विक्षनरी:संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/अ-ञ
दिखावट
- मूलशब्द—व्याकरण—संधिरहित मूलशब्द—व्युत्पत्ति—हिन्दी अर्थ
- अंशः—पुं॰—-—अंश्+अच्—विशिष्ट संगीत-ध्वनि
- अंशकम्—नपुं॰—-—अंश्+ण्वुल्—सूर्य की दृष्टि से ग्रहों की स्थिति, विवाह का उपयुक्त लग्न
- अंशुकम्—नपुं॰—-—अंशु+कन् स्वार्थे—नेता, दूध बिलोने की क्रिया में प्रयुक्त रस्सी
- अंशूदकम्—नपुं॰—-—-—ओस का पानी
- अकर्मन्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—कार्य का अभाव, अकरण
- अकर्मन्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—वह कार्य जो विधि से स्वीकृत न हो
- अकर्मन्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—कार्य की उपेक्षा करना
- अकलङ्क—वि॰—-—-—कलंकरहित, निष्कलंक
- अकल्पनम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—अनारोपण
- अकाण्डताण्डवम्—नपुं॰—-—-—अवांछित हल्लागुल्ल
- अकालज्ञ—वि॰—-—-—अनुपयुक्त समय पर करने वाला
- अकालिकम्—अ॰—-—-—अचानक
- अकिल्विष—वि॰—-—-—निष्पाप
- अकृतकिल्विष—वि॰—-—-—जिसने कोई पाप नहीं किया है
- अकृतक—वि॰—-—कृ+क्त न॰ त॰ स्वार्थे कन्—जो बनाया हुआ न हो, स्वाभाविक
- अकृत्रिम—वि॰न॰त॰—-—-—प्राकृतिक, जो मनुष्यकृत न हो
- अक्कः—पुं॰—-—अक्+कन्—भंडार-गृह
- अक्ता—स्त्री॰—-—-—अञ्ज-क्त
- अक्लान्त—वि॰न॰त॰—-—-—जो थका न हो
- अक्लीबम्—अ॰—-—-—पूर्णतः, सचाई के साथ
- अक्षः—पुं॰—-—अश्+सः—हिंडोले या पालकी की खिड़की
- अक्षः—पुं॰—-—अश्+सः—जूआ खेलना
- अक्षदण्डः—पुं॰—अक्ष-दण्डः—-—वह लकड़ी जिसमें धुरी लगी रहती है
- अक्षदृक्कर्मन्—वि॰—अक्ष-दृक्कर्मन्—-—अक्षांश ज्ञान करने के लिये गणित की प्रक्रिया
- अक्षविद्—वि॰—अक्ष-विद्—-—जूआ खेलने मे निपुण
- अक्षशलाका—स्त्री॰—अक्ष-शलाका—-—पाँसा
- अक्षशाली—पुं॰—अक्ष-शालिन्—-—जूआ घर का अधीक्षक
- अक्षशालिक—पुं॰—अक्ष-शालिक—-—जूआ घर का अधीक्षक
- अक्षयनीवी—स्त्री॰—-—-—स्थायी, धर्मार्थ दान-निधि
- अक्षय्यभुज्—पुं॰—-—क्षि+यत्, न्॰त्॰+भुज्+क्विप्—अग्नि
- अक्षि—नपुं॰—-—अश्+क्सि—आँख
- अक्ष्यामयः—पुं॰—अक्षि-आमयः—-—आँख का रोग, आँख दुखना
- अक्षिश्रवस्—नपुं॰—अक्षि-श्रवस्—-—साँप
- अक्षिसंवित्—पुं॰—अक्षि-संवित्—-—चाक्षुष संज्ञान, प्रत्यक्ष ज्ञान
- अक्षिसूत्रम्—नपुं॰—अक्षि-सूत्रम्—-—आँख का रेखाज्ञानस्तर
- अक्षिस्पन्दनम्—नपुं॰—अक्षि-स्पन्दनम्—-—आँख का फरकना
- अक्षौरिमम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—वह दिन या नक्षत्र जिसे चूड़ाकर्म संस्कार या मुण्डन के अशुभ माना गया है
- अक्ष्णया—स्त्री॰—-—-—टेढ़े-मेढ़े ढंग से
- अक्ष्णयारज्जुः—स्त्री॰—अक्ष्णया-रज्जुः—-—कर्णरेखा
- अखलः—पुं॰,न॰त॰—-—-—उत्तम वैद्य, निंद्य
- अखिलिका—स्त्री॰—-—-—कारली नामक वनस्पति
- अगजा—स्त्री॰—-—न गच्छति इति अगः, तस्मात् जायते अग+जन्+ड—पर्वत की पुत्री, पार्वती
- अगजानिः—पुं॰—-—-—शिव
- अगण्डः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—कबन्ध, जिसमें हाथ पैर न हों
- अगतिः—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—बुरा मार्ग
- अगदः—पुं॰,न॰त॰गदाभावः—-—-—औषधि
- अगदराजः—पुं॰—-—-—उत्तम औषधि
- अगर्दभः—पुं॰,न॰त॰—-—-—खच्चर
- अगाधसत्त्व—वि॰न॰ब॰—-—-—प्रबल आत्मशक्ति रखने वाला
- अगुल्मकम्—नपुं॰—-—-—अस्तव्यस्त, विशृंखलित
- अगोत्र—वि॰—-—-—जिसका कोई स्रोत या उद्गम स्थान न हो
- अग्निः—पुं॰—-—अङ्ग्+नि, ङ्लोपश्च—आग
- अग्निः—पुं॰—-—-—पिंगला नाडी
- अग्निः—पुं॰—-—-—आकाश
- अग्निकृतः—पुं॰—अग्नि-कृतः—-—काजू
- अग्निचूडः—पुं॰—अग्नि-चूडः—-—लाल शिखा वाला एक जंगली पक्षी
- अग्निचूर्णम्—नपुं॰—अग्नि-चूर्णम्—-—बारूद
- अग्निद्वारम्—नपुं॰—अग्नि-द्वारम्—-—घर का दरवाजा जो आग्नेय दिशा की ओर है
- अग्नियानम्—नपुं॰—अग्नि-यानम्—-—हवाई जहाज
- अग्निविश्यः—पुं॰—अग्नि-विश्यः—-—एक अध्यापक
- अग्निविश्यः—पुं॰—अग्नि-विश्यः—-—बाइसवाँ मुहूर्त
- अग्निसावर्णिः—पुं॰—अग्नि-सावर्णिः—-—एक मनु का नाम
- अग्निसूनुः—पुं॰—अग्नि-सूनुः—-—स्कन्द
- अग्निहोत्री—स्त्री॰—अग्नि-होत्री—-—अग्निहोत्र के लिये उपयुक्त गाय
- अग्न्या—स्त्री॰—-—-—तित्तिर नाम का पक्षी
- अग्रः—पुं॰—-—अङ्ग्+रक्,ङलोपः—पहाड़ की नोक या अगला भाग
- अग्रम्—नपुं॰—-—अङ्ग्+रक्,ङलोपः—समय का पूर्ववर्ती भाग
- अग्रासनम्—नपुं॰—अग्र-आसनम्—-—सम्मान का प्रथम पद
- अग्रोत्सर्गः—पुं॰—अग्र-उत्सर्गः—-—वस्तु का पहला अंश छोड़ कर उसे ग्रहण करना
- अग्रदेवी—स्त्री॰—अग्र-देवी—-—पटरानी, अग्रमहिषी
- अग्रधान्यम्—नपुं॰—अग्र-धान्यम्—-—अनाज, गल्ला
- अग्रनिरूपणम्—नपुं॰—अग्र-निरूपणम्—-—भविष्य कथन, भविष्यवाणी करना, पूर्ण निर्णय करना
- अग्रप्रदायी—वि॰—अग्र-प्रदायिन्—-—जो सबसे पहले देता है
- अग्रभावः—पुं॰—अग्र-भावः—-—पूर्ववर्तिता
- अग्रवक्त्रम्—नपुं॰—अग्र-वक्त्रम्—-—शल्योपयोगी उपकरण
- अग्रहारः—पुं॰—अग्र-हारः—-—ब्राह्मणों की बस्ती जिसके एक ओर शिव का तथा दूसरी ओर विष्णु का मन्दिर हो
- अग्रया—स्त्री॰—-—अग्रे जातः, अग्र+यत्+टाप्—आँवले का वृक्ष
- अघन—वि॰—-—-—जो घना या ठोस न हो
- अङ्कः—पुं॰—-—अङ्क् कर्तरि करणे वा अच्—पानी, जल
- अङ्कम्—नपुं॰—-—अङ्क् कर्तरि करणे वा अच्—पानी, जल
- अङ्ककारः—पुं॰—-—अङ्क+कारः—सर्वोत्तम योद्धा
- अङ्कित—वि॰—-—अङ्क्+क्त—चिह्नित, छाप लगा हुआ, गणना किया हुआ, क्रमाङ्कित
- अङ्गम्—नपुं॰—-—अम्+गन्—जैन धर्मावलंबियों का प्रधान धार्मिक ग्रंथ
- अङ्गक्रमः—पुं॰—अङ्ग-क्रमः—-—वह क्रम या नियमित व्यवस्था जिसके अनुसार कर्मकाण्ड की नाना प्रकार की प्रक्रियायें अपने अपने महत्त्व के अनुसार सम्पन्न की जाती हैं
- अङ्गजम्—नपुं॰—अङ्ग-जम्—-—रुधिर
- अङ्गभङ्गः—पुं॰—अङ्ग-भङ्गः—-—शरीर का वह भाग जो गुदा और अंडकोषों का मध्यवर्ती है
- अङ्गभूमिः—पुं॰—अङ्ग-भूमिः—-—चाकू या तलवार का फलका
- अङ्गवस्त्रोत्था—स्त्री॰—अङ्ग-वस्त्रोत्था—-—यूका, जूं
- अङ्गसंहिता—स्त्री॰—अङ्ग-संहिता—-—शब्द के अन्तर्गत स्वर और व्यंजनों का उच्चारणविषयक सम्बन्ध
- अङ्गसुप्तिः—स्त्री॰—अङ्ग-सुप्तिः—-—शरीर के अङ्गों का सो जाना
- अङ्गना—स्त्री॰—-—अङ्ग+न+टाप्—प्रियंगु नामक पौधा जिससे सुगंधित द्रव्य या अभ्यंजन तैयार किये जाते हैं
- अङ्गारः—पुं॰—-—अङ्ग+आरन्—जलता हुआ कोयला
- अङ्गारम्—नपुं॰—-—अङ्ग+आरन्—जलता हुआ कोयला
- अङ्गारावक्षेपणम्—नपुं॰—अङ्गार-अवक्षेपणम्—-—कोयलों को बुझाने या इधर से उधर हटाने वाला बेलचा
- अङ्गारकर्करि <०>अङ्गारकर्करी—स्त्री॰—अङ्गार-कर्करि <०>अङ्गार-कर्करी—-—जलते हुए कोयलों पर मोटी रोटी, बाटी
- अङ्गारधारिका—स्त्री॰—अङार-धारिका—-—अंगीठी
- अङ्गारकृक्षः—पुं॰—अङ्गार-वृक्षः—-—रक्तकरंजवृक्ष, करौंदा
- अङ्गिकरणिकः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—संभवतः, अभिलेखाधिकारी, पञ्जीकार
- अङ्गिका—स्त्री॰—-—अङ्ग+इनि+क+टाप्—चोली, अंगिया
- अङ्गुलीवेष्टः—पुं॰—-—अङ्गुलि+वेष्ट्+घञ्—अँगूठी
- अङ्घो—अ॰—-—-—क्रोध या शोकद्योतक अव्यय
- अङ्घरि—नपुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्—पैर
- अङ्घरि—नपुं॰—-—अङ्घ्+क्रिन्— किसी वस्तु का चतुर्थांश
- अङ्घरिकवचः—पुं॰—अङ्घरि-कवचः—-—जूता
- अङ्घरिजः—पुं॰—अङ्घरि-जः—-—शूद्र
- अङ्घरिपान—वि॰—अङ्घरि-पान—-—पैर का अंगूठा चूसने वाला बच्चा
- अङ्घरिसन्धिः—पुं॰—अङ्घरि-सन्धिः—-—टखना, गिट्टे की हड्डी
- अङ्घ्रिकवारि—नपुं॰—-—-—दीपक के मध्य का उभरा हुआ भाग, दीप दण्ड
- अचिन्त्यः—न॰त॰—-—चिन्त्+यच्—पारा, पारद
- अचोदनम्—न॰त॰—-—चुद्+णिच्+युच्—अव्यादेश, निदेशाभाव
- अच्छ—अ॰—-—-—प्राप्ति के भाव को द्योतन करने वाला अव्यय
- अच्युतजल्लकिन्—पुं॰—-—-—अमरकोश के एक टीकाकार का नाम
- अजमीढः—पुं॰—-—-—सुहोत्र के एक पुत्र का नाम
- अजयोनिजः—पुं॰—-—-—दक्षप्रजापति
- अजनाभः—पुं॰—-—-—भारतवर्ष का प्राचीन नाम
- अजरकः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—अजीर्ण, अपच
- अजरकम्—नपुं॰,न॰ब॰—-—-—अजीर्ण, अपच
- अजहत्स्वार्थवृत्तिः—स्त्री॰—-—न जहत्स्वार्थो यत्र, हा+शतृ, न॰ब॰—वह शब्द जो अपने भाव को सुरक्षित रखता हुआ समस्त पद के अर्थ में कुछ वृद्धि करता है
- अजादिः—पुं॰—-—-—पाणिनि का एक गण
- अज्ञातवस्तुशास्त्रम्—नपुं॰—-—-—पाखण्ड प्रतिपादक शास्त्र
- अञ्जकः—पुं॰—-—-—विप्रचित्ति के पुत्र का नाम
- अञ्जलिका—स्त्री॰—-—अञ्जलिरिव कायते, कै+क, टाप्—मकड़ी से मिलता जुलता एक कीड़ा
- अञ्जलिकावेधः—पुं॰—अञ्जलिका-वेधः—-—एक प्रकार का युद्धकौशल
- अञ्जिकः—पुं॰—-—-—यदु के एक पुत्र का नाम
- अञ्जिहिषा—स्त्री॰—-—अंह्+सन्+टाप्—जाने की इच्छा
- अट्टाल—वि॰—-—अट्ट्+अल्+अच्—ऊँचा, उत्तुंग
- अट्टालः—पुं॰—-—-—उत्सेघ, बुर्ज
- अडागमः—पुं॰—-—अट्+आगमः—भूतकाल द्योतन करने के लिए धातु के पूर्व लगाये जाने वाला ‘अ’
- अडुकः—पुं॰—-—-—हरिण
- अणुव्रतानि—नपुं॰—-—-—जैन धर्मानुयायी लोगों के लिए बारह सामान्य प्रतिज्ञाएँ
- अण्वम्—नपुं॰—-—-—सोमरस को छानने की छलनी का छिद्र
- अण्डकः—पुं॰—-—अम्_ड, स्वार्थे कन्—गोलाकार छत या गुम्बज
- अतन्त्रत्वम्—नपुं॰,न॰ब॰—-—-—बाहुल्य, अतिरिक्त मात्रा
- अतनु—वि॰,न॰त॰—-—-—जो छोटा न हो, बहुत, प्रचुर
- अतसिः—पुं॰—-—अत्+आसिच्—फेरी देने वाला साधु, भिक्षुक
- अतसिका—स्त्री॰—-—अत्+असच्+ङीष्+कन्+टाप्—पटसन
- अतिकल्यम्—अ॰—-—-—प्रभातकाल, बहुत सवेरे
- अतिकश—वि॰—-—-— कोड़े की मार को भी न मानने वाला, उच्छृंखल
- अतिकामुकः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—कुक्ता
- अतिक्रान्ता—स्त्री॰—-—अति+क्रम्+क्त्+टाप्—हाथी के कामोन्माद की छठी अवस्था
- अतिक्रान्तिः—स्त्री॰—-—अति+क्रम्+क्तिन्—सीमा के बाहर निकल जाना, उल्लंघन
- अतिगृहकम्—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—चौबारा, मियानी
- अतिजित्—वि॰प्रा॰स॰—-—-—पूर्णताया पराजित
- अतिधेनु—वि॰—-—-—जो बढ़िया से बढ़िया गौओं का स्वामी है
- अतिनामन्—पुं॰—-—-—छठे मन्वन्तर के सप्तर्षि समुदाय के एक ऋषि का नाम
- अतिनामा—पुं॰—-—-—छठे मन्वन्तर के सप्तर्षि समुदाय के एक ऋषि का नाम
- अतिपातः—पुं॰—-—अति+पत्+घञ्—ध्वंस, विनाश
- अतिपातित—वि॰—-—अति+पत्+णिच्+क्त—स्थगित,विलंबित
- अतिपातित—वि॰—-—अति+पत्+णिच्+क्त—पूर्णतः टूटा हुआ
- अतिपातुक—वि॰—-—-—अतिक्रमणकारी, बढ़कर
- अतिपरिचयः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—अत्यधिक घनिष्ठता
- अतिबाहुः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—असाधारण रूप से बड़ी भुजाओं वाला
- अतिबाहुः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—चौदहवें मन्वन्तर के एक ऋषि का नाम
- अतिबाहुः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—एक गन्धर्व का नाम
- अतिभङ्गम्—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—प्रतिमा
- अतियात—वि॰,प्रा॰स॰—-—-—बहुत तेज चलने वाला
- अतिरागः—पुं॰,अत्या॰स॰—-—-—अत्यधिक उत्साह
- अतिरेकः—पुं॰,अत्या॰स॰—-—-—प्राचुर्य
- अतिरेकः—पुं॰,अत्या॰स॰—-—-—बाहुल्य
- अतिरेकः—पुं॰,अत्या॰स॰—-—-—अन्तर
- अतिरेचकः—पुं॰—-—-—एक पौधा जिसका सेवन बहुत दस्तावर होता है
- अतिरोगः—पुं॰—-—-—क्षय रोग, तपेदिक
- अतिवर्तनम्—नपुं॰,अत्या॰स॰—-—-—क्षम्य अपराध
- अतिविष्ठित—वि॰अत्या॰स॰—-—-— बहादुर योद्धा
- अतिविष्ठित—वि॰अत्या॰स॰—-—-—सीमा का उल्लंघन करने वाला
- अतिवैशस्—वि॰अत्या॰स॰—-—-—चुभने वाला, दारुण, कठोर
- अतिसृष्टिः—स्त्री॰—-—अति+सृज्+क्तिन्—उत्कृष्ट रचना
- अतलः—पुं॰,न॰त॰—-—-—खाँसी
- अत्कः—पुं॰—-—अत्+कन्—घर का एक कोना
- अत्यन्तापह्नवः—पुं॰—-—अत्यन्त+अप्+ह्नु+अप्— बिल्कुल मुकर जाना, पूर्ण विरोध या निराकरण
- अत्यन्तसहचरित—वि॰—-—-—निश्चित रूप से साथ जाने वाला
- अत्यन्तीन—वि॰—-—अत्यन्त+खञ्—अत्यन्त गमनशील
- अत्यन्तीन—वि॰—-—अत्यन्त+खञ्—टिकाऊपन
- अत्यर्थवेदनः—पुं॰—-—विद्+णिच्+ल्युट्—हाथियों का एक भेद जो बहुत ही संवेदनशील होता है जरा से दण्ड को भी नहीं भूलता
- अत्यस्त—वि॰—-—अति+अस्+क्त—फेंका हुआ, लुढ़काया हुआ, दूर परे उछाला हुआ
- अत्याश्रमः—पुं॰—-—अति+आ+श्रम्+घञ्—संन्यास, वैराग्य
- अत्याहारयमाण—वि॰—-—अति+आ+हृ+णिच्+शानच्—ब्लपूर्वक ग्रहण करने वाला
- अत्रपु—वि॰,न॰ब॰—-—-—टीन का बना हुआ, कलईदार
- अत्रिजात—वि॰—-—अद्+त्रिन्+जन्+क्त—तीन वर्णों में से किसी एक वर्ण का मनुष्य, द्विज
- अत्री—स्त्री॰—-—-—अत्रि की पत्नी
- अत्रीचतुरहः—पुं॰—अत्री-चतुरहः—-—एक यज्ञ का नाम
- अत्रीजातः—पुं॰—अत्री-जातः—-—चन्द्रमा
- अत्रीजातः—पुं॰—अत्री-जातः—-—दत्तात्रेय
- अत्रीजातः—पुं॰—अत्री-जातः—-—दुर्वासा
- अत्रीभारद्वाजिका—स्त्री॰—अत्री-भारद्वाजिका—-—अत्रि वंशियों का भारद्वाजवंशियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध
- अत्वक्क—वि॰,न॰व॰—-—-—त्वचारहित, जिस पर खाल न हो
- अथ—अ॰—-—अर्थ+ड, पृषो॰ रलोपः—मङ्गल सूचक अव्यय जो प्रायः रचनाओं के आरम्भ में प्रयुक्त होता है
- अथातः—अ॰—अथ-अतः—-—इसलिये, अब, इसके पश्चात्
- अथानन्तरम्—अ॰—अथ-अनन्तरम्—-—इसलिये, अब, इसके पश्चात्
- अथकिमु—अ॰—अथ-किमु—-—और कितना, और इतना
- अथतु—अ॰—अथ-तु—-—परन्तु, इसके विपरीत
- अदर्शनम्—नपुं॰,न॰त॰—-—दृश्+ल्युट्—भ्रम, माया, अदृश्यता
- अदसीय—वि॰—-—अदस्+छ—इससे या उससे सम्बन्ध रखने वाला
- अदुपध—वि॰—-—अत्+उपध—वह शब्द जिसकी उपधा (अंतिम से पूर्ववर्ती मे ‘अ’ हो
- अदृष्टकल्पना—स्त्री॰—-—-—किसी अज्ञात पदार्थ या विचार की कल्पना करना
- अद्भुत—वि॰—-—अद्+भू+डुतच्—आश्चर्य युक्त
- अद्भुत—वि॰—-—अद्+भू+डुतच्—ऊँचाई की माप के पाँच आंशों में से एक जहाँ कि उँचाई चौड़ाई से दुगनी हो
- अद्भुतरामायणम्—नपुं॰—अद्भुत-रामायणम्—-—वाल्मीकि द्वारा रचित एक ग्रन्थ
- अद्भुतशान्तिः—स्त्री॰—अद्भुत-शान्तिः—-—अथर्ववेद का ६७ वाँ परिशिष्ट
- अद्भुतशान्तिः—स्त्री॰—अद्भुत-शान्तिः—-—पुराणों मे वर्णित एक व्रत का नाम
- अद्रिकटकम्—नपुं॰—-—अद्+क्तिन्+कट्+वुन्—पर्वतश्रेणी
- अद्रेश्य—वि॰—-—-—जो दिखाई न दे, अदृश्य
- अद्वारासङ्गः—पुं॰,न॰त॰—-—-—दरवाजे पर अन्दर जाने वालों की पंक्ति का न होना
- अद्वैध—वि॰न॰ब॰—-—-— अविभक्त, असद्भावनारहित
- अधम—वि॰—-—अव्+अम्; अवतेः अमः वस्य पक्षे धः—जो फूंक नहीं मारता, शेखी नही बघारता
- अधरकण्टकः—पुं॰—-—-—एक कांटेदार पौधा, धमासा
- अधःवेदः—पुं॰—-—-—एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह करना
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—वह स्थान जहाँ बहुत लोग एकत्र हों
- अधिकरणम्—नपुं॰—-—अधि+कृ+ल्युट्—विभाग
- अधिकरणलेखक—वि॰—अधिकरण-लेखक—-—अभिलेखाधिकारी जो क्रयपत्र तथा अन्य दस्तावेज अपनी देखरेख में तैयार कराता है, नाज़िर
- अधिगमः—पुं॰—-—अधि+गम्+घञ्—जानकारी का समाचार
- अधिपुष्पलिका—स्त्री॰—-—-—खादिर का वृक्ष, खैर
- अधिमखः—पुं॰—-—अधि+मख्+घञ्—यज्ञ की अधिशासी देवता
- अधिमुक्तकः—पुं॰—-—अधि+मुच्+क्त—मालती का एक प्रकार, चमेली
- अधिमुक्तिका—स्त्री॰—-—अधि+मुच्+क्तिन्, स्वार्थे कन्—वह सीपी जिसमें मोती रहता है
- अधिरोपः—पुं॰—-—अधि+रुप्+घञ्—दोषारोपण करना
- अधिरूषित—वि॰—-—अधि+रीष्+क्त—शृंगारवर्धक लेप से अभ्यक्त
- अधिवासः—पुं॰—-—अधि+रुप्+घञ्—जन्मभूमि, जन्मस्थान
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+लुट्—अव्स्था, आधार
- अधिष्ठानम्—नपुं॰—-—अधि+स्था+लुट्—नाश
- अधिष्ठानाधिकरणम्—नपुं॰—अधिष्ठान-अधिकरणम्—-—नगरनिगम, नगरपालिका का कार्यालय
- अधोनिबन्धः—पुं॰—-—-—हाथी के कामोन्माद की ऋतु में तीसरी अवस्था
- अध्ययनम्—नपुं॰—-—अधि+इ+ल्युट्—शिक्षा देना, अध्यापन करना
- अध्यवसिन्—वि॰—-—अध्यव+सो+अच्, ततः इनि—किसी व्रत के पालन हेतु किसी एक ही स्थान पर अवरुद्ध हो जाने वाला
- अध्यासित—वि॰—-— अधि+आस्+णिच्+क्त—बैठा हुआ, बसा हुआ
- अध्युषित—वि॰—-— अधि+वस्+क्त—ठहरा हुआ, रहा हुआ, अधिकार किया हुआ
- अध्यूढः—पुं॰—-— अधि+वह्+क्त—विवाह से पूर्व गर्भिणी सस्त्री का पुत्र
- अध्वर्युकाण्डम्—नपुं॰—-—-—अध्वर्यु नामक ऋत्विजों के लिये अभिप्रेत मंत्रों का संग्रह
- अनक्—वि॰—-—-—अन्धा
- अनघ—वि॰न॰ब॰—-—-—अनथक, बिना थका हुआ
- अनघाष्टमी—स्त्री॰—अनघ-अष्टमी—-—एक व्रत का नाम
- अनङ्गः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—वायु
- अनङ्गः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—भूत, पिशाच
- अनङ्गः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—परछाई
- अनन्तर—वि॰—-—-— सीधा, साक्षात्
- अनन्य—वि॰—-—-—जो किसी और के साथ भाग न ले रहा हो, निर्विरोध
- अनपग—वि॰,न॰ब॰—-—-—स्थिर, दृढ़
- अनपवृक्त—वि॰—-—-—जो त्यागा हुआ न हो, अत्यक्त
- अनपार्थ—वि॰,न॰ब॰—-—-—यथार्थ कारण से युक्त, नाय्य, उचित
- अनभिधानम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—अभीप्सित अर्थ का अप्रकाशन
- अनभिधानम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—व्याकरणसम्मत शब्द जो प्रयोग में न आता हो
- अनभिवादकः—नपुं॰,न॰त॰—-—-—विरोध करने वाला, प्रतिवादी
- अनभ्यन्तर—वि॰,न॰ब॰—-—-—अपरिचित, अनजान, अनभ्यस्त
- अनराल—वि॰,न॰ब॰—-—-—सीधा, अवक्र
- अनलः—पुं॰—-—-—क्रोध
- अनलात्मजः—पुं॰—अनल-आत्मजः—-—स्कन्द
- अनवकाशिकः—न॰ब॰—-—-—एक पैर पर खड़ा होकर कठोर तपस्या करने वाल
- अनवक्लृप्तिः—स्त्री॰—-—अनव+क्लृप्+क्तिन्— असंभावना, अविश्वसनीयता
- अनवगीत—वि॰,न॰ब॰—-—-—निरपराध, निर्दोष
- अनवद्याङ्गी—स्त्री॰,न॰ब॰—-—-—वह स्त्री जिसके शरीर के अङ्गों मे कोई दोष या त्रुटि न हो, अतः देवी का विशेषण
- अनवद्यरागः—पुं॰,न॰त॰—-—-—एक प्रकार का रत्न
- अनवर—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो अधम न हो, जो घटिया न हो
- अनहंवादिन्—वि॰—-—अन्+अहंवाद+इनि—अनभिमानी, जो गर्व न करता हो
- अनाक्रन्द—वि॰—-—-—पीड़ा से पागल या अत्यन्त व्याकुल
- अनाघ्रात—वि॰—-—-—न सूँघा हुआ, जो हाथ से न छुआ गया हो
- अनावर—वि॰,न॰ब॰—-—-—नंगे सिर वाला, जिसके सिर पर पगड़ी या टोपी कुछ भी न हो
- अनारम्भः—पुं॰,न॰त॰—-—-—शुरू न करना, आरम्भ न होना
- अनार्यता—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—अनुपयुक्तता, अयोग्यता
- अनावाप—वि॰—-—-—जो किसी नई वस्तु का अधिग्रहण नही करता है
- अनाश्वास—वि॰न॰ब॰—-—-—जिस पर निर्भर न किया जा सके
- अनाश्वासम्—अ॰—-—-—बिना सांस लिये, बिना आराम किये
- अनास्था—स्त्री॰—-—अन्+आ+स्था+क+टाप्—असहिष्णुता
- अनास्था—स्त्री॰—-—अन्+आ+स्था+क+टाप्—भरोसे का न होना, धैर्य का अभाव
- अनिद—वि॰—-—-—जो देखा या समझा न जा सके
- अनिमित्तम्—क्रि॰वि॰—-—-—जो ज्ञान का वैध साधन न हो
- अनिमेषः—पुं॰—-—अ+नि+विश्+क्त—अविवाहित
- अनिष्ठुर—वि॰—-—-—जो कठोर न हो, या क्रूर न हो
- अनिसर्ग—वि॰—-—-—अप्राकृतिक
- अनीकस्थानम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—सैनिक चौकी
- अनीप्सित्—वि॰—-—अन्+आप्+सन्+क्त—अवांछित, अनचाहा
- अनीर्षु—वि॰—-—अन्+ईर्ष्य्+उण्, यलोपः—जो ईर्ष्यालु न हो, जो डाह न करे
- अनीह—वि॰—-—अन्+ईह्+अच्—जो प्रयत्नशील न हो, आलसी
- अनुकच्छम्—नपुं॰,प्रा॰स॰—-—-—कच्छ या दलदली भूमि के साथ-साथ
- अनुकल्पम्—नपुं॰—-—अनुक्लृप्+अच्—घटिया स्थानापत्ति
- अनुकल्पम्—नपुं॰—-—अनुक्लृप्+अच्— समान, एक जैसा
- अनुकूलित—वि॰—-—अनुकूल+इतच्—जिसका स्वागत सत्कार होता है, सम्मानित
- अनुक्रमः—पुं॰—-—अनु+क्रम्+घञ्—दैनिक व्यायाम
- अनुक्षयम्—अ॰—-—-—हर रात, प्रतिरात्रि
- अनुगीता—स्त्री॰—-—-—महाभारत के चौदहवें पर्व का एक अंश
- अनुघट्ट्—भ्वा॰—-—-—लम्बाई की ओर से सहलाना, रगड़ना
- अनुजनः—पुं॰—-—अनु+जन्+अच्—सेवक, अनुचर
- अनुज्ञात—वि॰—-—अनु+ज्ञा+क्त—शिक्षित, शिक्षाप्राप्त
- अनुत्कट—वि॰—-—अन्+उद्+कटच्—छोटा, थोड़ा
- अनुत्तालः—पुं॰—-—अन्+उद्+तल्+घञ्—मधुर स्वर, रसीला गान
- अनुदिशम्—अ॰,प्रा॰स॰—-—-—प्रत्येक दिशा में
- अनुद्रष्टृ—वि॰—-—अनु+दृश्+तृच्—हितैषी
- अनुद्य—वि॰—-—अन्+वद्+ण्यत्—अनुच्चारणीय
- अनुधूपित—वि॰—-—-—खुशामद से फूला हुआ, उद्धत
- अनुनाथनम्—नपुं॰—-—अनु+नाथ+ल्युट्—प्रार्थना, याचना, अनुनय
- अनुनिशीथम्—अ॰—-—-—आधी रात के समय
- अनुनेय—वि॰—-—अनु+नी+यत्—अनुसरणीय, अनुशीलनीय
- अनुपस्कृत—वि॰—-—अनु+उप+कृ+क्त, सुडागमः—जिसकी बुद्धिमत्ता में कोई सन्देह न किया जा सके
- अनुपस्कृत—वि॰—-—अनु+उप+कृ+क्त, सुडागमः—स्वार्थ को दूर रखने वाला
- अनुपात्ययः—पुं॰—-—अन्+उप+इ+अच्—किसी व्यवस्था का अनुपालन करना, अपनी बारी से अपना कार्य करना
- अनुपालः—पुं॰—-—अनु+पाल्+अच्—रक्षक, पालक
- अनुप्रकीर्ण—वि॰—-—अनुप्र+कृ+क्त—पूर्णतः व्यस्त, आच्छादित
- अनुप्रभवः—पुं॰—-—अनुप्र+भू+अप्—जन्म-मरण का चक्र
- अनुप्रवण—वि॰—-—अनु+प्र+ल्युट्—रुचिकर, सुहावना
- अनुप्रहित—वि॰—-—अनु+प्र+धा+क्त—निश्चित, नियत
- अनुभाजित—वि॰—-—अनु+भज्+णिच्+क्त—पूजा किया गया
- अनुभू—भ्वा॰—-—-—अनुकूल आचरण करना
- अनुभावित—वि॰—-—अनु+भू+णिच्+क्त—अनुभवशील, प्ररक्षित
- अनुभतृ—पुं॰—-—अनु+भृ+तृच्—भरण पोषण करने वाला, पालन पोषण करने वाला
- अनुमन्त्रित—वि॰—-—अनु+मन्त्र+क्त—संस्कार किया गया, विनियुक्त
- अनुमात्रा—स्त्री॰—-—-—प्रस्ताव, संकल्प
- अनुयुज्—रुध्॰—-—-—प्रार्थना करना, याचना करना करना
- अनुयुञ्जक—वि—-—अनुयुज्+ण्वुल्—ईर्ष्यालु, डाह करने वाला
- अनुराद्ध—वि॰—-—अनु+राध्+क्त—सम्पन्न, अवाप्त
- अनुरुद्ध—वि॰—-—अनु+रुध्+क्त—रोका हुआ
- अनुरुद्ध—वि॰—-—अनु+रुध्+क्त—विरुद्ध
- अनुरुद्ध—वि॰—-—अनु+रुध्+क्त—शान्त किया हुआ, सान्त्वना दिया हुआ
- अनुलोमग—वि॰—-—अनुगतः लोम, गम्+ड—सीधा जाने वाला, सीधा चलने वाला
- अनुवाकः—पुं॰—-—अनुच्यते इति, वच्+घञ्, कुत्वम्— ब्राह्मण ग्रन्थों का एक अध्याय या प्रभाग
- अनुविषयः—पुं॰—-—अनु+वि+सि+अच्, षत्वम्—रुचि, स्वाद
- अनुवृत्—पुं॰—-—-—सेवा करना. पूजा करना
- अनुशाला—स्त्री॰—-—-—उपकक्ष, छोटा कमरा
- अनुशिष्ट—वि॰—-—अनु+शास्+क्त—सुप्रशिक्षित
- अनुशिष्ट—वि॰—-—अनु+शास्+क्त—पूछा गया
- अनुशिष्ट—वि॰—-—अनु+शास्+क्त—आदिष्ट, निर्दिष्ट
- अनुशायिन्—वि॰—-—अनु+शी+णिच्+इनि—साथ-साथ फैला हुआ
- अनुश्रविक—वि॰—-—अनु (श्रु+अप्)श्रव्+ठन्—शास्त्रों से संग्रह किया हुआ
- अनुषत्य—वि॰,प्रा॰स॰—-—-—जो सत्य के अनुरूप हो सके
- अनुसमयः—पुं॰—-—अनु+सम्+इ+अच्— भिन्न व्यक्तियों या प्रसङ्ग के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यवहार करना
- अनुसन्धानम्—नपुं॰—-—अनु+सम्+धा+ल्युट्—गवेषणा, खोज
- अनुसंधिः—पुं॰—-—अनु+सम्+धा+कि—पूछ-ताछ
- अनुसंसृतिः—स्त्री॰—-—अनु+सम्+सृ+क्तिन्—जन्म मरण की आवृत्ति
- अनुसंस्था—भ्वा॰—-—-—अनुगमन करना, अनुसरण करना
- अनुसंस्था—स्त्री॰—-—-—सतीप्रथा
- अनुसृत—वि॰—-—अनु+सृ+क्त—अनुगत
- अनुसृत—वि॰—-—अनु+सृ+क्त—चूने वाला, टपटप गिरने वाला
- अनूक्यम्—वेद॰—-—अनु+उच् समवाये क निपातः कुत्वम्, यत्—रीढ़ की हड्डी, कशेरुकीय, मेरुदण्ड
- अनूपय्—भ्वा॰—-—-—बाढ़ ला देना, भर देना
- अनेकपद—वि॰न॰ब॰—-—-—अनेक संख्याओं से युक्त, बहुत से अवयवों से बना हुआ
- अन्तः—पुं॰—-—अम्+तन्—अन्तिम अंश, अवशिष्ट अंश
- अन्तोष्ठः—पुं॰—अन्त-ओष्ठः—-—अधरोष्ठ, निचला होठ
- अन्तश्चक्रम्—नपुं॰—अन्तः-चक्रम्—-—शकुन, भविष्यसूचक भाव का जानना
- अन्तपरिच्छदः—पुं॰—अन्तः-परिच्छदः—-—बर्तन के ऊपर कलई आदि की परत रखना
- अन्तवान्—पुं॰—-—अन्त+मतुप्, मस्य यत्वम्—दिशाओं का स्वामी
- अन्तर्—अ॰—-—अम्+अरन्, तुडागमश्च—अन्दर, में, भीतर
- अन्तरङ्गम्—नपुं॰—अन्तर्-अङ्गम्—-—जो अन्त्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है या जिससे ऊपरी सम्बन्ध न होकर घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है
- अन्तर्गर्भिणीन्यायः—पुं॰—अन्तर्-गर्भिणीन्यायः—-—इस न्याय के अनुसार जब एक बात के भीतर दूसरी बात छिपी रहती है, जैसे गर्भाशय में गर्भ तब इसका प्रयोग होता है
- अन्तर्जानुशयः—पुं॰—अन्तर्-जानुशयः—-—जो अपने हाथों को घुटनों के बीच में रख कर सोता है
- अन्तर्मुख—वि॰—अन्तर्-मुख—-—जिसकी दृष्टि अन्दर की ओर होती है
- अन्तर्वैश्विकः—पुं॰—अन्तर्-वैश्विकः—-—अन्तःपुर का अधिकारी
- अन्तरम्—नपुं॰—-—अन्तं राति ददाति रा+क—स्तम्भतल का अङ्गमूल (आधार) से सन्धान करना
- अन्तारः—पुं॰—-—अन्त+ऋ+अण्—गड़रिया, गोपाल
- अन्धः—पुं॰—-—अन्ध+अच्—जिसे आँख से दिखाई न दे, अंधा
- अन्धः—पुं॰—-—अन्ध+अच्—अस्पष्ट, धुंधला
- अन्नंभट्टः—पुं॰—-—-—तर्कसंग्रह नामक पुस्तक के रचयिता का नाम
- अन्नाद—वि॰—-—अन्नमत्तीति अद्+अच्—अन्न के खाने वाला
- अन्य—वि॰—-—अन् अघ्रयादि॰ य—दूसरा, और, भिन्न
- अन्योन्य—वि॰—अन्य-अन्य—-—आपसी, पारस्परिक
- अन्योऽपदेशः—पुं॰—अन्य-अपदेशः—-—किसी और के बहाने, अप्रत्यक्ष उक्ति
- अन्वन्तः—पुं॰—-—अनु+अन्तः—शय्या, सोफा, मंच, ऊँचा आसन
- अन्वर्थनामन्—वि॰—-—अनु+अर्थ+नामन्—जिसका नाम उसके अपने चरित्र के अनुसार यथार्थ है, यथा नाम तथा गुण वाला
- अन्वारभ्—भ्वा॰आ॰—-—अनु+आ+रभ् —अनुरंजन करना. अनुकूल करना, प्रसन्न करना
- अन्वाहार्य—वि॰—-—अनु+आ+हृ+णिच्+यच्—जो क्रिया बाद में की जाय
- अन्वयवर्जितः—पुं॰,पं॰त॰—-—-—नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति, अधम, ओछा
- अन्वयायिन्—वि॰—-—-—अपत्य, वंशज, सन्तान
- अन्वित—वि॰—-—अनु+इ+क्त—युक्त, योग्य
- अन्वीक्षिक—वि॰—-—अनु+ईक्षा+ठक्—हितैषी, बुरा भला देखने वाला
- अप्पित्तम्—नपुं॰—-—-—अग्नि, आग
- अप—उप॰—-—न पाति रक्षति पतनात् पा+ड—ह्रास, कमी, विकृति, विरोध, अभाव
- अपाङ्गः—पुं॰—अप-अङ्गः—-—अन्त, समाप्ति
- अपास्त—वि॰—अप-अस्त—-—परित्यक्त, दूर फेंका हुआ
- अपाकीर्ण—वि॰—अप-आकीर्ण—-—दूर फेंका हुआ, अस्वीकृत
- अपकीर्तिः—स्त्री॰—अप-कीर्तिः—-—बदनामी, कलंक
- अपकोष—वि॰—अप-कोष—-—आच्छादन रहित, म्यान से पृथक की हुई कोई वस्तु
- अपटीक—वि॰—अप-टीक—-—जिसे किसी भाष्य या टीका की सहायता प्राप्त न हो
- अपटीक—वि॰—अ-पटीक—-—जिस पर कोई ढ़कना या पदार्थ न हो
- अपदश—वि॰—अप-दश—-—झालर या मगजी न लगा हुआ
- अपदानम्—नपुं॰—अप-दानम्—अप+दै+ल्युट्—वह आख्यायिका जिसमें भूत और भावी जन्मों का वर्णन हो
- अपदेशः—पुं॰—अप-देशः—-—भय, खतरा
- अपद्रुतम्—नपुं॰—अप-द्रुदम्—-—झुक कर भागना, दौड़ना
- अपनयः—पुं॰—अप-नयः—-—अनैतिकता, दुष्टाचरण
- अपनयनः—पुं॰—अप-नयनः—-—अन्याय, अनुचित व्यवहार
- अपनी—भ्वा॰—अप-नी—-—दुर्व्यवहार करना
- अपलीन—वि॰—अप-लीन—-—गुप्त, छिपा हुआ
- अप-वत्स—वि॰—अप-वत्स—-—बिना बछड़े का
- अप-वत्सय्—ना॰धा॰—अप-वत्सय्—-—ऐसा व्यवहार करना जैसा कि बिना बछड़े वाले के साथ किया जाता है
- अपवरः—पुं॰—अप-वरः—-—अन्दर का कमरा, सुरक्षित कक्ष
- अपवर्गः—पुं॰—अप-वर्गः—-—अवसान, अन्त
- अपवल्गित—वि॰—अप-वल्गित—-—निलम्बित, लटकाया हुआ
- अपशूद्रः—पुं॰—अप-शूद्रः—-—जो शूद्र न हो, द्विज
- अपष्ठु—वि॰—अप-ष्ठु—अप+स्था+कु—गलत, त्रुटिपूर्ण
- अपसृज्—तुदा॰—अप-सृज्—-—छोड़ना, त्यागना
- अपस्वानः—पुं॰—अप-स्वानः—-—झंझावात, आंधी
- अपहारः—पुं॰—अप-हारः—-—संग्रह, अवाप्ति
- अपराक्—अ॰—-—-—के सामने
- अपराक्—अ॰—-—-—पश्चिम की ओर
- अपरान्तः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—द्वीप वासी
- अपरापरम्—अ॰—-—अपर+अपर—आगे और आगे, फिर
- अपाठ्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो पढ़ा न जा सके
- पाणिग्रहणम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—ब्रह्मचर्य
- अपादानम्—नपुं॰—-—अप्+आ+दा+ल्युट्—स्रोत, कारण@नै॰२२/१४१
- अपारवार—वि॰,न॰ब॰—-—-— असीम
- अपिनद्ध—वि॰—-—अप्+नह्+क्त—बन्द, ढ़का हुआ, गुप्त
- अपिपरिक्लिष्ट—वि॰—-—अपि परि+क्लिश्+क्त—अत्यन्त उत्पीडित, तंग किया हुआ
- अपिस्वित्—अ॰—-—-—प्रसश्नसूचक अव्यय
- अपीत—वि॰—-—अपि+इ+क्त—विलीन, अन्तर्गत
- अपीत—वि॰—-—अपि+इ+क्त—मृत
- अपूर्तिः—स्त्री॰—-—अ+पृ+क्तिन्—कार्य का पूरा न करना
- अपूर्विन्—वि॰—-—-—जिसने विवाहित जीवन का अपनी पत्नी के साथ इससे पहले उपभोग न किया हो
- अपृथक्त्विन्—वि॰—-—-—जो पुरुष और प्रकृति के भेद को नहीं समझता
- अपेहि—क्रि॰रूप—-—अप+एहि इ लोट्, म॰ए॰— दूर हो जाओ
- अपोहित—वि॰—-—अप+ऊह्+णिच्+क्त—हटा हुआ, दूर किया हुआ
- अपोहित—वि॰—-—अप+ऊह्+णिच्+क्त—वादविवाद में निराकृत
- अप्रकट—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो प्रकट या व्यक्त न हो, जो स्पष्ट या प्रदर्शित न हो
- अप्रख्यता—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—बदनामी, अपकीर्ति
- अप्रचोदित—वि॰—-—अ+प्र+चुद्+णिच्+क्त—जिसे अभिप्रेरणा या प्रोत्साहन न मिला हो, अनादिष्ट
- अप्रज्ञात—वि॰—-—अ+प्र+ज्ञा+क्त—अज्ञात, जो समझ में न आया हो
- अप्रतिम—वि॰,न॰ब॰—-—-—अनुपयुक्त
- अप्रतिषेधः—पुं॰,न॰त॰—-—-—वह आक्षेप जो विश्वासोत्पादक न हो, अवैध निराकरण
- अप्रतिहतः—पुं॰—-—-—देवताओं का एक प्रकार
- अप्रवृत्त—वि॰—-—अ+प्र+वृत्+क्त—जो किसी कार्य में व्यस्त न हो
- अप्रवृत्त—वि॰—-—अ+प्र+वृत्+क्त—जो संस्थित या प्रतिष्ठापित न हो
- अप्रवृत्त—वि॰—-—अ+प्र+वृत्+क्त—अनुपयुक्त
- अप्रसहिष्णु—वि॰—-—अप्र+सह्+इष्णुच्—जो सहन न किया जा सके, जिसका मुकाबला न किया जा सके
- अप्राज्ञ—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो जानकार न हो, अज्ञानी
- अप्रादेशिक—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो कोई सुझाव न दे सके
- अप्रादेशिक—वि॰,न॰ब॰—-—-—किसी प्रदेश विशेष से सम्बन्ध न रखता हो
- अप्राधान्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसका कोई महत्त्व न हो, गौण
- अप्रोक्षित—वि॰,न॰ब॰—-—-—जहाँ छिड़का हुआ न हो, जो पवित्र न किया गया हो
- अप्रोटः—पुं॰—-—-—एक पक्षी विशेष, कुकुडकुंभा
- अप्सुयोनिः—पुं॰—-—-—जो जल में पैदा हुआ हो, घोड़ा
- अबद्धवत्—वि॰—-—अ+बन्ध्+क्तवतु—अर्थहीन, जो व्याकरणसम्मत न हो
- अवधा—स्त्री॰—-—-—किसी त्रिकोण की आधार रेखा का छिन्न अंश या खण्ड
- अबाधित—वि॰,न॰ब॰—-—-—बाध रहित, निर्बाध, अनियन्त्रित, अनिराकृत
- अबीज—वि॰,न॰ब॰—-—-—नपुंसक, निर्वीर्य
- अबीज—वि॰,न॰ब॰—-—-—अकारण
- अबीजः—पुं॰,न॰त॰—-—-—मन पर नियन्त्रण
- अबीजा—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार के अंगूर
- अबीजम्—नपुं॰—-—-—अनुत्पादक बीज
- अभय—वि॰न॰ब॰—-—-—पतिमा की मुद्रा जो भक्त की रक्षा सूचित करती है
- अभयवरदः—पुं॰—अभय-वरदः—-—रक्षण और वर देने वाला
- अभवत्—वि॰—-—अ+भू+शतृ—अविद्यमान
- अभवन्मतयोगः—पुं॰—अभवत्-मतयोगः—-—काव्य रचना का दोष
- अभवत्संयोगः—पुं॰—अभवत्-संयोगः—-—काव्य रचना का दोष
- अभवनिः—पुं॰—-—-—जन्म का न होना
- अभागिन्—वि॰न॰ब॰—-—-—अनभ्यस्त
- अभागिन्—वि॰न॰ब॰—-—-—जिसका कोई भाग न हो
- अभिकर्षणम्—नपुं॰—-—अभि+कृष्+ल्युट्—कृषि का एक उपकरण
- अभिगृघ्न—वि॰—-—-—प्रबल लालसा से युक्त, इच्छुक
- अभिजित्—पुं॰—-—अभि+जि+क्विप्—पुनर्वसु का पुत्र
- अभिज्ञात—वि॰—-—अभि+ज्ञा+क्त—जानकार, ज्ञाता, जानने वाला
- अभित्वरमाणकः—पुं॰—-—अभि+त्वर्+शानच्, कन्— दूत, संदेशहर
- अभिदेवनम्—नपुं॰—-—अभि+दिव्+ल्युट्—पासे से खेलने की विसात
- अभिद्रुग्ध—वि॰—-—अभिद्रुह्+क्त—आहत, सताया हुआ
- अभिदधानम्—नपुं॰—-—अभि+धा+ल्युट्—गीत, गायन
- अभिदधानविप्रतिपत्तिः—स्त्री॰—अभिधानम्-विप्रतिपत्तिः—-—शब्द और अर्थ का बेतुकापन, असंगति
- अभिनन्दः—पुं॰—-—-—अमरकोश के एक टीकाकार का नाम
- अभिनन्दः—पुं॰—-—-—योगवासिष्ठसार के रचयिता का नाम
- अभिनवकालिदासः—पुं॰—-—-—आधुनिक कालिदास
- अभिनवगुप्तः—पुं॰—-—-—नाट्यशास्त्र और ध्वन्यालोक का प्रसिद्ध भाष्यकार
- अभिनिष्यन्दः—पुं॰—-—अभि+नि+स्यन्द्+घञ्—टपकना, चूना
- अभिनुन्न—वि॰—-—अभि+नुद्+क्त—आहत, क्षुब्ध
- अभिपन्न—वि॰—-—अभि+पद्+क्त—स्वीकृत, स्वीकार किया हुआ अथवा उपपन्न
- अभिपन्न—वि॰—-—अभि+पद्+क्त—पतन, विनाश
- अभिपूर्तम्—नपुं॰—-—अभि+पृ+क्त—जो पूर्णतः सम्पन्न हो चुका है
- अभिलुप्त—वि॰—-—अभि+प्लु+क्त—भावनाधिक्य से अभिभूत, व्याकुल
- अभिलुप्त—वि॰—-—अभि+प्लु+क्त—स्वीकृत
- अभिमन्यमान—वि॰—-—अभिमन्+शानच्—किसी वस्तु पर अवैध अधिकार का इच्छुक
- अभिमन्युः—पुं॰—-—-—चाक्षुष मनु के एक पुत्र का नाम
- अभिरम्भित—वि॰—-—अभिरभ्+क्त—पकड़ा हुआ, जकड़ा हुआ
- अभिराधनम्—नपुं॰—-—अभिराध्+ल्युट्—प्रसन्न करना, अनुकूल करना
- अभिलम्भनम्—नपुं॰—-—अभिलम्भ्+ल्युट्— अधिग्रहण करना
- अभिवक्तृ—वि॰—-—अभिवच्+तृच्—जो अभिमानपूर्वक या हेकड़ी के साथ बोलता है
- अभिशीत—वि॰—-—अभि+श्यै+क्त—शीतल, ठंढ़ा
- अभिशैत्य—वि॰—-—अभि+श्यै+क्त—शीतल, ठंढ़ा
- अभिश्रुत—वि॰—-—अभिश्रु+क्त—प्रख्यात, प्रसिद्ध
- अभिश्वैत्य—वि॰,न॰ब॰—-—अभितः श्वैत्यं शुद्धचारित्र्यादिर्यस्य—विशुद्ध चरित्र वाला, सदाचारी
- अभिषक्त—वि॰—-—अभि+सञ्ज्+क्त—भूत प्रेतादि से आविष्ट
- अभिषक्त—वि॰—-—अभि+सञ्ज्+क्त—अपमानित, पराभूत
- अभिषक्त—वि॰—-—अभि+सञ्ज्+क्त—तिरस्कृत, अभिशप्त
- अभिषङ्गः—पुं॰—-—अभिसञ्ज्+घञ्—मानसिक क्षोभ की स्थिति
- अभिषिक्त—वि॰—-—अभिषिच्+क्त—राजसिंहासन पर बिठाया हुआ, अभिमन्त्रित जलों से स्नान, राजगद्दी पर आसीन कराया गया
- अभिषेचनम्—नपुं॰—-—अभिषिच्+ल्युट्—राजतिलक करने की तैयारी
- अभिष्टवः—पुं॰—-—अभि+स्तु+अच्—स्तुति
- अभिष्टुत—वि॰—-—अभि+स्तु+क्त—जिसकी स्तुति की गई हो, जिसका कीर्तिगान किया गया हो
- अभिष्टुत—वि॰—-—अभि+स्तु+क्त—जिसका राज्याभिषेक कर दिया गया हो
- अभिसंहरणम्—नपुं॰—-—अभि+सम्+हृ+ल्युट्—क्षतिपूर्ति
- अभिसंहित—वि॰—-—अभि+सम्+धा+क्त—सम्मिलित, सम्बद्ध
- अभिसमापन्न—वि॰—-—अभिसम्+आ+पद्+क्त—आमने सामने होने वाला, सामने होकर मुकाबला करने वाला
- अभिसारी—स्त्री॰—-—-—पीछा करना
- अभिसारी—स्त्री॰—-—-—सहायता के लिये जाना
- अभिहारः—पुं॰—-—अभि+हृ+घञ्—निकट लाना
- अभूयः संनिवृत्तिः—स्त्री॰—-—-—फिर वापिस न आना, जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा
- अभ्यवपद्—दिवा॰आ॰—-—-—निरादर करना, तिरस्कार करना
- अभ्यवमन्ता—पुं॰—-—अभ्यव+मन्+तृच्—अपमान करने वाला
- अभ्यवहारः—पुं॰—-—अभ्यव+हृ+घञ्—खाने के योग्य, अभ्यास करने के लायक, अभ्यास किये जाने के लिये
- अभ्याकाशम्—वि॰,प्रा॰स॰—-—-—आकाश के नीचे बिना किसी आवरण के
- अभ्याचक्ष्—भ्वा॰प॰—-—-—ध्यान देना
- अभ्याचक्ष्—भ्वा॰प॰—-—-—बोलना
- अभ्युपपन्न—वि॰—-—अभि+उप+पद्+क्त—पहुँचा हुआ, पास गया हुआ
- अभ्युपपन्न—वि॰—-—अभि+उप+पद्+क्त—भय से आरक्षा के हेतु निकट गया हुआ
- अभ्रमुः—स्त्री॰—-—-—ऐरावत हाथी की प्रिय हथिनी
- अभ्रयन्ती—स्त्री॰—-—अभ्र्+शतृ+ङीप्—बादलों से युक्त वर्षा ऋतु को लाने वाले
- अभ्रयन्ती—स्त्री॰—-—अभ्र्+शतृ+ङीप्—कृत्तिका नक्षत्रपुंज
- अम्—भ्वा॰पर॰—-—-—भयङ्कर होना, भययुक्त होना
- अमण्डित—वि॰,न॰ब॰—-—-—अनलंकृत, न सजा हुआ
- अमत्सर—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो ईर्ष्या न करे, जो घृणा न करे, जो निरीह रहे
- अमर—वि॰,न॰त॰—-—मृ पचाद्यच्—जो मृत्यु को प्राप्त न हो, अनश्वर
- अमरः—पुं॰—-—-— देव, सुर
- अमरगुरुः—पुं॰—अमर-गुरुः—-—वृहस्पति, वृहस्पति नामक ग्रह
- अमरचन्द्रः—पुं॰—अमर-चन्द्रः—-—बालभारत का रचयिता
- अमरराजः—पुं॰—अमर-राजः—-—इन्द्र, देवों का स्वामी
- अमरी—स्त्री॰—-—-—स्वर्गीय स्त्री, देवी
- अमर्दित—वि॰,न॰त॰—-—मृद्+क्त—जो मसला न गया हो, जो दबाया न गया हो
- अमर्मवेधिता—स्त्री॰—-—-—मर्मस्थानों पर न आघात करने का गुण, दूसरे की भावनाओं को अपने वाग्बाणों से छेदना
- अमा—स्त्री॰—-—न+मा+क—अमावस्या
- अमावसुः—पुं॰—अमा-वसुः—-—पुरुरवा के वंश का एक राजा
- अमासोमवारः—पुं॰—अमा-सोमवारः—-—वह सोमवार जिस दिन अमावस्या हो
- अमाव्रतम्—नपुं॰—अमा-व्रतम्—-—अमावस्या वाले सोमवार को रखा जाने वाला व्रत
- अमाहठः—पुं॰—अमा-हठः—-—एक सर्पराक्षस का नाम
- अमित्रकम्—न॰त॰—-—-—शत्रुतापूर्ण कार्य
- अमुद्र—वि॰,न॰ब॰—-—-—सीमारहित
- अमूर्तरजस्—पुं॰—-—-—कुश का एक पुत्र
- अमृज—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसने स्नान नहीं किया है
- अमृत—वि॰—-—न+मृ+क्त—जो मरा हुआ नहीं
- अमृत—वि॰—-—न+मृ+क्त—जो अमर है
- अमृताङ्शुकः—पुं॰—अमृत-अङ्शुकः—-—एक प्रकार का रत्न
- अमृताग्रभूः—पुं॰—अमृत-अग्रभूः—-—इन्द्र का घोड़ा, उच्चैःश्रवा
- अमृतेशः—पुं॰—अमृत-ईशः—-—शिव का नाम
- अमृतोपस्तरणम्—नपुं॰—अमृत-उपस्तरणम्—-—अमृत समान भोजन करने से पूर्व आचमन करने का पनी
- अमृतकरः—पुं॰—अमृत-करः—-—अमृत की किरणों वाला, चन्द्रमा
- अमृतकिरणः—पुं॰—अमृत-किरणः—-—अमृत की किरणों वाला, चन्द्रमा
- अमृतनन्दनः—पुं॰—अमृत-नन्दनः—-—मण्डप जिसमें ५८ स्तम्भ लगे हों
- अमृतनादोपनिषद्—स्त्री॰—अमृत-नादोपनिषद्—-—एक छोटी उपनिषद् का नाम
- अमृतबिन्दूपनिषद्—स्त्री॰—अमृत-बिन्दूपनिषद्—-—अथर्ववेद की एक छोटी उपनिषद्
- अमृतमूर्तिः—स्त्री॰—अमृत-मुर्तिः—-—चन्द्रमा
- अमृषोद्यम्—नपुं॰—-—न+मृषा+वद्+ण्यत्—सत्य उक्ति
- अमोघ—वि॰न॰त॰—-—-—अचूक
- अमोघ—वि॰न॰त॰—-—-—अव्यर्थ
- अमोघाक्षी—स्त्री॰—अमोघ-अक्षी—-—दाक्षायणी का नाम
- अमोघनन्दिनी—स्त्री॰—अमोघ-नन्दिनी—-—शिक्षा की एक पुस्तक का मूलपाठ
- अमोघवर्ष—पुं॰—अमोघ-वर्ष—-—चालुक्यवंशी एक राजा का नाम
- अम्बराधिकारिन्—पुं॰—-—अम्बराधिकार+णिनि—राजदरबार का एक वस्त्राधिकारी
- अम्बरीषकः—पुं॰—-—अम्ब्+अरिष्+क नि॰ दीर्घः—अन्तर्निहित या गुप्त आग
- अम्बु—नपुं॰—-—अम्ब्+उण्—जल, पानी
- अम्बुकन्दः—पुं॰—अम्बु-कन्दः—-—एक जलीय पौधा, सिंघाड़ा
- अम्बुकुक्कुटी—स्त्री॰—अम्बु-कुक्कुटी—-—जलीय मुर्गी
- अम्बुदैवम्—नपुं॰—अम्बु-दैवम्—-—पूर्वाषाढ नक्षत्र
- अम्बुदैवतम्—नपुं॰—अम्बु-दैवतम्—-—पूर्वाषाढ नक्षत्र
- अम्बुनाथः—पुं॰—अम्बु-नाथः—-—समुद्र
- अम्बुपतिः—पुं॰—अम्बु-पतिः—-—वरुण
- अम्बुवेगः—पुं॰—अम्बु-वेगः—-—पानी का बहाव, बाढ़
- अम्बुजिनी—स्त्री॰—-—अम्बुज+णिनि+ङीष्—कमल की बेल
- अम्बुजिनीकुटुम्बिन्—पुं॰—अम्बुजिनी-कुटुम्बिन्—-—सूर्य
- अम्मय—वि॰—-—अप्+मय्—जलयुक्त, जलमय
- अयन—वि॰—-—अय्+ल्युट्—जाने वाला
- अयनकलाः—स्त्री॰—अयन-कलाः—-—ग्रहण विषयक विचलन के लिये (मिनटों में) शोधन
- अयनग्रहः—पुं॰—अयन-ग्रहः—-—किसी ग्रह की देशान्तररेखा जब कि वह ग्रहण विषयक विचलन के लिये संयुक्त की गई हो
- अयनपरिवृत्तिः—स्त्री॰—अयन-परिवृत्तिः—-—अयन का बदलना
- अयत्नसाध्य—वि॰—-—-—जो बिना किसी कठिनाई के सम्पन्न हो जाय
- अयत्नोपात्त—वि॰—-—अयत्न+उपात्त—जो बिना यत्न के प्राप्त हो जाय
- अयथाभिप्रेताख्यानम्—नपुं॰—-—-—बुरे समाचार का ऊँचे स्वर से उच्चारण करना या अच्छे समाचार का मन्दस्वर में कहना
- अयस्—वि॰—-—इ+असुन्—जाने वाला, स्पन्दनशील
- अयःकणपम्—नपुं॰—अयस्-कणपम्—-—एक प्रकार का अस्त्र जो लोहे की बनी गोलियों की बौछार करता है
- अयःपिण्डः—पुं॰—अयस्-पिण्डः—-—तोप का गोला
- अयोगः—पुं॰—-—न+युज्+घञ्—योगाभ्यास से विचलन
- अयोनि—वि॰,न॰ब॰—-—-—अज्ञात माता-पिता की सन्तान
- अरकः—पुं॰—-—इयति गच्छत्यनेन+ऋ+अच्+स्वार्थे कन्—पहिये का अरा
- अरडा—स्त्री॰—-—-—एक देवी का नाम
- अरण्यपर्वन्—नपुं॰—-—-—महाभारत के एक अध्याय का नाम
- अरन्ध्र—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसमें छिद्र न हों
- अरव—वि॰,न॰ब॰—-—-—शब्दहीन, जिसमें से कोई आवाज न निकले
- अरस—वि॰,न॰ब॰—-—-—अरसिक, जो ललित कला को न सराह सके
- अरस—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसमें कोई सत्व न हो, तेज न हो
- अरात्—अ॰—-—-—तुरन्त, तत्काल
- अराम—वि॰,न॰ब॰—-—-— अरुचिकर, दुःखद
- अरिकेलिः—पुं॰—-—ऋ+इन्+केल+इन्—शत्रुलीला, स्त्रीमरण
- अरित्रम्—नपुं॰—-—अरिभ्यो त्रायते, ऋ+इत्र+अरि+त्र, वा—कवच, जो शत्रुओं से रक्षा करे
- अरीण—वि॰—-—-—पूर्ण भरा हुआ
- अरुज—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो रोग को नष्ट करे, रोग नाशक
- अरुज—वि॰,न॰ब॰—-—-—नीरोग, पीडारहित
- अरुणकेतुब्राह्मणम्—नपुं॰—-—-— अरुण और केतुओं के ब्राह्मण का नाम
- अरुणपाराशराः—पुं॰—-—-—एक वैदिक शाखा के अनुनायी
- अरुद्ध—वि॰—-—न+रुध्+क्त—निर्बाध, जिसे रोका न गया हो, निर्विघ्न
- अरुन्धतीदर्शनम्—नपुं॰—-—-—विवाह संस्कार के अवसर पर की जाने वाली एक प्रकिया जिसके अनुसार दुल्हन को अरुन्धती तारा दिखलाया जाता है
- अरुन्धतीदर्शनन्यायः—पुं॰—-—-—यह एक न्याय है, इसके अनुसार ज्ञात से अज्ञात की भांति क्रमिक शिक्षा ग्रहण की ओर संकेत किया गया है जैसे अरुन्धती को दिखलाने के लिये पहले किसी और ज्ञात तारे की ओर संकेत किया जाय
- अरूप—वि॰,न॰ब॰—-—-—वह यज्ञ जिसमें रूप(द्रव्य और देवता) का अभाव हो
- अरूपिन्—वि॰—-—न+रूप+णिनि—आकार रहित, बिना किसी रूप का
- अरोगत्वम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—रोग से मुक्त होने की स्थिति
- अर्कः—पुं॰—-—अर्च+घञ्, कुत्वम्—सूर्य, सूर्यकान्त मणि
- अर्कग्रहः—पुं॰—अर्क-ग्रहः—-—सूर्यग्रहण
- अर्कग्रीवः—पुं॰—अर्क-ग्रीवः—-—इस नाम का एक साम
- अर्कपुष्पोत्तरम्—नपुं॰—अर्क-पुष्पोत्तरम्—-—इस नाम का एक साम
- अर्करेतोजः—पुं॰—अर्क-रेतोजः—-—सूर्य का पुत्र रेवत
- अर्कलवणम्—नपुं॰—अर्क-लवणम्—-—यवाक्षर
- अर्घः—पुं॰—-—अघ+घञ्—मूल्य, कीमत
- अर्घापचयः—पुं॰—अर्घ-अपचयः—-—मूल्य कम हो जाना, कीमत गिर जाना
- अर्घेश्वरः—पुं॰—अर्घ-ईश्वरः—-—शिव
- अर्घनिर्णयः—पुं॰—अर्घ-निर्णयः—-—मूल्य निर्धारण
- अर्चनानः—पुं॰—-—-—अत्रिकुल से संबंध रखने वाला एक ऋषि
- अर्जित—वि॰—-—अर्ज्+क्त—अवाप्त, उपार्जित
- अर्जुनबदरः—पुं॰—-—-—अर्जुन नामक पौधे का रेशा, तन्तु
- अर्जुनसखिः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—कृष्ण
- अर्णस्—नपुं॰—-—ऋ+असुन्, नुट्—पानी, जल
- अर्णस्—नपुं॰—-—ऋ+असुन्, नुट्—रंग
- अर्णोजः—पुं॰—-—-—कमल
- अर्णरुहम्—नपुं॰—अर्णस्-रुहम्—-—कमल, पद्म
- अर्थः—पुं॰—-—ऋ+थन्—विषय, पदार्थ, उद्देश्य, इच्छा, अभिप्राय
- अर्थातिदेशः—पुं॰—अर्थ-आतिदेशः—-—पदार्थों के विषय में लिंग, वचन आदि का विस्तार
- अर्थानुपपत्तिः—स्त्री॰—अर्थ-अनुपपत्तिः—-—किसी विशेष अर्थ को निकालने या समझाने में कठिनाई
- अर्थानुबन्धि—पुं॰—अर्थ-अनुबन्धि—-—भौतिक कुशलक्षेम से युक्त
- अर्थाभिधानम्—नपुं॰—अर्थ-अभिधानम्—-—अभीष्ट अर्थ का प्रकट करना
- अर्थाभिधानम्—वि॰—अर्थ-अभिधानम्—-—जिसका नाम प्रयुक्त अर्थ से संबद्ध हो
- अर्थातुरः—पुं॰—अर्थ-आतुरः—-—जो लोभी होने के कारण सदैव धन एकत्र करने के लिये दुःखी रहता हो
- अर्थकाशिन्—वि॰—अर्थ-काशिन्—-—जो उपादेय दिखाई दे
- अर्थ-कार्श्यम्—नपुं॰—अर्थ-कार्श्यम्—-— धन संबंधी कठिनाई
- अर्थकिल्विषिन्—वि॰—अर्थ-किल्विषिन्—-—रुपये पैसे के विषय में बेईमान व्यक्ति
- अर्थकोविद—वि॰—अर्थ-कोविद—-—जो राजनीति के विषय में विशेषज्ञ हो, अनुभवी
- अर्थक्रिया—स्त्री॰—अर्थ-क्रिया—-—सार्थक कार्य
- अर्थक्रिया—स्त्री॰—अर्थ-क्रिया—-—साभिप्राय क्रिया
- अर्थगतिः—स्त्री॰—अर्थ-गतिः—-—अर्थ या प्रयोजन को समझ लेना, अर्थावगम
- अर्थगुणाः—पुं॰—अर्थ-गुणाः—-—किसी उक्ति के अभिप्राय की खूबियाँ
- अर्थगृहम्—नपुं॰—अर्थ-गृहम्—-—कोश, खजाना
- अर्थचित्रम्—नपुं॰—अर्थ-चित्रम्—-—अर्थों पर आधारित एक अर्थालंकर
- अर्थदर्शकः—पुं॰—अर्थ-दर्शकः—-—अधिनिर्णायक
- अर्थदृश्—स्त्री॰—अर्थ-दृश्—-—सत्यता तथा तथ्यों का ध्यान रखना
- अर्थद्वयविधानम्—नपु॰—अर्थ-द्वयविधानम्—-—ऐसी विधि जिसके दो अर्थ निकलते हों
- अर्थपदम्—नपु॰—अर्थ-पदम्—-—पाणिनि पर एक वार्तिक
- अर्थभावनम्—नपु॰—अर्थ-भावनम्—-—किसी विषय पर विचार विमर्श
- अर्थलक्षण—वि॰—अर्थ-लक्षण—-—जैसा कि आवश्यकता या प्रयोजन के अनुसार निर्धारित हो
- अर्थविद्या—स्त्री॰—अर्थ-विद्या—-—सांसारिक पदार्थों का ज्ञान
- अर्थविपत्तिः—स्त्री॰—अर्थ-विपत्तिः—-—उद्देश्य की विफलता
- अर्थविप्रकर्षः—पुं॰—अर्थ-विप्रकर्षः—-—अभिप्रेत अर्थ को समझने में कठिनाई
- अर्थविभावक—वि॰—अर्थ-विभावक—-—धन का देने वाला
- अर्थशाली—वि॰—अर्थ-शालिन्—-—धनी पुरुष, धनवान
- अर्थसंग्रहः—पुं॰—अर्थ-संग्रहः—-—लौगाक्षिभास्कर कृत मीमांसा के एक प्रकरण का नाम
- अर्थसत्त्वम्—नपुं॰—अर्थ-सत्त्वम्—-—सचाई
- अर्थसत्त्वम्—नपु॰—अर्थ-सत्त्वम्—-—धन का उपार्जन करना
- अर्थसत्त्वम्—नपुं॰—अर्थ-सत्त्वम्—-—उद्देश्य मे सफलता
- अर्थहानिः—स्त्री॰—अर्थ-हानिः—-—धन का नाश
- अर्थहारी—वि॰—अर्थहारिन्—-— धन के चुराने वाला, जो धन चुराता है
- अर्थात्—अ॰—-—-—सच तो यह है कि, तथ्य तः
- अर्थादधिगतम्—नपुं॰—अर्थात्-अधिगतम्—-—संकेत द्वारा समझा हुआ
- अर्थात्कृतम्—नपुं॰—अर्थात्-कृतम्—-—सचमुच किया हुआ
- अर्थ्य—वि॰—-—अर्थ+ण्यत्—सच्चा, वास्तविक
- अर्थ्य—वि॰—-—अर्थ+ण्यत्— धन प्राप्त करने में चतुर
- अर्ध—वि॰—-—ऋध्+णिच्+अच्—आधा
- अर्धः—पुं॰—-—ऋध्+घञ्—वृद्धि
- अर्धः—पुं॰—-—ऋध्+घञ्—भाग, अंश, पक्ष
- अर्धासिः—पुं॰—अर्ध-असिः—-—एक धार की तलवार, छोटी तलवार
- अर्धकर्णः—पुं॰—अर्ध-कर्णः—-—अर्धव्यास, आधी चौड़ाई
- अर्धचित्र—वि॰—अर्ध-चित्र—-—अर्धपारदर्शी, एक प्रकार का अंशतः पारदर्शी पत्थर
- अर्धजीविका—स्त्री॰—अर्ध-जीविका—-—चाप को एक सिरे से दूसरे सिरे तक मिलाने वाली रेखा
- अर्धज्या—स्त्री॰—अर्ध-ज्या—-—चाप को एक सिरे से दूसरे सिरे तक मिलाने वाली रेखा
- अर्धपञ्चम—वि॰—अर्ध-पञ्चम—-—साढ़े चार
- अर्धप्राणम्—नपुं॰—अर्ध-प्राणम्—-—दो भागों का ऐसा संधान करना जैसे कि हृदय के दो टुकड़ों का
- अर्धमागधी—स्त्री॰—अर्ध-मागधी—-—प्राचीन जैन ग्रंथों में प्रयुक्त प्राकृत बोली
- अर्धवायुः—पुं॰—अर्ध-वायुः—-—आंशिक पक्षाघात, एकांगी लकवा
- अर्धवृद्धिः—स्त्री॰—अर्ध-वृद्धिः—-—किसी राशि पर देय ब्याज का आधा भाग
- अर्धशतम्—नपुं॰—अर्ध-शतम्—-—पचास
- अर्धशतम्—नपुं॰—अर्ध-शतम्—-—डेढ़ सौ
- अर्धसमस्या—स्त्री॰—अर्ध-समस्या—-—श्लोक जिसका पूर्वार्ध एक व्यक्ति बोले, तथा उत्तरार्ध दूसरे व्यक्ति द्वारा पूरा किया जाय
- अर्धसहः—पुं॰—अर्ध-सहः—-—उल्ली
- अर्ध्य—वि॰—-—अर्ध+य— अधूरा, जो अभी पूरा किया जाना है
- अर्पित—वि॰—-—ऋ+णिच्+क्त—लगाया गया, जड़ा गया
- अर्पित—वि॰—-—ऋ+णिच्+क्त—उड़ेली गई
- अर्पित—वि॰—-—-—परिवर्तित, सौंपा गया
- प्रत्यर्पित—वि॰—प्रति-अर्पित—-—वापिस सौंपा गया
- अर्मः—पुं॰—-—ऋ+मन्—आँख का एक रोग
- अर्मः—पुं॰—-—ऋ+मन्—कब्रिस्तान
- अर्मम्—नपुं॰—-—ऋ+मन्—आँख का एक रोग
- अर्मम्—नपुं॰—-—ऋ+मन्—कब्रिस्तान
- अर्माः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—खंडहर, कूड़ाकर्कट
- अर्ववाहः—पुं॰—-—ऋ+वनिप्=अर्वन्+वह्+घञ्, न॰ ब॰—घुड़सवार
- अर्वाक्तन—वि॰—-—अर्वाच्+तन्—न पहुँचने वाला, पश्चवर्ती
- अर्ह—वि॰—-—अर्ह्+अच्—योग्य, समर्थ
- अर्हा—स्त्री॰—-—अर्ह्+घञ्+टाप्—सोना
- अलक्तकाङ्क—वि॰—-—अलक्त+अङ्क—अलक्ता से चिन्हित हैं अंङ्ग जिसके
- अलक्षण—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो समझ में न आवे
- अलक्ष्मन्—वि॰—-—-—अशुभ लक्षणों से युक्त
- अलंकारमण्डपः—पुं॰,त॰स॰—-—-—श्रृंगार कक्ष, वह स्थान जहाँ मन्दिर की मूर्तियों का श्रृंगार किया जाता हैं
- अलमकः—पुं॰—-—-—मेंढक
- अलवण—वि॰,न॰ब॰—-—-—निष्कलंक
- अलातशान्तिः—स्त्री॰—-—-—माण्डूक्योपनिषद् पर गौडपाद की टीका का चतुर्थ पाद
- अलाबुवीणा—स्त्री॰—-—-—तुम्बी के आकार की बनी वीणा
- अलीकम्—नपुं॰—-—अल्+बीकन्—चिन्ता, शोक
- अलुप्तमहिमन्—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसकी अक्षुण्ण कीर्ति बनी हुई हैं
- अलुप्तयशस्—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसकी ख्याति लुप्त नहीं हुई हैं, यशस्वी
- अलोकव्रतम्—नपुं॰,न॰त॰—-—-—आध्यात्मिक मुक्ति के लिए अभिप्रेतव्रत
- अलोमक—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसके बाल न उगते हों, बिना बालों का
- अलोलः—पुं॰—-—-—चौदह मात्राओं का एक छन्द
- अल्प—वि॰—-—अल्+प—थोड़ा, मामूली, नगण्य
- अल्पाच्तरम्—नपुं॰—अल्प-अच्तरम्—-—वह शब्द जिसमें अपेक्षाकृत दूसरे शब्द से कम वर्ण या मात्राएँ हो
- अल्पगोधूमः—पुं॰—अल्प-गोधूमः—-—एक प्रकार का गेहूँ जो जरा छोटा होता हैं
- अल्पनासिकः—पुं॰—अल्प-नासिकः—-—एक छोटी दहलीज या दालान
- अल्पपुण्य—वि॰—अल्प-पुण्य—-—जिसमें धार्मिक मूल्य नगण्य हों
- अल्पसत्त्व—वि॰—अल्प-सत्त्व—-—दुर्बल, बलहीन
- अल्पसार—वि॰—अल्प-सार—-—जिसका फल नहीं के बराबर हों
- अल्लकम्—नपुं॰—-—-—धनिये का बीज
- अल्लका—नपुं॰—-—-—धनिये का पौधा
- अवतरम्—अ॰—-—-—और आगे, आगे दूर
- अवकीलकः—पुं॰—-—अव+कील+कन्—अच्चर, खूँटी जो अन्दर ठोकी गई हैं
- अवकृत—वि॰—-—अव+कृ+क्त—नीचे की ओर बढ़ा हुआ, नीचे की ओर झुका हुआ
- अवकीर्ण—वि॰—-—अवकृ+क्त—अव्यवस्थित, व्यवस्थासापेक्ष
- अवगल्—भ्वा॰पर॰—-—-—नीचे गिर जाना, फिसल जाना
- अवग्रहधी—पुं॰,न॰ब॰—-—-—दुराग्रही, हठी
- अवघाटकम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार की माला जो आकार में छोटी होती चली जाय
- अवघात—वि॰—-—-—प्रहार करना, मारना, वध करना
- अवघात—वि॰—-—-—नष्ट करना, हटाना
- अवघात—वि॰—-—-—(अनाज की भांति) कूटना
- अवघुष्ट्—वि॰—-—अव+घुष्+क्त—घोषणा किया गया, अवमाननापूर्वक मुनादी की गई
- अवघ्रात—वि॰—-—अवघ्रा+क्त—सूँघा हुआ, चूमा गया
- अवघ्रापणम्—नपुं॰—-—अव+घ्रा+णिच्+ल्युट्—सुंघवाना
- अवचरः—पुं॰—-—अव+चर+अच्—साईस
- अवचि—स्वा॰पर॰—-—-—परखना, चुनना, छाँटना
- अवचिचीषा—स्त्री॰—-—अव+चि+सन्+टाप्—संग्रह करने की इच्छा
- अवचूरिः—स्त्री॰—-—-—वृत्ति, टीका, भाष्य, टिप्पणी
- अवचूरिका—स्त्री॰—-—-—वृत्ति, टीका, भाष्य, टिप्पणी
- अवच्छटा—स्त्री॰—-—-—विनोदपरक चाल, लीलायुक्त गति
- अवच्छेद्य—वि॰—-—अव+छिद्+णिच्+ण्यत्—अलग किये जाने के योग्य, पृथक किये जाने के लायक
- अवतानः—पुं॰—-—अव+तनु+घञ्—तन्तु, सूत
- अवतृ—भ्वा॰पर॰—-—-—पार करना
- अवतरणमङ्गलम्—नपुं॰—-—-—हार्दिक स्वागत
- अवतरणिका—स्त्री॰—-—-—संक्षिप्त विवरण
- अवताररहस्यम्—नपुं॰—-—-—अवतार लेने का भेद
- अवतारोद्देशः—पुं॰—-—अवतार+उद्देशः—अवतार लेने का प्रयोजन
- अवतारणम्—नपुं॰—-—अव+तृ+णिच्+ल्युट्—उतार, अवतार
- अवद्यत्—वि॰—-—अवदो+शतृ—तोड़ने वाला
- अवधिः—पुं॰—-—अव+धा+ कि— शासनादेश, अधिदेश
- अवधिज्ञानम्—नपुं॰—अवधि-ज्ञानम्—-—जैन शब्दावली में ज्ञान की तीसरी अवस्था जिसमें इन्द्रीयातीत विषयों का ज्ञान भी मनुष्य को जाता हैं
- अवहित—वि॰—-—अव+धा+क्त—मग्न, पतित
- अवधारणम्—नपुं॰—-—अव+धृ+णिच्+ल्युट्—उच्चारण करना
- अवधृत—वि॰—-—अव+धृ+क्त—समझा हुआ, जाना हुआ
- अवधृत—पुं॰,ब॰व॰—-—-—इन्द्रियाँ
- अवध्यै—भ्वा॰पर॰—-—-—तिरस्कार करना
- अवध्यानम्—नपुं॰—-—अव+ध्यै+ल्युट्—तिरस्कार
- अवनिः—स्त्री॰—-—अव्+अनि—भूमि, पृथ्वी
- अवनिः—स्त्री॰—-—अव्+अनि—नदी
- अवनिजः—पुं॰—अवनि-जः—-—मंगल ग्रह
- अवनिजा—स्त्री॰—अवनि-जा—-—सीता
- अवनिभृत्—पुं॰—अवनि-भृत्—-—राजा, पहाड़
- अवनिसारा—स्त्री॰—अवनि-सारा—-—केले का पौधा
- अवनिष्ठीव्—दिव॰पर॰—-—-—किसी पर थूकना
- अवनेय—वि॰—-—अव+नी+ण्यत्—अनुसरण कराये जाने योग्य
- अवन्तिसुन्दरीकथा—स्त्री॰—-—-—एक रचना जो कवि दण्डी की कृति बताई जाती हैं
- अवन्तिका —स्त्री॰—-—-—वर्तमान उज्जैन नगर
- अवन्तिका —स्त्री॰—-—-—उज्जैन वासियों की बोली
- अवन्ध्यकोप—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसका क्रोध प्रभाव रखने वाला हैं
- अवपतित—वि॰—-—अवपत्+क्त—नीचे गिरा हुआ
- अवपानम्—नपुं॰—-—अवपा+ल्यु—पीना
- अवपोथिका—स्त्री॰—-—-—वस्तु जो नगर के दीवार से नगर पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं पर फेंकी जाय
- अवप्लु—भ्वा॰आ॰—-—-—नीचे छलाँग लगानी
- अवबोधित—वि॰—-—अवबुध्+णिच्+क्त—जगाया हुआ
- अवभङ्ग—वि॰—-—अवभञ्ज्+घञ्—टूटा हुआ, जिसकी हड्डी टूट गई हो
- अवभङ्गः—पुं॰—-—अवभञ्ज्+घञ्—तोड़ देना
- अवभङ्गः—पुं॰—-—अवभञ्ज्+घञ्—बींधना
- अवमर्दः—पुं॰—-—अव+मृद्+घञ्—संघर्ष, हलचल
- अवमर्दः—पुं॰—-—अव+मृद्+घञ्—एक प्रकार का ग्रहण
- अवमर्दिन्—वि॰—-—अवमर्द+णिनि—हत्यारा
- अवमर्शित—वि॰—-—अवमृश्+णिच्+क्त—बिगड़ा हुआ, नष्ट किया हुआ
- अवमूत्रयत्—वि॰—-—अवमूत्र+शतृ—मूत्र करके भूमि को गन्दा करने वाला
- अवमेहः—पुं॰—-—अवमिह्+घञ्—विष्ठा, मल
- अवयवप्रसिद्धिः—स्त्री॰—-—-—खण्डों का निर्देशन
- अवयुत्यनुवादः—पुं॰—-—-—किसी वस्तु का अंशों में उल्लेख करना
- अवरक्षणी—स्त्री॰—-—अवरक्ष्+ल्युट्+ङीप्—घोड़े को बांधने की रस्सी
- अवरीकृ—तना॰उ॰—-—अवर+च्वि+कृ—निकट लाना
- अवरुदित—वि॰—-—अवरुद्+क्त—जो आँसुओं के गिरने से अपवित्र हो गया हो
- अवरुद्ध—वि॰—-—अवरुध्+क्त—अत्यन्त व्याकुल
- अवरोधः—पुं॰—-—अवरुध्+घञ्—बाध्य करनेवाली शक्ति
- अवरोधगृहः—पुं॰—अवरोध-गृहः—-—अन्तःपुर
- अवरोधजनः—पुं॰—अवरोध-जनः—-—अन्तःपुर की महिलाएँ
- अवरोपितः—पुं॰—-—अवरूप्+णिच्+क्त—सिंहासन से उतारा हुआ, निष्काषित
- अवरोपितः—पुं॰—-—-—घटाया हुआ
- अवर्णसंयोगः—पुं॰,त॰स॰—-—-—दो भिन्न ध्वनियों का मेल
- अवर्णसंयोगः—पुं॰,त॰स॰—-—-—किसी भी वर्ण से संबंध का अभाव
- अवर्तमान—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो चालू समय से कोई सम्बन्ध न रक्खे
- अवलम्बित—वि॰—-—अवलम्ब्+ क्त—चिपका हुआ, पकड़ा हुआ, आश्रित
- अवलेह्य—वि॰—-—अवलिह्+ण्यत्—चाटने के योग्य
- अवलेखा—स्त्री॰—-—अवलिख्+अ, स्त्रियां टाप्—रेखा खींचना, रेखाचित्र बनाना, रेखाकृति
- अवलोकलवः—पुं॰,त॰स॰—-—-—दृष्टि, कटाक्ष
- अवशप्त—वि॰—-—अवशप्+क्त—अभिशप्त
- अवशृ—क्रया॰पर॰—-—-—टूटना
- अवशृ—क्रया॰पर॰—-—-—चारों ओर बिखर जाना
- अवशीर्ण—वि॰—-—अव+ शॄ+ क्त—टूटा हुआ, चूर-चूर किया हुआ
- अवषट्कार—वि॰—-—-—जिसमें ’वषट्’ शब्द का उच्चारण न हो, जिसमें वेद के सांस्कारिक मन्त्रों के उच्चारण की प्रक्रिया न हो
- अवसन्न—वि॰—-—अवसद्+क्त—बुझा हुआ, उपरत, मृत
- अवसरप्रतीक्षिन्—वि॰,त॰स॰—-—-—जो किसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा हो
- अवसरान्वेषिन्—वि॰,त॰स॰—-—-—जो किसी अवसर की ताक में हो
- अवसायः—पुं॰—-—अव+सो+ घञ्—जो समाप्त करता है
- अवसायक—वि॰—-—अव+ सो+ ण्वुल्—विनाशात्मक
- अवस्कन्दः—पुं॰—-—अव+ स्कन्द्+ घञ्—दोषारोपण, इलज़ाम
- अवस्कन्न—वि॰—-—अव+ स्कन्द्+क्त—बिखरा हुआ, फैला हुआ
- अवस्कन्न—वि॰—-—अव+ स्कन्द्+क्त—आक्रान्त
- अवस्कारः—पुं॰—-—अव+स्कृ+ घञ्—हाथी के चेहरे का आगे की ओर उभरा हुआ भाग
- अवस्थानम्—नपुं॰—-—अव+स्था+ ल्युट्—सहारा
- अवस्थानम्—नपुं॰—-—अव+स्था+ ल्युट्—स्थैर्य, स्थिरता
- अवस्नात—वि॰—-—अव+ स्ना+ क्त—जिसमें किसी ने स्नान कर लिया है
- अवस्फूर्ज्—भ्वा॰पर॰—-—-—खुर्राटें भरना, ’घुर्राटा’ करना
- अवहारः—पुं॰—-—अव+हृ+ घञ्—जो उड़ा कर ले जाता है
- अवह्वे—भ्वा॰पर॰—-—-—पुकारना, बुलाना
- अवाछिद्—रुधा॰पर॰—-—-—फाड़ देना, छिन्न-भिन्न कर देना
- अवाञ्चित—वि॰—-—अवाञ्च्+ क्त—नीचे की ओर झुका हुआ
- अवाचीन—वि॰—-—अवाच्+ ख—जो नीची निगाह से देखता है
- अवाचीन—वि॰—-—अवाच्+ ख—नीच,पापी
- अवातल—वि॰—-—-—जो वातग्रस्त न हो
- अवान्तरवाक्यम्—नपुं॰—-—-—मूल कथन के कुछ अंशों को त्याग कर, चयन की हुई उक्ति
- अवारित—वि॰—-—अ+ वृ+णिच्+ क्त—जिसे रोका न गया हो
- अवारितम्—अ॰—-—-—बिना किसी रुकावट के
- अवारितकवाटद्वार—वि॰—अवारित-कवाटद्वार—-—नहीं रोका हुआ अर्थात् खुला हुआ है द्वार जिसके लिए
- अवाह्य—वि॰—-—न+ वह+ णिच्+ ण्यत्—जो ले जाये जाने के योग्य न हो
- अविकच—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो खिला न हो, अर्थात् बन्द
- अविकारिन्—वि॰—-—न+विकार+ णिनि—जिसमें कोई परिवर्तन न हो
- अविकारिन्—वि॰—-—न+विकार+ णिनि—स्वामिभक्त
- अविकार्य—वि॰,न॰त॰—-—-—अपरिवर्त्य
- अविक्रियात्मक—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसका स्वभाव अपरिवर्त्य हो, जिसकी प्रकृति न बदले
- अविक्षोभ्य—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसमें कोई हलचल न हो
- अविक्षोभ्य—वि॰,न॰त॰—-—-—जो जीते न जा सकें
- अविखण्डित—वि॰,न॰त॰—-—-—अविभक्त, अविचल
- अविगान—वि॰,न॰ब॰—-—-—अपस्वर रहित
- अविगीत—वि॰,न॰त॰—-—-—विकल करने वाले स्वर जिसमें न हों
- अविचक्षण—वि॰,न॰त॰—-—-—अकुशल, जो चतुर न हो
- अविचक्षण—वि॰,न॰त॰—-—-—अनजान, अज्ञानी
- अविचिन्त्य—वि॰—-—न+ वि+ चिन्त्+ ण्यत्—जो समझा न जा सके, जो समझ से बाहर हो
- अविच्छिन्न—वि॰,न॰त॰—-—-—साधारण, सामान्य
- अवितर्कित—वि॰,न॰त॰—-—-—अप्रत्याशित, जिसके लिए पहले कभी तर्कना न की हो
- अवितर्क्य—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसका अनुमान न लगाया जा सके
- अवितृ—वि॰—-—अव्+णिच्+तृच्—प्ररक्षक
- अविद—अ॰—-—-—विस्मयादिद्योतक अव्यय- अर्थ है हन्त
- अविद्—वि॰—-—न+ विद्+ क्विप्—अनजान, अज्ञानी
- अविदूषक—वि॰,न॰त॰—-—-—निरीह, भोलाभाला
- अविदूसम्—नपुं॰—-—अवि+ दूस—भेड़ का दूध
- अविद्धनस्—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसके नाक में नकेल न डाली गई हो
- अविद्धनास्—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसके नाक में नकेल न डाली गई हो
- अविधायक—वि॰—-—न+ विधा+ ण्वुल्—जिसमें विधि या आदेश की शक्ति न हो
- अविनेय—वि॰,न॰त॰—-—-—जो नियंत्रण में न आ सके
- अविनेय—वि॰,न॰त॰—-—-—जो शिष्य न बन सके
- अविनाशिन्—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसका कभी नाश न हो, आत्मा
- अविनिर्णयः—पुं॰—-—न+ विनिर्+ नी+ अच्—अनिर्णय, निर्णय का अभाव
- अविनीय—वि॰—-—-—निष्कपट, निर्दोष
- अविपर्ययः—न॰त॰—-—-—विरोध का अभाव, संशय का अभाव, असन्दिग्ध स्थिति
- अविप्रतिपत्तिः—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—मतभिन्नता का अभाव
- अविप्रवासः—न॰त॰—-—-—एकत्र रहना, घनिष्ठ मिलन
- अविप्रहत—वि॰,न॰त॰—-—-—जहाँ किसी के पैर न पड़े हों
- अविप्लुत—वि॰,न॰त॰—-—-—अन्यूनीकृत, अविकृत
- अविभासित—वि॰,न॰त॰—-—-—जो हिसाब-किताब में न लिया गया हो
- अविरल—वि॰,न॰त॰—-—-—विशाल, स्थूलकाय
- अविरविकन्यायः—पुं॰—-—-—व्याकरण का एक न्याय जिसके आधार पर ’अवि’ को ’अविक’ हो जाता है।
- अविरहित—वि॰,न॰त॰—-—-—अवियुक्त, जो कभी पृथक् न किया गया हो
- अविलक्ष्य—वि॰,न॰त॰—-—-—गुप्त, जिसका मुकाबला न किया जा सके, जिसको रोका न जा सके
- अविवक्षितवचनता—स्त्री॰—-—-—उन मन्त्रों की स्थिति जो अपना शाब्दिक अर्थ प्रकट करने के लिए अभिप्रेत नहीं होते।
- अविवक्षितवाच्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—ध्वनि काव्य का एक भेद जिसमें शाब्दिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है
- अविवेचक—वि॰,न॰त॰—-—-—जो किसी वस्तु के विवेचन की बुद्धि नहीं रखता
- अविवेचना—स्त्री॰—-—नवि+ विच्+ युच्+ टाप्—विवेक बुद्धि का अभाव
- अविशयः—पुं॰—-—अव्+ शी+ अच्—संदेह का अभाव
- अविशेषवचन—वि॰—-—-—वह कथन जिसमें कोई विशेष विवरण न दिया गया हो
- अविश्रम्भः—न॰त॰—-—-—विश्वास का अभाव, अविश्वास, अप्रत्यय
- अविषक्त—वि॰,न॰ब॰—-—-—निरवबाध, अनियन्त्रित, जिस पर कोई प्रतिबन्ध न हो
- अविषह्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसका निर्णय करना कठिन हो
- अविषह्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो सहा न जा सके
- अविषह्य—वि॰,न॰ब॰—-—-—जहाँ पर पहुँचना कठिन हो
- अविसंवादः—न॰त॰—-—-—विरोध न प्रकट करना, अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करना
- अविहस्त—वि॰,न॰ब॰—-—-—अनुद्विग्न, साहसी
- अविहा—अ॰—-—-—हन्त! अहो!
- अविहित—वि॰—-—न+ वि+धा+ क्त—जो नियत न किया गया हो, जिसका विधान न किया गया हो
- अवी—स्त्री॰—-—अवत्यात्मानं लज्जया अव्+ ई—रजस्वला स्त्री
- अवीचिसंशोषणः—पुं॰—-—अवीचि+ सम्+ शष्+ णिच्+ल्युट्—समाधि का विशेष प्रकार
- अवृष्टिसंरम्भ—वि॰,न॰ब॰—-—-—बारिश के तैयारी किये बिना आरम्भ करने वाला
- अवेक्षमाण—वि॰—-—अव+ईक्ष्+शानच्—सध्यान देखने वाला
- अवेदविद्—वि॰—-—अवेद+ विद्+क्विप्—वेदों को न जानने वाला
- अवेदविहित—वि॰—-—अवेद+ वि+ धा+ क्त—जिसका वेद में विधान न हो
- अवेदना—स्त्री॰—-—न+ विद्+युच्—पीड़ा का अभाव
- अवैयात्यम्—नपुं॰—-—-—लजाना, लज्जा का भावना रखना
- अवैशेषिक—वि॰—-—न+ विशेष+ ठक्—जो किसी विशेष परिणाम को दर्शाने वाला न हो, जिसका कोई फल न निकले
- अव्यङ्गय—वि॰,न॰ब॰—-—-—निरपराव
- अव्यङ्गय—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसमें ध्वनि या व्यञ्जना का अभाव हो
- अव्यतिरेकः—न॰त॰—-—-—अपार्थक्य, निरपवाद
- अव्यतिरेकः—न॰ब॰—-—-—जो भूलने वाला न हो, जो कोई त्रुटि न करे
- अव्यपदेश्य—वि॰—-—अव्यपदिश्+ ण्यत्—जिसकी परिभाषा न की जा सके
- अव्यपोह्य—वि॰—-—अव्यप+ वह+ ण्यत्—जिसको झूठलाया न जा सके, जिससे इंकार न किया जा सके
- अव्ययम्—न॰त॰—-—-—कुशलक्षेम, हित,कल्याण
- अव्यवच्छिन्न—वि॰—-—अव्यव+ छिद्+ क्त—न टूटा हुआ, जिसमें कोई विघ्न न पड़ा हो, निर्बाध
- अव्यवसायः—पुं॰—-—अव्यव+ सो+ घञ्—निर्णायक शक्ति या संकल्प का अभाव
- अव्यवसायिन्—वि॰—-—अव्यवसाय+ णिनि—आलसी, जो निर्णायक बुद्धि से रहित हैं
- अव्यविकन्यायः—पुं॰—-—-—यद्यपि ’अवि’ का ही ’अविक’ बनता है, परन्तु ’अविक’ से ’अविकं’ जैसा कोई दूसरा शब्द ’अवि’ से नहीं बनता
- अव्याक्षेपः—पुं॰—-—न+ वि+आ+क्षिप्+ घञ्—अनियमितता या आरम्भिक कठिनाई का अभाव
- अव्याजकरुणा—स्त्री॰—-—-—निष्कपट दया, स्वाभाविक सहानुभूति
- अव्याहृतम्—नपुं॰—-—अव्या+हृ+क्त—चुप रहना, न बोलना
- अशितम्—नपुं॰—-—अश्+क्त—जो खाया जाय, खाद्य
- अशितम्—नपुं॰—-—अश्+क्त—वह स्थान जहाँ पर कोई खाया जाता है
- अशकुनः—न॰त॰—-—-—अशुभ शकुन, बुरा शकुन
- अशकुनम्—न॰त॰—-—-—अशुभ शकुन, बुरा शकुन
- अशठ—वि॰—-—न+ शठ्+ अच्—जो ढीठ न हो, आज्ञाकारी
- अशब्दार्थः—पुं॰—-—अशब्द+ अर्थः—शब्द द्वारा अनभिप्रेत अर्थ
- अशब्दार्थः—पुं॰—-—अशब्द+ अर्थः—वह अर्थ जो प्रत्यक्ष रूप से वाक्य से प्रतीत न होता हो
- अशाब्द—वि॰—-—न+शब्द+ अण्—जो शब्दों से प्रतीत न होता हो
- अशिथिल—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो ढीला न हो, कसा हुआ
- अशिथिल—वि॰,न॰ब॰—-—-—प्रभावशाली
- अशिशिर—वि॰,न॰ब॰—-—-—गर्म
- अशिशिरकरः—पुं॰—अशिशिर-करः—-—सूर्य
- अशिशिरकिरणः—पुं॰—अशिशिर-किरणः—-—सूर्य
- अशिशिररश्मिः—पुं॰—अशिशिर-रश्मिः—-—सूर्य
- अशीतल—वि॰,न॰ब॰—-—-—गर्म
- अशीतिद्वयम्—नपुं॰—-—-—बयासी प्रश्न जो कृष्णयजुर्वेद के सात काण्डों में विभक्त है।
- अशुभशंसनम्—नपुं॰—-—अशुभ+शंस्+ ल्युट्—बुरा समाचार देना
- अशुभोदयः—पुं॰—-—अशुभ+ उदयः, अशुभ+ उद्+ इ+ अच्—अशुभ सूचक शकुन
- अशूकजा—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का चावल
- अशोकज—वि॰—-—-—जो दुःख या शोक से पैदा न हुआ हो, हर्ष या खुशी से उत्पन्न
- अशोभनम्—नपुं॰—-—न+शुभ+ ल्युट्—अपराध, त्रुटि, दोष
- अश्मवर्षः—ष॰त॰—-—-—ओले पड़ना
- अश्मवर्षः—ष॰त॰—-—-—पत्थर फेंकना
- अश्यानम्—नपुं॰—-—न+श्यै+क्त—अगुरु का एक प्रकार जो जमा हुआ न हो
- अश्री—स्त्री॰,न॰त॰—-—-—दुर्भाग्य, बुरी क़िस्मत
- अश्रीकरम्—नपुं॰—-—अश्री+ कृ+ अच्—अशुभ
- अश्वः—पुं॰—-—अश्नुते अध्वानं व्याप्नोति+ महाशनो वा भवति+ अश्+ क्वन्—घोड़ा
- अश्वघासकायस्थः—पुं॰—अश्वः-घासकायस्थः—-—घोड़ों के लिए घास का संभरण करने वाला संविदाकार
- अश्वचर्या—स्त्री॰—अश्वः- चर्या—-—घोड़े की देख-रेख करने वाला
- अश्वजीवनः—पुं॰—अश्वः-जीवनः—-—चना
- अश्वमन्दुरा—स्त्री॰—अश्वः-मन्दुरा—-—अस्तबल
- अश्वरिपुः—पुं॰—अश्वः-रिपुः—-—भैंसा
- अश्वसधर्मन्—पुं॰—अश्वः-सधर्मन्—-—घोड़ों की भाँति आचरण करने वाला
- अश्वसूत्रम्—नपुं॰—अश्वः-सूत्रम्—-—‘घोड़ों को पालने’ के विषय पर एक पुस्तक
- अश्वतरीरथः—पुं॰—-—रम्यते॓ऽनेन+ रम्+ कथन्—खच्चरी द्वारा खींचा जाने वाला रथ
- अश्वत्थः—पुं॰—-—न श्वः तिष्ठति इति अश्व+ स्था+ क—पीपल का पेड़
- अश्वत्थनारायणः—पुं॰—अश्वत्थः-नारायणः—-—भगवान् विष्णु जिनकी पीपल के वृक्ष के रूप में पूजा की जाती है।
- अश्वत्थपूजा—स्त्री॰—अश्वत्थः-पूजा—-—‘सभी देवता पीपल में रहते हैं’ ऐसा समझ उसकी पूजा करना
- अश्वत्थप्रदक्षिणम्—नपुं॰—अश्वत्थः-प्रदक्षिणम्—-—धार्मिक संस्क्रिया के रूप में पीपल की परिक्रमा करना
- अषडक्ष—वि॰—-—न +षट्+अक्षि —जो छः आँखों से न देखा गया
- अषडक्षीण—वि॰—-—न+षट्+ अक्षि+ ईन—जो छः आँखों से न देखा गया
- अषडक्षीणम्—नपुं॰—-—-—रहस्य, गुप्त बात
- अष्टन्—वि॰—-—अश् व्याप्तौ कनिन् तुट् च—आठ
- अष्टाङ्गम्—नपुं॰—अष्टन्-अङ्गम्—-—आयुर्वेद पद्धति के आठ अंग
- अष्टाङ्गम्—नपुं॰—अष्टन्-अङ्गम्—-—बुद्धि की आठ क्रियायें
- अष्टाङ्गम्—नपुं॰—अष्टन्-अङ्गम्—-—योगाभ्यास के आठ अंग
- अष्टाधिकाराः—पुं॰—अष्टन्-अधिकाराः—-—सामाजिक व्यवस्था में शक्ति की आठ स्थितियाँ
- अष्टाध्यायी—स्त्री॰—अष्टन्-अध्यायी—-—पाणिनि का व्याकरण
- अष्टाध्यायी—स्त्री॰—अष्टन्-अध्यायी—-—शतपथ ब्राह्मण
- अष्टान्नानि—नपुं॰—अष्टन्- अन्नानि—-—भोजन के आठ प्रकार
- अष्टापाद्य—वि॰—अष्टन्-आपाद्य—-—आठगुणा
- अष्टोपद्वीपानि—नपुं॰—अष्टन्- उपद्वीपानि—-—छोटे-छोटे आठ द्वीप
- अष्टकुलाचलाः—पुं॰—अष्टन्-कुलाचलाः—-—आठ मुख्य पर्वत
- अष्टमर्यादागिरयः—पुं॰—अष्टन्-मर्यादागिरयः—-—आठ मुख्य पहाड़
- अष्टगन्धाः—पुं॰—अष्टन्-गन्धाः—-—मन्दिरों में प्रस्तर मूर्ति की स्थापना के लिए लेई या गारा बनाने में प्रयुक्त आठ सुगन्धित द्रव्य
- अष्टतालम्—नपुं॰—अष्टन्-तालम्—-—मूर्तिकला में प्रयुक्त होने वाला गज
- अष्टदेहाः—पुं॰—अष्टन्- देहाः—-—स्थूल और सूक्ष्म शरीर जो गिनती में आठ होते हैं।
- अष्टनागाः—पुं॰—अष्टन्-नागाः—-—आठ साँप
- अष्टनागाः—पुं॰—अष्टन्-नागाः—-—अठ दिग्गज
- अष्टपक्ष—वि॰—अष्टन्-पक्ष—-—एक ही ओर आठ स्तम्भ लगे हुए हों
- अष्टप्रकृतयः—स्त्री॰—अष्टन्-प्रकृतयः—-—पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार
- अष्टप्रधानाः—पुं॰—अष्टन्- प्रधानाः—-—राज्य के आठ प्रधान अधिकारी
- अष्टभैरवाः—पुं॰—अष्टन्- भैरवाः—-—शिव के आठ गण
- अष्टभोगाः—पुं॰—अष्टन्- भोगाः—-—सुखमय जीवन के आठ तत्त्व
- अष्टमङ्गलघृतम्—नपुं॰—अष्टन्- मङ्गलघृतम्—-—आयुर्वेद की आठ औषधियाँ मिला कर तैयार हुआ घी
- अष्टप्रश्नः—पुं॰—अष्टन्- प्रश्नः—-—ज्योतिष में प्रश्न विचार प्रणाली के लिए अपनाया गया एक ढंग
- अष्टमधु—पुं॰—अष्टन्-मधु—-—आठ प्रकार का शहद
- अष्टमहारसाः—पुं॰—अष्टन्- महारसाः—-—आयुर्वेद पद्धति के आठ रस
- अष्टरोगाः—पुं॰—अष्टन्-रोगाः—-—आयुर्वेद में वर्णित आठ प्रधान रोग
- अष्टमातृकाः—स्त्री॰—अष्टन्- मातृकाः—-—पराशक्ति के आठ अवतार
- अष्टमूर्तयः—स्त्री॰—अष्टन्- मूर्तयः—-—आठ प्रकार की मूर्तियाँ
- अष्टयोगिन्यः—स्त्री॰—अष्टन्- योगिन्यः—-—आठ योगिनियाँ जो पार्वती की सहेलियाँ थीं
- अष्टवर्गः—पुं॰—अष्टन्-वर्गः—-—एक प्रकार का रेखाचित्र जो किसी विशेष समय पर ग्रहों की स्थिति दर्शाता है।
- अष्टसिद्धयः—स्त्री॰—अष्टन्-सिद्धयः—-—अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशिता, वशिता और प्राकाम्य
- अष्टमराशिः—ष॰त॰—-—-—किसी व्यक्ति के नक्षत्र की राशि से आठवीं राशि जो प्रायः अशुभ मानी जाती है।
- अष्टागव—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसमें आठ बैल जुते हों।
- अष्टागवम्—नपुं॰—-—अष्टानां गवां समाहारः—आठ गाँवों का समूह
- अष्टादश—वि॰—-—अष्ट च दश च—अठारह
- अष्टादशतत्त्वानि—नपुं॰—अष्टादश-तत्त्वानि—-—अठारह प्रधान तत्त्व
- अष्टादशधान्यम्—नपुं॰—अष्टादश- धान्यम्—-—अठारह प्रकार का अन्न है।
- अष्टादशपर्वाणि—नपुं॰—अष्टादश-पर्वाणि—-—महाभारत के अठारह खण्ड
- अस्—दिवा॰पर॰—-—-—युद्ध करना
- अस्तः—पुं॰—-—अस्+ आधारे क्त, अस्यन्ते सूर्य किरणा यत्र—छिपना, पश्चिमाद्रि
- अस्तः—पुं॰—-—अस्+ आधारे क्त, अस्यन्ते सूर्य किरणा यत्र—सूर्य का छिपना
- अस्तनिमग्न—वि॰—अस्तः-निमग्न—-—अस्ताचल के पीछे छिपा हुआ
- अस्तमस्तकः—पुं॰—अस्तः-मस्तकः—-—अस्ताचल की चोटी
- अस्तशिखरः—पुं॰—अस्तः-शिखरः—-—अस्ताचल की चोटी
- अस्तसमयः—पुं॰—अस्तः-समयः—-—सूर्य छिपने का समय, मृत्यु का समय
- अस्तिक्षीर—वि॰—-—-—जिसके पास दूध हो, दूध रखने वाला
- असङ्क्रान्तः—पुं॰—-—न+ सम्+ क्रम्+ क्त—अधिमास, मलमास, लौंद का महीना
- असंयाज्य—वि॰—-—न+ सं+यज्+ ण्यत्—जिसके साथ मिलकर किसी को यज्ञ करने की अनुमति न हो
- असंयोगः—पुं॰—-—न+सम्+युज्+ घञ्—संबंध का अभाव
- असंयोगः—पुं॰—-—न+सम्+युज्+ घञ्—जो संयुक्त व्यञ्जन न हो
- असंरम्भः—पुं॰—-—न+ सम्+रम्भ्+ घञ्—निर्दयता, निडरता
- असंरोधः—पुं॰—-—न+ सम्+रुध+ घञ्—अनाघात
- असंवर—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो रोका न जा सके, दुर्निवार
- असंहार्य—वि॰—-—न+सम्+ हृ+ ण्यत्—अजेय, जिसका मुकाबला न किया जा सके
- असंहार्य—वि॰—-—न+सम्+ हृ+ ण्यत्—जिसे मार्गभ्रष्ट न किया जा सके
- असकृत्कथनम्—नपुं॰—-—असकृत्+ कथ्+ ल्युट्—आवृत्ति, दोहराना
- असकृद्भवः—पुं॰—-—असकृत्+ भू+ अप्—दांत
- असकौ—स॰वि॰—-—अदस्+ सु, कादेशः—यह या वह
- असकौ—स॰—-—अदस्+ सु, कादेशः—यह दुष्ट
- असक्तिः—स्त्री॰—-—न+ सञ्ज्+ क्तिन्—सामान्य सांसारिक बातों की ओर मन का लगाव न होना
- असङ्करः—पुं॰—-—न+सम्+ कृ+ अप्—मिलावट का अनुभव
- असङ्कल्पित—वि॰—-—न+ सम्+ कल्प्+ क्त—जो कभी कल्पना न किया हो
- असङ्गत—वि॰—-—न+सम्+गम्+क्त—निर्बाध, अनवरुद्ध
- असदाश्रयः—पुं॰—-—असत्+ आ+ श्रि+अच्—अयोग्य व्यक्ति से सम्मिलन
- असद्वस्तु—नपुं॰,क॰स॰—-—-—अविद्यमान चीज
- असद्वादिन्—वि॰—-—असत्+वाद+ णिनि—जो व्यक्ति किसी वस्तु या बात की असत्ता को स्थापित करना चाहता है।
- असन्तुष्ट—वि॰—-—न+सम्+ तुष्+क्त—अतृप्त, अप्रसन्न
- असन्तोषः—पुं॰—-—न+सम्+तुष्+ घञ्—अतृप्ति, अप्रसन्नता
- असन्धानम्—नपुं॰—-—न+ सम्+धा+ल्युट्—निरुद्देश्यता
- असन्धानम्—नपुं॰—-—न+ सम्+धा+ल्युट्—विलगता, पार्थक्य
- असमभागः—पुं॰,क॰स॰—-—-—जो समान रूप से नहीं बाँटा हुआ है।
- असमायुक्त—वि॰—-—नञ्+ सम्+ आ+ युज्+ क्त—जो भलीभांति प्रशिक्षित न किया गया हो।
- असमिथ्य—अ॰—-—न+ सम्+ इध्+ ल्यप्—न जला कर
- असमीचीन—वि॰—-—न+ सम्+ अञ्व्+ क्विन्+ ख—जो सही न हो, त्रुटिपूर्ण
- असमृद्धिः—स्त्री॰—-—न+सम्+ ऋध्+क्ति—सफलता का अभाव, किसी भी वस्तु की कमी होना
- असमेत—वि॰—-—न+सम्+ आ+ इ+ क्त—जो कभी पहुँचा न हो, अनागत, अनुपस्थित
- असम्पात—वि॰,न॰ब॰—-—-—अनुपस्थित, जो निकट न हो
- असम्पातः—पुं॰—-—न+ सम्+ पत्+ घञ्—निष्क्रियता, निठल्लापन, कार्य का रुक जाना
- असम्बद्धार्थव्यवधान—वि॰—-—-—जिसने असंगत बात को बीच में आकर रोक दिया है।
- असम्बोधः—पुं॰—-—न+ सम्+ बुध्+ घञ्—समझ का अभाव
- असम्भवत्—वि॰—-—न+ सम्+ भू+ शतृ—असंभाव्य, अघटनीय
- असम्भावना—स्त्री॰—-—न+ सम्+ भू+ णिच्+ युच्+ टाप्—सम्मान का अभाव
- असम्भावित—वि॰—-—न+ सम्+ भू+ णिच्+ क्त—अयोग्य
- असम्भावितोपमा—स्त्री॰—असम्भावित-उपमा—-—ऐसी समानता बतलाना जो असंभव हो।
- असम्भाष्य—वि॰—-—न+ सम् +भाष्+ण्यत्—जिससे बात करना उचित न हो।
- असम्भोज्य—वि॰—-—न+सम्+भुज्+ णिच्+ण्यत्—जो सहभोज में सम्मिलित होने के योग्य न हो।
- असम्मोहः—पुं॰—-—न+ सम्+ मुह्+ घञ्—माया या भ्रम से मुक्ति
- असम्मोहः—पुं॰—-—न+ सम्+ मुह्+ घञ्—आत्मसंवरण
- असम्मोहः—पुं॰—-—न+ सम्+ मुह्+ घञ्—सत्य ज्ञान
- असम्यक्प्रयोगः—पुं॰—-—असम्यञ्च्+ प्र+ युज्+ घञ्—अशुद्ध व्यवहार, गलत परिपाटी
- असव्य—वि॰,न॰त॰—-—-—दक्षिण पार्श्व
- असान्निध्यम्—नपुं॰—-—न+ सन्निधि+ ष्यञ्—असामीप्य, अनुपस्थिति
- असामञ्जस्यम्—नपुं॰—-—न+ समञ्जस+ ष्यञ्—अशुद्धि
- असामञ्जस्यम्—नपुं॰—-—न+ समञ्जस+ ष्यञ्—अनौचित्य
- असाम्प्रतिकता—स्त्री॰—-—न+ संप्रति+ ठक्+ ता—अनुचित व्यवहार करने की अवस्था
- असांप्रदायिक—वि॰—-—न+सम्प्रदाय+ ठक्—जो लोकसम्मत न हो, जो परम्परा के विरुद्ध हो।
- असावधान—वि॰—-—न+सह्+ अव+ धा+ ल्युट्—उपेक्षा करने वाला, प्रमादी, लापरवाह
- असाहसिक—वि॰—-—न+ साहस+ ठक्—जो साहस के साथ काम न कर सके या जो बिना विचारे न करे
- असिचर्या—स्त्री॰—-—असि+चर्य+ टाप्—शस्त्रास्त्र चलाने का अभ्यास
- असिलता—स्त्री॰—-—-—तलवार का फल
- असिहस्तः—न॰ब॰—-—-—जो दाहिने हाथ के तलवार से वार करता हो।
- असिताञ्जनी—स्त्री॰—-—-—काली कपास का पौधा
- असिद्ध—वि॰—-—न+ सिध्+ क्त—अक्रियात्मक प्रतिरक्षा अर्थात् रद्द, प्रभावशून्य- पूर्वत्रासिद्धम्- @ पा॰ ८/२/१
- असिद्धान्तः—न॰त॰—-—-—गलत नियम, त्रुटिपूर्ण सिद्धान्त
- असिद्धार्थ—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसने अपने उद्देश्य में सफलता न पाई हो।
- असुतृप्—वि॰—-—असु+तृप्+क्विप्—जो अपने ही सुखोपभोग में मस्त हो, सांसारिक विषय वासनाओं में मग्न
- असुगन्ध—वि॰,न॰ब॰—-—-—जिसमें खुशबू न आती हो।
- असुतर—वि॰,न॰त॰—-—-—जो आसानी से पार न किया जाय, जिसमें अनायास साफल्य प्राप्त न हो।
- असुन्दर—वि॰,न॰त॰—-—-—जो खूबसूरत न हो।
- असुरः—पुं॰—-—असु+र, असुरताः स्थानेषु न सुष्ठुरताः, चपला इत्यर्थः—राक्षस
- असुरासुक—पुं॰—असुरः-असुक—-—राक्षसों का रुधिर
- असुरगुरुः—पुं॰—असुरः-गुरुः—-—शुक्राचार्य
- असुरगुरुः—पुं॰—असुरः-गुरुः—-—शुक्र नाम का ग्रह
- असुरद्रुह—पुं॰—असुरः-द्रुह—-—राक्षसों का शत्रु अर्थात् देव
- असुषिर—वि॰—-—न+ शुष्+किरच्, शस्य सः—जिसमें कोई छिद्र न हो, जो दोषी या कपटी न हो।
- असूतजरती—स्त्री॰—-—असूत+जरती —वह स्त्री जो बिना किसी बच्चे को जन्म दिये ही बूढ़ी हो गई है।
- असूर्त—वि॰,न॰ब॰—-—-—अन्धकारयुक्त
- असूर्त—वि॰,न॰ब॰—-—-—अज्ञात, दूरवर्ती
- असूर्तरजसः—पुं॰—असूर्त-रजसः—-—वे लोग जो सर्वथा अलग-अलग रहते हैं।
- असृज्—नपुं॰—-—न+ सृज्+ क्विन्—रुधिर
- असृज्—नपुं॰—-—न+ सृज्+ क्विन्—मंगलग्रह
- असृज्—नपुं॰—-—न+ सृज्+ क्विन्—जाफरान
- असृग्ग्रहः—पुं॰—असृज्-ग्रहः—-—मंगलग्रह
- असृग्दिग्ध—वि॰—असृज्-दिग्ध—-—खून से लथपथ
- असेवा—न॰त॰—-—-—अभ्यास का अभाव
- अस्तब्ध—वि॰,न॰त॰—-—-—चुस्त
- अस्तब्ध—वि॰,न॰त॰—-—-—जो घमंडी न हो, हठी न हो
- अस्तोक—वि॰,न॰त॰—-—-—जो थोड़ा न हो, बहुत अधिक
- अस्तोभ—वि॰—-—न+ स्तुभ्+ घञ्—बिना किसी अवांछित शब्द के, बिना किसी रोक-टोक के
- अस्त्रम्—नपुं॰—-—अस्यते क्षिप्यते+ अस+ ष्ट्रन्—फेंक कर मार करने वाला हथियार
- अस्त्रम्—नपुं॰—-—अस्यते क्षिप्यते+ अस+ ष्ट्रन्—तीर, तलवार
- अस्त्रम्—नपुं॰—-—अस्यते क्षिप्यते+ अस+ ष्ट्रन्—धनुष
- अस्त्रपातिन्—वि॰—अस्त्रम्-पातिन्—-—गोली मारने वाला
- अस्त्रभृत्—वि॰—अस्त्रम्-भृत्—-—जो तीर ले जाता है, तीर धारण करने वाला
- अस्त्रयन्त्रम्—नपुं॰—अस्त्रम्- यन्त्रम्—-—धनुष, एक प्रकार का संयन्त्र जिसके द्वारा तीरों की मार की जाय
- अस्थानम्—नपुं॰,न+त॰—-—-—असाधारण स्थान या प्रदेश
- अस्थास्नु—वि॰—-—न+स्था+स्नु—चंचल, अधीर
- अस्थि—नपुं॰—-—अस्+ कथिन्—हड्डी
- अस्थि—नपुं॰—-—अस्+ कथिन्—गुठली, या किसी फल की गिरी
- अस्थिकुण्डम्—नपुं॰—अस्थि-कुण्डम्—-—एक नरक का नाम
- अस्थिबन्धनम्—नपुं॰—अस्थि-बन्धनम्—-—स्नायु, कंडरा
- अस्थिभेदिन्—वि॰—अस्थि-भेदिन्—-—जो हड्डी को बींध दे, अत्यन्त कठोर
- अस्थियज्ञः—पुं॰—अस्थि-यज्ञः—-—और्ध्वदैहिक क्रिया का एक भाग
- अस्थिविलयः—पुं॰—अस्थि-विलयः—-—किसी पवित्र नदी में किसी मृतक की अस्थियों को प्रवाहित करना
- अस्थिसारः—पुं॰—अस्थि-सारः—-—वसा, मज्जा
- अस्थिस्नेहः—पुं॰—अस्थि-स्नेहः—-—वसा, मज्जा
- अस्नात—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसने स्नान न किया हो।
- अस्पृष्ट—वि॰—-—न+स्पृश्+ क्त—जो आवृत न हो, अंतर्गत न हो
- अस्पृष्टमैथुना—वि॰,न॰ब॰—-—-—कुमारी, अक्षतयोनि
- अस्पृह—वि॰,न॰ब॰—-—-—निरीह, निरिच्छ, जिसे इच्छा न हो
- अस्फुट—वि॰,न॰त॰—-—-—जो पूर्ण विकसित न हो
- अस्मिमानः—पुं॰,त॰स॰—-—-—स्वाभिमान, अहंकार
- अस्मृत—वि॰,न॰त॰—-—-—याद न किया हुआ
- अस्मृत—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसका प्रामाणिक ग्रन्थों में उल्लेख न हो।
- अस्वाधीन—वि॰,न॰त॰—-—-—जो स्वतन्त्र न हो
- अस्विन्न—वि॰,न॰त॰—-—-—जिसे भली भांति उबाला न गया हो।
- अस्वेद्य—वि॰—-—न+ स्विद्+ ण्यत्—जिसे पसीना लाने के उपयुक्त न समझा जाय
- अहत—वि॰—-—हन्+क्त—जो बजाया न गया हो
- अहम्—सर्व॰—-—अस्मद् का कर्तृकारक एक वचन—मैं
- अहजुस्—पुं॰—अहम्-जुस्—-—अहंकारी, जो केवल अपना ही चिन्तन करें
- अहस्तम्भः—पुं॰—अहम्-स्तम्भः—-—अहङ्कार, घमंड
- अहिचक्रम्—ष॰त॰—-—-—तान्त्रिकों का एक आरेख
- अहिविषापहा—स्त्री॰—-—अहिविष+ अप+ हा+ अङ्+ टाप्—एक पौधे का नाम जिसके सेवन से विष दूर हो जाता है।
- अहोलाभकर—वि॰—-—अल्पेऽपि, अहोलाभो जात इति विस्मयं कुर्वाणः—थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होने वाला व्यक्ति।
- आंहस्पत्य—वि॰—-—अंहस्यति+ यञ्—मलमास संबंधी
- आकण्ठम्—अव्य॰—-—-—गले तक
- आकण्ठतृप्त—वि॰—आकण्ठम्- तृप्त—-—स्वादिष्ट भोजनों से गले तक छिका हुआ
- आकलना—स्त्री॰—-—आ+ कल्+युच्+ टाप्—गिनना, समझ, अनुमान, मूल्य आंकना
- आकल्पम्—अ॰—-—-—चार युगों के चक्र की अवधि तक, जब तक संसार है तब तक
- आकल्पान्तम्—अ॰—-—-—चार युगों के चक्र की अवधि तक, जब तक संसार है तब तक
- आकाङ्क्षा—स्त्री॰—-—आ+काङ्क्ष्+ अच्+ टाप्—अपेक्षा, आशा
- आकाशः—पुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—आस्मान
- आकाशः—पुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—अन्तरिक्ष
- आकाशः—पुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—मुक्त स्थान
- आकाशम्—नपुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—आस्मान
- आकाशम्—नपुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—अन्तरिक्ष
- आकाशम्—नपुं॰—-—आकाशन्ते सूर्यादयोऽत्र+ आकाश्+घञ्—मुक्त स्थान
- आकाशपथिकः—पुं॰—आकाशः-पथिकः—-—सूर्य
- आकाशबद्धदृष्टिः—स्त्री॰—आकाशः-बद्धदृष्टिः—-—जो बिना उद्देश्य से इधर-उधर देखता है।
- आकाशबद्धलक्ष—पुं॰—आकाशः-बद्धलक्ष—-—जो बिना उद्देश्य से इधर-उधर देखता है।
- आकाशमुखिनः—पुं॰,ब॰व॰—आकाशः-मुखिनः—-—शैव सम्प्रदाय के लोग, जो अपना मुँह आकाश की ओर रखते हैं।
- आकाशमुष्टिहननम्—नपुं॰—आकाशः-मुष्टिहननम्—-—मूर्खता का कार्य जैसे आकाश की ओर घूँसा उठाना, व्यर्थ कार्य
- आकाशशयनम्—नपुं॰—आकाशः-शयनम्—-—खुली हवा में सोना
- आकुञ्चनम्—नपुं॰—-—आ+कुञ्च्+ल्युट्—एक प्रकार का युद्धकौशल
- आकूतम्—नपुं॰—-—आ+कू+क्त—प्रस्तुतीकरण
- आकूतिः—स्त्री॰—-—आ+ कृ+ क्तिन्—शतरूपा और मनु की एक कन्या का नाम
- आकूपारम्—नपुं॰—-—-—कुछ साम-मन्त्रों के नाम
- आकरकर्म—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—खनिकार्य
- आकरग्रन्थः—ष॰त॰—-—-—मूलग्रन्थ, आदिग्रन्थ
- आकरजम्—ष॰त॰—-—-—रत्न, जड़ाऊ गहना
- आकारवर्ण—वि॰,न॰ब॰—-—-—रंग और आकार में कमनीय
- आकृत—वि॰—-—आ+कृ+ क्त—निर्मित, बना हुआ
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ+क+क्तिन्—छन्द
- आकृतिः—स्त्री॰—-—आ+क+क्तिन्—बाईस की संख्या
- आकृतियोगः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—नक्षत्रपुंज
- आकर्षः—पुं॰—-—आ+ कृष्+ घञ्—धनुष
- आकर्षः—पुं॰—-—आ+ कृष्+ घञ्—विषाक्त पौधा
- आकृष्ट—वि॰—-—आ+कृष्+क्त —खींचा हुआ, आकर्षित किया हुआ,ऐंचा हुआ
- आकोपः—पुं॰—-—आ+कुप्+ घञ्—चिड़चिड़ापन, मृदुक्रोध
- आकौशलम्—नपुं॰—-—आ+कुशल+अण्—विशेषता का अभाव, नैपुण्य की कमी
- आक्रमः—पुं॰—-—आ+ क्रम्+घञ्—पौड़ी, सीढ़ी का डंडा
- आक्रान्त—वि॰—-—आ+क्रम्+क्त—अलंकृत, सजा हुआ
- आक्रान्त—वि॰—-—आ+क्रम्+क्त—आरुढ, चढ़ा हुआ
- आक्रान्तमति—वि॰—आक्रान्त-मति—-—मन से पराजित, अत्यन्त प्रभावित
- आक्रान्तिः—स्त्री॰—-—आ+ क्रम्+क्तिन्—आक्रमण, लूटखसोंट
- आक्रीडगिरिः—त॰स॰—-—-—आमोद गिरि, आमोद प्रमोद के लिए पहाड़
- आक्लिन्न—वि॰—-—आ+क्लिद्+ क्त—स्विन्न
- आक्लिन्न—वि॰—-—आ+क्लिद्+ क्त—दया से पसीजा हुआ
- आक्षपटलिकः—पुं॰,त॰स॰—-—-—पुरातत्त्व और अभिलेखाधिकारी
- आक्षपटलिकः—पुं॰,त॰स॰—-—-—लेखाधिकारी
- आक्षरः—पुं॰—-—अक्षर+ अण्—वर्णमाला संबंधी
- आक्षिप्त—वि॰—-—अ+ क्षिप्+ क्त—प्रक्षिप्त, ठूँसा हुआ
- आक्षेपः—पुं॰—-—आ+ क्षिप्+ घञ्—परास, पहुँच
- आक्षेपरूपकम्—नपुं॰—आक्षेपः-रूपकम्—-—उपमा अलंकार का वह रूप जिसमें केवल उपमान ही संकेतित हो।
- आखण्डलः—पुं॰—-—आखण्डयति भेदयति पर्वतान्+ खण्ड्+ डलच्—इन्द्र
- आखण्डलचापः—पुं॰—आखण्डलः-चापः—-—इन्द्रधनुष
- आखण्डलधनुः—पुं॰—आखण्डलः-धनुः—-—इन्द्रधनुष
- आखण्डलसूनुः—पुं॰—आखण्डलः-सूनुः—-—इन्द्र का पुत्र अर्थात् अर्जुन
- आखण्डिशाला—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—दस्तकार या शिल्पी का कारखाना
- आखुवाहनः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—गणेश का नाम
- आखेटोपवनम्—नपुं॰,त॰स॰—-—-—शिकार या मृगया के लिए राजकीय जंगल
- आख्या—स्त्री॰—-—-—सूरत, शक्ल
- आख्या—स्त्री॰—-—-—सौन्दर्य, मनोज्ञता
- आख्यात—वि॰—-—आ+ ख्या+ क्त—पुकारा गया
- आख्यात—वि॰—-—आ+ ख्या+ क्त—सेवा
- आख्यातम्—नपुं॰—-—आ+ ख्या+ क्त—आरम्भ करने का शुभ शकुन
- आगतत्वम्—नपुं॰—-—आगत+ त्व—उद्गम, मूल, जन्मस्थान
- आगतसाध्वस—वि॰,न॰ब॰—-—-—डरा हुआ, भीत
- आगमः—पुं॰—-—आ॰+ गम्+घञ्—जो बाद में आने वाला है।
- आगमः—पुं॰—-—आ॰+ गम्+घञ्—पूजा की एक रीति
- आगमः—पुं॰—-—आ॰+ गम्+घञ्—यात्रा
- आगमापायिन्—वि॰—आगमः-अपायिन्—-—जिसका स्वभाव उत्पन्न होने और फिर नाश हो जाने का हो, जिसका जन्ममरण होता है।
- आगमशास्त्रम्—नपुं॰—आगमः-शास्त्रम्—-—’आगम’ से संबंध रखने वाला शास्त्र
- आगमशास्त्रम्—नपुं॰—आगमः-शास्त्रम्—-—माण्डूक्य का परिशिष्ट
- आगमश्रुतिः—स्त्री॰—आगमः-श्रुतिः—-—परम्परा
- आगमित—वि॰—-—आगम्+ णिच्+ क्त—सीखा हुआ, शिक्षा प्राप्त
- आगमित—वि॰—-—आगम्+ णिच्+ क्त—पठित, जिसने पढ़ लिया है।
- आगमित—वि॰—-—आगम्+ णिच्+ क्त—निश्चय किया हुआ
- आगुल्फम्—नपुं॰—-—-—जूता
- अग्निहोत्रिक—वि॰—-—अग्निहोत्र+ ठक्—अग्निहोत्र से सम्बन्ध रखने वाला
- आग्रयणेष्टिः—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—ऋतु के प्रथम फल की आहुति
- आङ्गिकः—पुं॰—-—अङ्ग+ठक्—घुटनों से नीचे तक पहुँचने वाला कोट
- आङ्गारिकः—पुं॰—-—अङ्गार+ ठक्—कोयले को जलाने वाला
- आङ्गिरस—वि॰—-—आङ्गिरस्+ अण्—विशिष्टता से युक्त वर्ष का नाम
- आचन्द्रतारकम्—अ॰—-—-—जब तक संसार में चाँद और तारे हैं, अर्थात् सदा के लिए।
- आचपराच—वि॰—-—आ+ अञ्च्+ क्विन्+ परापूर्वक+ अण्—इधर-उधर घूमने वाला
- आचमनवाहिन्—पुं॰—-—आचमन+ वाह+ णिनि—पानी निकालने वाला, पानी खींच कर निकालने वाला, पनिहारा
- आचन्तिः—स्त्री॰—-—आ+ चम्+ क्तिन्—मुखशुद्धि के लिए आचमन करना
- आचरित—वि॰—-—आचर्+ क्त—बसाया हुआ, बसा हुआ
- आचारपुष्पाञ्जलिः—स्त्री॰—-—-—धार्मिक प्रथा के रूप में पुष्पों का उपहार भेंट करना
- आचार्यदेशीय—वि॰—-—आचार्यदेश+ छ—आचार्य से कुछ निम्न पद का
- आचार्यसवः—पुं॰—-—आचार्य+ सु+ अच्—एकाह- अर्थात् एक दिन तक रहने वाला यज्ञ का नाम
- आचार्यकम्—नपुं॰—-—आचार्य+ क —आचार्य का पद
- आचार्यकम्—नपुं॰—-—आचार्य+ क —आचार्य का सम्मान करना
- आचार्यकम्—नपुं॰—-—आचार्य+ क —भाष्यकर्ता या व्याख्याकार का कर्तव्य
- आचेष्टित—वि॰—-—आ+ चेष्ट्+ क्त—उपक्रान्त, वचन दिया हुआ
- आचेष्टितम्—नपुं॰—-—-—कार्य, कृत्य, कार्यकलाप
- आच्छन्न—वि॰—-—आ+ छद्+ क्त—आवृत्त, ढका हुआ
- आच्छादनम्—नपुं॰—-—आ+ छद्+णिच्+ ल्युट्—बिस्तरे की चादर
- आजात—वि॰—-—आ+ जन्+ क्त—उच्च कुल में उत्पन्न
- आजानिक—वि॰—-—आ+ जाया स्वार्थे कन्—अन्तर्जात
- आजपादम्—नपुं॰—-—-—पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र
- आजिमुखम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—युद्ध का अग्रभाग
- आजीवितान्तम्—अ॰—-—-—मरने तक, मृत्युपर्यंत
- आज्यग्रहः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—घी का कटोरा
- आज्यभागः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—घी की आहुति का हिस्सा
- आञ्जनाभ्यञ्जने—नपुं॰कर्तॄ॰द्वि॰व॰—-—-—आँखों का अंजन और पैरों का उबटन
- आञ्जलिकः—पुं॰—-—अञ्जलि+ ठक्—अर्धचन्द्र के आकार का एक तीर
- आटविकः—पुं॰—-—अटव्यां चरति भवो वा ठक्—जंगली जनजाति का चौधरी
- आढ्यरोगः—पुं॰—-—आ+ ध्यै क पृषो॰+ रुज्+ घञ्—गठिया, सन्धिवात
- आण्डकोशः—पुं॰—-—अण्ड+ अण्+ कोशः—अंडे का खोल
- आतङ्कम्—नपुं॰—-—आ+ तञ्च्+ घञ्, कुत्वम्—भरणी नक्षत्र
- आतप्त—वि॰—-—आ+ तप्+ क्त—गर्म किया हुआ, आग में तपाया हुआ
- आतिशायिक—वि॰—-—अतिशय+ ठक्—अतिप्रचुर, बहुत अधिक
- आतिष्ठद्गु—अ॰—-—तिष्ठन्ति गावः तस्मिन् काले दोहाय—उस समय तक जब तक कि गौएँ दुहे जाने के लिए ठहरती है।
- आत्मन्—पुं॰—-—अत्+मनिण्—मानसिक गुण
- आत्मानन्दः—पुं॰—आत्मन्-आनन्दः—-—आत्मा को प्राप्त होने वाला परम सुख, परमानन्द
- आत्मौपम्यम्—नपुं॰—आत्मन्-औपम्यम्—-—स्वसादृश्य, अपनी समानता
- आत्मकर्मन्—नपुं॰—आत्मन्-कर्मन्—-—अपना कर्तव्य
- आत्मज्योतिः—नपुं॰—आत्मन्-ज्योतिः—-—आत्मा की प्रभा, तेज
- आत्मतृप्त—वि॰—आत्मन्-तृप्त—-—अपने में संतुष्ट
- आत्मप्रत्ययिक—वि॰—आत्मन्-प्रत्ययिक—-—अपने अनुभव से जानकारी प्राप्त करने वाला
- आत्मभूः—पुं॰—आत्मन्-भूः—-—कामदेव
- आत्मवर्ग्य—वि॰—आत्मन्-वर्ग्य—-—अपने दल या समुदाय से संबंध रखने वाला
- आत्मसंस्थ—वि॰—आत्मन्-संस्थ—-—अपने पर ही दृष्टि जमाये हुए
- आत्मसतत्त्वम्—नपुं॰—आत्मन्-सतत्त्वम्—-—आत्मा या परमात्मा की वास्तविक प्रकृति
- आत्ययिक—वि॰—-—अत्यय+ ठक्—विलम्बित, जिसमें पहले ही देर हो गई हो।
- आत्ययिकम्—नपुं॰—-—अत्यय+ ठक्—कठिनाई, संकट
- आत्ययिकम्—नपुं॰—-—अत्यय+ ठक्—अनिवार्य कर्तव्य
- आत्रेयी—स्त्री॰—-—अत्रेरपत्यं ढक्, स्त्रियां ङीप्—गर्भिणी स्त्री
- आथर्वणम्—नपुं॰—-—अथर्वन्+अण्—जारण मारण टोना, जादू
- आदष्ट—वि॰—-—आ+ दश्+क्त—कुतरा हुआ, चोंच मारा हुआ, ठूंगा हुआ
- आदानम्—नपुं॰—-—आ+ दा+ ल्युट्—पराभूत करना, पराजित करना
- आदानसमितिः—स्त्री॰—-—-—जैनियों के पाँच सिद्धान्तों में से एक जिसमें वस्तु को इस प्रकार ग्रहण किया जाता है जिससे कि कोई जीवहत्या न हो।
- आदाल्भ्यम्—नपुं॰—-—-—निर्भयता
- आदिः—पुं॰—-—आ+ दा+ कि—प्रथम, प्रारम्भिक
- आदिः—पुं॰—-—आ+ दा+ कि—साम के सात भेदों में से एक
- आदिदीपकम्—नपुं॰—आदिः-दीपकम्—-—दीपकालंकार का एक भेद
- आदिविपुला—स्त्री॰—आदिः-विपुला—-—आर्या छन्द का एक भेद
- आदिवृक्षः—पुं॰—आदिः-वृक्षः—-—एक प्रकार का पौधा
- आदित्यदर्शनम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—एक संस्कार जिसमें चार मास के बच्चे को सूर्य दर्शन कराया जाता है।
- आदित्यपुराणम्—नपुं॰—-—-—एक उपपुराण का नाम
- आदीनवदर्श—वि॰—-—आ+ दी+ क्त+ वा+ क, दृश्+ घञ्—पासे के खेल में अपने साथी खिलाड़ी के प्रति दुर्भावना रखने वाला
- आदेशः—पुं॰—-—आ+ दिश्+ घञ्—किसी कार्य को करने का संकल्प, व्रत
- आदेशकृत्—वि॰—आदेशः-कृत्—-—जो आज्ञा का पालन करता है।
- आदेशिकः—पुं॰—-—आदेश+ ठक्—भविष्यवक्ता, ज्योतिषी
- आद्यकालिक—वि॰—-—आदौ भवः यत्+ काल+ ठक्—केवल वर्तमान को देखने वाला
- आधमर्णिकः—पुं॰—-—अधम+ ऋणिकः—कर्जदार
- आधानम्—नपुं॰—-—आ+ धा+ ल्युट्—मैथुन
- आधिः—पुं॰—-—आ+ धा+ कि—दण्ड
- आधिमासिक—वि॰—-—अधिमास+ ठक्—अधिमास या मलमास से संबंध रखने वाला
- आधिरथिः—पुं॰—-—अधिरथ+ इञ्—अधिरथ का पुत्र, कर्ण
- आधूत—वि॰—-—आ+ धू+ क्त—हिलाया हुआ, क्षुब्ध
- आधारः—पुं॰—-—आ+ धृ+ घञ्—किरण
- आधारचक्रम्—नपुं॰—आधारः-चक्रम्—-—रहस्यमय या अलौकिक चक्र जो शरीर के पश्चवर्ती भाग पर स्थित है।
- आनतिकरः—पुं॰—-—आ+ नम्+ क्त+ कृ+ अच्—उपहार, पारितोषिक
- आनद्धः—पुं॰—-—आ+ नह्+ क्त—ढोल या थपकी
- आनन्दकरः—पुं॰—-—आनन्द+ कृ+ अच्—चन्द्रमा
- आनन्दतीर्थः—पुं॰—-—-—द्वैतसंप्रदाय का संस्थापक श्री माधवाचार्य
- आनन्दभैरवी—स्त्री॰—-—-—संगीत का एक भेद
- आनर्तः—पुं॰—-—आ+ नृत्+ घञ्—नाच
- आनर्तम्—नपुं॰—-—आ+ नृत्+ घञ्—नाच
- आनुजीव्यम्—नपुं॰—-—अनुजीवि+ ष्यञ्—सेवक के प्रति नम्रता का व्यवहार
- आनुपथ्य—वि॰—-—अनुपथ+ ष्यञ्—सड़क के साथ-साथ चलने वाला
- आनुपूर्व्यवत्—वि॰—-—अनुपूर्व+ष्यञ्,+ मतुप्—निश्चित नियत क्रम को रखने वाला
- अनुयात्रम्—नपुं॰—-—अनुयात्रा+ अण्—अनुचर,सेवक
- अनुयात्रिकः—पुं॰—-—अनुयात्रा+ ठक्—अनुचर, सेवक
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ ठक्—गौण कार्य
- आनुषङ्गिक—वि॰—-—अनुषङ्ग+ ठक्—टिकाऊ
- आनृत्—दिवा॰पर॰—-—-—नाचना, उछालना
- आनुशंस्यम्——-—अनुशंस+ ष्यञ्—प्ररक्षक की आतुरता
- आन्तःपुरिक—वि॰—-—अन्तःपुर+ ठक्—अन्तःपुर से संबंध रखने वाला
- आन्तःपुरी—स्त्री॰—-—अन्तःपुरे भवः अण्, स्त्रियां ङीप्—अन्तःपुर की सेविका, नौकरानी
- आन्तरागारिकः—पुं॰—-—अन्तरागार+ ठक्—कञ्चुकी
- आन्तर्वेदिक—वि॰—-—अन्तर्वेद+ ठञ्—यज्ञवेदी के अन्दर वर्तमान
- आन्यतरेय—वि॰—-—अन्यतरा+ ढक्—किसी अन्य विचारधारा या संप्रदाय से संबंध रखने वाला
- आपच्चिक—वि॰—-—-—कठिनाइयों को पार करने वाला
- आपणः—पुं॰—-—आपण्+ घञ्—व्यापारिक क्रियाकलाप, वाणिज्य
- आपणवीथिका—स्त्री॰—आपणः-वीथिका—-—बाजार
- अपणवेदिका—स्त्री॰—अपणः-वेदिका—-—विक्रयफलक
- आपदेवः—पुं॰—-—-—वरुण का नाम, एक मीमांसक का नाम
- आपरपक्षीय—वि॰—-—अपरपक्ष+छ—कृष्णपक्ष से संबन्ध रखने वाला
- आपातमात्र—वि॰—-—-—क्षणस्थायी, क्षणमात्र रहने वाला
- आपात्य—वि॰—-—-—आक्रमण की इच्छा से आगे बढ़ता हुआ, टूट पड़ने वाला
- आपृष्ट—वि॰—-—आ पृच्छ्+ क्त—सत्कृत
- आपृष्ट—वि॰—-—आ पृच्छ्+ क्त—पूछा गया
- आपोशानः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—एक प्रकार के प्रार्थना मंत्र जो भोजन से पूर्व और भोजन के पश्चात् आचमन करते समय बोले जाते हैं।
- आप्त—वि॰—-—आप्+ क्त—लाभप्रद, उपयोगी
- आप्ताधीन—वि॰—आप्त-अधीन—-—विश्वसनीय व्यक्ति पर निर्भर रहने वाला
- आप्तागमः—पुं॰—आप्त-आगमः—-—विश्वसनीय वैदिक साक्ष्य
- आप्तोक्तिः—स्त्री॰—आप्त-उक्तिः—-—आगम
- आप्तोक्तिः—स्त्री॰—आप्त-उक्तिः—-—अनुषंगी
- आप्तोक्तिः—स्त्री॰—आप्त-उक्तिः—-—सामान्य कथन जो प्रयोगतः मान लिया गया हो।
- आप्तोपदेशः—पुं॰—आप्त-उपदेशः—-—किसी विश्वसनीय व्यक्ति द्वारा दी गई नसीहत
- आप्ताप्तोर्यागः—पुं॰—आप्त-आप्तोर्यागः—-—एक प्रकार का यज्ञ
- आप्य—वि॰—-—आपां इदं अण्, स्वार्थे ष्यञ्—पनघोड़ा, एक प्रकार का घोड़ा जो पानी में ही उत्पन्न होता है।
- आप्यम्—नपुं॰—-—आपां इदं अण्, स्वार्थे ष्यञ्—जल, पानी
- आप्यायः—पुं॰—-—आप्यै+ घञ्—पूरा होना, मोटा होना
- आप्याय्य—वि॰—-—आप्यै+ ण्यत्—सन्तुष्ट होने के योग्य, प्रसन्न होने के योग्य
- आप्रवण—वि॰—-—आ+ प्रु+ल्युट्—ईषत्प्रवण, कुछ शालीन, थोड़ा शिष्ट
- आप्लुत—वि॰—-—आप्लु+ क्त—ग्रहणग्रस्त
- आप्लुष्ट—वि॰—-—आप्लुष्+क्त—ईषद्दग्ध, झुलसा हुआ
- आफलकः—पुं॰—-—आ+ फल+ कन्—घेरा, बाड़ा
- आफीनम्—नपुं॰—-—-—अफीम
- आबद्धमण्डल—वि॰,न॰ब॰—-—-—गोलाकार चक्र बनाने वाला
- आबद्धवलय—वि॰,न॰ब॰—-—-—गोलाकार चक्र बनाने वाला
- आबन्धुर—वि॰—-—आबन्ध्+ उरच्—थोड़ा गहरा
- आबालम्—अ॰—-—-—बच्चे तक, बच्चे से लेकर
- आबालगोपालम्—अ॰—आबालम्-गोपालम्—-—बच्चों और ग्वालों समेत
- आबालवृद्धम्—अ॰—आबालम्-वृद्धम्—-—बच्चों से लेकर बूढ़ों तक
- आब्रह्म—अ॰—-—-—ब्रह्म तक
- आभङ्गम्—नपुं॰—-—-—किसी मूर्ति की झुकी हुई मुद्रा
- आभात—वि॰—-—आभा+ क्त—चमकीला, देदीप्यमान
- आभात—वि॰—-—आभा+ क्त—प्रतीयमान
- आभासः—पुं॰—-—आभास्+ घञ्—मूर्ति ढालने के नौ पदार्थों में से एक
- आभासः—पुं॰—-—आभास्+ घञ्—एक प्रकार का भवन
- आभासः—पुं॰—-—आभास्+ घञ्—पूजा की एक अप्रामाणिक रीति
- आभास्वरः—पुं॰—-—-—निम्नांकित बारह विषयों का एक संग्रह
- आभिप्रायिक—वि॰—-—अभिप्राय+ ठक्—ऐच्छिक, इच्छानुगामी
- आभिमन्यवः—पुं॰—-—अभिमन्यु+ अण्—अभिमन्यु का पुत्र, परीक्षित
- आभियोगिक—वि॰—-—अभियोग+ ठक्—दक्षता से किया गया, चतुराई से युक्त
- आभृत—वि॰—-—आ+ भृ+ क्त—उपजाया हुआ, पैदा किया हुआ
- आभृत—वि॰—-—आ+ भृ+ क्त—भरा पूरा, स्थिर
- आभ्यागारिक—वि॰—-—अभ्यागार+ ठक्—घर में रखने के योग्य
- आभ्र—वि॰—-—अभ+अण्—अभरक से निर्मित
- आमपेशाः—पुं॰,स॰त॰—-—-—कच्ची अवस्था में पीसा गया अन्न
- आमन्त्रित—वि॰—-—आ+ मन्त्र्+ क्त—मन्त्र बोल कर पवित्र किया गया
- आमन्त्रितवचनम्—नपुं॰—आमन्त्रित- वचनम्—-—संबोधन अर्थ में प्रयुक्त शब्द
- आमन्त्रितविभक्तिः—स्त्री॰—आमन्त्रित-विभक्तिः—-—संबोधन अर्थ को प्रकट करने वाली विभक्ति
- आमन्त्रितम्—नपुं॰—-—आमन्त्र्+ क्त—सम्बोधित करना
- आमन्त्रितम्—नपुं॰—-—आमन्त्र्+ क्त—संलाप
- आमन्त्रितम्—नपुं॰—-—आमन्त्र्+ क्त—संबोधन की विभक्ति
- आमालकः—पुं॰—-—-—पहाड़ी स्थान
- आमिषार्थी—वि॰—-—अम् टिपच् दीर्घश्च तमर्थयति+ इनि—मांस चाहने वाला, मांस के लिए निवेदन करने वाला
- आमुकुलित—वि॰—-—आमुकुल+ इतच्—थोड़ा सा खुला हुआ
- आमुक्तम्—नपुं॰—-—आमुच्+ क्त—कवच
- आमुपः—पुं॰—-—-—कांटेदार बाँस
- आमोगः—पुं॰—-—-—कवि की रचना की अंतिम पंक्ति जिसमें कवि का नाम बताया गया हो
- आम्रः—पुं॰—-—अमुगत्यादिषु रन्दीर्घश्च—आम का वृक्ष
- आम्रास्थि—नपुं॰—आम्रः-अस्थि—-—आम की गुठली, आम का बीज
- आम्रापञ्चमः—पुं॰—आम्रः-पञ्चमः—-—संगीत का एक विशेष राग
- आम्राफलप्रयाणकम्—नपुं॰—आम्रः-फलप्रयाणकम्—-—आमों के रस से तैयार किया हुआ एक शीतल पेय
- आम्लपञ्चकम्—नपुं॰—-—आम्लपञ्च+ कन्—इमली आदि पाँच फलों के रस से तैयार किया गया एक आयुर्वेदिक पदार्थ
- आम्लपञ्चकम्—नपुं॰—-—आम्लपञ्च+ कन्—इमली आदि पाँच फलों के रस से तैयार किया गया एक आयुर्वेदिक पदार्थ
- आयः—पुं॰—-—आ+ इ+अच्, अय् घञ् वा—आमदनी का स्रोत
- आयदर्शिन्—वि॰—आयः-दर्शिन्—-—राजस्व-समाहर्ता
- आयमुखम्—नपुं॰—आयः-मुखम्—-—राजस्व के रूप
- आयशरीरम्—नपुं॰—आयः-शरीरम्—-—आय का शरीर
- आयथापुर्यम्—नपुं॰—-—-—ऐसी स्थिति या अवस्था का होना जैसी पहले नहीं थी।
- आयथापूर्व्यम्—नपुं॰—-—-—ऐसी स्थिति या अवस्था का होना जैसी पहले नहीं थी।
- आयत—वि॰—-—आयम्+ क्त—सुप्त, सोया हुआ
- आयतिः—स्त्री॰—-—आ+ या+ इति—वंश परंपरा, वंश-विवरण पीढ़ी
- आयस्तम्—नपुं॰—-—आ+यस्+क्त—महान् प्रयत्न, शक्ति का विस्तार
- आयानम्—नपुं॰—-—आ+ या+ल्युट्—घोड़े का आभूषण
- आयुष्यमन्त्रः—पुं॰—-—-—ऋग्वेद का मन्त्र जो यो ब्रह्माब्रह्मण उज्जहार... से आरंभ होता है।
- आयुष्यहोमः—पुं॰—-—आयुः प्रयोजनमस्य यत्, हु+मन्—यज्ञ विशेष जिसके अनुष्ठान से मनुष्य दीर्घजीवी हो सकता है।
- आयोजनम्—अ॰—-—-—एक योजन की दूरी तक
- आयोदः—पुं॰—-—-—अयोद का पुत्र मुनि धौम्य
- आरङ्गरः—पुं॰—-—-—मधुमक्खी
- आरण्यकसामन्—नपुं॰—-—-—सामदेव का एक सूक्त
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+ रभ्+घञ्, मुम्—शुरू
- आरम्भः—पुं॰—-—आ+ रभ्+घञ्, मुम्—पहला अङ्क
- आरम्भभाव्यत्वम्—नपुं॰—आरम्भः-भाव्यत्वम्—-—क्रियाशीलता के द्वारा ही उत्पादन की स्थिति
- आरम्भरुचिः—स्त्री॰—आरम्भः-रुचिः—-—किसी उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को शुरू करने में रुचि
- आरम्भशूरः—पुं॰—आरम्भः-शूरः—-—जो व्यक्ति शुरू में बहुत अधिक उत्साह दिखलाता है।
- आरवडिण्डिमः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—एक प्रकार का ढील
- आरासः—पुं॰—-—आ+ रास्+ घञ्—घोर शब्द
- आरीण—वि॰—-—आ+ री+क्त—बिल्कुल सूखा हुआ
- आरुतम्—नपुं॰—-—आ+ रु+क्त—क्रन्दन, विलाप, रोना-धोना
- आरुणेयः—पुं॰—-—आरुणि+ ढक्—आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु
- आरोग्यम्—नपुं॰—-—अरोगस्य भावः+ ष्यञ्—रोग से मुक्ति, अच्छा स्वास्थ्य
- आरोग्याम्बु—नपुं॰—आरोग्यम्-अम्बु—-—स्वास्थ्यप्रद जल
- आरोग्यचिन्तामणिः—पुं॰—आरोग्यम्-चिन्तामणिः—-—आयुर्वेद के एक ग्रन्थ का नाम
- आरोग्यप्रतिपद्व्रतम्—नपुं॰—आरोग्यम्-प्रतिपद्व्रतम्—-—स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए एक व्रत
- आरोपयितृ—वि॰—-—आ+ रूप्+ णिच्+ तृच्—धारण करने वाला
- आर्कम्—अ॰—-—आ+ अर्कम्—सूर्य तक
- आर्चायण—वि॰,न॰ब॰—-—-—ऋचाओं में विद्यमान
- आर्चीकम्—नपुं॰—-—अर्चा अस्त्यस्य अण्, स्वार्थे कन्—ऋग्वेद के मंत्रों से युक्त, सामवेद
- आर्जवम्—नपुं॰—-—ऋजोर्भावः अण्—सम्मुख भाग
- आर्त—वि॰—-—आ+ ऋ+ क्त—असुविधाजनक
- आर्तत्राणम्—नपुं॰—आर्त-त्राणम्—-—जो कठिनाइयों में ग्रस्त हैं उनको बचाना
- आर्तवम्—नपुं॰—-—ऋतुरस्य प्राप्त इति अण्—मासिक ऋतुसाव
- आर्द्र—वि॰—-—आ+ अर्द्+ रक्, दीर्घश्च—गीला, तर
- आर्द्रेधाग्निः—पुं॰—आर्द्र-एधाग्निः—-—आग जो गीली लकड़ियों द्वारा सुरक्षित रखी जाती है।
- आर्द्रकपोलितः—पुं॰—आर्द्र-कपोलितः—-—उन्माद काल की दूसरी अवस्था में हाथी जब कि उसका गंडस्थल अपने मद से गीला हो जाता है।
- आर्द्रपत्रकः—पुं॰—आर्द्र-पत्रकः—-—बाँस
- आर्द्रभावः—पुं॰—आर्द्र-भावः—-—गीलापन
- आर्द्रभावः—पुं॰—आर्द्र-भावः—-—कृपा, मृदुता
- आर्द्रिका—स्त्री॰—-—-—हरा या गीला अदरक
- आर्द्धम्—नपुं॰—-—ऋध+ अण्—प्रचुरता, बाहुल्य
- आर्धनारीश्वरम्—नपुं॰—-—अर्धनारीश्वर+ अण्—भगवान् शिव के अर्धनारीश्वर रूप से सम्बद्ध
- आर्य—वि॰—-—ऋ+ ण्यत्—आर्यावर्त का निवासी
- आर्य—वि॰—-—ऋ+ ण्यत्—योग्य, आदरणीय, सम्मानयोग्य
- आर्यागमः—पुं॰—आर्य-आगमः—-—आर्य जाति की महिला के पास संभोग की इच्छा से पहुँचना
- आर्यजुष्ट—वि॰—आर्य-जुष्ट—-—आर्यजनों के द्वारा अनुमोदित तथा अनुगत
- आर्यमतिः—स्त्री॰—आर्य-मतिः—-—जिसकी बुद्धि बहुत अच्छी है।
- आर्यवाक्—वि॰—आर्य-वाक्—-—आर्य जाति की भाषा बोलने वाला
- आर्यशीलः—पुं॰—आर्य-शीलः—-—उत्तम चरित्र से युक्त, अच्छे शील वाला
- आर्यसिद्धान्तः—पुं॰—आर्य-सिद्धान्तः—-—आर्यभटकृत ग्रन्थ
- आर्यस्त्री—स्त्री॰—आर्य-स्त्री—-—आर्य महिला
- आर्षिक्यम्—नपुं॰—-—ऋषेरिदं+ अण्, आर्ष+ ठक्, ततः ष्यञ्—आर्यधर्म, वह धर्म जिसकी ऋषियों ने स्थापना की है।
- आलकन्दकम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का मूँगा, प्रवाल
- आलग्न—वि॰—-—आलग्+ क्त—पालन करता हुआ, चिपका हुआ, अनुषक्त
- आलम्बनम्—नपुं॰—-—आलम्ब्+ ल्युट्—मन के अनुरूप धर्म
- आलानम्—नपुं॰—-—आलीयतेऽत्र+ आली+ ल्युट्—लगाव या स्थिरता का बिन्दु
- आलापा—स्त्री॰—-—आलप्+ घञ्, टाप्—संगीत की एक मधुर ध्वनि
- आलापनम्—नपुं॰—-—आ+ लप्+णिच्+ ल्युट्—संगीत शास्त्र के किसी एक राग की विशेषताओं का वर्णन
- आलिक्रमः—पुं॰—-—आ+ अल्+ इन+ क्रम्+ घञ्—क प्रकार की संगीतरचना, संगीतनिबन्ध
- आलिजनः—पुं॰—-—आलि+ जनः—सहेलियाँ
- आलेख्यगत—वि॰—-—आलेख्ये गतः+ स॰ त॰—चित्र में लिखित, चित्रित
- आलिङ्गय—वि॰—-—आलिङ्ग्+ ण्यत्—आलिङ्गन करने के योग्य
- आलयः—पुं॰—-—आलीयतेऽस्मिन्+ आली+अच्—ग्राम, आवास
- आलीन—वि॰—-—आली+ क्त—वन्द, सुप्त
- आलीढा—स्त्री॰—-—आ+ लिह+ क्त+ टाप्—ऋतुमती स्त्री
- आलुलित—वि॰—-—आलुल्+ क्त—क्षुब्ध, ईषदुद्विग्न, जरा सा घबराया हुआ
- आलेपनम्—नपुं॰—-—आलिम्प्+ णिच्+ ल्युट्—पानी मिला हुआ आटा जिससे घर का द्वार सजाया जाता है, विशेषतः दक्षिण भारत में
- आलेपनम्—नपुं॰—-—आलिम्प्+ णिच्+ ल्युट्—रंगना या सफेदी लीपना
- आलोकः—पुं॰—-—आलोक्+ घञ्—केवल दर्शन
- आलोककः—पुं॰—-—आलोक्+ ण्वुल्—दर्शक, देखने वाला
- आवपनम्—नपुं॰—-—आवप्+ ल्युट्—उद्गमस्थान
- आवपनम्—नपुं॰—-—आवप्+ ल्युट्—पटसन से निर्मित कपड़ा
- आवापः—पुं॰—-—आवप्+घञ्—तान्त्रिकों के मतानुसार मन्त्र की बार-बार आवृत्ति जिससे अनेक कार्यों में सिद्धि प्राप्त होती है।
- आवरणम्—नपुं॰—-—आवृ+ ल्युट्—कवच
- आवरणम्—नपुं॰—-—आवृ+ ल्युट्—भ्रम, भ्रान्ति
- आवरीवस्—वि॰—-—आवृ+ यङ्+ वस्—छादन, चादर, ढकना
- आवर्जक—वि॰—-—आवृज्+ण्वुल्—आकर्षक
- आवर्तनम्—नपुं॰—-—आवृत्+ ल्युट्—वर्ष
- आवास्य—वि॰—-—आवस्+णिच्+ण्यत्—बसा हुआ, व्याप्त, पूर्ण, भरा हुआ
- आवास्—चुरा॰पर॰—-—आ पूर्वक वास्—सम्पन्न करना, वास युक्त करना
- आविः—स्त्री॰—-—अवीरेव स्वार्थे अण्—पीडा, कष्ट, प्रसववेदना
- आवितन्—तना॰आ॰—-—-—व्याप्त होना
- आवित्त—वि॰—-—आविद+ क्त—विद्यमान
- आविद्ध—वि॰—-—आ+व्यध+ क्त—पास-पास रक्खा हुआ, छितराया हुआ
- आविल—वि॰—-—आविलति दृष्टिं स्तृणाति विल् स्तृतौक—धुंधला, अस्पष्ट, जो देख न सके
- आविर्भूत—वि॰—-—आविस्+ भू+क्त—प्रकट हुआ
- आविर्मण्डल—वि॰,न॰ब॰—-—-—जो वृत्त के रूप में दिखाई दे
- आविर्हित—वि॰—-—आविस्+ धा+ क्त—जो दृश्य बना दिया गया हो।
- आवृत्तम्—नपुं॰—-—आवृत्+ क्त—बार-बार प्रार्थना या गीत से देवा को सम्बोधित करना
- आवृद्धतबालकम्—अ॰—-—-—बूढ़ों से लेकर बच्चों तक
- आव्यक्त—वि॰—-—आवि+ अञ्च्+ क्त—स्पष्ट, सुबोध
- आशास्—अदा॰आ॰—-—-—दमन करना
- आशावासस्—वि॰,न॰ब॰—-—-—नंगा, नग्न
- आशिक्षा—स्त्री॰—-—आशिक्ष्+ अङ्+ टाप् —सीखने की इच्छा
- आशुकविः—पुं॰,क॰स॰—-—-—जो तुरन्त ही काव्य रचना कर सके।
- आश्रमपरिग्रहः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—संन्यास ग्रहण करना
- आश्रमवासिपर्वन्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—महाभारत के पन्द्रहवें पर्व का प्रथम अनुभाग
- आश्रवः—पुं॰—-—आश्रु+ अच्—सांसारिक कष्ट
- आश्लेषणम्—नपुं॰—-—आश्लिष्+ ल्युट्—आसक्ति, अनुरक्ति
- आश्वासिक—वि॰—-—आश्वास+ ठक्—विश्वसनीय, विश्वासपात्र
- आश्विनचिह्नितम्—नपुं॰—-—-—शारदीय विषुव
- आसु—अ॰—-—-—उदासीनता द्योतक अव्यय
- आसक्त—वि॰—-—आसञ्ज्+ क्त—अवरुद्ध, बन्द
- आसंज्ञित—वि॰—-—आसंज्ञा+ इतच्—जिसके साथ कोई समझौता हो गया है, सम्मिलित
- आसद्—प्रेर॰—-—-—धारणा करना, पहनना
- आसत्तिः—स्त्री॰—-—आसद्+ क्तिन्—उलझन, घबराहट
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ ल्युट्—हौदा, हाथी की ग्रीवा और पीठ का मध्यवर्ती भाग जहाँ हस्त्यारोही बैठता है।
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ ल्युट्—तटस्थता
- आसनम्—नपुं॰—-—आस्+ ल्युट्—पासे के खेल में प्रयुक्त मोहरा
- आसनमचूडकम्—नपुं॰—आसनम्-मचूडकम्—-—वीर्य
- आसन्न—वि॰—-—आसद्+ क्त—अवाप्त, प्राप्त
- आसन्नचर—वि॰—आसन्न-चर—-—आसपास ही घूमने वाला
- आसमुद्रान्तम्—अ॰—-—-—समुद्र के किनारे तक
- आसुरायणः—पुं॰—-—आसुरि+ फक्—आसुरि की सन्तान
- आसुरायणः—पुं॰—-—आसुरि+ फक्—एक वैदिक संप्रदाय
- आसेचनक—वि॰—-—आसिच्+ ल्युट्+कन्—अत्यंत मनोहर जो असीम संतोष को देने वाला हो।
- आस्तरकः—पुं॰—-—आ+ स्तृ+ ण्वुल्—बिस्तर बिछाने वाला
- आस्तारकः—पुं॰—-—आस्तृ+घञ्, स्वार्थे कन्—अंगीठी में लगने वाली जाली, जंगला
- आस्तीर्ण—वि॰—-—आस्तृ+क्त—बिखरा हुआ, फैला हुआ
- आस्तीर्ण—वि॰—-—आस्तृ+क्त—ढका हुआ
- आस्थानपट्टः—पुं॰—-—आस्थौन+ पट्+ क्त—सिंहासन, राजगद्दी
- आस्थानपट्टम्—नपुं॰—-—आस्थौन+ पट्+ क्त—सिंहासन, राजगद्दी
- आस्थेय—वि॰—-—आस्था+ ण्यत्—श्रद्धेय, जिसके पास पहुँच की जाय, जिससे प्रार्थना की जाय
- आस्थेय—वि॰—-—आस्था+ ण्यत्—आदरणीय
- आस्फुट्—भ्वा॰पर॰—-—-—आन्दोलन करना, हिलाना
- आस्फोटितम्—नपुं॰—-—आस्फुट्+ क्त—तालियाँ बजाना, शस्त्रास्त्र से प्रहार करना
- आस्युत्—वि॰—-—आ+ सिव्+ क्त—मिला कर सीया हुआ
- आस्रु—वि॰—-—आश्रु+ क्विप्—खूब बहने वाला, धारा प्रवाह से रिसने वाला
- आस्रुपयम्—वि॰,न॰ब॰—-—-—खूब दूध देने वाली गाय
- आस्वादित—वि॰—-—आ+ स्वद्+ णिच्+ क्त—जिसने स्वाद ले लिया हो, अनुभवी
- आहत्य—अ॰—-—आहन्+ ल्यप्—प्रहार करके, मार कर, पीट कर
- आहत्यवचनम्—नपुं॰—आहत्य- वचनम्—-—ललकारने वाला वक्तव्य
- आहारतेजस्—नपुं॰—-—-—पारा, पारद
- अहार्यशोभा—स्त्री॰—-—-—बनाया हुआ सौन्दर्य
- आहितकः—पुं॰—-—आ+धा+ क्त, स्वार्थे कन्—भाड़े का
- आहृत—वि॰—-—आ+ हृ+क्त—कृत्रिम, बनावटी
- इक्षुः—पुं॰—-—इष्+ क्सु—एक प्रकार का बांस
- इक्षुमती—स्त्री॰—-—इक्षु+मतुप्+ङीप्—कुरुक्षेत्र प्रदेश में बहने वाली एक नदी
- इक्ष्वारिकः—पुं॰—-—इक्षु+ अल्+ ण्वुल्—नरकुल, सरकंडा
- इङ्गालः—पुं॰—-—इङ्ग+ आलच्—कोयला
- इडा—स्त्री॰—-—इल्+अच्, लस्य इत्वं वा—सामगान में प्रयुक्त स्तोभ नामक संगीत
- इला—स्त्री॰—-—इल्+अच्, लस्य इत्वं वा—सामगान में प्रयुक्त स्तोभ नामक संगीत
- इडाजातः—पुं॰,पं॰त॰—-—-—गुग्गुल
- इण्डीकः—पुं॰—-—-—कलम घड़ने वाला चाकू
- इतिः—स्त्री॰—-—इ+ क्तिन्—ज्ञान
- इतिः—स्त्री॰—-—इ+ क्तिन्—चाल, गति
- इतिक—वि॰—-—इति+ कन्—गतियुक्त, चाल रखने वाला
- इतिहासकथोद्भूतम्—पुं॰,त॰स॰—-—-—किसी पौराणिक आख्यान या महाकाव्य से ली गई कथावस्तु
- इत्कटः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का घास
- इदम्बरम्—नपुं॰—-—-—नीलकमल
- इद्धा—अ॰—-—-—विशद, प्रकट, स्पष्ट
- इन्दका—स्त्री॰—-—इद्+ण्वुल्+टाप्—मृगशीर्षनक्षत्र पुंज में ऊपर रहने वाला तारा
- इन्दिरारमणः—पुं॰—-—इन्द्+किरच्+ टाप्+ रम्+ ल्युट्—विष्णु
- इन्दुः—पुं॰—-—उन्द्+ उ, औदेरिच्च—चन्द्रमा
- इन्दुः—पुं॰—-—उन्द्+ उ, औदेरिच्च—अनुस्वार की परिभाषा
- इन्दुमुखी—स्त्री॰—इन्दुः-मुखी—-—कमल बेल
- इन्दुवल्ली—स्त्री॰—इन्दुः-वल्ली—-—सोम का पौधा
- इन्दुशफरिन्—पुं॰—इन्दुः-शफरिन्—-—एक पौधे का नाम
- इन्दुसुतः—पुं॰—इन्दुः-सुतः—-—बुधनामक ग्रह
- इन्दुसूनुः—पुं॰—इन्दुः-सूनुः—-—बुधनामक ग्रह
- इन्दुकः—पुं॰—-—इन्दु+ कन्—एक पौधे का नाम
- इन्द्रः—पुं॰—-—इन्दतीति इन्द+ रन्—देवों का स्वामी
- इन्द्रः—पुं॰—-—इन्दतीति इन्द+ रन्—ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषय
- इन्द्रायुधम्—नपुं॰—इन्द्रः-आयुधम्—-—इन्द्रधनुष
- इन्द्रायुधम्—नपुं॰—इन्द्रः-आयुधम्—-—हीरा
- इन्द्रकान्तः—पुं॰—इन्द्रः-कान्तः—-—चारमंजिले भवन का एक प्रकार
- इन्द्रछदः—पुं॰—इन्द्रः-छदः—-—मोतियों की माला
- इन्द्रजः—पुं॰—इन्द्रः-जः—-—बालि, कर्ण
- इन्द्रजतु—नपुं॰—इन्द्रः-जतु—-—शिलाजीत
- इन्द्रद्युति—स्त्री॰—इन्द्रः-द्युति—-—चन्दन
- इन्द्रप्रमतिः—स्त्री॰—इन्द्रः-प्रमतिः—-—वैदिक ऋषि, पैल आचार्य का शिष्य
- इन्द्रभगिनी—स्त्री॰—इन्द्रः-भगिनी—-—पार्वती
- इन्द्रयज्ञः—पुं॰—इन्द्रः-यज्ञः—-—इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए किया जाने वाला यज्ञ
- इन्द्रवानकम्—नपुं॰—इन्द्रः-वानकम्—-—हीरे का एक प्रकार
- इन्द्रसावर्णिः—पुं॰—इन्द्रः-सावर्णिः—-—चौदहवां मनु॰
- इन्द्रियः—पुं॰—-—इन्द्र+ घ+ इय—शक्ति
- इन्द्रियः—पुं॰—-—इन्द्र+ घ+ इय—ज्ञानेन्द्रिय
- इन्द्रियधारणा—स्त्री॰—इन्द्रियः-धारणा—-—ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण
- इन्द्रियप्रसङ्गः—पुं॰—इन्द्रियः-प्रसङ्गः—-—विषयासक्ति
- इन्द्रियसम्प्रयोगः—पुं॰—इन्द्रियः-सम्प्रयोगः—-—विषयों से संबद्ध ज्ञानेन्द्रियों की क्रिया
- इन्धनम्—नपुं॰—-—इन्ध्+ णिच्+ ल्युट्—इच्छावशेष, वासना
- इभकर्णकः—पुं॰—-—-—एक पौधा, तांबड़ा एरंड
- इभकर्णकः—पुं॰—-—-—गणेश
- इरिणम्—वेद॰—-—ऋ+ इनच्, किदिच्च—चौसर खेलने की बिसात
- इरिम्बिठिः—पुं॰—-—-—कण्वकुल के एक ऋषि का नाम जो ऋग्वेद के कई सूक्तों का द्रष्टा है।
- इलिनी—स्त्री॰—-—-—मेघातिथि की पुत्री
- इल्यः—पुं॰—-—-—परलोक में होने वाला एक काल्पनिक वृक्ष
- इवोपमा—स्त्री॰—-—-—उपमा अलंकार जहाँ रचना में ’इव’ शब्द का प्रयोग हुआ हो।
- इशीका—स्त्री॰—-—-—हाथी की आँख की एक पुतली
- इष्—तुदा॰पर॰—-—-—किसी काम को बहुधा करते रहना, बार-बार सम्पन्न करना
- इच्छामात्रम्—अ॰—-—-—केवल इच्छा द्वारा रचित
- इच्छारूपम्—नपुं॰—-—-—मानवीकृत इच्छा
- इच्छारूपम्—नपुं॰—-—-—इच्छानुरूप माना हुआ शरीर
- इच्छारूपम्—नपुं॰—-—-—दिव्य शक्ति की प्रथम अभिव्यक्ति
- इष्टभागिन्—वि॰—-—इष्ट+ भाग+ णिनि—जिसकी महत्त्वाकांक्षा पूरी हो गई है।
- इष्टिः—स्त्री॰—-—इष्+क्तिन्—कविता के रूप में एक परिसंवाद, संग्रहश्लोक
- इष्टिश्राद्धम्—नपुं॰—इष्टिः- श्राद्धम्—-—एक विशेष और्ध्वदैहिक क्रिया
- इषिका—स्त्री॰—-—इष् गत्यादी क्वुन्, अत इत्वम्—एक कांटेदार पौधा
- इषीका—स्त्री॰—-—इष् गत्यादी क्वुन्, अत इत्वम्—एक कांटेदार पौधा
- इषुपुङ्खा—स्त्री॰—-—-—नील का पौधा
- इषूयति—स्त्री॰—-—-—प्रयत्न करना
- इष्टकामात्रा—स्त्री॰—-—-—ईटों का आकार-प्रकार
- ईक्षणश्रवस्—पुं॰,ब॰स॰—-—-—साँप
- ईरः—पुं॰—-—ईर्+ अच्—वायु, हवा
- ईरजः—पुं॰—ईरः-जः—-—हनुमान्
- ईरपुत्रः—पुं॰—ईरः-पुत्रः—-—हनुमान्
- ईलिनः—पुं॰—-—-—तंसु के पुत्र और दुष्यन्त के पिता का नाम
- ईशः—पुं॰—-—ईश्+ क—परमेश्वर, परमात्मा
- ईशावास्यम्—नपुं॰—ईशः- आवास्यम्—-—ईशोपनिषद्
- ईशगीता—स्त्री॰—ईशः-गीता—-—कूर्मपुराण का एक अनुभाग
- ईशदण्डः—पुं॰—ईशः-दण्डः—-—रथ के धुरे की लकड़ी
- ईशानकल्पः—पुं॰—-—-—चार युगों का एक चक्र
- ईशितव्य—वि॰—-—ईश्+ तव्य—शासन किये जाने के योग्य, नियन्त्रण में रखने के योग्य
- ईश्वरकान्तम्—नपुं॰—-—-—एक भूखण्ड जिसका समस्त क्षेत्रफल ९६१ वर्ग में विभक्त हो जाता है।
- ईश्वरकृष्णः—पुं॰—-—-—सांख्यकारिका का कर्ता
- ईषत्कार्य—वि॰—-—ईषत्+ कृ+ण्यत्—जो थोड़े से प्रयत्न से सम्पन्न हो सके।
- ईषल्लभ—वि॰—-—ईषत्+ लभ्+ अच्—आसानी से उपलब्ध होने वाला- @ नै॰ १२/९३
- ईषद्वीर्यः—पुं॰,न॰ब॰—-—-—बदाम का वृक्ष
- ईसराफः—पुं॰—-—-—फलितज्योतिष में चौथा योग
- ईहः—पुं॰—-—ईह्+अच्—स्तुति
- उक्थम्—नपुं॰—-—वच्+ थक्—जीवन, प्राण
- उक्थम्—नपुं॰—-—वच्+ थक्—उपादान कारण
- उक्थः—पुं॰—-—उखायां संस्कृतः—एक वैयाकरण का नाम
- उखरम्—नपुं॰—-—-—खारी झील से निकला हुआ नमक, सांभर नमक
- उग्र—वि॰—-—उच्+रन्, गश्चान्तादेश—भीषण, क्रूर, दारूण, घोर, प्रचण्ड
- उग्रकाली—स्त्री॰—उग्र-काली—-—दुर्गा का एक रूप
- उग्रनृसिंहः—पुं॰—उग्र-नृसिंहः—-—नृसिंह का एक रूप
- उग्रपीठम्—नपुं॰—उग्र-पीठम्—-—एक भूपरिकल्पना जिसमें क्षेत्रफल ३६ सम भागों में विभक्त होता है।
- उग्रवीर्यः—पुं॰—उग्र-वीर्यः—-—हींग
- उग्रश्रवस्—पुं॰—उग्र-श्रवस्—-—रोमहर्षण के पुत्र का नाम
- उचित—वि॰—-—उच्+ क्त—अन्तर्जात, नैसर्गिक
- उचितज्ञ—वि॰—उचित-ज्ञ—-—जो औचित्य को समझता है।
- उच्चावच—वि॰—-—उच्च+अवच, उत्कृष्टं च अपकृष्टं च—ऊँचा-नीचा, छोटा-बड़ा
- उच्चध्वजः—पुं॰—-—-—शाक्यमुनि का नाम
- उच्चटम्—नपुं॰—-—-—टीन, रांगा, कलई
- उच्चक्—भ्वा॰पर॰—-—-—टकटकी लगा कर देखना, निडर होकर देखना
- उच्चयापचयौ—पुं॰—-—उच्चयः अपचयश्च, द्व॰ स॰—समृद्धि और क्षय, उत्थान और पतन
- उच्चाटित—वि॰—-—उद्+ चट्+ णिच्+ क्त—उखाड़ा गया, दूर फेंक दिया गया
- उच्चारप्रस्रावस्थानम्—नपुं॰—-—-—शौचालय, सण्डास
- उच्चार्यमाण—वि॰—-—उद्+चर्+ णिच्, कर्मणि शानच्—जो बोला जा रहा है।
- उच्चुम्ब्—भ्वा॰पर॰—-—-—मुख ऊपर उठाकर चुम्बन करना
- उच्छिखण्ड—वि॰,ब॰स॰—-—-—अपने परों को ऊँचा किये हुए
- उच्छिष्ट—वि॰—-—उत्+ शिप्+ क्त—जूठा, अपवित्र, अशुद्ध
- उच्छिष्टमोदनम्—नपुं॰—-—-—मोम
- उच्छृङ्गित—वि॰—-—उद्+ शृङ्ग+ इतच्—जिसने अपने सींग ऊपर को सीधे खड़े किए हुए हैं।
- उच्छ्रयः—पुं॰—-—उद्+ श्रि+ अच्—एक प्रकार का कलात्मक स्तम्भ
- उच्छ्वासः—पुं॰—-—उद्+ श्वस्+ घञ्—झाग
- उच्छ्वासः—पुं॰—-—उद्+ श्वस्+ घञ्—बढ़ना, उभार होना
- उच्छ्वासिन्—वि॰—-—उद्+ श्वास+ णिनि—वियुक्त, विभक्त
- उज्जागरः—पुं॰—-—उद्+ जागृ+ घञ्—उत्तेजना, उलटफेर
- उज्जूटित—वि॰—-—उद्+ जूट्+ क्त—जिसने अपने सिर के बाल जटा के रूप में शिखा बाँधकर रक्खे हुए हैं।
- उज्झटा—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की झाड़ी
- उज्झित—वि॰—-—उज्झ्+ क्त—परित्यक्त
- उज्झित—वि॰—-—उज्झ्+ क्त—निष्कासित,उंडेला हुआ
- उट्टङ्कनम्—नपुं॰—-—उत्+टङ्क+ ल्युट्—छाप लगाना, या अक्षर खोदना
- उट्टङ्कनम्—नपुं॰—-—उत्+टङ्क+ ल्युट्—आधुनिक टाइप करने की क्रिया
- उडुगणाधिपः—पुं॰,त॰स॰—-—-—चन्द्रमा
- उडुगणाधिम्—नपुं॰—-—-—मृगशीर्ष नक्षत्रपुंज
- उड्डामरिन्—वि॰—-—उद्+डामर+ णिनि—जो असाधारण रूप से बहुत कोलाहल करता है।
- उड्डियानम्—नपुं॰—-—-—अंगुलियों की विशिष्टमुद्रा
- उढम्—नपुं॰—-—-—जपा, गुडहल
- उढम्—नपुं॰—-—-—पानी
- उत—वि॰—-—वे+ क्त—बुना हुआ, सीया हुआ
- उत्कयति—ना॰धा॰पर॰—-—-—बेचैन या आतुर बना देता है।
- उत्कच—वि॰—-—उत्+ कच—जिसके बाल सीधे ऊपर को खड़े हों।
- उत्कूर्चक—वि॰, प्रा॰ स॰—-—-—जो कूंची अपने हाथ में लेकर ऊपर को उठाये हुए है।
- उत्कूलनिकूल—वि॰—-—उत्क्रान्तः निर्गतश्च कूलात्—किनारे से कभी नीचे कभी ऊपर होकर बहने वाला
- उत्कर्षणम्—नपुं॰—-—उद्+ कृष् ल्युट्—ऊपर को खींचना
- उत्कर्षणम्—नपुं॰—-—उद्+ कृष् ल्युट्—छील देना, उखाड़ देना
- उत्कर्षणी—स्त्री॰—-—उत्कर्षण+ ङीप्—एक ’शक्ति’ का नाम
- उत्कृष्ट—वि॰—-—उद्+ कृष्+ क्त—खुर्चा हुआ
- उत्कृष्ट—वि॰—-—उद्+ कृष्+ क्त—तोड़ा हुआ
- उत्कृष्ट—वि॰—-—उद्+ कृष्+ क्त—खींचा हुआ
- उत्कोचः—पुं॰—-—उद्+ कुच्+अञ्—रिश्वत, घूस
- उत्कोचः—पुं॰—-—उद्+ कुच्+अञ्—दण्ड
- उत्कोचिन्—वि॰—-—उत्कोच+णिनि—जिसे रिश्वत दी जा सके, भ्रष्टाचार में ग्रस्त
- उत्कोठः—पुं॰—-—उत्कुठ्+ घञ्—कोढ़, कुष्ठ का एक प्रकार
- उत्क्वथ्—भ्वा॰पर॰—-—-—उबाल कर सत्त्व निकालना, उबाला जाना, उपभुक्त किया जाना
- उत्तान—वि॰—-—उत्+ तनु+ घञ्—विस्तारयुक्त, फैला हुआ
- उत्तानार्थ—वि॰—उत्तान-अर्थ—-—ऊपरी, निस्सार, उथला
- उत्तानपट्टम्—नपुं॰—उत्तान-पट्टम्—-—फर्श
- उत्तानहृदय—वि॰—उत्तान-हृदय—-—उत्तम हृदय वाला
- उत्तपनः—पुं॰—-—उत्+तप्+ ल्युट्—देदीप्यमान आग
- उत्तम—वि॰—-—उद्+तमप्—बढ़िया, श्रेष्ठ
- उत्तमः—पुं॰—-—-—ध्रुव का सौतेला भाई
- उत्तमदशतालम्—नपुं॰—उत्तम- दशतालम्—-—मूर्तिकला का शब्द जो मूर्ति की पूर्ण ऊँचाई के १२० सम प्रभागों को इंगित करने के लिए प्रयुक्त होता है।
- उत्तमवयसम्—नपुं॰—उत्तम- वयसम्—-—जीवन की अन्तिम अवस्था
- उत्तमव्रता—स्त्री॰—उत्तम-व्रता—-—पतिव्रता स्त्री
- उत्तमश्रुतः—पुं॰—उत्तम-श्रुतः—-—उच्चतम शिक्षा प्राप्त
- उत्तमर—वि॰—-—-—श्रेष्ठ
- उत्तम्भः—पुं॰—-—उद्+स्तम्भ्+ घञ्—आयताकार संरचना
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—उत्तर दिशा
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—ऊपर का, अपेक्षाकृत ऊँचा
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—बाद का
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—आयताकर साँचा
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—आगे की कार्यवाही, अगली प्रक्रिया
- उत्तर—वि॰—-—उद्+ तरप्—आच्छादन, आवरण
- उत्तरागारम्—नपुं॰—उत्तर-अगारम्—-—ऊपर का कमरा
- उत्तराभिमुख—वि॰—उत्तर-अभिमुख—-—उत्तर दिशा की ओर मुड़ा है मुँह जिसका
- उत्तरतापनीयम्—नपुं॰—उत्तर-तापनीयम्—-—उपनिषद् का उत्तर भाग
- उत्तरनारायणः—पुं॰—उत्तर-नारायणः—-—पुरुषसूक्त का उत्तर खण्ड
- उत्तरवीथिः—स्त्री॰—उत्तर-वीथिः—-—उत्तरीय मंडल
- उत्तावल—वि॰—-—-—उतावला, आतुर
- उत्त्रस्त—वि॰—-—अद्+ त्रस्+ क्त—डरा हुआ, भयभीत
- उत्थानम्—नपुं॰—-—उद्+स्था+ल्युट्—मठ, विहार
- उत्थानम्—नपुं॰—-—उद्+स्था+ल्युट्—युद्ध करने के लिए तैयार सेना की स्थिति
- उत्थानवीरः—पुं॰—उत्थानम्-वीरः—-—कर्मशील व्यक्ति
- उत्थानशीलिन्—वि॰—उत्थानम्-शीलिन्—-—सक्रिय, परिश्रमी
- उत्पचनिपचा—स्त्री॰—-—-—कोई भी कार्य जिसमें ’उत्पच - निपच’ कहा जाय।
- उत्पाटयोगः—पुं॰,त॰स॰—-—-—फलित ज्योतिष का एक योग
- उत्पतनिपता—स्त्री॰—-—-—कोई भी कार्य जिसमें ’उत्पत - निपत’ शब्दों को बार-बार कहा जाय।
- उत्पातप्रतीकारः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—अशुभ शकुनों से बचने के लिए शान्ति के उपायों का अवलम्बन
- उत्पत्तिः—स्त्री॰—-—उद्+पद्+क्तिन्—यज्ञ
- उत्पत्तिः—स्त्री॰—-—उद्+पद्+क्तिन्—मूल विधि, वेद में आधारभूत अध्यादेश, इसे उत्पत्तिश्रुति और उत्पत्तिविधि भी कहते हैं।
- उत्पादिका—स्त्री॰—-—उद्+पद्+णिच्+ण्वुल्—एक जड़ी-बूटी का नाम
- उत्पादित—वि॰—-—उद्+पद्+णिच्+क्त—पैदा किया गया
- उत्पाद्य—वि॰—-—उद्+पद्+णिच्+ण्यत्—जो अभी पैदा किया जाना है।
- उत्पलिनी—स्त्री॰—-—उत्पल+ णिनि, स्त्रियां ङीष्—एक शब्दकोश का नाम
- उत्प्रेक्षावयवः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—एक प्रकार की उपमा
- उत्प्रेक्षावल्लभः—पुं॰—-—-—एक कवि का नाम
- उत्प्रेक्षित—वि॰—-—-—तुलना की गई
- उत्प्रेक्षितोपमा—स्त्री॰—-—-—उपमा अलंकार का एक भेद
- उत्प्लुत—वि॰—-—उद्+प्लु+क्त—कूदा हुआ, ऊपर को उछला हुआ
- उत्फुल्ल—वि॰—-—उद्+फुल्+क्त—उद्धत ढीठ, गुस्ताख
- उत्फुल्लिङ्ग—वि॰—-—उद्+स्फुल्लिङ्ग+ इङ्गच्—जिसमें स्फुलिङ्ग निकले, चिंगारियाँ उगलने वाला
- उत्सङ्गकः—पुं॰—-—उद्+सञ्ज्+घञ्, स्वार्थे कन्—हाथ की विशेष मुद्रा
- उत्सक्त—वि॰—-—उद्+ सञ्ज्+क्त—संवर्धमान
- उत्सत्तिः—स्त्री॰—-—उद्+सञ्ञ्+ क्तिन्—नाश, विनाश, क्षय
- उत्सन्नकुलधर्मन्—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसकी कुल परम्पराएँ छिन्न-भिन्न हो गई हों।
- उत्सवोदयम्—नपुं॰—-—-—मूर्तिकला का शब्द जो मूर्ति की ऊँचाई के अनुसार उसके यान को इङ्गित करे।
- उत्सवविग्रहः—पुं॰,त॰स॰—-—-—जलूस के रूप में निकाली जाने वाली प्रतिमा, मूर्ति
- उत्साहः—पुं॰—-—उद्+ सह+घञ्—अशिष्टता, उजड्डपन
- उत्साहयोगः—पुं॰,त॰स॰—-—-—अपनी सामर्थ्य या शक्ति का उपयोग करना
- उत्सेकः—पुं॰—-—उद्+सिच्+घञ्—उत्साह
- उत्सूर्यशायिन्—वि॰—-—उद्+ सूर्यशी+णिच्+इनि—जो सूर्य निकल जाने पर भी सोता रहता है।
- उत्सृतिः—स्त्री॰—-—उद्+सृ+क्तिन्—उच्चतर जाति
- उत्सृज्—तुदा॰पर॰—-—-—व्यवस्थित करना, जमाना, निश्चित करना
- उत्सर्गः—पुं॰—-—उद्+सृज्+घञ्—राशि, ढेर
- उत्सर्गः—पुं॰—-—उद्+सृज्+घञ्—सेवाएँ उपलब्ध करना
- उत्सर्गसमितिः—स्त्री॰—-—-—जैनमत का एक सिद्धान्त जिसके अनुसार मलमूत्रोत्सर्ग करते समय ऐसी सावधानी बरतना, जिससे कि किसी जीव जन्तु की हत्या न हो।
- उत्स्रष्टुकामः—वि॰—-—उत्सृज्+तुमुन्+ काम—उत्सर्ग करने की इच्छा वाला
- उत्स्रष्टुकामनाः—पुं॰—-—उत्सृज्+ तुमुन्+ काम, मनो वा—उत्सर्ग करने की इच्छा वाला
- उत्सर्पिन्—वि॰—-—उत्+सर्प+णिनि—किनारों के बाहर होकर बहने वाला
- उत्सर्पिन्—वि॰—-—उत्+सर्प+णिनि—बढ़ाने वाला, उठाने वाला
- उत्स्नात—वि॰—-—उद्+स्ना+क्त—जो स्नान करके बाहर निकल आया है।
- उत्स्नेहनम्—नपुं॰—-—उद्+स्निह्+णिच्+ल्युट्—घिसरना, फिसलना, विचलित होना
- उत्स्मितम्—नपुं॰—-—उद्+स्मि+ क्त—मुस्कराहट
- उत्स्रोतस्—वि॰—-—उद्+स्रु+ तसि—ऊपर की ओर रुझान रखने वाला
- उत्स्वापगिरः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—नींद में बोले गये शब्द
- उदम्—नपुं॰—-—उन्द्+अच्, नलोपः—पानी, जल
- उदकम्—नपुं॰—-—उन्द्+ण्वुल्, नलोपः —पानी, जल
- उदकाञ्जलिः—स्त्री॰—उदकम्-अञ्जलिः—-—चुल्लूभर पानी
- उदकाञ्जलिः—स्त्री॰—उदकम्-अञ्जलिः—-—तर्पण करने के निमित्त जल
- उदकक्ष्वेडिका—स्त्री॰—उदकम्-क्ष्वेडिका—-—जलक्रीडा जिसमें परस्पर एक- दूसरे पर जल छिड़्का जाता है।
- उदकप्रवेशः—पुं॰—उदकम्-प्रवेशः—-—जलसमाधि, जलप्रवाह
- उदकभूमः—पुं॰—उदकम्-भूमः—-—जलयुक्त या गीली भूमि
- उदकमञ्जरी—स्त्री॰—उदकम्-मञ्जरी—-—आयुर्वेद का एक ग्रन्थ
- उदकवाद्यम्—नपुं॰—उदकम्-वाद्यम्—-—जलतरंग नामक एक वाद्ययंत्र जिसमें जल से भरे हुए प्याले छड़ी से छुए जाते हैं।
- उदग्रप्लुतत्वम्—नपुं॰—-—उद्गतमग्रं यस्य+ प्लु+ क्त, तस्य भावः—तेज गति के कारण छलांगें लगाना
- उदग्रनख—वि॰,न॰ब॰—-—-—हस्ताञ्जलि बाँधे हुए
- उदञ्चित—वि॰—-—उद्+अञ्च्+ णिच्+क्त—उठाया हुआ
- उदण्ड—वि॰—-—उद्+ अण्ड्+अच्—बहुत से अंडे देने वाला
- उदन्—नपुं॰—-—उन्द्+कनिन्—पानी, जल
- उदाशयः—पुं॰—उदन्-आशयः—-—झील, सरोवर
- उदकोष्ठः—पुं॰—उदन्-कोष्ठः—-—जलपात्र, जल कलश
- उदजम्—नपुं॰—उदन्-जम्—-—कमल
- उदप्लवः—पुं॰—उदन्-प्लवः—-—पानी की बाढ़
- उदपास्—दिवा॰पर॰—-—उद्+अप्+अस् —फेंक देना, परित्याग कर देना
- उदराग्निः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—जठराग्नि, पाचक अग्नि
- उदराटः—पुं॰—-—उदर+अट्+घञ्+ब॰ स॰—एक प्रकार का कीड़ा जो पेट के बल रेंगता है।
- उदर्कः—पुं॰—-—उद्+ऋच्+घञ्—वृद्धि
- उदवस्य—वि॰—-—उद्+अव+सो+अच्—अन्तिम, आखिरी
- उदश्रयणम्—नपुं॰—-—उद्+अश्र+क्यङ्+ल्युट्—रुलाना
- उदस्त—वि॰—-—उद्+अस्+क्त—बाहर निकला हुआ
- उदस्तात्—अ॰—-—उद्+अस्ताति—ऊपर
- उदात्तनायकः—पुं॰—-—-—महाकाव्य के उपयुक्त नायक का एक भेद
- उदात्तराघवः—पुं॰—-—-—एक नाटक का नाम
- उदास्यूहः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का जल काक
- उदानी—भ्वा॰आ॰—-—-—उठाना, उन्नत करना
- उदारवीर्य—वि॰—-—-—विपुलशक्तिसम्पन्न, महाबलशाली
- उदारवृत्तार्थपद—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसमें शब्द, अर्थ और छन्द सभी उत्तम हो।
- उदारसत्त्वाभिजन—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसका उत्तम कुल में जन्म हो तथा जिसका चरित्र भी अत्युत्तम हो।
- उदावसुः—पुं॰—-—-—जनक का एक पुत्र
- उदयः—पुं॰—-—-—उठना, उगना, ऊपर जाना
- उदयः—पुं॰—-—-—आरम्भ
- उदयः—पुं॰—-—-—अचूकपना, अमोघता
- उदयः—पुं॰—-—-—आयुष्यकर्म, दीर्घजीवी होने का यज्ञ
- उदयः—पुं॰—-—-—पूर्वी ज्या, प्रथम चान्द्रभवन
- उदयेन्दुः—पुं॰—उदयः-इन्दुः—-—इन्द्रप्रस्थ नगर
- उदयोन्मुख—वि॰—उदयः-उन्मुख—-—उन्नति के द्वार पर, समृद्धि की देहली पर
- उदयभास्करः—पुं॰—उदयः-भास्करः—-—एक प्रकार का कपूर
- उदयराशिः—पुं॰—उदयः-राशिः—-—नक्षत्र-पुंज जिसमें कि एक ग्रह क्षितिज में उगता है।
- उदित—वि॰—-—उद्+ इ+ क्त—विश्रुत, विख्यात
- उदित—वि॰—-—उद्+ इ+ क्त—आरब्ध, शुरू किया गया
- उदित—वि॰—-—उद्+ इ+ क्त—उद्बुद्ध, जागा हुआ
- उदित्वर—वि॰—-—-—ऊपर जाने वाला, ऊपर उठने वाला
- उदित्वर—वि॰—-—-—आगे बढ़ने वाला
- उदे—अदा॰पर॰—-—उद्+आ+इ —ऊपर जाना, उठना, उन्नत होना
- उदेयिवस्—वि॰—-—उद्+आ+इ (ईयिवस्)—उगा हुआ, उद्भूत, जात
- उद्गद्गादिका—स्त्री॰—-—-—सुबकियाँ लेना
- उद्गल—वि॰,न॰ब॰—-—-—गर्दन ऊपर उठाये हुए
- उद्गारकमणिः—पुं॰—-—उद्+गृ+ण्वुल्+ मण्+इन्—प्रवाल, मूँगा
- उद्गारः—पुं॰—-—उद्गृ घञ्—झाग
- उद्गारचूडः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का पक्षी
- उद्गीर्ण—वि॰—-—उद्+गृ+क्त—वान्त, वमन किया हुआ
- उद्गीर्ण—वि॰—-—उद्+गृ+क्त—बाहर निकाला हुआ, निष्कासित
- उद्गीर्ण—वि॰—-—उद्+गृ+क्त—प्रेरित, कराया हुआ
- उद्गीर्ण—वि॰—-—उद्+गृ+क्त—उठता हुआ, किनारे से बहता हुआ
- उद्गानम्—नपुं॰—-—उद्+गै+ल्युट्—साममन्त्रों के उच्चारण में एक विशेष अवस्था
- उद्गीतक—वि॰—-—उद्+ गै+क्त+कन्—जो ऊँचे स्वर से गायन करता है।
- उद्ग्रथनम्—नपुं॰—-—उद्+ग्रथ्+ ल्युट्—बालों को संयुक्त करने के लिए पिन
- उद्ग्रीविका—स्त्री॰—-—उद्+ ग्रीवा+इनि+ कन्+ टाप्—पंजों पर खड़े होना
- उद्घट्टनम्—नपुं॰—-—उद्+ घट्ट+ ल्युट् —आरंभ
- उद्घोण—वि॰,ब॰स॰—-—-—सूअर की भांति जिसके नथुने ऊपर को हों।
- उद्दण्डित—वि॰—-—उद्+दण्ड्+क्त—उठाया हुआ, भक्त
- उद्दण्डशास्त्रिन्—पुं॰—-—-—पन्द्रहवीं शताब्दी का तमिलदेशवासी एक महान् विद्वान्
- उद्दलन—वि॰—-—उद्+दल्+ ल्युट्—फाड़ देने वाला
- उद्दालकायनः—पुं॰—-—उद्दालक+ फञ्—उद्दालक की सन्तान
- उद्दीर्ण—वि॰—-—उद्+दृ+क्त—फटा हुआ
- उद्दीपकः—पुं॰—-—उद्+दीप्+ण्वुल्—पक्षिविशेष
- उद्दीपका—स्त्री॰—-—उद्+दीप्+ण्वुल्+टाप्—एक प्रकार की चिऊँटी
- उद्दूष्य—अ॰—-—उद्+दूष्+क्त्वा—सार्वजनिक रूप से बदनाम करके या दोषारोपण करके
- उद्देशतः—अ॰—-—उद्देश+तसिल्—संकेत करके, विशेषरूप से, मुख्य रूप से, स्पष्टरूप से
- उद्देशपदम्—नपुं॰,त॰स॰—-—-—वह शब्द जो कर्तृकारक के रूप में प्रयुक्त है।
- उद्देश्यक—वि॰—-—उद्+ दिश्+णिच्+ण्यत्—सङ्केत करता हुआ, इंगित से दर्शाता हुआ
- उद्धत—वि॰—-—उद्+हन्+क्त—भरपूर, भरा हुआ, समृद्ध
- उद्धत—वि॰—-—उद्+हन्+क्त—चमकीला, जगमग होता हुआ
- उद्धर्ष—वि॰,ब॰स॰—-—-—अधिकता, प्राचुर्य
- उद्धत—वि॰—-—उद्+धूञ्+ क्त—फेंका हुआ, उछाला हुआ
- उद्धत—वि॰—-—उद्+धूञ्+ क्त—अव्यवस्थित, बिखरा हुआ
- उद्धत—वि॰—-—उद्+धूञ्+ क्त—ऊँचा, उन्नत
- उद्धृ——-—उद्+हृ—विकृत करना, नष्ट करना
- उद्धृषित—वि॰—-—उद्+हृष्+क्त—हर्ष के कारण जिसके रोंगटे खड़े हो गये हों।
- उद्धरणम्—नपुं॰—-—उद्+ हृ+ ल्युट्—प्रतीक्षा करना, आशा करना
- उद्धारकविधिः—पुं॰—-—उद्+ हृ+णिच्+ ण्वुल्+ वि+ धा+ कि—देने की या भुगतान करने की रीति
- उद्धारः—पुं॰—-—उद्+हृ+ घञ्—संकलन
- उद्धारः—पुं॰—-—उद्+हृ+ घञ्—जो थालियों में बच जाय, उच्छिष्ट
- उद्धारकोशः—पुं॰—उद्धारः-कोशः—-—एक ग्रन्थ का नाम
- उद्धारविभागः—पुं॰—उद्धारः- विभागः—-—अंशों के प्रभाग, विभाजन
- उद्धारित—वि॰—-—उद्+ हृ+णिच्+ क्त—निष्कासित, मुक्त, छुड़ाया हुआ
- उद्बद्ध—वि॰—-—उद्+ बन्ध्+ क्त—बाँधा हुआ
- उद्बद्ध—वि॰—-—उद्+ बन्ध्+ क्त—बाधित
- उद्बद्ध—वि॰—-—उद्+ बन्ध्+ क्त—दृढ़, संहृत, कसा हुआ
- उद्बृंहण—वि॰—-—उद्+बृंह्+ल्युट्—बढ़ाने वाला, सशक्त करने वाला, सामर्थ्य देने वाला
- उद्भङ्गः—पुं॰—-—उद्+भञ्ज्+घञ्—तोड़ कर पृथक् कर देना, वियुक्त कर देना
- उद्भू—भ्वा॰पर॰,प्रेर॰—-—-—विचार करना, सोचना
- उद्यतायुध—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसने शस्त्र हाथ में ले लिया है।
- उद्यन्द्या—स्त्री॰—-—-—जंगल में या सूखी लकड़ी में रहने वाली एक काली चिऊँटी, दखौड़ी
- उद्यामित—वि॰—-—उद्+यम्+णिच्+क्त—काम करने के लिए जिसे प्रेरित किया गया है।
- उद्यापनिका—स्त्री॰—-—उद्+या+ णिच्+ पुक्+ ल्युट्+ कन्+ टाप्—यात्रा से वापिस घर आना
- उद्योजित—वि॰—-—उद्+युज्+ णिच्+ क्त—उठाया हुआ, एक चित्र
- उद्योतः—पुं॰—-—उत्+द्युत्+घञ्—चमक, उद्दीप्ति, उज्ज्वलता
- उद्योतः—पुं॰—-—उत्+द्युत्+घञ्—इस नाम का भाष्य जो रत्नावली, काव्यप्रकाश और महाभाष्यप्रदीप पर उपलब्ध है।
- उद्योतकरः—पुं॰—-—-—महाभाष्यप्रदीप के भाष्यकार का नाम
- उद्योतनम्—नपुं॰—-—उद्+द्युत्+ णिच्+ ल्युट्—चमकने या प्रकाशित होने की क्रिया
- उद्रिक्तिः—स्त्री॰—-—उद्+रिच्+क्तिन्—आधिक्य
- उद्रेचक—वि॰—-—उद्+रिच्+ण्वुल्—बढ़ाने वाला, वृद्धि करने वाला
- उद्वामिन्—वि॰—-—उद्+वम्+णिनि—उलटी करने वाला
- उद्वहः—पुं॰—-—उद्+वह+अच्—कुल या वंश में प्रधान व्यक्ति,पुत्र
- उद्वाहर्क्षम्—नपुं॰,त॰स॰—-—उद्वाह+ऋक्षम्—विवाह के लिए शुभ नक्षत्र
- उद्वह्नि—वि॰,ब॰स॰—-—-—चिनगारियाँ या अग्निकण बरसाने वाला
- उद्वाश्——-—-—विलाप करते हुए नाम लेना, शोकाधिक्य के कारण रोने में नाम ले लेकर क्रन्दन करना
- उद्विज्——-—-—मनुष्य को होश में लाना
- उद्वेगः—पुं॰—-—उद्+विज्+घञ्—सुपारी
- उद्वेगकर—वि॰—-—उद्वग+ कृ+अच्, ण्वुल्, णिनि वा—चिन्ताजनक, क्षोभ करने वाला, कष्टकर या दुःखदायी
- उद्वेगकारक—वि॰—-—उद्वग+ कृ+अच्, ण्वुल्, णिनि वा—चिन्ताजनक, क्षोभ करने वाला, कष्टकर या दुःखदायी
- उद्वेगकारिन्—वि॰—-—उद्वग+ कृ+अच्, ण्वुल्, णिनि वा—चिन्ताजनक, क्षोभ करने वाला, कष्टकर या दुःखदायी
- उद्विबर्हणम्—नपुं॰—-—उद्+वि = वृह्+ ल्युट्—बचाना, निकलना, उठाना
- उद्वर्तः—पुं॰—-—उद्+वृत्+घञ्—प्रलयकाल
- उद्वृत्त—वि॰—-—उद्+वृत्+क्त—उलटा हुआ, उद्घाटित, प्रसारित
- उद्वृत्तः—पुं॰—-—उद्+वृत्+क्त—नाचते समय हाथों की मुद्रा
- उद्वेष्टनीय—वि॰—-—उद्+वेष्ट्+अनीय—खोलने के योग्य, बन्धनमुक्त करने के लायक
- उद्युदस्——-—उद्+वि+उद्+ अस्+ भ्वा॰ पर॰—पूर्णतः छोड़ देना, त्याग देना
- उन्नादः—पुं॰—-—उद्+नद्+ घञ्—कृष्ण के एक पुत्र का नाम
- उन्नत—वि॰—-—उद्+नम्+क्त—ओजस्वी, उल्लासपूर्ण
- उन्नतकालः—पुं॰—उन्नत-कालः—-—छाया को माप कर समय निर्धारित करने की प्रणाली
- उन्नतकोकिला—स्त्री॰—उन्नत-कोकिला—-—एक प्रकार का वाद्ययंत्र
- उन्नतिः—स्त्री॰—-—उद्+नम्+क्तिन्—दक्ष की पुत्री जिसका विवाह धर्म के साथ किया गया था।
- उन्नहन—वि॰—-—उत्+नह्+ल्युट्—अश्रृंखल, खुला, मुक्त, बन्धन रहित
- उन्नाहः—पुं॰—-—उद्+नह्+घञ्—धृष्टता, हेकड़ी, औद्धत्य, अहंकार
- उन्निद्र—वि॰—-—उद्गता निद्रा यस्मात्+ ब॰ स॰—तेजस्वी, देदीप्यमान
- उन्निद्र—वि॰—-—उद्गता निद्रा यस्मात्+ ब॰ स॰—सीधा खड़ा होने वाला, फैला हुआ
- उन्निद्रकम्—नपुं॰—-—उद्+निद्रा+ कन्, ता वा—जागरूकता, जागते रहना
- उन्निद्रता—स्त्री॰—-—उद्+निद्रा+ कन्, ता वा—जागरूकता, जागते रहना
- उन्नेय—वि॰—-—उद्+नी+ण्यत्—सादृश्य के आधार पर जो अनुमान करने या निर्णय करने के योग्य हो।
- उन्मणिः—पुं॰—-—उत्क्रान्तो मणिम्+ अत्या॰ स॰—सतह पर पड़ा हुआ रत्न
- उन्मथनम्—नपुं॰—-—उद्+ मथ्+ल्युट्—बिलो देना
- उन्मत्त—वि॰—-—उद्+मद्+क्त—बहुत बड़ा, असामान्य
- उन्मत्तम्—नपुं॰—-—-—धतूरे का फूल
- उन्मनीभू—भ्वा॰पर॰—-—-—उत्तेजित होना, क्षुब्ध होना
- उन्मुखता—स्त्री॰—-—उन्मुख+ ता—आशंसा या प्रत्याशा की स्थिति
- उन्मुग्ध—वि॰—-—उद्+मुह्+ क्त—उद्विग्न, संभ्रान्त
- उन्मुग्ध—वि॰—-—उद्+मुह्+ क्त—मूर्ख, मूढ़
- उन्मृद्—क्रया॰पर॰—-—-—मसलना, मालिश करना
- उपकर्मन्—नपुं॰—-—-—उपनयन संस्कार की एक प्रक्रिया जिसमें बालक का सिर सूंघा जाता है।
- उपकल्पः—पुं॰—-—उप+ कृप्+अच्, घञ् वा—आभूषण
- उपकीचकः—पुं॰—-—उप+कीच्+ बुन् आद्यन्तविपर्यय—बांस के वृक्षों की उपशाखा
- उपक्रमः—पुं॰—-—उप+क्रम+घञ्—शौर्य
- उपक्रमः—पुं॰—-—उप+क्रम+घञ्—उड़ान
- उपक्रमः—पुं॰—-—उप+क्रम+घञ्—व्यवहार प्रतिक्रिया
- उपक्रान्त—वि॰—-—उप+क्रम्+क्त—आरब्ध
- उपक्रान्त—वि॰—-—उप+क्रम्+क्त—अधिगत
- उपक्रान्त—वि॰—-—उप+क्रम्+क्त—व्यवहृत
- उपक्षेपक—वि॰—-—उप+ क्षिप्+ ण्वुल्—संकेत देने वाला, सुझाव देने वाला
- उपखिलम्—नपुं॰—-—-—परिशिष्ट का भी परिशिष्ट
- उपगम्—भ्वा॰पर॰—-—-—पूजा करना
- उपगमनम्—नपुं॰—-—उप = गम्+ ल्युट्—धारणा, स्वीकृति
- उपजिगमिषु—वि॰—-—उप+ गम्+ सन्+उ—पास जाने का इच्छुक
- उपगूढ—वि॰—-—उप+गुह्+क्त—ग्रस्त, उत्पीडित
- उपगूढ—वि॰—-—उप+गुह्+क्त—आच्छादित, ढका हुआ
- उपगानम्—नपुं॰—-—उपगै+ ल्युट्—सहगामी संगीत
- उपगेयम्—नपुं॰—-—उपगै+यत्—गायन, गीत
- उपग्रस्—भ्वा॰पर॰—-—-—निगलना, हड़प करना, ग्रहणग्रस्त होना
- उपघ्रा—भ्वा॰पर॰—-—-—सूंघना
- उपचतुर—वि॰—-—-—लगभग चार, चार के आसपास
- उपचरणम्—नपुं॰—-—उप+चर्+ल्युट्—निकट जाना, पहुँचना
- उपचरितम्—नपुं॰—-—-—सन्धि का विशेष नियम
- उपचारः—पुं॰—-—उप+चर्+घञ्—सेवा, पूजा
- उपचारः—पुं॰—-—उप+चर्+घञ्—शिष्टता, सौजन्य
- उपचारच्छलम्—नपुं॰—उपचारः-च्छलम्—-—आलंकारिक रूप से प्रयुक्त किसी उक्ति के शब्दार्थ का उल्लेख करके एक प्रकार का निराकरणीय आभासी अनुमान
- उपचारपदम्—नपुं॰—उपचारः-पदम्—-—शिष्टता का शब्द, औपचारिक उच्चारण
- उपच्छन्न—वि॰—-—उप+छद्+क्त—गुप्त, छिपा हुआ
- उपच्छल्—पर॰—-—-—क्षीण होना, पकड़ लेना
- उपजानु—वि॰—-—उप+ जन्+ञुण्—घुटने के निकट
- उपतल्पः—पुं॰—-—उप+ तल्+ प—ऊपर की मंजिल का कमरा
- उपतल्पः—पुं॰—-—उप+ तल्+ प—एक प्रकार की लकड़ी की चौकी या स्टूल
- उपतीर्थम्—नपुं॰—-—उप+तृ+थक्—सरोवर या नदी का तट
- उपतीर्थम्—नपुं॰—-—उप+तृ+थक्—निकटवर्ती प्रदेश
- उपत्यका—स्त्री॰—-—उप+त्यकन्+टाप्—पर्वत की तलहटी का निम्नदेश
- उपदंशनम्—नपुं॰—-—उप+ दंश्+ ल्युट्—प्रकरण, प्रसंग
- उपदंशितम्—नपुं॰—-—उपदंश्+क्त—प्रकरण बताते हुए उल्लेख करना
- उपदातृ—वि॰—-—उप+दा+तृच्—देने वाला
- उपदेहः—पुं॰—-—उप+दिह्+घञ्—लपेटना, लेप करना, चित्रित करना
- उपदेहिका—स्त्री॰—-—उपदेह+ कन्+ टाप्—दीमक
- उपद्रवः—पुं॰—-—उपद्रु+ घञ्—सप्तांशक साम का छठा भाग
- उपद्रवः—पुं॰—-—उपद्रु+ घञ्—हानि, छीजन
- उपद्वारम्—अव्य॰स॰—-—-—पार्श्वद्वार
- उपधा—जुहो॰उभ॰—-—-—धोखा देना
- उपधालोपः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—अन्तिम से पूर्व का लोप
- उपधान—वि॰—-—उपधा+ल्युट्—तनाव बढ़ाने के लिए वाद्ययंत्र में तारों के अंदर रक्खे हुए लकड़ी के टुकड़े
- उपधानीयम्—नपुं॰—-—उप+धा+अनीयर्—तकिया, गद्देदार बिछावन
- उपधानीयम्—नपुं॰—-—उप+धा+अनीयर्—पायदान
- उपधाव्—भ्वा॰उभ॰—-—-—पूजा करना
- उपनतिः—स्त्री॰—-—उप+ नम्+ क्तिन्—झुकाव
- उपनतिः—स्त्री॰—-—उप+ नम्+ क्तिन्—देय
- उपनम्र—वि॰—-—उप+ नम्+र—आनेवाला, उपस्थित होने वाला
- उपनिबद्ध—वि॰—-—उप्+नि+बन्ध्+क्त—रचित
- उपनिबद्ध—वि॰—-—उप्+नि+बन्ध्+क्त—विमृष्ट
- उपनिम्रेड्—भ्वा॰पर॰आ॰—-—-—प्रसन्न करना
- उपनिर्गमः—पुं॰—-—उप+निर्+गम्+ खच्—मुख्य सड़क, प्रधान मार्ग
- उपनिर्गमनम्—नपुं॰—-—उप+निर्+ गम्+ ल्युट्—द्वार, दरवाजा
- उपनिर्हारः—पुं॰—-—उप+ निर्+ हृ+ घञ्—आक्रमण, हमला
- उपनिविष्ट—वि॰—-—उप+ नि+ विश्+ क्त—घेरा डालने वाला, रखने वाला, अधिकार करने वाला
- उपनिवेशः—पुं॰—-—उप+ नि+ विश्+ घञ्—देहात, उपनगर
- उपनिवेशः—पुं॰—-—उप+ नि+ विश्+ घञ्—स्थापना
- उपनिषद्—स्त्री॰—-—उपनि+षद्+ क्विप्—संकेन्द्रण
- उपनिषेव्—भ्वा॰आ॰—-—-—अपने-आपको संलग्न करना
- उपनयः—पुं॰—-—उप+ नी+ अच्—दीक्षा
- उपनयनम्—नपुं॰—-—उप+नी+ल्युट्—नियोजन, नियुक्ति, अनुप्रयोग
- उपनीत—वि॰—-—उप+नी+ क्त—विवाहित
- उपनीत—वि॰—-—उप+नी+ क्त—ब्रह्मचर्य आश्रम में दीक्षित
- उपनुन्न—वि॰—-—उप+ नुद्+ क्त—उड़ा हुआ, लहरों में बहा हुआ
- उपनेत्रम्—नपुं॰—-—उप+ नी+ष्ट्रन् —ऐनक, चश्मा
- उपन्यस्तम्—नपुं॰—-—उप+नि+ अस्+ क्त—मल्लयुद्ध के समय हाथों की विशिष्ट मुद्रा
- उपपतित—वि॰—-—उप+पत्+क्त—उपपातक या किसी सामान्य पाप का अपराधी, नगण्य पाप का दोषी
- उपपत्तिः—स्त्री॰—-—उप+पद्+ क्तिन्—दुर्घटना, संपात
- उपपत्तिः—स्त्री॰—-—उप+पद्+ क्तिन्—उपयुक्त, तर्कसंगत
- उपपत्तिपरित्यक्त—वि॰,त॰स॰—-—-—अनिर्वाह्य, अप्रमाणित
- उपपत्तिसमः—पुं॰,त॰स॰—-—-—न्यायशास्त्र में वर्णित विरोध जहाँ दोनों विरुद्ध उक्तियाँ सिद्ध की जा सकती हैं।
- उपपन्न—वि॰—-—उप+ पद्+ क्त—इच्छानुकूल, रुचिकर
- उपपाद्य—वि॰—-—उप+पद्+ ण्यत्—अनुपाल्य
- उपपाद्य—वि॰—-—उप+पद्+ ण्यत्—प्रमाण-सापेक्ष
- उपपाद्य—वि॰—-—उप+पद्+ ण्यत्—सत्ता में आने वाला
- उपपर्वन्—नपुं॰,प्रा॰स॰—-—-—चन्द्रमा के परिवर्तन से पूर्व का दिन
- उपपादः—पुं॰—-—उप+ पद्+ णिच्+ घञ्—अतिरिक्त, स्तम्भ
- उपप्लवः—पुं॰—-—उप+प्लु+ अप्—हानि, विफलता
- उपप्लाव्यम्—नपुं॰—-—-—मत्स्यदेश की राजधानी का नाम
- उपप्लुत—वि॰—-—उप+ प्लु+ क्त—दबाया हुआ, भींचा हुआ
- उपभृ—जुहो॰उभ॰—-—-—धारण करना, वहन करना
- उपभृत—वि॰—-—उप+भृ+क्त—संगृहीत, निकट लाया गया
- उपभेदः—पुं॰—-—उप+भिद्+ घञ्—उप प्रभाग
- उपमश्रवस्—वि॰,ब॰स॰—-—-—प्रशस्त
- उपमन्त्रिन्—पुं॰—-—उपमन्त्र+ इनि—अवरपरामर्शदाता, या मन्त्री
- उपमन्त्रिन्—पुं॰—-—उपमन्त्र+ इनि—संदेशवाहक
- उपमा—स्त्री॰—-—उप+ मा+अङ्+ टाप्—धर्मविरुद्ध सिद्धान्त
- उपमाव्यतिरेकः—पुं॰—-—-—तुलना और वैषम्य का संयोग
- उपमर्दनम्—नपुं॰—-—उप+मृद्+ल्युट्—निग्रह, निरोध
- उपमेखलम्—अ॰,प्रा॰स॰—-—-—ढलान पर
- उपयापनम्—नपुं॰—-—उप+ या णिच्+ ल्युट्—निकट पहुँचाना
- उपयापनम्—नपुं॰—-—उप+ या णिच्+ ल्युट्—विवाह
- उपयुक्तः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—अधीनस्थ अधिकारी
- उपयोगवत्—पुं॰—-—उपयोग+मतुप्, मस्य वत्वम्—उपयोगी, काम का
- उपयोगशून्य—वि॰,त॰स॰—-—-—व्यर्थ, निरर्थक
- उपयोज्य—वि॰—-—उप+ युज्+ ण्यत्—कार्य में लाने के योग्य
- उपरज्य—अ॰—-—उप+ रञ्ज्+क्त—काला कर के, मिटा कर
- उपरञ्जक—वि॰—-—उप+ रञ्ज्+ ण्वल्—रंगने वाला
- उपरञ्जक—वि॰—-—उप+ रञ्ज्+ ण्वल्—प्रभावशाली
- उपरतशोणिता—वि॰,ब॰स॰—-—-—वह स्त्री जिसका मासिक धर्म बन्द हो चुका है।
- उपरम्भ्—भ्वा॰पर॰—-—-—प्रतिध्वनि कराना, गुंजाना
- उपरि—अ॰—-—ऊर्ध्व+ रिल्, उप आदेशः—ऊपर, उपरांत, बाद
- उपरिकाण्डम्—नपुं॰—उपरि-काण्डम्—-—मैत्रायणी संहिता का तीसरा खण्ड
- उपरितलम्—नपुं॰—उपरि-तलम्—-—सतह
- उपरिबृहती—स्त्री॰—उपरि-बृहती—-—बृहती छंद का एक भेद
- उपरिष्ठ—वि॰—उपरि-ष्ठ—-—ऊपर रक्खा हुआ
- उपरुद्धः—पुं॰—-—उप+रुध्+ क्त—कैदी, रोका हुआ
- उपरोधः—पुं॰—-—उप+ रुध्+ घञ्—उच्छेद, लोप, निकाल देना
- उपरोधकारिन्—वि॰—उपरोधः-कारिन्—-—विघ्नकारी, रुकावट डालने वाला
- उपलः—पुं॰—-—उप+ ला+क—नकली बन्दूक द्वारा फेंकी गई गोली
- उपलप्रक्षिन्—वि॰—उपलः-प्रक्षिन्—-—चक्की पर अनाज पीसने वाला
- उपलवृष्टिः—स्त्री॰—उपलः-वृष्टिः—-—ओलों की वर्षा
- उपलब्धिसम—पुं॰—-—उप+ लभ्+ क्तिन्+ सम्+ अच्—न्याय शास्त्र का शब्द जो किसी तर्क का कुतर्कपूर्ण निराकरण दर्शाता है।
- उपलम्भः—पुं॰—-—उप+ लभ्+ घञ्, मुम् च—देखना, दर्शन करना
- उपलेपः—पुं॰—-—उप+ लिप्+ घञ्—मन्दता, कुन्दता
- उपलेखः—पुं॰—-—उप+ लिख्+ घञ्—प्रतिशाख्यों से संबद्ध व्याकरण की एक रचना
- उपलोहम्—नपुं॰,प्रा॰स॰—-—-—गौण धातु, खोटी धातु
- उपवञ्चनम्—नपुं॰—-—उप+ वञ्च्+ल्युट्—दुबकना, नीचे झुक कर चलना, लेटकर घिसरना
- उपवञ्चित—वि॰—-—उप+वञ्च्+ क्त—धोखा दिया गया, ठगा गया, निराश
- उपवर्तनम्—नपुं॰—-—उप+ वृत्+ ल्युट्—देश
- उपवसनम्—नपुं॰—-—उप+ वस्+ ल्युट्—उपवास करना
- उपोषित—वि॰—-—उप+ वस्+ क्त—जिसने उपवास रख लिया है।
- उपोषितम्—नपुं॰—-—उप+वस्+क्त—उपवास रखना
- उपोढा—स्त्री॰—-—उप+ वह+ क्त+ टाप्—छोटी पत्नी जो पति को अधिक प्रिय हो।
- उपविद्—वि॰—-—उप+ विद्+ क्विप्—लाभ उठाने वाला, प्राप्त करने वाला
- उपविद्—वि॰—-—उप+ विद्+ क्विप्—जानने वाला
- उपविद्—स्त्री॰—-—-—अधिग्रहण
- उपविद्—स्त्री॰—-—-—पृच्छा
- उपविष्ट—वि॰—-—उप+ विश्+क्त—आसीन, अधिकृत
- उपविष्टक—वि॰—-—उप+विश्+क्त+ कन्—जो अवधि पूर्ण होने पर भी अपने स्थान पर दृढ़ता से जमा हुआ है।
- उपवीक्ष्—आ॰—-—उप+वि+ ईक्ष्—देखना
- उपवीक्ष्—आ॰—-—उप+वि+ ईक्ष्—उचित या उपयुक्त समझना
- उपव्रजम्—अ॰,प्रा॰स॰—-—-—ग्वालों की बस्ती के पास
- उपशक्—दिवा॰उभ॰—-—-—यत्न करना, सहायता करना
- उपशक्—दिवा॰उभ॰—-—-—जानना, पूछताछ करना
- उपशक्—दिवा॰उभ॰—-—-—समर्थ या योग्य होना
- उपशमः—पुं॰—-—उप+ शम्+घञ्—ज्योतिष में बीसवाँ मुहूर्त
- उपशमक्षयः—पुं॰—उपशमः-क्षयः—-—मूक रहकर कर्म नाश, कर्म न करना
- उपशयस्थ—वि॰—-—उपशय+ स्था+ क—घात में लगा हुआ
- उपशीर्षकम्—नपुं॰—-—उपशीर्ष+कन्—प्रमस्तिक रोग
- उपशीर्षकम्—नपुं॰—-—उपशीर्ष+कन्—मोतियों का हार
- उपशूरम्—अ॰,प्रा॰स॰—-—-—शौर्य की कमी से
- उपशूर—वि॰,प्रा॰स॰—-—-—जिसमें शौर्य की कमी हो।
- उपश्रुतिः—स्त्री॰—-—उप+ श्रु+ क्तिन्—जनश्रुति, अफवाह
- उपश्रुतिः—स्त्री॰—-—उप+ श्रु+ क्तिन्—अन्तर्निविष्ट, समावेशन
- उपश्रुतिः—स्त्री॰—-—उप+ श्रु+ क्तिन्—एक देवी का नाम
- उपश्लोकः—पुं॰—-—उप+श्लोक्+ अच्—दसवें मनु के पिता का नाम
- उपष्टम्भक—वि॰—-—उप्+स्तम्भ्+अच्+कन्—सामर्थ्य देने वाला, पुनर्बलन देने वाला
- उपसंयत—वि॰—-—उप+ सम्+यम्+ क्त—संयुक्त, पक्का जुड़ा हुआ
- उपसंव्रज्—भ्वा॰पर॰—-—-—अन्दर कदम रखना, घुसना, प्रविष्ट होना
- उपसंसृष्ट—वि॰—-—उप+ सम्+सृज्+क्त—संयुक्त, सम्मिलित
- उपसंसृष्ट—वि॰—-—उप+ सम्+सृज्+क्त—कष्टग्रस्त, अभिशप्त, निन्दित
- उपसंस्कृत—वि॰—-—उप+ सम्+ कृ+ क्त—निष्पन्न, पक्व, तैयार किया हुआ
- उपसंस्कृत—वि॰—-—उप+ सम्+ कृ+ क्त—अलंकृत, भरा हुआ
- उपसंहृतिः—स्त्री॰—-—उप+सम्+ हृ+क्ति—उपसंहार, अन्त
- उपसंहृतिः—स्त्री॰—-—उप+सम्+ हृ+क्ति—विपत्ति
- उपसंक्लृप्त—वि॰—-—उप+ सम्+ क्लृप्+क्त—ऊपर जमाया हुआ
- उपसंग्रहः—पुं॰—-—उप+ सम्+ ग्रह+अच्—तकिया
- उपसञ्ज्—तुदा॰आ॰—-—-—संलग्न होना
- उपसदनम्—नपुं॰—-—उपसद्+ल्युट्—आवास, स्थान
- उपसादनम्—नपुं॰—-—उपसद्+ णिच्+ ल्युट्—नम्रतापूर्वक किसी के निकट जाना
- उपसन्ध्यम्—अ॰,प्रा॰स॰—-—-—संध्या के निकट
- उपसाध्—प्रेर॰पर॰—-—-—दमन करना
- उपसाध्—प्रेर॰पर॰—-—-—संवारना, व्यवस्थित करना
- उपसर्गः—पुं॰—-—उप+ सृज्+ घञ्—बाधा
- उपसर्जनीकृत—वि॰—-—उपसर्जन+ च्वि+ कृ+ क्त—दमन किया हुआ, दबाया हुआ, गौण बनाया हुआ
- उपसर्जित—वि॰—-—उप+सृज्+क्त—व्यस्त, लीन, विदा किया हुआ
- उपसृष्ट—वि॰—-—उप+ सृज्+क्त—छोड़ा हुआ
- उपसृष्ट—वि॰—-—उप+ सृज्+क्त—बरबाद, ध्वस्त
- उपसर्पः—पुं॰—-—उपसृप्+ घञ्—तीन वर्ष का हाथी
- उपस्कन्न—वि॰—-—उप+ स्कन्द्+क्त—सगतिक, कष्टग्रस्त, पसीजा हुआ
- उपस्कारः—पुं॰—-—उप+कृ+ घञ्—अचार, चटनी, मिर्च-मसाला
- उपस्तीर्ण—वि॰—-—उप+स्तृ+क्त—फैलाया हुआ, बिखेरा हुआ, छितराया हुआ
- उपस्तीर्ण—वि॰—-—उप+स्तृ+क्त—वस्त्रावेष्टित, आच्छादित, ढका हुआ
- उपस्तीर्ण—वि॰—-—उप+स्तृ+क्त—उंडेला हुआ
- उपस्थ—वि॰—-—उप+स्था+क—निकटवर्ती
- उपस्थः—पुं॰—-—-—आसन
- उपस्थः—पुं॰—-—-—सतह
- उपस्थानम्—नपुं॰—-—उप+ स्था+ल्युट्—न्यायालय का कक्ष
- उपस्थापना—स्त्री॰—-—उप+ स्था+ णिच्+युच्+ टाप्—जैनसाधु की दीक्षा से संबद्ध संस्कार
- उपस्थितवक्तृ—पुं॰—-—उपस्थित+वच्+ तृच्—आशुवक्ता
- उपस्नुत—वि॰—-—उप+ स्नु+ क्त—बहती हुई, प्रवहणशील
- उपस्पर्शनम्—नपुं॰—-—उप+स्पृश्+ ल्युट्—उपहार
- उपहासकम्—नपुं॰—-—उपहस्+ घञ्+कन्—दिल्लगी, हास्यपूर्ण उक्ति
- उपहर्तृ—वि॰—-—उप+ हृ+ तृच्—उपहार प्रदान करने वाला, आतिथेयी
- उपहा—जुहो॰आ॰—-—-—उतरना, नीचे आना
- उपहार्यम्—नपुं॰—-—उप+ हृ+ ण्यत्, ण्वुल्, स्त्रियां टाप् च—उपहार,भेंट
- उपहारकः—पुं॰—-—उप+ हृ+ ण्यत्, ण्वुल्, स्त्रियां टाप् च—उपहार,भेंट
- उपहारिका—स्त्री॰—-—उप+ हृ+ ण्यत्, ण्वुल्, स्त्रियां टाप् च—उपहार,भेंट
- उपहितिः—स्त्री॰—-—उप+धा+ क्तिन्—निष्ठा, भक्ति
- उपहूत—वि॰—-—उप+ ह्वे+ क्त—आमन्त्रित, बुलाया गया, आवाहन किया गया
- उपांशु—अ॰—-—उपगता अंशवो यत्र+ ब॰ स॰—मन्द आवाज़ में, कान में कहना
- उपाङ्शुजपः—पुं॰—उपाङ्शु-जपः—-—मन ही मन में मन्त्रों का जप करना
- उपाङ्शुग्रहः—पुं॰—उपाङ्शु-ग्रहः—-—यज्ञ में निचोड़् कर निकाले हुए सोमरस का परेषण
- उपाङ्शुदण्डः—पुं॰—उपाङ्शु-दण्डः—-—निजी रूप से दिया गया दण्ड
- उपाङ्शुवधः—पुं॰—उपाङ्शु-वधः—-—गुप्त हत्या
- उपाकृत—वि॰—-—उप+ आ+ कृ+ क्त—अभिमन्त्रित
- उपाकृत—वि॰—-—उप+ आ+ कृ+ क्त—उपयोग में लाया गया
- उपाक्रम्—भ्वा॰पर॰—-—-—टूट पड़ना, हमला बोलना
- उपाघ्रा—भ्वा॰पर॰—-—-—सूँघना
- उपाघ्रा—भ्वा॰पर॰—-—-—चूमना
- उपाङ्गः—प्रा॰स॰—-—-—जैनियों के धार्मिक ग्रंथों का समूह
- उपात्तविद्यः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—जिसने अपनी शिक्षा समाप्त कर ली है।
- उपादानम्—नपुं॰—-—उप+ आ+ दा+ ल्युट्—सांख्यशास्त्र में वर्णित चार अन्तर्वस्तुओं में से एक
- उपाधा—जुहो॰उभ॰—-—-—फुसलाना, चरित्रभ्रष्ट करना
- उपाधिः—पुं॰—-—उप+आ+ धा+ कि—किसी क्रिया का गौण उत्पादन, आनुषंगिक प्रयोजन
- उपाधिः—पुं॰—-—उप+आ+ धा+ कि—स्थानापत्ति, प्रतिपत्र
- उपाध्वर्युः—पुं॰,प्रा॰स॰—-—-—अध्वर्यु का सहायक
- उपारमः—पुं॰—-—उप+ आ+ रम्+ अच्—समाप्ति, अन्त
- उपारुद्—उदा॰पर॰—-—-—किसी बात के लिए रोना
- उपार्जित—वि॰—-—उप+ अर्ज्+ क्त—उपलब्ध किया हुआ, अवाप्त
- उपालभ्—भ्वा॰आ॰—-—-—मारने के लिए पकड़ना
- उपावृत्त—वि॰—-—उप+ आ+ वृ+ क्त—ढका हुआ, गुप्त
- उपाश्लिष्ट—वि॰—-—उप+आ+ श्लिष्+ क्त—जिसने आलिङ्गन किया है, या जिसने पकड़ लिया है।
- उपासीन—वि॰—-—उप+ आस्+ शानच्, ईत्व—निकटस्थ, आसपास विद्यमान, उपासना करने वाला
- उपस्थित—वि॰—-—उप+स्था+ क्त—सवार, खड़ा हुआ
- उपस्थित—वि॰—-—उप+स्था+ क्त—घटित, प्रस्तुत, आटपका जैसे कि ’व्यसनं समुपस्थितं’ में।
- उपायः—पुं॰—-—उप+अय्+ घञ्—दीक्षा, यज्ञोपवीत संस्कार
- उपायविकल्पः—पुं॰—उपायः-विकल्पः—-—वैकल्पिक तरकीब
- उपेयिवस्—वि॰—-—उप+ इण्+ क्वसु—निकट जाने वाला
- उपेक्षणीय—वि॰—-—उप+ ईक्ष्+ अनीयर्—उपेक्षा करने के योग्य, नज़र अन्दाज़ करने के लायक, परवाह न करने योग्य
- उपेड़्कीय्—ना॰धा॰पर॰—-—उप+ एडक+ क्यच्—ऐसा व्यवहार करना जैसा कि भेड़ के साथ किया जाता है।
- उपेन्द्र अपत्यम्—ष॰त॰—-—-—कामदेव
- उपात्त—वि॰—-—उप+ आ+ दा+ क्त—अवाप्त, अर्जित
- उभय—वि॰—-—उभ्+ अयट्—दोनों
- उभयान्वयिन्—वि॰—उभय-अन्वयिन्—-—जो दोनों अवस्थाओं में लागू हो सके
- उभयालङ्कारः—पुं॰—उभय- अलङ्कारः—-—एक अलंकार जिसमें अर्थ और ध्वनि दोनों घट सके
- उभयच्छन्ना—स्त्री॰—उभय-च्छन्ना—-—दोनों प्रकार की प्रहेलिकाओं को दर्शाने वाला अलंकार
- उभयपदिन्—वि॰—उभय-पदिन्—-—जिसमें परस्मै-आत्मने दोनों पद विद्यमान हों।
- उभयविपुला—स्त्री॰—उभय-विपुला—-—एक छन्द का नाम
- उभयविभ्रष्ट—वि॰—उभय-विभ्रष्ट—-—जो न यहाँ का रहे न वहाँ का, दोनों जगह से असफल
- उभयस्नातक—वि॰—उभय-स्नातक—-—जिसने अपना अध्ययन और ब्रह्मचर्यव्रत दोनों ही समाप्त कर लिये हैं।
- उभयतः—अ॰—-—उभय+तसिल्—दोनों ओर से
- उभयतपाश—वि॰—उभयतः-पाश—-—जिसके दोनों ओर जाल बिछा हो,
- उभयतपुच्छ—वि॰—उभयतः-पुच्छ—-—जिसके दोनों ओर पूँछ हो
- उभयतप्रज्ञ—वि॰—उभयतः-प्रज्ञ—-—जो बाहर और भीतर दोनों ओर देख सके
- उमामहेश्वरव्रतम्—नपुं॰—-—-—शिव को प्रसन्न करने के लिए विशेष प्रकार का एक धार्मिक व्रत
- उरगशयनः—पुं॰—-—ब+स—शेषनाग पर सोने वाला विष्णु
- उरस्—नपुं॰—-—ऋ+असुन्,उत्वं रपरश्च—छाती
- उरकपाटः—पुं॰—उरस्-कपाटः—-—चौड़ी सबल छाती
- उरक्षयः—पुं॰—उरस्-क्षयः—-—तपैदिक,छाती का रोग
- उरस्तम्भः—पुं॰—उरस्-स्तम्भः—-—दमा
- उरुपराक्रम—वि॰—-—ब+स—बड़ा शक्तिशाली
- उरुधा—अ॰—-—उरु+धा—नाना प्रकार से
- उर्वशीशापः—पुं॰—-—ष॰त॰—उर्वशी का अर्जुन को शाप,जिसके फल-स्वरुप वह हिजड़ा बन गया और यह स्थिति अज्ञातवास में बहुत उपयुक्त रही
- उलङ्—चुरा॰पर॰-उलण्डयति—-—-—बाहर फेंक देना,प्रक्षेपण
- उल्लिः—स्त्री॰—-—-—सफेद प्याज
- उल्ली—स्त्री॰—-—-—सफेद प्याज
- उलूकः—पुं॰—-—वल्+ऊ,संप्रसारण—एक ऋषि जिसे वैशेषिक का कर्ता कणाद समझा जाता है
- उलूकजित्—पुं॰—-—-—कौवा
- उलूलि—वि॰—-—-—जोर से क्रन्दन करने वाला,कोलाहलमय विवाहादि शुभ अवसरों पर मधुर समवेत गान,विशेषतः स्त्रियों का
- उलूलु—वि॰—-—-—जोर से क्रन्दन करने वाला,कोलाहलमय विवाहादि शुभ अवसरों पर मधुर समवेत गान, विशेषतः स्त्रियों का
- उल्बण—वि॰—-—उच्+ब(व) ण्+अच्,पृषो॰ साधुः—भयानक
- उल्बण—वि॰—-—उच्+ब(व) ण्+अच्,पृषो॰ साधुः—पापमय
- उल्बणरसः—पुं॰—उल्बण-रसः—-—शौर्य
- उल्लकः—पुं॰—-—उद्+लक्+अच्—एक प्रकार की शराब
- उल्लस्—भ्वा॰पर॰प्रेर—-—-—हिलाना,लहराना
- उल्लसत्—वि॰—-—उद्+लस्+शतृ—चमकता हुआ
- उल्लाघ—वि॰—-—उद्+ला+हन्+क—चतुर,प्रसन्न
- उल्लाघः—पुं॰—-—उद्+ला+हन्+क—काली मिर्च
- उवटः—पुं॰—-—-—ऋग्वेद प्रातिशाख्य तथा यजुर्वेद का भाष्यकर्ता
- उशत्—वि॰—-—वश्+शतृ—सुन्दर
- उशत्—वि॰—-—वश्+शतृ—प्रिय,प्यारा
- उशत्—वि॰—-—वश्+शतृ—पवित्र,निष्पाप
- उशत्—वि॰—-—वश्+शतृ—अश्लील
- उशिजः—पुं॰—-—-—कक्षीवान् के पिता का नाम
- उष्णगुः—पुं॰—-—ब+स—सूर्य
- उष्णोष्ण—वि॰—-—उष्ण+उष्ण—अत्यन्त गर्म
- उषस्—स्त्री॰—-—उष्+असि—प्रभात,भोर
- उषस्करः—पुं॰—उषस्-करः—-—चाँद
- उषस्कलः—पुं॰—उषस्-कलः—-—मुर्गा
- उषस्पतिः—पुं॰—उषस्-पतिः—-—अनिरुद्ध
- उषस्पूजा—स्त्री॰—उषस्-पूजा—-—पौषमास में प्रातः काल की जाने वाली उषा की विशेष पूजा
- उष्ट्रनिषदनम्—नपुं॰—-—-—योग का एक आसन
- उष्ट्र्प्रमाणः—पुं॰—-—-—आठ पैर का ‘शलभ’ नामक एक जन्तु
- उष्ट्राक्षः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—ऊंट जैसी आँखो वाला
- उष्णीषः—पुं॰—-—उष्णमीषते हिनस्ति ईष्+क—पगड़ी
- उष्णीषः—पुं॰—-—-—किसी भवन की चोटी
- उहारः—पुं॰—-—-—कछुवा
- ऊखराः—ब॰व॰—-—-—शैव सम्प्रदाय
- ऊखरजम्—नपुं॰—-—-—लवणयुक्त भूमि से तैयार किया गया नमक
- ऊखरजम्—नपुं॰—-—-—यवक्षार,कलमीशोरा
- ऊतिः—स्त्री॰—-—अव्+क्तिन्—ऊतक,ताँत
- ऊन्—चुरा॰पर—-—-—घटना,घटाना
- ऊनातिरिक्त—वि॰—-—-—अत्यधिक या अतिन्यून
- ऊनाब्दिकम्—नपुं॰—-—ऊनाब्दि+ठक्—वर्ष से पूर्व ही मनाया जाने वाला श्राद्ध
- ऊनमासिक—वि॰—-—ऊनमास+ठक्—नियमित मासिक संक्रियाओं के अतिरिक्त जो प्रतिमास श्राद्ध किये जाँय तथा जो दिनों की संख्या गिनकर एक वर्ष के भीतर ही भीतर मनाये जाँय
- ऊरु—नपुं॰—-—-—खुम्भ,खुदरौ,छत्रक
- ऊर्वङ्गम्—नपुं॰—-—-—खुम्भ,खुदरौ,छत्रक
- ऊर्जमासः—पुं॰—-—-—कार्तिक महीना
- ऊर्जमेघ—वि॰,ब॰स॰—-—-—असाधरण बुद्धि से युक्त
- ऊर्ध्व—वि॰—-—उद्+हा+ड,पृषो॰ ऊर् आदेशः—सीधा,उन्नत,उच्च
- ऊर्ध्वम्—नपुं॰—-—-—ऊँचाई,ऊपर
- ऊर्ध्वगमः—पुं॰—ऊर्ध्व-गमः—-—अग्नि
- ऊर्ध्वतिलकः—पुं॰—ऊर्ध्व-तिलकः—-—मस्तक पर जातिसूचक खड़ा तिलक
- ऊर्ध्वदृश्—पुं॰—ऊर्ध्व-दृश्—-—कर्कट,केकड़ा
- ऊर्ध्वप्रमाणम्—नपुं॰—ऊर्ध्व-प्रमाणम्—-—शीर्षलम्ब,उन्नतांश
- ऊर्ध्ववालम्—नपुं॰—ऊर्ध्व-वालम्—-—चमरी हरिण की पूँछ
- ऊर्ध्वशोधनः—पुं॰—ऊर्ध्व-शोधनः—-—रीठे का वृक्ष
- ऊर्मिका—स्त्री॰—-—ऋ+मि अर्तेरुच्य,स्वार्थे कन् टाप् च—चिन्ता
- ऊवध्यम्—नपुं॰—-—-—अधपचा भोजन
- ऊष्मायणम्—नपुं॰,ब॰स॰—-—-—ग्रीष्म ऋतु
- ऊहागानम्—नपुं॰—-—-—सामवेद के तीन प्रभागों में से एक
- ऊहच्छला—स्त्री॰—-—-—सामवेदच्छला का तीसरा अध्याय
- ऋक्ष्—स्वा॰पर॰—-—-—जान से मार देना
- ऋक्षः—पुं॰—-—ऋष्+स किच्च—एक प्रकार का हरिण
- ऋक्षेष्टिः—स्त्री॰—ऋक्षः-इष्टिः—-—ग्रहमख,तारों के निमित यज्ञ
- ऋक्षजिह्वम्—नपुं॰—ऋक्षः-जिह्वम्—-—एक प्रकार का कोढ़
- ऋक्षनायकः—पुं॰—ऋक्षः-नायकः—-—एक प्रकार की गोलाकार संरचना या निर्माण
- ऋक्षप्रियः—पुं॰—ऋक्षः-प्रियः—-—बैल
- ऋक्षबिडम्बिन्—पुं॰—ऋक्षः-बिडम्बिन्—-—धोखा देने वाला ज्योतिषी
- ऋग्ब्राह्मणम्—नपुं॰—-—-—ऐतरेय ब्राह्मण
- ऋजुकार्यः—पुं॰—-—-—कश्यप मुनि
- ऋजुलेखा—स्त्री॰—-—-—सरलरेखा,सीधीलाइन
- ऋण्—तना॰पर॰—-—-—जाना
- ऋणच्छेदः—पुं॰—-—ऋण+छिद्+घञ्—ऋण का परिशोध
- ऋणनिर्णयपत्रम्—नपुं॰—-—-—ऋण का स्वीकृति सूचक पत्र,रुक्का
- ऋणपत्रम्—नपुं॰—-—-—ऋण का स्वीकृति सूचक पत्र,रुक्का
- ऋणप्रदातृ—पुं॰—-—ऋण+प्र+दा+तृ—साहूकार,रुपया उधार देने वाला
- ऋतसमान्—नपुं॰—-—-—एक साम का नाम
- ऋतम्भरा—स्त्री॰—-—ऋ+क्त्+भृ+अच्,मुमागमः—बुद्धि,प्रज्ञा
- ऋतुः—पुं॰—-—ऋ+तु किच्च—मौसम
- ऋतुचर्या —स्त्री॰—ऋतुः-चर्या —-—ऋतु के अनुकूल व्यवहार
- ऋतुजुष्—स्त्री॰—ऋतुः-जुष्—-—प्रजनन के उपयुक्त समय पर मैथुन म्र् रत महिला
- ऋतुपशुः—पुं॰—ऋतुः-पशुः—-—ऋतु के अनुकूल यज्ञ में बलि दिये जाने वाला पशु
- ऋद्धम्—नपुं॰—-—ऋध्+क्त—गाहने के प्श्चात अनाज का संग्रह करना
- ऋद्धित—वि॰—-—ऋद्ध+इतच्—समृद्ध बनाया गया
- ऋश्यमूकः—पुं॰—-—-—एक पर्वत का नाम
- ऋषभाचलः—पुं॰—-—-—शंकराचार्य के जीवन से संबद्ध केरल में एक पर्वत पर स्थित मन्दिर
- ऋषिऋणम्—नपुं॰—-—-—ऋषियों के प्रति जनसाधारण का कर्तव्य,जनसमाज पर ऋषियों का ऋण
- ऋषिका—स्त्री॰—-—-—ऋग्मन्त्रों की द्रष्ट्री एक स्त्री
- ऋष्टिः—स्त्री॰—-—ऋष्+क्तिन्—एक प्रकार का वाद्ययंत्र
- एकः—पुं॰—-—इ+कन्—प्रजापति
- एकम्—नपुं॰—-—-—मन
- एकम्—नपुं॰—-—-—एकता
- एकाक्षरम्—नपुं॰—एकः-अक्षरम्—-—पुनीत प्रणव,‘ ओम’
- एकाग्नि—वि॰—एकः-अग्नि—-—जो केवल एक ही अग्नि को रखता है
- एकाङ्गम्—नपुं॰—एकः-अङ्गम्—-—वह नाटक जिसमें एक ही अङ्क हो
- एकाङ्गी—स्त्री॰—एकः-अङ्गी—-—अपूर्ण,अधूरा
- एकरुपक—पुं॰—एकः-रुपक—-—अधूरा रुपक या उपमा
- एकापचयः—पुं॰—एकः-अपचयः—-—जिसमें एक अवयव कम हो
- एकापायः—पुं॰—एकः-अपायः—-—जिसमें एक अवयव कम हो
- एकाहार्य—वि॰—एकः-आहार्य—-—एक सा भोजन करने वाला,जो प्रतिषिद्ध और अनुमत भोजन में विवेक न करे
- एकग्रामीण—वि॰—एकः-ग्रामीण—-—एक ही गांव का रहने वाला
- एकचरः—पुं॰—एकः-चरः—-—तपस्वी,संन्यासी
- एकच्छ्त्र—वि॰—एकः-च्छ्त्र—-—जो केवल एक ही छत्र से शासित हो,जहाँ एक ही राजा का राज्य हो
- एकजीववादः—पुं॰—एकः-जीववादः—-—केवल जीवात्मा का सिद्धान्त
- एकदण्डिन्—पुं॰—एकः-दण्डिन्—-—संन्यासियों की एक श्रेणी
- एकधुरीण—वि॰—एकः-धुरीण—-—एक ही भार को उठाने वाला
- एकनयनः—पुं॰—एकः-नयनः—-—शुक्रग्रह, असुरों का गुरु शुक्राचार्य
- एकनिपातः—पुं॰—एकः-निपातः—-—एक अव्यय जो अकेला ही एक शब्द है
- एकपादिका—स्त्री॰—एकः-पादिका—-—एक ही पैर का सहारा लेकर खड़े होना
- एकपार्थिवः—पुं॰—एकः-पार्थिवः—-—एकमात्र शासक
- एकवाक्यम्—नपुं॰—एकः-वाक्यम्—-—वाक्यरचना की दृष्टि से युक्तिसंगत वाक्य
- एकवाचक—वि॰—एकः-वाचक—-—पर्यायवाची
- एकवासस्—वि॰—एकः-वासस्—-—एक ही वस्त्र से आच्छादित
- एकविङ्शक—वि॰—एकः-विङ्शक—-—इकीसवाँ
- एकविजयः—पुं॰—एकः-विजयः—-—पूरी जीत
- एकवीरः—पुं॰—एकः-वीरः—-—प्रमुख योद्धा
- एकवीर—पुं॰—एकः-वीर—-—स्कन्द के३ नौ सहायकों में से एक
- एकव्यावहारिकाः—पुं॰—एकः-व्यावहारिकाः—-—बौद्धों की एक शाखा
- एकशेपः—पुं॰—एकः-शेपः—-—एक ही जड़ का वृक्ष
- एकशतम्—नपुं॰—-—-—एक प्रतिशत
- एकलव्यः—पुं॰—-—-—द्रोणाचार्य के एक शिष्य का नाम जिसने अपनी गुरुभक्ति के कारण धनुर्विद्या में प्रवीणता प्राप्त की
- एकाष्टका—स्त्री॰—-—-—माघ मास का आठवाँ दिन
- एकाष्ठी—स्त्री॰—-—-—कपास का बीज,बिनौला
- एजत्—वि॰—-—एज्+शतृ—कांपता हुआ,हिलता हुआ
- एणशिशुः—पुं॰, ष॰त॰—-—-—हिरण का बच्चा,छौना
- एणशावकः—पुं॰—-—-—हिरण का बच्चा,छौना
- एणाङ्कः—पुं॰, ब॰स॰—-—-—चन्द्रमा
- एणाङ्कचूडः—पुं॰, ब॰स॰—-—-—शिव जी
- एतत्पर—वि॰—-—-—इस पर तुला हुआ,इसमें लीन
- एतनः—पुं॰—-—आ+इ+तन—निःश्वास,साँस
- एतनः—पुं॰—-—आ+इ+तन—एक प्रकार की मछली
- एतावन्मात्र—वि॰—-—एतद्+वतुप्+मात्रच्—इस स्थान तक,इस माप का,इस अंश तक,ऐसा
- एलादि—वि॰, ब॰स॰—-—-—कुछ अयुर्वेदिक औषधियों का पुञ्ज-जो इलायची से आरम्भ होती है
- एकासुगन्धि—वि॰—-—-—इलायची की सुगन्ध से युक्त
- एव—अ॰—-—इ+वन्—पुनः,फिर
- एष्—भ्वा॰उभ॰—-—-—जानना
- एषिका—स्त्री॰—-—एष्+ण्वुल्+टाप्—लोहे का शहतीर जिसमें कोई छल्ला या टोपी न हो
- एष्टव्य—वि॰—-—एष्+तव्य—जिनके लिए प्रयत्न किया जाय्,जिनकी लालसा हो,जिनके लिए लालायित हुआ जाय
- ऐककर्म्यम्—नपुं॰—-—एतद्+ष्यञ्—कार्य की एकता
- ऐककर्म्यम्—नपुं॰—-—-—एकही फल में अंशभागी होने की स्थिति
- ऐकगुण्यम्—नपुं॰—-—एकगुण्+ष्यञ्—एक इकाई का मुल्य
- ऐकमुख्यम्—नपुं॰—-—एकमुख+ष्यञ्—पूरा अधिकार
- ऐकमुख्यम्—नपुं॰—-—-—अधीनता
- ऐकान्त्यम्—नपुं॰—-—एकान्त+ष्यञ्—एकान्तता,निरपेक्षता,एकान्तवास
- ऐकान्त्यम्—नपुं॰—-—-—मित्रता
- ऐक्यारोपः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—समीकरण
- ऐतशप्रलापः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—अथर्वेद का एक अनुभाग जिसका द्रष्टा ऐतश ऋषि था
- ऐन—वि॰—-—इनःसूर्यः,तस्य,इदम्+अण्—सूर्य संबंधी
- ऐन्दव—वि॰—-—इन्द्+अण्—चाँद का उपासक
- ऐन्दवकिशोरः—पुं॰—ऐन्दव-किशोरः—-—दूज का चाँद
- ऐरम्—नपुं॰—-—इरा+अण्—राशि,ढेर
- ऐश्यम्—नपुं॰—-—ईश्+ष्यञ्—सर्वोपरिता,सर्वोच्चता
- ऐश्य—वि॰—-—ईश्+ण्यत्—ईश संबंधी
- ऐश्वरकारणिकः—पुं॰—-—ईश्वर+अण्+करण+ठक्—एक नैयायिक का नाम
- ऐश्वर्यम्—नपुं॰—-—ईश्वर+ष्यञ्—सर्वशक्तिमता,तथा सर्वव्यापकता की शक्ति
- ओकज—वि॰—-—उच्+क,नि॰ चस्य कः,तस्मिन् जायते+जन्+ड—घर में उत्पन्न या पले
- ओकणी—स्त्री॰—-—ओ+कण्+अच्+ङीप्— सीमावर्ती जंगल
- ओघः—पुं—-—उच्+घञ्,पृषो॰घ॰—तीन वाद्य विधियों मे से एक
- ओजस्—नपुं॰—-—उब्ज्+असुन्,बलोपः गुण—वेग,गति
- ओजायितम्—नपुं॰—-—ना॰धा॰ ओज+य+क्त— साहसपूर्ण पग,हिम्मत से युक्त व्यवहार
- ओपशः—पुं॰—-—-—तकिया,सहारा,अवलम्बन
- ओलज्—भ्वा॰पर—-—-—फेंक देना,उछाल देना
- ओषधिः—पुं॰—-—ओष+धा+कि—सोम का पौधा
- ओषधिः—पुं॰—-—-—कपूर
- ओष्ठः—पुं॰—-—उष्+थन्—होठ
- ओष्ठावलोप्य—वि॰—ओष्ठः-अवलोप्य—-—जो होठों से खाया जा सके
- ओष्ठपाकः—पुं॰—ओष्ठः-पाकः—-— सरदी के कारण होठों का फटना
- ओष्ठ्य—वि॰—-—ओष्ठ+यत्—ओष्ठ संबंधी,जो होठों पर रहे
- ओष्ठ्ययोनि—वि॰—ओष्ठ्य-योनि—-—जो ओष्ठध्वनि से उत्पन्न हो
- ओष्ठ्यस्थान—वि॰—ओष्ठ्य-स्थान—-—जो होठों से उच्चरित हों
- औग्रसेनः—पुं॰—-—उग्रसेन+अण्—उग्रसेन का पुत्र कंस
- औच्च्यम्—नपुं॰—-—उच्च+ष्यञ्— देशान्तर,दूरी
- औतथ्य—वि॰—-—उतथ्य+अण्—उतथ्य कुल से संबद्ध,उतथ्य कुल में उत्पन्न
- औतमर्णिकम्—नपुं॰—-—उतमर्ण+ठक्—कर्ज,ऋण
- औत्थितासनिकः—पुं॰—-—उत्थितासन+ठक्—बैठने के लिए आसनों का प्रबंध करने वाला अधिकारी
- औत्पतिकम्—नपुं॰—-—उत्पति+ठक्—लक्षण्,स्वभाव
- औदीच्य—वि॰—-—उदीची+यत्—उतरी देश से संबंध रखने वाला
- औदुम्बरायणः—पुं॰—-—उदुम्बर+फक्—एक वैयाकरण का नाम
- औद्रङ्गिकः—पुं॰—-—उद्रङ्ग+ठञ्—‘उद्रंग’ अर्थात् कर का संग्राहक
- औपकुर्वाणक—वि॰—-—उपकुर्वाण+कक्—किसी नियत अवधि के ब्रह्मचारी ‘उपकुर्वाण’ से संबंध
- औपगविः—पुं॰—-—-—उद्वव
- औपपत्यम्—नपुं॰—-—उपपति+ष्यञ्—उपपति या जार से प्राप्त होने वाला हर्ष
- औपसन्ध्य—वि॰—-—उपसन्ध्या+अण्—संध्या आरंभ होने से जरा पूर्ववर्ती समय से संबद्ध
- औपस्थितिकः—पुं॰—-—उपस्थिति+ठक्—स्वक
- औम—वि॰—-—उमा+अण्—उमा संबंधी
- औरस—वि॰—-—उरसा निर्मितः+अण्—शारीरिक
- औरस—वि॰—-—उरसा निर्मितः+अण्—नैसर्गिक
- और्णस्थानिकः—पुं॰—-—ऊर्णस्थान+ठक्—ऊन विभाग का अधिकारी
- औषधम्—नपुं॰—-—औषधि+अण्—रोकथाम,मुकाबला
- औषधिप्रतिनिधिः—पुं॰—-—-—किसी औषधि के स्थान में प्रयुक्त होने वाली जड़ी-बूटी
- औष्ट्रिक—वि॰—-—उष्ट्र+ठक्—ऊंट संबंधी
- औष्ट्रिकः—पुं॰—-—उष्ट्र+ठक्—ऊंट से प्राप्त
- औष्ट्रिकः—पुं॰—-—-—तेली
- कम्—नपुं॰—-—कै+ड—बाल,केश
- कम्—नपुं॰—-—-—महिला का कृत्य
- कम्—नपुं॰—-—-—बालों का गुच्छा
- कम्—नपुं॰—-—-—दूध
- कम्—नपुं॰—-—-—विपति
- कम्—नपुं॰—-—-—जहर
- कम्—नपुं॰—-—-—भय
- कंशः—पुं॰—-—कं जलं शेते अत्र—जलपात्र
- कंसकृषः—पुं॰—-—कंस+कृष्+अच्—श्रीकृष्ण का विशेषण
- ककुदिन्—वि॰—-—ककुद्+इनि—नेता स्वामी
- कक्ष्यम्—नपुं॰—-—कक्ष+यत्—सूखे घास की चरागाह
- कक्ष्या—स्त्री॰—-—कक्ष+यत्+टाप्—सेना का घेरा
- कक्ष्या—स्त्री॰—-—कक्ष+यत्+टाप्—प्रतिद्वंद्विता
- कक्ष्या—स्त्री॰—-—कक्ष+यत्+टाप्—प्रतिज्ञा
- कक्ष्या—स्त्री॰—-—कक्ष+यत्+टाप्—शेष,अवशिष्ट
- कङ्कवासस्—पुं॰,ब॰स॰—-—-—बाण
- कङ्कटेरी—स्त्री॰—-—-—हरिद्रा,हल्दी
- कङ्कणधारणम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—किसी बड़े यज्ञ का उपक्रम सूचक मुख्य पुरोहित या यजमान की कलाई में सूत्र बन्धन या कड़ा पहनाना
- कङ्केलिः—पुं॰—-—-—वृक्षविशेष जिसमें शरदृतु में फूल आते है
- कङ्केसिका—स्त्री॰—-—-—केवल सिर भिगोना,सिर का स्नान
- कच्छः—पुं॰—-—क+छो+क—घनी बसी हुई बस्ती
- कज्जलिका—स्त्री॰—-—-—पारे का बना चूर्ण
- कञ्चुकीयः—पुं॰—-—कञ्चुक+छ—कञ्चुकी,अन्तःपुराध्यक्ष
- कञ्जिनी—स्त्री॰—-—कञ्ज+इनि+ङीप्—वेश्या
- कटः—पुं॰—-—कट्+अच्—चटाई
- कटः—पुं॰—-—-—कूल्हा
- कटः—पुं॰—-—-—बाण
- कटः—पुं॰—-—-—लकड़ी का तख्ता
- कटः—पुं॰—-—-—हाथी की कनपटी
- कटकुटिः—पुं॰—कटः-कुटिः—ब+स—फूस की छत वाली झोपड़ी
- कटकृत्—पुं॰—कटः-कृत्—-—तिनकों की चटाई बुनने वाला
- कटपूर्णः—पुं॰—कटः-पूर्णः—-—हाथी जो अपनी मस्ती या कामोन्माद की पहली अवस्था में हो
- कटभूः—पुं॰—कटः-भूः—-—हाथी की कनपटी का प्रदेश
- कटस्थालम्—नपुं॰—कटः-स्थालम्—-— शव,लाश
- कटजकः—पुं॰—कटः-जकः—-—जनसमुदायविशेष
- कटफलः—पुं॰—कटः-फलः—-—घूस,रिश्वत
- कटारिका—स्त्री॰—-—-—एक छोटी कटार,बर्छी
- कटिनी—पुं॰—-—-—हस्तिनी
- कटुभङ्गः—पुं॰—-—-—सूखा अदरक,सोंठ
- कटुभद्रः—पुं॰—-—-—सूखा अदरक,सोंठ
- कट्ट्—चुरा॰पर—-—-—एकत्र करना,मिट्टी से ढकना
- कट्टारिका—स्त्री॰—-—-—कसाई की छुरी
- कठः—पुं॰—-— कठ्+अच्—एक ऋषि का नाम जो वैशम्पायन के शिष्य थे
- कठोपनिषद्—स्त्री॰—कठः-उपनिषद्—-—एक उपनिषद् का नाम
- कठकालापः—पुं॰—कठः-कालापः—-—कठ और कालाप की शाखाएँ
- कठधूर्तः—पुं॰—कठः-धूर्तः—-—यजुर्वेद की कठ शाखा में प्रवीण ब्राह्मण
- कठिनम्—नपुं॰—-— कठ्+ इनच्—कुदाल
- कठिनम्—नपुं॰—-—-—मिट्टी का बर्तन
- कठिनम्—नपुं॰—-—-—कंधे पर जमाया हुआ फीता या बाँस जिससे बोझा ढोया जाय
- कठिकल्लः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का सेव
- कठुर—वि॰—-—कठ्+उरच्—कठोर,क्रूर
- कठोरित—वि॰—-— कठोर+इतच्—कड़ा किया गया,सबल बनाया गया
- कडुली—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का ढोल
- कडेरः—पुं॰—-—-—एक देश का नाम
- कणः—पुं॰—-—कण्+अच्—मंगरमच्छ
- कणवीरकः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का संखिया
- कण्टकः—पुं॰—-—कण्ट्+ण्वुल्—मन दुखाने वाला भाषण
- कण्टकिलः—पुं॰—-—कण्ट्क+इलच्—बाँस
- कण्टाफलः—पुं॰—-—कण्टा+फल्+अच्—सेमल का फल,सेमल का पेड़
- कण्ठः—पुं॰—-—कण्ठ्+अच्—गला,कण्ठ
- कण्ठत्रः—पुं॰—कण्ठः-त्रः—-—हार
- कण्ठनालम्—नपुं॰—कण्ठः-नालम्—-—कण्ठ की नाली,ग्रीवाप्रदेश
- कण्ठमाला—स्त्री॰—कण्ठः-माला—-—एक रोग का नाम जो प्रायः गले में होता है
- कण्ठरोधम्—नपुं॰—कण्ठः-रोधम्—-—आवाज को कम करना
- कण्डला—स्त्री॰—-—-—बेत से निर्मित एक टोकरी
- कण्डिल—वि॰—-—कण्ड्+ईलच्—पीए हुए,शराबी
- कण्डिल—वि॰—-—कण्ड्+ईलच्—चंचल,उच्छृङ्खल
- कण्वोपनिषद्—स्त्री॰—-—-—एक उपनिषद् का नाम
- कताशब्दः—पुं॰—-—-—पासे फेंकने का शब्द
- कथ्—चुरा॰उभ—-—-—स्तुतिगान करना
- कथकटीका—स्त्री॰—-—-—रामायण पर टीका
- कथन्ता—स्त्री॰—-—कथम्+तल्—अवर्णनीय बेचैनी
- कथामात्र—वि॰—-—-—जो केवल कथा में ही रह गया हो,मृत
- कदम्बः—पुं॰—-—कद्+अम्बच्—धूल
- कदम्बः—पुं॰—-—कद्+अम्बच्—सुगन्धि
- कदम्बयुद्धम्—नपुं॰—कदम्बः-युद्धम्—-—एक प्रकार शृंगाररस का नाटक
- कदली—स्त्री॰—-—कदल+ङीष्—केला
- कदलीक्षता—स्त्री॰—कदली-क्षता—-—एक प्रकार की ककड़ी
- कदलीक्षता—स्त्री॰—कदली-क्षता—-—एक सुन्दर महिला
- कदलीगर्भः—पुं॰—कदली-गर्भः—-—केले का गूदा
- कनकम्—नपुं॰—-—कन+विन्—सोना
- कनकः—पुं॰—-—-—पलाश वृक्ष
- कनकः—पुं॰—-—-—धतूरे का पौधा
- कनककदली—स्त्री॰—कनकः-कदली—-—एक प्रकार का केला जिस के पते भूरे होते है
- कनककारः—पुं॰—कनकः-कारः—-—सुनार
- कनकपट्टम्—नपुं॰—कनकः-पट्टम्—-—कपड़ा जिस पर सोने या जरी का काम हुआ हो
- कनकपर्वतः—पुं॰—कनकः-पर्वतः—-—मेरु पहाड़
- कनपः—पुं॰—-—कनो दीप्तिर्गतिः शोभा वा पाति सः—एक प्रकार का अस्त्र
- कनिष्कः—पुं॰—-—-—एक राजा जो पहली शताब्दी में हुआ
- कनिष्ठा—स्त्री॰—-—अतिशयेन युवा+युवन्+इष्टन् कनादेशः—छोटी पत्नी
- कनीनिकम्—नपुं॰—-—कनीन+कन्,इत्वम्—कुछ साममन्त्रों का समूह
- कनीयस्—पुं॰—-—युवन्+ईयसुन्,कनादेशः—छोटा भाई
- कनीयस्—पुं॰—-—युवन्+ईयसुन्,कनादेशः—कामोन्मत,प्रेमी
- कन्तुः—पुं॰—-—कम्+तु—प्रेमी
- कन्दरालः—पुं॰—-—कन्दर+आलच्—अखरोट का वृक्ष
- कन्दर्पः—पुं॰—-—कं कुत्सितो दर्पो यस्मात्+ब+स—कामदेव
- कन्दर्पदर्पः—पुं॰—कन्दर्पः-दर्पः—-—कामदेव की शक्ति
- कन्दर्पवह्निः—पुं॰—कन्दर्पः-वह्निः—-—कामातुरता के कारण होने वाली गर्मी
- कन्दाशः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—जो कन्द अर्थात् जड़े खाकर जीवित रहता है
- कन्दुघातः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—गेंद को उछालना
- कन्यका—स्त्री॰—-—कन्या+कन्,ह्रस्वता—दुर्गा
- कन्यका परमेश्वरी—स्त्री॰—-—-—कन्याकुमारी की अधिष्ठात्री देवता
- कन्यस्—वि॰—-—-—छोटा
- कन्यस्—वि॰—-—-—निम्नतर,नीचे का
- कन्यसः—पुं॰—-—-—सबसे छोटा भाई
- कन्यसा—स्त्री॰—-—-—सबसे छोटी अँगुली
- कन्यसी—स्त्री॰—-—-—सबसे छोटी बहन
- कन्या—स्त्री॰—-—कन्+यक्+टाप्—अविवाहित लड़की या पुत्री
- कन्या—स्त्री॰—-—कन्+यक्+टाप्—कुमारी
- कन्या—स्त्री॰—-—कन्+यक्+टाप्—दुर्गा
- कन्यादूषकः—पुं॰—कन्या-दूषकः—-—जो कुमारी कन्या से हठसंभोग या जबरजिनाह करता है
- कन्याभैक्ष्यम्—नपुं॰—कन्या-भैक्ष्यम्—-—लकड़ी को उपहार के रुप में माँगना
- कन्याव्रतस्था—स्त्री॰—कन्या-व्रतस्था—-—मासिकधर्म वाली स्त्री
- कपाटबन्धनम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—दरवाजा बन्द करना
- कपाटिका—स्त्री॰—-—-—दरवाजा
- कपालमोक्षः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—निर्वाण होने पर संन्यासी की कपालक्रिया जो उसके उन्नत जीवन का सूचक है
- कपिमुष्टिः—स्त्री॰—-—-—बन्दर की बँधी मुट्ठी,या तना हुआ घूसा,दृढ़ रुख्र
- कपित्वम्—नपुं॰—-—-—बन्दर की विशेषता
- कपिलवस्तु—पुं॰—-—-—उस नगर का नाम जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ था
- कपिला—स्त्री॰—-—-—एक नदी का नाम जो कावेरी में मिलती है
- कपोतवृतिः—स्त्री॰,ब॰स॰—-—-—अपव्ययी स्वभाव होना,अपने भोजन का कुछ भी प्रबन्ध न करना
- कपोलताडनम्—नपुं॰—-—-—अपनी त्रुटि को स्वीकार करने के चिह्न-स्वरुप अपने गालों को थपथपाना
- कपोलपत्रम्—नपुं॰—-—-—पते से मिलता-जुलता एक चिह्न गालों पर अङ्कित करना
- कपोलपालिः—स्त्री॰—-—-—गाल का एक पार्श्व
- कपोलपाली—स्त्री॰—-—-—गाल का एक पार्श्व
- कबलः—पुं॰—-—क+बल्+अच्—मुट्ठीभर
- कबलम्—नपुं॰—-—-—हाथियों का एक प्रकार का प्राकृतिक चारा
- कमन—वि॰—-—कम्+ल्युट्—प्रेमी,पति
- कमला—स्त्री॰—-—कमल+अच्+टाप्—नारंगी,संतरा
- कमलाक्षः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—कमल का बीज
- कमलाक्षः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—कमल जैसी आँखों वाला
- कमलाक्षः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—विष्णु
- कमलीका—स्त्री॰—-—-—छोटा कमल
- कम्बलः—पुं॰—-—कम्ब्+कलच्—हाथी की झूल
- कम्भ—वि॰—-—-—जलयुक्त
- कम्भ—वि॰—-—-—प्रसन्न
- करः—पुं॰—-—कृ+अप्,अच् वा—हाथ
- करः—पुं॰—-—-—टैक्स,शुल्क
- करकच्छपिका—स्त्री॰—करः-कच्छपिका—-—योग की एक मुद्रा जिसमें हाथ कछुए से मिलते जुलते हो जाते है
- करकृतात्मन्—वि॰—करः-कृतात्मन्—-—दरिद्र,जिसका कठिनाई से निर्वाह हो
- करतलीकृ——करः-तलीकृ—-—हथेली में रखना,चुल्लू की भाँति अञ्जलि में रखना
- करपात्री—स्त्री॰—करः-पात्री—-—चमड़े का बना हुआ प्याला
- करपात्री—स्त्री॰—करः-पात्री—-—जो भिक्षा अपने हाथ में ग्रहण करता है
- करमर्दः—पुं॰—करः-मर्दः—-—एक पौधे का नाम
- करमर्दी—स्त्री॰—करः-मर्दी—-—एक पौधे का नाम
- करमर्दकः—पुं॰—करः-मर्दकः—-—एक पौधे का नाम
- करकवारि—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—ओलों का पानी
- करटामुखम्—नपुं॰—-—-—हाथी की कनपटी पर एक छिद्र जिसमें से हाथी की मदोन्मतता के समय तरल पदार्थ बहता है
- करणम्—नपुं॰—-—कृ+ल्युट्—ग्रहों की गति के विषय में वराहमिहिर की एक कृति
- करणव्यूहम्—नपुं॰—करणम्-व्यूहम्—-—ज्योतिषशास्त्र का एक ग्रन्थ
- करणविभक्तिः—स्त्री॰—करणम्-विभक्तिः—-—तृतीया विभक्ति
- करभः—पुं॰—-—कृ+अभच्—श्रोणि,कूल्हा
- करम्भ—वि॰—-—क+रम्भ्+घञ्—भुना हुआ,तला हुआ
- कराल—वि॰—-—कर+आ+ला+क— जिसके दाँत बाहर को निकले हुए हों
- करालित—वि॰—-—कराल+इतच्—सताया हुआ
- करालित—वि॰—-—कराल+इतच्—आवर्धित,प्रखर किया हुआ
- करिन्—पुं॰—-—कर्+इनि—हाथी
- करिन्—पुं॰—-—कर्+इनि—‘आठ’ की संख्या
- करिमुक्ता—स्त्री॰—करिन्-मुक्ता—-—मोती
- करिरतम्—नपुं॰—करिन्-रतम्—-—संभोग के समय का विशेष आसन,रतिबन्ध
- करिसुन्दरिका—स्त्री॰—करिन्-सुन्दरिका—-—पनसाल,पानी का चिह्न
- करीरु—स्त्री॰—-—-—झींगर
- करीरु—स्त्री॰—-—-—हाथों के दाँत की जड़
- करीरू—स्त्री॰—-—-—झींगर
- करीरू—स्त्री॰—-—-—हाथों के दाँत की जड़
- करुणाकरः—पुं॰—-— करुणा+कृ+अच्—दयालु,करुणा करने वाला
- करुषः—पुं॰—-—-—गर्दा,गंदगी,मैल,पाप
- करुषाः—ब॰व—-—-—एक देश का नाम
- कर्क—वि॰—-—कृ+क—रत्न,मणि
- कर्क—वि॰—-—कृ+क—नारियल के खोले से बनाया गया पात्र
- कर्क—वि॰—-—कृ+क—कंजूस
- कर्का—स्त्री॰—-—-—सफेद घोड़ी
- कर्कन्धुः—स्त्री॰—-—कर्कं कण्टकं दधाति+धा+कू—दस दिन का भ्रूण
- कर्कन्धूः—स्त्री॰—-—कर्कं कण्टकं दधाति+धा+कू—दस दिन का भ्रूण
- कर्कन्धुः—पुं॰—-—-—बिना पानी का कुआँ
- कर्करेटम्—नपुं॰—-—-—गर्दन से पकड़ना
- कर्कश्—वि॰—-—कर्क+श—रुखा,निष्ठुर
- कर्कश्—वि॰—-—कर्क+श—दुर्व्यसनी
- कर्कशः—पुं॰—-—कर्क+श—काले रंग का गन्ना
- कर्णः—पुं॰—-—कर्ण्+अप्—वृत की व्यास
- कर्णः—पुं॰—-—कर्ण्+अप्—अन्तर्वर्ती प्रदेश,उपदिशा
- कर्णाञ्जलः—पुं॰—कर्णः-अञ्जलः—-—कर्णपालि
- कर्णाञ्जलम्—नपुं॰—कर्णः-अञ्जलम्—-—कर्णपालि
- कर्णकटु—वि॰—कर्णः-कटु—-— सुनने में कष्टप्रद
- कर्णकठोर—वि॰—कर्णः-कठोर—-— सुनने में कष्टप्रद
- कर्णकषायः—पुं॰—कर्णः-कषायः—-—कान की मवाद
- कर्णचूलिका—स्त्री॰—कर्णः-चूलिका—-—कानों की बाली
- कर्णपटम्—नपुं॰—कर्णः-पटम्—-—कान का विवर
- कर्णमलम्—नपुं॰—कर्णः-मलम्—-—कान की मैल,घूघ
- कर्णमुकुरः—पुं॰—कर्णः-मुकुरः—-—कर्णाभूषण
- कर्णस्रोतस्—नपुं॰—कर्णः-स्रोतस्—-—कान बहने पर कान से निकलने वाला मल
- कर्णहर्म्यम्—नपुं॰—कर्णः-हर्म्यम्—-—पार्श्वस्थ बुर्जी
- कर्णेचुरचुरा—स्त्री॰—-—-—कानाफूसी,कान में कोई रहस्य की बात कहना
- कर्णेजयः—पुं॰—-—कर्ण्+जप्+अच् अलुकसमास—कानाफूसी करना
- कर्णेजयः—पुं॰—-—कर्ण्+जप्+अच् अलुकसमास—संवाददाता संसूचक
- कर्तरी—स्त्री॰—-—-—नृत्य का एक भेद
- कर्तृपदम्—नपुं॰—-—-—‘कर्ता’ को दर्शाने वाला शब्द
- कर्तृनिष्ठम्—वि॰—-—-—‘कर्ता’ अर्थात् कार्य करने वाले से संबद्ध
- कर्परी —स्त्री॰—-—कृप्+अरन् ङीप् —एक प्रकार का अंजन, सुरमा
- कर्परिका—स्त्री॰—-—स्त्रियां कन्+टाप् ह्रस्वश्च—एक प्रकार का अंजन, सुरमा
- कर्पूरमञ्जरी—स्त्री॰—-—-—राजशेखर कृत एक नाटक
- कर्पूरस्तवः—पुं॰—-—कर्पूर+स्तु+अप्—तन्त्रशास्त्र में वर्णित स्तुतिगान
- कर्मन्—नपुं॰—-—कृ+मनिन्—कार्य करने की इन्द्रिय
- कर्मन्—नपुं॰—-—कृ+मनिन्—प्रशिक्षण, अभ्यास
- कर्मान्तः—पुं॰—कर्मन्-अन्तः—-—कार्यकर्ता
- कर्मान्तरम्—नपुं॰—कर्मन्-अन्तरम्—-—दूसरा कार्य
- कर्मापनुत्तिः—स्त्री॰—कर्मन्-अपनुत्तिः—-—कर्म का नाश
- कर्माख्या—स्त्री॰—कर्मन्-आख्या—-—कर्म के आधार पर नामकरण
- कर्माशयः—पुं॰—कर्मन्-आशयः—-—अच्छे बुरे कर्मों के फलों का संचयस्थान
- कर्मगतिः—स्त्री॰—कर्मन्-गतिः—-—पूर्वकृत कर्मों की दशा
- कर्मच्छेदः—पुं॰—कर्मन्-छेदः—-—कर्तव्यकर्म पर उपस्थित न रहने के फलस्वरूप हानि
- कर्मदेव—पुं॰—कर्मन्-देवः—-—जिसने अपने धर्मपूर्ण कृत्यों के द्वारा देवत्व प्राप्त कर लिया है
- कर्मनामधेयम्—नपुं॰—कर्मन्-नामधेयम्—-—कुछ कारणों के आधार पर नाम रखना यूँ ही अपनी इच्छा से नहीं
- कर्मनिश्चयः—पुं॰—कर्मन्-निश्चयः—-—किसी कार्य का निर्णय
- कर्मश्रुतिः—स्त्री॰—कर्मन्-श्रुतिः—-—कार्य का आख्यान करने वाली वैदिक उक्ति
- कर्वूरकः—पुं॰—-—-—अदरक जैसा एक सुगन्धित पदार्थ जो औषधियों तथा सुगन्ध द्रव्यों के निर्माण में प्रयुक्त होता है, कचोरा
- कल—वि॰—-—कल्+घञ्—प्रबल
- कल—वि॰—-—कल्+घञ्—पूर्ण, भरा हुआ
- कलव्याघ्रः—पुं॰—कल-व्याघ्रः—-—तेंदुआ और मादा चीता से उत्पन्न संकर नस्ल का जानवर, बाघ
- कलङ्कः—पुं॰,कर्म॰स॰—-—कल्+क्विप्, कल् चासौ अङ्कश्च, —सम्प्रदाय द्योतक मस्तक पर तिलक
- कलञ्जन्यायः—पुं॰—-—-—न्याय जिसके अनुसार किसी से संबद्ध निषेध उस कार्य को करने का प्रतिषेध करता है।
- कलमगोपवधू—स्त्री॰—-—-—चावलों के खेत की रखवाली के लिए नियुक्त स्त्री
- कलमगोपी—स्त्री॰—कलम-गोपी—-—चावलों के खेत की रखवाली के लिए नियुक्त स्त्री
- कलमगोपालिका—स्त्री॰—कलम-गोपालिका—-—चावलों के खेत की रखवाली के लिए नियुक्त स्त्री
- कलहनाशनः—पुं॰—-—-—एक पौधा, करञ्ज
- कला—स्त्री॰—-—कल्+कच्+टाप्—हाथी की पूँछ के पास मांसल गद्दी
- कला—स्त्री॰—-—कल्+कच्+टाप्—स्वरूप
- कला—स्त्री॰—-—कल्+कच्+टाप्—नाशकारी शक्ति
- कलाकारः—पुं॰—कला-कारः—-—ललितकलाविद्, कलाविज्ञ
- कलावती—स्त्री॰—-—कला+मतुप्+ङीप्—एक प्रकार की वीणा
- कलिकारकः—पुं॰—-—-—करञ्ज वृक्ष
- कलिकारकः—पुं॰—-—-—पक्षिविशेष
- कलिका—स्त्री॰—-—कलि+कन्+टाप्—सर्वोत्तम कवि के लिए सम्मानसूचक उपाधि
- कलिल—वि॰—-—कल+इलच्—विकृत, संदूषित
- कलिल—वि॰—-—कल+इलच्—सन्दिग्ध, अनिश्चित
- कलुष—वि॰—-—कल्+उषच्—गंदा, मैला
- कलुषमानस—वि॰—कलुष-मानस—-—जहरीला
- कलुषदृष्टि—वि॰—कलुष-दृष्टि—-—बुरी दृष्टि से देखने वाला
- कल्किपुराणम्—नपुं॰—-—-—एक पुराण का नाम
- कल्पः—पुं॰—-—क्लृप्+घञ्—आस्था, विश्वास
- कल्पवृक्षः—पुं॰—कल्प-वृक्षः—-—कोई व्यक्ति या पदार्थ जो प्रचुर मात्रा में भलाई करे
- कल्पतरुः—पुं॰—कल्प-तरुः—-—कोई व्यक्ति या पदार्थ जो प्रचुर मात्रा में भलाई करे
- कल्पस्थानम्—नपुं॰—कल्प-स्थानम्—-—औषधियों के निर्माण की कला
- कल्पस्थानम्—नपुं॰—कल्प-स्थानम्—-—विषविज्ञान, अगदविज्ञान
- कल्पकः—पुं॰—-—क्लृप्+ण्वुल्—वृक्षविशेष, कचोरा
- कल्पकः—वि॰—-—क्लृप्+ण्वुल्—मानकस्वरूप, निश्चित नियमानुकूल
- कल्पनाशक्तिः—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—विचार बनाने का सामर्थ्य, विचारों की मौलिकता, भावनाशक्ति
- कल्य—वि॰—-—कला+यत्—ललित कलाओं में दक्ष
- कल्याण—वि॰—-—कल्य+अण्+घञ्—यथार्थ, प्रमाणित, युक्तियुक्त
- कल्याणपञ्चकः—पुं॰—कल्याण-पञ्चकः—-—वह घोड़ा जिसका मुख और पैर सफेद हो
- कल्हणः—पुं॰—-—-—राजतरंगिणी का रचयिता
- कवि—वि॰—-—कु+इ—सर्वज्ञ
- कवि—वि॰—-—कु+इ—बुद्धिमान
- कविः—पुं॰—-—कु+इ—विचारक, कविता करने वाला
- कविः—पुं॰—-—कु+इ—वाल्मीकि
- कविः—पुं॰—-—कु+इ—ब्रह्मा
- कविकल्पितम्—नपुं॰—कवि-कल्पितम्—-—कवि की कल्पना
- कविपरम्परा—स्त्री॰—कवि-परम्परा—-—कवियों का अनुक्रम
- कविहृदयम्—नपुं॰—कवि-हृदयम्—-—कवि का वास्तविक आशय
- कवित्वम्—नपुं॰—-—कवि+त्व—(वेद) बुद्धिमत्ता
- कवित्वम्—नपुं॰—-—कवि+त्व—कवि कौशल
- कशः—पुं॰—-—कश्+अच्—चर्बी
- कषाणः—पुं॰—-—कष्+ल्युट् पृषो॰ आत्वम्—मसलना, रगड़ पैदा करने वाला
- कषायवसनम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—संन्यासियों की पीले से खाकी रंग की वेशभूषा
- कष्टमातुलः—पुं॰—-—-—सौतेली माँ से उत्पन्न भाई
- कसनः—पुं॰—-—कस्+ल्युट्—खाँसी
- कसनोत्पाटनः—पुं॰—कसनः-उत्पाटनः—-—एक पौधा जिसके रस के सेवन से खाँसी दूर हो जाती है।
- का—स्त्री॰—-—-—पृथ्वी, धरती
- का—स्त्री॰—-—-—दुर्गा देवी
- कांस्यम्—नपुं॰—-—कंस+छ (ईय)+यञ् छलोपः—कांसी का बना हुआ, पीतल का बना जल पीने का जलपात्र, गिलास
- कांस्योपदोह—वि॰—कांस्यम्-उपदोह—-—बर्तन भर कर दूध देने वाला
- कांस्यदोह—वि॰—कांस्यम्-दोह—-—बर्तन भर कर दूध देने वाला
- कांस्यदोहन—वि॰—कांस्यम्-दोहन—-—बर्तन भर कर दूध देने वाला
- कांस्यनीलम्—नपुं॰—कांस्यम्-नीलम्—-—तुत्थांजन, कासीस
- कांस्यनीली—स्त्री॰—कांस्यम्-नीली—-—तुत्थांजन, कासीस
- काकः—पुं॰—-—कै+कन्—कौवा
- काकः—पुं॰—-—कै+कन्—पानी में केवल सिर डुबोकर नहाना
- काकादनी—स्त्री॰—काकः-अदनी—-—गुञ्जा का पौधा
- काकोडुम्बरः—पुं॰—काकः-उडुम्बरः—-—अंजीर का पेड़, गूलर
- काकोडुम्बरिका—स्त्री॰—काकः-उडुम्बरिका—-—अंजीर का पेड़, गूलर
- काकजम्बुः—पुं॰—काकः-जम्बुः—-—गुलाब,जामुन का पेड़
- काकतुण्डम्—नपुं॰—काकः-तुण्डम्—-—विशेष रूप से बनाई हुई बाण की नोक
- काकतिक्ता—स्त्री॰—काकः-तिक्ता—-—वृक्षों के विशेष प्रकार
- काकतुण्डिका—स्त्री॰—काकः-तुण्डिका—-—वृक्षों के विशेष प्रकार
- काकनासा—स्त्री॰—काकः-नासा—-—वृक्षों के विशेष प्रकार
- काकनासिका—स्त्री॰—काकः-नासिका—-—वृक्षों के विशेष प्रकार
- काकचर्या—स्त्री॰—काकः-चर्या—-—जो कुछ उपलब्ध हो उसी को पीकर रहने की कौवे की आदत का अनुसरण करना और केवल निरी आवश्यकता पूरी करना
- काकमैथुनम्—नपुं॰—काकः-मैथुनम्—-—कौओं की रतिक्रिया जिसको देखने पर प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
- काकस्नानम्—नपुं॰—काकः-स्नानम्—-—कौवे की भाँति स्नान करना
- काकस्पर्शः—पुं॰—काकः-स्पर्शः—-—कौवे को छूना जिससे कि फिर स्नान करना पड़ता है
- काकस्पर्शः—पुं॰—काकः-स्पर्शः—-—मृत्यु के पश्चात् दसवाँ दिन जब चावल का पिण्ड कौवों को दिया जाता है।
- काकिणिक—वि॰—-—काकिणी+ठक्—कौड़ी के मूल्य का निकम्मा, अनुपयोगी
- काक्षीवः—पुं॰—-—-—एक वृक्ष का नाम, शोभाञ्जन, सौहंजणा
- काचः—पुं॰—-—कच्+घञ् कुत्वाभावः—वह मकान जिसमें दक्षिण और उत्तर की ओर कमरे बने हों
- काचकमलम्—नपुं॰—काचः-कमलम्—-—आँख का एक रोग, काच बिन्दू
- काचिमः—पुं॰—-—-—एक पवित्र वृक्ष
- काच्छपः—पुं॰—-—कच्छप+अण्—कछुवे से सम्बन्ध रखने वाला
- काच्छिक—वि॰—-—-— सुंगधपूर्ण द्रव्यों का निर्माता
- काजम्—नपुं॰—-—-—लकड़ी की मोगरी
- काञ्चीगुणः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—तगड़ी की डोर
- काञ्चीगुणः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—काञ्ची नामक नगरी की समृद्धि
- काठकः—वि॰—-—कठ+वुञ्—कृष्ण यजुर्वेद की कठ संहिता से संबन्ध रखने वाला
- काण्डपुष्पम्—नपुं॰—-—-—‘कुन्द’ फूल
- काण्डमायनः—पुं॰—-—-—एक वैयाकरण का नाम
- काण्डानुसमयः—पुं॰—-—-—पहले एक वस्तु, व्यक्ति या देवता से सम्बद्ध समस्त प्रक्रिया पूरा करना, फिर दूसरे से संबद्ध, फिर तीसरे से इसी प्रकार चलते रहना
- काण्डेरी—स्त्री॰—-—-—हल्दी का पौधा, मञ्जिष्ठा
- कात्यायनसूत्रम्—नपुं॰—-—-—कात्यायन का श्रौतसूत्र
- कादम्बरी—स्त्री॰—-—-— बाणप्रणीत एक गद्य काव्य
- कादिक्षान्तः—पुं॰—-—क आदि+क्ष+अन्त—व्यञ्जन
- कानिष्ठ्यम्—नपुं॰—-—कनिष्ठ+ष्यञ्—सबसे छोटा होने की स्थिति
- कान्तनावकम्—नपुं॰—-—-—चमड़े का एक भेद
- कान्तिः—स्त्री॰—-—कम्+क्तिन्—लक्ष्मी
- कान्दिश्—वि॰—-—काम् दिशम्—भगाया गया (युद्धादि में डर कर) , भागने वाला, दौड़ने वाला
- कापुरुषः—पुं॰—-—कुत्सितः पुरुषः+ कोः कदादेशः—नीच व्यक्ति, कायर, ओछा आदमी
- कापेयम्—नपुं॰—-—कपेर्भावः कर्म वा कपि+ ढक्—बन्दर का व्यहार या आदत
- काबन्ध्यम्—नपुं॰—-—कबन्ध+ष्यञ्—बिना सिर के धड़ का होना
- कामः—पुं॰—-—कम्+घञ्—इच्छा, चाह
- कामः—पुं॰—-—कम्+घञ्—स्नेह, प्रेम
- कामः—पुं॰—-—कम्+घञ्—जीवन का एक उद्देश्य
- कामाश्रमः—पुं॰—कामः-आश्रमः—-—वह आश्रम जहाँ कामदेव ने तपस्या की थी
- कामेश्वरी—स्त्री॰—कामः-ईश्वरी—-—कामाक्षी जिसने शिव में कामोत्तेजना जगाने के लिए कामदेव का रूप धारण किया
- कामकारः—पुं॰—कामः-कारः—-—कार्य करने की स्वतन्त्रता, अपनी इच्छा के अनुसार काम करना
- कामकोटिः—स्त्री॰—कामः-कोटिः—-—इच्छाओं की चरम सीमा
- कामकोटिः—स्त्री॰—कामः-कोटिः—-—अभिलाषाओं की पराकाष्ठा
- कामकोटिः—स्त्री॰—कामः-कोटिः—-—दक्षिण में काञ्चीपुरी में शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित आध्यात्मिक संस्था
- कामतन्त्रम्—नपुं॰—कामः-तन्त्रम्—-—एक रचना, कृति
- कामदहनम्—नपुं॰—कामः-दहनम्—-—फाल्गुन मास में मनाया जाने वाला एक पर्व
- कामधर्मः—पुं॰—कामः-धर्मः—-—श्रृंगारसिक्त चेष्टा या व्यवहार
- कामभाक्—वि॰—कामः-भाक्—-—विषय भोगों में भाग लेने वाला
- कामठकः—पुं॰—-—कमठ+अण्, स्वार्थे कन्—धृतराष्ट्र का नाम
- कामठकः—पुं॰—-—कमठ+अण्, स्वार्थे कन्—एक साँप का नाम जो ‘सर्पसत्र’ में भस्म हो गया था
- कामन्दकिः—पुं॰—-—-—कामन्दकीय नीति का प्रणेता
- कामला—स्त्री॰—-—कम्+णिङ्+कलच्+टाप्—केले का पौधा
- कामिकागमः—पुं॰—-—-—आगम शास्त्र का एक ग्रन्थ
- कामिनी—स्त्री॰—-—काम+इनि+ङीप्—मादक शराब
- कामीलः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का सुपारी का वृक्ष
- काम्बलिकः—पुं॰—-—कम्बल+ठक्—दलिया, जौं की लपसी
- काम्बोजः—पुं॰—-—कम्बोज+अण्—शंख
- काम्बोजः—पुं॰—-—कम्बोज+अण्—पुन्नाग नामक वृक्ष
- काम्यकः—पुं॰—-—-—महाभारत में वर्णित एक जंगल का नाम
- कायिन्—वि॰—-—काय+इनि—बड़े आकार प्रकार का
- कायाधवः—पुं॰—-—कयाधु+अण्—कयाधु का पुत्र, प्रह्लाद
- कारकम्—नपुं॰—-—कृ+ण्वुल्—इन्द्रिय, अंग
- कारकविभक्तिः—स्त्री॰—कारकम्-विभक्तिः—-—संज्ञा और क्रिया के मध्य संबंध स्थापित करने वाली प्रक्रिया
- कारणम्—नपुं॰—-—कृ+णिच्+ल्युट्—हेतु, निमित्त पूर्व जन्म से आई हुई वृत्ति, पूर्ववासना
- कारणकारितम्—अ॰—कारणम्-कारितम्—-—फलस्वरूप
- कारणान्तरम्—नपुं॰—कारणम्-अन्तरम्—-—भिन्न प्रसंग, परिवर्तन शील हेतु
- कारणान्तरम्—नपुं॰—कारणम्-अन्तरम्—-—कारण परक हेतु
- कारणता—स्त्री॰—-—कारण+तल्+टाप्—कारणपना, हेतुत्व
- कारापकः—पुं॰—-—कार+आपकः, त॰ स॰—भवन के निर्माण कार्य का अधीक्षक, काम की देखभाल करने वाला
- कारूषाः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—एक देश का नाम
- कारूषाः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—अन्तर्वर्ती जाति का पुरुष
- कारूषम्—नपुं॰—-—-—मल या पाप
- कार्कलास्यम्—नपुं॰—-—कृकलास+ष्यञ्—छिपकली की स्थिति
- कार्णाटभाषा—स्त्री॰—-—-—कन्नड़ भाषा
- कार्तिकः—पुं॰—-—कृतिका+अण्—स्कन्द का विशेषण
- कार्पटिकः—पुं॰—-—कर्पट+ठक्—कपटी, धोखेबाज, ठग
- कार्पासतन्तुः—पुं॰,ष॰त॰—-—कार्पासस्तस्य तन्तुः ,कर्पासी+अण्+तन्तुः—सूत्रम्, कपड़े का धागा
- कार्मणत्वम्—नपुं॰—-—कर्मन्+अण्, तस्य भावः त्वम्—जादू, टोना
- कार्मान्तिकः—पुं॰—-—-—उद्योग धन्धे और निर्माणकार्यों का अधीक्षक
- कार्मारिकः—पुं॰—-—कार्मार+ठक्—बर्छी
- कार्यम्—नपुं॰—-—कृ+ण्यत्—शरीर
- कार्यापेक्षिन्—वि॰—कार्यम्-अपेक्षिन्—-—किसी विशेष कार्य को करने वाला
- कार्याश्रयिन—वि॰—कार्यम्- आश्रयिन्—-—शरीर का सहारा लेने वाला
- कार्यव्यसनम्—नपुं॰—कार्यम्-व्यसनम्—-—कार्य में विफलता
- कार्यवशात्—अ॰—कार्य-वशात्—-—किसी प्रयोजन से, किसी काम से
- कालः—पुं॰—-—कलयति आयुः कल+णिच्+अच्—सांख्यकारिका में बताये चार पदार्थों में से एक
- कालः—पुं॰—-—कलयति आयुः कल+णिच्+अच्—समय का कोई भाग
- कालाष्टकम्—नपुं॰—कालः-अष्टकम्—-—आषाढ़ मास कृष्णपक्ष के पहले आठदिन
- कालाष्टकम्—नपुं॰—कालः-अष्टकम्—-—काल भैरव का स्तोत्र जिससे शंकर की स्तुति की गई है
- कालादिकः—पुं॰—कालः-आदिकः—-—चैत्रमास
- कालाम्रः—पुं॰—कालः-आम्रः—-—आम का एक भेद
- कालाम्रः—पुं॰—कालः-आम्रः—-—एक टापू का नाम
- कालकञ्जम्—नपुं॰—कालः-कञ्जम्—-—नील कमल
- कालकण्ठी—स्त्री॰—कालः-कण्ठी—-—कालकण्ठ की पत्नी, पार्वती
- कालकल्लकः—पुं॰—कालः-कल्लकः—-—पनियाला साँप
- कालजोषकः—पुं॰—कालः-जोषकः—-—जो समय पर मिले पतले भोजन से ही संतुष्ट है
- कालदष्टः—पुं॰—कालः-दष्टः—-—जिसे मौत ने डस लिया है
- कालधौतम् —नपुं॰—कालः-धौतम्—-—चाँदी या सोना
- कालपर्ययः—पुं॰—कालः-पर्ययः—-—देरी, विलम्ब
- कालपुरुषः—पुं॰—कालः-पुरुषः—-—यमराज का सेवक
- कालरुद्रः—पुं॰—कालः-रुद्रः—-—संसार को नष्ट करने के अपने भयंकर रूप में विद्यमान रुद्र
- कालवृतः—पुं॰—कालः-वृतः—-—कुलत्थ, एक प्रकार की दाल
- कालसंकर्षिणी—स्त्री॰—कालः-संकर्षिणी—-—मंत्रविद्या जिससे समय की अवधि कम की जा सके
- कालसङ्गः—पुं॰—कालः-सङ्गः—-—देरी, विलम्ब
- कालसमन्वितः—पुं॰—कालः-समन्वितः—-—मृत, मरा हुआ
- कालसमायुक्त—पुं॰—कालः-समायुक्तः—-—मृत, मरा हुआ
- कालङ्कतः—पुं॰—-—-—खांसी को भगाने वाली औषध
- कासमर्दः—पुं॰—-—-—खांसी को भगाने वाली औषध
- कालन—वि॰—-—कल्+णिच्+ल्युट्—नाश करने वाला
- कालिका—स्त्री॰—-—काल+ठन्—एक प्रकार की शाक भाजी
- कालिका—स्त्री॰—-—काल+ठन्—तेलन, तेली की स्त्री
- कालिका—स्त्री॰—-—काल+ठन्—कुहरा, धुंध
- कालित—वि॰—-—काल+इतच्—मृत, मरा हुआ
- कालिदासः—पुं॰—-—-—एक यशस्वी कवि और नाटककार का नाम
- कालिदासः—पुं॰—-—-—नलोदय और श्रुतबोध के प्रणेताओं की भांति अन्य कवि
- कालिय—वि॰—-—काल+घ—समय से संबद्ध
- कालिय—पुं॰—-—काल+घ—एक साँप का नाम जिसका कृष्ण ने दमन किया था
- कालीन—वि॰—-—काल+ख—किसी विशेष कालभाग से संबद्ध
- कालेयाः—पुं॰,ब॰व॰—-—काली+ढक्—कृष्ण यजुर्वेद की शाखा या संप्रदाय
- कालोलः—पुं॰—-—-—कौवा
- काशिक—वि॰—-—काशी+ठक्—काशी में बना हुआ, रेशमी वस्त्र, बनारसी कपड़ा
- काशिकाप्रियः—पुं॰—-—-—धन्वन्तरि
- काशेय—वि॰—-—काशी+ढक्—काशी का, काशी से संबंध रखने वाला
- काश्मकराष्ट्रक—वि॰—-—-—हीरों का एक भेद
- काश्यपेय—वि॰—-—कश्यपा (अदिति)+ ढक्—सूर्य, गरुड़ और बारह आदित्यों का विशेषण
- काश्यपेयः—पुं॰—-—-—दारुक, कृष्ण का सारथि
- काषण—वि॰—-—-—कच्चा, जो पका न हो
- काषायवसना—स्त्री॰,ब॰व॰—-—-—विधवा
- काष्ठम्—नपुं॰—-—काश्+क्थन्—लकड़ी
- काष्ठाधिरोहणम्—नपुं॰—काष्ठम्-अधिरोहणम्—-—चिता में बैठना
- काष्ठपूलकः—पुं॰—काष्ठम्-पूलकः—-—लकड़ियों का गट्ठा
- काष्ठभारः—पुं॰—काष्ठम्-भारः—-—लकड़ियों का बोझ
- काष्ठा—स्त्री॰—-—-—पीला रंग
- काष्ठा—स्त्री॰—-—-—शारीरिक रूप या मुद्रा
- कासनाशिनी—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—खांसी या दमे का नाश करने वाली औषधि का पौधा
- काहन्—नपुं॰—-—क+अहन्—ब्रह्मा का एक दिन
- काहारकः—पुं॰—-—-—एक जाति का नाम जिसके लोग पालकियों से सवारियों को ढोते हैं।
- कि—जुहो॰पर॰<चिकेति>—-—-—जानना
- किङ्किरिः—स्त्री॰—-—किं किरतीति+कृ+क, स्त्रियां+इ—कोयल
- किञ्चन्यम्—नपुं॰—-—किञ्चन+ष्यञ्—संपत्ति
- किट्टिमम्—नपुं॰—-—-—मैला पानी
- किम्—वि॰—-—कि+डिमु बा॰—तुच्छता, घटियापन, दोष, ह्रास
- किङ्कथिका—स्त्री॰—किम्-कथिका—-—संदेह, संकोच
- किङ्कृते—अ॰—किम्-कृते—-—किसलिए
- किञ्ज—वि॰—किम्-ज—-—जो कहीं उत्पन्न हुआ हो, जिसका नीचकुल में जन्म हुआ हो
- किन्तुघ्नः—पुं॰—किम्-तुघ्नः—-—‘करण’ नामक काल के ग्यारह भागों में से एक
- किन्नु—अ॰—किम्-नु—-—परन्तु फिर भी, तो भी
- किम्पाक—वि॰—किम्-पाक—-—अपरिपक्व, अज्ञानी
- किम्पाकः—पुं॰—किम्-पाकः—-—आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित एक जड़ी बूटी
- किम्पुरुषः—पुं॰—किम्-पुरुषः—-—अर्धदेव, घटिया मनुष्य
- किंराजन्—पुं॰—किम्-राजन्—-— बुरा राजा
- किंविवक्षा—स्त्री॰—किम्-विवक्षा—-—निन्दा, बुराई
- किंबरः—पुं॰—-—-—मगरमच्छ, घड़ियाल
- किमीय—वि॰—-—किम्+छ—किसका, किससे संबंध रखने वाला
- कियत्—वि॰—-—किमिदंभ्यां बोधः—कितना अधिक, कितना बड़ा, कितना
- कियत्—वि॰—-—किमिदंभ्यां बोधः—कुछ थोड़ा सा
- कियदेतद्—नपुं॰—कियत्-एतद्—-—किस महत्त्व का,अर्थात् तुच्छ, अतिसामान्य
- कियन्मात्रः—पुं॰—कियत्-मात्रः—-—नगण्य, तुच्छ बात
- किराटः—पुं॰—-—-—बेईमान सौदागर, निर्लज्ज व्यापारी
- किरातकः—पुं॰—-—किरं पर्यन्तभूमिं अतति गच्छतीति, स्वार्थे कन्—किरात जाति का मनुष्य
- किर्मीरत्वच्—ब॰स॰—-—-—सन्तरे का पेड़
- किलकिलितम्—नपुं॰—-—-—हर्षसूचक ध्वनियाँ
- किलाटः—पुं॰—-—-—जमा हुआ दूध
- किलातः—पुं॰—-—-—बौना, कद में छोटा
- किल्बिषम्—नपुं॰—-—किल्+टिषच्, वुक्—संकट, पाप
- किल्बिषम्—नपुं॰—-—किल्+टिषच्, वुक्—धोखा, जालसाजी
- किशोरः—पुं॰—-—किम्+शृ+ओरन्, किमोन्त्यलोपः, धातोष्टिलोपः—किसी जानवर का बच्चा, शिशु, शावक
- कीकट—वि॰—-—की+कट्+अच्—निर्धन, बेचारा, कंजूस, लालची
- कीकसास्थि—नपुं॰,ष॰त॰—-—की+कस्+अच्—कशेरुका, मेरुदण्ड, रीढ़ की हड्डी
- कीचकः—पुं॰—-—चीक्+वुन्+,आद्यन्तविपर्ययश्च— बांस जो हवा भर जाने पर शब्द करता है, केवल बांस के अर्थ में बहुधा प्रयुक्त
- कीचकवधः—पुं॰,ष॰त॰—-—कीचक+हन्+अप्, वधादेशः—भीम के द्वारा कीचक की हत्या
- कीचकवधः—पुं॰,ष॰त॰—-—कीचक+हन्+अप्, वधादेशः—एक नाटक का नाम
- कीटः—पुं॰—-—कीट्+अच्—कीड़ा
- कीटावपन्न—वि॰—कीटः-अवपन्न—-—कोई वस्तु जिसमें कीड़ा लग गया हो। कीड़े से खाई हुई
- कीटोत्करः—पुं॰—कीटः-उत्करः—-—बमी
- कीटनामा—स्त्री॰—कीट-नामा—-—एक पौधे का नाम
- कीटपादका—स्त्री॰—कीट-पादका—-—एक पौधे का नाम
- कीटपादी—स्त्री॰—कीट-पादी—-—एक पौधे का नाम
- कीटमाता—स्त्री॰—कीट-माता—-—एक पौधे का नाम
- कीनाश—वि॰—-—क्लिश्+कन्, ईत्वं,लस्य लोपो नामागमश्च—धरती जोतने वाला
- कीनाश—वि॰—-—क्लिश्+कन्, ईत्वं,लस्य लोपो नामागमश्च—निर्धन, दरिद्र
- कीनाश—वि॰—-—क्लिश्+कन्, ईत्वं,लस्य लोपो नामागमश्च—गुप्त हत्या
- कीनाश—वि॰—-—क्लिश्+कन्, ईत्वं,लस्य लोपो नामागमश्च—क्रूर
- कीरिभारा—स्त्री॰—-—-—जूँ
- कीर्तनीय—वि॰—-—कृत्+अनीय—स्तुति किये जाने के योग्य,जिसके यश या कीर्ति का गान किया जाय
- कीर्तन्य—वि॰—-—कृत्+अनीय, ण्यत् वा—स्तुति किये जाने के योग्य,जिसके यश या कीर्ति का गान किया जाय
- कीर्तिः—स्त्री॰—-—कृत्+क्तिन्—यश, ख्याति
- कीर्तिः—स्त्री॰—-—कृत्+क्तिन्—कृपा, प्रसाद
- कीर्तिमात्रशेषः—पुं॰—कीर्तिः-मात्रशेषः—-—जो केवल ख्याति या यश के संसार में ही जीवित है, मृत
- कीर्तिस्तम्भः—पुं॰—कीर्तिः-स्तम्भः—-—यश या ख्याति के कृत्य का खम्बा
- कीर्तितव्य—वि॰—-—कृत्+तव्य—जिसकी स्तुती की जाती है।
- कीलः—पुं॰—-— कील+घञ्—जुआरी
- कीलः—पुं॰—-— कील+घञ्—मूठ, दस्ता
- कीलप्रतिकीलन्यायः—पुं॰—-—-—एक न्याय जिसके अनुसार क्रिया एक में रहती है तो प्रतिक्रिया दूसरों में रहती है
- कीलालिन—पुं॰—-—कीलाल+इनि—छिपकिली, गिरगिट
- कीशपर्णः —पुं॰,ब॰स॰—-—-—अपामार्ग नाम का पौधा
- कीशपर्णिन्—पुं॰,ब॰स॰—-—-—अपामार्ग नाम का पौधा
- कु—अ॰—-—कु+डु—बुराई, ह्रास, अवमूल्य, पाप, ओछापन और कमी को प्रकट करने वाला अव्यय
- कुचरः—पुं॰—कु-चरः—-—घूमने वाला
- कुजः—पुं॰—कु-जः—-—मंगल
- कुपुत्रः—पुं॰—कु-पुत्रः—-—मंगल
- कुवलयम्—नपुं॰—कु-वलयम्—-—मण्डल
- कुवाच्—पुं॰—कु-वाच्—-—गीदड़
- कुचोद्यम्—नपुं॰—कु-चोद्यम्—-—शरारत से भरा प्रश्न
- कुतपः—पुं॰—कु-तपः—-—एक प्रकार का कम्बल जो पहाड़ी बकरियों के बालों से बनता है
- कुतपः—पुं॰—कु-तपः—-—दिन का आठवाँ मुहूर्त
- कुतपः—पुं॰—कु-तपः—-—दोहता या भानजा
- कुतपः—पुं॰—कु-तपः—-—सूर्य
- कुद्वारम्—नपुं॰—कु-द्वारम्—-—पिछला दरवाजा
- कुनखम्—नपुं॰—कु-नखम्—-—बुरा नाखून, भोंड़े या मैले नाखून
- कुनीतः—पुं॰—कु-नीतः—-—गलत राय
- कुपटः—पुं॰—कु-पटः—-—चीवर, चिथड़ा
- कुपटम्—नपुं॰—कु-पटम्—-—चीवर, चिथड़ा
- कुपात्रम्—नपुं॰—कु-पात्रम्—-—अयोग्य व्यक्ति
- कुमेरुः—पुं॰—कु-मेरुः—-—दक्षिणी ध्रुवबिन्दु
- कुलक्षण—वि॰—कु-लक्षण—-— खोटे चिह्नों से युक्त
- कुविक्रमः—पुं॰—कु-विक्रमः—-—अस्थानप्रयुक्त शूरवीरता
- कुवेधस्—पुं॰—कु-वेधस्—-—बुरी आदत
- कुकूलाग्निः—पुं॰—-—-—भूसी या बुरादे से निर्मित आग
- कुक्कुटः—पुं॰—-—कुक्+क्विप्, केन कुटति+ कुट्+क—मुर्गा,आग की चिंगारी
- कुक्कुटाण्डम्—नपुं॰—कुक्कुटः-अण्डम्—-—मुर्गी का अण्डा
- कुक्कुटाभः—पुं॰—कुक्कुटः- आभः—-—एक प्रकार का साँप
- कुक्कुटाहिः—पुं॰—कुक्कुटः-अहिः—-—एक प्रकार का साँप
- कुक्कुटासनम्—नपुं॰—कुक्कुटः-आसनम्—-—योग का एक आसन
- कुक्षिगत—वि॰—-—कुक्ष्यां गत इति त॰ स॰—गर्भस्थ
- कुचः—पुं॰—-— कुच्+क—स्तन, उरोज चूची
- कुचकुम्भः—पुं॰—कुच-कुम्भः—-—तरुण युवती के स्तन
- कुचकुड्मलम्—नपुं॰—कुच-कुड्मलम्—-—कली के आकार का स्तन
- कुचकुङ्कुमम्—नपुं॰—कुच-कुङ्कुमम्—-—स्तन पर रोली या केसर का लेप
- कुजाष्टमः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—ग्रहों की विशेष स्थिति जब कि मंगल लग्न से आठवें घर में हो
- कुञ्जरः—पुं॰—-— कुञ्ज+र—हाथी
- कुञ्जरः—पुं॰—-— कुञ्ज+र—सिर
- कुञ्जरः—पुं॰—-— कुञ्ज+र—आभूषण
- कुञ्जरः—पुं॰—-— कुञ्ज+र—आठ की संख्या
- कुञ्जरारिः—पुं॰—कुञ्जरः-अरिः—-—सिंह
- कुञ्जरारोहः—पुं॰—कुञ्जरः-आरोहः—-—महावत
- कुञ्जरच्छायः —पुं॰—कुञ्जरः-च्छायः—-—ज्योतिष का एक योग जिसमें चन्द्रमा मघा नक्षत्र में और सूर्य हस्त नक्षत्र में विराजमान होता है।
- कुटिल—वि॰—-—कुट+इलच्—कपटी, वक्र, टेढ़ा, बेईमान
- कुटिलालकम्—नपुं॰—-—-—टेढ़ी अलकें, टेढ़ी जुल्फें
- कुटिलकुन्तलम्—नपुं॰—-—-—टेढ़ी अलकें, टेढ़ी जुल्फें
- कुटिलचित्तम्—नपुं॰—-—-—कपटपूर्ण मन, टेढा मन
- कुटी—स्त्री॰—-—कुटि+ङीष्—झोपड़ी
- कुटुम्बिनी—स्त्री॰—-—कुटुम्ब+इनि+ङीष्—गृहिणी
- कुटुम्बिनी—स्त्री॰—-—कुटुम्ब+इनि+ङीष्—घर की सेविका या नौकरानी
- कुटुम्बिता—स्त्री॰—-—कुटुम्बिन्+ता—गृहस्थ होने की स्थिति
- कुटुम्बिता—स्त्री॰—-—कुटुम्बिन्+ता—पारिवारिक एकता या सम्बन्ध
- कुटुम्बिता—स्त्री॰—-—कुटुम्बिन्+ता—एक परिवार की भाँति रहना
- कुटुम्बित्वम्—नपुं॰—-—कुटुम्बिन्+त्व—गृहस्थ होने की स्थिति
- कुटुम्बित्वम्—नपुं॰—-—कुटुम्बिन्+त्व—पारिवारिक एकता या सम्बन्ध
- कुटुम्बित्वम्—नपुं॰—-—कुटुम्बिन्+त्व—एक परिवार की भाँति रहना
- कुट्टनम्—नपुं॰—-—कुट्ट्+ल्युट्—काटना
- कुट्टनम्—नपुं॰—-—कुट्ट्+ल्युट्—पीसना
- कुट्टनम्—नपुं॰—-—कुट्ट्+ल्युट्—मुक्का बंद करके मस्तक के दोनों ओर थपथपाना, यह गणेश को प्रसन्न करने का चिह्न है
- कुड्डालः—पुं॰—-—-—कुदाल, मिट्टी खोदने की फाली
- कुणपाशन—वि॰—-—कुणप+अश्+ल्युट्—मुर्दों को खाने वाला
- कुणपी—स्त्री॰—-—कुण्+कपन्+ङीष्—एक छोटा पक्षी
- कुणालः—पुं॰—-—-—एक देश का नाम
- कुण्डः—पुं॰—-—कुण्+ड्—पानी का बर्तन्, पानी का करवा
- कुण्डपाय्यः—पुं॰—कुण्डः-पाय्यः—कुण्डेन पीयते अत्र ऋतौ—एक यज्ञ का नाम
- कुण्डभेदिन्—वि॰—कुण्ड-भेदिन्—-—अनाड़ी, भद्दा, फूहड़
- कुण्डकः—पुं॰—-—कुण्ड+कन्—बर्तन
- कुण्डलिका—स्त्री॰—-—-—कुण्डली, वृत्त
- कुण्डलिन्—वि॰—-—कुण्डल+इनि—गोलाकार
- कुण्डलीन्—पुं॰—-—-—सुनहरा पहाड़
- कुण्डलिनी—स्त्री॰—-—कुण्डलिन्+ङीष्—योगशास्त्र में एक नाड़ी का नाम
- कुण्डिका—स्त्री॰—-—कुण्ड+कन्+टाप्—एक छोटा जोहड़, पोखर
- कुतपसप्तकम्—पुं॰,ष॰त॰—-—-—सात वस्तुएँ जो श्राद्ध के लिए शुभ मानी जाती है- शृङ्गपात्र, ऊर्णावस्त्र,रौप्यधातु, कुशतृण, सवत्सा धेनु, तिल और दौहित्र
- कुतपाष्टकम्—पुं॰,ष॰त॰—-—-—आठ वस्तुएँ जो श्राद्ध के लिए शुभ मानी जाती है- यथा मध्याह्न, शृङ्गपात्र, ऊर्णावस्त्र, रौप्य, दर्भ, सवत्सा धेनु, तिल और दौहित्र
- कुतुकित—वि॰—-—कुतुक+इतच्—उत्सुक, जिज्ञासु
- कुतुकिन्—वि॰—-—कुतुक+इनि—उत्सुक, जिज्ञासु
- कुतृणम्—नपुं॰—-—-—पनीला पौधा
- कुतोनिमित्त—वि॰—-—-—किस कारण या हेतु को लिए हुए
- कुत्सला—स्त्री॰—-—-—नील का पौधा
- कुथकः—पुं॰—-—कुथ्+अच्, स्वार्थे कन्—रंग-बिरंगा कपड़ा
- कुधिः—पुं॰—-—-—उल्लू
- कुन्त्र्—चुरा॰पर॰—-—-—झूठ बोलना
- कुन्ददन्त—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसके दाँत कुन्द फूल की भाँति श्वेत तथा चमकीले हों
- कुपित—वि॰—-—कुप्+क्त—क्रोध दिलाया हुआ, क्रुद्ध, नाराज, क्रोधी
- कुप्यधौतम्—नपुं॰—-—गुप्+क्यप्+कुत्व—चाँदी
- कुबेर—वि॰,ब॰स॰—-—कुत्सितं बेरं शरीरं यस्य—भद्दा, भद्दे अङ्गों वाला
- कुभ्रामि—वि॰—-—-—प्रकाशपरावर्ती
- कुमार्—चुरा॰पर॰—-—-—आग से खेलना
- कुमारः—पुं॰—-—कम्+आरन्, उत् उपधायाः—एक धर्मशास्त्र का प्रणेता
- कुमारम्—नपुं॰—-—-—विशुद्ध सोना
- कुमारदासः—पुं॰—कुमार-दासः—-—‘जानकीहरण’ का प्रणेता, एक कवि का नाम
- कुमारललिता—स्त्री॰—कुमार-ललिता—-—रंगरेली, मृदु कामक्रीडा
- कुमारललिता—स्त्री॰—कुमार-ललिता—-—एक छन्द का नाम जिसके एक चरण में सात मात्राएँ होतीं है
- कुमारसम्भवम्—नपुं॰—कुमार-सम्भवम्—-—कालिदासकृत एक काव्य का नाम
- कुमारिकापुरम्—नपुं॰—-—-—कन्यायों की व्यायामशाला
- कुमालकः—पुं॰—-—-—मालवदेश के एक प्रदेश का नाम
- कुमुदः—पुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—सफेद कमल जो चन्द्रोदय होने पर खिलता कहा जाता है
- कुमुदः—पुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—लाल कमल
- कुमुदः—पुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—विष्णु का विशेषण
- कुमुदः—पुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—कपूर
- कुमुदकम्—नपुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—सफेद कमल जो चन्द्रोदय होने पर खिलता कहा जाता है
- कुमुदकम्—नपुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—लाल कमल
- कुमुदकम्—नपुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—विष्णु का विशेषण
- कुमुदकम्—नपुं॰—-—कौ मोदते इति कुमुदम्—कपूर
- कुमुदानन्द—वि॰—कुमुद-आनन्द—-—चन्द्रमा
- कुमुदसन्ध्या—स्त्री॰—कुमुद-सन्ध्या—-—कमल की सुगन्ध से युक्त महिला
- कुम्पः—पुं॰—-—-—लुंजा, जिसके हाथ विकृत हों
- कुम्बकुरीरः—पुं॰—-—-—स्त्रियों के लिए सिर पर पहनने का वस्त्र
- कुम्भः—पुं॰—-—कु+उम्भ+अच्—घड़ा, जलपात्र
- कुम्भोदरः—पुं॰—कुम्भः-उदरः—-—शिव का एक भूतगण, सेवक
- कुम्भोलूकः—पुं॰—कुम्भः-उलूकः—-—उल्लू का एक भेद
- कुम्भपञ्जरः—पुं॰—कुम्भः-पञ्जरः—-—आला, ताक
- कुम्भिन्—वि॰—-—कुम्भ+इनि—आठ की संख्या
- कुम्भिनी—स्त्री॰—-—कुम्भिन्+ङीप्—पृथ्वी
- कुम्भिनी—स्त्री॰—-—कुम्भिन्+ङीप्—जमालगोटे का पौधा
- कुम्भिनसी—स्त्री॰—-—-—लवणासुर की माता, रावण की बहन
- कुम्भीमुखम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का घाव, व्रण
- कुरङ्गलाञ्छनः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—चन्द्रमा
- कुरुपाञ्चालाः—पुं॰,ब॰व—-—-—एक देश का नाम
- कुरुबिल्वः—पुं॰—-—-—लालमणि, पद्मरागमणि
- कुलम्—नपुं॰—-—कुल्+क—वंश, परिवार
- कुलम्—नपुं॰—-—कुल्+क—समूह
- कुलम्—नपुं॰—-—कुल्+क—रेवड़
- कुलान्तस्था—स्त्री॰—कुलम्-अन्तस्था—-—देवी का विशेषण
- कुलाख्या—स्त्री॰—कुलम्-आख्या—-—पारिवारिक नाम, वंशद्योतक नाम
- कुलापीडः—पुं॰—कुलम्-आपीडः—-—परिवार की कीर्ति या यश
- कुलशेखरः—पुं॰—कुलम्- शेखरः—-—परिवार की कीर्ति या यश
- कुलकरणिः—पुं॰—कुलम्- करणिः—-—आनुवंशिक लेखपाल या अधिकारी
- कुलकलङ्कः—पुं॰—कुलम्- कलङ्कः—-—परिवार के लिए अपयश
- कुलकुण्डालया—स्त्री॰—कुलम्- कुण्डालया—-—कौलवृत्त में स्थित, देवी का एक नाम
- कुलगरिमा—पुं॰—कुलम्- गरिमा—-—कुल का गौरव या मर्यादा
- कुलजाया—स्त्री॰—कुलम्- जाया—-—उच्चकुल में उत्पन्न महिला
- कुलदूषण—वि॰—कुलम्- दूषण—-—अपने परिवार को बदनाम करने वाला
- कुलनाशन—वि॰—कुलम्- नाशन—-—परिवार को नष्ट करने वाला
- कुलपांसनः—पुं॰—कुलम्- पांसनः—-—जो अपने कुल को कलङ्कित करता है
- कुलपालकम्—नपुं॰—कुलम्- पालकम्—-—सन्तरा, नारङ्गी
- कुलभरः—पुं॰—कुलम्- भरः—-—परिवार का पालनपोषण करने वाला
- कुलबीजः—पुं॰—कुलम्- बीजः—-—शिल्पी संघ का मुखिया
- कुलमार्गः—पुं॰—कुलम्- मार्गः—-—कौलों का सिद्धान्त
- कुलसन्निधिः—पुं॰—कुलम्- सन्निधिः—-—आदरणीय साक्षी की उपस्थिति
- कुलमतिका—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की दरियाँ
- कुलिकः—पुं॰—-—कुल्+ठन्—एक काँटेदार पौधा ‘मान्दि’
- कुलिकः—पुं॰—-—कुल्+ठन्—शिकारी
- कुली—स्त्री॰—-—-—परिवारों का समूह
- कुला—स्त्री॰—-—-—लाल रंग का संखिया, मनसिल
- कुलाटः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की मछली
- कुलालचक्रम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—कुम्हार का चाक
- कुलिङ्गः—पुं॰—-—कु+लिङ्ग+अच्—साँप
- कुलिङ्गः—पुं॰—-—कु+लिङ्ग+अच्—हाथी
- कुल्फः—वेद॰—-—-—टखना
- कुल्फदघ्न—वि॰—कुल्फः-दघ्न—-—टखने तक गहरा
- कुल्माषः—पुं॰,ब॰स॰—-— —खिचड़ी जिसमें आधे उबले चावल और दाल हो
- कुल्माषः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का रोग
- कुल्लूकः—पुं॰—-—-—मनुस्मृति का एक टीकाकार
- कुशी—स्त्री॰—-—कुश्+ङीष्—गूलर की लकड़ी का टुकड़ा जो स्तोत्र के अन्तर्गत साम मंत्रों की संख्या गिनने के नाम आता है
- कुशमुष्टिः—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—मुट्ठी भर ‘कुश’ घास
- कुशिकाः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—कुशिक मुनि की सन्तान
- कुशेशयनिवेशिनी—स्त्री॰—-—-—लक्ष्मी देवी
- कुष्ठः—पुं॰—-—कुष्+क्थन्—कूल्हे में पड़ा गड्ढा
- कूष्माण्डहोमः—पुं॰—-—-—किसी भी बड़े धार्मिक आयोजन से पूर्व किया जाने वाला हवन
- कुसुमम्—नपुं॰—-—कुस्+उम—फूल
- कुसुमम्—नपुं॰—-—कुस्+उम—फल
- कुसुमाञ्जलिः—स्त्री॰—कुसुमम्-अञ्जलिः—-—उदयनाचार्य की एक रचना
- कुसुमद्रुम—पुं॰—कुसुमम्-द्रुमः—-—फूलों से भरपूर वृक्ष
- कुसुमन्धयः—पुं॰—कुसुमम्-धयः—-—मधुमक्खी
- कुसुमयति—कुसुम-ना॰धा॰,लट्—-—-—फूल उत्पन्न करता है, या फूलों से सजाता है।
- कुस्तुम्बरी—स्त्री॰—-—-—एक पौधे का नाम
- कुहकवृत्तिः—स्त्री॰—-—-—धूर्तता, चालाकी
- कुहूकालः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—चान्द्रमास का अन्तिम दिन जबकि चन्द्रमा अदृश्य होता है।
- कुहूमुखः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—भारतीय कोयल
- कुहूमुखः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—संकट
- कुहूमुखम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—नयाचाँद
- कुह्वानम्—नपुं॰—-—कु+ह्वै+ल्युट्—अमंगल ध्वनि
- कूटम्—नपुं॰—-—कूट्+अच्—खोटा सिक्का
- कूटरचना—स्त्री॰—कूटम्-रचना—-—चाल, दाव पेंच
- कूटलेखः—पुं॰—कूटम्-लेखः—-—बनावटी या जाली दस्तावेज
- कूटसङ्क्रान्तिः—स्त्री॰—कूटम्-सङ्क्रान्तिः—-—आधीरात बीतने पर जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि पर संक्रमण करता है
- कूटहेमन्—पुं॰—कूटम्-हेमन्—-—खोटा सोना
- कूपः—पुं॰—-—कु+पक्, दीर्घश्च—कुआँ
- कूपः—पुं॰—-—कु+पक्, दीर्घश्च—छिद्र यथा रोमकूप
- कूपः—पुं॰—-—कु+पक्, दीर्घश्च—जड़
- कूपकारः—पुं॰—कूपः-कारः—-—कुआँ खोदने वाला
- कूपखनकः—पुं॰—कूपः-खनकः—-—कुआँ खोदने वाला
- कूपचक्रम्—नपुं॰—कूपः-चक्रम्—-—पानी का चक्र या पहिया
- कूपदण्डः—पुं॰—कूपः-दण्डः—-—मस्तूल
- कूपस्थानम्—नपुं॰—कूपः-स्थानम्—-—कुएं का स्थान
- कूबरस्थानम्—नपुं॰,त॰स॰—-—-—गाड़ी में बैठने का स्थान
- कूर्मः—पुं॰—-—कौ जले ऊर्मिवेगोऽस्य+ पृषो॰—कछुवा
- कूर्मासनः—पुं॰—कूर्मः-आसनः—-—योग की एक विशेष मुद्रा
- कूर्मद्वादशी—स्त्री॰—कूर्मः-द्वादशी—-—पौषमास के शुक्लपक्ष का ग्यारहवाँ दिन
- कूर्मपुराणम्—नपुं॰—कूर्मः-पुराणम्—-—एक पुराण का नाम
- कूर्मक—वि॰—-—-—कछुवे जैसा बना हुआ
- कूर्मिका—स्त्री॰—-—कूर्म+कन्+स्त्रियां टाप्, उपधाया इत्वम्—एक वाद्ययन्त्र
- कूलिका—स्त्री॰—-—कूल+कन्+टाप्, इत्वम्—वीणा का निचला भाग
- कृ—तना॰उभ॰—-—-—एकत्र करना, लेना
- कृकरच्छटः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—आरा
- कृकलः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का तीतर
- कृकलः—पुं॰—-—-—पाँचों प्राणों में से एक
- कृच्छ्र—वि॰—-—कृती+छ+रक्—कष्टप्रद, दुःखदायी
- कृच्छ्रार्धः—पुं॰—कृच्छ्र-अर्धः—-—केवल छः दिन तक रहए वाली तपश्चर्या
- कृच्छ्रकृत्—वि॰—कृच्छ्र-कृत्—-—तपस्वी
- कृच्छ्रसन्तपनम्—नपुं॰—कृच्छ्र-सन्तपनम्—-—एक प्रकार का प्रायश्चित्तपरक ब्रत
- कृतम्—नपुं॰—-—कृ+क्त—जादू, टोना
- कृतार्थ—वि॰,ब॰स॰—कृतम्-अर्थ—-—जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है, अतः अब और कुछ करने में असमर्थ है
- कृतकर—वि॰—कृतम्-कर—-—किए हुए कार्य को करने वाला, निरर्थक
- कृतकारिन्—वि॰—कृतम्-कारिन्—-—किए हुए कार्य को करने वाला, निरर्थक
- कृततीर्थ—वि॰—कृतम्-तीर्थ—-—जिसने सुगम या आसान बना दिया
- कृतदार—वि॰—कृतम्-दार—-—विवाहित
- कृतदूषणम्—नपुं॰—कृतम्-दूषणम्—-—किये हुए को खराब करना
- कृतमन्यु—वि॰—कृतम्-मन्यु—-—क्रुद्ध, नाराज
- कृतमालः—पुं॰—कृतम्-मालः—-—चितकबरा, बारहसिंगा, कृष्णहरिण
- कृतविद्—वि॰—कृतम्-विद्—-—कृतज्ञ
- कृतश्मश्रुः—पुं॰—कृतम्-श्मश्रुः—-—जिसने मूछें भी साफ़ करा ली है
- कृतसंस्कारः—पुं॰—कृतम्-संस्कारः—-—जिसने शोधनात्मक सब प्रक्रियाएँ पूरी कर ली है
- कृतसंस्कारः—पुं॰—कृतम्-संस्कारः—-—सज्जित, तैयार
- कृतवत्—वि॰—-—कृत+मतुप्—जिसने कार्य करा लिया है
- कृतिः—स्त्री॰—-—कृ+क्तिन्—वर्गद्योतक संख्या
- कृतिः—स्त्री॰—-—कृ+क्तिन्—क्रिया
- कृतिः—स्त्री॰—-—कृ+क्तिन्—चाकू
- कृतिः—स्त्री॰—-—कृ+क्तिन्—जागूगरनी
- कृतिसाध्यत्वम्—नपुं॰—कृतिः-साध्यत्वम्—-—प्रयत्न करके संपन्न होने की स्थिति
- कृत्यम्—नपुं॰—-—कृ+क्यप्—जो किया जाना चाहिए, कर्तव्य
- कृत्यम्—नपुं॰—-—कृ+क्यप्—कार्य
- कृत्यम्—नपुं॰—-—कृ+क्यप्—प्रयोजन
- कृत्याकृत्यम्—नपुं॰—कृत्यः-अकृत्यम्—-—कर्तव्य अकर्तव्य में (विवेक करना)
- कृत्यविधिः—पुं॰—कृत्यः-विधिः—-—नियम, उपदेश
- कृत्यशेष—वि॰—कृत्यः-शेष—-—जिसने अपना कार्य पूरा नहीं किया है
- कृत्यम्—नपुं॰—-—कृ+यत्—वास्तुकार का एक उपकरण
- कृत्यवत्—वि॰—-—कृत्य+मतुप्—जिसके पास करने के लिए कार्य है
- कृत्यवत्—वि॰—-—कृत्य+मतुप्—जिससे कोई प्रार्थना की गई है
- कृत्यवत्—वि॰—-—कृत्य+मतुप्—चाहने वाला, प्रबल इच्छुक
- कृन्तनिका—स्त्री॰—-—कृन्त्+ल्युट्=कृन्तनं, स्वार्थे कन्, इत्वम्—एक छोटा चाकू
- कृत्वाचिन्ता—स्त्री॰—-—-—प्राक्कल्पनापरक बात पर विचारविमर्श करना
- कृपाकरः—पुं॰—कृपा-आकरः—-—अत्यन्त कृपालु
- कृपासागरः—पुं॰—कृपा-सागरः—-—अत्यन्त कृपालु
- कृपासिन्धुः—पुं॰—कृपा-सिन्धुः—-—अत्यन्त कृपालु
- कृश—वि॰—-—कृश्+क्त, नि॰—दुर्बल, बलहीन
- कृश—वि॰—-—कृश्+क्त, नि॰—नगण्य
- कृश—वि॰—-—कृश्+क्त, नि॰—निर्धन
- कृश—वि॰—-—कृश्+क्त, नि॰—तुच्छ
- कृशातिथि—वि॰—कृश-अतिथि—-—जो अपने अतिथियों को भूखा रखता है
- कृशगवः—पुं॰—कृश-गवः—-—जिसकी गौवें भूखी रहती हैं।
- कृशभृत्यः—पुं॰—कृश-भृत्यः—-—जिसके नौकर भूखे रहते हैं।
- कृशानुयन्त्रम्—नपुं॰—-—-—तोप
- कृष्—तुदा॰पर॰—-—-—खुरचना, विरेखण करना
- कृषिद्विष्टः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का चिड़ा
- कृषिपाराशरः —पुं॰—-—-—कृषि शास्त्र पर एक संग्रह ग्रंथ
- कृषिसंग्रहः—पुं॰—-—-—कृषि शास्त्र पर एक संग्रह ग्रंथ
- कृष्ण—वि॰—-—कृष्+नक्—काला
- कृष्ण—वि॰—-—कृष्+नक्—दुष्ट
- कृष्ण—वि॰—-—कृष्+नक्—शूद्र
- कृष्ण—वि॰—-—कृष्+नक्—भलावां (रीठा) जिससे धोबी कपड़ों पर चिह्न लगाता है
- कृष्णकञ्चुकः—पुं॰—कृष्ण-कञ्चुकः—-—काले चने
- कृष्णच्छविः—स्त्री॰—कृष्ण-च्छविः—-—बारहसिंगा की खाल
- कृष्णच्छविः—स्त्री॰—कृष्ण-च्छविः—-—काला बादल
- कृष्णतालुः—पुं॰—कृष्ण-तालुः—-—एक प्रकार का घोड़ा जिसका तालु काला होता है
- कृष्णद्वादशी—स्त्री॰—कृष्ण-द्वादशी—-—आषाढ़ कृष्णपक्ष में बारहवाँ दिन
- कृष्णबीजम्—नपुं॰—कृष्ण-बीजम्—-—तरबूज
- कृष्णभस्मन्—पुं॰—कृष्ण-भस्मन्—-—पारदशुल्बीय
- कृष्णमृत्तिका—स्त्री॰—कृष्ण-मृत्तिका—-—काली मिट्टी
- कृष्णमृत्तिका—स्त्री॰—कृष्ण-मृत्तिका—-—बारूद
- कृष्णा—स्त्री॰—-—-—यमुना नदी
- क्लृप्—प्रेर॰—-—-—ग्रहण करना, स्वीकार करना
- केतुमालः—पुं॰—-—-—जम्बू द्वीप का पश्चिमी भाग
- केतुमालम्—नपुं॰—-—-—जम्बू द्वीप का पश्चिमी भाग
- केदारः—पुं॰,ब॰स॰—-—केन जलेन दारोऽस्य —संगीतशास्त्र में एक राग का नाम
- केदारकः—पुं॰—-—केदार+स्वार्थे कन्—चावलों का खेत
- केन्द्रम्—नपुं॰—-—-—जन्मकुण्डली में पहला, चौथा, सातवाँ एवं दसवाँ स्थान
- केरलजातकम्—नपुं॰—-—-—ग्रन्थों के नाम
- केरलतन्त्रम्—नपुं॰—-—-—ग्रन्थों के नाम
- केरलमाहात्म्यम्—नपुं॰—-—-—ग्रन्थों के नाम
- केरलसिद्धान्तः—पुं॰—-—-—ग्रन्थों के नाम
- केलिः—पुं॰स्त्री॰—-—केल्+इन्—हँसीमजाक, दिल्लगी, रंगरेली
- केलिकलहः—पुं॰—केलिः-कलहः—-—हँसीमजाक में झ्गड़ा
- केलिपल्लवम्—नपुं॰—केलिः-पल्लवम्—-—आमोद सरोवर
- केलिवनम्—नपुं॰—केलिः-वनम्—-—प्रमोदवनम्
- केवलव्यतिरेकिन्—पुं॰—-—-—न्याय सिद्धान्त के अनुसार अनुमान के केवल एक प्रकार से संबन्ध रखने वाला
- केवलाद्वैतम्—नपुं॰—-—-—दर्शन शास्त्र की एक शाखा
- केवलिन्—वि॰—-—-—जिसने उच्चतम ज्ञान प्राप्त कर लिया है
- केशः—पुं॰—-—क्लिश्+अन् लो लोपश्च—बालक
- केशः—पुं॰—-—क्लिश्+अन् लो लोपश्च—सिर के बाल
- केशाकर्षणम्—नपुं॰—केशः-आकर्षणम्—-—चुटिया पकड़ कर किसी महिला को खीचना एवं उसका अपमान करना
- केशकारम्—नपुं॰—केशः-कारम्—-—एक प्रकार का गन्ना
- केशकारिन्—वि॰—केशः-कारिन्—-—जो बालों को संवारता है
- केशग्रन्थिः—स्त्री॰—केशः-ग्रन्थिः—-—चुटिया वेणी
- केशधारणम्—नपुं॰—केशः-धारणम्—-—बाल रखना
- केशलुञ्चकः—पुं॰—केशः-लुञ्चकः—-—एक जैन साधु का नाम
- केशवपनम्—नपुं॰—केशः-वपनम्—-—बाल कटवाना, मुण्डन कराना
- केशव्यरोपणम्—नपुं॰—केशः-व्यरोपणम्—-—अपमान के चिह्नस्वरूप किसी दूसरे की चुटिया पकड़ना
- केशवस्वामिन्—पुं॰—-—-—एक वैयाकरण का नाम
- केश्य—वि॰—-—केश्+य—बालों की वृद्धि के अनुकूल
- केश्य—वि॰—-—केश्+य—बालों में लगाया हुआ
- केश्यम्—नपुं॰—-—-—सार्वजनिक निन्दा, बदनामी, लोकापवाद
- केसराल—वि॰—-—केसर+आलच्—अयाल से समृद्ध, तन्तुबाहुल्य से युक्त
- केसरिणी—स्त्री॰—-—केसर+इनि, स्त्रियां ङीप्—सिंहिनी, शेरनी
- कैमर्थक्यम्—नपुं॰—-—किमर्थक+ष्यञ्—प्रयोजन का अभाव
- कैमर्थ्यम्—नपुं॰—-—किमर्थ+ष्यञ्—कारण, प्रयोजन
- कैयटः—पुं॰—-—-—पतंजलिकृत महाभाष्य के टीकाकार वैयाकरण का नाम
- कैलातकम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का शहद, शराब
- कैशोरवयस्—वि॰,ब॰स॰—-—-—कुमार, किशोरावस्था का बालक
- कोकडः—पुं॰—-—-—भारतीय लोमड़
- कोकथुः—पुं॰—-—-—वनकपोत, जंगली कबूतर
- कोकनदिनी—स्त्री॰—-—कोकनद+इनि+ङीप्—लाल कमल
- कोकिलकः—पुं॰—-—-—एक छन्द का नाम
- कोटपः—पुं॰—-—-—किले का संरक्षक, गढ़नायक
- कोटपालः—पुं॰—-—-—किले का संरक्षक, गढ़नायक
- कोटिः—स्त्री॰—-—कुट्+इञ्—असंख्य, अगणित
- कोटिहोमः—पुं॰—कोटिः-होमः—-—एक प्रकार का यज्ञीय अनुष्ठान
- कोणवृत्तम्—नपुं॰—-—-—उत्तरपूर्व से लेकर दक्षिण पश्चिम तक फैला हुआ शीर्षवृत्त या इसके विपरीत
- कोन्वशिरः—पुं॰—-—-—वह क्षत्रिय जिसको ब्राह्मण ने शूद्र हो जाने का शाप दे दिया है
- कोपजन्मन्—वि॰,ब॰स॰—-—-—क्रोध से उत्पन्न
- कोपारुण—वि॰,ब॰स॰—-—-—क्रोध के कारण लाल
- कोमल—वि॰—-—कु+कलच्, मुट्, नि॰ गुणः—मुलायम नरम
- कोमलम्—नपुं॰—-—-—रेशम
- कोमला—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का छुआरा
- कोरकित—वि॰—-— कोरक+इतच्—कलियों से आच्छादित
- कोलकम्—नपुं॰—-—कुल्+अच्, स्वार्थे कन्—एक प्रकार का गाँव
- कोलकम्—नपुं॰—-—कुल्+अच्, स्वार्थे कन्—एक प्रकार का गढ़
- कोलकम्—नपुं॰—-—कुल्+अच्, स्वार्थे कन्—वे फलादिक जो नींव के गर्त में प्रयुक्त होते हैं।
- कोशः—पुं॰—-—कुश्+घञ्, अच् वा—कमल का परिच्छद
- कोशः—पुं॰—-—कुश्+घञ्, अच् वा—माँस का टुकड़ा
- कोशः—पुं॰—-—कुश्+घञ्, अच् वा—वह प्याला जिसमें युद्धविराम के सन्धिपात्र को सत्यांकित करने के चिह्न स्वरूप पेय पदार्थ उडेला जाता है
- कोशवेश्मन्—पुं॰—कोशः-वेश्मन्—-—कोशागार
- कोशातकः—पुं॰—-—कोश्+अत्+क्वुन्—बाल
- कोष्ठीकु—तना॰उभ॰—-—-—घेरना, घेरा डालना
- कोहल—वि॰—-— कौ हलति स्पर्धते अच् पृषो॰—अस्पष्ट बोलने वाला
- कोहलः—पुं॰—-—-—एक प्राकृत भाषा के वैयाकरण का नाम
- कौचपक—वि॰—-—-—एक प्रकार की दरी
- कौज—वि॰—-— कुज+ठक्—कुज अर्थात् मंगल से संबध रखने वाला
- कौट्टन्यम्—नपुं॰—-— कुट्टनी+ष्यञ्—कुट्टनी के द्वारा युवतियों को दुराचरण में प्रवृत्त कराना
- कौडिन्यः—पुं॰—-— कुण्डिन+ष्यञ्—एक ऋषि का नाम
- कौतुकवत्—अ॰—-—कुतुक+अण्,मतुप्—जिज्ञासा के रूप में
- कौथुमः—पुं॰—-—-—सामवेद की एक शाखा का नाम
- कौथुमः—पुं॰—-—-—इस शाखा का अनुयायी ब्राह्मण
- कौमार—वि॰—-—कुमार+अण्—मुख्य सृष्टि, मुख्य अवतार
- कौमारतन्त्रम्—नपुं॰—कौमार-तन्त्रम्—-—आयुर्वेद शास्त्र का एक अनुभाग जिसमें बच्चों के पालनपोषण का वर्णन है
- कौमारव्रतम्—नपुं॰—कौमार-व्रतम्—-—ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना
- कौर्णेयः—पुं॰—-—-—राक्षस
- कौर्णेयः—पुं॰—-—-—वायु
- कौर्णेयः—पुं॰—-—-—शिव
- कौर्णेयः—पुं॰—-—-—अग्नि
- कौर्णेयः—पुं॰—-—-—तपस्या में संलग्न
- कौलमार्गः—पुं॰,ष॰त॰—-—कुल+अण्+मृग+घञ्—कौलों का सिद्धहस्त
- कौलालः—पुं॰—-—कुलाल+अण्,स्वार्थे—कुम्हार
- कौविन्दी—स्त्री॰—-—कुविन्द+अण्, स्त्रियां ङीप्—जुलाहे की स्त्री
- कौशिकः—पुं॰—-—कुश्+ठञ्—गोंद गुग्गुल, बैरोजा
- कौशीतकी—स्त्री॰—-—-—अगस्त्य मुनि की पत्नी
- कौषीतकम्—नपुं॰—-—-—एक ब्राह्मण ग्रन्थ का नाम
- कौषीतकि —नपुं॰—-—-—एक ब्राह्मण ग्रन्थ का नाम
- कौस्तुभः—पुं॰—-—कुस्तुभ+अण्—घोड़े की गर्दन पर बालों का गुच्छा, अयाल
- क्रकरटः—पुं॰—-—-—लवा, चंडूल (पक्षी)
- क्रत्वर्थः—पुं॰,त॰स॰—-—-—यज्ञ के प्रयोजन को पूरा करने के लिए साधनभूत सामग्री
- क्रतुफलम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—यज्ञ का फल
- क्रद्—भ्वा॰आ॰—-—-—घबरा जाना
- क्रद्—भ्वा॰आ॰—-—-—दुःखी होना
- क्रप्—चुरा॰पर॰<क्रापयति>—-—-—स्पष्ट रूप से बोलना
- क्रमः—पुं॰—-—क्रम्+घञ्—पग, कदम
- क्रमः—पुं॰—-—क्रम्+घञ्—पैर
- क्रमः—पुं॰—-—क्रम्+घञ्—गति,चाल
- क्रमभाविन्—वि॰—क्रमः-भाविन्—-—उत्तरोत्तर, क्रमिक
- क्रममाला—स्त्री॰—क्रमः-माला—-—वेद पाठ करने की नाना प्रणालियाँ
- क्रमरेखा—स्त्री॰—क्रमः-रेखा—-—वेद पाठ करने की नाना प्रणालियाँ
- क्रमशिखा—स्त्री॰—क्रमः-शिखा—-—वेद पाठ करने की नाना प्रणालियाँ
- क्रमयोगेन—अ॰—क्रमः-योगेन—-—नियमित ढंग से
- क्रियमाणकम्—नपुं॰—-—कृ+कर्मणि यक्+शानच्, स्वार्थे कन्—साहित्यिक निबन्ध
- क्रिया—स्त्री॰—-—कृ+श्, रिङ् आदेशः,इयङ्—संरचना, कर्म
- क्रियार्थ—वि॰—क्रिया-अर्थ—-—वैदिक निषेध जिसके द्वारा किसी कर्तव्य में लगने का निर्देश किया जाता है
- क्रियार्थ—वि॰—क्रिया-अर्थ—-—किसी कार्य के लिए उपयोगी
- क्रियारम्भः—पुं॰—क्रिया-आरम्भः—-—पकाना
- क्रियातन्त्रम्—नपुं॰—क्रिया-तन्त्रम्—-—चार तन्त्रों में से एक
- क्रयविक्रयिन्—वि॰—-—क्रयविक्रय+इनि—जो कम मूल्य पर वस्तु खरीद कर अधिक मूल पर बेच देता है, सौदा करने वाला
- क्रीडनकतया—अ॰—-—क्रीड्+ल्युट्, स्वार्थे कन्, तस्य भावः तल्—किसी बात को खेल की वस्तु की भाँति ग्रहण करना
- क्रीडा—स्त्री॰—-—क्रीड्+अ+टाप्—संगीत में एक प्रकार की माप
- क्रीडा—स्त्री॰—-—क्रीड्+अ+टाप्—खेल का मैदान
- क्रीडापरिच्छदः—पुं॰—क्रीडा-परिच्छदः—-—खिलौना
- क्रीडितम्—नपुं॰—-—क्रीड्+क्त—खेल
- क्रोधः—पुं॰—-—क्रुध्+घञ्—रहस्यपूर्ण अक्षर ‘हुम्’ या ‘ह्रुम्’
- क्रोधः—पुं॰—-—क्रुध्+घञ्—संवत्सरचक्र में ५९ वाँ वर्ष (क्रोधन भी)
- क्रोशः—पुं॰—-—क्रुश्+घञ्—४८ मिनट का समय
- क्रूर—वि॰—-—कृत्+रक्, धातोः क्रूः—कठोर, कड़ा
- क्रूर—वि॰—-—कृत्+रक्, धातोः क्रूः—निर्दय
- क्रूर—वि॰—-—कृत्+रक्, धातोः क्रूः—कर्कशध्वनि
- क्रूरम्—नपुं॰—-—-—उग्रता के साथ
- क्रूरचरित—वि॰—क्रूर-चरित—-—दारुण, भयानक
- क्रोडकान्ता—स्त्री॰—-—-—पृथ्वी, धरती
- क्रोडीकृ—तना॰उभ॰—-—क्रोड+च्वि+कृ—गले लगाना, आलिङ्गन करना
- क्रौड—वि॰—-—क्रोड+अण्—सूअर से संबंध रखने वाला
- क्रौड—वि॰—-—क्रोड+अण्—वराह अवतार से सम्बन्ध रखने वाला
- क्लान्तमनम्—वि॰,ब॰स॰—-—-—निढाल, स्फूर्तिहीन
- क्लेदित—वि॰—-—क्लिद्+णिच्+क्त—मलिन, दूषित
- क्लिश्नस्—वि॰—-—क्लिश्+ना+शतृ—हटाता हुआ, दूर करता हुआ
- क्लिष्ट—वि॰—-—क्लिश्+क्त—दुःखदायी, कष्टकर
- क्लिष्टा—स्त्री॰—-—-—पातञ्जल योगशास्त्र में बताई हुई चित्तवृत्ति का एक भेद
- क्वाणः—पुं॰—-—क्वण्+घञ्—ध्वनि, स्वन
- क्वथित—वि॰—-—क्वथ्+क्त—उबाला हुआ
- क्वथित—वि॰—-—क्वथ्+क्त—गर्म
- क्वथितम्—नपुं॰—-—-—मादक शराब
- क्षणः—पुं॰—-—क्षण्+अच्—निर्णय, सङ्कल्प
- क्षणम्—नपुं॰—-—क्षण्+अच्—निर्णय, सङ्कल्प
- क्षणार्धम्—नपुं॰—क्षण-अर्धम्—-—आधा मिनट
- क्षणभङ्गुवादः—पुं॰—क्षण-भङ्गुवादः—-—बौद्धों का एक सिद्धान्त जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु लगातार क्षीण होती रहती है
- क्षणवीर्यम्—नपुं॰—क्षण-वीर्यम्—-—शुभसमय
- क्षणेपाकः—अलु॰स॰—-—-—एक मिनट में पकी हुई वस्तु
- क्षतास्रवम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—रुधिर, शोणित
- क्षतिः—स्त्री॰—-—क्षण्+क्तिन्—मृत्यु, निधन
- क्षत्तृ—पुं॰—-—क्षद्+तृच्—रक्षक
- क्षत्रविद्या—स्त्री॰—-—-—युद्धकला, युद्धशास्त्र
- क्षत्रवेदः—पुं॰—-—-—युद्धकला, युद्धशास्त्र
- क्षमापनम्—ना॰धा॰—-—क्षमा ,णिच्+ल्युट्—क्षमा मांगना
- क्षमापनस्तोत्रम्—नपुं॰—क्षमापनम्-स्तोत्रम्—-—क्षमा मांगते समय स्तुतिगान
- क्षम्य—वि॰—-—क्षमा+य—पृथ्वी में होने वाला, भौमिक, पार्थिव (वेद॰)
- क्षारक्षत—वि॰त॰स॰—-—-—यवक्षार से दुष्प्रभावित
- क्षाराष्टकम्—नपुं॰—-—-—आयुर्वेदिक आठ द्रव्यों का संग्रह इसी प्रकार (क्षारषट्क, तथा क्षारपञ्चक
- क्षा—स्त्री॰—-—-—पृथ्वी, धरती
- क्षा—स्त्री॰—-—-—निद्रा, नींद
- क्षाणम्—नपुं॰—-—-—जलना,जला हुआ स्थान
- क्षामेष्टिन्यायः—पुं॰—-—-—मीमांसा का एक नियम जिसके अनुसार निमित्त को दर्शाने वाले हेतुमत्कारण की रचना इस प्रकार की जाय जिससे कि इसमें नित्य या अनिवार्य परिस्थिति को दूर रक्खा जा सके
- क्षयतिथिः—स्त्री॰—-—-—सूर्योदय से न आरम्भ होने वाला चान्द्रदिवस
- क्षयाहः—पुं॰—-—-—सूर्योदय से न आरम्भ होने वाला चान्द्रदिवस
- क्षयमासः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—वह मास जिसमें दो संक्रान्तियाँ आ पड़ें, और जो किसी मंगल या धार्मिक काल के लिए शुभ न माना जाता हो
- क्षयोपशमः—पुं॰,त॰स॰—-—-—सक्रिय रहने या होने की इच्छा को सर्वथा नष्ट करने की जैनियों की संकल्पना
- क्षितिः—स्त्री॰—-—क्षि+क्तिन्—समृद्धि
- क्षितिक्षमा—स्त्री॰—क्षितिः-क्षमा—-—धरती की भाँति सहनशील
- क्षितिस्पर्शः—पुं॰—क्षितिः-स्पर्शः—-—धरती छूना
- क्षितिस्पृश्—वि॰—क्षितिः-स्पृश्—-—पृथ्वी या धरती का वासी, भूमि पर रहने वाला
- क्षीणता—स्त्री॰—-— क्षि+क्त+तल् स्त्रियां टाप्—क्षय, कृशता तथा बलहीनता की दशा
- क्षिप्—तु॰उभ॰—-—-—शीघ्रता से चलना
- क्षिप्—तु॰उभ॰—-—-—मर जाना
- क्षिप्—तु॰उभ॰—-—-— (गणित) जोड़ना
- क्षिप्त—वि॰—-—क्षिप्+क्त—फेंका गया, बखेरा गया
- क्षिप्त—वि॰—-—क्षिप्+क्त—परित्यक्त
- क्षिप्त—वि॰—-—क्षिप्+क्त—उपेक्षित
- क्षिप्तोत्तरम्—नपुं॰—क्षिप्त-उत्तरम्—-—ऐसा भाषण जो उत्तर के योग्य न हो
- क्षिप्तयोनिः—स्त्री॰—क्षिप्त-योनिः—-—नीच जाति में उत्पन्न
- क्षिप्तिः—स्त्री॰—-—क्षिप्+क्तिन्—रहस्य का भंडाफोड़ (नाटक में)
- क्षिप्रनिश्चय—वि॰ब॰स॰—-—-— जो शीघ्र ही निश्चय कर लेता है
- क्षिप्रसन्धिः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की सन्धि जो दो सहवर्ती स्वरों में से पहले को अर्धस्वर में बदल कर हो सकती है।
- क्षेपणिकः—पुं॰—-—क्षेपण+ठञ्—मल्लाह, नाविक
- क्षीरः—पुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—दूध
- क्षीरः—पुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—रस
- क्षीरः—पुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—पानी
- क्षीरम्—नपुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—दूध
- क्षीरम्—नपुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—रस
- क्षीरम्—नपुं॰—-—घस्+ईरन् उपधालोपः घस्य ककारः षत्वं च—पानी
- क्षीरोत्तरा—स्त्री॰—क्षीरम्-उत्तरा—-—जमाया हुआ दूध
- क्षीरोत्थम्—नपुं॰—क्षीरम्-उत्थम्—-—ताजा मक्खन
- क्षीरकुण्डलम्—नपुं॰—क्षीरम्-कुण्डलम्—-—दुग्धपात्र
- क्षीरव्रतम्—नपुं॰—क्षीरम्-व्रतम्—-—प्रतिज्ञा के फलस्वरूप केवल दूध पीकर निर्वाह करना
- क्षीरस्यति—ना॰धा॰पर॰—-—-—दूध की इच्छा करना
- क्षु—क्रया॰उभ॰—-—-—कूदना, उछलना
- क्षुद्र—वि॰—-—क्षुद्+रक्—छोटा
- क्षुद्र—वि॰—-—क्षुद्+रक्—सामान्य
- क्षुद्र—वि॰—-—क्षुद्+रक्—तुच्छ
- क्षुद्र—वि॰—-—क्षुद्+रक्—क्रूर
- क्षुद्र—वि॰—-—क्षुद्+रक्—गरीब
- क्षुद्रपदम्—नपुं॰—क्षुद्र-पदम्—-—लम्बाई नापने का एक गज
- क्षुद्रशार्दूलः—पुं॰—क्षुद्र-शार्दूलः—-—चीता
- क्षुद्रकः—पुं॰—-—क्षुद्र+कन्—जो तिरस्कार करता है
- क्षुद्रकः—पुं॰—-—क्षुद्र+कन्—एक प्रकार का बाण
- क्षोदः—पुं॰—-—क्षुद्+घञ्—बूँद
- क्षोदः—पुं॰—-—क्षुद्+घञ्—लौंदा, टुकड़ा
- क्षोदः—पुं॰—-—क्षुद्+घञ्—गौणा
- क्षुधाशान्तिः —स्त्री॰—-—-—भूख शान्त करना
- क्षुद्शान्तिः—स्त्री॰—-—-—भूख शान्त करना
- क्षुन्द्—भ्वा॰आ॰—-—-—कूदना
- क्षुरनक्षत्रम्—नपुं॰—-—-—जो क्षौरकर्म, या हजामत बनवाने के लिए शुभनक्षत्र हो
- क्षेत्रलिप्ता—स्त्री॰,ष॰त॰—-—-—क्रान्तिवृत्त की कला
- क्षेत्रांशः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—क्रान्तिवृत्त का अंश या घात
- क्षेमेन्द्रः—पुं॰—-—-—बृहत्कथामंजरी का प्रणेता एक कश्मीरी कवि
- क्षौद्रक्यम्—नपुं॰—-—क्षुद्रक+ष्यञ्—सूक्ष्मता
- क्षौरपव्यम्—नपुं॰—-—-—मजबूती से बनाया गया भवन
- क्ष्मावलयः—ष॰त॰—-—-—क्षितिज
- खसूचिः—पुं॰,स्त्री॰—-—-—तिरस्कारसूचक अभिख्या
- खजिका—स्त्री॰—-—-—भूख लगाने वाली औषधि
- खट्टकः—पुं॰—-—खट्ट+अच्, स्वार्थे कन्—खाट, आसन
- खड्गः—पुं॰—-—खड्+गन्—तलवार
- खड्गधारा—स्त्री॰—खड्गः-धारा—-—तलवार का फला
- खड्गधाराव्रतम्—नपुं॰—खड्गः-धाराव्रतम्—-—अत्यन्त कठिन कार्य
- खड्गविद्या—स्त्री॰—खड्गः-विद्या—-—तलवार चलाने की कला
- खण्ड—वि॰—-—खण्ड्+घञ्—टूटा हुआ, फटा हुआ
- खण्ड—वि॰—-—खण्ड्+घञ्—दूषित
- खण्डः—पुं॰—-—-—महाद्वीप, महादेश
- खण्डम्—नपुं॰—-—-—महाद्वीप, महादेश
- खण्डेन्दुः—पुं॰—खण्डम्-इन्दुः—-—दूज का चाँद
- खण्डतालः—पुं॰—खण्डम्-तालः—-—संगीतशास्त्र में माप
- खण्डनखण्डखाद्यम्—नपुं॰—-—-—हर्षकृत एक वेदान्त शास्त्र का ग्रन्थ
- खण्डिकोपाध्यायः—पुं॰—-—-—क्षुब्ध अध्यापक, उत्तेजित अध्यापक
- खण्डितव्रत—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी है
- खण्डिन्—वि॰—-—खण्ड+इनि—एक प्रकार की दाल, पीले मूँग
- खण्डीरः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की दाल, पीले मूँग
- खतमालः—पुं॰—-—-—धूआँ
- खतमालः—पुं॰—-—-—बादल
- खनिका—स्त्री॰—-—खन्+इन्, स्वार्थे कन्, स्त्रियां टाप्—पोखर, ताल
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—गधा, खच्चर
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—उदग्र, कठोर
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—तीक्ष्ण, तेज
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—सघन
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—क्रूर
- खरः—पुं॰—-—ख+रा+क—६० वर्ष के चक्र में पच्चीसवाँ वर्ष
- खरकण्डूयनम्—नपुं॰—खरः-कण्डूयनम्—-—बुराई को और अधिक करना
- खरगेहम्—नपुं॰—खरः-गेहम्—-—तम्बू
- खरचर्मा—वि॰—खरः-चर्मा—-—मगरमच्छ
- खरवृषभ—वि॰—खरः-वृषभ—-—गधा, जडबुद्धि
- खरसारम्—नपुं॰—खरः-सारम्—-—लोहा
- खरस्पर्श—वि॰—खरः-स्पर्श—-—गर्म, प्रचण्ड
- खरक—वि॰—-—-—जिसकी सतह खुरदुरी हो ऐसा (मोती)
- खरोष्ठी—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की वर्णमाला
- खर्जूरिका—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की मिठाई
- खर्बूरम्—नपुं॰—-—-—नारियल की गिरी, गोला, खोपा
- खर्मम्—नपुं॰—-—-—रेशम
- खर्मम्—नपुं॰—-—-—शौर्य
- खर्मम्—नपुं॰—-—-—कठोरता
- खर्वटः—पुं॰—-—खर्व+अटन्—एक इस प्रकार की बस्ती जो पर्वत की तलहटी या नदी के किनारे बसी हो और जिसके निवासियों का व्यवसाय प्रायः वणिज व्यापार हो। यह गाँव और नगर के बीच की बस्ती के लक्षणों से युक्त होती है।
- खर्वाट—पुं॰—-—-—खल्वाट
- खर्वित—वि॰—-—खर्व+इतच्—जो बौना बन गया हो
- खर्वेतर—वि॰,त॰स॰—-—-—जो नगण्य न हो, जो छोटा न हो
- खलिन्—वि॰—-—खल+इनि—खल से युक्त, तलछट वाला
- खलीन्—पुं॰—-—-—शिव
- खलीकृत—वि॰—-—खल+च्वि+कृ+क्त—अपमानित
- खलिशः —पुं॰—-—-—एक प्रकार की मछली
- खल्लीशः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की मछली
- खल्वः—पुं॰—-—-—फली, बाल
- खा—स्त्री॰—-—खर्व्+ड+टाप्—पार्वती
- खा—स्त्री॰—-—खर्व्+ड+टाप्—धरती
- खा—स्त्री॰—-—खर्व्+ड+टाप्—लक्ष्मी
- खा—स्त्री॰—-—खर्व्+ड+टाप्—वक्तृता
- खानपानम्—नपुं॰—-—-—खाना पीना
- खानोदकः—पुं॰—-—-—नारियल का पेड़
- खुरशालः—पुं॰—-—-—खुरशाल देश में उत्पन्न नस्ल का घोड़ा
- खेखीरकः—पुं॰—-—-—खोखला बाँस
- खेचरी—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की योगसिद्धि जिसके द्वारा योगी आकाश में उड़ सके
- खेटः—पुं॰—-—खिट्+अच्, खे अटति+ अट्+अच्—ग्राम, गाँव
- खोरकः—पुं॰—-—-—किसी जानवर के खुर में होने वाला विशेष रोग
- ख्यातिः—स्त्री॰—-—ख्या+क्तिन्—दर्शनशास्त्र का एक सिद्धान्त
- गः—पुं॰—-—गै-क—शिव
- गः—पुं॰—-—गै-क—विष्णु
- गगनम्—नपुं॰—-—गच्छत्यस्मिन् गम्+ल्युट्, ग आदेशः—आकाश, अन्तरिक्ष
- गगनम्—नपुं॰—-—गच्छत्यस्मिन् गम्+ल्युट्, ग आदेशः—शून्य
- गगनम्—नपुं॰—-—गच्छत्यस्मिन् गम्+ल्युट्, ग आदेशः—स्वर्ग
- गगनरोमन्थः—पुं॰—गगनम्-रोमन्थः—-—असङ्गति, व्यर्थ पदार्थ
- गगनलिह्—वि॰—गगनम्-लिह्—-—आकाश तक पहुँचने वाला
- गङ्गासप्तमी—स्त्री॰—गङ्गा-सप्तमी—-—वैशाख मास के शुक्ल पक्ष का सातवाँ दिन
- गजः—पुं॰—-—गज्+अच्—हाथी
- गजः—पुं॰—-—गज्+अच्—आठ की संख्या
- गजः—पुं॰—-—गज्+अच्—लम्बाई नापने का गज
- गजः—पुं॰—-—गज्+अच्—एक राक्षस जिसे शिव जी ने मार दिया त्धा
- गजगणिका—स्त्री॰—गजः-गणिका—-—हथिनी जिसका प्रयोग जंगली हाथी को पकड़ने के लिए किया जाता है
- गजगौरीव्रतम्—नपुं॰—गजः-गौरीव्रतम्—-—भाद्रपद मास में स्त्रियों द्वारा मनाया जाने वाला व्रत
- गजनिमीलिका—स्त्री॰—गजः-निमीलिका—-—किसी वस्तु की ओर झूठ-मूठ देखना, जानबूझ कर न देखना
- गजपुष्पी—स्त्री॰—गजः-पुष्पी—-—एक लता का नाम
- गजबन्धः—पुं॰—गजः-बन्धः—-—थूड़ी जिससे हाथी बांधा जाता है
- गजबन्धः—पुं॰—गजः-बन्धः—-—एक प्रकार की संभोगमुद्रा
- गजबन्धः—पुं॰—गजः-बन्धः—-—जंगली हाथी को पकड़ने की प्रक्रिया
- गजिन्—वि॰—-—गज+इनि—गजारोही, हाथी की सवारी करने वाला
- गड्डुकः—पुं॰—-— =गडुक्, पृषो॰—तकिया
- गड्डुकः—पुं॰—-— =गडुक्, पृषो॰—एक प्रकार का जलपात्र
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्—समूह, संग्रह, समुदाय, रेवड़, लहंडा
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्—श्रेणी
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्— शिव के अनुचर, जिनका अधीक्षक गणेश है, उपदेव
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्—समाज
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्—मण्डल
- गणः—पुं॰—-—गण्+अच्—जाति
- गणरत्नमहोदधिः—पुं॰—गणः-रत्नमहोदधिः—-—व्याकरणगत गणों पर वर्धमान कृत एक ग्रन्थ
- गणवल्लभः—पुं॰—गणः-वल्लभः—-—सेनापति
- गणनपत्रिका—स्त्री॰—-—-—संगणक, जिसमें विशेष प्रकार के शोधित अङ्कों की सारणी दी हुई होती है-.राज॰३/३६
- गणितम्—नपुं॰—-—गण्+क्त—व्यवहार
- गण्यमानम्—नपुं॰—-—गण्+यक्+शानच्—किसी रचना या निर्माण की सापेक्ष ऊँचाई
- गण्डः—पुं॰—-—गण्ड्+अच्—गाल
- गण्डः—पुं॰—-—गण्ड्+अच्—हाथी की कनपटी
- गण्डः—पुं॰—-—गण्ड्+अच्—बुलबुला
- गण्डः—पुं॰—-—गण्ड्+अच्—फोडा, रसौली
- गण्डः—पुं॰—-—गण्ड्+अच्—जोड़, गाँठ
- गण्डकूपः—पुं॰—गण्डः-कूपः—-—पहाड़ की सतह, अधित्यका
- गण्डभेदः—पुं॰—गण्डः-भेदः—-—चोर
- गण्डूषः—पुं॰—-—गण्ड्+ऊषन्—एक प्रकार की शराब
- गत—वि॰—-—गम्+क्त—गया हुआ, बीता हुआ
- गत—वि॰—-—गम्+क्त—मृत
- गत—वि॰—-—गम्+क्त—ज्ञात
- गतागतम्—नपुं॰,द्व॰स॰—गत-आगतम्—-—भूत और भविष्यत् का वर्णन
- गतमनस्क—वि॰—गत-मनस्क—-—मग्न, लीन,
- गतश्रमः—वि॰—गत-श्रमः—-— जो अपनी थकावट का ध्यान नहीं करता है।
- गतिमत्—वि॰—-—गति+मतुप्—उपायज्ञ, तरकीब या रीति का जानकार
- गत्वर—वि॰—-—गम्+क्वरप्, अनुनासिकलोपः, तुक् च—तेज चलने वाला
- गत्वरः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का घोड़ा
- गदः—पुं॰—-—गद्+अच्—कृष्ण के भाई का नाम
- गदः—पुं॰—-—गद्+अच्—कुबेर
- गदः—पुं॰—-—गद्+अच्—शस्त्रास्त्र, हथियार
- गदिः—पुं॰—-—गद्+इ—व्याख्यान, वक्तृता
- गन्धः—पुं॰—-—गन्ध्+अच्—गुणों में समानता, सम्बन्ध, बन्धुता
- गन्धः—पुं॰—-—गन्ध्+अच्—गन्धक
- गन्धः—पुं॰—-—गन्ध्+अच्—चन्दन चूरा
- गन्धः—पुं॰—-—गन्ध्+अच्—पड़ौसी
- गन्धहस्तिन्—पुं॰—गन्धः-हस्तिन्—-—हाथी जिसकी मधुर गन्ध इधर-उधर फैलती है, वह गुणों में उत्तम हाथी माना जाता है।
- गन्धकपेषिका—वि॰,ष॰त॰—-—-—सेविका जो गन्ध द्रव्य और चन्दन पीस कर तैयार करती है।
- गन्धि—वि॰—-—गन्ध्+इ—केवल नामधारी, बहाना करने वाला
- गन्धर्वतैलम्—नपुं॰,ति॰स॰—-—-—एरण्ड का तेल
- गन्धारः —पुं॰—-—-—संगीत में तीसरा स्वर, एक विशेष प्रकार का राग
- गान्धारः—पुं॰—-—-—संगीत में तीसरा स्वर, एक विशेष प्रकार का राग
- गमनम्—नपुं॰—-—गम्+ल्युट्—जानना, समझना
- गर्गसंहिता—स्त्री॰—-—-—गर्ग द्वारा प्रणीत एक ज्योतिष का ग्रन्थ
- गर्जरम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का घास
- गर्भः—पुं॰—-—गृ+भन्—गर्भाशय, पेट
- गर्भः—पुं॰—-—गृ+भन्—भ्रूण, कलल
- गर्भः—पुं॰—-—गृ+भन्—अग्नि
- गर्भः—पुं॰—-—गृ+भन्—आहार
- गर्भग्राहिका—स्त्री॰—गर्भः-ग्राहिका—-—धात्री, दाई
- गर्भन्यासः—पुं॰—गर्भः-न्यासः—-—आधार रखना, नींव डालना
- गर्भभाजनम्—नपुं॰—गर्भः-भाजनम्—-—नींव का गड्ढा
- गर्भसम्भवः—पुं॰—गर्भः-सम्भवः—-—गर्भाशय से जन्म होना
- गर्भिका—स्त्री॰—-—-—किसी प्रकार के मल या संदूषण अन्तः प्रवेश
- गर्भेदृप्तः—वि॰,सप्तमी अलुक्समास—-—-—कायर, मन्दबुद्धि, जड
- गर्भेशूरः—वि॰,सप्तमी अलुक्समास—-—-—कायर, मन्दबुद्धि, जड
- गलः—पुं॰—-—गल्+अच्—एक मछली की मछली
- गलः—पुं॰—-—गल्+अच्—एक प्रकार की घास
- गलुः—पुं॰—-—गल्+उण्—एक प्रकार का रत्न
- गवामयः—पुं॰—-—-—एक वर्ष तक रहने वाला सत्रयाग
- गव्य—वि॰—-—गो+यत्—गाय से मिलने वाला पदार्थ, घी, दूध आदि
- गव्यम्—नपुं॰—-—-—गवामयनम् नाम का एक श्रौत यज्ञ
- गहन—वि॰—-—गह्+ल्युट्—गहरा, सघन, धिनका
- गहन—वि॰—-—गह्+ल्युट्—समझने में कठिन
- गहन—वि॰—-—गह्+ल्युट्—ऐसा स्थान जो पार न किया जा सके।
- गह्वरी—स्त्री॰—-—गह्वर+ ङीष्—पृथ्वी
- गह्वरित—वि॰—-—गह्वर+इतच्—लीन, मग्न
- गाङ्गेय—वि॰—-—गङ्गा+ढक्—गङ्गा में, गङ्गा पर या गङ्गा से उत्पन्न होने वाला
- गाङ्गेयः—पुं॰—-—-—भीष्म
- गाङ्गेयम्—नपुं॰—-—-—सोना
- गाङ्गेयम्—नपुं॰—-—-—मोथा घास
- गाढतरम्—अ॰—-—-—अधिक कस कर, सटा कर
- गाढतरम्—अ॰—-—-—अपेक्षाकृत अधिक गहनता से
- गाढवचस्—पुं॰,ब॰स॰—-—-—मेंढक
- गाढावटी—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की भारतीय शतरंज
- गाणनिक्यम्—नपुं॰—-—गणनिक+ष्यञ्—लेखाकार का कार्य
- गाण्डी—स्त्री॰—-—-—गैंडा
- गात्रचेष्टनम्—नपुं॰—-—-—आकर्षी संवेदन
- गात्रिका—स्त्री॰—-—-—चोली
- गान्धर्वकला—स्त्री॰—-—-—संगीत की ललित कला, संगीत का सिद्धान्त, संगीतविज्ञान
- गान्धर्वविद्या—स्त्री॰—-—-—संगीत की ललित कला, संगीत का सिद्धान्त, संगीतविज्ञान
- गान्धर्ववेदः—पुं॰—-—-—संगीत की ललित कला, संगीत का सिद्धान्त, संगीतविज्ञान
- गान्धर्वशास्त्रम्—नपुं॰—-—-—संगीत की ललित कला, संगीत का सिद्धान्त, संगीतविज्ञान
- गान्धारी—स्त्री॰—-—गान्धारस्यापत्यं इञ्—एक प्रकार का मादक द्रव्य
- गान्धारी—स्त्री॰—-—गान्धारस्यापत्यं इञ्—बाई आँख की शिरा
- गान्धारीग्रामः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का संगीतमान
- गाम्भीर्यम्—नपुं॰—-—गम्भीर+ष्यञ्—मर्यादा
- गाम्भीर्यम्—नपुं॰—-—गम्भीर+ष्यञ्—उदारता
- गाम्भीर्यम्—नपुं॰—-—गम्भीर+ष्यञ्—संतुलन
- गार्जरः—पुं॰—-—-—गाजर
- गार्हकमेधिका—स्त्री॰—-—गृहकमेधिन्+ठक्—गृहस्थ के धर्म, गृहस्थ के कर्त्तव्य
- गिर् —स्त्री॰—-—गॄ+क्विप् —बुद्धि
- गिर् —स्त्री॰—-—गॄ+क्विप् —सुना हुआ ज्ञान
- गिरा—स्त्री॰—-—गॄ+क्विप् टाप् —बुद्धि
- गिरा—स्त्री॰—-—गॄ+क्विप् टाप् —सुना हुआ ज्ञान
- गिरा—स्त्री॰—-—गॄ+क्विप् टाप् वा—स्तुति
- गिरित्रः—पुं॰—-—गिरि+त्रल्—शिव
- गिरिधातुः—पुं॰—-—-—गेरू
- गिलत्—वि॰—-—गिल्+शतृ—निगलने वाला
- गीतगोविन्दम्—नपुं॰—-—-—जयदेव निर्मित एक गीतिकाव्य
- गीतबन्धनम्—नपुं॰—-—-—संगीत के सस्वर पाठ के उपयुक्त एक महाकाव्य
- गीतमोदिन्—पुं॰—-—-—किन्नर
- गीतिः—स्त्री॰—-—गै+क्तिन्—एक गेय साम
- गुटिकास्त्रम्—नपुं॰—-—-—y के आधार की एक यष्टिका
- गुटिकायन्त्रम्—नपुं॰—-—-—बन्दूक, नलिका
- गुडः—पुं॰—-—गुड्+अच्—गोली, बटिका
- गुणः—पुं॰—-—गुण्+अच्—किसी वस्तु की विशेषता चाहे अच्छी हो या बुरी
- गुणः—पुं॰—-—गुण्+अच्—धागा, डोरी
- गुणः—पुं॰—-—गुण्+अच्—शरीर के धर्म
- गुणकल्पना—स्त्री॰—गुणः-कल्पना—-—किसी वाक्य का अर्थ करते समय आलङ्कारिक भावना का सङ्केत करना
- गुणकारः—पुं॰—गुणः-कारः—-—गुणक, गुणा करने वाला
- गुणगौरी—स्त्री॰—गुणः-गौरी—-—अपने उत्तम गुणों से देदीप्यमान महिला
- गुणभावः—पुं॰—गुणः-भावः—-—किसी अन्य वस्तु की तुलना में गौण पद
- गुणवादः—पुं॰—गुणः-वादः—-—गौण अर्थ को सूचित करने वाली उक्ति
- गुणविभाग—वि॰,ब॰स॰—गुणः-विभाग—-—पदार्थ के अन्य पहलुओं में से किसी विशेषता को पृथक् करके दर्शाने वाला
- गुणविशेषः—पुं॰—गुणः-विशेषः—-—विशेष लक्षण, भिन्न प्रकार की विशेषता
- गुणविशेषाः—पुं॰—गुणः-विशेषाः—-—बाहरी ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और अहंकार
- गुणसङ्ग्रहः—पुं॰—गुणः-सङ्ग्रहः—-—अच्छे गुणों का एकत्रीकरण
- गुदनिर्गमः—ष॰त॰—-—-—अर्शादि रोग के कारण काँच बाहर निकल आना
- गुप्तगृहम्—नपुं॰—-—-—शयनकक्ष, शयनागार
- गुप्तधनम्—नपुं॰,कर्म॰स॰—-—-—छिपा हुआ धन
- गुमटी—स्त्री॰—-—-—अवगुण्ठनवती महिला, बुर्के वाली स्त्री
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—भारी
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—बड़ा
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—लम्बा
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—कठिन
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—आदरणीय
- गुरु—वि॰—-—गृ+कु, उत्वम्—शक्तिशाली
- गुरुः—पुं॰—-—-—पिता, प्रपिता, पितामह, पूर्वज
- गुरुः—पुं॰—-—-—सम्माननीय महापुरुष
- गुरुः—पुं॰—-—-—शिक्षक, अध्यापक
- गुरुः—पुं॰—-—-—स्वामी
- गुरुः—पुं॰—-—-—बृहस्पति
- गुरूपदेशः—पुं॰—गुरुः-उपदेशः—-—अध्यापक द्वारा दीक्षा
- गुरूपदेशः—पुं॰—गुरुः-उपदेशः—-—शिक्षकों या बड़ों द्वारा दी गई नसीहत
- गुरुकण्ठः—पुं॰—गुरुः-कण्ठः—-—मोर
- गुरुकुलम्—नपुं॰—गुरुः-कुलम्—-—गुरु का वासस्थान सावास विद्यापीठ जहाँ अध्यापक और छात्र मिल कर रहें
- गुरुकुलवासः—पुं॰—गुरुः-कुलवासः—-—गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करना
- गुरुगृहम्—नपुं॰—गुरुः-गृहम्—-—शिक्षक का घर
- गुरुगृहम्—नपुं॰—गुरुः-गृहम्—-—बृहस्पति का घर
- गुरुभावः—पुं॰—गुरुः-भावः—-—महत्त्व, गुरुत्व
- गुरुवर्चोघ्नः—पुं॰—गुरुः-वर्चोघ्नः—-—नींबू, गलगल
- गुरुवर्तिता—स्त्री॰—गुरुः-वर्तिता—-—बड़ों के प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित करना
- गुरुश्रुतिः—स्त्री॰—गुरुः-श्रुतिः—-—गायत्रीमंत्र
- गुरुस्वम्—नपुं॰—गुरुः-स्वम्—-—शिक्षक का धन, संपत्ति
- गुलिकः—पुं॰—-—-—एक उपग्रह जो केरल देश में माना जाता है
- गुलिकः—पुं॰—-—-—विष से बुझा तीर
- गुलिकः—पुं॰—-—-—दिग्गज
- गुलिककालः—पुं॰—गुलिकः-कालः—-—प्रतिदिन का वह समय जो अशुभ माना जाता है
- गुलिका—स्त्री॰—-—-—गोली
- गुल्मः—पुं॰—-—गुड्+मक्, डस्य लः—युद्धशिविर
- गुल्मः—पुं॰—-—गुड्+मक्, डस्य लः—सैनिक-तंबू
- गुल्मकुष्ठम्—नपुं॰—गुल्मः-कुष्ठम्—-—एक प्रकार का कोढ़
- गुह्य—वि॰—-—गुह्+यत्—छिपाने के योग्य
- गुह्य—वि॰—-—गुह्+यत्—रहस्य
- गुह्यम्—नपुं॰—-—-—गुप्त स्थान
- गुह्यविद्या—स्त्री॰—गुह्यम्- विद्या—-—गुप्त रूप से और लोगों से गुप्त रख कर गुरुमंत्र की दीक्षा देना अथवा अभ्यास कराना
- गूढ—वि॰—-—गुह्+क्त—गुप्त, छिपा हुआ
- गूढ—वि॰—-—गुह्+क्त—आच्छादित
- गूढ—वि॰—-—गुह्+क्त—अदृश्य
- गूढ—वि॰—-—गुह्+क्त—रहस्य
- गूढम्—नपुं॰—-—-—एक शब्दालंकार
- गूढार्थ—वि॰—-—-—आन्तर अर्थ रखने वाला
- गूढालेख्यम्—नपुं॰—-—-—कूटलेख
- गृत्समदः—पुं॰—-—-—एक वैदिक ऋषि का नाम
- गृद्ध—वि॰—-—गृध्+क्त—इच्छुक, लालायित, उत्सुक, किसी वस्तु को अत्यन्त चाहने वाला
- गृद्धिन्—वि॰—-—गृद्ध+इन्—गृद्ध
- गृद्ध्य—वि॰—-— गृध्+यत्—जिसे उत्सुकता पूर्वक बहुत चाहा जाय, जिसके लिए प्रबल लालसा की जाय
- गृह्—चुरा॰आ॰—-—-—स्वीकार करना, प्राप्त करना, ग्रहण करना, लेना, मिलाना, लीन करना
- गृहम्—नपुं॰—-—ग्रह्+क—घर, आवास, भवन
- गृहम्—नपुं॰—-—ग्रह्+क—पत्नी
- गृहम्—नपुं॰—-—ग्रह्+क—गृहस्थ जीवन
- गृहम्—नपुं॰—-—ग्रह्+क—जन्मकुण्डली का घर
- गृहम्—नपुं॰—-—ग्रह्+क—घर
- गृहारम्भः—पुं॰—गृहम्-आरम्भः—-—घर का निर्माण
- गृहेश्वरी—स्त्री॰—गृहम्-ईश्वरी—-—घर की स्वामिनी, गृहिणी
- गृहचेतः—वि॰—गृहम्-चेतः—-—अपने घर की याद करने वाला, जिसका मन अपने घर की ओर ही लगा हो
- गृहसक्त—वि॰—गृहम्-सक्त—-—अपने घर की याद करने वाला, जिसका मन अपने घर की ओर ही लगा हो
- गृहदारुः—नपुं॰—गृहम्-दारुः—-—घर में लगा खम्बा, स्तम्भ
- गृहपतिः—पुं॰—गृहम्-पतिः—-—घर का स्वामी
- गृहपतिः—पुं॰—गृहम्-पतिः—-—गृहस्थ
- गृहपतिः—पुं॰—गृहम्-पतिः—-—गाँव का मुखिया
- गृहपिण्डी—स्त्री॰—गृहम्-पिण्डी—-—भौंरा, भूगर्भ
- गृहपोतकः—पुं॰—गृहम्-पोतकः—-—भवन बनाने के लिए संकेतित स्थान
- गृहपोषणम्—नपुं॰—गृहम्-पोषणम्—-—गृहस्थ का निर्वाह
- गृहमार्जनी—स्त्री॰—गृहम्-मार्जनी—-—घर को झाडू से साफ करने वाली
- गृहशायिन्—पुं॰—गृहम्-शायिन्—-—कबूतर
- गृहकम्—नपुं॰—-— गृह+कन्—घर का बगीचा, बाटिका
- गृह्य—वि॰—-— गृह्+क्यप्—घरेलू
- गृह्य—वि॰—-— गृह्+क्यप्—पालतू
- गृह्य—वि॰—-— गृह्+क्यप्—प्रसंलक्ष्य, प्रत्यक्षज्ञेय
- गृह्यम्—नपुं॰—-—-—घरेलू काम, गृहस्थ का यज्ञीय अनुष्ठान
- गृह्यसूत्रम्—नपुं॰—गृह्यम्-सूत्रम्—-—सूत्रों का संकलन जिसमें गृह्य यज्ञों के विधान का वर्णन है जैसे कि आपस्तम्बगृह्यसूत्र या बौधायन गृह्यसूत्र
- गातुः—पुं॰—-— गै+तुन्—गीत
- गातुः—पुं॰—-— गै+तुन्—गायक
- गातुः—पुं॰—-— गै+तुन्—मधुमक्खी
- गायः—पुं॰—-—-—गीत
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—पशु
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—गौ
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—कोई भी पदार्थ जो गौ से प्राप्त हो
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—आकाश
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—इन्द्र का वज्र
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—प्रकाश, किरण
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—हीरा
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—स्वर्ग
- गो—पुं॰,स्त्री॰—-—गम्+डो—बाण
- गोग्रहणम्—नपुं॰—गो-ग्रहणम्—-— गौएँ पकड़ना, गौएँ चुराना
- गोचर्या—स्त्री॰—गो-चर्या—-—पशु की भाँति केवल अपना भौतिक सुख खोजना
- गोजिह्विका—स्त्री॰—गो-जिह्विका—-—काकलक, काग
- गोजीव—वि॰—गो-जीव—-—गोदुग्ध का व्यवसाय करने वाला, घोसी
- गोपथः—पुं॰—गो-पथः—-—अथर्ववेद का एक ब्राह्मण
- गोपर्वतम्—नपुं॰—गो-पर्वतम्—-—उस पहाड़ का नाम जहाँ पाणिनि ने तपस्या की थी
- गोमण्डीरः—पुं॰—गो-मण्डीरः—-—एक जल पक्षी
- गोमध्यमध्य—वि॰—गो-मध्यमध्य—-—छरहरा, पतली कमर वाला
- गोमूत्रकः—पुं॰—गो-मूत्रकः—-—वैदूर्य नामक मणि
- गोमूत्रकम्—नपुं॰—गो-मूत्रकम्—-—गदायुद्ध में पैतराबदल चाल
- गोलोभिका—स्त्री॰—गो-लोभिका—-—सफेद दूब
- गोवरम्—नपुं॰—गो-वरम्—-—गाय के गोबर का चूरा
- गोविषाणिकः—पुं॰—गो-विषाणिकः—-—गाय के सींग से निर्मित एक संगीत उपकरण
- गोसावित्री—स्त्री॰—गो-सावित्री—-—गायत्रीमंत्र
- गोहरणम्—नपुं॰—गो-हरणम्—-—गौएँ पकड़ना, गौएँ चुराना
- गोम्—चुरा॰पर॰—-—-—गोबर से लीपना, गोबरी फेरना
- गोमत्—वि॰—-— गो+मतुप्—गौओं से समृद्ध स्थान
- गोमयपायसीयन्यायः—पुं॰—-—-—एक ही स्रोत से उत्पन्न दो वस्तुओं के गुणों की भिन्नता-जैसे, दूध और गोबर
- गोमिन्—पुं॰—-— गोम्+णिनि—वैश्य
- गोजिकाणः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का घोड़ा
- गोजी—स्त्री॰—-—-—नासापट, नासिका के बीच का पर्दा
- गोणः—पुं॰—-— गुण्+घञ्—बैल
- गोणी—स्त्री॰—-— गोण+ङीप्—गाय
- गोलक्रीडा—स्त्री॰—-—-—गेंद से खेलना, गेंद का खेल
- गोलदीपिका—स्त्री॰—-—-—ज्योतिष के एक ग्रन्थ का नाम
- गोलशास्त्रम्—नपुं॰—-—-—भूगोल
- गोलशास्त्रम्—नपुं॰—-—-—गणित ज्योतिष
- गोच्यः—पुं॰—-—-—मैनाक पर्वत
- गौडपादः—पुं॰—-—-—अद्वैतवाद पर लिखने वाला प्रसिद्ध लेखक
- गौडमालवः—पुं॰—-—-—संगीतशास्त्र के एक राग का नाम
- गौधारः—पुं॰—-—-—गोह
- गौधेयः—पुं॰—-—-—गोह
- गौधेरः—पुं॰—-—-—गोह
- गौराङ्गः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—शिव
- गौराङ्गः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—श्री चैतन्य देव, सन्त ओर गायक
- गौरी—स्त्री॰—-— गौर+ङीष्—एक नागकन्या
- गौरी—स्त्री॰—-— गौर+ङीष्—एक नदी का नाम
- गौरी—स्त्री॰—-— गौर+ङीष्—रात
- गौरी—स्त्री॰—-— गौर+ङीष्—पार्वती
- गौरीपूजा—स्त्री॰—गौरी-पूजा—-—माघ मास के शुक्लपक्ष के चौथे दिन मनाया जाने वाला पर्व
- गौह्यक—वि॰—-— गुह्यक+अण्—गुह्यकों से संबंध रखने वाला
- ग्रन्थिः—स्त्री॰—-—ग्रन्थ्+इन्—पुस्तक का कठिन स्थल
- ग्रन्थिः—स्त्री॰—-—ग्रन्थ्+इन्—घण्टी, जंग
- ग्रन्थिवज्रकः—पुं॰—ग्रन्थिः-वज्रकः—-—एक प्रकार का फौलाद, इस्पात
- ग्रन्थिकः—पुं॰—-— ग्रन्थि+कै+क—बाँस का अंकुर
- ग्रासप्रमाणम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—ग्रासस्य प्रमाणम्, ग्रस्+घञ्—एक ग्रास का माप
- ग्रहः—पुं॰—-—ग्रह्+अच्—युद्ध की तैयारी
- ग्रहः—पुं॰—-—ग्रह्+अच्—अतिथि
- ग्रहाग्रेसरः—पुं॰—ग्रहः-अग्रेसरः—-—चन्द्रमा
- ग्रहकुण्डलिका—स्त्री॰—ग्रहः-कुण्डलिका—-—जन्मकुण्डली, किसी भी समय ग्रहों की बताई हुई दशा
- ग्रहचक्रम्—नपुं॰—ग्रहः-चक्रम्—-—जन्मकुण्डली, किसी भी समय ग्रहों की बताई हुई दशा
- ग्रहस्थितिः—स्त्री॰—ग्रहः-स्थितिः—-—जन्मकुण्डली, किसी भी समय ग्रहों की बताई हुई दशा
- ग्रहगणितम्—नपुं॰—ग्रहः-गणितम्—-—फलित ज्योतिष का गणित भाग
- ग्रहग्रामणी—पुं॰—ग्रहः-ग्रामणी—-—सूर्य
- ग्रहचारनिबन्धः—पुं॰—ग्रहः-चारनिबन्धः—-—ज्योतिष के एक ग्रन्थ का नाम
- ग्रहलाघवम्—नपुं॰—ग्रहः-लाघवम्—-—ज्योतिष के एक ग्रन्थ का नाम
- ग्रहस्वरः—पुं॰—ग्रहः-स्वरः—-—संगीत गान का पहला स्वर
- ग्रहणीकपाटः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—अतिसार की औषधि
- ग्राहः—पुं॰—-—ग्रह्+घञ्—मूठ
- ग्राहः—पुं॰—-—ग्रह्+घञ्—लकवा
- ग्राह्यम्—नपुं॰—-—ग्रह्+ण्यत्—ज्ञानेन्द्रियों द्वारा संकल्पना का विषय
- ग्राह्यः—पुं॰—-—ग्रह्+ण्यत्—एक ग्रस्त ग्रह
- ग्रामः—पुं॰—-—ग्रस्+मन्, आदन्तादेशः—गाँव, पल्ली
- ग्रामः—पुं॰—-—ग्रस्+मन्, आदन्तादेशः—वंश, समुदाय
- ग्रामः—पुं॰—-—ग्रस्+मन्, आदन्तादेशः— समुच्चय, संग्रह
- ग्रामकायस्थः—पुं॰—ग्रामः-कायस्थः—-—ग्रामणी लिपिक
- ग्रामगृह्यकः—पुं॰—ग्रामः-गृह्यकः—-— गांव का बढ़ई
- ग्रामणीः—पुं॰—ग्रामः-णीः—-—सूर्य के अनुचरों का नेता, उपदेवता
- ग्रामधर्मः—पुं॰—ग्रामः-धर्मः—-— गांव की प्रथा, रीतिरिवाज
- ग्रामधान्यम्—नपुं॰—ग्रामः-धान्यम्—-— गाँव में उत्पन्न अन्न
- ग्रामपुरुषः—पुं॰—ग्रामः-पुरुषः—-— गाँव का मुखिया
- ग्रामविशेषः—पुं॰—ग्रामः-विशेषः—-—संगीत का विशिष्ट स्वर
- ग्रामवृद्धः—पुं॰—ग्रामः-वृद्धः—-— गाँव का बड़ा बूढ़ा
- ग्राम्यवादिन्—पुं॰—-—-— गाँव का आसेवक, गाँव की ओर से बोलने वाला-.तै॰स॰२/३/१/३
- ग्रामेरुकम्—नपुं॰—-—-—चन्दन का एक भेद
- ग्रीष्म—वि॰—-—ग्रस्+ मनिन्—गर्म, उष्ण
- ग्रीष्मः—पुं॰—-—-— ग्रीष्म ऋतु
- ग्रीष्मवनम्—नपुं॰—ग्रीष्मः-वनम्—-—उपवन या वाटिका जो ग्रीष्म ऋतु का विश्राम स्थल हो
- ग्रीष्महासम्—नपुं॰—ग्रीष्मः-हासम्—-— गुम्फमय बीज जो ग्रीष्मर्तु में हवा में इधर उधर उड़तें हैं।
- ग्लपनम्—नपुं॰—-—ग्लै+णिच्+ल्युट्, पुक् ह्रस्वश्च—मुर्झाना कुम्हलाना
- ग्लपनम्—नपुं॰—-—ग्लै+णिच्+ल्युट्, पुक् ह्रस्वश्च—विश्राम करना
- ग्लपित—वि॰—-—ग्लै+णिच्+क्त, पुक्, ह्रस्वश्च—क्लान्त, झुलसा हुआ, छितराया हुआ
- ग्लपित—वि॰—-—ग्लै+णिच्+क्त, पुक्, ह्रस्वश्च—टुकड़े टुकड़े किया हुआ
- घटः—पुं॰—-—घट्+अच्—सिर
- घटः—पुं॰—-—घट्+अच्—मिट्टी का जलपात्र
- घटः—पुं॰—-—घट्+अच्—कुम्भराशि
- घटोदरः—पुं॰—घटः-उदरः—-—गणेश का नाम
- घटकञ्चुकि—नपुं॰—घटः-कञ्चुकि—-—तान्त्रिक और शाक्तों की एक रस्म
- घटयोनिः—स्त्री॰—-—-—अगस्त्य मुनि
- घटभवः—पुं॰—-—-—अगस्त्य मुनि
- घटजन्मा—पुं॰—-—-—अगस्त्य मुनि
- घटा—स्त्री॰—-—घट् भावे अङ्, स्त्रियां टाप्—लोके की प्लेट जिस पर आघात करके समय की सूचना दी जाती है
- घटिकामण्डलम्—नपुं॰—-—-—विषुवद्वृत्त
- घटिकायन्त्रम्—नपुं॰—-—-—घंटा
- घटीयन्त्रम्—नपुं॰—-—-—रहट, पानी निकालने का यन्त्र
- घटीयन्त्रम्—नपुं॰—-—-—अतिसार
- घट्टित—वि॰—-—घट्ट्+क्त—मण्डयुक्त, कलफदार
- घट्टित—वि॰—-—घट्ट्+क्त—दबाया हुआ, भींचा हुआ, पीसा हुआ
- घण्टाकर्णः—पुं॰—-—-—शिव का एक गण
- घण्टाकर्णः—पुं॰—-—-—एक राक्षस का नाम
- घण्टारवः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—घण्टे की आवाज
- घण्टारवः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—सण की एक जाति
- घण्टिका—स्त्री॰—-—घण्ट्+ण्वुल्, इत्वम्—काग, काकल, उपजिह्वा
- घण्टालः—पुं॰—-—घण्ट्+आलच्—हाथी
- घण्टिकः—पुं॰—-—घण्ट+ठञ्—घड़ियाल, मगरमच्छ
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—सघन, दृढ़ ठोस
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—मोटा, सटा हुआ
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—पूर्ण विकसित
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—गहरा
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—निर्बाध
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—स्थायी
- घन—वि॰—-—हन् मूर्तौ अप्, घनादेशश्च—पूर्ण
- घनः—पुं॰—-—-—बादल
- घनः—पुं॰—-—-—लोहे की गदा
- घनः—पुं॰—-—-—शरीर
- घनः—पुं॰—-—-—समुच्चय
- घनः—पुं॰—-—-—वेद का सस्वर पाठविशेष
- घनम्—नपुं॰—-—-—घंटा
- घनम्—नपुं॰—-—-—जंग
- घनम्—नपुं॰—-—-—लोहा
- घनम्—नपुं॰—-—-—खाल, वल्कल
- घनूरू—स्त्री॰—घन-ऊरू—-—मोटी जंघाओं से युक्त महिला
- घनक्षम—वि॰—घन-क्षम—-—हथौड़े के आघात के उपयुक्त
- घनमानम्—नपुं॰—घन-मानम्—-—किसी रचना या निर्माण का बाहरी माप
- घनसम्वृत्तिः—स्त्री॰—घन-सम्वृत्तिः—-—कड़ी गोपनीयता
- घनता—स्त्री॰—-—घन+तल्—सघनता, सटा होना
- घनता—स्त्री॰—-—घन+तल्—दृढ़ता, ठोसपना
- घनत्वम्—नपुं॰—-—घन+त्व—सघनता, सटा होना
- घनत्वम्—नपुं॰—-—घन+त्व—दृढ़ता, ठोसपना
- घर्घरः—पुं॰—-—घृ+यङ्+लुक्+अच्—मन्दिर का एक विशेष प्रकार का निर्माण
- घर्म—वि॰—-—घृ+मक्, नि॰ गुणः—गर्म
- घर्मः—पुं॰—-—-—गर्मी
- घर्मः—पुं॰—-—-—ग्रीष्म ॠतु
- घर्मः—पुं॰—-—-—पसीना
- घर्मः—पुं॰—-—-—प्रवर्ग्य संस्कार
- घर्मः—पुं॰—-—-—एक देवता का नाम
- घर्मजातिः—स्त्री॰—घर्मः-जातिः—-—पसीने से उत्पन्न जीव
- घर्षणालः—पुं॰—-—घर्षण+आलच्— पीसने वाला, बट्टा, लोढी
- घाटणम्—नपुं॰—-—घट्+णिच्+ल्युट्—चटखनी, कुंडा
- घातः—पुं॰—-—हन्+णिच्+घञ्—हण्टर लगाना
- घातकृच्छ्रम्—नपुं॰—घातः-कृच्छ्रम्—-—एक प्रकार का मूत्ररोग
- घातदिवसः—पुं॰—घातः-दिवसः—-—अशुभ दिन, जन्मनक्षत्र से सातवाँ नक्षत्र
- घुणक्षत—वि॰— —घुण+क=घुण+क्षण+क्त —कीड़े से खाया हुआ, घुण लगा हुआ-श्रीनिर्मित
- घुणजग्ध—वि॰—-—घुण+क=घुण+अद्+क्त—कीड़े से खाया हुआ, घुण लगा हुआ-श्रीनिर्मित
- घुणभुक्त—वि॰—-—घुण+क=घुण+भुज्+क्त—कीड़े से खाया हुआ, घुण लगा हुआ-श्रीनिर्मित
- घुमघुमित—वि॰—-—घुमघुम+इतच्—सुगन्धित, सुरभित, खुशबूदार
- घुष्टान्नम्—नपुं॰—-—-—ढिंढोरा पीट कर सबको अन्नदान करना
- घृत—वि॰—-—घृ+क्त—छिड़का हुआ
- घृत—वि॰—-—घृ+क्त—चमकीला
- घृतम्—नपुं॰—-—-—घी
- घृतम्—नपुं॰—-—-—मक्खन
- घृतम्—नपुं॰—-—-—शराब
- घृताक्त—वि॰—-—-— घी से चुपड़ा हुआ, घी की सुगन्ध आती है
- घृतगन्धः—पुं॰—घृत-गन्धः—-— घोड़ों का एक भेद जिसमें घी की सुगन्ध आती है
- घृतप्राशः—पुं॰—घृत-प्राशः—-—घी पीना
- घृतप्राशनम्—नपुं॰—घृत-प्राशनम्—-—घी पीना
- घृतप्लुत—वि॰—घृत-प्लुत—-—घी से चुपड़ा हुआ
- घृतहेतुः—पुं॰—घृत-हेतुः—-—मक्खन
- घृणा—स्त्री॰—-—घृ+नक्—शर्म की भावना
- घृणिन्—वि॰—-—घृण+इनि—लज्जालु, शर्मीला
- घोणा—स्त्री॰—-—घुण्+अच्+टाप्—चोंच
- घोणा—स्त्री॰—-—घुण्+अच्+टाप्—पहिये की नाभि
- घोषः—पुं॰—-—घुष्+घञ्—सस्वर पाठ, मन्त्रोच्चारण
- घोषयात्रा—स्त्री॰—घोषः-यात्रा—-— सामूहिक रूप से गोपालों के स्थान पर जाना, सामूहिक तीर्थयात्रा
- घोषवर्ण—वि॰—घोषः-वर्ण—-—घोष प्रयत्न वाला अक्षर, स्वन युक्त या निनादी अक्षर
- घोषवृद्धः—पुं॰—घोषः-वृद्धः—-—ग्रामीण ग्वाले
- घ्रंस्—पुं॰—-—घ्रंस्+क्विप्—सूर्य की गर्मी, चिलचिलाती धूप
- घ्रंसः—पुं॰—-—घ्रंस्+अच् —सूर्य की गर्मी, चिलचिलाती धूप
- घ्राण—वि॰—-—घ्रा+क्त—सूघा हुआ
- घ्राणः—पुं॰—-—घ्रा+क्त—गन्ध
- घ्राणः—पुं॰—-—घ्रा+क्त—गन्ध आना
- घ्राणः—पुं॰—-—घ्रा+क्त—नाक
- घ्राणम्—नपुं॰—-—घ्रा+क्त—गन्ध
- घ्राणम्—नपुं॰—-—घ्रा+क्त—गन्ध आना
- घ्राणम्—नपुं॰—-—घ्रा+क्त—नाक
- घ्राणपुटः—पुं॰—घ्राण-पुटः—-—नथुना
- घ्राणस्कन्दः—पुं॰—घ्राण-स्कन्दः—-—नाक बजाना, सिनकना
- चकोरदृश्—वि॰,ब॰स॰—-—-—चकोर जैसी आँखों वाला, सुन्दर आँखों वाला
- चकोराक्ष—वि॰,ब॰स॰—-—-—चकोर जैसी आँखों वाला, सुन्दर आँखों वाला
- चक्रम्—नपुं॰—-—क्रियते अनेन, कृ घञ्र्थे क, नि॰ द्वित्वम्—गाड़ी का पहिया
- चक्रम्—नपुं॰—-—क्रियते अनेन, कृ घञ्र्थे क, नि॰ द्वित्वम्—कुम्हार का चाक
- चक्रम्—नपुं॰—-—क्रियते अनेन, कृ घञ्र्थे क, नि॰ द्वित्वम्—गोल तीक्ष्ण अस्त्र
- चक्रम्—नपुं॰—-—क्रियते अनेन, कृ घञ्र्थे क, नि॰ द्वित्वम्—तेल का कोल्हू
- चक्रम्—नपुं॰—-—क्रियते अनेन, कृ घञ्र्थे क, नि॰ द्वित्वम्—वृत्त
- चक्रमारः—पुं॰—-—-—पहिये का अरा
- चक्रमारम्—नपुं॰—-—-—पहिये का अरा
- चक्रमाश्मन्—पुं॰—-—-—एक प्रकार का पत्थर फेंकने का यंत्र
- चक्रमेश्वरी—स्त्री॰—-—-—जैनियों की विद्या देवी, सरस्वती
- चक्रमगनः—पुं॰—-—-—गरजता हुआ बादल
- चक्रमबर्मन्—पुं॰—-—-—कश्मीर के एक राजा का नाम
- चक्षुष्यम्—नपुं॰—-— चक्षुष्+यत्—आँखों के लिए मल्हम
- चञ्चूर्यमाण—वि॰—-—-—अशिष्टतापूर्वक अंगविक्षेप करने वाला, अश्लील इंगित करने वाला
- चटकामुखः—ब॰स॰—-—-—एक विशेष प्रकार का बाण
- चटुलय्—ना॰धा॰पर॰—-—-—इधर-उधर घूमना
- चतुर्—सं॰वि॰—-—चत्+उरन्—चार
- चतुरङ्गिकः—पुं॰—चतुर्-अङ्गिकः—-—एक घोड़ा जिसके मस्तक पर बालों के चार घूंघर लहराते हों
- चतुष्काष्ठम्—अ॰—चतुर्- काष्ठम्—-—चारों दिशाओं में
- चतुश्चित्यः—पुं॰—चतुर्-चित्यः—-—उभरी हुई वर्गाकार बनी चौंतरी
- चतुष्पादम्—नपुं॰—चतुर्-पादम्—-—धनुर्विज्ञान जिसमें चार भाग होते है
- चतुर्मेघः—पुं॰—चतुर्-मेघः—-—जिसने चार बड़े यज्ञों अश्वमेध, पुरुषमेध, पितृमेध और सर्वमेध का अनुष्ठान सम्पन्न कर लिया है
- चतुस्सनः—पुं॰—चतुर्-सनः—-—सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चारों रूप धारण करने वाला विष्णु
- चतुष्कः—वि॰—-— चतुरवयवं चत्वारोऽवयवा यस्य वा कन्—चार की संख्या से युक्त
- चतुष्कम्—नपुं॰—-—-—चार पायों वाला स्टूल, चौकी
- चन्दनपङ्कः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—चन्दन का लेप
- चन्द्र—वि॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—चमकीला, उज्ज्वल, देदीप्यमान
- चन्द्र—वि॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—सुन्दर
- चन्द्रः—पुं॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—चन्द्रमा, चाँद
- चन्द्रः—पुं॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—कपूर
- चन्द्रः—पुं॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—मोर की पूँछ का चन्दा
- चन्द्रः—पुं॰—-—चन्द्र+णिच्+रक्—पानी
- चन्द्रकुल्या—स्त्री॰—चन्द्र-कुल्या—-—एक नदी का नाम
- चन्द्रप्रज्ञप्तिः—स्त्री॰—चन्द्र-प्रज्ञप्तिः—-—जैनियों का छठा उपाङ्ग
- चन्द्रप्रासादः—पुं॰—चन्द्र-प्रासादः—-—चबूतरा, खुली छत
- चन्द्रटः—पुं॰—-—-—आयुर्वेद विषय पर प्राचीन ग्रन्थकर्ता- सुश्रुत भूमिका
- चन्द्रा—स्त्री॰—-—-—गाय
- चपेटी—स्त्री॰—-—-—भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष का छठा दिन
- चमकसूक्तम्—नपुं॰—-—-—वेद का एक सूक्त जिसके प्रत्येक मन्त्र में ‘चम’ की आवृत्ति की जाती है
- चमसोद्भेदः—पुं॰—-—-—एक तीर्थस्थान जहाँ से सरस्वती नदी निकलती है
- चम्पा—स्त्री॰—-—-—अङ्गदेश की राजधानी
- चयाट्टः—पुं॰—-—-—वप्र, बुर्ज
- चरः—पुं॰—-—चर्+अच्—वायु, हवा
- चरगृहम्—नपुं॰—चरः-गृहम्—-—मेष, कर्क, तुला और मकर के घर
- चरकः—पुं॰—-—-—भारतीय आयुर्वेद का एक प्रवर्तक तथा चरकसंहिता का लेखक
- चरणम्—नपुं॰—-—चर्+ल्युट्—ब्रह्मचर्य के कड़े नियमों को पालन करने वाला अध्येता
- चरणम्—नपुं॰—-—चर्+ल्युट्—पर
- चरणोपधानम्—नपुं॰—चरणम्-उपधानम्—-—पायदान
- चरणव्यूहः—पुं॰—चरणम्-व्यूहः—-—एक ग्रन्थ जिसमें वेद की शाखाओं का वर्णन है
- चर्चुरम्—नपुं॰—-—-—दाँतों के कटकटाने का शब्द
- चर्पटः—पुं॰—-—चृप्+अटन्—चीवर, चिथड़ा
- चर्मम्णः—पुं॰,वेद॰—-—-—चमड़े का कवच धारण करनेवाला
- चर्मरङ्गाः—पुं॰ब॰व॰—-—-—मध्य भारत की एक जाति
- चलवङ्गः—पुं॰—-—चलत्+अङ्ग—एक प्रकार की मछली
- चलद्विषः—पुं॰—-—-—कोकिला, भारतीय कोयल
- चाक्षुष्यम्—नपुं॰—-—चाक्षुष्+यत्—एक प्रकार का आँखों का अंजन
- चातुरः—पुं॰—-—चतुर् एव, स्वार्थे अण्—एक छोटा गावदुम तकिया
- चातुरन्त—वि॰—-— चतुरन्त+अण्—चारों समुद्रों तक समस्त पृथ्वी को अधिकार में करने वाला
- चातुरीकः—पुं॰—-—चातुरी+कप्—हंस
- चातुरीकः—पुं॰—-—चातुरी+कप्—एक प्रकार की बत्तख
- चारः—पुं॰—-—चर एव, अण्—गति, चाल, भ्रमण
- चारः—पुं॰—-—चर एव, अण्—पैदल सैर करना
- चारः—पुं॰—-—चर एव, अण्—कारागार
- चारः—पुं॰—-—चर एव, अण्—हथकड़ी बेड़ी
- चारः—पुं॰—-—चर एव, अण्—पिपली का वृक्ष, प्रियाल का पेड़
- चार्या—स्त्री॰—-—-—पथ, मार्ग, आठ हाथ चौड़ी सड़क
- चार्वाकः—पुं॰—-—चारः लोकसंमतं वाको वाक्यं यस्य+पृषो॰—दर्शनशास्त्र की चार्वाक शाखा का अनुयायी
- चिकित्सा—स्त्री॰—-— कित्+सन्+अ, स्त्रियां टाप्—दण्ड
- चिकित्सु—वि॰—-— कित्+सन्+उ— बुद्धिमान चालाक
- चिञ्चाम्लम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—इमली से तैयार किया गया जूष या झोल
- चित्तम्—नपुं॰—-—चित्+क्त—हृदय, मन
- चित्तम्—नपुं॰—-—चित्+क्त—ज्ञान
- चित्तार्पित—वि॰—चित्तम्-अर्पित—-—दिल में प्ररक्षित
- चित्तनाथः—पुं॰—-—-—हृदय का स्वामी
- चित्तिः—स्त्री॰—-—चित्+क्तिन्—मानसिक अवस्था
- चित्तिः—स्त्री॰—-—चित्+क्तिन्—ज्ञानेन्द्रिय
- चित्तिः—स्त्री॰—-—चित्+क्तिन्—संध्यान, मनन
- चित्य—वि॰—-—चिता+यत्—चिता से संबंध रखने वाला
- चित्रम्—नपुं॰—-—चित्र्+अच्, चि+ष्ट्रन् वा—कमल का फूल
- चिन्तामणिः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का घोड़ा जिसकी गर्दन पर बालों का बड़ा घूंघर हो
- चीचीकूची—स्त्री॰—-—-—अनुकरणमूलक शब्द जो पक्षियों के कलरव को प्रकट करता है।
- चीनदारुः—पुं॰—-—-—दारचीनी
- चीरल्लिः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की बड़ी मछली
- चीरी—स्त्री॰—-—चीरि+ङीष्—झींगुर
- चोदना—स्त्री॰—-—चुद्+युच्+टाप्—‘अपूर्व’ नामक श्रेणी
- चुमचुमायनम्—नपुं॰—-—-—किसी घाव में खुजलाहट होना
- चुमुरिः—पुं॰—-—-—एक राक्षस का नाम
- चेरिका—स्त्री॰—-—-—जुलाहों की एक उपनगरी
- चैत्याग्निः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—पुनीत अग्नि, यज्ञीय अग्नि
- चौर्णेय—वि॰—-—चूर्णा+ढक्—केरल प्रदेश के पास ‘चूर्णा’ नामक नदी से प्राप्त मोती
- च्यवनः—पुं॰—-—च्यु+णिच्+ल्युट्—एक ऋषि का नाम
- छत्रीकृ—तना॰उभ॰—-—छत्र+च्वि—छत्री की भाँति प्रयुक्त करना
- छन्दस्—नपुं॰—-—छन्दयति+छन्द्+असुन्—एक पर्व, त्योहार
- छम्बङ्कारम्—अ॰—-—-—विफल कराने के लिए जिससे कि सफलता न मिले
- छम्बट्कर—वि॰—-—छम्बट्+कृ+अच्—नष्ट भ्रष्ट करने वाला
- छम्बट्करी—स्त्री॰—-—-—नष्ट भ्रष्ट करने वाली
- छम्बट्कारः—पुं॰—-—छम्बट्+कृ+घञ्—नाश, ध्वंस, विनाश
- छलः—पुं॰—-—छल्+अच्—एक प्रकार का झगड़ा जिसमें असंगत तर्को का प्रयोग किया जाय
- छाया—स्त्री॰—-—छो+य+टाप्—प्राकृत मूल पाठ का संस्कृत भाषान्तर
- छिद्रम्—नपुं॰—-—छिद्+रक्—प्रभाग
- छिद्रम्—नपुं॰—-—छिद्+रक्—स्थान
- छिद्रम्—नपुं॰—-—छिद्+रक्—आकाश, अन्तरिक्ष
- छेदनम्—नपुं॰—-—छिद्+ल्युट्—आयुर्वेद में एक प्रकार की शल्यप्रक्रिया
- छुच्छुः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का जन्तु
- छुरितम्—नपुं॰—-—छुर्+क्त—काट, खरौंच
- छुरिका—स्त्री॰—-—-—बाँझ गाय
- छेला (फेला)—स्त्री॰—-—-—भवन के आधारगर्त में बना वज्रकोष्ठ या तहखाना
- जगद्गुरुः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—श्री शंकराचार्य का नाम
- जगच्चन्द्रिका—स्त्री॰—-—-—ब्रह्मसंहिता पर भट्टोत्पलकृत एक टीका
- जगच्चित्रम्—नपुं॰—-—-—विश्व का एक आश्चर्य
- जगतीपतिः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—शासक, राजा
- जङ्घापथः—पुं॰—-—-—पगडण्डी
- जङ्घाबलम्—नपुं॰,ष॰त॰—-—-—द्रुम दबा कर भागना
- जटापाठः—पुं॰—-—-—वेद मन्त्रों के मूलपाठ को सस्वर पढ़ने की एक रीति
- जटावल्लभः—पुं॰—-—-—‘जटापाठ’ की प्रणाली से वेदपाठ करने में प्रवीण विद्वान पुरुष
- जनः—पुं॰—-—जन्+अच्—प्राणधारी, जीव
- जनः—पुं॰—-—जन्+अच्— मनुष्य
- जनः—पुं॰—-—जन्+अच्—एक व्यक्ति
- जनः—पुं॰—-—जन्+अच्—राष्ट्र, जाति
- जनाश्रयः—पुं॰—जनः-आश्रयः—-— विष्णुकुण्डी वंश के राजा की उपाधि, जिसे ज्ञानाश्रयी छन्दोविचिति का प्रणेता समझा जाता है
- जनजल्पः—पुं॰—जनः-जल्पः—-—लोकोक्ति, कहावत, किंवदन्ती
- जनमारः—पुं॰—जनः-मारः—-—महामारी
- जनंसह—वि॰—-—-—लोगों का दमन करने वाला
- जपत्—वि॰—-—जप्+शतृ—सन्यासी
- जम्बुमालिन्—पुं॰—-—-—रावण की सेना के एक राक्षस का नाम
- जम्भसाधक—वि॰—-—-—आयुर्वेद का ज्ञान रखने वाला
- जम्भकः—पुं॰—-—जभ्+ण्वुल्, नुम्—द्रोही, विश्वासघाती
- जम्भकः—पुं॰—-—जभ्+ण्वुल्, नुम्—औषधोपचार
- जयन्तिः—स्त्री॰—-—-—तराजू की डण्डी
- जर्भरि—वि॰,वेद॰—-—-—सहारा देने वाला
- जलम्—नपुं॰—-—जल्+अच्— पानी
- जलम्—नपुं॰—-—जल्+अच्—सुगंधयुक्त औषध का पौधा
- जलम्—नपुं॰—-—जल्+अच्—गाय का भ्रूण
- जलागमः—पुं॰—जलम्-आगमः—-—वर्षा ऋतु
- जलप्रपातः—पुं॰—जलम्-प्रपातः—-—झरना
- जलशर्करा—स्त्री॰—जलम्-शर्करा—-—ओला, करका
- जलस्रावः—पुं॰—जलम्-स्रावः—-—आँख का एक रोग
- जलाषभेषज—वि॰,ब॰स॰—-—-—उपचारक औषधियाँ रखने वाला
- जवस्—नपुं॰—-—जव्+असुन्—गति, चाल, शीघ्रता
- जातकचक्रम्—नपुं॰—-—-—जन्मकुंडली, जन्मपत्रिका
- जातिक्षयः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—जन्म का अन्त, जन्म से मुक्ति
- जातिगृद्धिः—स्त्री॰—-—जाति+गृध्+क्तिन्—जन्म लेना
- जातूभर्मन्—वि॰वेद॰—-—-—सदैव पोषण करने वाला
- जानराज्यम्—नपुं॰—-—जनराज+ष्यञ्—प्रभुसत्ता
- जानश्रुतिः—पुं॰—-—-—छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित एक राजा का नाम
- जामदग्न्यः—पुं॰—-—जमदग्नि+अण्—परशुराम
- जामातृबन्धकम्—नपुं॰—-—-—स्त्रीधन, दहेज
- जारणम्—नपुं॰—-—जृ+णिच्+ल्युट्—क्षीण करना
- जारणम्—नपुं॰—-—जृ+णिच्+ल्युट्—धातुओं पर जारेय की पर्त चढ़ाना
- जारूथ्य—वि॰—-—-— स्तुति के योग्य
- जारूथ्य—वि॰—-—-—जिसमें तीन बार दक्षिणा दी जाय
- जारूथ्य—वि॰—-—-—आमिषोपहार में समृद्ध
- जालकम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का वृक्ष
- जालोरः—पुं॰—-—-—कश्मीर में एक अग्रहार
- जयः—पुं॰—-—जि+अच्—महाभारत का एक विशेषण
- जयः—पुं॰—-—जि+अच्—जयजयकारों से पूर्ण विजय
- जयाजयौ—पुं॰—जय-अजयौ—-—जीत तथा हार
- जयापजयौ—पुं॰—जय-अपजयौ—-—जीत तथा हार
- जयगत—वि॰—जयः-गत—-—जीतने वाला, विजयी
- जितहस्त—वि॰,ब॰स॰—-—-—जिसने अपने हाथ को अभ्यस्त कर लिया है
- जित्यः—पुं॰—-—जि+क्यप्—एक उपकरण जिसके द्वारा जुते हुए खेत को समस्तर किया जाता है।
- जिल्लिकाः—पुं॰,ब॰व॰—-—-—एक राष्ट्र का नाम
- जिह्मेतर —वि॰,त॰स॰—-—-—जो आलसी न हो
- जिह्मित—वि॰—-—जिह्म+इतच्—व्याकुल
- जिह्मित—वि॰—-—जिह्म+इतच्—टेढ़ा बनाया हुआ, झुका हुआ
- जीमूतप्रभः—पुं॰,ब॰स॰—-—-—एक प्रकार का रत्न
- जीवकोशः—पुं॰—-—-—सूक्ष्मशरीर, लिङ्गशरीर
- जीवन्तिका—स्त्री॰—-—जीव्+शतृ+ङीप्,कन्, ह्रस्वश्च—सद्योजात शिशुओं की देखभाल करने वाली देवी
- जीवन्तिका—स्त्री॰—-—जीव्+शतृ+ङीप्,कन्, ह्रस्वश्च—एक पौधे का नाम
- जीविका—स्त्री॰—-—जीव्+अकन्, अत इत्वम्—जिन्दगी
- जुकुटम्—नपुं॰—-—-—सफेद बैगन का पौधा
- जुगुप्सितम्—नपुं॰—-—गुप्+सन्+क्त—घृणित कार्य, अरुचिकर कृत्य
- जूर्य—वेद॰,वि॰—-—जृ+य—पुराना
- जोषवाकः—पुं॰—-—-—निरर्थक बात करना
- जूतिः—स्त्री॰—-—जू+क्तिन्—मन का संकेन्द्रीकरण
- जैमिनिः—पुं॰—-—-—एक प्रसिद्ध मुनि जो दर्शन शास्त्र की पूर्वमीमांसा के प्रवर्तक थे
- जैमिनिभागवतम्—नपुं॰—जैमिनिः-भागवतम्—-—भागवत का आधुनिक संस्करण
- जैमिनिभारतम्—नपुं॰—जैमिनिः-भारतम्—-—महाभारत का आधुनिक संस्करण
- जैमिनिशाखा—स्त्री॰—जैमिनिः-शाखा—-—सामवेद की एक शाखा
- जैमिनिसूत्रम्—नपुं॰—जैमिनिः-सूत्रम्—-—एक ग्रन्थ का नाम
- जैमिनीय—वि॰—-—जैमिनि+छ—जैमिनी द्वारा रचित, या उनसे संबद्ध
- जैयटः—पुं॰—-—-—कैयट के पिता का नाम
- जोन्ताला—स्त्री॰—-—-—जौ
- जोषम्—अ॰—-—जुष्+ण्यत्—प्रिय, स्नेहार्ह
- ज्ञंमन्य—वि॰—-—-—अपने आप को बुद्धिमान् समझने वाला
- ज्ञातान्वयः—पुं॰—-—-—प्रसिद्ध कुल में उत्पन्न होने वाला पुत्र
- ज्ञातिचेलम्—नपुं॰—-—-—नीच कुल में उत्पन्न व्यक्ति
- ज्ञातिप्रायः—पुं॰—-—-—संबन्धियों के लिए आहार, जातिभोजन
- ज्ञानम्—नपुं॰—-—ज्ञा+ल्युट्—जानकारी का साधन
- ज्ञानम्—नपुं॰—-—ज्ञा+ल्युट्—सम्मति
- ज्ञानाग्निः—पुं॰—ज्ञानम्-अग्निः—-—ज्ञान की आग
- ज्ञानघनः—पुं॰—ज्ञानम्-घनः—-—शुद्धज्ञान, केवलज्ञान
- ज्ञानपूर्व—वि॰—ज्ञाम्-पूर्व—-—खूब सोचा हुआ, पहले से पूरी जानकारी प्राप्त किए हुए
- ज्ञानवृद्ध—वि॰—ज्ञानम्-वृद्ध—-—ज्ञान या जानकारी में बड़ा-बूढ़ा
- ज्ञानिन्—वि॰—-—ज्ञान्+इनि— बुद्धिमान्, समझदार
- ज्ञानिन्—पु॰—-—-— बुध ग्रह
- ज्मन्—वै॰—-—-—पृथ्वी पर, धरती पर
- ज्या—स्त्री॰—-—ज्या+अङ्+टाप्—एक प्रकार की लकड़ी की सोटी
- ज्या—स्त्री॰—-—ज्या+अङ्+टाप्— सेना का पृष्ठभाग
- ज्येष्ठः—पुं॰—-—वृद्ध (प्रशस्य)+इष्ठन्, ज्यादेशः—सबसे बड़ा
- ज्येष्ठः—पुं॰—-—वृद्ध (प्रशस्य)+इष्ठन्, ज्यादेशः—सर्वोत्तम
- ज्येष्ठः—पुं॰—-—वृद्ध (प्रशस्य)+इष्ठन्, ज्यादेशः—उच्चतम
- ज्येष्ठः—पुं॰—-—-—एक चांद्रमास का नाम
- ज्येष्ठराज्—पुं॰—ज्येष्ठः-राज्—-—प्रभुसत्ता संपन्न राजा
- ज्येष्ठसामन्—नपुं॰—ज्येष्ठः-सामन्—-—एक विशेष साम
- ज्येष्ठा—स्त्री॰—-—-—लक्ष्मी देवी की बड़ी बहन वारुणी
- ज्येष्ठा—स्त्री॰—-—-—एक देवी का नाम
- ज्योक्—अ॰,वेद॰—-—-—चिरकाल तक, दीर्घ समय तक
- ज्योग्जीवनम्—नपुं॰—-—-—दीर्घकाल तक जीना, लम्बी आयु होना
- ज्योतिस्—नपुं॰—-—द्युत्+इसुन्, आदेर्दस्य जः—प्रकाश, कान्ति, आभा, चमक
- ज्योतिस्—नपुं॰—-—द्युत्+इसुन्, आदेर्दस्य जः— बिजली
- ज्योतिस्—नपुं॰—-—द्युत्+इसुन्, आदेर्दस्य जः—गाय
- ज्वरः—पुं॰—-—ज्वर्+थ—ताप, बुखार
- ज्वरः—पुं॰—-—ज्वर्+थ—मानसिक ताप
- ज्वरान्तकः—पुं॰—ज्वरः-अन्तकः—-— शिव का विशेष रूप
- ज्वरारिः—पुं॰—ज्वरः-अरिः—-—ज्वर नाशक औषधि
- ज्वरहर—वि॰—ज्वरः-हर—-—ज्वरप्रशामक, ज्वरनाशक
- ज्वलनाश्मन्—पुं॰—-—-—सूर्यकान्त मणि
- ज्वाला—स्त्री॰—-—ज्वल्+ण+टाप्—आग की लपट, अग्निशिखा
- ज्वाला—स्त्री॰—-—ज्वल्+ण+टाप्—दग्धान्न
- ज्वालामालिन्—पुं॰—ज्वाला-मालिन्—-—शिव देवता
- ज्वालामालिनी—स्त्री॰—ज्वाला-मालिनी—-—दुर्गा का एक रूप
- ज्वालामुखी—स्त्री॰—ज्वाला-मुखी—-—दुर्गा का एक विशेष रूप
- ज्वालारासभकामयः—पुं॰—ज्वाला-रासभकामयः—-—दाद, दद्रु
- झञ्झानिलः—पुं॰—-—-—ओलों की बौछार, आँधी के साथ ओलों का पड़ना
- झम्पः—पुं॰—-—झम्+प—उछल-कूद
- झम्पः—पुं॰—-—झम्+प—मछली
- झम्पा—स्त्री॰—-—झम्+प, स्त्रियां टाप्—उछल-कूद
- झम्पा—स्त्री॰—-—झम्+प, स्त्रियां टाप्—मछली
- झम्पाशिन्—पुं॰—झम्पः-अशिन्—-—मत्स्याद, मछली खाने वाला
- झम्पतालः—पुं॰—झम्पः-तालः—-—एक प्रकार की संगीत की ताल, गायन की माप
- झम्पनृत्यम्—नपुं॰—झम्पः-नृत्यम्—-—एक प्रकार का नाच
- झलज्झलः —पुं॰—-—-—चौंधियाने वाली चमक
- झलझलः—पुं॰—-—-—चौंधियाने वाली चमक
- झषराजः—पुं॰,ष॰त॰—-—-—मगरमच्छ
- झाङ्कारिन्—वि॰—-—झाङ्कार+इनि—‘झङ्कार’ ध्वनि को करने वाला
- झिः—पुं॰—-—-—चन्द्रमा की कला
- झिः—पुं॰—-—-—बन्दर
- झिल्लिन्—पुं॰—-—-—एक वॄष्णि का नाम
- झीः—पुं॰—-—-—हाथी
- झूः—पुं॰—-—-—ध्रुव तारा
- झूः—पुं॰—-—-—समूह
- झूः—पुं॰—-—-—अरुणदेव
- झोः—पुं॰—-—-—कर्ण का नाम
- झौः—पुं॰—-—-—स्वर्ग
- झौलिकम्—नपुं॰—-—-—पान आदि रखने का बक्स, पानदान
- झौलिकम्—नपुं॰—-—-—झोला, थैला
- ञः—पुं॰—-—-—गायक
- ञः—पुं॰—-—-—‘गरगर’ का शब्द
- ञः—पुं॰—-—-—साँड़
- ञः—पुं॰—-—-—शुक्र
- ञः—पुं॰—-—-—पाँच की संख्या