बच

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

बच पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ वचस्] वचन । वाक्य । बात । उ॰— (क) जौं मोरे मन बच अरु काया । प्रति राम पदकमल अमाया ।— तुलसी (शब्द॰) । (ख) जइओं समीर सीतल बहु सजनी मन बच उड़ल सरीर ।— विद्यापति , पृ॰ ५०८ । (ग) नैनन ही बिहँसि बिहँसि कौलों बोलिहौ जू बच हूँ तो बोलिए बिहँसि मुख बाल सों ।— केशव (शब्द॰) । यौ॰— बचपाल = वचन पालना । कही बात पर दृढ़ रहना । उ॰— द्विज सनमान दान बचपालन दृढ़ ब्रत को हठि नाहिं टरै ।— भारर्तेदु ग्रं॰, भाग २, पृ॰ ४६५ ।

बच ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ वचा] एक प्रकार का पौधा जो ओषधि के काम में आता हैं । पर्य्या॰—उग्रगधा । षड़्ग्रंथा । गोलोमी । शतपर्विका । मगल्या । जटिला । तीक्ष्णा । लोमशा । भद्रा । कांगा । विशेष— यह पौधा काशमीर से ऐ आसाम तक तथा मनीपुर और बर्मा में दो हजार से छह हजार फुट तक ऊँचे पहाड़ों पर पानी के किनारे होता है । इसकी पत्ती सौसन की पत्ती के आकार की पर उससे कुछ बड़ी होती है । इसके फूल नरगिस के फूल की तरह पीले होते हैं । पत्तियों की नाल लंबी होती है । पत्तियों से एक प्रकार का तेल निकाला जाता है जो खुला रहने से उड़ जाता है । इसकी जल लाली लिए सफेद रंग की होती है जिसमें अनेक गाँठें होती हैं । पत्तियाँ खाने में कड़ुवी, चपंरी और गरम होती हैं और उनमें से तेज गंध निकलती है । वैद्यक में इसे वमनकारक, दीपन, मल औ र मूत्रशोधक और कंठ को हितकर माना है, तथा शूल, शोथ, वातज्वर, कफ, मृगी ओर उन्माद का नाशक लिखा है । यह गठिया में ऊपर से लगाई भी जाती है । भावप्रकाश में बच तीन प्रकार की लिखी गई है— (१) बच, (२) खुरासानी बच और (३) महाभरी बच । खुरासानी बच सफेद होती है । इसे मीठी बच भई कहते हैं । यह मति ओर मेधावर्धक तथा आयुवर्धक होती है । महाभरी को कुलीजन भी कहते हैं । यह कफ और खाँसी को दूर करती है, गले को साफ करती है, रुचि को बढ़ाती तथा मुख को शुद्ध करती है ।

बच पु ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चत्स, प्रा॰ बच्छ] गाय का बच्चा । बछड़ उ॰— बाल बिलख मुख गो न चरति तृण बछ पय पियन न धावैं । देखत अपनी आँखियेन ऊघो हम कहि कहा जनावैं ।— सूर (शब्द॰) । (ख) राक्षस तहाँ धेत बछ भष्णं ।— पृ॰ रा॰, ६१ । १७९९ । यौ॰—बछपाल = वत्सल । बच्छल । उ॰— बरषि कदम्म सुब्रन्न चढि, लज्जित बहु बर बाल । हथ्थ जोरि सम सो भई, प्रभु बुल्ले बछपाल ।— पृ॰ रा॰ २ । ३७७ ।