वीथी

विक्षनरी से

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

वीथी संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. द्दश्य काव्य या रूपक के २७ भेदों में से एक भेद । विशेष—यह एक ही अंक का होता है और इसमें एक ही नायक होता है । इसमें आकाशभाषित और श्रृंगार रस की अधिकता रहती है । प्राचीन काल में ऐसे रूपक अलग भी खेले जाते थे और दूसरे नाटकों के साथ भी । इसके नीचे लिखे १३ अंग माने गए हैं—(१) उद्घ तक । (२) अदलगित, (३) प्रपंच, (४) त्रिगत, (५) छलन, (६) वाक्केली, (७) अधिबल, (८) गंड, (९) अवश्यंदित, (१०) नालिका, (११) असत्प्रलाप, (१२) व्याहार और (१३) मृदद । धनंजय ने अपने दशरूपक में वीथी के उक्त तेरह अंगों का उल्लेख करके कहा है कि सूत्रधार इन वीथ्यंगों के द्वारा अर्थ और पात्र का प्रस्ताव करके प्रस्तावना के अंत में चला जाय और तब वस्तुप्रपंचन आरंभ हो । साहित्यदर्पण के अनुसार वीथी के अंग ही प्रहसन के भी अंग हो सकते हैं । अंतर केवल यही है कि वीथी में तो इनका होना आनश्यक है, पर प्रहसन में ऐच्छिक होता है । अतः कहा जा सकता है, वीथी और प्रहसन दोनों प्रस्तावना के ऐसे अंशों को कहते थे, जिनमें हास्य रस की अधिकता होती थी और जिनके द्वारा सामाजिकों या दर्शकों के मन में अभिनय के प्रति रुचि या उत्कंठा उत्पन्न की जाती थी ।

२. मार्ग । रस्ता । सड़क ।

३. वह आकाशमार्ग जिससे होकर सूर्य चलता है । रविमार्ग ।

४. आकाश में नक्षत्रों के रहने के स्थानों के कुछ विशिष्ट भाग जो वीथी या सड़क के रूप में माने गए हैं । जैसे,—नागवीथी, गजवीथी, ऐरावती वीथी, गोवीथी, मृगव थी आदि । विशेष—अकाश में उत्तर, मध्य और दक्षिण में क्रमशः ऐरावत, जरद्भव और वैश्वानर नामक तीन स्थान माने गए हैं; और इनमें से प्रत्येक स्थान में तीन तीन वीथियाँ हैं । इस प्रकार कुल नौ वीथियों में सत्ताईस नक्षत्र समान भागों में विभक्त हैं; अर्थात् प्रत्येक वीथी में तीन तीन नक्षत्रों का अवस्थान माना गया है ।

५. पंक्ति । कतार (को॰) ।

६. हाट । पण्यवीथिका (को॰) ।

७. मकान में सामने का छज्जा (को॰) ।

८. घुड़दौड़ का चक्राकार मार्ग (को॰) ।

९. चित्रों की पक्ति (को॰) ।