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विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/धा

विक्षनरी से

धांधा
संज्ञा स्त्री० [सं,० धान्धा] इलायची ।

धाँक
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली जाति जिसकी रहन सहन भीलों से बहुत कुछ मिलती जुलती है ।

धाँख पु
संज्ञा पुं० [हिं० धाम] उमंग । उ०— रिणवास पधारे सुर कज सारे अंग अपारे धाँख धरे ।— रघु० रू०, पृ० २३५ ।

धाँगड़
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक अनार्य जंगली जाति जो विंध्य और कैमोर पहाड़ियों पर रहती है । २. एक जाति जो कूएँ और तालाब खेदने का काम करती । उ०— अरु कत धाँगड़ देखिग्रीथ जाइ तें । गोरु मारि मिसिमल कए षाइतें ।—कीर्ति०, पृ० ९० ।

धाँगर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धाँगड़' ।

धाँदल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धाँधल (१)' । उ०— मुल्का पो चड़ के दुश्मन धाँदल मँचाया देखो ।— दक्खिनी०, पृ०२९६ ।

धाँधना
क्रि० स० [देश०] १. बंद करना । भेड़ना । उ०— (क) बारण पाशहि अंगन बाँधो । राख्यो ताहि कोठरी धाँधी ।— आगि लगायो कोठरि धाँधी ।— कबीर (शब्द०) । २. बहुत अधिक खा लेना । ठूसना ।

धाँधल
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. ऊधम । उपद्रव । नटखटी । क्रि० प्र०—मचाना । २. फरेब । धोखा । दगा । ३. बहुत अधिक जल्दी । जैसे,—तुम तो आते ही खाने के लिये धाँधल मचाने लगते हो । क्रि० प्र०— मचाना ।

धाँधलपन
संज्ञा पुं० [हिं० धाँधल + पन(प्रत्य०)] १. पाजीपन । शरारत । २. धोखेबाजी । दगाबाजी ।

धाँधला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धाँधल'-२ । उ०— धारे ऊहड़ धाँधला साम तणै छल सार ।— रा० रू०, पृ० ७१ ।

धाँधली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाँधल] १. गड़बड़ी । अव्यवस्था । २. धोखेबाजी । ३. मनमानी । ४. अनाचार । उपद्रव । ५. शीघ्रता । जल्दबाजी ।

धाँधली (२)
वि० १. ऊधम करनेवाला । उपद्रवी । २. धूर्त । धोखेबाज ।

धाँधाली
वि० [हिं० धाँधल + ई (प्रत्य०)] १. उपद्रवी । शरीर । पाजी । नटखट । २. धोखेबाज । दगाबाज ।

धाँम पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धाम' । उ०— अवसथ, वसति, रु आवसति, धाँम, कुंज स सुषवास ।— नंद० ग्रं०, पृ० १०८ ।

धाँय
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धाँय' ।

धाँस
संज्ञा स्त्री० [अनु०] सूखे तंबाकू या मिर्च आदि की तेज गंध जिससे खाँसी आने लगती है ।

धाँसना
क्रि० अ० [अनु०] पशुओं का खाँसना ।

धाँसी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घोडे़ की खाँसी ।

धा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. बृहस्पति ।

धा (२)
वि० धारक । धारण करनेवाला ।

धा (३)
प्रत्य० तरह । भाँति । प्रकार । जैसे, नवधा भक्ति । उ०— देखि देही सबै कोटिधा के मनो । जीब जीवेश के बीच माया मनो ।— केशव (शब्द०) ।

धा (४)
संज्ञा पुं० [सं० धैवत] संगीत में 'धैवत' शब्द या स्वर का संकेत ।

धा (५)
संज्ञा पुं० [अनु०] तबले का एक बोल । जैसे, धा धा धिनता ।

धा (६) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धाय' ।

धा (७)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धव' ।

धाइ † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाय] दे० 'धाय' । उ०— हों तो धाइ तिहारे सुत की मया करत ही रहियो ।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १५७ ।

धाइ (२)
संज्ञा पुं० [सं० धव] धव का पेड़ । उ०— राजति है यह ज्यौं कुसकन्या । धाइ विराजति है सँग धन्या ।—केशव (शब्द०) ।

धाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाय] दे० 'धाय' ।

धाउ
संज्ञा पुं० [सं० धाव] नाच का एक भेद । उ०— बह उड़पति तिर्यगपति अड़ाल । अरु लाग धाउ रायउ रँगाल ।—केशव (शब्द०) ।

धाऊ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० धावन] वह आदमी जो आवश्यक कामों के लिये दौड़ाया जाय । हरकारा । उ०—नाऊ बारी महर सब घाऊ धाय समेत । नेगचार पाए अमित रहयो जासु जस हेत ।—रघुराज (शब्द०) ।

धाऊ (२)
संज्ञा पुं० [सं० धातकी] धव का पेड़ ।

धाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृष । २. आहार । भोजन । भात । ३. अन्न । अनाज । ४. स्तंभ । खंभा । ५. आधार । ६. हौज (को०) । ७. ब्रह्मा (को०) ।

धाक (२)
संज्ञा स्त्री० १. रोब । दबदबा । आतंक । उ०— (क) धरम धुरंधर धरा में धाक धाए ध्रुव ध्रुव सों समुद्धत प्रताप सर्व काल है ।— रघुराज (शब्द०) । (ख) महाधीर शत्रुसाल नंदराय भाव सिंह तेरी धाक अरिपुर जात भय भोय से ।— मतिराम (शब्द०) । मुहा० — धाक जमना = प्रभाव होना । रोब या दबदबा होना । धाक बाँधना— रोब या दबदबा होना । आतंक छाना । जैसे,— शहर में उसके बोलने की धाक बँध गई । धाक बाँधना = रोज जमाना । जैसे,— ये जहाँ जाते हैं वहाँ धाक बाँध देते हैं । धाक होना = आतंक होना । प्रभाव होना । रोब होना । उ०— देश देश में हमारी धाक थी ।—चुभते० (भू०), पृ० २ । २. प्रसिद्धि । शोहरत । शोर । उ०— सूरदास प्रभु खात ग्वाल सँग ब्रह्मलोक यह धाक ।— सूर (शब्द०) ।

धाक (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ढाक] ढाक । पलाश ।

धाकना पु
क्रि० अ० [हिं० धाक + ना (प्रत्य०)] धाक जमाना । रोब जमाना । उ०— दास तुलसी के बिरुद्ध बरतन बिदुष बीर बिरुदैत बर बैरि धाके ।— तुलसी (शब्द०) ।

धाकर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. कान्यकुब्ज और सरजूपारी ब्राह्मणों में वह ब्राह्मण जो प्रसिद्ध कुलों के अंतर्गत न हो और उससे नीचा लमझा जाता हो । २. राजपूतों की एक जाति जो आगरे के आसपास पाई जाती है । ३. पंजाब का एक धान जो बिना पानी के पैदा होता है ।

धाकर † (२)
वि० दोगला ।

धाका †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाक] दे० 'धाक' ।

धाखा †
संज्ञा पुं० [देश०] पलाश का पेड़ ।

धागा †
संज्ञा पुं० [हिं० तागा] बटा हुआ सूत । डोरा । तागा । यौ०— धागा गंडा = तंत्र मंत्र से पवित्र किया हुआ वह डोरा जो हाथ की कलाई में बाँधा जाता है । उ०—उसके माता पिता ने बडे़ बडे़ गुणी तथा पंडितों को बुलाकर धागा गंडा बँधवाया ।—कबिर मं०, पृ० ४७७ । मुहा०— धागा भरना = कपडे़ के छेद आदि में तागे भरकर उसे रफू करना । धागे धागे करना = किसी कपडे़ के बहुत ही छो़टे छोटे टुकडे़ करना । चिथडे़ चिथेडे़ करना ।

धाग्ड़ांग †
संज्ञा पुं० [अनु०] मृदंग का धमाका । उ०— खीर हँसी हुल्लड़, हुड़दग । धमक रहा धाग्ड़ांग मृदंग ।— ग्राम्या, पृ० ४६ ।

धाजा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ध्वजा' । उ०— दिवि द्रिस्टि धाजा सेत । सब मर्म होत निकेत ।— सं० दरिया, पृ० ८ ।

धाड़ †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. दे० 'डाढ़' । २. दे० 'दाहा़ड़' । ३. दे० 'ढाड़' ।

धाड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धार] १. डाकुओं का आक्रमण । क्रि० प्र०—पड़ना । २. जल्दी । शीघ्रता । मुहा०— धाड़ पड़ना = बहु जल्दी होना । बहुत शीघ्रता होना । जैसे,— ऐसी कौन सी धाड़ पड़ी है जो अभी उठकर चले । ३. लुटेरों का समूह । उ०— धाडे़ पुकार पड़ लाखि धाड़ । रवि उदय अस्तलग पंच राहु ।— रा० रू०, पृ० ७३ । ४. जत्था । झुंड । गिरोह । जैसे, धाड़ की धाड़ बंदर आ गए ।

धाड़ना (१)
क्रि० अ० [हिं० दहाड़ना] दे० 'दहाड़ना' ।

धाड़ना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० धाड़] डाका मारना । उ०— दिन दिन धाडै़ दौड़ताँ, दूजै साँवण मास ।— राम० धर्म०, पृ० २५९ ।

धाड़वी पु
संज्ञा पुं० [हिं० धाड़] डाकू । उ०— रामदास जी महाराज के वास्ते एक दुष्ट धाड़वी ने बुरी नजर से देखा कि कहाँ चले गए इनको रास्ते के बीच ही खोंस लेऊँगा ।— राम० धर्म०, पृ० २८८ ।

धाड़स †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढारस' ।

धाड़ा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धाड़'-१ । उ०— परा सखि रात को धाड़ा । —घट०, पृ० ३०६ ।

धाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाड़] भारी लुटेरा या डाकू ।

धाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का परिमाण । २. एक अनार्य छोटी जाति ।

धाणा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धाड़' । उ०— कर वाड़ा कपटरा धाणा पाड़ण धाम ।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ७ ।

धात (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धातु] दे० 'धातु' । उ०— मर्दनीक मर्दन करै, पढै धात तन बेल ।— पृ० रा०, ६ । १३० ।

धात (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धातु(वैद्यक)] उ०—इस धात उम्र खरच कीता आखिर फिर पछताया ।— दक्खिनी०, पृ० ५५ ।

धातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धव का फूल । २. एक प्रकरा का झाड़ जो सारे भारत में होता है और जिसके फूलों का व्यवहार रँगाई के काम में होता है । विशेष— साल में एक वार इसके पत्ते झड़ जाते हैं ।

धातविक
वि० [सं०] १. धातु से निर्मित । २. धातु से संबंधित [को०] ।

धाता (१)
संज्ञा पुं० [सं० धातृ] १. ब्रह्मा । २. विष्णु । ३. शिव । महादेव । ४. भृगुमुनि के पुत्र का नाम । ५. ४९ वायुओं में से एक । ६. शेषनाग । ७. १२ सूर्यों में से एक । ८. ब्रह्मा के एक पुत्र का नाम । ९. विधाता । विधि । १०. साठ संवतसरों में से एक । ११. टगण के आठवें भेद की संज्ञा (/?/) । १२. स्रष्टा (को०) । १२. रक्षक । धारक (को०) । १४. आत्मा (को०) । १५. सप्तर्षि (को०) । १६. जार । उपपति (को०) । १७. प्रबंधक । व्यवस्थापक (को०) । १८. पोषक (को०) । यौ०— धातापुत्र = सनत्कुमार ।

धाता (२)
वि० १. पालक । पालनेवाला । २. रक्षक । रक्षा करनेवाला । ३. धारण करनेवाला ।

धातापुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं० धातृ + पुष्पिका] धातकी [को०] ।

धातापुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० धातृ + पुष्पी] धातकी [को०] ।

धातु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह मूल द्रव्य जो अपारदर्शक हो, जिसमें एक विशेष प्रकार की चमक हो, जिसमें से होकर ताप और विद्युत् का संचार हो सके तथा जो पीटने अथवा तार के रूप में खींचने से खंडित न हो । एक खनिज पदार्थ । विशेष— प्रसिद्ध धातुएँ हैं— सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, सीसा और राँगा । इन धातुओं में गुरुत्व होता है, यहाँ तक कि राँगा जो बहुत हलका है वह भी से सात गुना अधिक धना या भारी होता है । ऊपर लिखी धातुओं में केवल सोना, चाँदी ओर ताँबा ही विशुद्ध रूप में मिलते हैं; इससे इन पर बहुत प्राचीन काल में ही लोगों का ध्यान गया । कहीं कहीं, विशेषतः उल्कापिंडों में, लोहा भी विशुद्ध रूप में मिलता है । युरोपियनों के जाने के पहले अमेरिकावाले उल्कापिंडों के लोहे के अतिरिक्त और किसी लोहे का व्यवहार नहीं जानते थे । सीसा और राँगा वुशुद्ध धातु के रूप में प्रायः नहीं मिलते, बल्कि खनिज पिंडों को गलाकर साफ करने से निकलते हैं । राँगा, सीसा, जस्ता आदि शुद्ध रूप में न मिलनेवाली धातुओं का ज्ञान लोगों को कुछ काल पीछे, जब वे मिश्र धातु आदि बनाने लगे, तब हुआ । बहुत दिनों तक लोग पीतल तो बना लेते थे पर जस्ते को अच्छी तरह नहीं जानते थे । यही हाल राँगे का भी समझिए । पारे को भी लोग बहुत दिनों से जानते हैं । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि पारा शुद्ध धातु के रूप में भी बहुत मिलता है । पारा अर्धद्रव अवस्था में मिलता है इसी से युरोप में बहुत दिनों तक लोग उसे धतुओं में नहीं गिनते थे । पीछे मालूम हुआ कि वह सरदी से जम सकता है और उसका पत्तर बन सकता है । मूल धातुओं के योग से मिश्र धातुएँ बनती हैं— जैसे ताँबे और राँगे के योग के काँसा आदि । इनके अतिरिक्त अब अलु- मिनियम, प्लेटिनम, निकल, कोवाल्ट आदि बहुत सी नई धातुओं का पता लगा हैं । इस प्रकार धातुओं की संख्या अब बहुत हो गई है । रेडियम नामक धातु का पता लगे अभी थोडे़ ही दिन हुए हैं । यद्यपि साधारणतः धातु उन्हीं द्रव्यों को कहते हैं जो पीटने से बिना खंडित या चूर हुए बढ़ सकें, तथापि अब धातु शब्द के अंतर्गत चूर होनेवाले द्रव्य भी लिए जाते है और अर्ध- धातु कहलाते हैं, जैसे संखिया, हरताल, सुरमा, सज्जीखार इत्यादि । इस प्रकरा क्षार उत्पन्न करनेवाले मूल पदार्थ भी धातु के अंतर्गत आ गए हैं । ऊपर कहा जा चुका है कि धातुओं की गणना मूल द्रव्यों में है । आधुनिक रसायनशास्त्र में मूल द्रव्य उसको कहते हैं जिसका विश्लेषण करने पर किसी दूसरे द्रव्य का योग न मिले । इन्हीं मूल द्रव्यो के अणुयोग से जगत् के भिन्न भिन्न पदार्थ बने हैं । आज तक १०० से अधिक मूल द्रव्यों का पता लग चुका है जिनमें से गंधक, फासफरस, अम्लंजन, उज्जन, इत्यादि १३ की गणना धातुओं में नहीं हो सकती बाकी सब धातु ही माने जाते हैं । तपे हुए लोहे, सीसे, ताँबे आदि के साथ जब अम्लजन नामक वायव्य द्रव्य का योग होता है तब वे विकृत हो जाते हैं (मुरचा इसी प्रकार का विकार है) । विकृत होकर जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसे भस्म या क्षार कह सकते हैं, यद्यपि वैद्यक में प्रचलित भस्म और दूसरे प्रकरा से प्राप्त द्रव्यों को भी कहते हैं । देशी वैद्य भस्म, क्षार और लवण में प्रायः भेद नहीं करते, कहीं कहीं तीनों शब्दों का प्रयोग वे एक ही पदार्थ के लिये करते हें । पर आधुनिक रसायन में क्षार और अम्ल के योग से जो पदार्थ उत्पन्न होते हैं उनको लवण कहते हैं । इस प्रकार आजकल वैज्ञानिक व्यवहार में लवण शब्द के अंतर्गत तूतिया हीरा, कमीम आदि भी आ जाते हैं । ताँबे के चूरे को यदि हवा में (जिसमें अम्लजन रहता है) तपा या गलाकर उसमें थोडा सा गंधक का तेजाब डाल दें तो तेजाब का अम्ल गुण नष्ट हो जाएगा और इस योग से तूतिया उत्पन्न होगा । अतः तूतिया भी लवण के अंतर्गत हुआ । इधर के वैद्यक ग्रंथों में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, लोहा, सीसा और जस्ता ये सप्त धातु माने गए हैं । सोनामाखी, रूपामाखी, तूतिया, काँसा, पीतल, सिंदूर और शिलाजतु ये सात उपधातु कहलाते हैं । पारे को रस कहा हैं । गंधक, ईगुर, अभ्रक, हरताल, मैंनसिल, सुरमा, सुहागा, रावटी, चुंबक, फिटकरी, गेरू, खड़िया, कसीक, खपरिया, बालू, मुरदासंख, ये सब उपरस कहलाते हैं । धातुओं के भस्म का सेवन वैद्य लोग अनेक रोगों में कराते हैं । २. शरीर को धारण करनेवाला द्रव्य । शरीर को बनाए रखनेवाले पदार्थ । विशेष— वैद्यक में शरीरस्थ सात धातुएँ मानी गई हैं— रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थिमज्जा और शुक्र । सुश्रृत में इनका विबरण इस प्रकार मिलता हैं । जो कुछ खाया जाता है उससे जो द्रव रूप सूक्ष्म सार बनता है वह रस कहलता है और उसका स्थान हृदय है जहाँ से वह धमनियों के द्वारा सारे शरीर में फैलता है । यही रस अविकृत अवस्था में शेव (पित्त के कार्य) के साथ मिश्रित होकर लाल रंग का हो जाता है और रक्त कहलाता है । रक्त से मांस, शीव से मेद, मेद से हड्डी, हड्डी से मज्जा और मज्जा के शुक बनता है । वात, पित्त और कफ की भी धातु संज्ञा है । ३. बुद्ध या किसी महात्मा की अस्थि आदि जिसे बौद्ध लोग डिब्बे में बंद करके स्थापित करते थे । यौ०— धातुगर्भ । ४. शुक्र । वीर्य । मुहा०— धातु गिरना = पेशाब के साथ या यों ही वीर्य गिरने का रोग होना । प्रमेह होना ।

धातु (२)
संज्ञा पुं० १. भूत । तत्व । उ०— जाके उदित नचत नाना विधि गति अपनी अपनी । सूरदास सब प्रकृति धातुमय अति विचित्र सजनी ।—सूर (शब्द०) । विशेष— पंचभूतों और पंचतन्मात्र को भी धातु कहते हैं । बौद्धों में अठारह धातुएँ मानी गई हैं— चक्षुधातु, घ्राणधातु, श्रोत्रधातु, जिह्वाधातु, कायधातु, रूपधातु, शब्दधातु, गंध- धातु, रसधातु, स्थातव्यधातु, चक्षुविज्ञानधातु, श्रोत्रविज्ञान धातु, घ्राणविज्ञानधातु, जिह्वाविज्ञानधातु, कायविज्ञानधातु, मनोधातु, धर्मधातु, मननोविज्ञानधातु । २. शब्द का मूल । क्रियावाचक प्रकृति । वह मूल जिससे क्रियाएँ बनी हैं या बनती हैं । जैसे, संस्कृत में भू, कृ, धृ इत्यादि (व्याकरण) । विशेष— यद्यपि हिंदी व्याकरण में धातुओं की कल्पना नहीं की गई है, तथापि की जा सकती है । जैसे, करना का 'कर' हँसना का 'हँस' इत्यादि । ३. परमात्मा ।

धातुकाल
संज्ञा पुं० [सं० धातु + काल] इतिहास में वह युग जब मनुष्य ने अपने विकासक्रम में धातु का उपयोग करना सीखा । धातुयुग । उ०— यह जितियाँ पाषाणकाल के उत्तरकाल में से धातुकाल तक पहुँच गई थीं ।—प्रा० भा० पृ (भू०), पृ० ग ।

धातुकाशीश
संज्ञा पुं० [सं०] कसीस ।

धातुकासीस
संज्ञा पुं० [सं०] कसीस ।

धातुकुशल
संज्ञा पुं० [सं०] धातु के कार्य में निपुण [को०] ।

धातुक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] १. खाँसी का रोग जिससे शरीर क्षीण हो जाता है । २. प्रमेह आदि रोग जिसमें शरीर से बहुत वीर्य निकल जाता है । क्षयरोग ।

धातुगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] वह कंगूरेदार डिबाबा या पात्र जिसमें बौद्ध लोग बुद्ध या अपने दूसरे भारी साधु महात्माओं के दाँत या हड्डियाँ आदि रखते हैं । देहगोप ।

धातुगोप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धातुगर्भ' ।

धातुध्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह पदार्थ जिससे शरीर का धातु नष्ट हो । जैसे, काँजी, पारा आदि ।

धातुचैतन्य
वि० [सं०] धातु (वीर्य) को उत्पन्न या चैतन्य करनेवाला । जिससे वीर्य बढे़ ।

धातुज
संज्ञा पुं० [सं०] खान या पर्वत से उत्पन्न तेल [को०] ।

धातुद्रावक
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा, जिसके डालने से सोना आदि गल जाता है ।

धातुनाशक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धातुध्व' ।

धातुप
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार शरीर में का वह रस या पतला धातु जो भोजन के उपरांत तुरंत ही तैयार होता है और जिससे शेध धातुओं का पोषण होता है ।

विशेष— दे० 'धातु' ।

धातुपाक
संज्ञा पुं० [सं० धातु + पाक] शुक्रजन्य एक रोग जिसमें रोग की वृद्धि के साथ साथ बल क्षीण होता जाता हैं । उ०— धातु पाक कहिए उत्तरोत्तर रोग की वृद्धि और बल की हानि होकर शुक्रादि धातु सहित मूत्रादिको का जो पाक होय उसे धातुपाक कहते हैं ।—माधव०, पृ० २८ ।

धातुपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] पाणिनि की व्याकरणिक पद्धति पर निर्मित धातुओं की सूची । विशेष— इन धातुओं की रचना संभवतः पाणिनि ने ही अपने सूत्रों के परिशिष्ट के रूप में की है ।

धातुपुष्ट
वि० [सं०] वीर्य को गाढ़ा करनेवाला । जिससे बीर्य गाढ़ा होकर बढे़ ।

धातुपुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] धातुओं की पुष्टि । धातुपोषण [को०] ।

धातुपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव का फूल ।

धातुपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव का फूल ।

धातुप्रधान
संज्ञा पुं० [हिं०] वीर्य ।

धातुभृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ ।

धातुभृत् (२)
वि० जिससे धातु का पोषण हो ।

धातुबैरी
संज्ञा पुं० [सं० धातुवैरिन्] गंधक ।

धातुमत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धातुमान् होने का गुण या भाव [को०] ।

धातुमय
वि० [सं०] खनिज पदार्थों से परिपूर्ण । जिसमें खनिज पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो [को०] ।

धातुमर्म
संज्ञा पुं० [सं०] कच्ची धातु को साफ करना, जो ६४ कलाओं के अतगंत है । धातुवाद । उ०— सूचिकर्म धातुमर्म सूत्र क्रीड़नोलिजू ।— विश्राम (शब्द०) ।

धातुमल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक के अनुसार कफ, पित्त, पसीन, नाखून, बाल, आँख या कान की मैल आदि जिसकी सृष्टि किसी धातु के परिपक्व हो जाने पर उसके बचे हुए निरर्थक अंश या मल से होती है । २. सीसा (को०) ।

धातुमाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी नाम की उपधातु ।

धातुमान्
वि० [सं० धातुमत्] जिसमें या जिसके पास धातुएँ हों [को०] ।

धातुमारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुहागा ।

धातुमारी
संज्ञा पुं० [सं० धातुमारिन्] गंधक [को०] ।

धातुयुग
संज्ञा पुं० [सं० धातु + युग] दे० 'धातुकाल' ।

धातुराग
संज्ञा पुं० [सं०] धातुओं से निकला हुआ रंग । जैसे, ईंगुर, गेरू, मैनसिल आदि । उ०— सिय अंग लिखै धातुराग सुमननि भूषन विभाग तिलक करनि क्यों कहौं कलानिधान की ।—तुलसी (शब्द०) ।

धातुराजक
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र या वीर्य जो शरीर के सब धातुओं में श्रेष्ठ माना जाता है ।

धातुरेचक
वि० [सं०] वीर्य को बहानेवाला । जो वीर्य को बहाकर निकाल दे ।

धातुवर्द्धक, धातुवर्धक
वि० [सं०] वीर्य को बढ़ानेवाला । जिससे वीर्य बढ़े ।

धातुवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] सोहागा ।

धातुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. चौसठ कलाओँ में से एक, जिसमें कच्ची धातु को साफ करते, तथा एक में मिली हुई अनेक धातुओं को अलग अलग करते हैं । २. रसायन बनाने का काम । ३. ताँबे से सोना बनाना । ४. कीमियागिरी । उ०— धातुवाद निरुपधि सब सदगुरु लाभ सुमीत । देव दरस कलिकाल में पोथिन दुरे सभीत ।—तुलसी (शब्द०) ।

धातुवादी
संज्ञा पुं० [सं० धातुवादिन्] रसायन की सहायता से सोना या चाँदी बनानेवाला । कारंधमी । रसायनी । कीमियागर ।

धातुवैरी
संज्ञा पुं० [सं० धातुवैरिन्] गंधक ।

धातुशेखर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसीस । २. सीसा ।

धातुशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा [को०] ।

धातुसंज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा ।

धातुसंभव
संज्ञा पुं० [सं० धातुसम्भव] सीसा [को०] ।

धातुसाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] वात, पित्त कफ की सम्यक् अवस्था । अच्छा स्वास्थ्य [को०] ।

धातुस्तंभक
वि० [सं० धातुस्तम्भक] वीर्य को रोकनेवाला । जिससे वीर्य का स्तंभन हो और वह देर में स्खलित हो ।

धातुहन
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक ।

धातू
संज्ञा पुं० [सं० धातु] दे० 'धातु' ।

धातूपल
संज्ञा पुं० [सं०] खरिया मिट्टी । खरी । दुधिया या दुद्धी ।

धातृपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार ।

धातृपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव के फूल ।

धातृपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धव के फूल ।

धात्र
संज्ञा पुं० [सं०] पात्र । बरतन ।

धात्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँवला ।

धात्री
संज्ञा पुं० [सं०] १. माता । माँ । २. वह स्त्री जो किसी शिशु को दूध पिलाने और उसका लालन पालन करने के लिये नियुक्त की जाय । दाई । उ०— धात्री कहिए आँवले धात्री धाय बखान ।—अनेकार्थ०, पृ०, १३६ । ३. गायत्री स्वरूपिणी भगवती । ४. गंगा । ५. आँवला । ६. भूमि । पृथ्वी । ७. सेना । कौज । ८. गाय । ९. आर्या छंद का एक भेद जिसमें १९ गुरु और १९ लघु मात्राएँ होती हैं ।

धात्रिकर्म
संज्ञा पुं० [सं०धत्रीकमंन्] धाय का काम । दाई का काम [को०] ।

धात्रीपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तालीस पत्र । २. आँवले की पत्ती ।

धात्रीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] नट । धाय का लड़का ।

धात्रीफल
संज्ञा पुं० [सं०] आँवला । आमला ।

धात्रीविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जिसकी सहायता से दाइयाँ गर्भवती स्त्रियों को प्रसव कराती और प्रसुता तथा शिशु कीरक्षा आदि करती है । लड़का जनाने और उसे पालने आदि की विद्या ।

धात्रियिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] धात्री । धाय । दाई । [को०] ।

धत्रियो
संज्ञा स्त्री० [सं०] धात्री । धाय । दाई ।

धात्वर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] धातु से निकलनेवाले (किसी शब्द के) अर्थ । मूल और पहला अर्थ ।

धात्वीय
वि० [सं०] १. धातुनिर्मित । २. धातु से संबंधित [को०] ।

धाधक हाहू पु
संज्ञा पुं० [अनु०] कष्ट । पीड़ा । हाहाकार । उ०— बढ़ेउ कमठ कहै दाह कराहू । चकाचाक भा धाधक हाहू ।— इंद्रा०, पृ० ९८ ।

धाधना †
क्रि० स० [देश०] देखना ।

धधिन
संज्ञा पुं० [अनु०] ढोल के बजने का एक स्वर या ताल । उ०— उड़ रहा ढोल धाधिन, धातिन ।— ग्राम्या, पृ० ३१ ।

धांनतर पु
संज्ञा पुं० [सं० धन्वन्तरि] दे० 'धन्वंतरि' । उ०— लछी रूप हरि भगति धरम हिंदू धानंतर ।—रा० रू०, पृ० १८० ।

धान (१)
संज्ञा पुं० [सं० धान्य] तृण जाति का एक पौधा जिसके बीज की गिनती अच्छे अन्नों में है । शालि । व्रीहि । विशेष— भारतवर्ष तथा आस्ट्रेलिया के कुछ भागों में यह जंगली होता है । इसकी बहुत अधिक खेती भारत, चीन, बरमा, मलाया, अमेरिका (संयुक्त राज्य और ब्रेजिल) तथा थोड़ी बहुत इटली और स्पेन आदि युरोप के दक्षिणी भागों में होती है । इसके लिये तर जमीन और गरमी चाहिए । यह संसार के उन्हों गरम भागों में होता है जहाँ वर्षा अच्छी होती है या सिंचाई के लिये खूब पानी मिलता है । धान की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आ रही है इसी से उसके अनंत भेद हो गए है । ऋग्वेद में धाना और धान्य शब्द आए हैं । धाना शब्द का अर्थ सायण ने कुटा हुआ जौ किया है, पर 'धान्य' का अर्थ दुसरा नहीं किया है । इसके अतिरिक्त अथर्ववेद, शांखायन ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, कात्यायन श्रोतसूत्र इत्यादि में धान्य शब्द का प्रयोग मिलता है । पर काहीं धान्य शब्द अन्न- मात्र के अर्थ में भी हैं । तैत्तिरीय संहिता, वाजसनेय संहिता आदि में व्रीहि शब्द बार बार आया है । कृष्णयजुर्वेद में शुक्ल और कृष्ण व्रीहि का उल्लेख है । फारसी में भी 'विरंज' शब्द चावल के लिये वर्तमान है जो निश्चय हो व्रीहि से संबंध रखता है । उससे स्पष्ट है कि प्राचीन आर्यों को धान का पता उस समय भी था जब उनका विस्तार मध्य एशिया तक था । ईसा से २८०० वर्ष पूर्व शिवनंग राजा के समय में चीन में एक त्यौहार मनाया जाता था जिसमें ५ प्रकार के अन्नों की बुआई आरंभ होती थी । उन पाँच अन्नों में धान का नाम भी है । चीन में धान जंगली भी पाए जाते है और धान की खेती भी बहुत दिनों से होती आ रही है । जापान, चीन, हिन्दुस्तान, बरमा, मलाया इत्यादि में चावल बहुत खाया जाता है । यद्यपि इसमें मांस बनानेवाला अंश बहुत कम होता है तथापि गरम देशों के लिये यह अन्न बहुत उपयुक्त होता है । भारतवर्ष में सबसे अधिक धान वंगाल में होता है । वहाँ इसके तीन मुख्य भेद माने जाते है ।—(१) आमन (अगहनी), जो जेठ आषाढ़ में बोया जाता है । और अगहन पूस में कटता है । (२) आउल (भदई) जो वैशाख जेठ में बोया जाता है और भादों कुआर में कटता है, और (३) जो पूस माघ में बोया जाता ओर वैशाख जेठ में कटता है । जो धान एक स्थान से उखाड़कर दूसरे स्थान पर लगाकर पैदा किया जाता है उस जड़हन कहते हैं, क्योंकि वह जाड़े में तैयार होता है । यों ती भिन्न भिन्न स्थानों में धान की बोआई पूस से लेकर आषाढ़ तक होती है और कटाई जेठ से अगहन तक, पर उत्तरीय भारत में अधिकतर धान अषाढ़ सावन में बोया जाता है । साधारण धान तो भादों कुआर तक तैयार हो जाता है पर जड़हन अगहन में कटता है । महीन चावल के धान अच्छे समझे जाते हैं । अच्छी जाति के बढ़िया चावल प्रायः जड़हन के हो होती हैं । धान या चावल के बहुत अधिक भेद हैं । सन् १८७२ में अजायवधर में रखने के लिये जो चावलों का संग्रह हुआ था उसमें पाँच हजार प्रकार के चावल बतलाए गए थे । इस संख्या को ठीक न मानकर आधी तिहाई भी लै तो भी बहुत भेद होते हैं । महीन सुगंधित चावलों में बासमती सबसे प्रसिद्ध है । जड़हनिया चावलो में बासमती के अतिरिक्त लटेरा, रामभोग रानीकाजर, तुलसीबस, मोतीचूर, समुद्र- फेन, कनकजीरा इत्यादि भी अच्छे चावल समझे जाते हैं । साधारण धान भी बहुत प्रकार के होतै है; जेसे बगरी, दुद्धी साठी सरया, रामजवाइन इत्यादि । पहाड़ों के बीच को तर जमीन में भी धान अच्छे होते हैं— जैसे, काँगड़े में, हृषी- केश के पास तपोवन में तथा जंबू प्रांत में कश्मीर मे भी अनेक प्रकार के अच्छे अच्छे चावल होते हैं । मुहा०— धान का खेत पयार से जानना ।—फल अथवा अर्थ से कार्य का महत्व समझना । उ०— ज्यों कछु भक्ष किए उद- गरत कैसै हुं राषि सकै न आघाँनी । सुंदरदास प्रसिद्धि दिषावत धान कौ षत पयार ते जाँनौ ।—सुंदर० ग्रं०, भा०, २, पृ० ६३० ।

धान पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० धन्या] दे० 'स्त्री' । उ०— दुख भीनी पंजर हुई । धान नू भावई तिज्या सरि न्हाण ।—वी० रासी, पृ० ६७ ।

धान पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ध्यान' । उ०— धान न भावे नींद न आवे, बिरह सतावे कोय ।—संतवाणी०, पृ० ७१ ।

धानक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनिया । २. एक रत्ती का चौथाई भाग ।

धानक (२)
संज्ञा पुं० [सं० धानुष्क] १. धनुष चलानेवाला । धनुर्धारी ।तीरंदाज । कमनैत । उ०— भौंह धनुष धन धानक दूसर सरि न कारय । गगन धनुक जो उमवै लाजाहिं सी छिपि जाय ।— जायसी (शब्द०) । २. धुनिया । रूई धुननेवाला । ३. एक पहाड़ी जाति का नाम जो पूरब में पाई जाती है ।

धानकी
संज्ञा पुं० [हि० धानुक] १ धनुर्धर । धनुर्धारी । २. कामदेव (डिं०) ।

धानख पु
संज्ञा पुं० [हिं० धनुष] एक विशेष प्रकार का धनुष जिसकी लबाई साढे़ तीन हाथ होती है । उ०—हाथी तहवर खान रौ, गौ, सौ, धानख भज्ज ।—रा० रू०, पृ० ४६ ।

धानजई
संज्ञा पुं० [हिं० धान + जई] एक प्रकार का धान ।

धानपान (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धान + पान] विवाह से कुछ ही पहले होनेवाली एक रसम जियमें वर पक्ष को और कन्या के धर धान और हल्दी भैजी जाती है । विशेष— जाहाँ तिलक होता है वहाँ प्रायः तिलक के बाद यह रसम होती है । इस रसम के उपरांत विवाह संबंध प्रायः पूर्ण रूप से निश्चित हो जाता है ।

धानपान (२)
वि० दुबला पतला । नाजुक । (बाजारू) ।

धानमाली
संज्ञा पुं० [सं०] किसी दूसरे के चलाए हुए अस्त्र को रोकने की एक त्रिया । उ०— अरु विनीत तिमि मत्तहि प्रसमन तैसहि सार चिमाली । रुचिर वृत्त मत पितृ सौमनस धन धानहुँ घृत माली ।— रघुराज (शब्द०) ।

धानव पु
संज्ञा पुं० [सं० धानुष्क] दे० 'धानुक' । उ०— धानष पर धानष चढ़ि आए ।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २२४ ।

धाना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूना हुआ जौ या चावल । बहरी । २. धनिया । ३. अन्न का कण । खुद्दी । ४. सत्तू । ५. धान । ६. अन्न मात्र ।

धाना पु † (२)
क्रि० अ० [सं० धावन] १. दौड़ना । तेजी से चलना । भागना । उ०— धूम श्याम धोरी घन धाए । सेत धुजा बग पाँति दिखाए ।— जायसी (शब्द०) । मुहा०— धाय पूजना = दूर रहना । अलग रहना । हाथ जोड़ना । संबंध न रखना । जैसे,—धाय पूजे इस नौकरी से २. कोशिश करना । प्रयत्न करना ।

धानाचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सत्तू ।

धानाभर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज भूनना [को०] ।

धानातवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व का नाम ।

धानी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो वारण करे । वह जिसमें कोई वस्तु रखी जाय । २. स्थान । जगह । जैसे, राजधानी । उ०— समथल ऊँच नीच नहिं कतहुँ पूर्ण धर्म धन धानी । सरस सुरस रंजित नीरस हत कोसलपति रजधानी ।—रघु- राज (शब्द०) । २. पीलू का पेड़ । ३. धनिया ।

धानी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धान + ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का हलका हरा रंग जो धान को पत्तो के रंग का सा होता है । तोतई । विशेष— यह प्रायः पीले और नीले रंग को मिलाकर बनाया जाता है ।

धानी (१)
वि० धान की पत्ती के रंग का । हलके हरे रंग का ।

धानी (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० धाना] भूना हुआ जौ या गेहूँ । यौ०— गुड़धानी ।

धानी पु † (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धान्य' ।

धानी (६)
संज्ञा स्त्री० संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी ।

धानुक
संज्ञा पुं० [सं० धानुष्क] १. धनुर्धर । धनुर्धारी । धनुष चलानेवाला । कमनैत । २. एक जाति । इस जाति के लोग प्रायः व्याह शादी में तुरही आदि बजाते हैं ।

धानुदैडिक
संज्ञा पुं० [सं० धानुर्दण्डिक] दे० 'धानुष्क' [को०] ।

धानुषंधर पु
संज्ञा पुं० [हिं० धनुष + धर] धनुष धारण करनेवाला । धनुर्धर । धनुर्धारी । उ०— अनेक धानुषंधर अनेक चक्र सँवर । चले अबद्ध षेदर्य षरे भरेति बिदेयं ।—पृ० रा०, २ । ११४ ।

धानुष्क
संज्ञा पुं० [सं०] धनुस् चलाकर अपनी जीविका का निर्वाह करनेवाला । कमनैत । धनुर्धर ।

धानुष्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपमार्ग । चिचड़ा ।

धानुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाँस ।

धानिये, धानेयक
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया ।

धान्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. चार तिल का एक परिमाण या तौल । २. धनिया । ३. कैवर्ती मुस्तक । एक प्रकार का नागरमोथा । ४. धान । छिलके समेत चावल । ५. अन्न मात्र । विशेष— अन्न मात्र को धान्य कहते हैं । किसी किसी स्मृति में लिखा है कि खेत में के अन्न को शस्य और छिलके साहित अन्न को दाने को धान्य कहते है । यौ०— धनधान्य । ६. प्राचीन काल का एक प्रकार का अस्त्र जिसका प्रयोग शत्रु के अस्त्र निष्फल करने में होता था और जो वाल्मीकि के अनुसार विश्वामित्र से रामचंद्र को मिला था ।

धान्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनिया । २. धान्य । धान ।

धान्यकल्क
संज्ञा पुं० [सं०] अनन के दाने का छिलका [को०] ।

धान्यकूट
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न रखने का स्थान । बखार [को०] ।

धान्यकोश
संज्ञा पुं० [सं०] बखार [को०] ।

धान्यकोष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धान्यकोष्ठक' [को०] ।

धान्यकाष्ठक
संज्ञा पुं० [सं०] अनाज भरने के लिये बना हुआ घर या बरटन । कोठिला । गोला ।

धान्यक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] धान का खेत [को०] ।

धान्यचमस
संज्ञा पुं० [सं०] चूड़ा [को०] ।

धान्यचारी
संज्ञा पुं० [सं० धान्यचारिन्] पक्षी [को०] ।

धान्यजीवी
संज्ञा पुं० [सं० धान्यजीविन्] पक्षी [को०] ।

धान्यतुषोद
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी ।

धान्यधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार दान के लिये एक कल्पित गाय जिसकी कल्पना धान की ढेरी में की जाती है । विशेष— इसका दान बिषुव संक्रांति या कार्तिक मास में सब प्रकार का सुख, सौभाग्य और पुराण संचय करने के लिये होता है ।

धान्यपंचक
संज्ञा पुं० [सं० धान्यपञ्चक] १. भावप्रकाश के अनुसार शालि, व्रीहि, शूक, शिंबी और क्षुद्र ये पाँचों प्रकार के धान । २. वैद्यक में एक प्रकार का पाचक पानी जो पाँचों प्रकार के धान बेल और आम आदि को मिलाकर बनाया जाता है और जिसका व्यवहार आम, शूल तथा अतिसार आदि रोगों में होता है । ३. वैद्यक में एक पाचक औषध, जिसे धनिया, सोंठ, बेलगिरी, नागारमोथा और त्रायमाण को मिलाकर बनाते हैं । विशेष— इसका व्यवहार आमातिसार तथा उदरशूल आदि रोगों में होता है ।

धान्यपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. चावल । २. जौ ।

धान्यपानक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पन्ना जो धनिए से बनाया जाता है । विशेष— इसके बनाने के लिये पहले धनिए को सिल पर पीसकर पानी के साथ छान लेते हैं और तब उसमें नमक, मिर्च चीनी और सुगंधित पदार्थ आदि छोड़ देते हैं ।

धान्यबीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. धनिया । २. धान का बीज ।

धान्यभोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि या जागीर जिसमें अन्न बहुत होता हो ।

धान्यमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रावण के यहाँ रहनेवाली एक राक्षसी जिसे उसने जानकी को समझने के लिये नियुक्त किया था । विशेष— किसी किसी का मत है कि रावण की स्त्री मंदोदरी का ही दूसरा नाम धान्यमालिनी था ।

धान्यमाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनाज का व्यापारी । २. अन्न तौलने वाला (को०) ।

धान्यमाष
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक परिमाण जो दो धान के बराबर होता था ।

धान्यसुख
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का अस्त्र जिसका व्यदहार प्राचीन काल में चीरफाड़ में होता था ।

धान्यमूल
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी ।

धान्ययूष
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी ।

धान्ययोनि
संज्ञा पुं० [सं०] काँजी ।

धान्यराज
संज्ञा पुं० [सं०] जौ ।

धान्यवनि
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न का ढेर [को०] ।

धान्यवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] पाँचों प्रकार के धान । धान्यपंचक ।

धान्यवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न उधार देने का व्यवहार जिसमें ऋणी से डेवढ़ा या सवाया लिया जाता है ।

धान्यवाप
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह स्थान जिसमें अन्न बहुतायत से पैदा होता हो ।

धान्यवीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धान्यबीज' ।

धान्यवीर
संज्ञा पुं० [सं०] उरद । माष ।

धान्यशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीनी मिला हुआ धिनिए का पानी जो अंतर्दाह शांत करने के लिये पिया जाता है ।

धान्यशीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] धान की मंजरी ।

धान्यशुंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० झान्यशुण्ठी] वैद्यक में एक औषध जो ज्वरतिसार और कफ के प्रकोप को शांत करता है । विशेष— इसे बनाने के लिये एक तोला धनिया और २ तोला सोंठ कूटकर आध सेर पानी में मिलाते और उसे आग पर चढ़ा देते हैं, और जब आध पाव पानी बच जाता है तब उसे उतार लेते हैं ।

धान्यशूक
संज्ञा पुं० [सं०] टूँड़ [को०] ।

धान्यशैल
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार दान करने के लियै वह कल्पित पर्वत जिसकी कल्पना धान की ढेरी में की जाती है । विशेष— कहते हैं इसके दान करनेवाले को स्वर्ग में सेवा के लिये अप्सराएँ और गंधर्व मिलते हैं और यदि वह किसी प्रकार इस लोक में आ जाय तो राजा होता है ।

धान्यसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० धान्यसड़्ग्रह] अनाज का भंडार [को०] ।

धान्यसार
संज्ञा पुं० [सं०] तंड़ुल । चावल ।

धान्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] धनिया ।

धान्याक
संज्ञा पुं० [सं०] धनिया ।

धान्याकृत
संज्ञा पुं० [सं०] खेतिहर । कृषक ।

धान्याभ्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक में भस्म बनाने के लिये धान की सहायता से शोधा ओर साफ किया हुआ अभ्रक । विशेष— पहले अभ्रक को सुखाकर खरल में खूब महीन पीस लेते हैं और तब उस चूर्ण को चौथाई धान के साथ मिलाकर एक कबल में बाँधकर तीन दिन तक पानी में रखने हैं । तीन दिन बाद उस पोटली को हाथ से इतना मलते हैं कि वह छनकर नीचे पानी में गिर जाता है । उसी अभ्रक को निथारकर सुखा लेते है । भस्म बनाने के लिये ऐसा अभ्रक बहुत अच्छा समझा जाता है । २. अभ्रक को इस प्रकार शोधने की क्रिया ।

धान्यम्लक
संज्ञा पुं० [सं०] धान से बनाई हुई खटाई या काँजी । विशेष— दूने जल के साथ धान को एक बंद बरतन में रखकर गाड़ दे । सात दिन पीछे उसे निकालकर उसका पानी छान ले । यहो खट्टा पानी काँजी है ।

धान्यारि
संज्ञा पुं० [सं०] चूहा ।

धान्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] चावल या अनाज कै रूप में संपत्ति [को०] ।

धान्याशय
संज्ञा पुं० [सं०] अन्नशाला । भंडार घर ।

धान्यस्थि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूसी [को०] ।

धान्योत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] शाली । धान ।

धान्वंतर्य
संज्ञा पुं० [सं० धान्वन्तर्य] धन्वंतरि दिवता के होम आदि । वह होम आदि जिनमें धन्वंतरि आदि देवता प्रधान हों ।

धान्व
वि० [सं०] धन्व देश संबंधी । धन्व देश का ।

धान्वन
वि० [सं०] धन्व देश संबंधी । धन्व देश का ।

धान्वन
वि० [सं०] दे० 'धान्व' [को०] ।

धाप (१)
संज्ञा पुं० [हिं० टप्पा] १. दूरी की एक नाप जो प्रायः एक भील को और कहीं दो मील की मान जाती है । २. लंबा चौड़ा मैदान । ३. खेत की नाप या लंबाई चौड़ाई ।

धाप (२)
संज्ञा पुं० [हिं० धार] पानी की धार (लश०) ।

धाप (३)
संज्ञा पुं० [हिं० धापना] जो भरना । तृप्ति । संतोष ।

धापना पु (१)
क्रि० अ० [सं० तर्पण?] संतृष्ट होना । तृप्त होने । अघाना । जो भरना । उ०—(क) लंपट धूत पूत दमरी को विषय जाप को जापी । भक्ष अभक्ष अपेय पान करि कबहुँ न मनसा धापी ।—सूर (शब्द०) ।(ख) दूतन कह्यो बड़ी यह पापी । इन तो पाप किए हैं धापी ।—सूर (शब्द०) । (ग) कबिरा ओंधी खोपड़ी कबहूँ धापे नाहि ।—तीन लोक की संपदा कबै घर माँहि ।—कबीर (शब्द०) ।

धापना (२)
क्रि० स० संतुष्ट करना । तृप्त करना ।

धापना (३)
क्रि० अ० [सं० धावन?] दौड़ना । भागना । जल्दी जल्दी चलना । उ०— द्रुमन चढ़े सब सखा पुकारत मधुर सुनावहु बैन । जनि घापहुँ बलि चरन मनोहर कठिन काँट मग ऐन ।—सूर (शब्द०) ।

धाबरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कबूतरों का दरबा ।

धाबा
संज्ञा पुं० [देश०] १. छत के ऊपर का कमरा । अटारी । वह स्थान जहाँ पर कच्ची या पक्की रसोई (मोल) मिलती हो ।

धाबाई
संज्ञा पुं० [हिं० धा(= धाय) + भाई] दूधमाई ।

धाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक प्रकार के देवता । २. विष्णु ।

धाम (२)
संज्ञा पुं० [सं० धामन्] १. गृह । घर । मकान । उ०— अपनै अपनै धाम कहँ, कूच मवासिन कीन ।—प० रासी, पृ० १०७ । २. देह । शरीर । तन । ३. बागडोर । लगाम । ४. शोभा । ५. प्रभाव । ६. देवस्थान या पुण्यस्थान । जैसे, परम धाम, चारो धाम आदि । ७. जन्म । ८. विष्णु । ९. ज्योति । १०. ब्रह्म । ११. चारदीवारी । शतरपनाह । १२. किरण । १३. तेज । १४. परलोक । १५. स्वर्ग १३. अवस्था । गति ।

धाम (३)
संज्ञा पुं० [देश०] फालसे की जाति का एक प्रकार का छोटा बृक्ष जो मध्य और दक्षिण भारत में पाया जाता है । विशेष— इसकी पत्तियाँ तीन से छह चतक लंबी और गौलाई लिए होती हैं ।

धामक
संज्ञा पुं० [सं०] माशा (तौल) ।

धामक धूमक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूमधाम' । उ०— बस्तु अलप है बहुत पसारा धामक धूमक भरि कोइ चले ।— रामानंद०, पृ० ३५ ।

धामकेशी
संज्ञा पुं० [सं० धामकेशिन्] सूर्य [को०] ।

धामच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

धामन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. फालसे की जाति का एक प्रकार का पेड़ जो देहरादून से आसाम तक साल आदि के जंगलों में होता है । विशेष— इसकी लकड़ी प्रायः बहँगी के डंडे या कुल्हाड़ी आदि के दस्त बनाने के काम में आती है । २. एक प्रकार का बाँस ।

धामन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धमिन' ।

धामन पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० दामन्] एक प्रकार की घास जो नरम और रेतीली भूमि में बहुत अधिकता से होती है । विशेष— यह प्रायः वर्षा ऋतु में बहुत होती है और पशुओं के लिये बहुत अच्छी समझी जाती है ।

धामनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'धमनी' ।

धामनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य ।

धामनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'धमनी' ।

धामभाज्
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञस्थान में भाग लेनेवाला देवता ।

धामश्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की रागीनी जिसके गाने का समय दिन में २५ दंड से २८ दंड तक है ।

धामसधूमस पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूमधाम' । उ०—धामस धूमस लगि रह्यौ सठ आय अचानक तोहि पछारै ।— सुंदर ग्रं०, भा० १०, पृ० ४११ ।

धामा †
संज्ञा पुं० [सं० धाम] १. भोजन का निमंत्रण । खाने का नेवता । २. आनाज आदि रखने का बड़ा टोकरा । (पश्चिम) ।

धामार्गव
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल चिचड़ा । ३. धीयातीरो ।

धामासा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धमासा' ।

धामिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० धाना(= दोड़ना ?)] १. एक प्रकार का साँप जो कुछ हरापन या पीलापन लिए सफेद रंग का होता है । विशेष— यह बहुत लंबा होता है और इसकी पूँछ में बहुत विष होता है । यह काटता नहीं बल्कि पूँछ से हो कोड़े की तरह मारता है । शरीर के जिस स्थान पर इबकी पूँछ लग जाती है उस स्थान का मांस गल गलकर गिरने लगता है । यह बहुत तेज दोड़ता है । २. एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत, राजपूताने तथा आसाम की पहड़ियों में अधिकता से होता है । विशेष— इसकी लकड़ी मजबूत और भूरे रंग की होती है और भेज कुरसी और अलमारी आदि बनाने के काम में आती है ।

धामिनी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धाम' । उ०— यामन मैं तुम भाय गए अरु, छाँड़ि दए धर के पुर धामिनि । नट०, पृ० ४१ ।

धामिया
संज्ञा पुं० [हिं० धाम] एक पंथ का नाम । २. इस पंथ का आदमी ।

धायँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] किसी पदार्थ के जोर से गिरने या तोप, बंदूक आदि छूटने का शब्द । विशेष— खट, पट, आदि शब्दों के समान इसका प्रयोग भी 'से' विभक्ति के साथ क्रि० वि०, वत् हो प्रायः होता है ।

धायँ धायँ
क्रि० वि० [अनु०] १. धायँ धायँ की आवाज के साथ । २. वेग के साथ जलते हुए ।

धाय (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धात्री] वह स्त्री जो किसी दूसरे के बालक को दूध पिलाने और उसका पालन पोषण करने के लिये नियुक्त हो । धात्री । दाई ।

धाय (२)
संज्ञा पुं० [सं० धातकी] धवई का पेड़ । विशेष— दे० 'धवई' ।

धाय (३)
वि० [सं०] धायक [को०] ।

धायक
वि० [सं०] अधिकार मे रखनेवाला । स्वत्व में रखनेवाला [को०] ।

धाय भाई
संज्ञा पुं० [हिं० धाय + भाई] धाय से उत्पन्न होने के कारण भाई जैसा ।

धाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि प्रज्वलित करते समय पढ़ा जानेवाला वेदमंत्र [को०] ।

धायी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धाय' ।

धय्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुरोहित ।

धय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह वेदमंत्र जो अग्नि प्रज्वलित करते समय पढा जाता है ।

धार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जोर से पानी बरसना । जोर की वर्षा । उ०—धार से निखरे हुए ऋतु के सुहाए बाग में । आम भरने के न झोले बन गए तो क्या हुआ ?—बेला पृ० ६६ । २. इकट्ठा किया हुआ वर्षा का जल जो वैद्यक के अनुसार त्रिदोष नाशक, लघु, सौम्य, रसायन, बलकारक, तृप्तिकर और पातक तथा मुर्छा, तंद्रा, दाह, थकावट और प्यास आदि को दूर करनेवाला है । कहते है, सावन और भादों में यह जल बहुत ही हितकारक होता है । विशेष—वैद्यक के अनुसार यह जल दो प्रकार का होता है—गांग और समुद्र । आकाशगंगा से जल लेकर मेघ जो जल बर- साते है वह गंगा कहलाता है और अधिक उतम माना जाता है; और समुद्र से जो जल लेकर मेघ वर्षा करते हैं वह जल सामुद्र कहलाता है । अश्विन मास में यदि सूर्य स्वाती और विशाषा नक्षत्र में हो तो उस महीने की बर्षा का जल गांग होता है । इसके अतिरिक्त शेष, जल सामुद्र होता है । साधारणतः सामुद्र जल खारा, नमकीन, शुक्रानाशक, दृष्टि के लिये हानिकारक, बलनाशक और दोषप्रदायक माना जाता है । पर अगस्त तारे के उदय होने कते उपरांत सामुद्र जल भी गांग जल की तरह गुणकारी । माना जाता है । ३. ऋण । उधार । कर्ज । ४. प्रांत । प्रदेश ।

धार (२)
वि० [सं०] गंभीर । गहरा ।

धार (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धारा] १. किसी आधार से लगे हुए अथवा निराधार द्रव पदार्थ की गतिपरंपरा । अखंड़ प्रवाह । पानी आदि के गिरने या बहने का तार । जैसे, नदी की धार, पेशाब की धार, खून की धार । उ०— गुरु सिष सार धार एक जानी । ज्यों जल मिलि जलधार समानी ।— घट०, पृ० २४९ । यौ०— धारधूरा । मुहा०— धार चढ़ाना = किसी देवी देवता या पवित्र नदी आदि पर दूध जल आदि चढ़ाना । धार टूटना = गिरने का प्रवाह खंड़ित होना । लगाकर गिरना या निकलना बंद हो जाना । धार देना = (१) दूध देना । (२) कोई उपयोगी काम करना । (व्यंग्ग) । जैसे,—यहाँ बैठे हुए क्या धार देते हो ? (३) दे० 'धार चढ़ाना' । धार निकलना = दूध दूहना । स्तनों से दूध निकालना । धार मारना = जोर से पेशाब करना । (किसी चीज पर) धार मारना या (किसी चीज को) धार पर मारना = किसी चीज को बहुत हो तुच्छ और अग्राह्य समझाना । जैसे,—हम ऐसे रुपए पर धार मारने हैं, या ऐसा रुपया धार पर, मारते हैं । धार बँधना = किसी तरल पदार्थ का धार बनकर गिरना । धार बाँधना = किसी तरल पदार्थ को इस प्रकार गिराना जिसमें उसकी धार बन जाय । ३. पानी का सोता । चश्मा । ४. जल ड़मरूमध्य (लश०) । ५. किसी काटनेवाला हथियार का वह तेज सिरा या किनारा जिससे कोई चीज काटते हैं । बाढ़ । जैसे, तलवार की धार चाकू की धार, कैंची की धार । मुहा०— धार बँधना = मंत्र आदि के बल से काटनेवाले अस्त्र की धार का निकम्मा हो जाना । धार बाँधना = मंत्र आदि के बल से किसी हथियार की धार की निकम्मा कर देना । विशेष— प्राचीनों का विश्वास था कि मंत्र के बल से हथियार की धार निकम्मी की जा सकती है ओर तब वह हथियार काट नहीं सकता । ६. किनारा । सिरा । छोर । ७. सेना । फौज । ८. किसी प्रकार का डाका, आक्रमण या हल्ला । उ०— जात सबन कहँ देखिए कहै कबीर पुकार । चेतका होहु तो चेत ले दिवस परत है धार ।— कबीर (शब्द०) । ९. और तरफ । दिशा । उ०— महरि पैठत भीतर छीक बाँई धार ।—सूर (शब्द०) । १०. जहाजों के तख्तों की संधि या जोड़ । कस्तूरा (लश०) ।

धार (४)
संज्ञा पुं० [सं० धारण] चोबदार या द्वारपाल (डिं०) ।

धार (५)
संज्ञा पुं० [सं० धारण] वह पेड़ का तना या काठ का टुकड़ा जो कच्चे कूएँ के मुँह पर इसलिये लगा दिया जाता है जिसमें उसका ऊपरी भाग अंदर न गिरे ।

धारक (१)
वि० [सं०] १. धारण करनेवाला । धारनेवाला । २. रोकनेवाला । ३. ऋण लेनेवाला । कर्जदार ।

धारक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कलश । धड़ा ।

धारका
संज्ञा स्त्री० [सं०] योनि । स्त्री की मूत्रेंद्रिय ।

धारण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पदार्थ को अपने ऊपर रखना अथवाअपने किसी अंग में लेना । थामना, लेना या अपने ऊपर ठहराना । जैसे, शेष जी का पृथ्वी को धारण करना, शिव जी का गंगा को धारण करना, हाथ में छड़ी या अस्त्र धारण करना । २. परिधान । पहनना । जैसे, वस्त्र या आभूषण धारण करना । ३. सेवन करना । खाना या पीना । जैसे, शिव जी का विष धारण करना, औषध धारण करना । ४. अवलंबन करना । अंगीकार करना । ग्रहण करना । जैसे, पदवी धारण करना । मौन धारण करना । ५. ऋण लेना । कर्ज लेना । उधार लेना । ६. कश्यप के एक पुत्र का नाम । ७. शिव जी का एक नाम ।

धारणक
संज्ञा पुं० [सं०] ऋणी । कर्जदार [को०] ।

धारणशीलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धारण करने की शक्ति । टिकाए रखने की क्षमता ।

धारणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धारण करने की क्रिया या भाव । २. वह शक्ति जिसमें कोई बात मन में धारण की जाती है । समझने या मन में धारण करने की वृत्ति । बुद्धि । अक्ल । समझ । ३. दृढ़ निश्चय । पक्का विचार । ४. मर्यादा । जैसे,— नीति की यह धारणा है कि पानी में मुँह न देखा जाय । ५. मन या ध्यान में रखने की वृत्ति । याद । स्मृति । ६. योग के आठ अंगों में से एक । मन की वह स्थिति जिसमें कोई और भाव विचार नहीं रह जाता केवल ब्रह्म का ही़ ध्यान रहता है । विशेष— उस समय मनुष्य केवल ईश्वर का चिंतन करता है, उसमें किसी प्रकार की वासना नहीं उत्पन्न होती और न उसकी इंद्रियाँ विचलित होती हैं । यही धारण पीछे स्थायी होकर 'ध्यान' में परिणात हो जाती है । ७. बृहत्संहितता के अनुसार एक योग जो ज्येष्ट शुक्ला अष्टमी से एकादशी तक एक विशिष्ट प्रकार की वायु चलने पर होता है । विशेष— इससे इस बात का पता लगाता है कि आगामी वर्षा ऋतु में यथेष्ट पानी बरसेगा या नहीं । यह वर्षा के गर्भधारण का योग माना जाता है, इसी लिये इसे धारण कहते हैं ।

धारणायोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. गंभीर समाधि । २. एक प्रकार का योग । दे० 'धारण' —७. [को०] ।

धारणवान्
संज्ञा पुं० [सं० धारणावत्] [स्त्री० धारणावती] वह जिसके धारण शक्ति बहुत प्रबल हो । मेधाशाली ।

धारणशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० धारण + शक्ति] किसी बात या तथ्य को अधिक समय तक मस्तिष्क में धारण किए रहने की क्षमता [को०] ।

धारणिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋणी । धरता । कर्जदार । २. वह आदमी या कोठि जिसके पास धन जमा किया गाय हो ।

धारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाड़िका । नाड़ी । २. श्रेणी । पंक्ति । ३. धारण करनेवाली । पृथ्वी । ४ सीधी लकीर । ५. बोद्ध तंत्र का एक अंग जो प्रायः हिंदू तंत्र के कवच के समान है । विशेष— इसका प्रचार नेपाल, तिब्बत, तथा बरमा के बौद्धों में अधिकता से है । बौद्ध तांत्रिक इसे अभीष्टसिद्धि औरर दीर्घ जीवन का साधन मानते हैं । इसके अधिकांश के उपदेष्टा बुद्ध और श्रोता आनंद या वज्रपाणि माने जाते हैं । ६. १६० हाथ लंबी, २०. हाथ चौड़ी और १६ हाथ ऊँची नाव । (युक्तिकल्पतरु) ।

धारणीमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग में एक प्रकार की समाधि ।

धारणीय (१)
वि० [सं०] धारण करने योग्य । जो धारण किया जा सके । रखने योग्य ।

धारणीय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिको का एक प्रकार का यंत्र जो सोने की कलम से केसर, रोचन, लाख कस्तूरी, चंदन और हाथी के मद से लिखा जाता है । विशेष— यह यंत्र पूजा के यंत्र से भिन्न होता है और शरीर पर धारण किया जाता है । जमीन या शव से छू जाने, जलने अथवा लाँघे जाने से यह यंत्र अशुद्ध हो जाता है और धारण करने योग्य नहीं रहता ।

धारणीया (१)
वि० [सं०] धारण करने योग्य । रखने योग्य । जो धारण किया जा सके । उ०— बड़ों की बात है आविचारणीय, मुकुट मणि तुल्य शिरसा धारणीया ।—साकेत० पृ०, ६३ ।

धारणीया (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धारणीकंद । २. दे० 'धारणीय' (२) ।

धारदार
वि० [हिं० धार + फा० दार] धारवाला । पैना ।

धारधूरा †
संज्ञा पुं० [हिं० धार + धूरा (= धूल)] नदी के रेत से बनी हुई या नदी के हट जाने से निकली हुई जमीन । गंगबरार ।

धारन
संज्ञा पुं० [सं० धारणा] १. हाथी के खिलाने के लिये तैयार की हुई दवा । २. दे० 'धारण' ।

धारना पु (१)
क्रि० सं० [सं० धारण] १. धारण करना । अपने ऊपर लेना । २. ऋण करना । उधार लेना ।

धारना (२)
क्रि० से० [हिं०] दे० 'ढारना' ।

धारयिता
संज्ञा पुं० [सं० धारयितृ] [स्त्री० धारयित्री] धारण करनेवाला ।

धारयित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धारण करेनेवाली । २. पृथ्वी ।

धारयिष्णु
वि० [सं०] धारण या ग्रहण करने योग्य [को०] ।

धारयिष्णुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धैर्य [को०] ।

धारस
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढारस' ।

धारांकुर
संज्ञा पुं० [सं० धाराङ्कुर] १. सरल का गोंद । २. धनोपल । ओला । बिनौरो ।

धारांग
संज्ञा पुं० [सं० धारङ्ग] एक प्राचीन तीर्थ का नाम । २. खड्ग ।

धारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़े की चाल । विशेष— प्राचीन भारतवासियों ने घोड़ों की पाँच प्रकार की चालें मानी थीं— आस्कंपित, धारितक, रेचित, वल्लित और प्लुत । २. किसी द्रव पदार्थ की गतिरपरंपरा । पानी आदि का बहाव या गिराव । अखंड़ प्रवाह । धार । ३. लगातार गिरता या बहता हुआ कोई द्रव पदार्थ । ४. पानी का झरना । सोता । चश्मा । ५. काटनेवाले हथियार का तेज सिरा । बाढ़ । धार । ६. बहुतअधिक वर्षा । ७. समूह । झुँड़ । ८. सेना अथवा उसका अगला भाग । ९. घडे़ आदि में बनाया हुआ छेद या सूराखा । १०. संतान । औलाद । ११. उत्कर्ष । उन्नति । तरक्की । १२. रथ का पहिया । १३. यश । कीर्ति । १४. प्राचीन काल की एक नगरी का नाम जो दक्षिण देश में थी । १५. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ । १६. वाक्यावलि । पंक्ति । १७. लकीर । रेखा । १८. पहाड़ की चोटी । १९. मालवा की एक राजधानी जो राजा भोज के समय में प्रसिद्ध थी । कहते हैं, भोज ही उज्जयिनी से राजधानी धारा लाए थे । २०. बाग का घेरा (को०) । २१. रात्रि (को०) । २२. हल्दी (को०) । २३. कान का सिरा (को०) । २४. वाणी (को०) । २५. कर्ज । ऋण (को०) । २६. एक प्रकार का पत्थर (को०) । २७. अफवाह । चर्चा (को०) । २८. क्रम । पद्धति । २९. नियम या विधान का एक अंश । दफा (को०) । ३०. साहित्यिक प्रवृत्ति अथवा उपविभाजन । साहित्य का कोई प्रवाह या उपविभाग । जैसे, छायावादी काव्यधारा, निर्गुण काव्यधारा ।

धारोकदंब
संज्ञा पुं० [सं० धाराकदम्ब] एक प्रकार का कदम का पेड़ ।

धारागृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान या धर जिसमें फुहारा लगा हो ।

धाराग्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाण का चोड़ा सिरा [को०] ।

धाराट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चातक । २. मेध । बादल । ३. घोड़ा । ४. मस्त हाथी ।

धाराधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. खड़्ग । तलवार ।

धारानिपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलधारा का गिराना । वर्षा होना । २. तेज वर्षा [को०] ।

धारापात
संज्ञा पुं० [सं०] जलधारा का गिरना । वर्षा होना । २. तेज वर्षा [को०] ।

धारापूप
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पूवा (पकवान) जो मैदे को धी मिले हुए दूध मे सानकर और तब धी में छानकर बनाया जाता है । और जिसमें पीछे से खाँड़ या चीनी मिला दी जाती है । विशेष— भावप्रकाश के अनुसार यह बलकारक, रुचिकारक और पित्त तथा वातनाशक है ।

धाराप्रवाह
वि० [सं० धारा + प्रवाह] लगातार । अविराम [को०] ।

धाराफल
संज्ञा पुं० [सं०] मदनवृक्ष । मैनफल वृक्ष ।

धारायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० धारायन्त्र] वह यंत्र जिससे पानी की धार छुटे । फुहारा ।

धाराल
वि० [सं०] १. जिसकी धार तेज हो । धारदार (हथियार) । २. धारा में बहनेवाला (को०) ।

धाराली
संज्ञा स्त्री० [सं० धाराल] १. तलवार । खड्ग । कटारी । (डिं०) ।

धारावनि
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा ।

धारावर
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ । बादल ।

धारावर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] लगातार वृष्टि । अविराम वृष्टि [को०] ।

धारावर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] धारावर्ष [को०] ।

धारावाहिक
वि० [सं०] धारप्रवाह । अविराम गति से चलनेवाला [को०] ।

धारावाहिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० धारावाहिक + ता (प्रत्य०)] धारा- वाहिक होने को स्थिति । निरंतरता । उ०— पद के अंत में दो गुरु मात्राओं के स्थान पर लघु गुरु या दो लघु मात्राओं का प्रयोग कथोपकथन की धारावाहीकता के लिय अधिक उपयोगी प्रमाणित हुआ है ।— रजत० (विज्ञाप्ति) ।

धारावाही
वि० [सं०] जो धारा के रूप में आगे बढ़ता हो । बिना । रोक टोक बढ़ने या चलनेवाला ।

धारविष
संज्ञा पुं० [सं०] खड़्ग । तलवार ।

धारासंपात
संज्ञा पुं० [सं० धारासस्पात] बहुत तेज ओर अधिक बृष्टि । जोरों की बारिश ।

धारसभा
संज्ञा स्त्री० [सं० धारा + सभा] व्यवस्थपिका सभा ।

धारासार
वि० [सं०] लगातार वृष्टि । बारबर पानी बरसना ।

धारस्नुही
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिषारा थूहर ।

धारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धारा] १. दे० 'धार' । २. समूह । झुंड़ । उ०— (क) धावो धावो धरो सुनि धाए जातुधान वरिधार उते दे जलद ज्यों नसावनी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) रामकृपा अवरेब सुधारी । विवुध धारि भइ गुनद गोहरी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में एक रगण ओर एक लघु होता है । जैसे,— री लखौ न । जात कौन । वस्त्र हारि । मौन धारि ।

धारिणी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धरणी । पृथ्वी । भूमि । जमीन । २. शाल्मली । सेमर का पेड़ । ३. चौदह देवताओं की स्त्रियाँ जिनके नाम ये हैं—शची । वनस्पति । गार्गी । धूम्रोर्णा । रुचिराकृति । सिनीवाला । कुहू । राका । अनुमति । अयाति । प्रज्ञा । सेला । वेला ।

धरिणी (२)
वि० स्त्री० धारण करनेवाली ।

धारित (१)
वि० [सं०] १. धारण किया हुआ । २. सम्हाला हुआ । रखा हुआ [को०] ।

धारित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की एक चाल [को०] ।

धरितक
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की एक चाल । धरित [को०] ।

धारी (१)
वि० [सं० धरिन्] [स्त्री० धारिणी] १. धारण करनेवाला । जिसने धारण किया हो । विशेष— इस अर्थ मे इसका प्रयोग यौगिक शब्दों के अंत में होता है । जैसे छत्रधारी । २. किसी ग्रंथ कै तात्पर्य की भाँति जाननेवाला । ३. ऋण लेनेवाला । कर्जदार । ३. पोलू का पेड़ ।

धारी
संज्ञा पुं० १. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण मे पहले तीन जगण और तब एक यगण होता है । जैसे,— जु काल मँह छविदेखत बीते । तुम्हार प्रभू गुण गावत ही ते । कृपा करि देहु वहै गिरिधारी । याचौ कर जोरि सुभक्ति तिहारी । २. दे० 'धारि' — ३ । ३. पीलू का पेड़ ।

धारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धारा] १. सेना । फौज । २. समूह । झुंड़ । ३. रेखा । लकीर । जैस,— यदि इस कपड़े पर कुछ धारियाँ होती तो और भी अच्छ होता । यौ०—धारीदार । ४. पुश्ता ।

धारो पु (४)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० धाडय] लुटेरों की एक जाति । उ०— सतगुरु नायक के संग मिलि चल लूट सकै नहिं धारी ।— चरण० बानी, पृ० ९७ ।

धारिदार
वि० [हिं० धारी + फा० दार] जिसमें लंबी लंबी धारियाँ या लकीरें पड़ी अथवा बनी हों । जैसे, धारीदार मलमल ।

धारूजल
संज्ञा पुं० [डिं०] खड्ग । तलवार ।

धारोष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] थन से निकला हुआ ताजा दूध जो प्रायः कुछ गरम होता है और स्तन से निकलने के कुछ समय बाद तक गरम रहता है । विशेष— वैद्यक के अनुसार ऐसा दूध अमृत के समान और भ्रम हरनेवाल, निद्रा लानेवाला, वीर्य और पुरुषार्थ बढ़ानेवाला ? पृष्टिकारक, अग्नि को बढानेवाला, अति स्वदिष्ट और त्रिदोष को हरनेवाला होता है ।

धार्तराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. काले रंग की चोंच और पैरों वाला हंस । २. एक नाग का नाम । ३. [स्त्री० धार्तराष्ट्री] धृतराष्ट्र के वंश का आदमी ।

धार्तराष्ट्रपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसपदी लता । लाल रंग का लज्जालु ।

धार्म
वि० [सं०] धर्म संबंधी ।

धार्मिक
वि० [सं०] १. धर्मशील । धर्मात्मा । धर्माचरण, करनेवाला । पुण्यात्मा । जैसे,—आप बड़े हो धार्मिक हैं । २. धर्म- संबंधी । जैसे, धार्मिक क्रियाएँ ।

धार्मिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] धर्माशीलता । धार्मिक होने का भाव ।

धार्मिक्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धार्मिकता' ।

धार्मिण
संज्ञा पुं० [सं०] धार्मिक व्यक्तियों की सभा [को०] ।

धार्मिणेय
संज्ञा पुं० [सं०] धार्मिक स्त्री का पुत्र [को०] ।

धार्मिणेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धार्मिक स्त्री की पुत्री [को०] ।

धार्य (१)
वि० [सं०] धारण करने के योग्य । धारणीय ।

धार्य (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वस्त्र । कपड़ा ।

धार्यत्व
संज्ञा पुं० [सं० धार्यत्व] धारण करने का भाव या क्रिया ।

धालना पु
क्रि० ल० [हिं०] दे० 'ढालना' । उ०—उपजो ग्यान ध्यान प्रेम रस धाला ।— रामानंद०, पृ० ५० ।

धार्ष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] धृष्टता ।

धार्ष्टय
संज्ञा पुं० [सं०] धुष्टता [को०] ।

धाव (१)
संज्ञा पुं० [सं० धव] एक प्रकार का लंबा और बहुत सुंदर पेड़ जिसे गोलरा, धावरा, बकली ओर खरधाया भी कहते हैं । विशेष— दे० 'धव' ।

धाव (२)
संज्ञा स्त्री० [?] लंबाई । उ०— प्रथम ही अयोध्या नगर जिसका बणाव, बारै जोजन तो चौड़े सौलै जोजन की धाव ।— रघु० रू०, पृ० २३७ ।

धाव (३)
वि० [सं०] धोनेवाला । साफ करनेवाला [को०] ।

धावक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोड़कर चलनेवाला । हरकारा । उ०— धावक आप महोब कहें, सोम ववी सुनु वत्त ।—प० रासो, पृ० ११० । २. धोबी । रजक । ३. संस्कृत साहित्य के एक आचार्य और कवि जिनका नाम कालिदास के मालविकाग्नि- मित्र नाटक तथा काव्यप्रकाश और साहित्याहार में आया है ।

धावड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० धव + ड़ा (प्रत्य०)] धव का पेड़ा ।

धावण
संज्ञा पुं० [सं० धावन] दूत । हरकारा (डिं०) ।

धावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहुत जल्दी या दौड़कर जाना । २. दूत । हरकारा । चिट्ठी या सँदेशा पहुँचानेवाला । उ०— (क) द्विविद करि कोप हरि पुरी आयो । नृए सुदक्षिणा जरयो जरी वाराणसी धाय धावन जबाहि यह सुनायौ ।— सूर (शब्द०) । (ख) एहि विधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ । गुरु अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेस मनाइ ।—तुलसी (शब्द०) । ३. धोने या साफ करने का काम । ४. वह चीज जिससे कोई चीज धोई या साफ की जाय । उ०— निद्रा हास्य मदर्शत बोलै । तजि रद धावन झूठ न बोलै ।—विश्राम (शब्द०) ।

धावना पु †
क्रि० अ० [सं० धावन(= गमन)] वेग से चलना । दौड़ना । भागना । जल्दी जल्दी जाना । उ०— धाराधर धावन धरा पै गरजत है ।— हम्मीर,० पृ० २४ ।

धावनि पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धावन(= गमन)] १. जल्दी जल्दी चलने की क्रिया या भाव । दौड़ । उ०—वा पट पीत की फहरान । कर धरि चक्र चरन की धावनि नहिं बिसरति वह बान ।— सूर (शब्द०) । २. धावा । चढ़ाई । उ०— सिंधु पार परे सब आनंद सो भरे कपि गाजै शंख बाजे शंख बाजे अब लंका पर धावनि ।—हनुमान (शब्द०) ।

धावनि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन । पृश्निपर्णी लता ।

धवनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंटकारिका । कटेरी । २. पिठवन । पृश्निपर्णी । ३. कंटीली मकोय ।

धावनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृश्निपर्णी लता । पिठवन । २. कंटकारी । ३. धव का फूल ।

धावमान
वि० [सं०] दौड़ता हुआ ।

धावर
वि० [सं० धाव + र (ड) (प्रत्य०)] दौड़नेवाला । धावक । उ०— धावर सुकन्ह चहुआन कौ । बोलि बीर चच्चिग महर ।—पृ० रा०, १७ । ३० ।

धावरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० धव + हिं० रा(प्रत्य०)] दे० 'धव' ।

धावरा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० धवरा] दे० 'धवरा' ।

धावरी पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धवल] सफेद गाय । धौरी ।

धावरी (२)
वि० सफेद । उज्वल । उ०— गगन लता तें वलित हैं जहँतमाल तरुजाल । धेनु धावरी रावरी लखि आई गोपाल ।— रामसहाय (शब्द०) ।

धावल्य
संज्ञा पुं० [सं०] धवलता । सफेदी [को०] ।

धावा
संज्ञा पुं० [सं० धावन] १. शत्तु से लड़ने के लिये दल बल सहित तैयार हौकर जाना । आक्रमण । हमला । चढ़ाई । मुहा०—धावा बौलना = (१) अधिकारी का अपने सैनिकों को आक्रमण करने की आज्ञा देना । (२) चढ़ाई कर देना । (३) किसी काम के लिये जल्दी जल्दी जाना । दौड़ । धावा मारना = जल्दी जल्दी चलना । जैसे,—इस धूप में हम तीन कोस का धावा मारकर आ रहे हैं ।

धावित
वि० [सं०] १. स्वच्छ किया हुआ । धोया हुआ । २. दौड़ता हुआ । ३. तेजी से जाता हुआ [को०] ।

धविता
संज्ञा पुं० [सं०धावितृ] दौड़कर जानेवाला । धावक [को०] ।

धाह (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] जोर से चिल्लाकर रोना । धाड़ । उ०—(क) देखे नंद चले घर आंवत । पैठत पौरि छींक भई बाँई रोह दाहिने धाह सुनावत ।—सूर (शब्द०) । (ख) ऊनै आई बादरी बरसन लगा आँगार । ऊठि कबीरा धाह दै दाझत है संसार ।—कबीर (शब्द०) । (ख) जिन्ह रिपु मारि सुरारि नारि तेइ सीस उधारि दिवाई धाहै ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०— धाह मारना = दे० 'धाड़ मारना' । धाह मेलना =जोर जोर से रोना ।

धाह पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ढाड़' । उ०— जागि न रोवै धाह दे, सोवत गई बीहाइ ।—दादू पृ०, ७३ ।

धाहड़ना पु
क्रि० अ० [हिं० धाह] पुकारना । उ०—(क) मंझे मेड़ो मुच थईला कैंदरि करिया धाहडे़ ।—दादू०, पृ० ५२० । (ख) देवलि देवलि धाहड़ि ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११ ।

धाहना पु
क्रि० सं० [सं० ध्वसन] ढाहना । ध्वंस करना । नष्ट करना । उ०— देवगिर द्रुग्ग् है पुरानि गाहि । बालका जीति दै जग्य धाहि ।— पृ० रा०, १ । ३७५ ।

धाही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० धात्री] दूध पिलानेवाली स्त्री । दाई । धाथ । उ०—तस्य देवान धृष्टबुधि नामा । रही आइ धाही तेहि धामा ।—विश्राम (शब्द०) ।

धिंग
सं० स्त्री० [सं० दृढाङ्ग या अनु० धींगाधींगी] धीगाधींगी । ऊधम । उपद्रव शरारत । उ०— अरु स्यों भवानी सिह । गढ़ लैन रुप्पिय धिग ।—सूदन (शब्द०) ।

धिंगड़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धींगारा' —२. । उ०— आण ते दूसरा धिंगड़ ठाढा किया ।—कबीर दे० 'धींगरा' ।

धिंगा †
संज्ञा पुं० [सं० दृढाङ्ग] १. बदमाश । शरीर । उपद्रवी । २. बेशर्म । निर्लज्ज ।

धिंगाई
संज्ञा स्त्री० [सं० दृढाङ्गी] १. शरारत । उपद्रव । ऊधम । बदमाशी । उ०—जानि बूझि इन करी धिंगाई । मेरी बलि पर्वतहि चढ़ाई ।—सूर (शब्द०) । २. बेशर्मि । निर्लज्जता ।

धिंघाधिंगी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धींगाधींगी' ।

धिगाना †
संज्ञा पुं० [हिं० धिंग] धोंगाधीगी करना । उपद्रव करना । ऊधम मचाना ।

धिंगी †
संज्ञा स्त्री० [सं० दृढाङ्गी] बदमाश स्त्री । निर्लज्ज स्त्री । हुडंदंगी औरत ।

धि
संज्ञा पुं० [सं०] भांड़ार । आगार [को०] । विशेष— यह समास के अंत में प्रयुक्त होता है । जैसे, उदधि, इषुधि, वारिधि, जलधि ।

धिआ †
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता, प्रा०, धोआ] १. बेटी । कन्या । २. कोई छोटी लड़की ।

धिआन पु †
संज्ञा पुं० [सं० ध्यान] दे० 'ध्यान' ।

धिआना पु †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'ध्याना' या 'ध्यावना' ।

धिक
अव्य० [सं०] १. तिरस्कार, अनादर या घृणसूचक एक शब्द । लानत । २. निंदा । शिकायत ।

धिक
अव्य० [सं० धिक्] धिक् । लानत । उ०— धिक धर्मध्वज धंधकधोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

धिकना †
क्रि० अ० [सं० दग्ध या हिं० दहकना] गरम होना । तप्त होना । आग की गरमी से लाल हो जाना । उ०— जरहिं जो पर्वत लाग अकासा । बनखंड धिकाहिं पलास कोपासा ।— जायसी (शब्द०) ।

धिकवना पु
क्रि० स० [हिं० धौंकना] गरम करना । तपाना । उ०— तोहि मे परिहि सो बयरा जम धिकवे भाथी । स्वारथ के सब लोग सौसर को कोऊ न साथी ।—पलटू०, भा० १, पृ० ५५ ।

धिकाना †
क्रि० सं० [सं० दग्ध या हिं० दहकना] तपाना । खूब गरम करना । तपाकर लाल करना ।

धिक्कार
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिरस्कार, अनादार या घृणाव्यंजक शब्द । लानत । फटकार । क्रि० प्र०—करना ।—देना ।

धिक्कारना
क्रि० सं० [सं० धिक] धिक कहकर बहुत तिरस्कार करना । बहुत बुराभला कहना । लानत मलामत करना । फटकारना ।

धिक्कृत (१)
वि० [सं०] जो धिक्कारा जाप । जिसे 'धिक' कहा जाय । जिसका तिरस्कार हो ।

धिक्कृत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] तिरस्कार । लताड़ [को०] ।

धिक्किया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'धिक्कार' ।

धिक्पारुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] ड़ाँट फटकर । निंदा [को०] ।

धिख पु
अन्य० [हिं०] दे० 'धिक' । उ०— भिडपाल गजगव विटप भड़, धिख गदा व भीषण उवरघर ।— रघु, रू०, पृ० २२४ ।

धिग पु
अव्य० [सं० धिक] 'धिक्कार' ।

धिगानौ पु
वि० [हिं० धिग] तिरस्करणीय । धीक्कार के योग्य । उ०— ग्यान ही इठावत है लायो तू धिगानी रै ।—ब्रज० ग्रं०, १३२ ।

धिग्दंड
संज्ञा पुं० [सं० धिग्दण्ड] दंड के रूप में धिक्कार [को०] ।

धिग्वण
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार एक संकर जाति जो ब्राह्मण पिता और अयोगवी माता से उत्पन्न मानी जाती है ।

धिग्वाद
संज्ञा पुं० [सं०] तिरस्कारपूर्ण वाक्य या वचन [को०] ।

धित
वि० [सं०] १. रखा हुआ । २. संतृष्ट । तृप्त [को०] ।

धिप्सु
वि० [सं०] १. धोखा देने की इच्छा करनेवाला । २. धोखेबाज [को०] ।

धिमचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की इमली ।

धिजाइ पु
क्रि० सं० [हिं० धीरज] धीरज दिलाकर । विश्वास उत्पन्न करके । उ०—सुध बुध जीव धिजाइ करि, माला संकल बाहि ।—दादू० पृ० २८७ ।

धिजावना पु
क्रि० सं० [?] पुकारना । बुलाना । उ०—दुष्ट धिजावै बहुत विधि आनि नवावै सीस ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७२३ ।

धिड़ंग पु
वि० [हिं०] दे० 'धडंग' । उ०—दुर्बल रोगी, नंग धिड़ग जिनेके शिशुगन ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५६ ।

धिदधर पु
वि० [सं० धृष्ट] धृष्ट । ढीठ । उ०— तेन सहस्सं तेग दस्तं, झुभझ उस्स धिदधरं ।—पृ० रा०, ९ । ११८ ।

धिन पु
वि० [हिं०] दे० 'धन्य' । उ०—तृतीय बंदी धिन संतकूँ, सब के लोगूँ पाय ।—राम० धर्म०, पृ० १८५ ।

धिनी पु
वि० [हिं०] दे० 'धन्य' । उ०— जह धिनी पंखी जात, सुख पंख जेण लु गात ।— रा० रू०, पृ० ६८ ।

धिन्न पु
वि० [हिं०] दे० 'धन्य' । उ०— दिल्ली खेतन छंड़ियौ, धारण चारण धिन्न ।—रा० रू०, पृ० ४० ।

धिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता] १. कन्या । बेटी । उ०—शमी गरम में अनल ज्यों त्यौं तेरी धिय संत । धारति तेज दियो जो नृप प्रजा हेत दुष्यंत ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) । २. लड़की । बालिका ।

धियांपति
संज्ञा पुं० [सं० धियाम्पति] बृहस्पति [को०] ।

धिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धिय' ।

धियान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] 'ध्यान' । उ०— वामदेव से देव वलि जाके धरत धियान ।— नंद० ग्रं०, पृ० ९२ ।

धिरकार †
संज्ञा स्त्री० [सं० धिक्कार] दे० 'धिक्कार' । उ०— नाम बिना धिरकार है, सुंदर धनवंत भूप ।—संतवाणी०, पृ० १५५ ।

धिरग पु
अव्य [हिं०] दे० 'धिक्' । उ०— धन छोटा पन सुख महा धिरग बड़ाई ख्वार ।—सहजो०, पृ० ३९ ।

धिरज पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धीरज' । उ०— परतिरि मानव तीति धिरजै मनोभव जीति ।— विद्यापति, पृ० १५७ ।

धिरवना †
क्रि० सं० [सं० धर्षण] धमकना । उ०—(क) समय परे की बात बाज कहँ धिरवै फुदकी ।— गिरधर (शब्द०) । (ख) मुख झगरति आनंद उर धिरवति है घर जाहु ।—सूर (शब्द०) ।(ग) कोउ उठि भागत पुनि नहि आवत धिरवत अँगुलि दिखाई ।— रघुराज (शब्द०) ।

धिरना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० धिरवना] डराना । धमकाना । भय दिखाना । उ०— (क) जाति पाँति सो कहाँ अचगरी यह कहि सुतहिं धिरावति ।— सूर (शब्द०) । (ख) भ्राता मारन मोहिं धिरावै देखे मोहिं न भावत ।—सूर (शब्द०) ।

धिराना (२)
क्रि० अ० [सं० धीर] १. धीमा होना । गति में मंद पड़ना । उ०— उपचार विचार किए न धिरानो ।—केशव (शब्द०) । २. स्थिर होना । धैर्य धारण करना ।

धियावसु
संज्ञा पुं० [सं०] सरस्वती के वर्ग के एक वैदिक देवता जो 'घी' अर्थात् बुद्धि के देवता माने जाते हैं ।

धिषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति । २. ब्रह्मा । ३. नारायण । विष्णु । ४. गुरु । शिक्षक । ५. निवास । वासस्थान (को०) ।

धिषण (२)
वि० [सं०] बुद्धिमान । अक्लमंद । समझदार ।

धिषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि । अक्ल । २. स्तुति । ३. वाक्शक्ति । ४. पृथ्वी । ५. स्थान । ६. प्याला (को०) ।

धिषणाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति ।

धिषन पु
संज्ञा पुं० [सं० धिषण] दे० 'धिषण' । उ०— स्रष्टा चतुरानन धिषन, द्रुहिन स्वयंभू सोइ ।— अनेकार्थ०, पृ० ६९ ।

धिष्ट पु
वि० [हिं०] दे० 'धृष्ट' । उ०— अरि अरिष्ट सम दिष्ट धिष्ट धारन धर धुम्मर ।— पृ० रा०, १२ । १४७ ।

धिष्ट्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थान । जगह । २. घर । ३. नक्षत्र । ४. आग । ५. शक्ति । ६. शुक्राचार्य ।

धिष्णय (१)
वि० [सं०] १. जिसकी प्रशंसा की जाय । २. जिसके विषय में गंभीर रूप से सोचा जाय । ३. जो उच्च स्थान का अधिकारी हो । ४. सजग । सावधान । ५. उदार । दयालु [को०] ।

धिष्णय (२)
संज्ञा पुं० १. हवन कुंड । २. शुक्राचार्य । ३. शुक्र ग्रह । ४. शक्ति । बल । ५. स्थान । ६. भवन । घर । ७. उल्का । ८. अग्नि । ९. तारा [को०] ।

धिस्न पु
संज्ञा पुं० [सं० धिषण] दे० 'धिषण' । उ०— अपन धिस्न पुनि आसपद आलप निलप निकेत ।—अनेकार्थ०, पृ० ४३ ।

धिस्म पु
संज्ञा पुं० [सं० धिषण] भवन । घर । उ०— गेह, वेस्म, संकेत, लय, मंडप, धिस्म, असपद्य ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०८ ।

धीँग (१)
संज्ञा पुं० [सं० डिङ्गर(= शठ) या दृढांग] हट्टा कट्टा मनुष्य । उ०— धींगरी धींग चाचरि करै मोहि बुलावत साखि ।— सूर (शब्द०) ।

धीँग (२)
वि० १. मजबूत । जोरावर । २. शरीर । बदमाश । उपद्रवी । ३. कुमार्गी । पापी । बुरा । उ०— अपनायो तुलसी सो धींग धमधूसरो ।— तुलसी (शब्द०) ।

धीँगड़ †
वि० [सं० डिङ्गर] [स्त्री० धींगड़ी] १. पाजी । बदमाश । दुष्ट । २. हट्टा कट्टा । हृष्ट पुष्ट । ३. वर्णसंकर । दोगला । हरामी ।

धीँगड़ा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धींगड़' ।

धींगधुकड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धींग] १. धींगामुश्ती । २. पाजीपन ।

धीगमधूँगा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धींगाधींगी' । उ०— अरे हाँ रे पलटू आखिर बडे़ से बडे़ दिन चार का धींगमधूँगा ।—पलटू०, भा०, पृ० ७७ ।

धीँगरा
संज्ञा पुं० [सं० डिङ्गर] १. हट्टा कट्टा । मुसंड । मोटा ताजा । २. शठ । बदमाश । कुकर्मी । गुंडा ।

धीँगरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धींग + री (प्रत्य०)] पाजी । उपद्रव करनेवाली स्त्री । उ०— धींग तुम्हारो पूत धींगरी हमको कीन्ही ।— सूर (शब्द०) ।

धीँगा
संज्ञा पुं० [सं० डींगर(= शठ)] शरीर । बदमाश । उपद्रवी । पाजी । यौ०— धींगामुश्ती ।

धींगाधीँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धींग] १. शरारत । बदमाशी । उपद्रव । पाजीपन । २. जबरदस्ती । बलप्रयोग ।

धीँगामस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धींगामुश्ती' ।

धींगामुश्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० धींगा + मस्ती] १. शरारत । बदमाशो उपद्रव । पाजीपन । २. जबरदस्ती लड़ना । हाथाबाँही ।

धींद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० धीन्द्रिय] वह इंद्रिय जिससे किसी बात का ज्ञान किया जाय । जैसे मन, आँख, कान, त्वक्, जीभ, नाक । ज्ञानेंद्रिय ।

धीँवर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धीवर' ।

धी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुद्धि । अक्ल । समझ । विशेष— दे० 'बुद्धि' । २. मन । ३. कर्म । ४. कल्पना (को०) । ५. विचार (को०) । ६. भक्ति (को०) । ७. यज्ञ (को०) । ८. उद्देश्य (को०) ।

धी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता प्रा० धीआ] लड़की । बेटी । उ०— झंडे ले लेकर निकली घी और बहूटी पंडित की ।—बेला, पृ० ४७ ।

धी पु (३)
वि० धैर्यवान । सुस्थिर । उ०— नाटक प्रमान कथर्य । सुनि राजन धी ढिल्लीसं ।—पृ० रा०, २५ । ७ ।

धीआ
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धीया' ।

धीगम पु
संज्ञा पुं० [हिं० धींगा] मनमानी । अन्याय । उ०— अध- रम आठो गाँठि न्याव बिनु धीगम सूदा ।— पलटू० भा० १, पृ० १०२ ।

धीगुण
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रूषा श्रवण आदि बुद्धि के आठ धर्म [को०] ।

धीजना
क्रि० स० [सं०/? धृ, धार्य्य, धैर्य्य] १. ग्रहण करना । स्वीकार करना । अंगीकार करना । उ०— (क) पाती लै के चल्यो विप्र छिप्रवहि पुरी गयो, नयो चाव जान्यो एपै कैसे तिया धीजिए । कहौ तुम जाइ रानी बैठी सत आई मोको बौल्यो न सोहाय प्रभु सेवा माँझ भीजिए ।— प्रियादास (शब्द०) । (ख) धरिया कूँ धीजूँ नीहं गहूँ अधर की बाहिं । धरिय अधर पहिचानियाँ तौ कछू धऱावहि नाहिं ।—कबीर (शब्द०) । २. धीरज धरना । धैर्य युक्त होना । उ०— आय मिली अलिन में, लालन की ध्यान हिये, पिये मद मानो गृह आई तब धीजो है ।—प्रियादास (शब्द०) । ३. अति प्रसन्न होना । संतुष्ट होना । उ०— (क) धरे सब जाय प्रभु सुकर बनाय दियो कियो सरबोपरि लै चल्यो मति धीजिए ।—प्रियादास (शब्द०) । (ख) उज्वल देखि न धीजिए वग ज्यो माँडे़ ध्यान । धौरे बैठि चपैटि सी यों लै बूड़ै़ ज्ञान ।—कबीर (शब्द०) ।

धीट पु
वि० [हिं०] दे० 'धृष्ट' । उ०— ऊ पच्छम ओड गयो अणभंगी धीट पड़ा बृध धारिया ।— रघु० रा०, पृ० १५८ ।

धीठ
वि० [हिं०] दे० 'धृष्ट' ।

धीढर पु
वि० [हिं०] दे० 'धृष्ट' । स०— लीकं सुबच्छं सुद्ध कच्छं, हुअ ग्च्छं धीढरं ।— पृ० रा०, ९ । ११६ ।

धीण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धेनु] गाय । उ०—घर घर मैं धीणाँ घणाँ घर घर घूमै माट ।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ९१ ।

धीत
वि० [सं०] १. जो पिया गया हो । २. जिसका अनादर हुआ हो । ३. जिसकी आराधना की जाय । ४. विचारित । चिंतित सोचा हुआ (को०) ।

धीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पान करने की क्रिया । पीना । २. त्याग । ३. विचार । चिंतन (को०) । ४. भक्ति । आराधना । श्रद्धा । (को०) । ५. अनादर (को०) ।

धीदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता का प्रा० रूप] १. कन्या । कुँआरी लड़की । २. पुत्री । बेटी । ३. मनीषा (को०) ।

धीदा (२)
वि० स्त्री० बुद्धि प्रदान करनेवाली [को०] ।

धीदाता
वि० [सं० धी + दातृ] बुद्धि देनेवाला । ज्ञान देनेवाला । उ०— सो धीदाता पलक मैं, तिरै, तिरावण जोग ।—दादू०, पृ० ९ ।

धीन
संज्ञा पुं० [देश०] लोहा । (डिं०) ।

धीपति
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति ।

धीमंत्री
संज्ञा पुं० [सं० धीमन्त्री] संमति देनेवाला मंत्री । सलाहकार[को०] ।

धीम पु †
वि० [हिं०] दे० 'धीमा' ।

धीमर
संज्ञा पुं० [हिं० धीवर] दे० 'धीवर' । उ०— धरे मच्छ पहिना औ रोहू । धीमर धरत करै नहिं छोहू ।— जायसी (शब्द०) ।

धीमा
वि० [सं० मध्यम?] [वि० स्त्री० धीमी] १. जिसका वेग या गति मंद हो । जिसकी चाल में बहुत तेजी न हो । जो आहिस्ता चले । जैसे, धीमी चाल, धीमी हवा । २. जो अधिक प्रचंड, तीव्र या उग्र न हो । हलका । जैसे, धीमी आँच, धीमी रोशनी । ३. कुछ नीचा और साधारण से कम (स्वर) । जैसे, धीमा स्वर, धीमा आवाज । ४. जिसका जोर घट गया हो । जिसकी तेजी कम हो गई हो । जैसे,— (क) पहले तो वह बहुत बिगड़ा पर पीछे धीमा हो गया । (ख) जब उनका गुस्सा कुछ धीमा हुआ तब उसने सारा हाल उनसे कह सुनाया । क्रि० प्र०—करना ।—पड़ना ।—होना ।

धीमा तिताला
संज्ञा पुं० [हिं० धीमा + तिताला] सँगीत में सोलहमात्राओं का एक ताल जिसमें तीन आघात और एक खाली होता है । इसके मृदंग के बोल ये हैं,— *  ३  ० धेत धेत धेने नाग, द्रेगे तेटे केटे ताग, गेदेताक धागे; तेटेक तागदि धेने । और तबले के बोल ये हैं । +  ३ धा दिन दिन धा, दिन् धागे तेरेकेटे दिन नादिन दिन ता,   १ दिन धागे देरेकेटे दिन । धा । ।

धीमान्
संज्ञा पुं० [सं० धीमत्] [स्त्री० धीमती] १. बृहस्पति । २. बुद्धिमान् । समझदार । अक्लमंद । उ०— धीमान् कहते हैं तुम्हें लोग, जयसिंह, सिंह हो तुम, खेलो सिकार खूब हिरनों का ।— अपरा, पृ० ८९ ।

धीमे
अव्य० [हिं० धीमा] धीमी गति से । धीरे धीरे ।

धीय †
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता] १. दे० 'धी' । उ०— बुद्धि मनीषा सेमुषी मेधा धिषना धीय । अनेकार्थ०, पृ० ६६ । २. जमाई । जामाता । दामाद (डिं०) ।

धीया
संज्ञा स्त्री० [सं० दुहिता, प्रा० धीदा धीया] लड़की । बेटी ।

धीर (१)
वि० [सं०] १. जिसमें धैर्य हो । जो जल्दी घबरा न जाय । दृढ़ और शांत चित्तवाला । उ०— जीवन में सुख दुःख निरंतर आते जाते रहते हैं । सुख तो सभी भोग लेते हैं, दुःख धीर ही सहते हैं ।— साकेत, पृ० ३७१ । २. बलवान् । ताकतवर । ३. विनीत । नम्र । ४. गंभीर । ५. मनोहर । सुंदर । ६. मंद । धीमा ।

धीर (२)
संज्ञा पुं० १. केसर । २. ऋषभ नामक ओषधि । ३. मंत्र । ४. राजा बलि ।

धीर पु †
संज्ञा पुं० [सं० धैरर्य] १. धैर्य । धीरज । ढाढ़स । मन की स्थिरता । २. संतोष । सब्र । क्रि० प्र०—करना ।—धरना ।—रखना ।

धीरक
संज्ञा पुं० [सं० धीर] 'धैर्य' । उ०— दिये धीरक उसे इस पजा बेहिसाब, उडया वाँते दरहाल तदोता शिताब ।— दक्खिनी०, पृ० ९१ ।

धीरज पु †
संज्ञा पुं० [सं० धैर्य] दे० 'धैर्य' । उ०— होइ न कहूँ अनंद अजीरन । तासों धरु धीरज चंचल मन ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६०७ ।

धीरचेता
वि० [सं० थीरचेतस्] दृढ़मति । स्थिर चित्तवाला [को०] ।

धीरजता
संज्ञा स्त्री० [हिं० धीरज + ता (प्रत्य०)] धीरज । धैर्य । उ०— बेटा ! स्याबास तेरी धीरजता कों ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० २०२ ।

धीरजमान
संज्ञा पुं० [हिं० धीरज + मान] दे० 'धैर्यवान्' । या 'धीर' ।

धीरट
संज्ञा पुं० [?] हंस पक्षी । (डिं०) ।

धीरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्त की स्थिरता । मन की दृढ़ता । धैर्य । २. स्थिरता । ३. संतोष । सब्र । ४. चतुराई (को०) । ५. पांडित्य । बुद्धिमत्ता (को०) । ६. गंभीरता (को०) ।

धीरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] धीर होने का भाव । धीरता ।

धीरपत्रो
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमीकंद ।

धीरप्रशांत
संज्ञा पुं० [सं० धीरप्रशान्त] दे० 'धीरशांत' ।

धीरंमति
वि० [सं० धीर + मति] धैर्यवान् । धीरज रखनेवाला । उ०— वे धरम धुरधर धीरमति सूर सिरोमन संत जन ।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ९५ ।

धीरललित
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में वह नायक जो सदा बना- ठना और प्रसन्नचित्त रहता ही ।

धीरवना पु
वि० अ० [सं० धीर] धैर्य धरना । धीरतायुक्त होना । उ०— जह धीरा मन धीरवइ, तउ मन भीतर खाइ ।-ढोला०, दू० २१९ ।

धीरशांत
संज्ञा पुं० [सं० धीरसान्त] साहित्य में वह नायक जो सुशील, दयावान्, गुणवान् और पुण्यवान् हो ।

धीरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. साहित्य में वह नायिका जो अपने नायक के शरीर पर पर-स्त्री-रमण के चिह्न देखकर व्यंग्य से कोप प्रकाशित करे । ताने सरे अपना क्रोध प्रकट करनेवाली नायिका । २. गुरिच । गिलोय । ३. काकोली । ४. माल- कँगनी ।

धीरा (२)
वि० [सं० धीर] मद । धीमा ।

धीरा (३)
संज्ञा पुं० [सं० धैर्य] धीरज । धैर्य ।

धीराधी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीशम का पेड़ [को०] ।

धीराधीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में वह नायिका जो अपने नायक के शरीर पर पर-स्त्री-रमण के चिह्न देखकर कुछ गुप्त और कुछ प्रकट रूप से अपना क्रोध जतला दे ।

धीरावी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शीशम का पेडृ ।

धीरी
संज्ञा स्त्री० [?] आँख की पुतली ।

धीरे
क्रि० वि० [हिं० धीर] १. आहिस्ते से । मंद मंद । धीमी गति से । 'जोर से' का उलटा । २. चुपके से । इस प्रकार जिसमें कोई सुन या देख न सके । इस प्रकार जिसमें किसी को आहट न मिले । जैसे,— धीरे से चल दो ।

धीरे धीरे
अव्य [हिं० धीरे + धीरे] १. आहिस्ते । मंद मंद गति से । क्रमशः । ३. धीमे स्वर में ।

धोरोदात्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. साहित्य के अनुसार वह नायक जो निरभिगानी, दयालु, क्षमाशील, बलवान्, धीर, दृढ़ और योद्धा हो । जैसे, रामचंद्र, युधिष्ठिर आदि । २. वीर-रस- प्रधान नाटक का मुख्य नायक ।

धीरोद्दात पु
संज्ञा पुं० [सं० धोरोदात्त] दे० 'धीरोदात्त' । उ०— जेण विषै प्रभेद जनाव धीरोद्दात धीरललिताहि धन ।— बाँकी० ग्रं०, भा० ३, ११५ ।

धीरोद्धत
संज्ञा पुं० [सं०] साहित्य में वह नायक जो बहुत प्रचंड और चंचल हो और दूसरे का गर्व न सह सके और सदा अपने ही कुणों का बखान किया करे । जैसे, भीमसेन ।

धीरोध्रत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धीरोद्धत' । उ०— जेण विषै प्रभेद जताव धीरोद्दात धीर ललिताहि धन । धीर सांत धीरोध्रत धाव ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १५० ।

धीरीष्णी
संज्ञा पुं० [सं० धीरोष्णिन्] एक विश्वदेव [को०] ।

धीर्ज
संज्ञा पुं० [सं० धैर्य] दे० 'धीरज' । उ०— धीर्ज शब्द सों छत्र उजियारा,सुमत शब्द सों वस्त्र पसारा ।—कबीर सा०, पृ० ९०२ ।

धीर्य पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कातर ।

धीय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धैर्य' । उ०— आपा दर्पण देय धीर्य दृढ़ता गहौ । क्षमा शील संतोष दया धारे रहौ ।—भक्ति प० पृ०, ७८ ।

धीलटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्री । कन्या [को०] ।

धीलटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्री । कन्या [को०] ।

धीवर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० धीवरी] १. एक जातिविशेष जो प्रायः मछली पकड़ने और बेचने का काम करतौ है । इस जाति का छुआ जल द्विज लोग ग्रहण करे है । मछुवा मल्लाह । केवट । उ०— सुनो, मैं शुक्रावतार का धोवर हूँ ।— शकुतला, पृ० १०१ । २. खिदमतगार । सेवक । ३. काला मनुष्य । ४. मत्स्यपुराण के अनुसार एक देश । ५. उक्त देश का निवासी ।

धीवरक
संज्ञा पुं० [सं०] मल्लाह । मछुवा [को०] ।

धीवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मल्लाहिन । २. मछली मारने की कँटिया । ३. मछली रखने की टोकरी (को०) ।

धीहड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धी] पुत्री । लड़की ।

धुंकार
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि + कार] जोर का शब्द । गरज । गड़गड़ाहट । उ०—धुंकार धौंसन की बढ़ी हुकरा भूमिपतीन थी ।—गोपाल (शब्द०) ।

धुंज †
वि० [हिं० धुंध] धुँधली । मंददृष्टि । उ०— बिनु गोपाल बैरिनि भइ कुंजै ।...सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस को मग जोवत अंखियाँ भइ धुंजै ।—सूर (शब्द०) ।

धुंद (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुंध] दे० 'धुंध' ।

धुंद (२)
संज्ञा पुं० [हिं० दुंद] दे० 'दुंद' ।

धुंदा
वि० [हिं० धुंध] अंध ।

धुंदुल
संज्ञा पुं० [देश०] मझोले कद का एक पेड़ । विशेष— यह बंगला और मलाबार में अधिकता से होता है । इसकी लकड़ी सफेद रंग की होती है और गाड़ियों के पहिए तथा मेज कुरसी आदि बनाने के काम में आदी है । इसके फलों से एक प्रकार का तेल निकलता है जो जलाया और सिर में लगाया जाता है । इसमें से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है ।

धुंध (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० धूम्र + अन्ध] १. बह अँधेरा जो हवा में मिली धूल के कारण हो । यौ०— अंधाधुंध । २. हवा में उड़ती हुई धूल । ३. आँख का एक रोग जिसके कारण ज्योति मंद हो जाती है और कोई वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई देती ।

धुंध पु (२)
वि० घना । अत्यधिक । उ०— साधो ऐसा धुंध अँधि- यारा । इस घट अंतर बाग बगीये इसी में सिरजनहारा ।— कबीर श०, भा० १, पृ०६३ ।

धुंधक
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुंध' ।

धुंधकार
संज्ञा पुं० [हिं० धुँकार] १. धुँकार । गरज । गड़गड़ाहट । २. अंधकार । अँधेरा ।

धुंधकारी
संज्ञा पुं० [सं० धुन्धुकारिन्] १. गोकर्ण के भाई का नाम जो अपने भाई से भागवत सुनकर तर गया था । २. उपद्रवी य अनाचारी व्यक्ति (ला०) ।

धुंधमई
वि० [हिं० धुंध + मई(प्रत्य०)] धुँधला । मलीन । जो साफ दिखाई न पडे़ । स्पष्ट । उ०— धुंधमई का मेला नाहीं, नहीं गुरू नहिं चेला । सकल पसारा जिहि दिन नाहीं, जिहि दिन पुरुष अकेला ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ६१ ।

धुंधमार
संज्ञा पुं० [धुंन्धुंमार] दे० 'धुंधुमार' । उ०— बिक्रम मैं बिक्रम धरम सुत धरम मैं, धुंधमार धीर मैं, धनेस बारौं धन मैं ।— मतिराम ग्रं०, पृ० ३७३ ।

धुंधमाल
संज्ञा पुं० [सं० धुन्धुमार] दे० 'धुंधुमार' ।

धुंधर †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुंध] १. गर्द गुबार । हवा में उड़ती हुई धूल । २. गर्द या धूल उड़ने के कारण होनेवाला अँधेरा । तारीकी ।

धुंधरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुंधर' । उ०— दसौ दिसा धुंधरि रहीय, जलद श्रोण बरषंत ।—प० रामो, पृ० ३२ ।

धुंधु
संज्ञा पुं० [सं० धुन्धु] एक राक्षम का नाम जो मधु राक्षस का पुत्र था । विशेष— हरिवंश में लिखा है कि धुंधु एक बार मरुभूमि में बालू कै नीचे छिपकर संसार को नष्ट करने की कामना से कठिन तपस्या कर रहा था । वह जब साँस लेता था तब उसके साथ धुँआ और अंगारो निकलेत थे, भूकंप होता था और बडे़ बडे़ पहाड तक हिलने लगते थे । जब महाराज बृहदश्व वानप्रस्थ ग्रहण करके और अपना राज्य अपने लड़के कुवलयाश्व को देकर वन की ओर जाने लगे तब महर्षि उतंक ने जाकर उनसे धुंध की शिकायत की और कहा कि यदि आप इस दुष्ट राक्षस को न मारेंगे तो बड़ा अनर्थ हो जायगा । बृहदश्व ने कहा कि मैं तो वानप्रस्थ ग्रहण कर चुका हूँ और अब अस्त्र नहीं उठा सकता । हाँ, मेरा लड़का कुवलयाश्व उसे अवश्य मार डालेगा । तदनुसार कुवलयाश्व अपने सौ लड़कों को लेकर उतंक के साथ घुंघु को मारने चला । उस समय विष्णु ने भी लोकहित के विचार से उसके शरीर में प्रवेश किया था । कुवयाश्व और उसके ल़डकों को देखकर धुंधु क्रोध में फुफकार छोड़ने लगा जिससे कुवलयाश्व के ९७ लड़के मारे गए । अंत में कुवलयाश्व ने उसे मार डाला । तभी से कुवलयाश्व का नाम धुंधुमार पड़ गया ।

धुंधुकार
संज्ञा पुं० [हिं० धुंधु + कार] १. अंधकार । अँधेरा । २. धुँधुलापन । ३. नगाडे़ का शब्द । धुंकार । उ०— धराधर हालै धरधर धु धुकारन सों धीर नर तजैगे धरैया बल बाँह के ।— गुमान (शब्द०) ।

धुँधुमार
संज्ञा पुं० [सं० धुन्धुमार] १. राजा त्रिशंकु का पुत्र । २. कुवलयाश्व का एक नाम ।

विशेष— दे० 'धुंधु' ।

धुंधुरि †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुंध] गर्द गुबार या धूएँ के कारण होनेवाल अँधेरा । उ०— ढोल बजाती गावती गीत मचावती धुंधरि धूरि के धारनि ।—द्विजदेव (शब्द) । (ख) बोर अबीर की धुंधरि में कछु फेर सों कै मुख फेरि कै झाँकी ।— पद्माकर (शब्द०) । (ग) विकट कटक सजि नल के चलत दल धुंधुरि प्रताप शिषी धूम मलिनाई है ।— गुमान (शब्द०) ।

धुँधुरित
वि० [हिं० धुंधुर + इत (प्रत्य०)] १. धुँधला किया हुआ । धूमिल । उ०— भुवन धुंधुरित धूलि धूलि धुंधुरित सुधूमहू ।— पद्माकर (शब्द०) । २. दृष्टिहीन । धुँधली दृष्टिवाला । उ०— कलि गुलाल सों धुंधुरित सकल ग्वालिनी ग्वाल । रोरी मीड़न के सुमिस गोरी गहे गुपाल ।— पद्माकर (शब्द०) ।

धुंधूकर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुंधकार' । उ०— प्रलय होय जब धुंधूकारा ।—कबीर सा०, पृ० २८८ ।

धुंधूकारि
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुंधुकार' । उ०— आपि गुरू आपे ही चेला । धुंधूकारि प्रभु रहै अकेला ।—प्राण०, पृ० ६७ ।

धुंसक पु
वि० [हिं०] दे० 'ध्वंसक' । उ०— आयौ रच्छक जदूवंस कौ । धुंसक असुर बंस कंस कौ ।— नंद० ग्रं०, पृ० २२७ ।

धुँआँ
संज्ञा पुं० [सं० धूमक] दे० 'धुआँ' ।

धुँआँस
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुवाँस '[को०] ।

धुँआँसा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धुआँ] अत्यधिक धूँआ लगने से उत्पन्न कालिख [को०] ।

धुँआँसा † (२)
वि० १. धुएँ के कारण काला । २. धुएँ के स्वाद का ।

धुँआना
क्रि० स० [हिं० धुँआँ] धुँए से युक्त होना । अधिक धुआँ के कारण काला होना ।

धुँआयँध
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुँआँ] धुँए की गंध । धुँए के कारण उत्पन्न गंध ।

धुँआरा
वि० [हिं० धुँआ] धुएँ के रंग का काला ।

धुँई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूनी' ।

धुँकार
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि + कार] जोर का शब्द । गरज । गड़गड़ाहट । उ०— कहै पद्माकर त्यों दुंदुभी धुँकार सुनि अकबक वोलै यौ गनीम और गुनाही हैं ।— पद्माकर (शब्द०) ।

धुँगार
संज्ञा स्त्री० [सं० धूम्र + आधार] बघार । तड़का । छौंक । उ०— तुरई चचेंडे़ टेढ़स तरे । जीर धुंगार मेले सब धरे ।— जायसी (शब्द०) ।

धुँगारना (१)
क्रि० स० [हिं० धुँगार] बघारना । छौंकना । तड़का देना । उ०— छाँछ छबीली धरी धुँगारी । झहरै उठत झार की न्यारी ।— सूर (शब्द०) ।

धुँगारना (२)
क्रि० स० [अनु०] मारना । पीटना ।

धुँदला पु
वि० [हिं०] दे० 'धुँधला' । उ०— उसका मस्तिक धुँदला हो गया ।— ज्ञानदान, पृ० १५७ ।

धुँध पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दुंदुभि' । उ०— जोगी होइ निसरा जो राजा । सून नगर जानहुं धुँध बाजा ।-जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० ३६७ ।

धुँधका
संज्ञा पुं० [हिं० धूआँ] दीवार या छत पर बना हुआ वह बड़ा छेद जो धूआँ निकलने के लिये बनाया जाता है । धोंधका । धुँवारा ।

धुँधराना
क्रि० अ० [हिं० धुँधला] दे० 'धुँधलाना' । उ०— नव- पल्लव दीखत धुँधराये । होम धुआँ जिन ऊपर छाये ।—लक्ष्मणसिंह । (शब्द०) ।

धुँधलका (१)
वि० [हिं० धुँदलका] दे० 'धुँधला' । उ०— इस कारण उलकी कथाओं का वातावरण प्रायः रहस्यमय, धुँधलका और कुछ कुछ भय भीगा रोमांच जगा देनेवाला सा हो गया है ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० ९२ ।

धुँधलका (२)
संज्ञा पुं० वह स्थिति जब कुछ उजाला और कुछ अंधकार के कारण चीजे धुँधली दिखती है । यह स्थिति सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पूर्व हुआ करती है ।

धुँधला
वि० [हिं० धुंध + ला] १. कुछ कुछ काला । धूएँ के रंग का । २. अस्पष्ट । जो साफ दीखाई न दे । ३. कुछ कुछ अँधेरा । मुहा०— धुँधले का वक्त = वह समय जब कुछ अँधेरा हो जाय और स्पष्ट दिखाई न दे । वहुत सबेरे या संध्या का समय ।

धुँधलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुँधला + आई(प्रत्य०)] दे० 'धुँधलापन' ।

धुँधलाना
क्रि० अ० [हिं० धुँधला] धुँधला पड़ना ।

धुँधलापन
संज्ञा पुं० [हिं० धुँधला + पन] धुँधले या अस्पष्ट होने का भाव । कम दिखाई देने का भाव ।

धुँधली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूँधल + ई (प्रत्य०)] दे० 'धुंध' ।

धुँधली (२)
वि० स्त्री० [हिं० धुंध] अस्पष्ट । धूमिल । वह दृष्टि । जिससे कम दिखाई दे । उ०— आज जब ब्राह्मण ने आहुति दी तब यद्यपि यज्ञ के धुएँ से उसकी दृष्टि धुँधली हो रही थी, आहुति अग्नि ही में पड़ी ।—शकुंतला, पृ० ६७ ।

धुँधियाला
संज्ञा पुं० [हिं० धुँधला] धुँधलापन । अँधेरा । उ०— ज्यों मौन शिशिर में धुँधियाली बन व्यथा किया करती क्रीड़ा ।—दीप०, पृ० १०६ ।

धुँधुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० धुंधु] धुआँ निकलने के लिये छत में बना हुआ मोखा या बड़ा छेद ।

धुँधुआना
क्रि० अ० [हिं० धुआँ] धुएँ के साथ जलना । धुआँ देते हुए जलना ।

धुँधुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुंधुरि] १. गर्द गुबार से उत्पन्न अँधेरा । २. धुँधलापन । ३. आँख का धुंध नामक रोग ।

धुँधुरी
वि० [हिं०] दे० 'धुँधुली' । उ०— धुँधुरी दिस दिस्स सबंग दिसा । दिशि पीत सु पत्तिय अद्ध निसा ।—पृ० रा०, २४ । १८४ ।

धुँधुवाना पु †
क्रि० अ० [सं० धूम्र, हिं० धुआँ] धुआँ देना । धुआँ दे देकर जलना । उ०— चिंता ज्वाल सरार बन दावा लनिलगि जाय । प्रगट धुआँ नहिं देखिए उर अंतर धुँधुवाय ।— गिरिधर (शब्द०) ।

धुँधेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुंध या धुंधुरि] धुंध । गर्द गुबार के कारण होनेवाला अँधेरा । उ०— दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि, धूरि की धुँधेरी सों अँधेरी आभा भानु की ।-गुमान (शब्द०) ।

धुधेला †
संज्ञा पुं० [हिं० धुंध + ऐला (प्रत्य०)] १. बदमाश । पाजी । २. दगाबाज । धोखेबाज ।

धुँवाँ
संज्ञा पुं० [सं० धूम] दे० 'धुआँ' ।

धुँवाँकश
संज्ञा पुं० [हिं० धुँवा + कश] दे० 'धुआँकश' ।

धुँवादान
संज्ञा पुं० [हिं० धुँवा + फा० दान (प्रत्य०)] दे० 'धुआँदान' ।

धुँवाधार (१)
वि० [हिं० धुआँधार] दे० 'धुँआँधार' ।

धुँवाधार (२)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'धुआँधार' ।

धँअ
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुव] दे० 'ध्रुव' । उ०— उवरयौ नाक सु नाग धुअ दिव अस्तुति परमान ।—पृ० रा०, १ । १९९ ।

धुँआँ
संज्ञा पुं० [सं० धूम्र] १. सुलगती या जलती हुई चीजों से निकलकर हवा मे मिलनेवाली भाप जो कोयले के सूक्ष्म अणुओं से लदी रहने के कारण कुछ नीलापन या कालापन लिए होती है । धूम । उ०— चिंता ज्वाल शरीर बन दावा लगि लगि जाय । प्रगट धुआँ नहिं देखिए उर अतर धुँधुवाय ।— गिरिधर (शब्द०) । यौ०— धुआँ धक्कड़ = (१) धुआँ होना । धुआँ फैलना । (२) शोरगुल । हल्ला गुल्ला । उ०— गरमागरम कचौड़ी मसालेदार चिल्लाते धुआँ धक्कड़ मचाते हलुवाई लोग अपनी दूकान की नौकायें बढ़ाते चले जाते ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ११४ । क्रि० प्र०—उठना ।—छूटना ।—छोड़ना ।—निकलना ।— होना । मुहा०— धुएँ का धोरहर = थोडे़ ही काल में मिटने या नष्ट होनेवाली वस्तु या आयोजन । क्षणभंगुर वस्तु । उ०— (क) कबिरा हरि की भक्ति बिन धिक जीवन संसार । धूआँ का सा धौरहर जात न लागै बार ।— कबीर (शब्द०) । (ख) धुआँ को सो धौरहर देखि तू न भूले रे ।—तुलसी (शब्द०) । धुएँ के बादल उड़ाना = भारी गप हाँकना । झूठ मूठ बड़ी बड़ी बातें कहना । धुआँ देना = (१) सुलगती हुई वस्तु का धुआँ छोड़ना । धुआँ निकालना । जैसे,— यह तेल जलने में बहुत धुआँ देता हैं । (२) धुआँ लगाना । धुआँ पहुँचाना । जैसे,— उसकी नाक में मिर्ची का धुआँ दो । धुआँ निकालना या काढ़ना = बढ़ बढ़कर बातें कहना । शेखी हाँकना । उ०— जस अपने मुहँ काढे़ धुआँ । चाहेसि परा नरक के कुआँ ।— जायसी (शब्द०) । धुआँ रमना = धुएँ का छाया रहना । धुआँ सा मुँह होना = चेहरे की रंगत उड़ जाना । चेहरा फीका पड़ जाना । लज्जा से मुख मनिन हो जाना । (किसी वस्तु का) धुआँ होना = काला पड़ना । झाँवरा होना । धूमला होना । मुँह धुआँ होना = दे० 'धुआँ सा मुँह होना' । २. घटाटोप । उमड़ती हुई वस्तु । भारी समूह । ३. घुर्रा । धज्जी । उ०— धुआँ देखि खरदूषण केरा । जाय सुपनखा रावण प्रेरा ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०— धुएँ उड़ाना = धज्जियाँ उड़ाना । छिन्न भिन्न करना । टुकड़े टुकड़े करना । नाश करना । धुएँ बखेरना = दे० धुएँ उड़ाना ।

धुआँकश
संज्ञा पुं० [हिं० धुआ + फा० कश (= खींचना)] भाप के जोर से चलनेवाली नाव या जहाज । अगिनबोट । स्टीमर ।

धुआँदान
संज्ञा पुं० [हिं० धुआँ + सं० आधान से हिं० प्रत्य० दान] छत में धुआँ निकलने के लिये बना हुआ छेद । चिमनी ।

धुआँधार (१)
वि० [हिं० धुआँ + धार] १. धूएँ से भरा । धूममय । २. गहरे रंग का । भड़कीला । तड़क भड़क का । भव्य । ३. धुएँ का सा । काला । स्याह । ४. बड़ जोर का । बड़े वेग का और बहुत अधिक । प्रचंड । घोर । जैसे, धुआँधार वर्षा, धुआँधार घटा, धुआँधार नशा । उ०— भट्ठी नहि सिल लोढ़ा नहिं घोरघार । पलकन की फेरन में चढत धुआँधार ।— भारतेदु ग्रं०, भा० १, पृ० ८७ ।

धुआँधार (२)
क्रि० वि० बड़े वेग से और बहुत अधिक । बहुत जोर से । जैसे, धुआँधार बरसना ।

धुआँना
क्रि० अ० [हिं० धुआँ से नामिक धातु] धुएँ से बस जाना । अधिक धुएँ में रहने के कारण स्वाद और गंध में बिगड़ जाना (पकवान आदि के लिये) ।

धुआँयँध (१)
वि० [हिं० धुआँ + गंध] जिसमें धुएँ की महक बस गई हो । धुएँ की तरह महकनेवाला ।

धुआँयँध (२)
संज्ञा स्त्री० अन्न न पचने के कारण आनेवाली डकार । धूम ।

धुआँरा
संज्ञा पुं० [हिं० धुआँ + रा (प्रत्य०)] छत में धुआँ निकलने के लिये बना हुआ छेद या खिड़की । चिमनी ।

धुआँस
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुवाँस' ।

धुआँसा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० धुआँ] घर की छत में जमी हुई धुएँ की कजली । आग जलने के स्थान के ऊपर की छत में जमा कालिख या धूआँ ।

धुआँसा (२)
वि० धुएँ से बसा हुआ । आँच ठीक न लगने के कारण स्वाद और गंध में बिगड़ा हुआ (पकवान आदि के लिये) ।

धुआ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] नाश । मरण ।

धुई पु
सं० स्त्री० [हिं०] दे० 'धुँई' । उ०— अर्ध पुंड लिलाट रेखा चक्र अँग सुहाघन । चंद्रहाँस सिंगार बीरी धुई ध्यान जराबन ।—पलटू०, भा० ३, पृ० ६४ ।

धुकंतो पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० धौंकना] आग । अग्नि । ज्वाला । दाह । उ०— विणजारारी भाई जिउँ, गया धुकंती मेल्ह ।— ढोला०, दू० १६३ ।

धुक
संज्ञा स्त्री० [देश०] कलाबत्तू बटने की सलाई ।

धुकड़पुकड़
संज्ञा पुं० [अनु०] १. भय आदि की आशंका सेहोनेवाली चित्त की अस्थिरता । घबराहट । २. आगा पीछा । पसोपेश ।

धुकड़ी
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटो थैली । बटुआ ।

धुकधुकी
संज्ञा स्त्री० [धुक धुक से अनु०] १. वक्षस्थल का वह भाग जो नीचे होता है । पेट और छाती के बीच का भाग जो कुछ गहरा सा होता है । २. कलेजा । हृदय । ३. कलेजे की धड़कन । कंप । उ०— आज धुकधुकी में मेरी भी ऐसा ही उद्दीप्त अतीत ।— साकेत,पृ० २८३ । ४. ड़र । भय । खौफ । क्रि० प्र०—लगना । ५. एक गहना जो गले में पहना जाता है और छाती पर लटकता रहता है । पदिक । जुगनू ।

छुकना पु †
क्रि० अ० [हिं० झुकना] नीचे की ओर ढलना । निहुरना । नवना । उ०— डगमगात गिरि परत पइन पर भुज भ्राजत नंदलाल । जनु श्रीधर श्रीधरत अधोमुख धुकत धरनि मानी नमि नाल ।—सूर (शब्द०) । २. गिर पड़ना । उ०— (क) लेत उसास नयन जल भरि भरि धुकि जु परी धरि धरणी ।— सूर (शब्द०) । (ख) रुंड पर रुंड धुकि परे धरि धरणि पर गिरत ज्यौं सग करि बज्र वारे ।—सूर (शब्द०) । ३. वेग से टूटना । झपटना । टूट पड़ना । उ०— (क) तुलसिदास रघुनाथ नाम धुनि अकनि गीध धुकि धायो ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मानो प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि ज्यौं धुकि धायो ।— तुलसी (शब्द०) । ४. आतंकित होना । त्रस्त होना । घबड़ाना । उ०— राजन राव सबै उपराव खुमान की धाक धुके यों कहैं हैं ।—भूषण ग्रं०, पृ० १२७ ।

धुकनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूनी' । उ०— सुगंध को धुकनी से अम्लान नाकों में दम आ गया ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २२ ।

धुका
संज्ञा पुं० [अनु०] एक प्रकार का बाजा । उ०— बाजे बाजन जूझि के, धुका दमामा भरि ।-चित्रा०, पृ० १९१ ।

धुकान †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धमकना] धुँधकार । धुँकार । घोर शब्द । गड़गड़ाहट का शब्द । उ०— सैयद समर्थ भूप अलो अकबर दल, चलत बजाय मारू दुंदुभी धुकान की ।—गुमान (शब्द०) ।

धुकाना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० धुकना] १. झुकाना । नवाना । उ०— भूषन को भ्रम औरंग के सिब भौसिला भूप की धाक धुकाए ।—भूषण ग्रं०, पृ० ६५ । २. गिराना । ढकेलना । ३. पछाड़ना । पटकना । उ०— करत सरस जल केलि कबहुँ मीनहिं गहि लावत । कबहूँ ह्वै असवार धाय डड़्ढार धुकावत ।—सूदन (शब्द०) ।

धुकाना पु (२)
क्रि० स० [सं० धूम + कारण] धूनी देना ।

धुकार
संज्ञा स्त्री० [धु से अनु०] १. नगाड़े का शब्द । उ०— दै दुंदुभी धुकार गगन महँ बरसै फूल अभाने ।— रघुराज (शब्द०) । २. ध्वनि । आवाज । उ०— भननात गोलिन की भनक जनु धुनि धुकार । झिलीन की । —हिम्मत०, छंद ८० ।

धुकारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुकार + ई (प्रत्य०)] दे० 'धुकार' ।

धुकुरपुकुर
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'धुकड़पुकड़' ।

धुक्कना पु †
क्रि० अ० [हिं० धुकना] दे० 'धुकना' ।

धुक्करना
क्रि० अ० [हिं० धुकार] गरजना । चिल्लाना । चीखना । उ०— मदजल धार बरषत जिमि धाराधर, धक्कनि सौं धुक्करैं धरनिधर धाए तैं ।— मति० ग्रं०, पृ० ३८९ ।

धुक्कारना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'धुकाना' ।

धुखना पु
क्रि० अ० [हिं० धुकना] जलना । भभकना । उ०— धड़कै डर कातर सोर धुखै ।—रा० रू० पृ० ३४ ।

धुगधुगी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुकधुकी' ।

धुज पु
संज्ञा पुं० [सं० ध्वज] दे० 'ध्वजा' ।

धुजटी
संज्ञा पुं० [सं० धूजंटि] दे० 'धूजंटि' ।

धुजा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वजा] १. दे० 'ध्वजा' । २. विष्णु के तलवे का झंडे का चिह्न । उ०— बिनवत जुग प्रफुलित जलज, करि कलि कैक समान । धुजा भुजा की छाँह में, देहु अभय पद दान ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६२९ ।

धुजाना पु
क्रि० स० [सं० √ धू(= कंपन), गुजं धूजवुं] १. कंपित करना । उ०— मुगट उतार सुघट दसमुखरा, लेकर उधट धुजाई लंका ।—रघु० रू०, पृ० १८० । २. उड़ाना । फैलाना । उ०—पगनि धरत मग धरनि धुजावैं धूरि ।—हम्मीर०, पृ० २३ ।

धुजिनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वजिनी] सेना । फौज । उ०— कपि धुजिनी महँ धंसे धाय खल खलमल भयो न थोरा ।— रघुराज (शब्द०) ।

धुज्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० ध्वज हिं० धुज] दे० 'धुज' । उ०— गुंजत निसान फहरात धुज्ज ।— ह० रासों, पृ० ८१ ।

धुड़ंगी पु †
वि० [हिं० धूर + अंगी] जिसके शरीर पर कोई वस्त्र न हो, केवल धूल ही धूल हो ।

धुणि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ध्वनि' । उ०— आसणु धरती धुणि अकाश । उर्ध कमल मुखि कीआ बिगासु ।-प्राण०, पृ० १३४ ।

धुत (१)
वि० [सं०] १. कंपित । हिलता हुआ । २. त्यक्त । तजा हुआ । ३. तिरस्कृत । डाँटा या लताड़ा हुआ [को०] ।

धुत (२)
अव्य० [हिं०] दे० 'दुत' ।

धुतकार
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'दुतकार' ।

धुतकारना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'दुतकारना' ।

धुताई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूत + आई (प्रत्य०)] दे० 'धूर्तता' ।

धुतारा पु
वि० [सं० धूर्त(= धुत) + हिं० आरा (प्रत्य०)] धूर्त । पाजी । दुष्ट । उ०— पीसुन मिले सबहिं धुतारा सबहीं ज्ञान लावनहारा ।—कबीर सा०, पृ० ५३७ ।

धुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हिलना । काँपना [को०] ।

धुतू
संज्ञा पुं० [अनु०] दे० 'धूतू' ।

धुतूरा
संज्ञा पुं० [सं० धुस्तूर] दे० 'धतूरा' ।

धुत्त †
वि० [अनु०] बेहोश । बेसुध । नशे में चूर ।

धुत्ता † (१)
संज्ञा पुं० [सं० धूर्तता] धूर्तता । दगाबाजी । कपट । छल । क्रि० प्र०—देना ।—बताना ।

धुत्ता (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली ।

धुधराना पु
क्रि० स० [हिं० धुँध] जलाना । उजाड़ना । नष्ट करना । उ०— इन मुंडियन मेरा घर धुधरावा ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३१७ ।

धुधुकना पु
क्रि० अ० [अनु०] 'धधकना' । उ०— जेहि बिधि धुधुकत नाद अनाहद तेहिं बिधि सुरत लगावै ।— भीखा० श०, पृ० १७ ।

धुधुकार
संज्ञा स्त्री० [धुधु से अनु०] १. धू धू शब्द का शोर । घोर शब्द । कड़ा शब्द । गरज के समान शब्द । उ०— बाजन अवाजन को कहाँ लौ गनावै कोउ धमकनि धौसा की धुकारन सी धुधुकार ।— गोपाल (शब्द०) ।

धुधुकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुधुकार' । उ०— माची धौंसन की धुधुकारी ।—रघुराज (शब्द०) ।

धुधुकी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'धुधुकार' ।

धुन (१)
संज्ञा पुं० [सं० धून, धातुरूप धुनोति से] काँपने की क्रिया या भाव । कंपन ।

धुन (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुनना] १. किसी काम को निरंतर करते रहने की अनिवार्य प्रवृत्ति । बिनी आगा पीछा सोचे और रुके कोई काम करते रहने की इच्छा । लगन । जैसे,—आज कख उन्हें रुपया पैदा करने की धुन है । क्रि० प्र०—लगना ।—समाना । यौ०— धुन का पक्का = वह जो आरंभ किए हुए काम को विना पूरा किए न छोड़े । २. मन की तरंग । मौज । जैसे,— धुन ही तो है, उठे और चल पड़े । ३. सोच । विचार । फिक्र । चिंता । खयाल । जैसे,— इस समय वे किसी धुन में बैठे हैं, उनसे बोलना ठीक नहीं । मुहा०—धुन समा जाना = विचार में आ जाना । मति निश्चित हो जाना । उ०— एक दिन धुन जो समाई तो आजाद मिरजा ऐन वक्त कचहरी से नदारत हो गए ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५० ।

धुन (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि] १. स्वरों के उतार चढ़ाव आदि के विचार से किसी गीत को गाने का ढंग । गाने का तर्ज । जैसे,— यह भजन कई धुनों में गाया जा सकता है । २. संपूर्ण । जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । ३. दे० 'ध्वनि' । मुहा०— धुन धुन रोना = सिर धुन धुन कर रोना । अत्यधिक दुःखी होना । उ०— सुख तजि जम के वशि परै मूढ़ धुने धुन रोत ।— प्राण०, पृ० २५३ ।

धुनकना
क्रि० स० [अनु०] दे० 'धुनना' ।

धुनकार
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि] ध्वनि । आवाज । स्वर । उ०— पंच शब्द धुनकार धुन, बाजै गगन निसान ।—कबीर सा० सं०, पृ० १० ।

धुनकी
संज्ञा स्त्री० [सं० धुनस्] १. धुनियों का वह धनुस के आकार का औजार जिससे वे रुई धुनते हैं । पिंजा । फटका ।/?/विशेष— इसमें (दे० चित्र) क क हलकी पर मजबूत लकड़ी का एक डंडा होता है और इसके सिरे पर काठ का एक और टुकड़ा ख होता है । इस सिरे से क क लकड़ी के दूसरे सिरे तक तक ताँत ग ग खूब कसकर बँधी होती है । धुननेवाला क क डंडे को बाँए हाथ में पकड़कर उकड़ूँ बैठ जाता है और ताँत को रुई के ढेर पर रखकर उसपर बार बार प्रायः हाथ भर लंबी लकड़ी के एक दस्ते से, जिसके दोनों सिरे अधिक मोटे और लट्टूदार होते हैं और जिसे मुठिया, बेलन या हत्या कहते हैं, आघात करता है जिससे रुई के रेशे अलग अलग हो लाते और बिनौले निकल जाते हैं । कभी कभी अधिक सुबीते के लिये क क डंडे को ऊपर छत में लटकते हुए किसी छोटे धनुष से भी बाँध देते हैं । २. छोटा धनुस् जो प्रायः लड़कों के खेलने अथवा कभी कभी थोड़ी बहुत रुई धुनने के भी काम में आता ।

धनना
क्रि० स० [हिं० धुनकी] १. धुनकी से रुई साफ करना जिसमें उसके बिनौले अलग हो जायँ, गर्द निकल जाय और रेशे अलग अलग हो जायऐ । २. खूब मारना पीटना । मुहा०— धुन के रख देना = बहुत अधिक पीटना । बहुत मारना । उ०— तुम लोगों की कजा आई है । अब मैं धुन के रख दूँगा ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३०० ।—सिर धुनना = दे० 'सिर' के० मुहा० । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । ३. बार बार कहना । कहते ही जाना । जैसे,— तुम तो अपनी ही धुनते हो, दूसरे की सुनते ही नहीं । ४. किसी काम को बिना रुके बराबर करते जाना । जैस,— धुने चलो अब थोड़ी ही दूर है ।

धुनवाना
क्रि० स० [हिं० 'धुनना' का प्रे० रूप] धुनने का काम दूसरे से कराना । दूसरे को धुनने में प्रवृत्त कराना । २. संयोग कराना (बाजारू) ।

धुनवी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुनकी' ।

धुनही पु
संज्ञा स्त्री० [सं० धनुष] धनुष । धनुही । उ०— तीन पनच धुनहीं करन । बड़े कटन तंडीर ।—पृ० रा०, ७ । ७९ ।

धुना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुनियाँ' ।

धुनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुनना] १. पिटाई । मरम्मत । २. धुनने का पारिश्रमिक ।

धुनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी । उ०— वा जमुना के तीर सोई धुनि आँखिन आवै ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३३२ ।

धुनि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि] १. दे० 'ध्वनि' । उ०— आनन सरद सुधाकर सम तसु बोले मधुर धुनि बानी ।— विद्यापति, पृ० २१८ । २. चक्र और कुंडलिनी शक्ति के संपर्क से उत्पन्न ध्वनि । उ०— बाँधिया मूल देखिया अस्थूल, गगन गरजंत धुनि ध्यान लागा ।—रामानंद०, पृ० ३ ।

धुनिआ पु
संज्ञा पुं० [हिं० धुनिया] दे० 'धुनिया' । —वर्णरत्ना- कर, पृ० १ ।

धुनिकारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ध्वनि] दे० 'ध्वनि' । उ०— निर्झर झरे अनहदु धुनिकारि ।—प्राण०, पृ० १११ ।

धुनियाँ
संज्ञा पुं० [हिं० धुनान] वह जो रुई धुनने का काम करता हो । बेहना । विशेष— भारत में प्रायः मुसलमान ही रुई धुनने का काम करते हैं ।

धुनिया
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूनी' । उ०— कोठा ऊपर कोठरी, जोगी धुनिया रमाया हो । अंग भभूत लगायके जोगी रैन गँवाया हो ।—कबीर श०, भा० २, पृ० ७७ ।

धुनिहाव †
संज्ञा पुं० [देश०] हड्डी में का दर्द ।

धुनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी । यौ०— सूरधुनी ।

धुनी पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूनी' ।

धुनीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] सागर । समुद्र ।

धुनेचा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार के सन का पौधा जिसे बंगाल में काली मिर्च की बेलों पर छाया रखने के लिये लगाते हैं ।

धुनेहा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुनियाँ' ।

धुन्नना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'धुनना' । उ०— धम्म सुमिर निज सीस धुन्नइ ।—कीर्ति०, पृ० १८ ।

धुन्नी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ध्वनि' । उ०— बजे बाज अनेक धुन्नी अपारं ।—पृ० रा०, पृ० १७७ ।

धुपना †
क्रि० अ० [हिं० धुलना] धुलना । धोना । उ०— (क) सेहुँड को सों आँक तपाये प्रगट लखायो । नैन नीर सों धुप्यो और हू जन चमकायो ।— व्यास (शब्द०) । (ख) मूरत नैन समाय धुपै केहूँ नहिं धोये ।—व्यास (शब्द०) ।

धुपाना †
क्रि० अ० [हिं० धूप(= सुगंधि द्रव्य)] धूप देना । धूप के धूएँ से सुवासित करना । उ०— मनसा मंदिर माहि धूप धुपाइये । प्रेम प्रीति की मालराम चढइये ।—रै० बानी, पृ० ६९ ।

धुपाना (२)
क्रि० स० [हिं० धूप(= सूर्यातप)] किसी चीज को सुखाने आदि के लिये धूप में रखना । धूप दिखाना ।

धुपेना †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + एना (प्रत्य०)] वह पात्र जिसमें आग रखकर ऊपर से घी डाल देते हैं । धूप सुलगाने का पात्र । धूपदानी ।

धुपेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूप + एला (प्रत्य०)] गरमी में पसीने के कारण निकलनेवाली फुंसी । अँभौरी । पित्ती ।

धुप्पल †
संज्ञा स्त्री० [बोल०] धोखा । छल । प्रवंचना ।

धुप्पस †
संज्ञा स्त्री० [बोल०] धुप्पल ।

धुप्पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धूप' । उ०—वह जागि न सोवै खाइ न भुष्षा जिसदै धुप्पु न छाही ।— सुंदर ग्रं०, भाग १, पृ० २०६ ।

धुब पु
वि० [सं० धूम्र, हिं० धूप] क्रोध से जलते हुए । उ०— अतिसेन तहब्वर आरुहते । मिल लाख चले धुब एक मतै ।—रा० रू०, पृ० ८१ ।

धुबला †
संज्ञा पुं० [सं०] लहँगा । घघरा ।

धुविया पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धोबी' । उ०— धुविया फिर मर जायगा चादर लीजै धोय ।—पलटू०, भा० १, पृ० ४ ।

धुबे पु
वि० [हिं० धूप (= प्रंचड) वेग] प्रबल (वेग) । भयंकर । उ०— जबना राठोड़ाँ धुबे जंग । उण दिसा भीम आयौ अभंग । रा०, रू० पृ० ७३ ।

धुमई (१)
वि० [सं० धूम्र + ई (प्रत्य०)] धूएँ के रंग का । जिसका रंग धूएँ की तरह काला हो ।

धुमई (२)
संज्ञा पुं० [सं० धूम्र] वह बैल जिसका रंग धूएँ का सा हो । विशेष— ऐसा बैल साधारणतः मजबूत और तेज समझा जाता है ।

धुमक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धमक' । उ०—तदनंतर भउ कइसन, धुमक सम्मार—वर्ण०, पृ० १५ ।

धुमरा †
वि० [सं० धूम्र + हिं० रा० (प्रत्य०)] दे० 'धूमिल' ।

धुमला †
संज्ञा पुं० [सं० धूम्र + हिं० ला (प्रत्य०)] जिसे दिखाई न दे । अंधा ।

धुमलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूमिल +आई (प्रत्य०)] १. धूमिल होने का भाव । २. अंधकार । अँधेरा ।

धुमारा
वि० [सं० धूम्र + आरा (प्रत्य०)] धूएँ के रंग का । धूमिल ।

धुमिला
वि० [हिं०] दे० 'धूमिल' ।

धुमिलना †
क्रि० अ० [हिं० धूमिल] धूमिल होना । धुँधलाना ।

धुमिलाना
क्रि० स० [हिं० धूमिल से नामिक धातु] धूमिल करना । धुँधला करना ।

धुमेला
वि० [हिं०] दे० 'धूमिल' उ०— मुखज तांबुल देई अधर सुरंग रेइ सो काहे भेल धुमेला ।—विद्यापति, पृ० ८४ ।

धुमैला
वि० [हिं०] दे० 'धुमेला' ।

धुमैली
वि० [हिं० धूमिल] अस्पष्ट । धुँधली । उ०— छा वर्ष तक हम लोग श्री नगर में रहे । मुझे वहाँ की बहुत ही धुमैली सी याद है ।—जिप्सी, पृ० ४१ ।

धुम्म पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० धूम । उ०— भुजाग्र भाग मेर नागइंद्र दाग दभझयं । बरन्न धुम्म धुम्ररं सुरं पुरं सु धुज्जयं ।—पृ० रा०, २ । १४७ ।

धुम्रर पु
वि० [हिं० धूमिल] धूमिल । धुँधला । उ०— भुजाग्र भाग मेर नान इंद्र दाग दभझयं । बरन्न धुम्म् धुम्मरं, सुरं पुरं सु धुज्जयं ।—पृ० रा०, २ । १४७ ।

धुरंधर (१)
वि० [सं० धुरन्धर] १. भार उठानेवाला । १. जो सब में बहुत बड़ा, भारी या बली हो । जैसे, धुरंधर पंडित । २. श्रेष्ठ । प्रधान ।

धुरंधर (२)
संज्ञा पुं० १. बोझ ढोनेवाला जानवर । जैसे, बैल, खच्चर, गधा आदि । २. वह जो बोझ ढोता हो । बोझ ढोनेवाला कोई जीव । ३. रामायण के अनुसार एक राक्षस जो प्रहस्त का मंत्री था । ४. धौ का पेड़ ।

धुर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जूआ जो बैलों आदि के कंधे पर रखा जाता है । २. बोझ । भार । ३. गाड़ी आदि का धुरा । अक्ष । ४. खूँटी । ५. शीर्षस्थान । अच्छी और ऊँची जगह । ६. उँगली । ७. चिनगारी । ८. भाग । अंश । ९. धन । संपत्ति । १०. गंगा का एक नाम ।

धुर (२)
संज्ञा पुं० [सं० धुर्] १. गाड़ी या रथ आदि का घुरा । अक्ष । २. शीर्ष या प्रधान स्थान । ३. भार । बोझ । उ०— जो न होत जग जन्म भरत को । सकल धर्म्म धूर धरणि धरत को ।— तूलसी (शब्द०) । ४. आरंभ । शुरू । उ०— घुर ही ते खोटो खाटो है लिए फिरत सिर भारी ।—सूर (शब्द०) । मुहा०— घुर सिर से = बिलकुल आरंभ से । बिलकुल शुरू से । जैसे,— तुमने बना बनाया काम बिगाड़ दिया, अब हमें फिर धुर सिर से करना पडे़गा । ५. जूआ जो बैलों आदि के कंधे पर रखा जाता है । ६. जमीन की माप जो बिस्वे का बीसवाँ भाग होता है । बिस्वांसी । ७. प्रथम । उ०— जलबा काज नरुकी जादम । धुर ऊठी पतिबरत तणै ध्रम ।— रा० रू०, पृ० १७ । ८. आसामी । उ०— बदले तुसरै वाणित्राँ, धुर गौढ़ा लै धान ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६५ ।

धुर (३)
अव्य० [सं० धुर्] न इधर न उधर । बिलकुल ठीक । सटीक । सीधे । जैसे, धुर ऊपर, धूर नीचे । उ०— अंतःपुर धुर जाय उतारें आरती । निरखि पुत्र को रूप सरूप बिसारती ।—रघु- नाथ (शब्द०) । २. एक दम दूर । बिल्कुल दूर । उ०— मोती लादन पिय गए धुर पटना गुजरात ।—गिरिधर (शब्द०) ।

धुर (४)
वि० [सं० ध्रुव] पक्का । दृढ़ ।

धुरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुर + ई] कुएँ के खंभों आदि के बिच में आडे़ टिकाए हुए वे दोनों बाँस या लंबी लकड़ियाँ जिनके जमीन पर वाले सिरे आपस में सटाकर मजबूती से बाँधे रहते हैं और दूसरे सिरों के बीच में वह छोटी लकड़ी या खूँटी जड़ी रहती है जिसमें गराड़ी पहनाई होती है ।

धुरकट
संज्ञा पुं० [हिं० धुर(= सिर या आगे, आरंभ) + कुट (= कटौती या कूत)] वह लगान जो असामी जमींदार को जेठ में पेशगी देते हैं ।

धुरकिल्ली
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुरा + कील] गाड़ी में वह कील जो धुरी को आँक से अटकाने के लिये भीतर की ओर धुरी के सिरे पर लगा दी जाती है ।

धुरचट
संज्ञा पुं० [?] अधिकता । प्रचुरता ।

धुरजटी पु
संज्ञा पुं० [सं० धुर्जटि हिं०] दे० 'धूर्जटि' ।

धुरड्डी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुलेंड़ी' ।

धुरना पु †
क्रि० स० [सं० धूर्वण] १. पीटना । मारना । २. बजाना । उ०— पहुँचे जाय राजगिरि द्वारे धुरे निशान सुदेश ।—सूर (शब्द०) । ३. दाएँ हुए धान के पयाल को भूसा बनाने के लिये फिर से दाँना । पुआरी करना ।

धुरपद
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ध्रूपद' ।

धुरमुट †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'दुरमुस' ।

धुरवा †
संज्ञा पुं० [सं० धुर + वाह] बादल । मेघ । उ०—जाल- रंध्र मुख अगर धूम जनु जलधर धुरवा ।— नंद० ग्रं०, पृ० २०३ ।

धुरहट्टा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुलेंडी' । उ०— दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समय नशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दंगा हो गया ।—अमिट०, पृ० ९९ ।

धुरहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुलेंडी' । उ०— फेर धुरहरी भई दूसरे दिन जब अगिन बुझोरी ।—भारतेंदु ग्रं०, भाग१, पृ० ५०५ ।

धुरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० धुर्] लकड़ी या लोहे का वह डंडा जो पहिए की गराड़ी के बीचोबीच रहता है । वह डँडा जिसमें पहिया पह- नाया रहता है और जिसपर वह घूमता है । अक्ष ।

धुरा
संज्ञा पुं० [सं०] भार । बोझ ।

धुराधुर पु
संज्ञा पुं० [हिं० धुरा] सहारा । आधार ।

धुराना
संज्ञा पुं० [पुराना का अनु०] अंत का । छोर का । उ०— अपने मिलनेवालों में से एक कोई पड़े पढे़ लिखे धराने धुराने ड़ाग, बड़े धाध यह खटराग लाए........ ।—ठेठ० (उपोदधात), पृ० २ । विशेष— इसका प्रयोग पुराना के साथ ही होता है । जैसे,— पुराना धुराना । पुरानी धुरानी ।—

धुरियाधुरंग
वि० [देश०] वह गाना जो बाजे या साज के साथ न गाया जाय । जिस (गाने) को बाजे या साज की अपेक्षा न हो । २. अकेला । जिसके साथ और कोई न हो ।

धुरियाना † (१)
क्रि० स० [हिं० धूर] १. किसी वस्तु को धूल से ढँकना । किसी वस्तु पर धूल डालना । २. ऊख के खेत को पहले पहल गोड़ना । ३. किसी ऐब या बदनामी को किसी युक्ति से दबा देना ।

धुरियाना
क्रि० अ० १. किसी चीज का धूल से ढँका जाना ।२. उख के खेत का पहले पहल गोड़ा जाना । ३. किसी ऐब या बदनामी का किसी प्रकार दबना या दबाया जाना ।

धुरियामल्लार
संज्ञा पुं० [देश० धुरिया + मल्लार] एक प्रकार का मल्लार जो संपूर्ण जाति का है और जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं ।

धुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धुरा] दे० 'धुरा' ।

धुरीण
वि० [सं०] १. बोझ सँभालनेवाला । २. मुख्य । प्रधान । ३. धुरंधर । ४. जिसे कोई काम सौंपा जाय । जिसे कोई उत्तरदायित्व प्रदान किया जाय ।

धुरीण (१)
संज्ञा पुं० १. रथ आदि में जीते जानेवाले घोड़े आदि । २. कार्यभार सँभालनेवाला व्यक्ति । ३. प्रमुख व्यक्ति । अग्रणी पुरुष ।

धुरीन
वि० [सं० धुरीण] दे० 'धुरीण' ।

धुरीय
संज्ञा पुं०, वि० [सं०] दे० 'धुरीण' [को०] ।

धुरीराष्ट्र
संज्ञा पुं० [हिं० धुरी + सं० राष्ट्र] प्रमुख राष्ट्र । बड़े देश । दूसरे महायुद्ध के पहले जर्मनी, इटली और जापान जिनका विश्व की राजनीति में एक गुट था ।

धुरेंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धुलेंडी' ।

धुरेटना पु †
क्रि० स० [हिं० धूर + एटना (प्रत्य०)] धूल से लपेटना । धूल से ढँकना । धूल लगाना । उ०— (क) संग कूँवरेटे चारु पट को लपेटे अंग गोरज धुरेटे ये हैं बेटे नंदराय के ।—दीनदयाल (शब्द०) । (ख) त्यों द्विजदेव जू नाहक ही मुख भोरे घने अरबिंद धुरेटत ।—द्विजदेव (शब्द०) ।

धुरेटा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० धूल] धूल ।

धुर्मपान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धूमपान' । उ०— का जल सयन साधे निसु व्याकुल का धुर्मपान धुँआ द्रिग राता ।— सं० दरया, पृ० ६१ ।

धुर्य (२)
संज्ञा पुं० [सं० धुर्य] १. ऋषभ नामक ओषधि जो लहसुन की तरह होती और हिमालय पर मिलती है । २. विष्णु । ३. बैल ।

धुर्य (२)
वि० [सं० धुर्य्य] १. धुरंधर । २. श्रेष्ठ । ३. बोझ ढोनेवाला ।

धुर्रा
संज्ञा पुं० [हिं० धूर] किसी चीज का अत्यंत छोटा भाग । कण । रजकण । जर्रा । भुआ । मुहा०— धुर्रे उड़ाना या उड़ा देना = (१) किसी वस्तु के अत्यंत छोटे छोटे टुकड़े कर ड़ालना । अस्त व्यस्त या नष्ट भ्रष्ट कर डालना । बहुत दुर्गति करना । (३) बहतु अधिक मारना या पीटना । धुर्रे बिगाड़ना = दे० 'धुर्रे उड़ाना' ।

धुलना
क्रि० अ० [हिं० धोना का अ० रूप] १. पानी की सहायता से साफ या स्वच्छ किया जाना । धोया जाना । जैसे,— कपड़े धुल गए हों तो ले आओ । २. लगातार पानी पड़ने या बहने से जमीन आदि का कटना ।

धुलवाना
क्रि० स० [हिं० धुलना का प्रे० रूप] धोने का काम दूसरे से कराना । किसी को धोने में प्रवृत्त करना ।

धुलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० धोना] १. धोने का काम । २. धोने का भाव । ३. धोने की मजदूरी । ४. मारने पीटने का काम । पिटाई (लाक्ष०) ।

धुलाना
क्रि० स० [सं० धवल] धोने का काम दूसरे से कराना । धुलवाना ।

धुलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'धूल' । उ०—धुलि क समूह, झंझानिल क वेग ।—वर्ण०, पृ० १९ ।

धुलियापोर
संज्ञा पुं० [हिं० धूल + फा़० पीर] एक कल्पित पीर जिसका नाम बच्चे खेल आदि में लिया करते हैं ।

धुलियामिटिया
वि० [हिं० धूल + मिट्टी] १. जिसपर धूल या मिट्टी पड़ी हो अथवा डाली गई हो । २. दबाया या शाँत किया हुआ (झगड़ा बखेड़ा आदि) ।

धुलेँडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूल + उड़ाना या धूल + हाड्डी] १. हिंदुओं का एक त्योहार जो होली जलने के दूसरे दिन चैत बदी १ को होता है । इस दिन प्रातःकाल लोग होली की राख मस्तक पर लगाते और दूसरों पर अबीर गुलाल आदि सूखे चूर्ण डालते हैं । उ०—फिर तो घुलेंड़ी मच जाती है । कीचड़, गोबर राख कुछ नहीं बचने पाता ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १४० । २. उक्त त्योहार का दिन ।

धुव पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० ध्रुव] दे० 'ध्रुव' । उ०—धुव ते ऊँच पेम धुम उवा । सिर दै पाउ देइ सो छुवा ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० २०२ ।

धुव (२)
संज्ञा पुं० [डिं०] कोप । क्रोध । गुस्सा ।

धुवका †
संज्ञा स्त्री० [सं० घ्रुवक] गीत का पहला पद । टेक ।

ध्रुवच्छार पु
वि० [सं० ध्रुव + अक्षर] अविनाशी । अविनशवर । उ०—सनकादिक रिषदेव हंस मोहनी धुवच्छर ।—सुजान०, पृ० ३ ।

धुवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आग ।

धुवन (२)
वि० चलानेवाला । कँपानेवाला । हिलानेवाला ।

धुवाँ
संज्ञा पुं० [सं० धूम, हिं० धुआँ] दे० 'धुआँ' । उ०—नवपल्लव दीखत धुँधराए, होम धुवाँ जिन ऊपर छाए ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

धुवाँकश
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'धुआँकश' ।

धुवाँधार
वि० क्रि० वि० [हिं०] दे० 'धुआँधार' ।

धुवाँधज पु
संज्ञा पुं० [सं० धूमध्वज] अग्नि । (डिं०) ।

धुवाँरा
संज्ञा पुं० [हिं० धुवाँ + द्वार] छत में धुआँ निकलने के लिये बना हुआ छेद या खिड़की । चिमनी ।

धुवाँस
संज्ञा स्त्री० [हिं० धूर + माष । या घूमसी] उरद का आटा जिससे पापड़ या कचौड़ी बनती है ।

धुवाना
क्रि० स० [हिं० 'धोना' क्रिया का प्रे० रूप] दे० 'धुलाना' ।

धुवित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक पक्रार का पंखा जो हिरन के चमड़े आदि से बनाया जाता था और जिसका व्यवहार याज्ञिक लोग यज्ञ की आग दहकाने के लिये करते थे । २. ताड़ का पंखा (को०) ।

धुस्तुर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा [को०] ।

धुस्तूर
संज्ञा पुं० [सं०] धतूरा ।

धुस्स
संज्ञा पुं० [सं० ध्वंस] १. गिरे हुए घरों की मिट्टी या ईट पत्थर का ढेर । मिट्टी आदि का ऊँचा ढेर । टीला । २. नदी आदि के किनारे पर बाँधा हुआ बाँध । बंद । ३.चोट या ठोकर जिसमें खुन न निकले ।

धुस्सा
संज्ञा पुं० [सं० द्विशाट] मोटे ऊन की लोई जो ओढ़ने के काम आती है ।