विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/ही

विक्षनरी से

हींताल
संज्ञा पुं० [सं० हीन्ताल] दे० 'हिंताल' [को०]।

हींदू †
संज्ञा पुं० [सं० हिन्दु] दे० 'हिंदू'। उ०—हींदू तुरके मिलल वास। कीर्ति०, पृ० ४८।

हीँग
संज्ञा स्त्री० [सं० हिङ्गु] १. एक छोटा पौधा जो अफगनिस्तान और फारस में आपसे आप और बहुत होता है। २. इस पौधे का जमाया हुआ दुध या गोंद जिसमें बड़ौ तीक्ष्ण गंध होती है और जिसका व्यवहार दवा और नित्य के मसाले में बघार के लिये होता है। विशेष—हीँग का पौधा दो ढाई हाथ ऊँचा होता है और इसकी पत्तियों का समूह एक गोल राशि के रूप में होता है। इसकी कई जातियाँ होती हैं। कुछ के पौधे तो साल ही दो साल रहते हैं और कुछ की पेड़ी बहुत दिनों तक रहती है, जिसमें समय समय पर नई नई टहनियाँ और पत्तियाँ निकला करती हैं। पिछले प्रकार के पौधों की हीँग घटिया होती है और 'हीँगड़ा' कहलाती है। हींग के पौधे अफगानिस्तान, फारस के पूर्वी हिस्से (खुरासान, यज्द) तथा तुर्किस्तान के दक्षिणी भाग में बहुतायत से होते हैं। पर भारत में जो हीँग आती है, वह कंधारी हीँग (अफगानिस्तान की) है। हीँग का व्यवहार बघार के अतिरिक्त औषध में भी होता है। यह शूलनाशक, वायुनाशक, कफ निकालनेवाली, कुछ रेचक और उत्तेजक होती है। पेट के दर्द, वायगोला और हिस्टीरिया (मूर्छा रोग) में यह बहुत उपकारी होती है। आयुर्वेद में इसके योग से कई पाचक चूर्ण और गोलियाँ बनती हैं। हीँग में व्यापारी अनेक प्रकार की मिलावट करते हैं। शुद्ध खालिस हीँग 'तलाव हीँग' कहलाती है।

हीँगड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० हींग] बनियों का एक गोत्र। उ०—व्है हेको जिण धीँगड़े, हीँगड़ धीँगड़ मल्ल।—बाँकी० ग्रं०, भा० २. पृ० ७३।

हीँगड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हीँग + ड़ा (प्रत्य०)] एक प्रकार की घटिया हीँग।

हीँछना पु
क्रि० स० [सं० इच्छा] किसी की कामना करना। चाहना। इच्छा करना।

हीँछा ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] दे० 'इच्छा'।

हीँठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जोंक।

हींडना †
क्रि० स० [सं० या प्रा० हिंडन] १. अस्त व्यस्त करना। तरल वस्तु को हिलाकर गंदा कर देना। घँघोलना। २. दे० 'हुड़कना'।

हीँण †
संज्ञा पुं० [सं० हीन, प्रा० हीण] एक प्रकार का काव्यदोष। उ०—हीँण दोष सो हुवै, जात पित मुदो न जाहर।—रघु० रू०, पृ० १४।

हीँस
संज्ञा स्त्री० [सं० ह्लेष] घोड़े या गधे के बोलने का शब्द। रेँक या हिनहिनाहट।

हीँसना
क्रि० अ० [हिं० हीँस + ना (प्रत्य०)] १. घोड़े का बोलना। हिनहिनाना। उ०—(क) हीँसत हय, बहु बारन गाजै। जहँ तहँ दीरघ दुंदुभि बाजैं।—केशव (शब्द०)। (ख) हीँस रहे थे उधर अश्व उद्ग्रीव हो, मानो उनका उड़ा जा रहा जीव हो।—साकेत, पृ० १२७। २. गदहे का बोलना। रेँकना।

हीँसा ‡
संज्ञा पुं० [अ० हिस्सह्] दे० 'हिस्सा'।

हीँहीँ
संज्ञा स्त्री० [अनु०] हँसने का शब्द।

ही (१)
अव्य० [सं० हि (निश्चयार्थक)] एक अव्यय जिसका व्यवहार जोर देने के लिये या निश्चय, अनन्यता, अल्पता, परिमिति तथा स्वीकृति आदि सूचित करने के लिये होता है। जैसे,— (क) आज हम रुपया ले ही लेंगे। (ख) वह गोपाल ही का काम है। (ग) मेरे पास दस ही रुपए हैं। (घ) अभी यह प्रयाग ही तक पहुँचा होगा। (च) अच्छा भाई हम न जायँगे, गोपाल ही जायँ। इसके अतिरिक्त और प्रकार के भी प्रयोग इस शब्द के प्राप्त होते हैं। कभी इस शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि 'औरों की बात जाने दीजिए'। जैसे,—तुम्हीं बताओ इसमें हमारा क्या दोष ?।

ही (२)
संज्ञा पुं० [सं० हृत्,प्रा०, अप० हिअ > ही] दे० 'हिय', 'हृदय'। उ०—(क) मन पछितैहैं अवसर बीते। दुर्लभ देह पाइ हरि- पद भजु करम बचन अरु ही ते।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५५७। (ख) उघरहिँ विमल बिलोचन ही के। मिटहिँ दोष दुख भव रजनी के।—मानस १।१। य़ौ०—हीतल।

ही पु (३)
क्रि० अ० [सं० √ भू, प्रा० भव, हव, हिव, हो] ब्रजभाषा के 'होनो' (= होना) क्रिया के भूतकाल 'हो' (= था) का स्त्रीलिंग गत रूप। थी। उ०—एक दिवस मेरे गृह आए, मैं ही मथति दही।—सूर (शब्द०)।

हीअ
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, प्रा० हिअ] दे० 'हिअ'।

हीअर पु †
संज्ञा पुं० [सं० हदय] हिआव। साहस। हृदय। उ०—कहिसि कि धनि जननी धनि पीता। धनि हीअर जेहि यह रन जीता।—चित्रा०, पृ० १५१।

हीक
संज्ञा स्त्री० [सं० हिक्का] १. हिचकी। क्रि० प्र०—आना। २. हलकी अरुचिकर गंध। जैसे,—बकरी के दूध में से एक प्रकार की हीक आती है। क्रि० प्र०—आना। मुहा०—हीक मारना = बसाना। रह रहकर दुर्गंध करना।

हीचना पु †
क्रि० अ० [अनु० हिच्] हिचकना। आगा पीछा करना। जल्दी प्रवृत्त न होना। उ०—कहत सारदहु कै मति हीचे। सागर सीप कि जाहि उलीचे।—तुलसी (शब्द०)।

हीछना †
क्रि० अ० [हिं० हीँछ + ना (प्रत्य०)] इच्छा करना। कामना करना। चाहना।

हीछा †
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] दे० 'इच्छा'।

हीज (१)
वि० [फा़० हीज] १. नपुंसक। पुंस्त्वविहीन। २. कायर। उ०—जन रज्जब गुरु बयण सुणि विलै होत बप बीज। यथा हाक हनुमंत की सुनत होत नर हीज।—रज्जब०, पृ० ९।

हीज (२)
वि० [देश०] आलसी। मट्ठर। काहिल।

हीठना
क्रि० अ० [सं० उप० अधि + √ स्था, अधिष्ठा, प्रा० अहिट्ठा] १. पास जाना। समीप होना। फटकना। जैसे—उसे अपने यहाँहीठने न देना। उ०—(क) झा झा अरुझि अरुझि कित जाना। हीठत ढूँढ़त जाइ पराना।—कबीर (शब्द०)। (ख) बहुत दिवस में हीठिया शून्य समाधि लगाय। करहा परिगा गाँड़ में दूरि परे पछिताय।—कबीर (शब्द०)। २. जाना। पहुँचना। उ०—(क) जेहि बन सिंह न संचरे, पंछी नहीं उड़ाय। सो बन कबिरा हीठिया, शून्य समाधि लगाय।— कबीर (शब्द०)। (ख) मन तो कहै कब जाइए, वित्त कहै कब जाउँ। छै मासे के हीठते आध कोस पर गाउँ।— कबीर (शब्द०)।

हीठा (१)
क्रि० वि० [प्रा० हेट्ठ] पास। नीचे। उ०—नौ सौ करी ताहि के हीठा। गुरू प्रसाद सबै हम दीठा। कबीर सा०, पृ० ५।

हीठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० अधिष्ठा] वह स्थान जहाँ कोई बहुधा बैठता हो। अड्डा।

हीणमान पु
वि० [सं० ह्रीमान या हीनमान] हतवीर्य। बेइज्जत। लज्जायुक्त। शर्मिदा। उ०—राज राव अनै राण पिनाक पै धरे पाण। हिले होय हीणमान दई वाण दई वाम।—रघु० रू०, पृ० ७६।

हीत पु
वि० [सं० हित] हित करनेवाला। हितू। दे० 'हित' उ०— ऐसी विपति भई मोहि ऊपर कोई ना हीत हमारो।—धरम० श, पृ० २१।

हीतल पु
संज्ञा पुं० [सं० हृत्तल] हृदयस्थल। हृदय। उ०—दरस परस में सुरूपवान सीतल है, हीतल में जाइ—अनुभावी कहें होत तात।—अपनी०, पृ० १०५।

हीता
संज्ञा पुं० [अ० हीतह्] १. आहाता। घेरा। २. सीमा [को०]।

हीताई
संज्ञा स्त्री० [सं० हित + हिं० आई (प्रत्य०)] दे० 'हिताई'। उ०—पलटू पाँव न दीजिए खोटा यह संसार। हीताई करि मिलत है पेट महै तरवार।—पलटू०, पृ० ११२।

हीन (१)
वि० [सं०] [स्त्री० हीना] १. परित्यक्त। छोड़ा हुआ। २. रहित। जिसमें न हो। शून्य। वंचित। खाली। विना। बगैर। जैसे,—शक्तिहीन, गुणहीन, धनहीन, बलहीन, श्रीहीन। २. निम्न कोटि का। नीचे दर्जे का। निकृष्ट। घटिया। जैसे—हीन जाति। ३. ओछा। नीच। बुरा। असत्। खराब। कुत्सित। जैसे,—हीन कर्म । उ०—चंपक कुसुम कहा सरि पावै। बरनौ हीन बास बुरि आवै।— नंद० ग्रं०, पृ० १२२। ४. अनुपयुक्त। तुच्छ। नाचीज। जिसमें कुछ भी महत्व न हो। ५. सुख समृद्धि रहित। दीन। जैसे,—हीन दशा। ६. पथभ्रष्ट। भटका हुआ। साथ या रास्ते से अलग जा पड़ा हुआ। जैसे—पथहीन। ७. अल्प। कम। थोड़ा। ८. दीन। नम्र। उ०—रहै जो पिय के आयसु औ वरतै होइ हीन। सोई चाँद अस निरमल जनम न होई मलीन।—जायसी (शब्द०)। ९ (वाद में) पराजित या हारा हुआ (को०)। १०. दोषयुक्त। सदोष।

हीन (२)
संज्ञा पुं० १. प्रमाण के अयोग्य साक्षी। बुरा गवाह। विशेष—स्मृतियों में पाँच प्रकार के हीन साक्षी कहे गए हैं, अन्यवादी, क्रियाद्वेषी, नोपस्थायी, निरुत्तर और आहूतप्रपलायी। २. न होने की स्थिति। अभाव। कमी (को०)। ३. घटाना। बाकी। व्यवकलन (को०)। ४. अधम नायक। (साहित्य)। यौ०—हीनकुष्ठ। हीनकोश। हीनक्रतु। हीनज। हीनजाति। हीननायक (नाटक)। हीनसेवा।

हीन (३)
संज्ञा पुं० [अ०] काल। ससय।

हीनक
वि० [सं०] रहित। हीन [को०]।

हीनकर्मा
वि० [सं० हीनकर्मन्] १. यज्ञादि विधेय कर्म से रहित। अपना निर्दिष्ट कर्म या आचार न करनेवाला। जैसे,— हीनकर्मा ब्राह्मण। २. निकृष्ट कर्म करनेवाला। बुरा काम करनेवाला।

हीनकुल
वि० [सं०] बुरे या नीच कुल का। बुरे खानदान का।

हीनकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कुष्ठ रोग।

हीनकोश
वि० [सं०] जिसका कोश रिक्त हो। जिसके खजाने में धन संपत्ति न हो।

हीनक्रतु
संज्ञा पुं० यज्ञविरहित। यागदि से रहित।

हीनक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में एक दोष जो क्रमभंग होने पर माना जाता है। विशेष—काव्य में हीनक्रम दोष उस स्थान पर माना जाता है जहाँ जिस क्रम से गुण गिनाए गए हों, उसी क्रम से गुणी न गिनाए जायँ। जैसे,—जग की रचना कहि कौन करी। केइ राखन कीजिय पैजधरी। अतिं कोपि कै कौन सँहार करै। हरिजू, हर जू, विधि बुद्धि ररै। यहाँ प्रश्नों के क्रम से उत्तर इस प्रकार होना चाहिए था—विधि जू, हरि जू, हर बुद्धि ररै। पर वैसा न होकर क्रम का भंग कर दिया गया है।

हीनक्रिय
वि० [सं०] दे० 'हीनकर्मा'।

हीनचरित
वि० [सं०] जिसका आचरण बुरा हो।

हीनच्छिंदिक
संज्ञा पुं० [सं० हीनातच्छिन्दिक] कौटिल्य द्वारा वर्णित वह संघ या श्रेणी जो कुल, मान मर्यादा, शक्ति आदि में बहुत घटकर हो।

हीनज
वि० [सं०] जो निम्न कुल में उत्पन्न हो [को०]।

हीनजाति
वि० [सं०] १. जो जातिच्युत हो। २. जो निम्न जाति या वर्ण का हो [को०]।

हीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभाव। राहित्य। कमी। २. दोष या त्रुटियुक्त होना। सदोषता। उ०—गीध सिला सबरी की सुधि सब दिन किए होइगी न साई सों सनेह हित हीनता।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५८९। ३. क्षुद्रता। तुच्छता। ४. ओछापन। ५. बुराई। निकृष्टता।

हीनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हीनता'।

हीननायक
वि० [सं०] जिस काव्य या नाटक का नायक निकृष्ट या अधम हो [को०]।

हीनपक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरा हुआ पक्ष। तर्क में किसी की ऐसी बात जो प्रमाण द्वारा सिद्ध न हो सके। ऐसी बात जो दलीलों से साबित न हो सके। २. कमजोर मुकदमा।

हीनपक्ष (२)
वि० अरक्षित। पक्ष या सहायहीन [को०]।

हीनप्रतिज्ञ
वि० [सं०] जो अपनी प्रतिज्ञा से हीन हो। वचन का पालन न करनेवाला [को०]।

हीनबल
वि० [सं०] बलराहित या जिसका बल घट गया हो। शक्ति- रहित। कमजोर।

हीनबाहु
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक गण का नाम।

हीनबुद्धि
वि० [सं०] बुद्घिशून्य। दुर्बुद्धि। जड़। मूर्ख।

हीनमाति
वि० [सं०] बुद्धिशून्य। जड़। मूर्ख। उ०—इक हौ दीन मलीन हीनमति बिपति जाल अति घेरो। तापर सहि न जात करुनानिधि मन को दुसह दरेरो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३१।

हीनमूल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] याज्ञवल्कय स्मृति के अनुसार कम दाम। किसी वस्तु का कम मूल्य।

हीनमूल्य (२)
वि० जिसका दाम या मूल्य कम हो। कम दाम का।

हीनयान
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध सिद्धांत की आदि और प्राचीन शाखा जिसके ग्रंथ पाली भाषा में हैं। विशेष—इस शाखा का प्रचार एशिया के दक्षिण भागों में, सिंहल, बरमा और स्याम आदि देशों में है, इसी से यह 'दक्षिण शाखा' के नाम से भी प्रसिद्ध है। 'यान' का अर्थ है निर्वाण या मोक्ष की ओर ले जानेवाला रथ। हीनयान के सिद्धांत सीधे सादे रूप में अर्थात् उसी रूप में हैं जिस रूप में गौतम बुद्ध ने उनका उपदेश किया था। पीछे 'महायान' शाखा में न्याय, योग, तंत्र आदि बहुत से विषयों के संमिलित होने से जटिलता आ गई। वैदिक धर्मानुयायी नैयायिकों के साथ खंडन मंडन में प्रवृत्त होनेवाले बौद्ध महायान शाखा के थे, जो क्षणिकवाद आदि सिद्धांतों पर बहुत जोर देते थे। हीनयान आराधना और उपासना का तत्व न रहने से जन- साधारण के लिये रूखा था क्योंकि इस शाखा के अनुयायी बुद्धवचन को प्रमाण मानते हैं। इससे 'महायान शाखा' के बहुत अनुयायी हुए जो बुद्ध, बोधिसत्वों, बुद्ध की शक्तियों (जो तांत्रिकों की महाविद्याएँ हैं) आदि के अनुग्रह के लिये पूजा और उपासना में प्रवृत्त रहने लगे। इससे 'हीनयान' का यह अर्थ लिया गया कि उसमें बहुत कम लोगों के लिये जगह है।

हीनयोग (१)
वि० [सं०] योगभ्रष्ट।

हीनयोग (२)
संज्ञा पुं० आयुर्वेद के अनुसार उचित परिमाण से कम ओषधि मिलाना।

हीनयोनि
वि० [सं०] निम्न जाति का। जिसकी उत्पत्ति अच्छे कुल में न हो।

हीनरस
संज्ञा पुं० [सं०] काव्य में एक दोष जो किसी रस का वर्णन करते समय उस रस के विरुद्ध प्रसंग लाने से होता है। विशेष—यह वास्तव में रसविरोध ही है, जैसा केशव के इस उदाहरण से प्रकट होता है—'दै दधि, 'दीनो उधार हो केशव,' 'दान कहा जब मोल लै खैहै'। 'दीने बिना तो गईहैँ जुगई' 'न गई, न गई घर ही फिरि जैहैं'। 'गो हितु बैर कियो' 'कब हो हितु बँरु किए बरु नीकी ह्वै रैहैँ'। 'बैरु के गोरस बेचहुगी' 'अहो बेच्यो न बेच्यो तौ ढारि न दैहैँ'। इस प्रश्नोत्तर में जो रोषभरी कहा- सुनी है, वह शृंगार रस की पोषक नहीं है।

हीनरोमा
वि० [सं० हीनरोमन्] केशहीन। खल्वाट। गंजा [को०]।

हीनलोमा
वि० [सं० हीनलोमन्] केशहीन। खल्वाट।

हीनवर्ग
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'हीनवर्ण'।

हीनवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नीच जाति का वर्ण। शूद्र वर्ण।

हीनवर्ण (२)
वि० १. हीन वर्ण या जाति का। २. निम्न श्रेणी का। निम्न वर्ग का।

हीनवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिथ्या तर्क। फजूल की बहस। २. कमजोर दलील। ३. मिथ्या साक्ष्य। झूठी गवाही जिसमें पूर्वापर विरोध हो।

हीनवादी (१)
संज्ञा पुं० [सं० हीनवादिन्] [स्त्री० हीनवादिनी] १. वह जिसका लाया हुआ अभियोग गिर गया हो। वह जिसका दावा खारिज हो गया हो। वह जो मुकदमा हार जाय। २. परस्पर विरोधी कथन करनेवाला साक्षी। खिलाफ बयान करनेवाला गवाह।

हीनवादी (२)
वि० १, परस्पर विरोधी या असंगत बातें कहनेवाला। २. दोषपूर्ण या असंगत गवाही देनेवाला। ३. जो बोल न पाता हो। मूक। गूँगा। ४. जो वाद में पराजित हो। वाद में हारा हुआ [को०]।

हीनवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] हीनबल। कमजोर।

हीनसख्य
वि० [सं०] असामाजिक तत्वों या क्षुद्र लोगों से दोस्ती करनेवाला। जिसके मित्र निम्न कोटि के हों [को०]।

हीनसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० हीनसन्धि] अपने से मिम्न श्रेणी के या दृष्ट राजा के साथ किया गया समझौता [को०]।

हीनसामंत
संज्ञा पुं० [सं० हीनसामन्त] सामंतों से रहित अथवा अधिकारच्युत नरेश। वह राजा जो राज्याधिकार से च्युत कर दिया गया हो [को०]।

हीनसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपने से मिम्न कोटि के लोगों की चाकरी। नीचों की सेवा। टहल [को०]।

हीनहयात (१)
संज्ञा पुं० [अ०] जीवनकाल। वह समय जिसमें कोई जीता रहा हो। मुहा०—हीनहयात में = जीवनकाल में। जिंदगी में। जीते जी।

हीनहयात (२)
अव्य० १. जब तक जीवन रहे तब तक। जब तक कोई जीता रहे तब तक। जिंदगी भर। जिंदगी भर तक के लिये। जैसे,—हीनहयात मुआफी।

हीनहयाती
वि० [अ०] जीवन भर के लिये प्राप्त। यौ०—हीनहयाती काश्त = वह जमीन जिसपर जीवन भर किसी का अधिकार रहे। हीनहयाती काश्तकार = वह काश्तकार जिसका जीवन भर जमीन पर अधिकार मान्य हो।

हीनांग
वि० [सं० हीनाङ्ग] १. जिसका कोई अंग न हो। खंडित अंगवाला। जैसे,—लूला, लँगड़ा इत्यादि। २. जो सर्वांगपूर्ण न हो। अधूरा। नामुकम्मल।

हीनांगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हीनाङ्गी] १. वह स्त्री जिसका कोई अंग हीन हो। विशेष—हीनांगी और अधिकांगी कन्या का वरण स्मृतिकारों ने दोषपूर्ण कहा है। इससे पति का विनाश और उसका शीलनाश होता है। २. छोटी पिपीलिका। छोटी च्यूँटी [को०]।

हीनांशु
वि० [सं०] जो किरणों से रहित या हीन हो [को०]।

हीना
संज्ञा स्त्री० [अ० हिना] मेंहदी। दे० 'हिना'। उ०—लोनिये का लोन गिरा दूना हुआ। तेली का तेल गिरा हीना हुआ।— दक्खिनी०, पृ० ४६६।

हीनापहीन
संज्ञा पुं० [सं०] जुरमाने के साथ हरजाना। अर्थदंड सहित हानि की पूर्ति। विशेष—कौटिल्य के अनुसार ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त के समय में यदि राजकीय कारखाने में जुलाहे काम सूत या कपड़े बनाते थे तो उन्हें 'हीनापहीन' देना पड़ता था।

हीनार्थ
वि० [सं०] १. जिसका कार्य सिद्ध न हुआ हो। विफल। २. जिसे लाभ न हुआ हो।

हीनित
वि० [सं०] १. रहित। वंचित। २. वियुक्त। विच्छिन्न। ३. कम किया हुआ। घटाया हुआ [को०]।

हीनोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काव्य में वह उपमा जिसमें बड़े उपमेय के लिये छोटा उपमान लाया जाय। बड़े की छोटे से उपमा।

हीमालइ पु †
संज्ञा पुं० [सं० हिमालय] दे० 'हिमालय'। उ०—जे नर उलग ईण महूरत जाई। आवण का साँसा पड़ई। जाणि हिमालइ राजा गलीया हो जाई।—बी० रासो०, पृ० ४८।

हीमिया
संज्ञा स्त्री० [अ०] इंद्रजाल। माया। जादू [को०]।

हीय पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय] दे० 'हिय'। उ०—कवि मतिराम ढिग बैठे मानभावनजू दुहुँन के हीय अरबिंद मोद सरसै।—मति० ग्रं०, पृ० २८४।

हीयड़ा, हीयणा †
संज्ञा पुं० [सं० हृदय + अप० ड़ा (प्रत्य०), अप० हिअड़] दे० 'हियरा'। उ०—(क) राव कहइ सुणि राज- कुमार। दूमनी काई हीयड़इ वरनारि।—बी० रासो, पृ० ३९। (ख) चीर सभाल्या नुँ पीवइ नीर। जाँणे हीयणइ हरणी। हणी।—बी० रासो, पृ० ६१।

हीयरा पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, अप० हिअड] दे० 'हियरा'।

हीया पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय प्रा० हिअय, हिअ] दे० 'हिया'। उ०— (क) काँई कहैसी सासरइ। गाँव न उतरयो हीया थी एक।—बी० रासो, पृ० २४। (ख) चुप रहौ ऊधो सिर काहे लेत तूदो अरे, हीयो दुख रूधो बूधो तेरे घर कौ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १३१।

हीर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा नामक रत्न। २. वज्र। बिजली। ३. ३. सर्प। साँप। ४. सिंह। ५. मोती की माला। ६. शिव का नाम। ७. नैषधचरित महाकाव्य के रचयिता श्रीहर्ष के पिता का नाम (को०)। ८. छप्पय के ६२ वेँ भेद का नाम। ९. एक वर्ण- वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में भगण, सगण, नगण, जगण, नगण और रगण होते हैं। १०. एक मात्रिक छंद जिसमें ६-६ और ११ के विराम से २३ मात्राएँ होती हैं।

हीर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० हीरा] १. किसी बस्तु के भीतर का सार भाग। गूदा या सत। सार। जैसे,—जौ का हीर, गेहूँ का हीर, सौंफ का हीर। २. लकड़ी के भीतर का सार भाग जो छाल के नीचे होता है। जैसे,—इसके हीर की लकड़ी मजबूत होती है। ३. शरीर की सार वस्तु। धातु। वीर्य। जैसे,—उसकी देह का हीर तो निकल गया। ४. शक्ति। बल।

हीर (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की लता। विशेष—यह लता प्रायः सारे भारत में पाई जाती है और इसकी टहनियों और पत्तियों पर भूरे रंग के रोएँ होते हैं। यह चैत वैशाख में फूलती है। इसकी जड़ और पत्तियों का व्यवहार ओषधि रूप में होता है। इसके पके फलों के रस से बैंगनी रंग की स्याही बनती है जो बहुत टिकाऊ होती है।

हीरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा नामक रत्न। उ०—नव उज्जवल जलधार, हार हीरक सी सोहति।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२। २. हीर नामक एक छंद। दे० 'हीर'।

हीरकजयंती
संज्ञा स्त्री० [सं० हीरक + जयन्ती] १. किसी शासन या किसी व्यक्ति के जीवन के साठवें वर्ष का उत्सव या समारोह। षष्ठिपूर्ति उत्सव। २. किसी संस्था, समाज या सभा की स्थापना के साठ वर्ष पर होनेवाला समारोह। डायमंड जुबिली।

हीरकहार
संज्ञा पुं० [सं०] हीरे की माला। हीरे का हार।

हीरद
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, प्रा० हिअय, अप० हिअड़] दे० 'हृदय'। उ०—हीरद कमल माँही तेरो ध्यान करती हूँ।—दक्खिनी०, पृ० १२६।

हीरांग
संज्ञा स्त्री० [सं० हीराङ्ग] इद्र का वज्र [को०]।

हीरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी का एक नाम। २. तौलांबुका। तिलचट्टा। ३. काश्मरी। गंभारी। ४. पिपीलिका [को०]।

हीरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० हीरक] १. एक रत्न या बहुमूल्य पत्थर जो अपनी चमक और कड़ाई के लिये प्रसिद्ध है। वज्रमणि। हीरक। हीर। विशेष—आधुनिक रसायन शास्त्र के अनुसार हीरा कारबन या कोयले का ही विशेष रूप है जो प्राकृतिक दशा में पाया जाता है। यह संसार के सब पदार्थों से कड़ा है, इसी से कवि कठोरता के उदाहरण के लिये इसका नाम लाया करते हैं जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है—'सिरिस सुमन किमि बेधै हीरा'। यह अधिकतर तो सफेद अर्थात् बिना रंग का होता है, पर पीले, हरे, नीले और कभी कभी काले हीरे भी मिलजाते है। यह रत्न सबसे बहुमूल्य माना जाता है और भिन्न भिन्न रंगों की आभा या छाया देता है। रत्नपरीक्षा की पुस्तकों में हीरे की पाँच छायाएँ कही गई हैं—लाल, पीली, काली, हरी और श्वेत। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शूद्र वर्ण द्वारा भी इसका भेद किया गया है। श्वेत रंग का विप्र, रवितम रंग का क्षत्रिय, पीतवर्ण का वैश्य और असित अर्थात् नीला, हरा या काले रंग का हीरा शुद्र वर्ण का माना गया है। व्यवहार के लिये हीरा कई रूपों में काटा जाता है जिससे प्रकाश छोड़ने के पहलों के बढ़ जाने से इसकी आभा बढ़ जाती है। इसके पहल काटने में भी बड़ी तारीफ है। बहुत उच्छे हीरे को 'पहले पानी' का हीरा कहते हैं। रत्नपरीक्षा में हीरे के पाँच गुण कहे गए हैं—अठपहल छकोना होना, लघु, उज्वल और नुकीला होना। मुख्य दोष है—मलदोष। यदि बीच में मल (भैल) दिखाई दे तो वह हीरा बहुत ही अशुभ कहा गया है। आजकल होरा दक्षिण अफ्रिका में बहुत पाया जाता है। भारतवर्ष की खानें अब प्रायः खाली हो गई हैं। 'पन्ना' आदि कुछ स्थानों में अब भी थोड़ा बहुत हीरा निकलता है। किसी समय दक्षिण भारत हीरे के लिये प्रसिद्ध था। जगत्प्रसिद्ध 'कोहेनूर' नाम का हीरा गोलकुंडे की खान का कहा जाता है। यौ०—हीरा आदमी या व्यक्ति = स्वभाव, विचार और व्यवहार आदि की दुष्टि से बहुत ही अच्छा व्यक्ति। हीरा कट = (१) हीरी की तरह कटा हुआ। (२) कई पहलों का कटाव। डायमंड कट। डंबल काट। हीरा कसीस। हीरा दोषी। हीरानखी। हीरामन। मुहा०—हीरा खाना या हीरे की कनी चाटना = हीरी का चूर खाकर आत्महत्या करना। २. बहुत ही अच्छा आदमी। नररत्न। (लाक्षणिक)। जैसे— वह हीरा आदमी था। ३. बहुत उत्तम वस्तु। बहुत बढ़िया या चोखी चीज। (लाक्षणिक)। ४. दुंबे भेड़े की एक जाति। ५. रुद्राक्ष या इसी प्रकार का और कोई एक अकेला मनका जो प्रायः साधु लोग गले में पहनते हैं।

हीरा कसीस
संज्ञा पुं० [हिं० हीर + सं० कसीस]। लोहे का वह विकार जो गंधक और आक्सिजन के रासायनिक योग से होता है और जो देखने में कुछ हरापन लिए मटमैले रंग का होता है। विशेष—लोहे को गंधक के तेजाब में गलाने से हीरा कसीस निकल सकता है, पर इस क्रिया में लागत अधिक पड़ती है। खान के मैले लोहे को हवा और सीड़ में छोड़ देने से भी कसीस निकलता है। हवा और सीड़ के प्रभाव से इससे एक प्रकार का रस निकलता है जिसमें कसीस और गंधक का तेजाब दोनों रहते हैं। इसमें लौहचूर का थोड़ा योग कर देने से सबका हीरा कसीस हो जाता है। इसका व्यवहार स्याही, रंग आदि बनाने में तथा औषध के लिये भी होता है।

हीरादोषी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हीरा + दोष] विजयसाल का गोंद जो दवा के काम में आता है।

हीरानखी
संज्ञा पुं० [हिं० हीरा + नख] एक प्रकार का बढ़िया धान जो अगहन में तैयार होता है और जिसका चावल बहुत महीन तथा सफेद होता है।

हीराना ‡
क्रि० स० [हिं० हिलाना (= घुसाना)] खाद के लिये खेत में गाय, भेंड़, बकरी आदि रखना।

हीरामन
संज्ञा पुं० [हिं० हीरा + सं० मणि या हिरण्मय] सूए या तोते की एक कल्पित जाति। विशेष—इस कल्पित तोते का रंग सोने का सा माना जाता है। इस प्रकार के तोते का वर्णन कहानियों में और पृथ्वीराज रासो, पदमावत, प्रेमाख्यान आदि काव्यग्रंथों में बहुत आता है।

हील (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वीर्य। शुक्र।

हील (२)
संज्ञा पुं० [देश०] भारत के पश्चिमी किनारे पर और सिंहल में पाया जानेवाला एक सदाबहार पेड़। विशेष—इस पेड़ से एक प्रकार का लसीला गोँद निकलता है। यह गोँद बाहर भेजा जाता है। इस पेड़ को 'अरदल' और 'गोरक' भी कहते हैं।

हील † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गीला] पनाले आदि का गंदा कीचड़। गलीज।

हील † (४)
संज्ञा पुं० खौफ। भय। डर। उ०—धूत बजारी धरम री हिए न माने हील। मन चलाय खाँपड़ा मही काढै नफो कुचील।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७।

हील (५)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] छोटी इलायची। एला [को०]।

हील (६)
संज्ञा पुं० [अं०] १. पैर के पंजे का पिछला भाग। एँड़ी। पार्ष्णि। २. पशुओं का खुर [को०]।

हीलना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षति। अपकृति। हानि [को०]।

हीलना पु (२)
क्रि० अ० [सं० हल्लन या देश०] दे० 'हिलना'।

हीला (१)
संज्ञा पुं० [अ० हीलह्] १. किसी बात के लिये गढ़ा हुआ कारण। बहाना। मिस। क्रि० प्र०—करना।—ढूँढ़ना।—होना। यौ०—हीलागर, हीलाबाज, हीलासाज = चालबाज। बहानेबाज। धोखेबाज। हीलागरी, हीलाबाजी, हीलासाजी = चालबाजी। धोखेबाजी। २. कामधंधा। रोजगार। ३. किसी बात की सिद्धि के लिये निकाला हुआ मार्ग। निमित्त। द्वारा। वसीला। ब्याज। जैसे,—इसी हीले से उसे चार पैसे मिल जायँगे। उ०—कोई चाहे हीला मिलने कतै। बजुज वास्ता मिलना कुछ खूब नई।—दक्खिनी० पृ० २१३। मुहा०—हीला निकलना = रास्ता निकलना। ढंग निकलना। हीला होना = (१) वसीला होना। जारिया होना। (२) कोई काम धंधा मिलना।

हीला † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० गीला] कीचड़।

हीलाज
संज्ञा पुं० [अ०] जन्मकुंडली। जन्मपत्री [को०]।

हीलुक
संज्ञा पुं० [सं०] इक्षुसार से निर्मित एक प्रकार का आसव [को०]।

हीस (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की कँटीली लता। विशेष—यह लता प्रायः सारे भारत में बहुत बड़े बड़े पेड़ों पर चढ़ी हुई पाई जाती है। यह गरमी में फूलती और बरसात में फलती है। इसकी पत्तियाँ और टहनियाँ हाथी बड़े चाव से खाते हैं।

हीस पु (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० या सं० ईर्ष्या] १. दे० 'हिर्स'। २. ईर्ष्या। स्पर्धा। डाह। उ०—एक सीस का मानवा, करता बहुतक हीस। लंकापति रावन गया, बीस भुजा दस सीस। कबीर सा०, पृ० ११।

हीसका †
संज्ञा स्त्री० [सं० ईर्ष्या] डाह। दे० 'हिसिष'।

ही ही
संज्ञा स्त्री० [अनु०] ही ही शब्द करके हँसने की क्रिया। तुच्छतापूर्वक हँसना। यौ०—ही ही ठी ठी करना (१) व्यर्थ और तुच्छतापूर्वक हँसना। २. हँसी मजाक करना। उ०—चारों ओर झोँटा फैलाकर डाकना कूदना बंद कर और उससे—उससे-समझी ? ही ही ठी ठी रोक।—शराबी, पृ० १२।

हु (१)
अव्य० [सं० उप, प्रा० उव] एक अतिरेकबोधक शब्द। अपि। भी। दे० 'हूँ' (१)।

हु (२)
अव्य० [सं० हुम्] १. एक शब्द जो किसी बास को सुननेवाला यह सूचित करने के लिये बोलता है कि हम सुन रहे हैं। २. स्वीकृतिसूचक या स्मृतिसूचक शब्द। हाँ। ३. संदेह। शंका (को०)। ४. आक्रोश। क्रोध (को०)। ५. विरक्ति। विरति (को०)। ६. भर्त्सना। व्यंग्य (को०)। ७. मंत्र, तंत्र आदि के अंत में प्रयुक्त शब्द। जैसे—कवचाय हुम् आदि में भी इस शब्द के प्रयोग मिलते हैं।

हुंकना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुंकारना'।

हुंकरना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुंकारना'।

हुंकार
संज्ञा पुं० [सं० हुङ्कार] १. ललकार। दपट। डाँटने का शब्द। २. घोर शब्द। गर्जन। गरज। ३. चीत्कार। चिग्घाड़। चिल्लाहट। ४. धनुष की प्रत्यंचा के टंकार की ध्वनि (को०)। ५. शूकर के गुर्राने का शब्द (को०)।

हुंकारना
क्रि० अ० [सं० हुङ्कार + हिं० ना (प्रत्य०)] १. गर्व से हुं शब्द का उच्चारण करना। ललकारना। दपटना। डाँटना। २. घोर शब्द करना। गर्जन करना। गर्जना। गरजना। ३. चिग्घाड़ना। चिल्लाना।

हुंकारनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हुङ्कार] हुंकारने का कार्य। हुड़कना। उ०—अति गति पग डारनि हुंकारनि। सींचति धरनि दूध की धारनि।—नंद० ग्रं०, पृ० २६६।

हुंकृत
संज्ञा पुं० [सं० हुङ्कृत] १. गाय आदि के रँभाने का शब्द। २. बिजली की गड़गड़ाहट। ३. जंगली सूअर की गुर्राहट या गर्जन। ४. ललकार। दपट। हुंकार [को०]।

हुंकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० हुङ्कृति] हुंकार का शब्द। उ०—छू मत तू युद्ध गान, हुंकृति, वह प्रलय तान। बज न उठें जंजीरें, हथकड़ियाँ छून प्राण।—हिम० त०, पृ० ६१।

हुंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हुञ्जिका] संगीत में रागविशेष [को०]।

हुंड
संज्ञा पुं० [सं० हुण्ड] १. मेढ़ा। मेष। २. बाघ। व्याघ्र। ३. सूअर। ग्राम सूकर। ४. जड़बुद्धि। मूर्ख। ५. राक्षस। ६. अनाज की बाल। ७. महाभारत के अनुसार एक बर्वर जाति।

हुंडन
संज्ञा पुं० [सं० हुण्डन] १. काशीखंड में वर्णित शिव के एक गण का नाम। २. शून्य या स्तब्ध हो जाना। मारा जाना। (अंग का)।

हुंडनेश
संज्ञा पुं० [सं० हुण्डनेश] शिव का एक नाम [को०]।

हुंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० हुण्डा] आग के दहकने का शब्द।

हुंडा † (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कुल्हड़। पुरवा। हंडिकासुत।

हुंडा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० हुंडी] १. वह रुपया जो किसी जाति में वर पक्ष से कन्या के पिता को ब्याह के लिये दिया जाता है। २. वह गल्ला जो खेत के स्वामी को खेती करनेवाला देता है।

हुंडाभाड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० हुंडी + भाड़ा] महसूल, भाड़ा आदि सब कुछ देकर कहीं पर माल पहुँचाने का ठेका।

हुंडावन
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुंडी] १. वह रकम जो हुंडी लिखने के समय दस्तूर की तरह पर काटी जाती है। २. हुंडी की दर।

हुंडि
संज्ञा स्त्री० [सं० हुण्डि] पके हुए चावल का पुंज। भात की ढेरी या पिंड [को०]।

हुंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० हुण्डिका] प्राचीन काल में सेना के निर्वाहार्थ दिया जानेवाला आज्ञापत्र। २. राजतरंगिणी के अनुसार निधि- पत्र या हुंडी [को०]।

हुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह पत्र या कागज जिसपर एक महाजन दूसरे महाजन को जिससे लेन देन का व्यवहार होता है, कुछ रुपया देने के लिये लिखकर किसी को रुपए के बदले में देता है। निधिपत्र। लोटपत्र। चेक। क्रि० प्र०—बेचना।—लिखना।—लेना। यौ०—हुंडी पुरजा। हुंडी बही। मुहा०—(किसी पर) हुंडी करना = किसी के नाम हुंडी लिखना। हुंडी का व्यवहार = हुंडी के द्वारा लेनदेन का व्यवहार। हुंडी खड़ी रखना = किसी विशेष कारण से हुंडी का तुरत भुगतान न करना। हुंडी पटना = हुंडी के रुपए का चुकता होना। हुंडी भेजना = हुंडी के द्वारा कोई रकम अदा करना। हुंडी का न पटना = हुंडी के रुपए का चुकता न होना। हुंडी सकारना = हुंडी के रुपए का देना स्वीकार करना। हुंडी सिकारना †= दे० 'हुंडी सकारना'। उ०—उसने यह कहकर हुंडी सिकारने से इन्कार किया।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३६४। दर्शनी हुंडी = वह हुंडी जिसके रूपए को दिखाते ही चुकता कर देने का नियम हो। मियादी हुंडी = वह हुंडी जिसके रुपए को मिति के बाद देने का नियम हो। २. उधार रुपया देने की एक रीति जिसके अनुसार लेनेवाले को साल भर में २०) का २५) या १५) का २०) देना पड़ता है।

हुंडी बही
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुंडी + वही] १. वह किताब या बही जिसमें सब तरह की हुंडियों की नकल रहती है। २. वह बही जिसमें से हुंडी काटकर दी जाती है।

हुंडी बेंत
संज्ञा पुं० [देश० हुंडी + हिं० बेंत] एक प्रकार का बेंत जिसे मयूरी बेंत भी कहते हैं।

हुंडीवाल
वि० [हिं० हुंडी + वाल (= वाला)] १. किसी के नाम हुंडी देनेवाला या उसे सकारनेवाला। २. हुंडी का कारबार करनेवाला। मूल में सूद जोड़कर किस्त पर या एक बार निश्चित अवधि पर रुपया लेनेवाला। उ०—हकनाहक पकरे सकल जड़िया कोठीवाल। हुंडीवाल सराफनर अरु जोँहरी दलाल।—अर्ध०, पृ० ४३।

हुंता पु
प्रत्य० [प्रा० हिंतो] अपादान विभक्ति या तृतीया विभक्ति। से या द्वारा। उ०—चीतारंती चुगतियाँ कुंझी रोवहियाँह। दूरा हुंता तउ पलइ जऊ न मेल्ह हियाँह।—ढोला०, दू० २०३।

हुंती पु (१)
प्रत्य० [प्रा० हिंतो] दे० 'हुंता'। उ०—जइ रूँखाँ मारू हुई छवडउ पड़ियउ तास। तइ हुंती चंदउ कियइ, लइ रचियउ आकास।—ढोला०, दू० ४३७।

हुंती (२)
वि० [सं० √ भू, प्रा० √ हु, हुअ, हव] होनेवाली। जो आगे संभावित हो। उ०—दुरजण केरा बोलड़ा मत पाँतरजउ कोय। अणहुंती हुंती कहइ सकली साँच न होय।—ढोला०, दू० ४४६।

हुंबा
संज्ञा पुं० [देश०] समुद्र की चढ़ती लहर। ज्वार। (लश०)।

हुंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० हुम्भा] गाय के रँभाने का शब्द। हंबारव [को०]।

हुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० हुम्भी] दे० 'र्हुभा', 'हंबा'।

हुँ पु (१)
अव्य० [सं० उप, प्रा० उव] भी। दे० 'हू' (१)। उ०—ऐसे हौं हुँ जानति भृंग। नाहिनै काहू लहो सुख प्रीति करि इक अंग।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४४९।

हुँ (२)
अव्य० [सं० हुम्] १. एक शब्द जो किसी बात को सुननेवाला यह सूचित करने के लिये बोलता है कि हम सुन रहे हैं। २. स्वीकृति- सूचक शब्द। हाँ।

हुँकना
क्रि अ० [सं० हुङ्कार] दे० 'हुंकारना'।

हुँकरना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुंकारना'।

हुँकारना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुंकारना'। उ०—तरु जे जानकी लाए, ज्याए हरि करि कपि, हेरै न हुँकारि झरै फल न रसाल।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३६६।

हुँकारी (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० हुँ हुँ + करना] १. 'हुँ' करने की क्रिया। वक्ता की बात सुनना सूचित करने का शब्द जो श्रोता बीच बीच में बोलता जाता है। २. स्वीकृतिसूचक शब्द। मानना या कबूल करना प्रकट करने का शब्द। हामी। मुहा०—हुँकारी देना = (१) स्वीकृतिसूचक शब्द कहना। हामी भरना। उ०—पौढ़ौ लाल कथा इक कहिहौं अति मीठी स्त्रवननि कौँ प्यारी। यह सुनि सूर श्याम मन हरषे पौढ़ि गए हँसि देत हुँकारी।—सूर०, १०।१९७। (२) कोई कथा कहानी सुनते समय बीच बीच में 'हुँ' 'हुँ' शब्द कहना जिससे कहानी कहनेवाला यह समझे कि श्रोता उसकी कहानी को सुन रहा है। उ०—सुनि सुत एक कथा कहौं प्यारी। कमलनैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर सिरोमनि देत हुँकारी।—सूर०, १०।१९८। हुँकारी भरना = दे० 'हुँकारी देना'। उ०—कहत बात हरि कछू न समुझत झूठहिं भरत हुँकारी। सूरदास प्रभु कैँ गुन तुरतहिं बिसरि गई नँदनारी।—सूर०, १०।१६७।

हुँकारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० हुण्डि(= राशि) + कारी] धुसाव के साथ झुकी लकीर जो अंक के आगे रुपया या रकम सूचित करने के लिये लगा दी जाती है। विकारी। जैसे,—१);/?/विशेष—मुद्रा की दशमलव पद्धति अपनाने के कारण अब इसका प्रचलन कम हो गया है। अव इसकी जगह बिन्दु से काम लिया जाता है। जैसे—१) की जगह अब १.२५ लिखा जाता है।

हुँड़ार
संज्ञा पुं० [सं० हुण्ड(= भेड़) + अरि (= शत्रु)] भेड़िया। बीग।

हुँडावन
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुंडी] १. हुंडी की दस्तूरी। २. हुंडी की दर।

हुँत पु
प्रत्य० [प्रा० विभक्ति 'हिंतो'] १. पुरानी हिंदी की पंचमी और तृतीया की विभक्ति। से। उ०—(क) तेहि बंदि हुँत छुटै जो पावा।—जायसी (शब्द०)। (ख) जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी।—जायसी (शब्द०)। (ग) तब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ।—जायसी (शब्द०)। २. लिये। निमित्त। वास्ते। खातिर। उ०—तुम हुँत मँडप गइउँ परदेसी।—जायसी (शब्द०)। ३. द्वारा। जरिये से। उ०—उन्ह हुँत देखै पाएउँ दरस गोसाईं केर।—जायसी (शब्द०)।

हुँति
प्रत्य [प्रा० हिंतो] लिये। निमित्त। वास्ते। खातिर। ओर से। उ०—सासु ससुर सन मोरि हुँति विनय करबि परि पायँ। मोर सोचु जनि करिअ कछु मैं बन सुखी सुभायँ।—मानस, २।९८।

हुँते
प्रत्य० [प्रा० हिंतो] दे० 'हूँत'।

हुँमस † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊष्म, हिं० ऊमस] हवा बंद होने के कारण होनेवाली बरसात की गरमी। उ०—थी खूनी बरसात, प्राण भी घुटने लगे हुँमस में। अंग्रेजी साम्राज्य फ्रांस में बढ़ा रहा बल कस में।—हंसमाला, पृ० ४०।

हुँमस † (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'हुसम'।

हुँमसना †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हुमसन'।

हु पु †
अव्य [वैदिक सं उप (= और आगे,) प्रा० उअ, हिं० ऊ] अतिरेक सूचक शब्द। कथित के अतिरिक्त और भी। जैसे,— रामहु = राम भी। हमहु = हम भी। उ०—हमहु कहब अब ठकुरसुहाती।—तुलसी (शब्द०)।

हुआँ (१)
अव्य० [हिं० वहाँ, उहाँ] दे० 'वहाँ'।

हुआँ (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] गीदड़ों के बोलने का शब्द।

हुआना पु †
क्रि० अ० [अनु० हुआँ] 'हुआँ हुआँ' करना। गीदड़ों का बोलना। उ०—जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं, हुआहिं, अधाहिं दपट्टहिं।—तुलसी (शब्द०)।

हुआसन †
संज्ञा पुं० [सं० हुताशन, प्रा० हुआसन] अग्नि। आग। उ०—तसु नंदन भोगीसराअ वर भोग पुरंदर। हुअ हुआसन जिते कंति कुसुमा उहँ सुंदर।—कीर्ति०, पृ० ३२।

हुक (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. कँटिया। टेढ़ी कील। २. दो वस्तुओं को एक में जोड़ने का झुका हुआ काँटा। अँकुसी। अँकुड़ी। ३. नाव में वह लकड़ी जिसमें डाँड़े को ठहरा या फँसाकर चलाते हैं।

हुक (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का दर्द जो प्रायः पीठ में किसी स्थान की नस पर होता है। क्रि० प्र०—पड़ना।

हुकना (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पक्षी जो 'सोहन चिड़िया' के नाम से प्रसिद्ध है।

हुकना (२)
क्रि० स० [देश०] भूल जाना। विस्मृत होना।

हुकना (३)
क्रि० स० वार या निशाना चूकना। लक्ष्य या निशाने से भ्रष्ट होना या चूकना। खाली जाना।

हुकना (४)
संज्ञा पुं० [अ० हुक्नह्] बत्ती या पिचकारी जो पाखाना आने के लिये दी जाती है। स्नेहवस्ति [को०]।

हुकम पु
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म] आदेश। दे० 'हुक्म'। उ०—(क) तब भैरव भूवाल बीरबर। कीन हुकम कालीय उंच कर।—पृ० रा०, ६।१६३। (ख) तब पात्साह ने वाही समै यह हुकम करयो, जो वा वैरागी को मो पास अब ही लै आओ।—दौ सौ बावन०, भा० १, पृ० ११९।

हुकम्म पु
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म] आदेश। आज्ञा। हुक्म। उ०—कियौ तब मार हुकम्म सु हेरि। उठी सिसिरौ तब आयसु फेरि।— ह० रासो, पृ० २३।

हुकरना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुँकरना', 'हुँकारना'।

हुकर पुकर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. कलेजे की धड़कन। दिल की कँपकँपी। हृत्कंप। घबराहट। अधीरता। मुहा०—कलेजा हुकर पुकर करना = (१.) भय या आशंका से हृदय में कँपकँपी या अशांति होना। डर या घबराहट से दिल धड़कना। (२) भय या घबराहट होना। चित्त अधीर होना। २. किसी काम के करने में आगा पीछा करना या हिचकना ।

हुकहुक
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] हिक्का। हिचकी [को०]।

हुकारना
क्रि० अ० [सं० हुङ्करण] दे० 'हुँकारना'।

हुकुम ‡ (१)
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म] दे० 'हुक्म'। उ०—षुंदकारी हुकुम कहञो का अपनेञो जोए परा रिहा।—कीर्ति०, पृ० ४२।

हुकुर पुकुर †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'हुकर पुकर'।

हुकुर हुकुर
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दुर्बलता, रोग आदि में श्वास का स्पंदन। जल्दी जल्दी साँस चलने की धड़कन। क्रि० प्र०—करना।—होना।

हुकूक
संज्ञा पुं० [अ० हुकूक] 'हक' का बहुवचनांत रूप। यौ०—हकहुकूक।

हुकूमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अधीनता में रखने की क्रिया या भाव। आज्ञा में रखने का भाव। प्रभुत्व। शासन। आधिपत्य। अधिकार। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हुकूमत चलना=प्रभुत्व माना जाना। अधिकार माना जाना। हुकूमत चलाना=प्रभुत्व या अधिकार से काम लेना। दूसरों को आज्ञा देना। जैसे,—उठो कुछ करो, बैठे बैठे हुकूमत चलाने से काम न होगा। हुकूमत जताना=अधिकार या बड़प्पन प्रकट करना। प्रभुत्व प्रदर्शित करना। रोब दिखाना। २. राज्य। शासन। राजनीतिक आधिपत्य। जैसे,—वहाँ भी अँगरेजों की हुकूमत है। यौ०—हुकूमते जम्हूरी=जनता का शासन। जनतंत्र। लोकतंत्र।

हुक्का (१)
संज्ञा पुं० [अ० हुककह्] १. तंबाकू का धूआँ खींचने के लिये विशेष रूप से बना हुआ एक नल यंत्र। गड़गड़ा। फरशी। विशेष—हुक्के में दो नलियाँ होती हैं—एक पानी भरे पात्र के पेंदे (फरशी) से ऊपर की ओर खड़ी जाती है जिसपर तंबाकू सुलगाने की चिलम बैठाई जाती और दूसरी उसी पात्र से बगल की ओर आड़ी या तिरछी जाती है जिसका छोर मुँह में लगाकर पानी से होकर आता हुआ तंबाकू का धूआँ खींचते हैं। यौ०—हुक्का तमाखू=बिरादरी की राह रस्म। सामाजिक व्यवहार। हुक्का पानी। मुहा०—हुक्का पीना=हुक्के की नली से तंबाकू का धूआँ मुँह में खींचना। हुक्का गुड़गुड़ाना=हुक्का पीना। हुक्का ताजा करना=हुक्के का पानी बदलना। हुक्का भरना=चिलम पर आग तंबाकू वगैरह रखकर हुक्का पीने के लिये तैयार करना। २. दिशा जानने का यंत्र। कंपास। (लश०)। ३. आभूषण या इत्र रखने का डिब्बा (को०)। ४. पिटारी। टोकरी (को०)। यौ०—हुक्काबाज=(१) मदारी। खेलतमाशे दिखानेवाला। (२) छली। धूर्त। मक्कार। हुक्काबाजी=(१) मदारी का काम करनेवाला। (२) धूर्तता। मक्कारी। ठगी।

हुक्का (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० हुक्कह्, तुल० सं०हिक्का] हिचकी। हुक्चा [को०]।

हुक्कापानी
संज्ञा पुं० [अ० हुक्क़ह्+हिं० पानी] एक दूसरे के हाथ से हुक्का तंबाकू पीने और पानी पीने का व्यवहार। बिरादरी की राह रस्म। आने जाने और खाने पीने आदि का सामाजिक व्यवहार। विशेष—जिस प्रकार एक दूसरे के साथ खाना पीना एक जाति या बिरादरी में होने का चिह्न समझा जाता है, उसी प्रकार कुछ जातियों में एक दूसरे के हाथ का हुक्का पीना भी। ऐसी जातियाँ जब किसी को समाज या बिरादरी से अलग करती हैं, तब उसके हाथ का पानी और हुक्का दोनों पीना बंद कर देती हैं। मुहा०—हुक्कापानी देना या पिलाना=स्वागत सत्कार करना। हुक्का पानी बंद करना=बिरादरी से अलग करना। समाज से बाहर करना। (दंड स्वरूप) हुक्का पानी बंद होना=बिरादरी से अलग किया जाना। समाज से बाहर होना।

हु्क्काबरदार
संज्ञा पुं० [अ० हुक्क़ह्+फ़ा० बरदार (प्रत्य०)] किसी व्यक्ति का हुक्का लेकर चलनेवाला नौकर।

हुक्काम
संज्ञा पुं० [अ० 'हाकिम' का बहुवचन रूप] हाकिम लोग। अधिकारी वर्ग। बड़े अफसर।

हुक्कासाज
वि० [अ० हुक्क़ह्+साज] हुक्का भरने में हुनरमंदी जनानेवाला। उ.—कोई इल्मे महफिल के उस्ताद, कोई हुक्कासाज ओ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ८७।

हुक्कू
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति का बंदर।

हुक्चा
संज्ञा स्त्री० [फा़० हुक्चह्] हिचकी। हिक्का [को०]।

हुक्म
संज्ञा पुं० [अ०] १. बड़े का वचन जिसका पालन कर्तव्य हो। कुछ करने के लिये अधिकार के साथ कहना। आज्ञा। आदेश। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—हुक्म उठाना=(१) हुक्म रद्द करना। आज्ञा फेरना। हुक्म जारी न रखना। (२) आज्ञा पालन करना। सेवा करना। अधीनता में रहना। हुक्म उलटाना=आज्ञा का निराकरण करना। एक आज्ञा के विरुद्ध दूसरी आज्ञा प्राप्त करना। हुक्म की तामील=आज्ञा का पालन। हुक्म के मुताबिक कार्र- वाई। हुक्म चलना=अधिकार होना। किसी की हुक्मत होना। हुक्म चलाना=(१) आज्ञा प्रचलित करना। (२) आज्ञा देना। अधिकारपूर्वक दूसरे को कुछ करने के लिये कहना। बड़प्पन दिखाने हुए दूसरे को काम में लगाना। जैसे,—बैठे बैठे हुक्म चलाते हो, खुद जाकर क्यों नहीं करते ? हुक्म जारी करना= आज्ञा का प्रचार करना। हुक्म तोड़ना=आज्ञा भंग करना। आदेश के विरुद्ध कार्य करना। बड़े के वचन का पालन न करना। हुक्म देना=आज्ञा करना। हुक्म बजाना या बजा लाना=(१) आज्ञा पालन करना। बड़े के कहे अनुसार करना। (२) सेवा करना। हुक्म मानना=आज्ञा दिया जाना। आदेश होना। जैसे,—मुझे क्या हुक्म मिलता है ? जो हुक्म= जो हुक्म होता है, उसे मैं करूँगा। (नौकर)। २. कुछ करने की स्वीकृति। अनुमति। इजाजत। जैसे,—(क) सवारी निकालने का हुक्म हो गया। (ख) घर जाने का हुक्म मिल गया। मुहा०—हुक्म लेना=आज्ञा प्राप्त करना। अनुमति लेना। जैसे,—तुम्हें हुक्म लेकर जाना चाहिए था। ३. अधिकार। प्रभुत्व। शासन। इख्तियार। जैसे,—हुक्म बना रहें। (आशीर्वाद)। मुहा०—हुक्म में होना=अधिकार में होना। अधीन होना। शासन में होना। जैसे,—(क) मैं तो हर घड़ी हुक्म में हाजिर रहता हूँ। (ख) यह किसी के हुक्म में नहीं है, मनमानी करता है। ४. किसी कानुन या धर्मशास्त्र की आज्ञा। विधि। नियम। शिक्षा। उपदेश। ५. ताश का एक रंग जिसमें काले रंग का पान बना रहता है।

हुक्मचील
संज्ञा स्त्री० [?] खजूर का गोंद।

हुक्मनामा
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म+फा़० नामह्] वह कागज जिसपर कोई हुक्म लिखा गया हो। आज्ञापत्र। क्रि० प्र०—देना।—लिखना।—भेजना।

हुक्मबरदार
संज्ञा पुं० [अ० हुक्म+फा़० बरदार (प्रत्य०)] १. आज्ञानुवर्ती। आज्ञा के अनुसार चलनेवाला। आज्ञाकारी। २. सेवक। अधीन।

हुक्मबरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० हुक्मबरदारी] १. आज्ञापालन। आज्ञाकारिता। २. सेवा। नौकरी।

हुक्मराँ, हुक्मरान
वि० [अ० हुक्म+फा़० राँ, रान] हाकिम। आदेश चलानेवाला। उ०—सरकार लाख जग में हुए सदहा हुक्मराँ।—कबीर मं०, पृ० ३२४।

हुक्मरानी
संज्ञा स्त्री० [फा़० हुक्मरान] शासन चलाना। हुकूमत चलाना। उ०—जमीं सारी पर हुक्मरानी हुई। बाहर कौम पर मैहरबानी हुई।—कबीर म० पृ० १३३।

हुक्मी
वि० [अ० हुक्म] १. दूसरी की आज्ञा के अनुसार ही काम करनेवाला। दूसरे के कहे मुताबिक चलनेवाला। पराधीन। जैसे,—मै तो हुक्मी बंदा हूँ, मेरा क्या कसूर। २. न चूकनेवाला। जरूर असर करनेवाला। अचूक। अव्यर्थ। जैसे—हुक्मी दवा। ३. खाली न जानेवाला। अवश्य लक्ष्य पर पहुँचनेवाला। जैसे—वह हुक्मी तीर चलाता है। ४. अवश्य कर्तव्य। न टालने योग्य। लाजिमी। जरूरी।

हुचकी (१)
संज्ञा स्त्री० [फ़ां हुक्चह्]दे० 'हिचकी'।

हुचकी (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की सुंदर लता या बेल जिसके फूल ललाई लिए सफेद और सुगंधित होते हैं।

हुजूम
संज्ञा पुं० [अ०] भीड़। जमावड़ा। उ०—(क) दरवाजे पर घोड़े हाथी, पालकी, नालकी के हुजूम से रास्ता न मिलता था।—कविता कौ०, भा० ४, पृ०, २६०। (ख) बस हुजूमें नाउमेदी खाक में मिल जायगी।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४७२।

हुजुर
संज्ञा पुं० [अ० हुजूर] १. किसी बड़े का सामीप्य। नजर का सामना। संमुख स्थिति। समक्षता। मुहा०—(किसी के) हुजूर में=(बड़े के) सामने। आगे। जैसे—वह सब बादशाह के हुजूर में लाए गए। २. बादशाह या हाकिम का दरबार। कचहरी। यौ०—हुजूर तहसील=सदर तहसील। वह तहसील जो जिले के प्रधान नगर में हो। हुजूर महाल=वह महाल जिसकी मालगुजारी सीधे सरकार के यहाँ दाखिल हो, लगान के रूप में किसी जमींदार को न दी जाती हो। वह जमीन जिसकी जमींदार सरकार हो। ३. बहुत बड़े लोगों के प्रति संबोधन का शब्द। ४. एक शब्द जिसके द्वारा अधीन कर्मचारी अपने बड़े अफसर को या नौकर अपने मालिक को संबोधन करते हैं।

हुजूरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हुजूर+ हिं० ई० (प्रत्य०)] १. बड़े कासामीप्य या समक्षता। नजर का सामना। २. उपस्थिति। हाजिरी। मौजूदगी।

हुजूरी (२)
संज्ञा पुं० १. खास सेवा में रहनेवाला नौकर। २. दरबारी। मुसाहब।

हुजूरी (३)
वि० हुजुर का। सरकारी।

हुजुरेवाला
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुजूरेवाला] श्रेष्ठ व्यक्ति के लिये प्रतिष्ठासूचक संबोधन [को०]।

हुज्जत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. व्यर्थ का तर्क। फजूल की दलील। २. प्रमाण। सबूत (को०)। ३. विवाद। झगड़ा। तकरार। कहासुनी। वाग्युद्ध। उ०—दुई दरोग हिर्स हुज्जत नाम नेकी नेस्त।—दादू०, पृ० १०८। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।—होना।

हुज्जती
वि० [अ० हुज्जत+ई (प्रत्य०)] बात बात में लड़नेवाला। हुज्जत करनेवाला। झगड़ालू।

हुड (१)
संज्ञा पुं० [सं० हुड] १. मेढ़ा। २. एक प्रकार का अस्त्र। ३. बादल। मेघ (को०)। ४. प्राकार। परिखा। सेना का आश्रयस्थल। परकोटा (को०)। ५. लगुड। लौहदंड (को०)। ६. प्रवेशमार्ग में चोरों के निवारणर्थ धँसाया हुआ लोहे का तीखा काँटा अथवा लोहे के कँटीले टुकड़े। विशेष दे० 'गोखरू'—२।

हुड (२)
संज्ञा पुं० [अं०] बग्घी, मोटर, रिक्शा आदि सवारियों के पीछे लगा हुआ वह कमानीदार आच्छादन जिसे आवश्यकता पड़ने पर आगे की ओर खींचकर फैलाया जा सकता है।

हुड़कना
क्रि० अ० [देश०] बच्चे का रो रोकर उसके लिये अपनी व्याकुलता प्रकट करना जिससे वह बहुत हिला मिला हो। उत्साहित होना। हुमसना। उछलना कूदना। हुमकना। उ०— जहँ सूर संख बजावहीं। दिसि दिसनि दिग्गज दावहों। धुनि धीर दुं दुभि धुक्करैं। सुनि वीर हुड़कत हुक्करैं।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८।

हुड़का (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. वह घोर मानसिक व्यथा (विशेषतः बच्चों को होनेवाली मानसिक व्यथा) जो प्रायः अचानक किसी प्रिय व्यक्ति का वियोग हो जाने पर उत्पन्न होती है। क्रि० प्र०—पड़ना।

हुड़का (२)
संज्ञा पुं० [सं० हुडक्क] हुडुक नाम का बाजा।

हुड़काना
क्रि० स० [हिं० हुडक+आना (प्रत्य०)] १. बहुत अधिक भयभीत और दुःखी करना। २. तरसाना। ललचाना।

हुड़कार
संज्ञा पुं० [अनु०] जोशीली ललकार। उ०—हुड़कार। हंकत नहीं संकत, भिड़त रन हनुमंत सो।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २०।

हुड़दंग
संज्ञा पुं० [अनु० हुड़+दंग]दे० 'हुड़दंगा'।

हुड़दंगा (१)
संज्ञा पुं० [अनु० हुड़+हिं० दंगा] हल्ला गुल्ला और उछल कूद। धमाचौकड़ी। उपद्रव। उत्पात। क्रि० प्र०—मचना।—मचाना।

हुड़दंगा † (२)
वि० उपद्रवी। उत्पाती।

हु़ड़दंगी
वि० [हिं० हुड़दंगा+ई] धमाचौकड़ी मचानेवाला। उछल- कूद करनेवाला। शरारती। नटखट।

हुडुंब
संज्ञा पुं० [सं० हुडुम्ब] वह चिउड़ा या धान जो भूना हुआ हो। भूना हुआ धान का लावा [को०]।

हु़डु
संज्ञा पुं० [सं०] मेष। मेढ़ा [को०]।

हुडुक
संज्ञा पुं० [सं० हुडुक्क] एक प्रकार का बहुत छोटा ढोल जिसे प्रायः कहार या धीमर बजाते हैं।

हुडुक्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बहुत छोटा ढोल। हुडुक नाम का बाजा। २. दात्यूह पक्षी। डाहुक। ३. मतवाला आदमी। मदोन्मत्त पुरुष। ४. लोहे का साम जड़ा हुआ डंडा। लोहबंद। ५. अर्गल। बेँवड़ा।

हुडुत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. डराने, धमकाने का स्वर। धमकी। २. बैल या साँड़ के बोलने का शब्द। वृषभ की आवाज [को०]।

हुढक्क पु †
संज्ञा पुं० [सं० हुडुक्क]दे० 'हुडुक', 'हुडुक्क'।

हुण †
अव्य० [पं०] अधुना। अब। आज। उ०—(क) हुण क्या कीजै लाडिले वेखन नहिं पावैँ।—घनानंद, पृ० १८०। (ख) कद्दू वण्या ए मजेदार गोरिए, हुण लाण चटाका कदुए नूँ।—गुलेरीजी०, पृ० ४२।

हुत (१)
वि० [सं०] १. हवन किया हुआ। आहुति दिया हुआ। हवन करते समय अग्नि में डाला हुआ। २. जिसके निमित्त आहुति दी गई हो (को०)।

हुत (२)
संज्ञा पुं० १. हवन को वस्तु। हवन करने की सामग्री। २. शिव का एक नाम।

हुत पु (३)
क्रि० अ० [सं० भूत, हु+त, प्रा० हुअ] 'होना' क्रिया का प्राचीन भूतकालिक रूप। था। उ०—हुत पहिलै औ अब है सोई।—जायसी (शब्द०)।

हुतजातवेद
वि० [सं० हुतजातवेदस्] जिसने अग्नि में हवन किया हो। जो अग्नि में आहुति प्रदान कर चुका हो [को०]।

हुतभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।

हुतभुक्
संज्ञा पुं० [सं० हुतभुज्] १. अग्नि। आग। २. चित्रक वृक्ष। चीते का पेड़। ३. शिव। महादेव (को०)। ४. विष्णु (को०)।

हुतभुक् प्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की पत्नी—स्वाहा [को०]।

हुतभुज्
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हुतभुक्'।

हुतभोक्ता
संज्ञा पुं० [सं० हुतभोक्तृ] अग्नि। हुतभक्ष [को०]।

हुतभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि का एक नाम [को०]।

हुतवह
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।

हुतशिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हुतशेष'।

हुतशेष
संज्ञा पुं० [सं०] हवन करने से बची हुई सामग्री।

हुतहोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलता हुआ साकल्य या आहुति। २. वह ब्राह्मण जो हवन कर चुका हो [को०]।

हुता पु †
क्रि० अ० [हिं० हुत] 'होना' क्रिया का पुरानी अवधी हिंदी का भूतकालिक रूप। था। उ०—गगन हुता, नहिं महि हुती, हुते चंद नहिं सूर।—जायसी (शब्द०)।

हुताग्नि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसने हवन किया हो। २. अग्नि- होत्री। ३. यज्ञ या हवन की आग।

हुताग्नि (२)
वि० अग्नि में आहुति प्रदान करनेवाला। हवन करनेवाला [को०]।

हुतात्मा
संज्ञा पुं० [सं० हुतात्मन्] वह व्यक्ति जिसने किसी अच्छे कार्य में अपने को हवन कर दिया हो या अपना प्राण दे दिया हो। (अं० मार्टायर)।

हुतावशेष
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हुतशिष्ट', 'हुतशेष'।

हुताश
संज्ञा पुं० [सं०] १. (आहुति खानेवाला) अग्नि। आग। २. तीन की संख्या। ३. चित्रक। चीते का पेड़। ४. डर। त्रास। खौफ। भय (को०)। यौ०—हुताशवृत्ति=जिसकी आजीविका अग्नि पर निर्भर हो। हुताशशाला=अग्नि का स्थान। अग्निशाला।

हुताशन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। आग। २. कृशानु। शिव का एक नाम (को०)। ३. चित्रक वृक्ष (को०)। यौ०—हुताशनसहाय=शिव का एक नाम।

हुताशना
संज्ञा स्त्री० [सं०] योगिनी विशेष [को०]।

हुताशनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फाल्गुन मास की पूर्णिमा, जिस दिन होली जलती है [को०]।

हुतास पु
संज्ञा पुं० [सं० हुताश]दे० 'हुताश'। उ०—बिरचत आप समान न तो हिय सून निहारत। तेरै पास हुतास तासु ते तिनहूँ जारत।—दीन० ग्रं०, पृ० १००।

हुतासन पु
संज्ञा पुं० [सं० हुताशन] अग्नि।दे० 'हुताशन'। उ०— न होतो अनंग, अनंग हुतासन।—प्रेमघन०, पृ० २०९।

हुति पु (१)
अव्य, [प्रा० हिंतो] १. अपादान और करण कारक का चिह्न। से। द्वारा। २. ओर से। तरफ से। दे० 'हुँति'।

हुति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवन। यज्ञ।

हुतियन
संज्ञा पुं० [देश०] सेमल का पेड़।

हुती
अ० क्रि० [हिं० 'होना' का भूत का० रूप] थी। उ०—लाज के साज मैं हुती ज्यौँ द्रौपदी, बढ़चौ तन चीर नहि अंत पायौ।— सूर०, १।५।

हुते
अव्य० [प्रा० हिंतो] १. से। द्वारा। २. ओर से। तरफ से।

हुतो पु
क्रि० अ० ['होना' क्रिया का ब्रजभाषा में भूतकालिक रूप] था।

हुत्कच
संज्ञा पुं० [सं०] एक दैत्य का नाम।

हुदकना †
क्रि० अ० [सं० उत् (=ऊर्ध्व)] उछलना। कूदना। उभड़ना।

हुदकाना पु †
क्रि० स० [सं० उत् (=ऊर्ध्व) या देश०] उसकाना। उभारना।

हुदना पु †
क्रि० अ० [सं० हुण्डन] स्तब्ध होना। रुकना।

हुदहुद
संज्ञा पुं० [अ०] एक चिड़िया जो हिंदुस्तान और बरमा में प्रायः सब जगह पाई जाती है। इसकी छाती और गरदन खैरे रंग की तथा चोटी और डैने काले और सफेद होते हैं। इसकी चोँच एक अंगुल लंबी होती है। उ०—पास हुदहुद के अव्व्ल आया नजदीक। याद कर फिरदोश को रोया अदीक।— दक्खिनी०, पृ० १७६।

हुदारना
क्रि० स० [देश०] रस्सी पर लटकाना। टाँगना। (लश०)।

हुदूद
संज्ञा स्त्री० [अ०] 'हद' का बहुवचन। सीमाएँ [को०]।

हुद्दा (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली।

हुद्दा ‡ (२)
संज्ञा पुं० [अ० ओहदा] ओहदा। पद।

हुन
संज्ञा पुं० [सं० हूण, हून (=सोने का एक सिक्का)] १. मोहर। अशरफी। स्वर्णमुद्रा। २. सोना। सुवर्ण। मुहा०—हुन बरसना=धन की बहुत अधिकता होना। उ०—हुन बरसता था, अमन था, चैन था। था फला फूला निराला राज भी। वह समाँ हम हिंदुओं के ओज का। आँख में है घूम जाता आज भी।—चुभते०, पृ० २०। हुन बरसाना=बहुत अधिक धन लुटाना। उ०—बेगम साहब की नजर इनायत हो जाएगी तो हुन बरसा देंगी।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ३५।

हुनना
क्रि० स० [सं० हु, हुन्+हिं० ना (प्रत्य०)] १. अग्नि में डालना। आहुति देना। २. यज्ञ करना। हवन करना। उ०— सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहि सीस। हुने अनल अति हरख बहू बार साखि गौरीस।—मानस, ६।२८।

हुनर
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. कारीगरी। कला। फन। २. गुण। करतब। खूबी। ३. कौशल। युक्ति। चतुराई। ४. विद्या। इल्म (को०)। ५. दस्तकारी। शिल्प (को०)।

हुनरमंद
वि० [फ़ा०] हुनर जाननेवाला। कलाकुशल। निपुण।

हुनरमंदी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] हुनरमंद होने की क्रिया या भाव। कला- कुशलता। निपुणता।

हुनरा
वि० [फ़ा० हुनर] वह बंदर या भालू जो नाचना और खेल दिखाना सीख गया हो। (कलंदर)।

हुनिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] भेड़ों की एक जाति जिसका ऊन अच्छा होता है।

हुन्न
संज्ञा पुं० [सं० हूण]दे० 'हुन'।

हुन्नर
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुनर]दे० 'हुनर'। उ०—अंजन कीया नैन मैं सबही राषै मोहि। सुंदर हुन्नर बहुत हैं कोई न जानै तोहि।—सुंदर, ग्रं०, भा० २, पृ० ७६७।

हुन्ना पु
संज्ञा पुं० [सं०हूण]दे० 'हुन'।

हुब
संज्ञा पुं० [अ०] १. अनुराग। प्रेम। २. श्रद्धा। ३. हौसला। उमंग। उत्साह।

हुबाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. पानी का बुलबुला। बुद् बुद। उ०—दौलत का जौक ऐसे ज्यों आब का हुबाब।—चरण० बानी, पृ० ११४। २. हाथ में पहना जानेवाला एक आभूषण। ३. शीशे के गोले जो मकानों की सजावट में लगाए जाते हैं अथवा जिनसे लड़के खेलते हैं।

हुब्ब
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'हुब'।

हुब्बुलवतन
संज्ञा पुं० [अ०] स्वदेशप्रेम। देशप्रेम [को०]।

हुब्बुलवतनी
संज्ञा स्त्री० [अ० हुब्बुलवतन] देशभक्ति। स्वदेशप्रेम। उ०—परम साहसी वंब प्रहारी रास बिहारी की, जो अब भी ऐसा सुनने में आता है, अन्य देश में, छदम वेष में घूम घूमकर अलख जगाता है हुब्बुलवतनी का।—बंगाल०, पृ० १५।

हुब्बेवतन
संज्ञा पुं० [अ०] देशप्रेम [को०]।

हुमंक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० उमंग] उमंग। उत्साह। मौज। उ०— हंकत हय न हुमंक बंक तकि तबल तमंकत।—पद्माकर ग्रं०, २७८।

हुमंकना पु
क्रि० अ० [हिं० उमंग + ना] उत्साहयुक्त होना। उमंग या जोश से भर जाना। उ०—महासान हस्फान के हैँ हुमंकैँ। मनो पौन के गौँन कौँ लेत हकैँ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २८०।

हुमकना
क्रि० अ० [अनु० हु (प्रयत्न का शब्द)] १. उछलना कूदना। २. जमे हुए पैर से ठेलना या धक्का फ्हुँचाना। पैरों से जोर लगाना। ३. पैरों को आघात के लिये जोर से उठाना। कसकर पैर तानना। उ०—हुमकि लात कूबर पर मारा।— तुलसी (शब्द०)। ४. चलने का प्रयत्न करना। चलने के लिये जोर लगाकर पैर रखना। ठुमकना। (बच्चों का)। ५. दबाने खींचने या इसी प्रकार का और कोई काम करने के लिये जोर लगाना। उ०—मारेसि साँग पेट महँ धंसी। काढ़ेसि हुमकि आँति भुँई खसी।—जायसी (शब्द०)।

हुमगना
क्रि० [अनु० हुँ]दे० 'हुमकना'।

हुमचना
क्रि० अ० [अनु०] किसी चीज पर चढ़कर उसे दबाने के लिये जोर लगाना या उसपर बार बार उछलना कूदना। दे० 'हुमकना'। उ०—उनकी पीठ पर हुमच रहै हैं।—गोदान, पृ० १३२।

हुमड़ना †
क्रि० अ० [हिं० उमड़ना] किसी द्रव पदार्थ का उमड़कर बहना या ऊपर उठकर फैल जाना।

हुमसना
क्रि० अ० [अनु०] उल्लसित होना। उत्साह से भर जाना। उमसना। उ०—इतर जनों में भी प्राचीन भावना थी। अगर कही अँग्रेजी राज के कारण हुमसते थे तो उनका हाथ पकड़कर रास्ते पर ले चलनेवाला न था।—काले०, पृ० ६१।

हुमसाना
क्रि० स० [अनु०] १. किसी के मन में कोई इच्छा या विचार उत्तेजित करना। २. किसी को उल्लसित या उत्थापित करना।

हुमसावना पु
क्रि० स० [अनु०] दे० 'हुमसाना'।

हुमा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] उर्दू और फारसी साहित्य में एक कल्पित पक्षी जिसके संबंध में प्रसिद्ध है कि वह हडि्डयाँ ही खाता है और जिसके ऊपर उसकी छाया पड़ जाय वह बादशाह हो जाता है। उ०— आपके कबूतर किससे कम हैं वल्लाह, कबूतर नहीं परीजाद हैं, खिलौने हैं, तस्वीर हैं, हुमा पर साया पड़े तो उसे शहबाज बना दें।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८१४।

हुमाई
वि० [फा़० हुमा+ई (प्रत्य०)] हुमा पक्षी संबंधी।

हुमायूँ (१)
वि० [फा़०] शुभ। मंगलमय [को०]।

हुमायूँ (२)
संज्ञा पुं० मुगल सम्राट् अकबर का पिता जो बाबर का बेटा था।

हुमुकना
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'हुमकना'। उ०—अंचल में मुँह निकाल निकालकर माता के स्नेह प्लावित मुख की ओर देखता है, हुमुकता है और मुसकिराता है।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ४५७।

हुमेल
संज्ञा स्त्री० [अ० हमायल] १. अशर्फियों या रुपयों को गूँथकर बनी हुई एक प्रकार की माला जिसे स्त्रियाँ पहनती हैं। उ०—फूलन की दुलरी, हुमेल हार फूलन के, फूलन की चंपमाल, फूलन, गजरा री।—नंद० ग्रं०, पृ० ३८०। २. घोड़ों के गले का एक गहना।

हुम्मा
संज्ञा पुं० [हिं० उमंग] लहरों का उठना। बान। (लश०)।

हुरक पु
संज्ञा पुं० [सं० हुडुक] हुडुक नाम का एक वाद्य। उ०— ढाढ़ी और ढाढ़िनि गावैं ठाढे हुरकैं बजावैं, हरषि असीस देत मस्तक नवाई कै।—सूर०, १०।३१।

हुरकणी पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] वेश्या। रंडी। उ०—साबल अणियाँ साँकही, चोरँग वणिया चेत। भणियाँ सू भेलप नहीं, हुरकणियाँ सूँ हेत।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १।

हुरकिनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'हुरकणी'।

हुरदंग
संज्ञा पुं० [अनु० हुड़, हुर + हिं० दंग] दे० 'हुड़दंग'।

हुरदंगई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुरदंग] हुरदंगी होने का भाव या क्रिया।

हुरदंगा
संज्ञा वि० पुं०, [अनु०] दे० 'हुड़दंगा'।

हुरदंग
वि० [हिं० हुड़दंगा] दे० 'हुड़दंगी'।

हुरमत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. सतीत्व। अस्मत। २. आबरू। इज्जत। मान। मर्यादा। उ०—ऐसी होरी खेल, जामें हुरमत लाज रहो री। सील सिँगार करो मोर सजनी धीरज माँग भरो री।—कबीर श०, भा० ४, पृ० २१। मुहा०—हुरमत उतारना = किसी की मान प्रतिष्ठा को समाप्त करना। बेइज्जत करना। हुरमत लेना = दे० 'हुरमत उतारना'।

हुरमति पु
संज्ञा स्त्री० [अ० हुरमत] दे० 'हुरमत'।

हुरसा
संज्ञा पुं० [देश०] वह गोलाकार पत्थर जिसपर चंदन रगड़ते हैं। दे० 'होरसा'। उ०—नाम तेरो आसन, नाम तेरो हुरसा, नाम तेरो केसर लै छिड़का रे।—संत रवि०, पृ० १२९।

हुरहुर
संज्ञा पुं० [देश० ?] एक बरसाती पौधा। अर्कपुष्पिका। विशेष दे० 'हुलहुल'।

हुरहुरिया
संज्ञा स्त्री० [अनु० हुलहुली] एक प्रकार की चिड़िया।

हुरिंजक
संज्ञा पुं० [सं० हुरिञ्जक] निषाद और कवरी स्त्री से उत्पन्न एक संकर जाति।

हुरिहाई पु
वि०, संज्ञा स्त्री० [हिं० होली + हाई] होरी खेलनेवाली। उ०—रूप अलबेली सु नवेली एरी तेरी आँखै, ताकि छाकि मारेँ हुरिहाई न कहूँ छिकै।—घनानंद, पृ० ४५।

हुरिहार
वि, संज्ञा पुं० [हिं० होली + हार (= वाला)] होली खेलनेवाला। उ०—(क) हाय इन नैनन तेँ निकरि हमारीलाज, कित धौँ हेरानी हुरिहारन के बीच में।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३१९। (ख) दोनों ही हुरिहार बड़े सुकुमार हैं।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १८९।

हुरुट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी का अंकुश।

हुरुमयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नृत्य। उ०—उलथा, टेकी, आलमस, पिंड। पलटि हुरुमयी निःशंक चिंड।— केशव (शब्द०)।

हुर्च्छन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वासघातकता। धोखेबाजी [को०]।

हुर्रा
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार की हर्षध्वनि।

हुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का दोधारा छुरा।

हुल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० शूल] पीड़ा। वेदना। कसक। उ०—उर लीने अति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाइ। हैँ हुलसी निकसी सु तौ गौ हुल सी हिय लाइ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ७५।

हुल † (३)
संज्ञा स्त्री० [अनु० या ?] भीतर से बाहर की ओर आने का वेग।

हुलक
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] वेग। गति। हूल। उ०—हुलक हुलक्का से सुतुक्का से तरारिन में ललित ललाम जे लगाम लेत लक्का से।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०९।

हुलकना
क्रि० अ० [अनु० हुलहुल] कै करना। वमन करना।

हुलकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुलकना] १. कै। वमन। उलटी। २. हैजे की बीमारी।

हुलक्का पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उल्का] आकाश से रात के समय तीव्र वेग से गिरनेवाला ज्योतिपिंड। विशेष दे० 'उल्का'। उ०—हुलक हुलक्का से सुतक्का से तरारिन में ललित ललाम जे लगाम लेत लक्का से।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ३०९।

हुलना
क्रि० अ० [हिं० हूलना] लाठी, भाले आदि को जोर से ठेलना। रेलना। पेलना।

हुलमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी दुधारी कटार [को०]।

हुलराना
क्रि० स० [अनु०] दे० 'हलराना'। उ०—यसोदा मइया लाल को झुलावे। आछे बार कान्ह को हुलरावे।—अकबरी०, पृ० ४८।

हुलसना (१)
क्रि० अ० [हिं० हुलास + ना (प्रत्य०)] १. उल्लास में होना। आनंद से फूलना। उमगना। खुशी से भरना। उ०—उर लीने अति चटपटी सुनि मुरली धुनि धाइ। हौं हुलसी निकसी सु तौ गौ हुल सी हिय लाइ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ७५। २. उभरना। उठना। ३. उमड़ना। बढ़ना। उ०—संभू प्रसाद सुमति हिय हुलसी। रामचरितमानस कवि तुलसी।—तुलसी (शब्द०)। ४. शोभायमान होना। उल्लसित होना। सुशोभित होना। उ०—हिये हुलसै बनमाल सुहाई।

हुलसना पु (२)
क्रि० स० १. आनंदित करना। प्रफुल्लित करना। २. उभारना। उठाना। ३. अभिवर्धन करना। बढ़ाना।

हुलसाना (१)
क्रि० स० [हिं० हुलसना] उल्लसित करना। आनंदपूर्ण करना। हर्ष की उमंग उत्पन्न करना। उ०—पवन झुलावै, केकी कीर बतरावै देव, कोकिल हुलाइ हुलसावै कर तारी दै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १५७।

हुलसाना (२)
क्रि० अ० दे० 'हुलसना'। उ०—राम अनुज मन की गति जानी। भगतबछलता हिय हुलसानी।—तुलसी (शब्द०)।

हुलसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुलसना] हुलास। उल्लास। आनंद की उमंग।—उ०—रामहिं प्रिय पावन तुलसी सी। तुलसिदास हित हिय हुलसी सी।—तुलसी (शब्द०)। २. किसी किसी के मत से तुलसीदास जी की माता का नाम।

हुलहुल
संज्ञा पुं० [?] एक छोटा बरसाती पौधा। अर्कपुष्पिका। सूरजवर्त। विशेष—इस पौधे के कई भेद होते हैं। साधारण जाति के पौधे में सफेद फूल और मूँग सी लंबी फलियाँ लगती हैं। पीले, लाल और बैगनी फूलवाले पौधे भी पाए जाते हैं। पत्तियाँ इसकी गोल और फाँकदार होती हैं जो दर्द दूर करने की दवा मानी जाती हैं । कान के दर्द में प्रायः इन पत्तियों का रस डाला जाता है। लोग इसकी पत्तियों का साग भी खाते हैं।

हुलहुला
संज्ञा पुं० [देश०] १. विलक्षण बात। अद्भुत बात। २. उपद्रव। उत्पात। ३. शोक। उमंग। ४. मिथ्या अभि योग।

हुलहुली
संज्ञा स्त्री० [सं०। तुल० बँ० हुलू (= शुभ कर्म के समय उपस्थित नर नारियों की शुभसूचक ध्वनि)] किसी मांगलिक अवसर पर स्त्रियों द्वारा उच्चरित अस्पष्ट शब्दावली [को०]।

हुला
संज्ञा पुं० [हिं० हूलना] लाठी का छोर या नोक।

हुला ग्रका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अस्त्रविशेष [को०]।

हुलाना † (१)
क्रि० स० [हिं० हूलना] लाठी, भाले आदि को जोर से ठेलना। पेलना।

हुलाना पु (२)
क्रि० स० [सं० उल्लसन] प्रसन्न करना। उ०—पवन झुलावै, केकी कीर बतरावै देव, कोकिल हुलाइ हुलसावै कर तारी दै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० १५७।

हुलारा †
संज्ञा पुं० [अनुध्व०] जोर लगाकर ऊपर उठाने का प्रयास। उ०—दूसरा भरा घड़ा उठा, हुलारा दे उसने सिर पर रख लिया।—भस्मावृत०, पृ० १२७।

हुलाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुलसना] तरंग। लहर।

हुलास (१)
संज्ञा पुं० [सं० उल्लास] १. आनंद की उमंग। उल्लास। हर्ष की प्रेरणा। खुशी का उमड़ना। आह्लाद। उ०—तिनि लोगनि की गति दाननि की अति निरखि सचीपति भूलि रहे। ब्रजसोभ प्रकासहिं नंद बिलासहिं 'दास' हुलासहिं कौन कहै।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० २२९। २. उत्साह। हौसला। तबीयत का बढ़ना। उ०—सुतहिं राज, रामहिं बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू।—तुलसी (शब्द०)। ३. उमगना। बढ़ना। ४. एक छंद जो चौपाई और त्रिभंगी के मेल से बनता है। दे० 'हुल्लास'।

हुलास (२)
संज्ञा स्त्री० सुँघनी। मग्जरोशन।

हुलासदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० हुलास + दान] सुँघनीदानी।

हुलासिका पु
वि० स्त्री० [सं० उल्लासिका] आनंद देनेवाली। उत्साह देनेवाली। उ०—पुन्य प्रकासिका पाप विनासिका हीय हुलासिका सोहत कासिका।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

हुलासी
वि० [हिं० हुलास + ई (प्रत्य०)] १. आनंदयुक्त। उल्लसित। हुलास से युक्त। उ०—गिरिधरदास ! बिस्व की रति बिलासी रमा हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१। २. उत्साही। हौसलेवाला।

हुलिंग
संज्ञा पुं० [सं० हुलिङ्ग] मध्यदेश के अंतर्गत एक प्रदेश का नाम।

हुलिया
संज्ञा पुं० [अ० हुलियह्] १. शकल। आकृति। रूपरंग। २. चेहरा। मुख। ३. किसी मनुष्य के रूपरंग आदि का विवरण। शकल सूरत और बदन पर के निशान वगैरह का ब्यौरा। मुहा०—हुलिया कराना या लिखाना = किसी भागे हुए, खोए हुए या लापता आदमी का पता लगाने के लिये उसकी शकल सूरत आदि पुलिस में दर्ज कराना। हुलिया तंग करना = किसी को अत्यंत परेशान करना। हुलिया तंग होना = झंझट में पड़ना। परेशानी में पड़ना। हुलिया बताना अथवा बयान करना = किसी के रूप, रंग, शकल, सूरत और शारीरिक चिह्न वगैरह का विवरण बताना। हुलिया बिगड़ना = किसी की बुरी हालत होना। किसी की गत बनना। हुलिया बिगाड़ देना या बिगाड़ना = ऐसा मारना कि चेहरा और चाल आदि पूर्ववत् न रह जाय। यौ०—हुलियानामा = किसी मनुष्य के शकल सूरत और शरीर के विशेष निशान का विवरणपत्र।

हुलिहुली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवाह के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाया जानेवाला गीत। २. गर्जन। ३. भूँकना। भौँकना। हुआँ हुआँ करना [को०]।

हुलु
संज्ञा पुं० [सं०] मेढ़ा।

हुलूक
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति का बंदर। विशेष—इसकी लंबाई बीस इक्कीस इंच और रंग प्रायः सफेद होता है। यह आसाम के जंगलों में झुंड में रहता है और जल्दी पालतू हो जाता है।

हुलैया
संज्ञा स्त्री० [हिं० हूलना] डूबने के पहले नाव का डगमगाना।

हुल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य।

हुल्लड़
संज्ञा पुं० [अनु० सं० हुलहुल] १. शोरगुल। हल्ला। कोलाहल। २. उपद्रव। ऊधम। धूम। ४. हलचल। आंदोलन। ५. दंगा बलवा। क्रि० प्र०—करना।—होना।—मचना।—मचाना।

हुल्लास
संज्ञा पुं० [सं० उल्लास] १. चौपाई और त्रिभंगी के योग से बना हुआ एक छंद जिसके अंत के चारों चरणों में जगण का रखना वर्जित है। जैसे,—ठानो तिरभंगी छंद सुअंगी है बहुरंगी मनहि हरै। चवसटि्ठ कला करि सो आगे धरि बसु चरनन कविता सुथरै। हुल्लास सुछंदा आनँदकंदा जस बर चंदा रूप रजै। योँ छंद बखानै सब मनमानै जाके बरनत सुकवि सजै।—छंदः०, पृ० ६५। २. उल्लास। आह् लाद। उमंग। उ०— औरै के गुन और को गुन पहिले उल्लास। दास सपूरन चंद लखि सिंधु हियेँ हुल्लास।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० १३३।

हुवेदा
वि० [फ़ा० हुवैदा] जाहिर। स्पष्ट। उ०—हुवेदा इश्क केरा सूर कीता। दो जग तिस सूर सूँ पुरनूर कीता।—दक्खिनी०, पृ० १५४।

हुश
अव्य० [अनु०] दे० 'हुश्'।

हुशकाई †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. हुशकारने का भाव या कार्य। हुशकारने की क्रिया। २. हुशकारने की उजरत। उ०—धेले की बुलबुल हाथ न लगे और टका हुशकाई पड़ जाय, पुलिस की आँख में गिर जाना है।—चोटी०, पृ० १८।

हुशयार
वि० [फ़ा०] दे० 'होशियार'।

हुशवार
वि० [फ़ा०] दे० 'होशियार'।

हुशयारी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] दे० 'होशियारी'।

हुशार पु
वि० [फ़ा० होशयार, हुशयार] दे० 'होशियार'। उ०— हारे मुंढे हुशार मुंढे देख मुंढे भाई। डोंगी नजर देखते बाबा नजीकई लाई।—दक्खिनी०, पृ० १२३।

हुश्
अब्य० [अनु०] १. एक निषेधवाचक शब्द। अनुचित बात मुँह से निकालने पर रोकने का शब्द। २. पशुओं और पक्षियों आदि को अपनी ओर बुलाने या स्थान से हटाने के लिये प्रयुक्त शब्द।

हुश्कार
संज्ञा स्त्री० [अनु० हुश्] हुश् हुश् करने की आवाज।

हुश्कारना
क्रि० स० [हुश् से अनु०] हुश् हुश् शब्द करके कुत्ते को किसी ओर काटने आदि के लिये बढ़ाना या पशु पक्षियों को किसी स्थान से हटाना।

हुसियार पु †
वि० [फ़ा० होशियार] दे० 'होशियार'। उ०—हम तो बचिगे साहब दया से शब्द डोर गहि उतरे पार। कहत कबीर सुनो भाई साधो इस ठगनी से रहो हुसियार।—कविता कौ०, भा० १, पृ० ५१।

हुसियारी पु
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० होशियारी] दे० 'होशियारी'। देखरेख। चौकसी। उ०—अब गुदड़ी की करु हुसियारी, दाग न लागै देखु बिचारी।—कबीर रे०, पृ० १।

हुसूल
संज्ञा पुं० [अ०] १. लाभ। नफा। २. आय। आमदनी। ३. प्राप्ति। मिलना। ४. फल। परिणाम। नतीजा। उ०— सिजदा है य सर का मारना जिसमें कुछ भी हुसूल न हो।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५७०।

हुसेन
संज्ञा पुं० [अ० हुसैन] दे० 'हुसैन'। उ०—एक दिवस जबरैल जु आए। इसन हुसेन को दुःख सुनाए।—हिंदी प्रेमा०, पृ० २३३।

हुसैन
संज्ञा पुं० [अ०] मुहम्मद साहब के दामाद अली के छोटे पुत्र का नाम। विशेष—इन्होंने यजीद का शासन स्वीकार नहीं किया था और इसलिये करबला के मैदान में अपने बड़े भाई हसन के साथमारे गए थे। ये शीया मुसलमानों के पूज्य हैं। मुहर्रम इन्हीं के शोक में मनाया जाता है।

हुसैनी
संज्ञा पुं० [अ० हुसैन] १. अंगूर की एक जाति। २. फारसी संगीत के बारह मुकामों में से एक।

हुसैनी कान्हड़ा
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुसैनी + हिं० कान्हड़ा] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

हुस्न (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. सौंदर्य। सुंदरता। लावण्य। उ०—उजि- याला हुस्न का है अदा खूब अज्ब गुल है। इस नाज बगीचे में हम हुलबुलों का गुल है।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ४२। यौ०—हुस्न का आलम = सौंदर्य का काल। सुंदरता का युग। हुस्नखेज। हुस्नपरस्त। हुस्नपसंद। हुस्नफरोश। २. तारीफ की बात। खूबी। उत्कर्ष। जैसे,—हुस्नइंतजाम। ३. अनूठापन। विचित्रता। जैसे—हुस्नइत्तफाक।

हुस्न (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] सतीत्व [को०]।

हुस्नआरा
वि० [फ़ा०] सुंदर। रूपवान। सुंदरता को शृंगारित करनेवाला [को०]।

हुस्नइंतजाम
संज्ञा पुं० [अ० हुस्ने इंतिज़ाम] प्रबंध की खूबी। अच्छा इंतजाम। सुप्रबंध।

हुस्नइत्तफाक
संज्ञा पुं० [अ० हुस्ने इत्तिफ़ाक] दैवयोग से या अचा- नक किसी काम का अच्छा होना।

हुस्नखेज
वि० [अ० हुस्न + फ़ा० खेज़] जहाँ के लोग सुंदर होते हों।

हुस्नदान
संज्ञा पुं० [अ० हुस्न + हिं० दान] पानदान। खासदान।

हुस्नपरस्त
संज्ञा पुं० [अ० हुस्न + फ़ा० दान] सौंदर्योपासक। सुंदर रूप का प्रेमी। रूप का लोभी।

हुस्नपरस्ती
संज्ञा स्त्री० [अ० हुस्न + फ़ा० परास्त] सौंदर्योपासना। सुंदर रूप का प्रेम। रूप का लोभ।

हुस्नपसंद
वि० [अ० हुस्न + फ़ा० पसंद] सौंदर्यप्रेमी [को०]।

हुस्नफरोश
संज्ञा स्त्री० [अ० हुस्न + फ़रोश] रूप का सौदा करनेवाली स्त्री। गणिका। तवायफ। वेश्या [को०]।

हुस्नशिनास
वि० [अ०] सौंदर्यप्रेमी [को०]।

हुस्ना
संज्ञा स्त्री० [अ०] अत्यंत सुंदर स्त्री। हसीन औरत [को०]।

हुस्नेखुदादाद
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुस्नेखु दादाद] ईश्वरप्रदत्त सुंदरता। प्रकृतिप्रदत्त लावण्य। प्राकृतिक सौंदर्य। सहज सुषमा।

हुस्नेजन
संज्ञा पुं० [अ० हुस्नेज़न] अच्छी भावना। सुंदर धारणा [को०]।

हुस्नेतलब
संज्ञा पुं० [अ०] किसी वस्तु को माँगने अथवा लेने का अच्छा ढंग [को०]।

हुस्नोइश्क
संज्ञा पुं० [अ०] १. सौंदर्य और प्रेम। सुंदरता और स्नेह। २. नायिका और नायक [को०]।

हुस्नोदमक
संज्ञा स्त्री० [अ० + फ़ा० दम या दमक = अनु०] सौंदर्य और कांति। लावण्य तथा शोभा। उ०—है हेच नमक हुस्नोदमक हूरो गिलेमाँ।—कबीर मं०, पृ० ४६६।

हुस्यार पु ‡
वि० [फ़ा० हुशयार] दे० 'होशियार'। उ०—नहिं काहू का पतियारा। मृग निशदिन रहै हुस्यारा।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १४१।

हुस्यारपन पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुशयार + हिं० पन] होशियार होना। होशियारी। बुद्धिमत्ता। चातुर्य। चालाकी। उ०—आयो सुनि कान्ह भूल्यो सकल हुस्यारपन, स्यारपन कंस को न कहतु सिरातु है।—भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३३।

हुहव
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम।

हुहु
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व का नाम। हूहू।

हुहू
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व [को०]।

हूं
अव्य० [सं० हूम्] क्रोध या वर्जन बोधक अव्यय [को०]।

हूंकार
संज्ञा पुं० [सं० हूङ्कार] दे० 'हुंकार'।

हूँ (१)
अव्य० [अनु०] १. किसी प्रश्न के उत्तर में स्वीकारसूचक शब्द। २. समर्थनसूचक शब्द। ३. एक शब्द जिसके द्वारा सुननेवाला यह सूचित करता है कि मैं कही जाती हुई बात या प्रसंग ध्यान से सुन रहा हूँ। दे० 'हूं'।

हूँ (२)
अव्य० [सं० उप, प्रा० उव, हिं० ऊ] दे० 'हू'। उ०—(क) ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकुर सेए वपु बचन हिये हूँ। त्योँ न राम सुकृतज्ञ जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५४४। (ख) स्याम बलराम बिनु दूसरे देव को, स्वप्न हूँ माहिँ नहिँ हृदय ल्याऊँ।—सूर०, १।१६७।

हूँ (३)
क्रि० अ० वर्तमानकालिक क्रिया 'है' का उत्तम पुरुष, एकवचन का रूप। जैसे—'मैं हूँ'।

हूँ पु
सर्व० [सं० अहम्] अस्मद् शब्द का उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम। मैं। अहम्। उ०—(क) हूँ कुँमलाणी कंत बिण जलह बिहूँणी वेल।—ढोला०, दू० १६३। (ख) हूँ बलिहारी सज्जणाँ सज्जण मो बलिहार। हूँ सज्जण पगपानही सज्जण मो गलहार।—ढोला० दू०, १७६।

हूँकना
क्रि० अ० [अनु०] १. गाय का बछड़े की याद में या और कोई दुःख सूचित करने के लिये धीरे धीरे बोलना। हुँड़कना। उ०—ऊधो ! इतनी कहियो जाय। अति कृशगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय। जल समूह बरसत अँखियन तेँ हूँकति लीन्हें नावँ। जहाँ जहाँ गो दोहन करते ढूँढ़ति सोइ सोइ ठावँ।—सूर (शब्द०)। २. हुंकार शब्द करना। वीरों का ललकारना या दपटना। ३. सिसक कर रोना। कोई बात याद करके रोना।

हूँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अहम्] अहंभाव। अहंता। निजत्व का अभिमान। उ०—दादू हूँ की ठाहर है कहौ, तन की ठाहर तूँ। री की ठाहर जी कहौ, ज्ञान गुरु का यौं।—दादू०, पृ० १८।

हूँछ पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० उञ्छ] सीला बीनना। दे० 'उंछ'।

हूँछा (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] राजस्थान में होनेवाली भुरट नाम की एक कँटीली घास का बीज। उ०—जिण भूइ पन्नग पीयणकयर कँटाला रूँख। आके फोगे छाँहड़ी हूँछाँ भाँजइ झूँख।—ढोला०, दू० ३६१।

हूँछवृत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उञ्छवृत्ति] खेत में गिरे हुए दानों को बीनकर जीवन निर्वाह करने का काम। उ०—हूँछ वृत्ति मन मानि सम दृष्टी इच्छा रहित। करत तपस्वी ध्यान कंधा को आसन किए।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २३।

हूँठ
वि० [सं० अर्द्धचतुर्थ, प्रा० अदधुट्ठ (सं० 'अध्युष्ठ' कल्पित जान पड़ता है)] साढ़े तीन।

हूँठा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० हूँठ] १. साढ़े तीन का पहाड़ा। २. साढ़े तीन उ०—बीस हिसो नर आयु बखानी। हूँठा हाथ देही परमानी।—कबीर, सा०, पृ० २९२।

हूँठा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० अंगुष्ठ] दे० 'अँगूठा'।

हूँड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० होड़] खेतों की सिंचाई में किसानों की एक दूसरे को सहायता देने की रीति।

हूँण पु †
अव्य० [पं०] अब। इस समय। दे० 'हुण'। उ०— हूँण तिसनौं कोई क्यौं करि पावैं जिसदै रूप न रेषै।— सुदंर० ग्रं०, भा० १, पृ० २७५।

हूँत †
वि० [सं० आहूत] बुलाया हुआ। आहूत। उ०—अंत को माँ नै मुझै सोई जान फिर हूँत न कराया।—श्यामा०, पृ० ७१।

हूँमा
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० हुमा] एक पक्षी। दे० 'हुमा'। उ०—केवल हूँमा की हुँकारी की झाँई पर्वत के कंदरों में बोलती है।—श्यामा०, पृ० ७९।

हूँस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० हिंस] १. दूसरे की बढ़ती देखकर जलना। ईर्ष्या। डाह। २. दूसरे की कोई वस्तु देखकर उसे पाने के लिये दुखी रहना। आँख गड़ाना। ३. बुरी नजर। टोक। जैसे,—बच्चे को हूँस लगी है। क्रि० प्र०—लगना। ४. बुरा भला कहते रहने की क्रिया। कोसना। फटकार। जैसे,—दिन रात तुम्हारी हूँस कौन सहा करे ?

हूँस (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० हवस] चाह। उ०—कल कदमूँ के लंगर भारी कनक की हूँस।—रघु० रू०, पृ० २४०।

हूँसना (१)
क्रि० स० [हिं० हूँस] नजर लगाना।

हूँसना (२)
क्रि० अ० १. ईर्ष्या से जलना। २. किसी वस्तु पर आँख गड़ाना। ललचाना। ४. भला बुरा कहना। कोसना। ५. रह रहकर चिढ़ना।

हू पु † (१)
अव्य० [वैदिक सं० उप (= आगे, और); प्रा० उव, हिं० ऊ] एक अतिरेकबोधक शब्द। उ०—(क) काल हू के काल महाभूतन के महाभूत, कर्म हू के करम निदान के निदान है।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२९। (ख) तुम हू कान्ह मनो भए आजु कालि के दानि।—बिहारी (शब्द०)।

हू (२)
संज्ञा पुं० गीदड़ के बोलने का शब्द। यौ०—हूध्वनि, हूशब्द = हू, हू बोलनेवाला गीदड़। स्यार। हूरव।

हूक
संज्ञा स्त्री० [सं० हिक्का] १. हृदय की पीड़ा। छाती या कलेजे का दर्द जो रह रहकर उठता है। साल। क्रि० प्र०—उठना।—मारना। २. दर्द। पीड़ा। कसक। उ०—हिए हूक भरि नैन जल बिरह अनल अति हूम।—माधवानल०, पृ० २०४। ३. मानसिक वेदना। संताप। दुःख। उ०—व्यापै बिया यह जानि परी मनमोहन मीत सोँ मान किये तेँ । भूलिहुँ चूक परै जो कहूँ तिहि चूक की हूक न जाति हिये तेँ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ११८। ४. धड़क। आशंका। खटका।

हूकना
क्रि० अ० [हिं० हूक + ना (प्रत्य०)] १. सालना। दुखना। दर्द करना। कसकना। २. पीड़ा से चौंक उठना। उ०—(क) कुच तूंबी अब पीठि गड़ोऊँ। गहै जो हूकि गाढ़ रस धोऊँ।— जायसी (शब्द०)। (ख) त्यों पद्माकर पेखौ पलासन, पावक सी मनौ फूँकन लागी। वै ब्रजवारी बेचारी बधू बन बावरी लौं हिये हूकन लागीं।—पद्माकर (शब्द०)।

हूका पु् †
संज्ञा पुं० [अ० हुक़्क़ह्] दे० 'हुक्का'। उ०—गादी कूँटि दाबी बैठ हूका भी भराया।—शिखर०, पृ० ६०।

हूचक
संज्ञा पुं० [देश०] युद्ध। (डिं०)।

हूटना पु †
क्रि० अ० [सं० √ हूड् (= चलना)] १. हटना। टलना। उ०—हथियारनि सूटैँ नेकु न हूटैँ खलदल कूटैँ, लपटि लरै।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७। २. मुड़ना। पीठ फेरना। उ०— जुत्थन सोँ जूटैँ नेकु न हूटैँ, फिरि फिरि छूटैँ फेरि लरैँ।— पद्माकर ग्रं०, पृ० २९।

हूठा
संज्ञा पुं० [हिं० अँगूठा] १. किसी को चाही वस्तु न देकर उसे चिढ़ाने के लिये अँगूठा दिखाने की अशिष्ट मुद्रा। ठेंगा। उ०— प्यारे प्रीत बढ़ाय लिया चित चोरि कै। हूठयौ दै इठलाय चल्या मुख मोर कै।—घनानंद, पृ० १७५। २. अशिष्टों या गँवारों की बातचीत या विवाद में ऐंठ दिखाते हुए हाथ मटकाने की मुद्रा। भद्दी या गँवारू चेष्टा। मुहा०—हूठा देना = ठेंगा दिखाना। अशिष्टता से हाथ मटकाना। भद्दी चेष्टा करना। उ०—(क) नागरि विविध बिलास तजि बसी गँवैलिन माहिं। मूढ़नि में गनिबी कितौ हूठौ दै अठिलाहिं।—बिहारी (शब्द०)। (ख) गदराने तन गोरटी, ऐपन आड़ लिलार। हूठयौ दै अठिलाय दृग, करै गँवारि सु मार।—बिहारी (शब्द०)।

हूड़
वि० [सं० हूण (एक जाति)] १. हुड़। उजड्ड। अनपढ़। २. असा- वधान। बेखबर। ध्यान न रखनेवाला। ३. गावदी। अनाड़ी। ४. हठी। जिद्दी।

हूड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो पच्छिमी घाट (मलय पर्वत) के पहाड़ों से लेकर कन्याकुमारी तक होता है।

हूढ़ पु †
वि० [सं० हुण्ड (= ग्राम्य शूकर, मूर्ख राक्षस), प्रा० हुंड (= बेढब अंगवाला); देश०, हुड्ड (= भेड़ा)] दे० 'हूड़'। उ०—राम नाम कौं छाड़ि कै और भजै ते मूढ़। सुंदर दुख पावै सदा जन्म जन्म वै हूढ़।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६७७।

हूण (१)
संज्ञा पुं० [देश० या सं०] एक प्राचीन मंगोल जाति जो पहले चीन की पूरबी सीमा पर लूट मार किया करती थी, पर पीछेअत्यंत प्रबल होकर अशिया और योरप के सभ्य देशों पर आक्रमण करती हुई फैली। विशेष—हूणों का इतना भारी दल चलता था कि उस समय के बड़े बड़े सभ्य साम्राज्य उनका उवरोध नहीं कर सकते थे। चीन की ओर से हटाए गए हूण लोग तुर्किस्तान पर अधिकार करके सन् ४०० ई० से पहले वंक्षु नद (आवसस नदी) के किनारे आ बसे। यहाँ से उनकी एक शाखा ने तो योरप के रोम साम्राज्य की जड़ हिलाई और शेष पारस साम्राज्य में घुसकर लूटपाट करने लगे। पारसवाले इन्हें 'हैताल' कहते थे। कालिदास के समय में हूण वंक्षु के ही किनारे तक आए थे, भारतवर्ष के भीतर नहीं घुसे थे; क्योंकि रघु के दिग्विजय के वर्णन में कालिदास ने हूणों का उल्लेख वहीं पर किया है। कुछ आधुनिक प्रतियों में 'वंक्षु' के स्थान पर 'सिंधु' पाठ कर दिया गया है, पर वह ठीक नहीं। प्राचीन मिली हुई रघुवंश की प्रतियों में 'वंक्षु' ही पाठ पाया जाता है। वंक्षु नद के किनारे से जब हूण लोग फारस में बहुत अपद्रव करने लगे, तब फारस के प्रसिद्ध बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई० में उन्हें पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया। पर बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा। वे धीरे धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे। फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था। जब फारस में हूण साम्राज्य स्थापित न हो सका, तब हूणों ने भारतवर्ष की ओर रुख किया। पहले उन्होंने सीमांत प्रदेश कपिश और गांधार पर अधिकार किया, फिर मध्यदेश की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे। गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारा गया। इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा। कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे। सन् ४५७ ई० तक अंतर्वेद, मगध आदि पर स्कंदगुप्त का अधिकार बराबर पाया जाता है। सन् ४६५ के उपरांत हुण प्रबल पड़ने लगे और अंत में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युध्द करने में मारे गए। सन् ४९९ ई० में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (सं० तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया। इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए। तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल (सं० मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ। पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ। गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् से उसने सन् ५३२ ई० मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया। हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए। कहने की आवश्यकता नहीं कि हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए। राजपूतों में एक शाखा हूण भी है। कुछ लोग अनुमान करते हैं कि राजपूताने और गुजरात के कुनबी भी हूणों के वंशज हैं। २. एक स्वर्णमुद्रा। दे० 'हुन' (को०)। ३. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम जहाँ हूण रहते थे।—बृहत्०, पृ० ८६।

हूत (१)
वि० [सं०] १. पुकारा हुआ। जिसे आहूत किया गया हो। बुलाया हुआ। २. आमंत्रित [को०]।

हूत (२)
संज्ञा पुं० आह्वान करना। पुकारना। बुलाना [को०]।

हूत (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मछली। मीन। २. बारहवीं राशि। मीन राशि [को०]।

हूतकार पु
संज्ञा पुं० [सं० हूत + कार अथवा हुङ्कार] गर्जन। ललकार। हुकार। उ०—गरज्जे गयंदौ ये जंजीर झारेँ। मनौ हैँ हनूमत की हूतकारैँ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २७९।

हूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुलावा। आमंत्रण। २. आह्वान। ललकार। ३. आख्या। अभिधान। नाम [को०]।

हूतो पु
अव्य० [प्रा० हिंतो]दे० 'हुति'।

हूदा
संज्ञा पुं० [?]दे० 'हूल', 'हूला'।

हून (१)
संज्ञा पुं० [अ०] तिरस्कार। अपमान [को०]।

हून (२) †
संज्ञा पुं० [सं०] हूण। स्वर्ण। सोना।

हूनना पु †
क्रि० स० [सं० हवन] हवन करना। अग्नि में भस्म करना। उ०—सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहि सीस। हूने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस।— मानस, ६।२८।

हूनर पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० हुनर]दे० 'हुनर'। उ०—हद अवर हूनरदार हूनर भेट दें बहुभाव।—रघु, रू०, पृ० ७१।

हूनरदार पु
वि० [फ़ा० हुनर + दार]दे० 'हुनरमंद'। उ०—हद अवर हूनरदार हूनर भेट दैं बहुभाव।—रघु० रू०, पृ० ७१।

हूनिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० हूण (= देश)] एक प्रकार की भेंड़ जो तिब्बत के पश्चिम भाग में पाई जाती हैं।

हूब (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० हुब्ब]दे० 'हुब्ब'।

हूब (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. पाप। गुनाह। दोष। २. हत्या। हनन। बध [को०]।

हूबहू
वि० [अ०] ज्यों का त्यों। ठीक वैसा ही। बिल्कुल समान या सदृश। तुल्य।

हूम पु
संज्ञा पुं० [सं० होम] दे० 'होम' (२)। उ०—हिऐं हूक भरि नैन जल, विरह अनल अति हूम।—माधवानल०, पृ० २०४।

हूय
संज्ञा पुं० [सं०] आह्वान। आवाहन। जैसे,—देवहूय, पितृ हूय।

हूर (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मुसलमानों के स्वर्ग की अप्सरा। उ०— बिना उसके जल्बा दिखाती कोई परी या हूर नहीं। सिवा यार के, दूसरे का इस दुनियाँ में नूर नहीं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १९४। २. वह औरत जिसकी आँखें और बाल अत्यंत श्याम हों तथा शरीर अत्यंत गौर एवं दीप्त हो। अत्यंत खूबसूरत औरत। अप्सरा सी सुंदर स्त्री (को०)।

हूर (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. हत्या। हनन। कतल। वध। २. नुकसान। हानि [को०]।

हूरना
क्रि० स० [हिं० हूल + ना (प्रत्य०)] १. दे० 'हूलना'। †२. ठूस ठूसकर खाना।

हूरव
संज्ञा पुं० [सं०] स्यार। गीदड़ [को०]।

हूरहूण
संज्ञा पुं० [सं०] हूणों की एक शाखा जिसने योरप में जाकर हलचल मचाई थी। श्वेतहूण।

हूरा
संज्ञा पुं० [हिं० हूलना] १. लाठी का निचला छोर। दे० 'हूला'। २. †घूँसा। मुक्का।

हूराहूरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक त्योहार या उत्सव जो दीवाली के तीसरे दिन होता है। †२. मुक्का मुक्की। घूसेबाजी। मुक्के- बाजी।

हूर्छन
संज्ञा पुं० [सं०] टेढ़ी चाल। वक्र गति। धूर्तता [को०]।

हूर्छिता
वि० [सं० हूर्छितृ] १. वक्र गति से चलनेवाला। २. धूर्त। काइयाँ (को०)।

हूर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं०] लघु प्रवाह। छोटी नहर या जलप्रणाली [को०]।

हूल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० शूल] १. भाले, डंडे, छुरे, आदि की नोक या सिरे को जोर से ठेलने अथवा भोंकने की क्रिया। २. लासा लगाकर चिड़िया फँसाने का बाँस। ३. वमन करने की प्रवृत्ति। हुल्ल। ४. हूक। शूल। पीड़ा। (छाती या हृदय की)। उ०—कोकिल केकी कोलाहल हूल उठी उर में मति की गति लूली।—केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठना।

हूल (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु० सं० हुलहुल] १. कोलाहल। हल्ला। धूम। २. अस्तव्यस्तता। उलट पलट। परिवर्तन। ३. हर्षध्वनि। आनंद का शब्द। ४. युद्धाह्वान। ललकार। ५. खुशी। आनंद। प्रसन्नता। यौ०—हूलफूल।

हूलना
क्रि० स० [हिं० हूल + ना (प्रत्य०)] १. लाठी, भाले, छुरे आदि की नोक या सिरे को जोर से ठेलना या घुसाना। सिरे या फल को जोर से ठेलना या धँसाना। गोदना। गड़ाना। उ०— हूलै इतै पर मैन महावत, लाज के आँदू परे गथि पायँन।—पद्माकर (शब्द०)। २. शूल उत्पन्न करना।

हूला
संज्ञा पुं० [हिं० हूलना] शास्त्र आदि हूलने की क्रिया या भाव।

हूश (१)
वि० [हिं० हूड़ या फ़ा० हूश] १. असभ्य। जंगली। उजड्ड। २. अशिष्ट। असंस्कृत। बेहूदा।

हूश (२)
संज्ञा पुं० असंस्कृत या असभ्यजन। अशिष्ट व्यक्ति। जंगली आदमी। उ०—वे इसे हूशों की जबान बतलाते हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ९३।

हूस
संज्ञा पुं० [हिं० हूश] दे० 'हूश' (२)। उ०—नीति विरुद्ध सदैव दूत बध के अघ साने। रूस कुमति फँसि हूस आप सों आप नसाने।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ७९४।

हूसड़
वि० [हिं० हूस + ड़ (प्रत्य०)] दे० 'हूश (१)'।

हूह
संज्ञा स्त्री० [अनु०] हुंकार। कोलाहल। युद्धनाद। उ०—(क) चले हूह करि युथप बंदर।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दइ हूह।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—देना।

हूहू (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] अग्नि के जलने का शब्द। लपट के उठने या लहराने का शब्द। धायँ धायँ। जैसे,—हूहू करके जलना।

हूहू (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंधर्व का नाम।

हृच्छय (१)
वि० [सं०] हृदय में शयन या निवास करनेवाला।

हृच्छय (२)
संज्ञा पुं० १. मनोभव। कामदेव। मनसिज। २. प्रीति। प्रेम। स्नेह। ३. आत्मा। आत्मचैतन्य [को०]।

हृच्छयपीड़ित
वि० [सं० हृच्छयपीडित] १. कामवासना से पीड़ित। २. प्रेमभाव के कारण दुःखी। प्रेम में व्याकुल।

हृच्छयवर्धन
वि० [सं०] १. कामवर्धक। कामोद्दीपक। २. प्रेमभाव की अभिवृद्धि करनेवाला। स्नेहवर्धक [को०]।

हृच्छूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मन की कसक। हृदय की पीड़ा। २. कलेजे का दर्द। हृदय में होनेवाली वेदना या शूल जो एक रोग है।

हृच्छोक
संज्ञा पुं० [सं०] मनस्ताप। हृद्गत वेदना या परिताप [को०]।

हृच्छोष
संज्ञा पुं० [सं०] हृदयशून्यता। असहृदयता।

हृज्ज (१)
वि० [सं० हृत् + ज] मन से उत्पन्न। जो हृदय से या हृदय में जायमान हो।

हृणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोप। क्रोध। २. प्रज्वलित होना। जल उठना। प्रज्वलन [को०]।

हृणिया, हृणीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भर्त्सना। निंदा। विगर्हण। २. लाज। शर्म। हया। ३. कृपा। दया। अनुकंपा [को०]।

हृत्
वि० [सं०] १. ले जानेवाला। २. हर्ता। हरण करनेवाला जैसे,—धनहृत्। ३. वहन करनेवाला। ४. मोहित या मुग्ध करनेवाला [को०]।

हृत (१)
वि० [सं०] १. जिसे ले गए हों। पहुँचाया हुआ। २. हरण किया हुआ। लिया हुआ। ३. वंचित (को०)। ४. स्वीकार किया हुआ। स्वीकृत (को०)। ५. मोहित। मुग्ध (को०)। ६. विभागयुक्त। विभाजित। विभक्त (को०)।

हृत (२)
संज्ञा पुं० हिस्सा। विभाग। भाग [को०]।

हृतचंद्र
वि० [सं०] जो चंद्रमा से वियुक्त या वंचित हो। जैसे,— कमल [को०]।

हृतज्ञान
वि० [सं०] ज्ञानरहित। अज्ञ [को०]।

हृतदार
वि० [सं०] पत्नी से वियुक्त या वंचित [को०]।

हृतद्रव्य
वि० [सं०] धन संपत्ति से रहित [को०]।

हृतधन
वि० [सं०] जिसकी संपत्ति नष्ट हो गई हो [को०]।

हृतप्रसाद
वि० [सं०] जो शांति से वंचित हो। शांतिरहित। अशांत [को०]।

हृतमन
वि० [सं०] संज्ञा से हीन। बुद्धि या मस्तिष्क से विरहित [को०]।

हृतराज्य
वि० [सं०] जो राज्य से वंचित किया गया हो [को०]।

हृतवासा
वि० [सं०] जिसका वस्त्र हरण कर लिया गया हो [को०]।

हृतवित्त
वि० [सं०]दे० 'हृतद्रव्य' [को०]।

हृतशिष्ट
वि० [सं०] जो हरण करने से बच गया या शेष रह गया हो [को०]।

हृतशेष
वि० [सं०]दे० 'हृतशिष्ट'।

हृतसर्वस्व
वि० [सं०] जिसका सब कुछ हरण कर लिया गया हो। पूर्णतः बरबाद [को०]।

हृतसर्वस्वा
वि० स्त्री० [सं०] (वह स्त्री) जिसका सर्वस्व हरण किया गया हो। जिसका सब कुछ छीन लिया गया हो। उ०—हृदय को छोन लेनेवाली स्त्री के प्रति हृतसर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से वीभत्स और प्रलय की अनल शिखा से भी लहरदार होती है।—स्कंद०, पृ० ११६।

हृतसार
वि० [सं०] जिसका सार भाग ले लिया गया हो। जिसका उत्कृष्ट अंश या भाग ले लिया गया हो [को०]।

हृताधिकार
वि० [सं०] जिसके अधिकार का हरण कर लिया गया हो। जो अधिकार या पद से च्युत कर दिया गया हो। अपदस्थ।

हृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ले जाना। हरण। २. ध्वंस। नाश। विनाश। ३. लूटने की क्रिया। लूट।

हृतोत्तर
वि० [सं०] बिना उत्तर के छोड़ा हुआ। अनुत्तरित। जिसका उत्तर न दिया गया हो या छोड़ दिया गया हो [को०]।

हृतोत्तरीय
वि० [सं०] जिसका उत्तरीय या उपवस्त्र हरण कर लिया गया हो [को०]।

हृत्कंप
संज्ञा पुं० [सं० हृत्कम्प] १. हृदय की कँपकँपी। दिल की धड़कन। २. जी का दहलना। अत्यंत भय। दहशत।

हृत्कमल
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय के पास स्थित एक प्रकार का चक्र जो योग में माने गए षट्चक्रों में से एक है। २. दे० 'हृत्पंकज' [को०]।

हृत्तल
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का तल। हृत्प्रदेश। अंतस्तल। उ०—उसके हृत्तल पर विक्षोभ भी हुआ।—सुनीता, पृ० ११९।

हृत्ताप
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की दाह या जलन। मनोवेदना [को०]।

हृत्पंकज
संज्ञा पुं० [सं० हृत्पङ्कज] कमल की तरह हृदय। कमल- रूपी हृदय।

हृत्पद्म
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हृत्पंकज'।

हृत्पिंड
संज्ञा पुं० [सं० हृत्पिण्ड] हृदय का कोश या थैली। कलेजा। जिगर।

हृत्पीडन
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय को पीड़ित करना। हृदय को दुःख देना। मन दुखाना [को०]।

हृत्पीडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हृदय की वेदना। मन की वेदना।

हृत्पुंडरीक
संज्ञा पुं० [सं० हृत्पुण्डरीक] हृत्कमल। हृत्पंकज।

हृत्पुष्कर
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हृत्पंकज'।

हृत्प्रिय
वि० [सं०] जो हृदय को प्रिय हो। जो मन को प्रिय लगता हो [को०]।

हृत्सार
संज्ञा पुं० [सं०] साहस। हिम्मत। कलेजा [को०]।

हृत्स्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० हृत्स्तम्भ] हृदय का स्तंभयुक्त या निश्चेष्ट होना। हृदय का पक्षाघात [को०]।

हृत्स्थ
वि० [सं०] हृदयस्थित। हृदयस्थ [को०]।

हृत्स्थल
संज्ञा पुं० [सं० हृत् + स्थल] हृदयस्थल। हृदय। उ०— उनकी नेत्र ज्योति बिजली की तरह हृत्स्थल में लगती है।— काया० पृ० ९८।

हृत्स्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय फटना। हृदय का विदीर्ण या भग्न होना [को०]।

हृद्
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय। दिल। मन। २. छाती। वक्ष। सीना (को०)। ३. चैतन्य। आत्मा (को०)। ४. किसी वस्तु का सत् या सार भाग। वस्तु का भीतरी या मध्यवर्ती भाग। हीर (को०)।

हृदनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ह्रदनी (= नदी), ह्नाद (= अव्यक्त ध्वनि करना)] नदी। सरिता। उ०—सरिता धुनी तरंगिनी तटिनी हृदनी होइ।—अनेकार्थ०, पृ० ४४।

हृदयंगत
वि० [सं० हृदयङ्गत] जिसे समझा दिया गया हो या जिसका सम्यक् बोध हो गया हो। हृदय में बिठाया हुआ। हृदयस्थ। उ०—यदि किसी ने सचमुच उसके बारे में पहले हृदयंगत करा दिया होता, तो मेरे जैसे कितने बच गए होते।—किन्नर० पृ० ३।

हृदयंगम (१)
वि० [सं० हृदयङ्गम] १. मन में आया हुआ। मन में बैठा हुआ। २. समझ में आया हुआ। जिसका सम्यक् बोध हो गया हो। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. मर्मस्पर्शी। रोमांचकारी (को०)। ३. प्रिय। सुंदर। मनोहर। आनंददायक। (को०)। ४. सुखद। आकर्षक। रुचिकर (को०)। ५. प्यारा। प्रिय। वल्लभ (को०)। ६. वांछित। इष्ट। ८. समुचित। योग्य। उपयुक्त (को०)। ८. हृदय से निकला हुआ (को०)।

हृदयंगम (२)
संज्ञा पुं० उचित कथन। उपयुक्त कथन। हृदय को स्पर्श करनेवाली बात या उक्ति [को०]।

हृदय
संज्ञा पुं० [सं०] १. छाती के भीतर बाईं ओर स्थित मांसकोश या थैली के आकार का एक भीतरी अवयव जिसमें स्पंदन होता है और जिसमें से होकर शुद्ध लाल रक्त नाड़ियों के द्बारा सारे शरीर में संचार करता है। दिल। कलेजा। विशेष दे० 'कलेजा'। मुहा०—हृदय धड़कना = (१) हृदय का स्पंदन करना या कूदना (२) भय या आशंका होना।२. छाती। वक्षस्थल। मुहा०—हृदय से लगाना = आलिंगन करना। भेंटना। हृदय विदीर्ण होना = अत्यंत शोक होना। विशेष दे० 'छाती'। ३. अंतःकरण का रागात्मक अग। प्रेम, हर्ष, शोक, करुणा, क्रोध आदि मनोविकारों का स्थान। जैसे,—उसे हृदय नहीं हैं, तभी ऐसा निष्ठुर कर्म करता है। मुहा०—हृदय उमड़ना = मन में प्रेम, शोक या करुणा का वेग उत्पन्न होना। हृदय भर आना = दे० 'हृदय उमड़ना'। विशेष दे० 'जी' और 'कलेजा'। ४. अंतःकरण। मन। जैसे,—वह अपने हृदय की बात किसी से नहीं कहता। मुहा०—हृदय की गाँठ = (१) मन का दु्र्भाव। (२) कपट। कुटिलता। विशेष दे० 'जी' और 'मन'। ५. अंतरात्मा। आत्मा। ६. विवेकबुद्धि। जैसे,—हमारा हृदय गवाही नहीं देता। (७) किसी वस्तु का सार भाग। ८. तत्व। सारांश। ९. गुह्य बात। गूढ़ रहस्य। १०. वेद (को०)। ११. अहंकार (को०)। १२. अत्यंत प्रिय व्यक्ति। प्राणाधार।

हृदयकंप
संज्ञा पुं० [सं० हृदयकम्प] १. हृदय की कँपकँपी। दिल की धड़कन। २. जी का दहलना। दहशत [को०]।

हृदयकंपन
वि० [सं० हृदयकम्पन] मन को क्षुब्ध करनेवाला।

हृदयक्लम
संज्ञा पुं० [सं०] मन की कमजोरी या शैथिल्य। हृदयदौर्बल्य [को०]।

हृदयक्षोभ
संज्ञा पुं० [सं०] मन क्षुब्ध या अशांत होना [को०]।

हृदयगत
वि० [सं०]दे० 'हृद्गत'।

हृदयग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० हृदयग्रन्थि] मन की गाँठ। हृदय को कष्ट देनेवाली वस्तु। जैसे,—अविद्यारूप संसार का बंधन [को०]।

हृदयग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] कलेजा पकड़ने का रोग। कलेजे का शूल या ऐँठन।

हृदयग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की बात को जान लेना। भेद या रहस्य जान लेना [को०]।

हृदयग्राहक
वि० [सं०] हृदय का ग्राहक। हृदय को ग्रहण करनेवाला। प्रतीति या विश्वास दिलानेवाला [को०]।

हृदयग्राही
वि०, संज्ञा पुं० [सं० हृदयग्राहिन्] [स्त्री० हृदयग्राहिणी] १. मन को मोहित करनेवाला। २. रुचिकर। भानेवाला।

हृदयचोर
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हृदयचौर'।

हृदयचौर
संज्ञा पुं० [सं०] दिल चुरानेवाला। मन को मोहनेवाला।

हृदयच्छिद्
वि० [सं०] हृदय को छेदनेवाला या पीड़ायुक्त करनेवाला [को०]।

हृदयज
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मज। पुत्र। बेटा [को०]।

हृदयज्ञ
वि० [सं०] १. हृदय को जानने समझनेवाला। २. रहस्य या भेद को समझनेवाला [को०]।

हृदयज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की जलन। मनोवेदना [को०]।

हृदयदाह
संज्ञा पुं० [सं०] मन की वेदना। हृदयगत दाह या जलन [को०]।

हृदयदाही
वि० [सं० हृदयदाहिन्] दिल को जलाने या पीड़ित करनेवाला [को०]।

हृदयदीप, हृदयदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] बोपदेव द्बारा रचित ओषध शास्त्र संबंधी एक अभिधान ग्रंथ।

हृदयदेश
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का स्थान या क्षेत्र। हृदय [को०]।

हृदयदौर्बल्य
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की दुर्बलता। मन की कमजोरी। कायरता। भीरुता।

हृदयद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का तीव्र गति से धड़कना। तेजी से दिल की धड़कन।

हृदयनिकेत
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसका निवासस्थान हृदय है। मनसिज। कामदेव। उ०—सकल कला करि कोटि विधि हारेउ सेन समेत। चली न अचल समाधि सिव, कोपेउ हृदयनिकेत।—तुलसी (शब्द०)।

हृदयनिकेतन
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव [को०]।

हृदयपीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनोवेदना। हृत्पीड़ा [को०]।

हृदयपुंडरीक
संज्ञा पुं० [सं० हृदयपुण्डरीक] पुंडरीक सदृश हृदय। कमल सदृश हृदय [को०]।

हृदयपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की धड़कन या स्पंदन।

हृदयप्रमाथी
वि० [सं० हृदयप्रमाथिन्] [वि० स्त्री० हृदयप्रमाथिनी] १. मन को क्षुब्ध या चंचल करनेवाला। २. मन मोहनेवाला।

हृदयप्रस्तर
वि० [सं०] पत्थर सदृश हृदयवाला। कठोरहृदय। क्रूरहृदय। निष्ठुर। संगदिल [को०]।

हृदयप्रिय
वि० [सं०] १. स्वादयुक्त। स्वादिष्ट। सुस्वादु। २. हृदय को प्रिय लगनेवाला। जो मन को प्रिय हो [को०]।

हृदयबंधन
वि० [सं० हृदयबन्धन] हृदय को बाँधने या मुग्ध करनेवाला [को०]।

हृदयमंथन
संज्ञा पुं० [सं० हृदय + मन्थन] भावों का आलोडन विलोडन। भावों का पारस्परिक संघर्ष। उ०—पंत जी का हृदयमंथन एक नवीन आशावाद में परिणत हो गय।— युगांत, पृ० (छ)।

हृदयरज्जु
संज्ञा पुं० [सं०] वह रेखा जो देशांतर निकालने के लिये कल्पित की जाती है। विशेष दे० 'मध्यरेखा'।

हृदयरोग
संज्ञा पुं० [सं०] हृदयसंबंधी रोग। दे० 'हृद् रोग' [को०]।

हृदयलेख
संज्ञा पुं० [सं०] १. औत्सुक्य। चिंता। व्यग्रता। २. बोध। ज्ञान [को०]।

हृदयलेख्य
वि० [सं०] हर्ष या आनंद देनेवाला [को०]।

हृदयवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेमपात्र। प्रियतय।

हृदयवान्
वि० [सं० हृदयवत्] [वि० स्त्री० हृदयवती] १. जिसके मन में प्रेम, करुणा आदि कोमल भाव उत्पन्न हों। सहृदय। २. भावुक। रसिक।

हृदयविदारक
वि० [सं०] १. अत्यंत शोक उत्पन्न करनेवाला। २. अत्यंत करुणा या दया उत्पन्न करनेवाला। जैसे,— हृदयविदारक घटना।

हृदयविध्
वि० [सं०] दे० 'हृदयवेधी'।

हृदयविरोध
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की पीड़ा या उपप्लव [को०]।

हृदयवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हृदय की प्रकृति या प्रवृत्ति। मन की सद्भावना या साधुशीलता [को०]।

हृदयवेधी
वि० [सं० हृदयवेधिन्] [वि० स्त्री० हृदयवेधिनी] १. मन को अत्यंत मोहित करनेवाला। जैसे,—हृदयवेधी कटाक्ष। २. अत्यत शोक उत्पन्न करनेवाला। ३. बहुत अप्रिय या बुरा लगनेवाला। अत्यंत कटु। जैसे,—हृदयवेधी वचन।

हृदयव्यथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हृदय की पीड़ा। मन की व्यथा [को०]।

हृदयव्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हृदय का रोग [को०]।

हृदयशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय का शूल। मन का काँटा। २. हृत्प्रदेश का घाव, चोट या जख्म [को०]।

हृदयशून्य
वि० [सं०] १. जो सहृदय न हो। अरसिक। २. क्रूर। निष्ठुर। हृदयहीन [को०]।

हृदयशैथिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की शिथिलता या विषण्णता। हृदयदौर्बल्य [को०]।

हृदयशोषण
वि० [सं०] हृदय या मन का शोषण करनेवाला [को०]।

हृदयसंघट्ट
संज्ञा पुं० [सं० हृदयसङ्घट्ट] हृदय की गति का रुक जाना। हृदय की जड़ता या अत्यंत शक्तिहीनता। दिल एक- बारगी बेकाम हो जाना।

हृदयसंसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] मन का मिलना। हृदय का मेल [को०]।

हृदयसंमित
वि० [सं० हृदयसम्मित] १. वह जो मन को इष्ट या प्रिय हो। २. हृदय अर्थात् वक्ष के बराबर ऊँचा [को०]।

हृदयस्थ
वि० [सं०] १. हृदय में स्थित या रहनेवाला। उ०— कहीं कोई सौंदर्यप्रेमी एकांत भाव से उस महाशोक के सौंदर्य को अपलक तृषित नेत्रों से हृदयस्थ किए जा रहे थे।—ज्ञान०, पृ० १६७। २. जो शरीर में हो। शरीर में स्थित। शरीरस्थ। जैसे,—कीटाणु (को०)।

हृदयस्थलो
संज्ञा स्त्री० [सं०] 'हृदयस्थान' [को०]।

हृदयस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] छाती। वक्षःस्थल [को०]।

हृदयस्पृक्
वि० [सं०] मन को छूने या स्पर्श करनेवाला। दे० 'हृदयस्पर्शी'।

हृदयस्पर्शी
वि० [सं० हृदयस्पर्शिन्] [वि० स्त्री० हृदयस्पर्शिणी] १. हृदय पर प्रभाव डालनेवाला। दिल पर असर करनेवाला। २. चित्त को द्रवीभूत करनेवाला। जिससे मन में दया या करुणा हो।

हृदयहारी
वि० [सं० हृदयहारिन्] [वि० स्त्री० हृदयहारिणी] मन मोहनेवाला। जी को लुभानेवाला।

हृदयहीन
वि० [सं०] १. कठोर हृदयवाला। २. क्रूर। निष्ठुर। जो सहृदय न हो। अरसिक। उ०—हृदयहीन कह लें मलीन मैं मधु वारिधि का मुग्ध मीन। अपवर्ग व्यर्थः केवल निसर्ग, संगीत, सुरा, सुंदरी स्वर्ग।—मधु०, पृ० ३३।

हृदयाकाश
संज्ञा पुं० [सं० हृदय + आकाश] हृदय का विस्तारक्षेत्र। हृदयरूपी आकाश। संपूर्ण हृदय [को०]।

हृदयात्मा
संज्ञा पुं० [सं० हृदयात्मन्] कंक या क्रौंच नायक पक्षी [को०]।

हृदयाधिकारी
वि० [सं० हृदय + अधिकारिन्] हृदय पर शासन करनेवाला। प्रेमपात्र। अतिशय प्रिय। उ०—हृदयाधिकारी रघुकुलमणि रघुनाथ के।—अपरा, पृ० ८०।

हृदयानुग
वि० [सं०] संतोषकर। तुष्टिकारक [को०]।

हृदयामय
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय़ का रोग। हृद्रोग [को०]।

हृदयारूढ़
वि० [सं० हृदय + आरूढ] हृदय पर चढ़ा हुआ। हृदयस्थ। उ०—सो याके ब्रज कौ स्वरूप हृदयारूढ़ ह्वै रह्यो।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२९।

हृदयालंकार
संज्ञा पुं० [सं० हदय + अलङ्कार] हृदय का आभूषण। हृदय की शोभा। उ०—यह तृष्ण ही कौस्तुभमणि बन मुझे दिखायेगी वह द्बारबन उसका हृदयालंकार।—वीणा, पृ० २९।

हृदयालु
वि० [सं०] १. सहृदय। रसिक। भावुक। २. अच्छे स्वभाव का। सुशील।

हृदयावर्जक
वि० [सं० हृदय + आवर्जक] हृदय को लुभानेवाला। मन को खींचनेवाला। आह्लादक [को०]।

हृदयाविध्
वि० [सं०] हृदयवेधक। मर्मंतुद [को०]।

हृदयासन
संज्ञा पुं० [सं० हृदय + आसन] हृदयरूपी या हृदय का आसन। उ०—बैठे हृदयासन स्वतंत्रमन। किया समाहित रूप विचिंतन।—अर्चना, पृ० ५।

हृदयिक
वि० [सं०] सहृदय। भावुक। हृदयालु [को०]।

हृदयी
वि० [सं० हृदयिनन्] १. हृदयवाला। सहृदय। २. सुशील [को०]।

हृदयेश
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० हृदयेशा] प्रेमपात्र। प्यारा। प्रियतम। २. पति। स्वामी। भर्ता।

हृदयेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रियतमा। प्राणेश्वरी। २. पत्नी [को०]।

हृदयेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० हृदयेश्वरी]दे० 'हृदयेश'।

हृदयेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'हृदयेशा'।

हृदयोद्गार
संज्ञा पुं० [सं० हृदय + उद्गार] मनोभाव। कामना। इच्छा। उ०—सुख दुख की प्रियकथा स्वप्न, बंदी थे हृदयोद्गार। एक देश था सही एक था क्या वाणी व्यापार।—युग०, पृ० ९४।

हृदयोद्बेष्टन
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय या मन का संकोच। हृदय का उद्बेष्टन या बंधन [को०]।

हृदयोन्मादकर
वि० [सं०] हृदय को उन्मत्त या उन्माद से युक्त करनेवाला [को०]।

हृदयोन्मादिनी (१)
वि० स्त्री० [सं०] १. हृदय को उन्मत्त या पागल करनेवाली। २. मन को मोहनेवाली।

हृदयोन्मादिनी (२)
संज्ञा स्त्री० संगीत में एक श्रुति।

हृदय्य
वि० [सं०] जो हृदय को अत्यंत प्रिय हो [को०]।

हृदा पु †
संज्ञा पुं० [सं० हृदय, पुं० हिं० हिरदा]दे० 'हृदय'। उ०— गुरगम मंत्र जाप करु अजपा हृदा पुस्तक कीजै।—रामानंद०, पृ० २७।

हृदामय
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का रोग। हृद्रोग [को०]।

हृदावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़े की छाती पर की भौँरी जिसे घोड़े का बहुत बड़ा दोष या ऐब माना जाता है [को०]।

हृदि (१)
संज्ञा पुं० [सं० हृद् का अधिकारण रूप] हृदय में। उ०—द्बंद्ब विपति भयफंद विभंजय। हृदि बसि राम काममद गंजय।— तुलसी (शब्द०)।

हृदि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक यादवकुमार का नाम [को०]।

हृदिशय
वि० [सं०] हृदय में शयन करने अथवा रहनेवाला [को०]।

हृदिस्थ
वि० [सं०]दे० 'हृदयस्थ'।

हृदिस्पृक्
वि० [सं० हृदिस्प्श्] हृदय को स्पर्श करनेवाला। हृदय- स्पर्शी। मनोहर [को०]।

हृदुत्कलेद, हृदुत्क्लेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय का रोग। २. वमन। कै।

हृदै पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय]दे० 'हृदय'। उ०—अनोखी तुही नई एक नारि। पावस रितु मैं मान करै कोउ लखि तो हृदै विचारि।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५११।

हृदौ पु
संज्ञा पुं० [सं० हृदय]दे० 'हृदय'। उ०—दुखी दीन प्राणी कहौ ब्रह्मवाणी। हृदौ प्रेम भीजै अभैदान दीजै।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १२।

हृद्ग
वि० [सं०] हृदय तक पहुँचनेवाला। जो अंतस्तल तक पहुँचा हो। जैसे,—आचमन का जल [को०]।

हृद्गत (१)
वि० [सं०] १. हृदय का। मन का। आंतरिक। भीतरी। जैसे,—हृद्गत भाव। २. मन में बैठा या जमा हुआ। समझ या ध्यान में आया हुआ। क्रि० प्र०—करना।—होना। ३. ईप्सित। मनचाहा। ४. प्रिय। रुचिकर। ५. हृदयसंबंधी। हृदय का [को०]।

हृद्गत (२)
संज्ञा पुं० अभिप्राय। मतलब। निष्कर्ष [को०]।

हृद्गद्
वि० [सं०] हृदय का रोग। हृद्रोग [को०]।

हृद्गम
वि० [सं०] हृदय में गमन या प्रवेश करनेवाला [को०]।

हृदगोल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।

हृद्ग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० हृद्गग्रन्थ] हृदय का ग्रंथ। हृदयव्रण [को०]।

हृद्ग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय की वेदना। कलेजे का ऐंठना [को०]।

हृद्घटन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हृदयरोग [को०]।

हृद् दाह
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का दाह। हृदय की जलन [को०]।

हृद्देश
संज्ञा पुं० [सं०] हृत्प्रदेश। हृदय का क्षेत्र। वक्षस्थल [को०]।

हृदद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय का द्रवीभूत होना। २. हृदय या कलेजे की धड़कन [को०]।

हृद्द्बार
संज्ञा पुं० [सं०] हृदयरूपी द्बार। हृदयरूपी दरवाजा [को०]।

हृद्धाम
संज्ञा पुं० [सं० हृद् + धामन्] हृदयरूपी घर। हृदय का स्थान। उ०—अंधकार का अलसित अंचल अब द्रुत ओढ़ेगा संसार। दिखलाई देगा जग श्याम तृषित ले रहा मम हृद्धाम।—वीणा, पृ० २९।

हृद्य (१)
वि० [सं०] १. हृदय का। हार्दिक। भीतरी। २. हृदय को रुचनेवाला। अच्छा लगनेवाला। ३. सुंदर। लुभावना। ४. हृदय को शीतल करनेवाला। हृदय को हितकारी। ५. खाने में अच्छा। सुस्वादु। स्वादिष्ट। जायकेदार। ६. अनुकूल (को०)।७. प्रिय। प्यारा (को०)।

हृद्य (२)
संज्ञा पुं० १. कपित्थ। कैथ। २. शत्रु को वशीभूत करने का एक मंत्र। ३. सफेद जीरा। ४. दही। ५. मधु। महुए की शराब। ६. विल्व वृक्ष (को०)। ७. अष्टवर्ग में गिनाई हुई वृद्धि नाम की ओषधि (को०)। ८. दालचीनी। दारचीनी (को०)।

हृद्यगंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० हृद्यगन्ध] १. बेल का पेड़ या फल। २. सोंचर नमक।

हृद्यगंध (२)
वि० सुगंधित। सुगंधयुक्त। खुशबूदार [को०]।

हृद्यगंधक
संज्ञा पुं० [सं० हृद्यगन्धक] सौवर्चल लवण [को०]।

हृद्यगंधा
संज्ञा पुं० [सं०] बड़े फूलों की जूही जिसकी सुगंध मोहक होती है [को०]।

हृद्यगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० हृद्यगन्धि] छोटा जीरा [को०]।

हृद्यत्व
संज्ञा स्त्री० [सं०] हृद्य अर्थात् रुचिकर, स्वीकरणीय या प्रिय होने का भाव। अनुकूलता। प्रियता।

हृद्यता
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हृद्यता' [को०]।

हृद्यांशू
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

हृद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अष्टवर्ग की वृद्धि नामक ओषधि या ज़ड़ी। २. अजा। बकरी।

हृद्रुज्
संज्ञा पुं० [सं०] १.दे० 'हृद्रोग'। २. हृदय की व्याधि, शूल या पीड़ा [को०]।

हृद्रोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंभ राशि। २. शोक। दुःख। संताप। ३. प्रेम। ४. हृदय की व्याधि। उ०—वात पित्त कफ युक्त हृद्रोग को त्रिदोष का हृद्रोग कहते हैं।—माधव०, पृ० १७०। यौ०—हृद्रोगवैरी = अर्जुन नाम का वृक्ष।

हृद्वंटक
संज्ञा पुं० [सं० हद् वण्टक] जठर। कुक्षि [को०]।

हृद्वर्ती
वि [सं० हृद्वर्तिन्] हृदय में स्थित। हृदयवर्ती [को०]।

हृद्विंदु
संज्ञा पुं० [सं० हृद्विन्दु] केंद्रविंदु। मध्यबिंदु। उ०— मानो सबका हृद्विंदु वही है।—सुनीता, पृ० १८७।

हृद्व्यथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हृदय की पीड़ा। मनोव्यथा। २. हृदय का क्षोभ या व्यग्रता।

हृद्व्रण
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृदय का घाव या जख्म। २. हृदय का काँटा या शूल।

हृल्लास
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिक्का। हिचकी। २. हृदय का क्षोभ या शोक। मन की व्यग्रता [को०]।

हृल्लासक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'हृल्लास'।

हृल्लेख
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिंतन। तर्क। अनुशोचन। २. ज्ञान। बुद्धि [को०]।

हृल्लेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्सुकता। औत्सुक्य। उत्कंठा। २. दुःख। शोक। ३. एक बीजमंत्र। ह्रीम् [को०]।

हृषि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हर्ष। आनंद। प्रसन्नता। २. कांति। चमक। दमक।

हृषि (२)
संज्ञा पुं० असत्यशील या झूठा आदमी।

हृषित
वि० [सं०] १. आनंदयुक्त। प्रसन्न। हर्षित। २. रोमांच- युक्त। जिसके शरीर के रोएँ खड़े हों। ३. वर्मयुक्त। वर्मित। ४. नूतन। ताजा। नवीन। ५. आश्चर्ययुक्त। चकित। विस्मित। ६. प्रतिहत। कुंठित। धारहीन। भोथरा। ७. नमित। प्रणत। ८. भग्नाश। हताश [को०]।

हृषी
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि और सोम [को०]।

हृषीक
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रिय। यौ०—हृषीकेश।

हृषीकनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. हृषीकेश। विष्णु। २. श्रीकृष्ण।

हृषीकपति
संज्ञा पुं० [सं०] हृषीकनाथ। विष्णु [को०]।

हृषीकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु का एक नाम। २. श्रीकृष्ण। ३. इंद्रियों का स्वामी। परमात्मा (को०)। ४. इंद्रियों का संचालनकर्ता। मन (को०)। ५. पूस का महीना। ६. हरिद्बार के पास एक तीर्थस्थान।

हृषीकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो इंद्रियों का स्वामी हो। विष्णु या श्रीकृष्ण [को०]।

हृषु (१)
वि० [सं०] १. हर्षित होनेवाला। प्रसन्न। २. झूठ बोलनेवाला।

हृषु (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि। २. सूर्य। ३. चंद्र।

हृष्ट
वि० [सं०] १. हर्षित। अत्यंत प्रसन्न। आनंदयुक्त। यौ०—हृष्टपुष्ट। हृष्टतुष्ट। २. खड़ा। उठा हुआ (रोयाँ) ३. उकठा हुआ। कड़ा पड़ा हुआ। ४. आश्चर्यान्वित। आश्चर्ययुक्त। विस्मित (को०)। ५. प्रतिहत। कुंठित। भोथरा [को०]।

हृष्टचित्त, हृष्टचेतन
वि० [सं०] आनंदयुक्त। प्रसन्नहृदय [को०]।

हृष्टचेता
वि० [सं० हृष्टचेतस्] प्रसन्नहृदय। हृष्टचित्त [को०]।

हृष्टतनु
वि० [सं०] प्रसन्नवदन। हर्षित। रोमांचित [को०]।

हृष्टतनूरूह
वि० [सं०] रोमांचयुक्त। रोमांचित [को०]।

हृष्टतुष्ट
वि० [सं०] प्रसन्न और संतुष्ट। जो हर्षित और संतोष- यु्क्त हो [को०]।

हृष्टपुष्ट
वि० [सं०] मोटा ताजा। तैयार। तगड़ा।

हृष्टमना
वि० [सं० हृष्टमनस्] प्रसन्नचित्त। हर्षित [को०]।

हृष्टमानस
वि० [सं०] दे० 'हृष्टमना' [को०]।

हृष्टरूप
वि० [सं०] अत्यंत उत्फुल्ल। विकसित बदन [को०]।

हृष्टरोमा (१)
वि० [सं० हृष्टरोमन्] रोमांचयुक्त। रोमांचित।

हृष्टरोमा (२)
संज्ञा पुं० जो खड़े और कड़े रोम से युक्त हो। एक असुर का नाम [को०]।

हृष्टवदन
वि० [सं०] प्रसन्नवदन। जिसका मुख आनंद के कारण चमक रहा हो [को०]।

हृष्टवृक
संज्ञा पुं० [सं०] गर्ग संहिता के अनुसार हिरण्याक्ष दैत्य के नौ पुत्रों में से एक का नाम।

हृष्टसंकल्प
वि० [सं० हृष्टसङ्कल्प] प्रसन्न। खुश। संतुष्ट [को०]।

हृष्टहृदय
वि० [सं०] प्रसन्नहृदय। संतुष्ट। आनंदमग्न। हर्षित [को०]।

हृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हर्ष। प्रसन्नता। उ०—मुझमें यह हार्द हृष्टि है, सुख की आँगन में सुवृष्टि है।—साकेत, पृ० ३२८। २. इतराना। मान। गर्व। घमंड से फूलना। ३. ज्ञान। जानकारी। समझ (को०)। ४. रोएँ खड़े होना। रोमांच (को०)।

हृष्टियोनि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नपुंसक। नपुंसक का एक भेद। ईर्ष्यक नपुंसक।

हृष्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना जिसका स्वरग्राम इस प्रकार है—प ध नि स रे ग म। ध नि स रे ग म प ध नि स रे ग।