अप्रस्तुतप्रशंसा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
अप्रस्तुतप्रशंसा संज्ञा [सं॰] वह अर्थालंकार जिसमें अप्रस्तुत के कथन द्बारा प्रस्तुत का बोध कराया जाय । विशेष—इसके पाँच भेद है —(क) कारणनिबंधना-जहाँ प्रस्तुत वा इष्ट कार्य का बोध कराने के लिये अप्रस्तुत कारण का कथन किया जाय़ । जैसे—लीनो राधा मुख रचन, विधि ने सार तमाम । तिहि भग होय आकाश यह शशि में दिखत श्याम । —मतिराम (शब्द॰) । (ख) कार्यनिबंधना—जहाँ कारण इष्ट हो और कार्य का कथन किया जाय । जैसे—तू पद नख की दुति कछुक, गइ धोवन जल साथ । तिहि कन मिलि दधि मथन में चंद्र भयों है नाथ ।—मतिराम (शब्द॰) । (ग) विशेषनिबंधना—जहाँ सामन्य इष्ठ हो और बिशेष का कथन किया जाय । जैसे—लालन सुरतरु धनद हू, अनहितकारी होय । तिनहुँ को आदर न ह्लै यो मानत बुध लोय़ ।—मति- राम (शब्द॰) । (घ) सामान्यनिबंधना—जहाँ बिशेष कहना इष्ट हो पर सामन्य का कथन किया जाय । जैसे—सीख न मानै गुरन की, अहिताहि हित मन मानि । सो पछताबै तासु फल, ललन भए हित हनि ।—मतिराम (शब्द॰) ।(च) सारुप्यनिबंधना—जहाँ अभीष्ट वस्तु का बोध उसके तुल्य बस्तु के कय़न द्बारा कराया जाय । जैसे—बक धरि धरिज कपट तजि, जो बनि रहै मराल । उधरै अंत गुलाब कबि, अपनी बोलनि चाल । —गुलाब (शब्द॰) ।