नीरस
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]नीरस वि॰ [सं॰]
१. रसहीन । जिसमें रस या गीलापन न हो ।
२. सूखा । शुष्क ।
३. जिसमें कोई स्वाद या मजा न हो । फीका । जिसमें कोई आनंद न हो । जैसे, नीरस काव्य ।
नीरस । बेजायका । जो चखने में अच्छा न लगे । अरुचिकर । उ॰—(क) माया तरवर त्रिविध का साख विषय संताप । शीतलता सपने नहीं फल फीका तन ताप ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) जे जल दीखा सोई फीका । ताकर काह सराहे नीका ।—जायसी (शब्द॰) । (ग) प्रभु पद प्रीति न सामझ नीकी । तिन्हहिं कथा सुनि लागहि फिकी ।—तुलसी (शब्द॰) । (घ) देह गेह सनेह अर्पण कमल लोचन ध्यान । सूर उनको भजन देखत फीको लागत ज्ञान ।—सूर (शब्द॰) ।
२. जो चटकीला न हो । जो शोख न हो । धूमला । मलिन । उ॰— चटक न छाड़त घटत हूँ सज्जन नेह गँभरि । फीको परे न बरु फटै रँग्यो चोल रँग चोर ।—बिहारी (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना ।—पकड़ना ।—होना ।
३. बिना तेज का । कांतिहीन । प्रभाहीन । वे रौनक । मंद । जैसे, चेहरा फीका पड़ना । उ॰—दुलहा दुलहिन मिलि गए फीकी परी बरात ।—कबीर (शब्द॰) ।
४. प्रभावहीन । व्यर्थ । निष्फल । उ॰—(क) प्रभु सों कहत सकुचाता हो परो जिनि फिरि फीको । निकट बोलि बलि बरजिए परिहरि ख्याल अब तुलसीदास जड़ जी को ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) नीकी दई अनाकनी फीकी पड़ी गुहारी । मनो तज्यो तारन बिरद बारिक तारि ।—बिहारी (शब्द॰) ।