कुंज

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

कुंज संज्ञा पुं॰ [सं क्ञ्ज, तुल, फ॰ कुंज]

१. वह स्थान जिसके चारो औऱ घनी लता छाई हो । वह स्थान जो वृक्ष लता आदि से मंड़ा की तरह ढ़का हो । —उ॰(क) जहँ वृदावन आदि उजर जहँकुंज लता विस्तार । तहै विहरत प्रिय प्रीतम दोऊ, निगम भृग गुंजार ।—सुर (शब्द॰) । (ख) सघन कुंज छाया सखद सीतल मंद समीर । मन ह्वै जाता अजहुँ वहै कालिंदी के तीर ।— बिहारी (शब्द॰) । यो॰— कुंज कुटीर = लतागृह । कुंज की खोरी = दे॰ 'कुंचगली' (१) उ॰— सुरदास प्रेम सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ।— सूर॰ १० । २६७ । कुंजगली = (१) बाटिका में लताओं से छायापथ । भूलभुलैया । (२) तग और पतली गली । कुंजबिहारी=दे॰ श्रीकृष्ण । उ॰— उ॰— जब तै बिछुरे कुँज बिहारी । नींद न परे घटे नहिं रजती रजती बिरह जुर भारी ।—सूर॰, १० ।३२४७ ।

२. हाथी का दांत ।

३. नीचे का जबड़ा (को॰) ।

४. दाँत [को॰] ।

५. गुफा । कदरा [को॰] ।

कुंज ^२ संज्ञा पुं॰ [फा॰ कुंज = कोना]

१. वे बूटे जो दुशाले के कोनों पर बनाए जाते हैं ।

२. खपरैल या छप्पर की छाजन में वह लकड़ी जो बँडेर से अंकर कोने पर तिरछी गिरती हैं । कोनिया । कोनसिला ।

३. वोण । कोना ।

कुंज ^१ संज्ञा पुं॰ [स॰] मंगल ग्रह । उ॰—(क) भाल विसाल ललित लटकन मनि बाल दसा के चिकुर सुहाए । मानौ गुरु शनि कुज आगे करि ससिंहिं मिलन तम के गन आए ।— सूर॰, १० ।१०४ । (ख) भाल लाल बेंदी ललन आखत रहे बिराजि । इंदु कला कुज में बसी मनहु राहु भय भाजि ।— बिहारी (शब्द॰) ।

२. वृक्ष । पेड़ । उ॰—चंदन बंदन जोग तुम धन्य द्रुमन के राय । देत कु कुज कंकोल लों देवन सीस चढ़ाय ।—दीन॰ ग्रं॰, पृ॰ २१३ ।

३. नरकासुर का नाम, जो पृथ्वी का पुत्र माना जाता था ।