विक्षनरी:संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश/शाक-ष
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- मूलशब्द—व्याकरण—संधिरहित मूलशब्द—व्युत्पत्ति—हिन्दी अर्थ
- शाकः—पुं॰—-—शक्यते भोक्तुम् - शक् + घञ्—शाक, साग -भाजी, खाद्यपत्ते, फल या कन्द जो शाक की भांति उपयोग में लाये जायं
- शाकम्—नपुं॰—-—शक्यते भोक्तुम् - शक् + घञ्—शाक, साग -भाजी, खाद्यपत्ते, फल या कन्द जो शाक की भांति उपयोग में लाये जायं
- शाकः—पुं॰—-—-—शक्ति, सामर्थ्य, ऊर्जा
- शाकः—पुं॰—-—-—सागौन का वृक्ष
- शाकः—पुं॰—-—-—शिरीष का वृक्ष
- शाकः—पुं॰—-—-—एक जाति का नाम
- शाकः—पुं॰—-—-—वर्ष, विशेषतः शालिवाहन संवत्सर
- शाकाङ्गम्—नपुं॰—शाकः-अङ्गम्—-—मिर्च
- शाकाम्लम्—नपुं॰—शाकः- अम्लम्—-—महादा, इमली
- शाकाख्यः—पुं॰—शाकः- आख्यः—-—सागौन का वृक्ष
- शाकाख्यम्—नपुं॰—शाकः- आख्यम्—-—शाकभाजी
- शाकाहारः—पुं॰—शाकः- आहारः—-—शाकभाजी खाने वाला (वनस्पति खाकर जीवित रहने वाला)
- शाकचुक्रिका—स्त्री॰—शाकः-चुक्रिका—-—इमली
- शाकतरुः—पुं॰—शाकः-तरुः—-—सागौन का वृक्ष
- शाकपणः—पुं॰—शाकः-पणः—-—मुट्ठीभर भार के बराबर तोल
- शाकपणः—पुं॰—शाकः-पणः—-—मुट्ठीभर शाकभाजी
- शाकपार्थिवः—पुं॰—शाकः-पार्थिवः—-—अपने नाम से वर्ष चलाने का शौकीन
- शाकप्रति—अव्य॰—शाकः-प्रति—-—थोड़ी सी वनस्पति
- शाकयोग्यः—पुं॰—शाकः-योग्यः—-—धनिया
- शाकवृक्षः—पुं॰—शाकः-वृक्षः—-—सागौन का पेड़
- शाकशाकटम्—नपुं॰—शाक-शाकटम्—-—साग भाजी का खेत, रसोई के योग्य सब्जियों का उद्यान
- शाकशाकिनम्—नपुं॰—शाक-शाकिनम्—-—साग भाजी का खेत, रसोई के योग्य सब्जियों का उद्यान
- शाकट—वि॰—-—शकट + अण्—गाड़ी सम्बन्धी
- शाकट—वि॰—-—शकट + अण्—गाड़ी में बैठकर जाने वाला
- शाकटः—पुं॰—-—-—गाड़ी खींचने वाला बैल
- शाकटः—पुं॰—-—-—श्लेष्मान्तक वृक्ष
- शाकटः—नपुं॰—-—-—खेत
- शाकटायनः—पुं॰—-—शकटस्यापत्यम्-शकट + फक्—भाषाविज्ञान और व्याकरण का पंडित जिसका पाणिनि और यास्क ने कई बार उल्लेख किया है
- शाकटिक—वि॰—-—शकट + ठक्—गाड़ी सम्बन्धी
- शाकटिक—वि॰—-—शकट + ठक्—गाड़ी में बैठकर जाने वाला
- शाकटीनः—पुं॰—-—शकट + खञ्—गाड़ी में समाने योग्य बोझ, बीस तुला के समान बोझ की तोल
- शाकल—वि॰—-—शकल + अण्—टुकड़े से सम्बन्ध रखने वाला
- शाकलः—पुं॰ब॰ व॰—-—-—ॠग्वेद की एक शाखा, इस शाखा के अनुयायी
- शाकलप्रातिशाख्यम्—नपुं॰—शाकल-प्रातिशाख्यम्—-—ऋग्वेद का प्रातिशाख्य
- शाकलशाखा—स्त्री॰—शाकल-शाखा—-—ऋग्वेद का परम्परागत पाठ जो शाकल शाखा में प्रचलित है
- शाकल्यः—पुं॰—-—शकलस्यापत्यम् - यञ्—एक प्राचीन वैयाकरण जिसका उल्लेख पाणिनि ने किया है
- शाकारी—स्त्री॰—-—-—प्राकृत का एक निम्नतम रूप, शकार द्वारा बोली गई बोली
- शाकिनम्—नपुं॰—-—शाक + इनच्—खेत
- शाकिनी—स्त्री॰—-—शाकिन् + ङीप्—साग-भाजी का खेत
- शाकिनी—स्त्री॰—-—-—दुर्गादेवी की सेविका ( जो एक पिशाचिनी या परी समझी जाती है )
- शाकुन—वि॰—-—शकुन + अण्—पक्षियों से सम्बन्ध रखने वाला
- शाकुन—वि॰—-—शकुन + अण्—सगुन सम्बन्धी
- शाकुन—वि॰—-—शकुन + अण्—शकुनसम्बन्धी
- शाकुनिकः—पुं॰—-—शकुनेन पक्षिवधादिना जीवति ठञ्—बहेलिया, चिड़ीमार
- शाकुनिकम्—नपुं॰—-—-—शकुनों की व्याख्या
- शाकुनेयः—पुं॰—-—शकुनि + ढक्—छोटा उल्लू
- शाकुन्तलः—पुं॰—-—शकु्न्तला + अण्—भरत का मातृपरक नाम (शकुन्तला का पुत्र)
- शाकुन्तलम्—नपुं॰—-—-—कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तल नामक नाटक
- शाकुलिकः—पुं॰—-—शकुल + ठक्—मछुआ, मछली मारने वाला
- शाक्करः—पुं॰—-—शक्कर + अण्—बैल
- शक्ति—वि॰—-—शक्ति + अण्—शक्ति सम्बन्धी
- शक्ति—वि॰—-—शक्ति + अण्—दिव्यशक्ति की स्त्री प्रतिमा से सम्बन्ध रखने वाला
- शक्तः—पुं॰—-—-—शक्तिपूजक
- शाक्तिकः—पुं॰—-—शक्ति + ठक्—शक्ति का पूजक
- शाक्तिकः—पुं॰—-—शक्ति + ठक्—बर्छीधारी, भाला रखने वाला
- शाक्तीकः—पुं॰—-—शक्ति + ईकक्—बर्छी रखने वाला, भालाधारी
- शाक्तेयः—पुं॰—-—शक्ति + ढक्—शक्ति का उपासक
- शाक्यः—पुं॰—-—शक् + घञ् तत्र साधुः यत्— बुद्ध के कुटुम्ब का नाम
- शाक्यः—पुं॰—-—शक् + घञ् तत्र साधुः यत्—बुद्ध
- शाक्यभिक्षुकः—पुं॰—शाक्य-भिक्षुकः—-—बौद्धभिक्षु
- शाक्यमुनिः—पुं॰—शाक्य-मुनिः—-—बुद्ध के विशेषण
- शाक्यसिंहः—पुं॰—शाक्य-सिंहः—-—बुद्ध के विशेषण
- शाक्री—स्त्री॰—-—शक्र + अण् + ङीप्—इन्द्र की पत्नी शची
- शाक्री—स्त्री॰—-—शक्र + अण् + ङीप्—दुर्गादेवी
- शाक्वरः—स्त्री॰—-—शक्वर + अण्—बैल
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—(वृक्ष आदि की) डाली, शाख
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—भुजा
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—दल, अनुभाग, गुट
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—किसी कार्य का भाग या उपभाग
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—सम्प्रदाय, शाखा, पन्थ
- शाखा—स्त्री॰—-—शाखति गगनं व्याप्नोति -शाख् + अच् + टाप्—परम्परा प्राप्त वेद का पाठ, किसी सम्प्रदाय द्वारा मान्यताप्राप्त परम्परागत पाठ यथा शाकल शाखा, आश्वलायन शाखा, बाष्कल शाखा आदि
- शाखाचन्द्रन्यायः—पुं॰—शाखा-चन्द्रन्यायः—-—
- शाखानगरम्—नपुं॰—शाखा-नगरम्—-—नगराञ्चल, नगर परिसर
- शाखापुरम् —नपुं॰—शाखा-पुरम् —-—नगराञ्चल, नगर परिसर
- शाखापित्तः—पुं॰—शाखा-पित्तः—-—शरीर के हाथ, कन्धा आदि छोंरों में सूजन
- शाखाभृत्—पुं॰—शाखा-भृत्—-—वृक्ष
- शाखाभेद—वि॰—शाखा-भेद—-—(वेद की) शाखाओं का अन्तर
- शाखामृगः—पुं॰—शाखा-मृगः—-—बन्दर, लंगूर
- शाखामृगः—पुं॰—शाखा-मृगः—-—गिलहरी
- शाखारण्डः—पुं॰—शाखा-रण्डः—-—अपनी शाखा के प्रति द्रोह करने वाला, वह ब्राह्मण जिसने अपनी वैदिक शाखा को बदल दिया है
- शाखारथ्या—स्त्री॰—शाखा-रथ्या—-—गली, वीथिका
- शाखालः—पुं॰—-—शाखा + ला + क—एक प्रकार का बेंत, वानीर
- शाखिन्—वि॰—-—शाखा + इनि—शाखाधारी
- शाखिन्—वि॰—-—शाखा + इनि—शाखाओं से युक्त, शाखामय
- शाखिन्—वि॰—-—शाखा + इनि—(वेद के) किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध रखने वाला
- शाखिन्—पुं॰—-—-—वृक्ष
- शाखिन्—पुं॰—-—-—वेद
- शाखिन्—पुं॰—-—-—वेद की किसी भी शाखा का अनुयायी
- शाखोटः —पुं॰—-—शाख् + ओटन —एक वृक्ष, पेड़
- शाखोटकः—पुं॰—-—शाखोट + कन्—एक वृक्ष, पेड़
- शाङ्करः—पुं॰—-—शङ्कर + अण्—बैल
- शाङ्करिः—पुं॰—-—शङ्कर + इञ्—कार्तिकेय
- शाङ्करिः—पुं॰—-—शङ्कर + इञ्—गणेश
- शाङ्करिः—पुं॰—-—शङ्कर + इञ्—अग्नि
- शाङ्खिकः—पुं॰—-—शङ्ख + ठक्—शङ्खकार, शङ्ख को काटकर उसकी चीजें बनाने वाला
- शाङ्खिकः—पुं॰—-—शङ्ख + ठक्—एक वर्णसङ्कर जाति
- शाङ्खिकः—पुं॰—-—शङ्ख + ठक्—शङ्ख बजाने वाला
- शाटः —पुं॰—-—शट् + घञ्—वस्त्र, कपड़ा
- शाटः —पुं॰—-—शट् + घञ्—अधोवस्त्र, साड़ी
- शाटी—स्त्री॰—-—शाट + ङीष्—वस्त्र, कपड़ा
- शाटी—स्त्री॰—-—शाट + ङीष्—अधोवस्त्र, साड़ी
- शाटकः —पुं॰—-—शाट + कन्—वस्त्र, कपड़ा, अधोवस्त्र, साड़ी
- शाटकम्—नपुं॰—-—शाट + कन्—
- शाठ्यम्—नपुं॰—-—शठ + ष्यञ्—बेईमानी, छल, कपट, चालाकी, जालसाज़ी, दुष्कर्म
- शाण—वि॰—-—शणेन निर्वृत्तम् -अण्—सन का बना हुआ, पटसन का बना हुआ
- शाणः—पुं॰—-—-—कसौटी
- शाणः—पुं॰—-—-—सान रखने वाला पत्थर
- शाणः—पुं॰—-—-—आरा
- शाणः—पुं॰—-—-—चार माशे की तोल
- शाणम्—नपुं॰—-—-—मोटा कपड़ा, बोरे या थैले आदि बनाने का कपड़ा
- शाणम्—नपुं॰—-—-—सन का बना वस्त्र
- शाणाजीवः—पुं॰—शाण-आजीवः—-—शस्त्रनिर्माता, सिकलीगर
- शाणिः—पुं॰—-—शण् + इण्—(एक पौधा जिसके रेशों से वस्त्र बनता है) पटुआ
- शाणित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शण् + णिच् + क्त—सान पर रक्खा हुआ, पीसा हुआ, (शाण पर रखकर) पैनाया हुआ
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—कसौटी
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—सान
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—आरा
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—सन का बना वस्त्र
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—फटा कपड़ा, चिथड़ा
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—छोटा पर्दा या तंबू
- शाणी—स्त्री॰—-—शण् + ङीप्—अंगविक्षेप, हाथ या आँख आदि से संकेत करना
- शाणीरम्—नपुं॰—-—शण् + ईरण्—शोण नदी का तट, शोण नदी का भूभाग
- शाण्डिल्यः—पुं॰—-—शण्डिल + यञ्—एक ऋषि जिसने विधिशास्त्र पर ग्रन्थ लिखा
- शाण्डिल्यः—पुं॰—-—शण्डिल + यञ्—बिल्ववृक्ष, बेल का पेड़
- शाण्डिल्यः—पुं॰—-—शण्डिल + यञ्—अग्नि का रूप
- शाण्डिल्यगोत्रम्—नपुं॰—शाण्डिल्य-गोत्रम्—-—शांडिल्य का परिवार
- शात—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—तीक्ष्ण किया हुआ, पैनाया हुआ
- शात—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—पतला, दुबला
- शात—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—दुर्बल, कमजोर
- शात—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—सुन्दर, मनोहर
- शात—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—प्रसन्न, फलता-फूलता
- शातः—पुं॰—-—-—धतूरे का पौधा
- शातम्—नपुं॰—-—-—आनन्द, प्रसन्नता, खुशी
- शातोदरी—स्त्री॰—शात-उदरी—-—कृशोदरी, पतली कमर वाली स्त्री
- शातशिख—वि॰—शात-शिख—-—तेज़ नोक वाला, तीक्ष्ण नोकदार
- शातकुम्भम्—नपुं॰—-—शतकुंभे पर्वते भवम् - अण्—सोना
- शातकुम्भम्—नपुं॰—-—शतकुंभे पर्वते भवम् - अण्—धतूरा
- शातकौस्तुभम्—नपुं॰—-—शतकुम्भ + अण्—सुवर्ण, सोना
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—पैनाना, तेज़ करना
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—काटने वाला, विनाशकर्ता
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—गिराना या नष्ट करना
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—कुम्हलाहट पैदा करना
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—पतला या छोटा होना, पतलापन
- शातनम्—नपुं॰—-—शो + णिच् + तङ् + ल्युट्—मुर्झाना, कुम्हलाना
- शातपत्रकः —पुं॰—-—शतपत्र + अण् + कन्—चाँद का प्रकाश
- शातपत्रकी—स्त्री॰—-—-—चाँद का प्रकाश
- शातभीरुः—पुं॰—-—शाताः दुर्बलाः पान्थाः भीरवो यस्याः -ब॰ स॰— एक प्रकार की मल्लिका
- शातमान—वि॰—-—शतमानेन क्रीतम् - अण्—एक सौ में मोल लिया हुआ
- शात्रव—वि॰—-—शत्रु + अण्—शत्रुसंबंधी
- शात्रव—वि॰—-—शत्रु + अण्—विरोधी, शत्रुतापूर्ण
- शात्रवः—पुं॰—-—-—दुश्मन
- शात्रवम्—नपुं॰—-—-—शत्रुओं का समूह
- शात्रवम्—नपुं॰—-—-—शत्रुता, दुश्मनी
- शात्रवीय—वि॰—-—शत्रु + छ—शत्रुसंबंधी
- शात्रवीय—वि॰—-—शत्रु + छ—विरोधी, शत्रुतापूर्ण
- शादः—पुं॰—-—शद् + घञ्—छोटी घास
- शादः—पुं॰—-—शद् + घञ्—कीचड़
- शादहरितः—पुं॰—शाद-हरितः—-—नये घास के कारण हरियाली भूमि, वह भूमि जिस पर हरियाली छा गई है
- शादहरितम्—नपुं॰—शाद-हरितम्—-—नये घास के कारण हरियाली भूमि, वह भूमि जिस पर हरियाली छा गई है
- शाद्वल—वि॰—-—शादाः सन्त्यत्र वलच्—तृणयुक्त
- शाद्वल—वि॰—-—शादाः सन्त्यत्र वलच्—जहाँ नई घास, या हरी हरी घास उग आई हो
- शाद्वल—वि॰—-—शादाः सन्त्यत्र वलच्—हरा भरा, सब्ज़, हरियाली से युक्त
- शाद्वलः —पुं॰—-—-—घास से युक्त भूमि, हरियाली, चरागाह
- शाद्वलम्—नपुं॰—-—-—घास से युक्त भूमि, हरियाली, चरागाह
- शान्—भ्वा॰ उभ॰ <शीशांसति>, <शीशांसते>—-—-—तेज़ करना, पैनाना
- शानः—पुं॰—-—शान् + अच्—कसौटी
- शानः—पुं॰—-—शान् + अच्—सान का पत्थर
- शानवादः—पुं॰—शान-वादः—-—चन्दन पीसने का पत्थर
- शानवादः—पुं॰—शान-वादः—-—पारियात्र पर्वत
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—प्रसन्न किया हुआ, दमन किया हुआ, धीरज दिलाया हुआ, सन्तुष्ट किया हुआ, प्रशान्त
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—चिकित्सित, सान्त्वना दिया हुआ
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—घटाया हुआ, कम किया हुआ, समाप्त किया हुआ, हटाया हुआ, बुझाया हुआ
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—विरत, ठहराया हुआ
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—मृत, उपरत
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—शान्त किया हुआ, दबाया हुआ
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—सौम्य, चुपचाप, बाधाहीन, निस्तब्ध, मूक, मौन
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—सधाया हुआ, पाला हुआ
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—आवेशरहित, आराम से, सन्तुष्ट
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—छायादार
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—पवित्रीकृत
- शान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शम् + क्त—शुभ (शकुन)
- शान्तं पापम्—अव्य॰—-—-—`अहो! नहीं, यह कैसे हो सकता है, भगवान् करे ऐसी अशुभ या दुर्भाग्यपूर्ण घटना न घटे’
- शान्तः—पुं॰—-—-—वैरागी, संन्यासी
- शान्तः—पुं॰—-—-—शान्ति निस्तब्धता, मौनभाव, सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति तटस्थता की प्रभावना
- शान्तम्—अव्य॰—-—-—बस, और नहीं ऐसा नहीं शर्म की बात है, चुप रहो, भगवान् न करे
- शान्तात्मन्—वि॰—शान्त-आत्मन्—-—सौम्य, शान्तमना, धीर, स्वस्थमना
- शान्तचेतस्—वि॰—शान्त-चेतस्—-—सौम्य, शान्तमना, धीर, स्वस्थमना
- शान्ततोय—वि॰—शान्त-तोय—-—जिसका पानी स्थिर हो
- शान्तरसः—पुं॰—शान्त-रसः—-—मौनाभाव
- शान्तनवः—पुं॰—-—शन्तनु + अण्—शन्तनु का पुत्र भीष्म
- शान्ता—स्त्री॰—-—शान्त + टाप्—दशरथ की पुत्री जिसे लोमपाद ऋषि ने गोद ले लिया था तथा जो ऋष्यशृङ्ग को ब्याही गई थी
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—प्रशमन, निराकरण, सान्तवना, हटाव
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—धैर्य, प्रशान्तता, निःशब्दता, अमन-चैन, विश्राम
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—वैरनिरोध
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—विराम, निवृत्ति
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—आवेश का अभाव, मौनभाव, सभी सांसारिक भोगों के प्रति पूर्ण उदासीनता
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—सान्तवना, ढाढस
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—सामञ्जस्यविधान, विरोधोपशमन
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—भूख की तृप्ति
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—प्रायश्चित अनुष्ठान, पाप को दूर करने के लिए तुष्टिप्रद अनुष्ठान
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—सौभाग्य, बधाई, आशीर्वाद, माङ्गलिकता
- शान्तिः—स्त्री॰—-—शम् + क्तिन्—दोषमार्जन, कलंक से मुक्ति, परिरक्षण
- शान्त्युदम्—नपुं॰—शान्ति-उदम्—-—शान्तिकर तथा प्रसादपूर्ण जल
- शान्त्युदकम्—नपुं॰—शान्ति-उदकम्—-—शान्तिकर तथा प्रसादपूर्ण जल
- शान्तिजलम्—नपुं॰—शान्ति-जलम्—-—शान्तिकर तथा प्रसादपूर्ण जल
- शान्तिकर—वि॰—शान्ति-कर—-—सान्त्वक, प्रशामक
- शान्तिकारिन्—वि॰—शान्ति-कारिन्—-—सान्त्वक, प्रशामक
- शान्तिगृहम्—नपुं॰—शान्ति-गृहम्—-—विश्रामकक्ष
- शान्तिहोमः—पुं॰—शान्ति-होमः—-—पाप का निस्तारण करने के लिए यज्ञ करना
- शान्तिक—वि॰—-—शान्ति + कन्—प्रायश्चित्तात्मक, सान्त्वनाप्रद, तुष्टिकर
- शान्तिकम्—नपुं॰—-—-—संकट को दूर करने के लिए किया गया अनुष्ठान
- शान्त्व्——-—-—
- शापः—पुं॰—-—शप् + घञ्—अभिशाप, अवक्रोश, फटकार
- शापः—पुं॰—-—शप् + घञ्—सौगन्ध, शपथोक्ति
- शापः—पुं॰—-—शप् + घञ्—दुर्वचन, मिथ्या आरोप
- शापान्तः—स्त्री॰—शाप-अन्तः—-—अभिशाप की समाप्ति
- शापावसानम्—स्त्री॰—शाप-अवसानम्—-—अभिशाप की समाप्ति
- शापनिवृत्तिः—स्त्री॰—शाप-निवृत्तिः—-—अभिशाप की समाप्ति
- शापास्त्रः—पुं॰—शाप-अस्त्रः—-—`अभिशाप को ही जिसने अपना आयुध बनाया है’ ऋषि, महात्मा
- शापोत्सर्गः—पुं॰—शाप-उत्सर्गः—-—अभिशाप का उच्चारण
- शापोद्धारः—पुं॰—शाप-उद्धारः—-—अभिशाप से छुटकारा
- शापमुक्तिः —स्त्री॰—शाप-मुक्तिः —-—अभिशाप से छुटकारा
- शापमोक्षः—पुं॰—शाप-मोक्षः—-—अभिशाप से छुटकारा
- शापग्रस्त—वि॰—शाप-ग्रस्त—-—अभिशाप से दबकर परिश्रम करने वाला
- शापमुक्त—वि॰—शाप-मुक्त—-—अभिशाप से जिसने छुटकारा पा लिया है
- शापयन्त्रित—वि॰—शाप-यन्त्रित—-—अभिशाप के कारण नियन्त्रणपूर्ण
- शापित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शप् + णिच् + क्त—सौगन्ध से बंधा हुआ, शपथपूर्वक उक्त
- शापित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शप् + णिच् + क्त—गृहीशपथ, जिसने शपथ ले ली है
- शाफरिकः—पुं॰—-—शफरान् हन्ति-शफर + ठक्—मछुआ, मछली पकड़ने वाला
- शाबर—वि॰—-—शबर + अण्—असभ्य, जंगली
- शाबर—वि॰—-—शबर + अण्—नीच, कमीना, अधम
- शावर—वि॰—-—शवर + अण्—असभ्य, जंगली
- शावर—वि॰—-—शवर + अण्—नीच, कमीना, अधम
- शाबरः—पुं॰—-—-—अपराध, दोष
- शाबरः—पुं॰—-—-—पाप, दुष्टता
- शाबरः—पुं॰—-—-—लोध्र नामक वृक्ष
- शाबरी—स्त्री॰—-—-—प्राकृत बोली का एक निम्नरूप (पहाड़ी लोगों से बोला जाने वाला)
- शाबरभेदाख्यम्—नपुं॰—शाबर-भेदाख्यम्—-—तांबा
- शाब्द—वि॰—-—शब्द + अण्—शब्द संबंधी या शब्द से व्युत्पन्न
- शाब्द—वि॰—-—शब्द + अण्—ध्वनि पर निर्भर या ध्ननि सम्बन्धी
- शाब्द—वि॰—-—शब्द + अण्—शाब्दिक, मौखिक
- शाब्द—वि॰—-—शब्द + अण्—ध्वननशील, मुखर
- शाब्दः—पुं॰—-—-—वैयाकरण
- शाब्दबोधः—पुं॰—शाब्द-बोधः—-—शब्दों के अर्थ का अवबोध या प्रत्यक्षीकरण
- शाब्दव्यंजना—स्त्री॰—शाब्द-व्यंजना—-—शब्दों पर आधारित व्यग्योक्ति
- शाब्दिक—वि॰—-—शब्द + ठक्—ज़बानी, मौखिक
- शाब्दिक—वि॰—-—शब्द + ठक्—निनादी
- शाब्दिकः—पुं॰—-—-—वैयाकरण
- शामनः—पुं॰—-—शमन् + अण्—यम
- शामनम्—नपुं॰—-—-—हत्या, वध
- शामनम्—नपुं॰—-—-—शान्ति, अमन-चैन
- शामनम्—नपुं॰—-—-—अन्त
- शामनी—स्त्री॰—-—-—दक्षिण दिशा
- शामित्रम्—नपुं॰—-—शम् + णिच् + इत्रच्—यज्ञ करना
- शामित्रम्—नपुं॰—-—शम् + णिच् + इत्रच्—मेघ, यज्ञ में पशुवध करना
- शामित्रम्—नपुं॰—-—शम् + णिच् + इत्रच्—यज्ञ के लिए बलिपशु बांधना
- शामित्रम्—नपुं॰—-—शम् + णिच् + इत्रच्—यज्ञीय पात्र
- शामिलम्—नपुं॰—-—शमी + ष्लच्—भस्म, राख
- शामिली—स्त्री॰—-—शामिल + ङीष्—यज्ञीय स्रुवा, स्रुच्
- शाम्बरी—स्त्री॰—-—शम्बर + अण् + ङीप्—बाजीगरी, जादूगरी
- शाम्बरी—स्त्री॰—-—शम्बर + अण् + ङीप्—जादूगरनी
- शाम्बविकः—पुं॰—-—शम्बु + ठक्—शंखों का व्यापारी
- शाम्बुक—वि॰—-—शम्बुक + अण्—द्विकोषीय घोंघा
- शाम्बूक—वि॰—-—-—द्विकोषीय घोंघा
- शाम्भव—वि॰—-—शम्भु + अण्—शिवसम्बन्धी
- शाम्भवः—पुं॰—-—-—शिवोपासक
- शाम्भवः—पुं॰—-—-—शिव जी का पुत्र
- शाम्भवः—पुं॰—-—-—कपूर
- शाम्भवः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का विष
- शाम्भवम्—नपुं॰—-—-—देवदारु वृक्ष
- शाम्भवी—स्त्री॰—-—शाम्भव + ङीप्—पार्वती
- शाम्भवी—स्त्री॰—-—शाम्भव + ङीप्—एक पौधा, नीलदूर्बा
- शायकः—पुं॰—-—शो + ण्वुल्—बाण
- शायकः—पुं॰—-—शो + ण्वुल्—तलवार
- शार्—चुरा॰ उभ॰ < शारयति>, <शारयते>—-—-—दुर्बल करना
- शार्—चुरा॰ उभ॰ < शारयति>, <शारयते>—-—-—कमज़ोर होना
- शार—वि॰—-—शार् + अच्, शृ + घञ् वा—चितकबरा, धब्बेदार चित्तीदार, शबल
- शारः—पुं॰—-—-—रंगबिरंगा रंग
- शारः—पुं॰—-—-—हरा रंग
- शारः—पुं॰—-—-—हवा, वायु
- शारः—पुं॰—-—-—शतरंज का मोहरा, गोट
- शारः—पुं॰—-—-—क्षति पहुँचाने वाला, आघात करने वाला
- शारङ्गः—पुं॰—-—शारम् अङ्गम् यस्य - ब॰ स॰—चातक पक्षी
- शारङ्गः—पुं॰—-—शारम् अङ्गम् यस्य - ब॰ स॰—मोर
- शारङ्गः—पुं॰—-—शारम् अङ्गम् यस्य - ब॰ स॰—भौंरा
- शारङ्गः—पुं॰—-—शारम् अङ्गम् यस्य - ब॰ स॰—हरिण
- शारङ्गः—पुं॰—-—शारम् अङ्गम् यस्य - ब॰ स॰—हाथी
- शारङ्गी—स्त्री॰—-—शारङ्ग + ङीष्—एक संगीत वाद्य विशेष जो गज से बजाया जाता है,
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—पतझड़ से संबंध रखने वाला, शरत्कालीन
- शारदी—स्त्री॰—-—-—पतझड़ से संबंध रखने वाला, शरत्कालीन
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—वार्षिक
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—नया, नूतन
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—अनुभवहीन, नौसिखिया
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—विनीत, शर्मीला, लज्जालु
- शारद—वि॰—-—शरदि भवम्-अण्—शंकालु, साहसहीन
- शारदः—पुं॰—-—-—वर्ष
- शारदः—पुं॰—-—-—शरत्कालीन बीमारी
- शारदः—पुं॰—-—-—शरत्कालीन धूप
- शारदः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का लोबिया या उड़द
- शारदः—पुं॰—-—-—बकुल का वृक्ष, मौलसिरी
- शारदी —स्त्री॰—-—-—कार्तिक मास की पूर्णिमा
- शारदम्—नपुं॰—-—-—अनाज, धान्य
- शारदम्—नपुं॰—-—-—श्वेत कमल
- शारदा—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार की वीणा या सारंगी
- शारदा—स्त्री॰—-—-—दुर्गा
- शारदा—स्त्री॰—-—-—सरस्वती
- शारदिकः—पुं॰—-—शरद् + ठञ्—शरत्कालीन रोग
- शारदिकः—पुं॰—-—शरद् + ठञ्—शरत्कालीन धूप या गर्मी
- शारदिकम्—नपुं॰—-—-—शरत्कालीन या वार्षिक श्राद्ध
- शारदीय—वि॰—-—शरद् + छ—शरत्कालीन, पतझड़ संबन्धी
- शारिः—पुं॰—-—शृ + इञ्—शतरंज का मोहरा, गोट
- शारिः—पुं॰—-—शृ + इञ्—छोटी गोल गेंद
- शारिः—पुं॰—-—शृ + इञ्—एक प्रकार का पासा
- शारि—स्त्री॰—-—-—सारिका पक्षी, मैना
- शारि—स्त्री॰—-—-—जालसाज़ी, चाल
- शारि—स्त्री॰—-—-—हाथी की झूल
- शारिपट्टः—पुं॰—शारिः-पट्टः—-—शतरंज खेलने की बिसात
- शारिफलम्—नपुं॰—शारिः-फलम्—-—शतरंज खेलने की बिसात
- शारिफलकः—पुं॰—शारिः-फलकः—-—शतरंज खेलने की बिसात
- शारिकम्—नपुं॰—शारिः-कम्—-—शतरंज खेलने की बिसात
- शारिका—स्त्री॰—-—शारि + कन् + टाप्—एक पक्षी, मैना
- शारिका—स्त्री॰—-—शारि + कन् + टाप्—तन्त्रयुक्त वाद्ययत्रों को बजाने वाला गज
- शारिका—स्त्री॰—-—शारि + कन् + टाप्—शतरंज खेलना
- शारिका—स्त्री॰—-—शारि + कन् + टाप्—शतरंज का मोहरा, गोटी
- शारी—स्त्री॰—-—शारि + ङीष्—एक पक्षी, मैना
- शारीर—वि॰—-—शरीर + अण्—शरीर से संबद्ध शारीरिक, दैहिक
- शारीर—वि॰—-—शरीर + अण्—शरीरधारी, मूर्तिमान्
- शारीरः—पुं॰—-—-—शरीरधारी,जीवात्मा, मानवात्मा, वैयक्तिक आत्मा
- शारीरः—पुं॰—-—-—साँड़
- शारीरः—पुं॰—-—-—एक प्रकार की औषधि
- शारीरक—वि॰—-—शरीर + कन् + अण्—शरीर सम्बन्धी
- शारीरकम्—नपुं॰—-—-—मूर्तिमान् जीव, जीव के स्वरूप की पृच्छा (ब्रह्मसूत्रों पर शङ्कराचार्य द्वारा किया गया भाष्य)
- शारीरकसूत्रम्—नपुं॰—शारीरक-सूत्रम्—-—वेदान्त दर्शन के सूत्र
- शारीरिक—वि॰—-—शरीर + ठक्—दैहिक, शरीर संबन्धी, भौतिक
- शारुक—वि॰—-—शृ + उकञ्—अनिष्टकर, चोट पहुँचाने वाला, उपद्रवी
- शार्ककः—पुं॰—-—शर्क + अण् + कन्—दानेदार चमकीली खांड़, मिसरी
- शार्कर—वि॰—-—शर्करा + अण्—चीनी का बना हुआ, शर्करामिश्रित
- शार्कर—वि॰—-—शर्करा + अण्—पथरीला, कंकरीला
- शार्करः—पुं॰—-—-—कंकरीला स्थान
- शार्करः—पुं॰—-—-—दूध का झाग, पपड़ी
- शार्करः—पुं॰—-—-—मलाई
- शार्ङ्ग—वि॰—-—शृङ्ग + अण्—सींग का बना हुआ, सींग वाला
- शार्ङ्ग—वि॰—-—शृङ्ग + अण्—धनुर्धारी, धनुष से सुसज्जित
- शार्ङ्गः —पुं॰—-—-—धनुष
- शार्ङ्गः —पुं॰—-—-—विष्णु का धनुष
- शार्ङ्गम्—नपुं॰—-—-—धनुष
- शार्ङ्गम्—नपुं॰—-—-—विष्णु का धनुष
- शार्ङ्गधन्वन्—पुं॰—शार्ङ्ग-धन्वन्—-—विष्णु के विशेषण
- शार्ङ्गधरः—पुं॰—शार्ङ्ग-धरः—-—विष्णु के विशेषण
- शार्ङ्गपाणिः—पुं॰—शार्ङ्ग-पाणिः—-—विष्णु के विशेषण
- शार्ङ्गधृत्—पुं॰—शार्ङ्ग-धृत्—-—विष्णु के विशेषण
- शार्ङ्गिन्—पुं॰—-—शार्ङ्ग + इनि—तीरंदाज, धनुर्धारी
- शार्ङ्गिन्—पुं॰—-—शार्ङ्ग + इनि—विष्णु का विशेषण
- शार्दूलः—पुं॰—-—शृ + ऊलल्, दुक् च—व्याघ्र
- शार्दूलः—पुं॰—-—शृ + ऊलल्, दुक् च—चीता
- शार्दूलः—पुं॰—-—शृ + ऊलल्, दुक् च—राक्षस
- शार्दूलः—पुं॰—-—शृ + ऊलल्, दुक् च—एक पक्षी
- शार्दूलः—पुं॰—-—शृ + ऊलल्, दुक् च— प्रमुख या पूज्य पुरुष, अग्रणी
- शार्दूलचर्मन्—नपुं॰—शार्दूल-चर्मन्—-—व्याघ्र की खाल
- शार्दूलविक्रीडितम्—नपुं॰—शार्दूल-विक्रीडितम्—-—चीते की क्रीड़ा
- शार्दूलविक्रीडितम्—नपुं॰—शार्दूल-विक्रीडितम्—-—छन्द या वृत्त
- शार्वर—वि॰—-—शर्वरी + अण्—रात्रिकालीन
- शार्वर—वि॰—-—शर्वरी + अण्—उपद्रवी, प्राणहर
- शार्वरम्—नपुं॰—-—-—अंधकार, धुप अंधेरा
- शार्वरी—स्त्री॰—-—-—रात
- शाल्—भ्वा॰ आ॰ <शालते>—-—-—प्रशंसा करना, खुशामद करना
- शाल्—भ्वा॰ आ॰ <शालते>—-—-—चमकना
- शाल्—भ्वा॰ आ॰ <शालते>—-—-—पूरित होना
- शाल्—भ्वा॰ आ॰ <शालते>—-—-—कहना
- शालः—पुं॰—-—शल् + घञ्—एक वृक्ष
- शालः—पुं॰—-—शल् + घञ्—वृक्ष, पेड़
- शालः—पुं॰—-—शल् + घञ्—बाड़ा, बाड़
- शालः—पुं॰—-—शल् + घञ्—एक प्रकार की मछली
- शालः—पुं॰—-—शल् + घञ्—राजा शालिवाहन
- शालग्रामः—पुं॰—शालः-ग्रामः—-—विष्णु भगवान् की आदर्श प्रस्तरमूर्ति
- शालगिरि—पुं॰—शालः- गिरि—-—पर्वत का नाम
- शालशिला—स्त्री॰—शालः-शिला—-—शालग्राम पत्थर
- शालजः—पुं॰—शालः-जः—-—सालवृक्ष का प्रस्त्राव, राव
- शालनिर्यासः—पुं॰—शालः-निर्यासः—-—सालवृक्ष का प्रस्त्राव, राव
- शालभञ्जिका—स्त्री॰—शालः-भञ्जिका—-—गुड़िया, पुत्तलिका, मूर्ति
- शालभञ्जिका—स्त्री॰—शालः-भञ्जिका—-—वेश्या, रंडी
- शालभञ्जी—स्त्री॰—शालः-भञ्जी—-—गुड़िया, पुत्तलिका
- शालवेष्टः—पुं॰—शालः-वेष्टः—-—साल के पेड़ से निकली राल
- शालसारः—पुं॰—शालः-सारः—-—उत्कृष्ट वृक्ष
- शालसारः—पुं॰—शालः-सारः—-—हींग
- शालवः—पुं॰—-—शाल + वल् + ड—लोध्र वृक्ष
- शाला—स्त्री॰—-—शाल् + अच् + टाप्—कक्ष, प्रकोष्ट, बैठक, कमरा
- शाला—स्त्री॰—-—शाल् + अच् + टाप्—घर, आवास
- शाला—स्त्री॰—-—शाल् + अच् + टाप्—वृक्ष की मुख्य शाखा
- शाला—स्त्री॰—-—शाल् + अच् + टाप्—वृक्ष का तना
- शालाञ्जिरः—पुं॰—शाला-अञ्जिरः—-—मिट्टी का कसोरा
- शालाञ्जिरम्—नपुं॰—शाला-अञ्जिरम्—-—मिट्टी का कसोरा
- शालामृगः—पुं॰—शाला-मृगः—-—गीदड़
- शालावृकः—पुं॰—शाला-वृकः—-—कुत्ता
- शालावृकः—पुं॰—शाला-वृकः—-—भेड़िया हरिण
- शालावृकः—पुं॰—शाला-वृकः—-—बिल्ली
- शालावृकः—पुं॰—शाला-वृकः—-—गीदड़
- शालावृकः—पुं॰—शाला-वृकः—-—बन्दर
- शालाकः—पुं॰—-—-—पाणिनि
- शालाकिन्—पुं॰—-—शालाक + इन्—भाला रखने वाला, बर्छीधारी
- शालाकिन्—पुं॰—-—-—जर्राह
- शालाकिन्—पुं॰—-—-—नाई
- शालातुरीयः—पुं॰—-—शलातुर + छ—पाणिनि का विशेषण
- शालारम्—नपुं॰—-—शाला + ऋ + अण्—ज़ीना, सीढ़ी
- शालारम्—नपुं॰—-—शाला + ऋ + अण्—पिंजरा
- शालिः—पुं॰—-—शाल् + णिनि—चावल
- शालिः—पुं॰—-—शाल् + णिनि—गंधबिलाव
- शाल्योदनः—पुं॰—शालि-ओदनः—-—भात (उत्कृष्टतर प्रकार का)
- शाल्योदनम्—नपुं॰—शालि-ओदनम्—-—भात (उत्कृष्टतर प्रकार का)
- शालिगोपी—स्त्री॰—शालि-गोपी—-—चावल के खेत की रखवाली करने वाली स्त्री
- शालिचूर्णः—पुं॰—शालि-चूर्णः—-—चावल का आटा
- शालिचूर्णम्—नपुं॰—शालि-चूर्णम्—-—चावल का आटा
- शालिपिष्टम्—नपुं॰—शालि-पिष्टम्—-—स्फटिक
- शालिभवनम्—नपुं॰—शालि-भवनम्—-—चावल का खेत
- शालिवाहनः—पुं॰—शालि-वाहनः—-—भारत का एक विख्यात राजा जिसके नाम से ख्रिस्ताब्द ७८ में एक संवत्सर आरं हुआ
- शालिहोत्रः—पुं॰—शालि-होत्रः—-—पशुचिकित्सा पर ग्रन्थप्रणेता
- शालिहोत्रः—पुं॰—शालि-होत्रः—-—घोड़ा
- शालिहोत्रिन्—पुं॰—शालि-होत्रिन्—-—घोड़ा
- शालिकः—पुं॰—-—शालि + कै + क—जुलाहा
- शालिकः—पुं॰—-—शालि + कै + क—मार्गकर, शुल्क
- शालिन्—वि॰—-—शाला + इनि—सहित, युक्त, सम्पन्न, चमकीला, चमकदार
- शालिन्—वि॰—-—शाला + इनि—घरेलू
- शालिनी—स्त्री॰—-—शालिन् + ङीप्—घर की स्वामिनी, गृहिणी
- शालिनी—स्त्री॰—-—शालिन् + ङीप्—छन्द का नाम
- शालीन—वि॰—-—शाला + खञ्—विनीत, लज्जाशील, शर्मीला, लज्जालु
- शालीन—वि॰—-—शाला + खञ्—सदृश, समान
- शालीनः—पुं॰—-—-—गृहस्थ
- शालीनी कृ——-—-—विनयी बनाना, विनम्र करना
- शालुः—पुं॰—-—शाल् + उण्—मेंढक
- शालुः—पुं॰—-—शाल् + उण्—एक प्रकार का गन्ध द्रव्य
- शालु—नपुं॰—-—-—कुमुदिनी की जड़
- शालुकम्—नपुं॰—-—-—कुमुदिनी की जड़
- शालुकम्—नपुं॰—-—-—जायफल
- शालूकम्—नपुं॰—-—शल् + ऊकण्—कुमुदिनी की जड़
- शालूकम्—नपुं॰—-—शल् + ऊकण्—जायफल
- शालुकः—पुं॰—-—-—मेंढक
- शालुरः —पुं॰—-—-—मेंढक
- शालूरः—पुं॰—-—शाल् + ऊर्—मेंढक
- शालेयम्—नपुं॰—-—शालि + ढक्—चावलों का खेत
- शालोत्तरीयः—पुं॰—-—शालोत्तरे ग्रामे भवः - छ—पाणिनि का विशेषण
- शाल्मलः—पुं॰—-—शाल् + मलच्—सेमल का पेड़
- शाल्मलः—पुं॰—-—शाल् + मलच्—भू-मण्डल के सात बड़े खण्डों में से एक
- शाल्मलिः—पुं॰—-—शाल् + मलिच्—सेमल का पेड़
- शाल्मलिः—पुं॰—-—शाल् + मलिच्—भू-मण्डल के सात बड़े खण्ड़ों में से एक
- शाल्मलिः—पुं॰—-—शाल् + मलिच्—नरक का एक भेद
- शाल्मलिस्थः—पुं॰—शाल्मलि-स्थः—-—गरुड़ का विशेषण
- शाल्मली—स्त्री॰—-—शाल्मलि + ङीष्—सेमल का पेड़
- शाल्मली—स्त्री॰—-—शाल्मलि + ङीष्—पाताल लोक की एक नदी
- शाल्मली—स्त्री॰—-—शाल्मलि + ङीष्—नरक का एक भेद
- शाल्मलीवेष्टः—पुं॰—शाल्मली-वेष्टः—-—सेमल के पेड़ का गोंद
- शाल्मलीवेष्टकः—पुं॰—शाल्मली-वेष्टकः—-—सेमल के पेड़ का गोंद
- शाल्वः—पुं॰—-—शाल् + व—एक देश का नाम
- शाल्वः—पुं॰—-—शाल् + व—शाल्व देश का राजा
- शाव—वि॰—-—शव + अण्—शवसम्बन्धी, (किसी रिस्तेदार की) मृत्यु से उत्पन्न
- शाव—वि॰—-—शव + अण्—भूरे रङ्ग का, गहरे पीले रङ्ग का
- शावः—पुं॰—-—-—किसी जानवर का छोटा बच्चा, कुरङ्गक, मृगछौना, वन्यपशुशावक
- शावकः—पुं॰—-—शाव + कन्—किसी भी वन्य पशु का बच्चा
- शाश्वत—वि॰—-—शश्वद् भवः अण्—नित्य, सनातन, चिरस्थायी
- शाश्वतः—पुं॰—-—-—शिव
- शाश्वतः—पुं॰—-—-—व्यास
- शाश्वतः—पुं॰—-—-—सूर्य
- शाश्वतम्—अव्य॰—-—-—नित्य, निरन्तर, सदा के लिए
- शाश्वतिक—वि॰—-—शाश्वत + ठक्—नित्य, स्थायी, सनातन, सतत
- शाश्वती—स्त्री॰—-—शाश्वत + ङीप्—पृथ्वी
- शाष्कुल—वि॰—-—शष्कुल + अण्—मांस (या मत्स्य) भक्षी
- शाष्कुलिकम्—नपुं॰—-—शष्कुली + ठक्—पूरियों का ढेर
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—अध्यापन करना, शिक्षण प्रदान करना, प्रशिक्षित
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—राज्य करना, शासन करना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—आज्ञा देना, समादिष्ट करना, निदेश देना, हुक्म देना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—कहना, सम्वाद देना, सूचित करना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—उपदेश देना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—आदेश देना, राजाज्ञा लागू करना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—दण्ड देना, सज़ा देना, निर्दोष बनाना
- शास्—अदा॰ पर॰ <शास्ति>,<शिष्ट>—-—-—सधाना, वशीभूत करना
- अनुशास्—अदा॰ पर॰—अनु-शास्—-—उपदेश देना, प्रेरित करना
- अनुशास्—अदा॰ पर॰—अनु-शास्—-—अध्यापन करना, शिक्षण प्रदान करना, आज्ञा देना, आदेश करना
- अनुशास्—अदा॰ पर॰—अनु-शास्—-—राज्य करना, शासन करना
- अनुशास्—अदा॰ पर॰—अनु-शास्—-—सज़ा देना, दण्ड देना
- अनुशास्—अदा॰ पर॰—अनु-शास्—-—प्रशंसा करना, स्तुति करना
- आशास्—अदा॰ पर॰—आ-शास्—-—आशीर्वाद देना, आशीर्वाद उच्चारण करना
- आशास्—अदा॰ पर॰—आ-शास्—-—आज्ञा देना, आदेश देना, निदेश देना (इस अर्थ में पर॰)
- आशास्—अदा॰ पर॰—आ-शास्—-—इच्छा करना, खोजना, आशा करना, प्रत्याशा करना
- आशास्—अदा॰ पर॰—आ-शास्—-—प्रशंसा करना
- प्रशास—अदा॰ पर॰—प्र-शास—-—अध्यापन करना, शिक्षण देना, उपदेश करना
- प्रशास—अदा॰ पर॰—प्र-शास—-—आदेश देना, समादिष्ट करना
- प्रशास—अदा॰ पर॰—प्र-शास—-—राज्य करना, शासन करना, प्रभु बनना
- प्रशास—अदा॰ पर॰—प्र-शास—-—दण्ड देना, सज़ा देना
- प्रशास—अदा॰ पर॰—प्र-शास—-—प्रार्थना करना, याचना करना, तलाश करना
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—शिक्षण, अध्यापन, अनुशासन
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—राज्य, प्रभुत्व, सरकार
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—आज्ञा, आदेश, निदेश
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—राजविज्ञप्ति, अधिनियम, राजाज्ञा
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—विधि, नियम
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—अग्रहार, राज़ा द्वारा दान की हुई भूमि, अधिकार-पत्र
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—पट्टा, दस्तावेज़, लिखित समझौता
- शासनम्—नपुं॰—-—शास् + ल्युट्—आवेशों का नियन्त्रण
- शासनपत्रम्—नपुं॰—शासनम्-पत्रम्—-—वह ताम्रपत्र जिस पर भूदान की राजाज्ञा खोदी गई हो
- शासनपत्रम्—नपुं॰—शासनम्-पत्रम्—-—वह कागज जिस पर कोई राजाज्ञा अंकित हो
- शासनहारिन्—पुं॰—शासनम्-हारिन्—-—राजदूत, संदेशवाहक
- शासित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शास् + क्त—राज्य किया गया, शासन किया गया
- शासित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शास् + क्त—दण्डित
- शासितृ—पुं॰—-—शास् + तृच्—राज्य करने वाला, शासक
- शासितृ—पुं॰—-—शास् + तृच्—दण्ड देने वाला
- शास्तृ—पुं॰—-—शास् + तृच्, इडभावः —अध्यापक, शिक्षक
- शास्तृ—पुं॰—-—शास् + तृच्, इडभावः —शासक, राजा, प्रभु
- शास्तृ—पुं॰—-—शास् + तृच्, इडभावः —पिता
- शास्तृ—पुं॰—-—शास् + तृच्, इडभावः —बुद्ध या जैन धर्म का गुरु, आचार्य
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—आज्ञा, समादेश, नियम, विधि
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—वेदविधि, धर्मशास्त्र की आज्ञा
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—धार्मिक ग्रन्थ, वेद, धर्मशास्त्र
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—विद्याविभाग, विज्ञान
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—पुस्तक, ग्रन्थ
- शास्त्रम्—नपुं॰—-—शिष्यतेऽनेने- शास् + ष्ट्रन्—सिद्धान्त
- शास्त्रातिक्रमः—पुं॰—शास्त्रम्-अतिक्रमः—-—वैदिक विधियों का उल्लंघन, धार्मिक प्रामाणिकता की अवहेलना
- शास्त्राननुष्ठानम्—नपुं॰—शास्त्रम्-अननुष्ठानम्—-—वैदिक विधियों का उल्लंघन, धार्मिक प्रामाणिकता की अवहेलना
- शास्त्रानुष्ठानम्—नपुं॰—शास्त्रम्-अनुष्ठानम्—-—वेदविधि का पालन या तदनुरूपता
- शास्त्राभिज्ञ—वि॰—शास्त्रम्-अभिज्ञ—-—शास्त्रों में निष्णात
- शास्त्रार्थः—पुं॰—शास्त्रम्-अर्थः—-—वेदविधि का अर्थ
- शास्त्रार्थः—पुं॰—शास्त्रम्-अर्थः—-—वैदिक विधि या शास्त्रीय वक्तव्य
- शास्त्राचरणम्—नपुं॰—शास्त्रम्-आचरणम्—-—वेदविधि का पालन
- शास्त्रोक्त—वि॰—शास्त्रम्-उक्त—-—शास्त्रविधि से विहित, शास्त्रों की आज्ञा, वैध, क़ानूनी
- शास्त्रकारः—पुं॰—शास्त्रम्-कारः—-—किसी धर्मशास्त्र का रचयिता
- शास्त्रकारः—पुं॰—शास्त्रम्-कारः—-—ग्रन्थ प्रणेता
- शास्त्रकृत्—पुं॰—शास्त्रम्-कृत्—-—किसी धर्मशास्त्र का रचयिता
- शास्त्रकृत्—पुं॰—शास्त्रम्-कृत्—-—ग्रन्थ प्रणेता
- शास्त्रकोविद—वि॰—शास्त्रम्-कोविद—-—शास्त्रों में निष्णात
- शास्त्रगण्डः—नपुं॰—शास्त्रम्-गण्डः—-—दिखाऊ पाठक, हलका अध्ययन करने वाला विद्यार्थी, पल्लवग्राही
- शास्त्रचक्षुस्—नपुं॰—शास्त्रम्-चक्षुस्—-—व्याकरण
- शास्त्रज्ञ—वि॰—शास्त्रम्-ज्ञ—-—शास्त्रों का जानकार
- शास्त्रविद्—वि॰—शास्त्रम्-विद्—-—शास्त्रों का जानकार
- शास्त्रज्ञानम्—नपुं॰—शास्त्रम्-ज्ञानम्—-—धर्मशास्त्र का ज्ञान, वेद की जानकारी
- शास्त्रतत्त्वम्—नपुं॰—शास्त्रम्-तत्त्वम्—-—शास्त्रों में वर्णित सचाई, वैदिक तत्त्व
- शास्त्रदर्शिन्—वि॰—शास्त्रम्-दर्शिन्—-—धर्मशास्त्रों का ज्ञाता
- शास्त्रदृष्ट—वि॰—शास्त्रम्-दृष्ट—-—धर्मशास्त्रों में विहित या उक्त
- शास्त्रदृष्टिः—स्त्री॰—शास्त्रम्-दृष्टिः—-—शास्त्रीय दृष्टिकोण
- शास्त्रयोनिः—पुं॰स्त्री॰—शास्त्रम्-योनिः—-—शास्त्रों का स्रोत या उद्गमस्थान
- शास्त्रविधानम्—नपुं॰—शास्त्रम्-विधानम्—-—शास्त्रीय विधि, वेदाज्ञा
- शास्त्रविधिः—पुं॰—शास्त्रम्-विधिः—-—शास्त्रीय विधि, वेदाज्ञा
- शास्त्रविप्रतिषेधः—पुं॰—शास्त्रम्-विप्रतिषेधः—-—शास्त्रीय विधियों का पारस्परिक विरोध, विधि-विधान की असंगति
- शास्त्रविप्रतिषेधः—पुं॰—शास्त्रम्-विप्रतिषेधः—-—वेद विधि के विरुद्ध आचरण
- शास्त्रविरोधः—पुं॰—शास्त्रम्-विरोधः—-—शास्त्रीय विधियों का पारस्परिक विरोध, विधि-विधान की असंगति
- शास्त्रविरोधः—पुं॰—शास्त्रम्-विरोधः—-—वेद विधि के विरुद्ध आचरण
- शास्त्रविमुख—वि॰—शास्त्रम्-विमुख—-—अध्ययन से पराङ्मुख
- शास्त्रविरुद्ध—वि॰—शास्त्रम्-विरुद्ध—-—शास्त्रों के विपरीत, अवैध, गैरक़ानूनी
- शास्त्रव्युत्पत्तिः—स्त्री॰ —शास्त्रम्-व्युत्पत्तिः—-—धर्मशास्त्रों का अन्तरंग ज्ञान, शास्त्रों में प्रवीणता
- शास्त्रशिल्पिन्—पुं॰—शास्त्रम्-शिल्पिन्—-—काश्मीरदेश
- शास्त्रसिद्ध—वि॰—शास्त्रम्-सिद्ध—-—धर्मशास्त्रों के प्रमाणानुसार स्थापित
- शास्त्रिन्—वि॰—-—शास्त्र + इनि—शास्त्रों में अभिज्ञ, कुशल
- शास्त्रिन्—पुं॰—-—शास्त्र + इनि—शास्त्रों में पारंगत, विद्वान् पुरुष, महान् पंडित
- शास्त्रीय—वि॰—-—शास्त्रेण विहितः छ—वेदविहित, शास्त्रानुमोदित
- शास्त्रीय—वि॰—-—शास्त्रेण विहितः छ—वैज्ञानिक
- शास्य—वि॰—-—शास् + ण्यत्—सिखलाये जाने योग्य, उपदेश दिये जाने योग्य
- शास्य—वि॰—-—शास् + ण्यत्—विनियमित या शासित किये जाने के योग्य
- शास्य—वि॰—-—शास् + ण्यत्—दण्डनीय, दण्डाई
- शि—स्वा॰ उभ॰ <शिनोति>, <शिनुते>—-—-—तेज़ करना, पैनाना
- शि—स्वा॰ उभ॰ <शिनोति>, <शिनुते>—-—-—कृश करना, पतला करना
- शि—स्वा॰ उभ॰ <शिनोति>, <शिनुते>—-—-—उत्तेजित करना
- शि—स्वा॰ उभ॰ <शिनोति>, <शिनुते>—-—-—सावधान होना
- शि—स्वा॰ उभ॰ <शिनोति>, <शिनुते>—-—-—तीक्ष्ण होना
- शिः—पुं॰—-—शि + क्विप्—माङ्गलिकता, स्वरसाम्यता
- शिः—पुं॰—-—शि + क्विप्—स्वस्थता, सौम्यता, शान्ति, अमन-चैन
- शिः—पुं॰—-—शि + क्विप्—शिव का विशेषण
- शिंशपा—पुं॰—-—शिवं पाति-शिव + पा + क, पृषो॰ साधुः—शीशम का पेड़
- शिंशपा—पुं॰—-—शिवं पाति-शिव + पा + क, पृषो॰ साधुः—अशोक वृक्ष
- शिक्कु—वि॰—-—सिच् + कु, पृषो॰—सुस्त, आलसी, अकर्मण्य
- शिक्थम्—नपुं॰—-—सिच् + थक्, पृषो॰—मोम
- शिक्यम्—नपुं॰—-—स्रंस् + यत्, कुगागमः, शि आदेशः —(रस्सी से बुना हुआ) छीका, झोला
- शिक्यम्—नपुं॰—-—स्रंस् + यत्, कुगागमः, शि आदेशः —बहंगी पर लटका कर ले जाये जाने वाला बोझ
- शिक्या—स्त्री॰—-—स्रंस् + यत्, कुगागमः, शि आदेशः-शिक्य + टाप्—(रस्सी से बुना हुआ) छींका, झोला
- शिक्या—स्त्री॰—-—स्रंस् + यत्, कुगागमः, शि आदेशः-शिक्य + टाप्—बहंगी पर लटका कर ले जाये जाने वाला बोझ
- शिक्यित—वि॰—-—शिक्य + णिच् + क्त—छींके में लटकाया हुआ
- शिक्ष्—भ्वा॰ आ॰ <शिक्षते>, <शिक्षित>—-—-—सीखना, अध्ययन करना, ज्ञानार्जन करना
- शिक्षकः—पुं॰—-—शिक्ष् + णिच् + ण्वुल्—सीखने वाला
- शिक्षकः—पुं॰—-—शिक्ष् + णिच् + ण्वुल्—अध्यापक, सिखाने वाला
- शिक्षणम्—नपुं॰—-—शिक्ष् + ल्युट्—सीखना, अधिगम, ज्ञानार्जन
- शिक्षणम्—नपुं॰—-—शिक्ष् + ल्युट्—अध्यापन, सिखाना
- शिक्षमाणः—पुं॰—-—शिक्ष् + शानच्—शिष्य, विद्यार्थी, विद्याभ्यासी
- शिक्षा—स्त्री॰—-—शिक्ष् भाव अ + टाप्—अधिगम, अध्ययन, ज्ञानाभिग्रहण
- शिक्षा—स्त्री॰—-—शिक्ष् भाव अ + टाप्—किसी कार्य को करने के योग्य होने की इच्छा, निष्णात होने की इच्छा
- शिक्षा—स्त्री॰—-—शिक्ष् भाव अ + टाप्—अध्यापन, शिक्षण, प्रशिक्षण
- शिक्षा—स्त्री॰—-—शिक्ष् भाव अ + टाप्—छः वेदांगों में से एक जिसके द्वारा शब्दों का सही उच्चारण तथा सन्धि के नियम सिखाये जाते है
- शिक्षा—स्त्री॰—-—शिक्ष् भाव अ + टाप्—विनय, विनम्रता
- शिक्षाकरः—पुं॰—शिक्षा-करः—-—अद्धापक, शिक्षक
- शिक्षाकरः—पुं॰—शिक्षा-करः—-—व्यास
- शिक्षानरः—पुं॰—शिक्षा-नरः—-—इन्द्र का विशेषण
- शिक्षाशक्तिः—स्त्री॰—शिक्षा-शक्तिः—-—कुशलता
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—अधिगत, अधीत
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—अध्यापित, सिखाया गया
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—प्रशिक्षित, अनुशासित
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—सधाया हुआ, विनयशील
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—कुशल, चतुर
- शिक्षित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिक्ष् + क्त, शिक्षा जाताऽस्य -तार॰ इतच्—विनीत, लज्जाशील
- शिक्षिताक्षरः—पुं॰—शिक्षित-अक्षरः—-—शिष्य
- शिक्षितायुध—वि॰—शिक्षित-आयुध—-—हथियारों के संचालन में अभिज्ञ
- शिखण्डः—पुं॰—-—शिखाममति-अम् + ड, शक॰ पररूपम्—मुंडन-संस्कार के अवसर पर रखी गई शिखा, चोटी, या दोनों पार्श्व में छोड़े गये बाल, काकपक्ष
- शिखण्डः—पुं॰—-—शिखाममति-अम् + ड, शक॰ पररूपम्—मोर की पूँछ
- शिखण्डकः—पुं॰—-—शिखण्ड इव + कन्—चूडाकर्म संस्कार के अवसर पर सिर पर रक्खी गई चोटी
- शिखण्डकः—पुं॰—-—शिखण्ड इव + कन्—सिर के पार्श्वभागों में छोड़े गये बाल
- शिखण्डकः—पुं॰—-—शिखण्ड इव + कन्—कलंगी, बालों का गुच्छा, चूडा या शेखर
- शिखण्डकः—पुं॰—-—शिखण्ड इव + कन्—मयूर पुच्छ
- शिखण्डिकः—पुं॰—-—शिखण्डिन् + कै + कः—मुर्गा
- शिखण्डिका—स्त्री॰—-—-—मुंडन-संस्कार के अवसर पर रखी गई शिखा, चोटी, या दोनों पार्श्व में छोड़े गये बाल, काकपक्ष
- शिखण्डिन्—वि॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—कलगीदार, शिखाधारी
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—मोर
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—मुर्गा
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—बाण
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—मोर की पूँछ
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—एक प्रकार की चमेली
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—विष्णु
- शिखण्डिन्—पुं॰—-—शिखण्डोऽस्त्यस्य इनि—द्रुपद के एक पुत्र का नाम
- शिखण्डिनी—स्त्री॰—-—शिखण्डिण् + ङीप्—मोरनी
- शिखण्डिनी—स्त्री॰—-—शिखण्डिण् + ङीप्—एक प्रकार की चमेली
- शिखण्डिनी—स्त्री॰—-—शिखण्डिण् + ङीप्—द्रुपद की पुत्री
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—चोटी, पहाड़ का सिरा या शृंग
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—वृक्ष का सिर या चोटी
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—कलगी, चूडा
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—तलवार की नोक या धार
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—चोटी, शृंग, शीर्षबिन्दु
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—कांख, बगल
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—बालों का कड़ा होना
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—अरवी चमेली की कली
- शिखरः—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—एक लाल की भांति मणि
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—चोटी, पहाड़ का सिरा या शृंग
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—वृक्ष का सिर या चोटी
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—कलगी, चूडा
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—तलवार की नोक या धार
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—चोटी, शृंग, शीर्षबिन्दु
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—कांख, बगल
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—बालों का कड़ा होना
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—अरवी चमेली की कली
- शिखरम्—नपुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य-अरच् आलोपः—एक लाल की भांति मणि
- शिखरवासिनी—स्त्री॰—शिखरः-वासिनी—-—दुर्गा का विशेषण
- शिखरिणी—स्त्री॰—-—शिखरिन् + ङीप्—नारीरत्न
- शिखरिणी—स्त्री॰—-—शिखरिन् + ङीप्—चीनी मिश्रित दही जिसमें मसाले पड़े हों, श्रीखंड
- शिखरिणी—स्त्री॰—-—शिखरिन् + ङीप्—रोमावली जो वक्षःस्थल से चलकर नाभि को पार कर जाती है
- शिखरिणी—स्त्री॰—-—शिखरिन् + ङीप्—एक छन्द का नाम
- शिखरिन्—वि॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—चोटी वाला, शिखाधारी
- शिखरिन्—वि॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—नुकीला, शिखरयुक्त
- शिखरिन्—पुं॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—पहाड़ी दुर्ग
- शिखरिन्—पुं॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—वृक्ष
- शिखरिन्—पुं॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—टिटिहरी
- शिखरिन्—पुं॰—-—शिखरमस्त्यस्य इनि—अपामार्ग का पौधा
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—सिर को चोटी पर बालों का गुच्छा
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—चोटी, शिखाग्रन्थि
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—चूड़ा, कलगी
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—चोटी, शिखर, शीर्षबिन्दु
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—तेज़ सिरा, धार, नोक या सिरा
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—वस्त्र का छोर
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—अग्नि ज्वाला
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—प्रकाश की किरण
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—मोर की कलगी
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—जटायुक्त जड़
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—शाखा (विशेष रूप से जड़ पकड़ती हुई)
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—प्रधान या मुखिया
- शिखा—स्त्री॰—-—शि + खक् तस्य नेत्वम्, पृषो॰—कामज्वर
- शिखातरुः—पुं॰—शिखा-तरुः—-—दीपाधार, दीपट
- शिखाधरः—पुं॰—शिखा-धरः—-—मोर
- शिखाजम्—नपुं॰—शिखा-जम्—-—मोर का पंख
- शिखाधारः—पुं॰—शिखा-धारः—-—मोर
- शिखामणिः—पुं॰—शिखा-मणिः—-—चूड़ामणि
- शिखामूलम्—नपुं॰—शिखा-मूलम्—-—गाजर
- शिखामूलम्—नपुं॰—शिखा-मूलम्—-—मूली
- शिखावरः—पुं॰—शिखा-वरः—-—कटहल का पेड़
- शिखावल—वि॰—शिखा-वल—-—नुकीला, कलगीदार
- शिखावलः—पुं॰—शिखा-वलः—-—मोर
- शिखावृक्षः—पुं॰—शिखा-वृक्षः—-—दीपाधार, दीपट
- शिखावृद्धिः—स्त्री॰—शिखा-वृद्धिः—-—प्रतिदिन बढ़ने वाला ब्याज
- शिखालुः—पुं॰—-—शिखा + अलुच्—मोर का कलँगी
- शिखावत्—वि॰—-—शिखा + मतुप्—कलगीदार
- शिखावत्—वि॰—-—शिखा + मतुप्—ज्वालामय
- शिखावत्—पुं॰—-—शिखा + मतुप्—दीपक
- शिखावत्—पुं॰—-—शिखा + मतुप्—आग
- शिखिन्—वि॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—नुकीला
- शिखिन्—वि॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—कलंगीदार, शिखाधारी
- शिखिन्—वि॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—घमंडी
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—मोर
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—अग्नि
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—मुर्गा
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—बाण
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—वृक्ष
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—दीपक
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—साँड़
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—घोड़ा
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—पहाड़
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—ब्राह्मण
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—साधु
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—केतु
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—तीन की संख्या
- शिखिन्—पुं॰—-—शिखा अस्त्यस्य इनि—चित्रक वृक्ष
- शिखिकण्ठम्—नपुं॰—शिखिन्-कण्ठम्—-—तूतिया, नीला थोथा
- शिखिग्रीवम्—नपुं॰—शिखिन्-ग्रीवम्—-—तूतिया, नीला थोथा
- शिखिध्वजः—पुं॰—शिखिन्-ध्वजः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शिखिध्वजः—पुं॰—शिखिन्-ध्वजः—-—धूआँ
- शिखिपिच्छम्—नपुं॰—शिखिन्-पिच्छम्—-—मोर की पूँछ, दुम
- शिखिपुच्छम्—नपुं॰—शिखिन्-पुच्छम्—-—मोर की पूँछ, दुम
- शिखियूपः—पुं॰—शिखिन्-यूपः—-—बारहसिंगा
- शिखिवर्धकः—पुं॰—शिखिन्-वर्धकः—-—गोल लौकी
- शिखिवाहनः—पुं॰—शिखिन्-वाहनः—-—कार्तिकेय का विशेषण
- शिखिशिखा—स्त्री॰—शिखिन्-शिखा—-—ज्वाला
- शिखिशिखा—स्त्री॰—शिखिन्-शिखा—-—मोर की कलंगी
- शिग्रुः—पुं॰—-—शि + रुक् गुक् च—सागभाजी
- शिग्रुः—पुं॰—-—शि + रुक् गुक् च—सहिजन का पेड़
- शिङ्ख्—भ्वा॰ पर॰ <शिङ्खति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शिङ्घ्—भ्वा॰ पर॰ <शिङ्खति>—-—-—सूंघना
- शिङ्घाणः—पुं॰—-—शिङ्घ् + आणक, पृषो॰ कलोपः—पपड़ी, झाग
- शिङ्घाणः—पुं॰—-—शिङ्घ् + आणक, पृषो॰ कलोपः—बलगम, कफ
- शिङ्घाणम्—नपुं॰—-—-—नाक की मैल, सिणक
- शिङ्घाणम्—नपुं॰—-—-—लोहे का जंग
- शिङ्घाणम्—नपुं॰—-—-—शीशे का बर्तन
- शिङ्घाणकः—पुं॰—-—शिङ्घ् + अणक—नासिकामल, सिणक
- शिङ्घाणकम्—नपुं॰—-—शिङ्घ् + अणक—नासिकामल, सिणक
- शिङ्घाणकः—पुं॰—-—-—कफ, बलगम
- शिञ्ज्—भ्वा॰ अदा॰ आ॰<शिञ्जते>, <शिङ्क्ते>, <शिञ्जयति>,<शिञ्जयते>, चुरा॰ उभ॰ <शिञ्जित>—-—-—टनटनाना, झनझनाना, खड़खड़ाना
- शिञ्जः—पुं॰—-—शिञ्ज् + घञ्—टंकार, झनझनाहट, टनटन या झनझन की ध्वनि, विशेषकर झांवर आदि गहनों की झंकार
- शिञ्जञ्जिका—स्त्री॰—-—-—कटिबंध, करधनी
- शिञ्जा—स्त्री॰—-—शिञ्ज् + अ + टाप्—टंकार, झंकार आदि
- शिञ्जा—स्त्री॰—-—शिञ्ज् + अ + टाप्—धनुष की डोरी
- शिञ्जित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शिञ्ज् + क्त—टंकृत, झंकृत
- शिञ्जितम्—नपुं॰—-—-—टंकार, (झाँवर आदि गहनों की) झंकार
- शिञ्जिनी—स्त्री॰—-—शिञ्ज् + णिनि + ङीप्—धनुष की डोरी
- शिञ्जिनी—स्त्री॰—-—शिञ्ज् + णिनि + ङीप्—झांवर नूपुर (पैरों में पहना जाने वाला गहना)
- शिट्—भ्वा॰ पर॰<शेटति>—-—-—तुच्छ समझना, घृणा करना, तिरस्कार करना
- शित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—तेज किया हुआ, पैनाया हुआ
- शित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—पतला, कृश
- शित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शो + क्त—छीजा हुआ-क्षीण दुर्बल, बलहीन
- शिताग्रः—पुं॰—शित-अग्रः—-—काँटा
- शितधारा—वि॰—शित-धारा—-—तेज धार वाला
- शितशूकः—पुं॰—शित-शूकः—-—जौ
- शितशूकः—पुं॰—शित-शूकः—-—गेहूँ
- शितद्रुः—स्त्री॰—-—-—सतलुज नाम की नदी
- शिति—वि॰—-—शि + क्तिच्—श्वेत
- शिति—वि॰—-—शि + क्तिच्—काला
- शितिः—पुं॰—-—-—भूर्जवृक्ष
- शितिकण्ठः—पुं॰—शिति-कण्ठः—-—शिव का विशेषण
- शितिकण्ठः—पुं॰—शिति-कण्ठः—-—मोर
- शितिकण्ठः—पुं॰—शिति-कण्ठः—-—जलकुक्कुट
- शितिच्छदः—पुं॰—शिति-छदः—-—हंस
- शितिपक्षः—पुं॰—शिति-पक्षः—-—हंस
- शितिरत्नम्—नपुं॰—शिति-रत्नम्—-—नीलम
- शितिवासस्—पुं॰—शिति-वासस्—-—बलराम का विशेषण
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—ढीला, धीमा, सुस्त, विश्रान्त
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—विनबंधा, खुला हुआ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—वियुक्त, डाल से टूटा हुआ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—निढाल, निश्शक्त, असमर्थ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—दुर्बल, कमजोर
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—पिलपिला, ढीलाढाला
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—धुला हुआ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—मुर्झाया हुआ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—निष्क्रिय, निरर्थक, व्यर्थ
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—असावधान
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—ढीलेढाले ढंग से किया हुआ, पूरी पावन्दी के साथ जिसको सम्पन्न न किया गया हो
- शिथिल—वि॰—-—श्लथ् + किलच्, पृषो॰—फेंका हुआ, परित्यक्त
- शिथिलम्—नपुं॰—-—-—ढीलापन, शिथिलता
- शिथिलम्—नपुं॰—-—-—सुस्ती
- शिथिली कृ——-—-—ढीला करना, खोलना, खुला छोड़ना
- शिथिली कृ——-—-—छूट देना, ढील डालना
- शिथिली कृ——-—-—दुर्बल करना, निर्बल करना, कमजोर बनाना
- शिथिली कृ——-—-—छोड़ देना, परित्यक्त करना
- शिथिली भू——-—-—ढीला होना, सुस्त होना
- शिथिली भू——-—-—गिर पड़ना
- शिथिलयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—विश्राम करना, धीमा करना, ढीला करना
- शिथिलयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—छोड़ देना, परित्यक्त करना
- शिथिलयति—ना॰ धा॰ पर॰—-—-—कम करना, शान्त होने देना
- शिथिलित—वि॰—-—शिथिल + इतच्—ढीला किया हुआ
- शिथिलित—वि॰—-—शिथिल + इतच्—विश्रान्त, खोला हुआ
- शिथिलित—वि॰—-—शिथिल + इतच्—धुला हुआ, प्रविलीन
- शिनिः—पुं॰—-—शी + निः ह्रस्वश्च—यादवों के पक्ष का एक योद्धा
- शिनिः—पुं॰—-—शी + निः ह्रस्वश्च—सात्यकि
- शिपिः—पुं॰—-—शी + क्विप्, शी + पा + क, पृषो॰ ह्रस्तः इत्वं च—प्रकाश की एक किरण
- शिपिः—स्त्री॰—-—-—त्वचा, चमड़ा
- शिपिः—नपुं॰—-—-—जल
- शिपिविष्ट—वि॰—शिपिः-विष्ट—-—किरणों से व्याप्त
- शिपिविष्ट—वि॰—शिपिः-विष्ट—-—गंजा, गंजेसिर वाला
- शिपिविष्ट—वि॰—शिपिः-विष्ट—-—कोढ़ी
- शिपिविष्टः—पुं॰—शिपिः-विष्टः—-—विष्णु
- शिपिविष्टः—पुं॰—शिपिः-विष्टः—-—शिव
- शिपिविष्टः—पुं॰—शिपिः-विष्टः—-—गंजी खोपड़ी वाला
- शिपिविष्टः—पुं॰—शिपिः-विष्टः—-—शिश्नाग्रच्छदविहीन
- शिपिविष्टः—पुं॰—शिपिः-विष्टः—-—कोढ़ी
- शिप्रः—पुं॰—-—शि + रक् , पुक्—हिमालय पर्वत पर स्थित एक सरोवर
- शिप्रा—स्त्री॰—-—शिप्र + टाप्— शिप्र सरोवर से निकली एक नदी का नाम जिसके तट पर उज्जयिनी नगर बसा हुआ है
- शिफः—पुं॰—-—-—रेशेदार जड़
- शिफः—पुं॰—-—-—कमल की जड़
- शिफः—पुं॰—-—-—जड़
- शिफः—पुं॰—-—-—कोड़े की मार
- शिफः—पुं॰—-—-—माँ
- शिफः—पुं॰—-—-—एक नदी
- शिफा—स्त्री॰—-—-—रेशेदार जड़
- शिफा—स्त्री॰—-—-—कमल की जड़
- शिफा—स्त्री॰—-—-—जड़
- शिफा—स्त्री॰—-—-—कोड़े की मार
- शिफा—स्त्री॰—-—-—माँ
- शिफा—स्त्री॰—-—-—एक नदी
- शिफाधरः—पुं॰—शिफा-धरः—-—शाखा
- शिफारुहः—पुं॰—शिफा-रुहः—-—वटवृक्ष
- शिफाकः—पुं॰—-—शिफा + कन्—कमल की जड़
- शिबिः—पुं॰—-—-—शिकारी जानवर
- शिबिः—पुं॰—-—-—भूर्जवृक्ष
- शिबिः—पुं॰ब॰ व॰—-—-—एक देश का नाम
- शिबिः—पुं॰—-—-—एक राजा का नाम
- शिविः—पुं॰—-—शि + वि—शिकारी जानवर
- शिविः—पुं॰—-—शि + वि—भूर्जवृक्ष
- शिविः—पुं॰ब॰ व॰—-—-—एक देश का नाम
- शिविः—पुं॰—-—-—एक राजा का नाम
- शिबिका—स्त्री॰—-— शिवं करोति-शिव + णिच् + ण्वुल्—पालकी, डोली
- शिबिका—स्त्री॰—-— शिवं करोति-शिव + णिच् + ण्वुल्—अरथी
- शिविका—स्त्री॰—-— शिवं करोति-शिव + णिच् + ण्वुल्—पालकी, डोली
- शिविका—स्त्री॰—-— शिवं करोति-शिव + णिच् + ण्वुल्—अरथी
- शिबिरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्—तंबू
- शिबिरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्—राजकीय तंबू, या ख़ेमा
- शिबिरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्—सेना की रक्षा के लिए अकाट्य निवेश
- शिबिरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्—एक प्रकार का अन्न
- शिविरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्, बुकागमः, ह्रस्वः—तंबू
- शिविरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्, बुकागमः, ह्रस्वः—राजकीय तंबू, या ख़ेमा
- शिविरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्, बुकागमः, ह्रस्वः—सेना की रक्षा के लिए अकाट्य निवेश
- शिविरम्—नपुं॰—-—शेरते राजबलानि अत्र - शी + किरच्, बुकागमः, ह्रस्वः—एक प्रकार का अन्न
- शिबिरथः—पुं॰—-—शिवेः भूर्जवृक्षस्य ईः शोभा यत्र तादृशो रथः—पालकी, डोली
- शिविरथः—पुं॰—-—-—पालकी, डोली
- शिम्बा—स्त्री॰—-—शम् + इम्बच्, पृषो॰—फली, छीमी, सेम
- शिम्बिका—स्त्री॰—-—शिम्बा + कन् + टाप् , इत्वम्—फली, सेम
- शिम्बिका—स्त्री॰—-—शिम्बा + कन् + टाप् , इत्वम्—एक प्रकार के काले उड़द
- शिम्बी—स्त्री॰—-—-—फली, सेम
- शिम्बी—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का पौधा
- शिरम्—नपुं॰—-—शृ + क—सिर
- शिरम्—नपुं॰—-—शृ + क—पिप्परामूल
- शिरः—पुं॰—-—-—शय्या
- शिरः—पुं॰—-—-—अजगर
- शिरज—वि॰—शिरः-ज—-—बाल
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—सिर
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—खोपड़ी
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—शृङ्ग, चोटी, शिखर (पहाड़ आदि का)
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—वृक्ष की चोटी
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—किसी चीज़ का सिर या शिरोबिन्दु
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—कंगूरा, कलश, उच्चतम बिन्दु
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—अग्रभाग, अगला भाग, सेना का अगला भाग
- शिरस्—नपुं॰—-—शृ + असुन्, निपातः—मुख्य, प्रधान, मुखिया
- शिरोऽस्थि—नपुं॰—शिरस्-अस्थि—-—खोपड़ी
- शिरःकपालिन्—पुं॰—शिरस्-कपालिन्—-—मनुष्य-खोपड़ी रखने वाला संन्यासी
- शिरोगृहम्—नपुं॰—शिरस्-गृहम्—-—सबसे ऊपर का घर, चन्द्रशाला, अट्टालिका
- शिरोग्रहः—पुं॰—शिरस्-ग्रहः—-—सिर पीड़ा, सिर दर्द
- शिरोच्छेदः—पुं॰—शिरस्-छेदः—-—सिर काट देना, सिर कलम कर देना
- शिरोच्छेदनम्—नपुं॰—शिरस्-छेदनम्—-—सिर काट देना, सिर कलम कर देना
- शिरोतापिन्—पुं॰—शिरस्-तापिन्—-—हाथी
- शिरस्त्रम्—नपुं॰—शिरस्-त्रम्—-—लोहे को टोप
- शिरस्त्रम्—नपुं॰—शिरस्-त्रम्—-—सिर की टोपी, पागड़ी
- शिरस्त्राणम्—नपुं॰—शिरस्-त्राणम्—-—लोहे को टोप
- शिरस्त्राणम्—नपुं॰—शिरस्-त्राणम्—-—सिर की टोपी, पागड़ी
- शिरोधरा—स्त्री॰—शिरस्-धरा—-—ग्रीवा, गरदन
- शिरोधिः—पुं॰—शिरस्-धिः—-—ग्रीवा, गरदन
- शिरोपीड़ा—स्त्री॰—शिरस्-पीड़ा—-—सिर दर्द
- शिरोफलः—पुं॰—शिरस्-फलः—-—नारियल का पेड़
- शिरोभूषणम्—नपुं॰—शिरस्-भूषणम्—-—सिर पर पहनने का आभूषण
- शिरोमणि—पुं॰—शिरस्-मणि—-—मस्तक पर धारण करने का रत्न
- शिरोमणि—पुं॰—शिरस्-मणि—-—चूड़ामणि
- शिरोमणि—पुं॰—शिरस्-मणि—-—विद्वान् पुरुषों के लिए सम्मानद्योतक उपाधि
- शिरोमर्मन्—पुं॰—शिरस्-मर्मन्—-—सूअर
- शिरोमालिन्—पुं॰—शिरस्-मालिन्—-—शिव का विशेषण
- शिरोरत्नम्—नपुं॰—शिरस्-रत्नम्—-—शिरोमणि
- शिरोरुजा—स्त्री॰—शिरस्-रुजा—-—सिरदर्द
- शिरोरुह्—पुं॰—शिरस्-रुह्—-—सिर के बाल
- शिरोरुहः—पुं॰—शिरस्-रुहः—-—सिर के बाल
- शिरोवर्तिन्—वि॰—शिरस्-वर्तिन्—-—मुखिया
- शिरोवर्तिन्—पुं॰—शिरस्-वर्तिन्—-—मुख्य, प्रधान के रूप में रहने वाला
- शिरोवृत्तम्—नपुं॰—शिरस्-वृत्तम्—-—मिरच
- शिरोवेष्टः—पुं॰—शिरस्-वेष्टः—-—सिर पर पहनने का वस्त्र, पागड़ी
- शिरोवेष्टनम्—नपुं॰—शिरस्-वेष्टनम्—-—सिर पर पहनने का वस्त्र, पागड़ी
- शिरःशूलम्—नपुं॰—शिरस्-शूलम्—-—सिरदर्द
- शिरोहारिन्—पुं॰—शिरस्-हारिन्—-—शिव का विशेषण
- शिरसिजः—पुं॰—-—शिरसि जन् + ड सप्तम्या अलुक्—सिर के बाल
- शिरस्कम्—नपुं॰—-—शिरस् + कन्—लोहे का टोप
- शिरस्कम्—नपुं॰—-—शिरस् + कन्—पगड़ी, टोपी
- शिरस्का—स्त्री॰—-—शिरस्क + टाप्—पालकी
- शिरस्तस्—अव्य॰—-—शिरस् + तस्—सिर से
- शिरस्य—वि॰—-—शिरसि भव यत्—सिर संबंधी या सिर पर स्थित
- शिरस्यः—पुं॰—-—-—स्वच्छ केश
- शिरा—स्त्री॰—-—शॄ + क + टाप्—नलिका के आकार की शरीर की वाहिका, नाड़ी, खून की नाड़ी, रक्तवाहिनी नाड़ी
- शिरापत्रः—पुं॰—शिरा-पत्रः—-—कपित्थ, कैथवृक्ष
- शिरावृत्तम्—नपुं॰—शिरा-वृत्तम्—-—सीसा
- शिराल—वि॰ —-—शिरा + लच्—स्नायवी, शिरायुक्त, शिराबहुल
- शिरिः—पुं॰—-—शॄ + कि—तलवार
- शिरिः—पुं॰—-—शॄ + कि—वध करने वाला, क़तल करने वाला
- शिरिः—पुं॰—-—शॄ + कि—बाण
- शिरिः—पुं॰—-—शॄ + कि—टिड्डी
- शिरीषः—पुं॰—-—शृ + ईषन्, किच्च—सिरस का पेड़
- शिरीषम्—नपुं॰—-—-—सिरस का फूल
- शिल्—तुदा॰ पर॰ <शिलति>—-—-—शिलोंछन, सिला चुगना, बालें इकट्ठा करना
- शिलः—पुं॰—-—शिल् + क—शिलोंछन, बालें चुनना
- शिलम्—पुं॰—-—शिल् + क—शिलोंछन, बालें चुनना
- शिलोञ्छः—पुं॰—शिलः-उञ्छः—-—शिलावृत्ति
- शिलोञ्छः—पुं॰—शिलः-उञ्छः—-—अनियमित वृत्ति
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—पत्थर चट्टान
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—चक्की
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—चौखट की नीचे की लकड़ी
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—खंबे की चोटी
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—कंडरा, रक्तवाहिका
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—मनः शिला, मैनसिल
- शिला—स्त्री॰—-—शिल + टाप्—कपूर
- शिलाष्टकः—पुं॰—शिला-अष्टकः—-—छिद्र
- शिलाष्टकः—पुं॰—शिला-अष्टकः—-—बाड़, बाड़ा
- शिलाष्टकः—पुं॰—शिला-अष्टकः—-—चौबारा, अटारी
- शिलात्मजम्—नपुं॰—शिला-आत्मजम्—-—लोहा
- शिलात्मिका—स्त्री॰—शिला-आत्मिका—-—कुठाली, घरिया
- शिलारम्भा—स्त्री॰—शिला-आरम्भा—-—काष्ठकदली, जंगली केला
- शिलासनम्—नपुं॰—शिला-आसनम्—-—पत्थर का आसन, चौकी आदि
- शिलासनम्—नपुं॰—शिला-आसनम्—-—शैलेय गन्धद्रव्य, गुग्गल
- शिलाह्वम्—नपुं॰—शिला-आह्वम्—-—शिलाजतु
- शिलोच्चयः—पुं॰—शिला-उच्चयः—-—पहाड़, विशाल चट्टान
- शिलोत्थम्—नपुं॰—शिला-उत्थम्—-—शैलेयगन्धद्रव्य, गुग्गुल
- शिलोद्भवम्—नपुं॰—शिला-उद्भवम्—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शिलोद्भवम्—नपुं॰—शिला-उद्भवम्—-—बढ़िया क़िस्म की चन्दन की लकड़ी
- शिलौकस्—पुं॰—शिला-ओकस्—-—गरुड़ का विशेषण
- शिलाकुट्टकः—पुं॰—शिला-कुट्टकः—-—पत्थर तोड़ने की छेनी, टाँकी
- शिलापुष्पम्—नपुं॰—शिला-पुष्पम्—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शिलाज—वि॰—शिला-ज—-—शिलाजीत, खनिजद्रव्य
- शिलाजम्—नपुं॰—शिला-जम्—-—शिलाजीत
- शिलाजम्—नपुं॰—शिला-जम्—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शिलाजम्—नपुं॰—शिला-जम्—-—पेट्रोल
- शिलाजम्—नपुं॰—शिला-जम्—-—लोहा
- शिलाजम्—नपुं॰—शिला-जम्—-—कोई भी शिलीभूत पदार्थ
- शिलाजतु—नपुं॰—शिला-जतु—-—शिलाजीत
- शिलाजतु—नपुं॰—शिला-जतु—-—गेरु
- शिलाजित्—स्त्री॰—शिला-जित्—-—शिलाजीत
- शिलाददुः—पुं॰—शिला-ददुः—-—शिलाजीत
- शिलाधातुः—पुं॰—शिला-धातुः—-—खड़िया मिट्टी
- शिलाधातुः—पुं॰—शिला-धातुः—-—गेरु
- शिलाधातुः—पुं॰—शिला-धातुः—-—सफेद शिलीभूत पदार्थ
- शिलापट्टः—पुं॰—शिला-पट्टः—-—पत्थर की शिला जिस पर बैठा जाय, शिलासन
- शिलापुत्रः—पुं॰—शिला-पुत्रः—-—मशाला पीसने की छोटी शिला, सिल
- शिलापुत्रकः—पुं॰—शिला-पुत्रकः—-—मशाला पीसने की छोटी शिला, सिल
- शिलाप्रतिकृतिः—स्त्री॰—शिला-प्रतिकृतिः—-—प्रस्तर मूर्ति
- शिकाफलकम्—नपुं॰—शिला-फलकम्—-—पत्थर की सिल
- शिलाभवम्—नपुं॰—शिला-भवम्—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शिलाभेदः—पुं॰—शिला-भेदः—-—संगतराश की छेनी, टांकी
- शिलारसः—पुं॰—शिला-रसः—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शिलारसः—पुं॰—शिला-रसः—-—धूप
- शिलावल्कलम्—नपुं॰—शिला-वल्कलम्—-—एक प्रकार की काई जो पत्थर पर जम जाती है
- शिलावृष्टिः—स्त्री॰—शिला-वृष्टिः—-—पत्थरों की वर्षा
- शिलावृष्टिः—स्त्री॰—शिला-वृष्टिः—-—ओलों की बारिश
- शिलावेश्मन्—नपुं॰—शिला-वेश्मन्—-—गुफा, पत्थर की दरार
- शिलाव्याधिः—पुं॰—शिला-व्याधिः—-—शिलाजीत
- शिलिः—पुं॰—-—शिल् + कि—भूर्जवृक्ष
- शिलिः—स्त्री॰—-—-—चौखट की नीचे की लकड़ी
- शिलिन्दः—पुं॰—-—शिलि + दा + क, पृषो॰ मुम्—एक प्रकार की मछली
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—दरवाज़े की चौखट की नीचे की लकड़ी
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—एक प्रकार का भूकीट, केंचुआ
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—खंभे की चोटी
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—भाला
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—बाण
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—गण्डूपद
- शिली—स्त्री॰—-—शिलि + ङीष्—मेंढकी
- शिलीमुखः—पुं॰—शिली-मुखः—-—भौंरा
- शिलीमुखः—पुं॰—शिली-मुखः—-—बाण
- शिलीमुखः—पुं॰—शिली-मुखः—-—मूर्ख
- शिलीन्ध्रः—पुं॰—-—शिलीं धरति - धृ + क पृषो॰ मुम्—एक प्रकार की मछली
- शिलीन्ध्रः—पुं॰—-—शिलीं धरति - धृ + क पृषो॰ मुम्—एक वृक्ष
- शिलीन्ध्रम्—नपुं॰—-—-—कुकुरमुत्ता साँप की छतरी
- शिलीन्ध्रम्—नपुं॰—-—-—केले के वृक्ष का फूल
- शिलीन्ध्रम्—नपुं॰—-—-—ओला
- शिलीन्ध्रकम्—नपुं॰—-—शिलीन्ध्र + कन—कुकुरमुत्ता, खुंब, साँप की छतरी
- शिलीन्ध्री—स्त्री॰—-—शिलीन्ध्र + ङीष्—मृत्तिका, मिट्टी
- शिलीन्ध्री—स्त्री॰—-—शिलीन्ध्र + ङीष्—केंचुआ
- शिल्पम्—नपुं॰—-—शिल् + पक्—कला, ललितकला, यान्त्रिक कला
- शिल्पम्—नपुं॰—-—-—(किसी भी कला में) कुशलता, कारीगरी
- शिल्पम्—नपुं॰—-—-—विदग्धता, पटुता
- शिल्पम्—नपुं॰—-—-—कार्य, शारीरिक श्रम या कार्य
- शिल्पम्—नपुं॰—-—-—कृत्य, अनुष्ठान
- शिल्पम्—नपुं॰—-—-—यज्ञीय चमचा, स्रुवा
- शिल्पकर्मन्—नपुं॰—शिल्पम्-कर्मन्—-—कोई भी शारीरिक श्रम, दस्तकारी
- शिल्पक्रिया—स्त्री॰—शिल्पम्-क्रिया—-—कोई भी शारीरिक श्रम, दस्तकारी
- शिल्पकारः—पुं॰—शिल्पम्-कारः—-—दस्तकार, कारीगर
- शिल्पकारकः—पुं॰—शिल्पम्-कारकः—-—दस्तकार, कारीगर
- शिल्पकारिन्—पुं॰—शिल्पम्-कारिन्—-—दस्तकार, कारीगर
- शिल्पशालम्—नपुं॰—शिल्पम्-शालम्—-—कारखाना, निर्माणी, शिल्पविद्यालय, शिल्पगृह
- शिल्पशाला—स्त्री॰—शिल्पम्-शाला—-—कारखाना, निर्माणी, शिल्पविद्यालय, शिल्पगृह
- शिल्पशास्त्रम्—नपुं॰—शिल्पम्-शास्त्रम्—-—कला विषय पर (चाहे ललित हो या यान्त्रिक) लिखा गया ग्रंथ
- शिल्पशास्त्रम्—नपुं॰—शिल्पम्-शास्त्रम्—-—शिल्पविज्ञान
- शिल्पिन्—वि॰—-—शिल्प + इनि—ललित या यांत्रिककला संबंधी
- शिल्पिन्—वि॰—-—शिल्प + इनि—यांत्रिक, यंत्रवत्
- शिल्पिन्—पुं॰—-—-—दस्तकर, कलाकार, कारिगर
- शिल्पिन्—पुं॰—-—-—जो किसी भी कला में प्रवीण हो
- शिव—वि॰—-—श्यति पापम् -शो + वन्, पृषो॰—शुभ, मांगलिक, सौभाग्यशाली
- शिव—वि॰—-—श्यति पापम् -शो + वन्, पृषो॰—स्वस्थ, प्रसन्न, समृद्ध , सौभाग्यशाली
- शिवः—पुं॰—-—-—हिन्दुओं के तीन प्रधान देवताओं (त्रिमूर्ति) में से तीसरा देव जिसका कार्य सृष्टि का संहार करना है
- शिवः—पुं॰—-—-—पुरुष की जननेन्द्रिय, शिश्न
- शिवः—पुं॰—-—-—शुभ ग्रहों का योग
- शिवः—पुं॰—-—-—वेद
- शिवः—पुं॰—-—-—मोक्ष
- शिवः—पुं॰—-—-—पशुओं का बाँधने का खूँटा
- शिवः—पुं॰—-—-—सुर, देवता
- शिवः—पुं॰—-—-—पारा
- शिवः—पुं॰—-—-—गुग्गल
- शिवः—पुं॰—-—-—काला धतूरा
- शिवौ—पुं॰, द्वि व॰—-—-—शिव और पार्वती
- शिवम्—नपुं॰—-—-—समृद्धि , कल्याण, मंगल, आनन्द
- शिवम्—नपुं॰—-—-—परमानन्द, मांगलिकता
- शिवम्—नपुं॰—-—-—मोक्ष
- शिवम्—नपुं॰—-—-—जल
- शिवम्—नपुं॰—-—-—समुद्री नमक
- शिवम्—नपुं॰—-—-—सेंधा नमक
- शिवम्—नपुं॰—-—-—शुद्ध सोहागा
- शिवाक्षम्—नपुं॰—शिव-अक्षम्—-—एक प्रकार का वृक्ष
- शिवात्मकम्—नपुं॰—शिव-आत्मकम्—-—सेंधा नमक
- शिवादेशकः—पुं॰—शिव-आदेशकः—-—शुभ समाचार लाने वाला
- शिवादेशकः—पुं॰—शिव-आदेशकः—-—भविष्यवक्ता
- शिवालयः—पुं॰—शिव-आलयः—-—शिव का आवास
- शिवालयः—पुं॰—शिव-आलयः—-—लाल तुलसी
- शिवालयम्—नपुं॰—शिव-आलयम्—-—शिव मन्दिर
- शिवालयम्—नपुं॰—शिव-आलयम्—-—श्मशान
- शिवेतर—वि॰—शिव-इतर—-—अशुभ, दुर्भाग्यपूर्ण
- शिवकर—वि॰—शिव-कर—-—आनन्दप्रदायक, मंगलप्रद
- शिवकीर्तनः—पुं॰—शिव-कीर्तनः—-—भृंगी का नाम
- शिवगति—वि॰—शिव-गति—-—समृद्ध, आनन्दित
- शिवधर्मजः—पुं॰—शिव-धर्मजः—-—मंगलग्रह
- शिवताति—वि॰—शिव-ताति—-—जिसका अन्त कल्याणकारी हो, आनन्ददायक, मंगलप्रद
- शिवताति—वि॰—शिव-ताति—-—मृदु, जो राक्षसी न हो
- शिवतातिः—पुं॰—शिव-तातिः—-—मांगलिकता, आनन्द
- शिवदत्तम्—नपुं॰—शिव-दत्तम्—-—विष्णु का चक्र
- शिवदारु—नपुं॰—शिव-दारु—-—देवदारु का पेड़
- शिवद्रुमः—पुं॰—शिव-द्रुमः—-—बल का पेड़
- शिवद्विष्टा—स्त्री॰—शिव-द्विष्टा—-—केतकी का पेड़
- शिवधातुः—पुं॰—शिव-धातुः—-—पारा
- शिवपुरम्—नपुं॰—शिव-पुरम्—-—बनारस, वाराणसी
- शिवपुरी—स्त्री॰—शिव-पुरी—-—बनारस, वाराणसी
- शिवपुराणम्—नपुं॰—शिव-पुराणम्—-—अठारह पुराणों में से एक
- शिवप्रियः—पुं॰—शिव-प्रियः—-—स्फटिक
- शिवप्रियः—पुं॰—शिव-प्रियः—-—बक नाम का पेड़
- शिवप्रियः—पुं॰—शिव-प्रियः—-—धतूरा
- शिवमल्लकः—पुं॰—शिव-मल्लकः—-—अर्जुनवृक्ष
- शिवराजधानी—स्त्री॰—शिव-राजधानी—-—वाराणसी
- शिवरात्रिः—स्त्री॰—शिव-रात्रिः—-—फाल्गुनकृष्ण चतुर्दशी
- शिवलिङ्गम्—नपुं॰—शिव-लिङ्गम्—-—शिव जिसकी पिंडी या लिंग के रूप में पूजा होती है
- शिवलोकः—पुं॰—शिव-लोकः—-—शिव का संसार
- शिववल्लभः—पुं॰—शिव-वल्लभः—-—आम का वृक्ष
- शिववल्लभा—स्त्री॰—शिव-वल्लभा—-—पार्वती
- शिववाहनः—पुं॰—शिव-वाहनः—-—साँड़
- शिववीजम्—नपुं॰—शिव-वीजम्—-—पारा
- शिवशेखरः—पुं॰—शिव-शेखरः—-—चाँद
- शिवशेखरः—पुं॰—शिव-शेखरः—-—धतूरा
- शिवसुन्दरी—स्त्री॰—शिव-सुन्दरी—-—दुर्गा का विशेषण
- शिवकः—पुं॰—-—शिव + कन्—वह खूँटा जिसके साथ प्रायः गौ आदि पशु बाधे जाते हैं
- शिवकः—पुं॰—-—शिव + कन्—वह खंबा जिससे पशु अपना शरीर रगड़ता है, पशुओं के शरीर को खुजलाने के लिए खूँटा
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—पार्वती
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—गीदड़ी
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—मोक्ष
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—शमी (जैंडी) का वृक्ष
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—आंवला
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—दुर्वाघास, दूब
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—पीला रंग
- शिवा—स्त्री॰—-—शिव + टाप्—हल्दी
- शिवारातिः—पुं॰—शिवा-अरातिः—-—कुत्ता
- शिवाप्रियः—पुं॰—शिवा-प्रियः—-—बकरा
- शिवाफला—स्त्री॰—शिवा-फला—-—शमी (जैंडी) का वृक्ष
- शिवारुतम्—नपुं॰—शिवा-रुतम्—-—गीदड़ का रोना
- शिवानी—स्त्री॰—-—शिव + ङीप्, आनुक्—शिव की पत्नी पार्वती
- शिवालुः—पुं॰—-—शिव + आलुच्—गीदड़
- शिशिर—वि॰—-—शश् + किरच् -नि—ठंडा, शीतल, सर्द जमा हुआ
- शिशिरः—पुं॰—-—-—ओस, तुषार या पाला
- शिशिरः—पुं॰—-—-—जाड़े का मौसम, (माघ और फाल्गुन की) सर्दी
- शिशिरः—पुं॰—-—-—ठंडक, शीतलता
- शिशिरांशुः—पुं॰—शिशिर-अंशुः—-—चन्द्रमा
- शिशिरकरः—पुं॰—शिशिर-करः—-—चन्द्रमा
- शिशिरकिरणः—पुं॰—शिशिर-किरणः—-—चन्द्रमा
- शिशिरदीधितिः—पुं॰—शिशिर-दीधितिः—-—चन्द्रमा
- शिशिराश्मिः—पुं॰—शिशिर-रश्मिः—-—चन्द्रमा
- शिशिरात्ययः—पुं॰—शिशिर-अत्ययः—-—जाड़े का अन्त, वसन्त ऋतु
- शिशिरापगमः—पुं॰—शिशिर-अपगमः—-—जाड़े का अन्त, वसन्त ऋतु
- शिशिरकालः—पुं॰—शिशिर-कालः—-—जाड़े की ऋतु
- शिशिरसमयः—पुं॰—शिशिर-समयः—-—जाड़े की ऋतु
- शिशिरघ्नः—पुं॰—शिशिर-घ्नः—-—अग्नि का विशेषण
- शिशुः—पुं॰—-—शो + कु, सन्वद्भावः, द्वित्वम्—बालक, बच्चा
- शिशुः—पुं॰—-—शो + कु, सन्वद्भावः, द्वित्वम्—किसी भी जानवर का बच्चा (बछड़ा, पिल्ला, छौना आदि)
- शिशुः—पुं॰—-—शो + कु, सन्वद्भावः, द्वित्वम्—आठ या सोलह वर्ष से कम आयु का बालक
- शिशुक्रन्दः—पुं॰—शिशुः-क्रन्दः—-—बच्चे का रोना
- शिशुक्रन्दनम्—नपुं॰—शिशुः-क्रन्दनम्—-—बच्चे का रोना
- शिशुगन्धा—स्त्री॰—शिशुः-गन्धा—-—एक प्रकार की मल्लिका
- शिशुपालः—पुं॰—शिशुः-पालः—-—दमघोष का पुत्र तथा चेदि देश का राजा
- शिशुहन्—पुं॰—शिशुः-हन्—-—कृष्ण का विशेषण
- शिशुमारः—पुं॰—शिशुः-मारः—-—सूँस नाम का जलजन्तु
- शिशुवाहकः—पुं॰—शिशुः-वाहकः—-—जंगली बकरा
- शिशुवाह्यकः—पुं॰—शिशुः-वाह्यकः—-—जंगली बकरा
- शिशुकः—पुं॰—-—शिशु + कन्—बालक, बच्चा
- शिशुकः—पुं॰—-—शिशु + कन्—किसी भी जानवर का बच्चा
- शिशुकः—पुं॰—-—शिशु + कन्—वृक्ष
- शिशुकः—पुं॰—-—शिशु + कन्—सूँस
- शिश्नम्—नपुं॰—-—शश् + नक् इत्वम्—पुरुष की जननेन्द्रिय, लिङ्ग
- शिस्नम्—नपुं॰—-—-—पुरुष की जननेन्द्रिय, लिङ्ग
- शिश्विदान—वि॰—-—श्वित् + सन् + आनच्, सनो लुक्, द्वित्वम्, रकारस्य दकारः—पवित्र आचरण वाला, सद्गुणी, पुण्यात्मा
- शिश्विदान—वि॰—-—श्वित् + सन् + आनच्, सनो लुक्, द्वित्वम्, रकारस्य दकारः—दुष्ट, पापी
- शिष्—भ्वा॰ पर॰ <शेषति>—-—-—चोट पहुँचाना, मार डालना
- शिष्—भ्वा॰ पर॰ <शेषति>, चुरा॰ उभ॰ <शेषयति>, <शेषयते>—-—-—अवशिष्ट छोड़ देना, बचा देना
- शिष्—रुधा॰ पर॰<शिनष्टि>, <शिष्ट>—-—-—बाक़ी छोड़ना, बचा रखना, अवशिष्ट छोड़ना
- शिष्—रुधा॰ पर॰<शिनष्टि>, <शिष्ट>—-—-—दूसरों से भिन्नता करना
- शिष्—रुधा॰ उभ॰, प्रेर॰ <शेषयति>, <शेषयते>—-—-—छोड़ना
- अवशिष्—रुधा॰ पर॰—अव-शिष्—-—बाकी छोड़ना, पीछे छोड़ना
- उच्छिष्—रुधा॰ पर॰—उद्-शिष्—-—बाक़ी छोड़ना
- परिशिष्—रुधा॰ उभ॰, प्रेर॰—परि-शिष्—-—अवशिष्ट छोड़ना
- विशिष्—रुधा॰ पर॰—वि-शिष्—-—विशिष्ट करना, विशेषता देना, विशेष रूप से कहना, परिभाषा करना
- विशिष्—रुधा॰ पर॰—वि-शिष्—-—भेद करना, विवेचन करना
- विशिष्—रुधा॰ पर॰—वि-शिष्—-—बढ़ाना, ऊँचा करना, वृद्धि करना, गहरा करना
- विशिष्—रुधा॰ कर्मवा॰—वि-शिष्—-—भिन्न होना
- विशिष्—रुधा॰ कर्मवा॰—वि-शिष्—-—अपेक्षाकृत अच्छा या ऊँचे दर्जे का होना, आगे बढ़ जाना, श्रेष्ठ होना,
- विशिष्—रुधा॰ अपा॰—वि-शिष्—-—अपेक्षाकृत बढ़िया और दूसरों से अच्छा होना
- विशिष्—रुधा॰ उभ॰, प्रेर॰—वि-शिष्—-—आगे बढ़ जाना श्रेष्ठ होना
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—छोड़ा हुआ, बचा हुआ, अवशिष्ट, बाक़ी
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—आदिष्ट, समादिष्ट
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—प्रशिक्षित, शिक्षित, अनुशिष्ट
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—सधाया हुआ, पालतू, वश्य
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—बुद्धिमान्, विद्वान्
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—सद्गुणसंपन्न, माननीय
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—शिष्ट, नम्र
- शिष्ट—भू॰ क॰कृ॰—-—शास् + क्त, शिष् + क्त वा—मुख्य, प्रधान, श्रेष्ठ, उत्तम, पूज्य, प्रमुख
- शिष्टः—पुं॰—-—-—प्रमुख या पूज्य व्यक्ति
- शिष्टः—पुं॰—-—-—बुद्धिमान् पुरुष
- शिष्टः—पुं॰—-—-—परामर्शदाता
- शिष्टाचारः—पुं॰—शिष्टः-आचारः—-—बुद्धिमान् मनुष्यों का आचरण शिष्टाचरण, सच्चरित्र
- शिष्टसभा—स्त्री॰—शिष्टः-सभा—-—विद्वान् या श्रेष्ठ पुरुषों की सभा, राज्यसभा
- शिष्टिः—स्त्री॰—-—शास् + क्तिन्—राज्य, शासन
- शिष्टिः—स्त्री॰—-—शास् + क्तिन्—आज्ञा, आदेश
- शिष्टिः—स्त्री॰—-—शास् + क्तिन्—सजा, दण्ड
- शिष्यः—पुं॰—-—शास् + क्यप्—छात्र, चेला, विद्यार्थी
- शिष्यः—पुं॰—-—शास् + क्यप्—क्रोध, आवेश
- शिष्यपरम्परा—स्त्री॰—शिष्यः-परम्परा—-—चेलों का अनुक्रम, किसी गुरु-संप्रदाय की परंपरित शिष्यमंडली
- शिष्टिः—स्त्री॰—-—-—छात्र का शोधन, भर्त्सना
- शिह्लः—पुं॰—-—सिह् + लक्—शैलेय गन्धद्रव्य
- शिह्लकः—पुं॰—-—सिह् + लक्, नि॰ सस्य शः—शैलेय गन्धद्रव्य
- शी—अदा॰ आ॰ <शेते>, <शायित>,कर्मवा॰ <शय्यते>, इच्छा॰ <शिशयिषते>—-—-—लेटना, लेट जाना, विश्राम करना, आराम करना
- शी—अदा॰ आ॰ <शेते>, <शायित>,कर्मवा॰ <शय्यते>, इच्छा॰ <शिशयिषते>—-—-—सोना
- शी—अदा॰ उभ॰, प्रेर॰<शाययति>, <शाययते>—-—-—सुलाना, लिटाना
- अतिशी—अदा॰ आ॰—अति-शी—-—सोने में पहल करना
- अतिशी—अदा॰ आ॰—अति-शी—-—बाद में सोना-अपेक्षाकृत देर तक सोना
- अधिशी—अदा॰ आ॰—अधि-शी—-—लेटना, सोना, आराम करना
- अधिशी—अदा॰ आ॰—अधि-शी—-—वसना, रहना
- उपशी—अदा॰ आ॰—उप-शी—-—सोना, निकट लेटना
- संशी—अदा॰ आ॰—सम-शी—-—संदेह में होना
- शी—स्त्री॰—-—शी + क्विप्—निद्रा, विश्राम
- शी—स्त्री॰—-—शी + क्विप्—शान्ति
- शीक्—भ्वा॰ आ॰ <शीकते>—-—-—तर करना, छिड़कना
- शीक्—भ्वा॰ आ॰ <शीकते>—-—-—शनैः शनैः जाना, हिलना-जुलना
- शीक्—भ्वा॰ पर॰ <शीकते>,चुरा॰ उभ॰<शीकयति>, <शीकयते>—-—-—क्रोध करना
- शीक्—भ्वा॰ पर॰ <शीकते>,चुरा॰ उभ॰<शीकयति>, <शीकयते>—-—-—आर्द्र करना, गीला करना
- शीकरः—पुं॰—-—शीक् + अरन्—वायुप्रेरित छींटे, सूक्ष्मवृष्टि, बौछार, तुषार
- शीकरः—पुं॰—-—शीक् + अरन्—जलकण, वृष्टिकण
- शीकरम्—नपुं॰—-—-—सरलवृक्ष
- शीकरम्—नपुं॰—-—-—सरलवृक्ष की राल
- शीघ्र—वि॰—-—शिङ्घ् + रक्, नि॰—फुर्तीला, त्वरित, सत्वर
- शीघ्रः—पुं॰—-—-—ग्रहयोग
- शीघ्रम्—अव्य॰—-—-—फुर्ती से, तेज़ी से, जल्दी से
- शीघ्रोच्चः—पुं॰—शीघ्र-उच्चः—-—ग्रहयोग
- शीघ्रकारिन्—वि॰—शीघ्र-कारिन्—-—फुर्तीला, चुस्त
- शीघ्रकोपिन्—वि॰—शीघ्र-कोपिन्—-—चिड़चिड़ा, क्रोधी
- शीघ्रचेतनः—पुं॰—शीघ्र-चेतनः—-—कुत्ता
- शीघ्रबुद्धि—वि॰—शीघ्र-बुद्धि—-—तीक्ष्णबुद्धि वाला, तेज़ बुद्धिवाला
- शीघ्रलङ्घन—वि॰—शीघ्र-लङ्घन—-—तेज़ जाने वाला, पैर फुर्ती से रखने वाला
- शीघ्रवेधिन्—पुं॰—शीघ्र-वेधिन्—-—तेज़ धनुर्धर
- शीघ्रिन्—वि॰—-—शीघ्र + इनि—सत्वर, फुर्तीला
- शीघ्रिय—वि॰—-—शीघ्र + घ—चुस्त
- शीघ्रियः—पुं॰—-—-—विष्णु
- शीघ्रियः—पुं॰—-—-—शिव
- शीघ्रियः—पुं॰—-—-—बिल्लियों की लड़ाई
- शीघ्र्यम्—नपुं॰—-—शीघ्र + घ—चुस्ती, शीघ्रता
- शीत्—अव्य॰—-—-—आकस्मिक पीड़ा या आनन्द को अभिव्यक्त करने वाली ध्वनि
- शीत्कारः—पुं॰—शीत्-कारः—-—उपर्युक्तध्वनि, सिसकारी
- शीत्कृत्—पुं॰—शीत्-कृत्—-—उपर्युक्तध्वनि, सिसकारी
- शीत—वि॰—-—श्यै + क्त—ठण्डा, शीतल, जमा हुआ
- शीत—वि॰—-—श्यै + क्त—मन्द, सुस्त, उदासीन, आलसी
- शीत—वि॰—-—श्यै + क्त—अलस, सुस्त, जड़
- शीतः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का नरकुल
- शीतः—पुं॰—-—-—नील का वृक्ष
- शीतः—नपुं॰—-—-—जाड़े की ऋतु
- शीतः—नपुं॰—-—-—कपूर
- शीतम्—नपुं॰—-—-—ठण्डक, शीतलता, सर्दी
- शीतम्—नपुं॰—-—-—जल
- शीतम्—नपुं॰—-—-—दारचीनी
- शीतांशुः—पुं॰—शीत-अंशुः—-—चाँद
- शीतांशुः—पुं॰—शीत-अंशुः—-—कपूर
- शीतादः—पुं॰—शीत-अदः—-—मसूड़ों के पकजाने या उनमें ब्रण हो जाने का रोग,पायरिया
- शीताद्रिः—पुं॰—शीत-अद्रिः—-—हिमालय पहाड़
- शीतश्मन्—पुं॰—शीत-अश्मन्—-—चन्द्रकान्तमणि
- शीतार्त—वि॰—शीत-आर्त—-—ठंड से व्याकुल, जाड़े से ठिठुरा हुआ
- शीतोत्तमम्—नपुं॰—शीत-उत्तमम्—-—पानी
- शीतकालः—पुं॰—शीत-कालः—-—जाड़े का ऋतु, सर्दी का मौसम
- शीतकालीन—वि॰—शीत-कालीन—-—जाड़े में होने वाला
- शीतकृच्छ्रः—पुं॰—शीत-कृच्छ्रः—-—एक प्रकार की धार्मिक साधना
- शीतगन्धम्—नपुं॰—शीत-गन्धम्—-—सफेद चन्दन
- शीतगुः—पुं॰—शीत-गुः—-—चाँद
- शीतगुः—पुं॰—शीत-गुः—-—कपूर
- शीतचम्पकः—पुं॰—शीत-चम्पकः—-—दीपक
- शीतचम्पकः—पुं॰—शीत-चम्पकः—-—दर्पण
- शीतदीधितिः—पुं॰—शीत-दीधितिः—-—चाँद
- शीतपुष्पः—पुं॰—शीत-पुष्पः—-—शिरीष का वृक्ष, शिरस का पेड़
- शीतपुष्पकम्—नपुं॰—शीत-पुष्पकम्—-—शैलेय गन्धद्रव्य
- शीतप्रभः—पुं॰—शीत-प्रभः—-—कपूर
- शीतभानुः—पुं॰—शीत-भानुः—-—चाँद
- शीतभीरुः—पुं॰—शीत-भीरुः—-—एक प्रकार की मल्लिका
- शीतमयूखः—पुं॰—शीत-मयूखः—-—चाँद
- शीतमयूखः—पुं॰—शीत-मयूखः—-—कपूर
- शीतमरीचिः—पुं॰—शीत-मरीचिः—-—चाँद
- शीतमरीचिः—पुं॰—शीत-मरीचिः—-—कपूर
- शीररश्मिः—पुं॰—शीत-रश्मिः—-—चाँद
- शीररश्मिः—पुं॰—शीत-रश्मिः—-—कपूर
- शीतरम्यः—पुं॰—शीत-रम्यः—-—दीपक
- शीतरुच्—पुं॰—शीत-रुच्—-—चाँद
- शीतवल्कः—पुं॰—शीत-वल्कः—-—गूलर का पेड़
- शीतवीर्यकः—पुं॰—शीत-वीर्यकः—-—बड़ का पेड़
- शीतशिव—पुं॰—शीत-शिवः—-—शमीवृक्ष, जैंडी का पेड़
- शीतशिवम्—नपुं॰—शीत-शिवम्—-—सेंधा नमक
- शीतशिवम्—नपुं॰—शीत-शिवम्—-—सुहागा
- शीतशूकः—पुं॰—शीत-शूकः—-—जौ
- शीतस्पर्श—वि॰—शीत-स्पर्श—-—ठंडक पहुँचाने वाला
- शीतक—वि॰—-—शीत + कन्—ठण्डा
- शीतकः—पुं॰—-—-—कोई ठण्डी वस्तु
- शीतकः—पुं॰—-—-—जाड़े का ऋतु, सर्दी का मौसम
- शीतकः—पुं॰—-—-—मन्थर, दीर्घसूत्री
- शीतकः—पुं॰—-—-—आनन्दित, निश्चिन्त
- शीतकः—पुं॰—-—-—बिच्छू
- शीतल—वि॰—-—शीतं लाति-ला + क, शीतमस्त्यस्य लच् वा—ठण्डा, शीतलगुण युक्त, सर्द, (ठण्ड के कारण) जमा हुआ
- शीतलः—पुं॰—-—-—चाँद
- शीतलः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का कर्पूर
- शीतलः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—ठण्डक, ठण्डापन
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—जाड़े की ऋतु
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—शैलेयगन्धद्रव्य
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—सफेद चन्दन, या चन्दन
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—मोती
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—तूतिया
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—कमल
- शीतलम्—नपुं॰—-—-—वीरण नामक मूल
- शीतलच्छदः—पुं॰—शीतल-छदः—-—चम्पक वृक्ष
- शीतलजलम्—नपुं॰—शीतल-जलम्—-—कमल
- शीतलप्रदः—पुं॰—शीतल-प्रदः—-—चन्दन
- शीतलप्रदम्—नपुं॰—शीतल-प्रदम्—-—चन्दन
- शीतलषष्ठी—स्त्री॰—शीतल-षष्ठी—-—माघ शुक्ला छठ
- शीतलकन्—नपुं॰—-—शीतल + कन्—सफेद कमल
- शीतला—स्त्री॰—-—शीतल + टाप्—चेचक
- शीतला—स्त्री॰—-—-—चेचक (शीतला) की अधिष्ठात्री देवता
- शीतलापूजा—स्त्री॰—शीतला-पूजा—-—शीतला देवी की पूजा
- शीतली—स्त्री॰—-—शीतल + ङीष्—चेचक
- शीता—स्त्री॰—-—-—हल के चलाने से खेत में बनी हुई रेखा, खूड, हल की फाल से खुदी हुई रेखा
- शीता—स्त्री॰—-—-—जुती हुई या खूडवाली भूमी, हल से जोती हुई भूमि
- शीता—स्त्री॰—-—-—कृषि, खेंती
- शीता—स्त्री॰—-—-—एक देवी का नाम, इन्द्र की पत्नी
- शीता—स्त्री॰—-—-—उमा का नाम
- शीता—स्त्री॰—-—-—लक्ष्मी का नाम
- शीता—स्त्री॰—-—-—गंगा की चार धाराओं में से एक
- शीता—स्त्री॰—-—-—मदिरा
- शीतालु—वि॰—-—शीतं न सहते- शीत + आलुच्—सर्दी से ठिठुरता हुआ, जिसे सर्दी लग गई है, जाड़े के कारण कष्ट पाता हुआ
- शीत्य—नपुं॰—-—-—चावल, धान्य, अन्न
- शीधु—पुं॰—-—शी + धुक्—कोई भी प्रासुत मदिरा, अंगूरी शराब
- शीधु—पुं॰—-—शी + धुक्—शराब
- शीधु—नपुं॰—-—शी + धुक्—कोई भी प्रासुत मदिरा, अंगूरी शराब
- शीधु—नपुं॰—-—शी + धुक्—शराब
- शीधुगन्धः—पुं॰—शीधु-गन्धः—-—बकुल वृक्ष, मौलसिरी का पेड़
- शीधुपः—पुं॰—शीधु-पः—-—शराबी
- शीन—वि॰—-—श्यै + क्त—जमा हुआ, घनीभूत
- शीनः—पुं॰—-—-—जड़, बुद्धू
- शीनः—पुं॰—-—-—अजगर
- शीभ्—भ्वा॰ आ॰ <शीभते>—-—-—शेख़ी बघारना
- शीभ्—भ्वा॰ आ॰ <शीभते>—-—-—बतलाना, कहना, बोलना
- शीभ्यः—पुं॰—-—शीभ् + ण्यत्—साँड
- शीभ्यः—पुं॰—-—शीभ् + ण्यत्—शिव
- शीरः—पुं॰—-—शीङ् + रक्—अजगर
- शीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰ —-—शृ + क्त—कुम्हलाया हुआ, मुर्झाया हुआ, सड़ा हुआ
- शीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰ —-—शृ + क्त—सूखा, शुष्क
- शीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰ —-—शृ + क्त—टूटा फूटा, चूर चूर हुआ
- शीर्ण—भू॰ क॰ कृ॰ —-—शृ + क्त—दुबला-पतला, कृश
- शीर्णम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का गन्ध द्रव्य
- शीर्णाङिघ्रः—पुं॰—शीर्ण-अङ्घ्रिः—-—यम का विशेषण
- शीर्णाङिघ्रः—पुं॰—शीर्ण-अङ्घ्रिः—-—शनिग्रह का विशेषण
- शीर्णपादः—पुं॰—शीर्ण-पादः—-—यम का विशेषण
- शीर्णपादः—पुं॰—शीर्ण-पादः—-—शनिग्रह का विशेषण
- शीर्णपर्णम्—नपुं॰—शीर्ण-पर्णम्—-—कुम्हलाया हुआ पत्ता
- शीर्णपर्णः—पुं॰—शीर्ण-पर्णः—-—नीम का पेड़
- शीर्णवृन्तम्—नपुं॰—शीर्ण-वृन्तम्—-—तरबूज़
- शीर्वि—वि॰—-—शृ + क्विन्—विनाशकारी, आघातयुक्त, अनिष्टकर, क्षतिकर
- शीर्षम्—नपुं॰—-—शिरस् पृषो॰ शीर्षादेशः, शृ + क सुक् च वा—सिर
- शीर्षम्—नपुं॰—-—शिरस् पृषो॰ शीर्षादेशः, शृ + क सुक् च वा—काला अगर
- शीर्षावशेषः—पुं॰—शीर्षम्-अवशेषः—-—केवल सिर ही बचा हुआ
- शीर्षामयः—पुं॰—शीर्षम्-आमयः—-—सिर का कोई भी रोग
- शीर्षच्छेदः—पुं॰—शीर्षम्-छेदः—-—सिर काट डालना
- शीर्षच्छेद्यः—वि॰—शीर्षम्-छेद्य—-—जिसका सिर काट डालना चाहिए, सिर काट कर मारे जाने के योग्य
- शीर्षरक्षकम्—नपुं॰—शीर्षम्-रक्षकम्—-—लोहे का टोप
- शीर्षकः—पुं॰—-—शीर्ष + कन्—राहु का विशेषण
- शीर्षकम्—नपुं॰—-—-—सिर
- शीर्षकम्—नपुं॰—-—-—खोपड़ी
- शीर्षकम्—नपुं॰—-—-—लोहे का टोप
- शीर्षकम्—नपुं॰—-—-—सिर का वस्त्र, (टोपी, टोप आदि)
- शीर्षण्यः—पुं॰—-—शीर्षन् + यत्—साफ़ तथा सुलझे हुए सिर के बाल
- शीर्षण्यम्—नपुं॰—-—-—लोहे का टोप
- शीर्षण्यम्—नपुं॰—-—-—टोप, टोपी
- शीर्षन्—नपुं॰—-—शिरस् शब्दस्य पृषो॰ शीर्षन् आदेशः—सिर
- शील्—भ्वा॰ पर॰ <शीलति>—-—-—मध्यस्थता करना, भली भांति सोचना
- शील्—भ्वा॰ पर॰ <शीलति>—-—-—सेवा करना, सम्मान करना, पूजा करना
- शील्—भ्वा॰ पर॰ <शीलति>—-—-—सम्पन्न करना, अभ्यास करना
- शील्—चुरा॰ उभ॰ <शीलयति>, <शीलयते>—-—-—सम्मान करना, पूजा करना
- शील्—चुरा॰ उभ॰ <शीलयति>, <शीलयते>—-—-—बार बार अभ्यास करना, प्रयोग करना, अध्ययन करना, चिन्तन करना, ध्यान करना
- शील्—चुरा॰ उभ॰ <शीलयति>, <शीलयते>—-—-—धारण करना, पहनना
- शील्—चुरा॰ उभ॰ <शीलयति>, <शीलयते>—-—-—जाना, दर्शन करना, बार बार जाना
- अनुशील्—चुरा॰ उभ॰—अनु-शील्—-—बार बार अभ्यास करना, सुधारना, चिन्तन करना
- परिशील्—चुरा॰ उभ॰—परि-शील्—-—बार बार अभ्यास करना, सुधारना, चिन्तन करना
- शीलः—पुं॰—-—शील् + अच्—अजगर
- शीलम्—नपुं॰—-—-—स्वभाव, प्रकृति, चरित्र, प्रवृत्ति, रुचि, आदत
- कलहशील—वि॰—-—-—कलह करने के स्वभाव वाला , झगड़ालू
- भावनाशील—वि॰—-—-—चिन्तनशील
- शीलम्—नपुं॰—-—-—आचरण, व्यवहार
- शीलम्—नपुं॰—-—-—अच्छा स्वभाव, अच्छी प्रकृति
- शीलम्—नपुं॰—-—-—सद्गुण, नैतिकता, सदाचरण, सज्जीवन, शुचिता, ईमानदारी
- शीलम्—नपुं॰—-—-—सौन्दर्य, सुन्दर रूप
- शीलखण्डनम्—नपुं॰—शीलम्-खण्डनम्—-—शुचिता या नैतिकता का उल्लंघन @ पंच॰ १
- शीलधारिन्—पुं॰—शीलम्-धारिन्—-—शिव का विशेषण
- शीलवंचना—स्त्री॰—शीलम्-वंचना—-—शुचिता का उल्लंघन
- शीलनम्—नपुं॰—-—शील् + ल्युट्—बार बार अभ्यास, प्रयोग, अध्ययन, संवर्धन
- शीलनम्—नपुं॰—-—शील् + ल्युट्—निरन्तर प्रयोग
- शीलनम्—नपुं॰—-—शील् + ल्युट्—सम्मान करना, सेवा करना
- शीलनम्—नपुं॰—-—शील् + ल्युट्—वस्त्र पहनना
- शीलित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शील् + क्त—अभ्यस्त, प्रयुक्त
- शीलित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शील् + क्त—धारण किया हुआ
- शीलित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शील् + क्त—बार-बार किया हुआ, देखा हुआ
- शीलित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शील् + क्त—कुशल
- शीलित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शील् + क्त—युक्त, सहित, सम्पन्न
- शीवन्—पुं॰—-—शीङ् + क्वनिप्—अजगर
- शुंशुमारः—पुं॰—-—शिशुमार का भ्रष्ट रूप—सूँस नामक जल जन्तु
- शुक्—भ्वा॰ पर॰ <शोकति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शुकः—पुं॰—-—शुक् + क—तोता
- शुकः—पुं॰—-—शुक् + क—सिरस का पेड़
- शुकः—पुं॰—-—शुक् + क—व्यास का एक पुत्र
- शुकम्—नपुं॰—-—-—कपड़ा, वस्त्र
- शुकम्—नपुं॰—-—-—लोहे का टोप
- शुकम्—नपुं॰—-—-—पगड़ी
- शुकम्—नपुं॰—-—-—वस्त्र की किनारी या मगजी
- शुकादनः—पुं॰—शुकः-अदनः—-—अनार का पेड़
- शुकद्रुमः—पुं॰—शुकः-द्रुमः—-—सिरस का पेड़
- शुकनास—वि॰—शुकः-नास—-—तोते जैसी नाक वाला
- शुकनासिका—स्त्री॰—शुकः-नासिका—-—तोते की नाक जैसी नाक
- शुकपुच्छः—पुं॰—शुकः-पुच्छः—-—गन्धक
- शुकपुष्पः—पुं॰—शुकः-पुष्पः—-—सिरस का पेड़
- शुकप्रियः—पुं॰—शुकः-प्रियः—-—सिरस का पेड़
- शुकपुष्पा—स्त्री॰—शुकः-पुष्पा—-—जामुन का पेड़
- शुकवल्लभः—पुं॰—शुकः-वल्लभः—-—अनार का पेड़
- शुकवाहः—पुं॰—शुकः-वाहः—-—कामदेव का विशेषण
- शुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुच् + क्त—उज्ज्वल, विशुद्ध, स्वच्छ
- शुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुच् + क्त—अम्ल, खट्टा
- शुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुच् + क्त—कर्कश, खरखरा, कड़ा, कठोर
- शुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुच् + क्त—संयुक्त, जुड़ा हुआ
- शुक्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुच् + क्त—परित्यक्त, एकाकी
- शुक्तम्—नपुं॰—-—-—मांस
- शुक्तम्—नपुं॰—-—-—कांजी
- शुक्तम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का खट्टा तरल पदार्थ, (सिरका आदि)
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—सीप का खोल, मोती की सीप
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—शंख
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—छोटी सीप, पुट्ठा
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—खोंपड़ी का एक भाग
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—घोड़े की छाती (या गर्दंन पर) पर बालों का घूंघर
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—एक प्रकार का गंधद्रव्य
- शक्तिः—स्त्री॰—-—शुच् + क्तिन्—दो कर्ष के समान विशेष तोल
- शक्त्युद्भवम्—नपुं॰—शक्तिः-उद्भवम्—-—मोती
- शक्तिजम्—नपुं॰—शक्तिः-जम्—-—मोती
- शक्तिपुटम्—नपुं॰—शक्तिः-पुटम्—-—मोती की सीप का खोल
- शक्तिपेशी—स्त्री॰—शक्तिः-पेशी—-—मोती की सीप का खोल
- शक्तिवधूः—स्त्री॰—शक्तिः-वधूः—-—मोती का सीप
- शक्तिवीजम्—नपुं॰—शक्तिः-वीजम्—-—मोती
- शुक्तिका—स्त्री॰—-—शुक्ति + कन् + टाप्—मोती का सीप, सीपी
- शुक्रः—पुं॰—-—शुच् + रक्, नि॰ कुत्वम्—शुक्रग्रह
- शुक्रः—पुं॰—-—शुच् + रक्, नि॰ कुत्वम्—राक्षसों के गुरु जिसने अपने जादू के मंत्रों से युद्ध में मरे हुए राक्षसों को पुनर्जीवित कर दिया था
- शुक्रः—पुं॰—-—शुच् + रक्, नि॰ कुत्वम्—ज्येष्ठमास
- शुक्रः—पुं॰—-—शुच् + रक्, नि॰ कुत्वम्—अग्नि
- शुक्रम्—नपुं॰—-—-—वीर्य
- शुक्रम्—नपुं॰—-—-—किसी भी वस्तु का सत्
- शुक्राङ्गः—पुं॰—शुक्रः-अङ्गः—-—मोर
- शुक्रकर—वि॰—शुक्रः-कर—-—शुक्र या वीर्य सम्बन्धी
- शुक्रकरः—पुं॰—शुक्रः-करः—-—हड्डियों में रहने वाली मज्जा
- शुक्रवारः—पुं॰—शुक्रः-वारः—-—भृगुवार, जुमा
- शुक्रवासरः—पुं॰—शुक्रः-वासरः—-—भृगुवार, जुमा
- शुक्रशिष्यः—पुं॰—शुक्रः-शिष्यः—-—राक्षस
- शुक्रल—वि॰—-—शुक्र + ला + क—वीर्यसम्बन्धी
- शुक्रल—वि॰—-—शुक्र + ला + क—शुक्र या वीर्य को बढ़ाने वाला
- शुक्रिय—वि॰—-—शुक्र + घ—वीर्यसम्बन्धी
- शुक्रिय—वि॰—-—शुक्र + घ—शुक्र या वीर्य को बढ़ाने वाला
- शुक्ल—वि॰—-—शुच् + लुक्, कुत्वम्—सफेद, विशुद्ध, उज्ज्वल
- शुक्लः—पुं॰—-—-—सफेद रंग
- शुक्लः—पुं॰—-—-—चांद्रमास का उज्ज्वल या सुदी पक्ष
- शुक्लः—पुं॰—-—-—शिव
- शुक्लम्—नपुं॰—-—-—चाँदी
- शुक्लम्—नपुं॰—-—-—आँखों की सफेदी में होने वाला रोग विशेष
- शुक्लम्—नपुं॰—-—-—ताजा मक्खन
- शुक्लम्—नपुं॰—-—-—(खट्टी) कांजी
- शुक्लाङ्गः—पुं॰—शुक्ल-अङ्गः—-—मोर (आँखो के श्वेत कोण होने के कारण)
- शुक्लापाङ्गः—पुं॰—शुक्ल-अपाङ्गः—-—मोर (आँखो के श्वेत कोण होने के कारण)
- शुक्लाम्लम्—नपुं॰—शुक्ल-अम्लम्—-—एक प्रकार का खट्टा साग, चूक
- शुक्लोपला—स्त्री॰—शुक्ल-उपला—-—रवेदार चीनी
- शुक्लकण्ठकः—पुं॰—शुक्ल-कण्ठकः—-—एक प्रकार का जल कुक्कुट
- शुक्लकर्मन्—वि॰—शुक्ल-कर्मन्—-—शुद्धाचारी, सद्गुणी
- शुक्लकुण्ठम्—नपुं॰—शुक्ल-कुण्ठम्—-—सफ़ेद कोढ़
- शुक्लधातुः—पुं॰—शुक्ल-धातुः—-—खड़िया मिट्टी
- शुक्लपक्षः—पुं॰—शुक्ल-पक्षः—-—मास का सुदी पक्ष
- शुक्लवस्त्र—वि॰—शुक्ल-वस्त्र—-—श्वेत वस्त्रधारी
- शुक्लवायसः—पुं॰—शुक्ल-वायसः—-—सारस
- शुक्लक—वि॰—-—शुक्ल + कन्—सफ़ेद
- शुक्लकः—पुं॰—-—-—चान्द्र मास का सुदी पक्ष
- शुक्लल—वि॰—-—शुक्ल + ला + क—सफ़ेद
- शुक्ला—स्त्री॰—-—शुक्ल + टाप्—सरस्वती
- शुक्ला—स्त्री॰—-—शुक्ल + टाप्—रवेदार चीनी
- शुक्ला—स्त्री॰—-—शुक्ल + टाप्—श्वेतवर्ण वाली स्त्री
- शुक्ला—स्त्री॰—-—शुक्ल + टाप्—काकोली नाम का पौधा
- शुक्लिमन्—पुं॰—-—शुक्ल + इमनिच्—श्वेतता, सफेदी
- शुक्षिः—पुं॰—-—शुस् + क्सिः—वायु, हवा
- शुक्षिः—पुं॰—-—शुस् + क्सिः—प्रकाश, कान्ति
- शुक्षिः—पुं॰—-—शुस् + क्सिः—अग्नि
- शुङ्गः—पुं॰—-—शुम् + ग, नि॰ साधुः—बड़ का पेड़
- शुङ्गः—पुं॰—-—शुम् + ग, नि॰ साधुः—पेंवदी बेर का पेड़
- शुङ्गः—पुं॰—-—शुम् + ग, नि॰ साधुः—अनाज का टूँड़, किंशारु
- शुङ्गा—स्त्री॰—-—शुङ्ग + टाप्—नूतन कली का कोष
- शुङ्गा—स्त्री॰—-—-—जौ या अनाज की बाल, किंशारु
- शुङ्गिन्—पुं॰—-—शुङ्गा + इनि—बड़ का पेड़, वटवृक्ष
- शुच्—भ्वा॰ पर॰ <शोचति>—-—-—खिन्न होना, दुःखी होना, शोक करना, विलाप करना
- शुच्—भ्वा॰ पर॰—-—-—खेद प्रकट करना, पछताना
- अनुशुच्—भ्वा॰ पर॰—अनु-शुच्—-—शोक मनाना, विलाप करना, खेद प्रकट करना
- परिशुच्—भ्वा॰ पर॰—परि-शुच्—-—विलाप करना, शोक मनाना
- शुच्—दिवा॰ उभ॰ <शुच्यति>, <शुच्यते>—-—-—खिन्न होना, दुःखी होना
- शुच्—दिवा॰ उभ॰ <शुच्यति>, <शुच्यते>—-—-—आर्द्र होना
- शुच्—दिवा॰ उभ॰ <शुच्यति>, <शुच्यते>—-—-—चमकना
- शुच्—दिवा॰ उभ॰ <शुच्यति>, <शुच्यते>—-—-—स्वच्छ या निर्मल होना
- शुच्—दिवा॰ उभ॰ <शुच्यति>, <शुच्यते>—-—-—कुम्हलाना, मुर्झाना
- शुच्—स्त्री॰—-—शुच् + क्विप्—रंज, शोक, कष्ट, दुःख
- शुचा—स्त्री॰—-—शुच् + टाप्—रंज, शोक, कष्ट, दुःख
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—विमल, विशुद्ध, स्वच्छ
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—श्वेत
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—उज्ज्वल, चमकदार
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—सद्गुणी, पवित्रात्मा, पुण्यात्मा, निष्पाप, निष्कलंक
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—पवित्रीकृत, निर्मल किया हुआ, पुनीत बनाया हुआ
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—ईमानदार, खरा, निष्ठावान्, सच्चा, निश्छल
- शुचि—वि॰—-—शुच् + कि—सही यथार्थ
- शुचिः—पुं॰—-—-—श्वेत वर्ण
- शुचिः—पुं॰—-—-—पवित्रता, पवित्रीकरण
- शुचिः—पुं॰—-—-—भोलापन, सद्गुण, भद्रता, खरापन
- शुचिः—पुं॰—-—-—शुद्धता, यथार्थता
- शुचिः—पुं॰—-—-—ब्रह्मचारी की दशा
- शुचिः—पुं॰—-—-—पवित्रात्मा
- शुचिः—पुं॰—-—-—ब्राह्मण
- शुचिः—पुं॰—-—-—ग्रीष्म ऋतु
- शुचिः—पुं॰—-—-—ज्येष्ठ और आषाढ़ के महीने
- शुचिः—पुं॰—-—-—निष्ठावान् या सच्चा मित्र
- शुचिः—पुं॰—-—-—सूर्य
- शुचिः—पुं॰—-—-—चन्द्रमा
- शुचिः—पुं॰—-—-—अग्नि
- शुचिः—पुं॰—-—-—शृंगार रस
- शुचिः—पुं॰—-—-—शुक्रग्रह
- शुचिः—पुं॰—-—-—चित्रक वृक्ष
- शुचिद्रुमः—पुं॰—शुचि-द्रुमः—-—पवित्र वटचमेली, नवमल्लिका
- शुचिरोचिस्—पुं॰—शुचि-रोचिस्—-—चन्द्रमा
- शुचिव्रत—वि॰—शुचि-व्रत—-—पुण्यात्मा, सद्गुणी
- शुचिस्मित—वि॰—शुचि-स्मित—-—मधुर मुस्कान वाला
- शुचिस्—नपुं॰—-—शुच् + इसुन्—प्रकाश, कान्ति
- शुच्य्—भ्वा॰ पर॰ <शुच्यति>—-—-—स्नान करना, नहानाधोना
- शुच्य्—भ्वा॰ पर॰ <शुच्यति>—-—-—निचोड़ना, (रस) निकालना
- शुच्य्—भ्वा॰ पर॰ <शुच्यति>—-—-—अर्क खींचना
- शुच्य्—भ्वा॰ पर॰ <शुच्यति>—-—-—बिलोना
- शुटीरः—पुं॰—-—शौटीरः, पृषो॰—वीर, नायक
- शुठ्—भ्वा॰ पर॰<शोठति>—-—-—बाधा डाला जाना, रुकावट डाली जानी
- शुठ्—भ्वा॰ पर॰<शोठति>—-—-—लड़खड़ाना, लंगड़ा होना
- शुठ्—भ्वा॰ पर॰<शोठति>—-—-—मुक़ाबला करना
- शुठ्—चुरा॰ उभ॰ <शोठयति>, <शोठयते>—-—-—सुस्त होना, आलसी होना, मन्द होना
- शुण्ठ्—भ्वा॰ पर॰ <शुण्ठति>, चुरा॰ उभ॰ <शुण्ठति>, <शुण्ठते>—-—-—पवित्र करना
- शुण्ठ्—भ्वा॰ पर॰ <शुण्ठति>, चुरा॰ उभ॰ <शुण्ठति>, <शुण्ठते>—-—-—सूखना
- शुण्ठिः—स्त्री॰—-—शुण्ठ् + इन्—सोंठ, सूखा अदरक
- शुण्ठी—स्त्री॰—-—शुंठि + ङीष्—सोंठ, सूखा अदरक
- शुण्ठयम्—नपुं॰—-—शुण्ठ् +यत्—सोंठ, सूखा अदरक
- शुण्डः—पुं॰—-—शुण्ड्+ अच्—मदमाते हाथी के गण्डस्थल से निकलने वाला रस
- शुण्डः—पुं॰—-—शुण्ड्+ अच्—हाथी की सूँड़
- शुण्डकः—पुं॰—-—शुण्ड्+ कन्—शराब खींचने वाला, कलाल
- शुण्डकः—पुं॰—-—शुण्ड्+ कन्—एक प्रकार का सैनिक संगीत या वाद्ययन्त्र
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—हाथी की सूँड़
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—खींची हुई शराब
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—मद्यपानगृह, मधुशाला
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—कमल डण्डी
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—वेश्या, रंडी
- शुण्डा—स्त्री॰—-—शुण्ड + टाप्—कुटनी, दूती
- शुण्डापानम्—नपुं॰—शुण्डा-पानम्—-—मदिरालय, शराबखाना
- शुण्डारः—पुं॰—-—शुण्ड + ऋ + अण्—शराब खींचने वाला
- शुण्डारः—पुं॰—-—शुण्ड + ऋ + अण्—हाथी की सूँड़ या नासावृद्धि
- शुण्डालः—पुं॰—-—शुण्डारः, रलयोरभेदः—हाथी
- शुण्डिका—स्त्री॰—-—शुण्डा + कन् + टाप्, इत्वम्—
- शुण्डिन्—पुं॰—-—शुण्ड + णिनि—शराब खींचने वाला, कलाल
- शुण्डिन्—पुं॰—-—शुण्ड + णिनि—हाथी
- शुण्डिभूषिका—स्त्री॰—शुण्डिन्-भूषिका—-—छंछून्दर
- शुतुद्रिः—स्त्री॰—-—-—सतलुज नदी
- शुतुद्रुः—स्त्री॰—-—-—सतलुज नदी
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—विशुद्ध, विमल, पवित्रीकृत
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—पुनीत, अकलुषित, शुचि, निर्दोष
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—श्वेत, उज्ज्वल
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—निष्कलंक, वेदाग
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—भोला-भाला, सीधा-सादा, निर्दोष
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—ईमानदार, खरा
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—सही, अशुद्धिरहित, यथार्थ
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—ऋण चुकाया गया, क़र्ज़ अदा किया गया
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—केवल, मात्र
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—सरल, विशुद्ध, अनमिश्रित
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—अद्वितीय
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—अधिकृत
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—पैनाया हुआ, तेज़ किया हुआ
- शुद्ध—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + क्त—अननुनासिक
- शुद्धः—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- शुद्धम्—नपुं॰—-—-—कोई भी विशुद्ध वस्तु
- शुद्धम्—नपुं॰—-—-—विशुद्ध वस्तु
- शुद्धम्—नपुं॰—-—-—विशुद्ध सुरा
- शुद्धम्—नपुं॰—-—-—सेंधा नमक
- शुद्धम्—नपुं॰—-—-—काली मिर्च
- शुद्धान्तः—पुं॰—शुद्ध-अन्तः—-—राजा का अन्तःपुर, रनवास, अन्दर महल
- शुद्धचारिन्—पुं॰—शुद्ध-चारिन्—-—अन्तःपुर का सेवक, कंचुकी
- शुद्धपालकः—पुं॰—शुद्ध-पालकः—-—अन्तःपुर का रखवाला
- शुद्धरक्षक—पुं॰—शुद्ध-रक्षक—-—अन्तःपुर का रखवाला
- शुद्धात्मन्—वि॰—शुद्ध-आत्मन्—-—शुद्धात्मा, ईमानदार
- शुद्धोदनः—पुं॰—शुद्ध-ओदनः—-—विख्यात बुद्ध का पिता
- शुद्धसुतः—पुं॰—शुद्ध-सुतः—-—बुद्ध
- शुद्धचैतन्यम्—नपुं॰—शुद्ध-चैतन्यम्—-—विशुद्ध, प्रतिभा, प्रज्ञा
- शुद्धजंघः—पुं॰—शुद्ध-जंघः—-—गधा
- शुद्धधी—वि॰—शुद्ध-धी—-—विशुद्धमना, निर्दोष, ईमानदार
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—विशुद्धता, स्वच्छता
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—चमक, कान्ति
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—पवित्रता, पुण्यशीलता
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—पवित्रीकरण, प्रायश्चित्त, परिशोधन, प्रायश्चित परक कृत्य
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—पवित्रीकरणमूलक या प्रायश्चित्त परक संस्कार
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—(ऋण) परिशोध
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—प्रतिहिंसा, प्रतिशोध
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—छुटकारा, (जांच द्वारा सिद्ध) निर्दोषता
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—सचाई, यथार्थता, याथातथ्यता
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—समाधान, संशोधन
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—व्यवकलन
- शुद्धिः—स्त्री॰—-—शुध् + क्तिन्—दुर्गा
- शुद्धिपत्रम्—नपुं॰—शुद्धिः-पत्रम्—-—ऐसी सूची जिसमें अशुद्ध शब्द शुद्ध रूपों सहित लिखे गये हों
- शुद्धिपत्रम्—नपुं॰—शुद्धिः-पत्रम्—-—प्रायश्चित्त के द्वारा हुई शुद्धि का प्रमाणपत्र
- शुध्—दिवा॰ पर॰ <शुध्यति>, <शुद्ध>—-—-—शुद्ध या पवित्र होना,
- शुध्—दिवा॰ पर॰ <शुध्यति>, <शुद्ध>—-—-—शुभ होना, अनुकूल होना, पात्र होना
- शुध्—दिवा॰ पर॰ <शुध्यति>, <शुद्ध>—-—-—स्पष्ट किया जाना, संदेह दूर करना
- शुध्—दिवा॰ पर॰ <शुध्यति>, <शुद्ध>—-—-—व्यय किया जाना, (खर्च) चुकाया जाना
- शुध्—दिवा॰ उभ॰, प्रेर॰<शोधयति>, <शोधयते>—-—-—पवित्र करना, निर्मल करना धो डालना
- शुध्—दिवा॰ उभ॰, प्रेर॰<शोधयति>, <शोधयते>—-—-—(ऋण) परिशोध करना, चुकाना
- परिशुध्—दिवा॰ पर॰—परि-शुध्—-—पवित्र किया जाना
- विशुध्—दिवा॰ पर॰—वि-शुध्—-—पवित्र किया जाना
- संशुध्—दिवा॰ पर॰—सम्-शुध्—-—पवित्र किया जाना
- शुन्—तुदा॰ पर॰ <शुनति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शुनःशेपः—पुं॰—-—-—एक वैदिक ऋषि, अजीगर्तं का पुत्र
- शुनःशेफः—पुं॰—-—शुन इव शेफः यस्य-अलुक् स॰—एक वैदिक ऋषि, अजीगर्तं का पुत्र
- शुनकः—पुं॰—-—शुन् + क=शुन् + कन्—भृगुवंश में उत्पन्न एक ऋषि का नाम
- शुनकः—पुं॰—-—शुन् + क=शुन् + कन्—कुत्ता
- शुनाशीरः—पुं॰—-—शुनाशीरौ वायुसूर्ये अस्य स्तः इति अच्—इन्द्र का विशेषण
- शुनाशीरः—पुं॰—-—शुनाशीरौ वायुसूर्ये अस्य स्तः इति अच्—उल्लू
- शुनासीरः—पुं॰—-—-—इन्द्र का विशेषण
- शुनासीरः—पुं॰—-—-—उल्लू
- शुनिः—पुं॰—-—शुन् + इन्—कुत्ता
- शुनी—स्त्री॰—-—श्वन् + ङीष्—कुतिया, कुक्कुरी
- शुनीरः—पुं॰—-—शुनी + र—कुतियों का समूह
- शुन्ध्—भ्वा॰ <शुन्धति>, <शुन्धते>, चुरा॰ उभ॰ <शुन्धयति>, <शुन्धयते>—-—-—पवित्र या विमल होना
- शुन्ध्—भ्वा॰ <शुन्धति>, <शुन्धते>, चुरा॰ उभ॰ <शुन्धयति>, <शुन्धयते>—-—-—निर्मल करना, पवित्र करना
- शुन्ध्युः—पुं॰—-—शुन्ध् + युः—हवा, वायु
- शुभ्—भ्वा॰ आ॰ <शोभते>—-—-—चमकना, शानदार होना, सुन्दर या मनोहर दिखाई देना
- शुभ्—भ्वा॰ आ॰ <शोभते>—-—-—लाभकर प्रतीत होना
- शुभ्—भ्वा॰ आ॰ <शोभते>—-—-—उपयुक्त होना, शोभा देना, योग्य होना
- शुभ्—भ्वा॰ उभ॰, प्रेर॰ <शोभयति>, <शोभयते>—-—-—सजाना, संवारना, अलंकृत करना
- परिशुभ्—भ्वा॰ आ॰—परि-शुभ्—-—चमकना, शानदार दिखाई देना
- विशुभ्—भ्वा॰ आ॰—वि-शुभ्—-—चमकना, शानदार दिखाई देना
- शुभ—वि॰—-—शुभ् + क—चमकीला, उज्ज्वल
- शुभ—वि॰—-—शुभ् + क—सुन्दर, मनोहर
- शुभ—वि॰—-—शुभ् + क—मांगलिक, सौभाग्यशाली, प्रसन्न, समृद्धि शाली
- शुभ—वि॰—-—शुभ् + क—प्रमुख, भद्र, सद्गुणी
- शुभम्—नपुं॰—-—-—मांगलिकता, कल्याण, अच्छा भाग्य, प्रसन्नता, समृद्धि
- शुभम्—नपुं॰—-—-—अलंकार
- शुभम्—नपुं॰—-—-—जल
- शुभम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी
- शुभाक्षः—पुं॰—शुभ-अक्षः—-—शिव का विशेषण
- शुभाङ्ग—वि॰—शुभ-अङ्ग—-—सुन्दर
- शुभाङ्गी—स्त्री॰—शुभ-अङ्गी—-—सुन्दर स्त्री
- शुभाङ्गी—स्त्री॰—शुभ-अङ्गी—-—कामदेव की पत्नी रति
- शुभापाङ्गा—स्त्री॰—शुभ-अपाङ्गा—-—सुन्दर स्त्री
- शुभाशुभम्—नपुं॰—शुभ-अशुभम्—-—सुख-दुःख, भला-बुरा
- शुभाचार—वि॰—शुभ-आचार—-—पवित्र आचरण वाला, सदाचारी
- शुभानना—स्त्री॰—शुभ-आनना—-—मनोरम स्त्री
- शुभेतर—वि॰—शुभ-इतर—-—बुरा, खराब
- शुभेतर—वि॰—शुभ-इतर—-—अशुभ, आमांगलिक
- शुभोदर्क—वि॰—शुभ-उदर्क—-—जिसका अन्त आनन्ददायक हो
- शुभकर—वि॰—शुभ-कर—-—कल्याणकर, मंगलप्रद
- शुभकर्मन्—नपुं॰—शुभ-कर्मन्—-—पुण्यकार्य
- शुभगन्धकम्—नपुं॰—शुभ-गन्धकम्—-—एक गन्धद्रव्य, बोल
- शुभग्रहः—पुं॰—शुभ-ग्रहः—-—अनुकूल ग्रह
- शुभदः—पुं॰—शुभ-दः—-—बटवृक्ष
- शुभदन्ती—स्त्री॰—शुभ-दन्ती—-—सुन्दर दाँतों वाली
- शुभलग्नः—पुं॰—शुभ-लग्नः—-—शुभ मुहूर्त, मंगल घड़ी
- शुभवार्ता—स्त्री॰—शुभ-वार्ता—-—शुभ समाचार
- शुभवासनः—पुं॰—शुभ-वासनः—-—मुंह को सुभाषित करने वाला गंधद्रव्य
- शुभशंसिन्—वि॰—शुभ-शंसिन्—-—शुभसूचक, मंगल की सूचना देने वाला
- शुभस्थली—स्त्री॰—शुभ-स्थली—-—वह भवन जहाँ यज्ञों का अनुष्ठान होता हो, यज्ञभूमि
- शुभस्थली—स्त्री॰—शुभ-स्थली—-—मंगलभूमि
- शुभंयु—वि॰—-—शुभमस्यास्ति-युस्—मंगलमय, सौभाग्यसूचक, भाग्यशाली, मंगलन्वित
- शुभम्भावुक—वि॰—-—शुभम् + भू + णिच् + उकञ्—सजाया हुआ, सूभूषित, अलंकृत, उज्ज्वल
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—कान्ति, प्रकाश
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—सौन्दर्य
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—इच्छा
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—पीलारंग, गोरोचना
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—शमी वृक्ष
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—देवसभा
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—दूब
- शुभा—स्त्री॰—-—शुभ + टाप्—प्रियगुं लता
- शुभ्र—वि॰—-—शुभ् + रक्—चमकीला, उज्ज्वल, देदीप्यमान
- शुभ्र—वि॰—-—शुभ् + रक्—श्वेत
- शुभ्रः—पुं॰—-—-—श्वेत रंग
- शुभ्रः—नपुं॰—-—-—चन्दन
- शुभ्रम्—नपुं॰—-—-—चाँदी
- शुभ्रम्—नपुं॰—-—-—अभ्रक
- शुभ्रम्—नपुं॰—-—-—सेंधा नमक
- शुभ्रम्—नपुं॰—-—-—कसीस
- शुभ्रांशुः—पुं॰—शुभ्र-अंशुः—-—चन्द्रमा
- शुभ्रांशुः—पुं॰—शुभ्र-अंशुः—-—कपूर
- शुभ्रकरः—पुं॰—शुभ्र-करः—-—चन्द्रमा
- शुभ्रकरः—पुं॰—शुभ्र-करः—-—कपूर
- शुभ्ररश्मिः—पुं॰—शुभ्र-रश्मिः—-—चन्द्रमा
- शुभ्रा—स्त्री॰—-—शुभ्र + टाप्—गंगा
- शुभ्रा—स्त्री॰—-—शुभ्र + टाप्—स्फटिक
- शुभ्रा—स्त्री॰—-—शुभ्र + टाप्—वंशलोचन
- शुभ्रिः—पुं॰—-—शुभ् + क्रिन्—ब्रह्मा का विशेषण
- शुम्भ्—भ्वा॰ पर॰ <शुम्भति>—-—-—चमकना
- शुम्भ्—भ्वा॰ पर॰ <शुम्भति>—-—-—बोलना
- शुम्भ्—भ्वा॰ पर॰ <शुम्भति>—-—-—आघात पहुँचाना, क्षति पहुँचाना
- शुम्भ—पुं॰—-—शुम्भ् + अच्—एक राक्षस का नाम जिसे दुर्गा ने मार डाला था
- शुम्भघातिनी—स्त्री॰—शुम्भ-घातिनी—-—दुर्गा का विशेषण
- शुम्भमर्दिनी—स्त्री॰—शुम्भ-मर्दिनी—-—दुर्गा का विशेषण
- शुर्——-—-—चोट पहुँचाना, मार डालना
- शुर्——-—-—दृढ़ करना, स्थिर करना, ठहराना
- शूर्—दिवा॰ आ॰ <शूर्यते>—-—-—चोट पहुँचाना, मार डालना
- शूर्—दिवा॰ आ॰ <शूर्यते>—-—-—दृढ़ करना, स्थिर करना, ठहराना
- शुल्क्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्कयति>, <शुल्कयते>—-—-—लाभ उठाना
- शुल्क्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्कयति>, <शुल्कयते>—-—-—अदा करना, देना
- शुल्क्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्कयति>, <शुल्कयते>—-—-—रचना करना
- शुल्क्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्कयति>, <शुल्कयते>—-—-—कहना, वर्णन करना
- शुल्क्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्कयति>, <शुल्कयते>—-—-—छोड़ना, त्यागना, परित्यक्त करना
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—चुंगी, कर, महसूल, सीमाशुल्क, विशेषतः वह कर जो राज्य द्वारा घाट या मार्ग आदि पर लिया जाता है
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—किसी सौदे को पक्का करने के लिये दिया गया अगाऊ धन
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—(कन्या का) विक्रय मूल्य, कन्या के पिता को कन्या के बदले दिया गया धन
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—विवाहोपहार
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—विवाह निश्चित करने के लिए दिया गया धन, दहेज
- शुल्कः—पुं॰—-—शुल्क् + घञ्—वर पक्ष की ओर से दुलहिन को दिया गया उपहार
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—चुंगी, कर, महसूल, सीमाशुल्क, विशेषतः वह कर जो राज्य द्वारा घाट या मार्ग आदि पर लिया जाता है
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—किसी सौदे को पक्का करने के लिये दिया गया अगाऊ धन
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—(कन्या का) विक्रय मूल्य, कन्या के पिता को कन्या के बदले दिया गया धन
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—विवाहोपहार
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—विवाह निश्चित करने के लिए दिया गया धन, दहेज
- शुल्कम्—नपुं॰—-—शुल्क् + घञ्—वर पक्ष की ओर से दुलहिन को दिया गया उपहार
- शुल्कग्राहक—वि॰—शुल्कः-ग्राहक—-—शुल्कसंग्रहकर्ता
- शुल्कग्राहिन्—वि॰—शुल्कः-ग्राहिन्—-—शुल्कसंग्रहकर्ता
- शुल्कदः—पुं॰—शुल्कः-दः—-—विवाहोपहार देने वाला
- शुल्कदः—पुं॰—शुल्कः-दः—-—वाग्दत्त विवाहार्थी
- शुल्कशाला—स्त्री॰—शुल्कः-शाला—-—शुल्क जमा करने की जगह, चुंगीघर
- शुल्कस्थानम्—नपुं॰—शुल्कः-स्थानम्—-—शुल्क जमा करने की जगह, चुंगीघर
- शुल्लम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्, पृषो॰—सुतली, रस्सी, डोरी
- शुल्व्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्वयति>, <शुल्वयते>—-—-—देना, प्रदान करना
- शुल्व्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्वयति>, <शुल्वयते>—-—-—भेजना, तितर बितर करना
- शुल्व्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्वयति>, <शुल्वयते>—-—-—मापना
- शुल्ब्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्बयति>, <शुल्बयते>—-—-—देना, प्रदान करना
- शुल्ब्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्बयति>, <शुल्बयते>—-—-—भेजना, तितर बितर करना
- शुल्ब्—चुरा॰ उभ॰ <शुल्बयति>, <शुल्बयते>—-—-—मापना
- शुल्वम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्—रस्सी, डोरी
- शुल्वम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्—तांबा
- शुल्वम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्—यज्ञीय कर्म
- शुल्वम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्—जल का सामीप्य, जल का निकटवर्ती स्थान
- शुल्वम्—नपुं॰—-—शुल्व् + अच्—नियम, क़ानून, विधिसार
- शुल्बम्—नपुं॰—-—-—रस्सी, डोरी
- शुल्बम्—नपुं॰—-—-—तांबा
- शुल्बम्—नपुं॰—-—-—यज्ञीय कर्म
- शुल्बम्—नपुं॰—-—-—जल का सामीप्य, जल का निकटवर्ती स्थान
- शुल्बम्—नपुं॰—-—-—नियम, क़ानून, विधिसार
- शुल्वा—स्त्री॰—-—-—
- शुल्वी—स्त्री॰—-—-—
- शुश्रू—स्त्री॰—-—श्रु + यङ् लुक्, द्वित्वादि + क्विप्—माता
- शुश्रूषक—वि॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + ण्वुल्—सावधान, आज्ञाकारी
- शुश्रूषकः—पुं॰—-—-—सेवक, टहलुआ
- शश्रूषणम्—नपुं॰—-—श्रु + सन् + इत्वादि + ल्युट्—सुनने की इच्छा
- शश्रूषणम्—नपुं॰—-—श्रु + सन् + इत्वादि + ल्युट्—सेवा, टहल
- शश्रूषणम्—नपुं॰—-—श्रु + सन् + इत्वादि + ल्युट्—आज्ञाकारिता, कर्त्तव्यपरायणता
- शश्रूषणा—स्त्री॰—-—-—सुनने की इच्छा
- शश्रूषणा—स्त्री॰—-—-—सेवा, टहल
- शश्रूषणा—स्त्री॰—-—-—आज्ञाकारिता, कर्त्तव्यपरायणता
- शुश्रूषा—स्त्री॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + अ + टाप्—सुनने की इच्छा
- शुश्रूषा—स्त्री॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + अ + टाप्—सेवा, टहल
- शुश्रूषा—स्त्री॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + अ + टाप्—कर्तव्यपरायणता, आज्ञाकारिता
- शुश्रूषा—स्त्री॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + अ + टाप्—सम्मान
- शुश्रूषा—स्त्री॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + अ + टाप्—बोलना, कहना
- शुश्रूषु—वि॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + उ—सुनने का इच्छुक
- शुश्रूषु—वि॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + उ—सेवा या टहल करने की इच्छा वाला
- शुश्रूषु—वि॰—-—श्रु + सन्, द्वित्वादि + उ—आज्ञाकारी, सावधान
- शुष्—दिवा॰ पर॰ <शुष्यति>, <शुष्क>—-—-—सूखना, शुष्क होना, खुश्क होना
- शुष्—दिवा॰ पर॰ <शुष्यति>, <शुष्क>—-—-—मुर्झा जाना
- शुष्—दिवा॰ उभ॰, प्रेर॰ <शोषयति>, <शोषयते>—-—-—सुखाना, मुर्झाना, खुश्क होना
- शुष्—प्रेर॰ <शोषयति>, <शोषयते>—-—-—कृश करना
- उच्छुष्—दिवा॰ पर॰—उद्-शुष्—-—सुखाया जाना, सुखाना
- उच्छुष्—दिवा॰ पर॰—उद्-शुष्—-—म्लान होना, कुम्हलाना, मुर्झाना
- परिशुष्—दिवा॰ पर॰—परि-शुष्—-—सुखाया जाना, सुखाना
- परिशुष्—दिवा॰ पर॰—परि-शुष्—-—म्लान होना, कुम्हलाना, मुर्झाना
- विशुष्—दिवा॰ पर॰—वि-शुष्—-—सुखाया जाना
- संशुष्—दिवा॰ पर॰—सम्-शुष्—-—सुखाया जाना
- शुषः—पुं॰—-—शुष् + क—सूखना, सुखाना
- शुषः—पुं॰—-—शुष् + क—बिल, भूरन्ध्र
- शुषी—स्त्री॰—-—शुष् + ङीष्—सूखना, सुखाना
- शुषी—स्त्री॰—-—शुष् + ङीष्—बिल, भूरन्ध्र
- शुषिः—पुं॰—-—शुष् + कि—सुखाना
- शुषिः—पुं॰—-—शुष् + कि—रन्ध्र, छिद्र
- शुषिः—पुं॰—-—शुष् + कि—साँप के विषैले दांत का पोला भाग
- शुषिर—वि॰—-—शुष् + किरच्—छिद्रयुक्त, रन्ध्रमय
- शुषिरः—पुं॰—-—-—आग
- शुषिरः—पुं॰—-—-—चूहा
- शुषिरम्—नपुं॰—-—-—छिद्र
- शुषिरम्—नपुं॰—-—-—अन्तरिक्ष
- शुषिरम्—नपुं॰—-—-—हवा या फूँक से बजने वाला बाजा
- शुषिरा—स्त्री॰—-—शुषिर + टाप्—नदी
- शुषिरा—स्त्री॰—-—शुषिर + टाप्—एक प्रकार का गन्धद्रव्य
- शुषिलः—पुं॰—-—शुष् + इलच्, स च कित्—हवा, वायु
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुष् + क्त—सूखा, सुखाया हुआ
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—भुना हुआ, म्लान
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—झुर्रीदार, सिकुड़न वाला, कृश
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—झूठ मूठ, व्याजमुक्त, नक़ली
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—रिक्त, व्यर्थ, अनुपयोगी, अनुत्पादक
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—निराधार, निष्कारण
- शुष्क—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—बुरा लगने वाला, कठोर
- शुष्काङ्ग—वि॰—शुष्क-अङ्ग—-—कृशकाय
- शुष्काङ्गी—स्त्री॰—शुष्क-अङ्गी—-—छिपकली
- शुष्कान्नम्—नपुं॰—शुष्क-अन्नम्—-—वह अनाज जिसमें से भूसा अलग नहीं किया गया
- शुष्ककलहः—पुं॰—शुष्क-कलहः—-—व्यर्थ या निराधार झगड़ा
- शुष्ककलहः—पुं॰—शुष्क-कलहः—-—बनावटी झगड़ा
- शुष्कवैरम्—नपुं॰—शुष्क-वैरम्—-—निराधार वैर
- शुष्कव्रण—पुं॰/नपुं॰—शुष्क-व्रण—-—वह घाव जो अच्छा हो गया है, घाव का चिह्न
- शुष्कलः—पुं॰—-—शुष्क + ला + क—सूखा मांस
- शुष्कलः—पुं॰—-—शुष्क + ला + क—मांस
- शुष्कलम्—नपुं॰—-—शुष्क + ला + क—सूखा मांस
- शुष्कलम्—नपुं॰—-—शुष्क + ला + क—मांस
- शुष्मः—पुं॰—-—शुष् + मन्, किच्च—सूर्य
- शुष्मः—पुं॰—-—शुष् + मन्, किच्च—आग
- शुष्मः—पुं॰—-—शुष् + मन्, किच्च—वायु, हवा
- शुष्मः—पुं॰—-—शुष् + मन्, किच्च—पक्षी
- शुष्मम्—नपुं॰—-—-—पराक्रम, सामर्थ्य
- शुष्मम्—नपुं॰—-—-—प्रकाश, कान्ति
- शुष्मन्—पुं॰—-—शुष् + ङ्, मनिप्—अग्नि
- शुष्मन्—नपुं॰—-—-—सामर्थ्य, पराक्रम
- शुष्मन्—नपुं॰—-—-—प्रकाश, कान्ति
- शूकः—पुं॰—-—श्वि + कक्—जौ की बाल, दाढ़ी
- शूकः—पुं॰—-—श्वि + कक्—पौधों के कड़े रोएँ
- शूकः—पुं॰—-—श्वि + कक्—नोक, सिरा, तेज़ किनारा
- शूकः—पुं॰—-—श्वि + कक्—सुकोमलता, करुणा
- शूकः—पुं॰—-—श्वि + कक्—एक प्रकार का विषैला कीड़ा
- शूकम्—नपुं॰—-—-—जौ की बाल, दाढ़ी
- शूकम्—नपुं॰—-—-—पौधों के कड़े रोएँ
- शूकम्—नपुं॰—-—-—नोक, सिरा, तेज़ किनारा
- शूकम्—नपुं॰—-—-—सुकोमलता, करुणा
- शूकम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का विषैला कीड़ा
- शूककीटः—पुं॰—शूकः-कीटः—-—एक प्रकार का कीड़ा जिसके शरीर पर रोएँ खड़े हों
- शूककीटकः—पुं॰—शूकः-कीटकः—-—एक प्रकार का कीड़ा जिसके शरीर पर रोएँ खड़े हों
- शूकधान्यम्—नपुं॰—शूकः-धान्यम्—-—कोई भी ऐसा अन्न जो बालों टूंड़ो में से निकलता है (जौ आदि)
- शूकपिण्डिः—पुं॰—शूकः-पिण्डिः—-—केवाँच, कपिकच्छु
- शूकडी—स्त्री॰—शूकः-डी—-—केवाँच, कपिकच्छु
- शूकशिम्बा—स्त्री॰—शूकः-शिम्बा—-—केवाँच, कपिकच्छु
- शूकशिम्बिका—स्त्री॰—शूकः-शिम्बिका—-—केवाँच, कपिकच्छु
- शूकशिम्बि —स्त्री॰—शूकः-शिम्बि —-—केवाँच, कपिकच्छु
- शूककः—पुं॰—-—शूक + कन्—एकार का अन्न
- शूककः—पुं॰—-—-—सुकोमलता, करुणा
- शूकरः—पुं॰—-—शू इत्यव्यक्तं शब्दं करोति -शू + कृ + अच्—सूअर
- शूकरेष्ट—पुं॰—शूकरः-इष्ट—-—एक प्रकार का घास, मोथा
- शूकलः—पुं॰—-—शूकवत् क्लेशं ददाति-शूक + ला + क—अड़ियल घोड़ा
- शूद्रः—पुं॰—-—शुच् + रक्, पृषो॰ चस्य दः, दीर्घः—चौथे वर्ण का पुरुष, हिन्दुओं के चार मुख्य वर्णों में से अन्तिम वर्ण का पुरुष
- शूद्राह्निकम्—नपुं॰—शूद्रः-अह्निकम्—-—शूद्र का दैनिक अनुष्ठान
- शूद्रोदकम्—नपुं॰—शूद्रः-उदकम्—-—शूद्र के स्पर्श से दूषित जल
- शूद्रकृत्यम्—नपुं॰—शूद्रः-कृत्यम्—-—शूद्र का कर्तव्य
- शूद्रधर्मः—पुं॰—शूद्रः-धर्मः—-—शूद्र का कर्तव्य
- शूद्रप्रियः—पुं॰—शूद्रः-प्रियः—-—प्याज
- शूद्रप्रेष्यः—पुं॰—शूद्रः-प्रेष्यः—-—तीनों उच्चवर्णों में से किसी एक वर्ण का पुरुष जो शूद्र का सेवक हो
- शूद्रभूयिष्ठ—वि॰—शूद्रः-भूयिष्ठ—-—जहाँ अधिकांश शूद्र रहते हों
- शूद्रयाजकः—पुं॰—शूद्रः-याजकः—-—जो शूद्र के लिए यज्ञ का संचालन करता है
- शूद्रवर्गः—पुं॰—शूद्रः-वर्गः—-—शूद्रश्रेणी या सेवकवर्ग
- शूद्रसेवनम्—नपुं॰—शूद्रः-सेवनम्—-—शूद्र की सेवा करना, शूद्र का सेवक वनना
- शूद्रकः—पुं॰—-—शूद्र + कन्—एक राजा , मृच्छकटिक का प्रख्यात प्रणेता
- शूद्रा—स्त्री॰—-—शूद्र + टाप्—शूद्र वर्ण की स्त्री
- शूद्रभार्यः—पुं॰—शूद्रा-भार्यः—-—जिसकी पत्नी शूद्रवर्ण की हो
- शूद्रावेदनम्—नपुं॰—शूद्रा-वेदनम्—-—शूद्रस्त्री से विवाह करना
- शूद्रसुतः—पुं॰—शूद्रा-सुतः—-—(किसी भी जाति के पिता द्वारा) शूद्र माता का पुत्र
- शूद्राणी—स्त्री॰—-—शूद्र + ङीप् पक्षे आनुक्—शूद्र की पत्नी
- शूद्री—स्त्री॰—-—शूद्र + ङीप् पक्षे आनुक्—शूद्र की पत्नी
- शून—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्वि + क्त—सूजा हुआ
- शून—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्वि + क्त—वर्धित उगा हुआ, समृद्ध
- शूना—स्त्री॰—-—श्वि अधिकरणे क्त, संप्र॰ दीर्घश्च— मृदु तालु, घंटी, उपजिह्विका
- शूना—स्त्री॰—-—श्वि अधिकरणे क्त, संप्र॰ दीर्घश्च—बूचड़खाना
- शूना—स्त्री॰—-—श्वि अधिकरणे क्त, संप्र॰ दीर्घश्च—कोई भी वस्तु (जैसे कि घर गृहस्थी का कुछ सामान) जिससे जीवहिंसा होती हो
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—रिक्त, खाली
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—सूना (हृदय, तथा चितवन आदि के लिए भी प्रयुक्त)
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—अविद्यमान
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—एकान्त, निर्जन, विविक्त, वीरान
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—खिन्न, उदास, उत्साहहीन
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—नितान्त रहित, वञ्चित, विहीन, अभावयुक्त
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—तटस्थ
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—निर्दोष
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—अर्थहीन, निरर्थक
- शून्य—वि॰—-—शूनायै प्राणिवधाय हितं रहस्यस्थानत्वात् यत्—विवस्त्र, नंगा
- शून्यम्—नपुं॰—-—-—निर्वातता, रिक्त, खोखलापन
- शून्यम्—नपुं॰—-—-—आकाश, अन्तरिक्ष
- शून्यम्—नपुं॰—-—-—सिफर, बिन्दु
- शून्यम्—नपुं॰—-—-—अस्तित्वहीनता (पूर्ण, असीम)
- शून्यमध्यः—पुं॰—शून्य-मध्यः—-—खोखला नरकुल
- शून्यमनस्—वि॰—शून्य-मनस्—-—अन्यमनस्क, भग्नचेता
- शून्यमनस्क—वि॰—शून्य-मनस्क—-—अन्यमनस्क, भग्नचेता
- शून्यमुख—वि॰—शून्य-मुख—-—हक्का-बक्का, उदास, किंकर्तव्य विमूढ़
- शून्यवदन—वि॰—शून्य-वदन—-—हक्का-बक्का, उदास, किंकर्तव्य विमूढ़
- शून्यवादः—पुं॰—शून्य-वादः—-—वह दार्शनिक सिद्धांत ज़ो (जीव ईश्वर आदि) किसी भी पदार्थ की सत्ता स्वीकार नहीं करता, बौद्ध दर्शन
- शून्यवादिन्—पुं॰—शून्य-वादिन्—-—नास्तिक
- शून्यवादिन्—पुं॰—शून्य-वादिन्—-—बौद्ध
- शून्यहृदय—वि॰—शून्य-हृदय—-—अन्यमनस्क
- शून्यहृदय—वि॰—शून्य-हृदय—-—खुले दिल वाला, जो दूसरों पर किसी प्रकार का संदेह न करें
- शून्या—स्त्री॰—-—शून्य + टाप्—खोखला नरकुल
- शून्या—स्त्री॰—-—शून्य + टाप्—बांझ स्त्री
- शूर—चुरा॰ उभ॰ <शूरयति>, <शूरयते>—-—-—शौर्य के कार्य करना, शक्तिशाली होना
- शूर—चुरा॰ उभ॰ <शूरयति>, <शूरयते>—-—-—प्रबल उद्योग करना
- शूर—वि॰—-—शूर् + अच्—बहादुर, वीर, पराक्रमी, ताकतवर
- शूरः—पुं॰—-—-—सूरमा, योद्या, पराक्रमी
- शूरः—पुं॰—-—-—सिंह
- शूरः—पुं॰—-—-—सूअर
- शूरः—पुं॰—-—-—सूर्य
- शूरः—पुं॰—-—-—साल का पेड़
- शूरः—पुं॰—-—-—कृष्ण का दादा, एक यादव
- शूरकीटः—पुं॰—शूर-कीटः—-—तिरस्करणीय योद्धा
- शूरमानम्—नपुं॰—शूर-मानम्—-—अभिमान, अहंकार
- शूरसेन—पुं॰ ब॰ व॰—शूर-सेन—-—मथुरा के एक देश या उस देश के अधिवासी
- शूरणः—पुं॰—-—शूर् + ल्युट्—सूरन नामक एक खाद्यमूल, कंद
- शूरंमन्य—वि॰—-—आत्मानं शूरं मन्यते-शूर + मन् + खश्, मुम्—जो व्यक्ति अपने आपको पराक्रमी समझता है
- शूर्पः—पुं॰—-—शृ + पः ऊरच् नित्—छाज
- शूर्पम्—नपुं॰—-—शृ + पः ऊरच् नित्—छाज
- शूर्पः—पुं॰—-—-—दो द्रोण का तोल
- शूर्पकर्णः—पुं॰—शूर्पः-कर्णः—-—हाथी
- शूर्पणखा—स्त्री॰—शूर्पः-णखा—-—जिसके नख छाज जैसे लंबे चौड़े हों, रावण की बहन का नाम
- शूर्पणखी—स्त्री॰—शूर्पः-णखी—-—जिसके नख छाज जैसे लंबे चौड़े हों, रावण की बहन का नाम
- शूर्पवातः—पुं॰—शूर्पः-वातः—-—छाज को हिलाने से उत्पन्न हवा
- शूर्पश्रुतिः—पुं॰—शूर्पः-श्रुतिः—-—हाथी
- शूर्पो—पुं॰—-—शूर्प + ङीष्—छोटा छाज या पङ्खा
- शूर्पो—पुं॰—-—शूर्प + ङीष्—शूर्पणखा
- शूर्मः—पुं॰—-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्याः, पक्षे अच्—लोहे की बनी प्रतिमा
- शूर्मः—पुं॰—-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्याः, पक्षे अच्—घन, निहाई
- शूर्मिः—पुं॰ —-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्य—लोहे की बनी प्रतिमा
- शूर्मिः—पुं॰—-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्य—घन, निहाई
- शूर्मिः—स्त्री॰—-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्याः—लोहे की बनी प्रतिमा
- शूर्मिः—स्त्री॰—-—सुष्ठु ऊर्मिः अस्ति अस्याः—घन, निहाई
- शूर्मिका—स्त्री॰—-—शूर्मि + कन् + टाप्—लोहे की बनी प्रतिमा
- शूर्मिका—स्त्री॰—-—शूर्मि + कन् + टाप्—घन, निहाई
- शूर्मी—स्त्री॰—-—शूर्मि + ङीष्—लोहे की बनी प्रतिमा
- शूर्मी—स्त्री॰—-—शूर्मि + ङीष्—घन, निहाई
- शूल्—भ्वा॰ पर॰ <शूलति>—-—-—बीमार होना
- शूल्—भ्वा॰ पर॰ <शूलति>—-—-—कोलाहल करना
- शूल्—भ्वा॰ पर॰ <शूलति>—-—-—गड़बड़ करना, विगाड़ना
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—पैना या नोकदार हथियार, नुकीला काँटा, नेज़ा, बर्छी, भाला
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—शिव का त्रिशूल
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—लोहे की सलाख़ (जिस पर मांस भूना जाता है)
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—एक स्थूण जिसके सहारे अपराधियों को सूली दी जाती थी (बिभ्रत्)
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—तीव्र पीड़ा
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—उदरशूल
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—गठिया, जोड़ों में दर्द
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—मृत्यु
- शूलः—पुं॰—-—शूल् + क—झण्डा, ध्वज
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—पैना या नोकदार हथियार, नुकीला काँटा, नेज़ा, बर्छी, भाला
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—शिव का त्रिशूल
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—लोहे की सलाख़ (जिस पर मांस भूना जाता है)
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—एक स्थूण जिसके सहारे अपराधियों को सूली दी जाती थी (बिभ्रत्)
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—तीव्र पीड़ा
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—उदरशूल
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—गठिया, जोड़ों में दर्द
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—मृत्यु
- शूलम्—नपुं॰—-—शूल् + क—झण्डा, ध्वज
- शूलाकृ——-—-—लोहे की सलाख़ पर रख कर भूनना
- शूलाग्रम्—नपुं॰—शूलः-अग्रम्—-—सलाख़ की नोक
- शूलग्रन्थिः—स्त्री॰ —शूलः-ग्रन्थिः—-—एक प्रकार का घास, दूब
- शूलघातनम्—नपुं॰—शूलः-घातनम्—-—लोहे का बुरादा, लोहे का चूरा जो लोहे को रेतने से निकलता है
- शूलघ्न—वि॰—शूलः-घ्न—-—शामक औषधि, वेदनाहर
- शूलधन्वन्—पुं॰—शूलः-धन्वन्—-—शिव के विशेषण
- शूलधर—पुं॰—शूलः-धर—-—शिव के विशेषण
- शूलधारिन्—पुं॰—शूलः-धारिन्—-—शिव के विशेषण
- शूलधृक्—पुं॰—शूलः-धृक्—-—शिव के विशेषण
- शूलपाणि—पुं॰—शूलः-पाणि—-—शिव के विशेषण
- शूलभृत्—पुं॰—शूलः-भृत्—-—शिव के विशेषण
- शूलशत्रुः—पुं॰—शूलः-शत्रुः—-—एरण्ड का पौधा
- शूलस्थ—वि॰—शूलः-स्थ—-—सूली पर चढ़ाया गया
- शूलहन्त्री—स्त्री॰—शूलः-हन्त्री—-—एक प्रकार का जौ
- शूलहस्तः—पुं॰—शूलः-हस्तः—-—भालाधारी
- शूलकः—पुं॰—-—शूल + कन्—अड़ियाल घोड़ा
- शूला—स्त्री॰—-—शूल + टाप्—अपराधियों को सूली देने की स्थूणा
- शूला—स्त्री॰—-—शूल + टाप्—वेश्या
- शूलाकृतम्—नपुं॰—-—शूल + डाच् + कृ + क्त—भुना हुआ मांस
- शूलिक—वि॰—-—शूल + ठन्—शूलधारी
- शूलिक—वि॰—-—शूल + ठन्—सलाख़ पर भूना हुआ
- शूलिकः—पुं॰—-—-—ख़रगोश
- शूलिकम्—नपुं॰—-—-—भुना हुआ मांस
- शूलिन्—वि॰—-—शूलमस्त्यस्य इनि—बर्छीधारी
- शूलिन्—वि॰—-—शूलमस्त्यस्य इनि—उदरशूल से पीड़ित
- शूलिन्—पुं॰—-—-—बर्छीधारी
- शूलिन्—पुं॰—-—-—ख़रगोश
- शूलिन्—पुं॰—-—-—शिव
- शूलिनः—पुं॰—-—शूल + इनन्—बरगद का पेड़
- शूल्य—वि॰—-—शूल + यत्—सलाख़ पर भूना हुआ
- शूल्य—वि॰—-—-—सूली पाने के योग्य
- शूल्यम्—नपुं॰—-—-—भुना हुआ मांस
- शूष्—भ्वा॰ पर॰ <शूषति>—-—-—पैदा करना, उत्पन्न करना
- शूष्—भ्वा॰ पर॰ <शूषति>—-—-—जन्म देना
- शृकालः—पुं॰—-—-—गीदड़
- शृगालः—पुं॰—-—असृजं लाति-ला + क, पृषो॰—गीदड़
- शृगालः—पुं॰—-—असृजं लाति-ला + क, पृषो॰—ठग, धूर्त, उचक्का
- शृगालः—पुं॰—-—असृजं लाति-ला + क, पृषो॰—भीरु
- शृगालः—पुं॰—-—असृजं लाति-ला + क, पृषो॰—दुष्ट प्रकृति, कटुभाषी
- शृगालः—पुं॰—-—असृजं लाति-ला + क, पृषो॰—कृष्ण
- शृगालकेलिः—पुं॰—शृगालः-केलिः—-—एक प्रकार का बेर
- शृगालजम्बुः—स्त्री॰—शृगालः-जम्बुः—-—एक प्रकार की ककड़ी, खीरा
- शृगालजम्बूः—स्त्री॰—शृगालः-जम्बूः—-—एक प्रकार की ककड़ी, खीरा
- शृगालयोनिः—पुं॰/स्त्री॰—शृगालः-योनिः—-—गीदड़ की योनि में जन्म लेना
- शृगालरूपः—पुं॰—शृगालः-रूपः—-—शिव का विशेषण
- शृगालिका—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्—गीदड़ी
- शृगालिका—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्—लोमड़ी
- शृगालिका—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्—पलायन, प्रत्यावर्तन
- शृगाली—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्, पक्षे कन् + टाप् ह्रस्वः—गीदड़ी
- शृगाली—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्, पक्षे कन् + टाप् ह्रस्वः—लोमड़ी
- शृगाली—स्त्री॰—-—शृगाल + ङीष्, पक्षे कन् + टाप् ह्रस्वः—पलायन, प्रत्यावर्तन
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—लोहे की जञ्जीर, बेड़ी
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, हथकड़ी
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—हाथी के पैरों को बाँधने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—कमर की पेटी, करधनी
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—नापने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खलः—पुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, श्रेणी, परम्परा
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—लोहे की जञ्जीर, बेड़ी
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, हथकड़ी
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—हाथी के पैरों को बाँधने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—कमर की पेटी, करधनी
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—नापने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खला—स्त्री॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, श्रेणी, परम्परा
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—लोहे की जञ्जीर, बेड़ी
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, हथकड़ी
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—हाथी के पैरों को बाँधने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—कमर की पेटी, करधनी
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—नापने की ज़ञ्जीर
- शृङ्खलम्—नपुं॰—-—शृङ्गात् प्राधान्यात् स्खल्यते अनेन, पृषो॰—ज़ञ्जीर, श्रेणी, परम्परा
- शृङ्खलयमकम्—नपुं॰—शृङ्खलः-यमकम्—-—यमक अलङ्कार का एक भेद
- शृङ्खलकः—पुं॰—-—शृङ्खल + कन्—ज़ञ्जीर
- शृङ्खलकः—पुं॰—-—शृङ्खल + कन्—ऊँट
- शृङ्खलित—वि॰—-—शृङ्खला + इतच्—ज़ञ्जीर में जकड़ा हुआ, बेड़ी पड़ा हुआ, बँधा हुआ
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—शृ + गन्, पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च—सींग
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—पहाड़ की चोटी
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—भवन की चोटी, बुर्जी
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—उत्तुंगता, ऊँचाई
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—प्रभुता, स्वामित्व, सर्वोपरिता, प्रमुखता
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—चन्द्रचूड़ा, चाँद की नोक
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—चोटी, नोक, अग्रभाग
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—(भैंस आदि का)) सींग जो फूंक मार कर बजाया जाता है
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—पिचकारी
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—कामोद्रेक, अभिलाषोदय
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—निशान, चिह्न
- शृङ्गम्—नपुं॰—-—-—कमल
- शृङ्गान्तरम्—नपुं॰—शृङ्गम्-अन्तरम्—-—(गौ आदि पशुओं के)सींगों का मध्यवर्ती स्थान
- शृङ्गुच्चयः—पुं॰—शृङ्गम्-उच्चयः—-—ऊँची चोटी
- शृङ्गजः—पुं॰—शृङ्गम्-जः—-—बाण
- शृङ्गजम्—नपुं॰—शृङ्गम्-जम्—-—अगर की लकड़ी
- शृङ्गप्रहारिन्—वि॰—शृङ्गम्-प्रहारिन्—-—सींग से मारने वाला
- शृङ्गप्रियः—पुं॰—शृङ्गम्-प्रियः—-—शिव का विशेषण
- शृङ्गमोहिन्—पुं॰—शृङ्गम्-मोहिन्—-—चम्पक वृक्ष
- शृङ्गवेरम्—नपुं॰—शृङ्गम्-वेरम्—-—वर्तमान मिर्जापुर के निकट गंगा के किनारे बसा हुआ एक नगर
- शृङ्गवेरम्—नपुं॰—शृङ्गम्-वेरम्—-—अदरक
- शृङ्गकः—पुं॰—-—शृङ्ग + कन्—सींग
- शृङ्गकः—पुं॰—-—शृङ्ग + कन्—चन्द्रमा की नोक, चन्द्रचूड़ा
- शृङ्गकः—पुं॰—-—शृङ्ग + कन्—कोई भी नोकीली वस्तु
- शृङ्गकः—पुं॰—-—शृङ्ग + कन्—पिचकारी
- शृङ्गकम्—नपुं॰—-—शृङ्ग + कन्—सींग
- शृङ्गकम्—नपुं॰—-—शृङ्ग + कन्—चन्द्रमा की नोक, चन्द्रचूड़ा
- शृङ्गकम्—नपुं॰—-—शृङ्ग + कन्—कोई भी नोकीली वस्तु
- शृङ्गकम्—नपुं॰—-—शृङ्ग + कन्—पिचकारी
- शृङ्गवत्—वि॰—-—शृङ्ग + मतुप्—चोटीवाला
- शृङ्गवत्—पुं॰—-—-—पहाड़
- शृङ्गाटः—पुं॰—-—शृङ्गं प्रधान्यम् अटति-शृङ्ग + अट् + अण्—एक पहाड़
- शृङ्गाटः—पुं॰—-—शृङ्गं प्रधान्यम् अटति-शृङ्ग + अट् + अण्—एक पौधा
- शृङ्गाटम्—नपुं॰—-—-—चौराहा
- शृङ्गाटकः—पुं॰—-—-—एक पहाड़
- शृङ्गाटकः—पुं॰—-—-—एक पौधा
- शृङ्गाटकम्—नपुं॰—-—-—चौराहा
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—प्रणयरस, कामोन्माद, रतिरस
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—प्रेम, प्रणयोन्माद संभोगेच्छा
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—शृङ्गारिक समालापों के उपयुक्त वेश, ललित वेशभूषा
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—मैथुन, संभोग
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—हाथी के शरीर पर बनाये गए सिंदूर के निशान
- शृङ्गारः—पुं॰—-—शृङ्गं कामोद्रेकमृच्छत्यनेन ऋ + अण्—चिह्न
- शृङ्गारम्—नपुं॰—-—-—लौगं
- शृङ्गारम्—नपुं॰—-—-—सिंदूर
- शृङ्गारम्—नपुं॰—-—-—अदरक
- शृङ्गारम्—नपुं॰—-—-—शरीर या वस्त्रों के लिए सुगन्धित चूर्ण
- शृङ्गारम्—नपुं॰—-—-—काला अगर
- शृङ्गारचेष्टा—स्त्री॰—शृङ्गारः-चेष्टा—-—कामानुरक्ति का संकेत
- शृङ्गारभाषितम्—नपुं॰—शृङ्गारः-भाषितम्—-—प्रेमालाप, प्रणयकथा
- शृङ्गारभूषणम्—नपुं॰—शृङ्गारः-भूषणम्—-—सिंदूर
- शृङ्गारयोनिः—पुं॰स्त्री॰—शृङ्गारः-योनिः—-—कामदेव का विशेषण
- शृङ्गाररसः—पुं॰—शृङ्गारः-रसः—-—साहित्यशास्त्र में वर्णित शृंगाररस, प्रणयरस
- शृङ्गारविधिः—पुं॰—शृङ्गारः-विधिः—-—प्रेमालापों के उपयुक्त वेशभूषा (जिसे पहन कर प्रेमी अपने प्रिय से मिलता है)
- शृङ्गारसहायः—पुं॰—शृङ्गारः-सहायः—-—प्रेमाव्यापार में सहायक व्यक्ति, नर्मसचिव
- शृङ्गारकः—पुं॰—-—शृङ्गार + कन्—प्रेम
- शृङ्गारकम्—नपुं॰—-—-—सिंदूर
- शृङ्गारित—वि॰—-—शृङ्गार + इतच्—प्रेमाविष्ट, प्रणयोन्मत्त
- शृङ्गारित—वि॰—-—शृङ्गार + इतच्—सिंदूर से लाल
- शृङ्गारित—वि॰—-—शृङ्गार + इतच्—अलंकृत, सजा हुआ
- शृङ्गारिन्—वि॰—-—शृङ्गार + इनि—शृङ्गारप्रिय, प्रेमासक्त, प्रणयोन्मत्त
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—प्रणयोन्मत्त, प्रेमी
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—लाल
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—हाथी
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—वेशभूषा, सजावट
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—सुपारी का पेड़
- शृङ्गारिन्—पुं॰—-—-—पान का बीड़ा
- शृङ्गिः—पुं॰—-—-—आभूषणों के लिए सोना
- शृङ्गिः—स्त्री॰—-—-—सिंगी मछली
- शृङ्गिकम्—नपुं॰—-—शृङ्ग + ठन्—एक प्रकार का विष
- शृङ्गिका—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का भूर्जवृक्ष
- शृङ्गिणः—पुं॰—-—शृङ्ग + इनन्—भेड़ा, मेंढ़ा
- शृङ्गिणी—स्त्री॰—-—शृङ्गिन् + ङीष्—गाय
- शृङ्गिणी—स्त्री॰—-—शृङ्गिन् + ङीष्—एक प्रकार की मल्लिका, मोतिया
- शृङ्गिन्—वि॰—-—शृङ्ग + इनि—सींगों वाला
- शृङ्गिन्—वि॰—-—शृङ्ग + इनि—शिखाधारी, चोटी वाला
- शृङ्गिन्—पुं॰—-—-—पहाड़
- शृङ्गिन्—पुं॰—-—-—हाथी
- शृङ्गिन्—पुं॰—-—-—वृक्ष
- शृङ्गिन्—पुं॰—-—-—शिव के एक गण का नाम
- शृङ्गी—स्त्री॰—-—शृङ्ग + ङीष्—आभूषणों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला सोना
- शृङ्गी—स्त्री॰—-—शृङ्ग + ङीष्—एक औषधि-मूल, काकड़ासिंगी, अतीस
- शृङ्गी—स्त्री॰—-—शृङ्ग + ङीष्—एक प्रकार का विष
- शृङ्गी—स्त्री॰—-—शृङ्ग + ङीष्—सिंगी मछली
- शृङ्गीकनकम्—नपुं॰—शृङ्गी-कनकम्—-—गहना बनाने के लिए सोना
- शृणिः—स्त्री॰—-—शृ + क्तिन्, पृषो॰ तस्य नः, हुस्वश्च—अंकुश, प्रतोद
- शृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—शृ+ क्त—पकाया हुआ
- शृत—भू॰ क॰ कृ॰—-—शृ+ क्त—उबाला हुआ (पानी, दूध आदि)
- शृध्—भ्वा॰ आ॰ <शर्धते>—-—-—अपान वायु छोड़ना, पाद मारना
- शृध्—भ्वा॰ उभ॰ <शर्धति>, <शर्धते>—-—-—आर्द्र करना, गीला करना
- शृध्—भ्वा॰ उभ॰ <शर्धति>, <शर्धते>—-—-—काट डालना
- शृध्—चुरा॰ उभ॰ <शर्धयति>, <शर्धयते>—-—-—प्रयत्न करना
- शृध्—चुरा॰ उभ॰ <शर्धयति>, <शर्धयते>—-—-—लेना, ग्रहण करना
- शृध्—चुरा॰ उभ॰ <शर्धयति>, <शर्धयते>—-—-—अपमान करना (पाद मार कर) नकल करना, मजाक उड़ाना
- शृधुः—पुं॰—-—शृध् + कु—बुद्धि
- शृधुः—पुं॰—-—शृध् + कु—गुदा
- शृ—क्र्या॰ पर॰ <शृणाति>, <शीर्ण>—-—-—फाड़ डालना, टुकड़े टुकड़े कर डालना
- शृ—क्र्या॰ पर॰ <शृणाति>, <शीर्ण>—-—-—चोट पहुँचाना, क्षति ग्रस्त करना
- शृ—क्र्या॰ पर॰ <शृणाति>, <शीर्ण>—-—-—मार डालना, नष्ट करना
- शृ—क्र्या॰, कर्मवा॰ <शीर्यते>—-—-—चिथड़े-चिथड़े होना, कुम्हलाना, मुरझाना, बर्बाद होना
- अवशृ—क्र्या॰ पर॰—अव-शृ—-—जबरन लें भागना
- अवशृ—क्र्या॰, कर्मवा॰—अव-शृ—-—मुर्झाना, कुम्हलाना
- शेखरः—पुं॰—-—शिख् + अरन्, पृषो॰—चूड़ा, कलगीं, फूलों का गजरा, सिर पर लपेटी हुई माला
- शेखरः—पुं॰—-—शिख् + अरन्, पृषो॰—किरीट, मुकुट
- शेखरः—पुं॰—-—शिख् + अरन्, पृषो॰—चोटी, शृंग
- शेखरः—पुं॰—-—शिख् + अरन्, पृषो॰—किसी भी श्रेणी का सर्वोत्तम या प्रमुखतम
- शेखरः—पुं॰—-—शिख् + अरन्, पृषो॰—गीत का ध्रुव विशेष
- शेखरम्—नपुं॰—-—-—लौंग
- शेपः—पुं॰—-—शी + पन्—लिंग, पुरुषकी जननेन्द्रिय
- शेपः—पुं॰—-—शी + पन्—अंडकोष
- शेपः—पुं॰—-—शी + पन्—पूँछ
- शेपस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, पुट्—लिंग, पुरुषकी जननेन्द्रिय
- शेपस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, पुट्—अंडकोष
- शेपस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, पुट्—पूँछ
- शेफः—पुं॰—-—शी + फन्—लिंग, पुरुषकी जननेन्द्रिय
- शेफः—पुं॰—-—शी + फन्—अंडकोष
- शेफः—पुं॰—-—शी + फन्—पूँछ
- शेफम्—नपुं॰—-—शी + असुन् —लिंग, पुरुषकी जननेन्द्रिय
- शेफम्—नपुं॰—-—शी + असुन् —अंडकोष
- शेफम्—नपुं॰—-—शी + असुन् —पूँछ
- शेफस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, फुक्—लिंग, पुरुषकी जननेन्द्रिय
- शेफस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, फुक्—अंडकोष
- शेफस्—नपुं॰—-—शी + असुन्, फुक्—पूँछ
- शेफालिः—स्त्री॰—-—शेफाः शयनशालिनः अलयो यत्र-ब॰ स॰—एक प्रकार का पौधा, निर्गुण्डी, नीलिका, नील सिधुवार का पौधा
- शेफाली—स्त्री॰—-—शेफालि + ङीष्—एक प्रकार का पौधा, निर्गुण्डी, नीलिका, नील सिधुवार का पौधा
- शेफालिका—स्त्री॰—-—शेफालि + कन् + टाप्—एक प्रकार का पौधा, निर्गुण्डी, नीलिका, नील सिधुवार का पौधा
- शेमुषी—स्त्री॰—-—शी + क्वि=शेः मोहः तं मुष्णाति-शे + मुष् + क + ङीष्—बुद्धि, समझ
- शेल्—भ्वा॰ पर॰ <शेलति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शेल्—भ्वा॰ पर॰ <शेलति>—-—-—कांपना
- शेवः—पुं॰—-—शुक्रपाते सति शेते-शी + वन्—साँप
- शेवः—पुं॰—-—शुक्रपाते सति शेते-शी + वन्—लिंग
- शेवः—पुं॰—-—शुक्रपाते सति शेते-शी + वन्—ऊचाई, उत्तुंगता
- शेवः—पुं॰—-—शुक्रपाते सति शेते-शी + वन्—आनन्द
- शेवः—पुं॰—-—शुक्रपाते सति शेते-शी + वन्—दौलत, खजाना
- शेवम्—नपुं॰—-—-—लिंग
- शेवम्—नपुं॰—-—-—आनन्द
- शेवधिः—पुं॰—शेवः-धिः—-—मूल्यवान् कोष
- शेवधिः—पुं॰—शेवः-धिः—-—कुबेर के नौ कोषों में से एक
- शेवलम्—नपुं॰—-—शी + विच् तथा भूतः सन् वलते वल् + अच्—मोथे की भांति हरे रंग का पदार्थ जो पानी के ऊपर उग आता है, काई
- शेवलम्—नपुं॰—-—शी + विच् तथा भूतः सन् वलते वल् + अच्—एक प्रकार का पौधा
- शेवलिनी—स्त्री॰—-—शेवल + इनि + ङीप्—नदी
- शेवालः—पुं॰—-—शी + विच् तथा भूतः सन् वलते वल् + अच्—मोथे की भांति हरे रंग का पदार्थ जो पानी के ऊपर उग आता है, काई
- शेवालः—पुं॰—-—शी + विच् तथा भूतः सन् वलते वल् + अच्—एक प्रकार का पौधा
- शेष—वि॰—-—शिष् + अच्—बचा हुआ, बाकी, अन्य सब
- शेषः—पुं॰—-—-—बचा हुआ, बाकी, अवशिष्ट
- शेषः—पुं॰—-—-—छोड़ी हुई कोई बात, या भूली हुई बात
- शेषः—पुं॰—-—-—बचाव, मुक्ति, श्रान्ति
- शेषम्—नपुं॰—-—-—बचा हुआ, बाकी, अवशिष्ट
- शेषम्—नपुं॰—-—-—छोड़ी हुई कोई बात, या भूली हुई बात
- शेषम्—नपुं॰—-—-—बचाव, मुक्ति, श्रान्ति
- शेषः —पुं॰—-—-—परिणाम, प्रभाव
- शेषः —पुं॰—-—-—अन्त, समाप्ति, उपसंहार
- शेषः —पुं॰—-—-—मृत्यु, विनाश
- शेषः —पुं॰—-—-—एक विख्यात नाग का नाम
- शेषः —पुं॰—-—-—बलराम (जो शेष का अवतार माना जाता है)
- शेषा—स्त्री॰—-—-—फ़ूल तथा अन्य चढ़ावा जो मूर्ति के सामने प्रस्तुत किया जाता है और उसके पुण्य अवशेष के रूप में पूजा करने वालों में बाँट दिया जाता है
- शेषम्—नपुं॰—-—-—उच्छिष्ट अन्न, चढ़ावे का अवशेष
- शेषान्नम्—नपुं॰—शेष-अन्नम्—-—जूठन्
- शेषावस्था—स्त्री॰—शेष-अवस्था—-—बुढ़ापा
- शेषभागः—पुं॰—शेष-भागः—-—शेष, बाक़ी
- शेषभोजनम्—नपुं॰—शेष-भोजनम्—-—जूठनखाना
- शेषरात्रिः—स्त्री॰—शेष-रात्रिः—-—रात का चौथा पहर
- शेषशयनः—पुं॰—शेष-शयनः—-—विष्णु के विशेषण
- शैक्षः—पुं॰—-—शिक्षां वेत्त्यधीते अण् वा—शिक्षा अर्थात् उच्चारण शास्त्र को पढ़ने वाला विद्यार्थी, जिसने वेदाध्ययन अभी अभी आरम्भ किया है
- शैक्षः—पुं॰—-—शिक्षां वेत्त्यधीते अण् वा—नौसिखिया, नवशिष्य
- शैक्षिकः—पुं॰—-—शिक्षा + ठक्—शिक्षाशास्त्र में निष्णात
- शैक्ष्यम्—नपुं॰—-—शिक्षा + यत्—अधिगम, प्रवीणता
- शैघ्र्यम्—नपुं॰—-—शीघ्र + ष्यञ्—फुर्ती, सत्वरता
- शैत्यम्—नपुं॰—-—शीत + ष्यञ्—ठंडक, शीतलता, जमाव
- शैथिल्यम्—नपुं॰—-—शिथिल + ष्यञ्—ढीलापन, नरसी
- शैथिल्यम्—नपुं॰—-—शिथिल + ष्यञ्—मन्थरता
- शैथिल्यम्—नपुं॰—-—शिथिल + ष्यञ्—दीर्घसूत्रता, अनवधानता
- शैथिल्यम्—नपुं॰—-—शिथिल + ष्यञ्—कमज़ोरी, भीरुता
- शैनेयः—पुं॰—-—शिनि + ढक्—सात्यकि का नाम
- शैन्याः—पुं॰, ब॰ व॰—-—शिनि + यञ्—शिनि की सन्तान, शिनि के वंशज
- शैब्य—पुं॰—-—शिबि + ञ्य—कृष्ण के चार घोड़ों में से एक
- शैब्य—पुं॰—-—शिबि + ञ्य—पांडव सेना का एक योद्धा, एक राजा का नाम
- शैब्य—पुं॰—-—शिबि + ञ्य—घोड़ा
- शैलः—पुं॰—-—शिला + अण्—पर्वत, पहाड़
- शैलः—पुं॰—-—शिला + अण्—चट्टान, बड़ा भारी पत्थर
- शैलम्—नपुं॰—-—-—सुहागा, धूप, गुग्गुल
- शैलम्—नपुं॰—-—-—शिलाजीत
- शैलम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार का अंजन
- शैलांशः—पुं॰—शैलः-अंशः—-—एक देश का नाम
- शैलाग्रम्—नपुं॰—शैलः-अग्रम्—-—पहाड़ की चोटी
- शैलाटः—पुं॰—शैलः-अटः—-—पहाड़ी, असभ्य
- शैलाटः—पुं॰—शैलः-अटः—-—किसी देवमूर्ति का पुजारी
- शैलाटः—पुं॰—शैलः-अटः—-—सिंह
- शैलाटः—पुं॰—शैलः-अटः—-—स्फटिक
- शैलाधिपः—पुं॰—शैलः-अधिपः—-—हिमालय पर्वत के विशेषण
- शैलाधिराजः—पुं॰—शैलः-अधिराजः—-—हिमालय पर्वत के विशेषण
- शैलेन्द्रः—पुं॰—शैलः-इन्द्रः—-—हिमालय पर्वत के विशेषण
- शैलपतिः—पुं॰—शैलः-पतिः—-—हिमालय पर्वत के विशेषण
- शैलराजः—पुं॰—शैलः-राजः—-—हिमालय पर्वत के विशेषण
- शैलाख्यम्—नपुं॰—शैलः-आख्यम्—-—शैलेयगन्ध द्रव्य, धूप
- शैलकटकः—पुं॰—शैलः-कटकः—-—पहाड़ की ढलान
- शैलगन्धम्—नपुं॰—शैलः-गन्धम्—-—एक प्रकार का चन्दन
- शैलजम्—नपुं॰—शैलः-जम्—-—शैलेय गन्ध द्रव्य, धूप
- शैलजम्—नपुं॰—शैलः-जम्—-—शिलाजीत
- शैलजा—स्त्री॰—शैलः-जा—-—पार्वती के विशेषण
- शैलधन्वन्—पुं॰—शैलः-धन्वन्—-—शिव का विशेषण
- शैलधरः—पुं॰—शैलः-धरः—-—कृष्ण का विशेषण
- शैलनिर्यासः—पुं॰—शैलः-निर्यासः—-—शैलेयगन्धद्रव्य, धूप
- शैलपत्रः—पुं॰—शैलः-पत्रः—-—बेल का पेड़
- शैलभित्तिः—स्त्री॰—शैलः-भित्तिः—-—पत्थर काटने का उपकरण, टांकी
- शैलरन्ध्रम्—नपुं॰—शैलः-रन्ध्रम्—-—गुफा, कन्दरा
- शैलशिविरम्—नपुं॰—शैलः-शिविरम्—-—समुद्र
- शैलसार—वि॰—शैलः-सार—-—पत्थर की तरह सबल, चट्टान की तरह दृढ़
- शैलकम्—नपुं॰—-—शैल + कन्—शैलेयगन्ध द्रव्य, धूप
- शैलकम्—नपुं॰—-—शैल + कन्—शीलाजीत
- शैलादिः—पुं॰—-—शिलादस्यापत्यम्-शिलाद + इञ्—शिव का गण, नन्दी
- शैलालिन्—पुं॰—-—शिलालिना मुनिना प्रोक्तं नटसूत्रमधीयते-शिलालि + णिनि—अभिनेता,नर्तक
- शैलिक्यः—पुं॰—-—गर्हितं शीलमस्त्य-ठन्, शीलिक + ष्यञ्—पाखण्डी, दम्भी, ठग
- शैली—स्त्री॰—-—शीलमेव स्वार्थे ष्यञ् ङीपि यलोपः—व्याकरण सूत्र की संक्षिप्त वृत्ति
- शैली—स्त्री॰—-—शीलमेव स्वार्थे ष्यञ् ङीपि यलोपः—अभिव्यक्ति या अर्थकरण का एक प्रकार
- शैली—स्त्री॰—-—शीलमेव स्वार्थे ष्यञ् ङीपि यलोपः—व्यवाहार, काम करने का ढंग, आचरण, क्रम
- शैलूषः—पुं॰—-—शिलूषस्यापत्यम्-शिलूष + अण्—अभिनेता, नर्तक
- शैलूषः—पुं॰—-—शिलूषस्यापत्यम्-शिलूष + अण्—वादित्र-कुशल
- शैलूषः—पुं॰—-—शिलूषस्यापत्यम्-शिलूष + अण्—संगीत सभा में तालधारक
- शैलूषः—पुं॰—-—शिलूषस्यापत्यम्-शिलूष + अण्—धूर्त
- शैलूषः—पुं॰—-—शिलूषस्यापत्यम्-शिलूष + अण्—बेल का पेड़
- शैलूषिकः—पुं॰—-—शैलूषं तद्वृत्तिम् अन्वेष्टा-ठक्—जो अभिनेता का व्यवसाय करता हो
- शैलेय—वि॰—-—शिलायां भवः, शिला + ढक्—पहाड़ी
- शैलेय—वि॰—-—शिलायां भवः, शिला + ढक्—चट्टानों से उत्पन्न
- शैलेय—वि॰—-—शिलायां भवः, शिला + ढक्—पत्थर की तरह कड़ा, पथरीला
- शैलेयः—पुं॰—-—-—सिंह
- शैलेयः—पुं॰—-—-—भ्रमर
- शैलेयम्—नपुं॰—-—-—पर्वत गंधद्रव्य, धूप
- शैलेयम्—नपुं॰—-—-—सुगंधित राल
- शैलेयम्—नपुं॰—-—-—सेंधा नमक
- शैल्य—वि॰—-—शिला + ष्यञ्—पथरीला
- शैल्यम्—नपुं॰—-—-—चट्टान जैसी कठोरता, कड़ापन
- शैव—वि॰—-—शिवो देवताऽस्य-अण्—शिवसंबधी
- शैवः—पुं॰—-—-—हिन्दुओं के तीन मुख्य संप्रदायों में से एक
- शैवः—पुं॰—-—-—शैव संप्रदाय का पुरुष
- शैवम्—नपुं॰—-—-—अठारह पुराणों में से एक पुराण का नाम
- शैवलः—पुं॰—-—शी + वलच्—एक प्रकार का जलीय पौधा, पद्मकाष्ठ, सेवार, काई, मोथा
- शैवलम्—नपुं॰—-—-—एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी
- शैवलिनी—स्त्री॰—-—शैवल + इनि + ङीष्—नदी
- शैवाल—वि॰—-—-—एक प्रकार की सुगंधित लकड़ी
- शैव्यः—पुं॰—-—शिवि + ञ्य—कृष्ण के चार घोड़ों में से एक
- शैव्यः—पुं॰—-—शिवि + ञ्य—पांडव सेना का एक योद्धा, एक राजा का नाम
- शैव्यः—पुं॰—-—शिवि + ञ्य—घोड़ा
- शैशवम्—नपुं॰—-—शिशोभविः अण्—बचपन, बाल्यावस्था (सोलह वर्ष से नीचे का समय)
- शैशिर—वि॰—-—शिशिर + अण्—जाड़े के मौसम से संबन्ध रखने वाला
- शैशिरः—पुं॰—-—-—काले रंग का चातकपक्षी
- शैष्योपाध्यायिका—स्त्री॰—-—शिष्योपाध्याय + वुञ्—किशोरावस्था के छात्रों को पढ़ाना
- शो—दिवा॰ पर॰ <श्यति>, <शात>, <शित> कर्मवा॰ <शायते>, प्रेर॰<शाययति>, इच्छा॰ <शिशासति>—-—-—पैनाना, तेज़ करना
- शो—दिवा॰ पर॰ <श्यति>, <शात>, <शित> कर्मवा॰ <शायते>, प्रेर॰<शाययति>, इच्छा॰ <शिशासति>—-—-—पतला करना, कृश करना
- निशो—दिवा॰ पर॰—नि-शो—-—तेज़ करना
- शोकः—पुं॰—-—शुच् + घञ्—अफसोस, रंज, दुःख, कष्ट, विलाप, रुदन, वेदना
- शोकाग्निः—पुं॰—शोकः-अग्निः—-—शोक रूपी आग
- शोकानलः—पुं॰—शोकः-अनलः—-—शोक रूपी आग
- शोकापनोदः—पुं॰—शोकः-अपनोदः—-—रंज को दूर करना
- शोकाभिभूत—वि॰—शोकः-अभिभूत—-—कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त
- शोकाकुल—वि॰—शोकः-आकुल—-—कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त
- शोकाविष्ट—वि॰—शोकः-आविष्ट—-—कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त
- शोकोपहत—वि॰—शोकः-उपहत—-—कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त
- शोकविह्वल—वि॰—शोकः-विह्वल—-—कष्टग्रस्त, वेदनाग्रस्त
- शोकचर्चा—स्त्री॰—शोकः-चर्चा—-—शोक में लीन
- शोकनाशः—पुं॰—शोकः-नाशः—-—अशोकवृक्ष
- शोकपरायण—वि॰—शोकः-परायण—-—शोक से ग्रस्त, पीडाभिभूत
- शोकलासक—वि॰—शोकः-लासक—-—शोक से ग्रस्त, पीडाभिभूत
- शोकविकल—वि॰—शोकः-विकल—-—शोकाकुल
- शोकस्थानम्—नपुं॰—शोकः-स्थानम्—-—शोक का कारण
- शोचनम्—नपुं॰—-—शुच् + ल्युट्—रंज, अफसोस, विलाप
- शोचनीय—वि॰—-—शुच् + अनीयर्—विलाप करने योग्य, चिन्त्य, शोच्य, दुःखद
- शोच्य—वि॰—-—शुच् + ण्यत्—शोचनीय, विलाप करने योग्य, चिन्तनीय, दयनीय
- शोच्य—वि॰—-—शुच् + ण्यत्—कमीना, दुश्चरित्र
- शोचिस्—नपुं॰—-—शुच् + इसि—प्रकाश, क्रान्ति, चमक
- शोचिस्—नपुं॰—-—शुच् + इसि—ज्वाला
- शोचिष्केशः—पुं॰—शोचिस्-केशः—-—अग्नि का विशेषण
- शोटीर्यम्—नपुं॰—-—शुटीर + ष्यञ्, शौटीर्यम् इति साधुः —पराक्रम, शौर्य, शूरवीरता
- शोठ—वि॰—-—शुठ् + अच्—मूर्ख
- शोठ—वि॰—-—शुठ् + अच्—कमीना, अधम
- शोठ—वि॰—-—शुठ् + अच्—आलसी, सुस्त
- शोठः—पुं॰—-—-—मूर्ख
- शोठः—पुं॰—-—-—निकम्मा, आलसी
- शोठः—पुं॰—-—-—अधम या कमीना पुरुष
- शोठः—पुं॰—-—-—धूर्त, ठग
- शोण्—भ्वा॰ पर॰ <शोणति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- शोण—वि॰—-—शोण् + अच्—लाल, गहरा लाल रंग, हल लालका रंग
- शोण—वि॰—-—शोण् + अच्—लाख के रंग का, लालिमायुक्त भूरा
- शोणः—पुं॰—-—-—लोहित वर्ण, लाल रंग
- शोणः—पुं॰—-—-—आग
- शोणः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का लाल रंग का गन्ना, ईख
- शोणः—पुं॰—-—-—कुम्मैत घोड़ा
- शोणः—पुं॰—-—-—एक दरिया का नाम जो गोंडवाना से निकलकर पटना के निकट गंगा में गिरती है
- शोणः—पुं॰—-—-—मंगलग्रह
- शोणम्—नपुं॰—-—-—रुधिर
- शोणम्—नपुं॰—-—-—सिंदूर
- शोणाम्बुः—पुं॰—शोण-अम्बुः—-—एक प्रकार का बादल जो प्रलय के समय उठता है
- शोणाश्मन्—पुं॰—शोण-अश्मन्—-—लाल पत्थर
- शोणाश्मन्—पुं॰—शोण-अश्मन्—-—लाल, एक माणिक्य
- शोणोपलः—पुं॰—शोण-उपलः—-—लाल पत्थर
- शोणोपलः—पुं॰—शोण-उपलः—-—लाल, एक माणिक्य
- शोणपद्मम्—नपुं॰—शोण-पद्मम्—-—लाल रंग का कमल
- शोणरत्नम्—नपुं॰—शोण-रत्नम्—-—लाल नामक माणिक्य, पद्मरागमणि
- शोणित—वि॰—-—शोण + इतच्—लाल, लोहित, रक्त वर्ण का
- शोणितम्—नपुं॰—-—-—रुधिर
- शोणितम्—नपुं॰—-—-—केसर, जाफ़रान
- शोणिताह्वयम्—नपुं॰—शोणित-आह्वयम्—-—केसर, जाफ़रान
- शोणितोक्षित—वि॰—शोणित-उक्षित—-—रक्तरंजित
- शोणितोपलः—पुं॰—शोणित-उपलः—-—पद्मरागमणि
- शोणितचन्दनम्—नपुं॰—शोणित-चन्दनम्—-—लाल चंदन
- शोणितप—वि॰—शोणित-प—-—रुधिर पीने वाला
- शोणितपुरम्—नपुं॰—शोणित-पुरम्—-—बाणासुर का नगर
- शोणिमन्—पुं॰—-—शोण + इमनीच्—लालिमा, लाली
- शोथः—पुं॰—-—शु + थन्—सूजन, स्फीति
- शोथघ्न—वि॰—शोथः-घ्न—-—सूजन को दूर करने वाला, सूजन या स्फीति को हटाने वाली औषधि
- शोथजिह्माः—पुं॰—शोथः-जिह्माः—-—पुनर्नवा
- शोथरोगः—पुं॰—शोथः-रोगः—-—हाथ पाँव आदि में सूजन होने का रोग, जलोदर
- शोथहृत्—वि॰—शोथः-हृत्—-—सूजन हटाने वाली दवा
- शोथहृत्—पुं॰—शोथः-हृत्—-—भिलावाँ
- शोधः—पुं॰—-—शुध् + घञ्—शुद्धिसंस्कार
- शोधः—पुं॰—-—शुध् + घञ्—संशोधन, समाधान
- शोधः—पुं॰—-—शुध् + घञ्—ऋणभुगतान, (ऋण) परिशोध
- शोधः—पुं॰—-—शुध् + घञ्—प्रतिहिंसा, प्रतिदान, बदला
- शोधक—वि॰—-—शुध् + णिच् + ण्वुल्—शुद्ध करने वाला
- शोधक—वि॰—-—शुध् + णिच् + ण्वुल्—रेचक
- शोधक—वि॰—-—शुध् + णिच् + ण्वुल्—संशोधन करने वाला
- शोधन—वि॰—-—शुध् + णिच् + ल्युट्—शुद्ध करने वाला, स्वच्छ करने वाला
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—शुद्ध करना, स्वच्छ करना
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—संशोधन, (ऋण) परिशोधन करना
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—यथार्थ निर्धारण
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—अदायगी, बेबाकी, ऋण चुकाना
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—प्रायश्चित, परिशोधन
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—धातुओं को साफ़ करना
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—प्रतिहिंसा, प्रतिदान, दण्ड
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—व्यवकलन
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—तूतिया
- शोधनम्—नपुं॰—-—-—मल, विष्ठा
- शोधनकः—पुं॰—-—शोधन + कन्—दंड-न्यायालय का एक अधिकारी
- शोधनकः—पुं॰—-—-—फ़ौजदारी अदालत का अफ़सर
- शोधनी—स्त्री॰—-—शोधन + ङीष्—झाड़ू, बुहारी
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुध् + णिच् + क्त—शुद्ध किया हुआ, स्वच्छ किया हुआ
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—संस्कृत
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—छाना हुआ
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—संशोधित, समाहित
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—ऋण परिशोध किया हुआ, चुकाया हुआ
- शोधित—भू॰ क॰ कृ॰—-—-—बदला लिया हुआ, प्रतिहिंसा की हुई
- शोध्य—वि॰—-—शुध् + णिच् + यत्—शुध्द किये जाने के योग्य, संस्कृत किये जाने के योग्य ऋण परिशोध किये जाने के योग्य
- शोध्यः—पुं॰—-—-—अभियुक्तव्यक्ति, वह पुरुष जिसने लगाये हुए आरोप से अपने आप को मुक्त करना है
- शोफः—पुं॰—-—शु + फन्—सूजन, अर्बुद, रसौली, शोथ
- शोफजित्—पुं॰—शोफः-जित्—-—भिलावे का पौधा
- शोफहृत्—पुं॰—शोफः-हृत्—-—भिलावे का पौधा
- शोभन—वि॰—-—शोभते-शुभ + ल्युट्—चमकीला, शानदार
- शोभन—वि॰—-—शोभते-शुभ + ल्युट्—मनोहर, सुन्दर, लावण्यमय
- शोभन—वि॰—-—शोभते-शुभ + ल्युट्—भद्र, शुभ, सौभाग्य शाली
- शोभन—वि॰—-—शोभते-शुभ + ल्युट्—खूब सजाया हुआ
- शोभन—वि॰—-—शोभते-शुभ + ल्युट्—सदाचारी, पुण्यात्मा
- शोभनः—पुं॰—-—-—शिव
- शोभनः—पुं॰—-—-—ग्रह
- शोभनः—पुं॰—-—-—अच्छे परिणामों की प्राप्ति के लिए यज्ञाग्नि में दी गई आहुति
- शोभना—स्त्री॰—-—-—हल्दी
- शोभना—स्त्री॰—-—-—सुन्दर या सती स्त्री
- शोभना—स्त्री॰—-—-—एक प्रकार का पीला रंग, गोरोचना
- शोभनम्—नपुं॰—-—-—सौन्दर्य, कान्ति, दीप्ति
- शोभनम्—नपुं॰—-—-—कमल
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—प्रकाश, क्रान्ति, दीप्ति, चमक
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—वैभव, सौन्दर्य, लालित्य, चारुता, लावण्य
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—नैसर्गिक सौन्दर्य, (पर्वत आदि की) गरिमा
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—अलंकार, ललित अभिव्यक्ति
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—हल्दी
- शोभा—स्त्री॰—-—शुभ् + अ + टाप्—एक प्रकार का रंग, गोरोचना
- शोभाञ्जनः—पुं॰—शोभा-अञ्जनः—-—एक अत्यंत उपयोगी वृक्ष, सौहंजना
- शोभित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुभ् + णिच् + क्त—अलंकृत, चारु, सजाया हुआ
- शोभित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुभ् + णिच् + क्त—सुन्दर, प्रिय
- शोषः—पुं॰—-—शुष् + घञ्—सूखना, सूखापन
- शोषः—पुं॰—-—शुष् + घञ्—कृशता, कुम्हलान
- शोषः—पुं॰—-—शुष् + घञ्—फुप्फुसीय क्षय, या क्षयरोग
- शोषसम्भवम्—नपुं॰—शोषः-सम्भवम्—-—पिप्पलामूल
- शोषण—वि॰—-—शुष् + ल्युट्, स्त्रियां ङीप् च—सूखना, शुष्क करना
- शोषण—वि॰—-—शुष् + ल्युट्, स्त्रियां ङीप् च—सूखाना, कृश करना,
- शोषणः—पुं॰—-—-—कामदेव का एक बाण
- शोषणम्—नपुं॰—-—-—सूखना, शुष्क होना
- शोषणम्—नपुं॰—-—-—चूसना, रसाकर्षण, अवशोषण
- शोषणम्—नपुं॰—-—-—निःशेषण, क्लान्ति
- शोषणम्—नपुं॰—-—-—कृशता, कुम्हलाहट
- शोषणम्—नपुं॰—-—-—सोठं
- शोषित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुष् + णिच् + क्त—सुखाया गया
- शोषित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुष् + णिच् + क्त—कृश हुआ, कुम्हलाया हुआ
- शोषित—भू॰ क॰ कृ॰—-—शुष् + णिच् + क्त—परिश्रान्त
- शोषिन्—वि॰—-—शुष् + णिच् + णिनि—सुखाने वाला, कुम्हलाता हुआ, क्षीण होने वाला
- शौकम्—नपुं॰—-—शुक + अण्—तोतों की लार, तोतों का झुण्ड
- शौक्त—वि॰—-—शुक्ति + ठक्—मोती से सम्बन्ध रखने वाला
- शौक्त—वि॰—-—शुक्ति + ठक्—खट्टा, सिरके का, तेज़ाबी
- शौक्तिकेयम्—नपुं॰—-—शुक्तिका + ढक्—मोती
- शौक्तेयम्—नपुं॰—-—शुक्ति + ढक्—मोती
- शौक्तिकेयः—पुं॰—-—शुक्तिका + ढक्—एक प्रकार का विष
- शौक्ल्यम्—नपुं॰—-—शुक्ल + ष्यञ्—श्वेतता, सफ़ेदी, स्वच्छता
- शौचम्—नपुं॰—-—शुचेर्भावः अण्—पवित्रता, स्वच्छता
- शौचम्—नपुं॰—-—शुचेर्भावः अण्—मलत्याग के कारण दूषित व्यक्तित्व का शुद्धीकरण, विशेषतः किसी निकट सम्बन्धीं की मृत्यु होने पर(लोक-व्यवहार के अनुसार निश्चित समय पर क्षौरकर्म आदि करा कर) शुद्ध होना
- शौचम्—नपुं॰—-—शुचेर्भावः अण्—स्वच्छ होना, निर्मल होना
- शौचम्—नपुं॰—-—शुचेर्भावः अण्—मलत्याग करना
- शौचम्—नपुं॰—-—शुचेर्भावः अण्—खरापन, ईमानदारी
- शौचाचारः—नपुं॰—शौचम्-आचारः—-—शुद्धि विषयक संस्कार
- शौचकर्मन्—नपुं॰—शौचम्-कर्मन्—-—शुद्धि विषयक संस्कार
- शौचकल्पः—पुं॰—शौचम्-कल्पः—-—शुद्धि विषयक संस्कार
- शौचकूपः—पुं॰—शौचम्-कूपः—-—सण्डास, शौचालय
- शौचेयः—पुं॰—-—शुचि + ढक्—धोबी
- शौट्—भ्वा॰ पर॰ <शौटति>—-—-—घमण्डी या अहंकारी होना
- शौटीर—वि॰—-—शौटेः ईरन्—घमण्डी, अहंकारी
- शौटीरः—पुं॰—-—-—शूरवीर, मल्ल, योधा
- शौटीरः—पुं॰—-—-—घमण्डी मनुष्य
- शौटीरः—पुं॰—-—-—संन्यासी
- शौटीर्यम्—नपुं॰—-—शौटीर + ष्यञ्—घमण्ड, अभिमान, दर्प
- शौण्डीर्यम्—नपुं॰—-—शौण्डीर + ष्यञ्—घमण्ड, अभिमान, दर्प
- शौडति—भ्वा॰ पर॰ <शौडति>—-—-—घमण्डी या अहंकारी होना
- शौण्ड—वि॰—-—शुण्डायां सुरायामभिरतः अण्—शराबी, शराब पीने का शौक़ीन, मद्यप
- शौण्ड—वि॰—-—शुण्डायां सुरायामभिरतः अण्—उत्तेजित, मतवाला, नशे में चूर
- शौण्ड—वि॰—-—शुण्डायां सुरायामभिरतः अण्—अभिमान में चूर, घमण्डी
- शौण्ड—वि॰—-—शुण्डायां सुरायामभिरतः अण्—कुशल, दक्ष
- शौण्डिक—पुं॰—-—शुण्डा सुरा पण्यमस्य ठक्—शराब खींचने वाला, कलाल , शराब विक्रेता, सुराजीवी
- शौण्डिन्—पुं॰—-—शुण्डा सुरा पण्यमस्य इनि —शराब खींचने वाला, कलाल , शराब विक्रेता, सुराजीवी
- शौण्डिकी—स्त्री॰—-—-—कलाली, शराब विक्रेत्री
- शौण्डिनी—स्त्री॰—-—-—कलाली, शराब विक्रेत्री
- शौण्डिकेयः—पुं॰—-—शुण्डिका + ढक्—राक्षस
- शौण्डी —स्त्री॰—-—शुण्डा करिकरः तदाकारः अस्ति अस्याः - शुण्डा + अण् + ङीप्—गजपिप्पली, बड़ी पीपल
- शौण्डीर—वि॰—-—शुण्डा गर्वोऽस्ति अस्य-शुण्डा + ईरन् + अण्—घमण्डी, अभिमानी
- शौण्डीर—वि॰—-—शुण्डा गर्वोऽस्ति अस्य-शुण्डा + ईरन् + अण्—उत्तुङ्ग, उन्नत
- शौद्धोदनिः—पुं॰—-—शुद्धोदन + इञ्—बुद्ध का विशेषण, शुद्धोदन का पुत्र
- शौद्र—वि॰—-—शूद्र + अण्—शूद्र सम्बन्धी
- शौद्रः—पुं॰—-—-—शूद्रा स्त्री का पुत्र जिसका पिता (तीन वर्णो में से ) किसी भी वर्ण का हो
- शौनम्—नपुं॰—-—शूना + अण्—क़साईखाने में रक्खा हुआ मांस
- शौनकः—पुं॰—-—शुनक + अण्—एक महर्षि, ऋग्वेद प्रातिशाख्य तथा अन्य अनेक वैदिक रचनाओं के प्रणेता
- शौनिकः—पुं॰—-—शूना प्राणिवधस्थानं प्रयोजनमस्य ठक्—क़साई
- शौनिकः—पुं॰—-—शूना प्राणिवधस्थानं प्रयोजनमस्य ठक्—बहेलिया, चिड़ीमार
- शौनिकः—पुं॰—-—शूना प्राणिवधस्थानं प्रयोजनमस्य ठक्—शिकार, आखेट
- शौभः—पुं॰—-—शोभायै हितम्-शोभा + अण्—देवता, दिव्यता
- शौभः—पुं॰—-—शोभायै हितम्-शोभा + अण्—सुपारी का पेड़
- शौभाञ्जनः—पुं॰—-—शोभाञ्जन + अण्—एक वृक्ष का नाम
- शौभिकः—पुं॰—-—शौभं व्योमपुरं शिल्पमस्य-शौभ + ठक्—मदारी, बाजीगर
- शौभिकः—पुं॰—-—शौभं व्योमपुरं शिल्पमस्य-शौभ + ठक्—शिकारी, बहेलिया
- शौरसेनी—स्त्री॰—-—शूरसेन + अण् + ङीप्—एक प्रकार की प्राकृत बोली का नाम
- शौरिः—पुं॰—-—शूर + इञ्—कृष्ण या विष्णु
- शौरिः—पुं॰—-—शूर + इञ्—बलराम
- शौरिः—पुं॰—-—शूर + इञ्—शनिग्रह
- शौर्यम्—नपुं॰—-—शूरस्य भावः ष्यञ्—पराक्रम, शूरता, वीरता
- शौर्यम्—नपुं॰—-—शूरस्य भावः ष्यञ्—सामर्थ्य, शक्ति, ताक़त
- शौर्यम्—नपुं॰—-—शूरस्य भावः ष्यञ्—युद्ध और अतिप्राकृतिक घटनाओं का रंगमंच पर अभिनय करना
- शौल्कः—पुं॰—-—शुल्के तदादानेऽधिकृतः अण्—चुंगी का अधीक्षक, शुल्काधिकारी
- शौल्किकः—पुं॰—-—शुल्के तदादानेऽधिकृतः ठक्—चुंगी का अधीक्षक, शुल्काधिकारी
- शौल्विकः—पुं॰—-—शुल्व + ठक्—तांबें के बर्तन बनाने वाला, कसेरा
- शौल्बिकः—पुं॰—-—-—तांबें के बर्तन बनाने वाला, कसेरा
- शौव—वि॰—-—श्वन् + अण्, टिलोपः—कुत्तों से संबन्ध रखने वाला, कुक्कुरसंबंधी
- शौवम्—नपुं॰—-—-—कुत्तों का झुंड
- शौवम्—नपुं॰—-—-—कुत्तों का स्वभाव
- शौव—वि॰—-—-—आगामी कल संबन्धी
- शौवन—वि॰—-—श्वन् + अण् —कुक्कुर संबन्धी
- शौवन—वि॰—-—श्वन् + अण् —कुत्ते के गुणों से युक्त
- शौवनम्—नपुं॰—-—-—कुत्ते का स्वभाव
- शौवनम्—नपुं॰—-—-—कुत्ते की संतति
- शौवस्तिक—वि॰—-—श्वस् + ठक्, तुट् च—आगामी कल संबन्धी या आगामी कल तक ठहरने वाला, एकदिवसीय, अल्पजीवी
- शौष्कलः—पुं॰—-—शुष्कल् + अण्—मांस विक्रेता
- शौष्कलः—पुं॰—-—शुष्कल् + अण्—मांसभक्षी
- शौष्कलम्—नपुं॰—-—-—शुष्क मांस का मूल्य
- श्चुत्—भ्वा॰ पर॰—-—-—टपकना, रिसना, बहना, चूना
- श्चुत्—भ्वा॰ पर॰—-—-—ढालना, उडेलना, फैलाना, बखेरना
- श्च्युत्—भ्वा॰ पर॰ <श्च्योतति>—-—-—टपकना, रिसना, बहना, चूना
- श्च्युत्—भ्वा॰ पर॰ <श्च्योतति>—-—-—ढालना, उडेलना, फैलाना, बखेरना
- निश्च्युत्—भ्वा॰ पर॰—नि-श्च्युत्—-—बहना, रिसना, टपकना
- श्च्योतः—पुं॰—-—श्च्युत् + घञ्—रिसना, बहना, स्रवित होना, चूना
- श्चोतः—पुं॰—-—श्चुत् + घञ्—रिसना, बहना, स्रवित होना, चूना
- श्च्योतम्—नपुं॰—-—श्च्युत् + ल्युट्—रिसना, बहना, स्रवित होना, चूना
- श्चुतम्—नपुं॰—-—श्चुत् + ल्युट्—रिसना, बहना, स्रवित होना, चूना
- श्मशानम्—नपुं॰—-—श्मानः शयाः शेरतेऽत्र-शी + आनच्, डिच्च अथवा श्मन् शब्देन शवः प्रोक्त तस्य शानं शयनम्—शवस्थान, क़ब्रिस्तान, शवदाह स्थान, मरघट
- श्मशानाग्निः—पुं॰—श्मशानम्-अग्निः—-—मरघट की आग
- श्मशानालयः—पुं॰—श्मशानम्-आलयः—-—क़ब्रिस्तान
- श्मशानगोचर—वि॰—श्मशानम्-गोचर—-—मसान में घूमने वाला
- श्मशाननिवासिन्—पुं॰—श्मशानम्-निवासिन्—-—भूत
- श्मशानवर्तिन्—पुं॰—श्मशानम्-वर्तिन्—-—भूत
- श्मशानभाज्—पुं॰—श्मशानम्-भाज्—-—शिव के विशेषण
- श्मशानवासिन्—पुं॰—श्मशानम्-वासिन्—-—शिव के विशेषण
- श्मशानवेश्मन्—पुं॰—श्मशानम्-वेश्मन्—-—शिव के विशेषण
- श्मशानवेश्मन्—पुं॰—श्मशानम्-वेश्मन्—-—भूत-प्रेत
- श्मशानवैराग्यम्—नपुं॰—श्मशानम्-वैराग्यम्—-—क्षणिक विरक्ति, श्मशान भूमि के दर्शन से उत्पन्न अस्थायी संसार त्याग की भावना
- श्मशानशूलः—पुं॰—श्मशानम्-शूलः—-—श्मशान भूमि में स्थित लोहे या लकड़ी की सूली
- श्मशानसाधनम्—नपुं॰—श्मशानम्-साधनम्—-—भूत-प्रेतों को वश में करने के लिए श्मशान में तांत्रिक मन्त्रों की साधना करना
- श्मश्रु—नपुं॰—-—श्म पुं॰ मुखं श्रूयते लक्ष्यतेऽनेन-श्रु + डु—दाढ़ी-मूँछ
- श्मश्रुप्रवृद्धिः—पुं॰—श्मश्रु-प्रवृद्धिः—-—दाढ़ी का बढ़ना
- श्मश्रुमुखी—स्त्री॰—श्मश्रु-मुखी—-—दाढ़ीमूँछ वाली स्त्री
- श्मश्रुवर्धकः—पुं॰—श्मश्रु-वर्धकः—-—नाई
- श्मश्रुल—वि॰—-—श्मश्रु + लच्—दाढ़ी मूंछ वाला, श्मश्रुधारी
- श्मील्—भ्वा॰ पर॰ <श्मीलति>—-—-—आँख झपकना, पलक मारना, आँखे मटकना
- श्मीलनम्—नपुं॰—-—श्मील् + ल्युट्—आँख मीचना, पलक झपकना
- श्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्यै + क्त—गया हुआ
- श्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्यै + क्त—जमा हुआ, पिंडीभूत
- श्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्यै + क्त—घनीभूत, चिपकना, सांद्र
- श्यान—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्यै + क्त—सिकुड़ा हुआ, सूखा
- श्यानम्—नपुं॰—-—-—धूआँ
- श्याम—वि॰—-—श्यै + मक्—काला, गहरा नीला, काले रंग का
- श्याम—वि॰—-—श्यै + मक्—भूरा
- श्याम—वि॰—-—श्यै + मक्—गहरा-हरा
- श्यामः—पुं॰—-—-—काला रंग
- श्यामः—पुं॰—-—-—बादल
- श्यामः—पुं॰—-—-—कोयल
- श्यामः—पुं॰—-—-—प्रयाग में यमुना के किनारे स्थित बरगद का पेड़
- श्यामम्—नपुं॰—-—-—समुद्री नमक
- श्यामम्—नपुं॰—-—-—काली मिर्च
- श्यामाङ्ग—वि॰—श्याम्-अङ्ग—-—काला
- श्यामाङ्गः—पुं॰—श्याम्-अङ्गः—-—बुध ग्रह
- श्यामकण्ठः—पुं॰—श्याम्-कण्ठः—-—शिव (नीलकंठ) का विशेषण
- श्यामकण्ठः—पुं॰—श्याम्-कण्ठः—-—मोर
- श्यामकर्णः—पुं॰—श्याम्-कर्णः—-—अश्वमेध यज्ञ के उपयुक्त घोड़ा
- श्यामपत्रः—पुं॰—श्याम्-पत्रः—-—तमाल वृक्ष
- श्यामभास्—वि॰—श्याम्-भास्—-—चमकीला काला
- श्यामरुचि—वि॰—श्याम्-रुचि—-—चमकीला काला
- श्यामसुन्दरः—पुं॰—श्याम्-सुन्दरः—-—कृष्ण का विशेषण
- श्यामल—वि॰—-—श्याम + लच्, ला + क वा—काला, गहरीनीला, साँवला
- श्यामलः—पुं॰—-—-—काला रंग
- श्यामलः—पुं॰—-—-—काली मिर्च
- श्यामलः—पुं॰—-—-—भौंरा
- श्यामलः—पुं॰—-—-—बटवृक्ष
- श्यामलिका—स्त्री॰—-—श्यामल + कन् + टाप्, इत्वम्—नील का पौधा
- श्यामलिमन्—पुं॰—-—श्यामल + इमनिच्—कालिमा, कालापन
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—रात, विशेषतः काली रात
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—स्त्री विशेष
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—निस्सन्तान स्त्री
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—गाय
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—हल्दी
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—मादा कोयल
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—प्रियंगुलता
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—नील का पौधा
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—तुलसी का पौधा
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—कमल का बीज
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—युमना नदी
- श्यामा—स्त्री॰—-—श्याम + टाप्—कई पौधों का नाम
- श्यामाकः—पुं॰—-—श्याम + अक् + अण्—एक प्रकार का अन्न, धान्य, सावां चावल
- श्यामिका—स्त्री॰—-—श्याम + ठन् भावे—कालिमा, श्यामता
- श्यामिका—स्त्री॰—-—श्याम + ठन् भावे—मलिनता, ख़ोटापन (धातु आदिकों का)
- श्यामित—वि॰—-—श्याम + इतच्—काला किया हुआ, कृष्ण रंग का किया हुआ, कलूटा
- श्यालः—पुं॰—-—श्यै + कालन्—पत्नी का भाई, साला
- श्यालकः—पुं॰—-—श्याल + कन्—पत्नी का भाई
- श्यालकः—पुं॰—-—श्याल + कन्—साला
- श्यालकी—स्त्री॰—-—श्यालक + ङीप् + टाप्—पत्नी की बहन, साली
- श्यालिका—स्त्री॰—-—श्यालक + ङीप् + टाप् इत्वं —पत्नी की बहन, साली
- श्याली—स्त्री॰—-—श्याल + ङीष्—पत्नी की बहन, साली
- श्याव—वि॰—-—शयै + वन्—कपिश, गहरा भूरे रंग का, काला, धूसर, धुमैला
- श्याव—वि॰—-—शयै + वन्—लाख के रंग का, भूरा
- श्यावः—पुं॰—-—-—भूरा रंग
- श्यावतैलः—पुं॰—श्याव-तैलः—-—आम का वृक्ष
- श्येत—वि॰—-—श्यै + इतच्—सफेद
- श्येतः—पुं॰—-—-—श्वेत रंग
- श्येनः—पुं॰—-—श्यै + इनन्—सफेद रंग
- श्येनः—पुं॰—-—श्यै + इनन्—सफेदी
- श्येनः—पुं॰—-—श्यै + इनन्—बाज़, शिकरा
- श्येनः—पुं॰—-—श्यै + इनन्—हिंसा, प्रचण्डता
- श्येनकरणम्—नपुं॰—श्येनः-करणम्—-—अलग चिता पर दाह करना
- श्येनकरणम्—नपुं॰—श्येनः-करणम्—-—बाज़ की भांति झपट कर शीघ्रता से किसी काम में लगना
- श्येनकरणिका—स्त्री॰—श्येनः-करणिका—-—अलग चिता पर दाह करना
- श्येनकरणिका—स्त्री॰—श्येनः-करणिका—-—बाज़ की भांति झपट कर शीघ्रता से किसी काम में लगना
- श्येनचित्—पुं॰—श्येनः-चित्—-—बाज़ को पकड़ कर तथा उसे बेच कर ज़ीवन निर्वाह करने वाला
- श्येनजीविन्—पुं॰—श्येनः-जीविन्—-—बाज़ को पकड़ कर तथा उसे बेच कर ज़ीवन निर्वाह करने वाला
- श्यै—भ्वा॰ आ॰ <श्यायते>, <श्यान>, <शीत>, <शीन>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्यै—भ्वा॰ आ॰ <श्यायते>, <श्यान>, <शीत>, <शीन>—-—-—जम जाना
- श्यै—भ्वा॰ आ॰ <श्यायते>, <श्यान>, <शीत>, <शीन>—-—-—सूख जाना, कुम्हलाना
- आश्यै—भ्वा॰ आ॰—आ-श्यै—-—सूख जाना
- श्यैनम्पाता—स्त्री॰—-—श्येनस्य पातोऽत्र अण्, मुम् च—बाज़ की भांति झपटना, शिकार, आखेट
- श्योणाकः—पुं॰—-—श्यै + ओणाक—एक वृक्ष का नाम, सोना पाड़ा
- श्योनाकः—पुं॰—-—श्यै + ओनाक—एक वृक्ष का नाम, सोना पाड़ा
- श्रङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <श्रङ्कते>—-—-—जाना, रेंगना
- श्रङ्ग—भ्वा॰ पर॰ <श्रङ्गति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना, रेंगना
- श्रण्—भ्वा॰ आ॰ <श्रणति>, चुरा॰ उभ॰ <श्राणयति>, <श्राणयते>—-—-—देना, प्रदान करना, अर्पण करना
- श्रत्—अव्य॰—-—श्री + डति—एक प्रकार का उपसर्ग जो ‘धा’ धातु के पूर्व में लगता है
- अथ्—भ्वा॰ पर॰ <श्रथति>, क्र्या॰ पर॰ <श्रथ्नाति>—-—-—चोट पहुँचाना, क्षति पहुँचाना, मार डालना
- अथ्—भ्वा॰ पर॰ <श्रथति>, चुरा॰ उभ॰ <श्राथयति>, <श्राथयते>—-—-—चोट पहुँचाना, मार डालना
- अथ्—भ्वा॰ पर॰ <श्रथति>, चुरा॰ उभ॰ <श्राथयति>, <श्राथयते>—-—-—खोलना, ढीला करना, स्वतन्त्र करना, मुक्त करना
- अथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्रथयति>, <श्रथयते>—-—-—प्रयत्न करना, व्यस्त रहना
- अथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्रथयति>, <श्रथयते>—-—-—निर्बल होना, कमजोर होना
- अथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्रथयति>, <श्रथयते>—-—-—प्रसन्न होना
- श्रथनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—मारना, विनाश करना
- श्रथनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—खोलना, ढीला करना, मुक्त करना
- श्रथनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—प्रयत्न, चेष्टा
- श्रथनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—बांधना, बन्धन में डालना
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—आस्था, निष्ठा, विश्वास, भरोसा
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—दैवीसन्देशों में विश्वास, धार्मिक निष्ठा
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—शान्ति, मन की स्वस्थता
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—घनिष्ठता, परिचय
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—आदर, सम्मान
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—प्रबल या उत्कट इच्छा
- श्रद्धा—स्त्री॰—-—श्रत् + धा + अङ् + टाप्—दोहद, गर्भवती स्त्री की इच्छा
- श्रद्धालु—वि॰—-—श्रद्धा + आलुच्—विश्वास करने वाला, निष्ठावान्
- श्रद्धालु—वि॰—-—श्रद्धा + आलुच्—इच्छुक, (किसी वस्तु का) अभिलाषी
- श्रद्धालुः—स्त्री॰—-—-—दोहदवती, गर्भवती स्त्री जो किसी वस्तु की कामना करे
- श्रन्थ्—भ्वा॰ आ॰ <श्रन्थते>—-—-—दुर्बल होना
- श्रन्थ्—भ्वा॰ आ॰ <श्रन्थते>—-—-—निढाल या विश्रान्त होना
- श्रन्थ्—भ्वा॰ आ॰ <श्रन्थते>—-—-—ढीला करना, विश्राम करना
- श्रन्थ्—क्र्या॰ पर॰ <श्रथ्नाति>—-—-—ढीला करना, स्वतन्त्र करना मुक्त करना
- श्रन्थ्—क्र्या॰ पर॰ <श्रथ्नाति>—-—-—खूब प्रसन्न होना
- श्रन्थः—पुं॰—-—श्रन्थ् + घञ्—ढीला करना, स्वतन्त्र करना
- श्रन्थः—पुं॰—-—श्रन्थ् + घञ्—ढीलापन
- श्रन्थः—पुं॰—-—श्रन्थ् + घञ्—विष्णु
- श्रन्थनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—ढीला करना, खोलना
- श्रन्थनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—चोट पहुँचाना, मार डालना, विनाश करना
- श्रन्थनम्—नपुं॰—-—श्रथ् + ल्युट्—बाँधना, बन्धन में डालना
- श्रपणम्—नपुं॰—-—श्रा + णिच् + ल्युट्—उबलवाना, गरम करना
- श्रपित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रा + णिच् + क्त—गरम किया गया या उबलाया गया
- श्रपिता—स्त्री॰—-—-—माँड, कांजी
- श्रम्—दिवा॰ पर॰ <श्राम्यति>, <श्रान्त>—-—-—चेष्टा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना
- श्रम्—दिवा॰ पर॰ <श्राम्यति>, <श्रान्त>—-—-—तपश्चर्या करना, (तपस्या के द्वारा) इन्द्रियदमन करना
- श्रम्—दिवा॰ पर॰ <श्राम्यति>, <श्रान्त>—-—-—श्रान्त होना, थकना, परिश्रान्त होना
- श्रम्—दिवा॰ पर॰ <श्राम्यति>, <श्रान्त>—-—-—कष्टग्रस्त होना, दुःखी होना
- श्रम्—दिवा॰, प्रेर॰ <श्रमयति>, <श्रमयते>, <श्रामयति>, <श्रामयते>—-—-—थकाना
- परिश्रम्—दिवा॰ पर॰—परि-श्रम्—-—अत्यन्त थक जाना
- विश्रम्—दिवा॰ पर॰—वि-श्रम्—-—विश्राम करना, आराम करना, ठहराना
- विश्रम्—दिवा॰ पर॰—वि-श्रम्—-—थमना, अन्त होना
- विश्रम्—दिवा॰ पर॰—वि-श्रम्—-—उतरवाना, बसाना
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, प्रयत्न
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—थकावट, थकान, परिश्रान्ति
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—कष्ट, दुःख
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—तपस्या, साधना, इन्द्रियदमन
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम, क़वायद
- श्रमः—पुं॰—-—श्रम् + घञ्, न वृद्धिः—घोर अध्ययन
- श्रमाम्बु—नपुं॰—श्रमः-अम्बु—-—पसीना
- श्रमजलम्—नपुं॰—श्रमः-जलम्—-—पसीना
- श्रमकर्षित—वि॰—श्रमः-कर्षित—-—थका-मांदा
- श्रमसाध्य—वि॰—श्रमः-साध्य—-—परिश्रम द्वारा सम्पन्न होने योग्य, कष्टसाध्य
- श्रमण—वि॰—-—श्रम् + युच्—परिश्रमी, मेहनती
- श्रमण—पुं॰—-—श्रम् + युच्—बौद्धभिक्षु, जैन यति
- श्रमणा—स्त्री॰—-—-—भक्तिनी, भिक्षुणी
- श्रमणा—स्त्री॰—-—-—लावण्यमयी स्त्री
- श्रमणा—स्त्री॰—-—-—नीच जाति की स्त्री
- श्रमणा—स्त्री॰—-—-—बंगाली मजीठ
- श्रमणा—स्त्री॰—-—-—जटामांसी, बालछड़
- श्रमणी—स्त्री॰—-—-—भक्तिनी, भिक्षुणी
- श्रमणी—स्त्री॰—-—-—लावण्यमयी स्त्री
- श्रमणी—स्त्री॰—-—-—नीच जाति की स्त्री
- श्रमणी—स्त्री॰—-—-—बंगाली मजीठ
- श्रमणी—स्त्री॰—-—-—जटामांसी, बालछड़
- श्रम्भ्—भ्वा॰ आ॰ <श्रम्भते>, <श्रब्ध>—-—-—उपेक्षक होना, असावधान होना, लापरवाह होना
- श्रम्भ्—भ्वा॰ आ॰ <श्रम्भते>, <श्रब्ध>—-—-—गलती करना
- विश्रम्भ्—भ्वा॰ आ॰—वि-श्रम्भ्—-—विश्वास करना, भरोसा करना
- श्रयः—पुं॰—-—श्रि + अच्—शरण, पनाह, बचाव, आश्रय
- श्रयणम्—नपुं॰—-—श्रि + ल्युट्—शरण, पनाह, बचाव, आश्रय
- श्रवः—पुं॰—-—श्रु + अप्—सुनना
- श्रवः—पुं॰—-—श्रु + अप्—कान
- श्रवः—पुं॰—-—श्रु + अप्—किसी त्रिकोण का कर्ण
- श्रवणः—पुं॰—-—श्रु + ल्युट्—कान
- श्रवणः—पुं॰—-—श्रु + ल्युट्—किसी त्रिकोण का कर्ण
- श्रवणः—पुं॰—-—श्रु + ल्युट्—श्रवण नाम का नक्षत्र (जिसमें तीन तारे सम्मिलित है)
- श्रवणम्—नपुं॰—-—श्रु + ल्युट्—कान
- श्रवणम्—नपुं॰—-—श्रु + ल्युट्—किसी त्रिकोण का कर्ण
- श्रवणम्—नपुं॰—-—श्रु + ल्युट्—श्रवण नाम का नक्षत्र (जिसमें तीन तारे सम्मिलित है)
- श्रवणा—नपुं॰—-—-—श्रवण नाम का नक्षत्र (जिसमें तीन तारे सम्मिलित है)
- श्रवणम्—नपुं॰—-—-—सुनने की क्रिया
- श्रवणम्—नपुं॰—-—-—अध्ययन
- श्रवणम्—नपुं॰—-—-—ख्याति, कीर्ति
- श्रवणम्—नपुं॰—-—-—जो सुना गया या प्रकट हुआ
- श्रवणम्—नपुं॰—-—-—दौलत
- श्रवणेन्द्रियम्—नपुं॰—श्रवणः-इन्द्रियम्—-—श्रोवेंन्द्रिय, कान
- श्रवणोदरम्—नपुं॰—श्रवणः-उदरम्—-—कान का बाह्यविवर
- श्रवणगोचर—वि॰—श्रवणः-गोचर—-—श्रवणपरास के अन्तर्गत
- श्रवणगोचरः—पुं॰—श्रवणः-गोचरः—-—सुनाई देने की सीमा तक
- श्रवणविषयः—पुं॰—श्रवणः-विषयः—-—कान की पहुँच, श्रवण परास
- श्रवणपालिः—स्त्री॰—श्रवणः-पालिः—-—कान का सिरा
- श्रवणपाली—स्त्री॰—श्रवणः-पाली—-—कान का सिरा
- श्रवणसुभग—वि॰—श्रवणः-सुभग—-—कर्णसुखद
- श्रवस्—नपुं॰—-—श्रु + असि—कान
- श्रवस्—नपुं॰—-—श्रु + असि—ख्याति कीर्ति
- श्रवस्—नपुं॰—-—श्रु + असि—दौलत
- श्रवस्—नपुं॰—-—श्रु + असि—सूक्त
- श्रवस्यम्—नपुं॰—-—श्रवस् + यत्—ख्याति, कीर्ति, विश्रुति
- श्रवाप्यः—पुं॰—-—-—यज्ञ में बलि दिये जाने के योग्य पशु
- श्रवाय्यः—पुं॰—-—श्रु + आय्य—यज्ञ में बलि दिये जाने के योग्य पशु
- श्रविष्ठा—स्त्री॰—-—श्रवः ख्यातिः अस्ति अस्याः श्रव + मतुप्, इष्ठनि मतुबो लुक्—घनिष्ठा नाम का नक्षत्र
- श्रविष्ठा—स्त्री॰—-—श्रवः ख्यातिः अस्ति अस्याः श्रव + मतुप्, इष्ठनि मतुबो लुक्—श्रवणा नाम का नक्षत्र
- श्रविष्ठाजः—पुं॰—श्रविष्ठा-जः—-—बुधग्रह
- श्रा—अदा॰ पर॰ <श्राति>, <श्राण>, <शृत> प्रेर॰ <श्रपयति>, <श्रपयते>—-—-—पकाना, उबालना, भोजन बनाना, परिपक्व करना, पकना
- श्राण—वि॰—-—श्रा + क्त—पकाया हुआ, भोजन बनाया हुआ, उबाला हुआ
- श्राण—वि॰—-—श्रा + क्त—आर्द्र, गीला, तर
- श्राणा—स्त्री॰—-—श्राण + टाप्—कांजी, यवागू
- श्राद्ध—वि॰—-—श्रद्धा हेतुत्वेनास्त्यस्य अण्—निष्ठावान्, विश्वास करने वाला
- श्राद्धम्—नपुं॰—-—-—मृतक सम्बन्धियों की दिवङ्गत आत्माओं के सम्मान में अनुष्ठेय संस्कार, अन्त्येष्टि संस्कार
- श्राद्धम्—नपुं॰—-—-—और्ध्वदैहिक आहुति, श्राद्ध के अवसर पर उपहार या भेंट
- श्राद्धकर्मन्—नपुं॰—श्राद्ध-कर्मन्—-—अन्त्येष्टि संस्कार
- श्राद्धक्रिया—नपुं॰—श्राद्ध-क्रिया—-—अन्त्येष्टि संस्कार
- श्राद्धकृत्—पुं॰—श्राद्ध-कृत्—-—अन्त्येष्टि संस्कार करने वाला
- श्राद्धदः—पुं॰—श्राद्ध-दः—-—अन्त्येष्टि संस्कार आहुति या श्राद्ध भेंट करने वाला
- श्राद्धदिनः—पुं॰—श्राद्ध-दिनः—-—उस स्वर्गीय सम्बन्धी की बरसी जिसके सम्मान में श्राद्ध किया जाय
- श्राद्धदिनम्—नपुं॰—श्राद्ध-दिनम्—-—उस स्वर्गीय सम्बन्धी की बरसी जिसके सम्मान में श्राद्ध किया जाय
- श्राद्धदेवः—पुं॰—श्राद्ध-देवः—-—अन्त्येष्टि संस्कार की अधिष्ठात्री देवता
- श्राद्धदेवः—पुं॰—श्राद्ध-देवः—-—यम का विशेषण
- श्राद्धदेवः—पुं॰—श्राद्ध-देवः—-—विश्वदेव
- श्राद्धदेवः—पुं॰—श्राद्ध-देवः—-—पिता, प्रजनक
- श्राद्धदेवता—स्त्री॰—श्राद्ध-देवता—-—अन्त्येष्टि संस्कार की अधिष्ठात्री देवता
- श्राद्धदेवता—स्त्री॰—श्राद्ध-देवता—-—यम का विशेषण
- श्राद्धदेवता—स्त्री॰—श्राद्ध-देवता—-—विश्वदेव
- श्राद्धदेवता—स्त्री॰—श्राद्ध-देवता—-—पिता, प्रजनक
- श्राद्धभुज्—पुं॰—श्राद्ध-भुज्—-—दिवङ्गत, पूर्व पुरुष
- श्राद्धभोक्तृ—पुं॰—श्राद्ध-भोक्तृ—-—दिवङ्गत, पूर्व पुरुष
- श्राद्धिक—वि॰—-—श्राद्धेयं, श्राद्धं तद्द्रव्यं भक्ष्यत्वेनास्त्यस्य वा ठन्—श्राद्ध सम्बन्धी और्ध्व दैहिक भेंट को स्वीकार करने वाला
- श्राद्धिकम्—नपुं॰—-—-—श्राद्ध के अवसर पर दिया गया उपहार
- श्राद्धीय—वि॰—-—श्राद्ध + छ—श्राद्ध सम्बन्धी
- श्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रम् + क्त—थका हुआ, थकामांदा, क्लान्त, परिश्रांत
- श्रान्त—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रम् + क्त—शान्त, सौम्य
- श्रान्तः—पुं॰—-—-—संन्यासी
- श्रान्तिः—स्त्री॰—-—श्रम् + क्तिन्—क्लान्ति, परिश्रान्ति, थकावट
- श्रामः—पुं॰—-—श्राम् + अच्—मास
- श्रामः—पुं॰—-—श्राम् + अच्—समय
- श्रामः—पुं॰—-—श्राम् + अच्—अस्थायी छाजन
- श्रायः—पुं॰—-—श्रि + घञ्—आश्रय, बचाव, शरण, सहारा
- श्रावः—पुं॰—-—श्रु + घञ्—सुनना, कान देना
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—श्रोता
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—छात्र, शिष्य
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—बौद्धभिक्षु, बौद्ध सन्त, महात्मा
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—बौद्ध भक्त
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—पाखण्डी
- श्रावकः—पुं॰—-—श्रु + ण्वुल्—कौवा
- श्रावण—वि॰—-—श्रवण + अण्—कान सम्बन्धी
- श्रावण—वि॰—-—श्रवण + अण्—श्रवण नक्षत्र में उत्पन्न
- श्रावणः—पुं॰—-—-—सावन का महीना, (जूलाई-अगस्त में आने वाला)
- श्रावणः—पुं॰—-—-—पाखण्डी
- श्रावणः—पुं॰—-—-—छद्मवेशी
- श्रावणः—पुं॰—-—-—एक वैश्य संन्यासी
- श्रावणिक—वि॰—-—श्रावण + ठक्—श्रावण मास सम्बन्धी
- श्रावणिकः—पुं॰—-—-—सावन का महीना
- श्रावणी—स्त्री॰—-—श्रावणेन नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी-श्रवण + अण् + ङीप्—श्रावण मास की पूर्णिमा
- श्रावणी—स्त्री॰—-—श्रावणेन नक्षत्रेण युक्ता पौर्णमासी-श्रवण + अण् + ङीप्—एक वार्षिक पर्व जिस दिन यज्ञोपवीत वदले जायँ, सलोनों , रक्षाबन्धन
- श्रावस्तिः—स्त्री॰ —-—-—गंगा नदी के उत्तर में राजा श्रावस्त द्वारा स्थापित एक नगर
- श्रावस्ती—स्त्री॰ —-—-—गंगा नदी के उत्तर में राजा श्रावस्त द्वारा स्थापित एक नगर
- श्रावित—वि॰—-—श्रु + णिच् + क्त—कहा हुआ, सुनाया गया, वर्णन किया गया
- श्राव्य—वि॰—-—श्रु + णिच् + यत्—सुने जाने के योग्य
- श्राव्य—वि॰—-—श्रु + णिच् + यत्—जो सुना जा सके, स्पष्ट
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—जाना, पहुँचाना, सहारा लेना, दौड़ होना, बचाव के लिए पहुँच होना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—जाना, पहुँचाना, भुगतना, (अवस्था)धारण करना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—चिपकना, झुकना, आश्रित होना, निर्भर रहना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—निवास करना, बसना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—सम्मान करना, सेवा करना, पूजा करना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—सेवन करना काम पर लगाना
- श्रि—भ्वा॰ उभ॰ <श्रयति>, <श्रयते>, <श्रितः>,प्रेर॰ <श्राययति>, <श्राययते> इच्छा॰ <शिश्रीषति>, <शिश्रीषते>, <शिश्रयिषति>, <शिश्रयिषते>—-—-—संलग्न करना, अनुषक्त होना
- अभिश्रि—भ्वा॰ उभ॰—अभि-श्रि—-—निवास करना
- अभिश्रि—भ्वा॰ उभ॰—अभि-श्रि—-—सवारी करना, चढ़ना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—सहारा लेना, आश्रय लेना, अवलम्ब होना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—अनुगमन करना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—शरण लेना, निवास करना, बसना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—आश्रित होना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—पार जाना, अनुभव प्राप्त करना, भुगतना, धारण करना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—जमे रहना, डटे रहना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—चुनना, छांटना, पसन्द करना
- आश्रि—भ्वा॰ उभ॰—आ-श्रि—-—सहायता करना, मदद करना
- उच्छ्रि—भ्वा॰ उभ॰—उद्-श्रि—-—ऊपर उठाना, उन्नत करना, ऊँचा करना
- उपाश्रि—भ्वा॰ उभ॰—उपा-श्रि—-—पहुँच या अवलम्ब होना
- संश्रि—भ्वा॰ उभ॰—सम्-श्रि—-—पहुँच होना, सहारा होना, शरण में जाना, सहायता के लिए पहुँचना
- संश्रि—भ्वा॰ उभ॰—सम्-श्रि—-—अवलम्बित होना, आश्रित होना
- संश्रि—भ्वा॰ उभ॰—सम्-श्रि—-—हासिल करना, प्राप्त करना
- संश्रि—भ्वा॰ उभ॰—सम्-श्रि—-—अभिगमन करना, संभोग के लिए पहुँचना
- संश्रि—भ्वा॰ उभ॰—सम्-श्रि—-—सेवा करना
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—गया हुआ, पहुँचा हुआ, शरण में पहुँचा हुआ
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—चिपका हुआ, सहारा लिया हुआ, बैठा हुआ
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—संयुक्त, सम्मिलित, संबद्ध
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—बचाया हुआ
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—सम्मानित, सेवित
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—अनुसेवी, सहकारी
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—आच्छादित, बिछाया हुआ
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—युक्त, पूंरित
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—समवेत, एकत्रित
- श्रित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रि + क्त—सहित, संपन्न
- श्रितिः—स्त्री॰—-—श्रि + क्तिन्—अवलम्व, सहारा, पहुँच
- श्रियम्मन्य—वि॰—-—-—अपने आप को योग्य मानने वाला
- श्रियम्मन्य—वि॰—-—-—घमंडी
- श्रियापतिः—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- श्रिष्—भ्वा॰ पर॰ <श्रषति>—-—-—जलाना
- श्री—क्र्या॰ उभ॰ <श्रीणाति>, <श्रीणीते>—-—-—पकाना, भोजन बनाना, उबालना, तैयार करना
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—धन, दौलत, प्राचुर्य, समृद्धि, पुष्कलता
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—राजसत्ता, ऐश्वर्य, राजकीय धनदौलत
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—गौरव महिमा, प्रतिष्ठा
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—सौन्दर्य, चारुता, लालित्य
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—रंग, रूप
- श्री—स्त्री॰—-—श्रि + क्विप्, नि॰—विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जो धन की देवी है
- श्री—स्त्री॰—-—-—गुण, श्रेष्ठता
- श्री—स्त्री॰—-—-—सजावट
- श्री—स्त्री॰—-—-—बुद्धि, समझ
- श्री—स्त्री॰—-—-—अतिमानव शक्ति
- श्री—स्त्री॰—-—-—मानवजीवन के तीन उद्देश्यों की समष्टि (धर्म, अर्थ और काम)
- श्री—स्त्री॰—-—-—सरल वृक्ष
- श्री—स्त्री॰—-—-—बेल का पेड़
- श्री—स्त्री॰—-—-—हींग
- श्री—स्त्री॰—-—-—कमल
- श्रीह्वाम्—नपुं॰—श्री-आह्वम्—-—कमल
- श्रीशः—पुं॰—श्री-ईशः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीकण्ठः—पुं॰—श्री-कण्ठः—-—शिव का विशेषण
- श्रीकण्ठः—पुं॰—श्री-कण्ठः—-—भवभूति कवि का विशेषण
- श्रीसखः—पुं॰—श्री-सखः—-—कुबेर का विशेषण
- श्रीकरः—पुं॰—श्री-करः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीकरम्—नपुं॰—श्री-करम्—-—लाल कमल
- श्रीकरणम्—नपुं॰—श्री-करणम्—-—लेखनी
- श्रीकान्तः—पुं॰—श्री-कान्तः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीकारिन्—पुं॰—श्री-कारिन्—-—एक प्रकार का बारहसिंगा
- श्रीखण्डः—पुं॰—श्री-खण्डः—-—चन्दन की लकड़ी
- श्रीगदितम्—नपुं॰—श्री-गदितम्—-—एक प्रकार का छोटा नाटक
- श्रीगर्भः—पुं॰—श्री-गर्भः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीगर्भः—पुं॰—श्री-गर्भः—-—तलवार
- श्रीग्रहः—पुं॰—श्री-ग्रहः—-—पक्षियों को पानी पिलाने की कुण्डी
- श्रीधनम्—नपुं॰—श्री-धनम्—-—खट्टी दही
- श्रीधनः—पुं॰—श्री-धनः—-—बौद्ध महात्मा
- श्रीचक्रम्—नपुं॰—श्री-चक्रम्—-—भूवृत्त, भूमण्डल
- श्रीचक्रम्—नपुं॰—श्री-चक्रम्—-—इन्द्र के रथ का पहिया
- श्रीजः—पुं॰—श्री-जः—-—काम का विशेषण
- श्रीदः—पुं॰—श्री-दः—-—कुबेर का विशेषण
- श्रीदयितः—पुं॰—श्री-दयितः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीधरः—पुं॰—श्री-धरः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीनगरम्—नपुं॰—श्री-नगरम्—-—एक नगर का नाम
- श्रीनन्दनः—पुं॰—श्री-नन्दनः—-—राम का विशेषण
- श्रीनिकेतन—पुं॰—श्री-निकेतनः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीनिवासः—पुं॰—श्री-निवासः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीपतिः—पुं॰—श्री-पतिः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीपतिः—पुं॰—श्री-पतिः—-—राजा, प्रभु
- श्रीपथः—पुं॰—श्री-पथः—-—मुख्य सड़क, राजमार्ग
- श्रीपर्णम्—नपुं॰—श्री-पर्णम्—-—कमल
- श्रीपर्वतः—पुं॰—श्री-पर्वतः—-—एक पहाड़ का नाम
- श्रीपिष्टः—पुं॰—श्री-पिष्टः—-—तारपीन
- श्रीपुष्पम्—नपुं॰—श्री-पुष्पम्—-—लौंग
- श्रीफलः—पुं॰—श्री-फलः—-—बेल का पेड़
- श्रीफलम्—नपुं॰—श्री-फलम्—-—बेल का फल
- श्रीफला—स्त्री॰—श्री-फला—-—नील का पौधा
- श्रीफला—स्त्री॰—श्री-फला—-—आमलकी, आँवला
- श्रीभ्रातृ—पुं॰—श्री-भ्रातृ—-—चाँद
- श्रीभ्रातृ—पुं॰—श्री-भ्रातृ—-—घोड़ा
- श्रीमस्तकः—पुं॰—श्री-मस्तकः—-—लहसुन
- श्रीमुद्रा—स्त्री॰—श्री-मुद्रा—-—वैष्णवों का विशेष तिलक जो मस्तक पर लगाया जाता है
- श्रीमूर्तिः—स्त्री॰—श्री-मूर्तिः—-—विष्णु या लक्ष्मी की प्रतिमा
- श्रीमूर्तिः—स्त्री॰—श्री-मूर्तिः—-—कोई भी प्रतिमा
- श्रीयुक्त—वि॰—श्री-युक्त—-—सौभाग्यशाली, प्रसन्न
- श्रीयुक्त—वि॰—श्री-युक्त—-—धनवान्, समृद्धिशाली
- श्रीयुत—वि॰—श्री-युत—-—सौभाग्यशाली, प्रसन्न
- श्रीयुत—वि॰—श्री-युत—-—धनवान्, समृद्धिशाली
- श्रीरङ्गः—पुं॰—श्री-रङ्गः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीरसः—पुं॰—श्री-रसः—-—तारपीन
- श्रीरसः—पुं॰—श्री-रसः—-—राल
- श्रीवत्सः—पुं॰—श्री-वत्सः—-—विष्णु का विशेषण, विष्णु की छाती पर बालों का घूंघर या चिह्नविशेष
- श्रीङ्कः—पुं॰—श्री-अङ्कः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीधारिन्—पुं॰—श्री-धारिन्—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीभृत्—पुं॰—श्री-भृत्—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीलक्ष्मन्—पुं॰—श्री-लक्ष्मन्—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीलाञ्छन—पुं॰—श्री-लाञ्छन—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीवत्सकिन्—पुं॰—श्री-वत्सकिन्—-—एक घोड़ा जिसकी छाती पर बालों का घूंघर होता है
- श्रीवरः—पुं॰—श्री-वरः—-—विष्णु के विशेषण
- श्रीवल्लभः—पुं॰—श्री-वल्लभः—-—लक्ष्मी का प्रिय, सौभाग्यशाली या सुखी व्यक्ति
- श्रीवासः—पुं॰—श्री-वासः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीवासः—पुं॰—श्री-वासः—-—शिव का विशेषण
- श्रीवासः—पुं॰—श्री-वासः—-—कमल
- श्रीवासः—पुं॰—श्री-वासः—-—तारपीन
- श्रीवासस्—पुं॰—श्री-वासस्—-—तारपीन
- श्रीवृक्षः—पुं॰—श्री-वृक्षः—-—बेल का पेड़
- श्रीवृक्षः—पुं॰—श्री-वृक्षः—-—अश्वत्थवृक्ष
- श्रीवृक्षः—पुं॰—श्री-वृक्षः—-—घोड़े के मस्तक औरछाती पर बालों का घूंघर
- श्रीवेष्टः—पुं॰—श्री-वेष्टः—-—तारपीन
- श्रीवेष्टः—पुं॰—श्री-वेष्टः—-—राल
- श्रीसंज्ञम्—नपुं॰—श्री-संज्ञम्—-—लौंग
- श्रीसहोदरः—पुं॰—श्री-सहोदरः—-—चन्द्रमा
- श्रीसूक्तम्—नपुं॰—श्री-सूक्तम्—-—एक वैदिक सूक्त का नाम
- श्रीहरिः—पुं॰—श्री-हरिः—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीहस्तिनी—स्त्री॰—श्री-हस्तिनी—-—सूर्यमुखी फूल का पौधा
- श्रीमत्—वि॰—-—श्री + मतुप्—दौलतमन्द, धनवान्
- श्रीमत्—वि॰—-—श्री + मतुप्—सुखी, सौभाग्यशाली, समृद्धिशाली, फलता-फूलता
- श्रीमत्—वि॰—-—श्री + मतुप्—सुन्दर, सुहावना, सुखद
- श्रीमत्—वि॰—-—श्री + मतुप्—विख्यात, प्रसिद्ध, कीर्तिशाली, प्रतिष्ठित
- श्रीमत्—पुं॰—-—-—विष्णु का विशेषण
- श्रीमत्—पुं॰—-—-—कुबेर का विशेषण
- श्रीमत्—पुं॰—-—-—शिव का विशेषण
- श्रीमत्—पुं॰—-—-—तिलक वृक्ष
- श्रीमत्—पुं॰—-—-—अश्वत्थ वृक्ष
- श्रील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य लच्—धनवान्, दौलतमन्द
- श्रील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य लच्—सौभाग्यशाली, समृद्धिशाली
- श्रील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य लच्—सुन्दर
- श्रील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य लच्—विख्यात, प्रसिद्ध
- श्रु—भ्वा॰ पर॰ <श्रवति>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्रु—स्वा॰ पर॰ <शृणोति>, <श्रुत>—-—-—सुनना, (ध्यानपूर्वक) श्रवण करना, कान देना
- श्रु—स्वा॰ पर॰ <शृणोति>, <श्रुत>—-—-—अधिगम करना, अध्ययन करना
- श्रु—स्वा॰ पर॰ <शृणोति>, <श्रुत>—-—-—सावधान होना, आज्ञामानना
- श्रु—स्वा॰ उभ॰, प्रेर॰ <श्रावयति>, <श्रावयते>—-—-—सुनवाना, समाचार देना, कहना बयान करना
- श्रु—स्वा॰ आ॰, इच्छा॰ <शुश्रूषते>—-—-—सुनने की इच्छा करना
- श्रु—स्वा॰ आ॰, इच्छा॰ <शुश्रूषते>—-—-—सावधान होना, आज्ञाकारी होना, हुक्म मानना
- श्रु—स्वा॰ आ॰, इच्छा॰ <शुश्रूषते>—-—-—सेवा करना, सेवा में उपस्थित रहना
- अनुश्रु—स्वा॰ पर॰—अनु-श्रु—-—सुनना
- अनुश्रु—स्वा॰ पर॰—अनु-श्रु—-—गुरुपरम्परा से प्राप्त
- अभिश्रु—स्वा॰ पर॰—अभि-श्रु—-—सुनना
- अभिश्रु—स्वा॰ पर॰—अभि-श्रु—-—ध्यान देकर सुनना
- आश्रु—स्वा॰ पर॰—आ-श्रु—-—सुनना
- आश्रु—स्वा॰ पर॰—आ-श्रु—-—प्रतिज्ञा करना
- उपश्रु—स्वा॰ पर॰—उप-श्रु—-—सुनना
- उपश्रु—स्वा॰ पर॰—उप-श्रु—-—जाना, निश्चय करना
- परिश्रु—स्वा॰ पर॰—परि-श्रु—-—सुनना
- परिश्रु—स्वा॰ पर॰—परि-श्रु—-—प्रतिज्ञा करना
- विश्रु—स्वा॰ पर॰—वि-श्रु—-—सुनना
- संश्रु—स्वा॰ पर॰—सम्-श्रु—-—सुनना, ध्यान लगा कर सुनना
- श्रुघ्निका—स्त्री॰—-—-—शोरा, सज्जी, खार
- श्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रु + क्त—सुना हुआ, ध्यान लगा कर श्रवण किया हुआ
- श्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रु + क्त—वर्णित, कर्णगोचर
- श्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रु + क्त—अधिगत, निर्धारित, समझा गया
- श्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रु + क्त—सुज्ञात, प्रसिद्ध, विख्यात, विश्रुत
- श्रुत—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्रु + क्त—नामक, पुकारा हुआ
- श्रुतम्—नपुं॰—-—-—सुनने का विषय
- श्रुतम्—नपुं॰—-—-—जो दैवी संदेश से सुना गया, अर्थात् वेद, पवित्र अधिगम, पुनीत ज्ञान
- श्रुतम्—नपुं॰—-—-—सामान्य अधिगम, विद्या
- श्रुताध्ययनम्—नपुं॰—श्रुतम्-अध्ययनम्—-—वेदों का पढ़ना
- श्रुतान्वित—वि॰—श्रुतम्-अन्वित—-—वेदों का ज्ञाता
- श्रुतार्थः—पुं॰—श्रुतम्-अर्थः—-—मौख़िक रूप से या ज़बानी कहा गया तथ्य
- श्रुतकीर्ति—वि॰—श्रुतम्-कीर्ति—-—प्रसिद्ध, विश्रुत
- श्रुतकीर्ति—पुं॰—श्रुतम्-कीर्ति—-—उदार व्यक्ति
- श्रुतकीर्ति—पुं॰—श्रुतम्-कीर्ति—-—दिव्य ऋषि
- श्रुतकीर्ति—स्त्री॰—श्रुतम्-कीर्ति—-—शत्रुघ्न की पत्नी
- श्रुतदेवी—स्त्री॰—श्रुतम्-देवी—-—सरस्वती
- श्रुतधर—वि॰—श्रुतम्-धर—-—सुनी हुई बात को याद रखने वाला, मेधावी
- श्रुतवत्—वि॰—-—श्रुत + मतुप्—वेदज्ञाता, वेदवेत्ता, वेदज्ञ
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—सुनना
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—कान
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—विवरण, अफ़वाह, समाचार, मौखिक संवाद
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—ध्वनि
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—वेद
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—वैदिकपाठ वेदमंत्र
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—वेदज्ञान, पुनीतज्ञान, पुण्य अधिगम
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—(संगीत में) सप्तक का प्रभाव, स्वर का चतुर्थाश या अन्तराल
- श्रुतिः—स्त्री॰—-—श्रु + क्तिन्—श्रवण नक्षत्र
- श्रुत्यनुप्रासः—पुं॰—श्रुतिः-अनुप्रासः—-—अनुप्रास का एक भेद
- श्रुत्युक्त—वि॰—श्रुतिः-उक्त—-—वेदविहित
- श्रुत्युदित—वि॰—श्रुतिः-उदित—-—वेदविहित
- श्रुतिकटः—पुं॰—श्रुतिः-कटः—-—साँप
- श्रुतिकटः—पुं॰—श्रुतिः-कटः—-—तपश्यर्या, प्रायश्चित्त साधना
- श्रुतिकटु—वि॰—श्रुतिः-कटु—-—सुनने में कड़वा
- श्रुतिकटुः—पुं॰—श्रुतिः-कटुः—-—कर्णकटु, अमधुर ध्वनि (यह रचना का एक दोष माना जाता है)
- श्रुतिचोदनम्—नपुं॰—श्रुतिः-चोदनम्—-—शास्त्रीय विधि, वेदविधि
- श्रुतिचोदना—स्त्री॰—श्रुतिः-चोदना—-—शास्त्रीय विधि, वेदविधि
- श्रुतिजीविका—स्त्री॰—श्रुतिः-जीविका—-—धर्मशास्त्र, विधिसंहिता
- श्रुतिद्वैधम्—नपुं॰—श्रुतिः-द्वैधम्—-—वेदविधियों का परस्पर विरोध या निष्क्रमता
- श्रुतिधर—वि॰—श्रुतिः-धर—-—सुननेवाला
- श्रुतिनिदर्शनम्—नपुं॰—श्रुतिः-निदर्शनम्—-—वेदों का साक्ष्य
- श्रुतिपथः—पुं॰—श्रुतिः-पथः—-—कर्ण-परास
- श्रुतिप्रसादन—वि॰—श्रुतिः-प्रसादन—-—कर्णप्रिय
- श्रुतिप्रामाण्यम्—नपुं॰—श्रुतिः-प्रामाण्यम्—-—वेदों की प्रामाणिकता या स्वीकृत
- श्रुतिमण्डलम्—नपुं॰—श्रुतिः-मण्डलम्—-—कान का बाहरी भाग
- श्रुतिमूलम्—नपुं॰—श्रुतिः-मूलम्—-—कान की जड़
- श्रुतिमूलम्—नपुं॰—श्रुतिः-मूलम्—-—वेद का संहितापाठ
- श्रुतिमूलक—वि॰—श्रुतिः-मूलक—-—वेद पर आधारित
- श्रुतिविषयः—पुं॰—श्रुतिः-विषयः—-—सुनने का विषय, अर्थात् ध्वनि
- श्रुतिविषयः—पुं॰—श्रुतिः-विषयः—-—कर्ण परास
- श्रुतिविषयः—पुं॰—श्रुतिः-विषयः—-—वेद का विषय
- श्रुतिविषयः—पुं॰—श्रुतिः-विषयः—-—धार्मिक अध्यादेश
- श्रुतिवेधः—पुं॰—श्रुतिः-वेधः—-—कान बींधना
- श्रुतिस्मृति—स्त्री॰ द्वि॰ व॰—श्रुतिः-स्मृति—-—वेद और धर्मशास्त्र
- श्रुवः—पुं॰—-—श्रु + क—यज्ञ
- श्रुवः—पुं॰—-—श्रु + क—यज्ञीय स्रुवा
- श्रुवा—पुं॰—-—श्रुव + टाप्—यज्ञीय चमष
- श्रुवावृक्षः—पुं॰—श्रुवा-वृक्षः—-—विकंटक वृक्ष
- श्रेढी—स्त्री॰—-—श्रेण्यै राशीकरणाय ढौकते-श्रेणी + ढौक् + ड, पृषो॰— भिन्न जातीय द्रव्यों को मिलाने के लिए गणनांग भेद
- श्रेढीफल—वि॰—श्रेढी-फल—-—श्रेढ़ी क योग जोड़
- श्रेणि—पुं॰, स्त्री॰—-—श्रि + णि—रेखा, शृंखला, पंक्ति
- श्रेणि—पुं॰, स्त्री॰—-—श्रि + णि—दल, संचय, समह
- श्रेणि—पुं॰, स्त्री॰—-—श्रि + णि—व्यापारियों का संघ, शिल्पियों का संघटन, निगम
- श्रेणि—पुं॰, स्त्री॰—-—श्रि + णि—बोक्का, वालटी
- श्रेणी—स्त्री॰—-—श्रि + णि + ङीप्—रेखा, शृंखला, पंक्ति
- श्रेणी—स्त्री॰—-—श्रि + णि + ङीप्—दल, संचय, समह
- श्रेणी—स्त्री॰—-—श्रि + णि + ङीप्—व्यापारियों का संघ, शिल्पियों का संघटन, निगम
- श्रेणी—स्त्री॰—-—श्रि + णि + ङीप्—बोक्का, वालटी
- श्रेणिधर्माः—पुं॰, ब॰ व॰—श्रेणि-धर्माः—-—व्यापारिवर्ग या शिल्पकार-संघों के नियम, रीतियाँ आदि
- श्रेणिका—स्त्री॰—-—श्रेणि + कन् + टाप्—तम्बू, खेमा
- श्रेयस्—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यम्-ईयसुन्, श्रादेशः—अपेक्षाकृत अच्छा, वरीयम्, श्रीष्ठतर
- श्रेयस्—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यम्-ईयसुन्, श्रादेशः—सर्वोत्तम, श्रेष्ठतम
- श्रेयस्—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यम्-ईयसुन्, श्रादेशः—अधिक सुखी या सौभाग्यशाली
- श्रेयस्—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यम्-ईयसुन्, श्रादेशः—अधिक आनन्ददायक, प्रियतर
- श्रेयस्—पुं॰—-—-—सद्गुण, पुण्यकर्म, नैतिक गुण, धार्मिक गुण
- श्रेयस्—पुं॰—-—-—आनन्द, सौभाग्य, मंगल, शुभ, कल्याण, आशीर्वाद, शुभ परिणाम
- श्रेयस्—पुं॰—-—-—शुभ अवसर
- श्रेयस्—पुं॰—-—-—मोक्ष, मुक्ति
- श्रेयोऽर्थिन्—वि॰—श्रेयस्-अर्थिन्—-—आनन्द का अन्वेषक, आनन्द का इच्छुक
- श्रेयोऽर्थिन्—वि॰—श्रेयस्-अर्थिन्—-—हितैषी
- श्रेयस्कर—वि॰—श्रेयस्-कर—-—आनन्दप्रद, अनुकूल
- श्रेयस्कर—वि॰—श्रेयस्-कर—-—मंगलमय, शुभ
- श्रेयःपरिश्रमः—पुं॰—श्रेयस्-परिश्रमः—-—मुक्ति प्राप्त करने की चेष्टा
- श्रेष्ठ—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यः, इष्ठन्, श्रादेशः—सर्वोत्तम, अत्यन्त श्रेष्ठ, प्रमुखतम
- श्रेष्ठ—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यः, इष्ठन्, श्रादेशः—अत्यन्त प्रसन्न या समृद्ध
- श्रेष्ठ—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यः, इष्ठन्, श्रादेशः—प्रियतम, अत्यन्त प्रिय
- श्रेष्ठ—वि॰—-—अतिशयेन प्रशस्यः, इष्ठन्, श्रादेशः—सबसे अधिक पुराना, वृद्धतम
- श्रेष्ठः—पुं॰—-—-—ब्राह्मण
- श्रेष्ठः—पुं॰—-—-—राजा
- श्रेष्ठः—पुं॰—-—-—कुबेर का नाम
- श्रेष्ठः—पुं॰—-—-—विष्णु का नाम
- श्रेष्ठम्—नपुं॰—-—-—गाय का दूध
- श्रेष्ठाश्रमः—पुं॰—श्रेष्ठ-आश्रमः—-—मनुष्य के धार्मिक जीवन का सर्वोत्तम आश्रम अर्थात् गृहस्थाश्रम
- श्रेष्ठाश्रमः—पुं॰—श्रेष्ठ-आश्रमः—-—गृहस्थ
- श्रेष्ठवाच्—वि॰—श्रेष्ठ-वाच्—-—वाग्मी
- श्रेष्ठिन्—वि॰—-—श्रेष्ठं धनादिकमस्त्यस्य इनि—किसी व्यापारसंघ या शिल्पिसंस्थान का प्रधान या अध्यक्ष
- श्रै—भ्वा॰ पर॰ <श्रायति>—-—-—स्वेद आना, पसीना निकलना
- श्रै—भ्वा॰ पर॰ <श्रायति>—-—-—पकाना, उबालना
- श्रोण्—भ्वा॰ पर॰ <श्रोणति>—-—-—एकत्र करना, ढेर लगाना
- श्रोण्—भ्वा॰ पर॰ <श्रोणति>—-—-—एकत्र होना, संचित होना
- श्रोण—वि॰—-—श्रोण् + अच्—विकलांग, लंगड़ा
- श्रोणः—पुं॰—-—-—एक प्रकार का रोग
- श्रोणा—स्त्री॰—-—श्रोण + टाप्—कांजी
- श्रोणा—स्त्री॰—-—श्रोण + टाप्—श्रवण नक्षत्र
- श्रोणिः—स्त्री॰—-—श्रोण् + इन्—कूल्हा, नितम्ब, चूतड़
- श्रोणिः—स्त्री॰—-—श्रोण् + इन्—सड़क, मार्ग
- श्रोणी—स्त्री॰—-—श्रोण् + ङीप्—कूल्हा, नितम्ब, चूतड़
- श्रोणी—स्त्री॰—-—श्रोण् + ङीप्—सड़क, मार्ग
- श्रोणितटः—पुं॰—श्रोणिः-तटः—-—कूल्हों की ढलान
- श्रोणिफलकम्—नपुं॰—श्रोणिः-फलकम्—-—विशाल कूल्हे
- श्रोणिफलकम्—नपुं॰—श्रोणिः-फलकम्—-—नितम्ब
- श्रोणिबिम्बम्—नपुं॰—श्रोणिः-बिम्बम्—-—गोल कूल्हे
- श्रोणिबिम्बम्—नपुं॰—श्रोणिः-बिम्बम्—-—कमर-पट्टा
- श्रोणिसूत्रम्—नपुं॰—श्रोणिः-सूत्रम्—-—मेखला
- श्रोणिसूत्रम्—नपुं॰—श्रोणिः-सूत्रम्—-—कमर से लटकती हुई तलवार का वन्धन
- श्रोतस्—नपुं॰—-—श्रु + असुन् तुट् च—कान
- श्रोतस्—नपुं॰—-—श्रु + असुन् तुट् च—हाथी की सूँड
- श्रोतस्—नपुं॰—-—श्रु + असुन् तुट् च—ज्ञानेन्द्रिय
- श्रोतस्—नपुं॰—-—श्रु + असुन् तुट् च—सरिता, प्रवाह
- श्रोतोरन्ध्रम्—नपुं॰—श्रोतस्-रन्ध्रम्—-—सूँड जा विवर, नथुना
- श्रोतृ—पुं॰—-—श्रु + तृच्—सुनने वाला
- श्रोतृ—पुं॰—-—श्रु + तृच्—छात्र
- श्रोत्रम्—नपुं॰—-—श्रूयतेऽनेन-श्रु करणे + ष्ट्रन्—कान
- श्रोत्रम्—नपुं॰—-—श्रूयतेऽनेन-श्रु करणे + ष्ट्रन्—वेदों में प्रवीणता
- श्रोत्रम्—नपुं॰—-—श्रूयतेऽनेन-श्रु करणे + ष्ट्रन्—वेद
- श्रोत्रपेय—वि॰—श्रोत्रम्-पेय—-—कान से ग्रहण करने के योग्य, ध्यानपूर्वक सुनने के योग्य
- श्रोत्रमूलम्—नपुं॰—श्रोत्रम्-मूलम्—-—कान की जड़
- श्रोत्रिय—वि॰—-—छन्दो वेदमधीते वेत्ति वा-छन्दस् + घ, श्रोत्रादेशः—वेद में प्रवीण या अभिज्ञ
- श्रोत्रिय—वि॰—-—छन्दो वेदमधीते वेत्ति वा-छन्दस् + घ, श्रोत्रादेशः—शिष्य, अनुशासित होने के योग्य
- श्रोत्रियः—पुं॰—-—-—विद्वान् ब्राह्मण, धर्मज्ञान में सुविज्ञ
- श्रोत्रियस्वम्—नपुं॰—श्रोत्रियः-स्वम्—-—विद्वान् ब्राह्मण की संपत्ति
- श्रौत—वि॰—-—श्रुतौ विहितम् अण्—कान से संबंध रखने वाला
- श्रौत—वि॰—-—श्रुतौ विहितम् अण्—वेदसंबंधी, वेद पर आधारित, वेदविहित
- श्रौतम्—नपुं॰—-—-—वेदविहित कोई भी कर्म या अनुष्ठान
- श्रौतम्—नपुं॰—-—-—वेदप्रतिपादित कर्मकाण्ड
- श्रौतम्—नपुं॰—-—-—यज्ञाग्नि को संधारण करना
- श्रौतम्—नपुं॰—-—-—तीनों यज्ञाग्नियों की समष्टि (अर्थात् गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण)
- श्रौतकर्मन्—नपुं॰—श्रौत-कर्मन्—-—वैदिक कृत्य
- श्रौतसूत्रम्—नपुं॰—श्रौत-सूत्रम्—-—वेद पर आधारित सूत्रग्रन्थों का संग्रह (आश्वलायन, सांख्यायन और कात्यायन आदि के नाम से अभिहित)
- श्रौतम्—नपुं॰—-—श्रौत्र + (स्वार्थे) अण्—कान
- श्रौतम्—नपुं॰—-—श्रौत्र + (स्वार्थे) अण्—वेदों में प्रवीणता
- श्रौषट्—अव्य॰—-—श्रु + डौषट्—दिवंगत आत्मा या देवों की उद्देश्य करके यज्ञाग्नि में आहुति देते समय उच्चारित होने (बोला जाने) वाला अव्यय
- श्लक्ष्ण—वि॰—-—श्लिष् + क्स्न, नि॰—कोमल, मृदु, सौम्य, स्निग्ध (शब्द आदि)
- श्लक्ष्ण—वि॰—-—श्लिष् + क्स्न, नि॰—चिकना, चमकदार
- श्लक्ष्ण—वि॰—-—-—स्वल्प, सूक्ष्म, पतला, सुकुमार
- श्लक्ष्ण—वि॰—-—-—सुन्दर, लावण्यमय
- श्लक्ष्ण—वि॰—-—-—निश्छल, ईमानदार, खरा
- श्लक्ष्णकम्—नपुं॰—-—श्लक्ष्ण + कन्—सुपारी, पूगीफल
- श्लङ्क्—भ्वा॰ आ॰ <श्लङ्कते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्लङ्ग्—भ्वा॰ आ॰ <श्लङ्गते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्लथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्लथयति>, <श्लथयते>—-—-—शिथिल या ढीलाढाला होना
- श्लथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्लथयति>, <श्लथयते>—-—-—दुर्बल या बलहीन होना
- श्लथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्लथयति>, <श्लथयते>—-—-—शिथिल होना, ढीला होना, विश्राम करना
- श्लथ्—चुरा॰ उभ॰ <श्लथयति>, <श्लथयते>—-—-—चोट पहुँचाना, क्षति पहुँचाना
- श्लथ—वि॰—-—श्लथ् + अच्—बिना बँधा, बिना जकड़ा
- श्लथ—वि॰—-—श्लथ् + अच्—शिथिल, विश्रांत, खुला हुआ, फिसला हुआ
- श्लथ—वि॰—-—श्लथ् + अच्—बिखरे हुए (जैसे बाल)
- श्लथोद्यम—वि॰—श्लथ-उद्यम—-—जिसने अपने प्रयत्न ढीले कर दिये हों
- श्लथलम्विन्—वि॰—श्लथ-लम्विन्—-—ढीला-ढाला, नीचे लटकता हुआ
- श्लाख्—भ्वा॰ पर॰ <श्लाखति>—-—-—व्याप्त होना, प्रविष्ट होना
- श्लाघ्—भ्वा॰ आ॰ <श्लाघते>—-—-—प्रशंसा करना, स्तुति करना, सराहना, गुणगान करना
- श्लाघ्—भ्वा॰ आ॰ <श्लाघते>—-—-—शेखी बघारना, घमंड करना
- श्लाघ्—भ्वा॰ आ॰ <श्लाघते>—-—-—खुशामद करना, फुसलाकर काम निकालना
- श्लाघनम्—नपुं॰—-—श्लाघ् + ल्युट्—प्रशंसा करना, स्तुति करना
- श्लाघनम्—नपुं॰—-—श्लाघ् + ल्युट्—खुशामद करना
- श्लाघा—स्त्री॰—-—श्लाघ् + अ + टाप्—प्रशंसा, स्तुति, सराहना
- श्लाघा—स्त्री॰—-—श्लाघ् + अ + टाप्—आत्मप्रशंसा, शेखी बघारना
- श्लाघा—स्त्री॰—-—श्लाघ् + अ + टाप्—खुशामद
- श्लाघा—स्त्री॰—-—श्लाघ् + अ + टाप्—सेवा
- श्लाघा—स्त्री॰—-—श्लाघ् + अ + टाप्—कामना, इच्छा
- श्लाघाविपर्ययः—पुं॰—श्लाघा-विपर्ययः—-—डींग मारने का अभाव
- श्लाघित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्लाघ् + क्त—प्रशंसा किया गया, स्तुति किया गया, सराहा गया
- श्लाघ्य—वि॰—-—श्लाघ् + ण्यत्—प्रशंसनीय, योग्य
- श्लाघ्य—वि॰—-—श्लाघ् + ण्यत्—आदरणीय, श्रद्धेय
- श्लिकुः—पुं॰—-—श्लिष् + कु, पृषो॰—कामुक, लंपट
- श्लिकुः—पुं॰—-—श्लिष् + कु, पृषो॰—दास, आश्रित
- श्लिकुः—नपुं॰—-—-—नक्षत्र विद्या, फलित ज्योतिष
- श्लिक्युः—पुं॰—-—श्लिष् + क्यु, पृषो॰—लंपट
- श्लिक्युः—पुं॰—-—श्लिष् + क्यु, पृषो॰—सेवक
- श्लिष्—भ्वा॰ पर॰ <श्लेषति>—-—-—जलना
- श्लिष्—दिवा॰ पर॰ <शिलष्यति>, <श्लिष्ट>—-—-—आलिंगन करना
- श्लिष्—दिवा॰ पर॰ <शिलष्यति>, <श्लिष्ट>—-—-—जमे रहना, चिपके रहना, डटे रहना
- श्लिष्—दिवा॰ पर॰ <शिलष्यति>, <श्लिष्ट>—-—-—संयुक्त होना, सम्मिलित होना
- श्लिष्—दिवा॰ पर॰ <शिलष्यति>, <श्लिष्ट>—-—-—ग्रहण करना, लेना, समझना
- आश्लिष्—दिवा॰ पर॰—आ-श्लिष्—-—आलिंगन करना, परिरंभण करना
- उपश्लिष्—दिवा॰ पर॰—उप-श्लिष्—-—आलिंगन करना, परिरंभण करना
- विश्लिष्—दिवा॰ पर॰—वि-श्लिष्—-—वियुक्त होना, दूर होना
- विश्लिष्—दिवा॰ पर॰—वि-श्लिष्—-—फट जाना, फट कर उड़ जाना
- विश्लिष्—दिवा॰ पर॰, प्रेर॰—वि-श्लिष्—-—अलग अलग करना
- संश्लिष्—दिवा॰ पर॰—सम्-श्लिष्—-—डटे रहना, चिपके रहना
- संश्लिष्—दिवा॰ पर॰—सम्-श्लिष्—-—सम्मिलित होना, मिलना
- श्लिष्—चुरा॰ उभ॰ <श्लेषयति>, <श्लेषयते>—-—-—जोड़ना, सम्मिलित करना, मिलना
- श्लिषा—स्त्री॰—-—श्लिष् + अ + टाप्—आलिंगन
- श्लिषा—स्त्री॰—-—श्लिष् + अ + टाप्—चिपकना, जुड़ जाना
- श्लिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्लिषृ + क्त—आलिंगित
- श्लिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्लिषृ + क्त—चिपका हुआ, जुड़ा हुआ
- श्लिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्लिषृ + क्त—टिका हुआ, झुका हुआ
- श्लिष्ट—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्लिषृ + क्त—श्लेष से युक्त, दो अर्थों को संभावना से युक्त
- श्लिष्टिः—स्त्री॰—-—श्लिष् + क्तिन्—आलिंगन
- श्लिष्टिः—स्त्री॰—-—श्लिष् + क्तिन्—परिरंभण
- श्लीपदम्—नपुं॰—-—श्री युक्तं वृत्तियुक्तं पदम् अस्मात्, पृषो॰ —सूजी हुई टांग या फूला हुआ पैर, फीलपावँ
- श्लीपदप्रभवः—पुं॰—श्लीपदम्-प्रभवः—-—आम का पेड़
- श्लील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य-लच्, पृषो॰—भाग्यशाली, समृद्ध
- श्लील—वि॰—-—श्रीः अस्ति अस्य-लच्, पृषो॰—शिष्ट
- श्लेषः—पुं॰—-—श्लिष् + घञ्—आलिंगन
- श्लेषः—पुं॰—-—श्लिष् + घञ्—चिपकना, जुड़ना
- श्लेषः—पुं॰—-—श्लिष् + घञ्—मिलाप, संगम, संपर्क
- श्लेषः—पुं॰—-—श्लिष् + घञ्—अनेकार्थ शब्द प्रयोग, एक से अधिक अर्थ प्रकट करने वाले शब्दों का प्रयोग, द्व्यर्थक, किसी शब्द या वाक्य की दो या दो से अधिक अर्थों की संभाव्यता
- श्लेषार्थः—पुं॰—श्लेषः-अर्थः—-—अनेकार्थ शब्द प्रयोग, द्व्यर्थक शब्द प्रयोग
- श्लेषभित्तिक—वि॰—श्लेषः-भित्तिकः—-—श्लेष पर टिका हुआ
- श्लेष्मकः—पुं॰—-—श्लेष्मन् + कन्—कफ, बलगम
- श्लेष्मज—वि॰—-—श्लेष्मन् + जन् + ड—कफ से उत्पन्न, कफमूलक
- श्लेष्मन्—पुं॰—-—श्लिष् + मनिन्—कफ, बलगम, कफ की प्रकृति
- श्लेष्मातिसारः—पुं॰—श्लेष्मन्-अतिसारः—-—कफविकार से उत्पन्न पेचिश, मरोड़
- श्लेष्मोजस्—नपुं॰—श्लेष्मन्-ओजस्—-—कफ की प्रकृति
- श्लेष्मघ्ना—स्त्री॰—श्लेष्मन्-घ्ना—-—मल्लिका, एक प्रकार का मोतिया
- श्लेष्मघ्ना—स्त्री॰—श्लेष्मन्-घ्ना—-—केतकी, केक्ड़ा
- श्लेष्मघ्नी—स्त्री॰—श्लेष्मन्-घ्नी—-—मल्लिका, एक प्रकार का मोतिया
- श्लेष्मघ्नी—स्त्री॰—श्लेष्मन्-घ्नी—-—केतकी, केक्ड़ा
- श्लेष्मल—वि॰—-—श्लेष्मन् + लच्—कफ प्रकृति का, बलगमी
- श्लेष्मातः—पुं॰—-—श्लेष्मन् + अत् + अच्—एक वृक्ष विशेष, लिसोड़े का पेड़
- श्लेष्मातकः—पुं॰—-—श्लेष्मन् + अत् + अच् पक्षे कन् च—एक वृक्ष विशेष, लिसोड़े का पेड़
- श्लोक्—भ्वा॰ आ॰ <श्लोकते>—-—-—प्रशंसा करना, पद्य रचना करना, छन्दोबद्ध करना
- श्लोक्—भ्वा॰ आ॰ <श्लोकते>—-—-—अवाप्त करना
- श्लोक्—भ्वा॰ आ॰ <श्लोकते>—-—-—त्यागना, छोड़ना
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—कवितामय प्रशंसन, स्तुतीकरण
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—स्तोत्र
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—ख्याति, प्रसिद्धि, विश्रुति, यश
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—प्रशंसा का विषय
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—किंवदन्ती, कहावत
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—पद्य, कविता
- श्लोकः—पुं॰—-—श्लोक् + अच्—अनुष्टुप् छन्द में कोई पद्य या कविता
- श्लोण्—भ्वा॰ पर॰ <श्लोणति>—-—-—एकत्र करना, इकठ्ठा करना, बीनना
- श्लोणः—पुं॰—-—श्लोण् + अच्—लंगड़ा पुरुष, विकलांग
- श्वङ्क्—भ्वा॰ पर॰ <श्वङ्कते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वच्—भ्वा॰ पर॰ <श्वचते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वच्—भ्वा॰ पर॰ <श्वचते>—-—-—खुला होना, मुँह बाना, फटना, दरार हो जाना
- श्वञ्च्—भ्वा॰ पर॰ <श्वञ्चते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वञ्च्—भ्वा॰ पर॰ <श्वञ्चते>—-—-—खुला होना, मुँह बाना, फटना, दरार हो जाना
- श्वज्—भ्वा॰ आ॰ <श्वजते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वठ्—चुरा॰ उभ॰ <श्वठयति>, <श्वठयते>—-—-—निन्दा करना
- श्वठ्—चुरा॰ उभ॰ <श्वाठयति>, <श्वाठयते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वठ्—चुरा॰ उभ॰ <श्वाठयति>, <श्वाठयते>—-—-—अलंकृत करना
- श्वठ्—चुरा॰ उभ॰ <श्वाठयति>, <श्वाठयते>—-—-—समाप्त करना, सम्पन्न करना
- श्वण्ठ्—चुरा॰ उभ॰ <श्वण्ठयति>, <श्वण्ठयते>—-—-—निन्दा करना
- श्वन्—पुं॰—-—श्वि + कनिन्, नि॰ —कुत्ता
- श्वक्रीडिन्—पुं॰—श्वन्-क्रीडिन्—-—खिलारी कुत्तों को पालने वाला
- श्वगणः—पुं॰—श्वन्-गणः—-—कुत्तों का झुंड
- श्वगणिकः—पुं॰—श्वन्-गणिकः—-—शिकारी
- श्वगणिकः—पुं॰—श्वन्-गणिकः—-—कुत्तों को खिलाने वाला
- श्वधूर्तः—पुं॰—श्वन्-धूर्तः—-—गीदड़
- श्वनरः—पुं॰—श्वन्-नरः—-—कमीना आदमी, नीच व्यक्ति
- श्वनिशम्—नपुं॰—श्वन्-निशम्—-—वह रात जिसमें कुत्ते भौंकते हों
- श्वनिशा—स्त्री॰—श्वन्-निशा—-—वह रात जिसमें कुत्ते भौंकते हों
- श्वपच्—पुं॰—श्वन्-पच्—-—अतिनीच और पतित जाति का पुरुष, जातिबहिष्कृत, चांडाल
- श्वपच्—पुं॰—श्वन्-पच्—-—कुत्तों को खिलाने वाला
- श्वपचः—पुं॰—श्वन्-पचः—-—अतिनीच और पतित जाति का पुरुष, जातिबहिष्कृत, चांडाल
- श्वपचः—पुं॰—श्वन्-पचः—-—कुत्तों को खिलाने वाला
- श्वपदम्—नपुं॰—श्वन्-पदम्—-—कुत्ते का पैर
- श्वपाकः—पुं॰—श्वन्-पाकः—-—जाति से बहिष्कृत, चाण्डाल
- श्वफलम्—नपुं॰—श्वन्-फलम्—-—खट्टा नींबू या चकोतरा
- श्वफल्कः—पुं॰—श्वन्-फल्कः—-—अक्रुर के पिता का नाम
- श्वभीरुः—पुं॰—श्वन्-भीरुः—-—गीदड़
- श्वयूथ्यम्—नपुं॰—श्वन्-यूथ्यम्—-—कुत्तों का झुंड
- श्ववृत्तिः—स्त्री॰—श्वन्-वृत्तिः—-—कुत्ते का जीवन
- श्ववृत्तिः—स्त्री॰—श्वन्-वृत्तिः—-—सेवावृत्ति, सेवा
- श्वव्याघ्रः—पुं॰—श्वन्-व्याघ्रः—-—शिकारी जानवर
- श्वव्याघ्रः—पुं॰—श्वन्-व्याघ्रः—-—बाघ
- श्वव्याघ्रः—पुं॰—श्वन्-व्याघ्रः—-—चीता
- श्वहन्—पुं॰—श्वन्-हन्—-—शिकारी
- श्वभ्र्—चुरा॰ उभ॰ <श्वभ्रयति>, <श्वभ्रयते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- श्वभ्र्—चुरा॰ उभ॰ <श्वभ्रयति>, <श्वभ्रयते>—-—-—बींधना, सूराख करना, छिद्र करना
- श्वभ्र्—चुरा॰ उभ॰ <श्वभ्रयति>, <श्वभ्रयते>—-—-—दरिद्रता में रहना
- श्वभ्रम्—नपुं॰—-—श्वभ्र् + अच्—रन्ध्र, विवर
- श्वयः—पुं॰—-—श्वि + अच्—सूजन, शोथ, वृद्धि
- श्वयथुः—पुं॰—-—श्वि + अथुच्—सूजन, शोथ
- श्वयीची—स्त्री॰—-—श्वि + ईचि + ङीप्—बीमारी, रोग
- श्वल्—भ्वा॰ पर॰ <श्वलति>—-—-—दौड़ना, फुर्ती से जाना
- श्वल्क्—चुरा॰ उभ॰ <श्वल्कयति>, <श्वल्कयते>—-—-—कहना, वर्णन करना
- श्वल्ल्—भ्वा॰ पर॰ <श्वल्लति>—-—-—दौड़ना
- श्वशुरः—पुं॰—-—श आशु अश्नुते आशु + अश् + उरच् पृषो॰ —ससुर, पत्नी या पति का पिता
- श्वशुरकः—पुं॰—-—श्वशुर + कन्—ससुर
- श्वशुर्यः—पुं॰—-—श्वशुरस्यापत्यम्-श्वशुर + यत् —साला पत्नी या पति का भाई
- श्वशुर्यः—पुं॰—-—श्वशुरस्यापत्यम्-श्वशुर + यत् —पति का छोटा भाई, देवर
- श्वश्रूः—स्त्री॰—-—श्वशुर + ऊङ्, उकार-अकारलोपः—सास, पत्नी या पति की माँ
- श्वश्रूश्वशुर—पुं॰ द्वि॰ व॰—श्वश्रू-श्वशुर—-—सास और ससुर
- श्वस्—अदा॰ पर॰ <श्वसिति>, <श्वस्त>,<श्वसित>—-—-—साँस लेना, साँस निकालना, साँस खींचना
- श्वस्—अदा॰ पर॰ <श्वसिति>, <श्वस्त>,<श्वसित>—-—-—आह भरना, हाँपना, ऊँचा साँस लेना
- श्वस्—अदा॰ पर॰ <श्वसिति>, <श्वस्त>,<श्वसित>—-—-—फूत्कार करना, खुर्रांटे भरना
- श्वस्—अदा॰ उभ॰, प्रेर॰ <श्वासयति>, <श्वासयते>—-—-—साँस दिलाना, जीवित रखना
- आश्वस्—अदा॰ पर॰ —आ-श्वस्—-—साँस लेना
- आश्वस्—अदा॰ पर॰ —आ-श्वस्—-—साँस लेने लगना, साहसी बनना, हिम्मत करना
- आश्वस्—अदा॰ पर॰ —आ-श्वस्—-—पुनर्जीवित करना
- आश्वस्—अदा॰ उभ॰, प्रेर॰—आ-श्वस्—-—सांत्वना देना आराम देना, प्रसन्न करना
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—साँस देना, जीना
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—उत्साह बढाना, जी उठना, हिम्मत बाँधना
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—खुलना, खिलना (जैसे कमल का)
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—हांपना, गहरा साँस लेना
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—ऊँचा साँस लेना, धड़कना
- उच्छ्वस्—अदा॰ पर॰ —उद्-श्वस्—-—उन्मुक्त होना
- निःश्वस्—अदा॰ पर॰ —नि-श्वस्—-—आह भरना,ऊँचा साँस लेना
- निःश्वस्—अदा॰ पर॰ —निस्-श्वस्—-—आह भरना,ऊँचा साँस लेना
- विश्वस्—अदा॰ पर॰ —वि-श्वस्—-—विश्वास करना, भरोसा करना, विश्वास रखना
- विश्वस्—अदा॰ पर॰ —वि-श्वस्—-—सुरक्षित रहना, निर्भय या विश्वस्त होना
- समाश्वस्—अदा॰ पर॰ —समा-श्वस्—-—साहसी होना, हिम्मत बांधना, ढाढस रखना
- समाश्वस्—अदा॰ उभ॰, प्रेर॰—समा-श्वस्—-—सांत्वना देना, प्रोत्साहित करना, उत्साह बढ़ाना
- श्वस्—अव्य॰—-—आगामि अहः पृषो॰—आने वाला कल
- श्वस्—अव्य॰—-—आगामि अहः पृषो॰—भविष्यत्काल
- श्वोभूत—वि॰—श्वस्-भूत—-—कल होने वाला
- श्वोवसीय—वि॰—श्वस्-वसीय—-—प्रसन्न, शुभ, भाग्यशाली
- श्वोवसीय—नपुं॰—श्वस्-वसीय—-—प्रसन्नता, सौभाग्य
- श्वोवसीयस्—वि॰—श्वस्-वसीयस्—-—प्रसन्न, शुभ, भाग्यशाली
- श्वोवसीयस्—नपुं॰—श्वस्-वसीयस्—-—प्रसन्नता, सौभाग्य
- श्वःश्रेयस्—वि॰—श्वस्-श्रेयस्—-—प्रसन्न, समृद्धि
- श्वःश्रेयसम्—नपुं॰—श्वस्-श्रेयसम्—-—प्रसन्नता, समृद्धि
- श्वःश्रेयसम्—नपुं॰—श्वस्-श्रेयसम्—-—ब्रह्मा या परमात्मा का विशेषण
- श्वसनः—पुं॰—-—श्वसित्यनेन-श्वस् + ल्युट्—हवा, वायु
- श्वसनः—पुं॰—-—श्वसित्यनेन-श्वस् + ल्युट्—एक राक्षस का नाम जिसे इन्द्र ने मार गिराया था
- श्वसनम्—नपुं॰—-—-—श्वास, साँस लेना, साँस निकालना
- श्वसनम्—नपुं॰—-—-—आह भरना
- श्वसनाशनः—पुं॰—श्वसनः-अशनः—-—साँप
- श्वसनेश्वरः—पुं॰—श्वसनः-ईश्वरः—-—अर्जुन वृक्ष
- श्वसनोत्सुकः—पुं॰—श्वसनः-उत्सुकः—-—साँप
- श्वसनोर्मिः—स्त्री॰—श्वसनः-ऊर्मिः—-—हवा का झोंका
- श्वसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्वस् + क्त—साँस लिया हुआ, आह भरी हुई
- श्वसित—भू॰ क॰ कृ॰—-—श्वस् + क्त—साँस लेने वाला
- श्वसितम्—नपुं॰—-—-—साँस लेना, साँस निकालना
- श्वसितम्—नपुं॰—-—-—ऊँचा साँस लेना
- श्वस्तन—वि॰—-—श्वस् +ट्युल्—आगामी कल से संबंध रखने वाला, भावी, आगे आने वाला
- श्वस्त्य—वि॰—-—तुट् श्वस् + त्यप्—आगामी कल से संबंध रखने वाला, भावी, आगे आने वाला
- श्वाकर्णः—पुं॰—-—शुनः कर्णः ष॰ त॰, अन्येषामपीति दीर्घः—कुत्ते का कान
- श्वागणिकः—पुं॰—-—श्वगणेन चरति-श्वगण + ठञ्—कुत्ते रखने वाला, कुत्ते पाल कर अपनी जीविका चलाने वाला
- श्वादन्तः—पुं॰—-—शुनो दन्तः ष॰ त॰, अन्येषामपीति दीर्घः—कुत्ते का दाँत
- श्वानः—पुं॰—-—श्वैव + अण् न टिलोपः—कुत्ता
- श्वाननिद्रा—स्त्री॰—श्वानः-निद्रा—-—कुत्ते की नींद, बहुत हलकी नींद
- श्वानवैखरी—स्त्री॰—श्वानः-वैखरी—-—क्रुद्ध कुत्ते का गुर्राना
- श्वापद—वि॰—-—शुन इव आपद् अस्मात् ब॰ स, श्वन् + आपद् + अच्—वर्बर, हिंस्र
- श्वापदः—पुं॰—-—-—शिकारी जानवर, जंगली जानवर
- श्वापदः—पुं॰—-—-—बाघ
- श्वापुच्छः—पुं॰—-—शुनः पुच्छम्-ष॰ त॰, नि॰ दीर्घ— कुत्ते की पूँछ, दुम
- श्वापुच्छम्—नपुं॰—-—शुनः पुच्छम्-ष॰ त॰, नि॰ दीर्घ— कुत्ते की पूँछ, दुम
- श्वाविध्—पुं॰—-—शुना आविध्यते-श्वन् + आ + व्यध् + क्विप्—साही, शल्यक
- श्वासः—पुं॰—-—श्वस् + घञ्—साँस लेना, साँस, श्वासप्रश्वास क्रिया, ऊँचा साँस
- श्वासः—पुं॰—-—श्वस् + घञ्—आह, हाँपना
- श्वासः—पुं॰—-—श्वस् + घञ्—हवा, वायु
- श्वासः—पुं॰—-—श्वस् + घञ्—दमा
- श्वासकासः—पुं॰—श्वासः-कासः—-—दमा
- श्वासरोधः—पुं॰—श्वासः-रोधः—-—साँस का रोकना
- श्वासहिक्का—स्त्री॰—श्वासः-हिक्का—-—एक प्रकार की हिचकी
- श्वासहेतिः—स्त्री॰—श्वासः-हेतिः—-—नींद
- श्वासिन्—वि॰—-—श्वास + इनि—साँस लेने वाला
- श्वासिन्—पुं॰—-—-—हवा, वायु
- श्वासिन्—पुं॰—-—-—श्वास लेने वाला जानवर, जीवित प्राणी
- श्वासिन्—पुं॰—-—-—जो फूत्कार की ध्वनि के साथ (वर्ण) उच्चारण करता है
- श्वि—भ्वा॰ पर॰ <श्वयति>, <शून>—-—-—विकसित होना, बढ़ना , सूजना (जैसे आँख का)
- श्वि—भ्वा॰ पर॰ <श्वयति>, <शून>—-—-—फलना-फूलना, समृद्ध होना
- श्वि—भ्वा॰ पर॰ <श्वयति>, <शून>—-—-—जाना, पहुँचना, अभिमुख चलना
- उद्-श्वि—भ्वा॰ पर॰—-—-—सूजना, बढ़ना, विकसित होना
- उद्-श्वि—भ्वा॰ पर॰—-—-—घमण्डी होना, घमण्ड से फूल जाना
- श्वित्—भ्वा॰ पर॰ <श्वेतते>—-—-—श्वेत होना, सफ़ेद होना
- श्वित—वि॰—-—श्वित् + क—सफ़ेद
- श्वितिः—स्त्री॰—-—श्वित् + यत्—सफ़ेदी
- श्वित्रम्—नपुं॰—-—श्वित् + रक्—सफ़ेद कोढ़
- श्वित्रम्—नपुं॰—-—श्वित् + रक्—फुलबहरी, कोढ का दाग़ (त्वचा पर)
- श्वित्रिन्—वि॰—-—श्वित्र + इनि—कोढ़ के रोग से ग्रस्त
- श्वित्रिन्—पुं॰—-—-—कोढ़ी
- श्विन्द्—भ्वा॰ आ॰ <श्विन्दते>—-—-—सफ़ेद होना
- श्वेत—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—सफ़ेद
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—सफ़ेद रङ्ग
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—शङ्ख
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—कौड़ी
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—रति कूट पौधा
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—शुक्र ग्रह, शुक्र ग्रह की अधिष्ठात्री देवता
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—सफ़ेद बादल
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—जीरा
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—पर्वतश्रेणी
- श्वेतः—वि॰—-—श्वित् + घञ्, अच् वा—ब्रह्माण्ड का एक प्रभाग
- श्वेतम्—नपुं॰—-—-—चाँदी
- श्वेताम्बरः—पुं॰—श्वेतः-अम्बरः—-—जैन सन्यासियों का एक सम्प्रदाय
- श्वेतवासस्—पुं॰—श्वेतः-वासस्—-—जैन सन्यासियों का एक सम्प्रदाय
- श्वेतेक्षुः—पुं॰—श्वेतः-इक्षुः—-—एक प्रकार का ईख, गन्ना
- श्वेतोदरः—पुं॰—श्वेतः-उदरः—-—कुबेर का विशेषण
- श्वेतकमलम्—नपुं॰—श्वेतः-कमलम्—-—सफ़ेद कमल
- श्वेतपद्मम्—नपुं॰—श्वेतः-पद्मम्—-—सफ़ेद कमल
- श्वेतकुञ्जरः—पुं॰—श्वेतः-कुञ्जरः—-—इन्द्र के हाथी ऐरावत का विशेषण
- श्वेतकुष्ठम्—नपुं॰—श्वेतः-कुष्ठम्—-—सफ़ेद कोढ़
- श्वेतकेतुः—पुं॰—श्वेतः-केतुः—-—बौद्ध श्रमण या जैनसाधु
- श्वेतकोलः—पुं॰—श्वेतः-कोलः—-—एक प्रकार की मछली, शफर
- श्वेतगजः—पुं॰—श्वेतः-गजः—-—सफ़ेद हाथी
- श्वेतगजः—पुं॰—श्वेतः-गजः—-—इन्द्र का हाथी
- श्वेतद्विपः—पुं॰—श्वेतः-द्विपः—-—सफ़ेद हाथी
- श्वेतद्विपः—पुं॰—श्वेतः-द्विपः—-—इन्द्र का हाथी
- श्वेतगरुत्—पुं॰—श्वेतः-गरुत्—-—हंस
- श्वेतगरुतः—पुं॰—श्वेतः-गरुतः—-—हंस
- श्वेतच्छदः—पुं॰—श्वेतः-छदः—-—हंस
- श्वेतच्छदः—पुं॰—श्वेतः-छदः—-—एक प्रकार का तुलसी, सफ़ेद तुलसी
- श्वेतद्वीपः—पुं॰—श्वेतः-द्वीपः—-—इस महाद्वीप के अठारह लघु प्रभागों में से एक
- श्वेतधातुः—पुं॰—श्वेतः-धातुः—-—सफ़ेद खनिज पदार्थ
- श्वेतधातुः—पुं॰—श्वेतः-धातुः—-—खड़िया मिट्टी
- श्वेतधातुः—पुं॰—श्वेतः-धातुः—-—दूधिया पत्थर
- श्वेतधामन्—पुं॰—श्वेतः-धामन्—-—चाँद
- श्वेतधामन्—नपुं॰—श्वेतः-धामन्—-—कपूर
- श्वेतधामन्—नपुं॰—श्वेतः-धामन्—-—समुद्रफेन
- श्वेतनीलः—पुं॰—श्वेतः-नीलः—-—बादल
- श्वेतपत्रः—पुं॰—श्वेतः-पत्रः—-—हंस
- श्वेतरथः—पुं॰—श्वेतः-रथः—-—ब्रह्मा का विशेषण
- श्वेतपाटला—स्त्री॰—श्वेतः-पाटला—-—शृङ्गवल्ली का फूल
- श्वेतपिङ्गः—पुं॰—श्वेतः-पिङ्गः—-—सिंह
- श्वेतपिङ्गलः—पुं॰—श्वेतः-पिङ्गलः—-—सिंह
- श्वेतपिङ्गलः—पुं॰—श्वेतः-पिङ्गलः—-—शिव का विशेषण
- श्वेतमरिचम्—नपुं॰—श्वेतः-मरिचम्—-—सफ़ेद मिर्च
- श्वेतमालः—पुं॰—श्वेतः-मालः—-—बादल
- श्वेतमालः—पुं॰—श्वेतः-मालः—-—धूआँ
- श्वेतरक्तः—पुं॰—श्वेतः-रक्तः—-—गुलाबी रङ्ग
- श्वेतरञ्जनम्—नपुं॰—श्वेतः-रञ्जनम्—-—सीसा
- श्वेतरथः—पुं॰—श्वेतः-रथः—-—शुक्रग्रह
- श्वेतरोचिस्—पुं॰—श्वेतः-रोचिस्—-—चन्द्रमा
- श्वेतरोहितः—पुं॰—श्वेतः-रोहितः—-—गरुड़ का विशेषण
- श्वेतवल्कलः—पुं॰—श्वेतः-वल्कलः—-—गूलर का पेड़
- श्वेतवाजिन्—पुं॰—श्वेतः-वाजिन्—-—चन्द्रमा
- श्वेतवाजिन्—पुं॰—श्वेतः-वाजिन्—-—अर्जुन का विशेषण
- श्वेतवाह्—पुं॰—श्वेतः-वाह्—-—इन्द्र का विशेषण
- श्वेतवाहः—पुं॰—श्वेतः-वाहः—-—अर्जुन का विशेषण
- श्वेतवाहः—पुं॰—श्वेतः-वाहः—-—इन्द्र का विशेषण
- श्वेतवाहनः—पुं॰—श्वेतः-वाहनः—-—अर्जुन का विशेषण
- श्वेतवाहनः—पुं॰—श्वेतः-वाहनः—-—चन्द्रमा
- श्वेतवाहनः—पुं॰—श्वेतः-वाहनः—-—समुद्री दानव, मगरमच्छ, घड़ियाल
- श्वेतवाहिन्—पुं॰—श्वेतः-वाहिन्—-—अर्जुन का विशेषण
- श्वेतशुङ्गः—पुं॰—श्वेतः-शुङ्गः—-—जौ
- श्वेतशृङ्गः—पुं॰—श्वेतः-शृङ्गः—-—जौ
- श्वेतहयः—पुं॰—श्वेतः-हयः—-—इन्द्र का घोड़ा
- श्वेतहयः—पुं॰—श्वेतः-हयः—-—अर्जुन का विशेषण
- श्वेतहस्तिन्—पुं॰—श्वेतः-हस्तिन्—-—इन्द्र का हाथी ऐरावत
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—कौड़ी
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—पुनर्नवा
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—सफ़ेद दूब
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—स्फटिक
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—रवेदार चीनी
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—बंसलोचन
- श्वेतकः—पुं॰—-—श्वेत + कन्—अनेक पौधों के नाम (श्वेत कण्टकारी, श्वेत बृहती आदि)
- श्वेतौही—स्त्री॰—-—श्वेतवाह + ङीष्—इन्द्र की पत्नी, शची
- श्वेत्रम्—नपुं॰—-—-—सफ़ेद कोढ़
- श्वैत्यम्—नपुं॰—-—श्वेत + ष्यञ्—सफ़ेदी
- श्वैत्यम्—नपुं॰—-—श्वेत + ष्यञ्—सफ़ेद कोढ़
- श्वैत्रम्—नपुं॰—-—श्वित्र + अण्—सफ़ेद कोढ़
- श्वैत्र्यम्—नपुं॰—-—श्वित्र + ष्यञ्—सफ़ेद कोढ़
- ष—वि॰—-—-—
- ष—वि॰—-—सो + क, पृषो॰ षत्वम्—सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट
- षः—पुं॰—-—-—हानि, विनाश
- षः—पुं॰—-—-—अन्त
- षः—पुं॰—-—-—शेष, अवशिष्ट
- षः—पुं॰—-—-—मोक्ष
- षट्क—वि॰—-—षडभिः क्रीतम्-षष् + कन्—छः गुना
- षट्कम्—नपुं॰—-—-—छः की समष्टि
- षड्धा—स्त्री॰—-—-—छः प्रकार से
- षण्डः—पुं॰—-—सन् + ड, पृषो॰ षत्वम्—साँड़
- षण्डः—पुं॰—-—सन् + ड, पृषो॰ षत्वम्—नपुंसक
- षण्डः—पुं॰—-—सन् + ड, पृषो॰ षत्वम्—समूह, समुच्चय, संग्रह, ढेर, राशि
- षण्डः—नपुं॰—-—सन् + ड, पृषो॰ षत्वम्—समूह, समुच्चय, संग्रह, ढेर, राशि
- षण्डकः—पुं॰—-—षण्ड + कन्—नपुंसक, हिजड़ा
- षण्डाली—स्त्री॰—-—षण्ड + अल् + अच् + ङीष्—तालाब, जोहड़
- षण्डाली—स्त्री॰—-—षण्ड + अल् + अच् + ङीष्—व्यभिचारिणी या असती स्त्री
- षण्ढः—पुं॰—-—सन् + ढ, पृषो॰ षत्वम्—नपुंसक, हिजड़ा
- षण्ढः—पुं॰—-—सन् + ढ, पृषो॰ षत्वम्—नपुंसकलिंग
- षण्ढतिलः—पुं॰—षण्ढः-तिलः—-—बंध्य तिल, वह तिल जो उग न सके
- षष्—संख्या॰ वि॰—-—सो + क्विप्, पृषो॰—छः
- षडक्षीणः—पुं॰—षष्-अक्षीणः—-—मछली
- षडङ्गम्—नपुं॰—षष्-अङ्गम्—-—समष्टि रूप से ग्रहण किये गये शरीर के छः भाग
- षडङ्गम्—नपुं॰—षष्-अङ्गम्—-—वेद के छः अंग सहायक भाग
- षडङ्गम्—नपुं॰—षष्-अङ्गम्—-—छः शुभ वस्तुएँ अर्थात् गोमाता से प्राप्त छः पदार्थ
- षडङ्घ्रिः—पुं॰—षष्-अङ्घ्रिः—-—भौंरा
- षडाधिक—वि॰—षष्-अधिक—-—वह जिसमें छः अधिक हों
- षडभिज्ञः—पुं॰—षष्-अभिज्ञः—-—देवरूप बौद्ध महात्मा
- षडशीत—वि॰—षष्-अशीत—-—छ्यासीवाँ
- षडशीतिः—स्त्री॰—षष्-अशीतिः—-—छ्यासी
- षडहः—पुं॰—षष्-अहः—-—छः दिन का समय या अवधि
- षडाननः—पुं॰—षष्-आननः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- षड्वक्त्रः—पुं॰—षष्-वक्त्रः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- षड्वदनः—पुं॰—षष्-वदनः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- षडाम्नायः—पुं॰—षष्-आम्नायः—-—छः तन्त्र
- षडूषणम्—नपुं॰—षष्-ऊषणम्—-—समष्टि रूप से ग्रहण किये हुए छः मसाले
- षट्कर्ण—वि॰—षष्-कर्ण—-—छः कानों से सुना गया
- षट्कर्णः—पुं॰—षष्-कर्णः—-—एक प्रकार की वीणा
- षट्कर्मन्—नपुं॰—षष्-कर्मन्—-—ब्राहणों के लिए विहित छः कर्तव्य
- षट्कर्मन्—नपुं॰—षष्-कर्मन्—-—छः कर्म जो ब्राह्मण की जीविका के लिए विहित हैं
- षट्कर्मन्—नपुं॰—षष्-कर्मन्—-—जादू के छः करतब शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेष, उच्चाटन तथा मारण
- षट्कर्मन्—नपुं॰—षष्-कर्मन्—-—योगाभ्याससंबंधी छः क्रियाएँ
- षट्कर्मन्—पुं॰—षष्-कर्मन्—-—ब्राह्मण
- षट्कोण—वि॰—षष्-कोण—-—छः कोणों से युक्त
- षट्कोणम्—नपुं॰—षष्-कोणम्—-—षड्भुज, छः कोनिया
- षट्कोणम्—नपुं॰—षष्-कोणम्—-—इन्द्र का वज्र
- षड्गवम्—नपुं॰—षष्-गवम्—-—छः बैलों की जोड़ी
- षड्गवम्—नपुं॰—षष्-गवम्—-—वह जुवा जिसमें छः बैल जोते जायं
- षड्ढस्ति—पुं॰—षष्-हस्ति—-—छः हाथी
- षडश्व—पुं॰—षष्-अश्व—-—छः घोड़े
- षड्गुण—वि॰—षष्-गुण—-—छः गुना
- षड्गुण—वि॰—षष्-गुण—-—छः विशेषणों से युक्त
- षड्गुणम्—नपुं॰—षष्-गुणम्—-—छः गुणों का समुदाय
- षड्गुणम्—नपुं॰—षष्-गुणम्—-—किसी राजा की विदेशनीति में प्रयोक्तव्य छः उपाय
- षड्ग्रन्थि—स्त्री॰—षष्-ग्रन्थि—-—पिप्परामूल
- षड्ग्रन्थिका—स्त्री॰—षष्-ग्रन्थिका—-—शटी, आमाहल्दी
- षट्चक्रम्—नपुं॰—षष्-चक्रम्—-—शरीर के छः रहस्यमय चक्र (मूलाधार, अधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा)
- षट्चत्वारिंशत्—वि॰—षष्-चत्वारिंशत्—-—छ्यालीस
- षट्चरणः—पुं॰—षष्-चरणः—-—मधुमक्खी
- षट्चरणः—पुं॰—षष्-चरणः—-—टिड्डी
- षट्चरणः—पुं॰—षष्-चरणः—-—जूँ
- षड्जः—पुं॰—षष्-जः—-—भारतीय स्वरग्राम के सात प्राथमिक स्वरों में से चौथा स्वर (कुछ के अनुसार पहला) क्योंकि यह स्वर छः अंगों से व्युत्पन्न है
- षट्त्रिंशत्—नपुं॰—षष्-त्रिंशत्—-—छत्तीस
- षट्त्रिंश—वि॰—षष्-त्रिंश—-—छत्तीसवाँ
- षड्दर्शनम्—नपुं॰—षष्-दर्शनम्—-—हिन्दू दर्शन के छः मुख्य शास्त्र-सांख्य, योग, न्याय, वैशैषिक, मीमांसा और वेदान्त
- षड्दुर्गम्—नपुं॰—षष्-दुर्गम्—-—छः प्रकार के गढ़ों की समष्टि
- षण्णवतिः—स्त्री॰—षष्-नवतिः—-—छ्यानवे
- षट्पञ्चाशत्—स्त्री॰—षष्-पञ्चाशत्—-—छप्पन
- षट्पदः—पुं॰—षष्-पदः—-—भौंरा
- षट्पदः—पुं॰—षष्-पदः—-—जूँ
- षट्पदातिथिः—पुं॰—षष्-पदः-अतिथिः—-—आम का वृक्ष
- षट्पदानन्दवर्धनः—पुं॰—षष्-पदः-आनन्दवर्धनः—-—अशोक या किंकिरात वृक्ष
- षट्पदाज्य—वि॰—षष्-पदः-ज्य—-—जिस की डोरी भौंरों से बनी है
- षट्पदप्रियः—पुं॰—षष्-पदः-प्रियः—-—नागकेशर नाम का वृक्ष
- षट्पदी—स्त्री॰—षष्-पदी—-—छः पंक्तियों का श्लोक
- षट्पदी—स्त्री॰—षष्-पदी—-—भ्रमरी
- षट्पदी—स्त्री॰—षष्-पदी—-—जूँ
- षट्प्रज्ञः—पुं॰—षष्-प्रज्ञः—-—जो छः विषयों से सुपरिचित है अर्थात् चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) या मानवजीवन के उद्देश्य और लोकप्रकृति, ब्रह्मप्रकृति
- षट्प्रज्ञः—पुं॰—षष्-प्रज्ञः—-—विलासी, कामासक्त पुरुष
- षड्बिन्दुः—पुं॰—षष्-बिन्दुः—-—विष्णु का विशेषण
- षड्भागः—पुं॰—षष्-भागः—-—छठा भाग, १/६ भाग
- षड्भुज—वि॰—षष्-भुज—-—छः हैं सहायक जिसके, छः कोनों वाला
- षड्भुजः—पुं॰—षष्-भुजः—-—षट्कोण
- षड्भुजा—स्त्री॰—षष्-भुजा—-—दुर्गा का विशेषण
- षड्भुजा—स्त्री॰—षष्-भुजा—-—तरबूज़
- षण्मासः—पुं॰—षष्-मासः—-—छः महीने का समय
- षण्मासिक—वि॰—षष्-मासिक—-—छमाही, अर्धवार्षिक
- षण्मुखः—पुं॰—षष्-मुखः—-—कार्तिकेय के विशेषण
- षण्मुखा—स्त्री॰—षष्-मुखा—-—तरबूज़
- षड्रसम्—पुं॰ ब॰ व॰—षष्-रसम्—-—छः रसों की समष्टि
- षड्रसाः—पुं॰ ब॰ व॰—षष्-रसाः—-—छः रसों की समष्टि
- षड्रात्रम्—नपुं॰—षष्-रात्रम्—-—छः रातों का समय या अवधि
- षड्वर्गः—पुं॰—षष्-वर्गः—-—छः वस्तुओं की समष्टि
- षड्वर्गः—पुं॰—षष्-वर्गः—-— विशेष रूप से मनुष्य के छः शत्रु
- षड्विंशतिः—स्त्री॰—षष्-विंशतिः—-—छब्बीस
- षड्विंश—वि॰—षष्-विंश—-—छब्बीसवाँ
- षड्विध—वि॰—षष्-विध—-—छः प्रकार का , छः गुना
- षट्षष्टिः—स्त्री॰—षष्-षष्टिः—-—छासठ
- षट्सप्ततिः—स्त्री॰—षष्-सप्ततिः—-—छिहत्तर
- षष्टिः—स्त्री॰—-—षड्गुणिता दशतिः नि॰—साठ
- षष्टितम्—नपुं॰—-—-—साठवाँ
- षष्टिमत्तः—पुं॰—षष्टिः-मत्तः—-—साठ वर्ष की आयु का हाथी जिसके मस्तक से मद चूता है
- षष्टियोजनी—स्त्री॰—षष्टिः-योजनी—-—साठ योजन का विस्तार या यात्रा
- षष्टिसंवत्सरः—पुं॰—षष्टिः-संवत्सरः—-—साठ वर्ष की अवधि या समय
- षष्टिहायनः—पुं॰—षष्टिः-हायनः—-—(साठवर्ष की आयु का) हाथी
- षष्टिहायनः—पुं॰—षष्टिः-हायनः—-—एक प्रकार का चावल
- षष्ठ—वि॰—-—षण्णां पूरणः-षष् + डट्, वुक्—छठा, छठा भाग
- षष्ठांशः—पुं॰—षष्ठ-अंशः—-—सामान्य छठा भाग
- षष्ठांशः—पुं॰—षष्ठ-अंशः—-—विशेष कर उपज का छठा भाग जिसको कि राजा अपनी प्रजा से भूमिकर के रूप में ग्रहण करता है
- षष्ठवृत्तिः—पुं॰—षष्ठ-वृत्तिः—-—उपज के छठे भाग का अधिकारी राजा
- षष्ठान्नम्—नपुं॰—षष्ठ-अन्नम्—-—छठा भोजन
- षष्ठकालः—पुं॰—षष्ठ-कालः—-—तीन दिन में केवल एक बार भोजन करने वाला
- षष्ठी—स्त्री॰—-—षष्ठ + ङीप्—चान्द्रमास के किसी पक्ष की छठ
- षष्ठी—स्त्री॰—-—षष्ठ + ङीप्—(व्या॰ में ) छठी विभक्ति या सम्बन्ध कारक
- षष्ठी—स्त्री॰—-—षष्ठ + ङीप्—कात्यायनी के रूप में दुर्गा का विशेषण, जो सोलह दिव्य मातृकाओं में से एक है
- षष्ठीतत्पुरुषः—पुं॰—षष्ठी-तत्पुरुषः—-—छठी विभक्ति के लोप वाला तत्पुरुष सदैव छठी विभक्ति का होता है
- षष्ठीपूजनम्—नपुं॰—षष्ठी-पूजनम्—-—बालक उत्पन्न होने के छठे दिन छठी देवी की पूजा करना
- षष्ठीपूजा—स्त्री॰—षष्ठी-पूजा—-—बालक उत्पन्न होने के छठे दिन छठी देवी की पूजा करना
- षहसानुः—पुं॰—-—सह + आनु, असुक्, पृषो षत्वम्—मोर
- षहसानुः—पुं॰—-—सह + आनु, असुक्, पृषो षत्वम्—यज्ञ
- षाट्—अव्य॰—-—सह + ण्वि, पृषो॰ षत्वं टत्वम् —सम्बोधक अव्यय
- षाट्कौशिक—वि॰—-—षट्कोश + ठक्—छः तहों में लिपटा हुआ
- षाडवः—पुं॰—-—षड् + अव् + अच् ततः स्वार्थे अण्—राग, मनोवेग
- षाडवः—पुं॰—-—षड् + अव् + अच् ततः स्वार्थे अण्—गाना, संगीत
- षाडवः—पुं॰—-—षड् + अव् + अच् ततः स्वार्थे अण्—(संगीत में) एक राग जिस में संगीत के सात स्वरों में से छः स्वर प्रयुक्त होते हैं
- षाड्गुण्यम्—नपुं॰—-—षड्गुण + ष्यञ्—छः गुणों की समष्टि
- षाड्गुण्यम्—नपुं॰—-—षड्गुण + ष्यञ्—राजा के द्वारा प्रयुक्त छः युक्तियाँ, राजनीति के छः उपाय
- षाड्गुण्यम्—नपुं॰—-—षड्गुण + ष्यञ्—छः से किसी संख्या का गुणन
- षाड्गुण्यप्रयोगः—पुं॰—षाड्गुण्यम्-प्रयोगः—-—राजनीति के छः उपाय, या छः युक्तियों का प्रयोग
- षाण्मातुरः—पुं॰—-—षण्णां मातृणाम् अपत्यम्, षण्मातृ + अण्, उत्व, रपर—छः माताओं वाला, कार्तिकेय का विशेषण
- षाण्मासिक—वि॰—-—षण्मास + ठक्—छमाही, अर्धवार्षिक
- षाण्मासिक—वि॰—-—षण्मास + ठक्—छः महीने का
- षाष्ठ—वि॰—-—षष्ठ + अण् स्वार्थे —छठा
- षिड्गः—पुं॰—-—सिट् + गन्, पृषो॰ षत्वम्— विलासी, ऐयाश, कामुक, कामासक्त
- षिड्गः—पुं॰—-—सिट् + गन्, पृषो॰ षत्वम्—प्रेमनिपुण, असंगत प्रेमी, विट
- षुः—पुं॰—-—सु + डु, पृषो॰ षत्वम्—प्रसूति, प्रजनन
- षोडश—वि॰—-—षोडशम् + डट्—सोलहवाँ
- षोडशम्—संख्या॰ वि॰, ब॰ व॰—-—-—सोलह
- षोडशांशुः—पुं॰—षोडशम्-अंशुः—-—शुक्रग्रह
- षोडशाङ्गः—वि॰—षोडशम्-अङ्गः—-—एक प्रकार का गन्धद्रव
- षोडशाङ्गुलक—वि॰—षोडशम्-अङ्गुलक—-—छः अंगुल की चौड़ाई का
- षोडशाङ्घ्रिः—पुं॰—षोडशम्-अङ्घ्रिः—-—केकड़ा
- षोडशार्चिस्—पुं॰—षोडशम्-अर्चिस्—-—शुक्रग्रह
- षोडशावर्तः—पुं॰—षोडशम्-आवर्तः—-—शंख
- षोडशोपचारः—पुं॰—षोडशम्-उपचारः—-—श्रद्धांजलि अर्पित करने की सोलह रीतियाँ
- षोडशकलः—पुं॰—षोडशम्-कलः—-—चन्द्रमा की सोलह कलाएँ
- षोडशभुजा—स्त्री॰—षोडशम्-भुजा—-—दुर्गा की एक मूर्ति
- षोडशमातृका—स्त्री॰ ब॰ व॰—षोडशम्-मातृका—-—सोलह दिव्य माताएँ
- षोडशधा—अव्य॰—-—षोडशन् + धाच्—सोलह प्रकार से
- षोडशिक—वि॰—-—षोडशन् + ठक्—सोलह भागों से युक्त
- षोडशिन्—पुं॰—-—षोडशन् + इनि—अग्निष्टोम यज्ञ का रूपान्तर
- षोढा—अव्य॰—-—षष् + धाच्, षष् उत्वम्, धस्य ष्टुत्वम्—छः प्रकार से
- षोढान्यासः—पुं॰—षोढा-न्यासः—-—मंत्र पढ़ते हुए शरीर स्पर्श के छः प्रकार
- षोढामुखः—पुं॰—षोढा-मुखः—-—छः मुंह वाला, कार्तिकेय
- ष्ठिव्—भ्वा॰ <ष्ठीवति>, दिवा॰ पर॰<ष्ठीव्यति>, <ष्ठ्यूत>—-—-—थूकना, मुँह से खखार निकालना
- ष्ठिव्—भ्वा॰ <ष्ठीवति>, दिवा॰ पर॰<ष्ठीव्यति>, <ष्ठ्यूत>—-—-—राल टपकना
- निष्ठिव्—भ्वा॰—नि-ष्ठिव्—-—प्रक्षेपण करना, निकालना, धकेलना
- निष्ठिव्—भ्वा॰—नि-ष्ठिव्—-—मुँह से खखार निकालना
- ष्ठीवनम्—नपुं॰—-—ष्ठीव् + ल्युट्—थूकना
- ष्ठीवनम्—नपुं॰—-—ष्ठीव् + ल्युट्—लार, थूक, खखार
- ष्ठेवनम्—नपुं॰—-—ष्ठिव् + ल्युट्—थूकना
- ष्ठेवनम्—नपुं॰—-—ष्ठिव् + ल्युट्—लार, थूक, खखार
- ष्ठ्यूत—भू॰ क॰ कृ॰—-—ष्ठिव् + क्त, ऊ—थूका हुआ, खखारा हुआ
- ष्वक्क्—भ्वा॰ आ॰ <ष्वक्कते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना
- ष्वस्क्—भ्वा॰ आ॰ <ष्वस्कते>—-—-—जाना, हिलना-जुलना