विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/अप

विक्षनरी से

क्रि० अ० [हिं० अन्हान से नाम०] स्नान करना । नहाना । उ०—हम लंकेश दूत प्रतिहारी समुद तीर कौं जात अन्हाए । —सूर०, ९ ।१२० ।

अपंकिल
वि० [सं० अपङ्किल] १. पंकरहित । सूखा । बिना कीचड़ का ।२. शुद्ध । निर्मल ।

अपंग
वि० [सं० अपाङ्ग=हीनाङ्ग] १ .अंगहीन । न्यूनांग ।२. लँगड़ा । लूला । ३. काम करने में अशक्त । बेबस । असमर्थ । उ०—आपुन लोभ अस्त्र लै धावत, पलक कवच नहि अग— हाव भाव सर लरत कटाच्छिनि, भृकुटी धनुष अपंग ।— सुर०, १० ।२८८ ।

अपंचीकृत
वि० [सं० अपन्च्चीकृत] पंच महाभूतों का अभिन्न सुक्ष्म रुप जीसका पंचीकरण न हुआ हो ।

अपंजीकृत
वि० [सं० अ=नहीं+ पन्जीकृत] जो सुची, बही, रजिस्टर या खाते में दर्ज न हो ।

अपंडित
वि० [सं० अपण्डि़त] मूर्ख । निरक्षर । ज्ञानहीन ।

अपंडी
वि० [सं० अ+पिण्डिन्] पिंड या शरीर से रहित (ईश्वर) । उ०—बसै अपंड़ी पंड में ता गति लषै न कोइ ।—कबीर ग्रं०, पृ० १८ ।

अपंथ
संज्ञा पुं० [सं० अ=बुरा+हिं०=पंथ] दे० 'अपथ' ।उ०— कहै कबीर यह अचरज बाता । उलटी रीति अपंथ जग जाता ।—कबीर सा०, पृ० ४३१ ।

अपंपर पु †
वि० [हिं०] दे० 'अपरंपार' । उ०—(क) प्रथम सुमर इण विध परमेश्वर । पुरण ब्रह्म प्रताप अपंपर ।—रा०, रु०, पृ० ३ । (ख) नमो अविगत नमो आपु नमो पार अपंपरम् ।— राम० धर्म०, पृ० ५१ ।

अप?प्रवेशन
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार पानी में डुबाकर मारने का दंड़ जो राजविद्रोही ब्राह्मणों को दिया जाता था ।

अप्
संज्ञा पुं० [सं०] १ . जल । पानी । २. वायु । हवा (को०) । ३. चित्रा नक्षत्र [को०] ।

अप (१)
उप० [सं०] उलटा । विरुद्ध । बुरा । हीन । अधिक । विशेष—यह उपसर्ग जिस शब्द के पहले आता है, उसके अर्थ में निम्नलिखित विशेषता उत्पन्न करता है ।—१ . निषेध । जैसे- अपकार । अपमान । २.अपकृषअट (दूषण) । जैसे—अपकर्म । अपकीर्ति । ३. विकृति । जैसे—अपकुक्षि । अपांग । ४. विशे- षता । जैसे—अपकलंक । अपहरण ।

अप (२)
सर्व० [हिं०] 'आप' का संक्षिप्त रुप जो यौगिक शब्दों में आता है । जैसे—अपस्वार्थि । अपकाजी । उ०—दृगनि के मग लै मोहन कहियाँ । धरि के अप अपने हिय महियाँ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २९५ । यौ.—अपआप=अपने आप । खुद व खुद । उ०—नाला अपआप सागर हुआ । काहे के कारण रोता है कुवा ।—दक्खिनी, पृ० १ ।

अप (३)पु
संज्ञा पुं० [सं० अप्] जल । पानी । उ०—रज अप अनल अनिल नभ जड़ जानत सब कोई ।—स० सप्तक, पृ० १६ ।

अपक
संज्ञा पुं० [सं० अप्+ क] पानी । जल । (ड़ि०) ।

अपकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १ . अनिष्ट कार्य । २. दुष्टाचार । दुराचार । ३. बुरा बर्ताव ।

अपकरुण
वि० [सं०] निठुर । निर्दयी । बेरहम । कठोरहृदय ।

अपकर्ता
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री अपकर्त्री] १ . हानि पहुँचानेवाला । हानिकारी । २. बुरा काम करनेवाला । पापी । ३ शत्रु [को०] ।

अपकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा काम । खोटा काम । कुकर्म । पाप । उ०—पति को धर्म इहै प्रतिपालै, युवती सेवा ही को धर्म । युवती सेवा तऊ न त्यागै जो पति कोटि करै अपकर्म ।— सूर (शब्द०) ।

अपकर्मा
वि० [सं० अपकर्मन्] दुष्कर्मी? भ्रष्टाचारी ।

अपकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १ . उत्कर्ष का विलोम । नीचे की ओर खिंचाव । गिराब । २. घटाव । उतार । कमी । ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के मूल्य वा गुण को कम समझना या बतलाना । बेकदरी । निरादर । अपमान ।

अपकर्षक
वि० [सं०] अपकर्ष करनेवाला । निरादर करनेवाला । जिससे अपमान होता हो ।

अपकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १ . अपमान । निरस्कार । बेकदरी । उ०— धन्य वन्य जन भी न सह सके यह अपकर्षण ।—साकेत, पृ० ४१९ । दे० 'अपकर्ष' ।

अपकर्षसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति के चौबीस भेदों में से एक । दृष्टांत में जो न्युनताएँ हों उनका साध्य में आरोप करना । जैसे यह कहना—'यदि' घट का सादृश्य शब्द में है तो जिस प्रकार घट का प्रत्यक्ष श्रवणेंद्रिय से नहीं होता, उसी प्रकार शब्द का भी श्रवणेंद्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता' ।

अपकर्षित
वि० [सं०] अपमानित । अपकृष्ट । हटाया गया [को०] ।

अपकलंक
संज्ञा पुं० [सं० अपकलङ्क] अमिट कलक । न मिटनेवाला कलंक [को०] ।

अपकल्मष
वि [सं०] १ . निष्पाप । २. निष्कलंक [को०] ।

अपकषाय
वि० [सं०] दे० 'अपकल्मष' [को०] ।

अपकाजी पु
वि० [हिं०अप+ काज] अपस्वार्थी । मतलबी । उ०— श्याम बिरह वन माँझ हेरानी । अहंकारि लंपट अपकाजी संग न रह्यो निदानी ।—सूर (शब्द०) ।

अपकार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपकारक अपकारी] १. अनिष्ठसाधना द्वेष । द्रोह । बुराई । अनुपकार । हानि । नुकसान । अनभल । अहित । उपकार का वेलोम । उ०—मम अपकारा कीन्ह तुम भारी । नारि बिरह तुम होब दुखारी ।—तुलसी (शब्द०) ।२. अनादर । अपमान । ३. अत्यातार । असदव्यवहार ।

अपकारक
वि० [सं०] १. अपकार करनेवाला । क्षति पहुँचानेवाला । हानिकारी । २. विरोधी । द्वेषी ।

अपकारी
वि० [सं०अपकारिन्] [स्त्रीअपकारिणी] १. हानिकारक । बुराई करनेवाला । अनिष्टसाधक । उ०—खल बिनु स्वारथ पर अपकारी ।—मानस,७ ।१२१ ।२. विरोधी । द्वेषी ।

अपकारीचार पु
वि० [सं०अपकार+ आचार] हानि पहुँचानेवाला । हानिकारी । विघ्नकारी । उ०—जे अपकारीचार, तिन्ह कहँ गौरव मान्य बहु । मन क्रम बचन लबार, ते बकता कलिकाल मँह ।—तुलसी (शब्द०) ।

अपकिरण
संज्ञा पुं० [सं०] बिखराना । छितराना [को०] ।

अपकीरति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अपकीर्ति' । उ०—मै अपनी अपकीरति को डर बात सहौं सब दैव सहावौ ।—हम्मीर०, पृ० २० ।

अपकीर्ण
वि० [सं०] बिखेरा या छितराया हुआ ।

अपकीर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपयश । अयश । बदनामी । निंदा ।

अपकृत (१)
वि० [सं०] १. जिसका अपकार किया गया हो । जिसे हानि पहुँची हो । जिसकी बुराई की गई हो । २. अपमानित । बदनाम । ३. जिसका विरोध किया गया हो । उपकृत का उलटा ।

अपकृत (२)
संज्ञा पुं० बुराई । हानि । क्षति [को०] ।

अपकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपकार । हानि । बुराई । २. अपमान । निंदा । बदनामी ।

अपकृष्ट
वि० [सं०] १. गिरा हुआ । पतित । भ्रष्ट । २. अधम । नीच । निंद्य । ३. घृणित । बुरा । खराब । यौ.—अपकृष्टचेतन=बुरे विचारोंवाला ।

अपकृष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधमता । नीचता । २. बुराई । खराबी ।

अपकौशली
संज्ञा स्त्री० [सं०] समाचार । संवाद । सूचना [को०] ।

अपक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कच्चापन । अपरिपक्व । २. अजीर्ण [को०] ।

अपक्रम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यतिक्रम । क्रमभंग । अनियम । गड़बड़ा उलट पलट । २. दौड़ना । पीछे हटना [को०] । ३. पीछे हटने का स्थान या सीमा (को०) । ४. (समय) बीतना । व्यतीत होना (को०) ।

अपक्रम (२)
वि० अव्यवस्थित । क्रमविहीन [को०] ।

अपक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपक्रम' [को०] ।

अपक्रमी
वि० [सं० अपक्रमिन्] १. जानेवाला । हटनेवाला । २. तीव्रता से न जानेवाला [को०] ।

अपक्राम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपक्रम' [को०] ।

अपक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षति । दुष्कर्म । अहित । २. ऋण- परिशोध [को०] ।

अपक्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] गाली देना । निंदा करना । कुवाच्य कहना [को०] ।

अपक्व
वि० [सं०] १. बिना पका हुआ । कच्चा । उ०—फल अपक्व जो वृक्ष ते तोर लेत नर कोय । फल को रस पावै नहीं, नास बीज को होय ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २०१ । २. अनभ्यस्त । असिद्ध । अनुभवहीन । यौ.—अपक्वबुद्धि ।

अपक्वकलुष
संज्ञा पुं० [सं०] शैव दर्शन के अनुसार सकल के दो भेदों में से एक । बद्धजीव, जो संसार में बार बार जन्म ग्रहण करता है ।

अपक्वज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक में ज्वर की वह दशा जिसमें लार गिरना, उबकाई आना, अरुचि, आलस्य देह का जकड़ना आदि उपद्रव होते है ।

अपक्वता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पका हुआ न होना । कच्चापन । २. अनभ्यस्तता । असिद्धता ।

अपक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो राज्य के पक्ष में न हो । २. जिससे राज्य को कोई लाभ न हो । ३. वह जिसका किसी से हेलमेल न हो । वह, जो किसी के साथ मिल जुलकर न रह सकता हो । निष्पक्ष । उ०—लक्ष अलक्ष अद्रक्ष न दक्ष, न पक्ष अपक्ष, न तुल न भारौ ।—सुंदर ग्रं० पृ० ६४४ । विशेष—चाणक्य ने ऐसे मनुष्यों के लिये लिखा है कि उन्हैं कहीं अलग अपना उपनिवेश बसाने के लिये भेज देना चाहिए ।

अपक्ष (२)
वि० [सं०] १. पंखहीन । पंखरहित । २. निष्पक्ष (को०) ।

अपक्षपात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षपात का अभाव । न्याय । खरापन ।

अपक्षपात (२)
पक्षपातविहीन । निष्पक्ष । खरा । उ०—परंतु नौशेरवाँ खजांची के इस अपक्षापात काम से ऐसा प्रसन्न हुआ कि उसे निहाल कर दिया ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २२४ ।

अपक्षपाती
वि० [सं० अपक्षपातिन्] [स्त्री० अपक्षपातिनी] पक्षपात- रहित । न्यायी । खरा ।

अपक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपक्षीण] १. छीजना । ह्रास । नाश । २. कृष्णपक्ष [को०] ।

अपक्षिप्त
वि० [सं०] १. अपक्षेपण की क्रिया द्वारा पलटाया वा फेंका हुआ । २. फेंका हुआ । गिराय़ा हुआ । पतित ।

अपक्षीण
वि० [सं०] नष्ट । छीजा हुआ । विनष्ट [को०] ।

अपक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपक्षेपण' [को०] ।

अपक्षेपण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपक्षिप्त] १. फेंकना । पलटाना । २. गिराना । च्युत करना । ३. पदार्थविज्ञान के अनुसार प्रकाश, तेज और शब्द की गति में किसी पदार्थ से टक्कर खाने से व्यावर्तन होना । प्रकाशादि का किसी पदार्थ से टकराकर पलटनाय़ ४. वैशेषिक शास्त्रानुसार आकुंचन, प्रसारण आदि पाँच प्रकार के कर्मों में से एक ।

अपखोरा †
संज्ञा पुं० [फा० अबखोरा, हिं० अबखोरा] जल पीने का पात्र या बरतन ।

अपगंड
वि० [सं० अपगण्ड] दे० 'अपोगंड' [को०]

अपग (१)
वि० [सं०] १. जानेवाला । दूर हटनेवाला [को०] ।

अपग (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अपगा] सारिता । नदी ।—अनेकार्थ० पृ० ४४ ।

अपगत
वि० [सं०] १. पलायित । भागा हुआ । पलटा हुआ । २. दूरीभूत । हटा हुआ । गत । उ०—अपगत खे सोई अवनि सो पुनि प्रगट पताल ।—स० सप्तक, पृ० १५ ।३ मरा हुआ । मृत्त [को०] । यौ.—अपगतव्याधि=रोगमुक्त ।

अपगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गति । अधोगति । दुर्भाग्य [को०] ।

अपगम
संज्ञा पुं० [सं०] १. वियोग । अलग होना । २. दूर होना । भागना । ३. मृत्यु । मरण [को०] ।

अपगमन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपगम' [को०] ।

अपगर
संज्ञा [सं०] पु० १. निंदा । २. वह जो निंदा करे । निंदक [को०] ।

अपगर्जित
वि० [सं०] गर्जनशून्य (बादल) । गर्जनारहित [को०] ।

अपगल्भ
वि० [सं०] १. भीत । भीरु । घबड़ाया हुआ (को०) । २. पार्श्वीय । बगल का [को०] ।

अपगा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आपगा] नदी ।

अपगीत
वि० [सं० अप+ गीत] बुरा कहा जानेवाला । निंदनीय (को०) । उ०—मै ही हुँ वह महानिंद्य, अविनीत हो होगा मुझ सा और कौन अपगीत हा—शकुं०, पृ० ५२ ।

अपगुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोष । ऐब [को०] । २. निर्गुण । गुण अवगुण से रहित [को०] ।

अपगोपुर
वि० [सं०] द्वारविहीन । द्वाररहित (नगर)[को०] ।

अपघन (१)
वि० [सं०] मेघरहित । निरभ्र [को०] ।

अपघन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का अंग (हाथ पैर आदि) [को०] ।

अपघात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हत्या । हिंसा । २. वंचना । बिश्वास- घात । धोखा । उ०—जीर्ण तुमको जान सहसा तात । कर गया क्या काल यह अपघात ।—साकेत, पृ १७७ ।

अपघात (२)
संज्ञा पुं० [हिं० अप+सं० घात] आत्महत्या । आत्मघात । उ०—(क) कहुरे कुँअर मोंसे सत बाता । काहे लागि करसि अपघता ।—जायसी (शब्द०) । (ख)—लाजन को मारो राजा चाहैं अपघात कियो जियो नहिं जात भाक्ति लेशहुँ न आयो है ।—प्रिया (शब्द०) ।

अपघातक
वि० [सं०] १. विनाश करनेवाला । घातक । २. विश्वास- घाती । वंचक । धोखा देनेवाला ।

अपघाती
वि० [सं० अपघातिन्] [वि० स्त्री० अपघातीनी] १. घातक । विनाशक । २. विश्वासघाती । वंचक ।

अपच (१)
संज्ञा पुं० [हिं०अ+ पच] न पचने का रोग । अजीर्ण । बदहजमी ।

अपच (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाककार्य में असमर्थ व्यक्ति । वह जिसे अपने लिये पकाना न आता हो । २. बुरा पाचक [को०] ।

अपचय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपचयी] १. क्षति । हानि । २. व्यय । कमी । नाश । ४. पूजा । संमान ।

अपचरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोषयुक्त आचरण । दुराचार । बुरा कर्म ।

अपचरित (२)
वि० १. गया हुआ । प्रस्थित । २. मृत [को०] ।

अपचरितप्रकृति
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजा जिसकी प्रजा अत्याचार से पीड़ित हो [को०] ।

अपचायित
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोबीला । जिससे लोग डरें । २. पूजित । संमानित । आदृत [को०] ।

अपचायी
वि० [सं० अपचायिन्] बड़ों का आदर संमान न करने वाला [को०] ।

अपचार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपचारी] १. अनुचित बर्ताव । बुरा आचरण । कुव्यवहार । उ०—बिबुध बिमल बानी गगन हेतु प्रजा अपचारु । रामराज परिनाम भल किजिय बेगि बिचारु ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ।९२ ।२. अनिष्ट । अहित । बुराई । ३. अना- दर । निंदा । अपयश । ४. कुपथ्य । स्वाथ्यनाशक व्यवहार । ५. अभाव । ६. भूल । भ्रम । दोष । ७. मृत्यु । विनाश (को०) ।

अपचारक
वि० [सं०] अपचार करनेवाला [को०] ।

अपचारी
वि० [सं० अपचारिन्] [वि० स्त्री० अपचारिणी] विरुद्ध आचरण करनेवाला । दुराचारी । दुष्ट ।

अपचाल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप+ हिं० चाल] कुचाल । खोटाई । नट- खटी । उ०—वारि कै दान सँवार करौ अपने अपचाल कुचाल ललू पर ।—रसखान (शब्द०) ।

अपचित
वि० [सं०] १. पूजित । संमानित । आदृत । २. क्षीण । दुर्बल । कमजोर [को०] ।

अपचिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हानि । क्षय । ह्रास । नाश । २. व्यय । ३. दंड देना । ४. पृथक्करण । ५. मरीचि की कन्या का नाम । ६. संमान करना ७. पूजा [को०] ।

अपची
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंडमाला रोग का एक भेद । गंडमाला की वह अवस्था जब गाँठे पुरानी होकर पक जाती है और जगह जगह पर फोड़े निकलते और बहने लगते हैं ।

अपचेता
वि० [सं० अपचेतस्] कंजूस । सूम । जो धन न स्वयं खर्च करे न करने दे [को०] ।

अपच्छत्र
वि० [सं०] छत्रविहीन । छत्ररहित [को०] ।

अपच्छाय (१)
वि० [सं०] १छायाविहीन । २. दूषित या बुरी छायावाला । जो चमकदार न हो । धुँधला । कांतिहीन [को०] ।

अपच्छाय (२)
संज्ञा पुं० देवता ।

अपच्छाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुरी छाया । भूत प्रेंत की छाया [को०] ।

अपच्छी (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अ=नहीं+पक्षी=पक्षवाला] विपक्षी । विरोधी । शत्रु । गैर ।

अपच्छी (२)पु
बिना पंख का । पंखरहित ।

अपच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. काट देना । अलग विलग कर देना । २. हानि । ३. बाधा । ४. वह जो टूट गया हो । भंग [को०] ।

अपच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपच्छेद' [को०] ।

अपच्युत
वि० [सं०] निपतित । गिराहुआ । २. बहा हुआ । द्रवित । ३. विनष्ट [को०] ।

अपछरा पु
संज्ञा पुं० [सं० अप्सरा, प्रा० अच्छरा] १. अप्सरा । उ०— कल हंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचाहीं अपछरा ।— तुलसी (शब्द०) । ३. हिंदुस्तान में रंड़ियों की एक जाति ।

अपजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] पराजय । हार ।

अपजस पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपयश' । उ०—चिंता यह मोहिं अपारा । अपजस नहिं होय तुम्हारा ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१९ ।

अपजात
संज्ञा पुं० [सं०] माता पिता की अपेक्षा हीनगुण पुत्र । कपूत [को०] ।

अपजोग पु
संज्ञा पुं० [सं अप+ योग] बुरा योग । बुरा संबंध । बुराई । उ०—सब खोटे मधुबन के लोग । जिनके संग स्यामसुंदर सखि सीखे हैं अपजोग । —सूर०, स, १० ।३५९० ।

अपज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १.अस्वीकार । इनकार । नटना । नहीं करना ।२.संगोपन । छिपाव । दुराव ।

अपज्य
वि० [सं० अप + ज्या] शिंजिनीहीन । प्रत्यंचारहित [को०] ।

अपट पु
वि० [सं० अपटु] जो चतुर न हो । अपटु । उ०—मेरे हेरत बेस कपट कौ । रहिहै नहीं पूतना अपट कौ ।—नदं० ग्रं०, पृ० २३८ ।

अपटन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उबटन' ।

अपटांतर
वि० [सं० अपटान्तर] १. जो पाट या पर्देद्वारा विभक्त न हो । २. अलग विलग नहीं । संयुक्त । मिलाजुला [को०] ।

अपटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परदा । कांडपट । २. कपड़े की दीवार । कतना ३. आवरण । आच्छादन ।

अपटीक
वि० [सं०] १. व्याख्या करने के ज्ञान से रहित । वस्त्ररहित [को०] ।

अपटीक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] नाटक में परदा हटाकर पात्रों का रंग- भूमि में सहसा प्रवेश ।

अपटु
वि० [सं०] १. जो पटु न हो । कार्य करने में असमर्थ । २. गावदी । सुस्त । आलसी । ३. रोगी । ४. ज्योतिष के अनुसार (ग्रह) जिसका प्रकाश मंद हो जाय ।

अपटुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पटुता का अभाव । अकुशलता । अनाड़ीपन ।

अपट्ठमान पु
वि० [सं० अपट्यमान] १. जो पढ़ा न जाय ।न पढ़ने योग्य । उ०—अपट्ठमान पापग्रंथ, पट्ठमान वेद है ।—केशव (शब्द०) ।

अपटूडेट
वि० [अं० अप—टु—डेट] रहन सहन या विचार में समय के अत्यंत अनुकूल । उ०—फैशन के संबंध में अपटुडेट खबर रखते थे ।—संन्यासी, पृ० ९२ ।

अपठ
वि० [सं०] १. अपढ । जो पढ़ा न हो । २. मूर्ख । ३. बुरा । पढ़नेवाला । कुपाठक (को०) ।

अपठित
वि० [सं०] १. अपढ़ [को०] । २. जो पढ़ा नहीं गया [को०] ।

अपट्ठ्यमान
वि० [सं०] १. जो पढ़ा न जाय [को०] २. न पढ़ने योग्य [को०] ।

अपडर पु
संज्ञा पुं० [सं० अप+ हिं० डर] भय । शंकी । उ०— समुझि सहम मोहि अपडर अपने । सो सुधि कीन्ह राम नहिं सपने ।—तुलसी (शब्द०) ।

अपडरना पु
क्रि० अ० [हिं० अपडर से नाम] भयभीत होना । डरना । शंकित होना । उ०—(क) भागे मदमाद चोर भोर जानि जातुधान काम क्रोध लोभ छोम निकर अपडरे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे ।—तुलसी (शब्द०) ।

अपड़ना पु
क्रि० अ० [सं० अ+ पत्] पहुँचाना । उ०—छोठी वीख न आपड़ाँ, लाँबी लाज मरेहि । सयण बटाऊ बालरे, लंबउ साद करेहि ।—ढोला०, दु० ३८४ ।

अपड़ाना पु
क्रि० अ० [सं० अपरसे नाम०] खींचातानी करना । उ०—मन जो कहो करै री माई । निलज भई तन सुधि बिसराई गुरुजन करत लराई । इत कुलकानि उतै हरि को रस मन जो अति अपढ़ाई ।—सूर (शब्द०) ।

अपड़ाव पु
संज्ञा पुं० [सं० अपर, हिं० परावा=पराया] [क्रि० अपड़ाना] झगड़ा । रारा । तकरार । उ०—(क) हँसत कहत की धौं सतिभाव । यह कहती औरे जो कोऊ तासो मैं करती अपड़ाव । सूरदास यह मोंहि लगावत सपनेहुँ जासों नहिं दरसाव ।—सूर (शब्द०) । (ख) गोपी इहै करत चबाउ । सूर कालिहि प्रगट कैहै करन दे अपड़ाउ ।—सूर (शब्द०) ।

अपढ़ार
वि० [सं० अप+ हिं० ढार=ढलना] १. बेढंगे तौर से ढलनेवाला । उ०—अरु जौ अपढार दरै न ढरै, गुन त्यौ तंकि लागत दोष महा ।—घनानंद, पृ० १२६ । २. सरलता से ढलनेवाला । उ०—यह रावरीयै रसरीती अजू अपढार ढरौ इत पासों कहौं ।—घनानंद, पृ० १४० ।३. आपसे आप ढलनेवाला । उ०—जमुना जस जैसे मन भायो । जमुना ही अपढार कहायो ।—घनानंद, पृ० १८५ ।

अपढ़
वि० [सं० अपठ] बिना पढ़ा । मूर्ख । अनपढ़ ।

अपण्य
वि० [सं०] न बेचने योग्य । जिसके बेचने का धर्मशास्त्रा में निषेध है ।

अपतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० अपतन्त्र] वायु वके प्रकोप से होनेवाला एक रोग । विशेष—इस रोग में शरीर टेढा़ हो जाता है, सिर और कनपटी में पीड़ा होती है, साँस कठिनाई से ली जाती है, गले में घराघराहट का शब्द होता है औऱ आँखे फटी पड़ती हैं ।

अपतंत्रक
संज्ञा पुं० [सं० अपतन्त्रक] दे 'अपतंत्र' [को०] ।

अपत (१) पु
वि० [सं० अ+पत्र प्रा० पत्त, हिं पत्ता] १. पत्रहीन । बिना पत्तों का । उ०—जिन दिन देखे वे कुसुम गई सो बीति बहार । अब अलि रही गुलाब की अपत कँटीली डार ।— बिहारी (शब्द०) । २. आच्छादनरहित । नग्न ।

अपत (२)पु
वि० [अ सं० =नहीं+हिं० पत=लज्जा] लज्जारहित । निर्लज्ज । उ०—लुटे सीखिन अपत करि सिसिर सुसेज बसंत । दै दल सुमन किए सो भल सुजस लसंत ।—दीनदयाल (शब्द०) ।

अपत (३) पु
वि० [सं० अपात्र, प्रा० अपत] अधम । पातकी । नीच । उ०—(क) राम राम राम राम राम जपत । पावन किये रावन रिपु तुलसी हू से अपत ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) प्रभु जु हौं तो महा अधर्मी । अपत, उतार, अभागौ, कामी, विषयी निपट, कुकर्मी ।—सुर०, १ ।१८६ ।

अपत (४)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ=नहीं+पति=प्रतिष्ठा, हिं० पत] अप्रतिष्ठा । बेइज्जती । दुर्दशा । उ०—जौ मेरे दीनदयाल न होते । तौ मेरी अपत करत कौरवसुत होत पंडवनि ओते ।— सूर० १ ।१५९ ।

अपत (५)पु
संज्ञा पुं० [सं० आपत्] विपत्ति । आपत्ति ।

अपतई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० आपत्र, पा० अपत्त+ हिं० ई (प्रत्य०)] १. निर्लज्जता । बेहयाई । ढिठाई । उत्पात । उ०—नयना लुब्धे रुप के अपने सुख माई । अतिहि करी उन अपतई हरि सों समताई । सूर (शब्द०) ।२.चंचलता । उ०—कान्ह तुम्हारी माय महाबल सब जग अपजय कीन्हों (हो) ।सुनि ताकी सब अपतई सुक सनकादिक मोहे (हो) । नेक दृष्टि पथ पड़ि गए शंकर सिर ठोना लागे (हो) ।—सूर (शब्द०) ।

अपतर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीमारी के समय का उपवास । लंघन । २. तृप्ति का अभाव [को०] ।

अपतह पु
सर्व० [सं० आत्मत? प्रा० अप्पतह] अपने आप । खुद ब खुद । स्वयं । अपने नई (को०) । उ०—हम अपतह अपनी पति खोई, हमरै खोज परहु मति कोई ।—कबीर ग्रं०, पृ० २८७ ।

अपतानक
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जो स्त्रियों को गर्भपात तथा पुरुषों को विशेष रुधिर निकलने अथवा भारी चोट लगने से होता है । इसमें बार बार मूर्छा आती है, नेत्र फटते हैं तथा कंठ में कफ एकत्रित होकर घरघराहट का शब्द करता है ।

अपताना पु
संज्ञा पुं० [हिं० अप=अपना+ताना] जंजाल । प्रपंच । उ०—दारागार पुत्र अपताना । ततधन मोह मानि कल्याना ।— विश्राम (शब्द०) ।

अपति (१) पु
वि० स्त्री० [<सं अ=नहीं+पति] १. बिना पति या स्वामी की । विधवा । २. अविवाहित । कुमारी (को०) ।

अपति (२)
वि० [सं० अ=बुरा+पत्ति=गति] पापी । दुष्ट दुराचारी । उ०—कहा करौ सखि काम को हिय निर्दयपन आज । तनु जारत पारत निपत अपति उजारत लाज ।—पद्माकर (शब्द०) ।

अपति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अ=नहीं.+पत=प्रतिष्ठा] अप्रतिष्ठा । दुर्गति । दुर्दशा । उ०—(क) पति बिनु पतिनी पतित न मग में । पति बिनु अपति नारि की जगल में ।—सबल (शब्द०) । (ख) पैये निसि बासर कलंकित न अंक सम, बरनै मयंक कविताई की अपति होइ ।—भिखारी ग्रं०, पृ० ९६ ।

अपतिक
वि० [सं०] १.पतिहीन ।२.अविवाहित । कुमारी ।३. मालिक या स्वामीहीन [को०] ।

अपती
संज्ञा स्त्री० [देश०] प्राय? एक बालिश्त चौड़ा एक तख्ता जो नाव की लंबाई में मरिया के दोनों सिरों पर लगाया जाता है । (मल्लाह) ।

अपतोस पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अफसोस' ।

अपत्त †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अपत ४' ।

अपत्नी
वि० [सं०] अविवाहिता । कुमारी । जो पत्नी न हो । जिसका पति न हो [को०] ।

अपत्नीक
वि० [सं०] जिसकी पत्नी न हो । पत्नीविहीन । स्त्रीरहित [को०] ।

अपत्य
संज्ञा पुं० [सं०] संतान (पुत्र या कन्या) । उ०—मार्ग है शत्रुघ्न दुर्गम सत्य, तुम रहो उनके यथार्थ अपत्य ।—साकेत, पृ० १७५ । यौ०—अपत्यकाम । अपत्यजीव । अपत्यदा । अपत्यपथ । अपत्यविक्रयी ।

अपत्यकाम
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपत्यकामा] संतानेच्छुक । पुत्र की इच्छा रखनेवाला [को०] ।

अपत्यजीव
संज्ञा पुं० [सं०] एक पौधा जिसे पुत्रजीवी भी कहते है [को०] ।

अपत्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाल्यावस्था । शैशव [को०] ।

अपत्यद
वि० [सं०] पुत्र देनेवाला (मंत्र) [को०] ।

अपत्यदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भदात्री नाम का पौधा [को०] ।

अपत्यपथ
संज्ञा पुं० [सं०] योनि [को०] ।

अपत्यविकत्रयो
वि० [सं० अपत्यविक्रयिन्] १. संतान बेचनेवाला । २. रुपए लेकर कन्या को विवाह के लिये बिचनेवाला । बेटी- बेचवा [को०] ।

अपत्यशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपत्य वा संतान जिसका शत्रु हो । केकड़ा । विशेष—अंडा देने के अपरांत केकड़ी का पेट फट जाता है और वह मर जाती है । २. अपत्य का शत्रु । वह जो अपने अंड़े बच्चे को खा जाय । साँप ।

अपत्र (१)
वि० [सं०] पत्रविहीन । पत्तों से रहित । उ०—बारि बेलि से फैल अमूल, छा अपत्र सारिता के कूल, विकसा औ सकुचा नवजात बिना नाल के फेनिल फूल ।—पल्लव, पृ० ३२ ।२. पंखरहित । पक्षहीन (को०) ।

अपत्र (२)
संज्ञा पुं० १. बाँस का कल्ला या पूती । २. वृक्ष जिसके पत्ते गिर गए हो । ३. चिड़िया जिसे पंख न हों [को०] ।

अपत्रप
वि० [सं०] निर्लज्ज । ढीठ । धृष्ट [को०] ।

अपत्रपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लज्जा । संकोच । २. व्याकुलता । आकुलता [को०] ।

अपत्रपा
संज्ञा स्री० [सं०] दे० 'अपत्रपण' [को०] ।

अपत्रस्त
वि० [सं०] अत्यंत भयग्रस्त । भय से घबराया हुआ [को०] ।

अपत्रिका
वि० [सं०] पत्तों से हीन । पत्रविरहित (को०) । उ०— हे विमुख, सदा मैं मुखर पीन । आऔ अपत्रिका के मर्मर ।— गांतिका (भू०), पृ० १३ ।

अपथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मार्ग जो चलने योग्य न हो । बीहड़ राह । विकट मार्ग । उ०—माधौ नैकु हटकौ गाइ । भ्रमत निसि बासर अपथ पथ अगह, गहि नहिं जाइ ।—सुर १ ।८४ । २. कुपथ । कुमार्ग । उ०—(क) हरि हैं राजनीति पढ़ि आए । ते क्यों नीति करैं आपुन जिन और न अपथ छुड़ाए ।—सुर (शब्द०) । (ख) गनत न मन पथ अपथ लखि बिथुरे सुथरे बार ।—बिहारी (शब्द०) ।३.मार्ग या पथ पथ का अभाव (को०) ।४.योनि । अपत्यपथ (को०) ।५.किसी प्रचलित मत वा सिद्धांत का दृढ़ापूर्वक विरोध (को०) ।

अपथ (२)
वि० मार्गहीन । पथविहीन (को०) ।

अपथगामी
वि० [सं० अपथगमिन्] १. कुमार्गगामी । बुरे रास्ते पर जानेवाला ।२.चरित्रहीन [को०] ।

अपथप्रपन्न
वि० [सं०] १. अनुचित मार्ग पर जानेवाला (व्याक्ति) । २. दुरुपयोग या दुष्कार्य में लगा हुआ । (धन) [को०] ।

अपथ्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] व्यवहार जो स्वास्थ्य का हानिकारक हो । रोग बढ़ानेवाला आहार विहार ।

अपथ्य (१)
वि० १. जो पथ्य न हो । स्वास्थ्यनाशक । २. अहितकर । ३. बुरा । खराब । अयुक्त (को०) ।

अपथ्यनिमित्त
वि० [सं०] अनुचित खानपान से उन्पन्न [को०] ।

अपद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिना पैर के रेगनेवाले जंतु । जैसे—साँप, केचुआ, जोंक आदि । उ०—राजा इक पंड़ित पौरि तुम्हारी । अपद दुपद पसु भाषा बूझत अबिगत अल्प अहारी ।—सूर० ८ ।१४ ।२. गलन या बुरा स्थान (को०) ।३. आकाश नभोमंड़ल (को०) ।४. व्याकरण में शब्द जो पदसंज्ञक नहीं है (को०) ।

अपद (२)
बि० १. बिना पैर का पादाविहीन । बिना किसी पद या ओहदे का ।

अपद (३)पु
क्रि वि, बिना पद या अधिकार के ।

अपदम
वि० [सं०] १.अत्मनियंत्रणहीन ।२.जिसकी स्थिति अस्थिर या परिवर्तनशील हो [को०] ।

अपदरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्य वृक्ष के आश्रय में पनपनेवाला पौदा [को०] ।

अपदरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपदरहा' [को०] ।

अपदव
वि० [सं०] जंगल की आग मुक्त । दावाग्निमुक्त [को०] ।

अपदस्थ
वि० [सं०] स्थान वा पद से हटाया हुआ । पदच्युत । उ०— इधर मौर्य कारगांर में, वररुचि अपदस्थ; नागरीक लोग नंद की उच्छृं खलताओं सें असंतुष्ट है ।—चंद्र० पृ० १५७ ।

अपदांतर (१)
वि० [सं० अपदान्तर] १. मीलाजुला । संयुक्त । अव्यवहित । २.समीप । संनिकट ।३.समान । बराबर ।

अपदांतर (२)
क्रि० वि० शीघ्र । जल्द । तत्क्षण ।

अपदाँव पु
संज्ञा पुं० [सं० अप=बुरा+हि० दाँव] बुरा दाँव । चालबाजी । कुघात (को०) । उ०—दूसरै आइ कै इंद्रियनि लै गयै, ऐसौ अपदाँव, सब इनहि कीन्हे । मैं कहयौ नैन मौकौ सँग देहिंगे, इनहु लै जाइ हरि हाथ हीन्हें ।—सूर० १० ।२२४० ।

अपदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिशुद्ध आचरण । सदाचारी जीवन । २. उत्कृष्ठ कार्य । ३. पुर्णात? संपन्न कार्य [को०] ।

अपदार्थ (१)
वि० [सं०] तुच्छ । नाचीज । उ०—अवकाश शून्य फैला है, है शक्ति न और सहारा । अपदार्थ तिरुँगा मै क्या, हो भी कुछ कूल कीनारा—आँसू, पृ० ४१ ।

अपदार्थ (२)
संज्ञा पुं० १. अस्तित्व का अभाव । २. तुच्छता । ३. वाक्य में प्रयुक्त शब्द के ठीक अर्थ का अभाव या न होना [को०] ।

अपदिष्ट
वि० [सं०] तर्कना या बहाने से कथित य़ा प्रयुक्त [को०] ।

अपदेखा पु
वि० [हि० अप=अपने को+ देखा= देखानेवाला] १. अपने को बड़ा माननेवाला । अत्मश्लाधी । घमंड़ी । २. स्वार्थी उ०—अपदेखा जे अहहि तिनाहि हित गुनि मुँह जोहहिं (शब्द०) ।

अपदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्ट देव । २. दैत्य । राक्षस । असुर । उ०—अरे कोई अपदेवता न हो ।—चंद्र० पृ० १७४ ।

अपदेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याज । मिस । बहाना । २. लक्ष्य । उद्देश्य । ३. अपने स्वरुप को छिपाना । भेष बदलना । ४. छल । धोखा (को०) । ५. अस्वीकार । इनकार (को०) । ६. प्रसिद्धि । ख्याति (को०) । ७. खतरा [को०] । ८. बुरा स्थान । खराब जगह(को०) । ९. निर्देश (को०) । १०. वैशेषिक न्याया के अनुसार पाँच अनुमान वाक्यों में दूसरा । हेतु [को०] ।

अपद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकृष्ट वस्तु । बुरी चीज । कुद्रव्य । कुवस्तु । २. बुरा धन ।

अपद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] छिपा हुआ दरवाजा । चोर दरवाजा । बगली खिड़की ।

अपधावन
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्छल । सत्य का अपलाप [को०] ।

अपधूम
वि० [सं०] धुआँ रहित । धूमविहीन [को०] ।

अपध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] निकृष्ट चितन । बुरा विचार । अनिष्ट चितन । जैन शस्त्रानुसार बुरा ध्यान । यह दो प्रकार का होता है, आर्त और रौद्र ।

अपध्वंस
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपध्यंसी, अपध्वस्त] १. अध?पतन । गिराव । २. बेइज्जती । नीरादर । अवज्ञा । अपमान । हार । नाश । क्षय ।

अपध्वंसज
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी माता का वर्ण या जाति पिता से ऊँचा हो । वर्णसंकर [को०] ।

अपध्वंसी
वि० [सं० अपध्वंसिन्] [वि०स्त्री अपध्वंसिनी] १. गिरानेवाला । अपमान करनेवाला । निरादरकारी । अपमानकारी । २. नाश करनेवाला । क्षयकारी । ३. पराजित करनेवाला । विजयी ।

अपध्वस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराजित । हारा हुआ । परास्त । २. निंदित । अपमानित । बैइज्जत किया हुआ । ३. नष्ट ।

अपध्वांत (१)
वि० [सं०अपध्वान्त] सदोष खर छोड़नेवाला । कर्कश स्वरवाला [को०] ।

अपध्वांत (२)
संज्ञा पुं० कर्कश । खर । गलत खर [को०] ।

अपन पु
सर्व० [सं०आन्मन?प्रा०अप्पणो=अपना] १.दे० 'अपना' । उ०— मंद मंद हँसि नंद महर तब । अपन तात सौं बात कही सब ।—नंद ग्रं० पृ० १९० ।२. हम । (मध्यप्रदेश) ।

अपनपो पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपनपौ' । उ०—हिताही परायो आपनो अहित अपनपो जाय ।बन की औषधि प्रिय लगत तन को दुख न सुहाय ।—श्रीनिबास ग्रं० पृ० २०७ ।

अपनपौ पु
संज्ञा पुं० [हि० अपना+पौ वा पा (प्रत्य०)] १. अपनायत । आत्मीयता । संबंध । उ० —भरतहिं बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौन । हेतु अपनपौ जानि जिय थकित भए धरि मौन ।—तुलसी (शब्द०) ।२. आत्माभाव । आत्म- स्वरुप । निज स्वरुप । उ०—(क) अपनपौ आपुही बिसरी ।— कबीर (शब्द०) । (ख) सब हित तजै अपनपौ चेते ।—तुलसी (शब्द०) । ३. संज्ञा । सुध । ज्ञान । उ०— (क) अदभुत इक चितयो रे सजनी नंद महरि के आँगन री । सो मैं निरखि अपनपौ खौयों गई मँथनियाँ माँगन री ।—सूर (शब्द०) । (ख) हरि के ललित बदन निहारु । सुमग उर दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ वारु । तुलसी (शब्द०) । ४. अहंकार । गर्व । ममता । अभिमान । उ०—सदा अपनपौ रहहिं दुराए । सब बिधि कुशल कुवेष बनाए । —तुलसी (शब्द०) । ५. आत्मा- गोख । मर्यादा । मान । उ०—तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनपो हारे । —तुलसी (शब्द०) ।

अपनय
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूर करना या हटाना । २. अपकार । ३. अनीति । अन्याय । ४. अर्थशास्त्र के अनुसार संधि आदि अचित रीति पर न करने का व्यवहार जिससे विपात्ति की संभावना हो जाती है [को०] ।

अपनयन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूर करना । हटाना । २. स्थानांतरित करना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना । ३. पक्षांतर करना । गणित के समीकरण में किसी राशि के एक पक्ष से दुसरे पक्ष में ले जाना । विशेष—जैसे—क+५=क+२५ =२क—क=२५-५ =क=२० इस क्रिया में पहले पक्ष के पाँच की दूसरे पक्ष में ले गए और दूसरे पक्ष के क को पहले पक्ष में ले आए । ४. खंडन । ५. (रोग आदि) अच्छा करना या दूर करना (को०) ।६. कर्ज अदायगी । ऋणपरिशोधन (को०) ।७. अन्याय ।

अपनर्मक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हार ।

अपना (१)
सर्व [सं० आत्मन?,प्रा० अप्पणी] [स्त्री० अपनी] [क्रि० अपनाना] १. निज का । ३. सबन्हौ बोल सुनाएसी सपना । सीतहि सेई करौ हित अपना ।— मानस, ५ । १० । विशेष—इसका प्रयोग तीनों पुरुषों में होता है । जैस— तुम अपना काम करों । मैं अपना काम करूँ । वह अपना काम करे । मुहा०—अपना उल्लू सीधा करना=किसी को मूर्ख बनाकर अपना कार्य निकालना । स्वार्थ सिद्ब करना । अपना करके छोड़ना= अपना बना लेना । उ०—हरिचंद अपनो करि छाँड़ू तब घर जाऊँ रे ।—भारतेंदु ग्र, भा० २. पृ० ३९८ ।अपना करना= अपना बनाना । अपने अनुकूल कर लेना ।जैसे,—मनुष्य अपने व्यवहार से हर एक को अपना कर सकता है (शब्द०) । अपना कहा करना= (१) अपनी बात पर दृढ़ रहना । वचन के अनुसार आचरण करना । (२) अपनी जिद पूरी करना । अपना कान देखे बिना कौआ के पीछे दौड़ना=(१) मूल को भूलकर भटकना । (२) गप पर विश्वास करके बैठना । अपना काम करना= प्रयोजन निकालना । अपना किया पाना=किए को भुगतना । कर्म का फल पाना । अपनापन स्थापीत करना= भईचारा । उत्पन्न करना । आत्मीयता बढ़ाना । अपना पराया= शत्रु मित्र । जैसे—तुम्हें अपने पराए की परख नहीं (शब्द०) । अपना पाँव आग में ड़ालना=अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना । अपना पूत पराया अधिगड़=एक ही गलती पर अपने पुत्र को प्यार करना और दूसरे के बच्चे को ड़ाँटना । अपना बना लेना= (१) दोस्त बनाना । मित्र बनाना । (२) वश में कर लेना । (३) प्रेमी बनालेना । (४)छोन लेना । अपना वेगाना=दो० 'अपना पराय़ा' । अपना रोना रोना= अपना हीदुखड़ा बयान करना, दूसरे की सुनना । अपना या करना= अपने सामर्थ्य वा विचार के अनुसार करना । भरसक प्रयत्न करना । उ० —(क) दो बल कहा देति मोहि सजनी तू तौ बड़ा सुजान । अपनी सी मैं बहुतहि कीन्हीं रहति न तेरी आन । —सूर० (शब्द०) । (ख) तुलसीदास मधवा अपनो सो करि गयो गर्व गँवाई । —तुलसी (शब्द०) । अपना सा पचना= अपनी सी कर चुकना । उ०—छुटई न सिसु अपनौ सो पची । कनक सों जनु कि नीलमनि खची । —नंद० ग्रं० पृ० २३८ । अपना सा मुँह लेकर रह जाना= किसी बात में अकृतकार्य होने पर लज्जित होना । उ०—और अपना सा मुँह लेकर अपनी कुर्सी पर आनकर डट गए । —फिसाना० भा० ३. पृ० २२ । अपनी अकल अपने पास रखना=दूसरे की सलाह की अनाबश्यकता । अपनी अपनी कहना=अपना अपना भिन्न विचार प्रकट करना । उ०—अपनी अपनी कहत है, का को धरिए ध्यान ।—कबीर सा, सं, पृ० ८६ । अपनी अलग खिचड़ी पकाना= सबसे पृथक् कार्य या विचार रखना अपनी अपनी आ पड़ना= अपनी अपनी चिंता में व्यग्र होना । अपना अपना ख्याल होना । उ०—पद्माकर कछु निज कथा, कासी कहौं बखान ।जाहि लखो, ता है परी अपनी अपनी आन ।—पद्माकर (शब्द०) । अपनी आद में आप जलना ।=किसी के प्रति ईष्या, द्वेष वा क्रोध से प्रभावित होना । अपनी उँगलियों से अपनी आँखे कुचाला =अपने पाँव आप कुल्हाड़ी मारना । अपने हाथों अपनी हानि कर लेना । —अपनी अँगलियों से अपनी आँखो को कौन कुचालेगा । —चुभते, पृ० ८ । अपनी गाना= अपनी ही बात कहना और किसी की न सुनना । अपनी गुड़िया सँबार देना= अपने सामर्थ्य के अनुसार बेटी का ब्याह कर देना । अपना नींद सोना=अपने इच्छानुसार, कार्य करना । अपनी बात का एक =वादे का पक्का । दृढ़प्रतिज्ञ । अपनी बात पर आना= हठ पकड़ना । जिद्द पकड़ना । जैसे— अब वह अपनी बात पर आ गया है, नहीं मानेगा (शब्द०) । अपनी जाँघ का सहारा होना=हठ पकड़ना । जिद्दु पकड़ना । जैसे—अब वह अपनी बात पर आ गया है, नही मानेगा (शब्द०) । अपनी जाँध का महार होना= स्वावलंबी होना । अपने बल या पौरुष का भरोसा होना । उ०— वह कमाई कर कभी हारा नहीं । जाँघ का अपनी सहारा है जिसे । —चुभते० पृ० ४८ । अपनी जान हरदम सुली पर होना= संकट की सदा आशंका होना । हरदम खतरा होना । अपनी बीती या पर बीती कहना= अपने या दूसरे पर घटित बात कहना । उ०—अपनी बीती कहूँ कि पर बीती,यह वही मसल हुई ।—सैर कु० पृ० ३३ । अपनी मुट्टी में करना=अपने कब्जे या वश में करना । उ०—उसके मन को अरनी मुटठी में कर, मनमानी कर लेना ।—रास० क० भ० पृ० ६ । अपनी सी करना= मनमानी करना । उ०—वह अपनी सी करता ही चला जा रहा है । —प्रेमघम० भ० २. पृ० ३१८ ।अपने घर का रास्ता लेना= चलते बनना । अपने घर जाना । धता होना । अपने तक रखाना= किसी से न कहना । किसी को पता न देना । भेद छिपाना । जैसे, —फकिर लोग दवा अपने तक रखने है । (शब्द०) । अपने धंधे से लगना=अपने काम में लगना । उ०—दिन को अपने अपने धधे से लोग लगते है मगर साढे़ पाँच बजे से फिर किसी इंसान की सुरत न देखने में आएगी ।— सैर कु० पृ० ३४ ।अपनेपन पर आना= अपने दुःस्वभाव के अनुसार कार्य करना । अपने पाँव पर खड़ा होना= स्वावलंबी होना । उ०—क्यों न हो पाँव पर खड़े अपने । और का पाँव किसलिये पकड़े ।—चुभते० पृ० १० । अपने भाबँ =अपने अनुसार । अपनी जान में । जैसे,—अपने भावें तो मैंने कोई बात उठा नहीं रखी (शब्द०) । अपने मन की करना= दूसरों की सलाह न मानकर अपनी सोची बात करना । अपने मुँह मियाँ मिट्ठु बनना= अपनी प्रशंसा आप करना । अपने लिये बला बनाना= अपनी बिपत्ति का स्वयं कारण बनना । जान बुझाकर संकट बुलाना । उ०—आप अपने लिये बला न बनें । जो न सिर पर पड़ी बला टाले । —चुभते० पृ० ५५ । अपने रंग में मस्त रहना=दूसरे की चिंता न कर अपने ही कामकाज या आनंद में पड़े रहना । अपने सिर बला मोल लेना=अपने लिये इंझट, बाधा या बखेड़ा खड़ा करना । स्वयं को झगड़े में डालना । अपने सिर पड़ना=अपने पर बीतना । उ०—जौ पहिले अपुने सिर परई । सो का काहु कै धरिहरि करई ।— जायसी ग्र० (गुप्त) पृ० २५७ । अपने से बाहर होना=रुष्ट या क्रोधित होना । बेकाबू होना । अपने हलुए माँड़ से काम होना— अपने मतलब से सरोकार रखाना । अपने हाँथ पाग सँवारना= अपने हाथों अपना काम पूरा करना । अपने हिमाब से=अपने विचार से । अपने विवेक से यौ०—अपने आप=(१)स्वत? । खुद ।उ०—अब कुछ दिन धक्के खाने से उसकी अकल अपने आप ठिकाने हो जाएगी ।—श्रीनिवास ग्रं० पृ० २४९ ।(२) आप । निज । जैसे— अपने को । अपने में । अपने पर ।

अपना (२)
संज्ञा पुं० आत्मीय । स्वजन । जैसे— आपलोग तो अपने ही है, आपसे छिपाव क्या?—(शब्द०) । उ०—जब लौं न सुनौ अपने जन को । आति आरत शब्द हते तन को । रामचं० पृ० १७ ।

अपनाइत पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अपनायत' । उ०—अपनाइत हूँ सों नहीं अब परतीत बिचारि । मो नैननी मनु मेरेई राख्यौ हरि में ड़ारि । —भीखारी ग्रं० भा० १, पृ० १७ ।

अपनाइयत †
संज्ञा स्त्री०[हि०] दे० 'अपनायत' ।

अपनाना
क्रि० सं० [अपना से नाम०] १. अपने अनुकूल करना । अपने वश में करना । अपनी ओर करना । उ०—(क) रचि प्रपंच भूपहि अपनाई । राम तिलक हित लगन धराई ।— मानस,२ ।१८ । (ख) सूर स्याम बिन देखे सजनी कैसे मन अपनाऊँ ।—सुर० (शब्द०) । २. अपना बनाना । ।अंगी— कार करना । ग्रहण करना । अपनी शरण में लेना । उ०— (क) सब बिधि नाथ मोहिं अपनाइय़ । पुनि मोहि सहित अवधुपुर जाइय ।—मानस, ६ । ११६ । (ख) ना हमको कछु सुंदरताई । भक्त जानि के सब अपनाई ।—सूर० (शब्द०) ।

अपनापन
संज्ञा पुं० [हि०, अपना+पन (प्रत्य०)] १. अपनायत । अत्मीयता । उ० —अपनापन चेतन का सुखमय, खो गया नहीं आलोक उदय । —कामयनी, पृ० २४९ । २. आत्माभिमान । उ०—भूल न जावे कभी न अपनापन, जान दे, पर न मान को दे खो ।—चीखे० पृ० १५ ।

अपनापा
संज्ञा पुं० [हि० अपना+पा (प्रत्य०)] अपनापन । अपनत्व ।

अपनाम
संज्ञा पुं० [सं०] बदनामी । निदा । शिकायत ।

अपनामा
वि० [सं० अपनामन्] निंदित । बदनाम [को०] ।

अपनायत
संज्ञा स्त्री० [हि० अपना+यत (प्रत्य०)] १. अपना होने का भाव । अपनापन । आत्मीयता । उ०—(क) देखी सुनी न आजु लौं अपनायत ऐसी । करहि सबै, सिर मेरे ही गिरि परै अनैसी ।—तुलसी ग्रं० पृ० ५३३ । (ख) जो लोग अपनायत की रीति सै कहते है ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३६६ । २. आपसदा री का संबंध ।बहुत पास या नजदीकी रिश्ता ।

अपनाव
संज्ञा पुं० [हि० अपना+आत्र (प्रत्य०)] अपना बना लेने की क्रिया । ऐक्य का भाव ।

अपनाश पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपनास' ।

अपनास पु
संज्ञा पुं० [हि० अप+नास] अपना नाश । उ०—हाथ चढ़ौं मैं तोहि के प्रथम करै अपनास । —जायसी ग्रं, पृ० १०० ।

अपनाहट
संज्ञा स्त्री० [हि० अपना+आहट (प्रत्य०)] अपनापन निजत्व ।उ०—खादी की वह मोटी चादर नहीँ चित्त को भाती थी । अनमिल जन की अपनाहट सी रुचि से मेल न खाती थी ।—प्राद्री पृ० ९९ ।

अपनि पु
सर्व० [हि०] दे० 'अपना' । उ०—प्रपनि प्रतिज्ञा । तन किन चहौ वेद पुराननि मै जो कहौं ।—नद० ग्रं, पृ० ३०३ ।

अपनिधि
वि० [सं०] गरीब ।

अपनीत (१)
वि० [सं०] १. दूर किया हुआ । हटाया हुआ । २. निकाला हुआ । ३. खंड़ित (को०) । ४.जिसका अपनयन किया गया हो ।

अपनीत (२)
संज्ञा पुं० १. धोखा । फरेब । २. बुरा आचरण [को०] ।

अपनुक †' पु
वि० [हि०] दे० 'अपना' । उ०—एसखि कहब अपनुक दंद, सपनहु जनु हो कुसुरुम संग । ।—विद्यापति, पृ० ४२३ ।

अपनुत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपनोदन' [को०] ।

अपनोद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपनोदन' [को०] ।

अपनोदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूर करना । हटाना । २. खंड़ना । प्रतिवाद । ३. प्रयाश्चित्त (को०) । ४.नष्ट करना । खराब करना [को०] ।

अपह्नव पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपह्नव' ।

अपह्नव पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपह्नुति' । उ०—मिसु करि और कथन छविधि, होत अपन्हुति भाइ ।—मिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० ९० ।

अपपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रष्ट या गलत पाठ । अशुद्ध पाठ [को०] ।

अपपात्र ।
वि० [सं०] १. जिसे सब लोगों के व्यवहार का सामन, बतन या पात्र न दिया जाय । किसी दोब के कारण जातिच्युत । २. हीन जाति का [को०] ।

अपरत्रित
वि० [सं०] दे० 'अपपात्र' [को०] ।

अपपात्रित
वि० [सं०] खराब या बुरे पैरोवाला । जिसके पैर विकृत हो [को०] ।

अपपादत्र
वि० [सं०] उपानहविहीन । पादत्राणरहित । नंगे पैरोंवाला [को०] ।

अपपूत
वि० [सं०] १. जिसके नितंबों की रचना विकृत हो [को०] ।

अपप्रजाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी स्त्री जिसका गर्भपात हो गया हो [को०] ।

अपप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. घूस । रिश्वत । उत्कोंच । २. अनुचित रुप से दिया धन [को०] ।

अपबरग पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपवर्ग' । उ०— सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनु धारी ।—मानस० १३१५ ।

अपबर्ग पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपवर्ग' ।उ०—सात स्वर्ग अपबर्ग ऊपर ताहि चित्त लगवनं—पलटू० पृ० ६३ ।

अपबल पु
संज्ञा पुं० [हि० अप+बल] आत्मबल । अपनी शक्ति । उ०—इंद्र कहा रिसाइ कीन्हौ गयो अपबल गाहि । आइ तिनहूँ पाँइ पकरे समुझि कै मन माहि ।—सुर० (प० १ ।४७) ।

अपबस पु
वि० [हि० अप+बस] अपने वश में । स्ववश । उ०— (क) जौ बिधना अपबस करि पाऊँ तौ सखि कहयो होइ कछु तेरौ अपनी साध पुराऊँ—सुर० १० । १०४७ ।

अपबाहुक
संज्ञा पुं० [सं०] बाहु संबंधी एक बातरोग जिससें कंधे में वायु के प्रविष्ट हो जाने से नसें तन जाती है । २. सदोष वायु [को०] ।

अपभय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भय का नाश । निर्भयता । २. व्यर्थ भय । अकारण भय । ३. डर । भय । उ०—(क) कवहुँ कृपा करि रघुनाथ मोहूँ चितैहौ । विनय करौं अप भय हुते तुम परम हितैही । तुलसी (शब्द०) । (ख) अपभय कुटिल महीप ड़राने । —तुलसी (शब्द०) ।

अपभय (२)
वि० [सं०] निर्भय । निडर । जो न ड़रे ।

अपभायो पु
वि० [हि० अप+ √ भाना= इच्छा लगना] अपने को भाने या इच्छा लगनेवाला । अत्मभाक्ति । अपने भाव का । स्वानुकूल । उ०— काम क्रोध मोह लोभ गर्व ने मन बौराय कियो अपभायो ।—चरण० बानी० पृ० ६५ ।

अपभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशिष्ट भाषण । २. अपमानकर अथन । ३. गाली देना । दुर्बचना कहता [को०] ।

अपभुक्त
वि० [सं०अप+भुक्त] अनुचित रुप से व्यवहार में लाया हुआ (धन या पदार्थ) [को०] ।

अपभ्रंश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पतन । गिराव । २. बिगाड । विकृति ३. बिगड़ा हुआ शब्द । ४. प्राकृत बोलियों (भाषा) का विकृत । स्वरुप [को०] ।५. प्राकृत भाषा के बाद की भाषा [को०] ।

अपभ्रंश (२)
वि० [सं०] विकृत । बिगाड़ हुआ ।

अपभ्रशित
वि० १. गिरा हुआ ।२. बिगड़ा हुआ ।

अपभ्रष्ट
वि [सं०] १. विकृत । बिगड़ा हुआ । २. गिरा हुआ [को०] ।

अपमंगल
संज्ञा पुं० [सं० अप+मह्गल] अशुभ अकल्याण । अनिष्ट । उ० —अपमंगल जिय जानि, सु नेन मुषं बही ।—पृ० रा० २५ ।३७५ ।

अपमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] धूल । गर्द [को०] ।

अपमर्दन
संज्ञा पुं० [सं० अप+मर्दन] बुरी तरक रौदना या कुचलना ।

अपमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्पर्श । २. चरना । ३. घर्षण [को०] ।

अपमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनादर । अवहेलना । बिड़ंबना । अवज्ञा । २. तिरस्कार । दुतकार । बेइज्जती । क्रि० प्रं० —करना । होना ।

अपमानता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप+मान्यता] अपमान या तिरस्कार की स्थिति या क्रिया । उ०—अतिअध गुरु अपमानता सहि नहि सके महेस । —मानस, ७ ।२०६ ।

अपमानना पु
क्रि० सं० [सं० अपमान से नाम०] अपमान करना । विडंबना करना । निंदा करना । तिरस्कार करना । उ०— (क) सुनि मुनि बचन लषन मुसुकाने । बोले परसु धरहि अपमाने ।उ०— तुलसी (शब्द०) । (ख) हारि जीत नैना नहि मानत । धाए जात तहीं को फिरि फिरि बै कितनो अपमानत । —सूर (शब्द०) ।

अपमानित
वि० [सं०अपमानिन्] [वि० स्त्री० अपमानिनी] निरादर करनेवाला । तिरस्कार करनेवाला । उ०—सोचिय सुद्र विप्र अपमानी । उ०—तुलसी (शब्द०) ।

अपमान्य़
वि० [सं०] अपमान के योग्य । निद्य ।

अपमारग पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अपमार्ग' ।उ०—महामोहिनी मोहि आतमा अपमारगहि लगवै ।—सूर० १ ।४२ ।

अपमारगी पु
वि० [हि०] दे० 'अपमार्गी' । उ०—नैना लोनहरामी ये । चोर ढ़ुंढ़ बटपार कहाक्त अपसारगी, अन्यायी वे ।— सुर० १० ।२२८५ ।

अपमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमार्ग । असन्मार्ग । कुपथ ।२. देह मलना या धोना । अंग का परिमर्जन [को०] ।

अपमार्गी
वि० [सं० अपमार्गिन] १. कुमार्गी । कुपंर्थी । अन्यथाचारी । २. दुष्ट ।नीच । पापी ।

अपमार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १.शुद्बि । सफाई । संस्कार । संशोधन । २. हजामत । क्षौर (को०) । ३.खंड़ । टकड़ा [को०] ।

अपमुख
[सं०] [स्त्री०अपमुखी] जिसका मुँह देढ़ा हो । विकृतानन टेढ़मुहाँ [को०] ।

अपमृत्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुसमय मुत्यु जैसे, बिजली के गिरने, बिष खाने, साँप आदि के काटने से मरना । २. बहुत बड़ा रोग या खतरा जिससे व्याक्ति बच गया हो [को०] ।

अपमृषित
वि० [सं०] १. समझ में न आने योग्य । अस्पष्ट । २. असहय [को०] ।

अपय़श
संज्ञा पुं० [सं० अपय स्] १. अपकीर्ति । बदनामी । बुनाई । उ०—मै जगत के अपयश को मौत से बढ़कर मानता हुँ ।— श्रीनिवास ग्रं० पृ० १११ ।२. कलंक । लांछन ।

अपयशस्क
वि० [सं०] अपकीर्तिकारी । अपयशकारी [को०] ।

अपयशस्कर
वि० [सं०] दे० 'अपयशस्क' ।

अपयशी
वि० [सं० अप+यश+हि० (प्रत्य०)] कलंकित । निंदित [को०] ।

अपयसी पु
वि० [हि०] दे० 'अपयशी' । उ० —सूम सर्वभच्छी दव- वादी जो कुबादी जड़, आपयसी ऐसी भूमि भूपति न सोहिए— रामचं० पृ० १२५ ।

अपयान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपेक्षा । उदासीनता ।२. पलायन । भागना । हट जाना । निकल जाना [को०]

अपयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुयोग । बुरा योग । २. कुसमय । कुबेला । ३. कुशकुन । असगुन । ४. नियमित मात्रा से अधिक वा न्यून औषध पदार्थों का योग ।

अपरंच
अव्य० [सं० अपरञ्च] १. और भी । २. फिर भी । पुनरपि । पुन? ।३. दूसरा भी [को०] ।

अपरंपार पु
वि० [सं० अपर=दूसरा+हि० पार=छोर] जिसका पारावार य़ा ओर छोर न हो । असीम । बेहद । अनत । उ०— खग खोज पाछै नहीं तू तत अपरंपार । बिन परचै का जानिऐं सब झूठे अहंकार ।—कबीर गे्० पृ० २३० ।

अपर (१)
वि० [सं०] १. जो पर न हो । पहला । पूर्व का । २. पिछला । जिससे कोई पर न हो । ३. अन्य । दूसरा । भिन्न । और । उ०— अपर नाम उड़ुगण बिमल,बसे भक्त उर व्योम ।— भक्तमाल (श्री०) पृ० ४९८ ।४. जिससे बढ़कर या बराबर का अन्य न हो (को०) । ५. जो दूसरा या पराया न हो । स्व- पक्षीय । अपना । उ०—को गिनै अपर पर को गिनै । लोह छोह छक्के बरन ।—पृ० रा० ३३ ।२६ ।६. अश्रेष्ठ । जो पर अर्थात् श्रेष्ठ न हो । निकृष्ट । साधारण (को०) । ७. पश्चिमी । पश्चिम दिशा का (को०) । ८. दूर का । दूरवर्ती । जो पास न हो (को०) ।

अपर (२)
संज्ञा पुं० १. हाथी का पिछला भाग, जंघा, पैर आदि । २. रिपु । शात्रु । ३. न्यायशास्त्र में सामान्य के दो भेदे में से एक । ४.भविष्यत् काल या उस काल में किया जानेवाला कार्य [को०] ।

अपरकाय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का पिछला भाग ।

अपरकाल
संज्ञा पुं० [सं०] बाद का समय [को०] ।

अपरक्त
वि० [सं०] १. बदले हुए रंग का । रंगहीन । ३. रक्तहीन । पीला । ४. असंतुष्ट [को०] ।

अपरक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपरक्त या असंतुष्ट होना ।

अपरचै पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपरिचय' । उ०— देखा देखी पाकड़ै जाइ अपरचै छूटि । बिरला कोई ठाहरै सतगुर सांमीं मुठि— कबीर ग्रं०, पृ० ५१ ।

अपरछन (१)पु
वि० [सं० अप्रच्छन्न बा अपरिछन्न] आबरणहित । जो ढ़का न हो । बिना वस्त्र का ।

अपरछन (२)पु
[सं० अप्रच्छन्न] आवृत । छिपा । गुप्त । उ०—बाजी चिहर रचाइ के रहा अपरछन होइ । मायापट परदा दिया, ताते लखइ न कोइ ।—दादू (शब्द०) ।

अपरज (१)
वि० [सं०] बाद में उत्पन्न [को०] ।

अपरज (२)
संज्ञा पुं० विध्वंसक अग्नि । प्रलय़ाग्नि [को०] ।

अपरतंत्र
वि० [सं० अपरतन्त्त] दो परतंत्र या परवश न हो । स्वतंत्र । स्वाधीन । आजाद ।

अपरत
वि० [सं०] विरक्त । उदासीन । (को०) ।

अपरता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] परायापन ।

अपरता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अ=नहीं+परता=परायापन] भेदभाव की शून्यता । अपनापन ।

अपरता (३) †
वि० [हि०अप =आप+रत=लगा हुआ] स्वार्थी । मतलबी ।

अपरता (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूरी । २. पृथकता । ३. निकटता । समीपता । ४. न्याय में २४ गुणों में एक [को०] ।

अपरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिलगाव । विच्छेद । २. असंतोष [को०] ।

अपरती पु
संज्ञा स्त्री० [हि० अप=आप+सं० रति=लीनता] स्वार्थ । बेईमानी ।

अपरतीत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्रतीति] विश्वास का अभाव । अवि- श्वास । उ०—क्यों अपरतीत के घने बादल । चाँद परतीत को घुमड़ घेरें । चोखे० पृ० १६७ ।

अपरत्र
क्रि० वि० [सं०] १. दूसरे समय में । और कभी । २. अन्यत्र [को०] ।

अपरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १ पिछालापन । अर्वाचीनता ।२. परायापन । बेगनगी । ३. न्यायशास्त्रनुसार चौबीस गुणों में से एक । यह दो प्रकार का है—एक कालभेद से दूसरा देशभेद से । दे० 'अपरता ।'

अपरदक्षिण
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण और पश्चिम का कोना । नैऋत्य कोण ।

अपरदिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिम ।

अपरना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अपर्णा] पार्वती का नाम । वि० दे० 'अपर्णा' ।उ०—पुनि परिहरेउ सुखनेउ परना । उमा नाम तब भयउ आपरना । —तुलसी (शब्द०) ।

अपरनाल
संज्ञा पुं० [सं०] बृहतसंहिता के अनुसार एक देश का नाम ।

अपरपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कृष्ण पक्ष । २. प्रतिवादि । मुद्दालेह । फरीकसानी ।

अपरपर
वि० [सं०] एक एवं अन्य अनेक । विभिन्न [को०] ।

अपरपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] वंशज । वंशगत लोग [को०] ।

अपरप्रणेय
वि० [सं०] अन्य से जल्दी प्रभावित होनेवाला [को०] ।

अपरबल †
वि० [<सं० प्रबल] बलवान । बली । उद्धत । बेकहा । उ०—चली अपरबल बात अबात । उड़े जात कहि बनत न बात ।—नंद० ग्रं,० पृ० ३०७ ।

अपरभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्य या मिन्न होने का भाव । अंतर । भेद । २. अविरल [को०] ।

अपरमित
वि० [सं० अपरिमित्] इयत्ताशून्य । असीम । उ०—ऐसो ऐसी बातों से उसकी अपरमित शक्ति का पूरा प्रमाण मिलता है ।—श्रीनिवास ग्रं, पृ० १९८ ।

अपररात्र
संज्ञा पुं० [सं०] रात्रि का अंतिम भाग या प्रहर [को०] ।

अपरलोक
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरा लोक ।परलोक ।स्वर्ग [को०] ।

अपरव
संज्ञा पुं० [सं०] १. (संगीत संबंधी) झगड़ा या विवाद । २. कुख्याति [को०] ।

अपरवक्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वृत जिसके विषम चरण में दो नगण, एक रगण और लघु गुरु हों तथा समचरण में एक नगण, दो जगण और रहण हो । यथा— सब तज रसना गही हरी । दुख सब भागहि पापहूँ जरी । हरि विमुख संगाना करी । जप दिन रैन हरी हरी (शब्द०) ।

अपरवक्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपरवक्त्र' [को०] ।

अपरवश
वि० [सं०] पराण वश का । परतंत्र ।

अपरस (१)
वि० [सं० अ = नहीं + स्पर्श, हिं० परस] १. जो छुआ न जाय । जिसे किसी ने छुआ न हो । उ०—ऊधौ तुम हौ अति बड़— भागी । अपरस रहत सनेह तगा ते नाहिन मन अनुरागी । — सूर०, १० ।३९५८ ।२. न छूने योग्य । अस्पृश्य । उ०—अपरस ठौर तहाँ सपरस जाइ कैसें, बासना न धोवै तौ लौं तन के पखारे कहाँ । —घनानंद, पृ० १९८ ।

अपरस (२)
संज्ञा पुं० एक चर्मरोग जो हथेली और तलवे में होता है । इसमें खुजलाहट होती है और चमड़ा सूख सूखकर गिरा करता है ।

अपरस (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० आत्म + रस] आत्मानंद । आत्मरस । उ०—पाछे श्री गुसाईं जी स्नान करि धोती उपरेना पहरि अपरस की गादी पर विराजि कै संख चक्र धरत हते । —दो सौ बावन०, पृ० ९ ।

अपरस (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० अप = बुरा + रस] बुरा रस । विकृत रस । उ०—जनम जनम तें अपावन असाधु महा, अपरस पूति सो न छाड़ैं अजौं छूति कौं । —घनानंद, पृ० १९८ ।

अपरस्पर
वि० [सं०] १. निरंतर । लगातार ।२. अन्योन्य ।३. जो आपस का न हो । जिसमें आपसदारी न हो [को०] ।

अपरांग
संज्ञा पुं० [सं० अपराङ्ग] गुणीभूत व्यंग्य के ८ भेदों में से एक जिसमें व्यंग्यार्थ अन्य शब्द के अधीन हो ।

अपरांत
संज्ञा पुं० [सं० अपरान्त] पश्चिम का देश ।

अपरांतक
संज्ञा पुं० [सं० अपरान्तक] बृहत्संहिता के अनुसार पश्चिम दिशा में एक पर्वत ।

अपरांतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० अपरान्तिका] बैताली छंद का एक भेद जिसमें बैताली छंद के सम चरणों के समान चारों पद हों और चौथी और पाँचवीं मात्रा मिलकर एक दीर्घाक्षर हो जाय । जैसे—शंभु को भजहु रे सबै घरी । तज सबै काम रे हिये धरी (शब्द०) ।

अपरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अध्यात्म वा ब्रह्मविद्या के अतिरिक्त अन्य विद्या । लौकिक विद्या । पदार्थ विद्या ।२. पश्चिम दिशा । ३. एकादशी जो ज्येष्ठ के कृष्ण पक्ष में होती है ।

अपरा (२)
वि० स्त्री० दूसरी ।

अपराग
संज्ञा पुं० [सं०] १. असंतोष ।२. शत्रुता ।३. अरुचि [को० ] ।

अपराग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्षिण एवं गार्हपत्य अग्नि ।२. चिता की अग्नि [को० ] ।

अपराजित (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपराजिता] जो पराजित न हुआ हो । अविजित ।

अपराजित (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु । २. शिव । ३. कृष्ण का एक पुत्र (को०) । ४. एक विषैला कीट (को०) । ५. एकादश रुद्रों में से एक ।

अपराजिता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विष्णुक्रांता लता । कोयल लता । २. दुर्गा । उ०—सरन सरन है सदा सुख साजिता । द्रवहि द्रवहि दास कों अपराजिता । —भिखारी ग्रं०, भा० १, पृ० २५४ । ३. अयोध्या का एक नाम ।४. चौदह अक्षर का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक रगण, एक सगणतथा एक लघु और गुरु होता है । न न र स ल ग—/?/जैसे— न विरस लग राम की जन को कथा । सुनत बढ़त प्रेम सिंधु शशी यथा । रघुकुल करि पावनो सुख साजिता । जिन किय थित कीरती अपराजिता (शब्द०) । ५. एक प्रकार का धूप ।

अपराजिता (२)
वि० जिसमें पर को जीता न जा सके । अनिर्णीत ।

अपराजेय
वि० [सं०] १. जो जीता न जा सके । उ०—रह गया राम रावण का अपराजेय युद्ध । —अपरा, पृ० ३७ ।

अपराझी पु
वि० [सं० अपराद्ध; प्रा० अवरज्झ + ई (प्रत्य०)] दे० 'अपराधी' । उ०—मानुस जन्म चुकेहु अपराझी । यह तन केर बहुत है साझी । —कबीर बी० ।

अपराद्ध (१)
वि० [सं०] १. जिसने अपराध किया हो । दोषी । अपराधी । २. चूकनेवाला । ३. अतिक्रांत । अतिक्रमित [को०] ।

अपराद्ध (२)
संज्ञा पुं० १. दोष । अपराध [को०] ।

अपराद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गलती । दोष । अपराध । २. पाप [को०] ।

अपराध
संज्ञा पुं० [सं०] १. दोष । पाप ।२. कसूर । जुर्म ।३. भूल । चूक ।

अपराधभंजन
संज्ञा पुं० [सं० अपराधभज्जन] अपराध का नाश करनेवाले शिव [को०] ।

अपराधविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] अपराध के कारण और उसे निवारण करनेवाला विज्ञान [को०] ।

अपराधी
वि० पुं० [सं० अपराधिन्] [स्त्री० अपराधिनी] दोषी । पापी । मुलाजिम ।

अपराधीसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० अपराधीसाक्षिन्] किसी अपराध के मामले का वह अभियुक्त जो अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और अपने साथी या साथियों के विरुद्ध गवाही देता है । वह अभियुक्त या अपराधी जो सरकारी गवाह हो जाता है । इकबाली गवाह । मुजरिम इकरारी । सरकारी गवाह ।

अपरापत पु
संज्ञा पुं० [सं० अप्राप्त] भाग्य । किस्मत । विधि । उ०— काहू सौ नाहीं मिटै, अपरापत कै अंक । ईस के सीस तउ, भयो न पूर्न मयंक । —स० सप्तक, पृ० ७१० ।

अपरापति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्राप्ति] प्राप्ति का अभाव । अलाभ । अभाग्य । उ०—अपरापति के दिनन में खरच होत अबिचार । घर आवतु है पाहुनौ, बिन जन लाभ लगार । —स० सप्तक, पृ० ३३१ ।

अपरापरण
वि० [सं०] संतानहीन । निस्संतति [को०] ।

अपरामृष्ट
वि० [सं०] १. अछूता । अस्पष्ट । जिसको किसी ने न छुआ हो । २. अव्यवहृत । कोरा । जिसे व्यवहार में न लाया गया हो ।

अपरार्क (१)
वि० [सं०] द्वितीय सूर्य जैसा । सूर्य तुल्य तेजस्वी [को०] ।

अपरार्क (२)
संज्ञा पुं० [सं०] याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रसिद्घ प्राचीनतम टीकाकार जिनकी अपरार्कचंद्रिका टीका विख्यात है ।

अपरार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] द्वितीय आधा भाग । उत्तरार्ध [को०] ।

अपरावर्ती
वि० [सं० अपरावर्तिन्] [वि० स्त्री० अपरावर्तिनी] १. जो बिना काम पूरा किए न लौटे । काम करके पलटनेवाला । २. जो पीछे न हटे । जो किसी काम से मुँह न मोड़े । मुस्तैद ।

अपरावृत
वि० [सं०] अनिवर्तित । न लौटा हुआ । अपनी जगह न आया हुआ । उ०—जब तक मनस् अपरावृत है तब तक मनस् का आलय विज्ञान ही एकमात्र आलंबन होता है । —संपूर्ण० अभि० ग्रं०, पृ० ३६९ ।

अपराह्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन का पिछला भाग । दो पहर के पीछे का काल । तीसरा पहर ।

अपराह्णतन
वि० [सं०] १. दिन का पिछला भाग से संबद्ध । २. दिन के अंतिम काल में उत्पन्न [को०] ।

अपराह्णेतन
वि० [सं०] दे० 'अपराह्णतन' ।

अपराह्न
संज्ञा पुं० दे० 'अपराह्ण' ।

अपरिकलित
वि० [सं०] अज्ञात । अदृष्ट । अश्रुत । बे देखा सुना ।

अपरिक्रम
वि० [सं०] १. चल फिर पाने में असमर्थ ।२. परिश्रम करने के अयोग्य [को०] ।

अपरिक्लिन्न
वि० [सं०] सूखा । शुष्क ।

अपरिगष्य
वि० [सं०] अनगिनत । बेशुमार [को०] ।

अपरिगत
वि० [सं०] १. अज्ञात । अपरिचित । न पहिचाना हुआ । २. अप्राप्त ।

अपरिगृहीत
वि० [सं०] अस्वीकृत । त्यक्त । छोड़ा हुआ ।

अपरिगृहीतागमन
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्त्रानुसार एक प्रकार का अतिचार । कुमारी या विधवा के साथ गमन करना पुरुष के लिये और कुमार या रँडुआ के साथ गमन करना स्त्री के लिये अपरिगृहीतागमन है ।

अपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्वीकार । दान का न लेना । दान- त्याग । २. देहयात्रा के लिये आवश्यक धन से अधिक का त्याग । विराग । ३. योगशास्त्र में पाँचवा यम । संगत्याग । ४. जैन शास्त्रानुसार मोह का त्याग ।

अपरिग्राह्य
वि० [सं०] जो ग्रहण करने या अंगीकार करने योग्य न हो [को०] ।

अपरिचय
संज्ञा पुं० [सं० वि० अपरिचित] परिचय का अभाव । जान- पहिचान का न होना ।

अपरिचयिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिचयशून्यता की स्थिति या भाव । [को०] ।

अपरिचयी
वि० [सं० अपरिचयिन्] १. जिसका परिचय न हो । २. जो मिलनसार न हो । असामाजिक [को०] ।

अपरिचित
वि० [सं०] १. जिसे परिचय न हो । जो जानता न हो । अनजान । जैसे—वह इस बात से बिलकुल अपरिचित है (शब्द०) ।२. जो जानाबूझा न हो । अज्ञात । जैसे— किसी अपरिचित व्यक्ति का सहसा विश्वास न करना चाहिए (शब्द०) ।

अपरिच्छद
वि० [सं०] १. आच्छादनरहित । आवरणशून्य । जो ढका न हो । नंगा । खुला हुआ ।२. दरिद्र ।

अपरिच्छन्न
वि० [सं०] १. जो ढका न हो । खुला । नंगा । २. आवरणरहित । ३. सर्वथा व्यापक ।

अपरिच्छादित
वि० [सं०] दे० 'अपरिच्छन्न' [को०] ।

अपरिच्छिन्न
वि० [सं०] १. जिसका विभाग न हो सके । अभेद्य । २. जो अलग न हुआ हो । मिला हुआ । ३. इयत्तारहित । असीम । सीमारहित ।

अपरिच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभाग, विभाजन या विलगाव का अभाव । २. न्याय या निर्णय का अभाव । ३. अविच्छिन्नता । नैरंतर्य [को०] ।

अपरिछिन्न पु
वि० [हिं०] दे० 'अपरिच्छिन्न' । उ०— जौ कहहु कि हम यों करि पाए । अपरिछिन्न नित निगमन गाए । —नंद० ग्रं०, पृ० २७१ ।

अपरिणत
वि० [सं०] १. अपरिपक्व । जो पका न हो । कच्चा । २. जिसमें विकार या परिवर्तन न हुआ हो । ज्यों का त्यों । विकारशून्य ।

अपरिणय
संज्ञा पुं० [सं०] विवाहशून्य अवस्था । अपरिणीत स्थिति । कौमार्य । ब्रह्मचर्य ।

अपरिणयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपरिणय' [को०] ।

अपरिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] परिणाम या परिवर्तन का अभाव । अपरिवर्तनशीलता [को०] ।

अपरिणामदर्शी
वि० [सं० अपरिणामदर्शिन्] अदूरदर्शी [को०] ।

अपरिणामी
वि० [सं० अपरिणामिन्] [वि० स्त्री० अपरिणामिनी] १. जिसकी दशा में परिवर्तन न हो । परिणामरहित । विकार- शून्य । २. जिसका कुछ परिणाम न हो । निष्फल ।

अपरिणीत
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपरिणीता] अविवाहित । क्वाँरा ।

अपरिपक्व
वि० [सं०] १. जो परिपक्व न हो । कच्चा । २. जो भली भाँति पका न हो । अधकच्चा । अधकचरा । अप्रौढ़ । अधूरा । अव्युत्पन्न । ४. जिसने तपश्चर्यादि द्वारा द्वंद्व अर्थात् सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि सहन न की हो । यौ०—अपरिपक्व कषाय । अपरिपक्वधी । अपरिप क्वबुद्धि ।

अपरिपणितसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अपरिपणित सन्धि] एक प्रकार की कपट सधि जो केवल धोखे में रखने के लिये की जाय । विशेष— कौटिल्य के अनुसार इसका ढंग यह है कि किसी अभिमानी मूर्ख आलसी या दुर्व्यसनी राजा को नीचा दिखाना हो तो उससे यों ही कहता रहे कि हम तुम तो एक हैं, पर किसी प्रयोजन की बात न करे । इस प्रकार उसे संधि के विश्वास में रखकर उसकी कमजोरियों का पता लगाता रहे और मौका पड़ते ही उसपर आक्रमण कर दे । इस कपटसंधी का उपयोग दो सामंत राजाओं को लड़ाकर उनके ऱाज्य को हरण करने के लिये भी हो सकता है ।

अपरिबाधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अ + परिबाधा] कपट बाधा या आयाम का निवारण ।

अपरिम
वि० [सं० अ + परिमा = परिमाण] जिसका परिमाण न हो । अमित । उ०— इस रहस्य अपरिम के आगे आदर से नतमस्तक है कवि । —इत्य म्, पृ० ९७ ।

अपरिमाण
वि० [सं०] परिमाणरहित । बेअंदाज । अकूत ।

अपरिमित
वि० [सं०] इयत्ताशून्य । असीम । बेहद । उ०—मानव था साथ उसी के मुख पर था तेज अपरिमित । —कामायनी, पृ० २७७ । २. असख्य । अनत । अगणित । उ०—अपनैं जान मैं बहुत करी । कृपासिंधु, अपराध अपरिमित छमौ सूर तैं सब बिगरी । —सूर०, १ ।११५ ।

अपरिमेय
पुं० [सं०] १. जिसका परिमाण न पाया जाय । जिसकी नापन हो सके । बेअंदाज । अकूत । असंख्य । अनगिनत ।

अपरिम्लान (१)
वि० [सं०] न मुरझानेवाला । जिसका अपक्षय न हो [को०] ।

अपरिम्लान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] महासहा नाम का एक वृक्ष [को०] ।

अपरिवर्त्तनीय
वि० [सं०] १. जो परिवर्तन के योग्य न हो । जो बदल न सके । २. जिसमें फेरफार न हो सके । ३. जो बदले में न दिया जा सके । ४. सदा एकरस रहने वाला । नित्य ।

अपरिवर्त्य
वि० [सं०] दे० 'अपरिवर्त्तनीय' । उ० —जो इस परिवर्तनशील विश्व में अपरिवर्त्य है । —संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २२४ ।

अपरिवर्तित
वि० [सं०] जिसमें कोई हेरफेर या तबदीली न हुई हो । अविकल । ज्यों का त्यों ।

अपरिवाद्य
वि० [सं०] जो निंदायोग्य न हो । अनिंद्य [को०] ।

अपरिवृत
वि० [सं०] जो ढका या घिरा न हो । अपरिच्छन्न ।

अपरिशेष (१)
वि० [सं०] जिसका परिशेष या नाश न हो । पूर्ण । अनंत । अविनाशी । नित्य ।

अपरिशेष (२)
संज्ञा पुं० सीमा का अभाव [को०] ।

अपरिष्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. संस्कार का अभाव । असंशोधन । सफाई या काट छाँट का न होना । २. मैलापन । ३. भद्दापन ।

अपरिष्कृत
वि० [सं०] १. जिसका परिष्कार न हुआ हो । जो साफ न किया गया हो । जो काट छाँटकर दुरुस्त न किया गया हो । २. मैलाकुचैला । ३. भद्दा । बेडौल । ४. असंस्कृत ।

अपरिसर
वि० [सं०] १. समीप का नहीं । दूर का । २. अविस्तीर्ण । अप्रशस्त [को०] ।

अपरिसर (२)
संज्ञा पुं० विस्तार का अभाव [को०] ।

अपरिसीम
वि० [सं० अ + परिसीम] १. असीम । २. विस्तीर्ण । उ०—भगवान बादरायण हर करती गंगा की अपरिसीम धारा को देखते रहे— वै० न०, पृ० २४८ ।

अपरिस्कंद
वि० [सं० अपरिस्कन्द] गतिशून्य । जो कूद फाँद न सके [को०] ।

अपरिहरणीय
वि० [सं०] १. अनिवार्य । अवश्यंभावी । २. अपरित्याज्य । जिसका परिहार न हो सके । ३. अनादर के अयोग्य [को० ] ।

अपरिहार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपरिहारित, अपरिहार्य] १. अवर्जन । अनिवारण । २. दूर करने के उपाय का अभाव ।

अपरिहारित
वि० [सं०] अपरिवर्जित । अनिवारित । जो दूर न किया गया हो ।

अपरिहार्य
वि० [सं०] १. जिसका परिहार न हो सके । अवर्जनीय । अबाध्य । अनिवार्य । जो किसी उपाय से दूर न किया जा सके । २. अत्याज्य । न छोड़ने योग्य । ३. अनादर के अयोग्य । आदरणीय । ४. न छीनने योग्य ।

अपरीक्षणीय
वि० [सं० अ + परीक्षणीय] १. जाँच या परीक्षा के अयोग्य ।

अपरीक्षित
वि० [सं० ] [वि० स्त्री० अपरीक्षिता] जिसकी परीक्षा न हुई हो । जो परखा न गया हो । जिसकी जाँच न हुई हो । जिसकेरूप, गुण, परिमाण और वर्ग आदि का अनुसंधान न किया गया हो ।

अपरुष
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० स्त्री० अपरुषा] क्रोधविहीन । रोषरहित । कठोरताशून्य [को०] ।

अपरूप (१)
वि० [सं०] १. कुरूप । बदशकल । भद्दा । बेडौल । २. अद्भुत । अपूर्व । उ०—पर कैसी अपरूप छटा लेकर आए तुम प्यारे । —झरना, पृ० ९३ ।

अपरूप (२)
संज्ञा पुं० बेडौलपन । भद्दापन । कुरूपता [को०] ।

अपरेटस
संज्ञा पुं० [अ० एपैरेटस] वह यंत्र जो किसी विशेष कार्य या परीक्षा कार्य के लिये बना हो । यंत्र । औजार । परीक्षायंत्र ।

अपरेशन
संज्ञा पुं० [अँ० आँपरेशन] शल्यचिकित्सा । चीरफाड़ । शल्यक्रिया ।

अपरोक्ष
वि० [सं०] १. जो परोक्ष में न हो । प्रत्यक्ष । जो देखासुना जा सके । इंद्रिय गोचर । २. जो दूर हो [को०] ।

अपरोक्षानुभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रत्यक्ष ज्ञान । २. वेदांत में निरूपित एक प्रकरण [को०] ।

अपरोध
संज्ञा पुं० [सं०] रुकावट । निषेध । वर्जन । मनाही [को०] ।

अपरोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. निष्कासन । २. राज्यच्युति [को०] ।

अपर्ण
वि० [सं०] पत्तों से रहित [को०] ।

अपर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती का एक नाम । विशेष—पुराणों के अनुसार पार्वती ने शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये तपस्या में पत्तों तक को खाना छोड़दिया था । अत? पार्वती का एक नाम अपर्णा प्रसिद्घ हुआ । २. दुर्गा ।

अपर्तु
वि० [सं०] १. बेमौसमी । असामयिक । २. जिसका मासिक धर्म का समय गुजर गया हो । निवृत्तरजस्का [को०] ।

अपर्बल पु †
वि० [हिं०] दे० 'अपरबल' । उ०—माया बहुत अपर्बल अलख तुम्हारा बनाव । —जग० श०, पृ० ६६ ।

अपर्यंत
वि० [सं० अपर्यन्त] असीम । अपरिमित [को०] ।

अपर्याप्त
वि० [सं०] १. अपूर्ण । २. अयथेष्ट । जो काफी न हो । ३. सीमारहित । असीम (को०) । ४. असमर्थ (को०) । यौ०.—अपर्याप्तकर्म = जैनशास्त्रानुसार वह पाप कर्म जिसके उदय से जीव की पर्याप्ति न हो ।

अपर्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अपूर्णता । कमी । त्रुटि । २. असामर्थ्य । अयोग्यता । अक्षमता ।

अपर्याय (१)
वि० [सं०] क्रमविहीन । अव्यवस्थित [को०] ।

अपर्याय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रमहीनता [को०] ।

अपर्व (१)
संज्ञा पुं० [सं० अपर्वन्] वह दिन जो पर्वकाल न हो । अविशिष्ट दिन अर्थात् अमावस्या, पूर्णिमा, अष्टमी और चतुर्दशी से व्यतिरिक्त कोई दिन । २. संधिराहित्य । जोड़ का अभाव [को०] ।

अपर्व (२)
वि० पर्व या संधि से रहित [को०] ।

अपर्वक
वि० [सं०] जिसमें जोड़ न हो । संधिविहीन [को०] ।

अपर्वदड
संज्ञा पुं० [सं० अपर्वदण्ड] ईख की एक किस्म [को०] ।

अपर्वा
वि० [सं०] दे० 'अपर्व' [को०] ।

अपल (१)
वि० [सं०] पलशून्य । मांसहीन ।

अपल (२)
वि० [हिं० अपलक] निमेषहीन । अपलक । एकटक । यौ०—अपलनयन = बिना पलक गिराए या अनिमिष दृष्टि । उ,०—अपल नयन सुवास यौवन नल, देख रही तरुणी कोमल- तन । —गीतिका, पृ० ३५ ।

अपल (३)
संज्ञा पुं० १. पिना । २. अर्गला या कुंड़ी [को०] ।

अपलक (१)
वि० [सं० अ + हिं० पलक] जिसकी पलकें न गिरें । निर्मिमेष । उ०—द्विधारहित अपलक नयनों की भूखभरी दर्शन की प्यास । —कामायनी, पृ० १२ ।

अपलक (२)
क्रि० वि० बिना पलक गिराये । एकटक । उ०—मैं अपलक इन नयनों से निरखा करता उस छवि को । —आंसू, पृ० १८ ।

अपलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुलक्षण । बुरा चिह्न । दोष । २. दुष्ट लक्षण । वह लक्षण जिसमें अतिव्याप्ति और अव्याप्ति दोष हो ।

अपलट पु
वि० [सं० अ + हिं० पलट] १. न मुड़नेवाला । न बदलनेवाला । एकरस रहनेवाला । उ०—अविहड़ अंग विहड़ै नहीं, अपलट पलटि न जाइ । —दादू०, पृ० ४६४ ।

अपलाप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपलापित] १. मिथ्यावाद । बकवाद । बात का बतक्कड़ । वाग्जाल । २. बात बनाना । प्रसंग टालने के लिये इधर उधर की बाते कहना । ३. सत्य को छिपाना (को०) । ४. प्यारा । आदर (को०) । ५. कंधे और पसलियों का मध्य भाग [को०] ।

अपलापी
वि० [सं० अपलापिन्] अपलाप करनेवाला [को०] ।

अपलाभ
संज्ञा पुं० [सं० अप + लाभ] अनुचित ढंग से किया गया लाभ । बेजा मुनाफा ।

अपलाषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अतिशय लालसा । २. प्रबल तृष्णा या पिपासा [को०] ।

अपलाषी
वि० [सं० अपलाषिन्] १. तृषित । प्यासा । २. जिसे प्यासा या लालसा न हो [को०] ।

अपलाषुक
वि० [सं०] दे० 'अपलाषी' [को०] ।

अपलोक (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अप + श्लोक = कीर्ती] १. अपयश । अपकीर्ति । बदनामी । उ०—हाय अपलोक ओक पंथहि गह्वयो मैं बिरहागिनि दह्वयों मैं सोक सिंधुनि बह्वयोई मैं । —भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ० ३२ । २. अपवाद । मिथ्या दोष । उ०— (क) अब अपलोक सोक सुत तोरा । सहहि निठुर कठोर उर मोरा । —तुलसी (शब्द०) । (ख) भल अनभल निज निज करतूती । लहत सुजस अपलोक विभूती । —तुलसी (शब्द०) ।

अपलोक (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं० अप = अपना + लोक] अपना लोक । उ०— भयो जग्य जब देव गए अपलोक । चंद ब्रह्मा राजा भए, रैयत बसी असोक । —प०, रा०, सो०, पृ० २२४ ।

अपल्ल पु †
वि० [सं० अ + पल = पलक] बिना रोक । निर्बाध । उ०—भाराँणी बाथाँ भरे, आथा दिए अपल्ल । —बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० २ ।

अपवचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्वचन । अपशब्द । गाली । २. निंदा [को०] ।

अपवन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कृत्रिम वन । उपवन । बाग ।

अपवन (२)
वि० वायुरहित या वायु से सुरक्षित [को०] ।

अपवरक
संज्ञा पुं० [सं०] स्त्री० अपबरका । १. शयनकक्ष । अंत?पुर । २. गवाक्ष । झरोखा [को०] ।

अपवरग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपवर्ग' । उ०—अरथ धरम अपवरग दियण च्यार पदारथ । —रा०, रु०, पृ० ३ ।

अपवरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन । आवरण । २. पहनावा । पोशाक [को०] ।

अपवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोक्ष । निर्वाण । मुक्ति । जन्म मरण के बंधन के छुटकारा पाना । उ०—तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग । —मानस, ५ —४ । २. त्याग । ३. दान । ४, क्षेपण । (वाण) छोड़नी (को०) । ५. विशेष । नियम । अपवाद (को०) । ६. क्रियाप्राप्ति या समाप्ति [को०] ।

अपवर्गी पु
वि० [सं० अपवर्ग] अपवर्ग संबंधी । मोक्ष संबंधी ।

अपवर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपवर्जित] १. त्याग । छोड़ना । २. दान ।३. मोक्ष । मुक्ति । निर्वाण । ४.(ऋण आदि) बेबाक करना । चुकना करना । ५. वादा पुरा करना । वचन पालन [को०] ।

अपवर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोड़ा हुआ । त्यागा हुआ । त्यक्त । २. छुटकारा पाया हुआ । मुक्त ।

अपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] १. हटाना । पृथक् करना । २. सामान्य विभाजक [को०] ।

अपवर्तक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामान्य माप । २. हार जिसमें यथा- क्रम मोती और सोने की गुरिया पिरोई हो [को०] ।

अपवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपवर्तिन] १. परिवर्तन । पलटाव । उलटफेर । २. स्थानांतरण (को०) । ३. विभाजक । ४. शेष भाग जो विभक्त न हो [को०] ।

अपवर्तित
वि० [सं०] १. बदला हुआ । पलटाया हुआ । लोटाया हुआ । २. स्थआनांतरित (को०) । ३. नि?शेष विभक्त [को०]

अपवर्त्य
वि० [सं०] जिसका अपवर्तन हो सके । सामान्य विभाजन से जो पुर्णत? विभक्त हो जाय [को०] ।

अपवश पु
वि० [हिं० अप = अपना + सं० वश] अपने अधीन । अपने वश का । परवश का उलटा । उ०—भली करी उन स्याम बँधाए । सुर गए हरि रुप चुरावन उन अपवश करि पाए ।—सूर (शब्द०) ।

अपवहित
वि० [सं० अपवाहित] दे० 'अवपाहित' ।

अपवाड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० अप + वाट, प्रा० वाड] पिछे का द्धार या रास्ता । उ—दे प्रदक्षणा चढ़े अपवाड़ । रस संग्रै तजि बंकी नाड़ि । —प्राण०, पृ० २६६ ।

अपवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरोध । प्रतिवाद । खंडन । उ०— करके जय जयकार राम का धर्म का, करती थी अपवाद केकयी कर्म का । —साकेत, पृ० ११० । २. निंदा । अपकीर्ति । बुराई । प्रवाद । उ०—केकयी चिल्ला उठी सोन्माद, सब करें मेरा महा अपवाद । —साकेत, पृ० ७९ । ३ दोष । पाप । कलंक । उ०—राजपद के अपवाद नंद । आज तुम्हारा विचार होगा ।—चंद्र०, पृ० १७१ । ४. बाधक शास्त्र विशेष । उत्सर्ग का विरोधी । वह नियमविशेष जो व्यापक नियम से विरुद्ध हो । मुस्तसना । जैसे, यह नियम है के सकर्मक सामान्य भूत क्रिया के कर्ता के साथ 'ने' लगता है पर यह नियम 'लाना' क्रिया में नहीं लगता । ५. अनुमति । संमति । राय़ । विचार । ६. आदेश । आज्ञा । ७. वेदांत शास्त्र के अनुसार आध्यारोप का निराकरण । जैसे—रज्जु में सर्प का ज्ञान, यह अध्यारोप है और रज्जु के वास्तविक ज्ञान से उसका जो निराकरण हुआ यह अपवाद है । ८. विश्वास (को०) । ९. प्रीती । प्रेम (को०) । १०. पारिवारिकता । परिवार जैसा संबंध (को०) । ११. मृग को धोखा फँसाने या शिकार करने के लिये शिकारियों द्धारा प्रयुक्त वाद्य [को०] ।

अपवादक
वि० [सं०] १. निंदक । अपवाद करनेवाला ।२. विरोधी । बाधक ।

अपवादित
वि० [सं०] १. निंदित । २. जिसका विरोध किया गया हो ।

अपवादी
वि० [सं० अपवादिन्] [वि० स्त्री० अपवादिनी] १. निंदा करनेवाला । बुराई करनेवाला । २. बाधक । विरोधी ।

अपवारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्दा । आड़ या औट का साधन । २. व्यवधान । घिरा स्थान (को०) ।

अपवारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यवधान । रोक । बीच में प कर आघात से बचानेवाली वस्तु । २. हटाने वा दूर करने का कार्य । ३. आच्छादन । ओट । छिपाव । ४. अंतर्द्धान ।

अपवारित
वि० [सं०] १. अंतर्हित । तिरोहित । २. दूर किया हुआ । हटाया हुआ । ३. ढका हुआ । छिपा हुआ ।

अपवाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपवाहन' [को०] ।

अपवाहक (१)
वि० [सं०] स्थानांतरित करनेवाला । एक स्थान से किसी पदार्थ को दूसरे स्थान में ले जानेवाला ।

अपवाहक (२)
संज्ञा पुं० एक यंत्र जो भारी चीजों को उठाकर दूसरे स्थान पर रख देता है । गृध्र यंत्र ।

अपवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपषाहिन्, अपवाह्य] १. स्थानांतरिहत करना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । २. भिन्न में घटाना । बाकी (को०) । ३. एक छंद (को०) ।

अपवाहित
वि० [सं०] एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया हुआ । स्थानांतरित ।

अपवाहुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें बाहु की नसें मारी जाती हैं और बाहु बेकाम हो जडाता है । यह रोग वायु के प्रकोप से होता है । भुजस्तंभ रोग ।

अपविध्न
वि० [सं०] १. निर्बाध । निर्विध्न । अबाधित [को०] ।

अपवित्र
वि० [सं०] जो पवित्र न हो । अशुद्ध । नामपाक । दूषित । मैला । मलिन ।

अपवित्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अशुद्धि । अशौच । मैलापन । नापाकी ।

अपविद्ध
वि० [सं०] १. त्यागा हुआ । त्यक्त । छोड़ा हुआ । २. बेधा हुआ । विद्ध । ३. निकृष्ट । निम्न (को०) ।

अपविद्ध पुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्रानुसार बारह प्रकार के पुत्रों में वह पुत्र जिसको उसके माता पिता ने त्याग दिया हो और किसी अन्य ने पुत्रवत् पाला हो ।

अपविद्धलोक
वि० [सं०] जो इस लोक छोड़ चुका हो । पर- लोकगत [को०] ।

अपविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निकृष्ट विद्या । निषिद्ध विद्या । २. अविद्या [को०] ।

अपविष
वि० [सं०] निर्विष । विषहीन । जिसमें विष न हो [को०] ।

अपविषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विषमुक्त । २. निर्विष नामक पौधा [को०] ।

अपवीण
वि० [सं०] १. वीणारहित । २. निकृष्ट या खराब वीणावाला [को०] ।

अपवृक्त
वि० [सं०] १. समाप्त हुआ । २. पुर्ण हुआ [को०] ।

अपवृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छेद । सूराख । रंध्र [को०] ।

अपवृत्त
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यतिक्रमित । २. उलटा पलटा । ३. औंधा । ४. क्षोभित । ५. समाप्त हुआ [को०] ।

अपवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दूषित वृत्ति । २. अंत । समाप्ति ।

अपवेध
संज्ञा पुं० [सं०] रत्न या मोती का त्रुटिपूर्ण छेदन [को०] ।

अपवोढ़ा
वि० [सं० अपवीढ़] ढोने या हटानेवाला [को०] ।

अपव्यय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधिक व्यय । अधिक खर्च । निरर्थक व्यय । फजूलखर्ची । २. बुरे काम में खर्च । उ०—राजन्, सत्ता का अपव्यय मत करो ।—विशाख०, पृ० ४० ।

अपव्ययी
वि० [सं० अपव्ययिन्] १. अधिक खर्च करनेवाला । फजुल- खर्च । २. बुरे कामों में व्यय करनेवाला ।

अपव्रत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविहित व्रत । हीन व्रत ।

अपव्रत (२)
वि० [सं०] १. बिहित व्रत या कर्म न करनेवाला । अधा— र्मिक । अपवित्र । २. अविश्वस्त । आज्ञापालन न करनेवाला । ३. पतित । विकृत आचरणवाला ।

अपशंक
वि० [सं० अपशङ्क] भय, शंका, या हिचक से रहित । निर्भीक । निडर [को०] ।

अपशकुन
संज्ञा पुं० [सं०] कुसगुन । असगुन ।

अपशद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपसद' [को०] ।

अपशब्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशुद्ध शब्द । दूषित शब्द । २. असंबद्ध प्रलाप । बिना अर्थ का शब्द । ३. गाली । कुवाच्य । ४. पाद । अपान वायु का छूटना । गोज । ५. बिगड़ा हुआ शब्द । संस्कृत भाषा से भिन्न भाषा । ग्राम्य भाषा [को०] ।

अपशम
संज्ञा पुं० [सं०] विराम । अंत । समाप्ति [को०] ।

अपशु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो पशु न हो । अर्थात् बलिप्रदान के अयोग्य पशु । २. दुष्ट पशु । कुत्सित पशु । ३. गाय और घोड़े से भिन्न पशु [को०] ।

अपशु (२)
वि० १. पशुविहीन । २. गरीब (को०) ।

अपशुक (१)
संज्ञा पुं० [सं० अपशुव्] आत्मा [को०] ।

अपशुक (२)
वि० शोकविहीन [को०] ।

अपशोक (१)
वि० [सं०] शोक या विषादविहीन [को०] ।

अपशोक (२)
संज्ञा पुं० अशोक का व वृक्ष [को०] ।

अपश्चिम
वि० [सं०] १. जिसके पीछे कोई न हो । अंतिम । २. प्रथम । अंतिम नहीं । ३. चरम या पराकाष्ठा [को०] ।

अपश्रय
संज्ञा पु० [सं०] तकिया [को०] ।

अपश्री
वि० [सं०] शोभाबिहीन । श्रीरहित [को०] ।

अपश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं० अप+श्रुति] एक ही धातु या शब्द में अथवा एक ही प्रत्यय या विभक्ति के योग में निष्पन्न धातु, शब्द, प्रत्यय या विभक्त में निर्दिष्ट क्रमानुसार स्वरध्वनि में हूए परिवर्तन को अपश्रुति कहते है ।—जैसे—गान,गीत,गेय आदी ।

अपश्वास
संज्ञा पु० [सं०] अपानवायु [को०] ।

अपष्ठ
संज्ञा पु० [सं०] अंकुश का अग्रभाग या नोक [को०] ।

अपष्ठु (१)
वि० [सं०] १. विपरीत । उलटा । २.प्रतिकूल । वाम [को०] ।

अपष्ठु (२)
क्रि० वि० १.विपरीत रूप मे । २. गलत ढंग से । निर्दोषिता पूर्वक [को०]

अपष्ठु (३)
संज्ञा पु० [सं०] समय [को०] ।

अपष्ठुर
वि० [सं०] विपरीत । उलटा [को०] ।

अपष्ठुल
वि० [सं०] दे० 'अपष्ठुर' [को०] ।

अपसंचय
संज्ञा पु० [सं० अपस़ञ्चय] अनियमित रूप से वस्तु का संग्रह या छिपाकर रखना ।

अपस (१) पु
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'अपशु' । उ०—ऊकरडी डोका चुगइ अपस डँमायड आँरण ।—ढोला०, दु०,३३६ ।

अपस (२) पु
संज्ञा पु० [सं० अपस्मार] १.मृगी रोग । २. राजस्थानी कविता में मान्य एक प्रकार का दोष जिसमें शब्दयोजना निरर्थक हो और अर्थ साफ न हो । उ०—अपस अमूभ्यो अरथ सबद पिण विण हित साजै ।—रघु० रू०, पृ१४ ।

अपसगुन पु
संज्ञा पु० [सं० अपशकुन] असगुन । बुरा सगुन । उ०— अर्जुन दुखित बहुत तब भए । इहाँ अपसगुन होत नित नए । सूर० १ ।२८६ ।

अपसद
संज्ञा पु० [सं०] वह पुत्र जो अनुलोम विवाह द्वारा द्विजों से उत्पन्न हो । ब्राह्मण पुरूष और क्षत्रिया, वैश्या वा शूद्रा स्त्री०, अथवा वैश्या पुरूष और शूद्रा स्त्री से उत्पन्न संतान ।

अपसमार पु
संज्ञा पु० [सं० अपस्मार] तैंतीस व्यभिचारी या संचारी भावों में से एक ।उ०—प्रपसमार सो कवि उर धरई ।—भिखारी ग्रं०, भा०१, पृ०७२ ।

अपसना पु
क्रि० अ० [सं० अपसरण=खिसकना] १. खिसकना । सरकना । भागना । उ०—राते कवँल करहिं अलि भवाँ । धूमहिं माति चहहिं अपसवाँ ।—जायसी ग्र०,पृ०४२ । २. चल देना । चंपत होना । उ०—(क) जीव काढि़ लै तुम अपसई । (ख) लै अपसवा जलंधर जोगी ।—जायसी (शब्द) ।

अपसवना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अपसना' ।

अपसर पु
वि० [हिं० अप=अपना+सर(प्रत्य०)] आप ही आप । मनमाना । अपने मन का । उ०—लोटत पीत पराग कीच महँ नीच ना अंग सम्हारे । बारंबार सरक मदिरा की अपसर रहत उघारे ।—सूर (शब्द०) ।

अपसर (२)
संज्ञा पु० [सं०] १. अपसरण । पीछे हटना ।२. भागना । ३.दूरी (के०) । ४.उचीत कारण । संगत तर्क [को०] ।

अपसर (३) पु
वि० [फा० अपसर] मुखिया । प्रधान । उ०—अपसर गज दलगंजन गाऊ । छलि मकुलाइ देहिं तेहि ठाऊ ।—चित्रा०, पृ १८८ ।

अपसरण
संज्ञा पु० [सं०] १. भाग जाना । खिसक जाना । निकल जाना । २.निर्गम । निकास [को०] ।

अपसर्जक
वि० [सं०] अपसर्जन करनेवाला [को०] ।

अपसर्जन
संज्ञा पु० [सं०] १. विसर्जन । त्याग । २. दान । ३. मोक्ष [को०] ।

अपसर्प
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्तचर । जासूस । खुफिया । भेदिया ।—अनेकार्थ० ।

अपसर्पक
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'अपसर्प' [को०] ।

अपसर्पण
संज्ञा पु० [सं०] वि० १. पीछे सरकना । पीछे हटना । २. जासूसी करना [को०] ।

अपसर्पित
वि० [सं०] पीछे हटा हुआ । पीछे खिसका हुआ । पीछे सरका हुआ ।

अपसरवना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अपसना' ।

अपसव्य
वि० [सं०] १. सव्य का उलटा । दाहिना । दक्षिण । २. उल्टा । विरूद्ध । ३. जनेऊ दाहिने कंधे पर रखे हुए । यौ०—अपसव्य ग्रहण=जब राहु सूर्य वा चंद्र के दाहिने होकर चलता है । अर्थात ग्रहण दाहिनी ओर से लगता है तब उसे अप सव्य ग्रहण कहते है ।अपसव्य ग्रहयुद्ध=बृहत्संहिता के अनुसार ग्रहयुद्ध के चार भेद में से एक । अपसव्यतीथ= पितृतीर्थ । क्रि० प्र०—होना =बाएँ काँधे से जनेऊ और अँगोछा दाहिने काँधे पर रखना वा बदलना । —करना=किसी के किनारे चारो ओर ऐसी परिक्रमा करना कि वह दाहिनी ओर पडे़ । दाक्षिणावर्त परिक्रमा करना ।

अप्रसाधारण
वि० [सं० अप +साधारण] साधारण से भिन्न (अच्छे या बुरे भाव में) । —यदि जयंती एक साधारण स्त्री थी तो मैं भी एक साधारण पुरूष था । —सन्यासी,पृ०३९८ ।

अपसार (१)
संज्ञा पु० [सं० अप=जल+सार] १. अंबुकण । पानी का छींटा । उ०—लेत अवनि रवि अंसु कहँ, द्त अभिय अपसार । तुलसी सूछम को सदा रवि रजनीस अधार ।— स० सप्तक, पृ०३६ । २. पानी की भाप ।

अपसार (२)
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'अपसरण'[को०] ।

अपसारक
वि० [सं०] दुर करनेवाला । हटानेवाला ।

अपसारण
संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० अपसारण] निकल बाहर करना । हटा देना । दूरी करण । निवारण [को०] ।

अपसारित
वि० [सं०] निष्कासित । निकाला हुआ । दूरीकृत । उ०—बाधाएँ अपसारित कर, कहता वर यों वरना ।—गीतिका, पृ०१०५ ।

अपसिद्धांत
संज्ञा पु० [सं० अपसिद्धान्त] १. अयुक्त सिद्धांत । वह विचार दो सिद्धांत के विरुद्घ हो । २. न्याय में एक प्रकार का विग्रह स्थान । जहाँ किसी सिद्धांत को मानकर उसी के विरुद्ध बात कही जाय वहाँ यह निग्रह स्थान होता है । ३. जैन शास्त्रानुसार उनके विरुद्ध सिद्धांत ।

अपसूकन पु
संज्ञा पु० [हिं०] दे० 'अपशकुन' । उ०—महा अपसूकन होज्यो ए भुवाल ।—बी० रासी, पृ० ५९ ।

अपसृत
वि० [सं०] १. युद्ध से भागा हुआ । भगोडा । २. हटाया गया (को०) । ३. नीचे फेंका हुआ या च्युत [को०] । विशेष—कौटिल्य के अनुसार अपसृत और अनिक्षिप्त (सेवा से अलग किए हुए या देस से निकाले हुए) सौनिकों में अपसृत अच्छे हैं । उनसे युद्ध में फिर काम लिया जा सकता है ।

अपसृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपसरण'[को०] ।

अपसोच †
संज्ञा पुं० [सं० अप+शोच] बुरी चिंता । दुश्चिंता । उ०—सुचिता गया तो सहुआइन रोई तो काफी मगर भीतर भीतर उसे उतना अपसोच नहीं हुआ ।—नई०, पृ०८० ।

अपसोस (१) पु
संज्ञा पुं० [फा० अफसोस] चिंता । सोच । दु?ख । उ०—(क) ताते अब मरियत अपसोसनि । मथुरा हूँ ते गए सखी री । अब हरि कारे कोसनि । —सूर (शब्द०) । (ख) काहे कौं अपसोस मरति हौ नैन तुम्हारै नाहीं ।—सूर०, १० ।२२३५ ।

अपसोसना पु
क्रि० अ० [हिं० अपसोस से नाम०] सोच करना । चिंता करना । अफसोस करना । उ०—कहा कहूँ सुंदर घन तोसों राधा कान्ह एक सँग बिलसत मन ही मन अपलोलों ।—सूर (शब्द) ।

अपसौन पु
संज्ञा पुं० [सं० अपसकुन] असगुन । बुरा सगुन ।

अपसौन पु †
क्रि० अ० दे० 'अपसवना' ।

अपस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहिए के अलावा गाडी़ कोई भी हिस्सा । ढाँचा । २. विष्ठा । मल । ३. योनि । ४. गुदा [को०] ।

अपस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] घुटने के नीचे का भाग [को०] ।

अपस्खल
संज्ञा पुं० [सं०] कूदना । फाँदना [को०] ।

अपस्तंब
संज्ञा पुं० [सं० अपस्तम्भ] छाती के भीतर एक ओर स्थित कोश जिसमें प्राणवायु रहता है [को०] ।

अपस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० अपस्तम्भ] दे० 'अपस्तंब' [को०] ।

अपस्तुति
संज्ञा स्त्री० [सं० अप+ स्तुति] दोषवर्णन । निंदा ।

अपस्नात
वि० [सं०] प्राणी के मरने पर उदक क्रिया के समय का स्नान किया हुआ ।

अपस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपस्नात] १. मृतकस्नान । वह स्नान जो प्राणी के कुटुंबी उसके मरने पर उदक क्रिया के समय करते हैं । २. किसी के नाहाने के बाद बचे हुए जल में नहाना [को०] ।

अपस्पर्श
वि० [सं०] संज्ञाहीन । चेतनाशून्य [को०] ।

अपस्मार
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोगविशेष । मृगी । विशेष—इसमें हृदय काँपने लगता है और के सामने अँधेरा छा जाता है । रोंगी काँपकर पृथ्वी पर मुर्च्छित हो गिर पड़ता है । वैद्यक शास्त्रानुसार इसकी उत्पत्ति चिंता, शोक और भय के कारण कुपित त्रिदोष से मानी गी है । यह चार प्रकार का होता है—(१) वातज, (२) पित्तज, (३) कफज और (४) सन्निपातज । यह रोग नैमित्तिक है । वातज का दौरा बारहवें दिन, पित्तज का पंद्रहवें दिन और कफज का तीसवें दिन होता है । पर्या०—अंगविकृति । लालाध । भूतविक्रिया । मृगी रोग । २. अपस्मृति । भुलक्कडपन । स्मृतिभ्रंश [को०] ।

अपस्मारी
वि० [सं० अपस्मारिन्] जिसे अपस्मार रोग हो । उ०— नेत्र टेढे बाँके करनेवाला ऐसा अपस्मारी रोगी जीवे नहीं ।— माधव०,पृ० १३१ ।

अपस्मृति
वि० [सं०] भुलक्कड । खब्तुलहवास [को०] ।

अपस्मृति (१)
वि० [सं०] १.भुलक्कड । भूल जानेवाला । २. विभ्रमित । घबडाया हुआ [को०] ।

अपस्मृति
संज्ञा स्त्री० दे० 'अपस्मार (१)' [को०] ।

अपस्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कटु स्वर या ध्वनि [को०] ।

अपस्वारथ पु
संज्ञा पुं० [हिं० अप+सं० स्वार्थ] स्वार्थ । अपना मतलब । उ०—(क) ये नैना अपस्वारथ के । और इनहिं पटतर कयों दीजै जे हैं बस पर परमारथ के ।—सूर०,१० ।२२८३ । (ख) अपस्वारथ सो बहु बिधि लीन्हा । परमारथ कान्हू नहि चीन्हा ।— कबीर सा०, पृ० ५८१ ।

अपस्वारथी
वि० [हिं०] दे० 'अपस्वार्थी' । उ०— नैना लुब्धे रूप कौं अपनैं सुख माई । अपराधी अपस्वारथी मोको बिसराई ।— सुर०, १० ।२२५३ ।

अपस्वार्थी
वि० [हि० अप=अपना+सं०स्वार्थी] स्वार्थ साधनेवाला । मतलबी । काम निकालनेवाला । खुदगरज ।

अपह
वि० [सं०] नाश करनेवाला । विनाशक । उ०—मनोज, वैरि वंदित, अजादि देव सेवतं । विशुद्ध बोध विग्रहं, समस्त दूषण- पहं ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—यह शब्द समासांत पद अंत में प्राय? आता है । जैसे— क्लेशापह । तमोपह । दूषणपह ।

अपहड पु †
वि० [सं० अ+प्रहत या सं० अपहत] दे० 'अप्रतिहत' । उ०—बड दाता पाता पडा, अपहड़ पुरै आस ।—बाँकीदास ग्र०,भा०१, पृ० ४८ ।

अपहत
वि० [सं०] १.नष्ट किया हुआ । मारा हुआ । २. दूर किया हुआ । हटाया हुआ ।

अपहतपाष्टमा
वि० [सं०] सब पापों से विमुक्त । जिसके सब पाप नष्ट हो । पापशून्य । विधतपाप ।

अपहरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अपहरणीय, अपहरित, अपहृत,अपहर्ता] १. छीनना । ले लेना । हर लेना । उ०—इसका सर्वस्व अपहरण करके इसे केवल राज्य से बाहार कर दो ।—विशाख० पृ०८३ । २. चोरी । लूट । ३. छिपाव । संगोपन । ४. महसूल वाले माल को दूसरी वस्तुओं में छिपाकर महसूल से बचाना [को०] ।

अपहरणीय
वि० [सं०] १. न छीनने योग्य । हर लेने योग्य । २. चुराने योग्य । लूटने योग्य । ३. छिपाने योग्य । संगोपन करने योग्य ।

अपहरना पु
क्रि० स० [सं० अपहरण से नाम०] १. छीनना । ले लेना । २. लूटना । चुराना । उ०— जो ज्ञानिन कर चित अपहरई । बारियाई विमोह बस करई ।— तुलसी (शब्द) । ३. कम करना । घटाना । क्षय करना । नाश करना । उ०— शरदातप निशि शशि अपहरई । संत दरस जिमि पातक टरई ।— तुलसी (शब्द०) ।

अपहर्ता
संज्ञा पुं० [सं० अपहर्तृ] १. छीननेवाला । हर लेनेवाला । ले लेनेवाला । २. चोर । लूटनेवाला । ३.छिपानेवाला ।

अपहसित
संज्ञा पुं० [सं०] बेमतलब की हैसी । निरर्थक हँसी । २. हास का एक बेद या प्रकार (को०)

अपहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्दनिया देकर बाहर निकालना । गर्दन पकडकर बाहर करना । गलहस्त । गलहस्त देकर निकाला हुआ व्यक्ति । २. पेंकना । लेजाना । ३. चोरी करना । लूटना [को०] ।

अपहस्तित
वि० [सं०] १. गलहस्त देकर निष्कासित । २. परित्यक्त । फेंका हुआ [को०] ।

अपहान
संज्ञा पुं० [सं०] छोडना । त्यागना [को०] ।

अपहानि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० १.'अपहान' । २. गायब होना । ३. कम होना [को०] ।

अपहार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपहारक, अपहार, अपहारित, अपहार्य] १. चोरी । लूट । २. छिपांव । संगोपन । ३. ले जाना (को०) । ४. दूसरे की संपत्ति खर्च करना । पराया माल उड़ाना (को०) । ५. हानि । क्षति (को०) ।६. प्राप्त करना । साना [को०] प्राप्ति [को०] ।

अपहारक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपहारिका] छीननेवाला । बलात् हरनेवाला ।

अपहारक (२)
संज्ञा पुं० डाकू । चोर । लुटेरा ।

अपहरित
वि० [सं०] १. छीना हुआ । अपहृत । २. लूटा हुआ । चोरी द्वारा प्राप्त । ३.छिपाया हुआ । संगोपित ।

अपहारी (१)
वि० [सं० अपहारिन्] [वि० स्त्री० अपहारिणी] १.हरण करनेवाला । नाश करनेवाला ।

अपहारी (२)
संज्ञा पुं० चोर । लुटेरा । डाकू ।

अपहार्य
वि० [सं०] छीनने योग्य । चोरी करने योग्य ।

अपहास
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपहास । उ०—अब कायर अपहास री, रचना रचूँ अमंद ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० १. पृ० १९ । २. अकारण हँसी ।

अपहृत
वि० [सं०] छीना हुआ । चुराया हुआ । लूटा हुआ उ०— हृदय ता राजस्व अपहृत, कर अधम अपराध, दस्यु मुझसे चाहते हैं सुख सदा निर्बाध ।—कामायनी, पृ० ८४ । यौ.—अपहृतज्ञान=सुधबुध हीन । बेखबर ।

अपहृतश्री
कांतिहीन । छविहीन । उ०—अपहृतश्री सुख स्नेह का सद्म ।—तुलसी०, पृ०३८ ।

अपहेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] तिरस्कार । फटकार । भिड़की ।

अपह्नव
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपह्नृत] १. छिपाव । दुराव । २. मिस । बाहाना । टालमटूल । हीला । वाग्जाल असली बात को छिपाना । ३. प्रेम । प्यार (को०) । ४. तोषण [को०] ।

अपह्नुत
वि० [सं०] छिपा हुआ । उ०— विविध द्रव्य हैं छिपे गर्भ में- इसके विश्रुत, जो बांधव के अलंकार हैं मंजु अपहनुत ।— प्रेमांजलि, पृ० ४३ ।

अपह्नृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुराव । छिपाव । २. बहाना । टाल- मटूल । हीला हवाला । ३. एक काव्यालंकार जिसमें उपमेय कानिषेध करके उपमान का स्थापना किया जाय । जैसे,—धुरवा होइ न अलि यहै धुवाँ धरनि चहुँ कोद । जारत आवत जगत को पावस प्रथम पयोद । विशेष—इसके दो प्रधान भेद हैं— शब्दापहनुति और अर्थापहनुति, इसके अतिरिक्त हेत्वपहनुति, पर्यस्तापहनुति, भ्रांतापहनुति, छेकापहनुति, व्यग्यापहनुति भी इसके बेद हैं ।

अपह्लवान
वि० [सं०] १. छिपाता हुआ । छिपानेवाला । २. नटनेवाला । इनकार करनेवाला ।

अपह्नोता
वि० [सं० अपह्नोतृ] १. अस्वीकार करनेवाला । १. संगोप्ता । छिपानेवाला [को०] ।

अपांक्त
वि० [अपाडक्त] भोजनकाल में साथ पंक्ति में बैठाने के अयोग्य । पंक्ति या जातु से बहिस्कृत । जातिच्युत [को०] ।

अपांक्तेय
वि० [सं० आपाड्क्तेय] दे० 'अपांक्त' [को०] ।

अपांकत्य
वि० [सं० अपाड्क्त्य] दे० 'अपांक्त' [को०] ।

अपांग (१)
संज्ञा पुं० [सं० अपाग्ड] आँख का कोना । आँख की कोर । कटाक्ष । उ०—(क) नेत्रों को अपांग से शृंगारित किया ।—वै० न०, पृ० ४४२ । (ख) और फिर अरूण अपांगों से देखा कुछ हँस पडी ।— झरना, पृ २५ । <bयौ.— अपांग दर्शन=तिरछी चितवन । अपांग दृष्टि=कनखियों से देखना । अपांगधारा=कटाक्षगति । कटाक्षप्रवाह । उ०— (क) किंतु हलाहल भरी उसकी अपांगधारा .००आज भी न जाने क्यों बुलने में असमर्थ हुँ ।— इंन्द्र०, पृ० ४१ । कामदेव (१) संप्रदायसूचक तिलक । (२) अत । समाप्ति । (३) अपामार्ग ।

अपांग (२)
वि० अंगहीन । अंगभंग । पंगु ।

अपांगक
संज्ञा पुं० वि० [सं० अपाग्डक] दे० 'अपांग'[को०] ।

अपांनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सागर । समुद्र । २. वरूण [को०]

अपांनिधि
संज्ञा पुं० [सं० अपामनिधि] १. समुद्र । २. विष्णु [को०] ।

अपांपति
संज्ञा पुं० [सं० अपाम्पति] दे० अपांनाथ' [को०] ।

अपांपित्त
संज्ञा पुं० [सं० अपाम्पित्त] १. अग्नि । २. चित्रक वृक्ष [को०] ।

अपांवत्स
संज्ञा पुं० [सं०] एक बडा तारा जो चित्रा नक्षत्र से पाँच अंश ऊत्तर विक्षेप में दिखाई पडता है ।

अपांशुला
वि० स्त्री०[सं०] पतिव्रता ।

अपा (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० आपा] आत्मभाव । अहंकार । गर्व । घमंड । उ० —आधो छोडि ऊरघ को जावे । अपा मेटि कै प्रेम बढावे ।— कबीर (शब्द०) । दे० 'आपा' ।

अपा (२) पु
सर्व [हिं०] दे० 'अपना' । यौ.—अपापर=अपना पराया । उ०—अपापर नाहीं चिन्हीला ।—दक्खिनी०,पृ ३४ ।

अपाइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अवाय] दे० 'अपाय' ।

अपाउ पु
संज्ञा पुं० [सं० अपाय, प्रा० अबाय] अनरीति । अन्यथाचार । उपद्रव । उ०—खेलत संग अनुज बालक नित जोगवत अनट अपाउ । जति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ ।— तुलसी ग्रं०, पृ ५०९ ।

अपाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अजीर्ण । अपच । २. कच्चापन ।

अपाक (२)
वि० [सं०] अपक्व । अनपका [को०] ।

अपाक (३)पु
वि० [सं०अ+फा० पाक] अपवित्र । नापाक ।

अपाकज
वि० [सं०] १. जो पका या पकाया न हो । २. जो प्रकृत या मूल रूप में हो । प्राकृतिक ।

अपाकरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपाकृत] १. पृथक्करण । अलग करना । २. हटाना । दूर करना । निराकरण । निरसन ।३. चुकता करना । अदा या बेबाक करना ।

अपाकर्म
संज्ञा पुं० [सं० अपाकर्मन्] भुगतान । अदायगी [को०] ।

अपाकशाक
संज्ञा पुं० [सं०] अदरक । आदी ।

अपाकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपाकरण' [को०] ।

अपाक्ष
वि० [सं०] १. आखों के सामने । प्रत्यक्ष । उपस्थित । २. दुषित नेत्रवाला । ३. नेत्रहीन [को०] ।

अपाची
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० अपाचीन, अपाच्य] दक्षिण या पश्चिम [को०] ।

अपाचीन
वि० [सं०] १.पिछवाडे । पीछे की ओर । २. जो दिखाई न दे । ३. दक्षिणी । ४. पश्चिमी । विरूद्ध । विपरीत [को०] ।

अपाच्य
वि० [सं०] १. जो पक न सके । २. जिसका पाचन न हो सके । ३. दक्षिणी या पश्चिमी [को०] ।

अपाटव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पटुता का अभाव । अकुशलता । अनाडी़पन । २. अचंचलता । सुस्ती । मंदता । ३. कुरूपता । बदसूरती । ४. रोग बीमारी । ५. मद्य । शराब ।

अपाटव (२)
वि० १. अपटु । अनाडी़ २. अचंचल । सुस्त । ३. कुरूप । बदसूरत । ४.रोगी । बीमार ।

अपाठ
संज्ञा पुं० [सं० अ +पाठ] अपढ़ । मूर्ख । उ०—पंडित पूत अपाठ असत ह्वै जग में आदर । इय गती होय हठील मोल के समैं बेआदर । —राम० धर्म०, पृ० १७५ ।

अपाठ्य
वि० [सं०] जो पढा न जा सके । जो पढ़ने के योग्य न हो ।

अपाढ †
वि० [सं०अपार या अपवाह्य] मुश्किल । कठिन अपार । उ०—उसकी विना मरजी चला जाऊँ तो घर में रहना अपाढ़ कर दे । — गोदान, पृ० २३८ ।

अपाण पु †
संज्ञा पुं० [सं० आत्मन्, प्रा० अप्पण, अप्पाण] गर्व । घमंड । उ०—विदेही तणेदिवाण, ईस चाप धरे आण । तो़ड़वा अनेक ताण, ऊठिया करे अपाण ।— रघु० रू०, पृ०७६ ।

अपाणि
वि० [सं०] पाणिरहित । हस्तविहीन । बिना हाथ का ।

अपाणिनीय
वि० [सं०] १. पाणिनी व्याकरण के नियमानुसार असाधु प्रयोग या उसमें अनुल्लिखित । २. पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन न करनेवाला [को०] ।

अपात पु
वि० [सं० अ+पात] जो च्युत न हो । अच्युत । उ०— सूखमना सुर की सरिता अघ ओघहिं दीन दयाल हरे । ता तट साखी अपात है ब्रह्म सुचेतन मैं दल सुद्ध सरै । —दीन० ग्रं०, पृ०७४ ।

अपात्र (१)
संत्रा पुं० [सं०] १. बेकार या अनुपयुक्त बर्तन । २. अयोग्य व्यक्ति । ३. दान, भोज आदि के अयोग्य ब्राह्मण [को०] । ३२

अपात्र (२)
वि० [सं०] १. अयोग्य । कुपात्र । उ०—नियम पालती एक मात्र तू, सब अपात्र और पात्र तू ।— साकेत, पृ० ३१४ । २. मूर्ख । ३. श्राद्धादि निमंत्रण के अयोग्य (ब्राह्मण) ।

अपात्रकृत्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यक्ति या ब्राह्मण को पतित बना देनेवाला कार्य [को०] ।

अपात्रदायी
वि० [सं० अपात्रदायिन्] [वि० स्त्री० अपात्रदायिनी] कुपात्र को दान देनेवाला ।

अपात्रभृत्
वि० [सं०] अयोग्य वा खोटे व्यकितयों का समर्थक [को०] ।

अपात्रीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह कर्म जिसके करने से ब्रह्मण अपात्र हो जाता है, जैसे—झूठा बोलना,निंदित का दान लेना व्यापार करना, शूद्रो का संपर्क करना आदि ।

अपाद
वि० [सं०] पादरहित । बिना । पैरोंवाला । पंगु [को०] ।

अपादक
वि० [सं०] दे० 'अपाद' [को०] ।

अपादान
संज्ञा पुं० [सं०] १. हटाना । अलगाव । विभाग । २. व्याकरण में पाँचवाँ कारक जिससे एक वस्तु का दूसरी वस्तु से विश्लेषण वा अलगाव सूचित हो । इसका चुहन 'से' है । जैसे—वह घर से आता है । वृक्ष से फल गिरता है ।

अपादान कारक
संज्ञा पुं० [सं० अपादान + कारक] व्याकरम के छह कारकों में से पाँचवाँ कारक ।

अपान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दस वा पाँच प्राणों में से एक । विशेष—निम्नलिखित तीनों वायुओं में से कोइ किसी को और कोई किसी को अपना कहतें हैं—१. वह वायु जो नासिका द्वारा बाहार से भीतर की ओर खींची जाती है । २. गुदास्थ वायु जो मल को बाहार निकालती है । ३. वह वायु जो तालु से पीठ तक और गुदा से उपस्थ तक व्याप्त है । २.वायु जो गुदा से निकले । अधोवायु । गुदस्थ वायु । ३. गुदा ।

अपान (३)
वि० १. सब दुखों को दूर करनेवाला । २. ईश्वर का एक विशेषण ।

अपान (३) पु
संज्ञा पुं० [प्रा० अप्पाण हिं०अपना] १. आत्मभाव । आत्मा- तत्व । आत्मज्ञान । उ०—(क) तुलसी भेडी़ की धँसनि जड़ जनक सनमान । उपजत हिय अपमान भा, खोवन मूढ़ अपान ।— तुलसी ग्र०, पृ० १४५ । (ख) ऋषिराज राजा आज जनक समान को । गाँठि बिनु गुन की कठिन जड़ चेतन की, छोरी अनायास साधु सोधक अपान को ।— तुलसी ग्रं०, पृ०३१५ । २. आप । आत्मगौरव । भ्रम । उ०—काहे को अनेक देव सेवत, जागै मसान खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे ।— तुसली ग्रं०, पृ०२३८ । ३. सुध । होश हवास । उ०— (क) भय मगन सब देखनहारे । जनक समान अपान बिसारे ।—मानस, १ ।३२५ । (ख) बरबस लिए उठाइ उर, लाए कृपानिधान । भरत राम की मिलन लखि, बिसरा सबहि अपान ।— मानस, पृ० २८५ । ४. अहं । अभिमान ।

अपान (४) पु
सर्व० [हिं० अपना] निज का । अपना । उ०— पहि- चान को केहि जान, सबहि अपान सुधि भोरी भई । — मानस, पृ० १ ।३२९ ।

अपान (५) पु
वि० [सं० अ +पान] जो पाने के योग्य न हो । अपेय । उ०—माधौ जू मोतैं और न पापी । भच्छि अभच्छ अपान पान करि कबहुँ न मनसा धापी । —सूर० १ ।१४० ।

अपानद्वार
संज्ञा पुं० [सं०] गुदा [को०] ।

अपानन
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्वसनक्रिया । साँस लेना । २. मल- मूत्र का निकलना या बहिर्गमन [को०] ।

अपानपवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीरस्थ अपान नामक वायु । २. गुदा से निकलनेवाली वायु पाद [को०] ।

अपानवायु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपानपवन' ।

अपाना †
सर्व० [हिं०] [स्त्री० अपानी] दे० 'अपना' । उ०—(क) साहब लेई चलो देस अपाना ।—धरम०,पृ०२८ । (ख) लोग सब गेह के, प्रवीन हैं अपानी घाईं देह जुवताई नयो नयो नेह जोरिहै ।—दीन ग्रं० पृ० १४० ।

अपानृत
वि० [सं०] झूठ से रहित । सत्य [को०] ।

अपाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जो पाप न हो । पुण्य । सुकृत । उ०— संग नसै जिहि भाँति ज्यों उपजै पाप अपाप । तिनसों लिप्त न होहिं ते ज्यों उपलनि को आप ।—केशव (शब्द०) ।

अपाप (२)
वि० [स्त्री०अपाप] निष्पाप । पापरहित । उ०—वह पुण्यकृती अपाप थे, पहले ही अवतीर्ण आप थे ।— साकेत, पृ० ३३६ ।

अपामार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] चिचडा़ । चिचडी़ । ऊँगा ।ऊँगी । अंझा- झारा । लटजीरा ।

अपापी
वि०[अपापिन्] [वि० स्त्री० अपापिनी] निष्पाप । अपाप [को०] ।

अपामार्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुद्धि । सफाई । २. (व्याधि या दोष का) निरोध या निवारण [को०] ।

अपामृत्यु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपमृत्यु' [को०] ।

अपाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्री० अपायी] १. विश्लेष । अलगाव । २. अपगमन । पीछे हटना । ३. नाश । उ०— सब अपाय भय खोय सदा सुभ करत जाय है ।— बुद्ध च०, पृ० २१९ । ४.पु अन्यथाचार । अनरीति । उपद्रव । उ०— करिय संभार कोसल राय । अकनि जाके कठिन करतब अमित अनय अपाय ।— तुलसी [को०] । ५. खतरा । विध्न [को०] । ६. हानि । क्षति (को०) । ७. शब्दांत । शब्द की समाप्ति ।८. गायब होना । लुप्त होना [को०] ।

अपाय (२) पु
वि० [सं० अ= नहीं+ पाद प्रा० पाय= पैर] १. बिना पैर का । लँगडा । अपाहिज । २. निरूपाय । असमर्थ । उ०—राम नाम के जपे पै जाय जिय की जरनि । कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भय जैसे तम जारिबे को चित्र को तरनि ।—तुलसी (शब्द०) ।

अपायी
वि० [ सं० अपायिन्] [वि० स्त्री० अपयिनी] १. नष्ट होनेवाला । नश्वर । अस्थिर । अनित्य । २. अलग होनेवाला । ३. गायब या लुप्त होनेवाला [को०] ।

अपार (१)
वि० [सं०] १. जिसका पार न हो । सीमारहित । असीम । अनंत । बेहद । उ०—एक दिन सहसा सिंधु अपार । लगा टकराने नगतल क्षुब्ध ।— कामायनी, पृ० ५२ ।२, असंख्य । अधिक । अतिशय । अगणित । बहुत । ३. तटहीन ।

अपार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सांख्य में वह तुष्टि जो धनोपार्जन के परिश्रम और अपमान से छूटकारा पाने पर होती है । २. समुद्र । सागर । [को०] । ३. नदी का दूसरा किनारा [को०] ।

अपारक
वि० [सं०] असमर्थ । अशक्त । अयोग्य । अदक्ष [को०]

अपारदर्शक
वि० [सं० अ +पारदर्शक] जो पारदर्शक म हो । जसके पार प्रकाश न जा सके । विशेष— लोहा, ताँबा, सोना, लकडी, ईट, पत्थर आदि प्रकाश को रोक लेते हैं । इनमें होकर प्रकाश नहीं निकल सकता अत? इन्हें अपारदर्शक कहते हां ।

अपारदर्शिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+पारदर्शिता] वह स्थिति जिसमें प्रकाश पार न सके,

अपादर्शी
वि० [सं०अ+पारदर्शिन्] दे० 'अपारदर्शक' ।

अपारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरित्री । पृथ्वी [को०] ।

अपार्ण
वि० [सं०] १. दूरस्थ । २. निकटस्थ [को०] ।

अपार्थ (१)
वि० [सं०] १. अर्थहीन । निरर्थक । २. निष्प्रयोजन । व्यर्थ । ३. नष्ट । प्रभावशून्य ।

अपार्त (२)
संज्ञा पुं० १. कविता में वाक्यार्थ स्पष्ट न होने का दोष । २. दे० 'अपार्थक' [को०] ।

अपार्थक
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में एक निग्रह स्थान जो एसे वाक्यों के प्रयोग से होता है जो पूर्वापर असंबद्ध हों ।

अपार्थकरण
संज्ञा पुं० [सं०] मुकदमे में झुठा बयान, दलील या तर्क उपस्थित करना [को०] ।

अपार्थिव
वि० [सं०] अभोतिक । जो पृथ्वी या मिट्टी से संबद्ध अथवा उत्पन्न न हो [को०] ।

अपालंक
संज्ञा पुं० [सं० अपालक्ड] आरग्वध । अमलतास [को०] ।

अपाल
वि० [सं०] रक्षाहीन । रक्षकविहीन [को०] ।

अपाव
संज्ञा पुं० [सं० अपाय=नाश] अन्यथाचार । अन्याय । उपद्रव

अपावन
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री अपावनी] अपवित्र । अशुद्ध । मलिन । उ०—तन खीन केउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें ।— मानस,पृ० ५२ ।

अपावरण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री अपावृति] १. उचारना । खोलना । २.ढाकना । छिपाना । ३.आवृत करना [को०] ।

अपावर्त्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पलटाव । वापसी । २.भागना । पीछे हटाना । ३.लौटना ।

अपावृत
वि० [सं०] १. जो ढका या बंद न हो । २. जो ढका, बंद या आवृत हो । ३. स्वतंत्र । अनियंत्रित [को०] ।

अपावृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अपावरण' [को०] ।

अपावृत्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौटना (घोडे़ का) । २. (युद्ध में) बगली काटना [को०] ।

अपावृत्त (२)
वि० [सं०] १. पछाडा़ हुआ । भागा या भगाया हुआ । हराया हुआ । २. तिरस्कारपूर्वक अस्वीकार करनेवाला [को०] ।

अपाश्रय (१)
वि० [सं०] बेसहारा । निराधार । आक्श्रयहीन । निरवलंब असहाय । दीन [को०] ।

अपाश्रय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिरहाना । बिस्तर का वह भाग जहाँ सिर को आश्रय दिया जाय । २. चँदोवा या शमियाना । ३. आश्रयस्थल [को०] ।

अपश्रित
वि० [सं०] १.एकांतसेवी । क्षेत्रसंन्यस्त । २. जिसने संसार के सब कामों से छुटकारा पा लिया हो । विरक्त । त्यागी । ३. अधिवसित [को०] । ४. आबद्ध [को०] ५. अवलंबित [को०] ।

अपासंग
संज्ञा पुं० [ सं० अपासङ] तरकश । तुणीर [को०] ।

अपासन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अपासित, अपास्त] १. क्षेपण । फेंकना । २. छोडना । त्यागना । ३. मारना । वध करना [को०] ।

अपासरण
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० अपासृत] प्रत्थान । निर्गमन । अपसरण [को०] ।

अपासु
वि० [सं०] प्राणहीन । मृत [को०] ।

अपासृत
वि० [सं०] प्रस्थित, निर्गमित । [को०] ।

अपाहज पु
वि० [हिं०] दे० 'अपाहिज' । उ०—और दरिद्री, दुखिया, अपाहजों की सहायता करने में अभिरुचि रखता था ।—श्रीनिवास ग्रं० पृ०३०८ ।

अपाहिज
वि० [सं०अपभञ्ज, प्रा० अपहंज] १. अंग भंग । खंज । लुला लँगडा । २. काम करने के अयोग्य । जो काम न कर सके ।३. आलसी ।

अपिंडी
वि० [सं० अपिण्डिन्] पिंडरहित । बिना शरीर का । अशरीरी ।

अपि (१)
अव्य [सं०] १.भी । ही । २. निश्चय । ठीक । उ०— रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान । ज्ञानवंत अपि सोइ नर, पसु बिनु पूँछ, बिखान । —तुलसी ग्र०, पृ० ११४ । विशेष—इस शब्द का प्रयोग समीप, संबध आदि अर्थो में भी मिलता है, जैसे, अपिकक्ष, अपिकक्ष्य, अपिकर्ण, आदि । संभावना, प्रश्न, गर्हा, शंका, समुच्चय, अयुक्त पदार्थ, कामचार क्रिया,विरोध, वितर्क अर्थ में भी इसका प्रयोग विहित है ।

अपिगीर्ण
वि० [सं०] १. स्तुत । प्रशंसित । २. कथित । वर्णित [को०] ।

अपिच
अव्य० [सं०] १और भी । पुनश्च । २. बल्कि ।

अपिच्छिल
वि० [सं०] १. निर्मल । पंकहीन । स्वच्छ । २. गंभीर । गहरा [को०] ।

अपिज (१)
वि० [सं०] पुनर्जन्मा । फिर से उत्पन्न [को०] ।

अपिज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ज्येष्ठ मास [को०] ।

अपितु
अव्य० [सं०] १.किंतु । २.बल्कि । ३.और । [को०] ।उ०— विविध भाँति को सबद पर विघट न लट परमान । कारन अबिरल अल अपितु तुलसी अबिद भुलान । — सं० पप्तक, पृ०२६ ।

अपितृक
वि० [सं०] १. पिताविहीन । अपैतृक [को०] ।

अपित्र्य
वि० [सं०] अपैतृक [को०] ।

अपित्व
संज्ञा पु० [सं०] विभाग । अंश । हिस्सा [को०] ।

अपित्वी
वि० [सं०अपित्विन्] हिस्सेवाला । अंश या भाग रखनेवाला [को०] ।

अपिधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादान । आवरण । ढक्कन । पिहान । २. ढकना । आच्छादन करना [को०] ।३. आच्छादान वस्त्र [को०] । यो.—अमृतापिधान= भोजन के पीछे आचमन । भोजन के उपरांत 'अमृतापिधानमसि' कहुकर आचमन करते हैं ।

अपिनद्ध
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपिनद्धा] बँधा हुआ । जकडा हुआ । ढँका हुआ ।

अपिव्रत
वि० [सं०] १. अविभक्त धार्मिक कृत्योंवाला ।जिनके धार्मिक व्रत, कर्म और कृत्य समान हो । २. रक्त द्वारा संबधित । एक रक्त का [को०] ।

अपिहित
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अपिहिता ] १.आच्छादित । ढंका हुआ । आवृत । २. जो आवत न हो । खुला हुआ । स्पष्ट [को०] ।

अपि (१) † पु
सर्व० [हिं० आप] स्वयं । खुद । उ०—अपि बैठी सुंदर परदे के अंदरु, बुला मुल्ला कुँ, अपने घर के भीतर ।— दक्खिनी० पृ० २४९ ।

अपि (२) पु
अव्य [हिं०] दे० 'अपि' (१) । उ०—धनवंत कुलीन मलीन अपि । द्विज चीन्ह जनेउ उघार तपी ।— मानस,७ ।१०१

अपोच पु
वि० [सं० अपीच्य] सुंदर । अच्छा । उ०—(क) विमल बिछाइत गिलम गलीचा । तखत सिंहासन फरस अपिचा । बाँधहु ध्वज थल थलन अपिचौ । नृप मारग चंदन जल सींचौ । —पद्माकर (शब्द०) । (ख) फहर गई धौं कबै रंग के फुहारन मे, केंधी तराबोर भई अतर अपिच में । —पद्माकर ग्र, पृ०३१९ ।

अपीच्य
वि० [सं०] १. अति सुंदर । अच्छा । खूबसूरत । यौ.—अपिच्य वेश । अपिच्य दर्शन । २. गोप्य । छिपा हुआ अंतर्हित ।

अपीत (१)
वि० [सं०] १. जिसने मद्य न पी हो । २. जिसे पिया न गया हो । ३.जो पीला न हो [को०] ।

अपीत (२)
संज्ञा पु० पीत से पृथक् वर्ण । पीतेतर वर्ण [को०] ।

अपीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रवेश । २. विलय । मृत्यु ।३. प्रलय । ४. विनाश [को०] ।

अपोध पु †
वि० [हिं०] दे० 'अपीत' (१) । उ०—माच कमंधां मुग्गलां यां जुद्धा खग आल । अजक अपीधां अमल ज्युं विण कीधा रणताल ।—रा० रू०. पृ० ७४ ।

अपीनप
संज्ञा पुं० [सं०] १. नासाशोष । नाक की शुष्कता । सर्दी जुकाम [को०] ।

अपील (१) पु †
वि० [हिं० अपेल] अटल । अडिग । उ० —गुरू धाम कंजा, मनी मैल मंजा । धनू तोड भंजा, सो लीलं अपीलं ।— घट०, पृ० ३८५ ।

अपील (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० एपील] १. निवेदन । विचारार्थ प्रार्थना । २. पूनर्विचारार्थ । प्रार्थना । माताहत अदालत के फैसले के विरूद्ध उँची अदालत में फिर विचार करने के लिये अभियोग उपस्थित करना । ३. वह प्रार्थनापत्र जो किसी अदालत के फैसले को बदलने वा रद्द कराने के लिये उससे ऊँची अदालत मे दिया जाय । क्रि० प्र०—करना । होना । यौ०.—अपोलअदालत=जहाँ मुकदमों की निगरानी या पुनर्वि— चार हो ।

अपोलांट
संज्ञा पुं० [अं० एपैलैट] अपील करनेवाला व्यकि ।

अपीली
वि० [अं० एपील +हिं० ई (प्रत्य०)] अपीलसंबंधी ।

अपिव पु
वि० [सं०अपेय] १. पेय जो दुर्लभ हो । अमृत । उ०— उलंटत पवनं अलटंत वाणी अपीव पीवंत जे ब्रह्मज्ञानी ।—गोरख०, पृ० ३२ । २. न पिने योग्य । अपेय । उ०— ह्वै है अधिक अपीव जीव कोउ नीर न छवैहै । —दीन० ग्र०, पृ०२०२ ।

अपु पु०
सर्व [हिं० आप] १. आप । स्वयं । २. आपस में । उ०—रचि महाभारत कहुँ लरावत अपु मे भैया भैया । —ब्रजमाधुरी० पृ० ३६९ ।

अपुच्छ
वि० [सं०] पुच्छरहित । बिना पूँछ का [ को०] ।

अपुच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शिंशपा वृक्ष । शीशम का पेड़ [को०] ।

अपुट्ठना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अपूठना' ।

अपुण्य (१)
संज्ञा पु० [सं०] पुण्य का अभाव । पाप [को०] ।

अपुण्य (२)
वि० जो पुण्य पावन न हो । कलुषित [को०] ।

अपुत्र
वि० [सं०] जिसके पुत्र न हो । नि?संतान । पुत्रहीन । निपूता ।

अपुत्रक
वि० [सं०] दे० 'अपुत्र' [को०] ।

अपुत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी पुत्रहीना कन्या का पिता जो स्वयं पुत्रहीन होते हुए भी कन्या को उत्तराधिकारी नहीं बना सकता [को०] ।

अपुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रहीन पिता की वह कन्या जो स्वयं भी पुत्रहीना हो [को०] ।

अपुत्रीय
वि० [सं०] दे० 'अपुत्रक' [को०] ।

अपुन पु †
सर्व० [हिं०] दे० 'अपना' । उ—जौ हरि व्रत निज उर न धरैगो । तौ को अस त्राता जो अपुन करि, कर कुठाँव पकरैगो । सूर० १ ।७५ ।

अपुनपो पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपनपी' ।

अपुनपौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अपनपौ' । उ०— बाकी मारि अपुनपौ राखै, सूर ब्रजहिं सो जाइ । सूर०,१० ।६० ।

अपुनरादान
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो पुन?ग्रहण न किया जाय [को०] ।

अपुनरावर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] पुनरावर्तन का अभाव । मुक्ति । मोक्ष ।

अपुनरावृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. पुनरावृत्ति का अभाव । मोक्ष । निर्वाण । २. सृत्यु [को०] ।

अपुनर्भव
संज्ञा पुं० [सं०] १. फिर जन्म न ग्रहण करना । मोक्ष । निर्वाण । उ०—अच्छा होता, यदि यों होता । पर, वह गत तो है अपुनर्भव । —अपलक, पृ० ८ । २. (रोगादि का) फिर न होना ।

अपुनीत
वि० [सं०] १. जो पुनीत न हो अपवित्र । अशुद्ध । उ०—सुरसरि कोउ अपुनित न कहई ।—मानस, १ ।३७ । २. दूषित । दोषयुक्त ।

अपुब्ब पु
वि० [सं० अपुर्व] अदभुत । बेजोड । उ०—सुनि सुंदरबर बज्जने अई अपुब्ब कोई दिट्ट । —पृ० रा०, ६१ ।११४७ ।

अपुराण
वि० [सं०] १. पुराना नहीं । आधुनीक । नया [को०] ।

अपुरुब पु
वि० [ हिं०] दे० 'अपुर्व' उ०—बहुरि कँवर जो पाछे देखा, अपुरुब रुप चित्र एक पेखा । —चित्रा० पृ ३३ ।

अपुरुष (१)
वि० [सं०] अमानवीय । अमानुषिक (को०) ।

अपुरुष (२)
संज्ञा पुं० नपुंसक । हिजडा़ [को०] ।

अपुष्कल
वि० [सं०] १. बहुत नहीं । थोडा़ । २. तुच्छ । निम्न । क्षुद्र [को०] ।

अपुष्ट
वि० [सं०] १. जिसका ठीक ढंग से पोषण न हुआ हो । जो हट्टा कट्टा न हो । दुबला पतला । २. दुर्बल । मंद । क्षीण । ३. असमर्थ । कमजोर । ४. एक अर्थदोष जिसमें व्यंग्य या अर्थ स्पष्ट न हो [को०] ।

अपुष्टान्न
संज्ञा पुं० [सं०अपुष्ट+अन्न] १. वह अन्न या खाद्य जो बल- वर्धक न हो ।

अपुष्प (१)
वि० [सं०] पुष्पहीन । न फूलनेवाला [को०] ।

अपुष्प (२)
संज्ञा पुं० गूलर का वृक्ष [को०] ।

अपुष्पफल (१)
वि० [सं०] बिना पुष्पित हुए फल देनेवाला । बिना फुल फल का [को०] ।

अपुष्पफल (२)
संज्ञा पुं० १. कटहल । २. गूलर [को०] ।

अपुष्पफलद
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपुष्पफल' [को०] ।

अपूजक
वि० [सं०] पुजन ना करने वाला । भक्तिहीन । अधार्मिक [को०] ।

अपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधार्मिकता । २. असंमान । अनादार ।

अपूजित
वि० [सं०] जिसकी पुजा अर्चना न की जाती हो [को०] ।

अपूज्य
वि० [सं०] पूजा या संमान के अयोग्य । उ०—ब्रह्महि शाप दियो तब जानी । होहि अपूज्य़ कहि आदि भवानी ।—कबीर सा० पृ०२२ ।

अपूठना पु
क्रि० सं० [सं० अ=नहिं+पृष्ठ, पा० पुठ्ठ=पीठ अथवा देश०] १. विदारण करना । विध्वंस करना । नाश करना । २. उलटना पलटना । —जननी हौं रघुनाथ पठायौ । रामचंद्र आए की तुमको देन बधाई आयो । रावन हति लै चलौ साथ ही लंका धरौं अपूठी । यातें जिय सकुचात नाथ की होई प्रतिज्ञा । झुठी ।सुर०, ९ ।८७ ।

अपूठा (१) पु
वि० [सं० अपुष्ट प्रा० अपुठ्ठ] [स्त्री० अपूठी] अपरिपक्व । अजानकार । अनभिज्ञ । उ०—तुम तो अपने ही मुख झुठे । निर्गुण छबि हरि बिनु को पावै ज्यो आँगुरी अँगूठे । निकट रहत पुनि दूर बतावत हौ रस माहिं अँपूठे ।—सूर (शब्द०) ।

अपूठा (२) पु
[ सं० अस्फुट, प्रा० अफुट ] अविकसीत । बेखीला । बँधा । उ०—परमारथ पाको रतन, कबहुँ न दीजै पीठ । स्वारथ सेमल फूल है, कली अपूठी पीठ ।—कबीर (शब्द०) ।

अपूठा (३) पु
क्रि० वि० [सं० आ+पृष्ठ, प्रा० आपुठ्ठ, आपिठ्ठ] १. पिछे । पीठ की ओर । उलटे । उ०—गंग अपूठी क्युं बहई ।— बी० रासो, पृ० ६० ।२. वापस राजि अपूठा बाहुडउ, मालवणी मूई ।—ढोला०, दु०४०४ ।

अपूठी पु
वि० [सं० अपृष्ट० प्रा० अपुठ्ठि] बिना पुछे । बिना बात के । बिना सवाल किए । उ०—जेठी धी कै गलै छुरी है, बहू अपूठी चाली ।सुंदर ग्रं०, पृ०८२९ ।

अपूत (१)
वि० [सं०] अपवित्र । अशुद्ध ।

अपूत (२) पु
वि० [सं० अ=नहीं+पुत्र, प्रा० पुत्त] पुत्रहीन । निपूत ।

अपूत (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० अ=बुरा+पुत्र, प्रा० पुत्त] कुपूत । बुरा लड़का । उ०—तोसें सपूतहि जाइकै बालि अपूतन की पदवी पगु धीरे ।— राम च०,पृ०११४ ।

अपूता
वि० [हिं] निपूता । पुत्रहिन ।

अपूप
संज्ञा पुं० [सं०] गेहुँ के आटे की लिट्टी जिसे मिट्टी के कपाल या कसोरे मे पका कर यज्ञ मे देवताओं के निमित्त हवन करते थे । २. लिट्टी [को०] । ३. अनारसा [ को०] । ४. मालपुआ [को०] । ५. गेहुँ [को०] । ६. शहद का छत्ता [को०] ।

अपूप्य (१)
वि० [सं०] अपूप संबधी या उसके काम की [को०] ।

अपूप्य (२)
संज्ञा पुं० आटा । पिसान [को०] ।

अपूर (१) पु
वि० [सं० आपुर, हिं० पूरा,पूरा] पूरा । भरपूर । उ०— (क) लवंग सुफारी जायफर,सब फर फरे अपूर । (ख) जलथल भरे अपूर सब, धरति गगन मिल एक । —जायसी (शब्द०)

अपूर (२) पु †
वि० [हिं०] १.दे० 'अपूर्ण' । २. पुररहित । प्रवाहरहित बिना बाढ़ का ।

अपूरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शाल्मली या सेमर का वृक्ष [को०] ।

अपूरना पु †
क्रि० सं० [सं० आपूर्णन्] १. भऱना । फूँकना । बजाना । उ०—सुना संख जो विष्णु अपूरा । आगे हनुमत करै लँगुरा । जायसी (शब्द०) ।

अपूरब पु
वि० [हिं०] दे० 'अपूर्व' । उ०—भरित नेह नव नीर नित बरसत सुर अथोर । जयती अपूरब घन कोउ लखि नाचत मन मोर । —भारतेंदु ग्रं० ५७७ ।

अपूरबता
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अपूर्वता' ।

अपूरबताई पु †
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'अपूर्वता' । उ०—दई यह कैसी अपूरबताई ।—प्रेमघन ग्र०, पृ० २१२ ।

अपूरा (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० आ+पूर] [स्त्री० अपूरी] भरा हुआ । फैला हुआ । व्याप्त । उ०—चला कटक अस चढा़ अपूरी । अगलहि पानी पीछलहि धूरी ।—जायसी (शब्द०) ।

अपूरा (२) पु
[सं० अ+पुर] जो पुरा न हो ।

अपूर्ण
वि० [सं०] १. जो पुर्ण न हो । जो भरा न हो । २. अधूरा । असमाप्त । ३. कम । अल्प ।

अपूर्णता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अधुरापन । उ०—प्राणहिन वह कला नहीं जीसमें अपूर्णता शोभन । —युगवारंगी, पृ० ३० । २. न्यूनता । कमी । उ०—तुम अति अबोध अपनी अपूर्णता को न स्वयं तुम समझ सके ।—कामायनी पृ० १६३ ।

अपूर्णभूत
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण मे वह क्रिया का भुतकाल जिसमें क्रिया कि समाप्ति न पाई जाए । जैसे—वह खाता था । (शब्द०) ।

अपूर्व (१)
वि० [सं०] १. जो पहिले न रहा हो । उ०—और शुचिता का अपूर्व सुहाग । साकेत, पृ० १९३ ।२. अदभुत । अनोखा । अलौकिक । विचित्र । ३. अनुपम । उत्तम । श्रेष्ठ ।

अपूर्व (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमात्मा । परब्रह्मा । २. मीमासा के अनुसार अदृष्ट फल । ३. पाप पुण्य [को०] ।

अपूर्वता
संज्ञा स्त्री० [सं०] विलक्षणता । अनोखापन । श्रेष्ठता ।

अपूर्वत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपूर्वता' [को०] ।

अपूर्वपति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमारी । कन्या जिसका विवाह न हुआ हो [को०] ।

अपूर्वरुप
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यालंकार जिससे पुर्वगुण की प्राप्ति का निषेध हो । यह पुर्वरुप का विपरीत अलंकार है ।जैसे—'क्षय हो हो करहु शशी, बढत जु बारहि बार । त्यों पुनि यौवन प्राप्ति नहिं, न कर मान निति नार ।' यहाँ पर दिखाया गया है जिस प्रकार चंद्रमा क्षय के पश्चाच पुन?पूर्णता प्राप्त करता है, उस प्रकार योवन एक बार जाकर फिर नहीं आता ।

अपूर्ववाद
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म संबंधी वादविवाद या परिचर्चा [को०] ।

अपूर्वविधि
संज्ञा पुं० [सं०] उस वस्तु को प्राप्त करने की विधी जिसका बोध प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणो द्वारा न हो सके । जैसे, स्वर्ग की कामना हो तो यज्ञ करे । यहाँ पर स्वर्ग, जिसकी प्राप्ति की विधि बताई गई है प्रत्यक्ष और अनुमान आदि द्वारा सिद्ध नहीं होता । विशेष—यह विधी चार प्रकार की है-(क) कर्मविधि—जैसे, अग्निहोत्र करे तो स्वर्ग होगा । (ख) गुणविधि—जिसमे यज्ञ या कर्म की अनुष्ठान की सामग्री और देवता आदि का निर्देश हो । (ग) विनियोग विधि-जैसे, गार्हपत्य में इंद्र की ऋचा का विनियोग करे । (घ) प्रयोग विधि—अर्थात् अमुक कार्म के हो जाने पर अमुक कर्म करने का आदेश, जैसे—गुरुकुल से विद्या पढ़कर समावर्तन करे ।

अपृक्त (१)
वि० [सं०] १. बेमेल । बेजोड़ । बिना मिलावट का । २. बिना लगाव का । असंबद्ध । ३. खालिस अकेला ।

अपृक्त (२)
संज्ञा पुं० पाणिनी के मतानुसार एक अक्षर का प्रत्यय ।

अपेक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपेक्षा' [को०] ।

अपेक्षणीय
वि० [सं०] अपेक्षा करने योग्य । वाछंनीय ।

अपेक्षया
क्रि० वि० [ सं० अपेक्षया ] किसी की तुलना मे अपेक्षाकृत ।

अपेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकांक्षा ।इच्छा । अभिलाषा । चाह । जैसे,—कौन पुरुष है, जिसे धन की अपेक्षा न हो । आवश्यकता ।जरुरत । जैसे—संन्यासियों को धन की अपेक्षा नहीं है । ३. आश्रय । भरोसा । आशा । जैसे—पुरुषार्थी पुरुष किसी की अपेक्षा नहीं करते । ४. कार्य कारण का अन्योन्य संबंध । ५. निस्बत । तुलना । मुकाबिला । जैसे—बँगला की अपेक्षा हिंदी सरल है । उ०—बात बनाने में पुरुषों की अपेक्षा स्त्री स्वभाव से चतुर होती है । —श्रीनीवास ग्रं०, पृ०९३ । विशेष—इस अर्थ मे यह मात्राभेद दिखाने के लिए व्यवहृत होता है और इसके आगे मे लुप्त रहता है । ६.प्रतीक्षा । इंतजार ।

अपेक्षाकृत
अव्य० [सं०] मुकाबले में । तुलना में । निस्बतन् ।

अपेक्षाबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊहापोह की क्षमता या बुद्धि । कार्यकारण संबंध थाहने की प्रतिभा । भेद बुद्धि [को०] ।

अपेक्षीत
वि० [सं०] १. जिसकी अपेक्षा हो । जिसकी आवश्यकता हो । आवश्यक । उ०—प्रेम के लिये व्यक्ति की कोई विशेषता अपेक्षित होती है । —रस०, पृ०७८ । इच्छित । वांछित । उ०—वास्तव मे कला की दृष्टि दोनो ही प्रकार के कव्यों मे अपेक्षीत है ।—रस० पृ० ५७ ।

अपेक्षी
वि० [सं० अपेक्षिन्] १. आशा लगा रखनेवाला । २. प्रतिक्षा करनेवाला ।३. आकांक्षी । विशेष—इसका प्रयोग समासांत में मुख्यत?प्राप्त होता है, जैसे,— परबलापेक्षी, विधिबलापेक्षी, परमुखापेक्षी आदि ।

अपेक्ष्य
वि० [सं०] दे० अपेक्षणीय [को०] ।

अपेख †
वि० [हिं अ+पेखना] १. अनदेखा । जो देखने में न आया हो । २. जो दिखाई दे ।

अपेखा †
संज्ञा स्त्री० [सं० अपेक्षा] इच्छा । आकांक्षा । चाह । उ०— श्यामसुंदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं ।—ब्रजमाधुरी०, पृ०१४५ ।

अपेच्छा पु
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'अपेक्षा' ।

अपेत
वि० [सं०] १. विगत । दूर गया हुआ । २. मुक्त [को०] । ३. रहित [को०] ।

अपेतराक्षसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी का पौधा [को०] ।

अपेय
वि० [सं०] न पीने योग्य ।

अपेल पु
वि० [सं० अ=नहीं+प्रा० पेल्ल हिं० पेल] जो हटे नहीं । जो टले नहीं । अटल । उ०—(क) बारि मथे घृत होइ बरु, सिकता मे बरु तेल, बिनु हरिभजन न भव तरिय यह सिद्धांत अपेल ।—मानस, ७ ।१२२ ।

अपेलेट साइड
संज्ञा पुं० [अं० एपैलैट] प्रेसिडेंसी हाइकोर्ट का वह विभाग जो अपनी निर्धारीत सीमा के अंतर्गत सब दीवानी और फौजदारी अदालतों का नियंत्रण करता है और अपीलें सुनता है । इसे अपेलेट जुरिसडिक्शन भीब कहते हैं ।

अपैठ पु
वि० [सं० अप्रविष्ट, पा० अपविट्ठ प्रा० अपइट्ठ] जहाँ पैठ वा पहगुँच न हो सके । दुर्गम । अगम ।

अपैतृक
वि० [सं० अ+पैतृक] जो पूर्वजों से संबद्ध न हो । जो पैतृक न हो [को०] ।

अपोगंड
वि० [सं०] १. सोलह वर्ष के ऊपर की अवस्थावाला ।२. बालिंग । ३. किशोर । शिशु [को०] । ४. अधिक या न्युन अंगवाला । विकलांग [को०] । ५. भयालु । भयभीत [को०] ।

अपोच
वि० [हिं अ+पोच] श्रेष्ठ । उत्तम । उ०—ताहि विषाद बखानहीं जे कवि सदा अपोच । —पद्माकर ग्र०, १८० ।

अपौढ़ (१) पु
वि० [सं० अ+पुष्ट,प्रा० पुठ्ठ, पुढ्ढ,पोढ्ढ,हिं० अ+पोढ़] अपुष्ट । अप्रौढ़ । जो प्रौढ़ न हो । उ०—ढीठयौ दै बोलति, हँसति पोढ विलास अपोढ़ । त्यों त्यों चलत न पिय छकए छकी नवोढ ।—बीहारी र०, दो० ३८७ ।

अपोढ (२)
वि० [सं०] दे० 'अपवहित' [को०] ।

अपोदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूति का शाक । पोइ या पोय का शाक [को०] ।

अपोर
वि० [हिं अपोर] जिसमें गाँठ या जो़ड न हो । बीना जोड का । ग्रंथिहीन । उ०—धरि गगन डोरि अपोर परखै, पकरि पट पिउ करे ।—घट०,पृ०१२० ।

अपोह
संज्ञा पुं० [ सं०] १.निकालना । हटाना । निवारण । दुर करना । २. तर्क शक्ती । एक तर्क के थंडन के लिये प्रस्तुत किया गया अन्य तर्क । ३.युक्ती या तर्क से शंका का निवारण [को०] ।

अपोहन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपोह' [को०] ।

अपौगंड
वि० [सं० अपौगण्ड] दे० 'अपोगंड' [को०] ।

अपौतिक
वि० [सं०] जिसमें सडन या दुर्गंध न आई हो [को०] ।

अपौरुष
वि० [सं०] १. पुंसत्वहिन । पुरुषत्वहिन । २. अपुरुषोचित । कायरतापुर्ण । भीरु । ३. मानवीय या मानवलकृत नहीं । दैवी । ईश्वरीय [को०] ।

अपौरष
संज्ञा पुं० [सं०] १. पौरुष का अभाव । २. दैवीशक्ति [को०] ।

अपौरुषेय
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अपौरुष' ।

अप्चर
संज्ञा पुं० [सं०] जलजंतु [को०] ।

अप्छर पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अप्सर' उ०—ताहि देखि अप्छरा गन मोहत ।—प० रासो, पृ०२९ ।

अप्छरा पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अप्सरा' । उ०—बीबस भए मुनि अप्छरा, भुल्लियत तप ब्रत नेम । —हंमीर रा०, पृ०२८ ।

अप्तु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर । गात्र । अंग । २. सोम । ३. यज्ञीय पशु । बलि पशु [को०] ।

अप्तोयमि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्निष्टोम यज्ञ का एक अंग ।

अप्प पु
सर्व० [आत्म, प्रा० अप्प] अपना । उ०—भयौ अंधकार महाघोर ऐनं । गई सुद्धि सुज्झै नहीं अप्प नैनं । —हंमिर रा० पृ०३७ ।

अप्पटि पु †
वि० [हिं०] दे० 'अटपटी' (२) । उ०—पर प्रपंच परदर्व पर स्त्री निसु दिन फिरत रहत निजु नत्ते । अप्पटि पाग लप्पटि बात निप्पटि अवसि करत निज नत्ते । —अकबरी, पृ०३२६ ।

अप्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सागर । समुद्र । २.वरुण [को०] ।

अप्पना पु †
क्रि० सं० [सं० अर्पण] अर्पित करना । देना । उ०—(क) केलि कर बाँधि धरि चरण तल अप्पिआ ।— कीर्ति०, पृ० ६६ ।(ख) इसी विधि अप्पिय आयसु देव ।— राम० धर्म० पृ० ३४७ ।

अप्परमाण पु †
वि० [हिं०] दे० 'अप्रमाण' । उ०—आया असुराणं अप्परमाणं किंकर जाणं जमराणं । —रा० रु०, पृ०२१९

अप्पित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नी । २. एक प्रकार का पौधा [को०] ।

अप्पय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहना (नदी आदि का) । २. लय । नाश । ३. जोड़ । मिलन । संधि [को०] ।

अप्ययन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेल । योग । संयोग । २. मैथुन [को०] ।

अप्रंपर पु
वि० [हिं०] दे० 'अपरंपार' । उ०—पग अविधां गुण बदन अप्रंपर अंबुज अचल सार अभिराम ।— रघु० रु०, पृ० २४८ ।

अप्रकंप
वि० [सं० अप्रकम्प] १. कंठहीन । स्थिर ।२. जिसका उत्तर न दिया जा सके । जिसका खंडन न हो सके [को०] ।

अप्रकट
वि० [सं०] जो सामने प्रकट या व्यक्त न हो । अव्यक्त ।

अप्रकटित
वि० [सं०] दे० 'अप्रकट' । उ०—अप्रत्याशित अप्रकटित कल्याण विश्व का करता है । —प्रेम०,पृ०२९ ।

अप्रकर
वि० [सं०] अच्छी तरह से कार्य न करने वाला [को०] ।

अप्रकरण
संज्ञा पुं० [सं०] जो मुख्य विषय से संबद्ध न हो । आकस्मिक ।अप्रासांगिक विषय [को०] ।

अप्रकल्पक
वि० [सं०] अनिर्दिष्ट । अनिर्धारित । [को०] ।

अप्रकांड (१)
वि० [सं० अप्रकांड] १. शाखाविहीन । २. लघु [को०] ।

अप्रकांड (२)
विं झाडी । क्षप [को०] ।

अप्रकाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश का अभाव । अंधकार । २. गुप्त बात । रहस्य (को०) ।

अप्रकाश (२)
वि० १. प्रकाशहीन । अंधकारपूर्ण । २. अप्रकट । गुह्य । ३. स्वतः प्रकाशित [को०] ।

अप्रकाशित
वि० [सं०] १. जिसमें उजाला न किया गया हो । अँधेरा । २. जो प्रकट न हुआ हो । गुप्त । छिपा । ३. जो सर्वसाधारण के सामने न रखा गया हो । जो छापकर प्रचलित न किया गया हो ।

अप्रकाश्य
वि० [सं०] जो प्रकाश या प्रकट करने योग्य न हो । गोप्य ।

अप्रकृत (१)
वि० [सं०] १. अस्वाभाविक । २. बनावटी । कृत्रिम । गढा हुआ । ३. झूठा । ४. गौण । अप्रासांगिक [को०] । ५ आकस्मिक [को०] ।

अप्रकृत (२)
संज्ञा पुं० १. उपमान । २. पागल व्यक्ति [को०] ।

अप्रकृताश्रितश्लेष
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष नामक शब्दालंकार का एक भेद जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत का श्लेष हो । जैसे-तिय तौ ऐसी चँचलता, जीवन सुखद समच्छ । बसति हृदय घनश्याम के बर सारंग सुअच्छ । विशेष—यह दोहा शब्दों को भंग अर्थात् अक्षरों को कुछ इधर उधर कर देने से, स्त्री और बिजली दोनों पर घटता है । स्त्रीपक्ष में अर्थ करने से सखि नायिका से कहती है तेरे सामान दूसरी स्त्री जीवनसुखदायिनी और कमलनयनी घनश्याम के हृदय में बसती है । बिजली पक्ष लेने से यह अर्थ होता है की हे, स्त्री तेरे सामने बिजली है जो जीवन अर्थात् जल देनेवाली है, इत्यादि । इन दोनों पक्षों में दूसरी स्त्री और बिजली दोनों अप्रस्तुत हैं ।

अप्रकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राकृतिक या स्वभाविक स्थिति का अभाव । विकृति । २. सांख्य के अनुसार कार्यकारण से भिन्न आत्मा । पुरुष [को०] ।

अप्रकृतिस्थ
वि० [सं०] १. अस्वस्थ । बीमार । रोगादि या अन्य भय से ग्रस्त [को०] ।

अप्रकृष्ट (१)
वि० [सं०] क्षुद्र । नीच । बुरा [को०] ।

अप्रकृष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कौआ । वायस [को०] ।

अप्रकेत
वि० [सं०] जिसे जाना न जा सके । अविज्ञेय । अप्रतर्क्य । उ०—आदि में तुम से घिरा हुआ तम था, वह अप्रकेत (अप्रज्ञायमान) था; और सलिल (जल) था । आर्यो०, पृ०१८३ ।

अप्रखर
वि० [सं०] १. मृदु । कोमल । २. जो तेज न हो । अतीक्ष्ण [को०] । ३. सुस्त [को०] ।

अप्रगल्भ
वि० [सं०] १. अप्रौढ़ । अपरिपक्व । अपरिपुष्ट । २. निरुत्साह । निरिद्यम । ढीला । सुस्त [को०] ।

अप्रगुण
वि० [सं०] परेशान । घबडाया हुआ [को०] ।

अप्रग्राह
वि० [सं०] अनियंत्रित । बेलगाम । [को०] ।

अप्रचरित
वि० [सं०] जिसका प्रचार न हो । अप्रचलित ।

अप्रचलित
वि० [सं०] जो प्रचलित न हो । जिसका चलन न हो । अव्यवहृत । अप्रयुक्त ।

अप्रचारित
वि० [सं० अ+प्रचारित] जिसका प्रचार या प्रसार न किया गया हो ।

अप्रचोदित
दि० [सं०] अनिर्दिष्ट । अवांछित । अप्रेरित [को०] ।

अप्रछन्न
वि० [सं०] १. जो प्रछन्न न हो । खुला हुआ । अनावृत । २. स्पष्ट । प्रकट ।

अप्रच्छिन्न
वि० [सं०] जो पृथक् न हो । अविभक्त [को०] ।

अप्रछन्न पु
वि० [हिं०] दे० 'अप्रछन्न' । उ०—इम कहत देवि अप्रच्छन्न हो । —पृ० रा०, ६४ ।७२ ।

अप्रज
वि० [सं०] [वि० स्त्री अप्रजा] १. संततिहीन । निस्संतान । २. अजन्मा । ३. जनहीन [को०] ।

अप्रजै पु
वि० [हिं०] दे० 'अपराजेय' । उ०—भांण मांण भुजै उठियौ अप्रजै ।—रा० रू०, पृ०२७० ।

अप्रज्ञ (१)
वि० [सं०] मंदबुद्धि । बुद्धिहीन मतिहीन । प्रज्ञाशून्य [को०] ।

अप्रज्ञ (२)
संज्ञा पुं० मूर्ख या पुरुष [को०] ।

अप्रतर्क्य
वि० [सं०] जिसके विषय में तर्क वितर्क न हो सके । जो तर्क द्वारा निश्चित न हो सके ।

अप्रति
वि० [सं०] १. अप्रतिम । बेजोड़ । अद्वितीय । २. जिसका कोई विरोधी, शत्रु या प्रतिद्वंदी न हो [को०] ।

अप्रतिकर
वि० [सं०] विश्वसनिय । विश्वासपात्र । विश्वस्त [को०] ।

अप्रतिकार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० अप्रतिकारी ] १. उपाय का अभाव । तदबीर का न होना । २. बदले का न होना ।

अप्रतिकार (२)
वि० १. जिसका उपाय या तदबीर न हो सके । लाइ- लाज २. जिसका बदला न दिया जा सके ।

अप्रतिकारी
वि० [सं० अप्रतिकारिन्] [ वि० स्त्री० अप्रतिकारिणी] १.—उपाय या तदबीर न करनेवाला । २. बदला न लेनेवाला । बदला न देनेवाला ।

अप्रतिगृह्य
वि० [सं०] जिसका दान या उपहार ग्रहण न किया जा सके [को०] ।

अप्रतिगृहीत
वि० [सं०] जिसका प्रतिग्रह न किया गया हो । जो लिया न गया हो ।

अप्रतिग्रग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० अप्रतिग्राह्य, अप्रतिगृहीत ] १. दान न लेना । किसी वस्तु का ग्रहण न करना ।२. विवाह न करना । कन्यादान का ग्रहण न करना ।

अप्रतिग्राह्य
वि० [सं०] जो प्रतिग्रहण करने योग्य न हो । जो लेने योग्य न हो ।

अप्रतिघ
वि० [सं०] १. अदम्प । अजेय । २. जिसे रोका न जा सके । अनिर्वाय । ३. क्रोधविहीन । अक्रुद्ध [को०] ।

अप्रतिघात
वि० [सं०] १. बिना प्रतिघात का । जिसका कोई प्रति- घात या विरोधी न हो । बेरोक । २. बेठोरकर । बेचोट । धक्के से बचा हुआ ।

अप्रतिद्वंद
वि० [सं० अप्रतिद्वन्व्द] जिसके मुकाबले का कोई न हो । बेजोड़ [को०] ।

अप्रतिपक्ष
वि० [सं०] १. जिसका कोई विरोधी या स्पर्धी न हो । विरोधिविहीन । २. बेजोड । असमान [ को०] ।

अप्रतिपण्य
वि० [सं०] जिसका विक्रयण या विनिमय न हो सके [को०] ।

अप्रतिपत्ति
संज्ञा स्त्री [सं०] [ वि० अप्रतिपन्न ] १. प्रकृत अर्थ समझने की अयोग्यता । २. कर्तव्यनिश्चय का अभाव [को०] । क्या करना चाहीए, इसका बोध न होना । ३. निश्चय का का अभाव । ४. स्फुर्ति का अभाव [को०] । ५. असफलता [को०] । ६. जड़ता [को०] ।

अप्रतिपन्न
वि०[सं०] १. कर्तव्यज्ञानशून्य । २. अनिश्चत । अज्ञात । ३. जो संपन्न न हुआ हो । असंपन्न [को०] ।

अप्रतिबंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० अप्रतिबन्ध] [वि० अप्रतिबद्द] रुकावट का न होना । स्वच्छंदता ।

अप्रतिबंध
वि० १. प्रतिबंधरबित । निर्बाध । २. निर्विवाद प्राप्त । बिना किसी विवाद के सीधे प्राप्त, उत्तराधिकार [को०] ।

अप्रतिबद्ध
वि० [सं०] १. बेरोक । स्कतंत्र । स्वच्छंद । २. मनमाना ।

अप्रतिबल
वि० [सं०] बल या शक्ति में जिसके जोड़ का दुसरा न हो । बोजोड़ ताकतवाला [को०] ।

अप्रतिभ
वि० [सं०] १. प्रति पाशुन्य । चेष्टाहीन । उदास अप्रगल्भ । २. स्फुर्तिशुन्य । सुस्त । मंद । उ०—हँसे सुलतान, और अप्रतिम होती मैं जकड़ी हुई थी अपनी दी लाजश्रुंखला में ।— लहर, पृ० ८० । ३. मतिहीन । निर्बृद्धि । ४. लजालु । लजीला ।

अप्रतिभट (१)
वि० [सं०] वीरता में जिसका जो़ड़ न हो । अप्रतिम । उ०—अप्रतिभट बही एक अर्बुद सम महावीर ।—अपरा पृ० ४५ ।

अप्रतिभट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बेजोड़ वीर या योद्धा [को०] ।

अप्रतिभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रतिभा का अभाव । २. न्याय में बह निग्रह स्थान जहा उत्तर पक्षवाला परपक्ष का खंड़न न कर सके । ३. दब्वुपन ।

अप्रतिम
वि० [सं०] जिसके समान कोई दुसरा न हो । असदृश । अद्वितीय । अनुपम । बोजोड़ । उ०—यह ग्रंथरत्न वस्तुत?अपने रंग ढ़ग का अप्रतिम ठहरता है । —रस क०, पृ० १३ ।

अप्रतिमान
वि० [सं०] अद्बितीय । बेजोड ।

अप्रतियोगी
वि [सं०] अप्रतियोगिन् १. जिसका कोई सामना करनेवाला न हो । जिसका कोई प्रतिस्पर्धी या बिरोधी न हो । २. जिसके समान दुसरा हिस्सा या भाग न हो [को०] ।

अप्रतिरथ (१)
वि० [सं०] जिसका मुकाबला करनेवाला कोई वीर योद्धा न हो [को०] ।

अप्रतिरथ (२)
संज्ञा पुं० अप्रतिम योद्धा या विर [को०] ।

अप्रतिरव
वि० [सं०] निर्विरोध । निर्ववाद [को०] ।

अप्रतिरूप
वि० [सं,] १. जिसका कोई प्रतिरुप न हो । अद्वितीय अनुपम । २. जो अनुकुल रुप का या ठीक न हो [को०] ।

अप्रतिरोध
संज्ञा पु० [सं०] प्रतिरोधरहित । बेरोक । निर्बाध ।

अप्रतिरोध्य
वि० [सं०] जिसे रोका न या सके । जिसका प्रतिरोध संभव न हो । उ०—वह अप्रतिरोध्य है, पर अंधी है, यह तो मैं नहीं मानुँगा । —त्याग० पृ० ४८ ।

अप्रतिवार्य
वि० [सं०] अनिवार्य । निशिच्त । उ०—अंत में कैलास की प्राप्ति अप्रतिवार्य है ।—मृग० प० ४४२ ।

अप्रतिवीर्य
वि० [सं०] अप्रतिम या बे़जोड़ शक्तिवाला [को०] ।

अप्रतिशासन
वि० [सं०] १. एकतंत्र शासन । २. जिसका कोई विरोधी या प्रतिद्वंद्बी शासक न हो [को०] ।

अप्रतिषिद्ध (१)
वि [सं०] अनिषिद्ध । संमत ।

अप्रतिषिद्ध (२)
संज्ञा पुं० [सं०] बास्तु विद्या में ९ भागों में विभक्त स्तंभपरिमाण के उस भाग नाम जो ऊपर से गिनने पर दुसरा पड़े ।

अप्रतिष्ठ (१)
वि० [सं०] १. प्रतिष्ठाहीन । बेइज्जत । २. बैसहारा । तिरस्कृत फेका हुआ । ३. अस्थिर । ढुलमुल [को०] । ४. अप्रसिद्ध [को०] ।

अप्रतिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० एक नरक का नाम [को०] ।

अप्रतिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रतिष्ठा का उलटा । अनादर । अपमान । २. अयश । अपकीर्ति । ३. अस्थिरता [को०] ।

अप्रतिष्ठित
वि० [सं०] १. जो प्रतिष्ठित न हो । तिरस्कृत । उ०— लाला ब्रजकिशोर कुछ ऐसे अप्रतिष्ठित नहीं है । —श्रीनिवास ग्रं, पृ० ३४२ । २ जो स्थिर या सुव्यवस्थित न हो [को०] ।

अप्रतिसंख्य
वि० [सं० अप्रतिसङ्ख्य] जो ध्यान, दुष्ठि या गणाना में न आया हो [को०] ।

अप्रतिसंबद्धाभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्रतिसम्बद्धाभूमि] कौटिल्य के- अनुसार वह भुमि जो एक दुसरी से पृथक् हो ।

अप्रतिहत (१)
वि० [सं०] १. जो प्रतिहत न हो । जिसका विघात न हुआ हे । अटुट । उ०— आज भी यह विचारपरंपरा अप्रतिहत है । —रस क० पृ० ४५ । २. अपराजित । ३. बिना रोकटोक का । ४. संपुर्ण । समग्र । अनुसरण [को०] ।

अप्रतिहत (२)
संज्ञा पुं० अकुश ।

अप्रतिहगति
वि० [सं०] जिसकी् गति रोकी न जा सके । निर्बाध गतिवाला । उ०—अप्रतिहतगति संस्थानों से रहता था जो सदा बढ़ा । कामायनी, पृ० २०९ ।

अप्रतिहतनेत्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक बौद्ध देवता [को०] ।

अप्रतिहतनेत्र (२)
वि० निर्बाध दुष्ठिवाला [को०] ।

अप्रतिहतव्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह असंहत व्युह जिसमें हाथी, धोड़े,ऱथ तथा प्यादे एक दुसरे के पीछे हो ।

अप्रतिहार्य
वि० [सं०] जिसे रोका न जा सके [को०] ।

अप्रतीक
वि० [सं०] १. अंग या शरीर से रहित । २. ब्रह्मा का विशेषण [को०] ।

अप्रतीकार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अप्रतिकार' ।

अप्रतीकारी
वि० [सं०अप्रतीकारिन्] दे० "अप्रतिकारी' ।

अप्रतीघात
वि० [सं०] दे० 'अप्रतिघात' ।

अप्रतीत
वि० [सं०] १. अप्रसन्न । २. अगम्य । ३. निर्विरोध । ४. दुर्बाध्य । एक शब्ददोष [को०] ।

अप्रतीतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दुरुह परिभाषिक शाब्दों का काव्यागत प्रयोग । एक काव्यदोष । उ०— प्राचार्यों ने पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग को अप्रतीतत्व दोष माना है ।—रस०, पृ० ४४ ।

अप्रतीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अर्थ या रुप आदि का समझ में न आना या स्पष्ट न होना । २. विश्वास का अभाव । अविश्वास । अनि— श्चय । उ०—होई कि नहि सोव मति प्राँनाहि अप्रीति हदये तें टारी । करि बिस्वास प्रतिति आमि उर यह आस्तिक्य बुद्धि निरधारि ।—सुंदर ग्रं० पृ० ३८ ।

अप्रतीयमान
वि० [सं०] जो प्रतीयमान वा निश्चित न हो ।अनिश्चित ।

अप्रतुल (१)
वि० [सं०] १ जिसकी तुलना बा मान न हो सके । बेहद । २. अनुपम । बे़जोड़ ।

अप्रतुल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १ वजन या भार आभाव । २. अभाव । आवश्यकता [को०] ।

अप्रत्त
वि० [सं०] जो प्रदान न कीया गया हो । न लौटाया हुआ [को०] ।

अप्रत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमारी । कन्या जीसका विवाह न हुआ हो [को०] ।

अप्रत्यक्ष
वि० [सं०] १. जो प्रत्यक्ष न हो । परोक्ष । २. छिपा । गृप्त । ३. अज्ञात [को०] । ४. अनुपस्थित [को०] ।

अप्रत्यनीक
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यालंकार जिसमें शत्रु के जीतने के सामर्थ्य के कारण उससे संबंध रहनेवाली वस्तुओ का तिर स्कार न किया जाया । जेसे ।—नृप यह पीड़त है परहि, नहि पर प्रजा मुरार । राहु शशी को ग्रसत है, नहि तारन जु निहार (शब्द०) ।

अप्रत्यय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविश्वस्त । भरोसे का अभाव । २. (व्याकरण में) वह जो प्रत्यय न हो [को०] ।

अप्रत्यय (२)
वि० १. विश्वासरहित । अविश्वास । २. ज्ञानहीन । बोध- रहित । ३. (व्याकरण) प्रत्ययशुन्य [को०] ।

अप्रत्याशित
वि० [सं०] जिसकी आशा न रही हो । असंभावित । अचानक । आकस्मिक । उ०—उसमें क्षिप्रगति के साथ अप्रत्याशित बिकास होना चाहिए । —सं शास्त्र० पृ० १८२ ।

अप्रदुग्ध
वि० पूरी तरह दुही हुई । दुग्धरहित [को०] ।

अप्रधान (१)
वि० [सं०] जो प्रधान वा मुख्य न हो । गौण । साधारण । सामान्य ।

अप्रधान (२)
संज्ञा पुं० गोण कार्य [को०] ।

अप्रधृष्य
वि० [सं०] जिसे दबाया या हटाय़ा न जा सके । अजेय [को०] ।

अप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं० अप्रबन्ध] प्रबंध का अभाव । अव्यवस्था । कुप्रबंध । उ०—ऐसे अप्रबंध, फुट और स्वेच्छाचार की हवा चली कि लोग आपस में कट मरे —श्रिनिवास ग्रं, पृ० ३३३ ।

अप्रबल (१)
वि० [हि०] दे० "अपरबल' ।उ०—पाणी माहै प्रजली भई अप्रबल आगि । बहति सलिता रहि गई मंछ रहे जल त्यागी । कबीर ग्रं० पृ० ९२ ।

अप्रबल (२)
वि०—[सं०अ+प्रबल] जो प्रबल न हो । दुर्बल । कमजोर ।

अप्रभ
वि० [सं०] १. कांति या तेजस्विताहीन । हतप्रभ । २, तुच्छ । नीच [को०] ।

अप्रभु
वि० [सं०] १. अधिकार या प्रभावहीन । २० असमर्थ । अयोग्य [को०] ।

अप्रभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वल्प प्रयास [को०] ।

अप्रमत्त
वि० [सं०] प्रमाद या लापरवाही से रहित । सावधान । सतर्क । [को०] । उ०— आप समझी जाती है अटुट, अप्रमत्त ओर अनिवार्य । —सुखदा प—० ४२ ।

अप्रमद
वि०[सं०] आनंदहीन । उत्साहरहित । खिन्न उदास [को०] । ३३.

अप्रमय
वि० [सं०] १. अनिश्वर । असीम । अप्रमेय [को०] ।

अप्रमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रमा का न होना । भ्रांत ज्ञान [को०] ।

अप्रमाण (१)
वि० [सं०] १. जो प्रमाणरुप न हो । अप्रामाणित । २. बिना सबुत का साक्षीरहित । ३. अनधिकृत । अविश्यस्त । ४. असीम । अपरिमित [ को०] ।

अप्रमाण (२)
संज्ञा पुं० १. दो प्रमाण न बन सके । २. अप्रासंगिकता ।

अप्रमाद (१)
वि० [सं०] प्रमादरहित । अनवरत ।उ०— बहती थी श्या- मल घाटी में निर्लिप्त भाव से अप्रमाद ।—कामायनी, पृ० १६७ ।

अप्रमाद (२)
संज्ञा पुं० सावधानता । सतर्कता । जागरुकता [को०] ।

अप्रमित
वि० [सं०] १. बेनाप । असिमित । २. अधिकारी द्बारा जो प्रमाणित न हो [को०] ।

अप्रमेय
वि० [सं०] जो नापा न जा सके । अपरिमित । अपार । अनंत । उ०—तु न अच्छाय बाण स्वच्छ अभेद लै तनत्रान को । आइयो रणभुमि मै करि अप्रमेय प्रमान को ।—राम चं० पृ० १३३ ।

अप्रमोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रसन्नता ता अभाव । २. कष्टनिवारण की अक्षमता [को०] ।

अप्रयत्न (१)
वि० [सं०] प्रयत्नहीन । उत्साहहीन । उदासीन । [को०] ।

अप्रयत्न (२)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रयत्न का अभाव । काहिलपन । ओदा- सीन्य [को०] ।

अप्रयुक्त
वि० [सं०] जिसका प्रयोग न हुआ हो । जो काम में न लाया गया हो । अव्यवहृत । उ०— हिदी में अप्रयुक्त संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी भाषा की रुखाई को बढ़ाने में ही मदद करता है— रामचं० (भु०), पृ० ३४ । २. अप्रचलित । ३. शब्दादि का अन्याथा या गलत प्रयोग । ४. दुर्लभ या विरल प्रयोग [को०] ।

अप्रयुक्तत्व
संज्ञा पुं० [सं०] वह शब्द जो कोशगत ओर शुद्ध होते हुए भी व्यवहृत न हो । बिशेष—इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग सहित्याशस्त्र में दोष माना गया है ।

अप्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रयोग का अभाव । २. दुष्प्रयोग । ३. अव्यवहार [को०] ।

अप्रलंब
वि० [सं० अप्रलम्ब] फुर्तीला । संनद्ध । तत्पर [को०] ।

अप्रवर्तक
वि० [सं०] १. कार्य़ के लिये प्रेरणा न देनेवाला । निष्क्रिय । २. अटुट । अबिच्छिन्न [को०] ।

अप्रवर्ती
वि० [सं० अप्रवर्तिन्] दे० 'अप्रवर्तक' ।

अप्रवानी पु
वि० [सं० अ+प्रमाण, प्रा०, प्रमाण, अप० पवाण+ई (प्रत्य०)] अप्रमेय । अज्ञेय । उ०— जड़ चेतन द्बै भैद है, ऐसे समुझनि । जड़ उपजै बिनसे सदा चेतन अप्रवानी ।—सुंदर ग्रं० पृ० २०७ ।

अप्रवीन पु
वि० [सं० अप्रवीण] जो प्रवीन न हो । अदक्ष । उ०— ऊधो । प्रिति करि निरमोहियन सों की न भयो दुखदीन । सुनत समुझत कहत हम सब भई अति अप्रवीन । —तुलसी ग्रं० पृ० ४४९ ।

अप्रवृत्त
वि० [सं० ] १. जो क्रियारत न हो । निष्क्रिय । २ असंनद्ध [को० ] ।

अप्रवृत्तवध
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जिसकी ओर से आक्र- मण न हुआ हो ।

अप्रवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रवृत्ति का अभाव । चित्त का झुकाव न होना । २. किसी सिद्धांत वा सूत्र का न लगना । किसी विचार का प्रय़ुक्त स्थान पर न खपना । ३. अप्रचार । ४. कोष्ठबद्धता [को०] ।

अप्रवेश्य
वि० [सं०] प्रवेश न करने योग्य । जिसमें प्रवेश न हो सके । उ० —विदा हाय मेरे सुंदर, अप्रवेश्य सा अंधकारमय हुआ आज यह मेरा घर । —कुणाल, पृ० १४ ।

अप्रशंसनीय
वि० [सं०] निंदनीय । निंदा के जोग्य ।

अप्रशस्त
वि० [सं०] १. जो प्रशस्त न हो । नीच । कुस्तित । बुरा । २. क्षीँण (को०) । ३. अविहित । निषिद्ध [को० ] ।

अप्रशिक्षित
वि० [सं०] जिसे किसी कार्थ की विशेष शिक्षा न मिली हो । जो प्रशिक्षित न हो ।

अप्रसंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० अप्रसङ्ग] १. आसाक्ति, प्रयोजन या संबंध का अभाव । २. बेमौका [को० ] ।

अप्रसंग (२)
वि० १. संबंधरहित । २. प्रसंगहीन । बेमौका ।

अप्रसक्त
वि० [सं०] १. जो आशक्त न हो । बेलगव । २. असंबद्ध । ३. निबर्धि । बिना रोक टोक [को० ] ।

अप्रसक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनुराग या प्रवत्ति का अभाव । असाक्ति- हीनता [को०] ।

अप्रसन्न (१)
वि० [सं० ] जो प्रसन्न न हो । असंतुष्ट । नाराज । २. खिन्न । दु?खी । उदास । विरक्त । ३. पंकिल । कीचड़ से युक्त ।

अप्रसन्न (२)
संज्ञा पुं० ब्याई हुई गाय का सात दिन के बाद दूध ।

अप्रसन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नारजगी । असंतोष । २. रोष । कोप । ३. खिन्नता । उदासी ।

अप्रसाद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसन्नता, कृपा या अनुकूलता का अभाव । [को०] ।

अप्रसिद्ध
वि० [सं०] १. जो प्रसिद्ध न हो । अविख्यात । जिसको लोग न जानते हों । २. गुप्त । छिपा हुआ । तिरोहित ।

अप्रसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ख्याति वा प्रसिद्धि का अभाव । उ० — अप्रसिद्धि मात्र अपमा का कोई दोष नहीं । —रस० पृ० ३४६ ।

अप्रसूत
वि० संततिविहीन । संतानरहित [को० ] ।

अप्रसूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री, जिसे बच्चा न हुआ हो । बंध्या नारी । बाँझ ।

अप्रस्ताविक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अप्रस्तविकी] जो मूल विषया का या उससे संबद्ध न हो । अप्रास्ताविक [को०] ।

अप्रस्तुत
वि० [सं०] १. जो प्रस्तुत बा मौजुद न हो । अनुपस्थित । २. जो प्रसंगप्राप्त न हो । अप्रासंगिक । जिसकी चर्चा न आई हो । ३. जो तैयार न हो । जो उद्यत न हो । ४. गौण । अप्र- धान । उ० —इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अप्रस्तुत (उपमान) भी उसी प्रकार के भाव का उत्तेजक हो ।—रस०, पृ,० ३४६ ।

अप्रस्तुतप्रशंसा
संज्ञा [सं०] वह अर्थालंकार जिसमें अप्रस्तुत के कथन द्बारा प्रस्तुत का बोध कराया जाय । विशेष—इसके पाँच भेद है —(क) कारणनिबंधना-जहाँ प्रस्तुत वा इष्ट कार्य का बोध कराने के लिये अप्रस्तुत कारण का कथन किया जाय़ । जैसे—लीनो राधा मुख रचन, विधि ने सार तमाम । तिहि भग होय आकाश यह शशि में दिखत श्याम । —मतिराम (शब्द०) । (ख) कार्यनिबंधना—जहाँ कारण इष्ट हो और कार्य का कथन किया जाय । जैसे—तू पद नख की दुति कछुक, गइ धोवन जल साथ । तिहि कन मिलि दधि मथन में चंद्र भयों है नाथ ।—मतिराम (शब्द०) । (ग) विशेषनिबंधना—जहाँ सामन्य इष्ठ हो और बिशेष का कथन किया जाय । जैसे—लालन सुरतरु धनद हू, अनहितकारी होय । तिनहुँ को आदर न ह्लै यो मानत बुध लोय़ ।—मति- राम (शब्द०) । (घ) सामान्यनिबंधना—जहाँ बिशेष कहना इष्ट हो पर सामन्य का कथन किया जाय । जैसे—सीख न मानै गुरन की, अहिताहि हित मन मानि । सो पछताबै तासु फल, ललन भए हित हनि ।—मतिराम (शब्द०) ।(च) सारुप्यनिबंधना—जहाँ अभीष्ट वस्तु का बोध उसके तुल्य बस्तु के कय़न द्बारा कराया जाय । जैसे—बक धरि धरिज कपट तजि, जो बनि रहै मराल । उधरै अंत गुलाब कबि, अपनी बोलनि चाल । —गुलाब (शब्द०) ।

अप्रहृत
वि० [सं०] १. कोरा (कपड़ा) । जो (बस्तु) पहना न गया हो । २. जो (भूमि) जोती न गई गो । बंजर । ३.३ अक्षत । अछूता (को०) । ४. जो मारा या नष्ट न किया गया हो । यथावत् ।

अप्राकरणिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अप्राकरणिका, अप्राकरणिकी] विषय या प्रकरण जिसका लगाव न हो । असंगत [को०] ।

अप्राकृत
वि० [सं०] १. जो प्राकृत न हो । संस्कृत । २. अस्वा- भाविक । ३. असामन्य । असाधारण । ४. जो प्राकृत भाषा का या उससे संबद्ध न हो [को० ] ।

अप्राकृतिक
वि० [सं०] स्वभाव या पकृति के बिरुद्ध । अस्वाभाविक । अलौकिक [को०] ।

अप्राख्य
वि० [सं०] मुख्य नहीं । गोण । साधारण [को०] ।

अप्राचीन
वि० [सं०] १. जो प्राचीन न हो । आधुनिक । २. पौर्वात्य नहीं । पाश्चात्य [को०] ।

अप्राज्ञ
वि० [सं०] अज्ञानी । अशिक्षित । प्रज्ञाहिन [को०] ।

अप्राण (१)
वि० [सं०] १. बिना प्राण का । निर्जाव । मृत । २. ईश्वर का एक बिशेषण ।

अप्राण (२)
संज्ञा पुं० ईश्वर ।

अप्राप्त
वि० [सं०] १. जो प्राप्त न हो । जो मिला न हो । अलब्ध । दुर्लभ । अलभ्य । २. जिसे प्राप्त न हुआ हो । जैसे—अप्राप्तवयस्क, अप्राप्तयौवना । अप्राप्तव्यवहार । ३. अप्रत्यक्ष । परोक्ष । अप्रस्तुत । ४. अनागत जो आया न हो । ५. जिसकी उभ्र विवाह के योग्य न हो (को०) ।

अप्राप्तकाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. आनेवाला समय । भविष्य । २. अनवसर । उपयुक्त समय के पहले का समय । ३. न्याय में तर्क के समय क्षोभ के कारण प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण आदि को यथाक्रम न कहकर अंडबंड कह जाने का दोष । ४. कमसिन [को०] ।

अप्राप्तयौवन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अप्राप्तयौवना] जिनकीं युवास्था अभी न आई हो । जो जवान न हो । किशोर [को०] ।

अप्राप्तवय
वि० [सं० अप्राप्तवयस्] १. नाबालिग । १. कानून की दृष्टि ने सामाजिक जिम्मेदारी के आयोग्य । १६. वर्ष के पूर्व का । विशेष—अब उम्र की यह अवधि पुरुषों के लिए १८ और स्त्रियों के लिए १६ वर्ष मानी जाती है केवल मतदान के लिये २१ वर्ष है ।

अप्राप्तव्यहार
वि० [सं०] १६ वर्ष के भीतर का बालक जिसे धर्मशास्त्र के अनुसार जायदाद पर स्वत्व न प्राप्त हुआ हो । नाबालिग ।

अप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपलब्धि या लाभ का अभाव अभाव २. नियम कानुन से असिद्ध । ३. अनहोनी । ४. जो लागू न हो । अनुपपत्ति [को०] ।

अप्राप्तिसम
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में जाति या असत् उत्तर के चौवीस भेदों में से एक । विशेष—यदि किसी के उत्तर में कहा जाय—'तुम्हारा हेतु ओर साध्य दोनों एक आधार में वर्तमान है या नहीं? यदि वर्तमान है तो दोनों बराबर है । फिर तुम किसे हेतु कहोग और किसे साध्य? तो इसे प्राप्तिसम कहेंगे । और यदि साथ हो इतना और कहा जाय़—यदि दोनों एक आधार में नहीं रहते तो तुम्हारा हेतु साध्य का साधन कैसे कर सकता है?' तो इसे अप्राप्तिसम कहेंगे ।

अप्राप्य
वि० [सं०] जो प्राप्त न हो सके । जो मिले न । अलभ्य । उ० — जो यौं निज प्राप्य छोड़ देंगे । अप्राप्य अनुग उनके लेगे ।—साकेत, पृ० १४७ ।

अप्रामाणिक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अप्रामाणिकी] १. जो प्रमाणसिद्ध न हो । ऊटपटाँग । २. जिसपर विश्वास न किया जा सके ।

अप्रामाण्य
संज्ञा पुं [सं०] प्रमाण या सबूत का अभाव [को०] ।

अप्रावृत
वि० [सं०] जो ढँका या परिच्छिन्न न हो । अनावृत । खुला हुआ । [को०] ।

अप्राशन
संज्ञा पुं० [सं०] आहार ग्रहण न करना । अनशन [को०] ।

अप्रासंगिक
वि० [सं० अप्रासङ्गिक] जो प्रसंगप्राप्त न हो । प्रसंग- विरुद्ध । जिसकी कोई चर्चा न हो ।

अप्रास्तविक
वि० [सं०] दे० 'अप्रस्ताविक' [को०] ।

अप्रियंवद
वि० [सं०] कटुभाषी । कठोर शब्द कहनेवाला [को०] ।

अप्रिय (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अप्रिय] १. जो प्रिय न हो । अरुचिकर । जो न रुचे । जो पसंद न हो । उ० —सत्य कहहु अरु प्रिय कहहु अप्रिय सत्य न भाखा ।—श्रीनीवास ग्रं०, पृ० १८७ । २. जो प्यारा न हो । जिसकी चाह न हो । उ० — सुनि राजा अति अप्रिय बांनी ।—मानस १ ।२०८ ।३. शत्रुतापूर्ण । अमित्र या शत्रुबत् [को०] ।

अप्रिय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैरी । शत्रु । २. बैंत । वेतस । निचुल । यौ०—अप्रिवंद ।अप्रियकर ।अप्रियकारी । अप्रियवादी ।

अप्रियकर
वि० [सं०] जौ रुचिकर न हो । अहितकर । अमैत्रीपूर्ण [को०] ।

अप्रियकारक
वि० [सं०] दे० 'अप्रियकर' ।

अप्रियकारी
वि० [सं० अप्रियकारीन्] [वि० स्त्री० अप्रियकारिणी] दे० 'अप्रियकर' [को०] ।

अप्रियता
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्रिय+ता (प्रत्य०)] बुराई ।उ० —हा आर्ये प्रिय की अप्रियता करने को कहती हो तुम ।—साकेत, पृ० ३८४ ।

अप्रियभागी
वि० [सं० अप्रियभागिन्] [वि० स्त्री० अप्रियभागिनी] दुर्भाग्यग्रसित । अभाग ।

अप्रियवादी
वि० [सं० अप्रियवादिन्] [वि० स्त्री० अप्रियबादिनी] कड़वी बात कहनेवाला । कटुवादी । कठोरवक्ता [को०] ।

अप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रृगी मत्स्य [को०] ।

अप्रीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्नेह वा प्रेम का अभाव । चाह का न होना । २. अरुचि । ३. विरोध । वैर ।

अप्रीतिकर
वि० [सं०] वि० स्त्री० अप्रीतिकारी] १. अप्रिय । नाप- संद । २. कटु । कठोर अननुकूल [को०] ।

अप्रेंटिस
संज्ञा पुं० [अ० ऐप्रेंटिस] वह पुरुष जो कीसी कार्य में कुशलता प्राप्त करने के लिये किसी कार्यालय में बिना वेतन लिये वा अल्प वेतन पर काम करे । उम्मेदवार ।

अप्रत
वि० [सं०] न गया हुआ । अगत । मृत नहीं [को०] ।

अप्रतराक्षसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी का पौधा [को०] ।

अप्रैल
संज्ञा पुं० [अ० एप्रिल] एक अंगरेजी महीना जो प्राय? चैत में पड़ता है । यह महीना ३० दिन का होना है ।

अप्रलफूल
संज्ञा पुं० [अं० एप्रिलफुल] जो अप्रैल महीने के पहले दिन हँसी में बेवकुफ बनाया जाया । विशेष—इस दिन योरपवाले हँसी दिल्लगी करना उचित मानते है ।

अप्रोक्ष पु
वि० [सं० अपरोक्ष] जो परोक्ष न हो । प्रत्यक्ष । दूर न हो । उ० —देहई कौ बंध मोक्ष देहई अप्रोक्ष प्रोक्ष ।—सुंदर ग्र०, भा० २, पृ० ५९२ ।

अप्रोषित
वि० [सं०] जो चला न गया हो । जो अनुपस्थित न हो । जो उपस्थित हो [को० ] ।

अप्रौढ़
वि० [सं० अप्रौढ़] १. जो पुष्ट न हो । कमजोर २. कच्ची उभ्र का । नाबालिग । ३. अप्रगल्भ । अनुद्धत [को०] ।

अप्रौढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्रौढ़ा] १. कन्या । कुमारी । २. विवाहिता कितु अरजस्वला कन्या ।

अप्लव
वि० [सं०] १. जलयानहीन । २. जो तैरता न हो । न तैरनेवाला [को०] ।

अप्सर?पति
संज्ञा पुं० [सं०] अप्सराओं के नाय । इंद्र [को०] ।

अप्सर (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अप्सरा' ।

अप्सर (२)
स्त्री० पुं० [सं०] जलजंतु । जलचर [को०] ।

अप्सरा
संज्ञा स्त्री० [सं० अप्सरस्] १. अंबुकण । वाष्पकण । २. वेश्याओं की एक जाति ३. स्वर्ग की वेश्या । इंद्र की सभा में नाचनेवाली देबागना । परी । विशेष—इसलिये अप्सरा कहलाती है कि समुद्र मंथन के समय उसमें से निकली थीं ।

अप्सरातीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] अप्सराऔं के स्नान का पवित्र तालाब या स्थल [को०] ।

अप्सरि
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अप्सरा' । उ० —कभी स्वर्ग की थी तुम अप्सरि, अब वसुधा की बाल ।—गुंजन, पृ० ८७ ।

अप्सरी पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अप्सरा' ।

अप्सु
वि० [सं०] १. आकार या विग्रहहीन । अरूप । २. कुरूप । असुंदर [को०] ।

अप्सुक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग एवं पृथ्वी के बीच अंतरिक्षनित्रासी देवता [ को०] ।

अप्सुचर
वि० [सं०] पानी का जंतु । जलचर ।

अप्सुप्रवेशन
संज्ञा पुं० [सं०] कौटील्य के अनुसार एक प्रकार का दंड़ जिसमें अपराधी जल में डुबाकर मारा जाता था ।

अप्सुयोनि (१)
वि० [सं०] जल में उत्पन्न [को०] ।

अप्सुयोनि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्व । धोड़ा । २. बेंत या नरकुल [को०] ।

अफंड
संज्ञा पुं० [सं० अ+स्पन्द; अप० फंड़] १. वखेड़ा । फरफंद । अड़ंगा । उ०—(क) महाजनों ने चैनसुखदास को मिलकर यह भारी अफंड़ खड़ा कर दिया । —सुंदर ग्रं, पृ० १८६ ।

अफगन
वि० [फा० अफगन] गिरनिबाला । जैसे शेर अफगन ।

अफगान
संज्ञा पुं० [फा० अफ़गान] अफगाननिस्तान का रहनेवाला व्यक्ति । काबुली । पठान ।

अफगानिस्तान
सं० [फा० अफ़गानिस्तान] भारत के पश्चिमोत्तर- स्थित एक प्रदेश जिसकी राजधानी काबुल है ।

अफगानी
वि० [फा० अफगान+ई (प्रत्य०)] अफगनिस्तान का । अफगनीस्तान से संबद्ध ।

अफगार
वि० [फा० अफ्गार] घायल । जख्मी । उ० —दिल किसके हाथ दीजे, दि्ल अफगार कहाँ है ? —कबीप ग्रं०, पृ० ३२३ ।

अफजल
वि० [अ, अफजल] १. बहुत वढ़िया । उत्तमतर । २. बहुत अधिक बहुत ज्यादा [को० ] ।

अफजूँ (१)
संज्ञा पुं० [फा० अफजुँ] वृद्धि । अधिकता ।

अफजूँ (२)
वि० अवशेष । फाजिल । जो अवश्यकता से अधिक हो । उबरा हुआ । खर्च से बचा हुआ ।

अफताव †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अफताब' ।उ० —(क) झरत जहँ नूर जहूर असमान लौं रुह अफताव गुरु कीन्ह दय़ा— भीखा ग्रं० पृ० ६३ ।

अफताबा †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आफताब' ।

अफताबी †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अफताबी' ।

अफतार
संज्ञा पुं० [अ० अप्तार, फा० अपतार] रोजा खोलना । रोजा खोलने के लिये कुछ खाना पीना [को०] ।

अफतालो पु
संज्ञा पुं० [फा० अफताल] अगले पड़ाव पर पहुँचकर ठहरने की व्यवस्था करनेवाले क्रर्मचारी या सेवक ।

अफनाना
क्रि० अ० [सं० उत्+स्फार, स्फाल, हि० उकनाना] उबाल खाना उत्तेजित होना । उबरना ।उ० —द्रोपदी कहतिअफनाइ रजपूती सबै, उतरी हमारी मारी माहिं कफनाइगी । — रत्नाकर, भा० २, पृ० ८ ।

अफयूँ पु
संज्ञा स्त्री० [अ० अफ़यून] अफीम । अफयून । उ० — अफ्यूँ मदक चरस के व चंडू के बदौलत । प्थारों के सदा रहते है ऱुखसार बसंती ।—भारतेंदु ग्रं, भा० २ पृ० ७९२ ।

अफयून
संज्ञा स्त्री० [अ० अफ़यून] दे० 'अफीम' ।

अफयूनी
वि० [अ० अफ़यून] दे० 'अफीमची' ।

अफरन †
संज्ञा स्त्री० [हि०] अफरना । पेट का फूलना ।

अफरना
क्रि० अ० [सं आ+स्फर=प्रचुर] १. पेट भरकर खाना । भोजन से तृप्त होना । अथाना । उ० —प्रगट मिले बिनु भावेतं कैसे नैन अघात । भूखे अफरत कहुँ नी, सुरति मिठाई खात ।— रसनिधि (शब्द०) ।२. पेट का फुलना । उ० (क) लेइ विचार लागा रहे दादू जरता जाय । कबहुँ पेट न अफरई भावइ तेता खाय ।—दादू (शब्द०) । (ख) अफरी बीबी दै मारी (रोटी) । ३. ऊबना । उ० —हम उनकी यह लीला देखते देखते अफर गए (शब्द०) ।

अफरा
संज्ञा पुं० [सं० आ+स्फार=प्रचुर] १. फूलना । पेट फूलना । २. अजीर्ण या वायु से पेट फुलने का रोग ।

अफरा तफरी
संज्ञा स्त्री० [अ० अफरा तफरी] १. उलतफेर । गड़— बड़ । लुटुपोट । २. जल्दी । हड़बड़ी । बदहवासी ।

अफराना पु
क्रि० अ० [हि० अफरना या सं० स्फार] पेट भरने से संतुष्ट होना । अघाना । उ० —गदहा थोरे दिन में खूँद खाई इतरात । अफरान्यों मारन करयो एराकी की लात । —गिरिधर (शब्द०) ।

अफराव †
संज्ञा पुं० [हि० अफरना] पेट फूलने की स्थिति, क्रिया या भाव ।

अफरीदी
संज्ञा पुं० [ फा० अफरीद] पठानों की एक जाति जो पेशावर के उत्तर की पहाड़ियों में रहती है ।

अफल (१)
वि० [सं०] १. जिसमें फल नु हो । बिना फल का । फलहीन । निष्फल । २. व्यर्थ । निष्र्पयोजन । थ० — परमारथ स्वारथ साधन भय अफल सकल, नहि सिद्धि सई है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५२८ ।३. बांझ । बंध्या ।

अफल (२)
संज्ञा पुं० १. झऊ का बृक्ष । २. बकारा ।

अफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भूम्यामलकी । भुँह आँवला । २. घृतकुमारी । घीक्कार ।

अफलातून
संज्ञा पुं० [ फा० अफखातून] १. यूनान का एक प्रसिद्ध विद्बान और दार्शनिक जो अरस्तू का गुरु और सुकरात का शिष्य था । २. बड़प्पन की शेखी करनेवाला व्याक्ति । मु०— अफलातून के नाती=दोखी करनेवाला । तीसमार बनने बाला । ड़ीग मारनेवाला ।

अफलित
वि० [सं०] १. जिसमें फल न लगे । फलहीन । २. निष्फल । परिणामरहितव ।

अफल्गु
वि० [सं०] उत्पादक । लाभदायक जो फल्गु या सारहीन न हो [को०] ।

अफवा
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अफवाह' । उ.....इसी तरह यह सब बातें अफवा की जहरी हवा में मिलकर चारो ओर उड़ने लगीं । —श्रीनिवास ग्रं० पृ० ३६१ ।

अफवाज
संज्ञा स्त्री० [अ० फौज का बहुव० अफ़वाज] सेना । फौज । उ० —तूँ जूनो परणे नवी, असुरारी अफवाज ।—बाँकीदास ग्रं०, भा २, पृ० १०० ।

अफवाह
संज्ञा पुं० [अ० अफवाह] १.उड़ती खबर । बाजारु खबर । किंवदंती । २.मिथ्या समाचार । गप्प । मु० —अफवाह उड़ना=निराधार समाचार फैलाना, अफवाह उड़ाना या फैलाना=१. झुठी बात प्रचारित करना । २. बदनाम करना ।

अफशाँ
संज्ञा स्त्री० [फा० अफ़शाँ] १.बादले के छोटे छोटे टुकड़े अथवा सुनहला या रूपहला चूर्ण जो स्त्रियों के मुख पर शोभा के लिये छिड़के जाते हैं । उ० —कलानिधि के अमर ललाट पर अफशाँ ।—प्रेमधन, भा० २, पृ० १७ ।

अफशा
संज्ञा पुं० [फा०अफ़शा] प्रकाश । प्रकट ।जाहिर । यौ०—अफशायराजगुप्त मंत्रणा का प्रकाश । छिपी बात को खोल देना ।

अफसंतीन
संज्ञा पुं० [यू०] औषध के कार्य में प्रयुक्त एक कड़आ और नशीला पौधा । विशेष—यह पौधा काश्मीर में ५०००से७००० फुट की ऊँचाई पर होता है । इससे हरे या पीले रंग का तेल निकाला जाता है जो झारदार तथा कड़आ होता है । विशेष मात्रा में प्रयोग करने से यह तेल विषैला हो जाता है । इसकी पत्ती विशेषकर यूनानी दवाओं के काम आती है ।

अफसर
संज्ञा पुं० [अं० आफिसर] [संज्ञा अफसरी] १.प्रधान । मुखिया । अधिकारी । २.हाकिम । प्रधान कर्मचारी । यौ०. —अफसरे आला=प्रधान अधिकारी । सर्वोच्च अधिकारी ।

अफसरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अफसर+ई(प्रत्य०)] १.अधिकार । प्रधानता ।२.हुकूमत । शासन । क्रि० प० —करना ।—जताना ।

अफसाना
संज्ञा पुं० [फा०अफसानह्] किस्सा । कहानी । कथा । आख्यायिका । क्रि० प्र० —छिड़ना ।—छेड़ना ।—रह जाना ।—सुनना—सुनाना यौ० —अफसानागो=कहानी कहनेवाला । अफसानानवीस, अफसानानिगार—१. कहानीकार । कथालेखक । २. उपान्यसलेखक ।

अफसूँ
संज्ञा पुं० [फा० + अफ्सूँ] जादू टोना । अभिचार । माया- कर्म । इंद्रजाल [को०] ।

अफसोस
संज्ञा स्त्री० [फा० अफ़सोस] १. शोक । रंज । २. पश्चा- त्ताप । खेद । पछतावा । दु?ख । क्रि० प्र० —करना ।—होना ।

अफीडेविट
संज्ञा स्त्री० [अ० एफीडेविट] १.हलफ । शपथ । २. हलफनामा ।

अफीम
संज्ञा स्त्री० [यु० ओपियम, अ० अफ़यून, फा० अफ्यून] औषध और नशे के रुप प्रयुक्त होनेवाली पोस्ते की ढेढ़ की गोंद । विशेष—यह काछकर इकट्ठी की जाती है । यह कड़वी,मादक और स्तंभक होती है । इसके खआने से कोष्ठबद्ध होता है औरनींद आती है । विशेष मात्रा में यह विषैली और प्राणघातक हो जाती है । इसके लेप से पीड़ा दूर होती है और सुजन उतर जाती है । इसका प्रयोग संग्रहणी, अतिसारादि में होता है । वीर्यस्तंभन की औषधियों में भी इसका प्रयोग होता है । इसके खानेवाले झपकी लेते है और दूध, मिठाई आदि पर बड़ी रुचि रखते है । यह नजले को दूर करती है । और बद्धावस्था में फुर्ती लाती है ।

अफीमची
संज्ञा पुं० [हिं०अफीम+ पु० ची (प्रत्य०)] अफीम खानेवाला । वह पुरुष अफीम खाने की लत हो ।

अफीमी
संज्ञा पुं० [ हिं० अफीम+ इ (प्रत्य०)] अफीम खानेवाला । अफीमची ।

अफीर
संज्ञा पुं० [अ० अफी़र] प्रतिवेशी । पड़ोसी । उ० —चले साथ ले मर्दुमाने अफीर ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३१ ।

अफुल्ल
वि० [सं०] अविकसित ।जो खिला न हो । बेखिला ।

अफू
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अफीम' ।

अफेन (१)
वि० [सं०] जिसमें फेन न हो । फेनरहित । बिना झाग का ।

अफेन (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अहिफेन] अफीम ।

अफोट
वि० [संआ+ स्कोट] विदारित । खंडित । उ० —रम्य अरम्य करी सु धरन्निय । रहे मठ कोठ अफोट करन्निय ।— पृ० रा०, १ ।३६० ।

अफ्फना पु
क्रि० स० [सं० अर्पण पा० अप्पण] दे देना, सौंपना । अर्पित करना । उ० —पुन्नीम पुत्र अफ्फउँ पहुमि, इमि च्यंतनु मन मह करिय ।—पृ० पृ० रा० (उद०), पृ २११ ।

अफ्शा
वि० [फा० अफशा] दे० 'अफशा' । उ० —अब जिद करने से राज अफ्शा होता है । मगर क्या करै ।—श्रीनिवास ग्रं०,पृ० ३६ ।

अबंछी पु
वि० [सं० अवांछित] अनचाहा । अनिच्छित । उ० — सुंदर तृष्णा कारनै जाइ समुद्रही बीच । फटै जहाज अचानक होइ अबंछी मीच ।—सुंदर ग्रं०,पृ० ७१३ ।

अबंड
वि० [सं० अबण्ड] जो अंगहीन या पंगु न हो ।

अबंध
वि० [सं०] १. जो कीसी बंधन में न हो । अबद्ध बंधनहीन । निरंकुश । उ० —विधानों में अबंध विधान बिचरते हो सुर माया कर ।—गीतिका, पृ०९० ।

अबंधन
वि० [सं० अबंधन] अबंध । मुक्त [को०] ।

अबंधु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अबंधु] अमित्र । शत्रु । उ० —बंधु अबंधु हिये मँह जानै । ताकर लोग विचार बखानै ।—राम चं०, पृ० १५१ ।

अबंधु (२)
बि० १. मित्रविहीन । एकाकी । अकेला । २. अनाथ । जिसके कोइ न हो [को०] । २. बंध या सीमाहीन । असीम । अपार । उ० —जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल इतना भरा था जो उलटता शतध्नियों को । —लहर, पृ० ६७ ।

अबंध्य
वि० [सं० अबन्ध्य] [स्त्री० अबंध्या] १. दे० 'अबंध' । २. सफल । अव्यर्थ ।

अबंध्या
संज्ञा स्त्री० [सं० अबन्ध्या] वह जो बाँझ न हो । संतानवाली स्त्री ।

अब (१)
क्रि० वि० [सं० अथ, प्रा,० अह, अथवा सं० अद्य] इस समय । इस क्षण । इस घड़ी । मुहा० —अब का=इस समय का । आधुनिक । अबकी=इस बार अब की बात अब के हाथ=समय के अनुसार कार्य करना । जो बात बिगड़ी नहीं है उसे संपन्न करना । अब के लोग= आधुनिक जन । अब जाकर=इतनी देर पीछे । उ० —महीनों से इस काम में लगे है, अब जाकर खतम हुआ है । अब तब करना=हीला हवाली करना । अब तब लगना या होना= मरने का समय निकट होना । उ० —जब वैद्य आया तब उसका अब तब लगा था । अब न तब= न इस समय न फिर कभी । अव भी=(क) इस समय भी । (ख) इतने पर भी । उ० —इतनी हानि उठाई अब भी नहीं चेतते । अब से=इस समय से । आगे । भविष्य में । उ० —अब मैं ऐसा कार्य भूलकर भीन करुँगा ।

अब (२)
संज्ञा पुं० [अ०] बाप । पिता [को०] ।

अबक पु
संज्ञा पुं० [अ+ हिं० वक] अनुचित बात । अकथ्य । उ० —राखो आगै रसणारै, राघव नाम रसाल । मुख माँझल आँणो मती, गिरँग अबक ज्यूँ गाल ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० ३, पृ० ७९ ।

अबका
संज्ञा पुं० [फिलि० अबुका, सं० अवका=सेवार] एक पौधा जिसकी डंठल की छाल रेशेदार होती है । विशेष—यह पौधा फिलिपाइन देश का है । अब इसकी खेती अंडमान टापू और आराकान की पहाड़ियों में भी होती है । खेती इस प्रकार की जाती हैं—इसकी जड़ से पेड़ के चारों ओर पौधे भूफोड़ निकलता हैं । जब वे तीन तीन फुट के हो जाते हैं तब उन्हें उखाड़कर खेतों में ८-९ फुट की दूरी पर लगाते हैं । इसकी फसल तैयार होती है तब इसे एक फुट ऊपर से काट लेते हैं । डंठलों से इसकी छाल निकाल ली जाती है और साफ करके रस्सी आदि बनाने के काम आतो है । इसकी खूँदड़ का मौनिला पेपर बनता है ।

अबक्र
वि० [सं० अ+ वक्र] टेढ़ा नहीं । सीधा । उ० —पुनि स्वाधिष्ठान सु द्वितीय चक्र । नहीं षटदल षट् अक्षर अबक्र ।— सुंदर ग्रं०, पृ० ४६ ।

अबखरा
संज्ञा पुं० [अ० अब्खरः (बुखार का बहुव०) भाप । वाप्ष । क्रि० प० —उठना । चढ़ना ।

अबखोरा †
संज्ञा पुं० [ हिं० ] दे० 'आबखोरा' ।

अबगत पु
वि० [सं० अविगत] १. जो जाना न जाय । अज्ञात । २. अनिर्वचनीय । ३. नित्य (इश्वरबोधक) । उ० —नही बाप ना माता भाए । अबगत से ही हम चल आए—कबीर सा०, पृ० ८२५ ।

अबगति पु
वि० [हिं०] दे० 'अवगत' ।

अबचन पु
वि० [संअ+ वचन] दुर्वचन । अपशब्द । उ० —वचन अबचन रहित सोई जानिये ।—सुदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६२५ ।

अबजरवेटरी
संज्ञा स्त्री० [अ० आवजरवेटेरी] बह स्थान जहाँ ग्रहों की गति, ग्रहण, ग्रहयुद्ध, आदि खगोल संबंधी घटनाओं का निरीक्षण किया जाता है । वेधायल । वेधशाला । वेधमंदिर । मानमंदिर ।

अबट पु
संज्ञा पुं० [सं अ+ वाट] दुर्गम रास्ता । हीन मार्ग । विपथ । उ० —नर तेथ निमाणा, निलजी नारी, अकबर गाहक बट अबट । बेलि० (भू०), पृ० ३१ ।

अबटन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उबटन' ।

अबड़ धबड़
वि० [अनु०] बेतरतीब । असंगत । जल्दबाजी ।

अबतर
वि० [अ० अब्तर] [संज्ञा अबतरी] १. बुरा । रद । खराब । २. गिरा हुआ । बिगड़ा हुआ । उ० —अफसोस ऐ सनम तुम ऐसे हुए हो अवतर । मिलते हो गैर से जा हमसे रुखाइयाँ हैं ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६९ ।

अबतरी
संज्ञा स्त्री० [अ० अब्तरी] १. घटाव । बिगाड़ । क्षय । अवनति । २. बुराई । खराबी ।

अबदार पु
वि० [फा० आबदार] दे० 'अबदार' उ० —पति ची प्रीत धारिया पूरी, हेमराज अबदार हजूरी ।—रा० सू०, पृ० ३१६ ।

अबद्ध (१)
वि० [सं०] १. जो बँधा न हो । मुक्त । २. स्वच्छंद । निरं कुश । ३ असंबद्ध । निरर्थक । यौ० —अबद्धवाक्य=वह असंबद्ध वाक्य जिसमें अन्वयबोध की योग्यता न हो अर्थात् जिससे कोई अभिप्राय न निकले । जैसे— कोई कहे कि मैं आजन्म मौन हूँ, मेरा बाप ब्रह्मचारी, माता बंध्या और पितामह अपुत्र था । अबद्धमुख=जिसके मुख में लगाम न हो । अंडबंड बोलनेवाला । अबद्धमूल=जिसकी जड़ पुष्ट न हो ।

अबद्ध (२)
संज्ञा पुं० असंभव या असामान्य वस्तु [को०] ।

अबद्धक
वि० [सं०] दे० 'अबद्ध' [को०] ।

अबध (१) पु
वि० [सं० अबाध्य] जो रोका न जा सके । अबाध्य । निर्बाध । उ० —भरे भाग अनुराग लोग कहै राम अबध चितबन चितई हैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

अबध (२) पु
वि० [सं० अबध्य] जिसे मारना उचित न हो । उ० — तौकौं अबध कहत सब कोऊ तातैं सहियत बात । बिना प्रयास मारिहौं ताकौं, आजु रैनि कै प्रात ।—सूर (शब्द०) ।

अबधू (१) पु
वि० [सं० अबोध, पुं० हिं० अबोधु] अज्ञानी । अबोध । मूर्ख । उ० —(क) अबधू छोड़ों मन विस्तारा ।—कबीर (शब्द०) । (ख) अबधू कुदरत की गति न्यारी—कबीर (शब्द०) ।

अबधू (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अवधूत] त्यागी । संन्यासी । विरागी । अवधूत । संत । साधु । उ० —जिन अबधू गुरु ज्ञान लखाया । ताकर मन तहईँ लै धाया ।—कबीर (शब्द०) ।

अबधूत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अवधूत' ।

अबध्य
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अबध्या] १. न मारने योग्य । जिसे मारने उचित न हो । २. जिसे मारने का विधान न हो । जिसे शास्त्रानुसार प्राणदंड न दिया जा सके । जैसे—स्त्री, ब्राह्मण बालक आदि । ३. जो किसी से न मरे । जिसे कोई मार न सके ।

अबनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अबनि' । उ० —इहाँ आनि अबनी कों भोजन करायौ ।—पौद्दर अभि० ग्रं०, पृ० ४८३ ।

अबर (१) पु
वि० [सं अ+ बल] अबल । निबल । उ० —ये अबर पीर जबर सबर बिन मरुँ ।—तुलसी० श०, पृ० ५१ ।

अबर (२) पु
वि० [सं० अपर, अवर] अन्य । और । दूसरा । उ०— सरिता सिंधु अनेक अबर सखी बिलसत पति सहज सनेह ।— सूर० (राधा०) २७६७ ।

अबर (३) पु
वि० [सं० अवर] अश्रेष्ठ । अव्यंग्य । अधम । उ०— इहाँ उछाह वाक्य तें काव्य होता है ।—भिखारी ग्रं०, भा० भा०२, पृ० २४४ ।

अबर (४) पु
संज्ञा पुं० [ फा० अब, सं० अभ्र] बादल । उ०—अगर यों जान जिंदगानी । अबर ओला घुले पानी ।—तुलसी० श०, पृ० ३१ ।

अबरक
संज्ञा पुं० [सं० अभ्रक] १. एक धातु । अभ्रक । भोडल । भोड़र । भुखल । विशेष—यह खानों से निकलती है और बड़े बड़े ढोकों में तह पर तह जमी हुई पहाड़ों पर मिलती है । साफ करके निका- लने पर इसकी तह काँच की तरह निकलती है । अबरक के पत्तर कंदील आदि में लगते हैं तथा विलायत में भी भेजे जाते हैं । वहाँ ये काँच की टट्टी की जगह कीवाड़ के पल्लों में लगाने के काम आते हें । यह धातु आग से नहीं जलती और लचीली होती है । वैज्ञानिक यंत्रों में भी इसका प्रयोग होता है । यह दो रंग की होती है—सफेद और काली । भारतवर्ष में बंगाल, राजस्थान, मद्रास आदि की पहाड़ियों में मिलती है । वैद्य लोग इसके भस्म को वृष्य मानते है और औषधियों में इसका प्रयोग करते हैं । भस्म बनाने में काले रंग का अबरक अच्छा समझा जाता है । निश्चंद्र अर्थात् अभारहित हो जाने पर भस्म बनता है । २. एक प्रकार का पत्थर जो खान से निकलता है । विशेष—यह पत्थर बर्तन बनाने के काम आता है । यह बहुत चिकना होता है । इसकी बुकनी ची़जों को चमकाने के लिये पालिश या रौगन बनाने के काम में आतो है ।

अबरख
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अबरक' ।

अबरखी (१) †
वि० [हिं० अबरक] १. अबरक के रंग का । २ अभ्रकका ।

अबरखी (२) †
संज्ञा स्त्री० अभ्रक की बुकनी ।

अबरन (१) पु
[सं० अवर्ण्य] जिसका वर्णन न हो सके । अकथनीय । उ०—(क) अबरन कौ का बरनिए मौंपे लख्या न जाइ । अपना बाना बाहिया कहि कहि थाके माइ । कबीर० ग्रं०, पृ० ६१ । (ख) भजि मन नंद नंदन चरन । सनक संकर ध्यान ध्यावत निगम अबरन बरन ।—सूर० (शब्द०) ।

अबरन (२) पु
वि० [सं० अवर्ण] १. बिना रंग का । वर्णशून्य । उ०— अलख अरुप अबरन सो करता । वह सब सों, सब वहि सौं बरता । —जायसी (शब्द०) । २. एक रंग का नहीं । भिन्न । उ०—हद छोड़ बेहद भया अबरन किया मिलान । दास कबीरा मिल रहा सो कहिए रहमान ।—कबीर (शब्द०) ।

अबरन (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० आवरण] दे० 'आवरण' ।

अबरन्य
संज्ञा पुं० [सं० अवर्ण्य] दे० 'अवर्ण्य' । उ०—कहूँ अबरन्यन को कहत भूषन बरनि बिबेक ।—भूषण ग्रं०, पृ० ९१ ।

अबरस (१)
संज्ञा पुं० [अ० अबरश] १. घोड़े का एक रंग जो सब्जे से कुछ खुलता हुआ सफेद होता है । २. घोड़ा जिसका सब्जे से कुछखुलता हुआ सफेद रंग हो । उ०—अबलक अबरस लखी सिराजी । चौधर चाल समुद सब ताजी ।—जाययी (शब्द०) ।

अबरस (२)
वि० सब्जे से कुछ खुलता हुआ सफेद रंग का ।

अबरा (१)
संज्ञा पुं० [फा० अबरह्] १. अस्तर का उलटा । दोहरे वस्त्र के ऊपर का पल्ला । उपल्ला । उपल्ली । क्रि०—प० ।—चढ़ाना ।—देना ।—लगाना । २. खुलनेवाली गाँठ । उलझन ।

अबरा (२) †
वि० [सं० अबल] बलहीन । कमजोर । निर्बल । यौ.—अबरा दुबरा=शक्तिहीन । कमजोर । दुबला पतला ।

अबरी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा अब+ ई (प्रत्य०)] १. एक प्रकार का चिकना कागज जिसपर बादल की सी धारियाँ होती हैं । यह पुस्तकों की दफ्ती पर लगाया जाता है और कई रंग का होता है । २. पीले रंग का एक पत्थर, जो पच्चीकारी के काम आता है । यह जैसलमेरी में निकलता है । इसलिये इसको जैसलमेरी भी कहते है । ३. एक प्रकार की लाह की रंगाई जो रंगबिरंगी बादलों के छीटों की तरह होती है ।

अबरी (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० अवार] गड्ढ़े या नदी के पानी से मिला हुआ किनारा ।

अबरू
संज्ञा पुं० [फा०] भौंह । भ्रू । उ०—आगे बढ़ी चढ़े थे अबरू खमदार ।—कुकुर०, पृ० ३९ । मु०.—अबरू में बल पड़ना=नाराज होना । अबरू पर मैल न आना=विकार न आना ।

अबर्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० अवर+ ज] अनुज । छोटा भाई ।— अनेकार्थ०, पृ० ८७ ।

अबर्त †
संज्ञा पुं० [सं० आवर्त] पानी का भँवर । चक्कर ।

अबर्न पु
वि० [हिं०] दे० 'अवर्ण' । उ०—सुंदर ब्रह्म अबर्न है ब्यापक अग्नि अबर्न ।—सुंदर ग्रं०, पृ० ७८१ ।

अबर्न्य पु
संज्ञा पुं० [सं० अवर्ण्य] दे० 'अवर्ण्यअबल (२)' । उ०—आदर घटत अबर्न्य को, जहाँ बर्न्य के जोर ।—भूषण ग्रं० पृ० २९ ।

अबल (१)
वि० [सं०] निर्बल । कमजोर । उ०—कैसे निबहै अबल जन करि सबलन सों बैर ।—सभावि० (शब्द०) ।

अबल (२)
संज्ञा पुं० १. बलहीनता । २. वरुण नामक वृक्ष ।

अबल (३) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अवलि] १. पंक्ति । समुह । कतार । उ०—अंतर नीलंबर अबल आभरण अंगि अंगि, नग नग उदित ।—बेलि०, दू० १७६ ।

अबलक (१)
वि० [अ० अबलक] दे० 'अबलख (१)' । उ०—जो अबलक घोड़ा अमुके रंग कौ होंइ तो तो घोड़ा उपर चढ़ि कै श्रीनाथजी द्वार जाइए ।—दो सौ बावन पु० १९३ ।

अबलक (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार के वर्ण का अश्व । अबलख ।

अबलख (१)
वि० [अ० अबलक] १. कबरा । दो रंगा । सफेद और काला अथवा सफेद और लाल रंग का ।

अबलख (२)
संज्ञा पु० १. वह घोड़ा जिसका रंग सफेद और काला हो । उ०—अब लख अबरस लखी सिराजी । चौधर लाल समुद सब ताजी ।—जायसी (शब्द०) । २. वह बैल जिसका रंग सफेद और काला हो । कबरा बैल ।

अबलख (३)
वि० [सं० अवलक्ष] सफेद । श्वेत ।

अबलखा
संज्ञा स्त्री० [अ० अबलक्] एक पक्षी । विशेष—इसका शरीर काला होता है, केवल पेट सफेद होता है । इसके पैर सफेदी लिए हुए होते है और चौंच का रंग नारंगी होता है । यह उत्तर प्रदेश बंगाल तथा बिहार में होता है और पत्तियों तथा परों का घोसला बनाता है । यह एक बार में चार पाँच अंड़े देता है । इसकी लंबाई लगभग नौ इंच होती है ।

अबला
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री । नारी । उ० —पावस कठिन जु पीर अबला क्यों करि सहि सकै । तैऊ धरत न धीर रंक्तबीज सम ऊपजै ।—बिहारी (शब्द०) । यौ—अबलासेन=कामदेव ।

अबलाबल
संज्ञा पुं० [सं० ] महादेव शिव । [को० ] ।

अबलि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'अबली' । उ० —नीति प्रीति छबि अबलि ए सब सरि की भाँति ।—पोददार अभि० ग्रं० पृ० ५३३ ।

अबली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अवली] १. पंक्ति । २. समुह । उ० —बर विहंग अबली जहँ भाँति भाँति की आवति ।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० २ ।

अबल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. दुर्बलता । कमजोरी । २. बीमारी । रुणावस्था [को० ] ।

अबल्य (२)
वि० जो बलकारक न हो ।

अबवाब
संज्ञा पुं० [अ० ] १. वह अधिक कर जो सरकार मालगुजारी पर लगती है । २. वह अधिक कर जो लगान पर जमींदार को असामी से मिलता है । भेजा । अधइक कर । लगता । ३. क्ह कर जो गाँव के व्यापारियों तथा लोहार सोनार आदि पेशेवालों से जमिंदार को मिलता है । घरद्धारी । बसौरी । भिटौरी ।

अबस (१)
वि० [सं० अवश] दे० 'अवश' । उ० —चंदन में नाग मद भरयो इंद्रनाग, विष भरो शेषनाग, कहै उपमा अबस को ।— भुषण ग्रं०, पृ० ३० ।

अबस (२)
वि० [अ० ] व्यर्थ । निरर्थक । फजुल । बेकार [को० ] ।

अबहि पु
क्रि० वि० [हिं० ] दे० 'अभी' । उ० —अबहि उगत ससि तिमिरे तेजब निसि उसरत मदन पासरे ।—विद्दापति०, ९८ ।

अबाँह पु
वि० [हिं० अ+ बाँह] १. बिना बाँह का । जिसे बाँह न हो । अबाहु । असहाय । अनाथ । बेसहारा ।

अबा
संज्ञा पुं० [अ० ] अंगे से मिलता जुलता एक प्रकार का पहिनावा । विशेष—यह अंगे के बराबर या उससे कुछ अधिक लंबा होता है । यह ठीलाढ़ाला होता और सामने खुला होता है इसमें छह कलियाँ होती है और सामने केवल दो घुँड़ियाँ या तुमके लगने हैं । कोई कोई इसमें गरेवान भी लगाते हैं । यह पहनावा मुसमानों के समय से चला आता है ।

अबाक पु
वि० [हिं० ] दे० 'अवाक' । उ० —रतन अमो क परखर रहा जौहरी थआक । दरिया तहाँ कीमत लहीं उनमन भया अबाक ।—दरिया० बानी० पृ० २० ।

अबाट
संज्ञा पुं० [हिं० ] खराब रास्ता । कुपथ । उ० —मन कर्म मर्म अबाट परिहरि बाट घर को देत हैं—कबीर सा०, पृ० ४० १ । यौ.—अवाट सवाट=अंडबंड़ । गलत सलत ।

अबात पु
वि० —[सं० अवात] [स्त्री० अवानी] १. बिना वायु का । २. जिसे वायु न हिलाती हो । ३. भीतर भीतर सुलगनेवाला । उ० —आई तजि हौं ताहि तरनिततुजा तीर, ताकि ताकि तारापति तरफति ताती सी । कहै पद्माकर घरीक ही में धन- श्याम काम तौ कतलबाज कुंज ह्वै काती सी । याही छइन वाही सौं न मोहन मिलौगे जौ पै लगनि लगाई एती अगिनी अबाती सी । राउरी दुहाई तौ बुझाई न बुझैगी फैरि, नेह भरी नागरी की देह दिया बाती सी ।—पद्माकर (शब्द०) ।

अबाद पु
वि० [सं० अवाद] वादशुन्य । निर्विवादा । उ० —ब्रह्ना विचारे ब्रह्मा को पारख गुरु परसाद । रहित रहै पद राखिके जिव से होय अबाद ।—कबीर (शब्द०) ।

अबादान
वि० [फा० आबादान] बसा हुआ । पुर्ण । भठरा पुरा । उ० —यह गाँव अबादन रहे ।—(फकीरों की बोली) ।

अबादानी
संज्ञा स्त्री० [फा० आबादानी] १. पुर्णता । बस्ती । उ० —भुखे को अन्न पियासे को पानी । जेगल जेगल अबादानी (शब्द०) । २. शुभचितकता । उ० —जिसका खआए अत्र पानी, उसकी करै अबादानी (शब्द०) । ३. चहल पहल । मनोरंजकता । उ० —जहाँ रहै मियाँ रमजानी, वही होय अबादानी (शब्द०) ।

अबाध
वि० [सं० ] १. बाधारहित । बेरक । उ० —हँसी का मदविह्वल प्रतिबिंब मधुरिमा खैला सदृश अबाध ।—कामायनी पृ० ४८ । २. निविघ्न । उ० —राम भगति निरुपम निरुपाधी बसै जासु उर सदा अबाधी ।—तुलसी (शब्द०) । ३. असीम । अपरिमित । अपार । बेहद । उ० —अकल अनीह अबाध अभेद नेति नेति कहि गावाहिं वेद ।—सुर० (शब्द०) ।

अबाधगति
वि० [सं० अवाध+ गति] जिसकी गति अबाध या बेरोक हो ।

अबाधा पु
वि० [हिं० ] दे० 'अबाध' । उ० —रघुपति महिमा अगुन अबाधा ।—तुलसी (शब्द०) ।

अबाधित
वि० [सं० ] १. बाधा रहित । बेरोक । २. स्वच्छद । स्वतंत्र । ३. अनिषिद्ध

अबाध्य
वि० [सं० ] १. बेरक । जो रोका न जा सके । २. अनिवार्य ३. जो वश में न किया जा सके ।

अबान पु
वि० [सं० अ=नही० +हिं० बाना=चिह्न] शास्त्ररहित । हथियार छोड़ हुए । निहत्था । उ० —चढ़े पिट्ठ दस कोस लों सब ब्रजबीर अबाम । फते पाय सुरज बली ठाढौ ता मैदाना ।— सुदन (शब्द०) ।

अबाबील
संज्ञा स्त्री० [अ० ] एक काले रंग की चिड़िया । कृष्ण । कन्हैया । देवबिलाई । विशेष—इसकी छाती का रंग खुलता होता है । इसके पैर बहुत छोटे छोटे होते हैं जिसके कारण यह बैठ नही० सकती और दिन भर बहुत ऊपर आकाश में झुंड के साथ उड़ती रहती है । यह पृथ्वी के सभी देशों में होती है । इसके घोसले पुरानी दीवारों पर मिलते हैं ।

अबार
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+ वार, प्रा० बार=समय] असमय । अधिक देर । विलंब । बेर । कुबेला । उ०—परसुराम जमदग्नि के गेह ली नअवतार । माता ताकी जमुनजल लेन गई एक बार । लागी तहाँ अबार सिद्धि ऋषि करि क्रोध अपार । परसुराम को यों कही माँ को बेगि संहार ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—लगना ।—होना । उ०—बहुत अबार कतहुँ खेलत भई कहाँ रहे मेरे सांरगपानी ।—सूर (शब्द०) ।

अबारजा
संज्ञा पुं० [फा० अबारिजह=बही; अवार्चा, अवारिजइ (फौ०) ] १. रोजनामचा । २. जमाखर्च की बही । उ०—करि अबारजा प्रेम प्रीति कौ असल तहाँ खतियावौ । दूजे करज दूरि करि दैयत, नैकु न तापै आवै ।—सूर०, १ ।१४२ ।

अबाल (१)
वि० [सं०] १. जो बालक न हो । जवान । २. अबालकोचित । ३. पूर्ण । पूरा । जैसे, अबालेंदु=पूर्ण चंद्रमा ।

अबाल (२) †
संज्ञा पुं० [देश०] वह रस्सी जो चरखे की पँखुड़ियों को बाँध कर तानी जाती है और जिस पर से होकर माला चलती है ।

अबाली
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पक्षी जो उत्तरी भारत और बंबई प्रांत तथा आसाम, चीन और स्याम में मिलता है । इसका रगं भूरा और गर्दन कुछ पीली होती है । यह झुंड में रहता है और अपना घोंसला घास और पर का बनाता है । बेंगनकुटी ।

अबास पु
संज्ञा पुं० [सं० आवास] रहने का स्थान । घर । मकान । उ०—(क) ऊँचे अबास बहु ध्वज प्रकास । सोभा विलास, सोभै प्रकास ।—केशव (शब्द०) । (ख) कबिरा गर्व न कीजिए, ऊँचा देखि अबास ।—कबीर ग्रं०, पृ० ६४ ।

अबाह्य
वि० [सं०] १. बाहरी नहीं । भीतरी । २. पूर्णत? परिचिंत । ३. जिसमें बाहरी स्थिति न हो [को०] ।

अबिंगि पु
वि० [सं० अव्यङ्ग्य] व्यंग्यरहित । उ०—बचन अबिंगि कहै रस भोय ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७ ।

अबिंधन
संज्ञा पुं० [सं० अबिन्धन] १. समु्द्र । २. बड़वानल ।

अबिंध्य
संज्ञा पुं० [सं० अबिन्ध्य] रावण का एक मंत्री । यह बड़ा विद्वान शीलावान् और वृद्ध मंत्री था । इसने रावण से सीता को लौटाने के लिये कहा था ।

अबिकारी
वि० [सं० अविकारी] दे० 'अविकारी' । उ०—अस प्रभू हृदय अछत अबिकारी ।—मानस, १ ।२३ ।

अबिगत पु
वि० [सं० अविगत] १. जो विगत न हो । जो जाना न जाय । उ०—अबिगत गति कछु कहत न आवै । ज्यौं गूँगैं मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै ।—सूर० १ ।२ ।

अबिगति (१) पु
वि० [हिं०] दे० 'अविगत' । उ०—निरगुण राम निरगुण राम जपहुरे भाई, अबिगति की गति लखी न जाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० १०४ ।

अबिगति (२) पु
संज्ञा स्त्री० अविगत अवस्था या दशा । उ०—तुलसी राम प्रसाद बिन, अबिगति जानि न जात ।—स० सप्तक, पृ० ४५ ।

अबिचल पु
वि० [सं० अबिचल] दे० 'अविचल' । उ०—रघुबीर रुविर पयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी । जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत प्रबिचल पावनी ।—मानस, ५ ।३५ ।

अबिछीन पु
वि० [सं० अविच्छिन्न] जो विच्छिन्न या टूटा न हो । उ०—औरौ ज्ञान भगति कर, भेद सुनहु सुप्रबीन । जो सुनि होई राम पद, प्रीति सदा अबिछीन ।—मानस, ७ ।११६ ।

अबिताली पु
संज्ञा पुं० [ फा० अफताल, हिं० अफताली] सेना का वह दल जो आगे जाकर पड़ाव आदि की व्यवस्था करता है । उ०—काको अयान निकारन कौ उर आए हैं जोबन के अबिताली ।—केशव ग्रं०, पृ० १० ।

अबिद पु
वि० [सं० अवित्=अज्ञ] ज्ञानशून्य । अविद्वान् । मूर्ख । उ०—त्रिबिध भाँति को सबद बर, विघट न लट परमान । कारन अबिरल अल अपितु, तुलसी अबिद भुलान ।—स० सप्तक, पृ० २६ ।

अबिद्ध
वि० [सं० अबिद्ध] अनबेधा । बिना छिदा हुआ । दे० 'अविद्ध' ।

अबिद्धकरर्णी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अविद्धकर्णी' ।

अबिद्या पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अविद्या' ।

अबिध †
वि० [सं० अविधि] जो विधि या नियम के अनुकूल न हो । अव्यवस्थित ।

अबिनय पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अविनय' । उ०—स्वामिनि अबिनय छमिबि हमारी ।—मानस, २ ।११६ ।

अबिनासी पु
वि० [हिं०] 'अविनाशी' । उ०—अबिनासो मोंहि ते चल्या, पुरई मेरी आस ।—कबीर ग्रं०, पृ० ७० ।

अबिबेक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अविवेक' । उ०—प्रभु अपने अबिबेक, तें बूझौं स्वामी तोहि ।—मानस, ७ ।९३ ।

अबिबेकी पु
वि० [हिं०] दे० 'अविवेकी' । उ०—जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि ।—मानस, २ ।१४२ ।

अबिरल पु
वि० [हिं०] दे० 'अविरल' ।

अबिरुद्ध पु
वि० [हिं०] दे० 'अविरुद्ध' । उ०—नाम सुद्ध, अबिरुद्ध, अमर, अनबद्य, अदूषन ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३५ ।

अबिरोध
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अविरोध' । उ०—समय समाज धरम अबिरोधा । बोले तब रघुबंस पुरोधा ।—मानस, २ ।२९५ ।

अबिरोधी पु
वि० [हिं०] दे० 'अविरोधी' । उ०—धर्म बिचारे प्रथम पुनि, अर्थ धर्म अबिरोधि । धर्म अर्थ बाधा रहित सेवै काम सुसोधि ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १९१ ।

अबिर्था पु †
वि० [सं० आ=पुरी तरह+ व्यर्थ बिरथा, विर्था] बिरथा, दे० 'वृथा' । उ०—माया कारन बिद्या बेचहु जन्म अबिर्था जाई ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३०३ ।

अबिलंब
क्रि० वि० [सं० अविलम्ब] दे० 'अविलंब' । उ०—जय, जय, जय बलभद्र बीर धीर गंभीर अबिलंब अलंबहारी ।—घनानंद, पृ० ५५० ।

अबिसेक पु
वि० [हिं०] दे० अभिषेक । उ०—प्रेमहित करि छिरसागर भई मनसा एक । स्याम मति से अंग चंदन अमी के अबिसेक ।—सा० लहरी, पृ० १४५ ।

अबिहड़ पु
वि० [हिं०] दे० 'अविहड़' । उ०—आदि मध्य अरु अंत लौं अबिहड़ सदा अभंग । कबीर उस करतार की सेवग तजै न संग ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८६ ।ेे

अबिहित पु
वि० [सं० अविहित] दे० 'अविहित' । उ० —राम सो परमातमा भवानी । तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी । — मानस, १ ।११९ ।

अबी पु †
क्रि० वि० [हि०] दे० 'अभी' । उ०—जोतूँ कह्या हमारा मानै नाहीं अबी करों तुम छाई । —प्राण, पृ० १२२ ।

अबीज (१)
वि० [सं०] १. बीजविहीन । २. उत्पादन-क्षमता-रहित । नपुंसक । ३कारणरहित [को०] ।

अबीज (२)
संज्ञा पुं० वह बीज जिसकी उत्पादनशक्ति नष्ट हो चुकी हो [को०] । यौ.—अबीजविक्रयी ।

अबीजा
संज्ञा पुं० [सं०] अंगूर की एक किस्म । बेदाना अंगूर । किशमिश ।

अबीर
संज्ञा पुं० [अ० अबीर] १. एक रंगीन बुकनी जिसे लोग होली के दिनों में अपने इष्ट मित्रों पर ड़ालते हैं । यह प्राय?लाल रंग की होती हैं और सिंघाड़े के आटे में हलदी, और चुना मिला कर बनती हैं । अब अरारोट और अंगरेजी बुकनियों से अधिक तैयार की जाती है । गुलाल । उ०—अगर धूप बहु जनु अँधि- यारी उड़ै अबीर मनहुँ अरुनारी । —मानस ।२. अभ्रक का चूर्ण जिसे होली में लोग अपने इष्ट मित्रों के मुख पर मलते हैं, कहीं कहीं इसे भी अबीर कहते हैं । बुक्का । ३. श्वेत रंग की सुगंध मिली बुकनी जो वल्लभ कुल के मंदिरों में होली में उड़ाई जाती है ।

अबीरी (१)
वि० [अ० अबीरी] अबीर के समान या अबीर से बनी । अबीर के रंग का । कुछ कुछ स्याही लिए लाल रंग का ।

अबीरी (२)
संज्ञा पुं० अबीरी रंग ।

अबीह पु
वि० [ सं०अ=नहीं+मीति या भी, प्रा० वीह] भय- रहित । निर्भय । निड़र । उ०—साँस सेग सँताप तज, आपा होय अबीह । शून्य सेज में पाइया हरिथ अबिनाशीह ।—राम० धर्म०, पृ०७५ ।

अबुझ पु
वि० [हि०] १. दे० 'अबूझ' ।२. न बुझनेवाला ।

अबुध
वि० [सं०] १. अबोध । नासमझ । अज्ञानी । मूर्ख । उ०— भानु बंस राकेस कलंकू । लिपट निरंकुस अबुध असंकू ।— तुलसी (शब्द०)२. अनजान । उ०—रह जाता नर लोक अबुध ही ऐसे उन्नत भावों से । —साकेत, पृ० ३७१ ।३. बेंहोगे । मूर्च्छित बेसुध । उ०—एक पहर यों अबुध ह्वै रही ।—नंद ग्रं०, पृ० १३८ ।

अबुद्ध
वि० [सं०] दे० 'अबुध' [को०] ।

अबुद्धि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विचार या ज्ञान का अभाव । अज्ञान । अविद्या । २. मूर्खता । बदमाशी [को०] ।

अबुद्धि (२)
वि० बुद्धिविहीन । मूर्ख । नादान ।

अबुहाना †
क्रि० अ० [हि०] दे० 'अभुआना' ।

अबू
संज्ञा पुं० [अ०] वालिद । पिता । बाप [को०] ।

अबूझ
वि० [सं अबुद्ध, प्रा० अबुज्झ] अबोध । नासमझ । नादान । उ०—(क) कोने परा छुटिहै सुन रे जिव अबूझ । कबीर माँड़ मैदान करि इंद्रिन सोंजूझ ।—कबीर (शब्द०) ।(ख)अजगव खंडेउ ऊख जिमि अजहुँ न बूझ अबूझ ।—तुलसी (शब्द०) ।

अबे
अव्य़०[सं० अयि; पु० हिं अबे] अरे । हे । इस संबोधन का प्रयोग बड़े लोग अपने बहुत छोटे वा नीच के लिये करते हैं । जैसे—अबे, सुनता नहीं हैं, इतनी देर से पुकार रही हैं । (शब्द०) मुहा.—अबे तबे करना=निरादर करना । निरादरसूचक वाक्य बोलना । कच्ची पक्की बोलना ।

अबेध पु
वि० [सं० अबिद्ध] जो छिदा न हो । बिना बेधा । अनबिधा । उ०—लौकै रतन अबेध अलौकिक नहिं गाहक नहिं साँईं । चिमिकि चिमिकि चमकै दृग दुहुँ दिसि अरब रहा छरि आई ।—कबीर (शब्द०) ।

अबेर पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अबेला] बिलंब । देर । अतिकाल । उ०—आवत पिय नहिं दीखती भइली बहुत अबेर ।—संत वाणी, भा०१.पृ०११३ ।

अबेव पु
वि० [सं०अभेद, प्रा०, अभाद] भेदरहित । समभाव युक्त । उ०—दोऊ मिले अबेव साहिब सेवक एक से ।—अर्ध०, पृ०२२ ।

अबेश पु
वि० [सं०अ=अति+फा० बेश=अधिक] अधिक । बहुत । उ०—कीर कदंब मंजुका पूरण सौरभ उड़त अबेश । अगर धूप सौरभ नासा सुख बरषत परम सुदेश ।—सूर (शब्द०) ।

अबै पु
क्रि० वि० [ हिं० अब ही] अभी । तत्काल । इसी समय ।

अबैन पु
वि० [हि०अ+बैन] १. वाणविहीन मौन । चुप ।२. दूषित वचन । अवाच्य । कुवचन ।

अबैर
संज्ञा पुं० [सं० अवैर] अविरोध । अद्वेष । वैर का अभाव । उ०—बैर से नहीं अबैर से हृदय की विचारपरंपरा के माननेवाले । किन्नर० । पृ० १० ।

अबोध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अज्ञान । मूर्खता ।

अबोध (२)
वि० अनजान । नादान । अज्ञानी । मूर्ख । उ०—तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को न स्वयं तुम संमझ सके ।—कामा- यानी, पृ०१६३ । यौ. —अबोधगम्य= जो समझ में न आ सके ।

अबोध्य
वि० [सं०] जो समझ में न आ सके । संमझ मेंन आने योग्य [को०] ।

अबोल (१) पु
वि० [सं० अ+हि० बोल] १. मौन । अवाक् । उ०— (क)बोलहिं सुअन ढे़क बक लेदी । रही अबोल मीन जलभेदी ।—जायसी (शब्द०) ।(ख) पीरी पाती पावती पीरी चढ़ी कपील । कोरे बदल बिलोकि के मुदिता भई अबोल (शब्द) । २. जिसके विषय में बोल न सकों । उ० जहाँ बोल अक्षर नहीं आया । जहाँ अक्षर तहँ मनहिं दृढ़ाया । बोल अबोल एक है सोई । जिन या लख सो बिरला कोई ।—कबीर (शब्द०) ।

अबोल (२)
संज्ञा पुं० कुबोल । बुरी बोल ।

अबोलना
संज्ञा पुं० [सं० अ+हिं० बोलना] न बोलने की स्थिति । असंभाषण । उ०—पाट न खोल्या मुखाँ न बोल्या साँज लग परभात । अबोलना में अवध बीती, सकाहे क कुसलात ।— संत वाणी०, भा०२, पृ०७० ।

अबोला
संज्ञा पुं० [सं० अ+हि० बोलता] रंज से बोलचाल का न होना । उ०—मिलि खेलिय जा सँग बालक तें कहु तासों अबोलो क्यों जात कियो ।—केशव (शब्द०) ।

अब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल से उत्पन्न वस्तु । २. कमल । पद्म । उ०—अंकुस ऊरध रेख अब्ज अठकोन अभलतर । —भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ०७ । ३. शंख ४. निचुल । इज्जल । हिज्जल । ईजड़ का पेड़ । ५. चंद्रमा । ६. धन्वंतरि । ७. कपूर । ८. एक संख्या । सौ करोड़ा । अरब । ९. अरब के स्थान पर आनेवाली संख्या ।१,००,००,००,००० । यौ०.—अब्जकर्णिका—कमल का छाता । अब्जज=(१)ब्रह्मा । (२) यात्रा में एक योग । विशेष—यह तब होता है जब बुध अपनी राशि और अपने अंश का हो और लग्न में शुक्र या बृहस्पति हो । अब्जदृपक्, अब्जनयन, अब्जनेत्र= कमलनयन । कमल जैसे नेत्रोंवाला । अब्जबांधव= सूर्य । अब्जभव= ब्रह्मा । अब्जभू= ब्रह्मा । अब्जभोग=(१) कमल की जड़ । भँसीड़ । (२) कौड़ी । बराटक । अब्जयोनि=ब्रह्मा । अब्जवाहन= शिव । अब्जवाहना= लक्ष्मी । अब्जस्थित= ब्रह्मा । अब्जहस्त= सूर्य । अब्जासन=ब्रह्मा ।

अब्जद
संज्ञा पुं० [अ०] १. अरबी फारसी वर्णमाला के अक्षर । २. अरबी अक्षरों का वह क्रम जिसमें प्रति का मूल्य संख्या में निर्धरित हैं । विशेष—इससे लोगों के मरने या पैदा होने का साल निकाला जाता है । कुछ लोग बच्चों नाम उसी आधार पर रखते हैं जिससे जन्मवर्ष ज्ञात हो ।

अब्जदख्वा
संज्ञा पुं० [अ० अब्जद + फा० ख्वाँ] अरबी फारसी वर्णमाला पढ़नेवाला विद्यार्थी । नवसिखिया ।

अब्जा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी ।

अब्जाद
संज्ञा पुं० [सं०] हंस [को०] ।

अब्जिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमलवन । पद्मसमूह । २. पद्मलता । पौनार । ३. कमलिनी (को०) । ४. कमल से आपूर्ण स्थान या जलाशय (को०) । यौ०.—अब्जिनीपति=सूर्य ।

अब्द (१)
संज्ञा पुं० [अ०] दास । सेवक । गुलाम । अनुचर । भक्त [को०] ।

अब्द (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्ष । साल ।२. मेघ । बादल । उ०— मर्कट जुद्धविरूद्ध क्रुद्धअरि ठट्ट दपट्टहिं । अब्द शब्द करि गर्जि तर्जि झुकि झपट्टाहिं ।—भिखारी ग्रं०, भा० २, पृ १८२ । ३. एक पर्वत । ४. नागरमोथ । ५. कपूर । ६. आकाश । उ०—जय जय शब्द अति होई । वर्षत कुसुम पुरंदर सोई ।—गोपाल (शब्द०) । यौ०.—अब्दप=वर्षाधिम । इंद्र । अब्दज्ञ=ज्योतिषी । अब्दवाहन इंद्र । अब्दसार= कपूर ।

अब्दकोश
संज्ञा पुं० [सं० अब्द+ कोश, अ० इयरबुक] १. वह वार्षिक सग्रहग्रंथ जिस में वर्ष के मुख्य व्यक्तियों, घटनाओं, जानकारियों आदी का विवरण मिले । २. वर्ष का विवरणसंग्रह ।

अब्दाली
वि० संज्ञा पुं० [फा०] अब्दाल का निवासी (व्यक्ति) ।विशेष—अब्दाल वासी होने से अहमदशाह के नाम के आगे यह शब्द जुड़ता हैं इसने नादिरशाह के बाद भारत पर१७६९ ई० में आक्रमण किया था । इसका युद्ध मराठों से हुआ था जिससें मराठों की हार हुई थी । इस की उपाधि दुर्रानी भी थी ।

अब्दि
संज्ञा पुं० [सं०] बादल । मेघ [को०] ।

अब्दुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वह दुर्ग या किला जो चारो ओर सें जल सें घिरा हो । वह किला जिसके चारो ओर खाई हो ।

अब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । सागर । २.सरोवर । ताल । ३. सात की संख्या । ४. चार की संख्या का द्योतक (को०) ।

अब्धिकफ
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रफेन ।

अब्धिज
संज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्री० अब्धिजा] १. समुद्र से पैदा हुई वस्तु । २. शंख । ३. चंद्रमा । ४. अश्विनीकुमार । ५. नमक (को०) ।

अब्धिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी । २. वारूणी । मदिरा [को०] ।

अब्धिद्वीपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । २. समुद्र से घिरा भूखंड । टापू [को०] ।

अब्धिनगरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्वारकापुरी ।

अब्धिनवनीतक
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [के०] ।

अब्धिफेन
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री झाग । समुद्रफेन [को०] ।

अब्धिमंडूकी
संज्ञा स्त्री० [सं० अब्धिमण्डूकी] वह सीप जिसमें मोती रहता है ।

अब्धिशय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

अब्धिशयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अब्धिशय' [को०] ।

अब्धिसार
संज्ञा पुं० [सं०] रत्न [को०] ।

अब्ध्यग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] समुद्र की अग्नि । बड़वानल ।

अब्बर पु †
वि० [हि०] दे० 'अबल' । उ०—बब्बर की धाक औ अकब्बर की साक सब्बै, अब्बर की छाक लौं सनैहीं मिसि जायगी ।—रत्नाकर, भा० २, पृ० १६८ ।

अब्बा
संज्ञा पुं० [अ० अब=पिता का संबोधन आबा] पिता । बाप ।

अब्बाजान
संज्ञा पुं० [अ० आबा+फा० जान] पिता के लिये आदरसूचक संबोधन ।

अब्बास
संज्ञा पुं० [अ०] [वि० अब्बासी] १. एक पौधा जो दो तीन फुट तक ऊँचा होता है । गुल अब्बास । विशेष—इसकी पत्तियाँ कुत्ते के कान की तरह नोकीली और लंबी होती हैं । कुछ लोग भूल से इसकी मोटी जड़ को चोबचीनी कहते हैं । इसके फूल प्राय? लाल होते हैं, पर पीले और सफेद भी मिलते हैं । फूलों के झड़ जाने पर स्थान पर काले काले मिर्च के ऐसे बीज पड़ते हैं । २. हजरत मुहम्मद साहब के चाचा जो अब्बासी खलीफाओं के पूर्वज थे ।

अब्बासी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] मिस्र देश की एक प्रकार की कपास ।

अब्बासी (२)
वि० [अ०] १. गुलबासी के फूल के रंग का । २. हजरत अब्बास के वंशज या संबंधी ।

अब्बिंदु
संज्ञा पुं० [सं० अब्बिन्दु] १. जलबिंदु । २. आँसू । अश्रुबिंदु [को०] ।

अब्बीह पु
वि० [सं० अप, प्रा० अब+बीह] निर्भय । निड़र । ेेउ०—दिन सीह अब्बीह आषेट खिल्लै ।—पृ० रा०, १ ।३१२ ।

अब्बू पु
संज्ञा पुं० [सं० अर्बुद] अबू । अरवली पर्वतशृंखला में स्थित एक स्थान । उ०—अबू वै द्रुग भाग, अब्बु बंध्यौं जिहि पायन । —पृ० रा०, १२ ।३० ।

अब्भ पु
संज्ञा पुं० [ सं० अब्भ्र, प्रा० अब्भ] दे० 'अभ्र' । उ०— बज्जंत सार गज्जंत अब्भ । —हम्मीर०, पृ० ८२ ।

अब्भक्ष (१)
वि० [सं०] केवल जल पीकर जीनेवाला [को०] ।

अब्भक्ष (२)
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में रहनेवाला साँप । डेड़हा साँप ।

अब्भक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का व्रत जिसमें केवल जल पीते हैं । जल पीकर रहना [को०] ।

अब्भ्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभ्र'[को०] ।

अब्यंगि पु
वि० दे० 'अव्यंग्य' । उ० —प्रीतम कौं जब सागस लहै । ब्यंगि अब्यंगि बचन कछु कहै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७ ।

अब्बाई पु †
वि० [सं० अ+ हिं० ब्याई] जिसने बच्चा न जाना हो । जिसे प्रसव न हुआ हो । उ०—जंगल में चरैछी सो अब्याई झोटी आई । —शिखर०, पृ० ३ ।

अब्याहत पु
वि० [हि०] दे० 'अव्याहत' । उ०—अब्याहत गति संभु प्रसाद ।—मानस, ७ ।११० ।

अब्र
संज्ञा पुं० [फा० तुल सं० आभ्र] बादल । उ०—बिना आब जहँ बहु गुल फूले, अब्र बिना जहँ बरसै ।—मलूक०, पृ०४ ।

अब्रन पु
वि० [हि०] दे० 'अवर्ण' । उ०—अब्रन वरण सो भेद निनारा । घट घट बसे लिप्त तन धारा ।—कबीर सा०, पृ० ८७३ ।

अब्राह्मण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह कर्म जो ब्राह्मणोचित न हो । २. हिंसादि कर्म । ३. नाटकादि में दिखाए जानेवाले अनुचित कर्म के बोध या ज्ञान के लिये नेपथ्य में उदघोषित शब्द । कहीं कहीं ब्राह्मण रक्षा या सहायता की दृष्टि से भी अब्रह्मणयम् शब्द का उच्चारण करता हैं ।

अब्रह्मण्य (३)
वि० [सं०] १. ब्रह्मण के अयोग्य । २. जिसकी श्रद्धा ब्राहमण में न हो । जो ब्राह्मणनिष्ट न हो । ब्राह्मणविरोधी ।

अब्राह्मण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो ब्राह्मण न हो । ब्राह्मणतोर व्यक्ति । उ०—एक अब्राह्मण इतना विवेकवान नहीं हो सकता । —सं० दरिया, पृ०६० ।

अब्राह्मण्य (२)
वि० [सं०] ब्राह्मणविरहित । ब्रह्मणविहीन ।

अब्राह्मण्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्राह्मणोचित कर्तव्यों की अवज्ञा या उल्लंघन । २. दें० 'अब्रह्मण्य' ।

अब्रू
संज्ञा स्त्री० [फा०] भौंहा । भ्रू । दे० 'अबरू' ।

अब्रेअंबर
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'अंबर' ।