विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/वी

विक्षनरी से

वींखा
संज्ञा स्त्री० [सं० वीङ्खा] १. नृत्य। नाच। २. घोड़े की एक चाल। ३. शूकशिंबी। ४. संगम। संधि। ५. गति। गमन। चाल [को०]।

वीँद †
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० वींदणी] पति। खाविंद। उ०—मह बाल माराँ चित विचारा दरी दाराँ दे सिला। सझ आय साराँ धणी धारा विमल तारा वींद।—रघु, रू०, पृ० १४६।

वीक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. पक्षी। चिड़िया। ३. मन।

वीक (२)
संज्ञा पुं० [अं०] सप्ताह। हफ्ता।

वीका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँख की मैल। कीचड़ [को०]।

वीकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. एकांत स्थान। २. प्रकाश। रोशनी।

वीक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. दृष्टि। देखना। ताकना। २. दृश्य पदार्थ (को०)। ३. अचंभा। आश्चर्य (को०)। ४. अवेक्षण। निरूपण (को०)। ५. वैदग्ध्य। ज्ञान। बोध (को०)। ६. निःसंज्ञता। अनभिज्ञता (को०)।

वीक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वीक्षणीय] १. देखने की क्रिया निरीक्षण। द्दष्टि। उ०—वीक्षण अराल, बज रहे जहाँ जीवन का स्वर भर छंद, ताल, मौन में मंद्र।—अनामिका, पृ० १८। २. जाँच (को०)। ३. आँख (को०)।

वीक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वीक्षण' [को०]।

वीक्षणीय
वि० [सं०] १. जो देखने योग्य हो। दर्शनीय। २. विचार- णीय (को०)। विवेचनीय।

वीक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देखने की क्रिया। वीक्षण। दर्शन। २. जाँच। परीक्षा (को०)। ३. ज्ञान। प्रतिभा (को०)। ४. बेसुधी। बेहोशी (को०)।

वीक्षित (१)
वि० [सं०] द्दष्ट। देखा हुआ।

विक्षित (२)
संज्ञा पुं० दृष्टि [को०]।

वीक्षिता
वि० [सं० वीक्षितृ] दर्शक [को०]।

वीक्ष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विस्मय। आश्चर्य। २. वह जो कुछ देखा जाय। द्दश्य। ३. वह जो नाचता हो। नाचनेवाला। नर्तक। अभिनेता। ४. घोड़ा।

विक्ष्य (२)
वि० देखने योग्य। दर्शनीय। द्दश्य। उ०—अब सी हंत न किंतु वीक्ष्य थी।—साकेत, पृ० ३३९। २. प्रत्यक्ष। द्दष्टि- गोचर। व्यक्त (को०)। ३. विस्मय (को०)।

वीचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लहर। तरंग। २. बीच की खाली जगह। अवकाश। ३. सुख। आनंद विश्रांति। ४. दीप्ति। चमक। ५. अविवेक। विचारशून्यता (को०)। ६. प्रकाश की किरण (को०)। ७. अल्पता। लघुता (को०)। यौ०—बीचिकाक = दे० 'वीचीकाक'। वीचिक्षोभ = लहरों का वेग से उठना गिरना। वीचितरंगन्याय। वीचिमाली

वीचितरंग न्याय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का न्याय। विशेष दे० 'न्याय'—४ (९३)।

वीचिमाली
संज्ञा पुं० [सं० वीचिमालिन्] समुद्र।

वीची (१)
संज्ञा [सं०] तरंग। लहर। दे० 'वीचि'।

वीची (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] छोटी राह। रथ्या। गली।—देशी०, पृ० ३०२।

वीचीकाक
संज्ञा पुं० [सं०] जलकौआ।

वीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूल कारण। २. शुक्र। वीर्य। ३. तेज। उ०—मनु पावक मझि वीज आनि अनरगन जग्गिय।—पृ० रा०, ६१।१६७८। ४. अन्न आदि का बीज। बीआ। ५. अंकुर। ६. फल। ७. आधार। ८. निधि। खजाना। ९. तत्व। १०. मूल। ११. मज्जा। १२. तांत्रिकों के अनुसार एक प्रकार के मंत्र जो बडे़ बडे़ मत्रों के मूल तत्व के रूप में माने जाते हैं। प्रत्येक देवी या देवता के लिये ये मंत्र अलग अलग होते हैं। जैसे,—ही, श्री, क्लीं आदि। १३. बीजगणित।

वीजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. विजयसार या पियासाल नामक वृक्ष। २. बजौरा नीबू। ३. सफेद सहिजन ४. बीज। बीआ। ५. दे० 'बीजक'।

विजकर
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द की दाल जो बहुत पुष्टिकारक मानी जाती है।

वीजकर्कटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी।

विजकसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. विजयसार के बीज। २. बिजौरा नीबू का सार या सत्त।

वीजका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुनक्का।

विजकाह्व
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू का पेड़।

वीजकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] वह औषध जिसके खाने से वीर्य बढ़ता हो। वीर्य बढ़ानेवाली दवा। वाजीकरण।

विजकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमलगट्टा। २. सिघाड़ा। ३. फल, जिनमें बीज रहते हैं।

विजकोशक
संज्ञा पुं० [सं०] अंडकोश।

वीजगणित
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गणित, जिसमें अज्ञात राशियों को जानने के लिये उनके स्थान पर अक्षर आदि रखकर कुछ सांकेतिक चिह्नों आदि की सहायता से गणना की जाती है। यह साधारण अंकगणित की अपेक्षा जटिल होता है, पर इसके द्वारा अज्ञात राशियों का पता लगाने में बहुत सहायता मिलती है।

वीजगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] परवल। पटोल।

वीजगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेम।

वीजद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] विजयसार या असन नामक वृक्ष।

वीजधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] धनियाँ।

वीजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पंखा झलना। हवा करना। २. पंखा। ३. चँवर। ४. चकवा। चकोर। चक्रवाक। ५. लोध का पेड़। ६. पदार्थ। वस्तु (को०)।

वीजपाद
संज्ञा पुं० [सं०] वियासाल। विजयसार। २. भिलावाँ।

वीजपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] कीसी वंश का आदि या मूल पुरुष जिससे वह वंश चला हो।

वीजपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुआ। २. मैनफल। ३. ज्वार।

वीजपूर, वीजपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजौरा नीबू। २. चको- तरा। ३. गलगल।

वीजपूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजौरा नीबू। २. चकोतरा।

वीजपेशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंडकोश।

वीजफलक
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू।

वीजमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वीजमन्त्र]दे० 'वीज-१२'।

वीजमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमलगट्टा।

वीजमार्गी
संज्ञा पुं० [सं० वीजमार्गिन्] एक प्रकार के वैष्णव जो पश्चिम भारत में पाए जाते हैं। ये लोग निर्गुण उपासक होते हैं और देवी देवताओं का पूजन नहीं करते।

वीजरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द की दाल।

वीजरेचक
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

वीजरेचन
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

वीजलि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्, प्रा० बिज्ज]दे० 'बिजली'। उ०—च्यारइ पासइ घण घणउ वीजलि खिवइ अकास।— ढोला०, दू० २६०।

वीजवर
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द। माष।

वीजवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव। शिव।

वीजवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विजयसार। पियासाल। २. भिलावाँ।

वीजसार
संज्ञा पुं० [सं०] बायबिडग।

वीजसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

वीजस्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] पलाश। ढाक।

वीजांकुर
संज्ञा पुं० [सं० वीजाङ्कुर] अँखुआ। अँकुर।

वीजांकुरन्याय
संज्ञा पुं० [सं० वीजाङकुर न्याय] एक न्याय। विशेष दे० 'न्याय'—४ (९४)।

वीजाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

वीजाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्षाभ्ल। महादा।

वीजाविक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट।

वीजित
वि [सं०] १. जिसे पंखा झला गया हो। पंखा झला हुआ। २. सिंचित [को०]।

वीजी
संज्ञा पुं० [सं० वीजिन्] १. वह जिसमें बीज हों। २. पिता ३ चौलाइ का साग।

वीजूझल †
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्दुत्, प्रा०, विज्जु, विब्जू, विजू + सं० ज्वल, प्रा० झल] बिजली सो चमकनेवाली, तलवार। उ०—जवनांण दले बीजूझले देख भले कुल देस रौ।—रा० रू०, पृ० ८६।

वीजोदक
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश से गिरनेवाला ओला। वर्षोपल। करका। बिनोरी।

वीज्य
वि० [सं०] १. जो बोने के योग्य हो। २. जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ हो। कुलीन। ३. वीजन करने योग्य। जिसे पंखा भला जाय (को०)।

वीझण †
संज्ञा पुं० [सं० वीजन, व्यजन; प्रा० वीजण] दे० 'बीजन'। उ०—छाँटी पाँणी कुमकुमई, वीझण वीझ्या बाइ। हुई सचेती मालवी, प्री आगलि विललाइ।—ढो़ला०, दू० २४०।

वीझना †
क्रि० स० [सं० वीजन, प्रा० वीजण] पंखा डुलाना। हवा करना। उ०—छाँटी पाँणी कुमकुमई वीझण वीझ्या वाइ।—ढोला०, दू० २४०।

वीटक
संज्ञा पुं० [सं०] (पान का) बीड़ा [को०]।

वीटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रकार का खेल जो बालक लकड़ी के एक छोटे टुकड़े या डंडे से खेला करते थे। विशेष—संभवतः यह खेल गुल्ली डंडा की तरह था। कुछ लोगों का यह भी मत है कि यह खेलने के लिये बना हुआ धातु का एक गोला होता था। २ धातु या पत्थर का बना हुआ गोला जिसके कायक्लेश या प्रायश्चित के लिये मुँह में रखते थे (को०)।

वीटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पान का बीड़ा। २. नागवल्ली (को०)। ३. धोती की गाँठ (को०)। ४. कंचुकी की गाँठ जो पीछे रहती है (को०)।

वीटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लगाया हुआ पान का बीड़ा। २० दे० 'वीटि'।

वीटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पान का बीड़ा। २. दे० 'वीटि'।

वीटुली †
संज्ञा स्त्री० [सं० वेष्टन] पगड़ी। उ०—सकती बाँधे वीटुली, ढीली मेल्हे लज्ज। सरढो पेट न लेटियउ, मूध न मेलउँ अज्ज।—ढोला, दू० ५००।

वीटो
संज्ञा पुं० [अं०] किसी व्यवस्थापिका सभा के स्वीकृत प्रस्ताव या मंतव्य को अस्वीकृत करने का अधिकार। वह अधिकार जिससे व्यवस्थापक मंडल की एक शाखा दूपरी शाखा के स्वीकृत प्रस्ताव या मंतव्य को अस्वीकृत कर सकती है। अस्वीकृति या निषेधाधिकार। नामंजूरी। मनाही। रोक। यौ०—वीटोपावर = रोकने की शक्ति।

वीण पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वीणा]दे० 'वीणा'।

वीणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल का एक प्रसिद्ध बाजा। बीन। विशेष—यह तत जातीय वाद्य है और इसका प्रचार अब तक भारत के पुराने ढंग के गवैयों में है। इसमें बीच में एक लंबा पोला दंड होता है, जिसके दोनों सिरों पर दो बड़े बड़े तूँबे लगे होते हैं और एक तूंबे से दूसरे तूँबे तक, बीच के दंड पर से होते हुए, लोहे के तीन और पीतल के चार तार लगे रहते हैं। लोहे के तार पक्के और पीतल के कच्चे कहलाते हैं। इन सातों तारों को कसने या ढीला करने के लिये सात खूँटिया रहती हैं। इन्हीं तारों को झनकारकर स्वर उत्पन्न किए जाते हैं। प्राचीन भारत के तत जाति के बाजों में वीणा सब से पुरानी ओर अच्छी मानी जाती है। कहते हैं, अनेक देवताओं के हाथ में यही वीणा रहती है। भिन्न भिन्न देवताओं आदि के हाथ में रहनेवाली वीणाओं के नाम अलग अलग हैं। जैसे,— महादेव के हाथ की वीणा लंबी, सरस्वती के हाथ की कच्छपी, नारद के हाथ की महती, विश्वावसु की वृहती और तुंबुरु के हाथ की कलावती कहलाती है। वत्सव उदयन की वीणा का नाम घोषवती या घोषा था। इसके अतिरिक्त वीणा के और भी कई भेद हैं। जैसे,—त्रितंत्री, किन्नरी, विपंची, रंजनी, शारदी, रुद्र और नादेश्वर आदि। इन सबकी आकृति आदि में भी थोड़ा बहुत अंतर रहता है। पर्या०—वल्लकी। परिवादिनी। ध्वनिमाला। वंगमल्ली। घोषवती। कंठकूणिका। २. विद्युत्। बिजली। ३. ज्योतिष में ग्रहों की एक विशेष अवस्थिति (को०)। ४. एक योगिनी का नाम (को०)।

वीणागणकी
संज्ञा पुं० [सं० वीणागणकिन्] वह जो गायक दल का प्रमुख [को०] हो।

वीणागणिगी
संज्ञा पुं० [सं० वीणागणगिन्] दे० 'वीणागणकी'।

वीणागाथी
संज्ञा पुं० [सं० विणागाथिन्] वीणा बजानेवाला [को०]।

वीणातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वीणातन्त्र] तंत्रविशेष [को०]।

वीणादंड
संज्ञा पुं० [सं० वीणादंड] वीणा में का लंबा दंड या तुंबी का बना हुआ वह अश जो मध्य में होता है। इसे प्रवाल भी कहते हैं।

वीणानुबंध
संज्ञा पुं० [सं० वीणानुबन्ध] वीणा का वह विचला भाग जहाँ तार बँधे रहते हैं। उपनाह [को०]।

वीणापाणि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।

वीणापाणि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] नारद [को०]।

वाणापाणि (३)
वि० जिसके हाथ में वीणा हो। वीणा लिए हुए।

वीणाप्रसेव
संज्ञा पुं० [सं०] वह गिलाफ जो वीणा पर उसकी रक्षा के लिये चढ़ाया जाता है।

वीणाभिद्
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की वीणा।

वीणारव
संज्ञा पुं० [सं०] वीणावादन की ध्वनि।

वीणावंशशलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपनाह। वीणानुबंध [को०]।

वीणावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. एक अप्सरा का नाम।

वीणावरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मक्खी।

वीणावाद, वीणावादक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वीणा बजाता हो। बीनकार।

वीणावादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीणा बजाना। २. वाणा बजाने का कोणाकार छल्ला। मिजराब [को०]।

वीणावादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती [को०]।

वीणावाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] वीणा नामक तंत्री वाद्य। वीणा बाजा। उ०—इंद्रजाल, आकरज्ञान, रत्नपरीक्षा, तौर्यत्रिक, वीणावाद्य, हरमेषला, अश्ववंध, मृगवंध, मीनवध, लीनवंध, चट।— वर्ण०, पृ० ३।

वीणाविनोद
संज्ञा पुं० [सं०] एक विद्याधर का नाम [को०]।

वीणाशिल्प
संज्ञा पुं० [सं०] वीणावादन की कला [को०]।

वीणास्य
संज्ञा पुं० [सं०] नारद।

वीणाहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

वीणी
वि० [सं० वीणिन्] १. वीणावादक। वीणा बजानेवाला। २. जो वीणा लिए हो। वीणावाला [को०]।

वीतंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जाल, फंदा या इसी प्रकार की और सामग्री जिससे पशु और पक्षो आदि फँसाए जाते हैं। २. चिड़ियाघर। खगालय (को०)। ३. शिकार के पशुओं को पालने की जगह (को०)।

वीत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वे हाथी, घोड़े और सैनिक आदि जो युद्ध करने के योग्य न रह गए हों। २. अंकुश के द्वारा मारना। अंकुश का प्रहार करना। ३. सांख्य के अनुसार अनुमान के दो प्रकारों में से एक। विशेष—सांख्य में अनुमान के तीन भेद कहे गए हैं—पूर्ववत् या केवलान्वयी, शेषवत् या व्यतिरेकी और सामान्यत द्दष्ट या अन्वय- व्यतिरेकी। इनमें से र्पूववत् और सामान्यतोद्दष्ट अनुमान तो 'वीत' कहलाते हैं और शषवत् को अवीत कहते हैं। विशेष दे० 'अनुमान'।

वीत (२)
वि० जिसका पतित्याग कर दिया गया हो। जो छोड़ दिया हो। २. जो छूट गया हो। मुक्त। ३. जो बीत गया हो। जो समाप्त हो चुका हो। अंतर्हित। गत। लुप्त। ४. जो निवृत्त हो चुका हो। जो (किसी बात से) रहित हो। मुक्त। शून्य। जैसे—बीतभय, वीतराग वीतशंक। ५. इच्छित अनुमोदत। पसंद किया हुआ। सुंदर। जिसको अलगाया गया हो (को०)। ७. जो युद्ध के योग्य न हो (को०)। ८. पालतू (को०)। ९. ओढा़ या धारण किया हुआ। पहना हुआ (को०)।

वीतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घिरी हुई भूमि। बाड़ा। २. चंदन और कपूर का चूर्ण रखने का पात्र [को०]।

वीतकल्मष
वि० [सं०] निष्पाप। पापमुक्त [को०]।

वीतकाम
वि० [सं०] कामनाहीन [को०]।

वीतघृण
वि० [सं०] निर्दय [को०]।

वीतजन्म
वि० [सं०] अजन्मा [को०]।

वीततृष्णु
वि० [सं०] तृष्णारहित। वासनाहीन [को०]।

वीतत्रसरेणु
वि० [सं०] निर्विकार [को०]।

वीतदंभ
संज्ञा पुं० [सं० वीतदम्भ] वह जिसने दंभ या अंहकार का परित्याग कर दिया हो। जिसका अभिमान नष्ट हो गया हो।

वीतन
संज्ञा पुं० [सं०] कंठ के दोनों पार्श्र्व [को०]।

वीतभय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसका भय छूट गया हो। २. विष्णु। ३. शिव का एक नाम (को०)।

वीतभीन
संज्ञा पुं० [सं०] एक असुर का नाम।

वीतमत्सर
वि० [सं०] मत्मरहीन [को०]।

वीतमल
वि० [सं०] १. जो कोई पाप न करे। पापरहित। २. जिसमें किसी प्रकार का कलंक या मल आदि न हो। विमल।

वीतमोह
वि० [सं०] निर्मोही [को०]।

वीतराग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने राग या आसक्ति आदि का परित्याग कर दिया हो। वह जो निस्पृह हो गया हो। उ०— निरुद्देश्य मेरे प्राण, दूर तक फैले उस विपुल अज्ञान में, खोजते थे प्राणों को जड़ में ज्यों वीतराग चितन को खोजते।—अनामिका, पृ० ७१। २. बुद्ध का एक नाम। ३. जैनों के प्रधान देवता की एक नाम ।

वीतराग (२)
वि० १. वासनाहीन। इच्छारहित। शांत। ३. रागरहित। बिना रंग का [को०]।

वीतविष
वि० [सं०] विशुद्ध। निर्मल [को०]।

वीतव्रीड
वि० [सं०] निर्लज्ज [को०]।

वीतशोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने शोक आदि का परित्याग कर दिया हो। २. अशोक नामक वृक्ष।

वीतसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञोपवीत। जनेऊ।

वीतद्रव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध वैदिक ऋषि जो अंगिरा के वश में थे। २. शुनक के पुत्र का नाम।

वीतद्रव्य (२)
वि० यज्ञ में आहुति देनेवाला। जो यज्ञकुंड में आहुति या हव्य देता हो।

वीताहिरण्यमय
वि० [सं०] स्वर्णपात्र से हीन [को०]।

वीतहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वीतिहोत्र'।

वीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गति। चाल। २. दीप्ति। चमक। आभा। ३. गर्भ धारण करने की क्रिया। ४. खाने या पीने की क्रिया। ५. यज्ञ। ६. फोड़ा। ७. प्रजनन। उत्पादन (को०)। ८. आनंदोपभोग (को०)। ९. सफाई। परिमार्जन (को०)। १०. निवृत्ति। पार्थक्य (को०)। ११. प्राप्ति (को०)।

वीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जेठी मधु। मुलेठी। २. नीलिका।

वीतिहोत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. पुराणानुसार राजा प्रियव्रत के एक पुत्र का नाम। ४. हैहयवंश के एक राजा का नाम। ५. वह जो यज्ञ करता हो।

वीतिहोत्रदयिता, वीतिहोत्रप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वाहा [को०]।

वीती
संज्ञा पुं० [सं० वीतिन्] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वीथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० वीथी' [को०]।

वीथिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वीथी'।

वीथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्दश्य काव्य या रूपक के २७ भेदों में से एक भेद। विशेष—यह एक ही अंक का होता है और इसमें एक ही नायक होता है। इसमें आकाशभाषित और शृंगार रस की अधिकता रहती है। प्राचीन काल में ऐसे रूपक अलग भी खेले जाते थे और दूसरे नाटकों के साथ भी। इसके नीचे लिखे १३ अंग माने गए हैं—(१) उद्घ तक। (२) अदलगित, (३) प्रपंच, (४) त्रिगत, (५) छलन, (६) वाक्केली, (७) अधिबल, (८) गंड, (९) अवश्यंदित, (१०) नालिका, (११) असत्प्रलाप, (१२) व्याहार और (१३) मृदद। धनंजय ने अपने दशरूपक में वीथी के उक्त तेरह अंगों का उल्लेख करके कहा है कि सूत्रधार इन वीथ्यंगों के द्वारा अर्थ और पात्र का प्रस्ताव करके प्रस्तावना के अंत में चला जाय और तब वस्तुप्रपंचन आरंभ हो। साहित्यदर्पण के अनुसार वीथी के अंग ही प्रहसन के भी अंग हो सकते हैं। अंतर केवल यही है कि वीथी में तो इनका होना आनश्यक है, पर प्रहसन में ऐच्छिक होता है। अतः कहा जा सकता है, वीथी और प्रहसन दोनों प्रस्तावना के ऐसे अंशों को कहते थे, जिनमें हास्य रस की अधिकता होती थी और जिनके द्वारा सामाजिकों या दर्शकों के मन में अभिनय के प्रति रुचि या उत्कंठा उत्पन्न की जाती थी। २. मार्ग। रस्ता। सड़क। ३. वह आकाशमार्ग जिससे होकर सूर्य चलता है। रविमार्ग। ४. आकाश में नक्षत्रों के रहने के स्थानों के कुछ विशिष्ट भाग जो वीथी या सड़क के रूप में माने गए हैं। जैसे,—नागवीथी, गजवीथी, ऐरावती वीथी, गोवीथी, मृगव थी आदि। विशेष—अकाश में उत्तर, मध्य और दक्षिण में क्रमशः ऐरावत, जरद्भव और वैश्वानर नामक तीन स्थान माने गए हैं; और इनमें से प्रत्येक स्थान में तीन तीन वीथियाँ हैं। इस प्रकार कुल नौ वीथियों में सत्ताईस नक्षत्र समान भागों में विभक्त हैं; अर्थात् प्रत्येक वीथी में तीन तीन नक्षत्रों का अवस्थान माना गया है। ५. पंक्ति। कतार (को०)। ६. हाट। पण्यवीथिका (को०)। ७. मकान में सामने का छज्जा (को०)। ८. घुड़दौड़ का चक्राकार मार्ग (को०)। ९. चित्रों की पक्ति (को०)।

वीथीकृत
वि० [सं०] पंक्ति या राशि के रूप में रखा हुआ अथवा व्यवस्थित [को०]।

वीथ्यंग
संज्ञा पुं० [सं० वीथ्यङ्ग] रूपक में वीथी के अंग जो १३ माने गए हैं। विशेष दे० 'वीथी—१'।

वीदग पु ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] कविता। उ०—मुरभूम पाठ पिंगल मता साहित वीदग सार नै।—रघु० रू०, पृ० १४।

वीदेस पु
संज्ञा पुं० [सं० विदेश]दे० 'विदेश।' उ०—सूनी सेज वीदेस पीउ, दुइ दुख नाल्ह कहइयो कूण।—वी० रासो, पृ० ४३।

वीध्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. अग्नि। ३. वायु।

वीध्र (२)
वि० शुद्ध। स्वच्छ [को०]।

वीनाह
संज्ञा पुं० [सं०] वह जँगला या ढकना आधि जो कुएँ के ऊपर लगाया जाता है।

वीनाही
संज्ञा पुं० [सं० वीनाहिन्] वह जिसमें वीनाह लगा हो। कूप। कुआँ [को०]।

वीप
वि० [सं०] जलहीन। निर्जल [को०]।

वीपसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वीप्सा] दे० 'वीप्सा'।

वीपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली।

वीप्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक शब्दालंकार जहाँ आश्चर्य, आदर, घृणा, आदि भावों को व्यक्त करने के लिये एक ही शब्द अनेक बार प्रयुक्त होता है। विशेष—हिंदी साहित्य में सर्वप्रथम भिखारीदास ने 'वीप्सालंकार' के नाम से इसे ग्रहण किया है। २. परिव्याप्ति (को०)। ३. पुनः पुनः कथन। पुनरुक्ति (को०)। ४. कार्य की निरंतरता सूचित करने के लिये शब्दों की की जानेवाली द्विरुक्ति (को०)।

वीबुकोश
संज्ञा पुं० [सं०] चामर। चँवर [को०]।

वीरंकरा
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरङ्करा] पुराणानुसार एक नदी का नाम, जिसे वीरकरा भी कहते हैं।

वीरंधर
संज्ञा पुं० [सं० वीरन्धर] १.मयूर। मोर। २. जंगली पशुओं के साथ होनेवाला युद्ध। ३. एक प्राचीन नदी का नाम। चमड़े का कंचुक या सदरी (को०)।

वीर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो साहसी और बलवान् हो। शूर। बहादुर। २. योद्धा। सैनिक। सिपाही। ३. वह जो किसी विकट परिस्थिति में भी आगे बढ़कर उत्तमतापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करे। ४. वह जो किसी काम में और लोगों से बहुत बढ़कर हो। जैसे,—दानवीर, कर्मवीर। ५. पुत्र। लड़का। ६. पति। खसम। ७. भाई (स्त्रियाँ)। ८. महाभारत के अनुसार दनायु नामक दैत्य के पुत्र का नाम। ९. विष्णु। १०. जिन ११. साहित्य में शृंगार आदि नौ रसों मे से एक रस। विशेष—इसमें उत्साह और वीरता आदि की परिपु्ष्टि होती है। इसका वर्ण गोर और देवता इंद्र माने गए हैं। उत्साह इसका स्थायी भाव है और धृति, माति, गर्व, स्मृति, तर्क और रोमांच आदि इसके संचारी भाव हैं। भयानक, शांत और शृंगार रस का यह रस विरोधी है। १२. तांत्रिकों के अनुसार साधना के तीन भावों में से एक भाव। विशेष—कहते हैं, दिन के पहले दस दंड में पशु भाव से, बीच के दस दंड में वीर भाव से और अंतिम दस दंड में दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। रुद्रयामल के ग्यारहवें पटल में इसकाविवरवण है। वामकेश्वर तंत्र के अनुसार कुछ लोगों का यह भी मत है कि पहले १६. वर्ष की आयु तक पशु भाव से, फिर ५०. वर्ष की आयु तक वीर भाव से और इसके उपरांत दिव्य भाव से साधना करनी चाहिए। १३. तांत्रिकों के अनुसार वह साधक जो इस प्रकार वीर भाव से साधना करता है। विशेष—दिन रात मद्य पीना, पागलों की सी चेष्टा रखना, शरीर में भस्म लगाए रहना ओर अपने इष्टदेव को मनुष्य, बकरी, भेड़े या भैसे आदि का बलिदान चढ़ाना इनका मुख्य कर्तव्य होता है। १४. वह जो किसी काम में बहुत चतुर हो। होशियार। १५. कर्मठ। कर्मशील। १६. यज्ञ की अग्नि। १७. सींगिया नामक विष। १८. काली मिर्च। १९. पुष्करमूल। २०. काँजी। २१. खस। उशीर। २२. आलूबुखारा। २३. पीली कटसरैया। २४. चौलाई का साग। २५. वाराहीकंद। गेंठी। २६.लताकरंज। २७. कनेर। २८. अर्जुन नामक वृक्ष। २९. काकोली। ३०. सिंदूर। ३१. शालिपर्णी। सरिवन। ३२. लोहा। ३३. नरसल। नरकट। ३४. भिलावाँ। ३५.कुश। ३६.ऋषमक नामक ओषधि। ३७. तोरई। ३८. अग्नि (को०)। ३९. नट। अभिनेता (को०)। ४०. चावल का माँड़ (को०)।

वीर (२)
वि० १. शूर। बहादुर। २. शक्तिशाली। ताकतवर ३. श्रेष्ठ। सर्वोत्कृष्ट [को०]।

वीर पु (३)
संज्ञा स्त्री० सखी। सहेली। दे० 'बीर'।

वीरकंठ
संज्ञा पुं० [सं० वीरकण्ठ] एक प्रकार का डिंगला गीत।—रघु० रू०, पृ० १९५।

वीरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद कनेर। २. वह जो किसी निंदित देश का निवासी हो। ३. पुराणानुसार चाक्षुष मन्वंतर के एक मनु का नाम। ४. योद्धा। शूर। बहादुर। विक्रांत (को०)।

वीरकरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार एक नदी का नाम जिसे वीरंकरा भी कहते हैं।

वीरकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० वीरकर्मन्] वह जो वीरों की भाँति काम करता हो। वीरोचित कार्य करनेवाला।

वीरकाम
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसे पुत्र की कामना हो। पुत्र की इच्छा रखनेवाला।

वीरकीट
संज्ञा पुं० [सं०] नगण्य सैनिक। नाम मात्र का सैनिक [को०]।

वीरकुक्षि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो वीर पुत्र प्रसव करती हो।

वीरकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार पांचाल के एक राजकुमार का नाम।

वीरकेशरी
वि० [सं० वीरकेशरिन्] वह जो वीरों में सिंह के समान अथवा बहुत श्रेष्ठ हो।

वीरकेसरी
वि० [सं० वीरकेसरिन्] दे० 'वीरकेशरी'।

वीरक्षुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृपाणी। कटार [को०]।

वीरगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्ग। २. वह उत्तम गति जो वीरों को रणक्षेत्र में मरने से प्राप्त होती है। विशेष—कहते हैं, युद्धक्षेत्र में वीरतापूर्वक लड़कर मरनेवाले लोग सूर्यमंडल का भेद न कर सीधे स्वर्ग जाते हैं।

वीरगोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वीरों का खानदान या कुल [को०]।

वीरगोष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] योद्धाओं की गोठ। वीरों की आपसी वार्ता [को०]।

वीरचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. तंत्र के अनुसार एक चक्र। २. वीरों का सैन्य दल। ३. विष्णु [को०]। ४. स्वतंत्राप्राप्ति के अनंतर भारत सरकार द्वारा सैनिकों की वीरता पर प्रसन्न होकर उन्हें प्रदान किया जानेवाला एक विशेष प्रकारा का पदक।

वीरचक्रेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वीरचक्षुष्मान्
संज्ञा पुं० [सं० वीरचक्षुष्मत्] विष्णु। [को०]।

वीरचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीरता का कार्य। शूरकर्म।

वीरजनन
वि० [सं०] वीर को उत्पन्न करनेवाला।

वीरजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वीरप्रसू'।

वीरजयंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरजयन्तिका] १. युद्ध। संग्राम। २. रण में योद्धाओं का नृत्य [को०]।

वीरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुश, दर्भ, काँस और दूब आदि की जाति के तृण। २. उशीर। खस। ३. पुराणानुसार एक प्रजापति का नाम। विशेष—इनकी कन्या असिक्नी का विवाह दक्ष से हुआ था। इस कन्या के गर्भ से पाँच हजार वीर पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनसे सृष्टि बढ़ी थी। ४. एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वीरणक
संज्ञा पुं० [सं०] एक नाग का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।

वीरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटाक्ष। तिरछी चितवन। २. गहरी भूमि। ३. वीणा की पुत्री और चाक्षुष की माता का नाम [को०]।

वीरतर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शर। तीर। बाण। २. उशीर। खस।

वीरतर (२)
वि० शूरों में प्रधान। वीरश्रेष्ठ। सामर्थ्यवान् [को०]।

वीरतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुनवृक्ष। २. तालमखाना। ३. भिलावाँ। ४. शर नामक तृण। ५. पियासार या पियासाल नामक वृक्ष। ६. बिल्व वृक्ष (को०)।

वीरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीर होने का भाव। शूरता। बहादुरी।

वीरताडक
संज्ञा पुं० [सं०] विधारा नाम की लता [को०]।

वीरतृण
संज्ञा पुं० [सं०] सरकंडा [को०]।

वीरत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० वीरत्व] वीरत्व। वीर होने का भाव। वीरता। उ०—आए सुमहल सामंत सूर पूरंन तेज वीरत्त पूर। अनभंग अंग, अनभूल बांन जिन दिट्ट अरिय पावैन जान।—पृ० रा०, ६।१३३।

वीरत्तण पु
संज्ञा पुं० [अप०] वीरत्व। वीरता। उ०—उअर वपुरा को अरेआ वीरत्तण नित ठाम।—कीर्ति०, पृ० ६०।

वीरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वीरता'।

वीरदर्प
संज्ञा पुं० [सं०] वीरता का जोश। वीरता का उत्साह या उमंग। उ०—जहाँ आल्हा गानेवाले सैकड़ों सुननेवालों कों घंटों वीरदर्प से पूर्ण किए रहते हैं, वहाँ भेदभूमि से परे एक सामान्य हृदयसत्ता की झलक दिखाई पड़ती है।—चिंतामणि, भा० र, पृ० ९१।

वीरद्युम्न
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक राजकुमार का नाम।

वीरद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन नामक वृक्ष [को०]।

वीरधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० वीरधन्वन्] कामदेव का एक नाम।

वीरनाथ
वि० [सं०] १. वीरों में श्रेष्ठ। २. जिसके सहायक शूर वीर हों [को०]।

वीरनायक
संज्ञा पुं० [सं०] उशीर। खस।

वीरपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक विशेष प्रकार का पहनावा जो युद्ध के समय पहना जाता था।

वीरपट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललाट पर बाँधी जानेवाली सोने की पट्टी [को०]।

वीरपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैदिक काल की एक नदी का नाम। २. वह जो किसी वीर की पत्नी हो।

वीरपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाँग। भंग। २. एक प्रकार का महाकंद जिसे धारणी भी कहते हैं।

वीरपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कंद [को०]।

वीरपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सुरपर्णा। माचीपत्री।

वीरपाण, वीरपाणक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वीरपान'।

वीरपान, विरपानक
संज्ञा पुं० [सं०] वह पान जो वीर लोग युद्ध का श्रम मिटाने के लिये करते हैं।

वीरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप [को०]।

वीरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाबला। सहदेई। २. सिंदुरपुष्पी। लटकन।

वीरप्रजायिनी, वीरप्रजावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीरप्रसू। वीर पु्त्र को जन्म देनेवाली नारी। वीरमाता [को०]।

वीरप्रमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

वीरप्रसवा, वीरप्रसविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वीरप्रसू' [को०]।

वीरप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो वीर संतान उत्पन्न करती हो।

वीरबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ३. एक बानर का नाम (को०)। ४. रावण के एक पुत्र का नाम।

वीरभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा। २. उशीर। खस। ३. प्रख्यात वीर। प्रसिद्ध योद्धा। श्रेष्ठ वीर (को०)। ४. शिव के एक प्रसिद्ध गण का नाम जो उनके पुत्र और अवतार माने जाती हैं। उ०—शिव जी के शरीर से अग्नि बहिर्गत हुई कि मानों वह तीनों लोकों को भस्म किया चाहती है और इस अग्नि में से वीरभद्र उत्पन्न हुआ।—कबीर मं०, पृ० २१८। विशेष—कहते हैं, दक्ष का यज्ञ नष्ट करने लिये शिव जी ने अपने मुँह में इनकी सृष्टि की थी। वीरभद्र ने बहुत से रुद्रों की सृष्टि करके दक्ष का यज्ञ नष्ट किया था।

वीरभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] खस। उशीर।

वीरभद्ररस
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में एक प्रकार का रस जो सन्निपात के लिये बहुत उपकारी माना जाता है।

वीरभवंती
संज्ञा स्त्री० [सं०] बडी़ बहिन [को०]।

वीरभार्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीर की पत्नी [को०]।

वीरभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीरों की प्रकृति या स्वभाव। २. तंत्र में एक भाव। वीरशैव संप्रदाय का एक भाव। विशेष दे० 'वीर'—१२।

वीरभुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] आधुनिक वीरभूम का प्राचीन नाम।

वीरमणि
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार देवपुर के एक प्राचीन राजा का नाम। विशेष—इस नरेश के पुत्र रुक्मांगद ने रामचंद्र जी के यज्ञ का घोड़ा पकड़ लिया था। इसपर शत्रुघ्न और हनुमान आदि ने इससे युद्ध किया था। कहते हैं, इस युद्ध में महादेव जी भी वीर- मणि की ओर से लड़े थे और उन्होंने शत्रुघ्न को अपने पाश में बाँध लिया था। तब रामचंद्र ने आकर उन्हें और अपना घोड़ा छुड़ाया था।

वीरमत्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक प्राचीन जाति का नाम।

वीरमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दानव का नाम।

वीरमर्दल, वीरमर्दलक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का ढोल जो युद्ध के समय बजाया जाता था।

वीरमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरमातृ] वह स्त्री जो वीर पुत्र प्रसव करती हो। वीरजननी। वीरप्रसू।

वीरमानी
वि० [सं० वीरमानिन्] अपने को वीर माननेवाला [को०]।

वीरमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग।

वीरमुद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छल्ला जो प्राचीन काल में पैर की बीचवाली उँगली में पहना जाता था।

वीररज
संज्ञा पुं० [सं० वीररजस्] सिंदूर।

वीररस
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य के नौ रसों में एक का नाम। विशेष दे० 'वीर'—११। २. वीर भाव (को०)।

वीरराघव
संज्ञा पुं० [सं०] १. रामचंद्र का नाम। २. संस्कृत का एक नाटक।

वीररेणु
संज्ञा पुं० [सं०] भीमसेन का एक नाम।

वीरललित
संज्ञा पुं० [सं०] वीरों का सा, पर साथ ही कोमल स्वमाव। वीरता के साथ ही कोमल स्वभाव।

वीरलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्वर्ग। २. वीरों का समुदाय।

वीरवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मांसरोहिणी नाम की लता। २. वह स्त्री जिसकी पति और पुत्र जीवित हों [को०]।

वरवत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीरमाता [को०]।

वीरवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवदाली नाम की लता।

वीरवह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो घाड़ों द्वारा खींचा जाय। २. रथ। स्यंदन।

वीरवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] ललकार [को०]।

वीरवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वीरता के कारण प्राप्त यश। प्रतिष्ठा। ख्याति [को०]।

वीरवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वीरवह। रथ। स्यंदन [को०]।

वीरविक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक ताल का नाम [को०]।

वीरविप्लावक
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो शूद्रों से धन आदि लेकर हवन करता हो।

वीरवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिलावाँ। २. अर्जुन नामक वृक्ष। ३. महाशालि। देवधान्य। ४. विल्वांतर या बलंतर नामक वृक्ष। ५. सावाँ नामक धान्य। ६. शाल वृक्ष।

वीरवेतस
संज्ञा पुं० [सं०] अमलबेत।

वीरव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] वीरों का व्यूह। सैनिकों का एक व्यूह [को०]।

वीरव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो अपने संकल्प पर सदा द्दढ़ रहता हो। वीरतापूर्वक अपने संकल्प का पालन करनेवाला। २. वह ब्रह्मचारी जो बहुत ही निष्ठा नथी आचारपूर्वक रहता हो। ३. पुराणानुसार मधु के एक पुत्र का नाम जो सुमना के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। ४. शूरता। वीरता (को०)।

वीरशंकु
संज्ञा पुं० [सं० वीरशङ्क] तीर। बाण [को०]।

वीरशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीरों के सोने का स्थान, रणभूमि। युद्धक्षेत्र। लड़ाई का मैदान। २. बाण की शय्या—जैसी पितामह भीष्म के लिये अर्जुन ने शरों से बनाई थी (को०)।

वीरशयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीरों का सोने का स्थान, रणभूमि। २. तीर की शय्या।

वीरशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रणभूमि। २. दे० 'वीरशय'।

वीरशाक
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ नामक साग।

वीरशायी
वि० [सं० वीरशायिन्] वीरशय्या पर सोनेवाला [को०]।

वीरशैव
संज्ञा पुं० [सं०] शैवों का एक भेद।

वीरश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] अद्वितीय योद्धा [को०]।

वीरसू
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्त्री जो पुत्रों को ही जन्म दे। २. वह स्त्री जो वीर पुत्र प्रसव करती हो। वीरजननी। उ०— अंब, रहे यह रुदन वीर सू तुम, व्रत पालो। ठहरो प्रस्तुत वैर वह्नि पर नीर न डालो।—साकेत, पृ० ४०४।

वीरसेन
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा नल के पिता का नाम। २. आरूक या आड़ नाम की जड़ी जो हिमालय में होती है। ३. आलूबुखारा। ४. एक दानव का नाम (को०)। ५. हास्त- वैद्यक ग्रंथ के लेखक का नाम जिन्हें वीरसोम भी कहते हैं (को०)।

वीरसेनज, वीरसेनसुत
संज्ञा पुं० [सं०] राजा नल [को०]।

वीरसैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] लहसुन [को०]।

वीरस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० वीरस्कन्ध] महिष [को०]।

वीरस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह पशु जिसका यज्ञ में बलिदान हो।

वीरस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. साधकों का एक प्रकार का आसन जिसे वीरासन कहते हैं। २. स्वर्ग, जहाँ वीर लोग मरने पर जाते हैं।

वीरस्नाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेतस या नरसल की बनी हुई रेहल जिसपर रखकर पुस्तकें पढ़ी जाती थीं [को०]।

वीरहत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मनुष्य की हत्या करना। नरवध। २. पुत्रवध [को०]।

वीरहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वीरहन्] १. विष्णु। २. वह अग्निहोत्री ब्राह्मण जिसकी अग्निहोत्रवाली अग्नि आलस्य आदि के कारण बुझ गई हो।

वीरहा (२)
वि० मनुष्यों या शत्रु के वोरों को मारनेवाला।

वीरहोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्राचीन प्रदेश का नाम जो विंध्य पर्वत पर था।

वीरांतक
संज्ञा पुं० [सं० वीरान्तक] १. वह जो वीरों का अंत या नाश करता हो। २. अर्जुन नामक वृक्ष।

वीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुरामांसी। मुरा। २. क्षीर काकोली। ३. भुइँआँवला। ४. एलुवा। ५. केला। ६. बिदारीकंद। ७. काकोली। ८. शतावर। ९. घीकुंआर। १०. ब्राह्मी। ११. अतीस। अतिविषा। १२. मदिरा। शराब। १३. शीशम का पेड़। १४. गंभारी नामक वृक्ष। १५. पृश्निपर्णी। पिठवन। १६. खिरेंटी। १७. कुटकी। १८. जटामाँसी। बालछड़। १९. आँवला। २०. वह स्त्री जिसकी पति और पुत्र हों। २१. वीरपत्नी। वीरभार्या (को०)। २२. पत्नी (को०)। २३. माता (को०)। २४. महाभारत के अनुसार एक प्राचीन नदी का नाम।

वीराचारी
संज्ञा पुं० [सं० वीराचारिन्] एक प्रकार के वाममार्गी या शाक्त उपासक। विशेष—वीराचारी अपने इष्ट देवताओं की वीर भाव से उपा- सना करते हैं। ये लोग मद्य को शक्ति और मांस को शिव स्वरूप मानते हैं; और इन दोनों के भक्तों को भैरव समझते हैं। ये लोग चक्र में बैठकर पूजन करते हैं और बीच बीच में किसी स्त्री को काली मानकर उसपर मद्य, मांस आदि चढ़ाते हैं। ये लोग प्रायः शव या मृत शरीर लाकर उसकी पूजा करते और उसी के द्वारा अनेक प्रकार के साधन और पूजन करते हैं।

वीराद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन नामक वृक्ष।

वीरान
वि० [फ़ा०] उजड़ा हुआ। जिसमें आवादी न रह गई हो। निर्जन। जैसे—यह बस्तो बिलकुल वीरान हो गई है। २. जिसकी शोभा नष्ट हो गई हो। श्रीहीन। ३. (भूमि) जिसमें कुछ पैदा न हो। बंजर।

वीराना
संज्ञा पुं० [फ़ा० वीरानह्] वह स्थान जहाँ किसी प्रकार की आबादी न हो। उजाड़। जंगल।

वीरानी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वीरान या उजाड़ होने का भाव।

वीराम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] अमलबेत।

वीरारुक
संज्ञा पुं० [सं०] आरुक या आड़ नाम की जड़ी जो हिमालय में होती है।

वीराशंसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह युद्धभूमि जो बहुत ही भीषण और भयानक जान पड़ती है। युद्ध में जोखिम से भरी जगह। २. युद्ध का मैदान। रणक्षेत्र (को०)। ३. निगरानी रखना (को०) ४. अगतिक वा निरवलंब आशा [को०]।

वीराष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिकेय के एक अनुचर का नाम।

वीरासन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैठने का एक प्रकार का आसन या मुद्रा जिसका व्यवहार प्रायः पूजन और तांत्रिकों आदि के साधन में होता है। इसमें बाएँ पैर और टखने पर दाहिनी जाँघ रखकर बैठते हैं। २. काई एक जानु मोड़कर बैठना (को०)। ३. युद्धक्षेत्र। रणभूमि (को०)। ४. निगरानी करने की जगह। संतरी की चौकी (को०) ।

वीरिण
संज्ञा पुं० [सं०] ईरिण भूमि। ऊसर भूमि [को०]।

वीरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वीरण प्रजापति की कन्या उसिक्नी जो दक्ष का ब्याही थी। २. वह स्त्री जिसे पुत्र हो। पु्त्रवती। ३. एक प्राचीन नदी का नाम।

वीरी पु †
संज्ञा पुं० [सं० वैरिन्] वैरी। शत्रु। उ०—वीरी जणह न चालइ वाट।—बी० रासो, पृ० ६७।

वीरुध
संज्ञा पुं० [सं० वीरुत्, वोरुध्] १. वृक्ष। २. लता और वनस्पति आदि। ३. ओषधि। ४. विस्तृता या गुल्मिनी नाम की लता। ५. शाखा। टहनी (को०)। ६. काटने पर पुनः बढ़ जानेवाला पौधा (को०)।

वीरुधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दवा के रूप में काम में आनेवाली वनस्पति। ओषधि। ३. दे० 'वीरुध'।

वीरेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० वीरेन्द्र] श्रेष्ठ वीर [को०]।

वीरेंद्री
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरेन्द्री] एक योगिनी का नाम [को०]।

वीरेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. श्रेष्ठ वीर। बड़ा योद्धा (को०)। ३. शिव की एक लिंगमूर्ति (को०)।

वीरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। दे० 'वोरिश'। यौ०—वीरेश्वर लिंग = शिव की एक लिंगमूर्ति। वीरेश।

वीरोज्झ
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जो अग्निहोत्र करने में आलस्य करता हो [को०]।

वीरोपजीवक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वीरोपजीविक' [को०]।

वीरोपजीविक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अग्निहोत्र के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करता हो।

वीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर के सात धातुओं में से एक धातु जिसका निर्माण सबके अंत में होता है और जिसके कारण शरीर में बल और कांति आती है। विशेष—वीर्य की चंरम धातु भी कहते हैं। यह स्त्रीप्रसंग के समय अथवा रोग आदि के कारण यों ही मूत्रेंद्रिय से निकलता है। कुछ लोगों का मत है कि वीर्य दो प्रकार का है—शीत और उष्ण। और कुछ लोगों का मत है कि यह आठ प्रकार का होता है—उष्ण, शीत, स्निग्ध, रुक्ष, विशद, पिच्छिल, मृदु और तीव्र। विशेष दे० 'शुक्र'। पर्या०—शुक्र। तेज। रेत। वीज। इंद्रिय। २. दे० 'रज'। ३. वैद्यक के अनुसार किसी पदार्थ का वह सार भाग जिसके कारण उस पदार्थ में शक्ति रहती है। किसी वस्तु का मूल तत्व। ४. पराक्रप। बल। शक्ति। सामर्थ्य। ५. अन्न आदि का बीज। बीआ। ६. पुंस्त्व (को०)। ७. साहस। दृढ़ता (को०)। ८. (औषधियों की) अचुकता। प्रभावकारिता (को०)। ९. आभा। दीप्ति। कांति (को०)। १०. गौरव। महत्ता। महिमा (को०)। ११. गरल। विष (को०)। १२. सोना। सुवर्ण (को०)।

वीर्यकर
संज्ञा पुं० [सं०] मज्जा। मेद। वसा। वपा [को०]।

वीर्यकाम
वि० [सं०] पुंस्त्व का अभिलाषी [को०]।

वीर्यकृत
संज्ञा पुं० [सं०] बलवान्। ताकतवर।

वीर्यकृत्
वि० [सं०] जो बल या वीर्य उत्पन्न करता हो। बलकारक।

वीर्यज
संज्ञा पुं० [सं०] लड़का। बेटा। पुत्र।

वीर्यतम
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बहुत बड़ा बलवान् हो।

वीर्यधर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार प्लक्ष द्वीप में रहनेवाले एक प्रकार के क्षत्रिय।

वीर्यपण
वि० [सं०] वीरता द्वारा क्रीत या खरीदा हुआ [को०]।

वीर्यपारमिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों को अनुसार छह सिद्धियों में से एक। शक्ति की पराकाष्ठा [को०]।

वीर्यप्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य का पतन। वीर्य का स्खलन [को०]।

वीर्यवत्
वि० [सं०] १. बलवान्। मजबूत। प्रबल। समर्थ। २. मांसल। हृष्ट पुष्ट।

वीर्यवान्
वि० [सं० वीर्यवत्]दे० 'वीर्यवत्'।

वीर्यवाही
वि० [सं० वीर्यवाहिन्] बीज अथवा वीर्य उत्पन्न करनेवाला [को०]।

वीर्यवृद्धिकर
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य बढ़ानेवाली ओषधि। बाजीकरण [को०]।

वीर्यशुल्क (१)
सज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वीर्यशुल्का] वह प्रतिज्ञा या प्रण जो वीर्य संबंधी हो। जैसे,—यह प्रतिज्ञा करना कि जो पुरुष (या स्त्री) अमुक कार्य करेगा, उसके साथ इस स्त्री (या पुरुष) का विवाह होगा।

वीर्यशुल्क (२)
वि० जिसका मूल्य वीर्य हो। शक्ति द्वारा क्रीत [को०]।

वीर्यसह
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यवंशी राजा सौदास के पुत्र कल्माषपाद का एक नाम।

वीर्यहारी
संज्ञा पुं० [सं० वीर्यहारिन्] एक यज्ञ का नाम जो दुःसह नामक यज्ञ की कन्या के गर्भ से किसी चोर के वीर्य से उत्पन्न हुआ था। विशेष—कहते हैं, जो लोग कदाचारी होते हैं, या बिना हाथ पैर धोए रसोईघर में जाते हैं, उनके घर में यह यज्ञ अपने और दो भाइयों के साथ रहता है।

वीर्यहोन
वि० [सं०] १. निर्वीर्य। कातर। कापुरूष। शक्तिहीन। २. पुंसवहीन। नपुंसक। क्लीब। ३. बीजरहित। जिसमें बीज न हो [को०]।

वीर्यांतराय
संज्ञा पुं० [सं० वीर्यान्तराय] जैनियों के अनुसार वह पाप कर्म जिसका उदय होने से जीव पुष्टांग होते हुए भी शक्ति- विहीन हो जाता है और कुछ पराक्रम नहीं कर सकता।

वीर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'वीर्य'। २. एक नागकन्या (को०)।

वीर्याधान
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भाधान [को०]।

वीर्यान्वित, वीर्ययुक्त
वि० [सं०] वीर्यवान्। शक्तिमान् [को०]।

वीर्यावदान
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कार्य को वीरतापूर्वक संपन्न करना [को०]।

वीर्यावधूत
वि० [सं०] वीर्य द्वारा तिरस्कृत वा कंपित। शक्ति द्वारा पराजित [को०]।

वीवध
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न की राशि। २. भूसे का ढेर। ३. सड़क। ४. राजकर। ५. शकट आदि का जुआ। ६. घट। घड़ा। ७. बोझा [को०]।

वीवधिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिसाती। विसातबाने की दूकान करनेवाला। २. वह जो बहँगी आदि द्वारा बोझ ढोता हो। बहँगी ढोनेवाला व्यक्ति [को०]।

वीवाह पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विवाह'।

वीश
संज्ञा पुं० [सं०] २० पल या १/५ तोले का एक परिमाण [को०]।

वीषित
वि० [सं०] बिखरा हुआ। विस्तृत। फेला हुआ [को०]।

वीस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य का एक प्रकार [को०]।

विस पु † (२)
वि० संज्ञा स्त्री० [सं० विशति, विंश]दे० 'बीस'। जैसे, वीस वसा = बीस बिस्वा।

वीसरना †
क्रि० अ० क्रि० स० [सं० विस्मरण]दे० 'विसरना'। उ०—ढोला मिलिसि न वीसरिसि नवि आविसि ना लेसि।—ढोला०, दू० १७५।

वीसवसा पु †
क्रि० वि० [हिं० विस + विस्वा] पूरी तौर से। पूर्णतः। उ०—बेंली तरलाँ तराँ बिलँबी बण हरियाली वीसवसा।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १२२।

वीसारना †
क्रि० स० [सं० विस्मारण]दे० 'बिसारना'। उ०—(क) संभारियाँ सँताप, वीसारिया न वीसरइ।—ढोला०, दू० १८०। (ख) वीसारियाँ न वीसरइ चिंतारियाँ नावेत।—ढोला०, दू० ६१२।

वीस्न पु
संज्ञा पुं० [सं० विष्णु] दे० 'विष्णु'। उ०—ब्रहमा वीस्न महादेव जानी। तिनते उतपत सकल पसारा उपजावत पालत करत संघारा।—रामानंद०, पृ० ३१।

वीहंगड़ा
संज्ञा पुं० [सं० विहङ्ग] १. पक्षी। २. विहायिस। आकाश। उ०—जे साबण वीहंगड़े वोहंगड़उ न दूरि।—ढोला०, दू० ४९४।

वीह पु
संज्ञा पुं० [सं० भीः, प्रा० बीह, बीह] दे० 'बीह'। उ०—बोलि न सक्कूँ बोहतउ हेक जावात हुई। राजि अपूठा वाहुड़उ माल वर्णी मूई।—ढोला०, दू० ४०४।

वीहार
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'विहार'।

वुकूअ
संज्ञा पुं० [अ० वुक़ूअ] १. घटित होना। प्रकट होना। २. घटना। वाकिया। ३. पक्षियों का नीचे उतरना [को०]।

वुकूआ
संज्ञा स्त्री० [उर्दू वुकूअह्]दे० 'वाकिया', 'वाका'।

वुकुद
संज्ञा पुं० [अ० वुक़ूद] अग्नि को दीप्त करना। जलाना [को०]।

वुकूफ
संज्ञा पुं० [अ० वुफ़ूफ़] ज्ञान। जानकारी [को०]।

वुजू
संज्ञा पुं० [अ० वुजू] दे० 'वजू' [को०]।

वुजूद
संज्ञा पुं० [अ० वुजूद] दे० 'वजूद' [को०]।

वुडित
वि० [सं०] निमग्न। निमज्जित [को०]।

वुरूद
संज्ञा पुं० [अ०] १. आगमन। आना। पधारना। २. प्रवेश [को०]।

वूर्ण
वि० [सं०] वरण किया हुआ। चुना हुआ [को०]।

वुवूर्षु
वि० [सं०] चुनने या वरण करने को इच्छावाला। जो चयन करना चाहता हो [को०]।

बुसूल
वि०, संज्ञा पुं० [अं०] १. 'कसूल'। २. दे० 'उसूल' [को०]।

वुसूली
संज्ञा स्त्री० [अ०] वसूली। प्राप्ति।

वृंत
संज्ञा पुं० [सं० वृन्त] १. स्तन का अगला भाग। कुचाग्र। चुचुक। २. बौंड़ी। ढेड़ी। ३. शाखा का वह अंश जिससे पुष्प, फल, पत्ते आदि संयुक्त होते हैं। प्रसवबंधन (को०)। ४. घटीधारा। घडा़ रखने की तिपाई (को०)। ५. वृंताक। भंटा। बैंगन(को०)। ६. कोशधारी एक कीट। जैसे, रेशम का कीड़ा(को०)। यौ०—वृंततुंबो = गोल कद्दू या लौकी। वृंतफल = बैगन। भंटा। वृंतयमक।

वृंतक
संज्ञा पुं० [सं० वृन्तक] डंठल [को०]।

वृंतयमक
संज्ञा पुं० [सं० वृन्तयमक] यमक अलंकार का एक प्रकार जहाँ एक ही कविता में अनेक यमकों का प्रयोग होता है [को०]।

वृंताक
संज्ञा पुं० [सं० वृन्ताक] १. बैंगन। २. पोई का साग।

वृंताकी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्ताकी] १. बनभटा। २. बैगन।

वृंतासन
संज्ञा पुं० [सं० वृन्त + आसन] वृंतरूपी पीहिका या आसन। उ०—वृंतासन हिलता डुलता है। इधर उधर मृदु तनु तुलता है।—कुणाल०, पृ० ११६।

वृंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्तिका] लघु वृंतक। छोटा डंठल [को०]।

वृंतिता
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्तिता] कटुका [को०]।

वृंद
संज्ञा पुं० [सं० वृन्द] १. समूह। झुंड। राशि। ढेर। यौ०—वृंदगान=समवेत गायन। कई गायकों का एक साथ गाना। वृंदगायक = अनेक गायकों के साथ साथ गानेवाला। वृंदमीत। वृंदमाधव = चिकित्सापरक एक ग्रंथ। वृंदवाद्य। वृंदसंहिता, वृंदसिंधु = आयुर्वेद के ग्रंथ का नाम।२. सौ करोड़ की संख्या। ३. एक मुहूर्त का नाम। उ०—माघ शुक्ल भूता दिन जानो वृंद मुहूरत में पहिचानों। विश्राम (शब्द०)। ४. गुच्छा। स्तवक (को०)। ५. कोरस (को०)। सहगान। वृंदगान (को०)। ६. गले का फोड़ा, अर्बुद या ग्रंथि (को०)। ७. आयुर्वेद के एक विद्वान् (को०)।

वृंद
वि० अत्यधिक। बेशुमार [को०]।

वृंदगीत
संज्ञा पुं० [सं० वृन्द + गीत] समवेत गान। कोरस गीत। वह गीत जिसे एक साथ कई गायक गाते हैं। उ०—जो वृंदगीत युत वृंदवाद्य से रखते महलों को मुखरित, ले अमित, पीन वीणा, मृदंग आदिक वा के उपादान। —भूमि०, पृ० ६५।

वृंदवाद्य
संज्ञा पुं० [सं० वृन्द + वाद्य] कई वाद्यों का एक साथ बजनेवाला समूह। (अँ०) आर्केंस्ट्रा।

वृंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृंन्दा] १. तुलसी। राधिका के सोलह नामों में से एक नाम। ३. गोकुल के समाप की एक अरणयानी (को०)।

वृंदाक
संज्ञा पुं० [सं० वृंन्दाक] परगाछा नाम का पेड़।

वृंदार
संज्ञा पुं० [सं० वृंन्दार] १. मनोज्ञ। सुंदर। आकर्षक। २. अधिक। बड़ा। विशाल। ३. प्रमुख। उत्तम। श्रेष्ठ [को०]।

वृंदारक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृन्दारक] १. देवता। २. श्रेष्ठ व्यक्ति। समादरणीय व्यक्ति (को०)। ३. धृतराष्ट्र का एक पुत्र (को०)।

वृंदारक (२)
वि० [स्त्री० वृन्दारका, वृंदारिका] १. दे० 'बृदार'। २. आदरणीय। समान्य [को०]।

वृंदारका पु
संज्ञा पुं० [सं० वृंन्दारक] देवता। वृंदारक। —अनेकार्थ०, पृ० ४१।

वृंदारण्य
संज्ञा पुं० [सं० वृंन्दारण्य] वृंदावन।

वृंदावन
संज्ञा पुं० [वृंदावन] मथुरा जिले का एक प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ जो भगवान् श्रीकृष्णचंद्र का कीड़ाक्षेत्र माना जाता है। विशेष—कहते हैं, श्रीकृष्ण ने अपनी अधिकांश बाललीलाएँ यहीं की थीं। पुराणों में वृंदावन के संबंध में अनेक प्रकार की विलक्षण कथाएँ आदि पाई जाती हें। महमूद गजनवी ने वृंदावन और उसके आस पास के अनेक स्थानों को बिलकुल नष्ट भ्रष्ट कर डाला, था, और बहुत दिनों तक यह उसी दशा में पड़ा रहा। पर पीछे से चैतन्य महाप्रभु ने यमुना के किनारे वर्तमान वृंदावन नामक नगर की स्थापना की थी। इस नगर में इस समय हजारों बड़े बड़े मंदिर हैं और दूर दूर से यात्री लोग यहाँ दर्शनों के लिये आते हैं।

वृंदावनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृंदावनी] तुलसी [को०]।

वृंदावनेश्वर
संज्ञा पुं० [सं० वृंन्दावनेश्वर] श्रीकृष्ण का एक नाम।

वृंदावनेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृंन्दावनेश्वरी] राधिका का एक नाम।

वृंदिष्ठ
वि० [सं० वृन्दिष्ठ] १. अत्यंत बड़ा। विशालतम। २. सुंदर- तम। मनोज्ञतम [को०]।

वृंदी
वि० [सं० वृन्दिन्] वृंदवाला। समूहवाला [को०]।

वृंदीयान्
वि० [सं० वृन्दीयस्] १. दे० 'वृंदिष्ठ'। २. सुंदरतर [को०]।

वृंहण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जो पुष्टिकारक हो। वलवर्धक द्रव्य। २. भावप्रकाण के अनुसार एक प्रकार का धूम्रपान। ३. असगंध। ४. मुनक्का। ५. भुई कुम्हड़ा। ६. चरक के अनुसार सूअर के मांस में पकाया हुआ जौ का सत्तु। ७. पुष्ट करना (को०)। ८. हाथी की चिग्घाड़ (को०)।

वृंहण
वि० [सं०] पुष्ट करनेवाला। पुष्टिकारक [को०]।

वृंहणवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार एक प्रकार की वस्ति जिसे निरूह या निरूढ भी कहते हैं। विशेष दे० निरूढ़- वस्ति'।

वृंहित (२)
वि० [सं०] परिवर्धित। पुष्ट किया हुआ [को०]।

वृंहित (२)
संज्ञा पुं० हाथी की चिग्घाड़। बींड [को०]।

वृ
संज्ञा पुं० [सं०] सेना की एक टुकड़ी। उ०—वेद काल में 'वृ' सेना के एक गुल्म को कहते थे।—प्रा० भा० प०, पृ० १४०।

वृक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुत्ते की जाति का एक मांसाहारी पशु। भेंड़िया। उ०—महा महिष बर। बरद वृकहु बहु हनत सहित श्रम।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ६४। २. श्रृगाल। गीदड़। ३. कौवा। क्षत्रिय। ५. चोर। लुटेरा। ६. वज्र। ७. अगस्त का पेंड़। ८. गंधाबिरोजा। ९. उलूक। उल्लू। (को०)। १०. सुंगंधित द्रव्यों का मिश्रण (को०)। ११. एक राक्षस का नाम। १२. जठराग्नि (को०)। १३. हल (को०)। १४. सूर्य (को०)। १५. चंद्रमा (को०)। १६. कृष्ण का एक पुत्र (को०)।

वृककर्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृककर्म्मन्] एक असुर का नाम।

वृककर्मा (२)
वि० भेड़िए के समान या तुल्य। अत्यंत क्रूर [को०]।

वृकखंड
संज्ञा पुं० [सं० वृकखण्ड] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृकगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन जनपद का नाम।

वृकग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृकजंभ
संज्ञा पुं० [सं० वृकजन्भ] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृकदंत
संज्ञा पुं० [सं० वृकदन्त] पुराणानुसार एक राक्षस का नाम। इसी की कन्या सानंदिनी कुंभकर्ण को ब्याही थी।

वृकदंश
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।

वृकदीप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।

वृकदेव
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार वसुदेव के एक पुत्र का नाम।

वृकदेवा
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार देवक की कन्या और वसुदेव की पत्नी, देवकी का एक नाम।

वृकदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वृकदेवा' [को०]।

वृकधूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह धूप जो अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्यों की सहायता से तैयार किया गया हो। २. सरल वृक्ष का निर्यास। तारपीन।

वृकधृमक
संज्ञा पुं० [सं०] एक क्षुप [को०]।

वृकधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] गीदड़।

वृकधूर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गीदड़। २. रीछ [को०]।

वृकधोरण
संज्ञा पुं० [सं०] एक पशु [को०]।

वृकनिवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम।

वृकप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक ग्राम का नाम।

वृकप्रेक्षी
वि० [सं० वृकप्रेक्षित्] भेड़िए की तरह देखनेवाला [को०]।

वृकबंधु
संज्ञा पुं० [सं० वृकवन्धु] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृकरथ
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार कर्ण के एक भाई का नाम।

वृकल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार श्लिष्टि के एक पुत्र का नाम। २. वल्कल का वस्त्र या परिधान [को०]।

वृकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाड़ी।

वृकवंचिक
संज्ञा पुं० [सं० वृकवञ्चिक] एक वैदिक ऋषि का नाम।

वृकवाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वार के दोनों ओर लगाई जानेवाली लकड़ी। बाजू [को०]।

वृकस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] माहिष्मती नगरी [को०]।

वृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अंवष्ठा या पाढ़ा नाम की लता। २. प्राचीन काल का एक परिमाण जो दो सूपों के बराबर होता था।

वृकाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] निसोथ।

वृकाजिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेड़िए का चमड़ा। २. वैदिक काल के एक ऋषि का नाम।

वृकाम्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का खट्टा नीबू [को०]।

वृकायु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली कुत्ता। २. चोर।

वृकायु (२)
वि० भेड़िए जैसी प्रकृतिवाला, हिंसक, क्रूर [को०]।

वृकाराति
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।

वृकारि
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता।

वृकाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक ऋषि का नाम।

वृकाश्वकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि का नाम।

वृकास्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार कृष्ण के एक पुत्र का नाम जिन्हें वृकाश्व भी कहते थे। २. वह जिसका मुँह भेड़िए जैसा हो (को०)।

वृकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मादा भेड़िया। २. सियारिन। २. अंबष्ठा। पाढ़ा [को०]।

वृकोदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीमसेन का एक नाम। विशेष—कहते हैं, भीमसेन के पेट में वृक नाम की विकट अग्नि थी। इसी से उनका ह नाम पड़ा। २. ब्राह्मण (को०)। ३. शिव के गणों का एक वर्ग (को०)।

वृक्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुरदा। उ०—वृक्क जो कुक्षि गोल हैं सो उदर में स्थित मेद की पुष्टि करनेवाले कहे हैं।—शार्ङ्गधर०, पृ० १५३। २. हृदय (को०)।

वृक्कक
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्राशय। गुरदा।

वृक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हृदय। २. गुरदा (को०)।

वृक्ण
वि० वि० [सं०] १. कटा या काटा हुआ। छिन्न। २. विदा- रित। फाड़ा हुआ। ३. टुटा या तोड़ा हुआ [को०]।

वृक्त
वि० [सं०] १. निर्मल किया हुआ। २. फैलाया या विखेरा हुआ। विकीर्ण [को०]।

वृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वनस्पति या उदभिज्ज के अंतर्गत वह बड़ा क्षुप जिसका एक ही मोटा और भारी तना होता है और जो जमीन से प्रायः सीधा ऊपर की ओर जाता है। पेड़। दरख्त। द्रुम। विटप। विशेष—प्रायः लोग बोलचाल में वृक्ष और क्षुप अथवा वृक्ष और दूसरी छोटी वनस्पतियों में कोई अंतर नहीं रखते और उनमें से अधिकांश को प्रायः वृक्ष ही कहा करते हैं। पर क्षुप और वृक्ष में यह अंतर है कि क्षुप तीन चार हाथ से अधिक ऊँचा नहीं होता; और न उसमें कोई एक मुख्य तना होता है। उसकी जड़ से ही कई जालियाँ निकलकर इधर उधर फैल जाती हैं। परंतु वृक्ष में एक मुख्य और भारी तना होता है जो पहले कुछ ऊँचाई तक सीधा ऊपर की ओर दाता है; और तब उसमें से चारों ओर डालियाँ निकलती हैं। पर फिर भी कुछ बड़े क्षुप ऐसे होते हैं जो अपने आकार प्रकार के कारण ही वृक्ष कहलाते हैं। वृक्ष में कुछ ठोस काठ का रहना भी आवश्यक होता है। पर केले में काठ का कोई अंश न रहने पर भी उसे लोग प्रायः वृक्ष ही कहते हैं। कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं जिनके सब पत्ते वसंत ऋतु के आरंभ में झड़ जाते हैं, और तब फिर नए पत्ते निकलते हैं। ऐसे वृक्ष 'पतझड़' वाले वृक्ष कहलाते हैं जिनमें पुराने पक्के पत्तों के गिरने से पहले ही नए पत्ते निकल आते हैं। ऐंसे वृक्ष सदाबहार कहलाते हैं। वृक्षों में प्रायः अनेक प्रकार के फल लगते हैं जिन्हें लोग खाते हैं, और उसकी लकड़ी से तरह तरह की चीजें (जैसे,—मेज, कुरसी, दरवाजा, हल, गाड़ी आदि) बनाई जाती हैं। इनकी पत्तियाँ आदि ओषधि रूप में, रँग निकालने और चमड़ा सिझाने के काम में आती हैं। वृक्ष प्राथः बीजों से और कभी कभी पनीरी के द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। पर्या०—महीरुह। शाखी। विटपी। पादप। तुर। पलाशी। द्रुप। आगम। स्थिर। नग। अग। कुज। क्षतिरुइ। महीज। शाल। २. किसी प्रकार का क्षुप या पौधा अथवा कोई कुछ बड़ी और ऊँची वनस्पति। ३. वृक्ष से मिलती जुवती वह आकृति जिसमें किसी चीज का मूल अथवा उदगम और उपकी अनेक शाखाएँ प्रशाखाएँ आदि दिखलाई गई हों। वंशवृक्ष। ४. वृक्ष का तना (को०)। ५. कुटज। इंद्रजव (को०)। ६. कफन। मृतचीवर (को०)।

वृक्षकंद
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षकन्द] विदारीकंद।

वृक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटा पेड़। पेड़। दरख्त। २. कुटज का पेड़।

वृक्षकुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली मुर्गा।

वृक्षकोटर
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष का खोड़रा [को०]।

वृक्षखंड
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षखण्ड] निकुंज। वृक्षों का समूह [को०]।

वृक्षगुल्म
वि० [सं०] जो वृक्षों से आवृत हो। वृक्षों से ढका हुआ [को०]।

वृक्षगृह
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी, जिनका निवास वृक्ष हैं।

वृक्षचर
संज्ञा पुं० [सं०] बंदर।

वृक्षच्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] जो वृक्ष की छाया युक्त हो, कुंज [को०]।

वृक्षच्छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] पेड़ की छाया [को०]।

वृक्षज
वि० [सं०] वृक्ष से उत्पन्न (फल, फूल, काष्ठ आदि)।

वृक्षतक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिलहरी। २. वृक्ष को काटनेवाला लकड़हारा। काष्ठक्रेता।

वृक्षदल, वृक्षपत्र, वृक्षपएँ
संज्ञा पुं० [सं०] पत्ता। पेड़ का पत्ता [को०]।

वृक्षदोहद
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष को फूल लगना। विशेष दे० 'दोइद- ६'।

वृक्षधूप
संज्ञा पुं० [सं०] सरल या चीड़ का पेड़।

वृक्षनाथ, वृक्षनाथक
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ का पेड़। वट वृक्ष।

वृक्षनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ में से निकलनेवाला किसी प्रकार का रस या तरल द्रव्य।

वृक्षपाक
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ का पेड़। वट।

वृक्षपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जंगली शाल वृक्ष। २. वनरखा। वन का क्षक (को०)।

वृक्षप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्मृतियों आदि के अनुसार पुण्यफल की प्राप्ति के लिये अश्वत्य आदि के वृक्ष लगने की क्रिया।

वृक्षभक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परगाछा नाम का पौधा। वि० दे० 'परगाछा'। २. वंदाक, बंदा।

वृक्षभवन
संज्ञा पुं० [सं०] कोटर। वृक्ष का खोड़रा [को०]।

वृक्षभित्
संज्ञा स्त्री० [सं०] टाँगा, कुल्हाड़ी आदि जिससे वृक्ष काटा जाय [को०]।

वृक्षभेदी
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षभेदिन्] १. कुठार। कुल्हाडी। २. बढ़ई की तक्षणी, रूखानी आदि (को०)।

वृक्षमर्कटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिलहरी [को०]।

वृक्षमार्जार
संज्ञा पुं० [सं०] काष्ठबिडाल। पेड़ पर रहनेवाला एक जानवर।

वृक्षमूल
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ की जड़।

वृक्षमूलिक
वि० [सं०] वृक्ष को जड़ या मूल से संबंध रखनेवाला।

वृक्षमृदभू
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में उगनेवाला बेत [को०]।

वृक्षराज
संज्ञा पुं० [सं०] परजाता। पारिजात।

वृक्षराट्
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षराज्] पीपल का पेड़।

वृक्षरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परगाछा नाम का पौधा। २. रूद्रवंती। बंदष्टा। वंदाक। ३. अमरबेल। ४. जतुका नाम की लता। ५. विदारोकंद। ककही या कंघी नाम का पौधा। ७. पुष्कर- मूल।

वृक्षरोपक
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्षादि को लगानेवाला व्यक्ति।

वृक्षरोपण
संज्ञा पुं० [सं०] वृक्ष रोपना। पेंड़ लगाना [को०]।

वृक्षरोपयिता
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षरोपयितृ] वह जो वृक्ष आदि लगाने का काम करता हो [को०]।

वृक्षवाटिका, वृक्षवाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाग। बगीचा। उपवन।

वृक्षवासी
वि० [सं० वृक्षवासिन्] वृक्ष पर रहनेवाला। जंगली। उ०—यक्ख अंगुलिमाल (बौद्धकाल) पहले एक वृक्षवासी नरभक्षक था, परवर्ती रूप में द्वारपाल हो गया।—प्रा० भा० प० पृ० ८७।

वृक्षश
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट। प्रतिसूर्यक [को०]।

वृक्षशायिक
संज्ञा पुं० [सं०] लंगूर।

वृक्षशायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिलहरी।

वृक्षसंकट
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षसङ्कट] वह पगडंडी जो घने वृक्षों के बीच से गी हो।

वृक्षसारक
संज्ञा पुं० [सं०] द्रोणपुष्पी। गूमा।

वृक्षसेचन
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ की सिंचाई। पेडों में पानी देना [को०]।

वृक्षस्नेह
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ में से निकलनेवाला निर्यास या तरल द्रव्य।

वृक्षांघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षाङ्घ्र] पेड़ का निचला भाग या चरण। वृक्षमूल [को०]।

वृक्षादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुठार। कुल्हाड़। २. बढ़ई का बसूला या रुखानी (को०)। ३. अश्वत्थ वृक्ष। ४. पियाल का पेड़। ५. मधुमक्खी का छत्ता।

वृक्षादनी, वृक्षादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विदारी। २. बंदा। बंझा। बंदाक।

वृक्षाधिरूहक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आलिंगन [को०]।

वृक्षाधिरूढ
संज्ञा पुं० [सं०] आलिंगन का एक प्रकार, जिसमें नीरी पुरूष से उसी प्रकार लिपट जाती है जिस प्रकार लता वृक्ष से [को०]।

वृक्षाधिरूढक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृक्षाधिरूढ' [को०]।

वृक्षाधिरूढि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लता का वृक्ष में लिपटना। २. आलिंगन का एक प्रकार [को०]।

वृक्षामय
संज्ञा पुं० [सं०] लाख।

वृक्षाम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. इमली। २. चुक नामक खटाई। ३. अमड़ा। ४. अमलबेत। ५. अम्लकूटा। अंवलकुटा।

वृक्षायुर्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] वह शास्त्र जिसमें वृक्षों के रोगों आदि की चिकित्सा का वर्णन हो।

वृक्षार्हा
संज्ञा स्त्री० [सं०] महामेदा।

वृक्षालय
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षी। चिड़िया।

वृक्षावली
संज्ञा स्त्री० [सं० वृक्ष + अवली ] पेड़ों की कतार। वृक्षसमूह। उ०—तातें वैष्णवन को ब्रज की वृक्षावली सर्वथा तोरनी नाहीं। दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३०२।

वृक्षावास
संज्ञा पुं० [सं०] १. वनवासी। तपस्वी। २. पक्षी [को०]।

वृक्षाश्रयी
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षाश्रयिन्] १. छोटा उल्लू। २. पक्षी [को०]।

वृक्षिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वृक्ष] वह पुतली जो वृक्ष के आधार पर हो। शाल्भंजिका। पुतली। उ०—यहाँ बौद्ध तोरणों में प्रयुक्त वृक्षिका यक्षिणी के प्रभाव स्पष्ट दीखता है,किंतु हिंदू शैली में निर्मित होने के कारण इनके आकार और विषय में परिवर्तन आ गया।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १९५।

वृक्षेत्थ
वि० [सं०] पेड़ पर उगा हुआ। वृक्ष पर उगनेवाला [को०]।

वृक्षोत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] कनियारी या कनकचंपा का पेड़।

वृक्षौका
संज्ञा पुं० [सं० वृक्षौकस्] बनमानुष [को०]।

वृक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ का फल।

वृज
संज्ञा पुं० [सं० व्रज] दे० 'व्रज'। विशेष—'वृज' शब्द के यौगिक आदि के लिये दे० 'व्रज' शब्द के यौगिक।

वृजन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। आसमान। २. दुष्कर्म पाप। ३. लड़ाई। युद्ध। ४. निपटारा। निराकरण। ५. ताकत। शक्ति। बल। ६. बाल। ७. शत्रु। दुश्मन। ८. रक्षित या घेरी हुई भूमि या चरागाह (को०)। ९. घुँघराले बाल (को०)। १०. विपत्ति। आपत्ति। दुःख। संकट (को०)।

वृजन (२)
वि० १. कुटिल। टेढ़ा। २. शक्तिशाली। मजबूत (को०)। ३. जो अचल न हो। चल। स्थायी (को०)। ४. विनश्वर। क्षयिष्णु (को०)।

वृजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राम में रहनेवाला बहुत ही सीधा सादा आदमी। वह जो परम साधु हो।

वृजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्रज भूमि। २. मिथिला प्रदेश। तिरहुत।

वृजिन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप। गुनाह। उ०—देव अखिल मंगल भवन निविड संसय समन दमन वृजिनाटवी कष्टहर्ता।—तुलसी (शब्द०)। २. दुःख। कष्ट। तकलीफ। ३. रक्त चर्म। लाल खाल या चमड़ा। ४ खून। लहू। रक्त। ५ बाल। कुंचित केश। ६. दुष्ट व्यक्ति (को०)।

वृजिन (२)
वि० १. कुटिल। टेढ़ा। २. पापयुक्त।

वृज्य
वि० [सं०] जो मोड़ा जाय। जो ऐंठा या घुमाया जाय [को०]।

वृतंत पु
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त] दे० 'वृत्तांत'। उ०—इम आतम उद्धार करि जनम लिया भुप आइ। सो वृतंत कवि चंद कहि बरन्यौ कवित बनाइ।—पृ० रा०, १।५७८।

वृत
वि० [सं०] १. जो किसी काम के लिये नयुक्त किया गया हो। मुर्करर किया हुआ। २. ढका हुआ। छाया हुआ। ३. जिसके संबंध में प्रार्थना की गई हो। ४. जो मंजूर किया गया हो। स्वीकृत। ५. गोल। ६. वरण किया हुआ। चुना हुआ (को०)। ७. चारों ओर से घोरा हुआ। आवृत (को०)। ८. जो दूषित किया गया हो (को०)। ९. सेवत (को०)।

वृतपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रदात्री नाम की लता।

वृताक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मुरगा।

वृतिंकर
संज्ञा पुं० [सं० वृतिङ्कर] विकंतक नाम का वृक्ष।

वृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जिससे कोई चीज घेरी या ढकी जाय। २. नियुक्त करने की क्रिया। नियुक्ति। ३. छिपाने की क्रिया। ४. वरण। चुनाव (को०)। ५. याचना। प्रार्थना (को०)।

वृत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चरित्र। चरित। २. वेदों और शास्त्रों के अनुकुल आचार रखना। ३. आचार। चाल चलन। ४. स्तन के आगे का भाग। चूचुक। ५. सफेद ज्वार। ६. गुंडा या गुंड नाम की घास। ७. अंजीर। ८. सतिवन। ९. कछुआ। १०. समाचार। वृत्तांत। हाल। उ०—अब जो वृत्त नवीन; होय कहहु सो करि कृपा। —प्रेमघन०, भा० १, पृ० ८२। ११. बड़ों के आदर, इंद्रियनिग्रह और सत्य आदि की ओर होनेवाली प्रवृत्ति। १२. महाभारत के अनुसार एक नाग का नाम। १३. जीविका का साधन। वृत्ति। १४. वह छंद जिसके प्रत्येक पद में अक्षरों की संख्या और लघु गुरू के क्रम का नियम हो। वर्णिक छंद। जैसे,—इंद्रवज्रा, उपेंद्रवज्रा, मालिनी आदि। उ०—नूतन वृत्तों में कविकोविद नए गीत रच लाते हैं। नव रागों में, नव तालों में, गायक उन्हें जगाते हैं।—साकेत, पृ० २७३। विशेष—पदों के विचार से वृत्त तीन प्रकार के होते हैं। जिस वृत्त के चारों पद समान हों, 'सम वृत्त' कहलाता है; जिसमें चारों पद असमान हों, वह 'विषम वृत्त'कहलाता है; और जिसके पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे पद समान हों, उसे 'अर्ध समवृत्त' कहते हैं। १५. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में बीस वर्ण होते हैं। इसे गंडका और दंडिका भी कहते हैं। १६. वह क्षेत्र जिसका घेरा या परिधि गोल हो। मंडल। १७. वह गोल रेखा जिसका प्रत्येक विंदु उसके अंदर के मध्यविंदु से समान अंतर पर हो। १८. दे० 'वृत्तासुर'।

वृत्त (२)
वि० १. बीता हुआ। गुजरा हुआ। २. दृढ़। मजबूत। ३. जिसका आकार गोल हो। वर्त्तुल। ४. मृत। मरा हुआ। ५. जो उत्पन्न हुआ हो। जात। अस्तित्वमय। विद्यमान। ६. निष्पन्न। सिद्ध। ७. ढका हुआ। आच्छादित। ८. अनुष्ठित। कृत (को०)। ९. पठित। अघीत (को०)। १०. प्रसिद्ध। ख्यात (को०)। ११. गटित। संभूत (को०)।

वृत्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह गद्य जिसमें कोमल तथा मधुर अक्षरों और छोटे छोटे समासों का व्यवहार किया गया हो। २. छंद। ३. बौद्ध या जैन गृहस्थ (को०)।

वृत्तकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खरबूजा।

वृत्तकोशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवदाली नाम की लता।

वृत्तकोष
संज्ञा पुं० [सं०] पीली देवदाली।

वृत्तखंड
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तखणड] १. किसी वृत या गोलाई का कोई अंश। २. मेहराब।

वृत्तगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्तगन्धि] वह गद्य जिसमें अनुप्रासों और समासों की अधिकता हो। वह गद्य जिसमें पद्य का आनंद आता हो।

वृत्तगंधी
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तगन्धिन्] दे० 'वृत्तगंधि'।

वृत्तगुंड
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तगुण्ड] दीर्घनाल या गोँदला नाम की घास।

वृत्तचूड
वि० [सं०] १. मेहराबनुमा (झरोखा)। २. दे० 'वृत्तचौल' [को०]।

वृत्तचेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वभाव। प्रकृति। मिजाज। २. आचरण। चालचलन।

वृत्तचौल
वि० [सं०] जिसका चूड़ाकरण संस्कार हो चुका हो [को०]।

वृत्तज्ञ
वि० [सं०] रीतिरिवाज, घटना, इतिहास, वृत्तांत आदि जाननेवाला [को०]।

वृत्ततंडुल
संज्ञा पुं० [सं० वृत्ततण्डुल] यवनाल। जवनाल।

वृत्तपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रदात्री नाम की लता।

वृत्तपरिणाह
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्त की परिधि या घेरा [को०]।

वृत्तपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाठा। पाढ़ा। २. बड़ी शणपुष्पी।

वृत्तपुच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का चमड़ा [को०]।

वृत्तपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. कदम या कदंब का पेड़। ३. जलबेत। ४. भुईँ कदंब। ५. सदागुलाब। सेवती। ६. मोतिया। मोगरा। मुग्दर। ७. मल्लिका। कुब्जक। मालती।

वृत्तपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नागदमनी। २. सदागुलाब। सेवती।

वृत्तपूरण
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्त या छंद को पूरा करना। छंद की पूर्ति [को०]।

वृत्तप्रत्यभिज्ञ
वि० [सं०] धर्मकृत्यों में अत्यंत दक्ष [को०]।

वृत्तफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोई गोलाकार फल। २. काली मिर्च। ३. अनार। ४. बेर। ५. कैथ। कपित्थ। ६. लाल अपामार्ग। लाल चिचड़ा। ७. करंज का पेड़। ८. तरबूज। ९. खरबूजा।

वृत्त फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बैंगन। भंटा। २. कड़वी ककड़ी। ३. आँवला।

वृत्तबंध
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तबन्ध] वह जो वृत्त या छंद के रूप में बाँधा गया हो।

वृत्तबीज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृत्तवीज'।

वृत्तबीजका, वृत्तबीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वृत्तवीजका'।

वृत्तभंग
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तभङ्ग] १. छंदोभंग। २. आचरण या व्यवहार को भ्रष्टता [को०]।

वृत्तभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] गंडीर या गिंडनी नाम का साग।

वृत्तमल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद आक। २. त्रिपुरमल्लिका।

वृत्तमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृत्तांतों की माला। घटनाओं की शृंखला। उ०—भिन्न भिन्न शाखाओं के हजारों कवियों की केवल वृत्तमालाएँ साहित्य के इतिहास के अध्यन में कहाँतक सहायता पहुँचा सकती थीं?—इतिहास, पृ० २।

वृत्तयुक्त
वि० [सं०] आचरणयुक्त। सदाचारी [को०]।

वृत्तवत्
वि० [सं०] १. जिसका आचरण उत्तम हो। सदाचारी। २. वृत्त के समान। गोलवर्तुलाकार (को०)।

वृत्तविधान
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त + विधान] छंदोविधान। झंदों की योजना। उ०—श्रुतिकटु मानकर कुछ वर्णों का त्याग, वृत्त- विधान, लय, अंत्यानुप्रास आदि नाद-सौंदर्य-साधन के लिये ही है।—रस०, पृ० ४६।

वृत्तवीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. भिंडी। तरोई। २. लोबिया। राजमाष।

वृत्तवीजका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अरहर नामक दाल। २. पांडुफली। पांडुरफली।

वृत्तवीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अरहर नाम का अन्न।

वृत्तशस्त्र
वि० [सं०] जो शस्त्रविद्या में निष्णात हो। शास्त्र विद्या में निपुण। धनुर्वेदज्ञ [को०]।

वृत्तशाली
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तशालिन्] वह जिसका आचरण उत्तम हो। सदाचारी।

वृत्तश्लाधी
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तश्लाघिन्] १. वह जिसे अपने काम का अभिमान या श्लाघा हो। २. क्षत्रिय।

वृत्तसंकेत
वि० [सं० वृत्तसङ्केत] जिसने अपनी सहमति या स्वीकृति दे दी हो [को०]।

वृत्तसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त + सङग्रह] १. जीवनवृत्तांतों का संग्रह। २. ऐसा ग्रंथ जिसमें केवल जीवनी दे दी गई हो। उ०—सारे रचनाकाल को आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खंडों में आँख मूँदकर बाँट देना किसी वृत्तसंग्रह की इतीहास नहीं बना सकता। —इतिहास, पृ० २।

वृत्तसंपन्न
वि० [सं०] आचारवान्। वृत्तयुक्त।

वृत्तसादी
वि० [सं० वृत्तसादिन्] आचार व्यवहार को नष्ट करनेवाला अनाचारी। कमीना [को०]।

वृत्तस्क, वृत्तस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसका चरित्र शुद्ध हो। सदाचारी। २. वह जो दूसरों का उपकार करता हो। परोपकारी।

वृत्तहीन
वि० [सं०] आचारहीन। आचाररहित [को०]।

वृत्तांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्ताङ्गी] प्रियंगु लता [को०]।

वृत्तांत
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तान्त] १. किसी बीती हुई बात या घटी हुई घटना का विवरण। समाचार। हाल। जैसे,—(क) इस घटना का सारा वृत्तांत समाचारपत्रों में छप गया है। (ख) अब आप अपना कुछ वृत्तांत सुनाइए। २. प्रक्रिया। ३. संपूर्णता। समस्तता। ४. प्रस्ताव। ग्रंथ का अध्याय। ५. आख्यान। ६. अवसर। मौका। ७. भाव। ८. चालू पिषय या प्रकरण। ९. प्रकार। किस्म (को०)। १०. ढंग। रीति (को०)। ११. अवस्था। दशा (को०)। १२. अवकाश (को०)। १३. गुण। प्रकृति (को०)। १४. एकांत (को०)। १५. बीती या घटी हुई स्थिति। घटना (को०)।

वृत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झिंझरीट नाम का क्षुप। २. रेणुका। रेणुबीज। ३. प्रियँगु। ४. मांसरोहिणी। सफेद सेम। ६. नागदमनी। ७. नेनुआ।

वृत्तानुपू्र्व
वि० [सं०] गोलाई के अनुरूप।

वृत्तानुवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तानुवर्तिन्] वह जिसका आचरण शुद्ध हो। सदाचारी।

वृत्तानुसारी
वि० [सं० वृत्त + अनुसारिन] विहित रीति से कार्य करनेवाला [को०]।

वृत्तार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्त का आधा भाग [को०]।

वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह कार्य जिसके द्वारा जीविकानिर्वाह होता हो। जीविका। रोजी। क्रि० प्र०—करना।—लगना। होना। २. वह धन जो किसी दीन, विधवा या छात्र आदि को बराबर, कुछ निश्चित समय पर उसके सहायतार्थ दिया जाय। उपजीविका। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना। ३. सूत्रा आदि का वह विवरण या व्याख्या जो उनका अर्थ स्पष्ट करने के लिये की जाती है। विशेष—हमारे यहाँ सूत्रा आदि की व्याख्या के वृत्ति, भाष्य, वार्तिक, टीका और टिप्पणी ये पाँच भेद किए गए हैं। इनमें से वृत्ति उस व्याख्या को कहते हैं जो कुछ संक्षिप्त होती है और जिसकी रचना गंभीर होती है। ४. विवरण। वृत्तांत। हाल। ५. नाटकों में विषय के विचार से वर्णन करने की शैली। विशेष—यह चार प्रकार की कही गई है और भिन्न भिन्न रसों के लिये उपयुक्त मानी गई है।जैसे—कौशिको वृत्ति शृंगार रस के लिये, सात्वतो वृत्ति वीर रस के लिये, आरभटी वृत्ति रौद्र और वीभत्स रस के लिये और भारती वृत्ति शेष अन्य रसों के लिये। जाहँ अच्छा वेशभूषावली नायिका, बहुत सी स्त्रियों और न्यगीत तथा भोगविलास आदि का वर्णन हो, उसे कौशिकी; जहाँ वीरता, दानशक्ति, दया, सरलता आदि वर्णन हो उसे सात्वती; जहाँ माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध आदि का वर्णन हो, उसे आरभटी, और जहाँ संस्कृत बहुल कथोपकथन हो उसे भारती वृत्ति कहते हैं। इन चारों वृत्तियों के भी कई अवांतर भेद माने गए हैं। ६. व्यवहार। ७. वह जो किसी दूसरे पर आश्रित या अवलंबित हो। आवेय। ८. याग के अनुसार वित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई है—क्षिप्त, मूड़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। ९. व्यापार। कार्य। १०. स्वभाव। प्रकृति। ११. कर्तव्य। १२. सहार करने का एक प्रकार का शस्त्र। उ०—सारचि माली वृत्ति नाम पुनि अतिमाली नौ।—पद्माकर (शब्द०)। १३. अस्तित्व। सत्ता। १४. टिकना। किसी विशेष स्थिति में होना या रहना (को०)। १५. अवस्था। दशा (को०)। १६. क्रम। प्रणाली (को०)। १७. मजदूरी (को०)। १८. संमानपूर्ण बर्ताव (को०)। १९. चक्कर काटना। मुड़ना (को०)। २०. किसी वृत्त या पहिए की परिधि (को०)। २१. शब्द की शक्ति-अभिधा, लक्षणा और व्यंजना(को०)। २२. विचार करने की प्रक्रिया विचारसरणि (को०)। २३. अनुप्रास अलंकार का एक भेद (को०)। २४. रूद्र की पत्नी (को०)।

वृत्तिकर (१)
वि० [सं०] वृत्ति या जीविका देनेवाला [को०]।

वृत्तिकर (२)
संज्ञा पुं० पेशे के ऊपर लगाया जानेवाला एक प्रकार का सरकारी कर। (अं० प्रोफेशन टैक्स)।

वृत्तिकर्षित
वि० [सं०] जीविका के अभाव में दुःखी [को०]।

वृत्तिकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने किसी सूत्रग्रंथ पर वृत्ति लिखी हो।

वृत्तिकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृत्तिकार'।

वृत्तिक्षीण
वि० [सं०] दे० 'वृत्तिकर्षित'।

वृत्तिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] क्रियाओं या व्यापारों का ससूह। व्यव- हारसमुच्चय। (अं० सिस्टम)उ०—वह एक वृत्तिचक्र है जिसके अंतर्गत प्रत्यय, अनुभूति, इच्छा, गति या प्रवृत्ति, शरीर- धर्म सबका योग रहता है। चिंतामणि, भा० २, पृ० ८८।

वृत्तिच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृत्ति या जीविका से राहत होना। २. दे० 'वृत्तिच्छेदन'।

वृत्तिच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी की वृत्ति या जीविका का अपघात करना जो एक दोष माना गया है।

वृत्तिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृत्ति का भाव या धर्म।

वृत्तिदाता
वि० [सं० वृत्तिदातृ] वृत्ति देनेवाला। जीविका चलानेवाला। आश्रयदाता [को०]।

वृत्तिनिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तिनिबन्धन] जीविकाप्राप्ति का साधन [को०]।

वृत्तिनिरोध
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्ति में उपस्थि होनेवाली बाधा [को०]।

वृत्तिभंग
संज्ञा पुं० [सं० वृत्तिभङ्ग] जीविका की हानि [को०]।

वृत्तिमूल
संज्ञा पुं० [सं०] रोजी का सहारा। जीविका का आधार [को०]।

वृत्तिरूशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार रूद्र की एक स्त्री का नाम।

वृत्तिवैकल्य
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्ति की हानि। दे० 'वृत्तिभंग' [को०]।

वृत्तिसाम्य
संज्ञा पुं० [सं० वृत्ति + साम्य] भावानुभूति की समान स्थिति।—उ०—संभवतः काल के साथ तादात्म्य करके कवि से वृत्तिसाम्य साथपन के द्वारा आलोचना के क्षत्र में हमारा यह प्रयास है।—बी० श० महा०, पृ० 'ग'।

वृत्तिस्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो अपनी वृत्ति या जीविका पर स्तित हो। २. वह जो आचारवान् या वृत्तियुक्त हो। ३. गिरगिट।

वृत्तिस्थ (२)
वि० १. आचारवान्। २. किसी भी स्थिति या नियुक्ति में रहनेवाला (को०)।

वृत्तिहंता
वि० [सं० वृत्तिहन्तृ] किसी की आजीविका के साधन को नष्ट करनेवाला [को०]।

वृत्तिहा
वि० [सं० वृत्तिहन्] किसी की जीविका के साधन को नष्ट करनेवाला [को०]।

वृत्तिहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वृत्तिभंग'।

वृत्तिह्रास
संज्ञा पुं० [सं०] जीविका छूटना। वृत्ति या जीविका न रहना [को०]।

वृत्तेर्वारु
संज्ञा पुं० [सं०] खरबूजे की बेल।

वृत्त्यनुप्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाँच प्रकार के अनुपासों में से एक प्रकार का अनुप्रास जो काव्य में एक शब्दालंकार माना जाता है। इसमें एक या कई व्यंजन वर्ण एक ही या भिन्न भिन्न रुपों में बार बार आते हैं। जैसे, अति भारी कारी घटा, कारी बारी बैस। इसमें र और ब ये दो व्यंजन कई बार आए हैं, अतः यह वृत्त्ययनुप्रास हुआ।

वृत्त्यपरोध
संज्ञा पुं० [सं०] जीविका में पड़नेवाला विघ्न [को०]।

वृत्त्युपाय
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्ति या जीविका का आधार।

वृत्त्य (१)
वि० [सं० वृत्त्य] १. जो नियुक्त करने के योग्य हो। मुकर्रर करने के काबिल। २. वरणीय। वरण करने योग्य (को०)। ३. जिसे घेरा जाय। जो आवृत किया जाय (को०)। ४. रक्षणीय। रखने योग्य (को०)।

वृत्त्य (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्ति] दे० 'वृत्ति' (व्यापार)। उ०—तीन गुननि की वृत्य जे तिन मैं तैसौं होइ। —सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० १७३।

वृत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अँधेरा। २. मेघ। बादल। ३. शत्रु। दुश्मन। ४. पुराणानुसार त्वष्टा के पुत्र एक दानव या असुर का नाम। वृत्रासुर। विशेष—इसे इंद्र ने मारा था। इसी को मारने के लिये दधीचि की हड्डियों का वज्र बनाया गया था। कहते हैं, एक बार इंद्र ने विश्वरूप पुरोहित को मार डाला था। उसके पिता त्वष्टा ऋषि ने इसका बदला चुकाने के लिये यज्ञ करके उसे उत्पन्न किया। जब इसने इंद्र पर आक्रमण किया, तब इंद्र देवताओं सहित इंद्रपुरी में भाग गए। पर अंत में विष्णु की संमति से इंद्र ने दधीचि ऋषि से उनकी हड्डीयाँ माँगीं और उन्हीं हड्डियों का वज्र बनाकर इससे लड़ना आरंभ किया। जब इंद्र नें इसके दोनों हाथ काट डाले, तब यह इंद्र को उनके हाथी ऐरावत सहित निगल गया। तब इंद्र इसका पेट फाड़कर बाहर निकले और इसका सिर काट डाला। देबीभागवत में इसकी कथा विस्तार के साथ दी गई है। वेदों में भी 'वृत्र असुर' का उल्लेख है; पर वहाँ जो कुछ वर्णन मिलता है, उससे आलंकारिक रूप में मेघ और अँधकार आदि के संबंध में ही 'वृत्र' शब्द आया हुआ जान पड़ता है। ५. एक पर्वत का नाम। ६. ध्वनि (को०)। ७. चक्र (को०)। ८. इंद्र (को०)। ९. पर्वत। पहाड़ (को०)। १०. पत्थर (को०)। ११. धन (को०)। १२. चर्म। चमड़ा (को०)।

वृत्रखाद
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम, जिन्होंने वृत्र नामक असुर को मारा था।

वृत्रघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृत्र नामक असुर को मारनेवाले, इंद्र। २. वैदिक काल के एक देश का नाम जो गंगा के तट पर था।

वृत्रध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार पारियात्र नामक कुलपर्वत से निकली हुई एक नदी का नाम।

वृत्रतूर्य
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध। लड़ाई।

वृत्रत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृत्र का भाव या धर्म। २. शत्रुता। दुश्मनी।

वृत्रद्रुट्
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रद्रुड्] इंद्र। दे० 'वृत्रघ्न' [को०]।

वृत्रद्विट्
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रद्विष्] इंद्र [को०]।

वृत्रनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्र नामक असुर को मारनेवाला, इंद्र।

वृत्रभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] गंडोर या गुँदरी नामक साग।

वृत्ररिपु
संज्ञा पुं० [सं०] वृत्र के रिपु। इंद्र।

वृत्रवैरी
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रवैरिन्] वृत्र को मारनेवाले, इंद्र।

वृत्रशंकु
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रशङ्क] एक प्रकार का पत्थर का खंभा। (वैदिक)।

वृत्रशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

वृत्रहंता
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रहन्तृ] इंद्र [को०]।

वृत्रहा
संज्ञा पुं० [सं० वृत्रहन्] वृत्रासुर को मारनेवाले, इंद्र।

वृत्रारि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

वृत्रासुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृत्र' —४।

वृत्वा
संज्ञा पुं० [सं० वृत्वन्] आकाश। आसमान (को०)।

वृथा (१)
वि० [सं०] बिना मतलब का। निष्प्रयोजन। व्यर्थ। फजूल।

वृथा (२)
क्रि० वि० १. बिना मतलब के। बेफायदा। २. अनावश्यक रूप से (को०)। ३. मूर्खता से। आलस्यपूर्वक (को०)। ४. गलत या अनुचित रूप से (को०)।

वृथाकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बेकार की बात। गप शप [को०]।

वृथाकार
संज्ञा पुं० [सं०] मिथ्य रूप। खाली तमाशा (को०)।

वृथात्व
संज्ञा पुं० [सं०] वृथा होने का भाव या धर्म।

वृथादान (ऋण)
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो चालबाज, धूर्त आदि लोगों को दिया गया हो।

वृथावक्व
वि० [सं०] जैसे तैसे अपने लिये पकाया हुआ [को०]।

वृथापलित
वि० [सं०] क्योवृद्ध होते हुए भी नासमझ [को०]।

वृथाप्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह माता जिसने व्यर्थ ही संतान उत्पन्न की हो [को०]।

वृथाप्रतिज्ञ
वि० [सं०] सहसा प्रतिज्ञा कर लेनेवाला। गंभीरतापूर्वक प्रतिज्ञा न करनेवाला [को०]।

वृथामति
वि० [सं०] नासमझ। निर्बुद्धि [को०]।

वृथामांस
संज्ञा पुं० [सं०] वह मांस जो किसी देवी या देवता को अभिप्रेत न हो या चढ़ाया न गयो हो। ऐसा मांस खाने का निषेध है।

वृथार्तवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंध्य स्त्री [को०]।

वृथालंभ
संज्ञा पुं० [सं० वृथालम्भ] ओषधियों को अनावश्यक रूप से काटना [को०]।

वृथालिंग
वि० [सं० वृथालिङ्ग] जिसका मूल कारण अविदित हो [को०]।

वृथालिंगी
वि० [सं० वृथालिङ्गिन्] व्यर्थ अनधिकारपूर्वक किसी संप्रदाय का चिह्न धारण करनेवाला [को०]।

वृथावादी
वि० [सं० वृथावादिन्] असत्यवक्ता [को०]।

वृथावृद्ध
वि० [सं०] बुद्धिहीन [को०]।

वृथोक्त
वि० [सं०] निष्प्रयोजन कहा हुआ। बेकार कहा हुआ [को०]।

वृथोत्पन्न
वि० [सं०] जिसका जन्म व्यर्थ हुआ हो [को०]।

वृथोद्यम
वि० [सं०] निरर्थक उद्यम करनेवाला [को०]।

वृद्ध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनुष्य की तीन अवस्थाओं में से एक अवस्था जो युवावस्था के उपरांत और सबके अंत में आती है। बुढ़ापा। जरा। विशेष—यह अवस्था प्रायः ६० वर्ष के उपरांत आती है। इसमें मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो जाता है, उसके सब अंग शिथिल हो जाते हैं, शरीर की धातुएँ तथा इंद्रियाँ आदि भी बराबर क्षीण होती जाती हैं, और इसके अत में मृत्यु आ जाती हैं। २. वह जो इस अवस्वा में पुहँच गया हो। बुड्ढा। ३. संमानित व्यक्ति। पँडित। विद्वान्। ४. शैलज नामक गधद्रव्य। ५. वृद्धावस्था। ६. ऋषि। संत (को०)। ७. वंशज। संतान (को०)। ८. व्यकरण में वह शब्द जिसके प्रथम स्वर का वृद्धि हुई हो (को०)। ९. गुग्गुल (को०)। १०. अस्सी साल का हाथी (को०)।

वृद्ध (२)
वि० १. ब़ढ़ा हुआ। पूर्णतः बढ़ा हुआ। ३. अधिक अवस्था का। ४. बड़ा। विशाल। ५. विकासित। ६. एकत्रित। सँचित। ७. पठित। वुद्धिमान्। अधीत। शिक्षित। ८. योग्य। विशिष्ट [को०]।

वृद्धकंट
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धकणट] इंगुदी का पे़ड।

वृद्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्ध व्यक्ति। बूढ़ा आदमी। २. आख्यान। उपाख्यान। कथा वार्ता [को०]।

वृद्धकाक
संज्ञा पुं० [सं०] द्रोणकाक। पहाड़ी कौवा।

वृद्धकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्धवस्था। बुढा़पा। २. काशी का एक शिवलिंग। वृतकाल। वृद्धिकालेश्वर।

वृद्धकावेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम।

वृद्धकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कृच्छ रोग।

वृद्धकेशव
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सूर्य की एक मूर्ति का नाम।

वृद्धकोश
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत धनाढ्य व्यक्ति [को०]।

वृद्धक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] वृद्ध का क्रम या पद [को०]।

वृद्धगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृद्धगङ्गा] हिमालय की एक छोटी नदी का नाम।

वृद्धगर्भा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गर्भिणी नारी जिसका गर्भस्थ शिशु बड़ा हो गया है [को०]।

वृद्धोगोनस
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का साँप।

वृद्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व़ृद्ध का भाव या धर्म। वृढ़ापन। २. पांडित्य।

वृद्धतिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा। पाढ़ा।

वृद्धत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्ध होने का भाव या धर्म। बुढ़ापा। २. पंडित्य।

वृद्धदार
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वृद्धदारक'।

वृद्धदारक
संज्ञा पुं० [सं०] विधारा नामक क्षेप।

वृद्धदारू
संज्ञा पुं० [सं०] विधारा [को०]।

वृद्धद्युम्न
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृद्धधूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरिस का पेड़। २. सरल का वृक्ष।

वृद्धधूमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिसोड़ा।

वृद्धनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी तोंद आगे को निकली हो। तोंदल। तुंदिल।

वृद्धपराशर
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मशास्त्रकार का नाम।

वृद्धप्रधान
सज्ञा पुं० [सं०] दादा का दादा [को०]।

वृद्धप्रपितामह
संज्ञा पुं० [सं०] दादा का दादा। परदादा का पिता।

वृद्धप्रमातामह
संज्ञा पुं० [सं०] परनाना का पिता।

वृद्धबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ककड़ी या कंधी नामक पेड़। २. महाबला।

बृद्धबृहस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मशास्त्रकार का नाम।

बृद्धबौधायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन धर्मशास्त्रकार का नाम।

बृद्धभाव
संज्ञा पुं० [सं०] बृद्धावस्था। बुढ़ापा [को०]।

बृद्धमत
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन मत [को०]।

बृद्धमनु
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मशास्त्रकार का नाम।

बृद्धयाज्ञवल्क्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मसास्त्रकार का नाम।

बृद्धयुवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुटनी। २. धात्री। दाई।

बृद्धराज
संज्ञा पुं० [सं०] अमलबेत।

वृद्धवय
वि० [सं० बृद्धवयस्] जो अवस्था में अधिक हो [को०]।

वृद्धवशिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मशास्त्रकार का नाम।

वृद्धवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गीदड़ी।

वृद्धवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] आम का पेड़।

वृद्धविभीतक
संज्ञा पुं० [सं०] अमड़ा।

वृद्धविष्णु
संज्ञा पुं० [सं०] एक धर्मशास्त्रकार का नाम।

वृद्धवीवधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरातन रूढ़ि का बंधन [को०]।

वृद्धवृष्णीय
वि० [सं०] अत्यंत शक्तिमान् [को०]।

वृद्धवेग
वि० [सं०] तीव्र गतिवाला। जिसमें प्रचंड वेग हो [को०]।

वृद्धशाकल्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृद्धशीली
वि० [सं० वृद्धशीलिन्] जा वृद्धों के समान शील और स्वभाववाला हो [को०]।

वृद्धश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धश्रवस्] इंद्र।

वृद्धश्रावक
संज्ञा पुं० [सं०] कापालिक।

वृद्धसंघ
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धसङ्घ] वृद्ध जनों की सभा [को०]।

वृद्धसूत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] कपास।

वृद्धसेवी
वि० [सं० वृद्धसेविन्] वृद्धजोनों की सेवा करनेवाला जो वृद्ध लोगों का सेवा करता हो [को०]।

वृद्धहारीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन धर्मशास्त्रकार का नाम।

वृद्धांगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० वृद्धाङ्गुलि] १. अँगुष्ठ। अँगूठा। २. पैर का अँगूठा।

वृद्धांगुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० वृद्ध + अङ्गुष्ठ] अँगूठा। उ०—महाभारत के मनीषियों ने उनके प्रति वृद्धांगुष्ठ प्रदर्शित करके प्रबल फूत्कार से उन्हें उड़ा दिया है।—प्र० सा०, पृ० ३९।

वृद्धांत
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धान्त] वह जो संमान या प्रतिष्ठा करने योग्य हो। आदरणीय।

वृद्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जो अवस्था में वृद्ध हो गई हो। बुड्ढी औरत। २. अंगुष्ठा। अँगूठा। ३. महाश्रावणिका। ४. वंशजा स्त्री (को०)।

वृद्धाचल
संज्ञा पुं० [सं०] मदरास प्रांत के एक तीर्थ का नाम।

वृद्धाचार
संज्ञा पुं० [सं०] परंपरागत प्रथा [को०]।

वृद्धात्रि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृद्धार्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्त होता हुआ सूर्य। २. संध्या। सायं- काल। साँझ [को०]।

वृद्धावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुढ़ापा [को०]।

वृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बढ़ने या अधिक होने की क्रिया या भाव। बढ़ती। ज्यादता। अधिकता। जैसे,—धन धान्य की वृद्धि, संतान की वृद्धि, यश की वृद्धि। २. ब्याज। सूद। ३. वह अशौच जो घर में संतान उत्पन्न होने पर होता है। ४. अभ्युदय। समृद्धि। ५. एक प्रसिद्ध लता। विशेष—यह लता अष्टवर्ग के अंतर्गत मानी गई है। कहते हैं, यह कोशयामल देश में कोशल पर्वत पाई जाती है। इसके कद पर सफेद राएँ और कहीं कहीं छेद होते हैं। इसका फल कपास की गाँठ के समान होता है, आजकल यह ओषधि नहीं मिलती। वैद्यक में यह मधुर, शीतल, वीर्यवर्धक, गर्भ धारण करानेवाली और रक्तपित्त, खाँसी तथा क्षय रोग को नष्ट करनेवाली मानी गई है। प्रर्या०—योग्या। ऋद्धि। सिद्धि। लक्ष्मि। पुष्टिदा। वृद्धदात्री। मगल्या। श्रा। सपद्। जनेष्टा। भूति। सुख। जावभद्रा। ६. राजनीति में कृष, वाणिज्य, दुर्ग, सेतु, कुंजरबंधन, कन्याकर बलादान, ओर सन्यसंनिवेश इन आठो बर्गों का उपचय। बंधन। स्फाति। ७. फलित ज्योतिष के विष्कम आदि २७ योगो के अंतर्गत ग्यारहवाँ योग। विशेष—कहते हैं, इस योग में जन्म लेनेवाला व्यक्ति विनयो, धन का अच्छा उपयोग करनेवाला और माल खरीदने तथा बेचने में बहुत चतुर होता है। ८. संस्कृत व्याकरण में सीधि का एक प्रकार जिसके अनुसार अ अथवा आ के पश्चात् दूसरे शब्द के आरंभ में ए, ऐ, तथा ओ, ओ के आने पर दोनो मिलकर क्रमशः ऐ और औ हो जाते है।—जैसे,—पुत्र + एषणा से 'पुत्रंषणा' तथा शुद्ध + औदन से 'शुद्धोदन'। उ०—संस्कृत व्याकरणों ने भा संस्कृत भाषा में धातु के स्वर में इसी प्रकार के परिवर्तन को लक्ष्य करके इन तान क्रमा का गुण, बृद्धि, एवं संप्रसारण नामकरण किया था। —भोज० भा० सा०, पृ० १०। ९. सफलता। उन्नति। (को०)। १०. धनदौलत। जायदाद (को०)। ११. ढेर। राशि। परिमाण (को०)। १२. चंद्रमा की कला का बढ़ना (को०)। १३. सूदखोरी (को०)। १४. लाभ। फायदा (को०)। १५. शक्ति या कर की वृद्धि (को०)। १६. अंडकोश वृद्धि (को०)। १७. छेदन। कर्तन (को०)। १८. संपत्ति का हरण (को०)। १९. पीड़ा (को०)। २०. ऊँचाई। उच्चता (को०)।

वृद्धिकर
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वृद्धिकरी] बढ़ानेवाला। वृद्धि। करनेवाला। परिवर्धन करनेवाला। उ०—अल्प मूल्य की वृद्धिकरी हो।—प्रर्चना, पृ० २४।

वृद्धिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० बृद्धिकर्मन्] नांदीमुख श्राद्ध। वृद्धश्राद्ध।

वृद्धिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऋद्धि नाम की ओषधि। २. सफेद अपराजिता। ३. अर्कपुष्पी।

वृद्धिजीवक, वृद्धिजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वृद्धि (ब्याज) से अपना निर्वाह करता हो। सूद से अपना निर्वाह करनेवाला।

वृद्धिजीविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूद से जीवन यापन करना [को०]।

वृद्धिद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जीवक नामक क्षुप। २. शूकरकंद।

वृद्धिद (२)
वि० वृद्धि देनेवाला।

वृद्धिदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृद्धि नाम की एक प्रकार की ओषधि। लताविशेष। दे० 'वृद्धि'—५।

वृद्धिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का शस्त्र जो सात अंगुल का होता था और जिसका ब्यवहार चीरफाड़ में छेदने आदि के लिये होता था। इसका आकार प्रायः छुरे के समान होता था।

वृद्धिमान्
वि० [सं० वृद्धिमत्] १. अभिवर्धनशील। बढ़नेवाला। उन्नतिशील। २. धनाढ्य (को०)।

वृद्धियोग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष के सत्ताइस योगों में से एक योग। विशेष दे० 'वृद्धि'—७।

वृद्धिश्राद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] नांदीमुख नाम का श्राद्ध। विशेष दे० 'नांदीमुख'।

वृद्धोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बूढ़ा बैल। उ०—बुड्ढे बैल के लिये वृद्धोक्ष शब्द प्रचलित था।—संपूर्णा०, अभि० ग्रं०, पृ० २४८।

वृद्धयाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृद्धजीवक' [को०]।

वृद्धयाजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धि + आजीविन्] कुसीदक। वृद्धि- जीवक।

वृद्धयुदय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी प्राप्ति या उदय से लाभ ही लाभ हो।

वृद्धयुपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वृद्धि+ उपजीविन्] दे० 'वृद्धयाजीव' [को०]।

वृध पु
संज्ञा पुं० [सं० वृद्ध] दे० 'वृद्ध'। उ०—कुटल कुसील हीण जड़ कोढ़ी, अंधन वृध खल पंगु अजै।—रघु० रू०, पृ० १०२।

वृधसान
संज्ञा पुं० [सं०] मनुष्य [को०]।

वृधसानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुष। आदमी। २. काम। कार्य। कृति। क्रिया। ३. पत्ता। पर्ण (को०)।

वृधु
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक सूत्रकार जिससे भरद्वाज मुनि को बहुत सी गौएँ मिली थीं।

वृध्य
वि० [सं०] बढ़ाने के लायक। वर्धनयोग्य [को०]।

वृध्र
वि० १. कटा हुआ या नष्ट किया हुआ [को०]।

वृश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अड़ुसा। २. अदरक। आदी (को०)। ३. चूहा। मूषक।

वृश (२)
संज्ञा पुं० [सं० वृष] दे० 'वृष'।

वृशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ओषधि।

वृश्चन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृश्चिक। बिच्छु। २. दे० 'व्रश्चन' [को०]।

वृश्चि
संज्ञा पुं० [सं०] लाल गदहपूरना।

वृश्चिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिच्छू नामक प्रसिद्ध कीड़ा जिसके डंक में बहुत तेज जहर होता है। विशेष दे० 'बिच्छु'। २. गोबर में उत्पन्न होनेवाला कीड़ा। शूककीट। ३. पूनर्नवा। गदहपूरना। ४. मदन वृक्ष। मैनफल। ५. वृश्चिकाली या बिच्छू नाम की लता। ६. ज्योतिष में मेष आदि बारह राशियों में से आठवीं राशि । विशेष—इसके सव तारों से प्रायः बिच्छू का सा आकार बनता है। विशाका नक्षत्र के अंतिम पाद से आरंभ होकर अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्रों के स्थितिकाल तक यह राशि मानी जाती है। भारतीय फलित ज्योतिष के अनुसार यह राशि शीर्षोदय, श्वेतकर्ण, कफ प्रकृति, जलचर, उत्तर दिशा की अधिपति और अनेक पुत्रों तथा स्त्रियों से युक्त मानी गई है। कहते हैं, इस राशि में जन्म लेनेवाला मनुष्य धन जन से युक्त, भाग्यवान्, खल, राजसेवा, करनेवाला, सदा दूसरों के धन की अभिलाषा करनेवाला, उत्साही और वीर होता है। पर्या०—सौम्य। अंगना। युग्म। सम। स्थिर। पुष्कर। सरौसृप- जाति। ग्राम्य। ७. फलित ज्योतिष के अनुसार मेष आदि बारह लग्नों में से आठवाँ लग्न। विशेष—यह वृश्चिक राशि के उदय के समय माना जाता है। कहते हैं, जो बालक इस लग्न में जन्म लेता है, वह बहुत मोटा ताजा, खर्चीला, कुटिल, मातापिता के लिये अनिष्टकर, गंभीर और स्थिर प्रकृतिवाला, उग्र स्वभाव का, विश्वासी, हँसमुख, साहसी, गुरु और मित्रों से शत्रुता रखनेवाला, राजसेवा करनेवाला, दुःखी, दाता, नीच प्रकृति और पित्तरोगी होता है। ८. अगहन मास जिसमें प्रायः सूर्योदय के समय वृश्चिक राशि का उदय होता है। ९. कर्कट। केकड़ा (को०)। १०, गोजर। कनखजूरा (को०)। ११. एक कीड़ा जो रोएँदार होता है (को०)।

वृश्चिकपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूतिका शाक। पोय या पोई [को०]।

वृश्चिकपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोई नाम का साग।

वृश्चिकपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली। नागदंतिका [को०]।

वृश्चिकप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] पोई नाम का साग।

वृश्चिकराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वृश्चिक'—७।

वृश्चिकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूसाकन्नी। आखुकर्णी।

वृश्चिकविषापहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नकुलकंद। २. रास्ना।

वृश्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिछुआ या बिच्छू नाम की घास। २. पिठवन। ३. सफेद पुनर्नवा। ४. पैर की अँगुलियों में पहिनने का गहना। बिछुवा (को०)।

वृश्चिकाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिच्छु नाम की लता। विशेष—यह लता प्रायः सारे भारत में पाई जाती और बारहों मास हरी रहती है। इसके पत्ते ५-६ अंगुल लंबे, नुकीले और अंडाकार होते हैं और उनपर तथा डंठलों पर एक प्रकार के रोएँ होते हैं, जिनके शरीर में लगने से बहुत तेज जलन होती है। इसकी जड़ का प्रयोग ओषधि रूप में होता है। वैद्यक में यह कड़वी, चरपरी, बल तथा रुचि बढ़ानेवाली, तथा खाँसी, श्वास और ज्वर को दूर करनेवाली मानी गई है।

वृश्चिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पैर के अँगुठे का एक आभूषण।दे० 'वृश्चिका'—४ [को०]।

वृश्चिकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृश्चिक राशि के अधिष्ठाता देवता—मंगल। २. बुध ग्रह का एक नाम (को०)।

वृश्चिपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूतिका। पोई।

वृश्चिपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृश्चिकाली। २. मेढ़ासिंगी।

वृश्चिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृश्चिकाली। २. मेढ़ासिंगी।

वृश्ची
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुनर्नवा। गदहपूरना।

वृश्चीक
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक विशेष प्रकार की ओषधि का नाम [को०]।

वृश्चीर
संज्ञा पुं० [सं०] सफेद गदहपूरना।

वृश्चीव
संज्ञा पुं० [सं०] गदहपूरना। पुनर्नवा।

वृष
संज्ञा पुं० [सं०] १. गौ का नर। साँड़। २. कामशास्त्र के अनुसार चार प्रकार के पुरुषों में से एक प्रकार का पुरुष। विशेष—काम शास्त्र के अनुसार वृष जातीय पुरुष शंखिनी जाति की स्त्री की लिये उपयुक्त समझा जाता है। कहते हैं, ऐसा पुरुष अनेक गुणों से युक्त, अनेक प्रकार के रतिबंधों का ज्ञाता, सुंदर और सन्यवादी होता है। ३. धर्म, जिसके चार पैर माने जाते हैं और जो इसी कारण साँड़ के रूप में माना जाता है। ४. पुराणानुसार ग्यारहवें मन्वंतर के इंद्र का नाम। ५. चूहा। ६. अड़ूसा। ७. श्रीकृष्ण या विष्णु का एक नाम। ८. शत्रु। दुश्मन। वैरी। ९. काम। १०, ऋषभ नामक ओषधि। ११. पति। स्वामी। १२. गेहुँ। १३. धमासा। १४. नदी में होनेवाला भिलावाँ। १५. ज्योतिष में मेष आदि बारह राशियों में से दूसरी राशि।विशेष—इस राशि में कृतिका नक्षत्र के तीन पाद, पूरा रोहिणी नक्षत्र और मृगशिरा नक्षत्र के पहले दो पाद हैं। यह राशि श्वेतवर्ण, वातप्रकृति, वैश्य, चार पैरोंवाली और दक्षिण दिशा की स्वामिनी मानी जाती है। कहते हैं, जो व्यक्ति इस राशि में जन्म लेता है, वह सुंदर दाता, क्षमाशील, स्त्रैण और निर्भंय होता है तथा आरंभिक अवस्था में धन, बंधु संतति आदि से रहित और अंतिम अवस्था में इन सब बातों से सुखी रहता है। १६. फलित ज्योतिष में मेष आदि बारह लग्नों में से दूसरा लग्न। विशेष—कहते हैं, इस लग्न में जन्म लेनेवाले मनुष्य के ओंठ और नाक मोटी तथा ललाट बहुत चौड़ा होता है, वह वातश्लेष्म प्रकृति का, भाग्यवान्, खर्चीला, मातापिता को कष्ट देनेवाला और बुरे कामों की ओर प्रवृति रखनेवाला होता है। ऐसे मनुष्य को पुत्र कम और कन्याएँ अधिक होती हैं। इसकी मृत्यु किसी पशु या बलवान् व्यक्ति के द्वारा अथवा जल, शूल, पर्यटन आदि के कारण अथवा भूखों रहने से होती है। १७. किसी वर्ग का मुख्य या प्रधान जैसे, मुनिवृष, कपिवृष (को०)। १८. सुदृढ़ या व्यायामशील व्यक्ति (को०)। १९. शिव का वृष, नंदी (को०)। २०. पुण्य। सत्कर्म (को०)। २१. कर्ण का एक नाम (को०)। २२. मुख्य अक्ष या पासा (को०)। २३. जल (को०)। २४. मंदिर की एक विशेष आकृति (को०)। २५. भवन- निर्माण के योग्य भूमि (को०)। २६. नर जाति का पशु (को०)। २७. मयूरपंख (को०)। २८. स्त्रीकक्ष। अंतःपुर (को०)। २९. शिव (को०)। ३०. सूर्य (को०)। ३१. अंगुठा। ३२. शुक्र। वीर्य (को०)। ३३. स्कंद का एक अनुचर (को०)। ३४. एक असुर (को०)। ३५. चंद्रमा के १० घोड़ों में से एक घोड़ा (को०)। ३६. कर्ण के पौत्र का नाम जो वृषसेन का पुत्र था (को०)।

वृषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँड़। २. महाभारत के अनुसार गांधार के एक राजकुमार का नाम। ३. एक प्रकार का आम। ४. अड़ूसा। ५. ऋषम नामक ओषधि। ६. धमासा। दुरालभा। ७. भिलावाँ। ८. गेहुँ। ९. चूहा।

वृषकर्णिका, वृषकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुदर्शन नाम की लता। २. एक प्रकार की विधारा।

वृषकर्मा
वि० [सं० वृषकर्म्मन्] परिश्रमी बैल की तरह काम करनेवाला [को०]।

वृषका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम।

वृषकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

वृषकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव या महादेव, जिनकी ध्वजा पर बैल का चिह्न माना जाता है। २. कर्ण के एक पुत्र का नाम। ३. लाल गदहपूरना। यौ०—वृषकेतुसुत=शिव के पुत्र। स्कंद। षणमुख।

वृषक्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा करनेवाले, इंद्र।

वृषखादि
संज्ञा पु० [सं०] १. वह जो सोमपान करता हो। २. कुंडल पहननेवाला (को०)।

वृषगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषगन्धा] १. ककही या कंघी नाम का पौधा। २. एक प्रकार का विधारा।

वृषगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषगन्धिका] दे० 'वृषगंधा'।

वृषग
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभवाहन, शिव [को०]।

वृषगण
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक ऋषियों का एक गण या समूह। उ०—वृषगण ऋग्वेद में गायक थे।—प्रा० भा० प०, पृ० १४४।

वृषचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक प्रकार का चक्र जिसमें एक बैल बनाकर उसके भिन्न भिन्न अंगों में नक्षत्र आदि रखते हैं और तब उसके द्वारा खेती संबंधी शुभाशुभ फल आदि निकालते हैं।

वृषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. कर्ण। ३. विष्णु। ४. साँड़। ५. घोड़ा। ६. वृक्ष। ७. पीड़ा का ज्ञान या उससे होनेवाली बेहोशी। ८. अंडकोष। पोता।

वृषण (२)
वि० सींचनेवाला। उपजाऊ बनानेवाला। २. दृढ़। कठोर [को०]।

वृषणकच्छू
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंडकोश के आस पास होनेवाली वे फुंसियाँ आदि जो मैल और पसीने आदि के कारण हो जाती है और जिसमें खुजली होती है।

वृषणश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रसिद्ध वैदिक राजा का नाम। २. इंद्र के घोड़े का नाम। ३. एक गंधर्व (को०)।

वृषणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़ी [को०]।

वृषणवसु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का खजाना या कोष [को०]।

वृषदंत
संज्ञा पुं० [सं० वृषदन्त] विडाल बिल्ली [को०]।

वृषदंश
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्ली [को०]।

वृशदंशक
संज्ञा पुं० [सं] बिल्ली।

वृषदर्भ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार कश्मीर के एक राजकुमार का नाम। २. पुराणानुसार शिवि के एक पुत्र का नाम। ३. श्रीकृष्ण का एक नाम।

वृषदर्भ (२)
वि० [सं०] इंद्र के अभियान को दुर करनेवाला। इंद्र के दर्प को चूर करनेवाला [को०]।

वृषदेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायुपुराण के अनुसार वासुदेव की एक स्त्री का नाम।

वृषद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक द्वीप का नाम।

वृषधर
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभध्वज शिव [को०]।

वृषध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. गणेश। ३. पुराणानुसार एक पर्वत का नाम। ४. वह व्यक्ति जो बहुत पुराणशील हो। पुण्यात्मा।

वृषध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।

वृषध्वांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषध्वाङ्क्षा] नागरमोथा।

वृषध्वांक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषध्वाङ्क्षी] दे० 'वृषध्वांक्षा'।

वृषनादी
वि० [सं० वृषनादिन्] बैल की भाँति बोलनेवाला। उच्च ध्वनि करनेवाला [को०]।

वृषनामा
संज्ञा पुं० [सं० बृषनामन्] अड़ूसा।

वृषनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विडंग। बायविडंग। २. पुराणानुसार विष्णु या श्रीकृष्ण का एक नाम।

वृषपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. नपुंसक। हिंजड़ा। षंड। ३. छोड़ा हुआ साँड़ (को०)।

वृषपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बस्तांत्री या छागलांकी नाम की ओषधि जो विधारा का एक भेद हैं।

वृषपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी। ब्राह्मणयष्टिका।

वृषपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूसाकानी। आखुकर्णी। २. उदुंबर- पर्णी। दंती। ३. सुदर्शना नाम की लता।

वृषपर्वा
संज्ञा पुं० [सं० वृषपर्वन्] १. शिव। महादेव। २. महाभारत के अनुसार एक दैत्य का नाम जिसकी कन्या शर्मिष्ठा का विवाह ययाति से हुआ था। ३. विष्णु का एक नाम। ४. कसेरु। ५. एक प्रकार का तृण। ६. भँगरा। ७. एक बंदर (को०)। ८. जलपात्र। लोटा (को०)। ९. मार्कंडेयपुराण में वर्णित एक राजा (को०)।

वृषपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का क्षुप [को०]।

वृषप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] वष्णु।

वृषभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल या साँड़। २. साहित्य में वैदर्भी रीति का एक भेद। ३. कान का छेद। ४. ऋषभ नाम की ओषधि। कामशास्त्र के अनुसार चार प्रकार के पुरुषों में श्रेष्ठ पुरुष जो शंखिनी जाति की स्त्री के लिये उपयुक्त कहा गया है। ६. सूर्य की वीथियों में से एक वीथी का नाम। उ०—चौथा वीथी का नाम वृषभ है।—बृहत्०, पृ० —० ५४। ७. एक प्राचीन तीर्थ का नाम। ८. श्रीकृष्ण के एक सखा का नाम। ९. एक यूथपति बंदर का नाम जो राम रावण युद्ध में लड़ा था। १०. नर जातीय या पुंवर्गीय पशु (को०)। ११. वह जो अपने वर्ग में प्रधान हो (को०)। १२. वृष राशि का चिह्न (को०)। १३. हाथी का कान (को०)। १४. कान का छिद्र। कर्णरंध्र (को०)। १५. न्याय। धर्म (को०)।

वृषभकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम।

वृषभगति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. वह सवारी जो बैल द्वारा खींची जाती हो।

वृषभता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वृषभत्व'।

वृषभतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

वृषभत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ होने का भाव या धर्म। वृषभता।

वृषभधुज पु
संज्ञा पुं० [वृषभध्वज] दे० 'वृषभध्वज'।

वृषभध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. एक प्राचीन पर्वत का नाम।

वृषभध्वजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी दंती। बँगडेरा।

वृषभपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] अड़ूसा।

वृषभयान
संज्ञा पुं० [सं०] बैलगाड़ी [को०]।

वृषभवीथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की वीथयों में से एक वीथी का नाम।दे० 'वृषभ'—६।

वृषभस्कंध
वि० [सं० वृषभ + स्कन्ध] जिसके कंधे चौड़े और मजबूत हों। पुष्ट कंधोंवाला [को०]।

वृषभांक
संज्ञा पुं० [सं० वृषभाङ्क] शिव। महादेव।

वृषभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार एक प्राचीन नदी का नाम। २. मघा, पूर्वा और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र (को०)।

वृषभाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. वह जिसकी आँखें बैल की तरह हों (को०)।

वृषभाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रवारुणी लता। इनारु।

वृषभाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।

वृषभान पु
संज्ञा पुं० [सं० वृषभानु] दे० 'वृषभानु'।

वृषभानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्री राधिका जी के पिता का नाम। विशेष(१)—पुराणानुसार वृषभानु नारायण के अंश से उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम सुरभानु और माता का नाम पद्यावती था। ये गोकुल के बडे़ सरदार थे और पहले रावल ग्राम में रहते थे, जहाँ राधिका का जन्म हुआ था। पर अंत में कंस के उपद्रव के कारण वहाँ से बरसाने में जा बसे थे। (२) 'वृषभानु' शब्द के साथ 'कन्या' या उसका पर्यायवाची शब्द लगाने से उसका 'राधिका' अर्थ होता है। जैसे,वृषभानुसुता, वृषबानुनंदिनी। २. वृष राशि का सूर्य (को०)।

वृषभानुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृषभानु की पुत्री, राधा।

वृषभानुनंदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषभानुनन्दिनी] राधिका।

वृषभानुसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृषभानु की कन्या, श्रीराधिका।

वृषभासा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की पूरी अमरावती का एक नाम।

वृषभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विधवा स्त्री। राँड़। २. कपिकच्छु। केवाँच [को०]।

वृषभेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वृषमन्यु
वि० [सं०] वीर। हिम्मतवाला। साहसी [को०]।

वृषमूल
संज्ञा पुं० [सं०] अड़ूस की जड़।

वृषय
संज्ञा पुं० [सं०] १. आश्रय। शरण। २. आश्रम (को०)।

वृषरवि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृषभानु'।

वृषराजकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभध्वज शिव [को०]।

वृषराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष शास्त्र के अनुसार बारह राशियों में से दूसरी राशि। उ०—वृषराशि में स्थित हो तो पैदा होते ही अन्न का नाश होता है।—बृहत०, पृ० १६३।

वृषरुक्ष
संज्ञा पुं० [सं० वृषरुक्षन्] शिव। महादेव।

वृषल
पुं० [सं०] १. शूद्र। यौ०—वृषलपाचक=शूद्र की रसोई बनानेवाला। वृषलयाजक= वृषल का पुरोहित। शूद्र का यादि करानेवाला। २. वह जिसे धर्म आदि का कुछ भी ध्यान न हो। पाप और दुष्कर्म करनेवाला। ३. घोड़ा। ४. चाणक्य द्वारा प्रयुक्त सम्राट् चंद्रगुप्त का एक नाम। ५. गाजर। ६. शलगम। ७. नट। नर्तक (को०)। ८. वृषभ। बैल (को०)। ९. लहसुन (को०)। १०. वह जो जाति से बहिष्कृत हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय या शूद्र वर्ग का वह व्यक्ति जो अपने कर्तव्य से च्युत हो (को०)। ११. बड़ी पिप्पली (को०)।

वृषलक
संज्ञा पुं० [सं०] निम्न कोटि का शूद्र [को०]।

वृषलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुरुषलक्षण से संपन्न नारी। वह स्त्री जिसका रंग रूप पुरुष की तरह हो। ऋषभी [को०]।

वृषलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृषल होने का भाव या धर्म। वृषलपन।

वृषलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृषलता'।

वृषलांछन
संज्ञा पुं० [सं० वृषलाञ्छन] शिव। महादेव।

वृषली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्मृतियों आदि के अनुसार वह कन्या जो रजस्वला तो गई हो, पर जिसका अभी विवाह न हुआ हो। विशेष—कहते हैं, ऐसी कन्या का पिता बड़ा पातकी होता है और उसे कन्या की भ्रूणहत्या करने का पाप लगता है। २. वह स्त्री जो अपने पति को छोड़कर परपुरुष, से प्रेम करती हो। ३. शूद्र जाति की स्त्री। वृषल की स्त्री। उ०—सोतौ वृषली पति भयौ कुलहि लगाई गारि।—सुंदर ग्रं०, भा०१, पृ० १९१। ४. वह स्त्री जो पाप या दुष्कर्म करती हो। ५. नीच जाति की स्त्री। ६. वह स्त्री जो मासिकधर्म से हो। रज- स्वला स्त्री। ७. वह स्त्री जो मरी हुई संतान उत्पन्न करती हो। ८. वंध्या स्त्री (को०)। ९. सद्यः प्रसूता स्त्री (को०)।

वृषलीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. शूद्र जाति या वर्ण की औरत का पति। २. वह पुरुष जिसने ऐसी कन्या के साथ विवाह किया हो जो विवाह से पहले ही रजस्वला हो चुकी हो। वृषली का पति। विशेष—कहते हैं, ऐसे पुरुष, को श्राद्ध आदि करने का अधिकार नहीं होता।

वृषलीफेन
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्रा स्त्री का अधररस [को०]।

वृषलीसेवन
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्र के साथ संभोग करना।

वृषलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] चूहा। मूसा।

वृषवत्
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम।

वृषवासी
संज्ञा पु० [सं० वृषवासिन्] केरल देश के वृष पर्वत पर बसनेवाले शिव जी। उ०—इनके घर लेहौ अवतारा। वृषवासी हर हृदय विचारा।—शं०, दि० (शब्द०)।

वृषवाह
संज्ञा पुं० [सं०] बैल पर सवार होना [को०]।

वृषवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव। महादेव।

वृषवीभत्स
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकारी की कौंछ या केवाँच।

वृषवृष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साम।

वृषशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वृषशिप्त
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक असुर का नाम।

वृषशील
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृषल'।

वृषशुष्म
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक ऋषि का नाम जो जतुकर्ण के पोते थे।

वृषषंड
संज्ञा पुं० [सं० वृषषण्ड] एक प्रवरकार ऋषि का नाम।

वृषसव
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने यज्ञ करने के लिये मंगलस्नान किया हो।

वृषसानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. मानव। आदमी। २. मृ्त्यु। मौत। (को०)।

वृषसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद बड़। २. देवकुंभी। बड़ा गुमा।

वृषसाह्वया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत में है।

वृषसृक्की
संज्ञा पुं० [सं० वृषसृक्किन्] भीमरोल या भृंगरोल नाम का कीड़ा।

वृषसेन
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार कर्ण के एक पुत्र का नाम।

वृषस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० वृषस्कन्ध] शिव। महादेव।

वृषस्कंध (२)
वि० बैल की तरह पुष्ट और उँचे कंधोंवाला [को०]।

वृषस्यंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वृषस्यन्ती] किसी व्यक्ति से संभोग कराने की इच्छा से आतुर। २. कामुका या लपट औरत। कामपीड़िता स्त्री। ३. उठी हुई गाय। वृष की कामना करनेवाली गौ [को०]।

वृषांक
संज्ञा पुं० [सं० वृषाङ्क] १. शिव। महादेव। २. साधु। धर्मात्मा। ३. जल में होनेवाला भिलावाँ। ४. नपुंसक। हिजड़ा। ५. मोर।

वृषांकज
संज्ञा पुं० [सं० वृषाङ्कज] डमरु।

वृषाचन
संज्ञा पुं० [सं० वृषाञ्चन] शिव। महादेव।

वृषांड
संज्ञा पुं० [सं० वृषाण्ड] महाभारत के अनुसार एक असुर का नाम।

वृषांतक
संज्ञा पुं० [सं० वृषान्तक] विष्णु।

वृषा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूसाकाना। आखुकर्णी। २. केवाँच कैंरछ। ३. उदुंवरपर्णी। दंती। ४. बड़ी दंती। ५. असगंध। ६. मालकंगनी। ७. गो।

वृषा (२)
संज्ञा पुं० [सं० वृषन्] १. वृष राशि। २. साँड़। ३. घोड़ा। ४. पीड़ा। व्यथा। ५. इंद्र। ६. कर्ण। ७. चंद्रमा। ८. अग्नि। ९. दल का मुखिया या प्रधान। १०. पीड़ा का ज्ञान न होना। ११. पुंजाताय पशु [को०]।

वृषाकपायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जीवंती। डोडी। २. शतावरी। ३. लक्ष्मी। ४. गौरी। ५. इंद्र की पत्नी, शची। ६. अग्नि की पत्नी, स्वाहा (को०)। ७. सूर्य का पत्नी, उषा (को०)। ८. इंद्र की माता (को०)।

वृषाकपि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। ३. अग्नि। ४. इंद्र। ५. सूर्य। ६. एक ऋषि का नाम। ७. ग्यारह रुद्रों में से एक।—प्रा० भा० प०, पृ० १२७।

वृषाकर
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द। माष।

वृषाकृति
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वृषाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

वृषाण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के अनुचर वरण का नाम [को०]।

वृषाणक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. शिव के एक अनुचर का नाम।

वृषाणी
संज्ञा पुं० [सं० वृषाणिन्] ऋषभक नाम की ओषधि जो अष्टवर्ग में है।

वृषादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्रवारुणी। इनारुत।

वृषादर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार शिवि के एक पुत्र का नाम।

वृषादित पु
संज्ञा पुं० [सं० वृषा दित्य] वृष राशि के सूर्य। उ०— विषम वृषादित की तृषा जिए मतोरनु सोधि। अमित, अपार, अगाध जल, मारौ मूड़ पयोधि।—बिहारी र०, दो०, ३१७।

वृषादित्य
संज्ञा पुं० [सं०] वृष राशि के सूर्य। सौर ज्येष्ठ मास की संक्रांति के सूर्य।

वृषाद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम जो केरल देश में है।

वृषान्न
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्टिकर भोजन [को०]।

वृषायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. चटक या गौरैया नामक पक्षी।

वृषारणी
संज्ञा पुं० [सं०] गंगा का एक नाम।

वृषारव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वे जंतु जिससी बोली बहुत कर्कश हो। जैसे,—झिल्लो, मेढक आदि। २. एक प्रकार का मुँगरा या ताशा, नगाड़ा आदि बजाने की लकड़ी। चोब (को०)।

वृषावाह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का जंगली धान्य [को०]।

वृषाशील
संज्ञा पुं० [सं०] वृषशील। दे० 'वृषल'।

वृषाश्रिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा का एक नाम।

वृषासुर
संज्ञा पुं० [सं०] भस्मासुर दैत्य का एक नाम जिसने शिव से वर पाकर शिव ही भस्म करके पार्वती को लेना चाहा था। वृकासुर। विशेष दे० 'भस्मासुर'।

वृषाहार
संज्ञा पुं० [सं०] चूहों को खानेवाली, बिल्ली। मार्जार।

वृषाही
संज्ञा पुं० [सं० वृषाहिन्] विष्णु।

वृषी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृषिन्] मोर।

वृषी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋषि या ब्रह्मचारी का आसन जो कुश से बना होता है [को०]।

वृषद्र
संज्ञा पुं० [सं० वृषेन्द्र] १. साँड़। २. बैल।

वृषोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार का धार्मिक कृत्य। विशेष—वृषोत्सर्ग के इस धार्मिक कृत्य में लोग अपने मृत पिता आदि के नाम पर साँड़ पर चक्र दागकर उसे छोड़ देते हैं। ऐसे छोड़े हुए साँड़ों से किसी प्रकार का काम नहीं लिया जाता। कहते हैं, जिन पितरों के नाम पर साँड़ छोड़े जाते हैं, वे स्वर्ग पहुँच जाते हैं। अशौच समाप्त होने के दूसरे दिन यह कृत्य करने का विधान है।

वृषोत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम।

वृषोदर
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वृष्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार कुकुर के एक पुत्र का नाम।

वृष्ट (२)
वि० [सं०] १. बरसा हुआ। जो बरस चुका हो। २. जो बरस रहा हो। बरसता हुआ। ३. वर्षा, को बूँदों की तरह ऊपर से नीचे गिराया हुआ [को०]।

वृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकाश से जल बरसना। वर्षा। बारिश। मेह। २. ऊपर से बहुत चीजों का एक साथ गिरना या गिराया जाना। जैसे,—पुष्पवृष्टि। उ०—कर रही थी जो अलौकिक रूपरस की वृष्टि।—शंकु०, पृ० ६। ३. किसी क्रिया का कुछ समय तक लगातर होना। जैसे,—उनके बैठते ही चारों ओर से कटु वचनों की वृष्टि होने लगी।

वृष्टिकर
वि० [सं०] बरसनेवाला। वर्षा करनेवाला [को०]।

वृष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] शणापुष्पी। बनसनई।

वृष्टिकाम
वि० [सं०] बरसा की कामना करेनावाला [को०]।

वृष्टिकामना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्षा की इच्छा [को०]।

वृष्टिकाल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षाकाल। वर्षाऋतु [को०]।

वृष्टिघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी इलायची।

वृष्टिजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह देश जहाँ की खेतीबारी केवल वर्षा पर ही निर्भर हो। देवमातृक देश या कृषिभूमि। २. चातक पक्षी।

वृष्टिदाता
संज्ञा पुं० [सं० वृष्टिदातृ] १. इंद्र। २. मेघ। बादल। ३. असुर। उ०—सायण ने असुर का अर्थ बलवान्, शत्रुहंता और वृष्टिदाता किया है।—प्रा० भा० प०, पृ० (ण)।

वृष्टिपात
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा होना। पानी बरसना [को०]।

वृषिभू
संज्ञा पुं० [सं०] मेढक।

वृष्टिमान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह यंत्र जिसके द्वारा यह जाना जाता है कि कितनी वृष्टि हुई। विशेष—यह एक छोटा सा लंबा नल होता है, जिसमें वर्षा का जल भरता है। उसी जल की ऊँचाई इंचों आदि से नापकर निश्चय किया जाता है कि अमुक समय में इतने इंच वर्षा हुई।

वृष्टिमान्
संज्ञा पुं० [सं० वृष्टिमत्] बादल।

वृष्टिमान् (२)
वि० बरसाऊ। बरसनेवाला [स०]।

वृष्टिवैकृत
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार बहुत अधिक वृष्टि होना या बिलकुल वृष्टि न होना, जो उपद्रव आदि का सूचक समझा जाता है।

वृष्टिसंपात
संज्ञा पुं० [सं० वृष्टिसम्पात] पानी बरसना। वर्षा का होना [को०]।

वृष्टयंबु
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा का जल।

वृष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वैदिक काल के एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृष्णि (१)
संज्ञा सं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. यादव वंश जिसमें श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। उ०—वृष्णि कुल कुमुद राकेश राधारमन कंस बंसाटवी धूमकेतू।—तुलसी (शब्द०)। ३. श्रीकृष्ण या विष्णु। ४. इंद्र। ५. अग्नि। ६. वायु। ७. ज्योति। प्रकाशरश्मि। ८. बैल या गौ। ९. मेढ़ा। मेष। १०. शिव (को०)। ११. एक साम (को०)।

वृष्णि (२)
वि० १. प्रचंड। उग्र। तेज। २. पामर। नीच। ३. बली। शक्तिशाली (को०)। ४. पाखंडी (को०)। ५. क्रुद्ध। कोपाविष्ट (को०)। ६. बरसालु। वर्षणशील (को०)।

वृष्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

वृष्णिगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीकृष्ण।

वृष्णिपाल
संज्ञा पुं० [सं०] मेषपाल। गड़रिया [को०]।

वृष्ण्य
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य।

वृष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह चीज जिससे वीर्य और बल बढ़ता हो। २. वह चीज जिसके सेवन से मन में आनंद उत्पन्न होता हो। ३. ईख। ऊख। ४. उड़द की दाल। ५. ऋषभ नामक ओषधि। ६. आँवला। ७. कमल की नाल। मृणाल। ८. शिव (को०)।

वृष्यकंदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृष्यकन्दा] १. बिदारी कंद। २. मूली।

वृष्यगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वृष्यगन्धा] १. वृद्धदारक। विधारा। २. बस्तांत्री नाम की लता। ३. ककही। अतिबला।

वृष्यगंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वृष्यगन्धिका] ककही। अतिबला।

वृष्यचंड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृष्यचण्डी] मूसाकानी। आखुकर्णो।

वृष्यपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिदारी कंद। भुइँ कुम्हड़ा।

वृष्यफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँवला।

वृष्यवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिदारी कंद। भुइँ कुम्हड़ा।

वृष्यवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिदारी कंद।

वृष्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अष्टवर्ग को ऋद्धि नामक ओषधि। २. शतावर। ३. आँवला। ४. केवाँच। कौंछ। ५. भुइँ आँवला। ६. बिदारी कंद। ७. ककही। अतिबला। ८. बड़ी दंती। बँगडेरा।

वृह
संज्ञा पुं० [सं० बृह, वृह] स्तवन। स्तुति। जैसे, बृहस्पति [को०]।

वृहच्चंचु
संज्ञा पुं० [सं० वृहत् चञ्चु ] महाचंचु नामक साग।

वृहच्चक्रभेद
संज्ञा पुं० [सं० बृहत् + चक्र + भेद] जयंती। जैंत।

वृहच्चित्त
संज्ञा पुं० [सं०] बिजोरा नीबू।

वृहच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] अखरोट।

वृहच्छकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफरी नाम की मछली।

वृहच्छल्क
संज्ञा पुं० [सं०] झिंगवा नाम की मछली।

वृहच्छालपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाशालपर्णी। बड़ी सरिवन।

वृहच्छिंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृहच्छिम्बी] सेम।

वृहज्जीरक
संज्ञा पुं० [सं०] मँगरैला।

वृहज्जीवं ती
संज्ञा स्त्री० [सं० वृहज्जीवन्ती] बड़ी जीवंती।

वृहज्जीवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी जीवंती।

वृहड्ढक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का नगाड़ा या भेरी। २. पलास भेद [को०]।

वृहतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'वृहती'। २. उपरना। उत्तरीय वस्त्र (को०)।

वृहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंटकारी। छोटी कटाई। २. बनभंटा। बड़ी कटाई। ३. बैंगन। ४. वैद्यक के अनुसार एक मर्मस्थान। विशेष—यह छातियों के ठीक पीछे पीठ में दोनों ओर होता है। इस मर्मस्थान पर आघात लगने से बहुत अधिक रक्त निकलता है और प्रायः मनुष्य मर जाता है। ५. विश्वावसु नामक गंधर्व की वीणा का नाम। विशेष—कुछ लोगों के अनुसार 'वृहती' नारद की वीणा का नाम है। ६. वाक्य। ७. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण और सगण होता है। जैसे—भाव सुपूजा कारज जू। प्रात गई सोता सरजू। कंठमणी मध्ये सु जला। टूट परीं खोजैं अबला।—काव्य प्र० (शब्द०)। ९. ३६ की संख्या (को०)। १०. दुपट्टा। उत्तरीय (को०)। ११. आशय। कुंड जैसे, जलाशय (को०)। दे० 'बृहती'।

वृहतीपति
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति।

वृहतीफल
संज्ञा पुं० [सं०] बनभटा।

वृहत्
वि० [सं०] बड़ा भारी। महान्। जैसे,—आपने यह बहुत वृहत् कार्य उठाया है।

वृहत्कंद
संज्ञा पुं० [सं० वृहत्कन्द] १. विष्णुकंद। २. गाजर।

वृहत्कालशाक
संज्ञा पुं० [सं०] महा कासमर्द नाम का क्षुप। कसौंदी।

वृहत्काश
संज्ञा पुं० [सं०] उलुक नाम का तृण। खगड़ा।

वृहत्कुक्षि
वि० संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका पेट आगे की ओर निकला हो। तोंदल।

वृहत्कोशातकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेनुआँ। तरोई।

वृहत् खर्जूरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छुहारा।

वृहत्ताल
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीताल या हिंताल नाम का वृक्ष।

वृहत्तिक्त
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा पाठा।

वृहत्तिक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पाठा। पाढ़ा।

वृहत् तृण
संज्ञा पुं० [सं०] बाँस।

वृहत्त्रयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संस्कृत के किरातार्जुनीय (भारवि), शिशुपालवध (माघ) औऱ नैषध (श्रीहर्ष) महाकाव्य। उ०— महाकाव्यों की वृहत्त्रयी (किरात, माघ, नैषध) में इसका प्रमुख स्थान है।—बी० श० महा, पृ० २३।

वृहत्त्वक्
संज्ञा पुं० [सं० वृहत्त्वच्] सप्तपर्ण या सतिवन नामक वृक्ष।

वृहत्त्वच
संज्ञा पुं० [सं०] नीम का पेड़।

वृहतपंचमूल
संज्ञा पुं० [सं० वृहत्पञ्चमूल] बेल, सोनापाठा, गंभारो, पाँडर, और गनियारी इन पाँचों का समूह।

वृहत्पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथीकंद। २. पठानी लोध। ३. बथुआ नाम का साग।

वृहत्पत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. त्रिपर्णी कंद। २. काममर्द। कसौंदी।

वृहत्पत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिपर्णी कंद।

वृहत्पर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] पठानी लोध।

वृहत्पर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महा शमपुष्पी। बड़ी बनसनई।

वृहत्पाटलि, वृहत्पाटली
संज्ञा स्त्री० [सं०] धतुरा।

वृहत्पाद
संज्ञा पुं० [सं०] वट का वृक्ष। बरगद।

वृहत्पारेवत
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा पारेवत वृक्ष।

वृहत्पाली
संज्ञा पुं० [सं० वृहत्पालिन्] बनजीरक। काली जीरी।

वृहत्पीलु
संज्ञा पुं० [सं०] महापीलु नामक वृक्ष। पहाड़ी अखरोट।

वृहत्पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. केला। २. सफेद कुम्हड़ा। पेठा।

वृहत्पुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शणपुष्पी। बनसनई।

वृहत्पुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सन। सनई।

वृहत्फल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुम्हड़ा। २. कटहल। ३. जामुन। ४. चिचड़ा।

वृहत्फला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कद्दू। लौकी। २. कड़वी लौकी। तितलौकी। ३. महेंद्रवारुणी। इनारुन। ४. बड़ा जामुन। ५. सफेद कुम्हड़ा। पेठा।

वृहदंग
संज्ञा पुं० [सं० वृहदङ्ग] हाथी।

वृहदम्ल
संज्ञा पुं० [सं०] कमरख का पेड़।

वृहदश्ववार
संज्ञा पुं० [सं० वहत्+ अश्ववार] अश्वसेना का नायक। घुड़सवार सेना का संचालक। अश्वसेनाधिपति।—प्रा० भा०, पृ० ४४४।

वृहदेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी इलायची।

वृहद्
वि० [सं०] दे० 'वृहत्'।

वृहदगुह
संज्ञा पुं० [सं०] वृदहगृह या कारुष नामक प्राचीन देश।

वृहदगृह
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल के एक देश का नाम जो विध्यवर्वत के पश्चिम में मालव देश के पास था। कारुष देश।

वृहदगोल
संज्ञा पुं० [सं०] तरबुज।

वृहद्दंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वृहत्+ दन्ती] बड़ी दंती। द्रवंती।

वृहद्दल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पठानी लोध। २. सप्तपर्ण। सतिवन। ३. श्रीताल या हिंताल नामक वृक्ष। ४. लाल लहसुन। ५. लजालु। लज्जावंती।

वृहद्दला
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाजवंती। लजालू।

वृहद्रद्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रोण नामक परिमाण।

वृहद्धल
संज्ञा पुं० [सं०] महालांगल [को०]।

वृहद्धान्य
संज्ञा पुं० [सं०] यवनाल। ज्वार।

वृहदबदर
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा बेर।

वृहदबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीतपुष्पा। सहदेई। २. पठानी लोध। ३. लजालू। लज्जावंती।

वृहदबीज
संज्ञा पुं० [सं०] आम्रातक। अमड़ा।

वृहदभंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० वृहदभण्डी] त्रायमाणा नाम की लता।

वृहदभट्टारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।

वृहदभानु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. सूर्य। ३. भागवत के अनुसार सत्यभामा के एक पुत्र का नाम। ४. चित्रक। चाता।

वृहद्रथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. यज्ञपात्र। ३. सामवेद के एक अंश का नाम। ४. भागवत के अनुसार शतधन्वा के एक पुत्र का नाम। ५. देवरात के एक पुत्र का नाम। ६. एक प्रकार का मंत्र।

वृहद्रथ (२)
वि० [वि० स्त्री० वृहद्रथा] जिसके पास बहुत से रथ हों।

वृहद्रथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम।

वृहद्राय
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू पक्षी।

वृहद्रावी
संज्ञा पुं० [सं० वृहत् + राविन्] छोटा उल्लु [को०]।

वृहदवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामक्खी।

वृहद्रवल्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. पठानी लोध। २. सप्तपर्ण। सतिवन।

वृहद्वल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वृहद्वल्क'।

वृहदवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] करेला।

वृहदवात
संज्ञा पुं० [सं०] देवधान्य। पुनेरा।

वृहदवारुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महेंद्रवारुणी। इन रू।

वृहदवीज
संज्ञा पुं० [को०] अमड़ा। आम्रातक [को०]।

वृहन्नल
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहु। बाँह। २. अर्जुन। दे० 'वृहन्नला'। ३. बृहन्नाल। बड़ा नरसल (को०)।

वृहन्नला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्जुन का उस समय का नाम जब वे वनवास के उपरांत अज्ञातवास के समय राजा विराट के यहाँ स्त्री के वेश में रहकर उसको कन्या का नाच गाना सिख- लाते थे।

वृहन्नाल
संज्ञा पुं० [सं०] नरसल। नरकट।

वृहन्निंब
संज्ञा पुं० [सं० वृहदनिम्ब] महानिंब। बकायन।

वृहन्मारिच
संज्ञा पुं० [सं०] गोल मिर्च।

वृहन्मरीच
संज्ञा पुं० [सं०] काली मिर्च [को०]।

वृहल्लोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलफा नामक साग।

वृहस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के गुरु। विशेष दे० 'बृहस्पति'। (१, और २)।

वृही
संज्ञा पुं० [सं०] साठी धान्य।