दंड

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संज्ञा

पु.

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

दंड संज्ञा पुं॰ [सं॰ दण्ड]

१. डंडा । सोंटा । लाठी । विशेष—स्मृतियों में आश्रय और वर्ण के अनुसार दंड धारण करने की व्यवस्था है । उपनयन संस्कार के समय मेखला आदि के साथ ब्रह्मचारी को दंड भी धारण कराया जाता है । प्रत्येक वर्ण के ब्रह्मचारी के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के दंडों की व्यवस्था है । ब्राह्मण को बेल या पलाश का दंड केशाँत तक ऊँचा, क्षत्रिय को बरगद या खैर का दंड ललाट तक और वैश्य को गूलर या पलाश का दंड नाक तक ऊँचा धारण करना चाहिए । गृहस्थों के लिये मनु ने बाँस का डंडा या छड़ी रखने का आदेश दिया है । संन्यासियों में कुटीचक और बहूदक को त्रिदंड (तीन दंड), हंस को एक वेणुदंड और परमंहस को भी एक दंड धारण करना चाहिए । ऐसा निर्णयसिंधु में उल्लेख है । पर किसी किसी ग्रंथ में यह भी लिखा है कि परमंहंस परम ज्ञान को पहुँचा हुआ होता है अतः उसे दंड आदि धारण करने की कोई आवश्य- कता नहीं । राजा लोग शआसन और प्रतापसूचक एक प्रकार का राजदंड धारण करते थे । मुहा॰—दंड ग्रहण करना = संन्यास लेना । विरक्त या संन्यासी हो जाना ।

२. डंडे के आकार की कोई वस्तु । जैसे, भुजदंड, शुडादंड, वेतसडंड, इक्षठुदंड इत्यादि ।

३. एक प्रकार की कसरत जो हाथ पैर के पेजों के बल औधे होकर की जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।—पेलना ।—मारना ।—लगाना । यौ॰—दंडपेल । चक्रदंड ।

४. भूमि पर औंधे लेटकर किया हुआ प्रणाम । दंडवत् । यौ॰—दंड प्रणाम ।

५. एक प्रकार व्यूह । दे॰ 'दंडव्यूह' ।

६. किसी अपराध के प्रतिकार में अपराधी को पहुँचाई हुई पीड़ा या हानि । कोई भूल चूक या बुरा काम करनेवाले के प्रति वह कठोर व्यवहार जो उसे ठीक करने या उसके द्वार पहुँची हुई हानि को पूरा कराने के लिये किया जाय । शासन और परिशोध की व्यवस्था । सजा । तदारुक । विशेष—राज्य चलाने के लिये साम दान भेद और दंड ये चार नीतियाँ शास्त्र में कही गई हैं । अपने देश में प्रजा के शासन के लिये जिस दंडनीति का राजा आश्रय लेता है उसका विस्तृ त वर्णन स्मृति ग्रंथों में हो । ऐसे दंड की तीन श्रेणियाँ मानी गई हैं—उत्तम साहस (भारी दंड, जैसे, वध, सर्वस्वहरण, देश- निकाला, अंगच्छेद इत्यादि); मध्यम साहस और प्रथम साहस । अग्निपुराण तथा अर्थशास्त्र में अन्य देशों के प्रति काम में लाई जानेवाली दंडविधि का भी उल्लेख हैं; जैसे, लुटना, आग लगाना, आघात पहुँचाना, बस्ती उजाड़ना इत्यादि ।

७. अर्थदंड । वह धन जो अपराधी से किसी अपराध के कारण लिया जाय । जुरमाना । डाँड़ । क्रि॰ प्र॰—लगाना ।—देना ।—लेना । मुहा॰—दंड डालना = (१) जुरमाना करना । अर्थदंड लगाना । (२) कर लगाना । महसूल लगाना । दंड पड़ना = हानि होना । नुकसान होना । घाटा होनवा । जैसे,—घड़ी किसी काम की न निकली, उसका रुपया दंड पड़ा । दंड भरना = (१) जुरमाना देना । (२) दूसरे के नुसकान को पुरा करना । दंड भोगना या भुगताना = (१) सजा अपने ऊपर लेना । दंड सहना । (२) जान बूझकर व्यर्थ कष्ट उठाना । दंड सहना = नुकसान उठाना । घाटा सहना । विशेष—सृतियों में अर्थदंड की भी तीन श्रेणियाँ हैं,—प्रथम साहस ढाई सी पण तक; मध्यम साहस पाँच सौ पण तक और उत्तम साहस एक हजार पण तक ।

८. दमन । शासन । वश । शमन । विशेष—संन्यासियों के लिये तीन प्रकार के दंड रखे गए हैं,— (१) वाग्दंड—वाणी को वश में रखना; (२) मनोदंड—मन को चंचल न होने देना, अधिकार में रखना और (३) कायदंड—शरीर को कष्ट का अभ्यास कराना । संन्यासियों का त्रिददंड इन्हीं तीन दंड़ों का सूरचक चिह्न है ।

९. ध्वजा या पताका का बाँस ।

१०. तराजू की डंडी । डाँडी ।

११. मथानी ।

१२. किसी वस्तु (जैरे, करछी, चम्मच आदि) की डंडी ।

१३. हल की लंबी लकड़ी । हल में लगनेवाली लंबी लकड़ी । हरिस ।

१४. जहाज या नाव का मस्तूल ।

१५. एक योग का नाम ।

१६. लंबाई की एक माप जो चार हाथ की होती थी ।

१७. हरिवंश पुराण के अनुसार इक्ष्वाकु राजा के सौ पुत्रों में से एक जिनके नाम के कारण दंडकारण्य नाम पड़ा । वि॰ दे॰ 'दंडक'—४ ।

१८. कुबेर के एक पुत्र का नाम ।

१९. (दंड देनेवाला) । यम ।

२०. विष्णु ।

२१. शिव ।

२२. सेना । फौज ।

२३. अश्व । घोड़ा ।

२४. साठ पल का काल । चौबीस मिनट का समय ।

२५. वह आँगन जिसके पूर्व और उत्तर कोठरियाँ हों ।

२६. सूर्य का एक पार्श्वचर । सूर्य का एक अनुचर (को॰) ।

२७. गर्व । घमंड । अभिमान (को॰) ।

२८. वाद्य बजाने की एक प्रकार की लकड़ी (को॰) ।

२९. कमल की नास । जैसे, कमलदंड । ३१ राजा के हाथ का दंड जो शासन का प्रतीक होता है (को॰) । ३२ डाँड़ । पतवार (को॰) ।