तज

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

तज संज्ञा पुं॰ [सं॰ त्वज्]

१. तमाल और दालचीनी की जाति का मझोले कद का एक सदाबहार पेड़ जो कोचीन, मलाबार, पूर्व बंगाल, आसिया की पहाड़ियों और बरमा में अधिकता से होता है । विशेष—भारत के अतिरिक्त यह चीन, सुमात्रा और जावा आदि स्थानों में भा होना है । खासिया और जयंतिया की पहाड़ियों में यह पेड़ अधिकता से लगाया जाता है । जिन स्थानों पर समय समय पर गहरी वर्षा के उपरांत कड़ी धूप पड़ती है, वहाँ यह बहुत पर बीज से लगाए जाते हैं और जब पेड़ पाँच वर्ध के हो जाते हैं, तब वहाँ से हटाकर दूसरे स्थान पर रोपे जाते हैं । छोटे पौधे प्रायः बड़े पेड़ों या झाड़ियों आदि की छाया में ही रखे जातै हैं । बाजारों में मिलनेवाला तेजवान या तेजपत्ता इस पेड़ का पत्ता और तज (लकड़ी) इसकी छाल है । कुछ लोग इसे और दारचीनी के पेड़ को एक ही मानते हैं, पर वास्तव में यह उससे भिन्न हैं । इस वृक्ष की डालियों की फुनगियों पर सफेद फूल लगते हैं जिनसें गुलाब की सी सुगंध होती है । इसके फल करौंद के से होते है जिनमें से तेज निकाला जाता है ओर इत्र तथा अर्क बानाया जाता है । यह वृक्ष प्रायः दो वर्ष तक रहता है ।

२. इस पेड़ की छाल जो बहुत सुंगधित होती है और औषध के काम में आती है । वैद्यक में इसे चरपरा, शीतल, हलका, स्वादिष्ट, कफ, खाँसी, आम, कंडु, अरुचि, कृमि, पीनस आदि को दूर करनेवाला, पित्त तथा धातुवर्धक और बलकारक माना जाता है । पर्या॰—भृंग । वरांग । रामेष्ट । बिज्जुल । त्वच । उत्कट चोल । सुरभिवत्कल । सूतकट । मुखशोधन । सिंहजष । सुरस । कामवल्लभ । बहुगंध । वनप्रिय । लटपर्ण । गंधवक्कल । वर । शीत । रामवल्लभ ।