विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/भृ

विक्षनरी से

भृंग
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्ग] १. भौरा। भ्रमर। २. भृंगराज। भँगरा [को०]। ३. कलिंग या भृंगराज नाम का पक्षी [को०]। ४. छिछोरा। लंपट। भ्रमर [को०]। ५. एक स्वर्णपात्र। भृंगार। झारी [को०]। ६. गुड़त्वच। दारचीनी [को०]। ७. अभ्रक [को०]। ८. एक प्रकार का कीड़ा। जिसे, बिलनी भी कहते है। उ०—(क) भइ मति कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखे रघुराई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) कीठ भृंग ऐसे उर अंतर। मन स्वरूप करि देत निरतर।— लल्लू (शब्द०)। विशेष—इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि यह किसी कीड़े के ढोले को पकड़कर ले आता है और उसे मिट्टी से ढक देता है; और उसपर बैठकर और डँक मार मारकर इतनी देर तक और इतने जोर से 'भिन्न भिन्न' शब्द करता है कि वह कीड़ा इसी की तरह हो जाता है।

भृंगक
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गक] भृंगराज पक्षी।

भृंगज
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गज] ५. अगरु। २. अभ्रक [को०]।

भृंगजा
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गजा] मारंगी।

भृंगपर्णिका
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्पर्णिका] एला। छोटा इलायची या उसका पौधा।

भृंगप्रिया
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गप्रिया] माधवी लता।

भृंगबंधु
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गबन्ध] १. कुंद का पेड़। २. कदम का पेड़।

भृंगमोही
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गमोहिन्] १. चंपा। २. कनकचंपा।

भृंगरज
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गरज] दे० 'भृंगराज'।

भृंगराज
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गराज] १. भँगरा। नामक वनस्पति। भँगरँया। घमरा। २. काले रंग का एक प्रसिद्ध पक्षी जो प्रायः सारे भारत, बरमा, चीन आदि देशों में पाया जाता है। भोमराज। वि० दे० 'भीमराज'।

भृंगराज घृत
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गराजघृत] वैद्यक में एक प्रकार का वृत जो साधारण घी में भँगरैया का रस मिलाकर बनाया जाता है। कहते है, इसकी नास लेने से सफेद बाल काले हो जाते हैं।

भृंगरीट
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गरीट] १. लीहा। २. शिव के द्वारपाल। ये अत्यंत विरूप एवं विकृतांग थे। विशेष—भृंगरिटि, भृंगरीटि, भृंगिविष्टि भृंगिरीटि, भृंगेरिटि आदि इनके नाम है।

भृंगरोल
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गरौल] एक प्रकार की भिड़ [को०]।

भृंगवल्लभ
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गवल्लभ] भमि कदंब।

भृंगवल्लभा
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गवल्लभा] ममि जैबु [को०]।

भृंगसार्थ
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गसार्थ] भौरों का समूह या झुड। भृंगावली [को०]।

भृंगसोदर
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गसोदर] भँगरैया। केशराज [को०]।

भृंगाण
सज्ञा पुं० [सं० भृँङ्गाण] काले वर्ण का बडा भौंरा [को०]।

भृंगानंदा
सज्ञा स्त्री० [सं० भृंङ्गानन्दा] यूथिका [को०]।

भृंगाभीष्ट
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गभीष्ट] आम का वृक्ष।

भृंगार
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गांर] १. लौंग। २. सोना। स्वर्ण। २. सोने का बना हुआ जल पीने का पात्र। ४. जल भरकर अभिषेक करने की झारी।

भृंगारी
सज्ञा स्त्री० [सं० भृंङ्गरि] केवड़ा।

भृंगारिका, भृंगारी
सज्ञा स्त्री० [सं० भृंङ्गरिका, भृङ्गारी] झिल्ली नामक कीड़ा।

भृंगारु
सज्ञा पुं० [सं० भृड़्गरु] घड़ा या पात्र [को०]।

भृंगार्क
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गार्क] भँगरैया।

भृंगालिका
सज्ञा स्त्री० [सं० भृड्गलिका] झिल्ली [को०]।

भृंगावली
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गवली] भोरों की पंक्ति [को०]।

भृंगाह्व
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गाह्व] भँगरैया। जीवक।

भृंगी (१)
सज्ञा पुं० [सं० भृंङ्गिन्] १. शिव जो का एक परिषद वा गण। उ०— अति प्रेय वचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे।—मानस, १। ९३। २. बड़ या उदुंबर का पेड़।

भृंगी (२)
सज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गी] १. भौंरी। २. बिलनी नामक कीड़ा जो और कीड़ों को भी अपने समान रूपवाला बना लेता है। उ०—उरियतु भृंगी कीट लौ मत बहई ह्वै जाहि —बिहारी (शब्द०)। ३. अतिविषा। अतीस। ४. भाँग।

भृंगीफल
सज्ञा पुं० [सं० भृङ्गीफल] अमड़ा।

भृंगीश
सज्ञा पुं० [सं० भृङगीश] शिव। महादेव।

भृंगेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गेष्टा] १. घीकुआर। २. भारंगी। ३. युवती स्त्री।

भृंटिका
संना स्त्री० [सं० भृण्टिका] एक प्रकार का पौधा [को०]।

भृंडि
संज्ञा स्त्री० [सं० भृण्डि] तरग। ऊर्मि। लहर [को०]।

भृकुंश
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री का वेश धारण करनेवाला नट। पर्या०—भ्रुकुंश। भृकुसक। भ्रुकुश।

भृकुटि, भृकुटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भौंह। २. भ्रूभंग।

भृगु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं। विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी। इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कपि' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है। ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखन के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि आई थीं। जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्याओं आदि को देखकर उनका वीर्य स्खलित हो गया। सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया। उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी। २. परशुराम। ३. शुक्रचार्य। ४. शुक्रवार का दिन। ५. शिव। ६. कृष्ण (को०)। ७. जमदग्नि। ८. दे० 'सानु'। ९. पहाड़ का ऐसा किनारा जहाँ से गिरने पर मनुष्य बिलरकुल नीचे आ जाय, बीच में कहीं रुक न सके।

भृगुक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कूर्मचक्र के एक देश का नाम।

भृगुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. भृगु के वंशज। भार्गव। २. शुक्राचार्य। ३. शुक्रग्रह।

भृगुतनय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भृगुज'।

भृगुकच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] आधुनिक भड़ौच जो प्राचीन काल में पवित्र तीर्थस्थान था।

भृगुतुंग
संज्ञा सं० [सं० भृगुतुङ्ग] हिमालय भी एक चोटी का नाम यह पवित्र तीर्थस्थान माना जाता है।

भृगुनंद, भृगुनंदन
संज्ञा पुं० [सं० भृगुनन्द, भृगुन्दन] १. परशुराम। २. शुक्राचार्य (को०)। ३. शौनक ऋषि (को०)।

भृगुनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम। उ०— घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबंध राम बर बानी।— मानस, १। ४१।

भृगुनायक
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम।

भृगुपति
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम। उ०— देखत भृगुपति वेष कराला।—मानस, १। २६९।

भृगुपात
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ के कगार से गिरकर शरीर त्याग करना [को०]।

भृगुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्र। भृगुनंदन।

भृगुमुख्य
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम। उ०— पंचमुख छमुखभृगुंमुख्य भट अलुर सुर सर्व सरि समर समरत्थ सूरो।— तुलसी (शब्द०)।

भृगुराम
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम।

भृगुरेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु की छाती पर का वह चिह्न जो भृगु मुनि के लात मारने से हुआ था। उ०— (क) माथे मुकुट सुभग पीतांबर उर सांभित भृगुरेखा हो।— सूर (शब्द०)। (ख) तट भुजदंड भौंर भृगुरखा चंदन चित्रित रगन सुंदर।—सूर (शब्द०)।

भृगुलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भृगु मुनि के चरण का चिह्न जो विष्णु की छाती पर है।

भृगुवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] तैत्तिरीय उपनिषद् की तीसरी वल्ली जिसका अध्ययन भृगु न किया था।

भृगुवार, भृगुवासर
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्रवार।

भृगुशादूल, भृगुश्रेष्ठ, भृगुसत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] परशुराम।

भृगुसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुक्राचार्य। २. शुक्र ग्रह। ३. परशु- राम। उ०— भृगुसुत समुझि जनेन बिलोकी। जो कुछ कहेहु सहेहुँ रिस रोका।— राम०, पृ० १५८।

भृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भृता] १. भृत्या। दास। सेवक। २. मिताक्षरा के अनुसार वह दास जो बोझ ढोता हो। ऐसा दास अधम कहा गया है।

भृत (२)
वि० [सं०] १. भरा हुआ। पूरित। उ०— छाए आस पास दीसै भोर भौंर भृत भनकार।—भुवनेश (शब्द०)। २. पाला हुआ। पोषण किया हुआ। ३. वहन किया हुआ। ४. भृति या किराया आदि पर लिया हुआ।

भृतक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वेतन लेकर काम करता हो। नौकर।

भृतकबल
संज्ञा पुं० [सं०] तनखाह लेकर लड़नेवाली सेना। नौकर। फौज।

भृतकाध्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] भृति या वेतन देकर शिक्षक से पढ़ना।

भृतकाध्यापक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो भृति लेकर अध्यापन करता हो। वेतन लेकर पढ़ानेवाला अध्यापक।

भृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नौकरी। मजदूरी। ३. वेतन। तनखाह। ४. मूल्य। दाम। ५. भरने की क्रिया। ६. पालन करना। उ०— वै पथ विकल चकित अति आतुर भमंत हेतु दियो। भृति बिलंबि पुष्टि दै श्याम श्यामैं श्याम दिया।— सूर (शब्द०)।

भृतिंभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] वैतनिक कर्मचारी [को०]।

भृतिरूप
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरस्कार जो किसी विशेष कार्य करने के कारण परिश्रमि के बदले में दिया जाय।

भृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भृत्या] सेवक। नौकर। उ०— सो कुछ नहीं, किंतु भृत्यों को प्रिये, कष्ट ही होगा और।— साकेत, पृ० ३७२।

भृत्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भृत्य का धर्म, भाव या पद।

भृत्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] भृत्य होने का भाव।

भृत्यभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० भृत्यभर्तृ] परिवार का मालिक। गृहस्वामी।

भृत्यशाली
वि० [सं० भृत्यशालिन्] जिसके अनेक सेवक हों।

भृत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दासी। २. वेतन। तनखाह। उ०— नित गावत सेस महेस सुरेश से, पावत वाँछित भृत्य औ भृत्या।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८८।

भृम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भ्रम'। उ०— कप कही रचना सकल अणकल, चित भृम मिट जाय निसचल।— रघु० रू०, पृ० १५१।

भृमि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घूमनेवाली वायु। ववंडर। २. पानी में का भँवर या चक्कर। ३. वैदिक काल की एक प्रकार की वीणा।

भृमि (२)
वि० घूमनेवाला। चक्कर काटनेवाला।

भृम्यश्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

भृश (१)
क्रि० वि० [सं०] अत्यधिक। बहुत अधिक। उ०—तेहि के आगे मिलत है जोजन सहस अठार। तपत भानु भृश शीश पर तहँ अति तुदन अपार।—विश्वास (शब्द०)।

भृश (२)
वि० १. शक्तिशाली। ताकतवर। प्रचंड। २. अतिशय [को०]।

भृशकोपन
वि० [सं०] बहुत क्रोधी [को०]।

भृशदारुण
वि० [सं०] बहुत निष्ठुर। बहुत कठोर। कठोर [को०]।

भृशदुःखित
वि० [सं०] अत्यंत दुःखी [को०]।

भृशपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] महा नीली।

भृशपीडित
वि० [सं०] अत्यंत दुःखी। बहुत पीड़ित।

भृशसंहृष्ट
वि० [सं०] अत्यंत खुश। बहुत प्रसन्न [को०]।

भृष्ट
वि० [सं०] भूना हुआ। पकाया हुआ।

भृष्टकार
संज्ञा पुं० [सं०] भड़भूँजा।

भृष्टतंडुल
संज्ञा पुं० [सं० भृष्टतण्डुल] पकाया या भुना हुआ चावल।

भृष्टान्न
संज्ञा पुं० [सं०] भूँजा या उबाला पकाया चावल [को०]।

भृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शून्य वाटिका। २. भूनना या तलना [को०]।

भँउती †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भौंती'।

भेँगा
वि० [देश०] जिसकी आँखों की दोनों पुतलियाँ देखने में बराबर न रहती हों, टेढ़ी तिरछी रहती हों। ढेरा। अंबर- तक्कू।

भेँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० भेंटना] १. मिलना। मुलाकात। जैसे,— यदि समय मिले तो उनसे भेंट कर लीजिएगा। २. उपहार। नजराना। उपासना। जैसे,— ये ५०) आपकी भेंट हैं। क्रि० प्र०—चढ़ना।—चढ़ाना।—देना। —पाना।— मिलना।—लेना।

भेँटना पु †
क्रि० स० [सं० भिद्(=आमने सामने से आकार भिड़ना),हिं० भिड़ना] १. मुलाकात करना। मिलना। २. गले लगना। छाती से लगना। आलिंगन करना।

भेँटाना †
क्रि० स० [हिं० भेंट] १. मुलाकात होना। मिलना। २. किसी पदार्थ तक हात पहुँचाना। हाथ से छुआ जाना।

भेँड़
संज्ञा स्त्री० [सं० भे़ड] दे० 'भेंड़'।

भेँना
क्रि० स० [हिं० भिगोना] भिगोना। तर करना। उ०— लुवई पोइ पोइ घी भेंई। पाछे चहनि खाँड़ सो जेंईं।— जायसी (शब्द०)।

भेंवना †
क्रि० स० [हिं० भिगोना] तर करना। आर्द्र करना। भिगोना। उ०— हम खरमिटाव कइली है रहिला चबाय के। भेंवल धरल बा दूध में खाजा तोरे बदे।— तेग अली (शब्द०)।

मेआवन †
वि० [हिं० भयावन] भयानक। भयावना। उ०— उ०— भवजल नदिया भेजावन हो रे। कवने रे विधि उतरब पार हो रे।— दरिया० बानी, पृ०, १७९।

भेइ, भेउ पु †
संज्ञा पुं० [सं० भेद, प्रा० भेव, भेउ] भेद। मर्म। रहस्य। उ०— रहे तहाँ दुइ रुद्रगन ते जानहिं सब भेउ।— मान, १७१।

भेक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेढक। २. भयालु। डरपोक या चक- पकाया हुआ आदमी (को०)। ३. मेघ। बादल (को०)।

भेक (२)
वि० १. भोरु। कातर। २. चकित। चकपकाया हुआ [को०]।

भेकट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली।

भेकनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भेकट।

भेकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंडूकी। मंडूकपर्णी [को०]।

भेकभुक्
संज्ञा पुं० [सं० भेकभुज्] सर्प। साँप [को०]।

भेकरव
संज्ञा पुं० [सं०] मेढकों का टर्र टर्र करना। मेढकों की आवाज। दादुर धुनि [को०]।

भेकराज
संज्ञा पुं० [सं०] भृंगराज। भँगरैया।

भेकासन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्रोक्त एक आसन [को०]।

भेकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मेढकी। २. छोटा मेढक। ३. मंडूक- पर्णी [को०]।

भेख (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेष] दे० 'वेष'। उ०— भेख अलेख बहुत है दुनियाँ, करि कै स्वाँग दिखावै।—जग० बानी०, पृ० १२३।

भेख † (२)
संज्ञा पुं० [सं० भेक] मेढक। उ०— सरबर जल पूरिऐ, भेक हरखै सुख लक्खै।— रा० रू०, पृ० २९५।

भेकज पु
संज्ञा पुं० [सं० भेषज] दे० 'भेषज'।

भेज
संज्ञा स्त्री० [हिं० भेजना] १. वह जो कुछ भेजा जाय। २. लगान। ३. विविध प्रकार के कर जो भूमि पर लगाए जाते हैं।

भेजना
क्रि० स० [सं० ब्रजन्] किसी वस्तु या व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये रवाना करना। किसी वस्तु या पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने का आयोजन करना।

संयो० क्रि०—देना।

भेजवाना
क्रि० स० [हिं० भेजना का प्रे० रूप] भेजने के लिये प्रेरणा करना। दूसरे को भेजने में प्रवृत्त करना। भेजने का काम दूसरे से करना। संयो० क्रि०—देना।

भेजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० भज्जा] खोपड़ी के भीतर का गूदा। सिर के अंदर का मग्ज। मुहा०—भेजा खाना = बक बक कर सिर खाना। बहुत बक बककर तग करना।

भेजा † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भेजना] चदा। बेहरी।

भेजाबरार
संज्ञा पुं० [हिं० भेजा(=चंदा)+ फ़ा० बरार] एक प्रथा जिसके अनुसार देहातों में किसी दरिद्र या दिवालिए का देना चुकाने के लिये आस पास के लोगों से चदा लिया जाता है।

भेट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भेंट'।

भेटना (१)
क्रि० स० [हिं० भेंटना] दे० 'भेंटना'।

भेटना † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] कपास के पौधे का फल। कपास का डोंडा।

भेटिया
वि० [हिं०] भेंट लानेवाला। उपहार या नजर लानेवाला।

भेड (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेड़। २. तरणि। भेरा [को०]।

भेड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भेष या भेड] [संज्ञा पुं० भेंड़ा] १. बकरी की जाति का, पर आकार में उससे कुछ छोटा एक प्रसिद्ध चौपाया जो बहुत ही सीधा होता है और किसी को किसी प्रकार का कष्ट नही पहुँचाता। गाडर। विशेष— भेड़ प्रायः सारे संसार में पाई जाती है। यह दूध, ऊन और मांस के लिये पाली जाती है। इसका दूध गौ के दूध की अपेक्षा गाढ़ा होता है और उसमें से मक्खन अधिक निकलता है इसका मांस बकरी के मांस की अपेक्षा कुछ कम स्वादिष्ट होता है; पर पाश्चात्य देशों में अधिकता से खाया जाता है। इसके शरीर पर ऊन बहुत निकलता है और प्रायः उसी के लिये इस देश के गड़ेरिए इसे पालते हैं। कहीं कहीं की भेड़ें आकार में बड़ी भी होती हैं और उनका मांस भी स्वादिष्ट होता है। इसके नर को भेड़ा और बच्चे को मेमना कहते हैं। इसकी एक जाति की दुम बहुत चौड़ी और भारी होती है जिसे दुंबा कहते हैं। दे० 'दुंबा'। मुहा०—भेड़ियाधमान = बिना परिणाम सोचे समझे दूसरों का अनुसरण करना। विशेष— भेड़ों का यह नियम होता है कि यदि एक भेड़ किसी और को चल पडती है, तौ बाकी सब भेड़ें भी चुपचाप उसके पीछे हो लेती हैं। संस्कृत में भेड़ियाधमान को गड्डलिका- प्रवाह कहते हैं। २. बहुत सीधा या मूर्ख मनुष्य।

भेड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भिड़ाना या भेढ़ना (=थप्पड़ मारना)] चाँटा। थप्पड़। (बाजारू)।

भेड़ना
संज्ञा पुं० [हिं० भिड़ाना] भिड़ना। जकड़ना। दो चीजों को मिलाना। जैसे, दरवाजा भेड़ना। उ०—इस उम्र में इश्क जिव में जाग, यो भेड़ लिया ज्यों भेड कूँ बाग।— दक्खिनी०, पृ० १६८।

भेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० भेढ़] भेड़ जाति का नर। मेढ़ा। मेष। उ०—फले फल दाख के पेड़ा। रहत जेहि भूमि पर भेड़ा।—घट०, पृ० २४७।

भेड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० भेढ़] १. एक प्रसिद्ध जंगली मांसाहारी जंतू जो प्रायः सारे एशिया, यूरोप और उत्तर अमेरिका में पाया जाता है। २. सियार श्रृगाल। विशेष— यह प्रायः ३-३।। हाथ लंबा होता है और जंगली कुत्तों से बहुत मिलता जुलता होता है। यह प्रायः बस्तियो के आस पास झुँड बाँधकर रहता है और गाँवों में से भेड़, बकरियों, मुरगों अथवा छोटे छोटे बच्चों आदि को उठा ले जाता है। यह अपने शिकार की दौड़ाकर उसका पीछा भी करता है और बहुत तेज दौड़ने के कारण शीघ्र ही उसको पक़ड़ लेता है। यह प्रायः रात के समय बहुत शोर मचाता है। यह जमीन में गड्ढा या माँद बनाकर रहता है और उसी में बच्चे देता है। इसके बच्चों की आँखें जन्म के समय बिलकुल बंद रहती हैं और कान लटके हुए होते हैं। इसके काटने से एक प्रकार का बहुत तीव्र विष चढ़ता है जिससे बचना बहुत कठिन होता है।

भेड़िहर
संज्ञा पुं० [हिं०] भेड़ पालनेवाला। गड़ेरिया।

भेड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेड़। भेड़ी। मेषी [को०]।

भेड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भेड़'। उ०— भेष जगत की ऐसी रीति। ज्यों भेड़ी जग बहै अनीति।— घट०, पृ० २२५।

भेडू
संज्ञा पुं० [सं०] भेड़ा। मेष।

भेतव्य
वि० [सं०] भय करने योग्य। जिससे डरा जाय।

भेत्ता
वि० [सं० भिद् + तृच् (प्रत्य०)] १. भेदन करनेवाला। २. विघ्न डालनेवाला। ३. भेद खोलनेवाला। ४. षड्यंत्र रचनेवाला।

भेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेदने की क्रिया। छेदने या अलग करने की क्रिया। २. प्राचीन राजनीति के अनुसार शत्रु को वश में करने के चार उपायों में से तीसरा उपाय जिसके अनुसार शत्रुपक्ष के लोगों को बहकाकर अपनी ओर मिला लिया जाता है अथवा उनमें परस्पर द्वेष उत्पन्न कर दिया जता है। ३. भीतरी छिपा हुआ हाल। रहस्य। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।—लेना। ४. मर्म। तात्पर्य। ५. अंतर। फर्क। जैसे,—इन दोनों कपड़ों में बहुत भेद है। ६. प्रकार। किस्म। जाति। जैसे,—इस वृक्ष के कई भेद होते हैं। मुहा०—भेद डाल देना = अविश्वास वा संदेह पैदा करना। अंतर वा फर्क डाल देना। उ०— बात जो भेद डाल दे उसको जो सकें डाल, पेट में डाले।— चुभते०, पृ० ५३। ७. द्रोह। विद्वेष (को०)। ८. हार। पराजय (को०)। ९. रेचन। कोष्ठशुद्धि (को०)।

भेदक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भेदिका] १. भेदन करनेवाला छेदनेवाला। २. रेचक। दस्तावर (वैद्यक)। पु

भेदक पु †
संज्ञा पुं० [सं० भेदज्ञ] वह जो किसी वस्तु के भेद उपभेद का जानकार हो। भेद जाननेवाला। उ०—जे भेदक गीताँ तणा बात करइ सुविचार।—ढोला०, दू० १०४।

भेदकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भेदकारी' [को०]।

भेदकातिशयोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें 'औरै' 'औरै' शब्द द्वारा किसी वस्तु की 'अति' वर्णन की जाती है। जैसे,— औरै कछु चितवनि चलनि औरै मृदु मुसकानि। औरै कछु सुख देति है सकै न बैन बखानि।

भेदकारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भेदकारी'।

भेदकारी
संज्ञा पुं० [सं० भेदकारिन्] वह जो भेदन करता हो। भेदनेवाला।

भेदकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भेदकारी' [को०]।

भेदज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] द्वैत ज्ञान। द्वैत की प्रतीति का बोध। अभेद ज्ञान का अभाव [को०]।

भेदड़ी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] रबड़ी। उ०—पतली पेज (भेदड़ी, राबड़ी) में दूध या छाछ या दही मिलाकर भर पेट खिला दो।—प्रतापसिंह (शब्द०)।

भेददर्शी
वि० [सं० भेददर्शिन्] जगत् को ब्रह्म से भिन्न समझनेवाला। द्वैत वादी।

भेदन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० भेदनीय, मेद्य] १. भेदने की क्रिया। छेदना। वेधना। विदीर्ण करना। २. अमलबेत। ३. हींग। ४. सुअर। ५. चीरना।

भेदन (२)
वि० १. भेदनेवाला। छेदनेवाला। २. दस्त लानेवाला। रेचक। दस्तावर।

भेदना
क्रि० स० [सं० भेदन] चीरना। आर पार करना। छेदना। वेधना। उ०— आह ! वह मुख ! पश्चिन के व्योम बीच जब घिरते हों घनश्याम। अरुण रवि मंडल उनको भेद, दिखाई देता हो छविधाम — कामयनी, पृ० ४६।

भेदनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूट डालने या बिलगाव करने की नीति। उ०— भेदनीति से काम तो लिया, परंतु राम ने महान् कार्य किया।— प्रा० भा० प०, पृ० २०४।

भेदप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] भेद अर्थात् द्वैतवाद में विश्वास।

भेदबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एकता का नाश या अभाव। फुट। बिलगाव।

भेदभाव
संज्ञा पुं० [सं०] अंतर। फरक।

भेदवाद
संज्ञा पुं० [सं०] द्वैतवाद।

भेदविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दो वस्तुओं में अंतर करने की विधि या शक्ति [को०]।

भेदसह
वि० [सं०] जिसपर भेदनीति काम कर सके। भेद डालकर अलग करने योग्य।

भेदांनिभेद †
संज्ञा पुं० [सं० भेद + अभेद] अभेद अर्थात् अद्वैत का भेद। अद्वैत का मम वा गूढ़ रहस्य। उ०—विरला जाणति भेदांनिभेद बिरला जाणति दोइ पष छेद — गोरख०, पृ० २४।

भेदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विध्वंस। नाश [को०]।

भेदित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का मंत्र जो निंदित समझा जाता है।

भेदित (२)
वि० [सं०] बिलगाया या विदीर्ण किया हुआ [को०]।

भेदिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार की शक्ति जिसकी सहायता से योगी लोग षटचक्र को भेद सकते हैं। इस शक्ति के साधन से योगी बहुत श्रेष्ठ हो जाता है।

भेदिनी (२)
वि० स्त्री० [सं०] भेदनेवाली। उ०— वह सुंदर आलोक किरन सी हृदयभेदिनी दृष्ठि लिए। जिधर देखती, खुल जाते हैं तुम ने जो पथ बद किए।— कामायनी, पृ० १८१।

भेदिया
संज्ञा पुं० [हिं० सं० भेद + इया (प्रत्य०)] १. भेद लेनेवाला। जासूस। गुप्तचर। २. गुप्त रहस्य जाननेवाला।

भेदिर
संज्ञा पुं० [सं०] बज्र। भिदुर [को०]।

भेदी (१)
संज्ञा पुं० [भेद + ई (प्रत्य०)] १. गुप्त हाल बतानेवाला। जासूस। गुप्तचर। २. गुप्त हाल जाननेवाला।

भेदी (२)
वि० [सं० भेदिन्] [वि० स्त्री० भेदिनी] १. भेदन करनेवाला। फोड़नेवाला। २. बिलगाव या अंतर करनेवाला। उ०— जे जन निपुन जथारथ बेदी। स्वारथ अरु परमारथ भेदी।— नंद० ग्रं०, पृ० ३०८।

भेदी (३)
संज्ञा पुं० अमलबेत।

भेदीसार
संज्ञा पुं० [देश०?] बढ़इयों का एक औजार जिससे वे काठ में छेद करते हैं। बरमा। उ०— भेदि दुसार कियो हियो तन दुति भेदीसार।—बिहारी (शब्द०)।

भेदुर
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र।

भेदू पु †
संज्ञा पुं० [सं०] मर्म या भेद जाननेवाला।

भेद्य (१)
वि० [सं०] भेदन करने योग्य। जो भेदा या छेदा जा सके।

भेद्य (२)
संज्ञा पुं० १. शास्त्रों आदि की महायता से किसी पीड़ित अंग या फोड़े आदि को भेदन करने की क्रिया। चीरफाड़। २. व्याकरण में विशेषणयुक्त संज्ञा। विशेष्य [को०]।

भेन † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहिन] बहिन। उ०— मुह पीठ के हमसाये से करती है कि भेना। नाहक की खराबी है न लेना है न देना।— नजीर (शब्द०)। विशेष— इसका शुद्ध रूप प्रायः 'भैन 'है।

भेन (२)
संज्ञा पुं० पुं० [सं०] १. ग्रहों वा नक्षत्रों के स्वामी — सूर्य। २. चंद्रमा [को०]।

भेना †
क्रि० स० [हिं० भिगोना] भिगोना। तर करना। उ०— सिरका भेइ वादि जनू आने। कमल जो भए रहहिं बिकसाने।— जायसी (शब्द०)।

भेभम
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत छोटा और पतला बाँस जो हिमालय में होता है। इसे 'रिंगाल' वा 'निगाल' भी कहते हैं। बंगला में 'निगाली' इसी बाँस की बनती है।

भेम्या पु
संज्ञा पुं० [सं० भूमिय?] दे० 'भूमिया'। उ०— फुर- मान गए जैसलहमेर। भेम्या भाटी भए जेर।—पृ० रा०, १। ४२३।

भेय (१)
संज्ञा पुं० [सं० भेद, प्रा० भेअ] दे० 'भेद'। उ०— पायौ परै न जाकौ भे।—नंद ग्रं०, पृ० २६८।

भेय (२)
वि० [सं०] जिससे डरा जाय। भेतव्य [को०]।

भेर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भेरी'। उ०— रिणतूर नफेरिय भेर रुड़ै। गहरै स्वर तांम दमांम गुड़ै।— रा० रू०, पृ० ३३।

भेरवा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का खजूर जिसके पत्तों के रेशों से रस्सियाँ बनती हैं। विशेष—यह भारत के प्रायः सभी प्रदेशों में पाया जाता है। इसे पाछने से एक प्रकार की ताड़ी भी निकलती है जिसका व्यवहार बंबई और लका में बहुत होता है।

भेरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मध्य तथा दक्षिणी भारत का मझोले आकार का एक पेड़ जिसे भीरा भी कहते हैं। विशेष— इस पेड़ से लकड़ी, गोंद, रंग और तेल इत्यादि पदार्थ निकलते हैं। इसकी लकड़ी मेज, कुर्सी, खेती के औजार और तस्वीरों के चौखटे आदि बनाने के काम में आती है, पर जलाने के काम की नहीं होता, क्योंकि इससे धूँआ बहुत अधिक निकलता है।

भेरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० भेलक] दे० 'बैड़ा'। उ०— भेरे चढ़िया झाँझरे भवसागर के माहिं।— कबीर (शब्द०)।

भेरि, भेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा ढोल या नगाड़ा। ढक्का। दुंदुभी। उ०— ताल भेरि मृदंग बाजत सिधु गरजत जान। चरण० बानी, पृ० १२२।

भरीकार
संज्ञा पुं० [सं० भेरी + कार (प्रत्य०)] [स्त्री० भेरिकारी] भेरी बजानेवाला। उ०—नटिनि डोमिनी ढोलिनी सहनाइनि भेरिकारि।— जायसी (शब्द०)।

भरुंड (१)
वि० [सं० भेरुण्ड] भयानक। खौफनाक।

भेरुंड (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का पक्षी। २. गर्भ धारण करना। ३. भेड़िया आदि हिंस्र जंतु।

भेरुंडक
संज्ञा पुं० [सं० भेरुण्डक] भेड़िया। सियार [को०]।

भेरुंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० भेरुण्डा] १. एक यक्षिणी का नाम। २. भगवती काली की एक रूप [को०]।

भेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम। २. नाव। नौका। भेरा (को०)।

भेल (२)
वि० १. कादर। डरपोक। भीरु। २. चंचल। ३. मूर्ख। बेवकूफ। ४. लंबा। उच्च। तुंग (को०)। ५. द्रुत। क्षिप्र। तृर्ण। सत्वर (को०)।

भेलक
संज्ञा पुं० [सं०] नाव [को०]।

भेलन
संज्ञा पुं० [सं०] तैरना। पैरना [को०]।

भेलप †
संज्ञा पुं० [सं० तभिल्] मेल। सँग। उ०— भणियाँ सूँ भेलय नहीं, हुरकणियाँ सूँ हेत।— बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १।

भेलना †
क्रि० स० [सं० भेदय् प्रा० भेल] भंग करना। विनाश करना। तोड़ना। उ०— कलिकाया गढ़ भेलसी छीजै, दसौ दुवारी रे।— दादू०, पृ० ६८९।

भेला पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भेंट या देशी] १. भिड़ंत। २. भेंट। मुलाकात। उ०—(क) कृष्ण सग खेलब बहु खेला। बहुत दिवस मँह परिगो भेला।—रघुराज (शब्द०)। (ख) देउरा को दल जीत बघेला। तासों परयौ एक दिन भेला।—रघुराज (शब्द०)।

भेला (२)
संज्ञा पुं० [सं० भल्लातक] दे० 'भिलावाँ'।

भेला (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] बडा गोला या पिंड। जैसे, गुड़ का भेला।

भेली †
संज्ञा स्त्री० [?] १. गुड़ या और किसी चीज की गोल बट्टी या पिंडी। जैसे, चार भेली गुड़। २. गुड़। (क्व०)।

भेलुक
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक गण।

भेली †
संज्ञा पुं० [गुज० भेलवुँ] दे० 'भेला (३)'। उ०— ता पाछे वह बहू दूसरे दिन तें थोरो थोरो माखन भेलो करते जाती।—दो सौ बावन० पृ० ४।

भेव पु †
संज्ञा पुं० [सं० भेद, प्रा० भेप्र] १. मर्म की बात। भेद। रहस्य। उ०— वास्तवीक नृप चल्यो देव वर वामदेव बल। जरासंध नरदेव भेव गुनि मति अभेव भल।— गोपाल (शब्द०)। २. बारी। पारी। उ०— चौकी दै जनु अपने भेव। बहुरे देवलोक को देव।— केशव (शब्द०)।

भेवना पु †
क्रि० स० [हिं० भिगीना] भिगोना। तर करना। उ०— अति आदर अनुराग भगति मन भेवहिं।— तुलसी (शब्द०)।

भेश पु
संज्ञा पुं० [सं० वेष] दे० 'वेष'।

भेष (१)
संज्ञा पुं० [सं० वेष] दे० 'वेष'।

भेष (२)
संज्ञा पुं० [सं० वेष] १. किसी विशिष्ट संप्रदाय का साधु संत। (साधुओं की परि०)। २. दे० 'भेस'।

भेष † (३)
संज्ञा पुं० [सं० भेक्ष, प्रा० भिक्ख] भिक्षा। भीख। उ०— कुंकुम सुनीर छुटि लग्यो चारु। नग रतन धरे मनुहेअ थारु। उर बीच रोमराजीव रेष। गुर राह मेरं मधि चल्यो भेष।—पृ० रा०, २। ३७६।

भेषज
संज्ञा पुं० [सं०] १. औषध। दवा। ३. चिकित्सा। उपचार (को०)। ३. जल। पानी। ४. सुख। ५. विष्णु।

भेषजकरण
संज्ञा पुं० [सं०] औषधनिर्माण। दवा तैयार करना [को०]।

भेषजकृत
वि० [सं०] चिकित्सित। उपशमित। नीरोग किया हुआ [को०]।

भेपजवीर्य़
संज्ञा पुं० [सं०] औषध की आरोग्यदायक शक्ति [को०]।

भेपजांग
संज्ञा पुं० [सं० भेपजाङ्ग] अनुपान। दवा के साथ या अनंतर खानेवाली वस्तु [को०]।

भेपजागार
संज्ञा पुं० [सं०] औषध मिलने का स्थान दबा की दूकान [को०]।

भेपज्य
वि० [सं०] आरोग्य करनेवाला। नीरूज करनेवाला [को०]।

भेपना पु
क्रि० सं० [हिं० भेप + ना (प्रत्य०)] १. भेष बनाना स्वाँग बनाना। उ०— जा दिन ते उनके परी ड़ीठि ता दिन ते कैपो भेष भेषि तुम्हे देखि देखि जात है।— रघुनाथ (शब्द०)। २. पहनना। उ०— रति रणा जानि अनंग नृपति सा आप नृपति राजति बल जोरति। अकि सूगंध मर्द अँग अँग ठनि बनि बनि भूषन भेषति।— सूर (शब्द०) ।

भेपी पु
वि० [हिं०] किसी विशिष्ट संप्रदाय का भेष धारण करनेवाला। उ०—भेषी पथ संत जो नाई। आदि अंत सो सत कहाई।— घट०, पृ० २४५।

भेस
संज्ञा पुं० [सं० वेप] १. बाहरी रूप रंग और पहनावा आदि। वेष। उ०— धर जोगिनियाक भेस, रे, करब में पहुक उदेस रे।— विद्यापति, पृ० ३१९। यौ०— भेस भूषा। २. वह बनावटी रूप और नकली पहनावा आदि जो अपना वास्तविका रूप या परिचय छिपाने के लिये घारण किया जाय़। कृत्रिम रूप और वस्त्र आदि। क्रि० प्र०— धरना।—बदलना।—बनाना।

भेसज पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भेषज] दवा। ओषध।

भेसना पु
क्रि० सं० [सं० वेश हिं० भेप] वेष धारण करना। वस्त्रादि पहनना।

भैंचक पु
वि० [हिं० भय + चक(=वकित)]दे० भैचक'। उ०— ज्यौ कोउ रूप की रासी अतिंत कुरुप कहै भ्रम भैचक आन्यौ।—सूंदर,० ग्रं०, भा०, २. पृ० ५८१।

भैंस
संज्ञा स्त्री० [सं० महिषी, हिं० भैसि] १. गाय की जाति और आकार प्रकार का पर उससे बड़ा चौपाया (मादा) जिसे लोग दूध के लिये पालते है। विशेष—भैस सारे भारत में पाई जाती है और यहीं से विदेश में गई है। इसके शरीर का रग बिलकुल काला होता है और इसके राएँ कुछ बड़े होते हैँ। यह प्राय़ः जल या कीचड़ आदि में रहना बहुत पसंद करती है। इसका दूध गौ के दूध की अपेक्षा अधिक गाढ़ा होता है और उसमें से मक्खन या घो भी अधिक निकलता है। मान में भी य़ह गी से बहुत अधिक दूध देती है। इसके नर की भँसा कहते है। मुहा०— भैस काटना = गरमी का रोग होना।उपदेश होना (बाजारु)। भैस के आगे बीन बजाए भैस खड़ी पगुराय = किसी से कोई अर्थयुक्त और काम की बात कही जाय, परंतु जिससे कहीं जाय वह सुने या समझे ही नहीं। उ०— मैने इसी से मसविदा लिख लिया था कि उन लोगों कोसुनाऊँगा। मगर भैस के आगे बीन बजाए भैस खड़ी पगुराय़।— फिसाना०, भा० ३. पृ० ४१९। २. एक प्रकार की मछली। विशेष— यह पंजाव, बंगाल तथा दक्षिणी भारत की नदियों में पाई जाती है। इसकी लंबाई, तीन फुट होती है। इसका मांस खाने में स्वादिष्ट होता है, परतु उसमें हाड़ुयाँ इधिक होती है। ३. एक प्रकार की घास।

भैसवाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बेल जिसकी पत्तियाँ पाँच से आठ इच तक लंबी हीती है। यह उत्तरी और दक्षिणी भारत में पाई जाती है। इह वर्षा ऋतु मे फूलती और जाड़े मे फलती हैं।

भैँसि †
संज्ञा स्त्री० [सं० महिपी] दे० 'भैस'। उ०—(क) अब श्री गुसाई जो के सेवक एक गुजर के बेटा की बहु, आन्यारे में रहती जाकी भैसि श्री गोबर्धननाथ जी आप मिलाइ दिए तिनकी वार्ता कौ भाव कहत है। —दो सौ बावन०, भा० २, पृ० १। (ख) ओर जब तें वह बहु घर में आई ताके थोरेइ दिन पाछे वा ब्रजवासी की एक भँसि खोइ गई। —दो सो बावन०, भा०, २. पृ० २।

भैँसियागूगल
संज्ञा पुं० [हिं० भैसिया + गूगल] एक प्रकार का गूगल जिसका व्यवहार ओषधि के रूप में होता है।

भैँसिया लहसुन
संज्ञा पुं० [हिं० भैसिया + लहसुन] एक प्रकार का लाल दाग या निशान जो प्राय़ः गाल या गरदन आदि पर होता है। लच्छन।

भैँसा
संज्ञा पुं० [सं० महिप वा हि० भैस] भैंस नामक पशु का नर जो प्रायः बोझ ढ़ाने और गाड़ियाँ आदि खीचने के काम में आता है। पुराणानुसार यह यमराज का वाहन माना जाता है।

भैँसाना †
क्रि० सं० [हिं० भैसा] भैसे से भैस को गर्भ घारण कराना।

भैँसाव
संज्ञा पुं० [हिं० भैल + आव (प्रत्य०)] भैस और भैसे का जोड़ा खाना। भैसे से भैस का गर्भ धारण करना।

भैँसासुर
संज्ञा पुं० [सं० महिपासुर] दे० 'महिषासुर'।

भैँसौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भैस + औरी (प्रत्य०)] भैस का चमड़ा।

भै पु
संज्ञा पुं० [सं० भय] दे० 'भय'। भै भरे सुतहि निरखि नँदनारि। दीनी लकुट हाथ ते ड़ारि। —नंद ग्रं०, पृ० २५०। यौ०— भै अभै पु = भय और अभय। उ०— कुसल छेम, सुख दुख भै अभै। होत है ये कमंनि करि सबै।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३०६।

भैआ †
संज्ञा पुं० [हिं० भाई] १. भाई। भ्राता। २. बराबर या छोटों के लिये संबोसन शब्द। उ०—भैआ कहहु कुसल दोउ बारे।—सानस, २।२९१।

भैक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिक्षा माँगने की क्रिया। २. भिक्षा माँगने का भाव। ३. वह जो कुछ भिक्षा में मिले। भीख।

भैक्ष (२)
वि० [बि० स्त्री० भैत्दा] भिक्षा पर गुजर करनेवाला। भिक्षाजीवी [को०]।

भैक्षकाल
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षा माँगने का समय। भिक्षाटन का समय [को०]।

भैक्षचरण
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षा माँगना। भैक्षचर्या।

भैक्षचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिक्षा माँगने कि क्रिया। भिक्षा माँगना।

भैक्षजीविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भैक्षचर्या'।

भैक्षभुज
वि० [सं० भैक्षभुक्] 'भक्षाजीवी'।

भैक्षव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षुओं का झुंड़। भिक्षुपमृह।

भैक्षव (२)
वि० [सं०] किसी संप्रदाय के साधु से संबधित। भिक्षु संबंधी [को०]।

भैक्षवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भैक्षचर्या'।

भैक्षयशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिक्षा संबंधी शुद्धि। भिक्षा माँगने और ग्रहण करने के संबंध की शुद्धि। (जैन)।

भैक्षाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ से बहुत से लोगों को भिक्षा मिलती हो।

भैक्षान्न
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षा में प्राप्त अन्न आदि [को०]।

भैक्षाशी (१)
संज्ञा पुं० [सं० भैक्षाशिन्] भिक्षुक। भिखमंग।

भैक्षाशी (२)
वि० भिक्षा में प्राप्त अन्नादि खानेवाला [को०]।

भैक्षाहार
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षुक।

भैक्षुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिक्षुओं का समुह। भिक्षुओं का दल। २. सन्यास [को०]।

भैक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षा। भीख।

भैक्ष्याश्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सन्यास। २. ब्रह्मचर्य।

भैचक पु
वि० [हिं० भै(=भय) + चक(=चकित)] चकपकाया हुआ। घबराया हुआ। चकित। विस्मित। क्रि० प्र०— करना।—रहना।—होना।

भैचक्क पु
वि० [हिं० भय + चक(=चकित)] दे० 'भैचक'।

भैजन पु
[वि० भै (=भय) + जनक] भय उत्पन्न करनेवाला। भयप्रद। उ०— धुनि शत्रु भैजनी करत पाय पैजनि है पैजनी लगाम बनी चरम मृदुल की। पाँति सिंधु मुलकी पुरंगन के के कुल की बिसाल ऐसी पुलकी सुचाल तँसी दुलकी। — गोपाल (शब्द०)।

भैड़क
वि० [सं०] भेड़ संबधी [को०]।

भैदा पु
वि० [भय + दा(प्रत्य०)] भयप्रद। डरावना।

भैन †
संज्ञा स्त्री० [सं० भगिनी हि० बहिन] बहिन। भगिनी। उ०— अर्भ सिंध जो की भैन व्याहीजै साही। — शिखर०, पृ० ५२।

भैनवार †
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय जातिविशेष। उ०— उर डा़रि डागुर धाइयी। वहु भैनवार सु आइयौ। —सुजान०, पृ० २७।

भैना (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहिन] बहिन। भगिनी। उ०— नाचे कूदे क्या होय भैना। सतगुरू शब्द समझ ले सैना। — कबीर श०, भा०, १, पृ० ३८।

भैना (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] गंगई नामक पक्षी।

भैनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहिन] बहिन। भगिनी। उ०— बसुद्देव अँनी। बरी कंस भैनी। —पृ० रा०, २। ३१।

भैने †
संज्ञा पुं० [सं० भागिनेय] बहिन का पुत्र। भैंजा। उ०— बकसु भैने कहै लगै मामी। — पलटू०, पृ० ३।

भैभान पु †
वि० [सं० भयमान्] भयानक। भयंकर। उ०— तरवर संतज्जे, आयध बज्जे घार्य गज्जे भयभानं। पृ० रा०, २। ५३३।

भैम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा उग्रसेन। २. भीम के वशज (को०)।

भैम (२)
वि० [सं०] १. भीम संबधी। भीम का। २. भयंकर काम करनेवाला (को०)।

भैमगव
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्र का नाम।

भैमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माघ शुक्ल एकादशी। २. भीम राजा की कन्या। दमयंती।

भैयंस ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + अंश(=भाग)] संपत्ति में भाइयों का हिस्सा। भाइयों का अंश।

भैया (१)
संज्ञा पुं० [हि० भाई] १. भाई। भ्राता। २. बराबरवालों या छोटों के लिये संबोधन शब्द। उ०— (क) पितु समीप तब जाएहु भैया। भइ बड़ी बार जाइ बलि मैया। —तुलसी (शब्द०)। (ख) कहै मोहि मैया मै न मैया भरत की बलैया लैहो भैया तेरी मैया कैकेई है। —तुलसी (शब्द०)।

भैया (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नाव की पटटी या तख्ती।

भैयाचार, भैयाचारा
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + चार] दे० 'भाईचारा'।

भैयाचारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाई + चारी] दे० 'भाईचारा'।

भैय़ादूज †
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रातृद्वितिया] दे० 'भैयदोज'।

भैयादोज
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रातृद्वितिया] कार्तिक शुक्ल द्वितिया। भाई दूज। विशेष— इस दिन बहिनें अपने भाइयों की टीका लगती और भोजन कराती है। इसै यमद्वितिया भी कहते है।

भैयान †
संज्ञा पुं० [सं० भयानक] दे० 'भयानक'। उ०— अदैभुत्त बार भैयान, मचिय कंक बिषम कृपान। —पृ० रा०, ९। १९६।

भैरत्त पु †
वि० [सं० भय + रक्त] भययुक्त। उ०— भैरत चमक्कत पत्त रव षिनक चित्त जिम उष्षरै। षिल्लत सिकार पिथ कुँअर ड़र पसु पीपर दल थरहरै।—पृ० रा०, ६। १००।

भैरव (१)
वि० [सं०] १. जो देखने में भयंकर हो। भीषण। भयानक उ०— पड़िया जुड़ पतसाह सुँ भैरव डूँगरसीह। — रा०, रू०, पृ० ३७। २. दुःखपुर्ण (को०)। ३. भैरव संबंघी (को०)। ४. जिसका शब्द बहुत भीषण हो।

भैरव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शंकर। महादेव। २. शिव के एक प्रकार के गण जो उन्हों के अवतार माने जाते है। विशेष— पुराणानुसार जिस समय अंधक राक्षस के साथ शिव का युद्ध हुआ था, उस समय अंधक की गदा से शिव का सिर चार टुकड़े हो गया था और उसमें से लहु की धारा बहने लगी थी। उसी धारा से पाँच भँरवों री उत्पत्ति हुई थी। तात्रिंकों के अनुसार, और कुछ पुराणों के अनुसार भी, भैरवों, की संख्या साधारणतः आठ मानी जाती है जिनके नाओं के संबध में कुछ मतभेद है। कुछ के मत से महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रुरुभैरद, कालभैन्व, क्रोधभैरव, ताभ्र- चुड़ और चंद्रचुड़ तथा कुछ के मत से असितांग, रूरू चंड़, क्रोध, उन्मत्त, कपाल, भीषण और संहार ये आठ भैरव है। तांत्रिक लोग भैरवो की विशेष रूप से उपासना करते है। ३. साहित्य में भयानक रस। ४. एक नाग का नाम। ५. एक नद का नाम। ६. एक राग का नग्म। विशेष— हनुमत के मत से यह राग छह रागों में से मुख्य और पहला है, और ओड़व जाति का है; क्योकि इसमें ऋषभ और पंचम नहीं होता। पर कुछ लोग इसे षाड़व जाति का भी और कुछ संपूर्ण जाति का भी मानते है। इसके गाने की ऋतृ शरद, वार रवि और समय प्रातःकाल है। हनुमान के मत से भैरवी, बैरारी, मधुमाधवी, सिंधवी और बंगाली ये पाँच इसकी रागिनियाँ और हर्ष तथा सोमेस्वर के मत से भैरवी गुर्जरी, रेवा, गुणकली, बंगाली और बहुली ये छह इसकी रागिनियाँ है। इसकी रागिनियों और पुत्रों की संख्या तथा नामों के संबँध में आचायों में बहुत मतभेद है। यह हास्यरल का राग माना जाता है और इसका सहचर मधुमाधव तथा सहचरी मधुमाधवी है। एक मत से इसका स्वरग्रम ध, नि, सा, रि, ग, म, प, और दूपरे मत से ध, नि, सा, रि, ग, म है। ७. ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। ८. कपाली। ९. भयानक शब्द। १०. वह जो मदिरा पीते पीते वमन करने लगे (तात्रिक)। ११. एक पर्वत का नाम (को०)। १२. भय। खोफ। यौ०— भैरवकारक = भयका़रक। भयावना। ड़रावना भैरव- तर्जक= विष्णु।

भैरवझोलो
संज्ञा स्त्री० [सं० भैरव + झोला] एक प्रकार की लंबी झीली जो प्रायः साधुओं आदि के पास रहती है।

भैरवमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक। उ०— न चतुष्क बिना शब्दं ताले भैरवमस्तके।— सं० दा०, (शब्द०)।

भैरवांजन
संज्ञा पुं० [सं० भैरवाञ्जन] आँखों में लगाने का एक प्रकार का अंजन। (वैद्यक)।

भैरवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार की/?/विशेष— भैरवी के कई मृतियाँ मानि जाती है। जैसे, त्रिपुर- भैरबी, कौलेशभैरवी, रुद्रभैरवी, नित्याभैरवी, चैतन्यभैरवी आदि। इन सबके ध्यान और पूजन आदि भिन्न भिन्न हैं। २. एक रागिनी जो भैरव राग की पत्नी और किसी किसी के मत से मालव राग की पत्ती मानी जाती है। विशेष— हनुमत के मत से यह संपूर्ण जाति की रागिनी है और शब्द ऋतु प्रातःकाल के समय गाई जाती है। इसका स्वरग्राम इस प्रकार है—म, प, ध, नि, सा, ऋ, ग। संगीत रत्नाकर के मत से इसमें मध्यम वादी और धैवत संवादी होता है। ३. पुराणानुसार एक नदी का नाम। ४. पार्वती (ड़ि०)। ५. शैव संन्यासिनी। ६. युवती या द्बादशवर्षीया कन्या जो दुर्गा के रूप में पूजित कही गई है (को०)।

भैरवीचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तांत्रिकों या, वाममागियों का वह समुह जो विशिष्ट तिथियों नक्षत्रों और समयों में देवी का पूजन करने के लिये एकत्र होता है। बिशेष— इसमें सब लोग चक्र में बैठकर पूजन और मद्यपान आदि करते है। इसमें दीक्षित लोग ही सम्मिलित होते है और वर्णाश्रम आदि का कोई बिचार नहीं रखा जाता है। यथा— संप्रप्ति भैरवी चक्र सर्वे वर्णा द्बिजोत्तमा। निवृत्ते भैरवी चक्र सर्वें वर्णाः पृथक् पृथक्। (उत्पत्ति तंत्र)। २. मद्यपों और अनाचारियों आदि का समुह।

भैरवीयातना
संज्ञा स्त्री० [सं०भैरवी + य़ातना] पूराणानुसार वह यातनी जो प्राणीयों को मरते समय उनकी शुदिध के लिये भैरव जो देते है। विशेष— कहते है, जब इस प्रकार की यातना से प्राणी सब मापकों से शुदध हो जाता है, तब महादेव जो उसे मोक्ष प्रदान करते है।

भैरवीय
वि० [सं०] भैरव संबंधी।

भैरवेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु (को०)।

भैरा †
संज्ञा पुं० [हिं० बहेरा] दे० 'बहेड़ा'।

भैरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बहरी] एक पक्षी। दे० 'बहरा'।

भैरू
संज्ञा पुं० [सं० भैरव] दे० भैरव। उ०— हिसा बहुत करै, अपस्वास्थ स्वाद लग्यौ मद माँसे। महामाइ भैरू को सिर दै आपुहि बैठी ग्रासै।—सूंदर० ग्रं० भा०, २, पृ० ५१६।

भैरो
संज्ञा पुं० [सं० भैरव] दे० १. 'भैरव'। २. भैरव राग। उ०— जिन हठ करि री नट नागर सौ भैरों ही है देवगन।—नंद० ग्रं० पृ० ३६७।

भैवद्दी ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] भाईचारा।

भैवा ‡
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृ] दे० 'भीया'।

भैवाद †
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + आद (प्रत्य०)] १. भाईचारा। भाईपन। २. बिरादरी।

भैषज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओषध। दवा। २. वैद्य के शिष्य आदि। ३. लवा पक्षी।

भैषज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दवा। औषध। २. आरोग्यदायक शक्ति। ३. औषध व्यवस्था। चिकित्सा (को०)। यौ०— भैपज्ज रत्नावली = आयुर्वेद का एक चिकित्सा ग्रंथ।

भैष्मकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भीष्मक की कन्या, रुक्मिमी।

भैहा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भय + हा (प्रत्य०)] १. भयभीत। ड़रा हुआ। २. जिसपर भूत वा किसी देव का आवेश आता हो। उ०— घूमन लग समर मै घैहा। मनु अमुआत भाउ भर भैहा।—लाल (शब्द०)।

भोँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भों भों का शब्द।

भोँकना (१)
क्रि० सं० [भक् से अनु०] बरछी, तलवार या इसी प्रकार की ओर कोई नुकीली चीज जोर से घँसाना। धुसेड़ना।

भोंकँना (२)
क्रि० अ० [हिं० भूँकना]दे० 'भूँकना'।

भौँगरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बेल या लता।

भोँगली
संज्ञा स्त्री० [देश० या अनु०?] बाँस की नली। बाँस का वह टुकड़ा जिसमें पोल हो। पुपली। बाँस का चोंगा। उ०— पाछे वा चीर को बाँस की भोगलों में धरि कै आपु बैरागी रूप धरि चाकर कों डेरा में राखिकै वासों कहै।—दो० सौ०, बावन०, भा० १, पृ० १४।

भोँगाल
संज्ञा पुं० [अं० व्यूगल] वह बड़ा भोंपा जिसका एक ओर का मुँह बहुत छोटा ओर दूसरी ओर का मुँह बहुत अधिक चौड़ा तथा फैला हुआ होता है। विशेष—इसका छोटे मुंहवाला सिरा जब मुँह के पास रखकर कुछ बोला जाता है, तब उसका शब्द चौड़े मुँह से निकलकर बहुत दूर तक सूनाई देता है इसका व्यवहार प्रायःभीड़ माड़ के समय बहुत ले लोगों को कोई बात सुनाने के लिये होता है।

भौँचाल
संज्ञा पुं० [सं० भू + चाल] दे० 'भूकंप'।

भोँड़र, भोँड़ल †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'भोड़र', 'भोड़ल'।

भोंड़ (१)
वि० [हिं० भद्दा या भों से अनु० ] [वि० स्त्री० भोड़ी] १. मद्दा। बदसुरत। कुरुप। २. मूर्ख। बेवकूफ।

भोँड़ा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] जुआर की जाति की एक प्रकार की घास जो पशुओँ के चारे के काम में आती है। इसमें एक प्रकार के दाने लगते है जो गरीब लोग खाते है।

भोँडा़पन
संज्ञा पुं० [हिं० भोंड़ा + पन (प्रत्य०)] १. भद्दापन। २. बेहुदगी।

भोँड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भोंड़ा] वह भेड़ जिसकी छाती पर के रोएँ सफेद और बाकी सारे शरीर के रोएँ काले हों। (गड़ेरिया)।

भोँतरा
वि० [हिं० भुयरा] (शस्त्र) जिसकी धार तेज न हो। कुंद धारवाला।

भोँतला †
वि० [हिं० भुवरा] जिसकी धार तेज न ही। कूंद। भुथरा।

भोँदु
वि० [हिं० बुदुधू या अनु०, भद्द] १. बेवकूफ। मुर्ख। २. सीधा। भोला।

भोँपा, भोंपू,
संज्ञा पुं० [भों अनु० + पू (प्रत्य०)] तुरही की तरह का पर बिलकुल सीधा, एक प्रकार का बाजा जो फूँककर बजाया जाता है। इसका व्यवहार प्रायः बैरागी साधु आदि करतै है।

भोँरा
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] दे० 'भौरा'। उ०— दई, दई, पानी की बूँदों से ड़रा हूआ यह ढोठ मोंरा नई चमेली को छोड़ बार बार मेरे ही मूख में आता है।— शकुतला, पृ० ७।

भोँसना †पु
क्रि० सं० [हिं०] भुवना। भुलना। दे० 'भुपना'। उ०—धन सो जन धन मन तेहिक, जाके मन दाहाग। परै दौह की अग सों, मानस भोसे दाग। —इंद्रा०, पृ० १४८।

भौँसजा, भोँसले
संज्ञा पुं० [देश०] महाराष्टों के एक राजकूल की उपाधि। विशेष— महाराज शिवाजी और रधुनाथ राव आदि इसी राज- कुल के थे।

भोँह
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रुः] दे० 'मौह'। उ०— मोंह रूप सरस सरोवर में कमल दलन ड़र ड़ार ड़ठ गए है।— पोहार अभि० ग्रं०, पृ० ५७३।

भो पु † (१)
क्रि० अ० [हि० भया] भया। हुआ।

भो † (२)
[सं० भव] शिव। उ०— संस्कृत में भी नाम शिव जो का है,—कबीर मं०, पृ० ५९।

मो (३)
संबोधन [सं०] हे। हो।(हिदीं में क्व०)।

भोअन ‡
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग] सर्प। भुजग। उ०— राधा बल्लभ वंशी वर नषंत सू भाअन जातं।— पृ० रा०, २। ३५२।

भोइ
वि० [देश०] आद्र। आसक्त। भीजा हुआ। उ०— मन लग्गिय बधत सु पय मन कद्रप रस भोइ।— पृ०, रा०, २५। २४०।

भोइन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० भोज्यात्र] दे० 'भोजन'। उ०— तबै। आनि तुट्टी मझै थान थार्य। जिहन जु जो भाव भोइन्न साथ।—पृ० रा०, २। २४६।

भोकस पु † (१)
वि० [हिं० भूख + स (प्रत्य०)] भुक्खड़। भूखा।

भोकस पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भोक्तृ (एक प्रकार का प्रेत)?] एक प्रकार का राक्षस। दानव उ०— कीन्हेसि राकस भूत परेता। किन्हेसि भोकस देव दएता। —जायसी ग्रं०, पृ० २।

भोकार
संज्ञा स्त्री० [भोँ से अनु + कार (प्रत्य०)] जोर जोर से रोना। क्रि० प्र०— फाड़ना।

भोक्रा (१)
वि० [सं० भोक्तृ] १. भोजन करनेवाला। २. भोग करनेवाला। भोगनेवाला। ३. ऐश करनेवाला। ऐयाश। ४. शासन करनेवाला। शासक (को०)। ५. अनुमूत या सहुन करनेवाला (को०)।

भोक्ता (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. मर्ता। पति। ३. एक प्रकार का प्रेत। ४. राजा। नरेश। ५. प्यार करनेवाला। वह जो प्यार करता हो। (को०)।

भोक्तृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] भोक्त का घर्म या भाव।

भोक्तृशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्धि।

भोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुख या दुःख आदि का अनुभव करना या अपने शरीर पर सहना। २. सुख। विलास। ३. दुःख। कष्ट। ४. स्त्रीसंभोग। विषय। ५. साँप का फन। ६. साँप। ७. धन। संपत्ति। ८. गृह। घर। ९. पालन। १०. भक्षण। आहार करना। ११. देह। १२. मान। परिमाण। १३. पाप या पुण्य का वह फल जो सहन किया या भोगा जाता है। प्रारब्ध। १४. पुर। १५. एक प्रकार का सैनिक व्युह। १६. फल। अर्थ। उ०— क्योंकि गुण वे कहाते हैं जिनसे कर्मकांड़ादि में उपकार लेना होता है। परंतु सर्वत्र कर्मकांड़ में भी दृष्ट भोग की प्राप्ति के लिये परमेश्वर का त्याग नहीं होता।— दयानंद (शब्द०)। १७. मानुष प्रमाण के तीन भेदों में से एक। भुक्ति। (कब्जा)। १८. देवता आदि के आगे रखे जानेवाले खाद्या पदार्थ। नैवेद्य। उ०— गयो लै महल माँफ टहल लगए लोग होन भोग जिय शंका तनु छोजिए।—नामा (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना। १९. भाड़ा। किराया। २०. सूर्य आदि ग्रहों के राशियों में रहने का समय। २१. आय। आमदनी (को०) २२. वेश्या की भोग के निमित्त प्रदत्त शुल्क। वेश्या का शुल्क (को०)। २३. भूमि या संपत्ति का व्यवहार।

भोगकर
वि० [सं०] आराम देनेवाला। आनंददायक [को०]।

भोगगुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] वेश्या का शुल्क [को०]।

भोगगृह
संज्ञा पुं० [सं०] अतःपुर। जनानखाना [को०]।

भोगजात
वि० [सं०] भोग से उत्पन्न।

भोगतृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भोग की तीव्र या बलवती इच्छा। २. किसी स्वार्थ के वश किया गया भोग।

भोगदेह
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार वह सूक्ष्म शरीर जो मनुष्य को मरने के उपरांत स्वर्ग या नरक आदि में जाने के लिये धारण करना प़डता है।

भोगधर
संज्ञा पुं० [सं०] साँप।

भोगना
क्रि० अ० [सं० भोग + हि० ना० (प्रत्य०)] १. सूख दुःख शूभाशूभ या कर्मफलों का अनुभव करना। आनंद या कष्ट आदि को अपने ऊपर सहन करना। भुगतना। २. सहन करना। सहना। ३. स्त्रीप्रसंग करना।

भोगनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] पालन पोषण करनेवाला।

भोगपति
संज्ञा पुं० [सं०] किसी नगंर या प्रांत आदि का प्रधान शासक या अधिकारी।

भोगपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्रनीति के अनुसार वह पत्र जो राजा को ड़ाली या उपहार भेजने के संबंध में लिखा जाय।

भोगपाल
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वरक्षक। सारथि। साईस [को०]।

भोगपिशाचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुभुक्षा। भूख [को०]।

भोगप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वृहत्साहता के अनूसार एक देश जो उत्तर दिशा में माना गया है।

भोगबंधक
संज्ञा पुं० [सं० भोग + हिं० बंधक(=रेहृन)] बंधक या रेहन रखने का बह प्रकार जिसमें उधार लिए हुए रुपए का ब्याज नहीं दिया जाता और उस ब्याज के बदले में रूपया उधार देनेवाले को रेहन रखी हुई भूमि या मकान आदि भोग करने अथवा किराए आदि पर चलाने का अधिकार प्राप्त होता है। दृष्टबंधक का उलटा।

भोगभुज्
वि० [सं० भोगभुक्] १. भाक्ता। भोग करनेवाला। २. धनी। सपत्तिवाला [को०]।

भोगभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भोग का स्थान। उपभोग का क्षेत्र। स्वर्ग। आंनंद करने की जगह। उ०— आनंद की सिद्धावस्था या उपभोग पक्ष का प्रदर्शन करनेवाली काव्यभूमि दीप्ति, माधुर्य और कोमलता की भूमि है जिसमें प्रवर्तक या बीज भाव प्रेम है। काव्य की इस भोगभूमि में दुःखात्मक भावों को वेधड़क चले आने की इजाजत नहीं।— रस०, पृ० ८१। २. विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य वर्ष क्योंकि भारतवर्ष को कर्मभूमि कहा गया है। ३. जैनों के अनुसार वह लोक जिसमें किसी प्रकार का कर्म नहीं करना पड़ता और सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति केवल कल्पवृक्ष के द्बारा हो जाता है।

भोगभृतक
संज्ञा पुं० [सं०] केवल भोजन वस्त्र लेकर काम करनेवाला नौकार [को०]।

भोगलदाई †
संज्ञा स्त्री० [हि० भोग + लदाई?] खेत में कपास का सबसे बड़ा पौधा जिसके आसपास बैठकर देहाती लोग उसकी पूजा करते हैं।

भोगलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आनद वा लाभ की प्राप्ति वा अर्जन (को०)। २. वृद्धि। सौभाग्य (को०)। ३. दिए हुए अन्न के बदले में व्याज के रूप में कुछ अधिक अन्न जो फसल तैयार होने पर लिया जाता है।

भोगलिप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यसन। लत।

भोगलियाल
संज्ञा स्त्री० [ड़ि०] कटारी नाम का शस्त्र।

भोगली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. छोटी नली। पुपली। २. नाक में पहनने का लौग। ३. टेंटका या तरकी नाम का कान में पहनने का गहना। ४. वह छोटी पतली पोली कील जो लौग या कान के फूल आदि को अटकाने के लिये उसमे लगाई जाती है। ५. चपटे तार या बादले का बना हुआ सलमा जिससे दोनों किनारों के बीच की जंजीर बनाई जाती है। कँगनी।

भोगवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पातालगंगा। २. गंगा। ३. पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम। ४. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नदी का नाम ५. नागों के रहने का स्थान। नागपुरी। ६. एक नागिन (को०)। ७. कार्तिकेय की एक मातृका का नाम।

भोगवना पु
क्रि० अ० [सं० भोग] भोगना। उ०—(क) कला सपूरण भोगवइ चोवा चदन तिलक सोहाई।—बी० रासो, पु० ४७। (ख) सनि कज्जल चख झख लगनि उपज्यो सुदिन सनेह। क्यो न नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेसु सब देह।—बिहारी (शब्द०)।

भोगवस्तु
संज्ञा स्त्री०[/?/]/?/वस्तु या सामग्री।

भोगवान् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँप। २. नाट्य। ३. गान। गीत। ४. एक पर्वत का नाम (को०)।

भोगवान् (२)
वि० भोगयुक्त। भोगवाला। आनंददायक [को०]।

भोगवाना
क्रि० स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग कराना।

भोगविलास
संज्ञा पुं० [सं०] आमोद प्रमोद। सुख चैन।

भोगवेतन
संज्ञा पुं० [सं०] वह धन जो किसी धरोहर रखी हुई वस्तु के व्यवहरा के बदले में स्वामी के दिया जाय।

भोगव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिलीय अर्थंशास्त्रानुसार वह व्यूह जिसमें सैनिक एक दूसरे के पीछे खड़े किए गए हों।

भोगशील
वि० [सं०] भोगी। विलासी [को०]।

भोगसदभ
संज्ञा पुं० [सं० भोगसद्मन्] अत पुर। जनानखाना।

भोगस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर, जिससे भोग किया जाता है। २. अंतःपुर।

भोगांतराय
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंतराय जिसका उदय होने से मनुष्य केद भोगों की प्राप्ति में विध्न पड़ता है। वह पाप कर्म जिनके उदित होने पर मनुष्य भोगने योग्य पदार्थ पाकर भी उनका भोग नहीं कर सकता (जैन)।

भोगाना
क्रि० स० [हिं० भोगना का प्रे० रूप] भोगने में दूसरे को प्रवृत्त करना। भोग कराना।

भोगार्ह (१)
वि० [सं०] भोग के योग्य।

भोगार्ह (२)
संज्ञा पुं० धन संपात्ति [को०]।

भोगार्ह्य
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न। धान्य [को०]।

भोगावति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भोगवती] नागपुरी। उ०—भोगा- वति जसि अहिकुल वासा।—मानस, १। १७८।

भोगावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्तुतिपाठकों द्वारा की जानेवाली स्तुति। २. नागों की नगरी [को०]।

भोगावास
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःपुर।

भोगिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वरक्षक। सारथी। साईस। २. गांव या प्रात का शासक। उ०—प्रांतीय शासकों को भोगिक, भोगपति, गोप्ता, उपरिक, महाराज, राजस्थानीय आदि की उपाधियाँ मिलती थी।—आदि०, पृ० ४०१।

भोगिकांत
संज्ञा पुं० [सं० भोगिकान्त] भांगियों अर्थात् सर्पों के लिये प्रिय अर्थात् वायु [को०]।

भोगिगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं०भोगिगन्धिका] लघुमंगुष्ठा [को०]।

भोगिन
संज्ञा स्त्री० [सं० भोगिन्] दे० 'भोगिनी'।

भोगिनी
संज्ञा स्त्री [सं०] १. राजा की वह पत्नी जिसका पट्टा- भिपेक न हुआ हो। राजा की उपपत्नी। राजा की रखेली स्त्री। २. नागिन।

भोगिभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] मोर। मयूर [को०]।

भागिराज
संज्ञा पुं० [सं०] शेषनाग का नाम [को०]।

भोगिवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] चदन [को०]।

भोगींद्र
संज्ञा पुं० [सं० भोगीन्द्र] १. शेपनाग। २. बासु की। ३. पतंजलि का एक नाम।

भोगी (१)
संज्ञा पुं० [सं० भोगिन्] १. भागनेवाला। वह जो भोगता ही। २. साँप। सप। ३. जमींदार। ४. नृत। राजा। ५. नापित। नाऊ। नाई। ६. शेषनाग। (डिं०)। उ०—बीजा दीग्ध वरण जपै गुर आदि सँजोगी। विसरग अगसिर बिंदु भणै तारष सो भागी।—रघु० रू०, पु० ५।

भोगी (२)
वि० १. सुखी। २. इंद्रियों का सुख चाहनेवाल। ३. भुगतनेवाला। ४. विषयासक्त। ५. आनद करनेवाला। ६. विषयी। भोगासक्त। व्यसनी। ऐयाश। ७. खानेवाला। ८. फनवाला। कुंडली या फणयुक्त (को०)।

भोगीश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भोगींद्र'।

भोगेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार एक तीर्थ का नाम।

भोग्य (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्रा० भोग्या] १. भोगने योग्य। काम में लाने योग्य। २. जिसका भोग किया जाय। ३. खाद्य (पदार्थ)।

भोग्य (२)
संज्ञा पुं० १. धन संपति। २. धान्य। ३. भोगबंधक।

भोग्यभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विलास की भूमि। आनंद का स्थान। २. वह भूमि जिसमें किए हुए पाप पुणयों से सुख दुःख प्राप्त हो। मत्यंलोक।

भोग्यमान
वि० [सं०] जो भोगा जाने को हो, अभी भोगा न गया हो। जैसे, भोग्यमान नक्षत्र।

भोग्या
संज्ञा स्त्री [सं०] वेश्या। रंडी।

भोग्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरोहर की वह रकम या वस्तु जो कागज पर लिख ली गई हो।

भोज (१)
संज्ञा पुं० [सं० भोजन या भोज्य] १. वहुत से लोगों का एक साथ बैठकर खाना पीना। जेवनार। दावत। यौ०—भोजभात= बच्ची पक्की रसोई का ज्योनार। २. भीज्यपदार्थ। खाने की चीज। ३. ज्वार और भाँग के योग से बनी हुई एक प्रकार की शराब जो पूने की ओर मिलती है।

भोज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाजकट नामक दश। जसे आजकल भोजपुर कहते हैं। २. चंद्रवंशियों के एक वंश का नाम। ३. पुराणनुसार शांति देवी के गर्भ से उत्पन्न वसुदेव के एक पुत्र का नाम। ४. महाभारत के अनुसार राजा द्रुह्मु के एक पुंत्र का नाम। ५. श्रीकृष्ण के सखा एक स्बाल का नाम। उ०—अर्जुन भोज अरु सुबल श्रीदामा मधुंमंगल इक ताक।—सूर (शब्द०)। ६. कान्यकुब्ज के एक प्रसिद्ध राजा जो महाराज रामभद्र देव के पुत्र थे। इन्होंने काशमीर तक अधिकार किया था। ये नवीं शताव्दी में हुए थे। ७. मालवे के परमारवंशी एक प्रसिद्ध राजा जो संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान्, कवि और विद्याप्रेमी थे। इनका काल १० वीं शती का अंत और ११ वीं शती का प्रारंभ माना जाता है। विशेष—ये धारा नगरी के सिंधुल नामक राजा के लड़के थे और इनकी माता का नाम सावित्री था। जब ये पाँच वषं के थे, तभी इनके पिता अपना राज्य और इनके पालनपोषण का भार अपने भाई मुंज पर छोड़कर स्वर्गवासी हुए थे। र्मुज इनकी हत्वा करना चाहता। था, इसलिये उसने बगाल के वत्सराज को बुलाकर उसको इनकी हत्या का भार सौंपा। वत्सराज इन्हें बहाने से देवी के सामने बलि देने के लिये ले गया। बहाँ पहुँचने पर जब भोज को मालूम हुआ कि यहाँ मैं बलि चढ़ाया जाऊँगा, तब उन्होंने अपनी जाँघ चीरकर उसके रक्त से बड़ के एक तै पर दो श्लोक लिखकर वत्सराज को दिए और कहा कि थे मुंज को दे देना। उस समय वत्सराज को इनकी द्दत्या करने का साहस न हुआ और उसने इन्हें अपने यहाँ ले जाकर छिया रखा। जब वत्सराज भोज का कृत्रिम कटा हुआ सिर लेकर मुंज के पास गया, और भोज के श्लोक उसने उन्हें दिए, तब मुंज को बहुत पश्चात्ताप हुआ। मुंज को बहुत विलाप करते देखकर वत्सराज ने उन्हें असल हाल बतला दिया और भोज को लाकर उनके सामने खड़ा कर दिया। मुंजने सारा राज्य भोज को दे दिया और आप सस्त्रीक वन को चले गए। कहते हैं, भोज बहुत बड़े वीर, प्रतापी, पंडित और गुण- ग्राही थे। इन्होंने अनेक देशों पर विजय प्राप्त की थी और कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। इनका समय १० वीं ११ वीं शताब्दी माना गया है। ये बहुत अच्छे कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी थे। सरस्वतीकठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहार- समुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए बतलाए जाते हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी स्त्री का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

भोजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन करानेवाला। २. भोजन करनेवाला। ३. भोग करनेवाला। भोगी। २. ऐयाश। विलासी। उ०—तुम बारी पिय भोजक राजा। गर्व करोध वही पै छाजा।—जायसी (शब्द०)।

भोजकर
संज्ञा पुं० [सं०] भोजपुर। यह भीम के पुत्र रुक्मि द्वारा बसाया गया था।

भोजदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान्यकुव्ज के महाराज भोज। २. दे० 'भोज' —७।

भोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १० आहार को मुँह में रखकर चबाना। भक्षण करना। खाना। २. वह जो कुछ भक्षण किया जाता हो। खाने की सामग्री। खाने का पदार्थ। भोज्य पदार्थ (को०)। क्रि० प्र०—करना।—पाना। मुहा०—भोजन पेट में पड़ना = भोजन होना। खाया जाना। ३. विष्णु (को०)। ४. शिव (को०)। ५. भोजन कराने की क्रिया (को०)। ६. धन। संपत्ति (को०)। ७. भोग या उपभोग करना। भोगना (को०)।

भोजनक
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा।

भोजनकाल
संज्ञा पुं० [सं०] खाने का समय।

भाजनखानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भोजन + हिं० खान] पाकशाला। रसोईघर। उ०—चकित विप्र सब सुनि नभ बानी। भूव गयउ जहँ भोजनखानी।—तुलसी (शब्द०)।

भोजनगृह
संज्ञा पुं० [सं०] पाकशाला। भोजन करने का स्थान।

भोजनत्याग
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपवास। अनशन [को०]।

भोजनभट्ट
संज्ञा पुं० [हिं० भोजन+सं० भंट्ट] वह जो बहुत अधिक खाता हो। पेटू।

भोजनभांड
संज्ञा पुं० [सं० भोजनभाण्ड] मांसाहार। आमिष पदार्थ [को०]।

भोजनमूभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोजन करने की जगह [को०]।

भोजनविशेष
संज्ञा पुं० [सं०] विशिष्ट भोजन [को०]।

भोजनवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] खाद्य वस्तु। खाना। भोजन [को०]।

भोजनवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] भोजन का समय। भोजनकाल [को०]।

भोजनव्यग्र
वि० [सं०] १. खाने में संलग्न। २. जिसे खाद्य पदार्थ का अभाव हो। भोजन के लिये व्यग्र (को०)।

भोजनव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन का व्यय। खानेपीने का खर्च [को०]।

भोजनशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] रसोईघर। पाकशाला।

भोजनसमय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भोजनकाल'।

भोजनाच्छादन
संज्ञा पुं० [सं०] खाना कपड़ा। अन्न वस्त्र। भोजन और वस्त्र। खाने और पहनने की सामग्री।

भोजनाधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] रसोईं का प्रधान भडारी। पाकशाला का अध्यक्ष।

भोजनार्थी
वि० [सं० भोजार्थिन्] [वि० स्त्री० भोजनार्थिनी] भूखा। बुभुक्षित। भोजन चाहनेवाला।

भोजनालय
संज्ञा पुं० [सं०] पाकशाला। रसोईघर।

भोजनीय (१)
वि० [सं०] १. भोजन करने योग्य। खाने योग्य। जो खाया जा सके। २. खिलाए जाने योग्य। पोषणीय।

भोजनीय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] खाना। भोजन। आहार [को०]। यौ०—भोजनीयमृत = अधिक भोजन करने से मृत। जो अजीर्ण रोग से मरा हो।

भोजनोत्तर
वि० [सं०] १. जिसे भोजन के बाद खाया जाय। (ओषधि आदि)। २. भोजन करने के बाद। जैसे, भोज- नीत्तर काल।

भोजपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंसराज। २. कान्यकुज्ज के राजा भीज। ३. दे० भोज'।

भोजपत्र
संज्ञा पुं० [सं० भूजंपत्र] एक प्रकार का मझोले आकार का वृक्ष जो हिमालय पर १४००० फुट की उँचाई तक होता है। विशेष—इसकी लकड़ी बहुत लचोली होती है और जल्दी खराब नहीं होती, इसलिये पहाड़ों में यह मकान आदि बनाने के काम में आती है। इसकी पत्तियाँ प्रायःचारे के काम में आती हैं। इसकी छाल कागज के समान पतली होती है और कई परतों में होती है। यह छाल प्राचीन काल में ग्रंथ और लेख आदि लिखने में बहुत काम आती थी; और अब भो तांत्रिक लोग इसे बहुत पवित्र मानते और इसपर प्रायः यत्र मंत्र आदि लिखा करते हैं। इसके अतिरिक्त छाल का उपयोग छाते बनाने और छतें छानें में भो होता है; और कभी कभी यह पहनने के भी काम आती है। छाल का रंग प्रायः लाली लिए खाकी होता है। इसके पत्तों का क्वाथ वातनाशक माना जाता है। वैद्यक में इसे बलकारक, कफना- शक, कटु कषाय और उष्ण माना गया है। पर्या०—चर्मी। बहुतल्कल। छत्रपत्र। शिव। स्यिरच्छद। मृदुत्वक्। पत्रपुप्पक। भुज। बहुपट। बहुत्वक्।

भोजपरीक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] रसोई की परीक्षा करनेवाला। वह जो इस बात की परीक्षा करता हो कि भोजन में विष आदि तो नहीं मिला है।

भोजपुरिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भोजपुर + इया (प्रत्य०)] भोजपुर का निवासी। भोजपुर का रहनेवाला।

भोजपुरिया (२)
वि० भोजपुर सँबधी। भोजपुर का।

भोजपुरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भोजपुर + ई (प्रत्य०)] भोजपुर प्रदेश की भाषा।

भोजपुरी (२)
संज्ञा पुं० भोजपुर का निवासी। भोजपुरिया।

भोजपुरी (३)
वि० भोजपुर का। भोजपुर संबंधी।

भोजराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भोज'।

भोजल पु
संज्ञा पुं० [सं० भव + जाल] संसार सागर। भवजाल।

भोजविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० भोज + विद्या] इंद्रजाल। बाजीगरी।

भोजी (१)
संज्ञा पुं० [सं० भोजन] खानेवाला। भोजन करनेवाला।—६

भोजी (२)
वि० [सं० भोजिन्] १. खानेवाला। २. उपयोग करने वाला। ३. खिलाने या पोषण करनेवाला [को०]।

भोजू पु
संज्ञा पुं० [सं० भोजन] भोजन। आहार।

भोजेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजराज। २. कंस। ३. दे० 'भोज'।

भोज्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन के पदार्थ। खाद्य पदार्थ। २ भोज (को०)। ३. पितरों के निमित्त प्रदत्त भोजन (को०)। ४. सुस्वादु भोजन (को०)। ५. आस्वादन। उपभोग (को०)। ६. लाभ। आय (को०)। ७. मर्मभेद। सर्मपीडन (को०)।

भोज्य (२)
वि० खाने योग्य। जो खाया जा सके।

भोज्यकाल
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन फा समय। भोजन करने का काल [को०]।

भोज्यसंभव
संज्ञा पुं० [सं० भोज्यसम्भव] शरीरस्थ रस धातु। शरीरगत रस आदि [को०]।

भोज्यान्न
वि० [सं०] १. जिसका अन्न खाया जा सके। २. जो खाने के योग्य हो (अन्न आदि)।

भोट
संज्ञा पुं० [सं० भोटाङ्ग] १. भूटान देश। २. तिब्बत। उ०— जो तिव्बत (भोट) की सीमा पर सतलज की उपत्यका में ७० मील लवा और प्रायः उतना ही चौड़ा बसा हुआ है।— किन्नर०, पृ० १। २. एक प्रकार का बड़ा पत्थर जो प्रायः २।। इंच मोटा, ५ फुट लंबा और १।। फुट चौड़ा होता है। यौ०—भाटभापा = भूटान निवासियों या भोटियों की भाषा। उ०—हमारी बातचीत भोट भाषा में हो रही थी।—किन्नर०, पृ० ४२।

भोटांग
संज्ञा पुं० [सं० भोटाङ्ग] भूटान।

भोटिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भोट + इया (प्रत्य०)] भौट या भूटान देश का निवासी।

भोटिया (२)
संज्ञा स्त्री० भूटान देश की भाषा।

भाटिया (३)
वि० भूटान देश संबंधी। भूटान देश का। जैसे,—भोटिया टट्टू।

भोटिया बादाम
संज्ञा पुं० [हिं० भोटिया+फा़० बादाम] १. वालू बुखारा। २. मूँगफली।

भोटी
वि० [हिं० भोट + ई (प्रत्य०)] भूटान देश का।

भोटीय
वि० [सं०] भोट देश या भूटान का [को०]।

भोडर †
संज्ञा पुं० [देश०] १. अभ्रक। अबरक। उ०—पायल पाय लगी रहै लगे अमोलक लाल। भोडर हू की भासि है बेंदी भामिनि भाल।—बिहारी (शब्द०)। २. अभ्रक का चूर जो होली आदि में गुलाल के साथ उड़ाया जाता है। बुक्का। ३. एक प्रकार का मुश्कबिलाव।

भोडल †
संज्ञा पुं० [देश०] १. दि० 'अबरक'। २. तारा या जुगनु उ०—ज्ञान प्रकाश भयौ किनके डर वे घर क्यूँ हि छिपे न रहैंगे। भोडल माँहि दुरै नाहिं दीपक यद्यपि वे मुख मौन गहैगे।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६३०।

भोडागार †
संज्ञा पुं० [सं० भाणढागार] भंडार। (डिं०)।

भोण
संज्ञा पुं० [सं० भवन] गृह। घर। मकान। (डिं०)।

मोथार
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का घोड़ा। उ०—मुश्की औ हिरमिजी एराकी। तुरकी क्हे भोथार बलाकी।—जायसी (शब्द०)

भोना पु
क्रि० अ० [हिं० भीनना] १. भीनना। संचरित होना। उ०—रेख कछू कछू अंजन की कछु खजन वी अरुनाई रही भ्वै।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) तब लागी गावन विभास बीच ख्याल एक ताल तान सुर को बँधान वीच भ्वै रही—रघुनाथ (शब्द०)। २. लिप्त होना। ३. आसक्त होना। अनुरक्त होना। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।

भोप †
संज्ञा पुं० [सं० भूप] भूप। राजा। उ०—जयं जग्य जोयं। कियं दक्ष भोपं।—पृ० रा०, २। ५७०।

भोपा
संज्ञा पुं० [भों से अनु०] १. एक प्रकार की तुरही या फूँक कर बजाया जानेवाला बाजा। भोंपू। २. मूर्ख। बेबकूफ। †३. दे० भूपति। उ०—भोपा भीमका नै फेरि कागद सूँ वुलायो। सगतो लाडपानी जेनगर सूँ साथि आयो।—शिखर०, पृ० ११२।

भोबरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे झेग्न भी कहते हैं।

भोभर †
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ भल। चूल्हे की गरम मिट्टी। गरम राख या मिट्टी। उ०—मुंह डोले उण मनखरी, भोभर भोतर भार।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ८६।

भोम, भोमि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] पृथ्वी। (डिं०)। उ०— (क) भोम उलटकर चढ़ी अकासा, गमन भोम में पैठा।—दरिया० बानी, पृ० ५९। (ख) सोमेस सूर गुज्जर नरेश मालवी राज सब षग्ग षेस। मारू बजाइ भट्टीन थान धल भोमि लई बल चाहुबान।—पृ० रा०, १। ६१४।

भोमिया
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] १. पृथ्वी। (डिं०)। २. भूमि- पति। छोटे जमीदार। उ०—देवा ने उन सवारो की सहायता से वहाँ के भोमियाँ (छोटे जमींदारों) में से बहुतों को मार डाला और शेष भाग गए।—राज०, पृ० ५५१।

भोमी
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] पृथ्वी। (डिं०)।

भोमीरा
संज्ञा पुं० [देश०] मूँगा। प्रवाल।

भोयन्न पु †
संज्ञा पुं० [सं० भोजन या भोज्यान्न] दे० 'भोजन'। उ०—तबै षोहनी अट्ठ भोयन्न भष्षी। कहाँ पाकसासंन आतंक दिष्षी।—पृ० रा०, २।२४७।

भोर (१)
संज्ञा पुं० [सं० विभावरी] प्रातःकाल। तड़का। सबेरा। उ०—जागे भार दौड़ि जननी ने अपने कठ लगायो।—सूर (शब्द०)।

भोर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का बडा़ पक्षी जिसके पर बहुत सुंदर हाते हैं। विशेष—यह जल तथा हरियाली को बहुत पसंद करता है। यह फल फूल तथा कीड़े मकोड़े खाता और खेतों को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है। यह रात के समय ऊँचे वृक्षों पर विश्राम करता है। २. खमो नामक सदाबहार वृक्ष। इसे भार और रोई भी कहते हैं। विशेष दे० 'खमो'।

भोर पु †
३ संज्ञा पुं० [सं० भ्रम] धोखा। भूल। भ्रम। उ०—(क) की दूहु रानि कौसिलहिं परिगा भोर हो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हँसत परस्पर पापु में चली जाहिं जिय भोर।—सूर (शब्द०)।

भोर (४)
वि० चकित। स्तंभित। उ०—सूर प्रभु की निरखि सोभा भई तरुनी भोर।—सूर (शब्द०)।

भोर पु † (५)
वि० [हिं० भोला] भोला। सीधा। सरल। उ०—थाती राखि न माँगेउ काऊ। विसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।—तुलसी (शब्द०)।

भोरहरी †
वि० [हिं० भोर + हरी (प्रत्य०)] प्रातःकाल। रात्रि के बीतने और सूर्योदय होने के पहले का समय। उ०— वह इस तरह नाचती है; जैसे भारहरी की हवा में अलसी का फूल।—शराबो, पृ० ५।

भोरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] प्रायः एक फुट लंबी एक प्रकार की मछली जो युक्तप्रात (उत्तर प्रदेश), मद्रास और ब्रह्म देश की नदियों में पाई जाती है।

भोरा पु † (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भोर'।

भोरा पु † (३)
वि० [हिं० भोला] [वि० स्त्री० भोरी] मोलामाला। सीधा। सरल।

भोरा पु (४)
वि० [सं० भ्रम] [वि० स्त्री० भोरी] भ्रमयुक्त। चकित। बावरी। उ०—भोरी भई है मयंकमुखी भुज भेटति है गहि अक तमालहि।—मति० ग्रं०, पृ० ३५७।

भोराई पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भोरा+ई (प्रत्य०)] भोलापन। सिधाई। सरलता।

भोराई † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] भुकड़ी। फफूँदी।

भोराना पु † (१)
क्रि० स०[हिं० भोरा+आना (प्रत्य०)] भ्रम में डालना। बहकाना। धोखा देना। उ०—सूरदास लोगन के भारए काहे कान्ह अब होत पराए।—सूर (शब्द०)।

भोराना (२)
क्रि० अ० भ्रम में पड़ना। धोखे में आना।

भोरानाथ पु
संज्ञा पुं० [सं० भोलानाथ] शिव। उ०—गौरी- नाथ भोरानाथ भवत भवानीनाथ विश्वनाथपुर फिरि आन कलि काल की।—तुलसी (शब्द०)।

भोरापन पु
संज्ञा पुं० [हिं० भोला + पन (प्रत्य०) भोला होने का भाव। सिधाई। भोराई। सरलता।

भोरि
अव्य० [हिं० बहुरि] पुनः। बहुरि। फिर। उ०—दास राम जी ब्रह्म समाए। जहाँ गए तै भारि न आए।—सुंदर ग्र०, भा० १, पृ० १२३।

भोरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] अफीम का एक रोग।

भोरु पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भोर'।

भोर
क्रि० वि० [हि० भोर (=भूल)] भूल से भी। उ०—कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। अस परतेति तजहु जनि भोरें।—मानस, १। १३८।

भोल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्य पिता और नट स्त्री से उत्पन्न सतान [को०]।

भोल ‡ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रम, हिं० भौर] दे० 'भोर'। मोह। भ्रम। विमोह। उ०—पहिलहि न बुझल एत सब बोल। रूप। निहारि पड़ि गेल भोल —विद्यापति, पृ० ४२७।

भोलना पु
क्रि० स० [हिं० भोल (=भूल) + ना (प्रत्य०)] भुलाना। बहकाना।

भोलप †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूल] दे० 'भूल'। उ०—कहै सगा भोलप करी दीधी डावडिपाँह। राब सरीखे रंग ह्वै मोहड़े मावड़ियाँह।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १५।

भोला
वि० [हिं० भूलना] १. जिसे छल कपट आदि न आता हो। सीधा सादा। सरत। यौ०—भोलानाथ। भोला भाला। २. मूर्ख। बेवकूफ।

भोलानाथ
संज्ञा पुं० [सं० या हिं० भोला + सं० नाथ] महादेव। शिव।

भोलापन
संज्ञा पुं० [हिं० भोला + पन (प्रत्य०)] १. सिधाई। सरलता। सादगी। २. नादानी। मूर्खता।

भोलाभाला
वि० [हिं०भोला + अनु० भाला] सीधा सादा। सरल चित्त का। निश्छल।

भोलि
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट [को०]।

भोसर †
वि० [देश०] वेवकूफ। मूर्ख।

भोहरा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० भुइंहरा'।

भौँ
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू] आँख के ऊपर के बालों की श्रेणी। भृकुटी। यौंह। मुहा०—दे० 'यौंह'।

भौँकना
क्रि० अ० [भौ भौ से अनु०] १. भौं भौ शब्द करना। कुत्ता का बोलना। भूकना। २. बहुत बकवाद करना। निरर्थक बोलना। बक बक करना।

भौँगर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों की एक जाति।

भौँगर † (२)
वि० मोटा ताजा। हृष्ट पुष्ट।

भौँचाल †
संज्ञा पुं० [हिं० भूचाल] दे० 'भूर्कप'।

भौंड़ा †
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० भौंड़ी] दे० 'भोंड़ा'। उ०— षसम परयो जोरू कै पीछे कह्मौ न मानै भौंड़ी राँड।— सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५६३।

भौँडी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटा पहाड़। पहाड़ी। टीला।

भौँतुवा
संज्ञा पुं० [हिं० भ्रमना (=घूमना)] १. खटमल के आकार का एक प्रकार का काले रंग का कीड़ा जो प्रायः वर्षा ऋतु में जलाशयों आदि में जलतल के ऊपर चक्कर काटता हुआ चलता है। २. एक प्रकार का रोग जिसमें बाहुदंड के नीचे एक गिलटी निकल आती है। उ०—कहा भयो जो मन मिलि कलि कालहि कियो भौंतुवा भोर को है।—तुलसी (शब्द०)। ३. तेली का बैल जो सबेरे से ही कोल्हू में जोता जाता है और दिन भर घूमा करता है।

भौँर (१)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] १. भौंरा। चंचरीक। २. तेज बहते हुए पानी में पड़नेवाला चक्कर। आवर्त। नांद। उ०—नाउ जाजरी धार मैं अदफर भौंर भुलान। यदुपति पार लगाइए मोंहि अपना जन जान।—स० सप्तक, पृ० ३४४। क्रि० प्र०—पड़ना।

भौँर (२)
संज्ञा पुं० [?] मुश्की घोड़ा। उ०—लील समंद चाल जग जाने। हासल भौंर गियाह बखाने।—जायसी (शब्द०)।

भौँरकली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भँवरकली] दे० 'भँवरकली'।

भौँरहाई पु
क्रि० अ० [हिं० भौरा+हाई] भौंरों का चक्कर काटना। भौंरों का मँडराना। भौंराना। उ०—पददल संपुट मैं मुँदै मन मोद मानै, आरस विभावरी ह्वै होत भौंरहाई।— घनानंद, पृ० २२।

भौँरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर, पा० भमर, प्रा० भँवर] [स्त्री० भँवरी] १. काले रंग का उड़नेवाला एक पतंगा जो गोबरैले के बराबर होता है और देखने में बहुत द्दढ़ांग प्रतीत होता है। भ्रमर। चंचरीक। उ०—आँपुहि भौंरा आपुहि फूल। आतम- ज्ञान बिना जग भूल।—सूर (शब्द०)। विशेष—इसके छह पैर, दो पर और दो मूछें होती हैं। इसके सारे शरीर पर भूरे रंग के छोटे छोटे चमकदार रोएँ होते हैं। इसका रंग प्रायः नीलापन लिए चमकीला काला होता है और इसकी पीठ पर दोनों परों की जड़ के पास का प्रदेश पीले रंग का होता है। स्त्री के डंक होता है और वह डंक मारती है। यह गुंजारता हुआ उड़ा करता है और फूलों का रस पीता है। अन्य पतंगों के समान इस जाति के अंडे से भी ढोले निकलते हैं जो कालांतर में परिवर्तित होकर पर्तिगे हो जाते हैं। यह डालियों ओर ठूठी ठहनियों पर अंड़े देता है। कवि इसकी उपमा और रूपक नायक के लिये लाते हैं। उनका यह भी कथन है कि यह सब फूलों पर बैठता है, पर चंपा के फूल पर नहीं बैठता। २. बड़ी मधुमक्खी। सारँग। भँमर। डंगर। ३. काला वा लाल भड़। ४. एक खिलौना जौ लट्टू के आकार का होता है और जिसमें कील वा छोटी डंडी लगी रहती है। इसी कील में रस्सी लपेटकर लड़के इसे भूमि पर नचाते हैं। उ०— लोचन मानत नाहिन बोल। ऐसे रहत श्याम के आगे मनु है लीन्हों मोल। इत आवत है जात देखाई ज्यों भौंरा चकडोर। उतते सूत्र न टारत कबहूँ मोसों मानत कोर।—सूर (शब्द०)। ५. हिंडोले की वह लकड़ी जो मयारी में लगी रहती है और जिसमें डोरी और डंडी बंधी रहती है। उ०— हिंडोरना माई झूलत गोपाल। संग राधा परम सुंदरि चहूँघा ब्रज बाल। सुभग यमुना पुलिन मोहन रच्यो रुचिर हिंडोर। लाल डाँड़ी स्फटिक पटुलि मणिन मरुवा घोर। भौंरा मयारिनि नील सरकत खँचे पांति अपार। सरल कंचन खंभ सुंदर रच्वो काम श्रुतिहार।—सूर (शब्द०)। ६. गाड़ी के पहिए का वह भाग, जिसके बीच के छेद में धुरे का गज रहता है और जिसमें आरा लगाकर पहिए की पुट्ठियाँ जड़ी जाती है। नाभि। लट्ठा। मूँड़ी। ७. रहट की खड़ी चरखी जो भँवरी को फिराती है। चकरी (बुदेल०)। ८. पशुओं का एक रोग जिसे चेवक कहते हैं (बुंदेल०)। ९. पशुओं की मिरगी (बुंदेल०)। १०. वह कुत्ता जो गड़ेरियों की भेड़ों की रखवाली करता है। ११. एक प्रकार का कीड़ा जो ज्वार आदि की फसल को बहुत हानि पहुँचाता है।

भौँरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमण] १. मकान के नीचे का वर। २. वह गड्ढा जिसमें अन्न रखा जाता है। खात। खत्ता।

भौरा (३) †
संज्ञा पुं० दे० 'भांवर'।

भौँराना (१)
क्रि० स० [सं० भ्रमण] १. घुमाना। परिक्रमा कराना। २. विवाह कराना। ३. विवाह की भाँवर दिलाना। उ०— वर खोजाय टीका करो बहुरि देहु भाँ चाय— विश्राम (शब्द०)।

भौँराना (२)
क्रि० अ० घूमना। चक्कर काटना। फेरी लगाना।

भौरारा, भौँराला
वि० [हिं० भौंरा] घुँघराला।

भौंरी
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमण] १. पशुओं आदि के शरीर में रोग्रो या बालों आदि के घुमख से बना हुआ वह चक्र जिसके स्थान आदि के विचार से उनके गुण दोष का निर्णय होता है। जैसे,—इस घोड़े के अगले दाहिने पैर की भोंरी अच्छी पड़ी है। क्रि० प्र०—पड़ना। २. विवाह के समय वर बधू का अग्नि की परिक्रमा करना/?/। क्रि० प्र०—पड़ना।—लेना। ३. तेज बहते हुए जल में पड़नेवाला चक्कर। आवर्त। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. अंगाकड़ी। बाटी। (पकवान)।

भौँसिला
संज्ञा पुं० [देश०] एक मराठा उपजाति जिसमें शिवाजी का जन्म हुआ था। उ०—ताते सरजा बिरद भो, सोभित सिंह प्रमान। रन, भूमिला सुभौंसिला आयुष्मान खुमान।—भूषणा० ग्रं०, पृ० ७।

भौँह
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू] आँख के ऊपर की हड्डी पर जमे हुए रोएँ या बाल। भृकुटी। भौं। भँव। उ०—भौंह लता बड़ देखिअ कठोर, अजने आँजि हासि गुन जोर।—विद्यापति, पृ० २४३। मुहा०—भौंह चढ़ाना या तानना =(१) नाराज होना। क्रुद्ध होना। उ०—बदत काहू नहीं निधरक निदरि मोहिं न गनत। बार बार बुझाइ हारी भौंह मो पर तनत।—सूर (शब्द०)। (२) त्योरी चढ़ाना। बिगड़ना। भहि जोहना=प्रसन्न रखने के लिये संकेत पर चलना। खुशामद करना। उ०— अकारन क हितू और को है। बिरद गरीबनेवाज कौन को भोंह जासु जन जोहै।—तुलसी (शब्द०)। भौंह ताकना = किसी की प्रवृत्ति या विचार का ध्यान रखना। रुख देखना।

भौंहरा
संज्ञा पुं० [सं० भूमिगृह, प्रा० भूहर>भुइंहर या हिं० भुँह + घर]दे० 'भुँइहरा'। उ०—हीरा लाल जवहिर घर मैं मानिक मोती चौहरा। कौन बात की कमी हमारै भरि भरि राखै भौहरा।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९१४।

भौ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भव] संसार। जगत्। दुनिया। उ०— अली भौ मील ने पकरा, जबर जंजीर में जकरा।—घट०, पृ० ३०६।

भौ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भय] डर। खाफ। भय। उ०—मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।........लोक कहैं राम को गुलाम हौ कहावौं। ए तो बड़ो अपराध मन भौ न पावौं।—तुलसी (शब्द०)।

भौका †
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० झौकी] बड़ी दौरी। टोकरा।

भौगिया पु
संज्ञा पुं० [हिं० भोग + इया (प्रत्य०)] संसार के सुखों का भोग करनेवाला। वह जो सांसारिक सुख भोगता है।

भौगोलिक
वि० [सं०] भूगोल सबधी। भूगोल का।

भौचक (१)
वि० [हिं० भय + चकित] जो कोई विलक्षण बात या आकस्मिक घटना देखकर घबरा गया हो। इक्का बक्का। चकपकाया हुआ। स्तंभित। क्रि० प्र०—रह जाना।—होना।

भौचक (२) †
संज्ञा पुं० [सं० भय + चक] संसारचक्र। आवागमन। उ०—फिरि फिरि परी है गाँचक माहीं।—कबीर सा०, पृ० १५९।

भौचाल
संज्ञा पुं० [सं० भू + चाल] दे० 'भूकंप'।

भौजंग (१)
वि० [सं० भौजङ्ग] [वि० स्त्री० भौजँगी] सर्प संबंधी। सर्प जैसा।

भौजंग (२)
संज्ञा पुं० आश्लेषा नक्षत्र [को०]।

भौज पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० भावज] भाई की पत्नी। भौजाई। भावज। उ०—ननँद भौज परपंच रच्यो है मोर नाम कहि लीन्हा।—कबीर (शब्द०)।

भौजल पु
संज्ञा पुं० [सं० भव + जल] संसारसमुद्र। भवसागर। उ०—भौजल पार जबै होइ जैही सूरति शब्द समैहौ।— घट०, पृ० २०६।

भौजाई
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रातृजाया] भाई की भार्या। भ्रातृवधू। भावज। भाभी।

भौजाला पु
संज्ञा पुं० [सं० भव + जाल] संसार के प्रपंच। सांसारिक माया। उ०—साइँ जब तुम मोहि बिसरावत, भूलि जात भीजाल जगत माँ।—जग० बानी, पृ० ६।

भौजिष्य
संज्ञा पुं० [सं०] दासता।

भौजी
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रातृजाया] दे० 'भौजाई'।

भौज्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह राज्यप्रबध जिसमें प्रजा से राजा लाभ तो उठाता हो, पर प्रजा के स्वत्वों का कुछ विचार न करता हो। वह राज्य जो केवल सुखभोग के विचार से होता हो, प्रजापालन के विचार से नहीं। इसमें प्रजा सदा दुःखी रहती है।

भौट, भौट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] तिब्बत का निवासी।

भौटा
संज्ञा पुं० [देश०] छोटा पहाड़। टीला। पहाड़ी।

भौत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भौती] १. भूत संबंधी। प्राणि- संबंधी। २. भोतिक। ३. भूतप्रत सबधी। ४. भूतग्रस्त। भूताविष्ट।

भौत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूतयज्ञ। बलिकर्म। २. भतपूजक। ३, भूतों का समूह। ४. देवल। ५. मदिर का पुजारी [को०]।

भौत (३) †
वि० [प्रा० बहुत्त] दे० 'बहुत'। उ०—भौत सतियापन यह सत अजब माने सखी।—दक्खिनी०, पृ० ५१।

भौतरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० भव + तरणी] वह नाव या साधन जिससे संसारसागर को पार किया जा सके। उ०—घमंनि सुनु आपनि करने। जे हि मिलेउ शब्द भोतरनी।—कबीर सा०, पृ० ४२१।

भौसिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव। २. मुक्ता। मोती। ३. उपद्रव। ४. आधि व्याधि। ५. तत्व। भोतिक तत्व (को०)। ६. आँख नाक आदि इंद्रियाँ।

भौतिक (२)
वि० १. पंचभूत संबधी। २. पाँचों भूतों से बना हुआ। पार्थिव। उ०—भोतिक देह जीव अभिमानी देखत ही दुख लायो।—सूर (शब्द०)। ३. शरीर संबधी। शरीर का। यौ०—भौतिक सृष्टि। ४. भूत योनि से संबंध रखनेवाला। यौ०—भौतिक विद्या।

भौतिकमठ
संज्ञा पुं० [सं०] आश्रम। मठ।

भौतिकवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह मत या सिद्धांत जो पंचभूतों को मुख्य मानता हो।

भौतिकविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] तत्वों के गुण आदि के विवेचन को विद्या या विज्ञान।

भौतिकविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जिनके अनुसार भूत प्रेत आदि से बातें की जाती हैं और उनके अदभुत ब्यापार जाने अथवा रोके जाते हैं। भूतों प्रेतों को बुलाने और दूर करने की विद्या।

भौतिकसृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] आठ प्रकार की देवयोनि, पाँच प्रकार की तिर्यग् योनि और मनुष्य योगि, इन सबकी समष्टि।

भौती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। राति। रजनी।

भौती (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक बालिश्त लंबी और पतली लकड़ी जिसकी सहायता से ताने का चरखा धुमाते हैं। भेडती। (जुलाहा)।

भौत्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार भूति मुनि के पुत्र और चौदहवें मनु का नाम।

भौन पु
संज्ञा पुं० [सं० भवन] घर। मकान। उ०—उर भौन मैं मौन को घूँघट कै मुरि बैठि बिराजति बात बनी।—धनानंद, पृ० ६२।

भौमा पु †
क्रि० अ० [सं० भ्रमण] चक्कर लगाना। घुमना।

भौपाल
संज्ञा पुं० [सं०] भूपाल का पुत्र। राजकुमार। [को०]।

भौम (१)
वि० [सं०] १. भूमि संबंघी। भूमि का। २. भूमि से उत्पन्न। पृथ्वी से उत्पन्न। जैसे, मनुष्य, पशु, वृक्ष आदि।

भौम (२)
संज्ञा पुं० १. मंगल ग्रह। उ०—भूपर से ऊपर गया हो वानरेंद्र मानो एक नया भद्र भोम जाता था लगन में—साकेत पृ० ३९७। २. अंबर। ३. लाल पुननंव। ४. योग में एकप्रकार का आसन। ५. नरकासुर जो भूमि का पुत्र था (को०)। ६. जल [को०]। ७. प्रकाश। ज्योति (को०)। ८. अत्रि ऋषि का नाम (को०)। ९. अन्न (को०)। १०. कुट्टम। पक्की जमीन (को०)। ११ मंजिल। खड। मरातिब (को०)। १२. वह केतु या पुच्छल तारा जो दिव्य और अतरिक्ष के परे हो।

भौमक
संज्ञा पुं० [सं०] भूमि पर रहनेवाला जीव। प्राण।

भौमांदन
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'भौमवार'।

भौमदेव
संज्ञा पुं० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार प्राचिन काल की एक प्रकार की लिपि।

भौमन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वकर्मा [को०]।

भौमप्रदोष
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रदोष व्रत जो मंगलवार को पड़े। वह त्रयोदशी जा मंगलवार के सायंकाल में पड़े। इस प्रदोष का माहात्म्य साधारण प्रदाष की अपेक्षा कुछ विशेष माना जाता है।

भौमब्रहा
संज्ञा पुं० [सं० भौमब्रह्मन्] वेद, ब्राह्मण और यज्ञ [को०]।

भौमरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] मूँगा। प्रवाल।

भौमराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेष और वृष राशियाँ जिनका स्वामी मगल है।

भौमवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] भीमासुर (नरकासुर) की स्त्री का नाम।

भौमवार, भौमवासर
संज्ञा पुं० [सं०] मंगलवार।

भौमासुर
संज्ञा पुं० [सं०] नरकासुर नाम का असुर। वि० दे० 'नरकासुर'।

भौमिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमि का अधिकारी या स्वामी। जमीदार। २. बगालियों में एक जातिविशेष।

भौमिक (२)
वि० भूमि सबधी।

भौमिकीय
वि० [सं० भौतिक] भूमि संबधी। भूमि का।

भौमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी की कन्या। सीता।

भौमूती ‡
वि० स्त्री [सं० भयवती या देश०] भयभीत। भययुक्त। उ०—धन भौमूती भुइ पड़ी।—बी० रासी०, पृ० ६१।

भौम्य
वि० [सं०] भूमि संबंधी। पृथ्वी पर का। भौमिक [को०]।

भौर पु
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] १. दे० 'भौंरा'। २. घाड़ों का एक भेद। दे० 'भौर'। ३. दे० 'भँवर'।

भौरिक
संज्ञा पुं० [सं०] काषाध्यक्ष [को०]।

भौरिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] टकसाल जहाँ सिक्के ढाले जाते है [को०]।

भौरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] उपलों पर सैकी गई छोटी छोटी गोल लिट्टी। टिकड़ी। उ०—भूखे देवों भींरियाँ सबै गुरू गोबिंद।—संतवाणी०, पृ० १३९।

भौलिया †
संक्षा स्त्री० [देश०] बजरे की तरह की पर उससे कुछ छोटी एक प्रकार की नाव जो ऊपर से ढकी रहती हैं।

भौली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राग [को०]।

भौवन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वकर्मा का एक नाम। दे० 'भौमन' [को०]।

भौसा
संज्ञा पुं० [देश०] १. भोड़भाड़। जनसमूह। २. हो हुल्लड़। गड़बड़।

मौहरा †
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रूः?] दे० 'भौंह'। उ०—आषडियाँ रतनालियाँ, भोहरा जाणे भ्रमर भमाव।—बी० रासो, पृ० ६६।

भ्यन्न ‡
वि० [सं० भिन्न] अलग अलग। भिन्न भिन्न। उ०— कहि सनकादिक इद्र सम किम लिय पाथर तन्न। कहै इंद्र सनकादि सों सुनौं कहौं करि भ्यन्न।—पृ० रा०, २। ११०।

भ्यान पु
संज्ञा पुं० [सं० विभान या हिं० बिहान] दे० 'बिहान'। उ०—ज्यों पपी की प्यास पीव रात भर रटी। अरी स्वाति बिना बुंद भोर भ्यान पौ फटी।—तुरसी० श०, पृ० ५।

भ्रंग पु
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्ग] भृंग। भ्रमर। उ०—मृगमद जवाज सब चरचि अग। कसमीर अगर सुर रहिय भ्रंग। सुभ कुसुम हार सब कंठ मेलि। इम चलिय बलिय चहुआन खेलि।—पृ० रा०, ६। ११२।

भ्रंगारी
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गार] झीगुर। (डि०)।

भ्रंगा
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गी] एक प्रकार का गुंजार करनेवाला पतिंगा।

भ्रंश, भ्रंस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधःपतन। नीचे गिरना। २. नाश। ध्वंस। ३. भागना। ४. त्याग। छोड़ना।

भ्रंश, भ्रंस (२)
वि० भ्रष्ट। खराब।

भ्रंशन, भ्रंसन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नीचे गिरना। पतन। २. भ्रष्ट होना।

भ्रंशन, भ्रंसन (२)
वि० [सं०] नीचे गिरनेवाला।

भ्रंशित
वि० [सं०] १. नीचे गिराया या फेंका हुआ। २. च्युत्। वंचित।

भ्रंशी
वि० [सं० भ्रंशिम्] १. गिरने, पतित होने या भ्रष्ट होनेवाला। २. कम होने या छीजनेवाला। ३. भटकनेवाला। ४. बरबाद करनेवाला।

भ्रकुंश, भ्रकुंस
संज्ञा पुं० [सं०] वह नाचनेवाला पुरुष जो स्त्री का वेष धरकर नाचता हो।

भ्रकुटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भृकुटी। भौह।

भ्रज्जन
संज्ञा पुं० [सं० भ्रज्ज] तलना, पकाना या भूनना [को०]।

भ्रत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भृत्य] दास। सेवक (डिं०)। उ०— आगल नृपती बात उचारी, समै पाय निज भ्रत सु विचारी।—रा० रू०, पृ० ३२५।

भ्रत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्राता] भ्राता। भाई।

भ्रत्तार पु
संज्ञा पुं० [सं० भर्तार] पति। खाविंद। स्वामी।

भ्रद्र
संज्ञा पुं० [सं० भद्र; डि०] हाथी। दे० 'भद्र'।

भ्रभंग
संज्ञा पुं० [सं० भ्रभङ्ग] 'भ्रभंग' [को०]।

भ्रमंत
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमन्त] गृह। मवान। छोटा घर [को०]।

भ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी पदार्थ को और का और समझना। किसी चीज या बात को कुछ का कुछ समझना। मिथ्या ज्ञान। भ्रांति। धोखा। २. संशय। संदेह। शक। क्रि० प्र०—में डालना।—में पड़ना।—होना। ३. एक प्रकार का रोग जिसमें रोगी का शरीर चलने के समय चक्कर खाता है और वह प्रायः जमीन पर पड़ा रहता है। यह रोग मूर्छा के अंतर्गत माना जाता है। ४. मूर्छा बेहोशी। उ०—भ्रम होइ ताहि जा कूर चीत।—पृ० रा०, ६। ८८। ५. नल। पनाला। ६. कुम्हार का चाक। ७. भ्रमण। घूमना। फिरना। ८. वह पदार्थ जो चक्राकार घूमता हो। चारों ओर घूमनेवाली चीज। ९. अंबुनिगंम। स्त्रोत (को०)। १०. कुंद नाम का एक यंत्र। शाण। खराद (को०)। ११. मार्कंडेय पुराण के अनुसार योगियों के योग में होनेवाले पाँच प्रकार के विध्नों मे से एक प्रकार का विघ्न या उपसगं जिसमें योगी सब प्रकार के आचार आदि का परित्याग कर देता है और उसका मन निरवलंब की भाँति इधर उधर भटकता रहता है। १२. चक्की (को०)। १३. छाता (को०)। १४ घेरा। परिधि (को०)।

भ्रम (२)
वि० १. घूमनेवाला। चक्कर काटनेवाला। २. भ्रमण- करनेवाला। चलनेवाला।

भ्रम (२)
संज्ञा पुं० [सं० सम्भ्रम] मान प्रतिष्ठा। इज्जत। उ०— जस अति संकट पंडवन्ह भएउ भीव बँदि छोर। तस परबस पिउ काढ़हु राखि लेहु भ्रम मोर।—जायसी (शब्द०)।

भ्रमकारी
वि० [सं० भ्रमकारिन्] भ्रम उत्पन्न करनेवाला। शक में डालनेवाला।

भ्रमजार पु
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमजाल] भ्रम का फंदा।

भ्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. घूमना फिरना। विचरण। २. आना जाना। ३. यात्रा। सफर। ४. मंडल। चक्कर। फेरी।

भ्रमणकारी
वि० [सं० भ्रमणकारिन्] घूमनेवाला। घुमक्कड़।

भ्रमणविलसित
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त।

भ्रमणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सैर या मनोविनोद के लिये चलना। घूमना फिरना। २. जोंक। ३. एक प्रकार की क्रीड़ा (को०)। ४. पाँच धारणऔं में से एक का नाम (को०)।

भ्रमणीय
वि० [सं०] १. घूमनेवाला। २. चलने फिरनेवाला। ३. भ्रमण के योग्य।

भ्रमत्
वि० [सं०] घूमनेवाला। घुमंतू [को०]।

भ्रमत्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिनकों और बाँस आदि की खपाचियों से बना हुआ छाता।

भ्रमना पु (१)
क्रि० अ० [सं० भ्रमण] घूमना फिरना।

भ्रमना (२)
क्रि० अ० [सं० भ्रम] १. धोखा खाना। भूल करना। उ०—कहा देखि के तुम भुरि गए।—सूर (शब्द०)। २. भटकना। भूलना।

भ्रमना पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] भावना। आवागमन की स्थिति का बोध। झूठी ममता। उ०—दरस परस के करत जगत की भ्रमना भागी।—पलटू० बानी, पृ० २८।

भ्रमनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भ्रमण'।

भ्रममूलक
वि० [सं०] जो भ्रम के कारण उत्पन्न हुआ हो। जिसका आविर्भाव भ्रम के कारण हुआ हो। लैसे—आपका यह विचार भ्रममूलक है।

भ्रमर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौंरा। वि० दे० 'भौंरा'। यौ०—भ्रमरगुफा = योगशास्त्र के अनुसार हृदय के अंदर का एक स्थान। उ०—केवल सकल देह का साखी भ्रमरगुफा अटकाना।—कबीर (शब्द०)। २. उद्धव का एक नाम। यौ०—भ्रमरगीत =वह गीत या काव्य जिसमें भ्रमर को संबोधित करते हुए उद्धव के प्रति ब्रज की गोपियों का उपालंभ हो। ३. दोहे का पहला भेद जिसमें २२ गुरु और ४ लघु वर्ण होते हैं। उ०—सीता सीतानाथ को गावों आठो जाम। इच्छा पूरी जो करै औ देवै विश्राम।—(शब्द०) ४. कुलाल चक्र। चाक (को०)। ५. छप्पय का तिरसठवाँ भेद जिसमें ८ गुरु, १३६ लघु, १४४ वर्ण या कुल १५२ मात्राएँ होती हैं। ६. सिरा (को०)।

भ्रभर (२)
वि० कामुक। विषयी।

भ्रमरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. माथे पर लटकनेवाले बाल। २. चाक। कुलाल चक्र (को०)। ३. क्रीड़ा का कंदुक (को०)। ४. घूमनेवाला लट्टू या फिरकी (को०)।

भ्रमरकरंडक
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमरकरण्डक] मधुमक्खियो का डब्बा। विशेष—चोरी करने के लिये घर में घुसा हुआ चोर जलते हुए दीप को बुझाने के लिये इसे खोल देता था। दशकुमारचरित, मूच्छकटिक आदि में इसका वर्णन है।

भ्रमरतीट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की भिड़।

भ्रमरच्छली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली वृक्ष। विशेष—इस वृक्ष के पत्ते बादाम के पत्तों के समान होते हैं जिसमें बहुत पतली पतली फलियाँ लगती हैं। इसकी लकड़ी सफेद रंग की और बहुत बढ़िया होती है और प्रायः तलवार के म्यान बनाने के काम में आती है। वैद्यक में यह चरपरी, गरम, कड़वी, रुचिकारक, अग्निदीपक और सर्वदोष- नाशक मानी जाती है। पर्या०—भृमाह्वा। भ्रमराह्वा। क्षीरद्र। भृंगमूलिका। उग्रगंधा। छल्ली।

भ्रमरनिकर
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमरों का समूह [को०]।

भ्रमरपद
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त।

भ्रमरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कदंब। वारा कदंब [को०]।

भ्रमरबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भ्रमरों द्वारा बाधा या छेड़छाड़। मधुमक्खियों द्वारा उत्पीड़न

भ्रमरमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पौधा जो मालव में अधिकता से होता है। विशेष—इसमें सुंदर और सुगंधित फूल लगते हैं। वैद्यक में यह तिक्त और पित्त, श्लेष्म, ज्वर, कुष्ठ, व्रण, तथा त्रिदोष का नाश करनेवाली मानी जाती है। पर्या०—भ्रमरादि। भृंगादि। मांसपुप्पिका। कुष्टारि। भ्रमरी। यष्टिलता।

भ्रमरविलसित
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीरों या मधुमक्खियों की क्रीड़ा। २. एक वृत्त। द० 'भ्रमरविलसिता'।

भ्रमरविलसिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में म म न ल ग/?/होता है उ०—मैं भोने लोगन नहिं डरिहौं। माधो को दै मन नहिं फिरिहौं। फूलै वल्ली भ्रमर विलसिता। पावै शोभा अलि सह मुदिता।

भ्रमरहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक के चोदह प्रकार के हस्तविन्यासी में से एक प्रकार का हस्तविन्यास।

भ्रमरा
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमरच्छली नामक पौधा।

भ्रमरातिथि
संज्ञा पुं० [सं०] चंपा का वृक्ष।

भ्रमरानंद
वि० [सं० भ्रमरानन्द] १. बबूल बृक्ष। २. एक लता जिसकी अतिमुक्ता कहते हैं (को०)।

भ्रमरारि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भ्रमरमारी' [को०]।

भ्रमरालक
संज्ञा पुं० [सं०] ललाट पर लटकते हुए धुँधराले बाल। भ्रमरक [को०]।

भ्रमरावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भँवरों की श्रेणी। २. एक वृत्त का नाभ जिसे नलिनी या मनहरण भी कहते है। इसके प्रत्येक पाद में पाँच सगण होते हैं। जैसे,—ससि सों सु सखी रघुनंदन को पदना। लखिकै पृलकीं मिथिलापुर की ललना। तिनके सुख में दिश फूल रहीं दश हूँ। पुर मैं नलिनी बिकसीं जनु ओर चहूँ।—जगन्नाथ (शब्द०)।

भ्रमरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चारों तरफ चक्कर काटना या घूमना। यौ०—भ्रमरिकाद्दष्टि = चंचल द्दष्टि।

भ्रमरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जतुका नामक लता। पुत्रदात्री। षट्पदी। २. मिरगी रोग। ३. पार्वती। ४. भौरे की मादा। भौरी।

भ्रमरेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का श्योनाक।

भ्रमरेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भुँइ जामुन। २. भारंगी।

भ्रमवात
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमवात्] आकाश का वह वायुभंडल जो सर्वदा घूमा करता है। उ०—सूखिगे गात चले नभ जात परे भ्रमवात न भूतल आए।—तुलसी (शब्द०)।

भ्रमशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रमसंशोधन।

भ्रमसंशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] भूल सुधार।

भ्रमात्मक
वि० [सं०] जिससे अथवा जिसके संबंध में भ्रम उत्पन्न होता हो। सदिग्ध।

भ्रमाना पु †
क्रि० स० [हिं० भ्रमना का सक०] १. घुमाना। फिराना। २. धोखे में डालना। भटकाना।

भ्रमासक्त
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अस्त्र शस्त्र आदि साफ करता हो।

भ्रमि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमिन्] दे० भ्रमी (१)।

भ्रमित
वि० [सं०] १. जिसे भ्रम हुआ हो। शंकित। २. घूमता हुआ। ३. चक्कर खाया या घुमाया हुआ।

भ्रमितनेत्र
वि० [सं०] ऐंचाताना।

भ्रमी (१)
सज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमिः] १. घूमना फिरना। भ्रमण। २. चक्कर लगाना। फेरी देना। ३. सेना की वह रचना जिसमें सैनिक मडल बाँधकर खड़े होते है। ४. तेज बहते हुए पानी में का भौंर। नांद। ५. कुम्हार का चाक। ६. मूर्छा (को०)। ७. बवंडर (को०)। ८. खराद की मशीन (को०)। ९. भ्रम। त्रुटि (को०)।

भ्रमी (२)
वि० [सं० भ्रमिन्] १. जिसे भ्रम हुआ हो। २. चकित। भौचक। उ०—किधौ विदविद्या प्रभाई भ्रमी सी।—केशव (शब्द०)। ३. चक्कर खाता या घूमता हुआ [को०]।

भ्रशिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रशिमन्] चंडता। उग्रता। तीव्रता। [को०]।

भ्रष्ट
वि० [सं०] १. नीचे गिरा हुआ। पतित। २. जो खराब हो गया हो। जो अच्छी दशा में या काम का न रह गया हो। बहुत बिगड़ा हुआ। ३. जिसमें कोई दोष आ गया हो। दूषित। ४. जिसका आचरण खराब हो गया हो। बुरी चाल चलनेवाला। बदचलन। दुराचारी। ५. च्युत। जैसे, जातिभ्रष्ट। यौ०—भ्रष्टक्रिय। भ्रष्टगुद = गुदा का एक रोग। भ्रष्टनिद्र =निद्रा से वंचित। भ्रष्टमार्ग = मागच्युत। राह भूला हुआ। भ्रष्टयोग = स्वधर्म से च्युत। उपासना आदि से च्युत। भ्रष्टश्री।

भ्रष्टक्रिय
वि० [सं०] जिसने विहित कर्म छोड़ दिया हो [को०]।

भ्रष्टश्री
वि० [सं०] भाग्यहीन।

भ्रष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुंश्र्चली। कुलटा। छिनाल।

भ्रष्टाचार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह आचरण जो उचित न हो। २. नोच खसोट, छीना झपटी, बलप्रयोग। उत्कोच आदि दुर्गुर्णो से भरा हुआ आचरण। उ०—हमें पुनः सहकारी कर्मचारियों एवं जनता के मन में भय पेदा करना होगा क्योंकि भय न होने से ही भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।

भ्रष्टाचार (२)
वि० दूषित आचरणवाला। बेईमान।

भ्रष्टाधिकार
वि० [सं०] अधिकार या पद से च्युत [को०]।

भ्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रान्त] १. तलवार के ३२ हाथों में से एक। तलवार को गोलाकार घुमाना जिसके द्वारा दूसरे के चलाए हुए शस्त्र को व्यर्थ किया जाता है। २. राजधतूरा। ३. मस्त हाथी। ४. घूमना फिरना। भ्रमण। ५. भूल। त्रुटि (को०)।

भ्रांत (२)
वि० १. जिसे भ्रांति या भ्रम हुआ हो। धोखे में आया हुआ। भूला हुआ। २. व्याकुल। घबराया हुआ। हक्का बक्का।३. उन्मत्त। ४. घुमाया हुआ। चक्कर खाता हुआ। ५. त्रुटि- युक्त।

भ्रांतापह, नुति
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रान्तापह् नुति] एक काव्यालंकार जिसमे किसी भ्राति को दूर करने के लिये सत्य वस्तु का वर्णन होता है।

भ्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रान्ति] १. भ्रम। धोखा। २. संदेह। संशय। शक। ३. भ्रमण। ४. पागलपन। ५. भँवरी। धुमेर। ६. भूलचुक। ७. मोह। प्रमाद। ८. एक प्रकार का काव्या- लंकार। इसमें किसी वस्तु को, दुसरी वस्तु के साथ उसकी समानता देखकर, भ्रम से वह दुसरी वस्तु ही समझ लेना वर्णित होता है। जैसे,—अठारी पर नायिका को देखकर कहना—है ! यह चद्रमा कहाँ से निकल आया !

भ्रांतिमान् (१)
वि० [सं० भ्रान्तिमत्] भ्रमयुक्त। चक्कर खाता हुआ।

भ्रांतिमान् (२)
संज्ञा पुं० भ्रांतिमान् नामक अलंकार।

भ्राज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम जो गबामयन सत्र में विषुव नामक प्रधान दिन गाया जाता था। २. सात सूर्यों में से एक का नाम (को०)।

भ्राजक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार त्वचा में रहनेवाला पित्त। शरीर में जो कुछ तेल आदि मला जाता है उसका परिपाक इसी पित्त के द्वारा होना माना जाता है।

भ्राजक
वि० [वि० स्त्री० भ्राजिका] दीप्त करनेवाला। चमकानेवाला। शोभाधायक [को०]।

भ्राजथु
संज्ञा पुं० [सं०] दीप्ति। प्रभा। चमक। सौंदर्य [को०]।

भ्राजन
संज्ञा पुं० [सं०] दीपन। चमकाना। दीप्त करना [को०]।

भ्राजना पु
क्रि० अ० [सं० भ्राजन (=दीपन)] १. शोभा पाना। शोभायमान होना। उ०—(क) उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन बीर।—तुलसी (शब्द०)। (ख) केकी पच्छ मुकुट सिर भ्राजत। गौरी राग मिले सुर गावत।—सूर (शब्द०)। २. चमकना।

भ्राजमान पु
वि० [हिं० भ्राजना + मान (प्रत्य०)] शोभायमान।

भ्राजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दीप्ति। द्युति। ज्योति। चमक [को०]।

भ्राजिर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार भौत्य मन्वंतर के एक प्रकार के देवता।

भ्राजिष्णु (१)
वि० [सं०] दीप्त होने या चमकनेवाला।

भ्राजिष्णु (२)
संज्ञा पुं० १. शिव। २. विष्णु [को०]।

भ्राजी
वि० [सं० भ्राजिन्] प्रकाशित। द्योतित। चमकनेवाला। दीप्तियुक्त।

भ्रात पु
संज्ञा पुं० [सं० भ्राता] दे० 'भ्राता'। उ०—प्रेमपूर्वक भेटते थे भ्रात।—साकेत, पृ० १७०।

भ्राता
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृ] १. सगा भाई। सहोदर। २. सन्नि- कट संबंधी (को०)। ३. घनिष्ठ मित्र (को०)।

भ्रातुष्पुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भतीजा। भ्रातृपुत्र [को०]।

भ्रातुष्पुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] भतीजी। भ्र तृपुत्री [को०]।

भ्रातृक
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह धन आदि जो भाई से मिला हो। २. वह वस्तु जो भाई की हो।

भ्रातृगांधि, भ्रातृगंधिक
वि० [सं० भ्रातृगन्धि, भ्रातृगन्धिक] भाई का नाम मात्र रखनेवाला। नाम का भाई [को०]।

भ्रातृज
संज्ञा स्त्री० [सं०] [स्त्री० भ्रातृजा] भाई का लड़का। भतीजा।

भ्रातृजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाई की पुत्री। भतीजी।

भ्रातृजाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाई की स्त्री। भौजाई। भाभी।

भ्रातृत्व
संज्ञा पुं० [सं०] भाई होने का भाव या धर्म। भाईपन।

भ्रातृदत्त (१)
वि० [सं०] भ्राता द्वारा प्राप्त या मिला हुआ।

भ्रातृदत्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विवाहादि के अवसर पर भाई से बहन को मिली हुई कोई वस्तु।

भ्रातृद्वितीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिक शुक्ल द्वितीया। यम द्वितीया। भाई दूज। विशेष—इस दिन यम और चित्रगुप्त का पूजन किया जाता है, बहनों से तिलक लगवाया जाता है, इन्हीं के दिए हुए पदार्थ खाए जाते हैं और उन्हें कुछ द्रव्य दिया जाता है।

भ्रातृपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भाई का लड़का। भतीजा।

भ्रातृपुत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाई की पुत्री। भतीजी।

भ्रातृभाव
संज्ञा पुं० [सं०] भाई का सा प्रेम या संबंध। भाई- चारा। भाईपन। उ०—भ्रातृभाव का उल्लास प्रखर।—अपरा पृ० २१५।

भ्रातृवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] भौजाई। भ्रातृजाया। भाभी। भावज।

भ्रातृव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाई का लड़का। भतीजा। २. शत्रु। विरोधी। दुश्मन (को०)।

भ्रातृश्वसुर
संज्ञा पुं० [सं०] पति का बड़ा भाई। जेठ। भसुर।

भ्रात्र
संज्ञा पुं० [सं०] भाई।

भ्रात्रीय (१)
वि० [सं०] भ्राता संबंधी। भ्राता का।

भ्रात्रीय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भतीजा [को०]।

भ्रात्रेय
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भ्रात्रीय'।

भ्रात्र्य
संज्ञा पुं० [सं०] भाईपन। भायप। भ्रातृस्नेह।

भ्रादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक श्रुति का नाम [को०]।

भ्राम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो भ्रमयुक्त हो। २. भूल। धेखा। ३. वह जो चारो ओर घूमता हो [को०]।

भ्रामक (१)
वि० [सं०] १. भ्रम में डालनेवाला। बहकानेवाला। धोखे मे डालनेवाला। २. संदेह उत्पन्न करनेवाला। ३. घुमानेवाला। चक्कर दिलानेवाला। ४. धूर्त। चालबाज।

भ्रामक (२)
संज्ञा पुं० १. गीदड़। सियार। २. चुंबक पत्थर। ३. कांति लोहा। ४. सूर्यमुखी का फूल (को०)। ५. धोखा। छल। चालबाजी (को०)।

भ्रामण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चारों ओर घुमता, हिलता या झूलता हो। दोलायमान [को०]।

भ्रामर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भ्रमर से उत्पन्न, मधु। शहद। २. दोहे का दूसरा भेद। इसमें २१ गुरु और ६ लघु मात्राएँ होती हैं। जैसे,—माधो मेरे ही बसो राखो मेरी लाज। कामी क्रोधी लंपटी जानि न छाँड़ी काज। ३. वह नृत्य जिसमें बहुत से लोग मंडल बनाकर नाचते हैं। रास। ४. चुंबक पत्थर। ५. अपस्मार रोग। ६. ग्राम। गाँव (को०)। ७. एक रतिबंध। रति का एक प्रकार (को०)।

भ्रामर (२)
वि० भ्रमर संबंधी। भ्रमर का।

भ्रामरी (१)
संज्ञा पुं० [भ्रामरीन्] १. जिसे भ्रामर या अपस्मार रोग हुआ हो। २. मधु से नियित (को०)।

भ्रामरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. पुत्रदात्री नाम की लता। ३. प्रदक्षिणा (को०)।

भ्रामिक
वि० [सं०] दे० 'भ्रामक'। उ०—स्वार्थ के भ्रामिक पथ पर।—चंद०, पृ० ८२।

भ्राभिरा
वि० [सं०] घुमाया शा नचाया हुआ। (नेत्रादि)।

भ्रामी
वि० [सं० भ्रामिन्] व्यग्र। उद्विग्न। आकुल [को०]।

भ्राष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. प्रकाश। दीप्ति (को०)। ३. वह बरतन जिसमें भड़भूजे अनाज रखकर भूनते हैं।

भ्राष्ट्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भ्राष्ट्र'—३।

भ्राष्ट्रकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

भ्राष्ट्रमिंध
वि० [सं० भ्राष्ट्रमिन्ध] भूननेवाला। जो भूनता हो।

भ्रास्त्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर की एक नाड़ी का नाम।

भ्रित, भ्रित्त पु
संज्ञा पुं० [सं० भृत्थ] दे० 'भत्य'। उ०—बोलि भ्रित्त अप्पान, कहिय सूघान मत्त गुन।—पृ० रा०, १।६१८।

भ्रित्य पु
संज्ञा पुं० [सं० भृत्य] दे० 'भृत्य'। उ०—तहाँ सदा सनमुख रहै आगै हाथ जोडै भ्रित्य ही।—सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० २७।

भ्रुकुंश, भ्रुकुंस
संज्ञा पुं० [सं०] वह नट जो स्त्री का वेष धारण करके नाचता हो।

भ्रुकुटि, भ्रुकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भृकुटी'।

भ्रुकुटिमुख
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप।

भ्रव
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रू] भौंह। भूकुटी। भ्रू। उ०—ललित हास मुख सुख प्रकास कुंडल, उजास द्दग भ्रुव विलास।— घनानद पृ० ४२५।

भ्रू
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँखों के ऊपर के बाल। भौं। भौंह। क्रि० प्र०—चलाना।—मटकाना।—हिलाना। यौ०—भ्रकृटि = भ्रूभंग। भ्रूकटिसुख = एक साँप। भ्रूक्षेप, भ्रूविक्षेप = भ्रूभग। भौं टेढ़ी करना। भ्रूजाह = भौं का मूल।

भ्रूण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्री का गर्भ। २. बालक की उस समय की अवस्था जब वह गर्भ में रहता है। बालक की जन्म लेने से पहले की अवस्था।

भ्रूणघ्न
वि० संज्ञा पुं० [सं०] गर्भस्थ शिशु की वा भ्रूण की हत्या करनेवाला।

भ्रूणहत्या
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ गिराकर या और किसी प्रकार गर्भ में आए हुए बालक की हत्या। गर्भ के बालक की हत्या।

भ्रूणहा
संज्ञा पुं० [सं० भ्रूणहन्] वह जिसने भ्रूणहत्या की हो।

भ्रूनिक्षेप
वि० [सं०] कटाक्ष। भोंहौं का चलाना। उ०—किसके भ्रूनिक्षेप पर मतवाले बनें।—सुनीता, पृ० २४९।

भ्रूप्रकाश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का काला रंग जिससे शृंगार आदि के लिये भौंह बनाते हैं।

भ्रूपात
संज्ञा पुं० [सं०] कटाक्ष। भौंहों का गिराना। उ०—वे दिन बीते जब मैं भो था अभिमानी, भ्रूपातों में उठता था आँधी पानी।—प्रेम०, पृ० ७३।

भ्रूभंग
संज्ञा पुं० [सं० भ्रूभङ्ग] क्रोध आदि प्रकट करने के लिये भौह चढ़ाना। उ०—ब्रह्म रुद्र उर डरत काल के काल डरत भ्रूभंग की आँची।—सूर (शब्द०)।

भ्रूभेद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भ्रूभंग'।

भ्रृभेदी
वि० [सं० भ्रूमेदिन्] भौंह चढ़ानेवाला। त्योरी चढ़ानेवाला।

भ्रूमंडल
संज्ञा पुं० [सं० भ्रूमण्डल] १. भोहों का घेरा। मेहराबदार भोंह। भौंहों का झुकाव या टेढ़ापन।

भ्रूमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] दोनों भौहों के बीच का स्थान।

भ्रूलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भौहरूपी लता। भौंह जो लता के समान घुमावदार हो।

भ्रूविक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] त्योरी बदलना। नाराजगी दिखाना। भ्रूभंग।

भ्रूविकार
संज्ञा स्त्री० [सं०] भौहों का ढेढ़ा होना। भ्रूभंग [को०]।

भ्रूविक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्योरी बदलना। भ्रूभंग।

भ्रूविजृभ, विजृंभण
संज्ञा पुं० [सं० भ्रूविजृम्भ, भ्रूविजृम्भण] भौहों का झुकाव। भौंहों का नीचा होना।

भ्रूविलास
संज्ञा पुं० [सं०] भौंहों का मोहक संचालन। कटाक्ष उ०—इस लिये खिंचे फिर नहीं कभी, पाया निजपुर, जन जन के जीवन में सहास, हैं नहीं जहाँ वैशिष्टय धर्म का भ्रूविलास।—अनामिका पृ० २०।

भ्रेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश। २. चलना। गमन। ३. भय। डर।

भ्रौणहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भ्रूणहत्या'।

भ्वहरना पु ‡
क्रि० अ० [हिं० भय + हरना (प्रत्य०)] भयभीत होना। डरना।

भ्वासर ‡
वि० [देश०] बेवकूफ। मूर्ख।