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करम

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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करम ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्म]

१. कर्म । काम । करनी । यौ॰—करमभोग= अपने कर्मों का फल । वह दुःख जो अपने किए हुए कर्मों के कारण हो । करम धरम = आचार व्यवहार । उ॰— जिसे अपने करम धरम की बातें कम मालूम थीं ।— किन्नर॰, पृ॰ १८ । मुहा॰ — करम भोगना = अपने किए का फल पाना ।

२. कर्म का फल । भाग्य । किस्मत । मुहा॰ — करम फूटना = भाग्य मंद होना । भाग्य बुरा होना । किस्मत खोटी होना । करम टेढ़ा या तिरछा होना= दे॰ 'करम फूटना ।' उ॰—पालागौं छाड़ौ अब अंचल बार बार अंचल करौं तेरी । तिरछे़ करम भयो पूरब को प्रीतम भयो पाँय की बेरी । — सूर (शब्द॰) । यौ॰ —करम का धनी या बली= (१) जिसका भग्य प्रबल हो । भाग्यवान । (२) अभागा । बदकिस्मत — (व्यंग) । करमरेख= भाग्य का लिखा । वह बात जो किस्मत में लिखी हो ।

करम ^२ संज्ञा पुं॰ [अ॰]

१. मिहरबानी । कृपा । उ॰— करम उनका मदद जब तें न होवे । वली हरगिज विलायत कूँ न पावे । — दक्खिनी, पृ॰ ११४ ।

२. मुर नाम का गोंद या पश्चिमी गुग्गुल जो अरब और अर्फिका से आता है । इसे 'बंदा करम' भी कहते हैं ।

करम ^३ संज्ञा पुं॰ [देश॰ ] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो तर जगहों में, विशेषकर जमुना के पूर्व की ओर, हिमालय पर ३००० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है । विशेष— इसकी सफेद और खुरदरी छाल आध इंच के लगभग मोटी होती है, जिसके भीतर से पीले रंग की मजबूत लकड़ी निकलती है । इस लकडी का वजन प्रति घनफुट १८ से २५ सेर तक होता है । यह लकड़ी इमारतों में लगती है और मेज, अलमारी आदि असबाब बनाने के काम में आती है । इस पेड़ को हलदू वा हरदू भी कहते हैं ।