यज्ञ

विक्षनरी से

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

यज्ञ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध वैदीक कृत्य जिसमें प्रायः हवन और पूजन हुआ करता था । मख । याग । विशेष—प्राचीन भारतीय आर्यों में यह प्रथा थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मेंत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे और आशीर्वाद आदि देते थे । इसी प्रकार पशुओँ का पालन करनेवाले अपने पशुओँ की वृद्धि के लिये तथा किसान लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के समारंभ करके स्तुति आदि करते थे । इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होती थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म' कहते थे । इन्हीं ने आगे चलकर विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया । पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था; और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो 'ब्राह्मण' कहलाता था, रख लिया करता था । इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी । इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़ो ब़ड़े यज्ञ किय़ा करते थे । जैसे,— युद्ध के देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था । घीर धीर इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के निय़म आदि बनने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुंड बनने लगे । ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे । आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्त होनो लगी । मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' कहलाता था और वह देवताओँ की प्रार्थना करके उन्हें यज में आने के लिये आह्वान करता था । दूसरा ऋत्विज् 'उजगाता' यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था । तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था । चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित को सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी थी; और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम कि दिशा मानी जाती थी और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे । इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे । इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों का ज्ञाता होना भी आवश्यक था । जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक स्व/?/ । बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए । इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे । इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे । फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों के 'स्तृति' कहने लगे । प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है । (दे॰ 'वेद') । पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे । पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्माणों का महत्व भी बढ़ने लगा । इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी होती थी, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और भागवत आदि नए संप्रंदाय स्थापित हुए, जिनके कारण यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया । यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे । जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, राजसूज्ञ (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि । आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे और 'यश्न' कहलाते थे । इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द बन ा है । यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार क पुण्योत्सव थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं । पर्या॰—सव । अध्वर । सुप्ततंतु । ऋतु । इष्टि । वितान । मन्यु । आइव । सवन । हव । अभिपय । होम हवन । मह ।

२. विष्णु ।

३. अग्नि का एक नाम (को॰) ।