ऋतुकाल

विक्षनरी से

स्त्रियोंका ऋतुकाल-

जीवकी उत्पत्तिको 'गर्भोत्पत्ति' कहा जाता है। गर्भरूप जीव ऋतुस्नाता स्त्रीके आश्रयमें रहता है। ऋतुस्नानसे पूर्व स्त्री ‘रजस्वला' कहलाती है। प्रायः बारह वर्षकी अवस्थासे प्रारम्भ होकर पचास वर्षपर्यन्त प्रतिमास (चन्द्रमासके अनुसार २७-२८ दिनपर) स्त्रीके गर्भाशयसे स्वभावसे ही आर्तव या रजका स्राव हुआ करता है और आर्तवस्रावके प्रथम दिनसे सोलह रात्रियोंको ‘ऋतुकाल' माना जाता है और इनमें भी निषिद्धेतर काल ही गर्भाधानके योग्य माना जाता है। रजस्वला स्त्रीके लिये शास्त्रों में विशिष्ट नियम प्रतिपादित हैं। उनकी अवहेलनासे गर्भमें दोष-विकार आ जाते हैं। मघा-मूल आदि नक्षत्रों, निषिद्ध तिथियों तथा निषिद्धकालका परिहारकर प्रशस्त रात्रियों में आधान होनेसे गर्भकी आयु, आरोग्य, सौभाग्य, ऐश्वर्य तथा बलमें वृद्धि होती है।

स्त्रियोंके गर्भधारणकी योग्यताका काल ऋतुकाल कहा जाता है। मनुस्मृतिमें बताया गया है कि रजोदर्शनके दिनसे सोलह रात्रियाँ (दिन- रात) स्त्रियोंका स्वाभाविक ऋतुकाल है। उनमें रजोधर्म (मासिकधर्म)- के चार निन्दित दिन-रात भी सम्मिलित हैं। उन सोलह रात्रियों में प्रथम चार, ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रियाँ अर्थात् छः रात्रियाँ स्त्री-सहवासके लिये निन्दित हैं, शेष दस रात्रियाँ श्रेष्ठ मानी गयी हैं। उन दस रात्रियों में से युग्म (सम) अर्थात् छठी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं, चौदहवीं तथा सोलहवीं रात्रियों में अभिगमन होनेसे पुत्रोत्पत्ति होती है। और विषम रात्रियों (पाँचवीं, सातवीं, नवीं इत्यादि)-में अभिगमनसे कन्याकी उत्पत्ति होती है-

ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः।

चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः॥

तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या।।

त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः ॥

युग्मासु पुत्री जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु।

(मनुस्मृति ३ । ४६-४८)

याज्ञवल्क्यस्मृतिमें भी इसी बातको बताया गया है कि स्त्रियोंकी सोलह रात्रियाँ ऋतुकाल होती हैं, उस ऋतुकालमें युग्म (सम) रात्रियों में पुत्रार्थ उनके पास जाना चाहिये, ऐसा व्यक्ति ब्रह्मचारी ही होता है, किंतु पर्वकाल (अमावास्या, पूर्णिमा, अष्टमी और चतुर्दशी) तथा (रजोदर्शनकी) प्रथम चार रात्रियोंका निषेध करे-

षोडशर्तुनिशाः स्त्रीणां तस्मिन्युग्मासु संविशेत् ।

ब्रह्मचार्येव पर्वाण्याद्याश्चतस्रस्तु वर्जयेत् ॥

(याज्ञ० स्मृति आचा० १।७९)

ऋतुस्नाता स्त्रीके कर्तव्य-

शास्त्रों में जो लिखा है वह वैज्ञानिक रीतिसे प्रमाणित भी हो चुका है कि ऋतु-स्नानके अनन्तर स्त्री प्रथम जिसे देखती है, उसीका संस्कार उसके चित्तपर पड़ जाता है। उस संस्कारको वह अपने चित्तपर धारण किये रहती है। कारण कि ऋतुमतीका चित्त उन दिनों में ठीक फोटो लेनेवाले ‘कैमरे' के सदृश हो जाता है। यही कारण है। कि स्नानके अनन्तर सर्वप्रथम ऋतुस्नाता स्त्रीके लिये पतिदर्शन ही आवश्यक है। चित्तका प्रभाव शरीर, मन और बुद्धिपर कैसा पड़ता है, इसके विषयमें पाश्चात्य विद्वान् प्रोफेसर गेट्सका यह ज्ञापन है कि ‘मनोविज्ञान और शरीर विज्ञानके द्वारा प्रमाणित किया गया है किचिन्तन-शक्ति और भावनाका इतना पूर्ण प्रभाव स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरपर पड़ता है कि उनके अन्तर्गत कोई भी वस्तु इनके परिणामसे बच नहीं सकती। स्थूल शरीरके अन्तर्गत रक्त, मांस, मज्जा और वीर्य आदि कोई भी वस्तु उस प्रभावसे अछूती नहीं रह सकती। प्रकृतिके इस विज्ञान और चित्तके प्रभावको लक्ष्यमें रखकर ही ऋतुमतीके लिये यह आदेश है कि वह चौथे दिन शुद्ध होनेपर स्नान करे, नवीन वस्त्र एवं सुन्दर आभूषण पहने और सर्वप्रथम पतिका दर्शन करे; क्योंकि ऋतुस्नानके अनन्तर ऋतुस्नाता स्त्री सर्वप्रथम जैसे पुरुषको देखती है, वैसा ही पुत्र उत्पन्न करती है। इसलिये उसे पतिका ही दर्शन करना चाहिये। यदि पति उस समय वहाँ न हो तो पुत्र आदि किसी प्रियजनका दर्शन करे-

पूर्वं पश्येदृतुस्नाता यादृशं नरमङ्गना।

तादृशं जनयेत् पुत्रं भर्तारं दर्शयेदतः ॥

(सुश्रुतसंहिता शारीरस्थान २ । २६)

शरीरविज्ञानके आचार्य चरक कहते हैं कि गर्भकी उत्पत्तिके समय स्त्रीको मन जिस किसी प्राणीकी ओर आकृष्ट होता है, उसी प्राणीके सदृश सन्तानको स्त्री उत्पन्न करती है-

गर्भोपपत्तौ तु मनः स्त्रिया यं जन्तुं व्रजेत्तत्सदृशं प्रसूते। | (चरकसंहिता शारीरस्थान २ । २५)

स्त्रियोंके रजस्वला होनेका आख्यान-

प्राचीन समयकी बात है, एक बार देवराज इन्द्रने ऐश्वर्यके अभिमानवश अपने गुरु बृहस्पतिका अपमान कर दिया, तब आचार्य बृहस्पतिने इन्द्रसे अपमानित होकर देवताओंका परित्याग कर दिया और वे योगबलसे अन्तर्धान हो गये। आचार्यके अभावमें इन्द्रसहित देवता असुरोंके भयसे बहुत भयभीत हो गये। तब ब्रह्मादि सभी देवता आपसमें परामर्श करके त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और  अपना आचार्य बननेकी प्रार्थना की। पहले तो परम तपस्वी विश्वरूपजीने पुरोहिती और परिग्रहकी निन्दा की, किंतु फिर देवताओंके अनुनय- विनय करनेपर वे इसके लिये तैयार हो गये। विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। उन्होंने अपनी वैष्णवी विद्याके प्रभावसे असुरोंपर विजय दिलायी.और असुरोंद्वारा छीनी गयी सारी सम्पत्ति देवताओंको वापस दिला दी। आचार्य विश्वरूपके तीन सिर थे, इसलिये वे त्रिशिरा भी कहलाते थे। उनके पिता त्वष्टा बारह आदित्य देवताओंमें थे। इसलिये वे यज्ञके समय बड़े ऊँचे स्वरमें देवताओंको आहुति देते थे, परंतु उनकी माता दैत्योंकी बहन होनेसे असुरकुलकी थी। इसलिये वे भीतरसे दैत्योंके पक्षपाती थे और स्नेहवश गुप्तरूपसे उन्हें भी यज्ञभाग दे दिया करते थे। परिणामस्वरूप दैत्योंका बल विशेष रूपसे बढ़ने लगा। जब देवराज इन्द्रको यह बात मालूम चली तो वे विश्वरूपजीके कपटव्यवहारको देखकर अत्यन्त उत्तेजित हो गये और एक दिन उन्होंने वज्रके द्वारा विश्वरूपके तीनों सिरोंको काट डाला।

विश्वरूपका सोमरस पीनेवाला सिर पपीहा, सुरापान करनेवाला गौरैया और अन्न खानेवाला तीतर हो गया। इन्द्र चाहते तो विश्वरूपके वधसे लगी हुई ब्रह्महत्याको दूर कर सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्षतक उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं किया। एक वर्षके बाद सब लोगोंके सामने अपनी शुद्धि प्रकट करनेके लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्याको चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियोंको दे दिया। साथ ही चारोंको वरदान भी दिया। वरदानके प्रलोभनमें चारोंने ब्रह्महत्याके अंशको स्वीकार कर लिया। पृथ्वीने यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्डा होगा, वह समयपर अपने-आप भर जायगा, इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्यापृथ्वीमें कहीं-कहीं ऊसरके रूपमें दिखायी पड़ती है। दूसरा चतुर्थांश वृक्षोंने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जानेपर फिर जम जायगा। उनमें अब भी गोंदके रूपमें ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। स्त्रियोंने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुषका सहवास कर सकें, ब्रह्महत्याका तीसरा चतुर्थांश स्वीकार किया। इसके पहले वे ऋतुकालमें ही पुरुषका सहवास करती थीं। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीनेमें रजके रूपसे दिखायी पड़ती है। इस प्रकार प्रत्येक मासमें स्त्रियाँ रजोधर्मसे युक्त होती हैं और रजस्वला, ऋतुमती, उदकी, पुष्पिणी, आत्रेयी, मलवद्वासा, रजकी तथा आर्तवी आदि नामोंसे व्यवहृत होती हैं-

शश्वत्कामवरेणांहस्तुरीयं जगृहुः स्त्रियः।

रजोरूपेण तास्वंहो मासि मासि प्रदूश्यते॥

| (श्रीमद्भा० ६।९। ९)

जलने यह वर पाकर कि खर्च करते रहनेपर भी निर्झर आदिके रूपमें तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्याका चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदिके रूपमें वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं।.मूल रूपसे यह आख्यान कृष्णयजुर्वेदकी तैत्तिरीयसंहिताके.‘विश्वरूपो वै त्वाष्ट्र:०' –इस अनुवाकमें आया है, उसीका विस्तार पुराणों में हुआ है। ऋतुकालमें आरम्भके तीन दिनोंतक इन्द्रको लगी ब्रह्महत्याका चतुर्थांश रजस्वला स्त्रियों में रहता है, उस ऋतुकालके मध्यमें किये गये गर्भाधानके फलस्वरूप पापात्माओंके देहकी उत्पत्ति होती है।

रजस्वला स्त्रीके पालनीय आवश्यक नियम और उनका वैज्ञानिक रहस्य-

रजस्वला नारीके लिये कतिपय धार्मिक नियमोंका पालन  माना गया है; क्योंकि इनका सम्बन्ध प्रकृतिके नियमोंके साथ जुड़ा हुआ है। रजस्वलाके लिये विहित नियमोंका परिपालन ऋतुमती स्त्री और उसकी सन्ततिके शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि तथा स्वास्थ्यका.प्रबल एवं प्रथम कारण होता है। इन नियमों के पालनसे मनोभिलषित, लक्षण्य, स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान्, बुद्धिमान्, ओजस्वी, तेजस्वी एवं विनयशील सन्ततिका प्रजनन किया जा सकता है। इस विषयमें श्रुतियाँ, आयुर्वेद, कामशास्त्र और रसायनशास्त्र आदि सभी शास्त्र सहमत हैं।

तत्त्वचिन्तकोंका मत है कि क्षेत्रके संस्कार ही बीजकी सर्वविध उन्नतिके कारण होते हैं। अतः अपनी सन्ततिकी सर्वविध रक्षा एवं उन्नतिके लिये इनका पालन नारीमात्रको करना आवश्यक है।

रजस्वलाके नियम-

रजस्वला नारीको जिन-जिन नियमोंका पालन अपनी सन्तति तथा अन्योंकी स्वास्थ्य-रक्षाके लिये परमावश्यक होता है, उनका परिगणन शुक्लयजुर्वेदके शतपथब्राह्मण ग्रन्थ एवं कृष्णयजुर्वेदकी तैत्तिरीय शाखामें निम्नांकित रूपमें उलपब्ध है-

(१) एकान्तवास, (२) ब्रह्मचर्यपालन, (३) स्नानका त्याग, (४) तैलाभ्यंगवर्जन, (५) भूमिपर रेखा न खींचना, (६) अंजनका त्याग, (७) दन्तधावन-त्याग, (८) नख न कटाना, (९) वस्तुओंके छेदन-भेदनका त्याग, (१०) रस्सी न गूंथना, (११) पर्णपात्रसे जल न पीना, (१२) अन्यसे भाषण न करना, (१३) छोटे पात्रसे जल न पीना, (१४) भूमिपर शयन, (१५) पुण्यश्लोक मानवोंका स्मरण करना, (१६) अमंगल एवं बीभत्स पदार्थोंका चिन्तन न करना, (१७) पुण्यग्रन्थों में उल्लिखित दयावीर, दानवीर, क्षमावीर, धर्मवीर एवं सीता, सावित्री, अनसूया, दमयन्ती आदि महासतियोंके चरित्रोंका स्मरण करना।

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

ऋतुकाल संज्ञा पुं॰ [सं॰] रजोदर्शन के उपरांत के १५ दिन जिसमें स्त्रियाँ गर्भधारण के योग्य रहती हैं । इनमें से प्रथम चार दिन तथा ग्यारवाँ और तेरहवाँ दिन गमन के लिये निषिद्ध है । यौ॰—ऋतुकालभिगामी=दे॰ 'ऋतुगामी' ।