विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अ

विक्षनरी से


संस्कृत और हिंदी वर्णमाला का पहला अक्षर। इसका उच्चारण कंठ से होता है इससे यह कंठय वर्ण कहलाता है। व्यंजनों का उच्चारण इस अक्षर की सहायता के बिना अलग नहीं हो सकता इसी से वर्णमाला में क, ख, ग आदि वर्ण अकार- संयुक्त लिखे और बोले जाते हैं। विशेष—अक्षरों में यह सबसे श्रेष्ठ माना जाता हैं। उपनिषदों में इसकी बडी महिमा लिखी है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है—'अक्षराणामकारोस्मि'। वास्तव में कठे खुलते ही बच्चों के मुख से यह अक्षर निकलता है। इसी से प्रायः सब वर्णमालाओं में इसे पहला स्थान दिया गया है। वैयावरणों ने मात्राभेद से तीन प्रकार का माना है, ह्रस्व जैसे— अ; दीर्घ जैसे—आ; प्लत जैसे — अ३। इन तीनो में से प्रत्येक के दोदो भेद माने गए हैं; सानुनासिक और नीरनुनासिक। सान्- नासिक का चिह्न चंद्रबिदुँ है,। तंत्रशास्त्र के अनुसार यह वर्णमाला का पहाला आक्षर इसलिये है कि यह सृष्टि उत्पन्न करने के पहले सृष्टिवर्त की आकुल अवस्था की सूचित करता है।

अंक
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्क] [ वि० अङ्कि, अङ्कनीय, अङ्कय] १ संख्या। आदद। २. संरया का चिह्न, जैसे १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९,। रामनाम को अंक्र है साधन है सून।—तुलसी ग्रं०,पृ० १०४.। ३. चिह्न। निशान। छाप। आँक। उ०—सीय राम पद आंव बराए। लषन चल्हि मग दाहिन लाए। -मानस, २।२१३.। ४. दाग। धब्बा। उ०—जहाँ यह श्यामता को अंक है मयंक में -भिखारी ग्रं०, भा०१, पृ० ४९। ५. काजल की बिंदी नजर से बचाने के लिये बच्चे के माथे पर लगा देते है। ड़िठेना। अनखीं। ६. अक्षर। उ० — अदभत रामनाम के अंक।— सूर, १।९०.।७. लेख। लिखावट। उ०— खंड़ित करने को भाग्य अंक। देखा भविष्ट के प्रति अशंक।— अनामिका, पृ० १२३.। ८. भाग्य। लिखन। विस्मत। उ०— जो बिधना ने लिखि दियो छठी रात को अंक राई घटै न तिल बढै रहु रे निसंक।— किस्सा०, पृ० ८०.। ९. गोद। क्रोड़। कोली। उ०— जिस पृथिवी से सदोष वह सीता- अंक में उसी के आज लीन।— तुलसी० पृ० ४४.। १०,बार। दफा। मर्तबा। उ०— एक्हु अंक न हरि भजैसि रे सठ सूर गँवार।—सूर (शब्द०)।११. नाटक का एक अंश जिसकी समाप्ति पर जवनिका गिरा दी जाती है। १२. दस प्रकार के रूपकों में से एक जिसकी इतिहासप्रसिद्ध कथा में नाटककारउलटफेरक कर सकता है। इस्के रसयुत्क आख्यान में प्रधान रस करण और एक ही एंक होता हैं। इसकी भाषा सरल और पद छोटा होना चाहिए। १३. किसी पत्र या पत्रि का कोइ समायिक प्रति। १४. नौकी संख्या (क्योकि अंक नौ ही तक होते है)। १५. एक की संख्या। (को०)। १६. एक संख्या। सून्य (को०)। १७ पाप। दुःख। १८. शरीर। अंग। देह। जैसे— ' अंवधारिणी' में ' अंक'। १९. बगल। पार्श्र्व। जैसे— 'अंकपरिवर्तन' में ' अंक'। २०. कटि। कमर। उ०— सहं सूर सामंत बंधैति अंकं।— पृ० रा०, ५१।१२०.। २१. वक्र रेखा। उ०— भृकुटि अंक बकुरिय।— पृ० रा०, ६१।२४५७.। २२. हुक या हुव जैसा टेढ़ औजार (को०) २३. मोड़। झकाव (को०)। २४ काठ। गला। गर्दन। उ०— अंबरमाला इक्क अंक परिराइ वह्मौ इह।— पृ० रा०, ७।२६.। २५. विभषण (को०)। २६.— स्थान (को०) २७. चित्रयुद्ध। नवली लड़ाई (को०)। २८. प्रकरण (को०)। २९. पर्वत (को०)। ३०. रथ का एक अंश या भाग (को०)। ३१. पशु को दागने का चिह्न (को)। ३२. सहस्थिति (को०)। मुहा०—अंक देना= गले लगाने। आलिग्न देना। अंक भरना = हृदय से लगाना। लिपटाना। गले लगाना। दोनों हाथों से घेरकर प्यार से दवाना। परिरंझण करना। अलिंगन करना। उ०— उठी परजंक ते मयंक बदनी को लखि, अक भरिबे को फेरि लाल मन ल्लकै।— भिखारी०, ग्रं०, भा० १. पृ० २४५। अंक मिलाना = दे० ' अंक भरना'। उ०— नारी नाम बहिन जो आही। तासो कैसे अंक मिलाहा। — कबीर सा० पृ० १०१०। अंक लगना = दे० 'अंक देना'। अंक लगाना = दे० ' अंक भरना।' उ०— बावरी जो पै कलंक लग्यौ तो निसंक ह्वै क्यों नहि अंक लगावती।— इति०, पृ० २६३। अंक में समाना = लीन होना। सायुज्य मुत्ति प्राप्त करना। उ०— जैसे बनिका काटि की आ है राई। ऐसे हरिजन अंकि समाई।— प्राणा०, पृ० १५८।

अंकक
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कक] [स्त्री० अङ्किका] १. गिनती करनेवाला।२. हिसाब रखनेवाला। ३. चिह्न करनेवाला।

अंककरण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ककरण ] चिह्नन या छाप लगाने का कार्य। अंकन [को०]।

अंककार
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ककार] वह योद्बा जिसकी हार या जीत उसके पक्ष हार जीत का निर्णय कराए।

अंकगणित
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कगणित] संख्याओं का हिसाब। संख्या की मीमांसा। वह विद्या जिससे संख्याओं का जोड़, घटाव, गुणा, भाग आदि किया जाता है। हिसाब।

अंकगता
वि० स्त्री० [अङ्क + गता] पाश्र्व में स्थित। उ०— अंकगता तुम करो विशंवमंगल सदा।— पार्वती, पृ० १४३।

अंकज
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कज] पुत्र। संतान। उ० बिधि एंकज उपदेस दिय रघुपति गुन जस गाव।— प० रा०, १।२।

अंकतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कतन्त्र] संख्याओं की विद्या। अणंकगणित और बीजगणित।

अंकति
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कति] १. ब्रह्मा।२. वायु।३. अग्नि। ४. अग्निनहोत्रो [को०]।

अंकधारण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कधारण] तप्त मुद्रा के चिह्नों का दगवाना। शंख, चक्र, त्रिशुल आदि के सांप्रदायिक चिह्न गरम धातु से छपवान। क्रि० प्र०—करना।

अंकधारण
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्कधारणा] शरीर या अंक को धारण करने की स्थिति [को०]।

अंकधारिणी
वि० स्त्री० [सं० अङ्कधारिणी] १. शरीर में धारण करनेवाली। उ०— असंख्य पत्रावलि अंकधारिणी।— प्रिय प्र०, पृ० १०२.। २. तप्त मुद्रा के चिह्नन धारण करनेवाली। दे० 'अंकधारी'।

अंकधारी
वि० [सं० अङ्कधारिन्] [स्त्री० अङ्कधारिणी] तप्त मुद्रा के चिह्न धारण करनेवाल। शंख, चक्र, त्रिशूल आदि के सांप्रदायिक चिह्नों को गरम धातु से अपने शरीर पर छपवानेवाला।

अंकन
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कन] [वि० अङ्कनीय, अङ्कित, अङ्कय] १. चिह्न करना। निशान करना। २. लेखन। लिखना। जैसे— 'चित्रांकन', 'चरित्रांकन' में ' अंकन'। ३. शंख, चक्र, गदा, पद्म या त्रिशूल आदि के चिह्न गरम धातु से बाहु पर छपवाना। विशेष— वैष्णव लोग शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि विष्णु के चार आयुधों के चिह्न छपवाते हैं और दक्षिण शैव लोग त्रिशूल या शिवलिग के। रामानुज संप्रदाय के लोगों में इसका चलन बहुत है। द्वारिका इसके लिये प्रसिद्ध स्थान है। ४. गिनती करना। ५. श्रेणीनिर्धारण (को०)। क्रि० प्र०—करना। — होना।

अंकना पुं०
क्रि० स० [ सं० अङ्क] १. निश्चित करना। ठहराना। आंकना। उ०— इहै बात साँची सदा देव अंकी।— पृ० रा०, २।२११.।२. ढ़कना। मुद्रित करना। मूँदना। उ०— समझि दासि सिरवर तिन ढक्यो। करपल्लव तिन द्रग बर अंक्यो।— पृ० रा० ६१।७१९।

अंकनीय
वि० [ सं० अङ्कनीय] १. अंकन के योग्या चिह्न करने योग्य। २. छापने लायक। ३. चित्रण करने योग्य।

अंकपट्टी
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्क + हिं० पट्टी] काठ की लंबोतरी चिक्नी पटिया जिसपर बालक आरंभ में अभर लिखना सीखते हैं। पाटी। उ०— यहीं पर भगवान् कष्ण अंकपट्टी पर लिखना सीखे थे।— प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३४।

अंकपरिवर्तन
संज्ञा पुं० [ सं० अङकपरिवर्तन] १. एक ओर से जूसरी ओर पीठ करके सोना। करवट लेना। करवट बदलना। करवट फिरना। २. गोद के बच्चे को एक बगले से दसरी बगल करना। ३. एक अंक की समाप्ति के बाद दुसरे अंक का आरंभ (नाटक)। क्रि० प्र०—करना।—होना।

अंकपलई
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कपल्लव] वह विद्या जिसमें अंकों को अक्षरों के स्थान पर रखते है और उनके समूह से उमी प्रकार अभिप्राय निकालते हैं १जैसे शब्दों ऐर वाक्यों से। इसमें इकतीस अक्षर लेकर उनकी संख्याएँ नियत कर दी गई है। जैसे १. से 'प' अभर समझते हैं।

अंकपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' अंकपाली'।

अंकपाली
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्कपाली] १. दाई। धाय। २. अलिगन (को०)३. वेदिका नाम का गंधद्रव्य (को०)।

अंकपाश
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कपाश] गणित ज्यौतिशष में संख्याओं को विशिष्ट ढंग से रखने की एक क्रिया [को०]।

अंकमाल
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्क+ माला] अलिगन। भेंट। परिरंभण। गले लगना। उ०— भगति हेत भगता के चले, अंकमाल ले बीठल मिले।— रै० बानी, पृ० ५७। मुहा०—अंकमाल देना = आलिगन करना। भेटना। गले लगाना। उ०— आजु आए जानि सब अंकमाल देत हैं।— तुलसी ग्रं०, पृ० १७०।

अंकमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कमालिका] १. अलिगन। भेंट। २. छोटा हार। छोटी माला।

अंकमुख
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कमुख] नाटक का आरंभिक अंश जिसके द्वार सभी अंक तथा बीज रूप में कथानक सूचित किया जाता है, जैसे— भवभूति के मालतीमाधव नाटक का प्रथम अंक (सा० दर्पण)।

अंकविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्कविद्या] दे० ' अंकगणित'।

अंकशायी
वि० पुं० [सं० अङ्कशायिन्] [स्त्री० आङकशायिनी] एंक या गोद में सोनेवाला। उ०— अंकशायी तुम बनोगे दुर होंगे नैश संशय।— क्वासि,पृ० ११९।

अंकस (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्स] १. शरीर। देह। जिस्म। तन २. चिह्न। निशान [को०]।

अंकस (२)
वि० चिह्नयुत्क [को०]।

अंकांक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्काङक] जल। पानी [को०]।

अंकावतार
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कावतार] नाटक के किसी अंक के अंत में कथा को विच्छिन्न किए बिना आगामी अंक के आरंभिक दृश्य तथा पात्रों की सूचना या आभास, देनेवाला अंश (सा० दर्पण)। क्रि० प्र०— होना।

अंकास्य
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कस्य] अंक के अंत में प्रविष्ट किसी पात्र के द्वारा विचिछिन्न अतीत कथा का आगामी संसूचक अंश (स० दर्पण, दश०)।

अंकिका
संज्ञा स्त्री० [ सं० आङ्कका] १.चिह्न रखनेवाली।१. गिनती करनेवाली। ३. हिसाब रखनेवाली।

अंकित
वि० [ सं अङ्कित] १. निशान किया हुआ। दागदार। चिह्नित।उ०— भूमि बिलोकु राम पद अंकित बन बिलोकु रघुबर बिहार थलु।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४६६.। २. लिखित। खचित। उ०— तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित आति सुंदर।— मानस, ५।१३.। ३. वर्णित। उ०— सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी ।— मानस, १।१०। ४. गिना हुआ (को०)। क्रि० प्र०— करना।— होना।

अंकिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्किनी] १. चिह्नों का समूह। चिह्न- राशि। २. चिह्नयुत्क स्त्री० [को०]।

अंकिनी (२)
वि० अंकन करनेवाली। उ०— होकर भी बहु चिह्न अंकिनी आप रंकिनी आशा है।— साकेत, पृ० ३६९।

अंकिल †
संज्ञा पुं० [सं० आङ्क + हिं इल (प्रत्य०,)] बछड़ा जिसे हिदू वृषोत्सर्ग में दागकर छोड़ देते हैं। दाग हुआ साँड़। साँडं।

अंकी
संज्ञा पुं० [सं० अङ्की] एक प्रकार का मृदंग [को०]।

अंकुट
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कृट] कुंजी। ताली [को०]।

अंकूड़क
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कु ड़क] १. कुंजी। ताली। २. नागदंत। खूँटी [को०]।

अंकुर (१)
संज्ञा पुं० [ स, अङ्कृर] [वि० अङ्कुरित, हिं० अंकुरना] १. अँखुआ। गाभ। अँगुसा। उइ०— पाइ कपट जल आंकुर जामा।— मानस, २।२३.। २. ढ़ाभ। कल्ल। कनखा। कोपल। आँख। ३. यव का नया नया आँखुआ जो मांगलिक होता है। उ०— अच्छत अंकुर रोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।—मानस, १।४६। क्रि० प्र०— आना। उगना।— जमना।— निकलना।— फूटना।— फोड़ना ।— फेकना।— लेना। ४. कली।५. संतति। संतान। उ०— (क) ' हमरे नष्ट कुल में ये एक अंकुर बचा है, इससे हमारा वंश चलेगा।' — श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १४६। (ख) थे अंकुर हितकर कलश पयोधर पावन।— साकेत, पृ० २०३.। ६. नोक।७. जल। पानी। ८. रूधिर। रत्त्क। खून। ९. रोम। रोआं।

अंकुर (२)
संज्ञा पुं० [फा० अंगूर] मास के बहुत छोटे लाल लाल दाने जो घाव भरते समय उत्पन्न होते है। भराव। अंगूर।

अंकुरक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कु रक] घोंसला। खोता [को०]।

अंकुरण
संज्ञा पुं० [ सं अणङ्कुरण] अंकुर निकलना। बीज आदि का अंकुरयुत्त्क होना [को०]।

अंकुरना
क्रि० अ० [सं० अङ्कु रण] अंकुर फोड़ना। उगना। जमना। निकलना। पैदा होना। उत्पन्न होना० उ०— उर अंकुरेउ गर्ब तरू भारी।— मानास, १।२१९।

अंकुराना
क्रि० अ० दे० ' अंकुरना'।

अंकुरित
वि० [सं० अङ्कुरित] १. जिसमें अंकुर हो गया हो। अँखुआ आया हुआ। उगा हुआ। जमा हुआ। उ०— सृष्टि बीज अंकुरित प्रफुल्लित सफल हो रहा हरा भरा। — कामाय़नी, पृ० १८२।२. उत्पन्न। निकला हुआ। उ०य— अंकुरित तरू पात उकठि रहे जो गात, बनबेली प्रफुलित कलिनी कहर के।— सूर०, १०।३०। क्रि० प्र०—करना।

अंकुरितयौवना
वि० [सं० अङ्कु रितयौवना] वह बालिका जिसके योवनावस्था के कुच आदि चिह्न प्रकट हो गए हों। किशोरी।

अंकुरी †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० अंकुर + ई] चने की भिगोइ हुइ घुँघनी।

अंकुल
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कुर] दे० ' अंकुर'- १। उ०— अंकुल बीज नसाय कै भए बिदेही थान।— कबीर बी०, पृ० १३। (ख) बीज बिन अंकुल पेड़ तरिवर, बिनु फूले फल फरिया।— कबीर बी०, पृ० ३५।

अंकुश
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कुशा] १. एक प्रकार का छोटा शस्त्र या टेढ़ा काँटा जिसे हाथी के मस्तक में गोदकर महावत उसे चलाता या हाँकता है। हाथी को हाँकने का दोमुहाँ काँट या भाला जिसका एक फल झुका होता है। आंकुस। दगजबाग। श्रृणि। क्रि० प्र०—देना।— मारना।— लगाना। २. प्रतिबंध। रोक। दबाव। नियंत्रण। जैसे, अंकुश में रखना। = प्रतिबंध में रखना। ३. अंकुश के आकार की हाथ पैर की रेखा। उ०— अंकुश बरछी शत्कि पबि गदा धनुष असि तीर। आठ शस्त्र यको चिह्न यह धरत पद बलबीर।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २१।

अंकुशग्रह
संज्ञा पुं० [ सं० आअङकुशग्रह] महावत। हाथीवान। निषादी। फीलवान।

अंकुशदंता
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कुशदन्त] एक प्रकार का हाथी जिसका एक दाँत सीधा ऐर दूसरा पृथिवी की ओर झुका रहता है। यह अन्य हाथियों से बलवान् और क्रोधी होता है तथा झुंड़ में नहीं रहता। इसे गुंड़ा भी कहते हैं।

अंकुशदुर्धर
संज्ञा पुं० [ सं०य अङ्कु शदुर्धर] अंकुश से भई जल्दी वश में न आनेवाला मतवाला हाथी। मत्त हाथी।

अंकुशधारी
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कुशधारी] महाबत। फीलबान [की०]।

अंकुशमुद्रा
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कुशमुद्रा] तंत्र शास्त्र में अंगुलियों को अंकुश के आकार की बनाई आकृति [को०]।

अंकुशा
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्कुशा] २४ जैन देवियों में एक। चौदहवें तीर्थकर श्री अनंतनाथ की शसासनदेवी का नाम [को०]।

अंकुशित
वि० [सं० अङ्कुशत] अंकुश के प्रयोग द्वार आगे बढ़ाया हुआ [को०]।

अंकुशी (१)
वि० [सं० अङ्कुशी] १. अंकुशवला। अंकुश से युत्क। २. अंकुश से वश में करनेवाला [को०]।

अंकुशी (२)
संज्ञा स्त्री० दे० ' अंकुशा'।

अंकुस (१)
संज्ञा पुं० [ सं० अङकुश; प्रा० अंकुस] १. दे० ' अंकुश'। अ०— महामत गजरजा कहुँ बस कर अंकुस खर्ब।— मानस, १।२५६। मुहा०— अंकुस देना= ठेलना। जबरदस्ती करना। उ०— क्रोध गजपाल के ठठकि हाथी रह्यो देत अंकुस मसकि कब सकान्यो।— सूर०, १०।३०५४। २. दे० ' अंकुश' २। उ०— कुल अंकुश आरज पथ तजि के लाज सकुच दई ड़ेरै। सूर स्याम कैं रूप लुभाने कैसेहुँ फिरत न फेरे।— सूर० (परि०)२, पृ० ७४। ३. दे० ' अंकुश' ३.। उ०— याका सेवक चतुरतर गननायक सम होइ। या हित अंकुस चिह्न हरि चरनन सोहन सोइ।— भआरतेंदुर्गं०, भा० २, पृ०८।

अंकुसा
संज्ञा पुं० [ सं अङ्कुश] एक प्रकार का अस्त्र। उ०— सूल अंकुसा छुरी सुधारी तिष्ष कुटारी।— सुजान०, पृ० १५७।

अंकूर
संज्ञा पुं० [सं० आङ्कूर] दे० 'अंकुर'। उ०— (क) तब भा पुनि अंकूर, दजीपक सिरजा निरनमला।— जायसी (शब्द०)। (ख) सौ सामंत प्रमान, उग्गि अंकुर बीर रस।— पृ० रा०, ३१।६३।

अंकूरी पु
वि० [सं० अङकूर + ई (प्रत्य०)] अंकुरवाला। ज्ञान के अंकुरवाला (पूर्वजन्म के संस्कार से)। उ०— अंकरी जिव मेटे निज गेहा। नूबा नाम जो प्रथम सनेहा।— कबीर सा०, पृ० ८१।

अंकूलना पुं०
क्रि० अ० [ सं० अङि्कुरण, हि० अंकुरना] जनमाना। पैदा। होना। उ०— सालिग्राम गंड़क अंकूला। पाहन पुजन पंड़ित भूला।— कबीर सा०, पृ० १८।

अंकूष
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कूष] १. अंकुश। २. नेवले की जाति का एक जानवर। घुस [को०]।

अंकोट
संज्ञा पुं० [ सं० अङकोट] दे० 'अंकोल'।

अंकोटक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्कोटक] दे० ' अंकोल'।

अंकोल
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्कोल] एक पेड़ जो सारे भारतवर्ष में प्राय? पहाड़ी जमीन पर होता है। विशेष— यह शरीफ के पेडसे मिलता जुलता है। इसमें बेर के बरा— बर गोल फल लगने है जो पकने पर काले हो जाते हैं। छिलका हटाने पर इसके भीतर बीज पर लिपटा हुआ सफद गूदा होता जो खाने में कुछ मीठा होता है। इस पेड़ की लकड़ी कड़ी होती है और छड़ी आदि बनाने के काम में आती है। इसकी जड की छाल दस्त लागे, वमन कराने, कोढ़ और उपदंश आदि चर्मरोगों को दूर करने तखथा सर्प आदि विषैले जंतुओं के विष को हटाने में उपयोगी मानी जाती है। पर्या०—अंकोटक। अंकोट। धेरा। अकोला।

अंकोलसार
संज्ञा पुं० [ सं० अङोकलसार] अंकोल के वृक्ष से तैयार किया गया विष [को०]।

अंकोलिका
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्कोलिका] आलिगन। अँकवार [को०]।

अंक्य (१)
वि० [ सं० अङकय] १. चिह्न करने योग्य। निशान लगाने लायक। अंकनीय। २. गिनने योग्य।[को०]।

अंक्य (२)
संज्ञा पुं० १. दागने योग्य अपराधी। विशेष— प्राचीन काल में राजा लोग विशेष प्रकार के अपराधियों के मस्तक पर कइ तरह के चिह्न गरम लोहे से दाग देते थे। इसी से आजकल भी किसी घोर अपराधी को, जो कइ बेर सजा पा चुका हो, ' दागी ' कहते हैं। २. मृदंग, तबला पखावज आदि बाजे जो अंक में रखकर बजाए जायँ।

अंख पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षि ; प्रा० आक्ख] आंख। नेत्र। उ०— आज नीरालइ सीय पड़यो। च्यारि पहूर माँही नू मीली अंख।— बी० रासो, पृ० ४८।

अंखि पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० आक्ष; प्रा० अक्खि ] दे० ' अंख'। उ०— करि क्रोध अंखि सुरत, हवि जानि लग्गिय लत्ता।— पृ० रा०, १।१०४।

अंखिका पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० अक्षि] आंख। नेत्र। उ०— लजै भजै मनं गतियपुव्वता कबी कहै। सु अंखिका कुरंग गत्ति भांन देषिता रहै।— पृ० रा० ११।५४।

अंखे
क्रि० वि० [सं० आक्षि; (लाक्ष०)] आगे। समक्ष। आँख में। उ०— न अंखे है, न पछे हैं, न तले है३, न ऊपर है।— दविखनी, पृ० ४४८।

अंग (१)
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग] १. शरीर। बदन। देह। गात्र। तन। जिस्म। उ०— अभीशाप ताप की ज्वाला से जल रहा आज मन और अंग।— कामायनी, पृ० २६२.।२. शरीर का भाग अवयव। उ०— भूषन सिथिल अग भूषन सिथिल अंग— भूषण ग्रं०, पृ०१२९। मुहा०—अग उभरना = युवावस्था आना अंग करना = स्वीकार करना। ग्रहण करना। उ०— (क) जाकौ मनमोहन अंग करै।— सूर (शब्द०)। (ख) जाको हरि दृढ करि अंग करयो।— तुलसी (शब्द०)। अंग छूना= शपथ खाना। माथा छूना। कसम खाना। उ०— सूर हृदय से टरत गोकुल अंग छुवत हौं तेरी।— सूर (शब्द०)।अंग टूटना= जम्हाई के साथ आलस्य से अंगों का फंलाया जाना। अंगड़ाई आना। अंग तोड़ना।— अँगड़ाई लेना। अंग धरना = पहनना। धारण करना। व्यवहार करना। अंग में मास न जमना = दुबला पतला रहना। क्षीण रहना। उ०— नैन न आवै नींदड़ी, अंग न जमै मासु।— कबीर सा० सं०, भ० १, पृ० ४३। अंग मोडना = (१) शरीर के भगों को सिकोड़ना। लज्जा से देह छिपाना। (२) अँगड़ाई लेना। उ०— अंगन मोरति भोर उठी छिति पूरति सुगंध झकोरन।— व्यंगार्थ (शब्द०)। (३) पीछे हटना। भागना। नटना। बचना। उ०— रे पतंग नि? शंक जल, जलत न मोड़ै अंग। पहिले। तो दीपक जलै पीछे जलै पतंग (शब्द०)। अंग लगाना =(१) आलिगन कतरना। छती से लगाना। (२) शरीर पुष्ट होना। उ०— ' वह खाता तो बहुत है पर उसके अंग नहीं लगता' (शब्द०)। (३) काम में आना। उ०— ' किसी के अंग लग गया, पड़ा पड़ा क्या होता' (शब्द०)। (४) हिलना। परचना। उ०— ' यह बच्चा हमारे अंग लगा है' (शब्द०)। अंग लगाना या अंग लाना पुं० = (१) आलिगन करला। छाती से लगाना। परिरंभण करना। लिपटाना। उ०— पर नारी पैनी छुरी कोउ नहिं लाओं अंग। (शब्द०) (२) हिलाना। परचाना। (३) विवाह देना। विवाह में देना। उ०— ' इस कन्या को किसी के अंग लगा दे' (शब्द०)। (४) अपने शरीर के आरम में खर्च करना। ३. भाग। अंश। टुकड़ा। ४. खंड़। अध्याय। जैसे— ' गुरूदेव कौ अंग', ' चितावनी कौ अंग', ' सूषिम मारग कौ अंग'।— कबीर ग्रं०। ५. ओर। तरफ। पक्ष। उ०— सात स्वर्ग अपवर्ग ससुख धरिय तुला इक अंग।— तुलसी (शब्द०)। ६. भेद। प्रकार। भआंति। तरह। उ०— (क) कृपालु स्वामी सारिखो, राखै सरनागत सब अंग बल बिहीन को।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५६४। (ख) अंग अंग नीके भाव गूढ भाव के प्रभआव, जानै को सुभाव रूप पटि पहिचानी है।— केशव (शब्द०)। ७. आधार। आलंबन। उ०— राधा राधारमन को रस सिगार में अंग।— भिखारी० ग्रं०, भथआ० १, पृ०य ४। ८. सहायक। सुहृद। पक्ष का। तरफदार। उ०— रौरे अंग जोग जग, को है।— मानस, २।२८४.।९. एक संबोधन। प्रिय। प्रियवर। उ०— यह निश्चय ज्ञानी को जाते कर्ता दीखै करै न अंग।— निश्चल (शब्द०)।१०. जन्मलग्न (ज्यो०)।११. प्रत्यय- युत्क शब्द का प्रत्यय रहित भाग। प्रकृति। (व्या०)। १२. छह की संख्या। उ०— बरसि अचल गुण अंग ससी संवति, तवियौ जस करि श्रीभरतार।— वेलि, दू० ३०५। १३ वेद के ६. अंग; यथा - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूत्क, ज्योतिष और छंद। दे० ' वेदांग'। १४. नाटक में श्रृगर और वीर रस को छोड़कर शेष रस जो अप्रधान रहते हैं। १५. नाटक में नायक या अंगी का कार्यसाधक पात्र ; जैसे — ' वीरचरित' में सुग्रीव, अंगद, विभषण आदि। १६. नाटक की ५ संधियो के अंतर्गत एक उपविभआग। १७. मन। उ०— सुनत राव इह कथ्थ फुनि, उपजिय अचरच अंग। सिथिल अंग धीरज रहित, भयो दुमति मति पंग।— पृ० रा० ३।१८.। १८. साधन जिसके द्वार कोइ कार्य संपादित किया जाय। १९. सेना के चार अंग वा विभाग; यथा— हाथी, घोड़े रथ और पैदल। दे० 'चतुरंगिणी'। २०. राजनीति के सात अंग; यथा — स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना। म२१. योग के आठ अंग; यथा— यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा ऐर समाधि। दे० ' योग'। २२. बंगाल में भागलपुर के आसपास का प्राचीन जनपद जिसकी राजधानी चंपापुरी थी। कहीं कहीं विस्तार वैद्यानाथ से लेकर भुवनेश्वर (अड़ीसा, उत्कल) प्रदेश तक लिखा है। २३. ध्रुव के वंश का एक राजा। २४. एक भत्क का नाम। २५. उपाय। २६. लय़क्षण।चिह्न (को०)।

अंग (२)
वि० १. अप्रधान। गौण। २. उलटा। प्रतीप। ३. प्रधान। ४. निकट। समीप (को०)। ५. अंगोंवाला (को०)।

अंग (३) पुं०
संज्ञा स्त्री० [सं० आज्ञा] आज्ञा।आदेश। उ०— सो निज स्वामिनि अंग सुनि क्रमिय सुअथ्थह कब्ब।— पृ० रा०, ६१।७६६।

अंगकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गकर्म] शरीर को सँवारना या मालिश करना। क्रि० प्र०— करला।— होना।

अंगक्रिया
संज्ञा स्त्री० [ सं० अङ्गक्रिया] अंगकर्म [को०]।

अंगग्रह
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग्रह] १. एक रोग जिससे देह में पीड़ा होती है। २. स्थापत्य में पत्थरों के एक दुसरे के ऊपर फिसल न जाने बीच अथवा उनके जो़ड़ों को अलग होने से रोकने के लिये उनके बीच बैठाया जानेवाला कबूतर की पूँछ के आकार का लोहे या ताँबे का एक टुकड़ा। पाहू।

अंगचालन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गचालन] हाथ पैर हिलाना। अंग डुलाना।

अंगच्छवि
संज्ञा स्त्री० [ अङ्ग + छवि] अंगों की शोभ। उ०— ' अंगच्छवि से होते थे स्वयं अलंकृत'।— पार्वती, पृ० २००।

अंगच्छेद
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्ग+ छेद ] अंग कटना। अंगभंग। उ०— शरीर छोटे से बड़ा होता है, उसका कभी कभी अंदच्छेद हो जाता है।— चिद्०, पृ० २०७।

अंगज (१)
वि० [सं० आङ्ग] शरार से उत्पन। तन से पैदा। उ०— कुअंगजों की बहु कष्टदायिता बता रही जन नेत्रवान को।— प्रिय० प्र०, पृ० १०६।

अंगज (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० अंगजा] १. पुत्र। बेटा। लड़का। उ०—ड कृष्ण गेह कै काम, काम अंगज जनु अनुरध।— पृ० रा०, १।७२७.।२.पसीना। ३. बाल। केश।रोम। ४. काम, क्रोध आदि विकार। ५. साहित्य में स्त्रियों के यौवन संबंधी जो सात्विक विकार है उनमें हाव, भआव और हेला ये तीन 'अंदज' कहलाते हैं। कायिक। ६. कामदेव। ७. मद। ८. रोग। ९. रत्क। खून (को०)।

अंगजा
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गजा] कन्या। पुत्री। बेटी।

अंगजाई
संज्ञा स्त्री० [ सं० आङ्ग+ हिं० जाई] पुत्री। बेटी। कन्या।

अंगजात
संज्ञा पुं० दे० ' अंगज'।

अंगजाता
संज्ञा स्त्री० दे० ' अंगज'।

अंगज्वर (१)
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गज्वर] राजयक्ष्मा। क्षय रोग [को०]।

अंदज्वर (२)
वि० ज्वरोत्पादक [को०]।

अंगड़ खंगड़ (१)
वि० [अनुध्व०] १. बचा खुचा। गिरा पड़ा। इधर इधर का। २ टूटा फूटा। उ०— ' अयोध्या की अंगड़ खंगड़ बीहड़ और बेढंगी बस्ती।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १७४।

अंगड़ खंगड़ (२)
संज्ञा पुं० काठक्बाड़। टुटा फूटा सामान।

अंगड़ा पुं०
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्ग + हिं ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'अंग'१। उ०— तेरा अंगड़ा पैखों रै, तेरा मुखड़ा देखों रे।— दादू०, पृ० ५०४।

अंगढ़ग
संज्ञा पुं० [ सं० आङ्ग + हिं० ढंग] अंगों की बनावट या रचना। उ०— अंगढंग औ रंग भूरि भँवरी सुभ लच्छन।— रत्नाकर, भा० १, पृ० १६१३।

अंगण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गण] १. घर के बीच खुला हुआ भाग। आँगन। सहन। चौक। अजिर। उ०— (क) संदेसे ही घर भर् यउ अंगणि कई वार।— ढोला०, दू०, ८००। (ख) आबी द्वार, तजे ग्र अंगण।— राज०, पृ० १८। विशेष— शुभाशुभ निश्चय के लिये इसके दो भेद माने गए हैं, एक ' सूर्यवेधी' जो पूर्व पश्चिम लंबा हो, दसरा ' चंद्रवेधी' जिसकी लंबाई उत्तर दक्षइण हो। चंद्रवेधी अंगन अच्छा समझ जाता है। २. यान। सवारी (को०)। ३. संचरण। गमन (को०)।

अंगति
संज्ञा पुं० [ सं० आङ्गति] १. अग्नहोत्री। २. विष्णु। ३. ब्रह्मा। ४. अग्नि।५. जिसके द्वारा गमन किया जाय। वाहन [को०]।

अंगत्राण
संज्ञा पुं० [ सं० अङ्गत्राण] १. शस्त्रास्त्रों से अंग की रक्षा के निमित्त पीतल या लोहे का पहिनावा। कवच। बख्तर। वर्म। जिरह। २. अँगरखा। कुरता।

अंगद
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गद] १. बालि नामक बंदर का पुत्र जो रामचंद्र की सेना में था।२. बाहु पर पहनने का एक गहना। बिजायट। बाजूबंद। उ०—उर पर पदिक कुसुम बनमाला अंगद खरे बिराजै।— सूर, १०।४५१.। ३. लक्षमण के दो पुत्रों में से एक। ४. दुयोंधन के पक्ष का एक योद्धा

अंगदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गदा] दक्षिण दिशा के दिग्गज की पत्नी।

अंगदा (२)
वि० स्त्री० अंगदान करनेवाली (स्त्री)।

अंगदान
संज्ञा पुं० [अङ्ग + दान] १. पीठ दिखलाना। युद्ध से भागना। लड़ाई से पीछे फिरना। २. तनुदान। अंगसमर्पण। सुरति। रति। (स्त्रियों के लिये प्रयुक्त)। क्रि० प्र०—करना = (१) पीठ दिखलाना, भागना, पीछे फिरना। (२) रति करना, संभोग करना।

अंगदीया
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गदीया] कारुपथ नामक देश की नगरी जो लक्ष्मण के पुत्र अंगद को मिली थी।

अंगद्धार
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गद्धार] शरीर के मुख, नासिका आदि दस छेद।

अंगद्धीप
संज्ञा पुं० [अङ्गद्धीप] छह द्धीपों में से एक।

अंगधारी
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग + धारिन्] शरीर धारण करनेवाला। शरीरी। प्राणी।

अंगन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गन] १. आँगन। सहन। चौक। उ०—घर अंगन गायन षिरकि जमुना जल बन कुज।—पृ० रा०, २।५५६।

अंगना
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गना] २. सुंदर अंगवाली स्त्री। २. स्त्री। कामिनी। उ०—पीच परी अगना अनेक आँगननि के।—केशव ग्रं०, भा०१, पृ० १८३. । . २. सार्वभौम नामक उत्तर के दिग्गज की स्त्री। ४. कन्या राशि (को०)। ५. वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर और मीन राशियाँ (को०)।

अंगनाप्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गनाप्रिय] १. अशोक का पेड़। २. उत्तर दिशा का हस्ती [को०]।

अंगनाप्रिय (२)
वि० स्त्रियों का प्यारा [को०]।

अंगन्यास
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गन्यास] तंत्रशास्त्र के अनुसार मंत्रों को पढ़ते हुए एक एक अंग छुना। संध्या, जप पाठ आदि के पुर्व की जानेवाली एक विधि।

अंगपाक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गपाक] अंगों का पकना या सड़कर उनमें मवाद भरना। अंग पकने का रोग।

अंगपालिका
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंकमालिका' [को०]।

अंगपाली
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गपाली] १. आलिंगन। अँकवार। २. वेदिका नामक गंधद्रव्य [को०]।

अंगप्रायश्चित
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गप्रायश्चित्त] स्मृतियों में कथित अशौच में दान के रुप में किया जानेवाला प्रायश्चित्त जो शरीर की शुद्धि के लिये किया जाता है [को०]।

अंगप्रोक्षण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गप्रोक्षण] अंग पोंछना। देह पोँछना शरीर की गीले कपड़े से मलकर साफ करना।

अंगफुरन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग + स्फुरण, प्रा० अप० फुरण] अंग का फड़कना। उ०—अंगफुरन तैं निज मतंग मन रंग पिछानत।— रत्नाकर भा०१, पृ० ११७।

अंगबी
संज्ञा पुं० [फा०] मधु। शहद। उ०—ताअत में ता रहें न मय ओअंगबी की लाग।—शैर०, भा०१, पृ० ५२७।

अंगभग (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गभङ्ग] १. किसी अवयव का खंडन या नाश। अंग का खंडित होना। शरीर के किसी भाग की हान।२. मोहित करने कि स्त्रियों की चेष्टा। स्त्रियों की कटाक्ष आदि क्रिया। अंगभंगी।

अंगभंग (२
वि० जिसके शरीर का का कोई भाग खंडित हो या टुटा हो। जिसके हाथ पैर टुटे हों। अपाहज। लँगड़ा लुला। लुंज। क्रि० प्र०—करना। उ०—अंगभंग करि पठवहु बंदर। —तुलसी (शब्द०)।—होना। जैसे—उसका अंगभंग हो गया।— (शब्द०)।

अंगभंगि
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगभंगी'। उ०—अंगभंगि में व्योम मरोर, भौहों में तारों के कौंर।—पल्लव, पृ० ३३।

अंगभंगिमा
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगभंगी'। उ०—संमोहन विभ्रम अंगभंगिमा में अपठित।—ग्राम्या, पृ० २०।

अंगभंगी
संज्ञा पुं० [सं० अंङ्ग+ भंङ्गी] स्त्रियों की मोहित करने की चेष्टा। स्त्रियों की चेष्टा। अदा। उ०—वह अनंगपीड़ा अनुभव सा अनुगियों का नर्तन।—कामायनी, पृ० ११।

अंगभाव
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गभाव] संगीत में नेत्र, भृकुटि और हाथ आदि अंगों से मनोविकार का प्रकाशन। गाने में शरीर की विवध मुद्रओं द्वारा चित्त के उद्धेगों की अभिव्यक्ति।

अंगभु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गभु] १. पुत्र। २. कामदेव [को०]।

अंगभु (२)
वि० शरीर या मन से उत्पन्न [को०]।

अंगभुत (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गभुत] पुत्र। बेटा।

अंगभुत (२)
वि० १. अंग से उत्पन्न। देह से पैदा। २. अंतर्गत। भीतर। अंतर्भुत। ३. गौण। अप्रधान।

अंगभंग पु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग + मङ्ग या अङ्ग, प्रा० अंगभंग] अंग प्रत्यंग। हर एक अवयव। उ०—कुदंन ओपति अंगभंग जनु चंद किरनि सिर।—पृ० रा०, १४।७४।

अंगम पु
संज्ञा पुं० [सं० आगम] आगम। आना। अवाई। उ०—तिन रिषि पुछी ताहि कवन कारन इत अंगम।—पृ० रा०, १।२९४।

अंगमना पु
क्रि० स० दे० 'अँगवना'। उ०—पायन राय जय- चंद को बिगरि पिथ्य कुन अंगमै।—पृ० रा०, ६१।१०।६०। (ख) को अंगमौ सु जम्म क्रम्म को करै सँघारन।—पृ० रा०, ६।१०६०।

अंगमर्द
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गमर्द] १. अंग मलनेवाला या हाथ पैर दबानेवाला नौकर। संवाहक। सेवक। २. एक प्रकार का बात- रोग। हड्डियों का दर्द। हड़फुटन रोग।

अंगगर्दक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गमर्दक] अंगमर्द। संवाहक [को०]।

अंगमर्दन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गमर्दन] अंगों की मालिश। देह। दबाना। हाथ पैर दबाना।

अंगमर्दी
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गमर्दी] संवाहक। अंगमर्दक।

अंगमर्ष
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गमर्ष] अंगों की पीड़ा। वातरोग [को०]।

अंगयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गयज्ञ] प्रधान यज्ञ का अंगीभुत यज्ञ [को०]।

अंगयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गयष्टि] शरीर की पतली आकृति [को०]।

अंगरक्षक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गरक्षक] [स्त्री० अङ्गरक्षिका] शासक या विशेष अधिकारी की रक्षा के लिये नियुक्ति सैनिक। बाडीगार्ड। शरीर रक्षक [को०]।

अंगरक्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गरक्षिणी] शरीर की रक्षा के लिये लोहे की बनी पौशाक। वर्म। कवच [को०]।

अंगरक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गरक्षा] शरीर की रक्षा। देह का बचाव। बदन की हिफाजत।

अंगरक्षिणी
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगरक्षणी'।

अंगरस
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग+ रस] किसी पत्ती या फल का कुटकर निचोड़ा हुआ रस। स्वरस। राँग।

अंगराग
सं० पुं० [सं० अङ्गराग] १. चंदन, केसल, कपुर, कस्तुरी आदि सुगंधित द्रव्यों का मिला हुआ लेप जो अंग में लगाया जाता है। उबटन। बटना। २. वस्र् और आभुषण। ३. शरीर की शोभा के लिये महावर आदि रँगने की सामग्री। ४. स्त्रियों के शरीर के पाँच अंगों की सजावट—माँग में सिंदुर, माथे थे रोली, गाल पर तिल की रचना, केसर का लेप, और हाथ पैर में मेहँदी वा महावर। ५. एक प्रकार की सुगंधित देसी बुकनी जिसे मुँह पर लगाते है। चीसठ कलाओं में से एक।—वर्ण०।

अंगराज
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गराज] १. अंग देश का राजा कर्ण। २. राजा सोमापाद जो दशरथ के परम मित्र थे। इनकी कन्या शांता ऋष्यश्रृग की ब्याही गई थी। इसी नाते ऋष्यशृंग ने दशरथ से पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया था।

अंगरुह
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गरुह] १. शरीर के रोएँ, केश आदि। २. ऊन [को०]।

अंगरेजी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० पुर्त०, आंग्लेज, इंगलेज] अंगरेज लोगों की भाषा। इंग्लैड और अमेरिका के निवासियों की भाषा।

अंगरेजी (२)
वि० अंगरेजों की। विलायती।

अंगरेजीबाज
वि० [हिं० अंगरेजी + फा० बाज] कुछ कुछ अँगरेजी जाननेवाला। उ०—'बहुतेरे' अंगरेजीबाज साँवले साहित्य लोग'।—प्रेमघन०, भा०२, पृ० २५२।

अंगलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गलिपि] अंग देश में लिखी जानेवाली लिपि [को०]।

अंगलेप
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गलेप] दे० 'अंगराज'—१ [को०]।

अंगलोड्य
संज्ञा पुं० स० [अङ्गलोड्य] १. एक प्रकार की घास। चिचिड़ा। २. अदरक या उसकी जड़ [को०]।

अंगवना पु
क्रि० स० दे० 'अंगवना'-३। उ०—एक कोटि अंगवन धरत हर उर सुध्यान वर।—पृ० रा०, ६१।१६०।

अंगवस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग + वस्त्र] पहनने का वस्त्र। पोशाक। उ०—जो जो अंग ऊपर अंगवस्त्र पहिरे हते सो तो रहे।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ११३।

अंगवारा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग = भाग, सहायता + कार] १. गाँव के एक छोटे भाग का मालिक। २. खेत की जोताई में एक दुसरे की सहायता।

अंगविकल
वि० [सं० अङ्गविकल] १. मुर्छायुक्त। मुर्छित। २. विकलांग (को०)।

अंगविकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गविकृति] अपस्मार। मृगी या मिरगी रोग। मुर्छा रोग।

अंगविक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०अङ्गविक्षेप] १. अंग हिलाना। चमकाना। मटकाना। बोलते, वकतृता देते वा गाते समय हाथ पैर सिर आदि का हिलाना। २. नृत्य। नाच। ३. नृत्यकालीन अंग- संचालन। कलाबाजी।

अंगाविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गविद्या] १. शरीर के लक्षणों और रेखाओं को देखकर जीवन की घटनाओं को बताने की विद्या। शरीर की रेखाओं से मनुष्य के शुभाशुभ फल कहने को कला। सामुद्रिक विद्या। २. छह वेदांग।

अंगविभ्रम
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गविभ्रम] १. रोग जिसमें रोगी अंगों को और का और समझना है। अंगभ्राति। २. शृंगार रस में नायिका की विभ्रम नामक चेष्टा।

अंगवैकृत
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गवैकृत] हृदय या मन के भाव को अंगों की चेष्टा से व्यक्ति करना। आकार [को०]।

अंगशः
क्रि० वि० [सं० अङ्गशः] अंग या विभाग के अनुसार [को०]।

अंगशुदिध
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गशुद्धि] स्ननादि द्धारा शरीर स्वच्छ करना [को०]।

अंगशौथिल्य
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गशैथिल्य] बदन की सुस्ती। अंग का ढीलापन। थकावट।

अंगशोष
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गशोष] एक रोग जिसमें शरीर क्षीणा होता या सुखता है। सुखंडी रोग।

अंगसंग
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग + सङ्ग] रति। संयोग। मैथुन। संभोग।

अंगसंधि
संज्ञा स्त्री० दे० 'संध्यंग'।

अंगसंपेख पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्ग + सम्प्रेक्ष] अंग नामक देश (ड़ि०)।

अंगसंवाहन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गसंवाहन] अंगमर्दन। मालिश। देह दबाना। उ०—चार सेवक आबनस के बेलन से उसका अंगसंवाहन करेत थे'।—चंद्र० (भु०), पृ० २२।

अंगंसंस्कार
संज्ञा पुं० [अङ्गसंस्कार] अंगों का सँवारना। देह का बनाव सजाव। उबटन, स्नान या सुंगधित द्रव्यों आदि से शरीर की सजावट।

अंगसंस्क्रिया
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगसंस्कार' [को०]।

अंगसंहति
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गसंहति] अंगें का गठन। अंगों की रचना या बनावट। अंगें का सुढारपन [को०]।

अंगसंहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गसंहिता] किसी शब्द में व्यंजन और स्वर के मध्य का ध्वनिसंबंध [को०]।

अंगसख्य
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गसख्य] अभिन्न मैत्री। गाढ़ी मित्रता। गहरी दोस्ती।

अंगसिहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङऱ्ग = शरीर + हर्ष = कंप] १. ज्वर आने के पहले देह की कँपकँपी। कंप। कँपकँपी। २. जुड़ी।

अंगसुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गसुप्ति] शरीर का सुत्र होना [को०]।

अंगसेवक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गसेवक] शरीर की रक्षा करनेवाला निजी सेवक। अंगरक्षक [को०]।

अंगस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गस्कन्ध] रुप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार नामक शरीर के पाँच स्कंध (बौद्ध)।

अंगस्पर्श
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गस्पर्श] दाहकर्म करनेवाले का अशौच के चौथे दिन अस्थि संचयन के बाद दुसरों के द्धारा छुने के योग्य होना [को०]।

अंगहानि
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गहानि] दैव, भ्रम या अनवधानता से मुख्य कार्य के उपकारक अवांतर का कार्यो में हुई असावधानी या त्रुटि [को०]।

अंगाहार
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गहार] १. अंगविक्षेप। चमकता। मट- कना। हाथ पैर हिलाना। २. नृत्य। नाच।

अंगहारि
संज्ञा पुं० १. दे० 'अंगाहार'। २. रंगमंच। रंगस्थल [को०]।

अंगहीन (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गहीन] अनंग। कामदेव [को०]।

अंगहीन (२)
वि० जिसको कोई एक वा अनेक अंग न हों। जिसके शरीर का कोई भाग खंडित वा टुटा हो। लुला लँगड़ा। लुंज आदि। अवयवरहित।

अंगांगिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गाङ्गिता] दे० 'अंगांगिभाव' [को०]।

अंगांगिभाव
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गाङ्गिभाव] १. अवयव और अवयवी का परस्पर संबंध। उपकारक उपकार्य-संबंध। अंश का संपुर्ण के साथ आश्रय और आश्रयी रुप संबंध अर्थात् ऐसा संबंध कि उस अंश का अवयव के बिना संपुर्ण वा अवयवी की सिद्धि न हो; जैसे त्रिभुज की एक भुजा का सारे त्रिभुज के साथ संबंध। २. गीण और मुख्य़ का परस्पर संबंध। ३. अलंकार में संकर का एक भेद। जहां एक ही पद्य में कुछ अलंकार प्रधान रुप आएँ और उनके आश्रय या उपकार से दुसरे और भी आ जाएँ। उ०—अब ही तो दिन दस बीते नाहि नाह चले अब उठि आई कहँ कहाँ लौ बिसरिहैं। आओ खेलें चौपर बिसारै मतिराम दुख खेलन को आई जानि विरह को चुरि है। खेलत ही काहु कह्यो जुग फुटौ प्यारी। न्यारी भई सारी को निबाह होनो दुर है। पासे दिए डारि मन साँसे ही में बुड़ि रह्यो बिसरयो न दुख, दुख दुनो भरपुर है। यहां 'जुग जनि फुटौ' वाक्य के कारण प्रिय का स्मरण हो आया इससे स्मरण अलंकार और इस स्मरण के कारण बिरहनिवृत्ति के साधन से उलटा दुःख हुआ अर्थात् 'विषम' अलंकार की सिद्धि हुई। अतः यहाँ स्मृति अलंकार विषम का अंग है।

अंगांगीभाव
संज्ञा पुं० दे० 'अंगांगिभाव'।

अँगा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग] १. पहिनावा जो घुटनों के नीचे तक लंबा होता है और जिसमें बंद लगे रहते हैं। अंगरखा। चपकन।

अंगा (२)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्न] दे० 'अंग'। उ०—देवी गंगा लहर तुरंगा। तुहरे लहर परभु भीजे आठो अंगा।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० १३८।

अंगाकड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गार + हिं० कड़ी] अंगारों पर सेंकी हुई मोटी रोटी। लिट्टी। बाटी। क्रि० प्र०—करना।—लगाना = बाटी तैयार करना या पकाना।

अंगाकर पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगाकड़ी'। उ०—कोस पयांणउ पाणियो जाहि। सात अंगाकर बैठो हो खाय।—बी० रासो, पृ० ७८।

अंगाकरी प
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगाकड़ी'। उ०—रवा केरु आमोईन दे बनाए। घने घृत्त अंगाकरी खोभि लाए।—पृ० रा० ६३।८६।

अंगार (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गार] १. दहकता हुआ कोयला। आग का जलता हुआ टुकड़ा। बिना धुएँ की आग। निर्धुम अग्नि। उ०— धवनि धवंती रहिं गई बुझि गए अंगार।—कबीर ग्रं०, पृ० ५७। २. स्फुलिंग। चिनगारी। उ०—अति अगिनि झार भंभार धुंधार करि उचटि अंगार झंझार छायौ।—सुर०, १०।५९६। मुहा०—अंगार उगलना = कड़ी कड़ी बातें मुँह से निकालना। ऐसी बात बोलना जिससे सुननेवाले कतो अत्यंत क्रोध उत्पन्न हो। अंगार बनना = (१) खा पीकर लाल होना। मोटा ताजा होना। (२) क्रोध में भरना। अंगार बरसना = (१) अत्यंत अधिक गर्मी पड़ना। (२) दैवी आपत्ति आना। ३. कोयला (को०)। ४. मंगल। उ०—चर आए ढिल्लिय नगर, दसमि सुदिन अंगार। —पृ० रा, ६६।१६१८.। ५. लाल रंग (को०)। ६. हितावली नाम का पौधा (को०)।

अंगार (२)
वि० लाल रंगवाला [को०]।

अंगारक
संज्ञा पुं० [सं० अंगारक] १. दहकता हुआ कोयला। आग का जल ता हुआ टुकड़ा। २. चिनगारी (को०)। ३. मंगल ग्रह। ४. भृंगराज। भँगरैया। भँगरा। ५. कटसरैया का पेड़ कुरंटक। पियाबासा। ६. एक प्रकार का तैल दो सभी ज्वरों का नाश करनेवाला होता है [को०]।

अंगारकममि
स० पुं० [सं० अङ्गारकमणि] मुंगा। प्रवाल।

अंगारकवार
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारकवार] मंगल का दिन। भौमवार [को०]।

अंगारकारी
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारकारी] काठ को जलाकर बेचने के लिये कोयला तौयार करनेवाला व्यक्ति [को०]।

अंगारकित
वि० [सं० अङ्गारकित] दग्ध। जला हुआ। भुना हुआ। [को०]।

अंगारकृत
संज्ञा पुं० दे० 'अंगारकारी' [को०]।

अंगारधानी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारधानी] आग रखने का बरतन। अँगाठी। बोरसी [को०]।

अंगारधानिका
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगारधानी' [को०]।

अंगारपरिपाचित
संज्ञा पुं० दे० 'अंगारपरिपाचित' [को०]।

अंगारपर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारपर्णा] चित्ररय गंधर्व का एक नाम।

अंगारपर्ण (२)
वि० दे० 'चित्ररथ'।

अंगारपाचित
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारपाचित] अंगार या दहकती हुई आग पर ही रखकर पकाया हुआ खाना, जैसे कवाब, नान- खताई इत्यादि।

अंगारपात्री
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारपात्री] अँगीठी। अंगारधानी। [को०]।

अंगारपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गृपुष्प] इंगुदी वृक्ष जिसके फुल अंगार के समान लाल होते है। हिंगोट का पेड़।

अंगारमंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारमञ्जरी] वह करंज जिसकी मंजरी लाल होती है। लाल करंज की बेल [को०]।

अंगारमंजी
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगारमंजरी' [को०]।

अंगारमणि
संज्ञा पुं० दे० 'अओंगारकमणि'।

अंगारमती
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारमती] कर्ण की स्त्री।

अंगारवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारवल्लरी] दे० 'अंगारवल्ली' [को०]।

अंगारवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारवल्ली] गुंजा की लता। घुँघची की बेल। चिरमटी की बेल।

अंगारवेणु
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारवेणु] लाल रंग का बाँस। बाँस का एक भेद [को०]।

अंगारशकटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारशकटी] अंगीठी। अंगारपात्री। गोरसी। बोरसी [को०]।

अंगारा
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारक, प्रा० अंगारअ] दे० 'अंगार'। मुहा०—अंगारा बनना = क्रोध के कारण मुँह लाल होना। गुस्से में होना। अंगारा हो जाना = दे० 'अंगरा बनना'। अंगारा होना = क्रोध से लाल होना। अगारे उगलना = कटु वचन कहना। जली कटी सुनाना। अंगारे फाँकना = असह्या फल देनेवाला काम करना। अंगारे बरसना = (१) अत्यंत अधिक गर्मी पड़ना। आग बरसना। (२) दैवी कोप होना। अंगारों पर पैर रखना = (१) जान बुझकर हानिकारक कार्य करना या अपने को संकट मे डालना। (२) जमीन पर पैर न रखना। इतराकर चलना। अंगारो पर लोटना = (१) अत्यंत रोष प्रकट करना। आग बबुला होना। झल्लाना। (२) डाह्य से जलना। ईर्ष्या से व्याकुल होना। उ०—'वह मेरे बच्चे को देखकर अंगारों पर लोट गई' (शब्द०)। (३) तड़पना व्याकुल होना। उ०—शाम से ही लोटना है मुझको अंगारों पै आज।—शेर०, भा०१, पृ० ६५९। अंगारों पर लोटाना = (१) जलाना। दाह करना। (२) तड़पाना। दुखी करना। लाल अंगारा = (१) बहुत लाल। खुब सुर्ख। उ०—'काटने पर तरबुज लाल अंगारा निकला' (शब्द०)। (२) अत्यंत क्रुद्ध। उ०—'यह सुनते ही वह लाल अंगारा हो गई' (शब्द०)।

अंगारावक्षपण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गारवक्षेपण] अंगार या जलता हुआ कोयला निकालने और बुझाने का एक पात्र। चिमटा [को०]।

अंगारि
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारि] अँगीठी। बोरसी।

अंगारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारिका] १. अँगीठी। २. इक्षु। ईख। ३. ईख का छोटा टुकड़ा। ४. कली। ५. पलाश की कली [को०]।

अंगारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारिणी] १. अँगीठी। बोरसी। अतिशदान। २. वह दिशा जिसपर डुबे हुए सुर्य की लाली छाई हो। ३. एक लता (को०)।

अंगारित (१)
वि० [सं० अङ्गारित] १. भुना हुआ। २. दग्ध (एक प्रकार का भोजन जो जैन मुनियों के लिये त्याज्य है)। ३. जला हुआ [को०]।

अंगारित (२)
संज्ञा पुं० पलाश की ताजी कली [को०]।

अंगारिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारिता] १. अँगीठी। २. कली। ३. पलाश की ताजी कली। ४. एक लता। ५. एक नदी का नाम [को०]।

अंगारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गारी] १. दहकते हुए कोयले का छओटा टुकड़ा। २. चिनगारी। ३. अंगार या दहकती हुई बिना लपट की आग पर कपाई हुई रोटी। लिट्टी। बाटी। ४. अँगीठी। बोरसी।

अंगारी (२)
वि० [सं० अङ्गारिन्] सुर्य द्धारा प्रतप्त (दिशा)।

अंगारीय
वि० [सं० अङ्गारीय] अंगार या कोयला बनाने के योग्य (काष्ठादि) [को०]।

अंगार्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गार्या] कोयले की ढेरी [को०]।

अंगिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गिका] १. स्त्रियों की कुरती। अँगिया। चोली। कंचुकी। छोटा कपड़ा। २. सर्प की केंचुल (को०)।

अंगित पु
संज्ञा पुं० दे० 'इंगित'। उ०—की कीरति अंगित काजे।—विद्यापति०, पृ० ५३३।

अगिन्
वि० [सं० अङ्गिन्] दे० 'अंगी'।

अंगिनी
वि० [सं० अङ्गिनी] अंगवाली। विशेष—इसका प्रयोग प्रायः समस्तरुप में ही मिलता है, जैसे, अर्धागिनी।

अंगिया पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगिका'—१।

अंगरि
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गिर] १. दे० 'अंगिरस'। २. तीतर पक्षी [को०]।

अंगिरस्
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गिरस्] १. एक प्राचीन ऋषि का नाम जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं। विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है। इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है। कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है। स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए। इनकी बनाई एक स्मति भी है। २. वृहस्पति का नाम। ३० ६० संवत्सरों में छठे संवत्सर का नाम। ४. कटीला। कटीला गोंद। कतीरा।

अंगिरस
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गिरस] १. परशुराम का एक शत्रु २. दे० 'अंगिरस'-२ [को०]।

अंगिरसी
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गिरसी] शरीर विज्ञान का ज्ञाता [को०]।

अंगिरा
संज्ञा पुं० दे० 'अंगिरस्'।

अंगिर्
संज्ञा पुं० [सं० अंगिर्] एक ऋषि जिन्होंने अथर्वण ऋषि से ब्रह्मविद्या प्राप्त की थी। अंगिरस् के गुरु सत्यावाह इनके शिष्य थे [को०]।

अंगी (१)
वि० [सं० अङ्गी] १. शरीरी। देहधारी। शरीरवाला। २. अवयवी। उपकार्य। अंशी। समष्टि। ३. प्रधान। मुख्य।

अंगी (२)
वि० स्त्री० अंगवाली (केवल समास में प्रयुक्त, जैसे तन्वंगी, कोमलांगी आदि]।

अंगी (३)
संज्ञा पुं० १. नाटक का प्रधान नायक, जैसे सत्यहरिशचंद्र में हरिशंद्र। २. प्रधान रस। नाटकों में शृंगार और वीर ये दो रस अंगी (प्रधान) कहलाते है और शेष रस अंग (अप्रधान)।

अंगी (४)
संज्ञा स्त्री० [डिं०] चौदह विद्याएँ।

अंगी पु (५)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगिया'।

अंगीकति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अंगीकृत, प्रा० अंगीकत, हिं० अंगीकति] दे० 'अंगीकृति'। उ०—जो चाचा जी में श्रीनाथ जी गुसाईँ जी की अंगीकति को संबंध दृढ़ है।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ६५।

अंगीकरण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गीकरण] १. दे० 'अंगीकार'। उ०— अस्वीकरण और अंगीकरण दोनों की क्षमता अपने प्राणों में जगानी होती है।—सुनीता, पृ० २३७।

अंगीकार
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गीकार] स्वीकार। मंजुर। कबुल। ग्रहण। क्रि० प्र०—करना। उ०—जाकौं हरि अंगीकार कियौ।—सुर०, १।३७।—होना।

अंगीकृत
वि० [सं० अङ्गीकृत] स्वीकार किया हुआ। ग्रहण किया हुआ। अपनाया हुआ। लिया हुई। स्वीकृत। मंजुर। उ०—जौ न अंगीकृत करै वै होई हौ रिन दास।—सुर०, १०।३४३१।

अंगीकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गीकृति] स्वीकृति। मंजुरी। अंगीकरण।

अंगीय
वि० [सं० अङ्गीय] १. शरीर या अंग संबंधी। २. अंग देश का [को०]।

अंगुण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुण] बैगन। भंटा [को०]।

अंगुर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुल'—१। उ०—अंगुर द्धै घटि होत सबनि सौं पुनि पुनि और मँगायौ।—सुर, १०।३४२।

अंगुरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुरि] उँगली। उ०—मुँह अंगुरि दै दै मुसुकावति।—नंद ग्रं०, पृ० २४३।

अंगुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुरी] उँगली। उ०—(क) भरंति नीर सुंदरी। सु पांनि पत्त अंगुरी। पृ० रा०, ६१।३३९। (ख) जो कोई ब्रज के रुखन के पतौआ तथा डार चोरेगी ताके हाथ की अंगुरी हों तोरुँगो।- दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ३००।

अंगुरीय
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुरीय] अंगुठी। मुँदरी [को०]।

अंगुरीयक
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुरीय' [को०]।

अंगुल
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुल] १. लंबाई की एक नाप। एक आयत परिमाण। आट जौ के पेट की लंबाई। आठ यवोदर का परिमाण। उ०—साठि सु अंगुल लोहय किल्ली।—पृ० रा०, ३।२२। विशेष—१२ अंगुल का एक बिता और दो बित्ते का एक हाथ होता है। २. ग्रास या बारहवाँ भाग (ज्यो०)। ३. उँगली। अंगुलि। ४. अंगुठा। ५. चाणक्य या वात्स्यायन का एक नाम [को०]।

अंगुलक
वि० [सं० अङ्गुलक] अंगुल संबंधी। जो अंगुल के परिमाणवाला हो [को०]।

अंगुलप्रमाण (१)
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलप्रमाण] अंगुलियों की लंबाई या चौड़ाई [को०]।

अंगुलप्रमाण (२)
वि० अंगुली की लंबाईवाला [को०]।

अंगुलमान
संज्ञा पु०, वि० दे० 'अंगुलप्रमाण' [को०]।

अंगुलि
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलि] १. दे० 'अंगुली'। उ०—तड़ित करिग अंगुलि धरम भरिग प्रथिराज।—पृ० रा०, ५७।८७। मुहा०—अंगुलि करना = बदनामी करना। अंगुल्यानिर्देश करना। उ०—जिहि प्रियजन अंगुलि करै तिहि प्रियजन किहि काज।—पृ० रा०, ६१।१२७३। २. दसी की संख्या (को०)।

अंगुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलिका] १. उँगली। एक प्रकार की चींटी [को०]।

अंगुलिगण्य
[सं० अङ्गुलिंगष्य] उँगलियों पर गिनने योग्य। बहुत कम। बिरला। उ०—गोपाल का सच्चा भक्त अंगुलिगण्य ही हो सकता है।—संपु० अभि० ग्रं०, पृ० ३१२।

अंगुलितोरण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलितोरण] त्रिपुंड तिलक। तीन पतली अर्द्धचंद्राकार समानांतर रेखाओ का तिलक जिस शैव लोग माथे पर लगाते है।

अंगुलित्र
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलित्र] १. वह तत या तारों वाला बाजा जो कमानी से नहीं बल्कि उँगली में मिजराब पहनकर बजाया जाता है, जैसे—सितार, बीन, एकतारा आदि। २. दे० 'अंगुलित्राण' [को०]।

अंगुलित्राण
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलित्राण] गोह के चमड़े का बना हुआ दस्ताना जिसे बाण चलाते समय उँगलियों को रगड़ से बचाने के लिये पहनते हैं। उँगलियों की रक्षा के निम्त्त गोह के चमड़े का एक आवरण। गोह के चमड़े का दस्ताना।

अंगुलित्रान पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुलित्राण'। उ०—अंगुलित्रान कमान बान छबि सुरनि सुखद असुरनि उर सालति।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१५।

अंगुलिनिर्देश
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिनिर्देश] १. उँगली से संकेत करने का कार्य। २. बदनामी। निंदा [को०]।

अंदुलिपंचक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिपञ्चक] हाथ की पाँच उँगलियाँ जिनके नाम ये हैं—अंगुष्ठ, प्रदर्शनी या तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका।

अंगुलिपर्व
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिपर्वन्] उँगलियों की पोर। उँगली की गाँठ या जोड़।

अंगुलिमुख
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिमुख] उंगली का सिरा या नोक [को०]।

अंगुलिमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलिमुद्रा] १. अँगुठी जिसपर नाम खुदा हो। नामांकित अँगुठी। २. मुहर लगाने के लिये नाम खुदी अँगुठी।

अंगुलिमुद्रिका
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगुलिमुद्रा'।

अंगुलिमोटन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिमोटन] अँगुली चटकाने या फोड़ने का काम। उँगली पुटकाना [को०]।

अंगुलिवेष्ट
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिवेष्ट] दस्ताना [को०]।

अंगुलिवेष्टक
संज्ञा पुं० दे० 'अँगुलिवेष्ट' [को०]।

अंगुलिवेष्टन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिवेष्टन] १. दस्ताना। हथेली और उँगलियों को ढाँकने का आवरण। २. अँगुलित्राण।

अंगुलिसंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलिसङ्गा] उँगलियों में लिपट जाने वाली लपसी। यवागु [को०]।

अंगुलिसंज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलिसंज्ञा] उँगली का इशारा [को०]।

अंगुलिसंदेश
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिसन्देश] उँगली की मुद्रा से या उँगली चुटकाकर संकेत करना [को०]।

अंगुलिसंभुत
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलिसम्भुत] नख [को०]।

अंगुलिस्फोटन
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गलिस्फोटन] उँगलियों को फोड़ना या पुटकाना [को०]।

अंगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुली] १. उँगली। उ०—अरुन चरन अँगुली मनोहर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३२५। २. हाथ का अँगुठा (को०)।३. पाँव की उँगली (को०)। ४. पाँव का अँगुठा (को०)। ५. अंगुल का परिमाण (को०)। ६. हाथी के अगले सुँड़ का उँगलीनुमा सिरा या भाग। ७. एक नदी का नाम।

अँगुलीक
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलीक] अँगुठी [को०]।

अंगुलीपंचक
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुलिपंचक' [को०]।

अंगुलीपर्व
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुलिपर्व' [को०]।

अंगुलीमुख
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलीमुख] उँगली का सिरा या अगला भाग [को०]।

अंगुलीय
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलीय] अँगुठी। उ०—जैसे अँगुलीय में मरकत—कुकुम, पृ० ६४।

अंगुलीयक
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुलीय' [को०]।

अंगुलीसंभूत
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गपलिसम्भुत] नख। नाखुन [को०]।

अंगुल्यग्र
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुल्यग्र] उँगली का सिरा या अगला भाग [को०]।

अंगुल्यादेश
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलि + आदेश] उँगली का इशारा। उँगली से अभिप्राय प्रगट करना। इशारा। संकेत। क्रि० प्र०—करना।—होना।

अंगुल्यानिर्देश
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुल्यानिर्देश] बदनामी। कलंक। लांछन। अंगुश्तनुमाई। बुराई। दोषारोपण। क्रि० प्र०—करना।—होना।

अंगुश्त
संज्ञा पुं० [फा०] उँगली। अंगुली। उ०—अपने के तई शहादत अंगुश्त आह बस है।—कविता कौ०, भा०,४, १६।

अंगुश्तनुमा
वि० [फा०] निदनीय। बदनाम। कुख्यात [को०]। क्रि० प्र०—करना।—निंदा करना।—होना = निंदित होना। बदनाम होना।

अंगुश्तनुमाई
संज्ञा स्त्री० [फा०] बदनामी। कलंक। लांछन। दोषारोपण। क्रि० प्र०—करना।—होना।

अंगुश्तरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] अंगूठी। मुँदरी। मुद्रिका। उ०—जब सुलेमाँ पाय वो अंगुशतरी।—दक्खिनी०, पृ० १८४।

अगुश्ताना
संज्ञा पुं० [फा०] १. उँगली पर पहनने की पीतल वा लोहे की एक छोटी टोपी जिसमें छोटे छोटे गड़हे बने रहते हैं। इसे दरजी लोग कपड़ा सीते समय एक उँगली में पहन लेते हैं जिससे सुई न चुभ जाय। इसी से वे सुई को उसका पिछला हिस्सा दबाकर आगे बढ़ ते है। २. सोने वा चाँदी की एक प्रकार की मुँदरी जो हाथ के अँगुठे में पहनी जाती है। ३. उँगली की रक्षा के लिये उसमें पहनने का धातु, चमड़े, सींग आदि का खोल। अंगुलित्राण (को०)।

अंगुश्तेनर
संज्ञा पुं० [फा०] अँगुठा [को०]।

अंगुष्ट पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंगुष्ठ'। उ०—अंगुष्ट दक्ष उपजे से ब्रह्मा।— टहम्मीर रा०, पृ० ५।

अंगुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुष्ठ] १. हाथ वा पैर की सबसे मोटी उँगली। अंगुठा। २. अँगुठे की चौड़ाई जो उँगली के पोरों की लंबाई के बराबर मानी जाती है (को०)।

अंगुष्ठमात्र
वि० [सं० अङ्गुष्ठमात्र] अंगुठे की लंबाईवाला या अँगुठे जैसा [को०]।

अंगुष्ठमात्रक
वि० [स्त्री० अङ्गुष्ठमात्रिका] दे० 'अंगुष्ठमात्र' [को०]।

अंगुष्ठा पु
संज्ञा पुं० दे० 'अगुष्ठ'। उ०—जंघ पिंडुरी पग अंगुष्ठा शोभा अधिक अपार।—कबीर सा०, पृ० ९९।

अंगुष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुष्ठिका] एक पौधे का नाम [को०]।

अंगुष्ठय
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुष्ठय] अंगुठे का नाखुन [को०]।

अंगुठा
संज्ञा पुं० दे० 'अँगुठा'। उ०—उदयाचल पर दीखते प्रात, अगुठे के बल हुए खड़े।—युगांत, पृ० ४१।

अंगुर (१)
संज्ञा पुं० [फा०] एक लता ओर उसके फल का नाम। द्राक्षा। दाख। विशेष—यह भारत के उत्तरपश्चिम और पंजाब तथा कश्मीर आदि प्रदेशों में बहुत लगाया जाता है। हिमालय के पश्चिमीय भागों में यह आपसे आप भी होता है। उत्तर प्रदेश के कुमाऊँ, कनावर और देहरादुन तथा आंध्र और महाराष्ट्र प्रदेश के अहमदनगर, औरंगाबाद, पुना और नासिस आदि स्थानों में भी इसकी उपज होती है। बंगाल में पानी अधिक बरसने के कारण इसकी बेल वैसी नहीं बढ़ सकती। बिहार प्रदेश में तिरहुत और दानापुर में इसकी कुछ टट्टियाँ तैयार की जाती है। अंगुर की बेल होती है जो टट्टियों पर फैलती है। इसकी पत्तियाँ कुम्हड़े वा नेनुए की पत्तियों से मिलती जुलती होती हैं। इसके फल हरे और बैगनी रंग के तथा छोटे, बड़े, गोल और लबे केई आकार के होते है। कोई नीम के फल की तरह लंबोतरे और कोई मकोय की तरह गोल होते हैं और गुच्छो में लगते है। अंगुर की मिठ्स तो प्रसिद्ध ही है। भारतवासी इसे 'द्राक्षा' और 'मृद्धीका' के नाम से जानते है। चरक और सुश्रुत मे इसका उल्लेख है। पर भारतवर्ष में इसकी खंती कम होती थी। फल प्रायः बाहर से ही मँगाए जाते थे। मुसलमान बादशाहों के समय अगुर की ओर अधिक ध्यान दिया गया। आजकल हिंदुस्तान में सबसे अधिक अंगुर काश्मीर में होती है जहाँ ये क्वार के महीने में पक्ते हैं। वहाँ इनकी शराब बनती है और सिरका भी पड़ता है। महाराष्ट्र देश में जो अंगुर लगाए जाते है उनके कई भेद है, जैसे— आबी, फकीरी, हबशी, गोलकली साहेबी इत्यादि। अफगानिस्तान, बिलुचिस्तान और सिंध में अंगुर बहुत अधिक और कई प्रकार के होते है—जैसे, हेटा, किशमिशी, कमलक, हुसैनी इत्यादि। किशमिशी में बीज नहीं होता। कंधारवाले हेटा अंगुर को चुना और सज्जीखार के साथ गरम पानी में डुबाकर 'आबजोश' और किशमिशी को धुप में सुखाकर किशमिश बनाते हैं। मुनक्का, जो दवा के काम में आता है, सुखाया हुआ अंगुर है। यह दस्तावर है और ज्वर की प्यास को कम करता है। खाँसी के लिये बी अच्छा है। 'द्राक्षारिष्ट' आदि कई आयु— वैदिक औषधियाँ इससे तैयार होती है। हकीमों में इसका बहुत व्यवहार है। अंगुर का मड़वा वा अंगुर की टट्टी = (१) अंगुर की बेल के चढ़ने और फैलने के लिये बाँस की खपचियों का बना हुआ मंडप। (२) एक प्रकार की आतिशबाजी जिससे अंगुर के गुच्छे के समान चिनगारियां निकलती हैं। मुहा०—अंगुर खट्टे होना = प्रयत्न करने पर भी प्राप्त न होनेवाली अच्छी चीज को बुरा बताना। उ०—अंत में यह कह चलती हुई अरे ये खट्टे है अंगुर।—खिलौना १९२७।

अंगुर (२)
संज्ञा पुं० मांस के छोटे छोटे लाल दाने जो घाव भरते समय दिखाई पड़ते हैं। दे० 'अंकुर' (२)। मुहा०—अंगुर आना = घाव के ऊपर चमड़े की पतली झिल्ली पड़ना। घाव पुरना। घाव भरना। अंगुर तड़कना = भरते हुए घाव पर बंधी हुई मांस की झिल्ली का फट जाना। अंगुर फटना = दे० 'अंगुर तड़कना'। अंगुर बँधना = घाव के ऊपर मांस की नई झिल्ली चढ़ना। घाव भरना। अंगुर- भरना = दे० 'अंगुर बँधना'।

अंगुर (३)
संज्ञा पुं० [सं० अंकुर] अंकुर। अँखुआ।

अंगुरशेफा
संज्ञा पुं० [फा०] एक जड़ी जो हिमालय पर शिमले से लेकर काशमीर तक होती है। इसे संग अंगुर, सुची, जबराज तथा गिरबुटी कहते है। इसकी जड़ और पत्तियाँ दमे और वायु के दर्द को दुर करती है।

अंगुरी (१)
वि० [फा०] १. अंगुर से बना हुआ। २. अंगुरी रंग का।

अंगुरी (२)
संज्ञा पुं० कपड़ा रँगने का एक हरा रंग जो नील और टेसु के फुल को मिलाकर बनाया जाता है।

अंगुरी (३)
संज्ञा स्त्री० [अंगुर की शराब का संक्षिप्त रुप] शराब।

अंगुरी बेल
संज्ञा स्त्री० [फा० अंगुरी + हिं० बेल] कपड़े आदि पर काढ़ी जानेवाली या छापी जानेवाली अंगुर की लता की आकृति।

अंगुष
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुष] १. घुस नाम का जंतु। २. बाण। तीर (को०)।

अंगोंच
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गोञ्च] अंगोछा [को०]।

अंगोंचन
संज्ञा पु० [सं० अङ्गोचन] दे० 'अंगोंच' [को०]।

अंगोछना पु
क्रि० स० दे० 'अँगोछना'। उ०—करि मंजन अंगोछि तन धुप बासि बहु अंग।—पृ० रा०, १४।५३।

अंगोट
संज्ञा स्त्री० [अङ्ग + वर्त्म, प्रा० वट्ट] अंग का गठन। शरीर की बनावट।

अंगौटी
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंगोट'।

अंग्य
वि० [सं० अङ्ग्य] अंग का। अंग संबंदी [को०]।

अंग्रेज
संज्ञा पुं दे० 'अँगरेज'।

अंग्रेजियत
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंग्रेज + फा० इयत (प्रत्य०)] अंग्रेजों अथवा अंग्रेजी का प्रभाव। अंग्रेजीपन। उ०—अंग्रेजियत ने हमारा दिमाग ऐसा बिगाड़ दिया है।—प्रेमघन०, भा०१, (भु०)।

अंग्रेजी
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँगरेजी'। उ०—अंग्रेजी पढ़िके जदपि सब गुन होत प्रवीन। पै निज भाषा ज्ञान बिनु रहत हीन के हीन।—भारतेन्दु ग्रं०, भा०२, पृ० ७३२।

अंघ
संज्ञा पुं० [सं० अङ्ग] अघ। पाप [को०]।

अंघस
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गस्] पाप। पातक। अपराध।

अंघारि
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गघारि] १. पाप का शत्रु। २. सोम के रक्षक का नाम। ३. दीप्तिशील ज्योति से युक्त [को०]।

अंघ्रि
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गिघ्र] १. पैर। चरण। पाँव। २. पेड़ की जड़। मुल (को०)। ३. छंद का चतुर्थ चरण (को०)।

अंघ्रकवच
संज्ञा पुं० [अङ्गिघ्रकवच] जुता। उपानह [को०]।

अंघ्रिज
संज्ञा पुं० [सं० अङिघ्रज] क्षुद्रष। निम्न [को०]।

अंघ्रिनाम
संज्ञा पुं० [सं० अङ्घ्रनाम] १. वृक्ष की जड़। २. पैर। पाँव [को०]।

अंघ्रिनामक
संज्ञा पुं० दे० 'अंङि्घ्रनाम' [को०]।

अंघ्रिप
संज्ञा पुं० [सं० अङिघ्रप] पादप। वृक्ष। पेड़।

अंघ्रिपर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङिघ्रपर्णिका] सिंहपुच्छी नाम की लता [को०]।

अंघ्रिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गिघ्रपर्णी] दे० 'अङिघ्रपर्णिका' [को०]।

अंघ्रिपान
संज्ञा पुं० [सं० अङिघ्रपान] पैर का अँगुठा चुसने का कार्य [को०]।

अंङि घ्रवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अङिघ्रवल्लिका] सिंहपुच्छी लता। अंघ्रिपर्णी [को०]।

अंघ्रिवल्ली
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंघ्रिवल्लिका' [को०]।

अंघ्रिस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० अङिघ्रस्कन्ध] टखना। गुल्फ [को०]।

अंच (१)
वि० [सं० अञ्च] घुँघराला। घुमा हुआ। [को०]। विशेष—केवल 'रोमांच' में प्राप्त तथा समास का अंतिम शब्द।

अंच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अर्चि, प्रा० अच्चि, अच्च, अप० अंच] १. स्फुलिंग। चिनगारी। उ०—तन सट्टै सचटि मुकति बोल भारथ्यी बोलै। लोह अंच उड्डंत पत्त तरवर जिमि डोलै।—पृ० रा०, २७।२४। २. दे० 'आँच'। उ०—जो ते अंतर गुरुमति आई। ताँ कौं अंच न लागै काई।—प्राण०, पृ० ३।

अंचति
संज्ञा पुं० [सं० अञ्चति] १. वायु। २. अग्नि। ३. वह व्यक्ति जो गतिशील हो [को०]।

अंचती
संज्ञा पुं० दे० 'अंचति' [को०]।

अंचन
संज्ञा पुं० [सं० अञ्चन] झुकाने या घुमाने की स्थिति अथवा कार्य।

अंचना पु
क्रि० स० दे० 'एँचना'। उ०—(क) गहै इत उत्त सु गिद्धनि गिद्ध। मरालिय अंचि सिवाल अतिद्ध।—पृ०० रा०, ६६।१४०३। (ख) चौतेगी सहबाज बान अरि प्रान सु अंचै।—पृ० रा०, २७।४३।

अंचर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंचल'। उ०—कौन निरासी दीठि लगाई लै लै अंचर झारै।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९३४। २. दुपट्टा। उपरना। उ०—राजन अंचर छोरु करि जैत प्रसंसन काज। दिल्ली धर अग्गर इहै जुझझ पर्यौ धर आज।—पृ० रा०, ६६।१२४७।

अंचल
संज्ञा पुं० [सं०] साड़ी वा ओढ़नी का वह भाग जो सिर अथवा कंधे पर से होता हुआ सामने छाती पर फैला हुआ हो। साड़ी का छोर। आँचल। पल्ला। छोर। अँचरा। उ०— बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी।—मानस, २।११७। २. दुपट्टा। उपरना। उ०—लोचन सजल प्रेम पुलकित तन गर अंचल कर माल।—सुर०, १।१८९। ३. किसी प्रदेश या स्थान आदि का एक भाग। उ०—वन गृहा कुंज मरु अंचल में हुँ खोज रहा अपना विकास।—कामायनी, पृ० १५८। ४. किना्रा। तट। ५. छोर। किनारा। ६. कोर, जैसे 'नयना- चल' में अंचल। ७. तलहटी। घाटी। उ०—उसकी वह जलन भयानक फैली गिरि अंचल मे फिर।—कामायनी, पृ० २८१। मुहा०—अंचल जोरना = दीनता व्यक्ति करना उ०—अंचल जोरे करत बीनती मिलिबे को सब दासी।-सुर० (शब्द०)। अंचल- देना = आँचल की ओट करना। लज्जा व्यक्त करना। परदा करना। उ०—पीतांबर वह सिर से ओढ़त अंचल दै मुसकात।—सुर०, १०।३३८। अंचल पसारना = दे० 'अंचरा पसरना'। उ०—पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावही।—मानस, १।३१२। अंचल (में) गाँठ देना = याद रखने के लिये आँचल में ग्रंथि देना। बराबर स्मरण रखना। कभी न भुलना। उ०—अंचल गाँठि दई भाज्यौ, सुख जु आनि उर पैठयो।—सुर०, ९।१६४। अंचल रोपना = दीनता और विनय प्रदर्शन के साथ प्रार्थना करना। अँचरा पसारकर याचना करना। निहोरा करना। उ०—चरन नाइ सिर अंचल रोपा।—मानस, ६।६। अंचल लेना = दे० 'अंचल देना'। उ०—रुद्र कौ देखि कै मोहिनी लाज करि लियौ अंचल रुद्र तब अधिक मोह्यौ।—सुर०, ८।१०। अंचल भरना = (१) मंगला- शंसा के साथ बधु या पुत्री के आँचल के अन्न, टुब, हल्दी आदि डालना। एक मंगल कृत्य। (२) कामना पुरी होने का आशीर्वाद। (३) गोद भरना।

अंचला पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँचरा'। उ०—मन बंधे अंचला मिसि।—बेलि, दु० १५८।

अंचित पु
वि० [सं० अचिन्त्य, प्रा० अचिंत] चिंतन से परे। अचिंत्य। उ०—अचिंत पुरुष को मंगल हंसा गावै हो।—धर्म० श०, पृ० ५४।

अंचित
वि० [सं० अञ्चित] १. पुजित। आराधित। संमानित। २. विशिष्ट। प्रधान। ३. झुका हुआ। घुमावदार। ४. धनुषाकार। ५. सुंदर। ६. गत। गया हुआ। ७. ग्रथित। गुँथा हुआ [को०]।

अंचितपत्र
संज्ञा पुं० [सं० अञ्चितपत्र] टेढ़े दले वाला कमल [को०]।

अंचितपत्राक्ष
वि० [सं० अञ्चितपत्राक्ष] कमल की तरह नेत्रवाला [को०]।

अंचितभ्रु
वि० स्त्री० [सं० अञ्चितभ्रु] वक्र भौहोंवाली या धनुषाकार भौहोंवाली [को०]।

अंचितालांगुल
वि० [सं० अंचिलाङ्गुल] टेढ़ी दुमवाला (जैसे बंदर) [को०]।

अंची पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंच'। उ०—जिने लोहचीं लग्गि अंची न कब्बं।—पृ० रा०, २४।२६१।

अंचुता पु
वि० [सं० अच्युत] जो विचलित न हो। अडिग। उ०— पारब्रह्मा वारे एह लटका अंचुता चुत में लुटा।—संत दरिया, पृ० ११३।

अंचुर पु
संज्ञा पुं० [सं० अनुचर] सेवक। दास। उ०—फुलवारी मों कीजे बासा। अंचुर भेज देहि तेहि पासा।—इंद्रा०, पृ० १२७।

अंच्छाया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० इच्छा] कामना। इच्छा। उ०—मन अंच्छाय पुरन भई सबकी मिटयो री मदन दुख दंद।—ब्रजनिधि ग्रं०, पृ० १६६।

अंछ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्ष] आँख।—उ०—इंछिनि अंछ बखानि कै मोंहि सुनावहु एह।-पृ० रा०, १४।१३७।

अंछर
संज्ञा पुं० [सं० अक्षर] १. मुँह के भीतर का एक रोग जिसमें काँटे से उभर आते हैं। २. अक्षर। ३.मंत्र। टोना। जादु। मुहा०—अंछर मारना = जादु करना। टोना करना। मंत्रप्रयोग करना। उ०—मेरे अंछर मारि परान लिए, सुध लाग रही भइ बावरिया।—गीत (शब्द०)।

अंछि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षि, प्रा० अच्छि] आँख। नेत्र। उ०— इच्छइ जु अंछि बंकै करन, संका लज्ज बसंकरी।—पृ० रा०, ५८।१२३।

अंछया
संज्ञा पुं० [सं० इच्छा, गुं० इंछा] लोभ। लालच। इच्छा। कामना। लालसा।—डिं०।

अंज (१)
संज्ञा पुं० [सं० अब्ज, प्रा० *अज्ज, > अप०* अंज] कमल। कमल का फुल।—अनेकार्थ०।

अंज (२)
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जस] क्रोध। उ०—मंजु काम सब रुप, अँज गजबंध महाबल।—पृ० रा०, १।२३०।

अंजन (३)
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जन] [क्रि० अँजवाना, अँजाना] १. श्यामता लाने या रोग दुर करने के निमित आँख की पलकों के किनारे पर लगाने की वस्तु। काजल। आँजन। उ०—अंजन रंजन हुँ बिना खंजन गंजन नैन।—बिहारी० र०, ४६। २. सुरमा। उ०—अंजन आड़ तिलक आभुषण सचि आयुधि बढ़ छोट।— सा० लहरी, (उ०, १६)। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लगाना।—सारना। ३. सोलह शृंगारों में एक। ४. स्याही। रोशनाई। ५ रात। रात्रि। उ०—उदित अंजन पै अनोखी देव अग्नि जराय।— सा० लहरी, ३२। ६. सिद्धांजन जिसके लगाने से कहा जाता है कि जमीन में गड़े खजाने आदि दीख पड़ते हैं। उ०—यथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।— मानस, १।१।७। लेप। उ०—निरंजन बने नयन अंजन।— परिमल, पृ० १५८। ८. माया। ९. अलंकारों में प्रुक्त व्यंजना वृत्ति का एक भेद जिसमें कई अर्थोंवाले किसी शब्द का प्रयोग किसी विशेष अर्थ में हो और वह अर्थ दुसरे शब्द या पद के अर्थ से स्पष्ट हो। अभिधामुलक व्यंजना वृत्ति। १० पश्चिम दिशा का दिग्गज। ११. एक पर्वत का नाम। कृष्णांजनगिरि। सुलेमान पर्वत श्रृखला। १२. कद्रु से उत्पन्न एक सर्प का नाम। १३. छिपकली। बिस्तुइया। १४. अग्नि (को०)। १५. पश्चिम दिशा (को०)। १६. एक देश का नाम। १७. एक जाति का बगला जिसे नटी भी कहते हैं। आँजन। १८. एक पेड़ जो मध्य प्रदेश, बुंदेलखंड, मद्रास, मैसुर आदि में बहुत होता है। इसकी लड़की श्यामता लिए हुए लाल रंग की और बड़ी मजबुत होती है। यह पुलों और मकनों में लगती है। इससे अन्य सामान भी बनते हैं। १९. एक पार्थिव खिनज द्रव्य जिसका सुरमा बनता है (को०)। २०. आँख में अंजन लगाने का कार्य [को०]।

अंजन (२)
वि० काला। सुरमई। उ०—उड़त फुल उड़गन नभ अंतर अंजन घटा घनी।—सुर० २।२८। यौ०—अंजनकेश। अंजनकेशी। अंजनशलाका। अंजनसार। अंजनहारी।

अंजन (३)
संज्ञा पुं० [अं० एंजिन दे० 'इंजन'] । उ०—जो जान देना हो अंजन से कट मरो एक दिन।—कविता कौ०, भा०४, पृ० ६३२।

अंजन (४)
संज्ञा पुं० [सं० अर्जन, प्रा,० अज्जण] उपार्जन। कमाना।

अंजनक
संज्ञा पुं० [अ़ञ्जनक] सुरमा [को०]।

अंजनकेश
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जनकेश] दीपक। दीया। चिराग।

अंजनकेशी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जनकेशी] नख नामक सुगंधद्रव्य जिसके जलाने से अच्छी महक उठती है। हट्टविलासिनी। नखी।

अंजनकेशी (२)
वि० स्त्री० अंजन सदृश काले बालवाली स्त्री [को०]।

अंजनगिरि
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जनगिरि] नीलगिरि पर्वत।

अंजनता
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जनता] पहचान [को०]।

अंजननामिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जननामिका] पलकों पर होनेवाली फुंसी। बिलनी।

अंजनशलाका
संज्ञा स्त्री,० [सं० अञ्जनशलाका] आँजन या सुरमा लगाने के लिये जस्ते वा सी से की सलाई। सुरमचु।

अंजनसार
वि० [सं० अंजन + हिं० सारना] सुरमा लगा हुआ। अंजन युक्त। आँजा हुआ। जिसमें अंजन सारा या लगाया गया हो। उ०—एक तो नौना मद भरे दुजे अंजनसार। ए बौरी कोउ देत है मतवारे हथियार (शब्द०)।

अंजनहारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जन + कारिन्] १. आँख की पलक के किनारे की फुंसी। बिलनी। गुहांजनी। गुहाई। अंजना। एक कीड़ा। भृंगी। २. एक प्रकार का उड़नेवाला कीड़ा। भृंगी नामक एक कीड़ा। विशेष—इसे कुम्हारी या बिलनी भी कहते हैं। यह प्रायः दीवार के कोनों पर गीली मिट्टी से अपना घर बनाता है। कहते हैं, इस मिट्टी को घिसकर लगाने से आँख की बिलनी अच्छी हो जाती है। इसी कीड़े के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह दुसरे कीड़ों को पकड़कर अपने समान रप लेता है, जैसे, भई गति कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ देखौ रघुराई।—तुलसी० (शब्द०)।

अंजना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जना] १. कुंजर नामक बंदर की पुत्री और केसरी नामक बंदर की स्त्री जिसके गर्भ से हनुमान उत्पन्न हुए थे।हनुमान की माता। कहीं कहीं अंजना को गौतम की पुत्री भी लिखा है। २. आंख की पलक के किनारे पर होनेवाली एक लाल छोटी फुंसी जिसमें जलन और सुई चुभने के समान पीड़ा होती है। बिलनी। गुहांजनी। ३. दो रंग की छिपकली। ४. उत्तर पुर्व के दिग्गज सुप्रतीक की स्त्री (को०)।

अंजना (२)
संज्ञा पुं० १. एक जाति का मोटा धान जो पहाड़ी प्रदेशों में होता है। २. एक पहाड़।

अंजना (३) पु
क्रि० स० [सं० अञ्जन] दे० 'आँजना'। उ०— (क) कालिंदी न्हावहिं न नयन अंजै न मृगंमद।—पृ० रा०, २।३४९। (ख) जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।—मानस, १।१।

अंजनागिरि
संज्ञा पुं० दे० 'अंजनगिरि' [को०]।

अंजनाद्रि
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जनाद्रि] अंजन नामक पर्वत जिसका उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में है। यह पश्चिम दिशा में माना जाता है।

अंजनाधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जनाधिका] एक प्रकार की छिपकली [को०]।

अंजनानंदन
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जनानंदन] अंजना के पुत्र। हनुमान।

अंजनावती
संज्ञा स्त्री० [सं० अझ्जनावती] १. उत्तरपुर्व के दिग्गज की स्त्री। २. कालांजन नामक एक वृक्ष [को०]।

अंजनिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जनिका] १. एक प्रकार की छिपकली। २. छोटी चुहिया। ३. दे० 'अंजनावती' [को०]।

अंजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जनी] १. हनुमान की माता अंजना। उ०—दुत राम राय को स्पुत पुत पौन को तु, अंजनी को नंदन, प्रताप भुरि भानु सो।—तुलसी ग्रं०, पृ० २४८। २. माया। ३. वह स्त्री जिसने चंदनादि का लेप लगाया हो। ४. एक काष्ठौषधि। कुटकी। ५. कालांजन नामक वृक्ष (को०)। ६ आँख की पलक की फुंसी। बिलनी।

अंजनीकुमार
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जनी + कुमार] अंजनी के पुत्र। हनुमान। उ०—बिगरी सवार अंजनीकुमार कीजै मोहि जैसे होत आए हनुमान के निवाजे हैं।—तुलसी० ग्रं०, पृ० २१५।

अंजबार
संज्ञा पुं० [फा०] मध्य एशिया की फरात नदी के किनारों पर होनेवाला एक पौधा जिसकी जड़ का काढ़ा और शर्बत हकीम लोग सर्दी और कफ के रोगों में एवं रक्तस्त्राव बंद करने के लिये देते हैं। इंद्राणी।

अंजर पु
वि० [सं० उज्ज्वल] उज्ज्वल। उजला उ०—सित अंजर रजनीय पुरनि गंध्रव पग धारिय।—पृ० रा०, १।३४८।

अंजरपंजर
संज्ञा पुं० [अनुध्व० सं० पञ्जर] देह का बंद। शरीर का जोड़। ठठरी। पसली। हड्डी पसली। मुहा०—अंजर पंजर ढीरा होना = शरीर के जोड़ों का उखड़ना वा हिल जाना। देह का बंद टुटना। शिथिल होना। लस्त होना। अंजर पंजर तोड़ देना = अंग भंग करके बेकामट कर देना।

अंजरपंजर
क्रि० वि० अगल बगल। पार्श्व में।

अंजरि
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजलि'।

अंजल (१)
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जलि] दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया हुआ संपुट वा गड्ढा जिसमें पानी वा और कोई वस्तु भर सकते हैं। उ०—अजल भर आँटा साई का। बेटा जीवौ माई का।—(फकीरों की बोली)।

अंजल (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजली'।

अंजल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अत्रजल'। उ०—जब अजल मुँह सोवा समुद्र न सँवरा जागि। अब धरि काढ़ मच्छ जिमि पानी काढ़त आगि।—जायसी (शब्द०)

अंजला
संज्ञा पुं० दे० 'अंजल'।

अंजलि
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजली'।

अंजलिक
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जलिक] अर्जुन के बाणों में से एक का नाम [को०]।

अंजलिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जलिकर्म] जुड़े हाथों से नमस्कार करने का कार्य [को०]।

अंजलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जलिका] १. एक प्रकार की छोटी चुहिया। २. लजाधुरह। छुईमुई [को०]।

अंजलकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जलिकारिका] १. नमस्कार करने की मुद्रावाली मिट्टी की छोटी मुर्ति (को०)। २. लजाधुर लता।

अंजलिगत
वि० [सं० अञ्जलि + गत] १. अंजली में आया हुआ। हाथ में पड़ा हुआ। दोनों हथेलियों पर रखा हुआ। उ०— अंजलिगत सुभ सुमन जिमि सम सुंगध कर दोउ।—मानस, १।३।

अंजलिपुट
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जलिपुट] दोनों हथेलियों को मिलाने से बना हुआ खाली स्थान जिसमें पानी वा कोई और वस्तु भर सकते हैं। अंजली।

अंजलिबंधन
संज्ञा पुं० [सं० अञ्झलिबन्धन] माथे तक उठाई हुई अंजलि से प्रणमन [को०]।

अंजलिबद्ध
वि० [सं० अञ्जलिबद्ध] हाथ जोड़े हुए।

अंजली
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जली] १. दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया हुआ संपुट। दोनों हथेलियों को मिलाने से बना हुआ खाली स्थान वा गड्ढा जिसमें पानी वा और कोई वस्तु भर सकते हैं। उ०—निज बिस्तार समेटि अंजली आनि समानी।—रत्नाकर, भा०१, पृ० २१७। २. उतनी वस्तु जितनी एक अंजलि में आए। प्रस्थ। कुडक। दो प्रसृति। एक नाप जो बीस मागधी तोले या सोलह व्यावहारिक तोले अथवा एक पाव के बराबर होती है। दो पसर। ३. अन्न की राशि में से तौलते समय दोनों हथेलियों से दान के लिये निकाला हुआ अन्न।

अंजस्
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जस्] मलहम [को०]।

अंजस
वि० [सं० अञ्जस] १. सीधा। सरल। २. निश्छल। ईमानदार [को०]।

अंजसा
क्रि० वि० [सं० अञ्जसा] १. शीघ्रता से। तुरंत। २. ठीक ठीक। यथावत्। ३. सीधे से। साक्षात् [को०]।

अंजासयन
वि० [सं० अञ्जसायन] सीधी गतिवाला। ऋजु- गामी [को०]।

अंजहा †
वि० [हिं० अनाज + हा (प्रत्य०)] (स्त्री० अंजही) अनाज का। अन्न के मेल से बना हुआ।

अंजही † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह बाजार जहाँ अन्न बिकता है। अनाज की मंडी।

अंजही † (२)
वि अनाज की। अनाज से बनी हुई।

अंजाम
संज्ञा पुं० [फा०] १. समाप्ति। पुर्ति। अंत। आखीर। उ०—अंजाम की मंजिल है बड़ी देखिए क्या हो।—कविता कौ०, भा ४, पृ० ५७५। २. परिणाम। फल। नतिजा। क्रि० प्र०—करना।—देना।—पर पहुँचना या पहुँचाना = पुरा करना। समाप्त करना। निपटना। प्रबध करना। उ०—काम क्या अंजाम देगा दुसरा। जब नहीं सकते हमी अंजाम दे।— चोखे०, पृ० ९९।

अंजारना पु
क्रि० स० [सं० अर्जन] कमाना। संचित करना।

अंजि (१)
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जि] १. प्रेरक। भेजनेवाला। २. आदेशदाता। ३. त्रिपुंड [को०]।

अंजि (२)
संज्ञा स्त्री० १. अंगराग। २. रंग। ३. जननेंद्रिय [को०]।

अंजिक
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जिक] सुर्य। रबि [को०]।

अंजित (१)
वि० [सं० अञ्जित] १. अंजन लगाए हुए। अंजनसार। आँजे हुए। उ०—रज रंजित अंजित नयन घुँटन डोलत भुमि।—पृ० रा०, १।७१८।

अंजित (२)
वि० [सं० अञ्चित] पुजित। आराधित (डिं०)।

अंजिबार
संज्ञा पुं० दे० 'अंजाबार'।

अंजिव
वि० [सं० अञ्जिव] पिच्छिल। चिकना। फिसलाहट [को०]।

अंजिष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जिष्ठ] सुर्य [को०]।

अंजिष्ण
संज्ञा पुं० दे० 'अंजिष्ठ'।

अंजिसना पु
क्रि० अ० [सं० अञ्जसा] शीघ्रता करना। उ०— अंजिसिय हँसिय अंतर गसिय ससिय सद्ध उद्धर धँसिय।— पृ० रा०, ६७।३५७।

अंजिहिषा
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जिहिषा] जाने की इच्छा [को०]।

अंजी
संज्ञा स्त्री० [सं० अञ्जी] १. पीसने का एक यंत्र। २. आशिष आशीर्वाद [को०]।

अंजीर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अञ्जीर, फा० अंजीर] एक प्रकार का पेड़ तथा उसका फल। विशेष—यह गुलर के समान होता है और खाने में मीठा होता है। यह भारतवर्ष में बहुत जगह होता है। पर अफगानिस्तान, बिलुचिस्तान और काशमीर इसके मुख्य स्थान हैं। इसके लगाने के लिये कुछ चुना लगी हुई मिट्टी चाहिए। लकड़ी इसकी पीली होती है। इसके कलम फाल्गुन मे काटकर दुर दुर क्यारियों में लगाए जाते है। क्यारियाँ पानी से खुबतर रहनी चाहिए। लग ने के दो ही तीन वर्ष बाद इसका पेड़ फलने लगता है और १४ या १५ वर्ष बराबर फल देता रहता है। यह वर्ष में दो बार फलता है। एक बार जेठ-असाढ़ में और फिर फाल्गुन में। माला में गुथे हुए इसके सुखाए हुए फुल अफग निस्तान आदि से हिंदुस्तान में बहुत आते हैं। सुखाते समय रंग चढ़ाने और छिलके को नरम करने के लिये या तो गंधक की धनी देते हैं अथवा नमक और शोरा मिले हुए गरम पानी में फलों को डुबाते हैं। भारतवर्ष में पुना के पास खेड- शिवापुर नामक गाँव के अंजीर सबसे अच्छे होते है। पर अफगानिस्तान और फारस के अंजीर हिंदुस्तानी अंजीरों से उत्तम होते हैं। सुखाया हुआ अंजीर का फल स्निग्ध, पुष्टिकर और रेचक होता है। यह दो तरह का होता है, एक जो पकाने पर लाल होता है और दुसरा काला।

अंजीर (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अजिर] आँगन। उ०—एन अंजीर एक करु मेला।—संत दरिया० प० ३।

अंजु पु
वि० [सं० ऋजु, प्रा,० अंजु] सरल। स्पष्ट। उ०—पहुपंजलि अंजु सुरंग बनं।—पृ० रा०, २।३४४।

अंजुबार
संज्ञा पुं० दे० 'अंजबार' [को०]।

अंजुमन
संज्ञा पुं० [फा०] सभा। समाज। मजलिस। मंडली।

अंजुल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंजली'। उ०—सायर मध्य सुठाय करन त्रिभुवन तन अंजुल।—पृ० रा०, २।९२।

अंजुलि
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंजलि'। उ०—मंजुल अंजुलि भरि भरि पिय कों तिय जल मेलत।—नद०, ग्रं०, पृ० २४। मुहा०—अंजुलि करना = प्रणाम करना। उ०—दंडव्रत अंजुलि करिय मन आनंद सधीर।—पृ० रा०, ६।३४। अंजुलि जोरना = हात जोड़ना। उ०—अंजुलि जोरि डरात डरात। कहन लगे बिप्रनि सौं बात।—नंद० ग्रं०, पृ० ३०१।

अंजुली
संज्ञा स्त्री० दे० 'अजलो'। उ०—अंजुली जल घटत जैसें तैसें हीं तन यह गयौ।—सूर०, १०।३८६५। मुहा०—अंजुली करना = आचमन करना। उ०—हरि चरन अंब अंजुली कीन।—पृ० रा०, १।४३९।

अंजू
संज्ञा पुं० [सं० अश्रु] आँसू। उ०—समंदर एक आँख के अंजू में।—दक्खिनी०, पृ० १६६।

अंझा
संज्ञा पुं० [सं० अनध्याय प्रा० अणज्झा, अणज्झाअ] नागा। तातील। छुट्टी। काम न करने का दिन। उ०—(क) मन को मसूसि मनभावन सो रूसि सखी दासिन को दूसि रही रंआ झुकि झंझा सी। सोवै, सुक मोचै, सुक सारिका लचावै चोंचै न रुचिर बानि मानि रहै अंझा सी।—देव (शब्द०)। (ख) अंझा सी दिन की भई संझा सी सकल दिसि गगन लगन रही गरद छवाय है।—भूषण (शब्द०)। (ग) काम में चार दिन का अंजा हो गया (शब्द०)।

अंझु
संज्ञा पुं० दे० 'अंजू'।—दक्खिनी०, पृ० ७७।

अंटसंट
वि० दे० 'अट्ट सट्ट'।

अंटा
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड, प्रा० अंडअ] १. बड़ी गोली। विशेष—इसका प्रयोग अफीम और भंग के संबंध में अधिक होता है। जैसे अफीम का अंटा चढ़ा लिया, अब क्या है? २. सूत वा रेशम का लच्छा। ३. बड़ी कौड़ी। ४. एक खैल जिसे अँगरेज लोग हाथीदाँत की गोलियों से भेज पर खेला करते है। बिलियर्ड। यौ०—अंटागुड़गुड़। अंटाघर। अंटाचित। अंटाबंधु।

अंटागुड़ागुड़
वि० [हिं० अंटा + गुड़गुड़] नशे में चूर। संज्ञाशून्य। बेहोश। बेसुध। अचेत। क्रि० प्र०—होना।

अंटाघर
संज्ञा पुं० [हिं० अंटा + घर] वह कमरा जिसमें गोली का खेल खेला जाय। इस खेल को अंगरेजी में बिलियर्ड कहते हैं।

अंटाचित
क्रि० वि० [हिं० अंटा + चित] पीठ के बल। सीधा। पीठ जमीन पर किए हुए। पट और औंधा का उलटा। क्रि० प्र०—गिरना। पड़ना।—होना। मुहा०—अंटाचित होना = (१) स्तंभित होना। अवाक् होना। (२) पीठ के बल गिर पड़ना, दजैसे, इस खबर को सुनते ही वह अंटाचित हो गया (शब्द०)। (३) बेकाम होना। बरबाद होना। किसी काम का न रह जाना, जैसे, व्यापार में उसे ऐसा घाटा आया कि वह अंटाचित हो गया (शब्द०)। ४. नशे में बेसुध होना। बेखबर होना। अचेत होना। चूर होना। उ०—वह भंग पीते ही अंटाचित हो गया (शब्द०)।

अंटाधार
संज्ञा पुं० दे० 'बंटाधार'। उ०—'फैशन' ने तो बिल और टोटल के इतने गोले मारे के अंटाधार कर दिया और सिफ़ रिश ने़ भी खुब ही छकाया।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१, पृ० ४७६।

अंटाबंधु
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड + बन्धक] जुए में फेकेवाली कौड़ी जिसे जुआरी सब कुछहारने पर दाँव पर रख देता है।

अंटी
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड] [क्रि अँटियाना] १. उँगलियों के बीच का स्थान। अंतर। घाई। २. धोती की वह लपेट जो कमर पर होती है और जिसमें पैसा भी रखते हैं। गाँठ। मुर्री।मुहा०—अंटी करना—किसी का माल उड़ा लेना। धोखा देकर कोई वस्तु ले लेना। अंटी चढ़ाना = अपने मतलब पर लाना। वश में करना। अपने दाँव पर लाना। अंटी पर चढ़ाना = अपने दाँव में लाना। अंटी मारना = (१) जुवा खेलते समय काँड़ी को उँगलियों के बीच में छिपालेना। (२) आंख बचाकर धीरे से दूसरे की वस्तु खिसका लेना। धोखा देकर कोई चीज उड़ा लेना। (३) तराजू की डाँड़ी को इस ढंग से पकड़ना कि तौल में चीज कम चढ़े। कम तौलना। डाँड़ी मारना। अंटी रखना = छिपा रखना। दबा रखना। प्रगट न ह ने देना। ३. एक दूसरे पर चढ़ी हुई एक ही हाथ कि दो उँगलियाँ। तर्जनी के ऊपर मध्यमा को चढ़ाकर बनाई हुई मुद्रा। डोड़ैया। डड़ोइया। विशेष—इसका चलन लड़कों में है। जब कोई लड़का किसी अपवित्र वस्तु वा अंत्यज से छू जाता है तब उसके साथ के और लड़के उँगली पर उँगली चढ़ा लेते है जिसमें यदि वह उन्हें छु ले तो छूत न लगे और कहते है कि दो बाल की अंटी काला वाला छू ले। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—बाँधना। लगाना। ४. लच्छा। अट्टी। सूत वा रेशम की लच्छी। क्रि० प्र०—करना = अटेरना। लछियाना। लपेटना। लच्छ बाँधना। ५. अटेरन। वह लकड़ी की वस्तु जिसपर सूत लपेटते है। ६. विरोध। बिगाड़। लड़ाई। शरारत। ७. कान में पहनने की छोटी बाली जिसे धोबी, कछी, कँहार आदि नीच जाति के मर्द पहनते है। मुरकी। छोटी बाली। ८. जेब। खलीता (को०)।

अंटीबाज
वि० [हिं० अंटी + फा० बाज़] धूर्त। चालाक [को०]।

अंठ
संज्ञा स्त्री० [सं० अष्ठ = गमन] गति। चील। उ०—धवै अंठ भारी—पृ० रा०, ३१।११२।

अंठी
संज्ञा स्त्री० [सं० आस्थि, प्र, अट्ठि, अंठि] १. चीयाँ। गुरली। बीज। २. गाँठ। गिरह। ३. नवोढ़ा के निवलते हुए रतन। अँठली। ४. गिलटी। कड़ापन।

अंठुल पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंठी] खुर। सुम। उ०—है अंठुल दल पंग बीर अवरत्त हलाइस।—पृ० रा०, ६१।२१४५।

अंड
संज्ञा पुं० [सं० अण्ड] १. अंडा। उ०—अललपच्छ का अंड ज्यों उलटी चले अस्मान।—रत्न०, पृ० ६१। २. 'अंडकोश'। फोता। २. ब्रह्मांड। लोकपिंड। लोकमंडल। विश्व। उ०— जिअन मरन फल दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जस छाव।—मानस, २।१५६। ४. वीर्य। शुक्र। ५. कस्तूरी का नाफा। मृगनाभि। नाफा। ६. पंच आवरण। दे०, 'कोश'। ७. क मदव। उ०—अति प्रचंड यह अंडमहाभट जहि सबै जग जानत। सो मव्हीन दीन ह्वौ बपुरो कोपि धनुष शर तानत।—सूर (शब्द०)। ८. मकानों की छाजन के ऊपर के गोलकलश जो शोभा के लिये बनाए जाते हैं। उ०—(क) अंड टूक जाके भस्मती सौ ऐसा राजा त्रिभुवनपति।— दक्खिनी, पृ० ३०। (ख) वटेबर षग्ग क्मद्ध निसार। तुटै बर देवल अंड अधार।—पृ० रा०, २४।२३९। १०. शिव का एक नाम (को०)।

अंडक
संज्ञा पुं० [सं० अण्डक] १. अंडकोश। २. छोटा अंडा [को०]

अंडककड़ी
संज्ञा स्त्री०. [सं०. अण्डकर्कटी] दे०. 'अंडकर्कटी' [को०.]।

अंडकटाह
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डकटाह] ब्रह्मांड। विश्व। लोक- मंडल। उ.—एहि विधि देवत फिरउँ मैं अँडकटाह अनेक।— मानस, ७।८०।

अंडकर्कटी
संज्ञा स्त्री०. [सं०. अण्डकर्कटी] पपीता। अंड खरबूज [को०.]।

अंडकोटरपुष्पा
संज्ञा स्त्री०. [सं०. अण्डकोटरपुष्पा] दे०. 'अंडकोटरपुष्पी' [को०.]।

अंडकोटरपुष्पी
संज्ञा स्त्री०. [सं०. अण्डकोटरपुष्पी] नील अपराजिता। नीलवुह्ना। नीलपुष्पी। अजांत्री [को.]।

अंडकोश
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डकोश] १. लिंगेंद्रिय के नीचे चमड़े की वह दोहरी थैली जिसमें वीर्यवाहिनी नसें और दोनों गुठलियाँ रहती है। दूध पीकर पलनेवाले उन समस्त जीवों को यह कोश वा थैली होती है जिनके दोनों अंड वा गुठलियाँ पेड़ू से बाहर होती हैं। फोता। खुशिया। आँड़। बैजा। बृषण। २. ब्रह्मांड। लोकमंडल। संपूर्ण विश्व। उ०—जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोश समेत गिरि कानन।—तुलसी (शब्द०.)। ३. सीमा। हद। ४. फल का छिलका। फल के ऊपर का बोकला। ५. फल (को०.)।

अंडकोष
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डकोष] दे०. 'अंडकोश' [को०.]।

अँडकोषक
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डकोषक] दे०. 'अंडकोश-१' [को०.]।

अंडकोस
संज्ञा पुं०. दे०. 'अंडकोश-२'। उ.—अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा। देखेउँ जिनस अनेक अनूपा।—मानस, ७।८१।

अंडज (१)
संज्ञा पुं. [सं. अण्डज] अडे से उत्पन्न होनेवाले जीव जैसे सर्प, पक्षी, मछली, कछुआ इत्यादि। ये चार प्रकार के जीवों में से हैं।

अंडज (२)
वि०. [सं०. अण्डज] अंडे से उत्पन्न [को०.]।

अंडजराय
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डज + प्रा०. राय] पक्षियों के राजा। गरुड़। उ.—उदर माँझ सुनु अंडजराया। देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया।—मानस, ७।८०।

अंडजा
संज्ञा स्त्री०. [सं०. अण्डजा] कस्तूरी।

अंडजात (१)
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डजात] अंडे से उत्पन्न जीव, जैसे सर्प, मछली, छिपकली, पक्षी इत्यादि [को०.]।

अंडजात (२)
वि०. दे०. 'अंडज' [को०.]।

अंडजेश्वर
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डजेश्वर] पक्षिराज। गरुड़ [को०.]।

अंडदल
संज्ञा पुं. [सं. अण्डदल] अंडे का छिलका या खोल [को०.]।

अंडधर
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डधर] शिव [को०.]।

अंडबंड
संज्ञा पुं. [सं. अकाण्डविकाण्ड प्रा०, अंड विअंड] १. असंबद्ध प्रलाप। बेसिर पैर की बात। ऊटपटाँग। अनाप शनाप। अगड़बगड़। व्यर्थ की बात। २. गाली। बुरी बात। अपशब्द। क्रि०. प्र०.—कहना।—बकना।—बोलना।

अंडबंड (२)
वि०. असंबद्ध। बे सिर पैर का। इधर उधर का। अस्त- व्यस्त। व्यर्थ का। प्रयोजन रहित। उ.—'जब उसने उन प्रश्नों के उत्तर अंडबंड दिए तो उसपर...।'—भारतदु ग्रं०., भा०.१, पृ०. १६७।

अंडर स्रेक्रेटरी
संज्ञा पुं०. [अं०.] वह मंत्री जो मुख्य मंत्री के अधीन हो। सहकारी सचिव। सहायक मंत्री। जैसे, अंडर सेक्रेटरी फार इंडिया (सहकारी भारत सचिव)।

अंडवर्धन
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डवर्धन] दे. 'अंडवृद्धि' [को.]।

अंडवृदिधि
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डवृद्धि] एक रोग जिसमें अंडकोश वा फोता फूलकर बहुत बढ़ जाता है। फोते का बढ़ना। विशेष—शरीर की बिगड़ी हुई वायु या जल नीचे की ओर चलकर पेड़, के एक ओर की संधियों से होता हुआ अंडकोश में जा पहुँचता है, और उसको बढ़ाता है। वैद्यक में इसके वातज, पित्तज आदि कई भेद माने गए है।

अंडस †
संज्ञा पुं०. [सं०. अन्तस् प्रा०. *अंडस् = बीच में, दाव में] कठिनता। कठिनाई। मुश्किल। संकट। असुविधा।

अंडसू
वि०. [सं०. अण्डसू] अंडे से पैदा होनेवाला। अंडज [को०.]।

अंडा (१)
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डक, प्रा०. अंडअ] [वि. अंडैल] १. बच्चों को दूध न पिलानेवाले जंतुओं के गर्भाशय से उत्पन्न गोल पिंड जिसमें से पीछे से उस जीव के अनुरूप बच्चा बनकर निकलता है।वह गोल वस्तु जिसमें से पक्षी, जलचर, और सरीसूप आदि अंडद जीवों के बच्चे फूटकर निकलते हैं। बैजा। उ०—अंडा पालै काछुई बिनु थन राखै पोक।—कबीर सा० सं०, भा०१, प०. ८९। मुहा०—अंडा उड़ाना = (१) बहुत झूठ बोलना। बे पर की उड़ाना। (ख) असंभव को संभव कर दिखाना। अंडा खटकना = अंडा फूटने के करीब होना। जब अंडे से बच्चा निकलने में एक आध दिन रह जाता है तो उसके भीतर के बच्चे का अंडे के छिलके पर चोंच मारना। अंडा ढीला होना = (१) नस ढीली होना। थकावट आना। शिथिल होना। जैसे, यह काम सहज नहीं है, अंडा ढीला हो जायगा (शब्द०)। (ख) खुक्ख होना। निर्द्रव्य होना। दिवालिया होना। जैसे, खर्च करते करते अंडे ढीले हो गए (शब्द.)। अंडा सरकना = (१) दे०. 'अंडा ढीला होना'। (ख) हाथ पैर हिलाना। अंग डोलना। उठना। जैसे, बैठे बैठे बताते हो, अंडा नहीं सरकता (शब्द.)। अंडा सरकाना = हाथ पैर हिलाना। अंग डोलाना। उठना। उठकर जाना। जैसे, अब अंडा सरकोओ तब काम चलेगा (शब्द०.)। प्रायः मोटे या बड़े अंडकोशवाले आदमी को लक्ष्य कर यह मुहावरा बना है। अंडे लड़ाना = जुवारियों का एक खेल जिसमें दो आदमी अंडे के सिरे लड़ाते है। जिसका अंडा़ फूट जाता है वह हारा समझा जाता है। अंडे का मलूक = सीधा सादा आदमी। अनुभवहीन व्यक्ति। अंडे का शाहजादा = वह व्यक्ति जो कभी घर से बाहर न निकला हो। वह जिसे कुछ अनुभव न हो। अंडे सेना = (१) पक्षियों का अपने अंडे पर गर्मी पहुँचाने के लिये बैठना। (ख) घर में रहना। बाहर न निकलना। जैसे, क्या घर में पड़े अंडे सेते हो (शब्द०.)।

अंडा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अण्डक] शरीर। देह। पिंड। उ.—आसन बासन मानुष अंडा। भए चौखंड जो एस पखंडा।—जायसी (शब्द०)।

अंडाकर्षण
संज्ञा पुं०. [सं०. अण्डाकर्षण] नपुंसक बनाना [को०]।

अंडाकार
वि० [सं० अण्डाकार] अंडे के आकार का। बैजीवी। उस पारिधि के आकार का जो अंडे की लंबाई के चारों ओर रेखा खींचने से बने। लंबाई लिए हुए गोल।

अंडाकृति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अण्डाकृति] अंडे का आकार। अंडे की शकल।

अंडाकृति (२)
वि० अंडे के आकार का। अंडाकार अंड इव।

अंडालु
संज्ञा पुं० [सं० अण्डालु] अंडे से भरी हुई मछली [को०]।

अंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अण्डिका] चार यव के परिमाण की एक तौल [को०]।

अंडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अण्डिनी] स्त्रियों का एक योनिरोग जिसमें कुछ मांस बढ़कर बाहर निकल आता है। इसे योनिकंद रोग भी कहते हैं।

अंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० एरण्ड] १. रेँड़ी। रेँड़ के फल का बीज। २. रेँड़ या एरंड का पेड़।

अंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अण्डक या अण्डिका] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो रद्दी रेशमन और छाल आदि से बनता है।

अंडीर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अण्डीर] १. वयस्क पुरुष। युवक। जवान व्यक्ति। २. दृढ़ व्यक्ति [को०]।

अंडीर (२)
वि० बली। समर्थ [को०]।

अंडल
वि० स्त्री० दे० 'अंडैल'।

अंडैल
वि० स्त्री० [हिं० अंडा+ एल (प्रत्य०)] जिसके पेट में अंडे हों। अंडेवाली।

अंतः
अव्य० [सं० अन्तः] 'अंतर्' के अर्थ में समस्त पदों में कुछ स्थितियों में प्रयुक्त 'अंतर्' शब्द का एक रूप जो पहले आता है, जैसे अंतःशल्य, अंतःसार आदि आदि [को०]।

अंतःकक्ष
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःकक्ष] घर के भीतर का कमरा जहाँ प्रसाधन, शयन, आदि की व्यवस्था हो। उ०—'देवी अंतःकक्ष में अभ्यागत के अकस्मात् प्रवेश से स्तब्ध हो गई...।,—दिव्या, पृ० २१४।

अंतःकरण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःकरण] १. वह भीतरी इंद्रिय जिसके विषय संकल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण आदि है तथा जो सुख दुःखादि का अनुभव करती है। विशेष—कार्यभेद से इसके चार विभाग है—(१) मन्, जिससे संक्लप विकल्प होता है। (ख) बुद्धि जिसका कार्य है विवेक वा निश्चय करना। (ग) चित्त, जिससे बातों का स्मरण होता है। (घ) अहंकार, जिससे सृष्टि के पदार्थों से अपना संबंध देख पड़ता है। २. हृदय। मन। चित्त। बुद्धि। उ०—अंतःकरण में तीव्र अभिमान के साथ विराग है।—स्कंद०, पृ० ५६। ३. नैतिक बुद्धि। विवेक, जैसे—हमारा अंतःकरण इस बात को कबूल नहीं करता (शब्द०)।

अंतःकरन पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतःकरण'। उ०—जो आजहू तेरो अंतः करन सुद्ध भयो नहीं है।—दो सौ बावन०, भा०२, पृ० १८।

अंतःकलह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःकलह]दे० 'गुहकलह'

अंतःकुटिल (१)
विं० [सं० अन्तःकुटिल] भीतरी का कपटी। खोटा। धोखेबाज। छली।

अंतःकुटिल (२)
संज्ञा पुं० शंख [को०]।

अंतःकोण
संज्ञा पुं० [संज्ञा अन्तःकोण] भीतरी कोना। भीतर की ओर का कोण। विशेष—जब एक रेखा दो रेखाओं को स्पर्श करती या काटती है तब उन रेखाओं के मध्य में बने हुए कोण को अंतःकरण कहते है।

अंतःकृमि (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःकृमि] शरीरस्थ कीटाणुओं से उत्पन्न होनेवाला एक रोग [को०]।

अंतःकृति (२)
वि० जिसमें कीड़े हों (फलादि) किन्हा [को०]।

अंतःकोटरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःकोटरपुष्पी] दे० 'अण्डकोटरपुष्पी' [को०]।

अंतःकोप
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःकोप] प्रकट न होनेवाला क्रोध। भीतरी गुस्सा [को०]।

अंतकोश
संज्ञा पुं० [सं० अन्थःकोश] कोशागार या भांडार का भीतरी हिस्सा (को०)।

अंतःक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०च अन्तःक्रिया] १. भीतरी व्यापार। अप्र- गट कर्म। २. अंतःकरण को शुद्ध करनेवाला आंतरिक कर्म।

अंतःपट
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपट] १. वह आवरण पट जो दो व्यक्तियों (वर वधु या गुरु शिष्य) को समुचित मुहूर्त के पूर्व संयुक्त करने के पहले डाला जाता है। वह परदा जो विवाह के अवसर पर वर और वधु के बीच उनको मिलाने के पहले डाला जाता है। अंतरपट। २. अंतर्वस्त्र। अँतरौटा (को०)।

अंतःपटल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपटल] १. आँखओं के भीतर का अव्यक्त जालीदार परदा। २. भीतरी परदा [को०]।

अंतःपटी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःपटी] १. किसी चित्रपट द्वारा नदी, पर्वत, वन, नगर आदि का दिखलाया हुआ दृश्य। २. नाटक का परदा।

अंतःपद
अव्य० [सं० अन्तःपद्म] विकारी शब्द के मध्य में [को०]।

अंतःपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०य अन्तःपदवी] सुषुम्णा नाड़ी के मध्य की राह [को०]।

अंतःपदे
अव्य० दे० 'अंतःपदम्' [को०]।

अंतःपरिधान
संज्ञा पु० [सं० अन्तःपरिधान] अंतर्वस्त्र। अंतरौटा [को०]।

अंतःपरिधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःपरिधि] १. किसी परिधि वा घेरे के भीतर का स्थान। २. यज्ञ की अग्नि को घेरने के लिये जो तीन हरी लकड़ियाँ रखी जाती हैं, उनके भीतर का स्थान।

अंतःपवित्रा (१)
वि० स्त्री० [सं० अन्तःपवित्रा] शुद्ध अंतःकरणवाली। शुद्ध चित्त की।

अंतःपवित्रा (२)
संज्ञा स्त्री० सोमरस जब वह छानने के लिये छनने में रखा हो।

अंतःपशु
सं० पुं० [सं० अन्तःपशु] पशुओं की गोशाला या बथान पर रहने का सायंकाल से प्राताकाल तक का समय [को०]।

अंतःपात
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपात] १. यज्ञशाला का मध्यवर्ती स्तंभ या खंभा (को०)। २. व्याकरण में किसी अक्षर का मध्य में आना [को०]।

अंतःपातित
वि० [सं० अन्तःपतित] दे० 'अन्तःपाती' [को०]।

अंतःपाती
वि० [सं० अन्तःपातिन्] १. मध्यवर्ती। बीच में। २. संमिलित [को०]।

अंतःपाल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपाल] १. अन्तःपुर या रनिवास का रक्षक। २. कंचुकी [को०]।

अंतःपुर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुर] घर के मध्य या भीतर का भाग जिसमें रानियाँ या स्त्रियाँ रहती हों। जाननखाना। जनाना या भीतरी महल। रनिवास। हरम। उ०—'दुर्ग' का तो नहीं, अंतःपुर का भार तुम्हारे ऊपर है'।—स्कंद०, पृ० ५६।

अंतःपुरचर
संज्ञा पुं० [सं० अंतःपुरचर] अंतःपुर में आने जाने के अधिकारी, कंचुकी आदि [को०]।

अंतःपुरचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्पुरचरिणी] [संज्ञा पुं० अन्तः पुरचारिन्] अंतःपुर या हरम मे निवास करनेवाली स्त्री। उ०— 'एक समय कुलवधु की संज्ञा थी अंतःपुर्चारिणी'—। टैगोर सा०, पृ० ३९।

अंतःपुरजन
संज्ञा पुं० [सं० अत्तःपुरजन] अंतःपुर में रहनेवाली स्त्रियाँ आदि [को०]।

अंतःपुरप्रचार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुरप्रचार] औरतों की गप्प- बाजी [को०]।

अंतःपुररक्षक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुररक्षक] दे० 'अंतःपाल' [को०]।

अंतःपुरवर्ती
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुरवर्तिन्] अंतःपाल [को०]।

अंतःपुरसहाय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुरसहाय] अंतःपुर में कार्य करनेवाले खोजा नपुंसक, माणवक, विदूषक आदि [को०]।

अंतःपुराध्य़क्ष
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुराध्यक्ष] अंतःपुर का रक्षक। रनिवास का अध्यक्ष [को०]।

अंतःपुरिक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुरिक] अंतःपुर का रक्षक। कंचुकी [को०]।

अंतःपुरिका
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुरिका] अंतःपुर में रहनेवाली नारी [को०]।

अंतःपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०अन्तःपुष्प] वह रज लो १२ बर्ष की रजस्राव की निश्चित अवधि के बीत जाने पर भी प्रगट नहीं होता [को०]।

अंतःपूय
वि० [सं० अन्तःपूय] पीब या मवाद से भरा हुआ। जिसके भीतर मवाद हो [को०]।

अंतःप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःप्रकृति] १. आंतरिक प्रकृति। भीतरी या मन का स्वभाव। अंतवृत्ति। मूल स्वभाव। उ०— उसी प्रकार अंतःप्रकृति में दया, दाक्षिण्य, श्रद्दा, भक्ति आदि वृत्तियोँ की स्निग्ध, शीतल आभा में सौदर्य लहराता हुआ पाते हैं।— रस०, पृ०, ३२। २. आत्मा। ३. राज्योग। राजा के समीपवर्ती अमात्य, सुह्वद् आदि। ४. राजधानी की प्रजा [को०]।

अंतःप्रज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०अन्तःप्रज्ञ] जिसकी आंतरिक अथवा आत्म- विषयिणी प्रज्ञा प्रबुद्द हो। आत्मज्ञ नी। तत्वदर्शो।

अंतःप्रतिष्ठित
वि० [सं० अन्तःप्रतिष्ठित] ह्वदय में बसा हूआ [को०]।

अंतःप्रवाह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःप्रवाह] वह धारा या प्रवाह जो भीतर ही भीतर बहता हो [को०]।

अंतःप्रविष्ट
वि० [सं० अन्तःप्रविष्ट] १. भीतर घुसाहुआ। २. ह्वदगत। मनोगत [को०]।

अंतःप्रांतीय
वि०[सं० अन्तः + प्रांतीय] किसी भी देश के दो या उससे अधिक विभागों या प्रदेशों में संबंध रखनेवाला अथवा उनसे अवस्थित।

अंतःप्रचीर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःप्राचीर] प्राचीर के भीतर की दीवाल। भीतरी दीवार [को०]।

अंतःप्रादेशिक
वि० [सं० अन्तःप्रादेशिक] दे० 'अंतःप्रांतीय'।

अंतःप्रेरणा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तछप्रेरण] भीतरो या स्वाभाविक प्रेरण।

अंतःराष्ट्रीय
वि० [सं० अन्तः + राष्ट्रिय] जिसका दो या अधिक राष्ट्रों से संबंध हो। भिन्न भिन्न राष्ट्रों से संबंधित।

अंतःशर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःशर] १. वनभूमि का भीतरी भाग जहाँ शर (बेत) उगें होँ। २.एक रोग [को०]।

अंतःशर (२)
वि० दे० अंतःशल्य [को०]।

अंतःशरीर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःशरीर] वेदांत और योग के अनुसार स्थूल शरीर के भीतर का सूक्ष्म शरीर। लिंगशरीर।

अंतःशल्य
वि० [सं० अन्तःशल्य] भीतर चुभे काँटे की तरह सालनेवाला। गाँसी की तरह मन में चुभनेवाला। मर्मभेदी।

अंतःशल्य (२)
संज्ञा पुं० शत्रु के वश में पड़ी हुई सेना।

अंतःशुद्बध
वि० पुं० [सं० अन्तःशद्ब] [स्त्री० अन्तःशुद्बा] जिसका अंतःकरण, मन या चित्त शुद्ब हो।

अंतःशुदिध
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःशुद्बि] अंतःकरण की पवित्नता। चित्त की स्वच्छदता। दिल की सफाई। चित्तशुद्वि।

अंतःसंज
वि० पुं० [सं० अन्तःसंज्ञ] जो जीव अपने सुख दुख का अनुभव करते हुए भी उन्हें स्पष्ट प्रगट न कर सके, जैसे वृक्ष, तृण आदि।

अंतःसत्व
वि० [सं० अत्नःसात्व] जिसके भीतर शक्ति या गुरुता हो। अंतःसार [को०]।

अंतःसत्वा (२)
वि० स्त्री० [सं० अन्तःसत्वा] गर्भवती। गर्भिणी।

अंतःसत्व (२)
संज्ञा स्त्री० भिलावाँ। भल्लातक।

अंतःसलिला
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःसलीला] दे० 'अंतस्सलिला'।उ०— क्या हो सूने मरु अंचल में अंतःसालिला की धारा सी। कामायनी, पृ० ३७।

अंतःसाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तः + साक्षिन्] भीतरी प्रमाण। आंतरीक गवाही। उ०—सूत्तों की अंतःसाक्षी इसी पक्ष में है।— पाणिनि० पृ० ४।

अंतःसार (१)
संज्ञा पुं० [सं०अन्तःसार] भीतरी तत्व। गुरुता। भोतरी सार। उ०— 'एसे मामलों का अंतःसार हिदुस्तानी ही लोग जानते है'। —भारतेंदु ग्रं०, भा०, १. प० ३६+२।

अंतःसार (२)
वि० जिसके भीतर कुछ तत्व हो। जो भीतर से पोला न हो। जा सारयुक्त हो। जिसके भीतर कुछ प्रयोजनीय या महत्व की वस्तु हो।

अंतःसारवान
वि० पुं०[सं० अन्तःसारवत्] १. जिसके भीतर कुछ तत्व या सार होँ। जो पोला न हो। जिसके भीतर प्रयोजनीय वस्तु हो। २. तत्वपूर्ण। सारगर्भित। प्रयोजनीय। काम का।

अंतःसुख (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःसुख] बाह्रा सुख से रहित आत्मानु- संधान रूपी सुख। आंतरिक सुख [को०]।

अंतःसुख (२)
वि० जिसे आंतरिक सुख प्राप्त हो [को०]।

अंतःसौंदर्य
संज्ञा पुं० [सं० अन्तः + सौन्दर्य] भीतरी सौदर्य। ह्वदय। की अच्छाई। उ०— 'जहाँ कोई सौदर्य नहीं वहाँ अंतःसौदर्य देखा जाता है'। —जय० प्र० पृ० ३९।

अंतःस्थ
संज्ञा पुं० वि० [सं० अन्तःस्थ] दे० 'अंतस्थ' [को०]।

अंतःस्थित
वि० [सं० अन्तःस्थित] मध्य में स्थित या बैठा हुआ। भीतर बैठा हुआ [को०]।

अंतःस्वर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तः + स्वर] आंतरिक ध्वनि। भीतरी आवाज। ह्वदय का स्वर। दिल की आवाज। उ०—'गूँजते से तप्त अंतःस्वर तुह्मारे तरल कूदन में'।— हरी घास०, पृ० ३२।

अंतःस्वेद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःस्वेद] वह जीव जिसके भीतर स्वेद या मदजल हो। मदस्त्रावी हाथी।

अंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्त] [वि० अंतिम, अंत्य] १. वह स्थान जहाँ से किसी वस्तु का अंत हो। सामाप्ति। आखीर। अवसान। इति। उ०— बन कर अंत कतहुँ नहिँ पावहिँ।—तुलसी (शब्द०)। २. वह समय जहाँ के किसी वस्तु की समाप्ति हो। उ०— दिन के अंत फिरी दोउ अनी— तुलसी (शब्द०)। विशेष— इस शब्द में 'में और 'को' विभक्ति लगने से आखिरकार', 'निदान' अर्थ होता है। क्रि० प्र०— करना। —होना। ३. शोष भाग। अंतिम भाग। पिछला अंश। उ०— 'रजनी सु अंत महुरत्त बंभ'। —पृ० रा०, ६६। १६६२। मुहा०— अंत बनना = अंतिम भाग का अच्छा होना। अंत बिगड़ना। = अंतिम वा पिछले भाग का बुरा होना। ४. पार। छोर। सीमा। हद। अवधि। पराकाष्ठा। उ०— 'अस अँवराउ सधन बन, बरनि न पारौ अंत। —जायसी (शब्द०)। क्रि० प्र०— करना = हद करना। उ०— तुमने तो हँसी का अंत कर दिया (शब्द०)।-पाना। —होना। ५. अतंकाल। मरण। मृत्य। उ०— (क) 'जान्यों सुअंत प्रथि राज अप्प। भिन्नौ जगति द्रुग्ग सुजप्प। —पृ० रा०, ३७। ४५७। (ख) 'अंत राम कहि आवत नाहीं'। —तुलसी (शब्द०)। ६. नाशा। विनाश। उ०— 'कहै पदमाकर त्निकूट ही की ढाहि ड़ारौ ड़ारत करेई जातुधानन को अंत हौ। -पदमाकर (शब्द०)। क्रि० प्र०— करना।— होना। ७. परिणाम। फल। नतीजा। उ०— (क) अंत भले का भला।—कहावत (शब्द०)। (ख) 'बुरे काम का अंत बुरा होता है' (शब्द०)। ८. प्रलय (ड़ि०) ९. सामीत्य। निकटता। (को०) १०. प्रतिवेश। पड़ोस (को०)। ११. निबटारा। निबटाव (को०)। १२. किसी समस्या का समाधान या निर्णय (को०)। १३. निश्चय (को०)। १४. समास का अंतिम शब्द (को०)। १५. शब्द का अंतिम अक्षर (को०)। १६. प्रकृति। अवस्था (को०)। १७. स्वभाव (को०)। १८. पूर्ण योग या राशि (को०)। १९. वह संख्या जिसे लिखने में १२ अंक लिखने पड़े। एक खरब या सौ अरब की संख्या।— भा० प्रा०, लि०, पृ० १२। २० भीतरी भाग (को०)।

अंत (२)
वि० १. समीप। निकट। २. बाहर। दूर। ३. अंतिम (को०)। ४. सुंदर। प्यारा (को०)। ५. सबसे छोटा (को०)। ६. निम्न। भ्रष्ट (को०)।

अंत पु (३)
क्रि० वि० अंत में अखिरकार। निदान। उ०— (क) उघरे अंत न होहि निबाहू। —तुलसी (शब्द०)। (ख) कोटि जतन कोऊ करौ परै न प्रकृतिहि बीच। नल बल जल ऊँचौ चढै़ अंत नीच कौ नीच। —बिहारी (शब्द०)।

अंत पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्] १. अंतःकरण। ह्वॉदय़। जी। मन। जैसे 'तुम अपने अंत की बात कहों'; 'मै तुम्हे अंत से चाहता हूँ' (शब्द०)। २. भेद। रहस्य। छिपा हुआ भाव। मन की बात। उ०— 'काहू को न देती इन बातन को अंत लै इकंत कंत मानि कै अनंत सुख ठानती'। —भिखारी,० ग्रं० भा० १. पृ० १५६।मुहा०— अंत पाना = भैद पाना। पता पाना। अंत लेना = भेद लेना। मन का भाव जानना। मन छूना। उ०— हे द्बिज मैं ही धर्म लेन आयों तव अंता। —विश्राम० (शब्द०)।

अंत पु (७)
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्र०, प्र० अंत]। आँत, अंतड़ी। उ०— (क) जिमि जिमि अंत रुलंच लप्ष दल तिन गनि तिम तिम। —पृ० रा०, ६१। २२७३। (ख) झरे शोन धारा परै पेट ते अंत। —सुजान (शब्द०)।

अंत पु (६)
क्रि० वि०[सं० अन्यत्त, प्रा० अष्णात्त, अन्नत हिं० अनत- अंत] और जगह। और ठौर। दूसरी जगह। और कहीं। दूर। अलग। जुदा।उ०— (क) कुंज कुंज में क्रीड़ा वरि करि गोपिन को सुख दैहौं। गोप सखन सँग खेलत डोलौं ब्रज तजि अंत न जैहौं —सूर (शब्द०)। (ख) एक ठाँव यहि थिर न नहाहीं। रस लै खेलि अंत कहुँ जाही। —जायसी (शब्द०)। (ग) धनि रहीम गति मीन की जल बिछुरत जिय जाय। जियत कंज तजि अंत बसि कहा भौंर कौ भाय।— रहीम (शब्द०)।

अंतक (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तक] १. मृत्यु जो प्राणियों के जीवन का अंत करती है मौत। २. यमराज। काल। उ०— गिरा रहित बृक ग्रसित अजा लौं अंतक अनि गहौं। —सूर० १। २०१। ३. सन्निपात ज्वर का एक भेद जिसमें रोगो को खाँसी, दमा और हिचकी होती है और वह किसी वस्तु को नहीं पह— चानता। उ०— व्याकुल सखा गोप भए ब्याकुल। अंतक दसा भयौ भय आकुल—सूर०, १०। ३१५। ४। ईश्वर जो प्रलय में सबका संहार करता है। ५ शिव। परमेश्वर। ६. सीमा। हद्द (को०)।

अंतक (२)
वि० अंत करनेवाला। नाश करनेवाला।

अंतकार
वि० [सं० अन्तकर] अंत या नाश करनेवाला। संहार करनेवाला।

अंतकरण
वि० [सं० अन्तकरण] दे० 'अंतकार' [को०]।

अंतकर्ता
वि० [सं० अन्तकर्ता] दे० 'अंतकर'।

अंतकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अन्तकर्म] मरण। मृत्यु। [को०]।

अंतकारी
वि० [सं० अन्तकारिन्] स्त्री० [अन्तकारिणी] अंत या नाश करनेवाला। विनाश करनेवाला। संहार करनेवाला । मार ड़ालनेवाला। उ०— भक्त भय हरन असुरंतकारी।—सूर०, १०। ४१९४।

अंतकाल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तकाल] १. अंतिम समय। मरने का समय। अखिरी वक्त। उ०— घर घर मंतर देत फिरत है महिमा के अभिमाना। गूरू सहित सीष सभ बूड़े अंतकाल पछि- ताना।—कबीर बी०, पृ० ३०।

अंतकृत (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तकृत] यमराज। धर्मराज। काल। उ०— भूर्मिजा दुःख, संजात रोषंतकृत (रोष+अंतकृत) यातना जंतु कृत यातुधानी। —तुलसी (शब्द०)।

अंतकृत (२)
वि० अंत या विनाश करनेवाला। अंतकर।

अंतक्क
संज्ञा पुं० [सं० अन्तक, प्रा० अंतक्क] यमराज। काल। उ०— प्रथिराज सब्ब देष्यौ सु आब। अंतक्क रूप सब गुन सहाब। —पृ० रा०, ६७। ४६०।

अंतक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तक्रिया] अंत्येष्टे कर्म। क्रिया कर्म। मरने के पीछे मृतक की आत्मा की भलाई या सदगति के लिये किए जानेवाले दाह और पिंडदान आदि कर्म। हिंदुओं के षोड़श संस्कारों में अंतिम।

अंतग
वि० [सं० अन्तग] १ जानकारी में पूरा। पारंगत। पारगामी निपुण। अंतगामी। २ मृत। मरा हुआ (को०)।

अंतगत
वि० [सं० अन्तगत] १. सीमा पर गया हुआ। २. समाप्ति को पहुँचा हुआ [को०]।

अंतगति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तगति] अंतिम दशा। मृत्यु। मरण। मौत।

अंतगति (२)
वि० अंत को प्राप्त होनेवाला। नाश होनेवाला [को०]।

अंतगमन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तगमन] १. अंत तक पहुँचने या पूर्ण करने का कार्य। २. जीवन के अंत तक जाने की स्थिति। मौत। मृत्यु [को०]

अंतगामी
वि० [सं० अन्तगामिन्] [स्त्री० अन्तगामिनी] १ दे० ‘अंतग’। २. मरणशील (को०)।

अंतगुरु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तगुरुः] वह शब्द जिसके अंत में दो मात्राएँ या गुरु हो। उ०—गज अभरन प्रहरन असनि चकल अंतगुरु नाम।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६९।

अंतघाई
वि० [सं० अन्त+घाती, प्रा० अंत+घाइ] अंत में धोखा देनेवाला। विश्वासघाती। दगाबाज। उ०—साँझ ही समै तें दूरि बैठी परदानि देकै संक मोहि एकै या कलानिधि कसाई की। कंत की कहानी सुनि श्रवन सोहानी रैनि रंचक बिहानी या बसंत अंतघाई की।—कोई कवि (शब्द०)।

अंतघाती
वि० [सं० अंत+घातिन्] धोखा देनेवाला। वंचक। दगाबाज।

अंतचर
वि० [सं० अन्तचर] १. सीमा पर जाने या चलनेवाला। २. कोई भी कार्य पूरा करनेवाला [को०]।

अंतच्छद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तच्छद] भीतरी आच्छादन। अंदरूनी परदा।

अंतज
वि० [सं० अन्तज, अन्त्यज] जो अंत में उत्पन्न हो। सबसे बाद में उत्पन्न होनेवाला [को०]।

अंतजा
वि० स्त्री० [सं० अन्तजा, अन्त्यजा] अंत में पैदा होनेवाली। सबसे पीछे की। उ०—अत मत्ति सो गत्ति अंतजा मत्ति अमत्तिय।— पृ० रा०, ३१।१०१।

अंतजाति
१ वि० [सं० अन्तजाति, अन्त्यजाति] अंतिम जाति का। निम्न जाति का [को०]।

अंतजाति
२ संज्ञा पुं० जातिविभाजन में अतिम जाति [को०]।

अंततः
अव्य० [सं० अन्ततः] १. अंत में। आखिरकार। निदान। सबसे पीछे। उ०—मिला परमार्थ मुझको अंततः इस वृद्ध वय में। पार्वती, पृ० ३१८। २. कम से कम। अंशतः (को०)। ३. भीतर (को०)। ४. निचले या निम्न मार्ग में। मुख्य एवं मध्य के बाद में (को०)।

अंतत पु
अव्य० [सं० अन्ततः] अंत में। आखिरकार। उ०—जाति स्वभाउ मिटे नहिं सजनी अंतत उबरी कुबरी।—सूर० (राधा०), पृ० ५३२।

अंततर
वि० [सं० अन्ततर] अंतिम के बाद का। अंत के बादवाला [को०]।

अततम
वि० [सं० अन्ततम] सबसे बाद का। सबसे बादवाला [को०]।

अंतता
क्रि० वि० दे० ‘अंततः’। उ०—दूध भात घृत सकरपारे। हरते भूक नहि अंतता रे।—दक्खिनी०, पृ० १०५।

अंततोगत्वा
क्रि० वि० [सं० अन्ततस्+गत्वा] अंत में जाकर। आखिरकार। निदान। उ०—‘शोकार्त हृदयवाले का अंततोगत्वा ईश्वर में अनन्य प्रौढ़ प्रेमदर्शन उत्तम है’।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४४२।

अंतदीपक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तदीपक] काव्यों में प्रयुक्त दीपकालंकार का एक भेद [को०]।

अंतपाल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तपाल] १. द्वारपाल। ड्योढ़ीदार। पौरिया। दरबान। २. सीमा की रक्षा करनेवाला अधिकारी। सरहद का पहरेदार। उ०—‘सरहदों का प्रबंध अंतपाल करते थे’।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ३२९।

अंतपुर पु
संज्ञा पुं० दे० ‘अंत पुर’। उ०—अंतपुर पैठि भानु आतुर कढ़ै न बेगि, चिर निसि अक मैं निसापति डरे रहैं।—रत्नाकर, भा० २, पृ० १२८।

अंतबर पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्र+अवलि] आँतों का समूह। उ०— मंस हड्ड रद गूद अतबर बाच गज्ज नर।—पृ० रा०, ७।१५२।

अंतभव
वि० [सं० अन्तभव] अंत मे उत्पन्न होनेवाला [को०]।

अंतभाक्
वि० [सं० अन्तभाज्] किसी शब्द के अंत का या अंत में होनेवाला [को०]।

अंतभूत
वि० [सं० अन्तर्भूत] दे० ‘अंतर्भूत’।

अंतभेदी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तभेदी] एक प्रकार का ब्यूह। मध्य- भेदी ब्यूह का विपरीत या उलटा ब्यूह।

अंतम
वि० [सं० अन्तम] अति समीप का। घनिष्ठ (मित्र) [को०]।

अंतमन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्मन] आभ्यंतर मन। भीतरी मन। उ०—सुनि आनंदयौ कब्बि जिय धरिय अंतमन ध्यान।— पृ० रा०, ६७।२७४।

अंतमान पु
संज्ञा पुं० दे० ‘अंतमन’। उ०—लोयन राखौं घूँघट हेरी। अंतमान कौ राखे फेरी।—चित्ना०, पृ० १५४।

अंतरंग (१)
वि० [सं० अन्तरङ्ग] १. अत्यंत समीपी। आत्मीय। निकटस्थ। दिली। जिगरी। उ०—‘वह अपने अंतरंग लोगों का परिचय भी नहीं बताती’।—स्कंद०, पृ० ११६। २. मानसिक। (‘बहिरग’ इसका उलटा है)।

अंतरंग (२)
संज्ञा पृं० १. मित्र। दिली दोस्त। आत्मीय। स्वजन। उ०—‘अनवरी आज इतनी अंतरंग बन गई है’।—तितली’ पृ० १२४ । २. हृदय । उ०—बरदान आज उस गत युग का कंपित करता है अंतरंग ।—कामायनी, पृ० १६२ । ३. राजाओं के अंतःपुर में जानेवाले अधिकारी ।—वर्ण०, पृ० ९ । ४. भीतरी अंग । प्रच्छन्न अंग । उ०—फुनि पुच्छति इंछिनि सु कहि सौत रूप मनि साल । नौ पुच्छो कैसी कहे अंतरंग सु बिसाल ।—पृ० रा०, ६२ । १०४ । यौ०—अंतरंग मंत्री=निजी सचिव । अंतरंग सचिव=प्राइवेट सेक्रे- टरी । अंतरंग मित्र=दिली दोस्त । अंतरंग सभा=सब कमेटी छोटी कमेटी या प्रबंधकारिणी सभा जिसमें मुख्य सभा से चुने हुए लोग रहते हैँ और जिनकी संख्या नियत रहती ।

अंतरंगिनी
वि० स्त्री० [सं० अन्तरङ्गिणी] अत्यंत समीप की । आत्मीया । उ०—‘यह सुनत ही श्री गुसाई जी कहे, जो मेरी अंतरंगिनी सेवकिनी के घर सखडी़ महाप्रसाद क्यों नाहीं लियो?’—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०।

अंतरंगी (१)
वि० [सं० अन्तरङ्गिन्] दिली। भीतरी। जिगरी। उ०—‘हे अंतरंगी जन आज तक जो पुस्तकें प्रकाशित हुइँ, वह दूसरे को समर्पित हुई थीं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ६४३ ।

अंतरंगी (२)
संज्ञा पुं० गहरा मित्र । दिली दोस्त । उ०—वही अंतरंगी सुरंगी निनारं । वहे राज राजी व लोचन्न सारे ।—पृ० रा०, २ । ७७६ ।

अंतरंस
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरंस] वक्षस्थल । सीना । छाती [को०] ।

अंतर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर] १. फर्क । भेद । विभिन्नता । अलगाव । फेर । उ०—(क) संत भगवंत अंतर निरंतर नहीं किमपि मति- मलिन कह दास तुलसी ।—तुलसी ग्रं०, भा० २, पृ० ४८८ । (ख) इसके और उसके स्वाद में कुछ अंतर नहीं है (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना=फर्क या भेद करना । उ०—मोहि चंद बरदाय सु अतर मति करयो ।—पृ० रा० ५८ । १२६ ।—देना ।— पड़ना ।—रखना=भेदभाव रखना । उ०—ब्रजवासी लोगन सों मैं तो अंतर कछू न राख्यो ।—सूर (शब्द०) ।—होना । २. बीच । मध्य । फासला । दूरी । अवकाश । उ०—‘यह विचारो कि मथुरा और वृंदावन का अंतर ही क्या है’।— प्रेमसागर (शब्द०)। ३. दो घटनाओ के बीच का समय। मध्य वर्ती काल। उ०—(क) इहिं अंतर मधुकर इक आयौ।— सूर०, १०। ३४९७। (ख) ‘इस अंतर में स्तन दूध से भर जाते हैं’।—वनिताविनोद (शब्द०)। ४. दो वस्तुओं के बीच में पड़ी हुई चीज। ओट। आड़। परदा। उ०—कठिन बचन सुनि स्त्रवन जानकी सकी न हिये सँभारि। तृन अंतर दै दृष्टि तरौंधी दई नयन जल ढारि।—सूर०, ९। ७९। क्रि० प्र०—करना=आड़ करना। उ०—अपने कुल को कलह क्यों देखहिँ रबि भगवंत। यहै जानि अंतर कियो मानो मही अनंत।—केशब (शब्द०)।—डालना।—देना=ओट करना। उ०—पट अतर दै भोग लगायौ आरति करी बनाइ।—सूर०, १०। २६१।— पड़ना। ५. छिद्र। छेद। रंध्र। दरार। ६. भीतर का भाग। उ०—‘दास’ अँगिराति जमुहाति तकि झुकि जाति, दीने पट, अंतर अनत आप झलकै।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १४३। ७. प्रवेश। पहुँच (को०)। ८. शेष। बाकी। गणित मे शेषफल (को०)। ९. विशेषता। उ०— अंतरौ एक कैमास सुनि मरन तुच्छ मारन बहुल।—पृ० रा०, १२। १६८। १०. निर्बलता (को०)। ११. दोष। त्रुटि (को०)। १२. अभाव (को०)। १३. प्रयोजन (को०)। १४. लिहाज (को०)। १५. छिपाव (को०)। १६. निश्चय (को०)। १७. प्रतिनिधि (को०)। १८. वस्त्र (को०)। १९. हृदय। अंतः करण। जी। मन। चित्त। उ०—जिहि जिहि भाइ करत जब सेवा अंतर की गति जानत।—सूर०, १। १३। (ख) अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुरलभ गति दीह्न सुजाना।—तुलसी (शब्द०)। २०. आत्मा (को०)। २१. परमात्मा (को०)। २२. स्थान (को०)। २३. आशय (को०)।

अंतर (२)
वि० १. अंतर्धान। गायब। लुप्त। उ०—कृपा करी हरि कुँवरि जिआई। अंतर आप भए सुरराई।—महाभारत (शब्द०)।क्रि० प्र०—करना—होना=अदृश्य होना। उ०—मोहीं ते परी री चूक अंतर भए हैं जातें तुमसों कहति बातैं मैं ही कियो द्वंदन।—सूर (शब्द०)। २. दूसरा। अन्य। और। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः यौगिक शब्दों में मिलता है; जैसे, ग्रंथातर, स्थांनांतर, कालांतर, देशांतर, पाठां- तर, मतांतर, यज्ञांतर इत्यादि। ३. समीप। आसन्न। निकट (को०)। ४. आत्मीय। प्यारा (को०)। ५. समान (स्वर या शब्द); (को०)। ६. भीतरी। भीतर का (को०)।

अंतर (३)
क्रि० वि० १. दूर। अलग। जुदा। पृथक्। विलग। उ०— कहाँ गए गिरिधर तजि मोकौं ह्याँ मैं कैसे आई। सूर श्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना=दूर करना। पृथक् करना। उ०—सूरदास प्रभु को हियरे ते अंतर करौ नही छिनही।—सूर (शब्द०)।—होना। २. भीतर। अंतर। उ०—(क) मोहन मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ। बसत सुचित अंतर तऊ प्रतिबिंबित जग होइ।—बिहारी (शब्द०)। (ख) चिंता ज्वाल शरीर बन दावा लगि लगि जाइ। प्रगट धुआँ नहिं देखिए उर अंतर धुधुआइ।—दीनदयाल (शब्द०)। (ग) बाहर गर लगाइ राखौंगी अंतर करौंगी समाधि।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना—भीतर करना। ढाँकना। छिपाना। उ०— फिरि चमक चोप लगाइ चंचल तनहिँ तब अंतर करै (शब्द०)।

अंतर (४) पु
संज्ञा पुं० दे० ‘अंतर’। उ०—जवादि केसरं सुरं। पलं सु सत्त अंतरं।—पृ० रा०, ६६। ६०।

अंतर (५) पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्न, प्रा० अंत, अप० अंत्रडी] आँत। अँतड़ी। उ०—(क) करंत हक्क हक्कयं। क्रमंत धक्क धक्कयं। चढंत देत दंतरं। अरू अझंत अंतरं।—पृ० रा०, ९। १७५। (ख) बृहंत सार बार पार ता रुरंत अंतरं। ग्रहंत दंत दंत एक कंठ कंठ मंतरं।—पृ० रा०, ५८। २४३।

अंतर अयण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+अयण] नीचे जाना। विलोपन [को०]।

अंतर अयन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+अयन] १. तीर्थों की एक परिक्रमा विशेष अंतर्गृही। २. एक देश का नाम। ३. काशी का मध्य भाग। उ०—अंतर अयन अयन भल, थन फल, बच्छ बेद विस्वासी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४६४।

अंतरकालीन
वि० [सं० अन्तर+कालीन] दो कालविभागों के बीच का। किन्हीं दो स्थितियों का मध्यवर्ती [को०]।

अंतरख पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरिक्ष, प्रा० अंतरिक्ख] अंतरिक्ष। शून्य। अंतर। आकाश। उ०—रूप न होता तब अकुलान रहिता सबद। गगन न होता तब अंतरख रहिता चंद।—गोरख०, पृ० १८९।

अंतरगत (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्गत] मन। हृदय। अंतःकरण। उ०—(क) ज्यौँ गूगैँ मीठे फल रस को अंतरगत ही भावै।—सूर०, १। २। (ख) जानराय जानत सबै अंतरगत की बात।—घनानंद, पृ० ५६।

अंतरगत (२)
वि० अंतर्गत। भीतर आया हुआ। उ०—जैसे जननि जठर अंतरगत सुत अपराध करै।—सूर०, १। ११७।

अंतरगति पु
संज्ञा स्त्री [सं० अन्तर्गति] चित्तवृत्ति। भावना। उ०— अंतरगति राँचै नही बाहर करै उजास। तै नर जमपुर जाहिँगे सत भाषै रैदास।—संत रै०, पृ० ९५।

अंतरग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरग्नि] पेट की अग्नि। पेट की गरमी जिससे खाई हुई वस्तु पचती है। जठराग्नि।

अंतरचक्र
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरचक्र] १. दिशाओ और विदिशाओं के बीच में अंतर को चार चार भागों में बाँटने से बने हुए ३२ भाग। २. दिशाओं के ऊपर कहे हुए भिन्न भिन्न विभागों में चिड़ियों की बोली सुनकर शुभाशुभ फल बताने की विद्या। जिस दिशा में पक्षी बैठकर बोले उसका विचार करके शकुन कहने की विद्या। ३. तंत्र के अनुसार शरीर के भीतर माने हुए मूलाधार आदि कमल के आकार के छह चक्र। षट्चक्र। ४. आत्मीय वर्ग। स्वजन वर्ग। भाई बंधुओं की मंडली।

अंतरछाल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+हिं० छाल] छाल के नीचे की कोमल छाल या झिल्ली। बोकले के भीतर का कोमल भाग।

अंतरजातीय
वि० दे० ‘अंतर्जातीय’।

अंतरजानी
वि० [सं० अन्तर्+ज्ञानी, प्रा० अंतर+जाणि] भीतर की बात जाननेवाला। अंतर्यामी। उ०—नैन स्त्रवन मुख नासिका तुम अंतरजानी हो।—केशव० अमी०, पृ० ७।

अंतरजामी (१) पु
वि० [सं० अतर्यामी] १. भीतर की बात जाननेवाला। उ०—तुम उदार उर अंतरज मी।—मानस ७। ८४। २. अंतःकरण स्थित प्रेरक। उ०—अंतरजामिहुँ ते बड़ बाहर- जामी हैं राम जो नाम लिए ते।—तुलसी ग्रं०, भा० २।

अंतरजामी (२) पु
संज्ञा पुं० दे० ‘अंतर्यामी’। उ०—दया करौगुरु पूरन स्वामी। मैं नहिँ जाना अंतरजामी।—कबीर सा०, पृ० १०१४।

अंतरजाल
संज्ञा पुं० [हिं०] कसरत करने की एक लकड़ी।

अंतरज्ञ
वि० [सं० अन्तरज्ञ] १. भीतर की बात जाननेवाला। अंतःकरण का आशय जाननेवाला। हृदय की बात जाननेवाला। अंतर्यामी। २. भेद या फर्क जाननेवाला।

अंतरण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरण] व्यवधान डालना। अंतरित करना। निगूहन [को०]।

अंतरतः
क्रि० वि० [सं० अन्तरतः] बीच में। मध्य में। बीचो बीच।

अंतरत
वि० [सं० अन्तरत] विनाश में आनंद से रहनेवाला। नाश में आनंद माननेवाला [को०]।

अंतरतम
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरतम] सबसे भीतर का भाग या हिस्सा। अंतस्तल। उ०—छिपी रहेगी अंतरतम में सबके तू निगूढ़ धन सी।—कामायनी, पृ० ६।

अंतरतर (१)
वि० [सं० अन्तरतर] अति समीपी। अत्यंत घनिष्ट [को०]।

अंतरतर (२)
संज्ञा पुं० १. अंतस्तल। उ०—अपनी अलख झलक आभा से मम अंतरतर भर दो।—अपलक। २. ईश्वर (को०)। पृ० १६।

अंतरदंद पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्द्वन्द्व] दे० अंतर्द्वंद। उ०—अंतरदंद चंद मनि सज्जिय।—पृ० रा०, ६७। १८५

अंतरद
वि० [सं० अन्तरद] हृदय को कष्ट पहुँचानेवाला [को०]।

अंतरदाह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्दाह] भीतरी जलन का दुःख। मानसिक ताप। उ०—अतरर्दाह जु मिटयौ त्यास कौ इव चित ह्वै भाग- वत किऐं।—सूर०, १। ८९।

अंतरदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरदिशा] दो दिशाओं के बीच की दिशा। कोण। विदिशा।

अंतरदीठि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्दृष्टि, प्रा० अंतरदिट्ठी] अंतर्दृष्टि। विवेक।

अंतरद्वार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्द्वार] छिपा हुआ या भीतरी दरवाजा। अंतःपुर का दरवाजा। उ०—अंतरद्वार आइ भए ठाढ़े सुनत तिया की बातैं।—सूर०, १०। २६९९।

अंतरदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्दृष्टि] ज्ञानचक्षु। हिए की आँख। उ०—यह अंतरदृष्टि से भली भाँति निगाह कर लेता है कि मैं अपने कर्मों का कर्ता नहीं।—कबीर सा०, पृ० ९६७।

अंतरदेशीय
वि० [सं० अन्तर+देशीय] १. दो या अधिक देशों से संबद्ध। २. राष्ट्र या देश के सभी राज्यों या प्रदेशों से संबंधित, जैसे—‘अंतरदेशीय पत्र’।

अंतरधन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्धन] छिपाकर बचाया हुआ धन। उ०—किछु अंतरधन हुतौ जु साथ। सो दीनौ माता के हाथ।— अर्ध०, पृ० ७।

अंतरधान पु
वि० दे० अंतर्द्धान’ उ०—पुनि पुनि अस कहि कृपा- निधाना। अंतरधान भए भगवाना।—मानस, १। १५२।

अंतरध्यान (१) पु
वि० [सं० अन्तर्ध्यान] आंतरिक मन या चिंतन। उ०—अंतरध्यान नाम निज केरा जिन भजिया तिन पाई।— कबीर श०, भा० १, पृ० ७८।

अंतरध्यान (२) पु
वि० [सं० अन्तर्द्धान’ का विकृत रूप] अंतर्हित। लुप्त। उ०—(क) षटमास निसानिसि नृत्य कियं। तबगोबिंद अंतरध्यान हुयं।—पृ० रा०, २। ३४५। (ख) भए अंतरध्यान बीते पाछिली निसि जाम।—सा० ल०, पृ० ११४।

अंतरपट
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपट] १. परदा। आड़। ओट। उ०— उघरेहूँ अतरपट राखत अगने गुनहि गहौ।—घनानंद, पृ० ५४७। २. विवाहमंडप में यम की आहुति के समय अग्नि और वर कन्या के बीच में एक परदा डाल देते हैं जिसमें वे दोनों उस आहुति को न देखें। इस परदे को अंतरपट कहते हैं। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—देना। मुहा०—अंतरपट साजना=छिपकर बैठना। सामने न होना। ओट में रहना। ३. परदा। छिपाव। दुराव। भेद। ४. धातु या औषध को फूँकने के पहले उसकी लुगदी या संपुट पर गीली मिट्टी के लेव के साथ कपड़ा लपेटने की क्रिया। कपड़मिट्टी। कपड़ौरी। कपरौठी। क्रि० प्र०—करना।—होना। ५. गोली मिट्टी का लेव देकर लपेटा हुआ कपड़ा।

अंतरपतित आय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरपतित आय] सौदा पटाने की दस्तूरी। दलाली।

अंतरपाट
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+पट] परदा। ओट। आड़। उ०—गुप्त रसोई मासु रँधायेसि। बहुबिधि अंतरपाट दिआयेसि।—कबीर सा०, पृ० ४३२।

अंतरपुरूष
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरपुरुष] १. आत्मा। २. परमात्मा। अंतर्यामी। परमेश्वर।

अंतरपूरुष
संज्ञा सं० [सं० अन्तरपूरुष] दे० ‘अंतरपुरुष’।

अंतरप्रकाश
संज्ञा पुं० [पुं० अन्तःप्रकाश] भीतरी प्रकाश। आत्मज्ञान। उ०—‘यह भी बिना अंतरप्रकाश के जाना नहीं जा सकता कि भोगनेवाला कौन है और मैं कौन हूँ ।—कबीर सा०, पृ० ९७१ ।

अंतरप्रतीहार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरप्रतीहार] राजप्रासाद के भीतर आने जानेवाले प्रतीहार । अभ्यंतर परिजन [हर्ष०] ।

अंतरप्रभव
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरप्रभव] जो दो भिन्न भिन्न वर्णो के माता पिता से उत्पन्न हो । वर्णसंकर ।

अंतरप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरप्रश्न] वह प्रश्न जो पूर्व वर्णित प्रसंग में निहित हो [को०] ।

अंतरप्रांतीय
वि० [सं० अन्तर+प्रान्तीय] दे० ‘अन्तरप्रादेशिक’।

अंतरप्रादशिक
वि० [सं० अन्तरप्रादेशिक] १. जिसका संबंध अपने प्रदेश या प्रांत से हो। अपने प्रांत में होनेवाला। जैसे, अंतरप्रादेशिक अपराध। २. देश या राष्ट्र के सभी प्रदेशों या राज्यों से संबंध रखनेवाला।

अंतरबरन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+वर्ण] बीच के अक्षर। उ०—या कबित्त अंतरबरन लै तुकंत द्वै छंडि।—भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १६।

अंतरबल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+बल] भीतरी शक्ति। आंतरिक बल। उ०—रथ विभंजि हति केतु पताका। गरजा अति अंतरबल थाका।—मानस, ६। ९१।

अंतरबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर+बाधा] मानसिक कष्ट। उ०— खेलौ जाई स्याम संग राधा। यह सुनि कुँवरि हरष मन किनौ मिटि गई अंतरबाधा।—सूर० १०। ७०५।

अंतरबानी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्वाणी] अंतर की वाणी। आत्मा की आवाज। उ०—सुनु हिरदे यह अंतरबानी।—रत्न०, पृ० ७।

अंतरवास पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तः+वास] अंतःपुर। रनिवास। उ०—दुरग चीतोड़ पहुँचो राइ। अंतरबासइ गम कियो।— बीसल० रा०, पृ० ११२।

अंतरवासी
वि० [सं० अंतर्+वासी] भीतर रहनेवाला। उ०—उर- गाना उर अंतरबासी। जाका नाम कहें अबिनासी।—रत्न०, पृ० १६५।

अंतरबेद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेद] दे० ‘अंतर्वेद’।

अंतरभाव पु
संज्ञा पुं० [सं० आन्तर्+भाव] भावांतर। भिन्न भाव। उ०—कुछ पुनि अंतरभाव तेँ कही नायिका जाहि।—भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १६।

अंतरभेद पु
संज्ञा पुं० [सं० अंतर्+भेद] आंतरिक तत्व या रहस्य। भीतरी भेद। उ०—ए रस अंतरभेद प्रीय जानै त्निय जौ रस।—पृ० रा०, ६२। १०३।

अंतरमंतर
संज्ञा पुं० [सं० यंत्र मंत्र] जादू टोना। झाड़ फूँक। जंतर मंतर।

अंतरमत
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर+मत] आंतरिक विचार। निगूढ़ या गुह्य मत। उ०—बचन पच्छिला मिट्टया अंतरमत खोला।—पु० रा०, पृ० २९।

अंतरमुख पु
वि० [सं० अन्तर्मुख] भीतर की ओर उन्मुख। आंतरिक ध्यानयुक्त। उ०—बरनै दीनदयाल मिलै नहिं बाहर टेरे। अंतरमुख ह्वै ढूंढ़ सुगंध सबै घट तेरे।—दीन० ग्रं०, प्रृ० २३०।

अंतरय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरय] दे० ‘अंतराय’ [को०]।

अंतरयण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरयण] अयनों [मार्गो] के सान्निध्य में सूर्य की स्थिति का काल। उ०—सूत्र ‘अयनञ्च’ में अंतरयण का उल्लेख है।—पाणिनी०, पृ० १७८।

अंतरयन
संज्ञा पुं० दे० ‘अंतरयण’। उ०—अयनांशों के बीच के देशों के लिये पाणिनि ने ‘अंतरयन’ शब्द का प्रयोग किया है।— पाणिनि०, पृ० ४१।

अंतररति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्+रति] संभोग के सात आसन, यथास्थिति, तिर्यक्; संमुख, विमुख, अध, ऊर्ध्व और उत्तान।

अंतरराष्ट्रीय
वि० दे० ‘सार्वराष्ट्रीय’। उ०—‘हिंदुस्तानी उस अंतरराष्ट्रीय सेना से मिलकर लड़ रहे हैं जिसने मैड्रिड की रक्षा खूबी के साथ की है ।’—‘आज’, १९३९।

अंतरवर्तिनि, अन्तरवर्तिनी
वि० [सं० अन्तर्वर्तिन्] मध्यस्थ। बीच की। उ०—तिय पिय की हितकारिनी अंतरवर्तिनि होई।— भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० ३३।

अंतवासक
संज्ञा पुं० [सं० अरन्तर्वासक] कपड़े के नीचे पहना जानेवाला कपड़ा। भीतरी वस्त्र। अँतरौटा। उ०—अंबपाली ने तीन डुबकियाँ लगाईं; महीन अंतरवासक उसके स्वर्णगात्र से चिपक गया।—वै० न०, पृ० ४।

अंतरविश्वविद्यालय
वि० [सं० अन्तर्+हिं० विश्वविद्यालय] (अं० इंटर युनिवर्सिटी) एकाधिक विश्वविद्यालयों से संबंध रखनेवाला। उ०—‘इस साल अंतरविश्वविद्यालय फुटबाल टूर्नामेट काशी में हुआ ।‘—‘आज’, १९५१।

अंतरशायी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्शायी] अंतरस्थ जीव। जीवात्मा।

अंतरसंचारी
संज्ञा पुं०[सं० अन्तर्संचारी] वे अस्थिर मनोविकार जो बीच बीच में आकर मनुष्य के हृदय के प्रधान और स्थिर (स्थायी) मनोविकारों में से किसी की सहायता वा पुष्टि करके रस की सिद्धि करते हैं। इसे केवल संचारी भी कहते हैं। [‘अंतर’ शब्द इस कारण भी लगाया गया कि किसी किसी ने अनुभाव के अंतर्गत सात्विक भाव को तनसंचारी लिखा है।] ये ३३ माने गए हैं। दै० ‘संचारी’।

अंतरसाखी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तःसाक्षी] अंतःसाक्ष्य। गुप्त गवाही। साक्षी। उ०—सीता प्रथम अनल महु राखी। प्रगट किन्हि चह अंतरसाखी।—मानस, ६। १०७।

अंतरस्थ
वि० [सं० अन्तःस्थ] भीतर का। भीतरी। अंदर का। भीतर रहनेवाला (जीवात्मा)।

अंतरस्थायी
वि० [सं० अन्तःस्थायी] दे० ‘अंतःस्थ’।

अंतरस्थित
वि० [सं० अन्तरस्थित] दे० ‘अंतरस्थ’।

अंतरबेध पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेध] गंगा और यमुना का मध्यवर्ती भूभाग। अन्तर्वेद। उ० अंतरबेध कूरंभ आइ। सब मेर जेर होइ लगे पाय।—पृ० रा०, १। २११।

अंतरहित पु
वि० [सं० अन्तर्हित] दे० ‘अंतर्हित’। उ०—अंतरहित सुर आसिष देहीं।—मानस, १। ३५१।

अंतरहीन
वि० सं० [अन्तर+हीन] जिसमें फासला न हो। व्यव- धान रहित। उ०—उस अंतरहीन सामीप्य में किसी न्यूनता और अवसाद की अनुभूति के लिये स्थान नहीं रह गया।—वो दुनिया, पृ० १३।

अंतरहेत पु
वि० दे० 'अंतर्हित'। उ०—तुम तहँ एता सिरजा आपकै अंतरहेत।—जायसी ग्रं०, पृ० ३५७।

अंतरांस
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरांस] स्कंध और वक्षस्थल के बीच का भाग [को०]।

अंतरा (१)
क्रि० वि० [सं० अन्तरा] १. मध्य। वीच। २. इसी बीच (को०)। ३. समीप। निकट। ४. अतिरिक्त। सिवा। ५. पृथक्। ६. बिना। ७. मार्ग में (को०)। ८. लगभग। प्रायः (को०)। ९. यदातदा। जब तब (को०)। १०. कुछ काल के लिये (को०)।

अंतरा‍ (२)
संज्ञा पुं० १. किसी गीत में स्थायी या टेक के बाद का दूसरा चरण। २. किसी गीत में स्थायी या टेक के अतिरिक्त बाकी और पद या चरण। †३. प्रातःकाल और संध्या के बीच का समय। दिन।

अंतरा पु (३)
[सं० अन्तर] मध्यवर्ती। बीच का। उ०—जब लगि हरत निमेष अंतरा युग समान पल जात।—सूर० (राधा०), १३४७।

अंतरा पु (४)
संज्ञा पु० [सं० अन्तर] फर्क। भेद। अंतर उ०—सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द मत लीजै।—कबीर बी०, पृ० ९२।

अंतराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराय, प्रा० अंतराइ] विघ्न। अंतराय। बाधा। उ०—'तब श्री चंद्राबली जी कह्यो, जो तैने श्री ठाकुर जी के मिलन में अंतराइ कियो।—दो सौ बावन०, भा० १, पु० १०९।

अंतराकाश
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराकाश] १. मध्य भाग या स्थान। २. हृदय में स्थित ब्रह्म [को०]।

अंतराकूत
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराकूत] गुप्त उद्देश्य। गुप्त आशय अभिप्राय [को०]।

अंतरागार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरागार] भीतरी गृह। घर का भीतरी हिस्सा [को०]।

अंतरात्मा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरात्मा] १. जीवात्मा। जीव। २. आत्मा। प्राण। उ०—'वह मेरी स्त्री जिसके अभावों का कोष कभी खाली नहीं,.....उससे मेरी अंतरात्मा काँप उठती है'।—स्कंद०, पृ० ३२। ३. अंतःकरण। मन।

अंतरादिक्
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरादिक्] दो दिशाओं के बीच की दिशा। विदिशा [को०]।

अंतरापण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरापण] नगर के मध्य भाग में स्थित बाजार। उ०—'श्रेणियों का माल अंतरापण में बिकता था'।—वै० न०, पृ० २।

अंतरापत्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरापत्या] गर्भिणी। गर्भवती। हामिला।

अंतराभवदेश
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराभवदेश] दे० 'अंतराभवदेह' [को०]।

अंतराभवदेह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराभवदेह] मृत्यु और पुनर्जन्म के मध्य स्थित आत्मा [को०]।

अंतराय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराय] १. विघ्न। बाधा। अड़चन। २. ओट। आड़ [को०]। ३. ज्ञान का बाधक। ४. योग कीसिद्धि के विघ्न जो नौ प्रकार के हैं, यथा—(क) व्याधि। (ख) स्त्यान=संकोच। (ग) संशय। (घ) प्रमाद। (च) आलस्य (छ) अविरति=विषयों में प्रवृत्ति। (ज) भ्रांतिदर्शन=उलटा ज्ञान, जैसे जड़ में चेतन और चेतन में जड़ बुद्घि। (झ) अलब्ध भूमिकत्व=समाधि की अप्राप्ति। (ट) अनवस्थितत्व= समाधि होने पर भी चित्त का स्थिर न होना। ५. जैन दर्शन में दर्शनावरणीय नामक मूल कर्म के नौ भेदों में से एक, जिसका उदय होने पर दानादि करने में अंतराय वा विध्न होते हैं। ये अंतराय कर्म पाँच प्रकार के माने गए हैं—दानांतराय, लाभांत- राय, भोगांतराग, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय।

अंतरायाम
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरायाम] एक रोग जिसमें वायुकोप से मनुष्य की आँखें ठुड्ढी और पसली स्तब्ध हो जाती है और मुँह से आप ही आप कफ गिरता हैं तथा दृष्टिभ्रम से तरह तरह के आकार दिखाई पड़ते हैं।

अंतराराम
वि० [सं० अंतराराम] हृदय में आनंद का अनुभव करनेवाला [को०]।

अंतराल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तराल] १. घिरा हुआ स्थान। आवृत स्थान। घेरा। मंडल। उ०—तुम कनक किरण के अंतराल में लुक छिपकर चलते हो क्यों।—चंद्र०, पृ० ६३। २. मध्य। बीच। उ०—वह देखो वन के अंतराल से निकले, मानो दो तारे क्षितिज पटी से निकले।—साकेत, पृ० २२१। ३. भीतर। ओट। उ०—'कुलपुत्रों को चुप देखकर किसी ने साल के अंतराल से सुकोमल कंठ से कहा'।—इंद्र०, पृ० १३२।

अंतरालक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तरालक] दे० 'अंतराल' [को०]।

अंतरालदिक्
संज्ञा [सं० अन्तरालदिक्] दो दिशाओं के बीच की दिशा। विदिशा। कोण। कोना।

अंतरालदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरालदिशा] दे० 'अंतरालदिक्'।

अंतरावेदी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरावेदी] खंभों पर बनी हुई ओसारी या मंदिर [को०]।

अंतरिंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरिन्द्रिय] आंतरिक इंद्रियाँ, मन बुद्धि आदि [को०]।

अंतरिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तरिका] दो घरों के मध्य की गली।

अंतरिक्ख पु
संज्ञा पु० [सं० अन्तरिक्ष, प्रा० अंतरिक्ख] दे० 'अंतरिक्ष'। उ०—भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृतमंडा। खंड खंडधरती बरम्हंडा।—जायसी ग्रं०, पृ० २।

अंतरिक्ष (१)
संज्ञा पु० [सं० अन्तरिक्ष] १. पृथिवी और सूर्यादि लोकों के बीच का स्थान। कोई दो ग्रहों वा तारों के वीच का शून्य स्थान। आकाश। अधर। रोदसी। शून्य। उ०—सौरभ से दिगंत पूरित था अंतरिक्ष आलोक अधीर।—कामायनी, पृ० ११। २. स्वर्ग लोक। ३. प्राचीन सिद्धांत के अनुसार तीन प्रकार के केतुओं में से एक जिसके घोड़े, हाथी, ध्वज, वृक्ष अदि के समान रूप हों। ४. एक ऋषि का नाम। ५. पृथिवी का आकर्षण शक्ति की परिधि से बाहर का आकाश में स्थान। यौ०—अंतरिक्षयान=हवाई जहाज। वायुयान। एयरोप्लेन (अं०)।

अंतरिक्ष (२)
वि० अंतर्धान। गुप्त। अप्रकट। उ०—(क) भखे ते अंतरिक्ष रिक्ष लक्ष लक्ष जात हीं।—केशव (शब्द०)। (ख) फ्लोडो आडों अंतरिक्ष अर्थात् लोप हो गया। (ग) अविलाइनो इतने समय में अंतरिक्ष था।—अयोध्यासिंह (शब्द०)।

अंतरिक्षक्षित
वि० [ सं० अन्तरिक्षक्षित ] अन्तरिक्षवासी। अंतरिक्ष में रहनेवाला [को०]।

अंतरिक्षग (१)
वि० [ सं० अन्तरिक्षग ] अंतरिक्ष या आकाश में गमन करनेवाला [को०]।

अंतरिक्षग (२)
संज्ञा पुं० पक्षी। विहग। खग [को०]।

अंतरिक्षचर (१)
वि० [ सं० अन्तरिक्षचर ] दे० 'अंतरिक्षग' [को०]।

अंतरिक्षचर (२)
संज्ञा पुं० पक्षी [को०]।

अंतरिक्षचारी (१)
वि० [ सं० अन्तरिक्षचारी ] दे० 'अंतरिक्षग' [को०]।

अंतरिक्षचारी (२)
संज्ञा पुं० पक्षी [को०]।

अंन्तरिक्षजल
संज्ञा पुं० [ पुं० अन्तरिक्षजल ] ओस। अवश्याय नीहार [को०]।

अंतरिक्षसत् (१)
वि० [ सं० अन्तरिक्षसात् ] अंतरिक्ष या शून्य आकाश में गमन करनेवाला। आकाशचारी।

अंतरिक्षसत् (२)
संज्ञा पुं० १.आत्मा। २. पक्षी।

अंतरिक्षायतन (१)
स्त्री० पुं० [ सं० अन्तरिक्षायतन ] अंतरिक्ष में निवास करनेवाला देवता [को०]।

अंतरिक्षायतन (२)
वि० आकाशवासी। क्षंतरिक्षवासी (को०)।

अंतरिख पु
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरिक्ष; प्रा० अंतरिक्ख ] १. दे० 'अंतरिक्ष'। २. (ला०) भूला। उ०— रसदायिनी सुंदरी रमताँ सेज अंतरिख भूमि सम।—बेलि०, दू० २९७।

अंतरिच्छ पु
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरिक्ष ; प्रा० अंतरिक्ख ] १. आकाश। उ०— जोजन बिस्तार सिला पवनसुत उपाटी। किंकर करि बान, लच्छ अंतरिच्छ काटी।—सूर०, ९।९८। २. अधर। ओठ। उ०— अंतरिच्छ श्री बंधु लेत हरि त्यौं ही आप आपनी घाती।—सा० लहरी; पृ० ५६। विशेष—अंतरिक्ष का पर्याय अधर = ओठ है और अधर का अंतरिक्ष है; अतः पर्यायसाम्य से अर्थपरिवतैन हुआ।

अंतरित (१)
[ वि० अन्तरित ] १. भीतर किया हुआ। भीतर रखा हुआ। भितराया हुआ। छिपाया हुआ। क्रि० प्र०—करना = भीतर होना। भीतर ले जाना। छिपाना। —होना = भीतर होना। अंदर जाना। छिपना। २. अंतर्धान। गुप्त। गायब। तिरोहित। क्रि० प्र०—करना। होना। ३. आच्छादित। ढका हुआ। क्रि० प्र०—करना।-होना। ४. बीच में आया हुआ (को०)। ५. अलग किया हुआ। पृथक्कृत (को०)। ६. तुच्छ समझा हुआ या तुच्छ समझा हुआ या तुच्छ किया हुआ (को०)। ७. नष्ट किया हुआ।

अंतरित (२)
संज्ञा पुं० १. शेष। बाकी। २. स्थापत्य कला का एक पारिभाषिक शब्द [को०]।

अंतरिम
वि० [ अं० इंटेरिम ] १. मध्यवर्ती। दो समय के बीच का। २. अस्थायी। यौ०—अंतरिम सरकार = मध्यवर्ती वा अस्थायी सरकार [ अं० इंटेरिम गवर्नमेंट ]।

अंतरीक पु
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरिक्ष, प्रा० अंतरिक्ख, अंतरिक्क ] आकाश। अंतरिक्ष। -डिं०।

अंतरिक्ष
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरीक्ष ] दे० 'अंतरिक्ष' [को०]।

अंतरिछ पु
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरिक्ष ] आकाश। गगन। उ०— पारस, मनि नृप नंखियौ, करि कंचन के ग्राम। अंतरिछ उड़िके गयौ, नरवाहन के धाम। —परमाल रा०, पृ० ३४।

अंतरीप
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरीप ] १. द्वीप। टापू। २. पृथिवी का वह नोकीला भाग जो समुद्र में दूर तक चला गया हो। रास।

अंतरीय
संज्ञा पुं० [ सं० अन्तरीय ] कमर में पहनने का वस्त्र। अधो- बस्त्र। धोती।

अंतरीय (२)
वि० भीतर का। अंदर का। भीतरी।

अंतरु पु †
संज्ञा पुं० दे० 'अंतर'। उ०— अत अंत रू के डंबर।—रघु० रू० पृ० २४१।

अंतरैक्य
सं० पुं० [ सं० अन्तर + ऐक्य ] हार्दिक एकता। आंतरिक एकत्व। उ०— लोकतंत्र की सुदृढ़ नीव रख अंतरैक्य पर।— रजतशि०, पृ० ११३।

अंतर
वि० [ सं० अन्तर ] भीतर। बीच में। विशेष—समस्त पदों में इस शब्द के अंतः; अंतर्, अंतश् और अंतस् रूप यथानियम हो जाते हैं।

अंतर्कथा (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० अन्तःकथा ] प्रसंग द्वारा या संदर्भ में संकेतित कथा।

अंतर्कथा (२)
संज्ञा स्त्री० [ सं० अन्तर् + कथा ] गुप्त कथा। भीतरी बात। उ०— 'साहित्यकार का जीवन, अंतर्कथा आदि के प्रश्न कभी न पूछना चाहिए, नहीं तो रसधारा भंग हो जाती है'। —भा० शिक्षा, पृ० १२६।

अंतर्गंगा
संज्ञा स्त्री० [ सं० अन्तर्गङ्गा ] गुपेत गंगा। छिपी हुई या लुप्त गंगा [को०]।

अंतर्गडु
वि० [ सं० अन्तर्गडु ] व्यर्थ। निष्प्रप्रयोजन। बेकार। निरर्थक। वृथा [को०]।

अंतर्गत (१)
वि० [ सं० अन्तर्गत ] १. भीतर आया हुआ। समाया हुआ। शामिल। अंतर्भूत। अंतर्गृहीत। संमिलित। उ०— (क) 'और यह भी ध्यान हुआ कि ऐसे बडे़-बडे़ वृक्ष इन्हीं छोटे बीजों के अंतर्गत हैं'।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १२५। (ख) 'इस समय इतना भूभाग मलाबर के अंतर्गत है'।—सरस्वती (शब्द०)। २. भीतरी। छिपा हुआ। गुप्त। उ०— 'यह फोडा कभी प्रत्यक्ष, पभी अंतर्गत रहता है'।—अमृतसागर (शब्द०)। ३. हृदय के भीतर का। अंतःकरणस्थित। उ०— 'उनके अंतर्गत भावों को कौन जान सकता है' (शब्द०)।

अंतर्गत (२)
संज्ञा पुं० मन। जी। हृदय। चित्त। उ०— (क) रुक्स रिसाइ पिता सों कह्यो। सुनि ताको अंतर्गत दह्यो।—सूर०, (शब्द०)। (ख) तुलसिदास जद्यपि निसि बासर छिन छिन प्रभु मूरतिहिं निहारति। मिटति न दुसह ताप तउ तन की यह बिचारी अंतर्गत हारति।—तुलसी (शब्द०)।

अंतर्गति
संज्ञा स्त्री० [ सं० अन्तर्गति ] मन का भाव। चित्तवृत्ति। भावना। चित्त की अभिलाषा। हार्दिक इच्छा। अंतर्गति।—तुलसी (शब्द०)। (ख) र्श्र पार्वती जी ने ऊषा की अंतगंति जानि उसे अति हित से निकट बुलाय प्यार कर समझाय के कहा'।—प्रेमसागर (शब्द०)।

अंतर्गर्भ
वि० [सं० अन्तर्गर्भ] गर्भयुक्त [को०]।

अंतर्गांधार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्गान्धार] संगीत में तीसरे स्वर के अंतर्गत एक विकृत स्वर जो प्रसारिणी नामक श्रुति से आरंभ होता है और जिसमें चार श्रतियाँ होता हैं।

अंतर्गृह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्गृह] भातर का घर। भीतर की कोठरी। घर का भीतरी खंड।

अंतर्गृहगता
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्गृह + गता] भक्तिमार्ग में ठाकुर जी को कामबुद्धि से भजनेवाली सेविका। उ०—और लीला के भाव में हू देखें तो प्रभ की ईच्छा होइ तब अतर्गृहगतान के साथ प्रभु रमन करत हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ४४६।

अंतर्गृही
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्गृह + ई (प्र०)] तीर्थस्थान के भीतर पड़नेवाले प्रधान स्थलों की यात्रा।

अंतर्गेह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्गेह] घर या मकान का भीतरी खंड [को०]।

अंतर्घट
संज्ञा पुं० [सं अन्तर्घट] शरीर के भीतर का भाग। अंत?करण। हृदय। मन।

अंतर्घन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्घन] सुख्य द्वार और घर के बीच का स्थान [को०]।

अंतघति
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्घात] दे० 'अन्तर्घन' [को०]।

अंतर्ज
वि० [सं० अन्तर्ज] अंतर या भीतर उत्पन्न (जैसे, शरीर में कीड़ा) [को०]।

अंतर्जगत्
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्जगत्] अंतस्तल। भीतरी जगत्। मन का संसार। उ०—अँधकार का आलोक से, असत् का सत् से, जड़ का चेतन से, और बाह्मा जगत् का अंतर्जगत् से संबंध कौन कराती है ? कविता ही न ?—स्कंद०, पृ० २१।

अंतर्जठर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्जठर] कोख। पेट [को०]।

अंतर्जलन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर् + हिं० जलन] भीतरी जलन। अंत- दहि। उ०—जानती अंतर्जलन क्या कर नहीं, दाह से आराघ्य भी सुंदर नहीं।—रेणु्का, पृ १००।

अंतर्जात
वि० [सं० अन्तर्जात] भीतर उत्पन्न। उ०—'क्ला उच्चता की अंतजति प्रवृत्ति की शोधिका है'।—पा० सा० सि०, पृ० ३७।

अंतर्जातीय
वि० [सं० अन्तर् + हिं० जातीय] भिन्न वर्णों अथवा जातियों संबंधी। दो या दो से अधिक जातियों के बीच का। उ०—'इन सब कथनों से सिद्ध होता है कि अंतर्जातीय ब्याह अवश्य होते थे'।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १५९।

अंतर्जानी पु
वि० दे० 'अंतरजानी। उ०—आए तुम समर्थ हो अंतर्जानी सत्य कहौ हम निश्चय मानीं।—कबीर सा०, पृ० २२३।

अंतर्जानु
वि०[सं० अन्तर्जानु] हाथों को घुटने के बीच किए हुए।

अंतर्जामी पु
वि० दे० 'अंतरजामी'।

अंतर्जीवन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्जीवन] आंतरिक जीवन। बौद्धिक या वैचारिक जीवन। उ०—अंतर्जीवन कर दिया तुमने ज्योतित।—स्वर्ण०, पृ० ९०।

अंतर्जीवी
सं० [सं० अन्तर्जीवी] आंतरिक जीवनवाल। जिसकी वृत्ति आंतरिक हो। विचारप्रधान। उ०—आज मुझे है महत्प्रेरणा मिली 'मनुज अंतर्जीवी है।—रजन शि०, पृ० ७०।

अंतज्ञनि
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्ज्ञान] १. अंत?करण की बात का जानना। दूसरे के दिल की बात जानना। परोक्षदर्शन। २. परिज्ञान। अत? करणा का अनुभव। अंतर्बोध।

अंतर्ज्योंति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तज्योंतिस्] अंतर्यामी। परमेश्वर

अंतज्योंति (२)
वि० जिसकी आत्मा प्रकाशित हो। [को०]।

अंतर्ज्वलन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्ज्वलन] भीतरी ताप। आभ्यंतर अग्नि [को०]।

अंतर्ज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्ज्वंला] १. भीतरी आग। भीतर की अग्नि। २. चिंता। संताप [को०]।

अंतर्दग्ध
वि० [सं० अन्तर्दग्ध] भीतर भीतर जला हुआ [को०]।

अंतर्दधन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्दधन] शराब चुआने का कार्य या स्थिति [को०]।

अंतर्दधान
वि० [सं० अन्तर्धान] गुप्त। छिपा हुआ [को०]।

अंतर्दर्शक
वि० [सं० उन्तर्दर्शक] दे० 'अंतर्दशी'। उ०— पहले प्रकार के मनुष्य को हम मननशील कहते हैं और दूसरे प्रकार के मनुष्य को अंतर्दर्शक कहते हैं।-पा० सा० सि, पृ० १८९।

अंतर्दशा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्दशा] १. फलित ज्योतिष के अनुसार मनुष्य के जीवन में जो ग्रहों के भोगकाल नियत हैं उन्हें दशा कहते हैं। मनुष्य की पूरी आयु १२० वर्ष की मानी गई है। इस १२० वर्ष के पूरे समय में प्रत्येक ग्रह के भोग के लिये वर्षो की अलग अलग संख्या नियत है जिसे महादशा कहते हैं, जैसे सूर्म की महादशा ६ वर्ष, चंद्रमा की १० वर्ष इत्यादि। अब इस प्रत्येक गह के नियत भीगकाल वा महादशा के अंतर्गत भी नवग्रहों के भोगकाल नियत हैं जिन्हें अंतर्दशा कहते हैं। जैसे सूर्य के ६ वर्ष में सूर्य का भोगकाल ३ महीने १८ दिन और चंद्नमा का ६ महीने इत्यादि। कोई कोई अष्टोत्तारी गणना के अनुसार अर्थात् १०८ वर्ष की आयु मानकर चलते हैं। २. मनः स्थिति। चित्त की वृत्ति। उ०—अनेक भाव तथा अंतर्दशाएँ उसके संचारी के रूप में आती हैं।—रस०, पृ० ६५।

अंतर्दशाह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्दशाह] मरने के पीछे दस दिन तक मृतक की आत्मा वायु रूप में रहती है और प्रेत कहलाती है। इन दस दिनो के भीतर हिंदू शास्त्र के अनुसार जो कर्मकांड किए जाते है उन्हें अंतर्दशाह कहते हैं।

अंतर्दर्शी
वि० [सं० अन्तर्दर्शो] १. अंतः करण की वृत्ति समझनेवाला। मन के भाव जाननेवाला। दिल की बात जाननेवाला। २. आत्मनिरीक्षक। तत्वकेता। ३. भीतर देखने या परखनेवाला [को०]।

अंतदहि
संज्ञा पुं० [सं० अन्तदहि] १. आंतरिक दु?ख। मानसिक वेदना। उ०—अंतदहि स्नेह का तब भी होता था उस मन में।—कामायनी, पृ० ११९। २. एक प्रकार का सन्निपात।— माधव, पृ० २०।

अंतर्दुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्दृष्टि] १. ज्ञानचक्षु। प्रज्ञा। हिए की आँख। उ०—बीना नवीन अभ्यास और अंतर्दृष्टि के साहि- त्यिक कृतियों का अनुशीलन करना, प्रति दिन कठिन होता जा रहा है।—जयं० प्र०, पृ० ८६। २. आत्मचिंतन। आत्मा का ध्यान।

अंतर्देशीय
वि० [सं० अन्तर्देशीय] १. देश के भीतर का। जैसे अंतदेंशीय पत्र। २. दो या दो से अधिक देशों के मध्य का। दो या अधिक देश संबंधी।

अंतद् र्धान (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तद्धनि] लोप। अदर्शन। छिपाव। तिरोधान।

अंतद् धनि (२)
वि० गुप्त। अलक्ष्य। गायब। अदृश्य। अंतहित। अप्रकट। लुप्त। छिपाहुआ। क्रि० प्र०—करना = छिपाना। दूर हटाना। = नजर से गायब करना। उ०—ताते महा भयानक भूप। अंतर्द्धान करो सुर भूप।—सूर (शब्द०)।—होना = छिपना। लोप होना। उ०—भई मुनि की खोज पै सो भए अंतर्द्धान।—बुद्ध० च०, पृ० १६।

अंतर्द्रं द्व
संज्ञा, पुं० [सं० अन्तर्द्वन्द्व] १. चरित्रविकास की दृष्टि से नाटक के प्रधान पात्र का आंतरिक संघर्ष। मन में उठनेवाले भावों अथवा विचारों का संघर्ष। उ०—मानवीय प्रेम के उद्— भव, उत्थान, विकास, अंतर्द्वद्व, ह्रास आदि की कहानी कहने का यत्न किया गया है।—हिं० आ० प्र०, पृ० २४५। २. घर या देश का आपसी झगड़ा [को०]।

अंतद्वरि
संज्ञा, पुं० [सं० अन्तर्द्रांर] घर के भीतर का गुप्त द्वार। घर में आने जाने के लिये प्रधान द्वार के अतिरिक्त एक और द्वार। पीछे का दरवाजा। खिड़की। चोर दरवाजा।

अंतर्धा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्ध] १. अपवारण। २. संगोपन। आच्छादन [को०]।

अंतधनि
वि० [सं० अन्तर्धान] गुप्त। अदृश्य। अंतहित। उ०—के हरिजू भए अंतर्धान। मोसौं कहि तू प्रगट बखान।—सूर०, १। २८६।

अंतर्धापन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्धापन] संगोपत। छीपने या तिरोहित करने का कार्य [को०]।

अंतर्धापित
[सं० अन्तर्धापित] संगोपित। छिपाया हुआ [को०]।

अंतर्धारा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्धारा] वह प्रवाह जो बाह्म लक्षणों से व्यक्त न हो। आंतरिक धारा। उ०—वन जीवन के विषम देश की निर्मल अंतर्धारा। जीवन का मृदु सर्म सींचतो रही अमृत रस द्वारा।—पर्वती०, पृ० २९।

अंतार्धि
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्धि] १. दो संघर्षशील राज्यों के बीच में पड़नेवाला राज्य। २. दे० 'अंतर्धा' [को०]।

अंतर्ध्यान
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्ध्यांन] आंतरिक एवं गंभीर समाधि [को०]।

अंतर्नगर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्नयन] राजा का प्रासाद या रईस का महल [को०]।

अंतर्नयन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्नयन] दे० 'अंतर्दृष्टि'। उ०—खोल अंतर्नयन करती नित्य शिव का ध्यान।—पार्वती०, पृ ८३।

अंतर्नाद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्नाद] अंतरात्मा की पुकार। हृदय की आवाज।

अंतर्निर्भरता
संज्ञा पुं० [सं० अंतर् + निर्भरता] पारस्परिक निर्भ- रता। एक दूसरे का भरोसा या सहारा। उ०—स्वाधीनता ध्येय नहीं, साधन मात्र है, ध्येय है अंतर्निर्भरता तथा एकता।—रजत शि० पृ, १२१।

अंतर्निनिष्ट
वि० [सं० अन्तर्निविष्ट] १. भीतर बैठा हुआ। अंदर रखा हुआ। २. अत? करण में स्थित। मन में जमा हुआ। हृदय में बैठा हुआ। क्रि० प्र०—करना = (१) भीतर बैठना। अंदर ले जाना। भीतर रखना। (२) मन में रखना। जी में बैठाना। हृदयगत करना। दिल में जमाना।—होना = (१) भीतर बैठना। भीतर जाना। भीतर पहुँचना। (२) मन में धँसना। चित्त में बैठना। दिल में जमना। हृदयंगत होना।

अंतर्निष्ठ
वि० [सं० अन्तर्निष्ट] आत्मीय या विषयीगत (सब्जेक्टिव)। उ०—प्रेमचंद के लिये सब कुछ अपना ही है, जैनेंद्र का जो कुछ है अपना है। एक बहिर्निष्ठ और दूसरा अंतार्निष्ठ।—प्रेम० गोर्को, पृ० २१७। २. आंतरिक चिंतन में लगा हुआ [को०]।

अंतर्निहित
वि० [सं० अन्तर्निहित] विलीन। समाविष्ट। उ०—उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई।—कामायनी, प० २३।

अंतर्बाष्प (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्बाष्प] दबाए गए अश्रु। रोका हुआ आँसू। निरुद्ध बाष्प [को०]।

अंतर्बाष्प (२)
वि० अश्रुमय [को०]।

अंतर्बोध
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्बोध] १. आत्मज्ञान। आत्मा की पहचान। २. आंतरिक अनुभव।

अंतर्भवन
संक्षा पुं० [सं० अन्तर्भवन] घर का भीतरी भाग। अंतर्गृह। अंतरभवन। उ०—छोड़ सभा विलास औ अंतर्भवन निज किस विजन में।—पार्वती०,पृ १५१।

अंतभवि
संजा पुं० [सं० अन्तर्भाव] [वि० अन्तर्भवित; अन्तर्भूत, संक्षा अन्तर्भावना] १. मध्य में प्राप्ति। भीतर समावेश। अंतर्गत होना। शामिल होना।—उ० अन्य अर्थालंकारों का उपमा, दीपक ओर रूपक में अंतभवि है। (अर्यात् अन्य अलंकार उपमा दीपक आदि के अंतर्गत है)—(शब्द०)। २. तिरोभाव। विलीनता। छिपाव। ३. नाश। अभाव। ४. आर्हत या जैन दर्शन में आठ कर्मों का क्षय दिससे मोक्ष होता है। क्रि० प्र.—करना।—होना।। ५. भीतर का भाव। आंतरिक अभिप्राय। आशय। मंशा।

अतर्भावना
संज्ञा स्त्री०[अन्तर्भावना] १. ध्यान। सोच विचार। चिंता। चितवन। २. गुणनफल के अंतर से संख्याओं को ठीक करना।

अंतर्भावित
वि० [सं० अन्तर्भावित] १. अंतर्भूत। अंतर्गत। शामिल। भीतर। २. भीतर किया हुआ। छिपाया हुआ। लुप्त।

अंतर्भुक्त
वि० [सं० अन्तर्मुक्त] शामिल। समाविष्ट। उ०—इन जातियों और इनकी समस्त आचार परंपरा को धीरे धीरे इन टीकाओं तथा श्रषियों के नाम पर लिखे गए नए नए स्मृति और पुराणग्रंथों में अंतर्भूत किया गया।—हि० सा० भू०, पृ० १३।

अंतर्भूत (१)
वि० [सं० अन्तर्भूत] अंतर्गत। शामिल। उ०—जिनके अंतर्भूत हैं मुद्राबंध समस्त।—सुंदर ग्रं० १, पृ० ३२।

अंतर्भूत (२)
संज्ञा पुं० जीवात्मा। प्राण। जीव।

अंतर्भुमि
संज्ञा स्त्री० [अन्तर्भूमि] पृथ्वी का भीतरी भाग। भूगर्भ।

अंतर्भेद
संज्ञा पुं० [अन्तर्भेद] भीतरी मनमुटाव [को०]।

अंतर्भेदिनी
वि० [सं० अन्तर्भेदिनी] हृदय का भेदन करनेवाली। भीतर तक पहुँचनेवाली। उ०—उसकी सर्वदर्शिनी अन्तर्भेदिनी आँखों से छिपी न रह सकी।—प० रानी, पृ० ८।

अंतर्भैम
वि० [सं० अन्तर्भैम] जमीन के अंदर का। भूगर्भ में स्थित [को०]।

अंतर्मन
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्मन] भीतरी मन। मन की भीतरी चेतना अवचेतन। उ०—(क) उस भरे पूरे वातावरण में रहने पर भी मेरा अंतर्मन वास्तव में भयंकर सूनेपन का अनुभव करता रहता था।—प० रानी, पृ० ३६। (ख) अंतर्मन के भूमिकंप से ध्वंस भ्रंश हो। शिखर सनातन विखर रहे हैं मर्त्य धूलि पर —युगपथ, पृ ११०।

अंतर्मना
वि० [सं० अन्तर्मनस्, अन्तर्मना?] १. व्याकुलचित्त। घबड़ या हुआ। विकल। २. उदास। रंजीदा। ३. अतर्मुखी।

अंतर्मल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्मल] १. भीतर का मल। पेट के भीतर का मैला। पेट के अंदर की अलाइश। २. चित्त- विकार। मन का दोष। हृदय की बुरी वासना।

अंतर्मुख (१)
वि० [सं० अन्तर्मुख] [स्त्री० अन्तर्मुखी] १. जिसका मुख भीतर की ओर हो। भीतर मुँहवाला। जिसका छिद्र भीतर की ओर हो। उ०—यह फोड़ा अति कठोर ओर अंतर्मुख होता है।—अमृतसागर (शब्द०)। २. जिसकी वृत्ति बहिर्मुख न हो। अपने ही विचारों और कल्पनाओं में तल्लीन रहनेवाला। उ०— 'वह अंतर्मुख और आत्मरत था'।—भस्मा० चि०, पृ० १०।

अंतर्मुख (२)
क्रि० वि०, भीतर की और प्रवृत्त। जो बाहर से हटकर भीतर ही लीन हो। क्रि० प्र०—करना = भीतर की ओर ले जाना या फेरना। भीतर नियुक्त करना। उ०—अकामी पुरुष इंद्रियों को हटाय अंतर्मुख कर उनके द्वारा अपनी महिमा का साक्ष त् अनुभव करता है— कठ० उप० (शब्द०)।

अंतर्मुद्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्मुद्र] भक्ति का एक प्रकार [को०]।

अंतर्मुद्र (२)
वि० भीतर से मुहरबंद [को०]।

अंतर्मृत
वि० [सं० अन्तर्मृत] गर्भ के भीतर मरा हुआ (शिशु) [को०]।

अंतर्य
वि० [सं० अन्तयं] भीतर का। बीच का [को०]।

अंतर्यज्ञ
संज्ञा पुं० दे० 'अंतर्याग' [को०]।

अंतर्यश्छद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्यश्छद] भीतर का आवरण [को०]।

अंतर्याग
संज्ञा पुं० [सं० अन्तयगि] मानस यज्ञ या मानसिक पूजा [को०]।

अंतर्यामी (१)
वि० [सं० अन्तर्यामिन्, अन्तर्यामी] [वि० स्त्री० अन्तर्यामिनि] १. भीतर की बात जाननेवाला। हृदय की बात का ज्ञान रखने वाला। उ०—(क) जो अंतर्यामी, वही इसे जानेगा।—साकेत, पृ० २३३। (ख) किसने तुमको अंतर्यामिनि बतलाया उसका आना ?—वीणा, पृ० ५८। २. अंत?करण में स्थित होकर प्रेरणा करनेवाला। चित्त पर दबाव य अधिकार रखनेवाला।३. भीतर तक पैठनेवाला। भीतर पहुँच रखनेवाला। उ०— वाण के सांश्कृत्कि अध्ययन का अंतर्यामी सूत्र कुछ गहराई तक उनके शास्त्र में पेठने पर हमारे हाथ आया—हर्ष० पृ० २।

अंतर्यामी (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर। परमात्मा। चैतन्य। पर्मश्वर। पुरुष।

अंतर्योग
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्योंग] ध्यान। अखंड़ घ्यान [को०]।

अंतष्राट्रीय
वि० दे० 'अंतरा्ष्ट्रीय', 'अंतःरराष्ट्रीय'। उ०—उनके काम करने के घटे ओर काम करने के नियम, भारत की आर्थिक व्यवस्था पर ध्यान रखते हुए, अतर्राष्ट्रीय ढंग पर हों।—भा० वि०, पृ० ३९। विशष—यह शब्द संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध नहीं है।

अंतर्लंव
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्लम्ब] वह त्रिकोण क्षेत्र जिसके भीतर लंब गिरा हो।

अंतर्लापिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्लापिका] वह पहेली जिसका उत्तर उसी पहेल के अक्षरों में हो। उ०—(क) कौन जाति सीता सती, दई कौन वहँ तात। कौन ग्रंथ बरण्यो हरी, रामायण अवदात।—केशव (शब्द०)। इस दोहे में पहले पूछा हैं कि सीता कौन जाति थी ? उत्तर—रामा = स्त्री। फिर पूछा कि उनके पिता ने उन्हें किसको दिया? उतर रामाय = राम कों। फिर पूछा किस ग्रंथ में हरण लिखा गया है। उत्तर हुआ 'रामायण'। (ख) चार म्हीने बहुत चलै औ आठ महीने थोरी। अमीर खुसरो यों वहै तू बूभ पहेली मोरी।—(शब्द०)। इसमें 'मोरी' शब्द ही उत्तर है।

अंतर्लीन
वि० [सं० अन्तर्लीन] १. मग्न। भीतर छिपा हुआ। डूबा हुआ। गर्क। विलीन। २. तन्मय। ध्यान मे मग्न (को०)।

अंतर्वश
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वंश] अंतः पुर [को०]।

अंतर्वशिक
वि० [अन्तवंशिक] अंतःपुर या अंतर्वश का निरीक्षक [को०]।

अंतर्वण
वि० सं० [अन्तर्वण] वन के भीतर बसा हुआ [को०]।

अंतर्वती
वि० [सं० अन्तर्वती] १. गर्भवती। अंतर्वत्नी। गर्भिणी। हामिला। २. भीतरी। भीतर की। अंदर रहनेवाली। अंतरस्थित।

अंतर्वत्नी
वि० स्त्री० [सं० अन्तर्वत्नी] गर्भवती। गर्भिणी। हामिला। उ०—निज प्रिय पति के दिव्य तेज से अंतर्वत्नी रानी।— पार्वती, पृ० ५१।

अतर्वमि
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वमि] अजीर्ण [को०]।

अंतर्वर्ग
पु० [सं० अन्तर्वर्ग] किसी वर्ग या समूह के भीतर का वर्ग [को०]।

अंतर्वर्ती
वि० [सं० अन्तर्वर्तों] [वि० स्त्री० अंतवर्तिनी] भीतरी। भीतर का। अंदर रहनेवाला [को०]।

अंतर्वस्तु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्वस्तु] किसी पुस्तक, पात्न, पेटी आदि के भीतर की वस्तु [को०]।

अंतर्वस्तु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वस्त्न] ऊपरी वस्त्र के अंदर पहनने का कपड़ा [को०]।

अंतर्वणी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वाणी] शास्त्रज्ञ। पंडित। शास्त्रवेता शास्त्रों का जाननेवाला। विद्वान्।

अंतर्वायु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्वायु] हृदयस्थ वस्तु। प्रांणवायु। उ०—अंतर्वायु निरोध पूर्णत? कर रत अविरत तप, में।—पार्वतो०, पृ० १२१।

अंतर्वाष्प (१)
संज्ञा पुं० [अंतर्वाष्प] दे० 'अंतरवाप्प'।

अंतर्वाष्प (२)
वि० आसु से भरा। अश्रुपूरित [को०]।

अतर्वास
संज्ञा पुं० [सं० अन्तवसि] दे० 'अंतर्बस्त्र' [को०]।

अंतर्वासक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वासक] भीतर पहना जानेवाला वस्त्र। अँतरौटा। उ०—(क) फिर चाहे आप त्रिपिटक से ही प्रमाण क्यों न दें कि बिना अंतर्वासक, चीवर इत्यादि के भारत का कोई भी क्षिक्षु नहीं रहता था, पर वे कब माननेवाले।— आँधी, पृ० ८। (ख) तरुणी का घुटने तक लटकनेवाला अंतर्वासक हवा में फड़फड़ा रहा था।—व० न०, पृ० १३९।

अंतर्विकार
स्त्री० पुं० [सं० अन्तर् + विकार] शरीर का धम। मन का शरीर संबंधी अनुभव, जैसे भूख, प्यास, पीड़ा इत्यादि।

अंतर्विद्रोह
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर् + विद्रोह] विद्रोह। गुहयुद्ध। उ०— तात ! विपत्तियों के बादल घिर रहे है, अंतर्विद्राह की ज्वाला प्रज्वलित है; इस समय मैं केवल एक सैनिक बन सकूंगा, सभ्राट् नहीं।—स्कंद० पृ०, ७९।

अंतर्विरोध
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर् + विरोध] आंतरिक विरोध। भीतरी झगड़ा। उ०—आर्य साम्र्राज्य के अंतर्विरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली भाँति जान गए हैं।—स्कंद०, पृ० ७०।

अंतर्वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर् + वृत्ति] मनोवृ्त्ति। आंतरिक प्रवृत्ति। उ०—जो कविता रमणी के रूपमाधुर्य से हमें तुप्त करती है वही उसकी अंतर्वृत्ति की सुंदरता का आभास देकर हमें मुग्ध करती है। —रस०, पृ० ३१।

अंतर्वेग
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर् + वेग] मवोवेग। मनोविकार। [अं० इमोशन] उ०—परंतु मनोविज्ञान में कलामीमांसा संबंधी अंतर्वेग जैसे मानसिक तत्व का कोई स्थान नहीं है।—पा० सा० सि०, पृ० २००। २. भीतरी ज्वर (वैद्यक)।

अंतर्वेगी ज्वर
संज्ञा पुं० [सं० अन्तवेंगी ज्वर] एक प्रकार का ज्वर जिसमें भीतर दाह, प्यास, चक्कर, सिर में दर्द और पेट में शूल होता है। इसमें रोगी को पसीना नहीं आता और न दस्त होता है। इसे कष्टज्वर भी कहते हैं।

अंतर्वेद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्बेदि] [वि० अंतर्वेदी] १. देश जिसके अंतर्गत यज्ञों की वेंदियाँ हों। २. गंगा और यमुना के बीच का देश। गंगा यमुना के बीच का बीच का दोआब। ब्रह्मावर्त देश। उ०—तुम आज से अंतर्वेद के विषयपति नियत किए गए।— स्कंदं०, पृ० ८१। ३. दो नदियों के बीच का देश या भूखंड। दोआब।

अंतर्वेंदना
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्वेदना] आंतारिक व्यथा। भीतरो दुःख या पीड़ा। उ०—क्या यह सारी अंतर्वेदना ईसी विलासप्रेम के कारण है।—काया०, पृ० ५२०।

अंतर्वेदि
वि०[सं० अन्तर्वेदि] दे० 'अंतर्वेदी' [को०]।

अंतर्वेदी (१
वि० [सं० अन्तर्वेदीय] अंतर्वेद का निवासी। गंगा यमुना के बीच के देश में रहनेवाला। गंगा यमुना के दोआब में बसनेवाला।

अंतर्वेदी (२)
संज्ञा स्त्री० गंगा यमुना के बीच की भूमि या देश। ब्रह्मावर्त देश।

अंतर्वेध
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेध] शरीर की गाँट या जोड़ में होनेवाला दर्द [को०]।

अंतर्वेशिक
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्बेशिक] अंतःपुर का रक्षक। जनान- खाने की रखवाली करनेवाला। ख्वाजासरा।

अंतर्वेश्म
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्वेश्म] भीतरी घर। गुह का भीतरी हिस्सा [को०]।

अंतर्वेश्मिक
संज्ञा पुं० [अन्तर्वेश्मिक] अंतःपुर का निरीक्षक। अंतवैशिक [को०]।

अंतर्व्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तर्व्याधि?] भीतर की व्याधि। आंतारिक रोग [को०]।

अंतर्व्रण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्व्रण] शरीर के भीतर होनेवाला फोड़ा [को०]।

अंतर्हस्त
कि० वि० [सं० अन्तर्हस्त] हाथों में। हाथ की पहुँच के भीतर [को०]।

अंतर्हस्तीन
वि० [सं० अन्तर्हस्तीन] जो हाथों की पहुँच के भीतर हो या जो हस्तगत हो [को०]।

अंतर्हास
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्हस्तीन] भीतरी हँसी। भीतर ही भीतर हँसना। मन ही मन को हँसी। अप्रकट हास। गूढ़ हास।

अंतर्हित
वि० [सं० अन्तर्हित] तिरोहित। अतर्द्धान। गुप्त। गायब। छिपा हुआ। अदृश्य। अलक्ष्य। लुप्त। क्रि० प्र०—करना।—होना = अंतर्द्धान होना। उ०—यहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतर्हित प्रभु भयऊ।—तुलसी (शब्द०)।—रहना = गायब या गुप्त रहना। छिपा हुआ रहना। उ०—'कुछ प्रवृत्तियाँ अंतर्हित रहती है'।—रास०, पृ० १७५।

अंतर्हृदय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तर्हृदय] हृदय का भीतरी हिस्सा [को०]।

अंतलघु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तलघु] १. छंद का वह चरण जिसके अंत में लघुवर्ण या मात्रा हो। २. वह शब्द जिसका अंतिमवर्ण लघु हो।

अंतलीन
वि० [सं० अन्तलीन] छिपा हुआ [को०]।

अंतलोप
वि० [सं० अन्तलोप] (शब्द) जिसका अंतिम अक्षर लुप्त हो (व्या०) [को०]।

अंतवंत
वि० [सं० अन्तवत्, अन्तवन्तः] नष्ट या समाप्त होनेवाला। मरणधर्मा। विनाशी। उ०—अंतवंत तम की माया यह संतत क्यों ठहरे।—अपलक, पृ० १०४।

अंतवर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तवर्ण] ? वर्ण का अंतिम अक्षर। पंचम वर्ण, जैसे, ङ,ञ,ण, न, म० आदि [को०]। २. शूद्र।

अंतवर्ण (२)
वि० अंतिम वर्ण का। चतुर्थ वर्ण का।

अंतवह्नि
संज्ञा पुं० [सं० अन्तवह्वि] प्रलय की अग्नि [को०]।

अंतवासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तेवासी] दे० 'अंतेवासी' [को०]।

अंतवासी (२)
वि० १. सीमांत पर रहनेवाला। २. समीप रहनेवाला [को०]।

अंतविदारण
संज्ञा पुं० [सं० अन्तविदारण] सुर्य और चंद्रग्रहण के जो दस प्रकार के मोक्षमाने गए हैं उनमें से एक। विशेष—इसमें चंद्रमा के विष के चारों ओर निर्मलता और मध्य में गरही श्यामता होती है। इससे मध्य देश की हानि और शरद् ऋथु (कुआर) की खेती का विनाश वराहमिहिर ने माना है।

अंतवेला
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तवेला] अंतकाल। अंत समय [को०]।

अंतव्यापप्ति
संज्ञा स्त्री० [अन्तव्याप्ति] किसी शब्द के अंतिम अकार का परिवर्तन, जैसे—'मिह' का 'मेघ' [को०]।

अंतशय्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तशय्या] १. भूमिशय्या। २. मृत्यु- शय्या। मरनसेज। मरनखाट। ३. श्मशान। मसान। मरघट ४. मरण। मृत्यु। ५. चिंता [को०]।

अंतश्
'अंतर' वि० [सं०] शब्द का कुछ स्थिनियों में परिवर्तित रूप।

अंतश्चेतन
१) संज्ञा पुं० [सं० अन्नस् + खेतन] मन का वह भाग (मुख्यतः दबी हुई इच्छ ओं आदि से युक्त) जो बाह्या अनु भुति में न आ सके। उ०—जब से चेतन मनोविज्ञान से आगे बढ़कर उपचेतन और अंतश्चेतन मनोविज्ञान की शोधें हुई है, तब से साहित्यिकों के लिये नई कृतियाँ प्रस्तुत करने का बहुत बड़ा क्षेत खुल गया है।—न० सा० न०, प्र०, पृ० १८।

अंतश्चेतन (२)
वि० आत्म चेतना या दिव्य प्रेरणा से युक्त। उ०—ऊर्ध्व मुक्त, अंतश्चेतचन बन जाता जन मत।—रजत, शि०, पृ० ७०।

अंतश्चेतना
संज्ञा स्त्री० [सं० अत्तस् + चेतना] अंतश्चेतन की अनुभूति। आत्मचेतना। दिव्य प्रेरणा। उ०—रजत शिखर मनुष्य की अंतश्चेतना का शु्भ्र प्रतीक है।—रजत शि०, (भू०) पृ० ३।

अंतश्छद
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस् + छद] १. भीतरी तल। २. भीतरी आच्छदन। ३. मिहराब के नीचे का तल।

अंतश्च्छिद्र
संज्ञा पुं० [सं० अन्तशिच्छद्र] भीतरी छेद या अंदरूनी सूराख [को०]।

अंतश्च्छिद्न
वी० [सं० अन्तश्च्छित्र] भीतर कटा हुआ [को०]।

अंतस् (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्] अंतःकरण। मन। हृदय। चित्ता मानस उ०—(क) तुही मानवं देव दानं सिधानं। तुही कोटि ब्रह्मादि अंतस् समानं।—पृ० रा०, २। २०५। (ख) काया की न छाया यह केवल तुम्हारी द्रुम ! अंतस् के मर्म का प्रकाश यह छाया है।—रस०, पृ० १६।

अंतस् (२)
वि० 'अतर्' शब्दक। समासगत रूप, जैसे, अंतस्कल, अंतस्तप्त आदि में।

अंतसंश्लेष
संज्ञा पुं० [सं० अन्तसंश्लेष] संधि। जोड़ [को०]।

अंतसत्क्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तसत्क्रिया] अंतिम सत्कार अंतिम संस्कार [को०]।

अंतसद्
संज्ञा पुं० [सं० अन्तसद्] शिष्य। चेला।

अंतसमय
संज्ञा पुं० [सं० अन्तसमय] मृत्युकाल। मरणकाल।

अंतस्तप्त
वि० [सं० अन्तस्तप्त] १. भीतर भीतर तपा हुआ। २. खिन्न। संतप्त [को०]।

अंतस्तल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस् + तल] १. मन हृदय। चित्त। उ०—उठती अंतस्तल से सदैव दुर्ललित लालसा जो कि कांत।—कामायनी, पृ० १४०। २. मन का भीतरी तल या भीतरी तह। उ०—पर जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं सकता।— इतिहास, पृ० २५१।

अंतस्ताप
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्ताप] मानसिक व्यथा। आधि। चित्त का संताप। आंतरिक दुःख। भीतरी केद। उ०—असुरों के धोता पद सागर निज मर्यादा छोड़। अंतस्ताप दग्ध बड़वा सा करता करुणिम क्रोड़।—पार्वती, पृ० १०१।

अंतस्तुषार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्तुषार] ओस की बूँद से युक्त [को०]।

अंतस्तोय
वि० [सं० अन्तस्तोंय] जल से भरा हुआ (बादल) [को०]।

अंतस्त्य
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्त्य] आँत। अँतड़ी [को०]।

अंतस्थ (१)
वि० [सं० अन्तस्थ] १. भीतर स्थित। भीतरी। २. बीच में स्थित। मध्य का मध्यवर्ती। बीचवाला। ३. 'य',र, ल, व' ये चारों वर्ण अंतस्थ कहलाते है क्योंकि इनका स्थान स्पर्श और ऊष्म वर्णों के बीच में है।

अंतस्थ (२)
संज्ञा पुं० स्पर्श और ऊष्म वर्ण के बीच रहनेवाले 'य, र, ल', व' वर्ण।

अंतस्थल
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्थल] अंतःकरण। उ०—आज उन्होंने विवेक के प्रकाश में अपने अंतस्थल को देखा।—काया०, पृ० १६९।

अंतस्था
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्था] दे० 'अतस्थ (२)'।

अंतास्थित
वि० [सं० अन्तस् + स्थित] १. भीतर स्थित। भीतरी। २. हृदयस्थित। हृदय का। चित्त के भीतर का। अंतःकरण का।

अंतस्नान
संज्ञा पुं० [अं० अन्तस्नान] अवभृथ स्नान। वह स्नान जो यज्ञ समाप्त होने पर किया जाता है।

अंतस्यंज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तस् + संज्ञा] मन या बुद्धि की वह क्रिया जो अभी तक प्रत्यक्ष अनुभव में स्पष्ट न हुई हो। उ०— उदय से स्त तक भावमंडल का कुछ भाग तो आश्रय की चेतना के प्रकाश (कांशस) में रहता है और कुछ अंतस्संज्ञा के क्षेत्र (सब कांशस रीजन=अवचेतन) में छिपा रहता है।—रस०, पृ० ६५।

अंतस्सत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तस् + सत्ता] आंतरिक सत्ता। अंतःकरण। चेतना। उ०—हमारी अंतस्सत्ता की यही तदाकार परिणति सौंदर्य की अनुभूति है।—रस०, पृ० २९।

अंतस्सलिल
वि० [सं० अन्तस्सलिल] [स्त्री० अन्तःसलिला] जिसके जल का प्रवाह बाहर न दिखाई पड़े, भीतर हो। उ०—अंतस्सलिला सरस्वती (शब्द०)।

अंतस्सलिला
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तस्सलिला] १. सरस्वती नदी। २. फल्गू नदी।

अंतस्साधना
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तस् + साधना] आंतरिक साधना। गुप्त साधना। उ०—हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपंथी कर चुके थे, यह हम कह चुके है।—इतिहास, पृ० ६४।

अंतस्सार
संज्ञा पुं० [सं० अन्तस्सार] १. आंतरिक सार। तत्व। २. ठोसपन। ३. मन, बुद्धि और अहंकार का योग। ४. अंतरात्मा [को०]।

अंतहकर्ण पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतःकरण'। उ०—सुँदर हरि के भजन तै निर्मल अंतहकर्ण।—सुंदर ग्रं०, पृ० ६७९।

अंतहपुर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतःपुर'। उ०—(क) पूछत पूछत ग्यो अंतहपुरि। हुआँ सुदरसण तणों हरि।—बेलि, दू० ५२। (ख) उठिव नृपति दीवान तै, अंतहपुर में जाय।—प० रासो, पृ० ९८।

अंतहार पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्त + हार] आँतों की माला। आँत का हार। उ०—करि अंगराग चरबी बसा अंतहार आभार दिय।— सुजान च०,० पृ० २३।

अंताराष्ट्रिय
वि० [सं० अन्तर् + राष्ट्रिय] दो या दो से अधिक राष्ट्रो से संबंध रखनेवाला।

अंताराष्ट्रिय
वि० [सं० अन्ताराष्ट्रीय] दो या दो से अधिक राष्टों से संबंध रखनेवाला।

अंताल
संज्ञा पुं० [सं० अन्ताल] आँत। अँतड़ी।—परि कूक सु कूकं, डक्किन ढुंक, गिद्ध गहुकं अंतालं।—पृ० रा०, २।२६०।

अंतावरि
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंतावरी'।

अंतावरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्र + अवली] अँतड़ियाँ। आँतों का समूह।—अंतावरी गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं।—मानस, ३।१४।

अंतावशायी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तावशायी] १. ग्राम की सीमा के बाहर बसनेवाला। २. प्राचीन काल मे अस्पृश्य कहै जानेवाले वर्ण जैसे,—चांडाल।

अंतावसायी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तावसायी] १. नाई। हज्जाम। २. हिंसक। चांडाल।

अंतित पु
वि० [सं० अत्यन्त] दे० 'अत्यन्त'। उ०—पुच्छन सु बाल बुल्यो बलिय। करि सु चिंत अंतित चित। पृ० रा०, १।२७५।

अंति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्ति] बड़ी बहन। [को०]।

अंति (२) पु
वि० [सं० अन्तिक, प्रा० अंतिअ] १. समीप। निकट। उ०— खड़े अंति चहुवान के बैन बोले।—पृ० रा०, पृ० ८५। २. अत में। उ०—जु कछु तंत को मंत अति कहि कहि समझायो।—पृ० रा०, ६७।४५५।

अंति (३) पु
दे० 'अत्यंत'। उ०—सहस सात हय षेत रहि परे पंच से दंति, लुथ्थि कोस पंचह प्रचर परे सु पाइल अति।—पृ० रा०, १९।२४४।

अंतिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्तिक] १. पड़ोस। २.निकटता। सामीप्य [को०]।

अंतिक (२)
वि० १. पास। २. निकट। समीप [को०]।

अंतिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तिकता] सामीप्य। निकटता [को०]।

अंतिकस्थ
वि० [सं० अन्तिकस्थ] निकटस्थ। पास या समीप पहुँचा हुआ [को०]।

अंतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तिका] १. अंति। बड़ी बहन। २. चूल्हा। भट्ठी। ३. एक पौधा। शातला [को०]।

अंतिकाल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतकाल'। उ०—गुर परसादै भिष्या षाइबा, अंतिकालि न होइगी भारी।—गोरख०, पृ० ३७।

अंतिकाश्रय
संज्ञा पुं० [आन्तिकाश्रय] समीपस्थ का सहारा या अवलं- बन [को०]।

अंतिज पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंत्यज'। उ०—वहि जो अहं देह अभिमानी। चारि वर्ण अंतिज लौं प्रानी।—सुंदर ग्रं०, भ०१, पृ० ३७४।

अंतिम
वि० [सं० अन्तिम] १. जो अंत में हो। अंत का। आखिरी। सबसे पिछला। सबके पीछे का। २. चरम। सबसे बढ़ के। हद दरजे का।

अंतिम यात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्तिम यात्रा] महायात्रा। महाप्रस्थान। आखिरी सफर। अंतकाल। मृत्यु। मरण। मौत। मृत्यु के पीछे उस स्थान तक जीवात्मा की यात्रा जहाँ अपने कर्मानुसार उसे रहकर कर्मों का फल बोगना पड़ता है।

अंतिमांक
स्त्री० पुं० [सं० अन्तिमाङ्ग] नौ की संख्या [को०]।

अंतिमेत्थम्
[अं 'अल्टिमेटम्' का हिंदीकरण] आखिरी चेतावनी।

अंती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्र] आँत। उ०—ढरै सूर अंती गजं सोमदंती कहै भूमि छत्ती सु भारथ्थ बत्ती।—पृ० रा०, ६६, १०४७।

अंते पु
क्रि० वि० [सं०य अन्ते] दे० 'अनत'। उ०—अधर महल पर बैठक पायों, अंते जाय बलाय।—गुलाल०, पृ० ३८।

अंतेउर पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्तःपुर, प्रा, अंतेउर; अंतेवर] घर के भीतर का भाग जिसमें स्त्रियाँ रहती है। अंतःपुर। जमान- खाना। रनिवास। उ०—भीजइ फेरइ फेरियउ राय। सगलउ अतेउर लीयउ रे बुलाइ।—बीसल० रा०, पृ० ७५।

अंतेवर पु
संज्ञा पुं० दे० 'अतेउर'। उ०—दूजई फेरी जब फेरइ राय, सहु अंतेवर लियो बोलाई।—बी० रा०, पृ० २३।

अंतेवासि पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंत्वासी'। उ०—गोपालचारज भजौ पुनि उन अंतेवासि।—घनानंद, पृ० ६०८।

अंतेवासी
संज्ञा पुं० [सं० अन्तेवासी] १. गुरु के समीप रहनेवाला। शिष्य। चेला। २. ग्राम के बाहर रहनेवाला। चांडाल। अंत्यज। उ०—आचार्य और अंतेवासी अर्थात् पढ़ाने और पढ़नेवाले दोनों ही उस आदर्श से प्रेरित होते हैं।—पाणिनि०, पृ० २९८।

अंत्य (१)
क्रि० [सं० अन्य] अंत का। अंतिम। आखिरी सबसे पिछला। यौ०—अंत्यजन्मा, अंत्यजाति, अंत्यजातीय अंतिम वर्ण का।

अंत्य (२)
संज्ञा पुं० वह जिसकी गणना अंत में हो, जैसे,—१ लग्नों में मीन। २. नक्षत्रों में रेवती। ३. वर्णों में शूद्र और ४. अक्षरों में 'ह'। ५. एक संख्या। पद्य की संख्या। दस सागर की संख्या (१०००, ०००, ०००, ०००, ०००) दस करोड़ करोड़। ६. यम [को०]।

अंत्यक
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यक] अंतिम वर्ण का मनुष्य। अंत्यज [को०]।

अंत्यकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यकर्मन्] अंत्येष्टि क्रिया।

अंत्यक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्यक्रिया] अंत्यकर्म। अंत्योष्टि [को०]।

अंत्यगमन
संज्ञा पुं० [सं० अन्यगमन] सवर्ण जाति की स्त्री का अस- वर्ण जातिवाले पुरुष के साथ सहवास [को०]।

अंत्यज
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यज] [वि० स्त्री० अंत्यजा] वह व्यक्ति जो अंतिम वर्ण में उत्पन्न हुआ हो। वह शुद्र जो प्राचीन युग में छुने के योग्य नहीं माना जाता था या जिसका छुआ हुआ जल द्विज उन दिनों ग्रहण नहीं करते थे, जैसे—धोबी, चमार, तट बसड डोम मेद भिल्ल इत्यादि। यौ०—अंत्यजगमन = सवर्ण जाति की स्त्री का असवर्ण जातिवाले पुरुष के साथ यौन संबंध।

अंत्यजन्मा
वि० [सं० अन्त्यजन्मा] अंत्य जाति का। निम्न जातीय [को०]।

अंत्यजा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्यजा] शूद्रा। अंतिम वर्ण में उत्पन्न स्त्री [को०]। यो०—अंत्यजागमन = सवर्ण जाति के पुरुष के असवर्ण जाति की स्त्री के साथ यौन संबंध।

अंत्यजाति
वि० [सं० अन्त्यजाति] अंतिम जाति का। निम्न जाति का [को०]।

अंत्यजातीय
वि० [सं० अन्त्यजातीय] दे० 'अंत्यजाति' [को०]।

अंत्यधन
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यधन] गणना की अंतिम राशि [को०]।

अंत्यपद
स्त्री पुं० [सं० अन्त्यपद] अतिम या सबसे बड़ा वर्गमूल। अंत्यमूल (गणित) [को०]।

अंत्यभ
संज्ञा पुं० [सं० अत्यभ] १. अंतिम नक्षत्न अर्थात् रेवती। २. मीन राशि।

अंत्यमद
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यमद] मदात्यय रोग एक भेद। विशेष—इसमे रोगी बड़ों का तिरस्कार है, न खाने योग्य चीजों को खाता है और उसके मन में जो गुप्त बातें होती हैं उन्हें प्रकट करने लगता है। मदान्यय तीन प्रकार का होता है। पूर्वम्द, मध्यमद और अंत्यमद।—भा० नि०, पृ० ११५।

अंत्यमूल
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यमूल] दे० 'अंत्यपद'।

अंत्ययुग
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्ययुग] गणनाक्रम से युगों अंत में आनेवाला युग। कलियुग।

अंत्ययोनि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्ययोनि] अंतिम या निम्न योनि [को०]।

अंत्ययोनि (२)
वि० निम्न योनि का [को०]।

अंत्यलोप
संज्ञा वि० [सं० अन्त्यलोप] किसी शब्द के अंतिम वर्ण या अक्षर का लोप (भा० वि०)।

अंत्यवण
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यवर्ण] १. अंतिम वर्ण। शूद्र। २. अंत का वर्ण हो। ३. पद के अंत में आनेवाला कोई भी वर्ण या अक्षर।

अंत्यविपुला
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्यविपुला] आर्या छंद का एक भेद। विशेष—इसके दूसरे दल के प्रथण तीन गणों तक चरण पूर्ण नहीं होता और दोनों दलों में दूसरा और चौथा गण जगण होता है। इसे अंत्यविपुला महाचपला, अंत्यविपुला जघनचपला या अंत्याविपुला मुखचपला भी कहतै हैं।

अंत्यविराम
संज्ञा पुं० [सं० अन्यविराम] अंत का या अंतिम विराम। उ०—गिरजाकुमार माथुर अंत्याविराम रहित पंत्तियों के मुक्त छंद को काव्य के लिये बहुत उपयुक्त मानते है।—हिं० का० आँ० प्र०, पृ० २६१।

अंत्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्या] चांडाली। चांडाल की स्त्री। चांडालिनी।

अंत्याक्षर
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्याक्षर] १. किसी शब्द या पद के अंत का अक्षर। २. वर्णमाला का अंतिम वर्ण 'ह'।

अंत्याक्षरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्य + हिं० अक्षरी] किसी कहे हुए श्लोक या पद्य के अंतिम अक्षर से आरंभ होनेवाला दूसरा श्लोक या पद्य पढ़ना। किसी श्लोक या पद्य के अंतिम पद के अंत्य अक्षर से दूसरे श्लोक या पद्य का आरंभ। विशेष—विद्यार्थियों में इसकी चाल है। एक विद्यार्थी जब एक श्लोक या पद्य पढ़ चुकता है तब दूसरा उस श्लोक के अंतिम अक्षर से आरंभ होनेवाला दूसरा श्लोक या पद्य पढ़ता है। फिर पहला उस दूसरे विद्यार्थी के कहे हुए पद्य का अंतिम अक्षर लेता है और उससे आरंभ होनेवाला एक तीसरा पद्य पढ़ता है। यह क्रम बहुत देर तक चलता है। अंत में जो विद्यार्थी श्लोक या पद्य न पाकर चुप हो जाता है उसकी हार मानी जाती है।

अंत्यानुप्रास
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यानुप्रास] पद्य के एक चरण के अंतिम अक्षर पूर्ववर्ती स्वर का किसी अन्य चरण के अंतिम अक्षर और पूर्ववर्ती स्वर से मेल। पद्य के चरणों के अंतिम अक्षरों का मेल। तुक। तुकबंदी। तुकांत। उ०—श्रुतिकटु मानकर, कुछ वर्णों का त्याग, वृत्तविधान, लय, अंत्यानुप्रास आदि नाद-सौंदर्य-साधन के लिये ही है।—रस०, पृ० ४६। विशेष—जैसे, सिय सोभा किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिन बनी।—तुलसी (शब्द०)। इस चौपाई के दोनों चरणों का अंतिम अक्षर 'नी' है। हिंदी कविता में ५ प्रकार के अंत्यानुप्रास मिलते हैं।(१)सर्वात्य, चिसके चारों चरणों के अंतिम वर्ण एक हों। उ०—न ललचहु। सब तजहु। हरि भजहु। यम करहु। (शब्द०)। (२) समांत्य विषमांत्य, जिसके सम से सम और विषम से विषम के अंत्याक्षर मिलते हों। उ०—जिहिं सुमिरत सिधि होइ, गणनायक, करिवर बदन। करहु अनुग्रह सोई, बुद्धिराशि शुभ गुणसदन।—तुलसी (शब्द०)। (३) समांत्य जिसके सम चरणों के अंत्याक्षर मिलते हों विषम के नहीं। उ०— सब तो। शरण। गिरिजा। रमणा (शब्द०)। (४) विषमात्य, जिसके विषम चरणों के अत्याक्षर एक हों, सम के नहीं। उ०— लोभिहि प्रिय जिमि दाम, कामिहि नारि पियारि जिमि। तुलसी के मन राम, ऐसे ह्वै कब लागिहौ।—तुलसी (शब्द०)। (५) समविषमांत्य, जिसके प्रथम पद का अंत्याक्षर द्वितीय पद के अंत्याक्षर के समान हो। उ०—जगो गुपाला। सुभोर काला। कहै यसोदा। लहै प्रमोदा (शब्द०)।

अंत्यावसायी
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्यावसायिन्] [स्त्री० अंत्यावसायिनी] १. हिंदुओं की प्राचीन जातिव्यवस्था के अनुसार अत्यंत नीच जाति का व्यक्ति। चांडाल। मनु के अनुसार निषाद स्त्री और चांडालपुरुष से उत्पन्न व्यक्ति। २. अंगिरा के अनुसार चांडाल, शवपच, क्षत्ता, सूत, वैदेहक, मागध औऱ अयोगव ये सात जातियाँ।

अंत्याश्रम
संज्ञा पुं० [सं० अन्नयाश्रम] अंतिम आश्रम। ब्रह्नाचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—इन चारों आश्रमों में अंतिम। संन्यासाश्रम [को०]।

अंत्याश्रमी(१)
वि० [सं० अन्त्याश्रमिन्] अंतिम आश्रय में स्थित। संन्यास आश्रमवाला [को०]।

अंत्याश्रमी (२)
संज्ञा पुं० अंतिम आश्रम का व्यक्ति। संन्यासी [को०]।

अंत्याहुति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्याहुति] यज्ञ या चिता की अंतिम आहुति [को०]। यौ०—अंत्याहुति क्रिया = अंत्येष्टि कर्म।

अंत्योषअटि
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्योष्टि] मृतक का शवदाह से सपिंडन तक कर्म। क्रिया कर्म। अंत्यक्रिया। उ०—अंतिम समय में यमुना और गंटी रुपी सौभाग्य देवयाँ विजय की अंत्योष्टि का प्रबंध करती है।—कंकाल, पृ० १०५। यौ०—अंत्योष्टि क्रिया = मृतक का शवदाह आदि कर्म। अंत्येष्टि। उ०—महादेवी की अंत्येष्टि क्रिया राजसंमान से होनी चाहिए।—स्कंद०, पृ० ११५।

अंत्रंधमि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रन्धमि] अजीर्ण। अपच। पेट का फुलना। वायु के कारण पेट का फुलना [को०]।

अंत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्र] आँत। अंतड़ी। रोधा।

अंत्र (२) पु
संज्ञा पुं कहीं कहीं 'अंतर' का अपभ्रंश। जैसे 'अंत्रध्यान' में 'अंत्र'।

अंत्रकुज
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्रकुज] दे० 'अंत्रकुजन' [को०]।

अंत्रकुजन
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्रकुजन] आँतों का शब्द। अँतड़ियों की गुड़गुड़ाहट अंतड़ियों की कुड़कुड़ाहट।

अंत्रध्यान पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंतधनि'। उ०—इम कहिय ईस हुअ अंत्रध्यान, जग्गयौ राज भौ बर बिहान।—पृ० रा०, ६६।१६६६।

अंत्रपाचक
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्रपाचक] एक औषधोपयोगी क्षुप जिसके छाल, सार और निर्यास का प्रयोग होता है [को०]।

अंत्रवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रवल्लिका] महिषबल्ली [को०]।

अंत्रवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रवल्ली] सोमवल्ली लता [को०]।

अंत्रविकुजन
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्रविकुजन] दे० 'अंत्रकुजन' [को०]।

अंत्रवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रवृद्धि] आँत उतरने का रोग। आँत का उतरकर अंडकोश में चले जाना।

अंत्रस्त्रज
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रस्त्रज्] आँतों की माला, जो नरसिंह ने धारण की थी [को०]।

अंत्रांडवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्राण्डवृद्धि] एक रोग जिसमें आँत उतरकर अंडकोश में चली आती है और फोता फुल जाता है।

अंत्राद
संज्ञा पुं० [सं० अन्त्राद] आँत का कीड़ा। अंतड़ियों में रहकर उसे खानेवाला कृमि [को०]।

अंत्रालजी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्रालजी] पीब से भरी एक प्रकार की ऊँची गोल फुंसी जो वैद्यक के अनुसार कफ और वात के प्रकोप से होती है।

अंत्रि
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्र] अँतड़ी। आँत।

अंत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्त्री] एक वनौषषि का नाम। उदरशुल या पेट की बाई में दी जानेवाली औषधि का पौधा।

अंत्री (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अंत्री'।

अंथवना पु
क्रि० अ० दे० 'अथवना'। उ०—जौ पच्छिम दिसि उयं पुष्ब अंथवै दिनंकर।—पृ० रा० ६१।१००९।

अंदरसा पु
संज्ञा पुं० दे० 'अँदरसा'। उ०—लौंग कपुर खाँड़घृत धारे। अंदरसे खटमिठे सिघारे।—सुर० परि० १, पृ० ५०।

अंदरी
वि० [फा० अन्दर+ हिं० ई] भीतरी अंदरुनी।

अंदजरुनी
वि० [फा० अंदरुनी] भीतरी। भीतर का। आभ्यंतरिक।

अंदलीब
संज्ञा स्त्री० [अ०] बुलबुल। उ०—पुछे है फुलो फल की खबर अब तो अंदलीब। टुटे झड़े खिजाँ हुए फुले फले गए।— क० कौ०; भा०४, पृ० १०८।

अंदाज
संज्ञा पुं० [फा० अंदाज] १. अटकल। अनुमान। उ०—गुप्त जी एक युग पगले का मध्यवर्गीय संतोष हमें सिखाते हैं, उन्है आज की आग का अंदाज नही है।—जय० प्र०, पृ० ८ ।२. कान। नापजोख। कुत। तखमीना। ३. ढब। ढंग। तौर। तर्ज। उ०—इस्से यह बात नहीं निकल्ती कि बिलकुल मेहनत न करो सब काम अंदाज सिर करने चाहिए।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १८५। क्रि० प्र०—करना।—लगाना।—होना। मुहा०—अंदाज उड़ाना = दुसरे की चाल ढाल पकड़ना। पुरी पुरी नकल करना। ४. मटक। भाव नाज। चेष्टा। ठसक। उ०—अंदाज अपना देखते हैं आइने में वोह। और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो।—शेर०, भा०१, पृ० ६०९।

अंदाजन
क्रि० वि० [फा० अंदाज + अ० अन् (प्रत्य०)] १. अंदाज से। अटकल से। नखमीपन। २. लगभग। करीब।

अंदाजपट्टी
संज्ञा पुं० [फा० अंदाज + हिं० पट्टी (भुभाग)] खेत में लगी हुई फसल के मुल्य कुतना। कनकुत।

अंदाजपीटी
संज्ञा स्त्री० [फा० अंदाज + हिं० पिटना (हैरान होना)] वह स्त्री जो अपने बनाव सिंगार में लगी रहै। अपनी सुंदरता और चालढाल पर इतरानेवाली स्त्री।

अंदाजा
संज्ञा पुं० [फा० अंदाजह्] १. अटकल। अनुमान। २. कुत। नापजोख। परिमाण। तखमीना। उ०—उपनिषद में तो ब्रह्मानंद के सुख के परिमाण का अंदाजा कराने के लिये उसे सहवास सुख से सौगुना कहा था।—इतिहास, पृ० ११।

अंदिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्दिका] १. बड़ी बहन। अंतिका। २. अँगीठी। बोरसी [को०]।

अंदु
संज्ञा पुं० [सं० अन्दु] १. पैर में पहनने का स्त्रियों का एक गहना। पाजेब। पैरी। पैजना। २. साँकड़ा। हाथी को बाँधने की साँकल। अलान। उ०—छुटे अंदु हस्से मदंजा जरानं।—पृ० रा०, १२।३२१। ३. बाँधने की रस्सी या जंजीर।

अंदुक
संज्ञा पुं० [सं० अन्दुक] दे० 'अंदु'।

अंदु
संज्ञा पुं० [सं० अन्दु] बेड़ी। निगड़। उ०—(क०) बिरदावलि बिरदाई पाय अंदु कर ढीले। मानस बुझधन काज बोलि मधु बचन रसीले।—पृ० रा०, ६६।१६२८। (ख) क्रीड़ा समंदु गज्ज अंदु ग्राह फंदु रच्चए।—राम० धर्म०, पृ० २६।

अंदुक
संज्ञा पुं० [सं० अन्दुक] दे० 'अंदु' [को०]।

अंदेश (१)
संज्ञा पुं० [फा० अंदेशह्] सोच। चिंता। फिक्र। उ०—सिय अंदेश जानि प्रभु सुरज लियो करज की ओर। टुटत धनु नृप लुके जहाँ तहँ ज्यों तारागन भोर।—(शब्द०)।

अंदेश (२)
प्रत्य० [फा० अंदेश] सोचनेवाला। अभिलाषी। देखनेवाला। द्रष्टा। जैसे, बद अंदेश। खैर अंदेश। दुर अंदेश आदि [को०]।

अंदेशा
संज्ञा पुं० [फा० अंदेशह्] १. सोच। चिंता। फिक्र। उ०— मोमिन ये असर सियाह मस्ती का न हो। अंदेशा कभी बलंद व पस्ती का न हो।—कविता कौ०, भाग४, पृ० ४८७। २. संशय। अनुमान। संदेह। शक। ३. खटका। आशंका। भय। डर। ४. हर्ज। हानि। ५. दुबिधा। असमंजस। आगा- पीछा। पसोपेश।

अंदेस पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंदेशा'। उ०—(क) कितक रुप गुन आगरो सुनन मोहि अंदेश—पृ० रा०, १४।७। (ख) सो अंदेश होत मन माने कब धौं मिलिबौ आना रे।—जग० बानी, भा०२, पृ० ३।

अंदेसड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं० अंदेशा>अंदेस + ड़ा (प्रत्य०)] दे० 'अंदेशा'। उ०—अंदेसड़ा न भाजिसी संदेसौ कहियाँ। कै हरि आयाँ भाजिसी कै हिर ही पासि गयाँ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८।

अंदेह पु
संज्ञा पुं० दे० 'अदेस'। उ०—पुअ प्रगट्ट न कीजिये। मो तिय इय अंदेह।—पृ० रा०, १।१५३।

अंदोअन पु
संज्ञा पुं० [सं० आन्दोलन] हलचल। अंदोर। उ०— सुनि अंदोअन राव दिठ। रिझ्झाए स्रब साइ।—पृ० रा०, ६१।१२१६।

अंदोर
संज्ञा पुं० [सं० अन्दोल = हलचल] हलचल। शओर। हल्ला। कोलोहल। हुल्लड़। हल्लागुल्ला। उ०—भहरात झहरात दवानल आयो। घेरि ओर करि सार अदोर बन धरनि आकास चहुँ पास छायो।—सुर०, १०।५९६। क्रि० प्र०—करना = शोर मचाना। उ०—चीन्हों रे नर प्रानी याको निस दिन करत अंदोर।—कबीर श०, पृ० ११९।— मचना या होना = कोलाहल होना। उ०—बहु लौलीन होई संख धुन करत है, घंट घनघोर अंदोर होवौ।—कबीर० रे० पृ० २५।

अंदोरा पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंदोर'।

अंदोल
वि० [सं० अन्दोलन] कंपित। हिलती डुलाना। उ०—सुभं उच्च अदाल बीचं बिराजं। मनो स्त्रुग्ग आरोह सोपान साजं।—पु० रा० ९।८३।

अंदोलना पु
क्रि० स० [सं० अन्दोलन] हिलाना। डुलाना। उ०—मुष पाय पानि अंदोलि वारि। अच्चयौ अप्प आतम अधारि।—पृ० रा०, ६१।१६१७।

अंदोंलित
वि० [सं० आन्दोलित] आंदोलित। हिली डुली। उ०— जल अंदोलित सो भई उदै होत बर भान।— पृ० रा०, २।९०।

अंदोह
संज्ञा पुं० [फा०] १. शेक। दुःख। रंज। खेद। उ०— सिंध बिनास्यो बनिक सुत कन्या किय अंदोह।—पृ० रा०, १।३४८। २. तरदुदुद। खटका। असमंजस। सदेह।

अंद्रससत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० इन्द्रशत्र] वज्र। [डिं०]।

अद्रि पु
संज्ञा पुं० [सं० अद्रि] अद्रि। पर्वत। उ०—अंबर बरषै धरती निपजै, अंद्रि बरषंदाई।—रामानंद०, पृ० १३।

अंध (१)
वि० [सं० अंन्ध] १. नेत्रहीन। बिना आँख का। अंधा। जिसकी आँखों में ज्योति न हो। जिसमें देखने की शक्ति न हो। उ०—गुर सिष अंध बधिर कइ लेखा। एक न सुनै एक नहिं देखा।—मानस, ७।९९। २. अज्ञानी। अजानकार। अनजान। मुर्ख। बुद्धिहीन। अविवेकी। उ०—तत्र आक्षिप्त तव विषम माया, नाथ ! अंध मै मंद व्यालादगामी।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४८१। ३. असावधान। अचेत। गाफिल। ४. उन्मत्त। मतवाला। मस्त। उ०—ठौर ठौर झौंरत झाँपत भौर भौर मधु अंध।—बिहारी र०, ४९६। ५. प्रखर। तीव्र (को०)। विशेष—समस्त पदों में ही प्रायः प्रयुक्त जैसे कामांध, मोहांध क्रौधांध, जन्मांध, दिवोध, रात्र्यंध, मदांध आदि। यौ०—अंधकुप। अँधखोपड़ी।

अंध (२)
संज्ञा पुं० १. वह व्यक्ति जिसे आँखे न हों। नेत्रहीन प्राणी। अँधा। २. जल। पानी। ३. उल्लु। ४. चमगादड़। ५. अंधकार। अंधेरा। ६. कवियों के बाँधे हुए पथ के विरुद्ध चलने का काव्य संबंधी दोष। ७. ज्योतिष के अनुसारह एक योग (को०)। ८. परिव्राजकों का एक भेद (को०)।

अंधक
संज्ञा पुं० [सं० अन्धक] १. नेत्रहीन मनुष्य। दृष्टिरहित व्यक्ति। अंधा। २. कश्यप ओर दिति का पुत्र एक दैत्य। विशेष—इसके सहस्त्रर सिरे थे। मद के मारे अंधों की नाई चलने के कारण यह अंधक कहलाता था। स्वर्ग से पारिजात लाते समय यह शिव द्धारा मारा गया। इसी से शिव को अंधकारि वा अंधकारिपु कहते हैं। ३. क्रोष्टी नामक यादव के पौत्र और युधाजित के पुत्र। विशेष—अंधक नाम की यादवों की इन्हीं से चली। इनके भाई वृष्णि जिनसे वृष्णिवंशी यादव हुए जिनमें कृष्ण थे। ४. वृहस्पति के बड़े भाई उतथ्य ऋषि के पुत्र महातपा नामक ऋषि। इनकी माता का नाम ममता था।

अंधकघाती
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकघाती] अंधक नामक असुर को मारनेवाले शिव [को०]।

अंधकारिपु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकारिपु] १. अंधक नामक दैत्य के शत्रु शिव। २. अंधकार का नाश करनेवाले सुर्य। २. चंद्रमा। ४. अग्नि। प्रकाश। रोशनी।

अंधकशत्रु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकशत्रु] शिव [को०]।

अंधकार
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार] १. अँधेरा। विशेष—महा अंधकार को अंधममस, सर्वव्यापी वा चारों ओर के अंधकार को संतमस और थओड़े अंधकार को अवतमस कहते हैं। २. अज्ञान। मोह। ३. उदासी। कांतिहीनता। जैसे—उसके चेहरे पर अंधकार छाया है (शब्द०)।

अधकारमय
वि० [सं० अन्धकारमय] अंधकार से युक्त [को०]।

अंधकारसंचय
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकारसञ्चय] घना अंधकार। महा अंधकार [को०]।

अंधकारि
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकारि] शिव। शंकर [को०]।

अंधकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धकारी] भैरव राग की पाँच स्त्रियों में से एक। एक रागिनी। दे० 'रागिनी'।

अंधकाल पु
संज्ञा पुं० दे० 'अंधकाला'।

अंधकाला पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार] अंधकार। अँधेरा। उ०—ऐसे बादर सजल, करत अति महाबल, चलत घहरात करि अधकाला।—सुर, १० ८५५।

अंधकासुहृद्
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकासुह्यद्] अंधकारि शिव [को०]।

अंधकुप
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकुप] १. वह कुआँ जिसका जल सुखा गया हो और मुँह घासपात से ढका हो। अंधा कुआँ। सुखा कुआँ। अँधेरा कुआँ। उ०—यह कूप कूप भव अंधकूप, वह रंक हुआ जो यहाँ भुप निश्चय रे।—तुलसी, पृ० २८.।२. अँधेरा। अंधकार। उ०—जैसे अँधौ अंधकुप में गनत न खाल पनार। तैसोहि सुर बहुत उपदेसै सुनि सुनि गे कै बार।—सुर०, १।८४.। .३. धनांधकार। निबिड़ तम। अंधागुप्प। उ०— अंधकुप भा आवै, उड़त आव तस छार। ताल तलावा पोखर, धुरि भरी जेवनार।—जायसी ग्रं०, पृ० २२७.। ४. एक नरक का नाम।

अंधकुपता
संज्ञा स्त्री० [सं० अंन्धकुपता] अँधेरापन। मुर्खता। अज्ञान। उ०—उन्हें जगत् की अनेकरुपता और हृदयकी अनेक भावात्मकता के सहारे अंधकुपता से बाहर निकलने की फिक्र करनी चाहिए।—चिंतामणि, भा०२, पृ० ५१।

अंधकोठरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्ध + हिं० कोठरी] अँधेरा और तंग कमरा (बोल०)।

अंधखोपड़ी
वि० [सं० अन्ध + हिं० खोपड़ी] जिसके मस्तीष्क में बुद्धि न हो। मुर्ख। गाउदी। भोंदु। अज्ञानी। नासमझ।

अंधड़
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध + हिं० ड़ (प्रत्य०)] गर्द लिए हुए कड़े झोंके की वायु। वेगयुक्त पवन। आँधी। तुफान। उ०—अंधड़ था बढ़ रहा प्रजादल सा झुँझलाता।—कामायनी, पृ० २००।

अंधतम
संज्ञा पुं० [सं० अन्धतमस्] घना अँधेरा। अँधेरागुप्प। उ०— जग के निद्रित स्वप्न सजनि सब इसी अंधतम में बहते।— पल्लव, पृ—० ५७।

अंधतमस
संज्ञा पुं० [सं० अन्धतमस्] दे० 'अंधतम'। उ०—अंधतमस है किंतु प्रकृति का आकर्षण है खींच रहा।—कामायनी, पृ० २२७।

अंधता
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धता] अधापन, दृष्टिहीनता। उ०—चल न सकै चाल लागे दुख दैन बाल बैन, लटेपटे भए नैन अंधता छई।—दीन० ग्रं०, पृ० १३८।

अंधतामस्
संज्ञा पुं० [सं० अन्धतामस्] दे० 'अंधतमस' [को०]।

अंधतामिस्त्र
संज्ञा पुं० [सं० अन्धतामिस्त्र] १. घोर अंधकारयुक्त नरक। बड़ा अंधेरा नरक। २१ बड़े नरकों में से दुसरा या १८ वाँ। २. जीने की इच्छा रहते हुए भी मरने का भय (सांख्य)। विशेष—सांख्य में इच्छ के विघात अर्थात् जो इच्छा में आए उसे करने की अशक्ति को विपर्यय कहते हैं। इस विपर्यय के पाँच भेद है जिनमें से अंतिम को अंधतामिस्र या अभिनिवेश कहते हैं। ३. योगशास्त्र के अनुसार पाँच क्लेशों में से एक। मृत्यु का भय। अभिनिवेश। ४. मृत्यु के बाद आमा का अनस्तित्व [को०]।

अंधत्व
संज्ञा पुं० [सं० अन्धत्व] अंधापन [को०]।

अंधधी
वि० [सं० अन्धधी] मुर्ख। नासमझ। मंदबुद्धि [को०]।

अंधधुंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध = अन्धकार + धुम = धुआँ अथवा अंन्ध + धुनन (कंपन हलचल), सं० अन्ध + हिं० धुंध] १. अंधकार। अँधेरा। उ०—(क) अति विपरीत तृणावर्त आयो। बातचक्र मिस ब्रज के ऊपर नंद पँवरि से भीतर आयो। अंधधुंध भयो सब गोकुल जो जहाँ रह्यो सो तहाँ छयायो।—सुर०, (शब्द०)। (ख) काउलै ओट रहत वृक्षन की अंधक्षुंध दिसि बिदिसि भुलाने।—सुर०, १०।८६०.।. २. अंधाधुंध। अंधेर। अनरंति। दुराचर। अनियमित व्यापार। उच्छृंखल कर्म। उ०—समुझि न परै तिहारी मधुकर, हम ब्रजनारि गँवार। सुरदास ऐसी क्यों निब अंधधुंध सरकार।—सुर०, १०।३९०९।

अंधधुंध (२)
वि० विशाल। अपार।उ.— देखत मदंध दसकंध अंधधुंध दल बंधु सों बलकि बोल्यों राजा राम बरिबंड।—भिखारी० ग्रं०, भा०२, पृ० ३२।

अंदधुंध (३)
क्रि० वि० बहुत। अत्यधिक। उ०—अंधधुंध माँ बाप, रुवै रे, बहुरि नहीं अस अवसर पाय।—जग० श०, भा०२, पृ० ११०।

अंधधु
संज्ञा पुं० [देश०] कुप।कुआँ [को०]।

अंधपरंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धपरंपरा] बिना समझे बुझे पुरानी चाल का अनुकरण। एक को कोई काम करते देख दुसरे का बिना किसी विचार के उसे करना। लोक पिटौअल। भेड़िया- धँसान।

अँधपुतना
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धपुतना] दे० 'अंधपुतना ग्रह'।

अंधपुतनाग्रह
संज्ञा पुं० [सं० अन्धपुतनाग्रह] बालकों का रोगविशेष। विशेष—इसमें वमन, ज्वर, खाँसी, प्यास आदि की अधिकता होती है। बालक के शरीर से चरबी की सी गंध आती है और वह बहुत रोता है। दे० 'पुतना'।

अंधप्रभंजन
संज्ञा पुं० [सं० अन्धप्रभंजन] ऐसी तेज हवा जिसमें कुछ न सुझ पड़े। आँधी। तुफान। उ०—बहता अंधप्रभंजन ज्यों, यह त्योंही स्वरप्रवाह, मचल कर दे चंचल आकाश।— अनामिका, पृ० ६७।

अंधबाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धवायु] धुल लिए हुए वेगयुक्त पवन। ऐसी तेज हवा जिसमें गर्द के कारण कुछ सुझ न पड़े। आँधी। तुफान।

अंधमति
वि० [सं० अन्धमति] उफलटी बुद्धिवाला। नासमझ। मुर्ख। उ०—रे दसकंध अंधमति तेरी आयु तुलानी आनि।— सुर० ९। ७९।

अंधमुषिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धमुषिका] 'देवताड़' नामक पौधा। विशेष—वैद्यक में माना गया है कि इसके सेवन से अधापन चला जाता है।

अंधर पु
वि० [सं० अन्धकार, अंधार] अंधेरा। अंधकारमय। प्रकाश रहित। उ०—नखत तहुँ दिसि रोवहि, अंधर धरति अकास।—जायसी (शब्द०)।

अंधराजा
पुं० [सं० अंधराजा] शास्त्र और नीति आदि से अनभिज्ञ अविवेकी राजा। विशेष—चाण्कय ने अर्थशास्त्र में राजा के दो भेद किए है— एक अंधराजा दुसरा चलितशास्त्र राजा। चलितशास्त्र वह है जो जान बुझकर शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन करता हो। इन दोनों में चाणक्य ने अंधराजा को ही अच्छआ कहा है, जो योग्य मत्रियो के होने पर अच्छा शासन कर सकता है।

अंधरात्री
संज्ञा स्त्री० [सं० अंधरात्री] अंधेरी रात। अंधकार से काली रात [को०]।

अंधरोष
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध + रोष] भीषण क्रोध। अतिक्रध। उ०— भूकुटि के कुडल वक्र मरोर, पुहुँकता अंधरोष फन खोल।— पल्लव०, पृ० १२१।

अंधल (१)
वि० [सं० अन्ध, प्रा, अंधल] अंधा। नेत्रहीन।

अंधल (२)
संज्ञा पुं० अंधकार। अंधेरा।

अंधली
संज्ञा स्त्री० [प्रा० अंधल] [पुं० अंधला] अंधी स्त्री। अंधी। उ०—अँधली आखिन काजल कीया। मुडली माँग सँवारे।— सुंदर ग्रं०, भा०१; पृ० ८७३।

अंधविंदु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धाविन्दु] आँख के भीतरी पटल पर का वह स्थान जो प्रकाश को ग्रहण नहीं करता और जिसके सामने पड़ी हुई वस्तु दिखाई नहीं देती। विशेष—नेत्रपटल पर ज्ञानतंतु पीछे से आकर शिराओं के रुप में फैले हुए है और मुड़कर शंकु और छड़ियों के आकार में हो गए हैं। मनुष्य की आँख में इन शंकुओं की संख्या ३३,६०, ००० मानी गई है। ये छड़ियाँ वा शंकु आकार और रंग का परिज्ञान कराने में काम देते है। यदि प्रकाश ऐसे स्थान पर पड़े जहाँ कोइ शंकु न हो तो कुछ देख नहीं पड़ता। यही स्थान अंधबिंदु कहलाता है।

अंधविश्वास
संज्ञा पुं० [सं० अन्धविश्वास] बिना विचार किए किसी बात का निश्चय। बिना समझे बुझे किसी बात पर प्रतीति। संभव-असंभव विचाररहित धारणा। विवेकशुन्य धारणा।

अंधश्रदधा
संज्ञा पुं० [सं० अन्धश्रद्धा] बिना बिचार की श्रद्धा। विवेखहीन आस्था। उ०—अंधश्रद्धा और अश्रद्धा आदि इसी के परिणाम है।—जय० ग्रं०, पृ० ५३।

अंधस
संज्ञा पुं० [सं० अन्धस] १. पका हुआ चावल। भात। २. भोजन (को०)। ३. जड़ी बुटी (को०)। ४. सोम नामक लता (को०)। ५. सोमरस (को०)। ६. रस (को०)। ७. घृत (को०)।

अंधसैन्य
संज्ञा पुं० [सं० अन्धसैन्य] अशिक्षित सेना। दे० 'भिन्नकुट'।

अँधा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्धक, प्रा,० अन्धअ] [स्त्री० अंधी] बिना आख का जीव। वह जिसको कुछ सुझता न हो। वह जीव जिसके आँखों में ज्योति न हो। ददष्टिरहित जीव। उ०— जानता बुझा नहीं बुझि किया नहीं गौन। अंधे को अंधा मिला राह बताव कौन।—कबीर सा०, सं०, भा०१, पृ,० १४।

अंधा (२)
वि० १. बिना आँख का। दृष्टिरहित। उ०—अँधा बाँटे रेवड़ी फिर फिर अपने देय (कहावत) २. विचार- रहित। अविवेकी। अज्ञानी। उ०—ज्ञानी से कहिए कहा कहत कबीर लजाय। अंधे आगे नाचते कला अकारथ जाय०।— कबीर सा० स०, पृ० ८६।क्रि० प्र०—करना।-बनना।-बनाना।—होना। भले बुरे का विचार खो बौठना। उ०—क्रोध मे मनुष्य अंध हो जाता है। (शब्द०)। मु०—अँधा करना = (१) दे० 'अंधा बनाना'। (२) शक और जोश या आकेश से विवेकहीन बना देना। अंधा बनना = जान बुझकर किसी बात पर ध्यान न देना। अंधा बनाना = आँख मे धुल डालना। बेवकुफ बनाना। धखा देना। अँधा मुल्ला टुटी मस्जिद = बुरे को बुरी चीज का मिलता जैसे को तैसे मिलना। अंधा क्या चाहे दो आँखें = जरुरुतमद की अपनी जरुरत पुरी होने की काक्षा करना। अँधे की लकड़ी या लाठी = (१) एकमात्र आधार सहारा। आसरा। (२) वह लड़का जो कई लड़कों में बचा हो।इकलौता लड़का। अँधे के ङात बटेर लगना = किसू वस्तु का अयोग्य व्यक्ति को अप्रत्याशित रुप से प्राप्त होना। उ०—समझ लोकि तुम अपनी मिहनत से नहीं पास हुए, अधे के हाथ बटेर लग गई।मान०, भा०१, पृ० ८२। अंधों में काना राजा या सरदार = थोड़ी सी जानकारी से भुखों या अनजान लोगों के बीच श्रेष्ठ बनना। अंधों का राज = विवेकहीन शासन। उ०—राव रंक अंधा सबै फिर अंधों ही का राजा—दरिया, बानी, पृ० ९। ३. मतवाला। उमत्त। जैसे—आदमी अपने मतलब में अंधा है। ४. जिसमें कुछ दिखाई न दे। अँधेरा। प्रकाशशुन्य। यौ०—अंधा आइना = वह दर्पण जिसमें चेहरा साफ दिखाई न दे। धुँधला शीशा। अंधा कुआँ = (१) दे० 'अंधकुप'१। (२) लड़कों का एक खेल जो चार लकड़ियों से खेला जात है। अंधा कुप = दे० 'अंधकुप'। उ०—तन में जो अंधा कुप है। वोही तुम्हारा रुप है।—संत तुलसी पृ० २५। अंधा घर = वह मकान जिसकी बाहरी रौनक खत्म हो चुकी हो। अंधा घोड़ा = उपानह। जुता (सधुफकीर)। अंधा चिराग = वह चिराग जिसकी ज्योति में प्रसार न हो। धुँधली ज्योति का दीपक। अंधा तारा = नेपचुन नामक तारा। अधा दरबार = दे० 'अंधा- राज'। अंधा दीया = दे० 'अंधा चिराग'। अधा भंसा = लड़कों का एक खेल जिससे एक लड़का दुसरे लड़के की पीठ पर चढ़कर उसकी आँखे बंद कर लेता है और दुसरे लड़के उस भैंसा बने हुए लड़के के बीच से एक एक करके निकलते हैं। सवार लड़का उपर से प्रत्येक निकलनेवाले लड़के का नमा पुछता जाता है। भैंसा बना हुआ लड़का जिसका नाम ठिक बता देता है उसे फिर वह भैसा बनाकर उसकी पीठ पर सवारी करता है। अंधा राज = वह राज्य जिसका प्रबंध बुरा हो। अन्यायी राज्य। अंधा शीशा = दे० 'आइना'। कहा०—अंधा गाए बहरा बजाए = जब किसी काम के करने में अयोग्य व्यक्ति एक साथ लगे हों। अंधी पीसे कुत्ता खाय = निष्प्रोजन काम को बड़े परिश्रम से करना। अंधे के आगे रोए, अपनी आँखों खोए = अरण्यरोदन। अंधे कतो दुर की सुझना = असमर्थ होते हुए भी समर्थ से बढ़कर काम करना या अनजान होकर भी जानकारों से भी अधिक समझ की बात बताना।

अंधाई
स्त्री० [हिं० अंधा+ ई] अंधापन। विवेकहीनता। उ०—भेष रता अंधा सबे अंधाई का राज।—दरिया बानी, पृ० ३६।

अंधाधुँध (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंधा+ धुंध] १. बड़ा अंधेरा। घोर अंधकार। उ०—अंधाधुंध भयौ सब गोकुल, जो जहँ रम्यो सो तहीं छपायौ।—सूर० १०।७७। २. अंधेर। अविचार। अन्याय। गड़बड़। धींगांधींगी। कुप्रबंध। भौसा। उ०— वहाँ कोई किसी को पुछनेवाला नहीं, अंधाधुंध मची है (शब्द०)।

अंधाधुँध (२)
वि० बिना सोच विचार का। विचाररहित। बेधड़क। बेहिसाब। बेअंदाज। बेठिकाने। उ०—वह किसी कोरे स्वप्न- द्रष्टा की काल्पनिक अंधाधुंध उड़ान नहीं है।—जय० प्र०, पृ० ४।

अंधाधुंध (३)
क्रि० वि० १. विना सोचे बिचारे। बेरोकटोक। बेतहाश। मारामार। उ०—ओंधाधुंध धर्म के मारग सब जग गोते खाता।—संत तुरसी०, पृ० २२३। २. अधिकता से। बहुता यत से, जैसे,—वह अंधाधुंध दौड़ा आता है। वह अंधाधुंध खाए चला जाता है। (शब्द०)।

अंधानुकरण
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध + अनुकर] बिना विचारे ओनुकरण करने का कार्य।

अंधानुवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्ध + अनुवृति] दे० 'अंधानुकरण'। उ०—भारतीय इतिहास की कुछ समस्याएँ नामक लेख में अपनी अंधानुवृत्ति और अनर्गलता से 'न भूमिः स्यान्-सर्वान् प्रत्यविशिष्टत्वात्' का अनुवाद यों दिया है—भूमि व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है।—काव्य य० प्र०, पृ० ४०।

अंधानुसरण
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध + अनुसरण] दे० 'अंधानुकरण'। उ०—उन्होंने भारतीय परंपरा को मानते हुए भी अंधानुसरण'। कही नहीं किया है—रस०, पृ०, ५।

अंधार पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार, प्रा० अंधकार, अंधार] दे० 'अंधकार'। उ०—गिरद्दं उड़ी झाँन अओंधार रैनं।—पृ० रा०, २०।६५।

अंधारी (१) पु
वि० [प्रा० अन्धार +हिं० ई (प्रत्य०)] अंधकारयुक्त। अँधेरी। अंधरिया। उ०—अंधारी दारुन निसा, भू सपनंतर आइ।—पृ० रा०, १७।७१।

अंधारी (१)
संज्ञा स्त्री० घोड़े, हाथी अथवा बैलों की आँखों पर डालने का पर्दा। अंधेरी। उ०—इभ कुंभ अंधारी कुच सुकंचुकी, कवच संभु काम क कलह।—बेलि, दू० ९०।

अंधालजी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धालजी] अंतर्मुख फोड़ा। अंधा फोड़ा। अंतर्मुख पिटक [को०]।

अंधाहि (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्धाहि] विषहीन सर्प [को०]।

अंधाहि (२)
संज्ञा स्त्री० एक प्रकार की मछली। कूचिका [को०]।

अंधाहिक
संज्ञा पुं० [सं० अन्धाहिक] एक विषरहित सर्प [को०]।

अंधाहुली
संज्ञा स्त्री० [सं० अधःपुष्पी] चोरपुष्पी नामक क्षुप। दे० 'चोरपुष्पी'।

अंधिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धिका] १. रात। रात्रि। २. द्यूत। जूआ का खेल। ३. एक विशेष प्रकार का खेल या क्रीड़ा। ४. आँख का एक रोग। ५. सर्षपी जिसके अत्यंत सेवन से दृष्टक्षय होता है (को०)। ६. स्त्रियों का एक भेद (को०)।

अंधियारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अन्धकार प्रा० अन्धआर, अन्धयार+हिं० ई (प्रत्य०)] १. अंधकार। अंधेरा। २. वह पट्टी जो उपद्रवी घोड़ों, शिकारी पक्षियों और चीते आदि की आँखों पर इसलिये बँधी रहती है कि किसी को देखकर उपद्रव न करें।

अंधी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुं० अंधा; स्त्री० अंधी] बिना आँख की स्त्री। जो स्त्री देख न सके।

अंधी (२)
वि० स्त्री० १. दृष्टिरहित। विवेकशून्य। विचाररहित। यौ०—अंधी सरकार = (१) राज्य जिसका प्रबंध बुरा हो। २. मालिक जो नौंकरों की तनख्याह ठईक समय पर न देता हो। मुहा०—अंधी बैठना = बिना अंदाज के कहीं बात का ठीक होना। बिना अंदाज के फेंकी चीज का ठीक लक्ष्य पर बैठना। उ०— एक बार उसकी अंधी बैठ सगई तो सब जगह उसे काई ही दिखाने लगी।—अंधेरे०; पृ० १४०। ३. प्रकाशहीन। अंधकारपूर्ण। उ०—जहाँ युगानयुग की एक बड़ी अंधी गुफा थी।—प्रेमसागर (शब्द०)। ४. मतवाली। उन्मत्त।

अंधु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अन्धु] १. कूआँ। कूप। २. शिश्न। पुरुष की जननेंद्रिय [को०]।

अंधु (२)
वि० अंधेरा। प्रकाश का अभाव। प्रकाशहीन। उ०—सुखदाता सुतपति गृह बंधु। तुम्हारी कृपा बिनु सब जग अंधु।— सूर०, १०।१८०।

अंधुल
संज्ञा पुं० [सं० अन्धुल] शिरीष वृक्ष। सिरस का पेड़।

अंधुला पु
वि० दे० 'अंधुला'। उ०—पाँधे मिस्सर अंधुले काजी मुल्ला कोरु। तिनाँ पास न भिंटीयै, जो सबदे दे चोरु।—संतबानी०, पृ० ७०।

अंधेर
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार (अन्ध इव करोति—इति); प्रा० अंधकार< अन्धकार, अप०; पुं०, हिं० अंधेर, अंधियार] १. अन्याय। अविचार। अत्याचार। जुल्म। २. उपद्रव। गड़बड़। कुप्रबंध। भौसा। अंधाधुंध। धींगाधींगी। अनर्थ। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।—होना = अविचार या गड़बड़ होना। धींगाधींगी होना। उ०—इतनी फिरंगिनें बैठी हैं किसी की जबान तक न हिली और हम आपस में कटे मरते हैं, क्या अंधेर है।—फिसाना०, भा०३, पृ० ३।

अंधेरखाता
संज्ञा पुं० [हिं० अंधेर + खाता] १. हिसाब किताब और व्यवहार में गड़बड़ी। व्यतिक्रम। २. अन्यथाचार। अन्याय। अविचार। कुप्रबंध। ३. अविचारपूर्ण या अन्यायपूर्ण व्यवहार।

अंधेरगर्दी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंधेर + फा० गर्दी] बेहद अंधेर। अनाचार (बोल०)।

अंधेरनगरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अंधेर + सं० नगरी] १. वह स्थान, संस्थान या स्थिति जहाँ कोई नियम या कानून न हों। अन्याय- पूर्ण राज्य। २. अशांति या अव्यवस्थापूर्ण स्थान। उ०— अंधेर नगरा अनबूझ राजा। टका सेर भाजी टका सेर खाजा।—भारतेंदु ग्रं०, भा०१; पृ० ६७०।

अंधेरा
संज्ञा पुं० [हिं० अंधेर + आ (प्रत्य०)] गड़बड़। अंधेर। अनर्थ। अन्याय। उ०—महामत्त बुद्धिबल कौ हीनौ देखि करै अंधेरा।—सुर०१।१८६।

अंधेरी (१)
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँधेरी'।

अंधेरी (२)
संज्ञा स्त्री० [?] दक्षिण भारत का एक स्थान।

अँध्यार पु †
संज्ञा पुं० [सं० अन्धकार; प्रा० अंधकार] अंधियार। अंधेरा।

अंध्यारी पु †
संज्ञा स्त्री० दे० 'अँधियारी' (१)।

अंध्र
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध्र] १. बहेलिया। व्याधा। शिकारी। २. बैदिहिक पिता और कारावर माता से उत्पन्न नीच जाति के मनुष्य जो गाँव के बाहर रहते और शइकार करके अपना निर्वाह करते थे। ३. दक्षिण का एक देश जिसे अब तिलंग ना कहते हैं। इसके पश्चिम की ओर पश्चिम घाट पर्वत, उत्तर की ओर गोदावरी ओऱ दक्षिण में कृष्णा मनदी है। आंध्र देश। ४. अंध्र देश के निवासीजन। ५. मगध का एक राजवंश जिसे एक शूद्र ने अपने मालिक कन्न वंश के अंतिम राजा को मारकर स्थापित किया था। अंध्र वंश का अंतिम राजा पुलोम था।

अंध्रभुत्य
संज्ञा पुं० [सं० अन्ध्रभृत्य] मगध देश का एक राजवंश। विशेष—अंध्रवंश के अंतिम राजा पुलोम के गंगा में डूब मरने के पीछे उसका सेनापति रामदेव फिर रामदेव का सेनापति प्रतापचंद्र और फिर प्रतापचंद्र के पीछे भी अनेक सेनापति राजा बन बैठे। इन सेनापतियों का वंश अंध्रभृत्य कहलाया।

अंन पु
संज्ञा पुं० [सं० अन्न] दे० 'अन्न'। उ०—(क) अंन का मास अल्लि का हाड़ तत का भाषिबा बाई —गोरख० पृ० ४१। (ख) पंच दिवस च्यारौ बरन भुंजत अंन अपार।—पृ० रा०, १४।१२०। यौ०—अंनदान = अन्न दान करने का कार्य। उ०—करि समान गंगोदकह दिय सु गाइ दस दान। दस तोला तुलि हेम दिय अंनदान अ [प्र] मान।—पृ० रा०, ६ ।१३१।

अंननास पु
संज्ञा पुं० दे० 'अनन्नास'। उ०—सु अंननास जीरयं। सतूतय जँभीरयं।—पृ० रा०, ५९।९।

अंनी पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अनी'। उ०—दिसा बाईयं साद हुस्सेन अंनी।—पृ० रा० ९ १४०।

अंनेक पु
वि० दे० 'अनेक'। उ०—अंनेक भाव दिष्षहिं सु दिव, दिव दिवान दुंदुभि बजइ।—पृ० रा०, १४।७३।

अंन्य पु
वि० दे० 'अन्य'। उ०—और बधाई ऊंमरा करी आइ सुरतान। अंन्य सबन कीनी षयर पुजिय पीर ठटांन।—पृ० रा०, ९।२१०।

अंन्योअन्य पु
सर्व दे० 'अन्योन्य'। उ०—अंन्योअन्य सहैं नाम।— पृ० रा०, ९।८६।

अंब (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बा] अंबा। माता। उ०—कबहुँक अंब अवसर पाइ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४७५।

अंब (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० आम्र, प्रा,० अम्म, अंल] दे० 'आम्र'। आम का पेड़ या फल। उ०—अंव सुफल छाँड़ि कहाँ सेमर को धाऊँ।—सूर० १।१६६।

अंब (२)
संज्ञा पुं० [सं० अब्म] १. पिता। २. स्वर। ३. स्वर करनेवाला। ४. आँख। वेद। ५. ताँबा [को०]। ६. आकाश। उ०—ग्रीखमभाजै गात अंब बरसात उलट्टाँ।—रा० रु, पृ० ३४३। ७. जल। उ०—हरिचरन अंब अंजुली कीन।—पृ० रा०, १।३६९।

अंब (४)पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बु] रक्त। खून। रुधिर। उ०—अरि अंब अचन अग्गथि करार।—पृ० रा०, ६९।२२३।

अंबक
संज्ञा पुं० [सं० अम्बक] १. आँख। नेत्र। उ०—नव अंबुज अंबक छबि नीकी।—मानस १।१४७। यौ०—त्र्यंबक = शिव। २. पिता। ३. ताँबा। ४. शिवनेत्र [को०]।

अंभखास पु
संज्ञा पुं० दे० 'आमखास'। उ०—साबक नैं साहि अंबषास में बुलाया। हाजिर उमराव मीर सोंतमांम आया।—शिखर०, पृ० ९२।

अंबजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुजा] कमलिनी। उ०—अलीन जुथ्य आवरं। मनो बिहंग सावरं। चुवंत पत्त रत्त जा। उवंत जानि अंबाज।—पृ० रा०, २५।३२४।

अंबड़ि पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर]। अंबर। आकाश। उ०—तिस अंबड़ि कोय न सकई उहु उँचा अपरु अओपार।—प्राण०, पृ० २०८।

अंबमौर
संज्ञा पुं० [सं० अम्ब + मुकुर; प्रा० अंब + मउर] आम्र की मंजरी। बौर। उ०—बन उपबन फुल्लहिं अति क्ठौर। रहे जोर मौंर रस अंकमौर।।—ह० रा०, पृ० १८।

अंबया
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बया] १. माता (कौषी०)।

अंबर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर] १. आकाश। आसमान। शून्य। उ०— अंबर कुंजा कुरलियाँ गरजि भरे सब ताल।-कबीर ग्रं०, पृ० ७। मुहा०—अंबर के तारे डिगना = आकाश से तारे टूटना। असंभव बात का होना। उ०—अंबर के तारे डिंगैं, जूआ लाड़ैं बैल। पानी में दीपक बलै, चलै तुम्हारी गैल (शब्द०)। यौ०—अंबरचर् = (१) पक्षी। (२) विद्याधर। अंबरचारी = ग्रह। अंबरद = कपास। अंबरपुष्प = आकाशकुसुम। अंबरशैल = ऊँचा पहाड़। अंबारस्थली = पृथ्वी। २. बादल। मेघ (क्व०)। उ०—आषआढ़ में सोवौं परी सब ख्वाब देखौं कामिनी। अंबर नवै, बिजली खबै, दुख देत दोनों दामिनी— (शब्द०)। ३. वस्त्र। कपड़ा। पट। उ०—नभ पर जाइ विभी— षत तबही। बरषि दिए मनि अंबर सबही।—मानस, ७।११६। ४. स्त्रियों की पहनने की एक प्रकार की एकरंगी किनारेदार धेती। उ०—करषत सभा द्रुपद तनया कौ अंबर अछय कियौ।—सूर०, १।१२१। ५. कपास। ६. अभ्रक धातु। अबरक। ७. राजपूताने का एक पुराना नगर (संभवतः जयपुर की राजधानी आमेर)। ८. प्राचीन ग्रंथों के अनुसार उत्तरी भारत का एक देश। ९. शून्य (को०)। १०. गंध द्रव्य। कश्मीरी केशर। उ०—पचीस छाव अंबरं, असीस मुक्कली भरं।—पृ,० रा०, ६६।५८। ११. परिधि। मंडल (को०)। १२. पड़ोस। सामीप्य। पास का देश (को०)। १३. ओष्ठ। ओठ (को०)। १४. दोष। बुराई (को०)। १५. हाथियों का नास करनेवाला (को०)।

अंबर (२)
संज्ञा पुं० १. एक सुगंधित वस्तु। विशेष—यह ह्वेल मछली की तथा कुथ और समुद्री मछलियों की अंतड़ियों में जमी हुई चीज है जो भारतवर्ष, अफ्रीका और ब्राजील के समुद्री किनारों पर बहती हुई पाईजाती है। ह्वेल का शइकार भी इसके लिये होता है। अंबर बहुत हल्का और शीघ्र जलनेवाला होता है तथा आँच दिखाते रहने से बिलकुल भाप होकर उड़ जाता है। इसका व्यवहार औषधियों में होने के कारण यह नीकोबार (कालापानी का एक द्धीप) तथा भारत समुद्र के और टापुओं से आता है। प्राचीन काल में अरब, युनानी और रोमन लोग इसे भारतवर्ष से ले जाते थे। जहाँगीर ने इससे राजसिंह सन का सुंगंधित किया जाना लिखा है। उ०—जिनन पास अंबर है इस शहर बीच। खरीद करनहार है सब वही च—दक्खिनी०, पृ० ७९.। २. एक इत्र। उ०—तेल फुलेल सुगंध उबटनो अंबर अतर लगावै रे।— भक्ति०, पृ० ३६०।

अंबर (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० अमृत प्रा० अमरित, अमरिअ, अप० [अंबरि] अमृत। सुधा। —अनेकार्थ०, पृ० ११४।

अंबर (४)पु
संज्ञा पुं० [अ० अमारी, हिं० अंबारी] हाथी की पीठ पर का हौदा जिसपर छज्जेदार मंडप होता है। अंबारी। उ०—चढ़ी चौडाल अंबरं। मनोकि मेघ घुम्मरं।—रु० रा०, ६६।५७।

अंबरग
वि० [सं० अम्बरग] आकाशगामी [को०]।

अंबरचर (१)
वि० [सं० अम्बरचर] आकाशगामी [को०]।

अंबरचर (२)
संज्ञा पुं० १. पक्षी। खग। २. विद्याधर [को०]।

अंबरचारी
वि० [सं० अम्बरचारी] ग्रह [को०]।

अंबरडंबर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर +हिं० डंबर] वह लाली जो सुर्य के अस्त होने के समय पश्चिम दिशा में दिखाई देता है। उ०— बिनसत बार न लगाई अच्छे जन की प्रीति। अंबर डंबर साँझ के ज्यौं बारु की भीति।—स० सप्तक, पृ० ३१२।

अंबरद
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरद] कपास [को०]।

अंबरपुर पुं
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरपुर] आकाश। उ०—आरोपि प्रथ्थि अंबरपुरह सत साइर संसै परिय। कहि चंद दंद करि दैत सों धरनिधार अद्धर धरिय।—पृ० रा०, २।१५३।

अंबरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरपुष्प] आकाशकुसुम। असंभव बात। खपुष्प। अस्तित्विहीन पदार्थ। [को०]।

अंबरबानी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर (=मेघ)+बानी] मेघगर्जन। बादलों का गर्जन। उ०—अबरबानी भई सजल बादर दल छाए।— सुर० (राधा०), ४८०६।

अंबरबारी
संज्ञा स्त्री० [सं० अमरवल्लरी, प्रा० अम्मर वाली] एक झाड़ी। विशेष—यह हिमालय और नीलगिरि पर होती है। इसकी जड़ और छाल से बहुत ही अच्छा पीला रंग निकलता है जिससे कभी कभी चमड़ा भी रँगते हैं। इसके बीज से तेल निकलता है। इसकी लकड़ी, जिसे दारुहल्द वा दारुहल्दी कहते है, ओषधियों में काम आती है तथा इसकी जड़ और लकड़ा से एक प्रकार का रस निकालते हैं जो रसवत या रसौतकहलाता है। पर्या०—चित्रा। दारुहल्द। आँबाहरदी अमाहरदी)।

अंबरबेल
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्मरवल्ली] दे० 'अम्बरबेलि'।

अंबरबेलि
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्मरवल्ली प्रा०; अमरबल्ली] आकाश बेल। आकाश बौर। अमरबेल। विशेष—हकीमी नुसखो में इसे इफ्तीमुल कहते हैं। सुत के समान पीली एक बेल जा प्रायः पेड़ों पर लिपटी मिलती है जिसकी जड़ पृथ्वी में नहीं होती और इसमें पत्ते औऱ कनखे भी नही निकलते। जिस पेड़ पर यह पड़ जाती है उसे लपेटकर सुखा डालती है। यह बाल बढ़ाने की एक औषधि है। हकीम लोग इसे वायुरोगों में देते हैं।

अंबरमणि
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरमणि] आकाश के मणि अर्थात् सुर्य।

अंबरमाला
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बरमाला] मोतियों की वेशेष प्रकार का माला। उ०—अंबरमाला इक्क अंक पहिराइ कह्यौ इह।—पृ० रा०, ७।२६।

अंबरयुग
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरयुग] स्त्रियों का ऊपर और नीचे पहनने का वस्त्र [को०]।

अंबरलेखी
वि० [सं० अम्बरलेखिन्] आकाशस्पर्णी। गगन- चुंबी [को०]।

अंबरशौल
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरशैल] अति उच्च पर्वत। बहुत ऊँचा पहाड़ [को०]।

अंबरसारी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का कर वा टैक्स जो पहले घरों के ऊपर लगता था।

अंबरस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बरस्थली] पृथ्वी [को०]।

अंबरांत
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरान्त] १. कपड़े का छोर। २. वह स्थान जहाँ आकाश पृथ्वी से मिला हुआ दिखाई देता है। क्षितिज।

अंबराधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बराधिकारी] अंबर या परिधान का अध्यक्ष [को०]।

अंबरीक पु
संज्ञा पुं० [सलं० अम्बरीष; देश० अंबरीख > अंबरीका] दे० 'अंबरीष'। उ०—माफ करे अंबरीक बचोगे तब दुर्वासा।— पलटु०, १।१६।

अंबरीष
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरीष] १. भाड़। २. वह मिट्टी का बरतन जिसमें भड़भुजे लोग गरम बालु डालकर दाना भुनते हैं। ३. विष्णु। ४. शिव। ५. सुर्य। ६. किशोर अर्थात् ११ वर्ष से छोटा बालक। ७. एक नरक। ८. अयोध्या के एक सुर्यवंशी राजा। विशेष—ये प्रशुश्रक के पुत्र थे और इक्ष्वाकु से २८वीं पीढ़ी में हुए थे। पुराणों में ये परम वैष्णाव प्रसिद्ध है जिनके कारण दुर्वासा ऋषि का विष्णु के चक्र ने पीछा किया था। महाभारत, भागवत और हरिवंश में अंबरीष को नाभाग का पुत्र लिखा है जो रामयण के मत के विरुद्ध है। ९. अमाड़े के फल और पेड़। १०. अनुताप। पश्चात्ताप। ११. समर। लड़ाई। १२. छोटा जानवर। बछड़ा [को०]।

अंबरीसक
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरीष] भाड़। भरसायँ (डिं०)।

अंबरौक
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरौक] देवता।

अंबरोकस्
संज्ञा पुं० [सं० अम्बरौक] दे० 'अंबरौक' [को०]।

अंबल
संज्ञा पुं० [सं० श्रल्म, हि, अंबल] १. मादक पदार्थ। अमल। २.खट्टा रस। अंबल।

अंबला पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अबला'। उ०—साँझ समय़ राइ बोलसी। हँसि हँसि बोल (ई) अंबला मूँध। —वि० रासो०, पृ० १९।

अंबली पु
संज्ञा स्त्री० दे० 'अमली'—२. उ०— 'आब अंबली रे अंबली, बबूर चढी नग बेली रे। —कबीर ग्रं० पृ०, ११२।

अंबष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० अम्बष्ठ] [स्त्री० अम्बष्ठा] १. एक देश का नाम पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम। २. अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य। ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। ४. महावत। हाथीवान। फीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एत भैद।

अंबष्ठकी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बष्ठकी] दे० 'अंबष्ठा'।

अंबष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बष्ठा] १. अंबष्ठ जाति की स्त्री। २. एक लता का नाम। पाढ़ा। ब्राह्मणी लता। ३. जूही (को०)। ४. अंबाड़ा (को०)। ५. चूक (को०)।

अंबष्ठिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बाष्ठिका] ब्राह्मी लता [को०]।

अंबहर पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बर; ड़ि० अंबहर] मेघ बादल। उ०—चातक रटै बलाहकि चंचल। हरि सिणागारै अंबहर। बेलि० दु० १९४।

अंबा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बा] १. माता। जननी। माँ। अम्मा। उ०— जौं सिय भवन रहइ कह अंबा। मोहि वहँ होइ बहुत अवलंबा।—मानस, १।६०। २. गौरी। पार्वती। देवी। दुर्गा। ३. अंबष्ठा। पाढ़ा।४. काशी के राजा इँद्रद्युम्न की तीन कन्यायों में सबसे बड़ी कन्या। विशेष— काशिराज की तीन कन्याओं की भीष्म पितामह अपने भाई विभित्नवीर्य के लिये हरण कर लाए थे। अंबा राजा शाल्व के साथ विवाह करना चाहत थी। इससे भीष्म ने उसे शाल्व के पास भिजवा दिया। पर राजा शाल्व ने उसे ग्रहण न किया और वह हताश होकर भीष्म से बदला लेने के लिये तप करने लगी। शिव जो इसपर प्रसन्न हुए और उसे वर दिया कि तू दूसरे जन्म मे बदला लेगी। यही दूसरे जन्म में शिखंड़ी हुई जिसके कारण भीष्म मारे गए। ५. ससुर खदेरी नदी। विशेष— यह नदी फतेहपुर के पास निकलकर प्रयाग से थोड़ी दूर पर यमुना में मिली है। ऐसी कथा है कि यह वही काशिराज की बड़ी कन्या अबा है, जो गंगा के शाप से नदी होकर भागी थी।

अंबा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अभ्र, प्रा०, अंब] आम। रासाल। उ०— मारु अंबा मउर जिम, कर लग्गइ कुँमलाइ। —ढोला०, दू० ४७१। यौ०— अंबाझोर = तीखी और लगातार चलनेवाली हवा जिससे पेड़ों से आम के फल गिर जायं (बोल०)।

अंबाड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बाड़ा] माता। जननी। [को०]।

अंबापोली
संज्ञा स्त्री० [सं० यौ० आभ्र+ पौलि>प्रा० अंबा+पोली = रोटी, पोतला] अमावट। अमरस।

अंबाबन
संज्ञा पुं० [सं० अंबा+बन] इलावृत खंड़ का एक स्थान जहाँ जाने से पुरुष स्त्री हो जाता था। उ०—पुनि सुद्युम्न बसिष्ट सौं कह्नौं। अंबाबन मैं तिय ह्वै गयौ। —सूर०, ९।२।

अंबायु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्नायु] १. माता। जननी। २. भद्र या शिष्ट महिला [को०]।

अंबार
संज्ञा पुं० [फा०] ढ़ेर। समूह। राशि। अटाला। उ०— रिढ़ बंकिम किए निश्चल किंतु लोलुप खड़ा वन्य बिलार, पीछे, गोयठीं के गंधमय अंबार।—इत्यलम्।

अंबारखाना
संज्ञा पुं० [फा०] गोदाम। भंड़ार। कबाड़खाना। [को०]।

अंबारी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० अमारी] १. हाथि के पीठ पर रखने का हौदा। २. (ऊँट के पीठ का) मोहमिल जिसके ऊपर एक छज्जेदार मंड़प बना रहता है। उ०— कुंदन नगन जटित अंबरिय।— प० रा०, पृ०, ११२। ३. छज्जा। मंड़प।

अंबारी (२)
संज्ञा स्त्री० पटसन। (दक्षिण)।

अंबालय
संज्ञा पुं० [सं० अम्बालय] अंबाला शहर। उ०—सो रूप- मुरारीदास अंबालय में एक खत्नी के जन्मे। —दो सौ बावन० भा०, १.पृ०, १५१।

अंबाला
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बाला] माता [को०]।

अंबालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बालिका] १. माता। माँ। जननी। २. अँबष्ठा लता।पाढ़ा। पाठा। ३. काशी के राजा इंद्रद्युम्न की तीन कन्यायों में सबसे छोटी। विशेष— इसे भीष्म अपने भाई विचित्नवीर्य के लिये हरण कर लाए थे। विचित्रवीर्य के मरने पर जब व्यास जी ने इससे नियोग किया तब पांड़ु उत्पान्न हुए।

आंबाली
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बाली] माता [को०]।

अंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बिका] १. माता।माँ। उ०— अंबिका माता कों कहिये, धाकर नीच ब्राह्मन कों कहिये तातें बिरुद्द मतिकृत भयो। —भिखारी ग्रं०, भा०, २. पु० २२५। २. दुर्गा। भगवती। देवी। पार्वती।उ०— बासी नरनारि ईस अंबिका सरूप है। —तुलसी ग्रं० पृ०, २४१। ३. जैनों की एक देवी। ४. कुटकी का पेड़। ५. अंबष्ठा लता। पाढ़ा। ६. काशी के राजा इंद्रद्युम्न की तीन कन्याओं में मझली। विशेष—भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्य के लिये इन कन्याओं को हर लाए थे। विचित्रवीर्य के मरने पर जब व्यास जी ने इससे नियोग किया तब धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए।

अंबिकापति
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकापति] शिव [को०]।

अंबिकापुत्र
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकापुत्र] काशिराज की मझाली कन्या अंबिका के पुत्र धृराष्ट्र [को०]।

अंबिकाबन
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकावन] १. इलावृत खंड़ में एक पुराणप्रसिद्द स्थान जहाँ जाने से पुरुष स्त्री हो जाते थे। उ०— एक दिवस सो अखेटक गयो। जाई अंबिकाबन तिय भर्या। —सूर० १।२। २. ब्रज के अंतर्गत एक बन।

अंबिकालय
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकाल्य] देवी का मंदिर। उ०— पूजा मिसि आनिसि पुरखोतम अंबिकालय नगर आरात।— बोलि०, दू० ६६।

अंबिकासुत
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकासुत] घृतराष्ट्र। अंबिकापुत्र [को०]।

अंबिकेय
संज्ञा पुं० [सं० अम्बिकेय] अंबिका के पुत्र—१. गणेश। २. कार्तिकेय। ३. घृतराष्ट्र।

अंबिष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बष्ठा+ 'जूही'] राजबल्ली।—नंद ग्रं०, पृ०, १०५।

अंबु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्बु] १. जल। पानी। उ०— अंबु तू हों अंबुचर अंब तु हौं ड़िभ।—तूलसी, ग्रं, पृ०, २६६। २. आँसू। अश्रु। उ०— सारंगमुख ते परत अंबु ढरिल मनु सिव पूजाति तपति विनास। —सा० लहरी, पृ०, १७३। ३. रक्त का जलीय तत्व (को०)। ४. सुगंधबाला। ५. कुंड़ली के बारह स्थानों या घरों में चोंथा। ६.चार की संख्या,क्योंकि जल तत्वों गणना में चौथा है। ७एक छंद (को०)।

अंबु (२)
संज्ञा पुं० [सं० आभ्र] आम। रसाल। उ०— जंबू वृक्ष कहौ क्यों लंपट फलवर अंबु फरै। —सूर० (राधा०) ३३११।

अंबुअ पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुक, प्रा० अंबुअ,] जल। पानी। उ०— उतपति प्रेम अगिन उपजावा। बहुरि पबन अंबुअ उपजावा।— हि० प्रेमा० पृ०, २२९।

अंबुकंटक
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकण्टक] जलजंतुविशेष। मगर।

अंबुक (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुक?] मछली। माँस। उ०— सुरा पान अंबुक भखे, नित्त कर्म बिभाचार।—दया० बानी, पृ० २८।

अंबुक (२)
संज्ञा पुं० [सं० अम्बक] आँख। नयन। उ०— पहिले धन के अंबुक माहीं। अंजन स्याम रहा है नाहीं। —इंद्रा० पृ० ७१।

अंबुकण
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकरण] जलविंदु। पानी का छींटा [को०]।

अंबुकिरात
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकिरात] एक जलजंतु। मगर।

अंबुकीश
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकीश] एक जलजंतु। सूस। शिशुमार।

अंबुकूर्म
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकूर्म] दे० 'अंबुकीश' [को०]।

अंबुकेशर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकेशर] नीबू का पेड़ [को०]।

अंबुरकेशी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुकेशी] एत जलजंतु। ऊद। ऊदबिलाव।

अंबुक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुक्रिया] पितृर्पण [को०]।

अंबुग (१)
वि० [सं० अम्बुग] पानी में नीवास करनेवाला। जल- चर [को०]।

अंबुग (२)
संज्ञा पुं० जलचर प्राणी [को०]।

अंबुघन
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुघन] उपल। ओला। बनौरी [को०]।

अंबुचत्बर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बु+चत्वर] झील [को०]।

अंबुचर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुचर] जलचर। उ०— अंबु तू हौं अंबुचर, अंब, तू हौं ड़िभ। —तुलसी ग्रं०, भा०, २. पृ०, २५६।

अंबुचामर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुचामर] शैवाल। सेवार।

अंबुचारी (१)
वि० [सं० अम्बुचारिन्] जलचर [को०]।

अंबचारी (२)
संज्ञा पुं० जलचर प्राणी [को०]।

अंबुज (१)
वि० [सं० अम्बुज] जल में उत्पन्न होनेवाला [को०]।

अंबुज (२)
संज्ञा पुं० १. जल से उत्पन्न वस्तु या जंतु। २. कमल। जलज। उ०— नव अंबुज अंबक छवि नीकी। ०—मानस १।१४७। ३. पानी के किनारे होनेवाला एक पेड़। हिज्जल। ईजड़। पनिहा। ४. बेत। ५. वज्र। ६. ब्रह्मा। ७. शंख ८. चंद्रमा (को०)।९. सारस नाम का पक्षी (को०)।

अंबुजतात
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुजतात] ब्रह्मा। उ०— सुनि के बोल्यो अंबुज तात। सुनहु अमरगन मों तै बात। —नंद ग्रं०, पृ०, २२०।

अंबुजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० अबुजन्मन्] कमल [को०]।

अंबुजसुत
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुजसुत] ब्रह्मा। अंबुज तात। उ०— अंबुज सुत उमया बिलोकि, वेद पढ़तं खलि बीरज। —पृ०, रा०, ६१।३१५।

अंबुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुजा] १. एक रागिनी जेसे संगीतशास्त्र वाले मेव राग की पुत्रवधु कहते हैं। २. सरस्वती। उ०— तुही अंबुजा अंबुकामिन्नि कामं। —पृ० रा० २४। ३. कमलिनी। उ०— ढ़रत रत्त एड़ियं। उपम्न कब्बि टेरियं। मनौ कि न्त रत्तजा। चिकंत पत्त अंबुजा।—पृ०, रा०, २५।३३०।

अंबुजाक्ष (१)
वि० [सं० अम्बजाक्ष] कमल के समान नेत्रवाला।

अंबुजाक्ष (२)
संज्ञा पुं० विष्णु।

अंबुजाक्षी
वि० स्त्री० [सं० अम्बुजाक्षी] कमल जैसी आँखवाली [को०]।

अंबुजात (१)
वि० [सं० अम्बुजात] जल से उत्पन्न।

अंबुजात (२)
संज्ञा पुं० कमल। दे० अंबृज।

अंबुजासन
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुजासन] वह जिसका आसन कमल पर हो। ब्रह्मा।

अंबुजासना
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुजासना] वह स्त्री जिसका आसन कमल पर हो। लक्ष्मी।कमल। सरस्वती।

अंबुजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुजिनी] कमलिनी [को०]।

अंबुतस्कर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुतस्कार] सूर्य [को०]।

अंबुताल
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुताल] शैवाल। सेवार।

अंबुद (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुद] १. जल देनेवाला।— बादल मेघ। उ०— विधि महेस मुनि सुर मिहात सब देखत अंबुत आट दिये।— तुलसी ग्रं०, भा०, २. पृ० २७२। २. मोथा। नागार- मोथा।

अंबुद (२)
वि० जल देनेवाला। जो जल दो।

अंबुदेव
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुदेव] १. वे लोग जो जल को देवता मानते हैं। २. ज्योंतिष के अनसार पूर्वाषाढ़ का एक विभाग [को०]।

अंबुदैव
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुदैव] दे० 'अंबुदेव' [को०]।

अंबुधर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुधर] जल को धारण करनेवाला।— मेव। बादल। उ०— नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई। —मानस, ५। १२।

अंबुधर (२)
वि० जल को धारण करनेवाला।

अंबुधार
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुधार] जलधारा। उ०— कुंतल चिहुर चुवाहि ज्यों घाला। अंबुधार कैधों अलिमाला। —माधावानल०, पृ०, १९०।

अंबुधि
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुधि] १. समुद्र। सागर। २. चार की संख्या (को०)। ३, जलपात्र (को०)।

अंबुधिकामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुधिकामिनि] समुद्र की स्त्री या नदी [को०]।

अंबुधिस्त्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुधिस्त्रवा] घृतकुमारी। धीकृआँर। ग्वारपाठ।

अंबुनाथ
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुनाथ] १. समृद्र। सागर। २. वरुण देवता।

अंबुनिधि
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुनिधि] समुद्र। सागर।

अंबुनिवह (१)
वि० [सं० अम्बुनिवह] जल ले जानेवाला [को०]।

अंबुनिवह (२)
संज्ञा पुं० बादल [को०]।

अंबुनेत्रा
वि० स्त्री० [सं० अम्बुनेत्रा] आँसु भरी आँखोवाली। अश्रुपूरित नेत्रोंवाली। उ०— आसीना थी निकट पति के अंबुनेत्रा यशोदा।—प्रिय प्र०, (सर्ग १०)।

अंबुप (१)
वि० [सं० अम्बुप] पानी पीनेवाला।

अबुप (२)
संज्ञा पुं० १. समुद्र। सागर। २. बरुण। ३. शतभिषा नक्षत्र। ४. चकवड़ का पौधा। चक्रमर्द। चकौड़।

अंबुपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुपक्षिन्] जल में रहनेवाले पक्षी [को०]।

अबुपति
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुपति] १. समुद्र। उ०— आनन अनल अंबुपति जीहा। —मानस, ६। १५। २. बरुण।

अंबुपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुपत्ता] नागरमोथा। मोथा। उच्चटा।

अंबुपदधिति
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुपद्दिति] जलमार्ग। धारा। जल प्रवाह। जलप्रपात [को०]।

अबुंपात
संज्ञा पुं० [सं० अम्बूपात] दे० 'अबुपद्धति' [को०]।

अमबुपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बपालिका] पानिहरिन। पानी भरनेवाली लड़की। उ०— भरे हुए पानी मृदु आती थी पथ पर, अंबुपालिका।—अनामिका, पृ०, १७७।

अंबुप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुप्रसाद] निर्मली। निर्मली का पौधा। गँदले पानी को साफ करनेवाली ओषधि। कतक।

अंबुप्रसादन
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुप्रसादन] दे० अंबुप्रसाद [को०]।

अंबुबसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवासा] पाटल। पाड़र। — नंददास ग्रं०, पृ०, १०२

अंबूभव
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुभव] कमल [को०]।

अंबुभृत्
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुभृत्] १. बादल। २. मोथा। ३. समुद्र। ४. अभ्रक।

अंबुमत्
वि० [सं० अम्बुमत] जलयुक्त [को०]।

अंबुमती
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुमती] एक नदी का नाम [को०]।

अंबुमात्रज (१)
वि० [सं० अम्बुमात्रज] जल में ही उत्पन्न होनेवाला। जलीय [को०]।

अंबुमात्रज (२)
संज्ञा पुं० घोंधा। शंख। शंवूक [को०]।

अंबुर
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुर] दरवाजे का काष्ठ। चौखट [को०]।

अंबुरय
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुरय] धारा। प्रवाह [को०]।

अंबुराज
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुराज] दे० 'अंबुपति' [को०]।

अबुराशि
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुराशी] जल की राशी अर्थात् समुद्र। सागर।

अंबुरुह
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुरुह] कमल।

अंबुरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुरुहा] स्थल कमलिनी [को०]।

अंबुरुहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुरुहिणी] कमल। कमलिनी। कुई कोई [को०]।

अंबुरोहिणि
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुरोहिणी] दे० 'अबुरुहिणी'।

अंबुल (१)
संज्ञा पुं० [सं० अम्ल> प्रा० अमम्ल> अंबल] १. अम्ल। अम्बल। खट्टा रस। उ०— पनं बहु अंबुल जंबुअ मोलि। —पृ० रा०, ६३। १०६। २. आम।

अंबुल (२)
संज्ञा पुं० [सं० आमलक,प्रा०, आमलय] आमला [को०]।

अबुवाची
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवाची] आषाढ़ में आर्दा नक्षत्र का प्रथम चरण अर्थात् आरंभ के तीन दिन और २० घ़ड़ी जिनमें पृथ्वी ऋतुमती समझी जाती है और बीज बोने का निषेध है। यौ०— अबुवाची त्याग = आषाढ कृष्णपक्ष त्रयोदशी का दिन [को०]।अंबुवाची पद = आषाढ़ कृ्ष्णपक्ष का दशम दिन [को०]।

अंबुवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवासिनी] पुष्पविशेष। पाड़र का फूल। पाटला। [को०]।

अंबवासी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवासिन्] दे० 'अंबुवासिनी' [को०]।

अंबुवाह
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुवाह] १. बादल। मेघ। २. मोथा। नागरमोया। ३. जलवाहक व्यक्ति (को०)। ४. अभ्रक (को०)। ५. सत्रह की संख्या (को०)। ६. झील (को०)।

अंबुवाहक (१)
वि० [सं० अम्बुवाहक] जल ले जानेवाला [को०]।

अंबुवाहक (२)
संज्ञा स्त्री० १. बादल। २. मोथा। नागरमोथा [को०]।

अंबुवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवाहिनी] १. नाव का का जल उलीचने या फेंकने का बरतन जो प्राय? काठ या कछुए के खोपड़े का होता है। २. जल लानेवाली स्त्री० [को०]।

अंबुवाही
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुवाहिन्] १. मेघ। बादल। २. मोथा। मृस्तक [को०]।

अंबुविस्त्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुविस्त्रवा] घृतकुमारी। ग्वारपाठा। घी- कुआँर [को०]।

अंबुबिहार
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुबिहार] जलक्रिड़ा। जलविहार [को०]।

अंबुवेतस
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुवेतस] एक प्रकार का बेत जो पानी में होता है। बड़ा बेत। विशेष— यह बेत पतला पर बहुत दृढ़ होता है। इसकी छड़िय़ाँ बहुत उत्तम बनती हैं। दक्षिण बंगल, उड़ीसा, कर— नाटक, चटगाँव, वर्मा आदि में यह पाया जाता है।

अंबुशायी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुशायिन्] जल या समुद्र में शयन करने वाले, विष्णु। नारायण।

अंबुशिरिषिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुशिरीषिका] एक विशेष पेड़। जलशिरीष। ढ़ाटोन। टिटिनी। [को०]।

अंबुशिरीषी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुशिरीषी] दे० 'अंवुशिरीषिका' [को०]।

अंबुसर्पिणी
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुसर्पिणी] जोंक।

अबुसेचनी
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुसेचनी] जल सीचनें या उलीचने का पात्र [को०]।

अंबूक
संज्ञा पुं० [सं० अम्बूक] लकुच। बड़हर [को०]।

अंबूकृत
वि० [सं० अम्बूकृत] निष्ठीवनयुक्त उच्चरित (भाषा या कथन) [को०]।

अंबूज पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुज] कमल। अंबुज। उ०— परे सीस भारं चहूआन धारं मनों इभ्भ झंकोर अंबूज झारं। —पृ० रा०, २४। ७६१।

अंबूजी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बुज +हि० ई (प्रत्य०) कमलिनी। कुमुदिनी। उ०— अनुदिन काम बिलास बिलासिनि, बै० आलि तू अंबुजी। —सूर०, १०। २८२६।

अंबूदीप पु
संज्ञा पुं० [सं० अम्बुद्बीप, प्रा०, अंबूदीअ] कबीर साहित्य में अर्णित एक द्बीप का नाम। उ०— अंबूदीप हंम को थाना।—कबीर सा०, पृ०, ५।

अंबोह
संज्ञा पुं० [फा०] भीड़भाड़। जमघट। झुंड़। समाज। समूह। उ०— इक दम की पैठ लगी है यह अंबोह मजा चरचा कहिये।—राम०, धर्म, पृ०, ६३।

अंब्रित पु
संज्ञा पुं० [सं० अमृत] सुधा। अमृत। उ०— पुहुप पंक रस अंब्रित, साँधे। केइँ ये सुरँग खिरौरा बाधे। —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६२।