग झाँझर झणकार ।—ढोका०, दू० ४८१ ।

चाह (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० इच्छा (आद्यंत विपर्यय) चाह हिं० चाहि । अथवा सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह अथवा सं०/?/चक्ष < चाख, चाह] १. इच्छा । अभिलाषा । २. प्रेम । अनुराग । प्रीति । ३. पूछ । आदर । कदर । जैसे,—अच्छे आदमी की सब जगह चाह है । उ०—जाकि यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहना है, जाकि यहाँ चाह ना है वाकी वहाँ चाह ना ।—पोद्यार अभि० ग्रं०, पृ० ५७२ । ४. माँग । जरूरत । आवश्यकता ।

चाह (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. खबर । समाचार । २. गुप्त भेद । मर्म । उ०—(क) राव रंक जँह लग सब जाती । सब की चाह लेति दिन राती ।—जायसी (शब्द०) । (ख) पुर घर घर आनंद महा मुनि चाह सोहाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

चाह (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाय] दे० 'चाय' ।

चाह (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाव] दे० 'चाव' ।

चाह (५)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] कुआँ । यौ०—चाहकन=कुँआ खोदनेवाला ।

चाहक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाहना] १. चाहनेवाला । कामना करनेवाला । उ०—जस चाहक गाहक ही । ह० रासो, पृ० ४६ । २. प्रेम करनेवाला ।

चाहत
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाह+त (प्रत्य०)] चाह । प्रेम ।

चाहत (३)
वि० इच्छित । उ०—पदमावति चाहत ऋतु पाई ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ०, १४९ ।

चाहना (१)
क्रि० स० [हिं० चाह] १. इच्छा करना । अभिलाषा करना । २. प्रेम करना । स्नेह करना । प्यार करना । ३. लेने या पाने की इच्छा प्रकट करना । माँगना । जैसे— हम तुमसे रुपया पैसा कुछ नहीं चाहते । ४. प्रयत्न करना । जोर करना । कोशिश करना । जैसे, —उसने बहुत चाहा कि हाथ छुड़ाकर निकल जायँ पर एक न चली । ५. चाह से देखना । ताकना । निहारना । उ०—पुनि रुपवंत बखानौ काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ।—जायसी (शब्द०) । ६. ढूँढ़ना । खोजना । तलाश करना ।

चाहना (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाहना] चाह । जरूरत । उ०—ग्वाल कवि वे ही परसिद्ध सिद्ध जो हैं जग, वे ही परसिद्ध ताकी यहाँ है सराहना । जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहना है, जाकी यहाँ चाह ना है ताकी वहाँ चाह ना ।—ग्वाल (शब्द०) ।

चाहमान पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चौहान' ।

चाहल पु
वि० [हिं० चाह+ल (प्रत्य०)] चाह से युक्त । चाहनेवाला । उ०—वरति चारु उप्पर उतंड अच्छित मुत्ताहल । ससि उप्पर ससि किरनि, धीर सुष्षे गुन चाहल ।—पृ० रा०, १९ । १५१ ।

चाहा (१)
संज्ञा पुं० [चाष] जल से निकट रहनेवाला बगले की तरह का एक पक्षी जिसका सारा शरीर गुलदार और पीठ सुनहरी होती है । उ०—उड़ आबानी, हिरहरी,बया, चाहा चुगते कर्दम, कृमि, तृन ।—ग्राम्या०, पृ० ३८ । विशेष—यह जल अथवा कीचड़ के कीडे़ मकोडे़ खाता है । इसका लोग मांस के लिये शिकार करते हैं । यह पक्षी कई प्रकार का होता है ।यौ०—चाहा करमाठी—गर्दन सफेद, शेष सब काला । चाहा चुक्का=चोंच और पैर लाल, शेष सब खाको । चाहा बगौधी= पैर लाल, शेष सब शरीर चितकबरा । चाहा लमगोड़ा= चितकबरा, चोंच और पैर कुछ अधिक लंबे ।

चाहा पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हिं० चाह] खबर । उ०—को सिंहल पहुँचावै चाहा ।—जायसी० ग्रं०, पृ० १५९ ।

चाहि पु
अव्य० [सं० चैव (=और भी, बँग० चेये चाइते)] अपेक्षाकृत (अधिक) । बनिस्बत । से (बढ़कर) । उ० (क) ससि चौदस जो सँवारा । ताहू चाहि रूप उजियारा । जायसी (शब्द०) । (ख) मेघहिं चाहि अधिक वे कारे । भयो असूझ देखि अँधियारे ।—जायसी (शब्द०) । (ग) जीव चाहि सो अधिक पियारी । माँगै जीउ देउँ बलिहारी ।—जायसी (शब्द०) । (घ) कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहि चाहि ।—तुलसी (शब्द०) ।

चाहि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चाह] दे० 'चाह' । उ०—सुत को सुनो पुरान यों, लोगनि कह्यो निहोरि । चाहि चाहि जुत नाह मुख मुसिक्यानि मुख मोरि ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४४ ।

चाहिअ पु
अव्य० [हिं० चाहिए] दे० 'चाहिए' । उ०—पुरुषहि चाहिअ ऊँच हिआऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३० ।

चाहिए
अव्य० [हिं० चाहना] उचित है । उपयुक्त है । मुनासिब है । जैसे,—लड़कों को चाहिए कि अपने माँ बाप का कहना मानें । विशेष—यह शब्द 'विधि' सूचित करने के लिये संयो क्रि० की भाँति क्रियाओं में भी लगता है; जैसे करना चाहिए, आना चाहिए, तुम्हें कभी ऐसा नहीं करना चाहिए, इत्यादि ।

चाही (१)
वि० स्त्री० [हिं० चाह] चाही हुई । जो चाही जाय । चहेती । प्यारी ।

चाही (२)
वि० [फ़ा० चाह (= कुँवाँ)] (वह भूमि) जो कुँवे से सींची जाय ।

चाही (३)पु
अव्य० [हिं० चाहि] दे० 'चाहि (१)' । उ०—अरि बस दैउ जिआवत जाही । मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।— मानस, २ । २१ ।

चाहु पु †
अव्य० [हिं० चाहिए] दे० 'चाहिए' । उ०— केओ बोल देखए देहे जनु काहु । केओ बोल ओझा आनि चाहु ।— विद्यापति, पृ० ३९९ ।

चाहुवान पु
संज्ञा पुं० [हिं० चौहान] दे० 'चहुआन' । उ०— श्रीकंठ भट्ट गय अरि सुथान । बीसलदे भेटयौ चाहुवान ।—पृ० रा०, १ । ४४२ ।

चाहे
अव्य० [हिं० चाहना] १. जी चाहे । इच्छा हो । मन में आवे । जैसे,—(क) तुम जहाँ चाहे वहाँ जाओ, मुझसे मतलब । (ख) इनमें से चाहे जिसको लो । २. यदि जी चाहे तो । जैसा जी चाहे । या ते । उ०— चाहे वो लो चाहे यह । ३. होना चाहता हो । होनेवाला हो । जैसे,—चाहे जो हो, हम यहाँ अवश्य जायेंगे ।