विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/कौ

विक्षनरी से

कौंकिर पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्कर, हिं० कंकर ] हिरे आदि को कनी । कांच की किरिच । कांच का नुकीला टुकडा । काँच की रेत । उ०— हो ता दिन कजरा मैं दैहौं । जा दिन नंदनँदन के नैनन अपने नेन मिलैहौं, सुन री सखी इहै जिय मेरे भूलि न और चितैहौं । अब हठ सूर है मत मेरो कौंकिर खै मरि जैहौं ।— सुर (शब्द०) ।

कौंकुम (१)
संज्ञा पुं० [सं० कौङ्कम] तीन पूँछ या चोटीवाले लाल रंग के पुच्छल तारे जो वृहत्संहिता के अनुसार संख्या में६० हैं और मंगल के पुत्र माने जाते हैं । ये उतर की ओर उदय होते हैं ।

कौंकुम (२)
वि० १. कुंकुमयुक्त ।२. कुंकुम के रंग का । केसरिया [को०] ।

कौंच (१)
संज्ञा पुं० [सं० कौण्व] हिमालय का एक अंश । क्रौंच पर्वत [को०] ।

कौंच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कच्छु] १. सेम की तरह की एक बेल । केवाँच ।२. ईस बैल की फली । विशेष — इस लता में सेम की सी पतियाँ, फुल और फलियाँ लगती हैं । सेम की फलियों से कौंच की फलियाँ अधिक गोल, बडी, गूदेदार और रोएँदार होती हैं । कौंच तीन प्रकार कीहोती है — भूरी, काली और सदफे । भूरी और काली फलियाँ रोएँतार होती हैं, सफेद बिना रोएँ की होती हैं । काली और सफेद तरकारी के काम में आतीं हैं, भूरी का अधिकतर व्यवहार औषध में होता है और इसके भूरे और चमकदार रोयों के शरिर में लगने से खुजली और सुजन होती है । वैद्यक में कींच अत्यंत वीर्यवर्द्धक, पुष्ट, मधुर और वातघ्न मानी जाती है । इसके बीज बाजीकरण औषधों में पडते हैं । पर्या०— कपिकच्छु । आत्मगुप्ता । शुकशिंबी । कंडूरा । सद्य? शोथा । शुका । शुकवती । ऋषभ । जटा । गात्रभंगा । प्रावृषा । बानरी । लांगली । कुंडली । रोमवल्ली । वृष्या , इत्यादि ।

कौंच (२)
संज्ञा [अं० कोच] दै० 'कोच' । उ०— बढिया साटन की मढी हुईं सुनहरी कौंच । — श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७७ ।

कौचा †
संज्ञा पुं० [ ? ] ऊख को ऊपर का पतला और नीरस भाग जिसकी गांठे बहुत पास पास होती हैं । अगौरा ।

कौंची †
संज्ञा स्त्री० [सं० कण्चिका] बाँस की पतली टहनी ।

कौंछ
संज्ञा स्त्री० [सं० कच्छु] केवाँच । कौंच । वि० दै० 'कौंच' ।

कौंजर (१)
वि० [सं० कौण्जर] कुंजर संबंधी । हाथी संबंधी [को०] ।

कौंजर (२)
संज्ञा पुं० उपवेशन या बैठने का एक तरीका [को०] ।

कौंट
संज्ञा पुं० [अं० काउंट] [स्त्री० कौंटेंस] यूरोप के कई दैशों के सामंतों तथा बडें बडें जमीदारों की उपाधि जिसका दर्जा ब्रिटिश उपाधि 'अलं' बराबर का है ।

कौंठ्य
संज्ञा पुं० [सं० कौण्ठय] भोयरापन । कुंठिते होना [को०] ।

कौंडल, कौंडलिक
वि० [सं० कौण्डल , कौण्डलिक ] कुंडलवाला । कुंडलधारी [को०] ।

कौंडिन्य
संज्ञा पुं० [सं० कौण्डिन्य] [स्त्री० कौंडिनी] १. कुंडिन मुनि के गोत्र का व्यक्ति ।२. कुंडिन गुनि का पुत्र ।

कौंतल
वि० [सं० कौन्तल] कुंतल दैश संबंधी । कुंतल देश का ।

कौंतिक
संज्ञा पुं० [सं० कौन्कि] भालेवाला । बरछा चलानेवाला ।

कौंती
संज्ञा स्त्री० [सं० कौन्ति] रेणुका नाम का गंधद्रव्य ।

कौंतेय
संज्ञा स्त्री० [सं० कौन्तेय] १. कुंति के युधिष्ठिर आदि पुत्र । २. अर्जुन वृक्ष ।

कौंद पु
संज्ञा स्त्री० [ हिं०] दै० 'कोद' । उ० — केइंद्री बर बुद्ध । राह सब कौंद अहित्रौ । — पृ० रा० ७ । १६९ ।

कौंध
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौंधना ] बिजली की चमक । उ०— नयनों की नीलम घाटी जिस रसधन से छा जाती हो, वह कौंध कि जिसके अंतर की शीतलता ठंढक पाती हों ।— कामायनी, पृ० १०१ ।

कौंधना
क्रि० अ० [ सं० कनन +चमकना =अन्ध या सं० कबन्ध] बिजली का चमकना ।

कौंधनी †
संज्ञा स्त्री० [ सं० किङ्किणी] करधनी ।

कौंधा
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौंधना] १. बिजली की चमक । कौंध । उ०— (क) कारी घटा सधूम देखियति अति गति पवन चलायों । चारौ दिसा चितै किन देखौ दामिनि कौंधा लायो ।—सूर । (शब्द०) ।२. बिजली । उठ कौंधा सा त्वरित राजतोंरण पर आया । — साकेत, पृ० ४०३ ।

कौंना पु
संज्ञा पुं० [सं० कौण] कौना । उ०— चकित भई घर आँगन फिरै । कौंने जाय उसासिन भरै । — नंद० ग्रं०, पृ० १५२ ।

कौंभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कौम्भ ] सौ बरस का पुराना घी, जो बहुत गुणकारी समझा जाता है । — (वैद्यक) ।

कौंभ (२)
वि० कुंभ या घडे में रखा हुआ या उससे संबंधित [को०] ।

कौंभसर्पि
संज्ञा पुं० [सं० कौम्भसर्पि] दे० 'कौंभ' ।

कौंर
संज्ञा पुं० [दैश०] एक प्रकार का बडा पेड । बनखौर । विशेष — यह वृक्ष प्राय? पंजाब, नेपाल और उसकी तराइयों में होता है । इसकी लकडी अंतर से हलकी गुलाबी होती है और इमारत के काम में आती है । इसके काठ से थालियाँ और रका- बियाँ भी बनाई जाती हैं । इसके फलों को पहाडी लौंग सुखकर चक्की में पीसते और दूसरे अनाज के साथ मिलाकर खाते हैं ।

कौँरा
संज्ञा पुं० [हि० काँवर] दै० 'काँवर' ।

कौँरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] पान की चौथाई ढोली, जिसमें ५० पान होते हैं । कँवरी ।

कौँल
संज्ञा पुं० [सं०, प्रा० कमल] दे० 'कमल' । उ०—धीमी बयार सगने से छोटी छोटी लहरे उठती हैं, फूले हुए कौंल अपने हरे हरे पतों में धीरे धीरे हिलते हैं ।— ठेठ०, पृ० २९ ।

कौंला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कमला ] कमला । सरस्वती । उ०— कवि बिआस रस कौंला पूरी । दूरिहि निअर निअर भा दूरी ।—जायसी ग्रं०(गुप्त), पृ० १३६ ।

कौंली हड्डी
संज्ञा स्त्री०[ सं० कोमल + हिं० हड्डी] कुरकुरी हड्डी ।

कौंसल
संज्ञा पुं० [अं०] १. बैरिस्टर । ऐडवोकेट । २. राज का प्रतिनिधि ।

कौंसलर
संज्ञा पुं० [अं०] परामर्शदाता । समति देनेवाला ।

कौंसली
संज्ञा पुं० [अं० कौंसल] बैरिस्टर । ऐडवोकट । जैसे,— हाईकोर्ट में उसकी ओर से बडे बडे कौंसली पैरवि कर रहे ह ।— (प्रांतिक) ।

कौंसिल
संज्ञा स्त्री०[ अं०] १. किसी विषय पर विचार करने के लिये कुछ लोगों की बैठक । २. कुछ विशेष मनुष्यो की वह सभा जो किसी राजा या शासक का शासन के संबंध में परा- मर्श देने के लिये बनाई जाती है । विधानसभा । जैसे, — बडे लाट की कौंसिल, प्रिवी कौंसिल, आदि ।

कौंहर
संज्ञा पुं० [देश०] इद्रायन की जाति का एक प्रकार का फल जो पकने पर बहुत सुंदर लाल रंग का हो जाता है । कहते हैं जिस स्थान पर यह फल रखा जाता है, वहाँ साँप नहीं आता । कवि लोग प्राय? इससे एँडी की उपमा दिया करते हैं । उ— (क) कोहर सी एँडीन की लाली देखि सुभाइ । पाय महावर देन को आप भई बेपाय ।— बिहारी (शब्द०) । (ख) जौहर, कौल, जपादल विद्रुम का इतनी जो बँधूक में कोत हैं । — शंभु (शब्द०) ।

कौंहरी
संज्ञा स्त्री०[हि० कौहर] दे० 'कौंहर' ।

कौ पु (१)
संर्व० [हि०] दै० 'कोई' । उ०— ईसीय न दैवल पूतलो गयण सलुणा बचन सुमीत । ईसीय न खाती कौ घडह, इसी अस्त्री नहीं रवि तले दिठ । — बी० रासो , पृ० ४५ ।

कौंपु (२)
प्रत्य० [हि०] कर्म, संप्रदान और संबंध कारक का विभक्ति प्रत्यय । उ— (क) चतुर्भुजदास वाद करते और पंडितन कौ जोत लेते । — अकबरी०, पृ० ३८ । (ख) खंजरीट मृग मिन विचारति, उपमा कौ अकुलाति । चंवल चारु चपल अवलोकनि, चितहिं न एक समाति । — सुर० १० । १८११ । (ग) रावन अरि कौ अनुज विभीषन ता को मिले भरत नाई । सुर०, १ । ३ ।

कौआ
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'कौवा' ।

कौआना
क्रि० अ० [हिं० कौआ] १.भौंचक्का होना । चकपकाना । आश्चर्य से इधर उधर ताकना । २. सोते में स्वप्न देखकर या यों ही अचानक कुछ बड़बडा़ उठना । क्रि० प्र०— उठना ।

कौआरा †
संज्ञा पुं० [हीं० कौआ +सं०रव=शब्द] कौवों का शब्द । कौवारोर । काँव काँव को पुकार । शोरगुल ।

कौआरी †
संज्ञा स्त्री०[हीं० कौआर] एक प्रकार का जलपक्षी ।

कौआल
संज्ञा पुं० [अं० कौवाल] कौवाली गानेवाला व्यक्ति ।

कौवाली
संज्ञा पुं० [अं० कौवाली] दे० 'कौवाली' ।

कौकुव्यातिचार
संज्ञा पुं० [ सं० काकूवत्यातिचार] वह वाक्य जिसके कहने, बोलने या पढने से अपने या औंरों के मन में काम, क्रोध आदि उत्पन्न हों । जैसे, शृंगार के कवित्त, बारहमासा आदि—(जैन) ।

कौकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुष्कर्म । कुकृत्य । दुष्टता । २. पश्चाताप । अनुशोचन [को०] ।

कौक्कुटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुक्कुटपालक या मुर्गे का व्यापारी । २. एक प्रकार के साधु जो जीवहिंसा न हो अत? जमीन देखते चलते हैं । ३. (लाक्ष०) दभी या घमंडी व्यक्ति [को०] ।

कौक्षेय (१)
वि० [सं०] १. कुक्षि या उदर संबधी । २. म्यानयुक्त [को०] ।

कौक्षेयक
संज्ञ पुं० [सं०] खङ्ग । तलवार [को०] ।

कौच (१)
संज्ञा पुं० [अं०] मोटे गद्दे का अंगरेजों का पलंग या बेंच ।

कौच पु
संज्ञा पुं० [सं० कपच] दे० 'कवच' । उ०— धरे टोय कुंडि कसे कौच आंग । — हम्मीर०, पृ २४ ।

कौचुमार
संज्ञा स्त्री० [सं०] ६३ कलाओं में से एक । कुरुप को सुंदर बनाने की बिधा ।

कौट (१)
वि० [सं० ] १. अपने घर या कुटी में रहनेवाला । स्वतंत्र । मुक्त । २. गृह में पालित । घरेलू । घर का । ३. जालसाज । बेईमाली । ४. जाल में फँसा हुआ या जालयुक्त [को०] ।

कौट (२)
संज्ञा पुं० १. जालसाजी । बेईमानी । छल । धोखा । फरेब । २. वह जो झूठी गवाही दै [को०] । यौ०— कौटज = कुटज । कौटतक्ष = स्वतंत्र रुप से काम करनेवाला बढई । ग्रामतक्ष का विलोम । कीटसाक्षी = ढुठी गवाही । कौटसाक्ष = झुठी साक्षी । झुठी गवाही ।

कौटकिक
संज्ञा पुं० [सं० ] १. व्याध । बहेलिया । २. कसाई । मांस विक्रेता [को०] ।

कौटभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम [को०] ।

कौटल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कौटिल्य' ।

कौटवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कोट्टवी' [को०] ।

कौटिक (१)
वि० [सं०] १.फंदा या जाल संवंधी । २. बेईमान । धुर्त । अविश्वसनीय [को०] ।

कौटिक (२)
वि० संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कौटकिक' [को०] ।

कौटिलिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बहेलिया । शिकारी । २. लुहार [को०] ।

कौटिलीय
वि० [सं०] कौटिल्य का, कौटिल्यनिर्मित । कौटिल्य संबंधी [को०] ।

कौटिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. टेढापन । २. कुटिलता । कपट । ३. चाणक्य का एक नाम ।

कौटुंबिक
वि० [सं० कौटुम्बिक] कुटुंब का । कुटुंब संबंधी । २. परीवारवाला ।

कौडा
संज्ञा पुं० [सं० कपर्दक, प्रा० कवद्दह , कवड्डह] बडी कौडी । उ०— कौडा आँसू बूँद करि साँकर बरुनी सजल । कीन्हें बदन निर्मुद, दृग मलंग डारे रहैं । — बिहारी (शब्द०) । २ धन । पूँजी । उ० — गुरु किन वाट नाहिं कौडा विन हाट नाहिं । सुंदर० ग्रं०, भा० २,पृ० ३८८ ।

कौडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डक] जाडे के दिनों में तापने के लिये किसी गड्ढे में खर, पतवार फूँककर जलाई हुई आग । अलाव । उ०— जाडे के दिनों में किसी गरम कौडें के चारों और प्यार बिछा बिछा के अपने परिजनों के साथ युवती और वृद्धा , बालक और बालिका, युवा और वृद्ध सबके सब बैठ कथा कह दिन बिताते हैं । — श्यामा०, पृ ०४४ ।

कौडा (३)
संज्ञा पुं० [सं० कदल] एक प्रकार का जंगली प्याज । कोंचिडा फर्फार ।

कौडा (४)
संज्ञा पुं० [देश०] बूई नाम का पौधा जिसे जलाकर सज्जी खार निकालते हैं । वि० दे० 'बुई' ।

कौडा (५)
वि० [सं० कटु] दे० 'कडुआ' । उ०— भोरे भोरे तन करै, बंडै करि कुरबाण । मिट्ठा कौडा ना लगै दादु तौहू साण ।— दादु०, पृ० ६५ ।

कौडिया (१)
वि० [हिं० कौडी] कौडी की तरह का । कौडी के रंग का । कुछ स्याही लिए हुए सफेद रंग का ।

कौडिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कौडिल्ल] कडिल्ला या किलकिला नाम का पक्षी । उ०— नयन कौडिया हिय समुद्र गुरु सो तेही जोति । मन मरजिया न होइ परै हाथ न आवै मोति । — जायसी (शब्द०) ।

कौडियाला (१)
वि० [हिं० कौडी] कौडी के रंग का । हलका नीला (रंग) जिसमें गुलाबी को कुछ झलक हो । कोकई ।

कोडियाला (२)
संज्ञा पुं० १. कोकई रंग का । २.एक प्रकार का विषैला सांप जिसपर कौडी़ के रंग और आकार की चितियाँ पडी रहती हैं । ३. वह धनी जो साँप की तरह रुपए के ऊपर बैठा रहे उसे खर्च न होने दे । कृपण धनाढय । कंजूस अमीर । विशेष—ऐसा प्रसीद्ध है कि कृपण जब मरते हैं, तब दूसरे जन्म में साँप होकर अपने खजाने पर आकर बैठते हैं ।४. एक पौधा जो ऊसर भूमि में होता हैं । उ०— कौडियाला मेरी तुरबत पै लगाना यारो । नगनी जुल्फ के काटे की यह पहचान रहे । (देश०) । विशेष — इसकी पतियाँ छोटी छोटी और कुछ मटमैले रंग की होती हैं । इसमें कीप या छुच्छी के आकार के छोटे छोटे फूल लगते हैं । फूल के रंग के विचार मे कौडियाला तीन प्रकार का होता है सफेद फूल का, लाल फूल का और नीले फूल का । नीले फूल के कौडियाले को बिष्णु कांता कहते हैं । बैद्यक में कौडियाला तीक्ष्ण, गरम, मेधाजनक तथा कृमिध्न और विषध्न समझा जाता है । इसे शंखपुष्ही या शंखाहुली भी कहते हैं । पर्या०— मेध्या । चंडा । सुपुष्पी । किरीटी । कंबुमालिनी । भूलग्ना यनमालिनी । मलबिनाशिनी । सर्पाक्षी, इत्यादि ।

कोलियालो
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौडियाला ] दे० 'कौडियाला' — ४ ।

कौडियाही (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौडी] मजदूरो की एक रीति जिसमें मजदूरों को मिट्टी, ईटें आदि उठाने की मजदुरी प्रति ईंट या प्रति खेप कुछ कौडियाँ दी जाती हैं । इस रीति से काम जल्दी होता है ।

कौडियाही (२)
वि० स्त्री० बहुत थोडे धन के लालच से कोई काम करनेवाली ।

कौडिल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० कौडी] २. मछली एकडकर खानेवाली एक चिडिया । किलकिला । २. कसी नाम का पौधा जिसे संस्कृत में कशुक और गवेधुक कहते हैं । दे० कसी' ।

कौडिहाई †
संज्ञा स्त्री० [ हि० कौडियाही ] दे० 'कौडियाही' ।

कौडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कपर्दिका, प्रा० कवड्डिआ] १. समुद्र का एक कीडा जो घोघे की तरह एक अस्थिकोष के अंदर रहता है । वराटिका । विशेष— यह अस्थिकोश उभडा हुआ और चमकीला होता है तथा इसके नीचे बडा लंबा पतला छेद हैता है, जिसके दोनों किनारे पर दाँत होते हैं । खुले मुँह को आवश्यकतानुसार बंद करने के लिये उसपर ढक्कन नहीं होता । छेद के बाहर इसका सिर रहता है, जिसमें दो कोने निकले रहते हैं जो स्पर्शद्रिय का काम देते हैं । कौडिया भारत महासागर में लंका, मलाया, स्याम, सिंहल मालद्वीप आदि के पास इकट्ठी की जाती हैं । राजनिघंटु में कौडियाँ पाँच प्रकार की बतलाई गई हैं— (क) सिंही, जो सुनहले रंग की होती है । (ख) व्याघ्री जो धुमले रंग की होती है (ग) मृगो, जिसकी पीठ पीली और पेट सफेद हैता है (घ) हँसी जो बिलकुल सफेद होती है । और (च) विंदता, जो बहुत बडी नहीं होती । द्रव्य रुप में कौडी का व्यवहार भारत जीन आदि तेशों में बहुत प्राचीन काल से होता रहा है । वाजयसनेपी संहिता में इसका उल्लेख आया है । भास्कराचार्य ने लिलावती में इसके मुल्य का विवरण दिया है । पैसे के आधे को अधेला, चौथाई को टुकडा या छदाम और अष्टमाँश को दमडी कहते थे । एक पैसे में प्राय? ८० कौडियां या २५ दाम माने जाते थे । ३. दाम की एक दमडी , छ दाम का एक टुकडा और १२ । । दाम का एक अधेला माना जाता था । पर्या०— कपर्दिका । वराटिका । मुहा०— कौडी का = जिसका कुछ मुल्य न हो । तुच्छ । कौडी काम का नहीं = किसी काम का नहीं । निकम्मा । निकृष्ट । कौडी या दे कौडी का = (१) जिसका कुछ मूल्य नहीं । तुच्छ । निकम्मा । (२) निकृष्ट । खराब । कौडी के काम का नहीं= दे० 'कौडी काम का नहीं ' । कौडी के तीन तीन बिकना = बहुत सस्ता होना । कौडी के तीन तीन होना = (१) बहुत सस्ता होना । (२) तुच्छ हौना । बेकदर होना । नाचीच होना । कौडी मोल या कौडी के मोल बिकना = बहुत सस्ता बिकना । उ० — बिकती जो कौडी मोल यहाँ होगी कोई इस निर्जन में । — अपरा, पृ० ६७ । कौडी को न पूछना = (१) मुप्त भी न लिना । बिलकुल निकम्मा समझना । (२) नितांत तुच्छ ठहराना । कुछ भी कदर न करना । जैसे, — वहाँ तुम्हें कोई कौडी को भी न पूछेगा । कौडी कोस दौडना = एक एक कौडी । के पीछे कोसों का धावा मारना । थोड़ी सी प्राप्ति के लिये बहुत परिश्रम करना । कौड़ी कौड़ी =एक एक कौड़ी । कौडी कौडी को मुहताज = रुपए पैसे से बिलकुल खाली । दरिद्र । कौडी कौडी अदा करना, चुकाना या भऱना = सब ऋण चुका देना । कुल बेबाक कर देना । कौडी कौडी भर पाना = सारा लहना वसूल कर लेना । कौडी कौडी जोडना = बहुत थोडा थोडा करके धन ईकट्ठा करना । बहत कष्ट से रुपया वटोरना । कौडी फिरना = (१) जुए में अपना टाँव पडने लगना । (२) फौजी सिपाहियों का किसी विषय में एक मत होना । (पहने जब सिपाहियों को किसी बात में एका करना होता था, तब वे कौडी घुमाते थे । जिन सिपाहियों को बह बात स्वीकार होती थी, वे कौडी ले लेते थे । कौडी के बदले हीरा देना = खराब वस्तु लेकर अच्छी वस्तु देना । उ०— मूल न राख्या लाह लीया कौडी बदलै हीरा दीया । फीर पछिताना संबलु नाहीं हारि चल्या क्युँ पार्व साँई ।— दादू०, पृ० ६२८ । कौडियों पर दाँत देना = लोभी होना । उ०— कौडियों पर किसलिये हम दाँद दें । है हमारा भाग तो फूटा नहीं । — चुभते० पृ० ५२ । कौडी फेरा करना = घडी घडी आना जाना । थोडी थोडी बात के लिये भी आना जाना । बहुत फेरे लगाना । जैसे, — अब तो वे आपके मुहल्ले में आ गए हैं ; कौडी़ फेरा करेगे । कौडी फर = बहुत थोडा सा । जरा सा । तनिक सा । जैसे — कौडी़ भर चूना ला दो । कौडी़ लेन? = मस्तुल के चारों ओर लपेटना । (लश०) । कानी, झांझी या फूटी कोडी़ = (१)वह कौडी जो टूटी हो । (२) अत्यंत अल्प द्रव्य । कम से कम परिमाण का धन । जैसे,— हम तुम्हें कानी कौडी भी न देंगे । चित्ती कौडी =वह कौडी जिसकी पीठ पर उभरी हुई गाँठें हों । इसका व्यवहार जुए में होता है । २. धन । द्रव्य । रुपया पैसा । उ०— ब्रह्मज्ञान बिनु नारी नर कहहिं न दूसरि बात । कौडी लागि लोभबस, करहिं बिप्र गुरु घात ।— तुलसी (शब्द०) । ३. वह कर जो सम्राट् अपने अधीन राजाओं से लेता हैं । क्रि० प्र०— देना । लेना ।४. आँख का डेला । ५. छाती के नीचे बीचोबीच की वह हड्डी जिसपर सबसे निचे की दोनों पसलियाँ मिलती है । मुहा०—कौडी जलना = भूख, क्रोध आदि से शरीर में ताप होना । उ०— उसकी कौडी तो यों ही जल रही है, क्यों चिढाते हो ? ६. जंघे , काँख या गले की गिलटी । क्रि० प्र०— उसकना । — उसकना । छटकना । — निकलना । ७. कटार की नोक । उ०— कौडी के आर पार है कौडी कटार की । — (शब्द०) ।

कौडी गुडगुड
संज्ञा पुं० [हिं० कौडी + गुडगुड] लड कों का एक खेल । विशेष — बहुत से लडके दो ओर पंक्तियों में आमने सामने बैठते हैं । इन दोनों पंक्तियों के दो सरदार होते हैं । पैसा या जुता आदि उछालकर चित पट से इस बात का निश्चय किया जाता है कि पहले किस पंक्ति से खेल आरंभ होगा । जिस पंक्ति से खेल आरभ होता है, उसका सरदार अँजुली में धुल भर लेता है जिसके अँदर कौडी छिपी होती है । सरदार थोडी थोडी धूल अपनी पंक्ति के सब लडकों के हाथ में डाल आता है । फिर दूसरी पंक्तीवाले बूझते हैं कि धूल के साथ कौडी किस लडके के हाथ में गई है । यदि वे ठिक बूझ गए तो जिसके हाथ में कौडी रहती है, उसे चपत लगाते हैं ।

कौडी जगनमगन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौडी गुडगुड' ।

कौडी जूडा
संज्ञा पुं० [हिं० कौडी +जूडा ] एक प्रकार का गहना जिसे स्त्रियाँ सिर पर पहनती हैं ।

कौडैना (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [अल्पा० कौडेनी ] कसेरों का लोहे का एक औजार जिससे बरतनों पर नकाशी की जाती है । यह डेढ बालिश्त लंबा और नोक पर पतला तथा चिपटा होता है ।

कौडेना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कौडियाला] कौडियाला नाम की जडी ।

कौडेना (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'कौडियाहो' ।

कौडेनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का जलपक्षी । उ०— धोबइन तलचरैया, कौडेना, चब्मा इत्यादि । — प्रेमघन०, भा०२, पृ० २० ।

कौढ †
संज्ञा पुं० [हीं० कोढ] दे० 'कोढ' । उ०— और वा वैष्णव के सरीर में तें तत्काल सब ठौर तें कौढ जात रह्यो । — दौ सौ बावन, भा० १. पृ० ३३० ।

कौणप
संज्ञा पुं० [सं०] १. राक्षस । २. वासुकी के वंश का एक सर्प । ३. पातकी या अधर्मी जीव ।

कौणपदंत
संज्ञा पुं० [सं० कौणपदन्त] भीष्म ।

कौतक पु
संज्ञा पुं० [हिं० कौतुक] खेल तमाशा । उ०— सुर नर मुनि जब कौतक आए कोटि तैतीसो जाना । — कबीर ग्रं०, पृ० २९६ ।

कौतिक पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौतुक' । उ०— इनके कौतिक देखि देखि अपनो जिउ जियाऊँ । — घनानंद , पृ ० ५४७ ।

कौतिग †
संज्ञा पुं० [हिं० कौतुक] विलक्षण और अदभुत बात । कौतुक । उ०— देखत कछु कौतिगु इतै देखौ नैक निहारी । कब की इक टक डटि रही तटिया अँगरिन फारि । — बिहारी (शब्द०) ।

कौतिगहार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कौतिग + हार (प्रत्य०) ] खेल माँहै कौतिगहार । देह अछत अलगौ रहे, दादू सेवि अपार ।— दादू०, पृ० ५८३ ।

कौतिग्ग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौतिग' । उ०— खलकंत श्रोन धर चलिया खाल । कौतिग्ग देव हर रुंड माल । पृ० रा०, १ ।६६७ ।

कौतुक
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कौतुकित, कौतुकी ] १.कुतूहल । २. आश्चर्य । अचंभा । उ—सतीं दिख कौतुक मग जाता । आगे राम सहित श्री भ्राता । — मानस , १ ।५४ । ३. विनोद । दिल्लगी । ४. आनंद । प्रशंसा ।५. खेल तमाशा । क्रि० प्र०—करना ।— दिखलाना । — देखना । — होना । ६. वह मांगलिक सूत्र (कंगन) जो विवाह से पहले हाथ में पहना जाता है । ७. विवाह के पूर्व कंगन बांधने की प्रथा । ८. पर्व । उत्सव (को०) ।९. विवाह आदि शुभ कार्य (को०) । १०. उत्सुकता । आवेग । आतुरता (को०) ।११. आश्चर्यजनक वस्तु (को०) । यौ०—कौतुकक्रिया । कौतुकमंगल = (१) बडा उत्सव । महोत्सव । (२) विवाह संस्कार । कौतुकतोरण = उत्सव के लिये निर्मित मंगलसूचक द्वार । कौतुकागार = (१) क्रीडागृह । विनोदगृह । (२) दे० 'कोहबर' ।

कौतुकिया
संज्ञा पुं० [हिं० कौतुक + इया श्(प्रत्य०) ] १. कौतुक करनेवाला । २. विवाह संबंध करानेवाला नाई; पुरोहित आदि । — उ०— तौ कौतुकिअन्ह आलस नाहीं । बर कन्या अनेक जग माहीं । — तुलसी (शब्द०) ।

कौतुकी
वि० [सं० कौतुकिन्] १. कौतुक करनेवाला । विनोदशील । उ०— मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ । पुरवासिन सब पूछत भयऊ । —तुलसी (शब्द) । २. विवाह संबंध करानेवाला । ३. खेल तमाशा करनेवाला ।

कौतूहल
संज्ञा पुं० [सं०] कुतूहल । कौतुक ।

कौतुहलता
संज्ञा स्त्री० [सं० कौतूहल + ता (प्रत्य०) ] कौतुहल का भाव । औत्सुक्य । उत्सुकता । उ०— क्रीडा कौतूहलता मन की, वह मेरी आनंद उमंग । — पल्लव, पृ० १०५ ।

कौतौमत
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि जिनका वर्णन गोपथ ब्राह्मण में आयै है ।

कौत्स
संज्ञा पुं० [सं० ] १. एक ऋषि का नाम जो कुत्स ऋषि के पुत्र, वरतंतु के शिष्य और जैमिनि के आचार्य थे । २. कुत्स नामक ऋषि के बनाए हुए कुछ साम (गान) जो विकृत यज्ञ में गाए जाते थे ।

कौथ
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौन + तिथि] १. कौन सी तिथि । कौन तारीख । जैसे— आज कौथ है ? २. कौन संबंध । कौन वास्ता । उ०— राम नाम को छोडि के राखै करवा चौथ । सो तो होयगी सुकरो, तिन्हें राम सों कौथ ? — कबीर (शब्द०) ।

कौथा †
वि० [हिं० कौन + सं० स्था (स्थान) ] किस संख्या का । गणना में किस स्थान का । जैसे, — दरजे में तुम्हारा नंबर कौथा है ?

कौथि †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'कौथ' ।

कौथुम
संज्ञा पुं० [सं०] कौथुमी शाखा का अध्ययन करनेवाला ।

कौथुमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सामवेद की एक शाखा जिसका प्रचार कुथुम ऋषि ने किया था ।

कौद पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'कोद' । उ०— दोय लक्ख पैद चहुँ गढन कौद । — ह० रासो० , पृ० ६० ।

कौदन
वि० [फा०] मंदबुद्धि । कमसमझ । नासमझ ।

कौदालिक, कौदालीक
संज्ञा पुं० [सं० ] धीवर पिता और धोबीन माता से उत्पन्न एक वर्ण संकर जाति ।

कौद्रविक
संज्ञा पुं० [सं० ] साँचर नोन । काला नमक ।

कौधनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० करधनी] करधनी । कौंधनी ।

कौन (१)
सर्व० [सं० क?, पुन? किम्, प्रा० कवण] एक प्रश्नवाचक सर्वनाम जो अभिप्रेत व्यक्ति या वस्तु की जिज्ञासा करता है । उस मनुष्य या वस्तु को सूचित करने का शब्द जिसको पूछना होता है । जैसे, — (क) तुम्हारे माथ कौन गया था ? (ख) इन आमों में से तुम कौन लोगो ? मुहा०— कौन सा = कौन । कौन किसका होता है ?= कौन किसके काम आता है । कोई दूसरे की सहायता नहींकरता । कौन होना = (१) क्या अधिकार रखना । क्या मतलब रखना । जैसे ,— तुम हमारे बीच बोलने वाले कौन होते हो । (२) क्या संबंध होना । क्या रिश्ता या नाता होना । जैसे,— वे तुम्हारे कौन हेते हैं ? विशेष— विभक्ति लगने के पहले कौन का रुप किस हो जाता है । जैसे— किसने, किसको, किससे, किसमें इत्यादि । यधपि संस्कुत के अनुसार हिंदी व्याकरणों में इस शब्द को केवल सर्वनाम ही लिखा है, तथापि जब इसके आगे संज्ञा शब्द भी आ जाता है, जैसे, ' कौन मनुष्य' — तब यह विशेषण के ही समान जान पडता है ।

कौन (२)
वि० किस जाति का ? किस प्रकार का ? जैसे, — थह कौन आम है, लँगडा या बंबई ?

कौनप
संज्ञा पुं० [ सं० कौणप] दे० 'कौणप' । उ०— केवट कुटिल भालु कपि कौनप कियौ सकल सँग भाई । — तुलसी (शब्द०) ।

कौप (१)
वि० [ सं०] कुएँ का । कूप संबंधी [ को०] ।

कौप (२)
संज्ञा पुं० कुएँ का जल । कूपजल [को०] ।

कौपीन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. ब्रह्मचारियों और संन्यासियों आदि की लँगोटी । चीर । कफनी । काछा । २. शरीर के वे भाग जो कौपीन से ढाँके जायँ — गुदा और लिंग । ३. पाप । गुनाह । ४. अनुचित कार्य ।

कौपोदकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कृष्ण की गदा [को०] ।

कौबेर
वि० [सं०] कुबेर संबंधी । कुबेर का [को०] ।

कौबेरतीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर संबंधी तीर्थ विशेष । उ०— कौबेर तीर्थ में देवताओं ने कुबेर का राज्याभिषेक किया था । — प्रा० भा० प०, पृ० १०३ ।

कौबेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उतर दिशा जिसके अधिपति कुबेर हैं । २.कुबेर की शक्ति [को०] ।

कौम
संज्ञा स्त्री० [अ०कौम] १. वर्ण । जाति । नस्ल । उ०— पाजी हूँ मैं कौम का बंदर मेरा नाम । —भारतें दु ग्रं०, भा० २, पृ० ७८९. ।२. सल्तनत । राष्ट्र (को०) ।

कौमकुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक केतु तारा जिसकी तीन शिखाएँ हैं और जो मंगल का साठवाँ पुत्र माना जाता है । २. रक्त । खून । लहू ।

कौमार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री०कौमारी] १. कुमार अवस्था । जन्म से पाँच वर्ष तक की अवस्था । विशेष — तंत्र के एक मत से सोलह वर्ष तक की अवस्था को कौमार कहते हैं । २. एक प्रकार की सृष्टि जिसकी रचना सनत्कुमार ने की थी । ३. कुमार । ४. एक पर्वत का नाम (को०) । ५. कुमारी का पुत्र । कौमारिकेय (को०) ।

कौमारक
संज्ञा पुं० [सं० ] १. लडकपन । बचपन । कुमार अवस्था । २. एक राग [को०] ।

कौमारचारी
वि० [सं० कौमारचारिन्] ब्रह्मचारी । कुमारव्रती [को०] ।

कौमारबंधकी
संज्ञा स्त्री० [ सं० कौमारबन्धकी] वेश्या । वार- वनिता [ को०] ।

कौमारभृत्य
संज्ञा पुं० [सं० ] बालकों के लालन पालन और चिकित्सा आदि की विद्या । यह आयुर्वेद का एक अंग है । धात्रीविधा । ताईगीरी ।

कौमारव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जीवनभर अविवाहित रहने का व्रत [को०] ।

कौमारिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. संपुर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । २. वह पिता जिसे केवल कन्याएँ ही हों (को०) ।

कौमारिक (२)
वि० कुमार संबंधी । २. मृदु । कोमल [को०] ।

कौमारिंकेय
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुत्र जो किसी स्त्री को उसकी कुमारी अवस्था में उत्पन्न हुआ हो । कानीन ।

कौमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किसी पुरुष की पहली स्त्री । २. सात मातृकाओं में से एक । कार्तिकेय की शक्ति । ३. पार्वती का एक नाम । ४. वाराहीकंद । कोलकद ।

कौमार्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुमार अवस्था । कुँआरापन [को०] ।

कौमियत
संज्ञा स्त्री० [अ०कौमियत] कौम या जाति का भाव । जातीयता । जैसे, — वल्तियत और कौमियत सब लिखा दो ।

कौमी
वि० [ अ०कौमी] किसी कौम या जाति संबंधी । जातीय । जैसे — कौमी जोश । कौमी मजलिस ।

कौमुद
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिक मास । कार्तिक ।

कौमुदी
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योत्सना । चाँदनी । जुन्हैया । यौ०— कौमुतदीपति = चद्रमा । २. कार्तिकोत्सव, जो कार्तिक की पुर्णिमा को होता है । ३. कार्तिकपूर्णिमा । ४. आश्विनी पूर्णिमा । ५. दीपोत्सव की तिथि । ६. कुमुदिनी । कोई । ७ दक्षिण देश की एक नदी ।८. उत्सव (को०) । ९ (ग्रंथ नाम के अंत में प्रयुक्त) टीका । व्याख्या । विवेचन । जैसे, तर्ककौमुदी = सांख्यतत्वकौमुदी, सिद्धांतकौमुदी आदि ।

कौमुदीचार
संज्ञा पुं० [सं०] कोजागर पूर्णिमा । शरत् पूर्णिमा ।

कौमुदीतरु
संज्ञा पुं० [सं० ] दै० 'कौमुदीवृक्ष ' [को०] ।

कौमुदीमहोत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] शरत् पूर्णिमा के उपलक्षमें मनाया जानेवाला उत्सव ।

कौमुदीमुख
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदनी का उदय । [को०] ।

कौमुदीवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दीपस्तभ । दीपाधार [को०] ।

कौमौदकी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] विष्णु की गदा ।

कौमौदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विष्णु की गदा । कौमौदकी ।

कौर (१)
संज्ञा पुं० [सं० कवल] १. उतना भोजन, जितना एक बार मुँह में डाला जाय । ग्रास । कुस्सा । निवाला । उ०— राम नाम छाँडि जो भरोसो करे और को । तुलसी परोसो त्यागि माँगै कुर कौर को । — तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०— उठाना ।— खाना । मुहा०— मुँह का कौर छिन जाना = जीविका का संकट होना रोजी छिन जाना । उ०— कौर मुँह का क्यों न तब छिन जायगा । जायँगी पच क्यों न प्यारी थालियाँ । — चुभते०, पृ० ३९ ।मुँह का कौर छीनना =देखते देखते किसी का अंश दबा बैठना । कौर करना = खा जाना । ग्रास बनाना । उ०— किनारे की सब कमलिनी क्रम से उखाड उखाड कौर कर गए ।—श्याम०, पृ० ११३ । २. उताना अन्न जितना एक बार चक्की में पीसने के लिये डाला जाय । क्रि० प्र०— डालना ।

कौर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा, फैलनेवाला झाड जो उत्तर भारत की पहाडी और पथरीली भूमि में होता है ।

कौरना †
क्रि० सं० [हिं० कौडा] थोडा भूलना । सेंकना । उ०— कुँदुरु और ककौडा कौरे । कचरी चार चँचेडा सौरे ।— सुर (शब्द०) ।

कौरव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कौरवी] [वि० कौरवी] कुरु राज की संतान । कुरु के वंशज ।

कौरव (२)
वि० [ सं०] कुरु संबंधी । जैसे, — कौरवी सेना ।

कौरव (३)
वि० [सं० कुरव] कुरव या लाल कटसरैया के रंग का । लाल रंग का । उ०— धर्यो तन कौरव वस्त्र कुँआरि । मैडी जनु संभ मनंमथ रारि । पृ० रा० २१ ।९२ ।

कौरवपति
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्योधन । सुयोधन ।

कौरवेय
संज्ञा पुं० [सं०] कुरु के वंशज । कौरव (को०) ।

कौरव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौरव । कुरूसंतान । २.एक नगर जिसका वर्ण न महाभारत में आया है ।

कौरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कोल, क्रोड या सं० कपाटक, प्रा० कवाडअ] [स्त्री० कौरी ] द्वार के इधर उधर का वह भाग जिसके खुलने पर किवाड भिड रहते हैं । द्वार का कोना । उ०— द्वार बुहारत फिरत अष्ट सिधि । कौरेन साथिया चीतत नवनिधि । — सूर (शब्द०) । मुहा०—कौरे लगना = (१) किसी बात को चुपचाप सुनने के लिये द्वार के कोने पर छिपकर खडा होना । किसी घात में छिपा रहना । उ०—मन जिन सुनै बात यह माई । कौरे लग्यो होइगो कितहूँ कहि दैहै सो जाई ।—सुर (शब्द०) । (२) रुठकर द्वार के कोने में खडा होना । मुँह फुलाना ।

कौरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कवल ] १. वह खाना जो कुत्ते, अंत्यज आदि को दिया जाय । २. भिक्षा । भीख । उ०—भले बुरे के कौरा खैहो ।—कबिर० श०, पृ० २२ । क्रि० प्र०—खाना ।—डालना ।—दैना ।

कौरा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'कोडा' ।

कौरापन पु
संज्ञा पुं० [हिं० कौरा + पन (प्रत्य०) ] भीख माँगने की स्थिति । भिखमेगई । भैक्ष्यवृत्ति । उ०—लौकी आठ साठ तीरथ न्हाई । कौरापन तऊ न जाई । कबीर ग्रं०, पृ० ३३२ ।

कोरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रोड] १. आँकवार । गोद । उ०—कौरी में न आवे जिन्हें बाहु न हिलावे बलवान न झुकावे एते मान डिठियत है ।—भारतेंदु (शब्द०) । मुहा०—कौरी भरकर भेटना या मिलना = आलिंगन करके मिलना । उ०—छत्रसाल त्यों गये बिजौरा । भेटे रतन साहु भर कोरी ।—लाल (शब्द०) । २. एक अँकवार भर कटे हुए अनाज के पौधै जो फसल के समय मजदुरों को मजदूरी में दिए जाते हैं ।

कौरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गोराणी] ग्वालिन की फली । गुवार ।

कौरौ पु
संज्ञा पुं० [सं० कौरव] दे० 'कौरव' । उ०—जित जित मन अर्जुन को तितहि रथ चलायौ । कौरौ दल नासि नासि कीन्हौ जन भायौ ।—सुर०, १ । २३ ।

कौर्णय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम । २. अग्नि । अनल । ३. पवन । वायु । हवा [को०] ।

कौमै (१)
वि० [सं०] १.कुर्म या कछुवा संबंधी । २. कूर्म अवतार संवंधी । जैसे, कौर्म पुराण ।

कौर्म (२)
संज्ञा पुं० एक कल्प का नाम [को०] ।

कौलंज
संज्ञा पुं० [यू० कूलंज] एक प्रकार का दर्द जो पसलियों के नीचे होता है । वायसुल ।

कौल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम कुल में उत्पन्न । अच्छे खानदान का । २. वाममार्गी । कौलाचारी । उ०—कहने की आवश्य— कता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्ही वज्रयानियों से निकले ।—इतिहास, पृ० १३ ।

कौल (२)
वि० कुल संबंधी । खानदानी । कुलक्रम से आगद या प्राप्त । उ०—कूटि निर्गुन कुण धारिन्ह आनि परयो मोंह मिटि कौल कानि ।—जग० श०, पृ० ६९ ।

कौल (३) †
संज्ञा पुं० [सं० कमल] कमल । सरोज । उ०—बहै लाल लोहू लसै वारिधारा । मलौ कौल फूले कलंगी अपारा ।— हम्मीर०, पृ० ५९ ।

कौल (४)
संज्ञा पुं० [सं० कवल ] ग्रास । कौर ।

कौल (५)
संज्ञा पुं० [तु० करावल] सेना की छावनी का मध्य भाग ।

कौल (६)
संज्ञा पुं० [ अ० कौल] १. कथन । उक्ति । वाक्य । २.प्रतिज्ञा । प्राण । वादा । इकरार । उ०—कौल 'आबरु' का था कि न जाऊँगा उस गली । होकर के बेकरार देखो आज फिर गया ।—कविता० कौ०, भा० ४, प० ११ । यौ०—कौल करार = परस्पर दृढ प्रतिज्ञा । कौल का पूरा या पक्का = बात का सच्चा । जबान का धनी । मुहा०—कौल तोडना = किसी से की हुई प्रतिज्ञा छोडना । प्रतिज्ञा के अनुसार कार्य न करना । कौल देना = किसी से प्रतिज्ञा करना । किसी को वचन देना । कौल निभाना = वादा पूरा करना । उ०—नट नागर कछु कहत बनै ना उनको कौल निभायो ।—नट, पृ २२ । कौल लेना = प्रतिज्ञा कराना । वचन लेना । कौल से फिरना = दे० 'कौल तोडा ' । कौल हारना = दे 'कौल दैना ' । उ०—मगर मियाँ आजाद कौल हार के निकल गए ।—फिसाना०, भा० ३. पृ० ६३ । ३. एक प्रकार का चलता गाना । सुफियाना गीत । कौवाल ।

कौल (७)
संज्ञा पुं० [सं० कौल] सूकर । सुअर । उ०—कहूँ कौलपुंज कहूँ लीलगाहं । कहुँ चीतल पाँडुलं व्याघ्र नाहं ।—ह० रासो, पृ ३६ ।

कौल (८)पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'कोर' । उ०—लाला बिलोचनि कौलन सों, मुसकाइ इतै अरुझाइ चीतेगी ।—मतिराम (शब्द०) ।

कौलई
वि० [हि० कौला = संगतरा + ई (प्रत्य०)] ललाई लिए पीला । संगतरे के रंग का । नारंगी ।

कौलकेय (१)
वि० [सं०] ऊँचे वंश में उत्पन्न । कुलीन [ को०] ।

कौलकेय (२)
संज्ञा पुं० कुलटा स्त्री से उत्पन्न पुत्र [को०] ।

कौलटिनेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. (साध्वी) भिक्षुणी का पुत्र । २. जारजपुत्र [को०] ।

कौलटैय
संज्ञा पुं० [सं०] जार कर्म [ को०] ।

कौलटेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यभिचारिणी स्त्री की संतान । जारज एक जाति । इस जाति के कबूतर की दुम लंबी और कमल पुत्र । २. भिखारिन का पुत्र [को०] ।

कौलदुमा
वि० [हीं० कौल = कमल + दुमा = दुमदार] कबूतर की एक जाति । इस जाति के कबुतर की दुम लबी और कमल की पत्ती की तरह छिछली होती है ।

कौलव
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में वव आदि ग्यारह करणों में से तीसरा । उ०—बदि भादौं, आठै दिना, अरध निसा बुधवार । कौलव करन सु रोहिनी, जनमें नंदकुमार ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३६ । विशेष—इसके देवता मित्र हैं । इस करण में जन्म लेनेवाला विद्वान और कुणी पर कुतग्न होता है ।

कौला (१)
संज्ञा पुं० [सं० कमला ] एक प्रकार का संतरा जो बहुत अच्छा और स्वादिष्ट हौता है । कमला ।

कौला (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोल = क्रोड, गोद] १. द्वार के इधर उधर का वह भाग जिससे खुलने पर द्वार भिडे रहते हैं । कोना । कौरा । मुह०—कौले लगना = (१) रुठकर द्वार के कोने में खडा होना । (२) किसी बात को चुपचाप सुनने के लिये द्वार के कोने मे छिपकर खडा होना । घात में रहना । कौले सोचना = पूजा, यात्रा आदि के समय द्वार के इधर उधर पानी छिडकना । २. पाखा ।

कौलाचार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कौलाचारी] कौल संप्रदाय का आचार । वाममार्ग [को०] ।

कौलालक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का पात्र [को०] ।

कौलालक (२)
वि० कुम्हार का बनाया । कुम्हार संबंधी [को०] ।

कौलिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जुलाहा । २. पाखंडी या ढोंगी आदमी । ३. कौल संप्रदाय में दीक्षित व्यक्ति । वाममार्गी । शक्ति का उपासक । उ०—तू है बकरा मैं हूँ कौलिक ।—कुकुर ०, पृ० ५ ।

कौलिक (२)
वि० कुल से संबंधित । परंपरा से चला आता हुआ ।

कौलिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा बबूल जो बराबर में होता है ।

कौलोन (१)
संज्ञा पुं० [स०] १. कौल मत रो माननेवाला । २. भिखा- रिन का पुत्र । ३. पशुओं (हाथी, मेढा, भैंसा आदि) का द्वंद्व युद्ध । ४. तीतरों, मुरगों की लडाई । ५. युद्ध । संग्राम । ६. कुलिनता । ७. कलक । अपवाद । तोहमत । ८ जननेद्रिय । गुप्तांग [को०] ।

कौलीन (२)
वि० १. ऊँचे खानदान का । खानदानी । कुलीन । २. वंशपरपरागत [को०] ।

कौलीन्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुलीनता । खानदानीपन [को०] ।

कौलीय
संज्ञा पुं० [ सं०] क्षत्रियों की एक प्राचीन जाति जिसका उल्लेख बौद्ध शास्त्रों में आया है ।

कौलेज
संज्ञा पुं० [ अं० कालेज] दे० 'कालिज' ।

कौलेण †पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'कमल' । उ०—रहे निमाणा समको रेणा । रहे अलेप ज्यों जल कौलेणा ।—प्राण , पृ० १०८ ।

कौलेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मोती जो सिंहल के मयूर ग्राम की समीपवर्ती नदी में मिलता था [को०] ।

कौलेयक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता । श्वान । कुक्कुर । उ०—शाबर भाष्य कै तिर्यगधिकरण में चर्चा है कि कुछ कौलेयक (कुत्ते) प्रतिमास की कृष्ण प्रतिपदा चतुर्दशी को उपवास करते हैं ।— संपूर्णा य अभि ग्र०, पृ० २४८ ।

कौलेयक (२)
वि० कुलीन । उच्च कुलवाला । अच्छे वेश में उत्पन्न [को०] ।

कौलो
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौलव' ।

कौलौं पु
क्रि० वि० [हिं० कब + लौं ] कबतक । किस अवधि तक । उ०—अब तो दया हि कीजे छिन बिन में तन जो छीजै । बिन बोले कौंलौ रीजे दरसन हु एहि दीजै ।—ब्रज० ग्रं०, पृ०४३ ।

कौल्य
वि० [सं० ] १. कौल मताबलंबी । २. ऊँचे कुल का । कुलीन [को०] ।

कौवल
संज्ञा पुं० [सं०] बेर का फल । बदरीफल [को०] ।

कौवा
संज्ञा पुं० [सं० काक, प्रा० काओ ] [स्त्री० कौवी (क्व०)] १. एक प्रसिद्ध पक्षी जो संसार के प्राय? सभी भागों में पाया जाता है । काक । काग । विशेष—इसकी कई जातियाँ होती हैं । पर भारत में प्राय? दो ही प्रकार के कौवे पाए जाते हैं । साधारण कौवा आकार में डेढ बालिश्त होता है । इसकी चोच लंबी और कडी होती है और पैर मजबूत होते है । इसका धड या अगला भाग खाकी और पीछे का भाग काला होता है । इसकी नाक ठीक म्ध्य में नहींहोती, कुछ किनारे हटकर हौती है । यह प्राय? वृक्षों की टहनियों पर घोंसला बनाता है । यह बैसाख से भादों तक अंडा दैता है, जिनकी संख्या ४ से ६ तक होती है । कहते हैं, यह अपने जीवन में केवल एक बार अंडे दैता है । अंडे का रंग हरा होता है और उसपर काले दाग हैते हैं । कोयल भी अपने अंडे इसी के घोंसले में रख जाती है; पर जब उसमें से बच्चा निकलता है, तब यह उसे अपने घोंसले से निकाल दैता है । दूसरे प्रकार का कौवा आकार में बडा और प्राय? एक हाथ लंबा हौता है । इसका सर्वाग बिल्कुल काला होता है । इस जाति के कौबे आपस में बहुत लडते और प्राय? एक दूसरे को मार डालते हैं । यह पूस से फागुन तक अंडे दैता है । इसे डोम कौवा कहते हैं । शेष । सब बातों में यह प्राय? साधारण कौवे से मिलता जुलता होता है । दोनों प्रकार के कौवे बहुत धूतँ होते हैं और प्राय? किसी ऐसे स्थान पर जहाँ जरा भी भय की आशंका हो, नहीं जाते । पर शहरों और गाँवो में रहनेवाले कौवे बहुत ढीठ होते हैं । साधारण कौवे जबतक अंडे देने की आवश्यकता न हों, घोंसला नहीं बनाते ।कौवे दिन के समय भोजन आदि के लिये अपने रहने के स्थान से १०-१२ कोस दूर तक निकल जाते हैं । यह प्राय? सभी खाद्द और अखाद्द पदार्थ खा जाते हैं । लोग कहते है कि इसकी केवल एक ही पुतली होती है जो आवस्यकतानुसार दोनों आँखों में घूमा करती है । यह बहुत जोर से काँव काँव शब्द करता है, जो बडा अप्रिय होता है । इसका माँस बहुत निकृष्ट होता है और मनुष्य या पशु पक्षियों के खाने योग्य नहीं होता । यौ०—कौवा गुहार या कौवारोर = बहुत अधिक बकबक । बहुत जोर जोर मे और व्यर्थ बोलना । कागारोल । मुहा०—कौवा गुहार में पडना या फँसना =हुल्लड या शोर में पडना । बहुत बोलनेवालों के बीच में फँसना । कौवे उडाना = व्यर्थ या अनावश्यक कार्य करना । २. बहुत धूर्त मनुष्य । काइयाँ । ३. वह लकडी जो बेडेरी के सहारे के लिये लगाई जाती है । कौहा । बहुँवाँ । ४.एक प्रकार का सरगंडे का खिलौना । ५. गले के अंदर तालू के झालर के बीच का लटकता हुआ मांस का टुकडा + घाँटी । लंगर । ललरी । मुहा०—कौवा उठाना = बढी या अधिक लटकी हुई घटी को दबाकर यथास्थान करना । विशेष—कभी कभी कौवा अधिक लटककर जीभ तक आ पहुँचता है, जिससे कुछ दर्द और खाने पीने में बहुत कष्ट होता है । यह दशा बाल्यावस्था में अधिक और उसके बाद कम होती है । ६. कनकुटकी नाम का पेड । जिसकी राल दवा और रँगाइ के काम आती है । ७. एक प्रकार की मछली जिसका मुँह बगले के मुँह की तरह हैता है । कंकत्रोट । जलव्यथ ।

कौवाठोंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० काकतुण्डी] एक प्रकार की लता जिसके फूल सफेद और नीले रंग के तथा आकार में कौवे की नाक के समान होते हैं । विशेष—इसमें फलियाँ लगती हैं जिनमें लोबिए के समान बीज होते हैं । बवासींर दूर करने तथा बालों को पकने से रोकने के लिये इसका प्रयोग औषध की भाँति होता है । पर्या०—काकनासा । वायसी । सुरगी । काकाक्षी । शिरोबाला ।

कौवापरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कौवा + परो] बहुत काली और कुरुपा स्त्री ।—(व्यंग्य में) ।

कौवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की चिडिया । २. कचूर के आकार का एक पृक्ष जिसमें बहुत से लाल फूलों का एक गुच्छा लगता है । इसकी जड औषध के काम में आती है । ३. कौवाठोंठी ।

कोवाल
संज्ञा पुं० [अ० कौवाल] मुसलमालों में गवैयों का एक वर्ग । इस जाति के लोग कौवाली गाते हैं ।

कौवाली
संज्ञा स्त्री०[अ० कौवाली] १. एक प्रकार का गाना । विशेष—पीरों की मजार या सूफियों की मजलिसों में यह गाना होता है । इसके गाने की एक विशेष धुन होती है । इसमें प्राय? धर्म संबधी या आध्यात्मिक गजलें होती हैं, जिनके कारण कभी कभी सुननेवाले तन्मय हो जाते हैं । २. इस धुन में गाई जानेवाली कोई गजल । ३. कौवालों का पेशा । ४. संगीत में तिताला बजाने का एक भेद । विशेष—यह मद्यमान से दूना जल्दी बजाया जाता है । कौवाली की गजलों के सिवा और रागिनियों में भी इसका प्रयोग होता है । इसका तबले का बोल यह है—+  ३   धा दिन् दिन् धा, धा ०  १  + दिन् दिन् धा, ना तिन् तिन् ता । ता दिन् दिन् धा । धा । धा । अथवा—+  ३  ० धाधिन् धिन् धा, धिन् धागे धिन् धिन् धा, ना, तिन् १  + तिन् ता, तागे धिन् धिन् धा । धा

कौविंद
संज्ञा पुं० [सं० कौविन्द][स्त्री० कौविन्दी] जुलाहा । ततुवाय । बुनकर [को०] ।

कौवेर
वि० [सं०] दे० 'कौबेरी' [को०] ।

कौवेरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कौबेरी' [को०] ।

कौश (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] [वि० कौशेय] संज्ञा [स्त्री० कोशी] १. कुश द्वीप । २. एक गोत्र का नाम । ३. कान्यकुब्ज देश का एक नाम । ४. रेशमी कपडा ।

कौश (२)
वि० १. रेशमी । उ० । स्वर्गिक शोभा स्तंभों से पेशल जघनों पर कँपती होगी कौश जलद छाया ओझल हों ।—युगपथ, पृ० ११५ । २. कुश से बना हुआ [को०] ।

कौशल
संज्ञा पुं० [ सं० ] कुशलता । चतुहाई । निपुणता । उ०—हुए टाँकियों के कौशल से उपल सुकोमल उत्पल ज्यों ।—साकेत, पृ० ३७४ । १. मंगल । ३. कोशल देश का निवासी । ४. मस्यपुराण के अनुसार बह कक्ष जिसमें ४६ स्तंभ हों [को०] ।

कौशलिक
संज्ञा पुं० [सं० ] उत्कोच । रिश्वत । घूस [को०] ।

कौशलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपहार । उपढौकन । भेंट । नजर । २. कुशल क्षेम । कुशल मंगल [को०] ।

कौशली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कौशलिका' [को०] ।

कोशलेय
संज्ञा पुं० [सं०] कौशल्या के पुत्र रामचंद्र ।

कौशल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कौशल ' [को०] ।

कौशल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कोशल के राजा दशरथ की प्रधान स्त्री और रामचंद्र की माता । २. पुरुराज की स्त्री और जनमेजय की माता । ३. सत्यवाल की स्त्री । ४. धृतराष्ट्र की माता । ५. पंचमुखी आरती । पांच बत्ती की आरती ।

कौशल्यायनि
संज्ञा पुं० [सं०] कौशल्या के पुत्र, राम ।

कौशांब
संज्ञा पुं० [सं० कौशाम्ब] राम के पौत्र और कुश के पुत्र का नाम । इन्होंने कौंशांबी नगरी बसाई थी [को०] ।

कौशंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशाम्बी ] एक बहुत प्राचीन नगर जिसे कुश के पुत्र कौशांब ने बसाया था । इसका तूसरा नाम वत्स- पट्टन है । विशेष—प्राचीन काल में यह नगर यमुना के किनारे था, पर अब यमुना वह स्थान छोडकर दूर चली गई हैं । बुद्धदेव कुछ दिनो तक इस स्थान पर रहे थे । यहाँ एक मेदिर में उनकी चंदन की एक बहुत बडी मूर्ति है; इसलिए यह स्थान बौद्धों का एक तीर्थ हो गया है । प्रयाग से पंद्रह कोस पश्चिम की और यह स्थान है; और अब भी यहाँ कोसम नामक एक छोटा गाँव और बहुत से पुराने खंडहर हैं ।

कौशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र । २. कुशिक राजा के पुत्र गाधि, जों इंद्र के अंश से उत्पन्न हुए थे । ३. विश्वामित्र (कुशिक राजा के वेशज) ४. जरासंध के एक सेनापति का नाम । ५. कौशाध्यक्ष । ६. कोंशकार । ७. उल्लू । ८. नेवला । ९. एक प्रकार का शालवृक्ष । अश्वकर्ण । १० रेशमी कपडा । ११. शृंगार रस । १२. मज्जा । १३ एक उपपुराण । १४. हनुमत के मत से छह रागों में से एक । कुकुभा, खंभावती , गुणकिरी, कौरी और टोडी रागिनियाँ इसकी पत्नी हैं ।— (संगीत) । १५. अथर्ववेद का एक सूक्त । विशेष—इससे देव, पितृ तथा पाकयज्ञ, मंत्रों के गण, युद्ध तथा राजनीति, वज्र तथा वृष्टिनिवारण के मंत्र, विवाह की विधि, वेदारंफ और वेदाध्ययन की विधि आदि विषयों का वर्णन हैं । १६. गुगुल । गुग्गुल (को०) । १७. संपेरा (को०) । १८. शिव का एक नाम (को०) । . वह जो छिपे खजाने को जानता है (को०) ।

कौशिक (२)
वि० १. कोश या म्यान में रखा हुआ । २. रेशम का । रेशमी [को० ] ।

कौशिकप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] रामचंद्र [को० ] ।

कौशिकफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नारियल का वृक्ष २. नारियल का फल [को०] ।

कौशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जल आदि पीने का बरतन । कटोरा । गिलास । २. गुग्गुल ।

कौशिकात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का पुत्र अर्जुन [को०] ।

कौशिकायुध
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र । २. इंद्रधनुष [को०] ।

कौशिकाराति, कौशिकारि
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा । काग [ को०] ।

कौशकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चंडिका । २. राजा कुशिक की पोंती और ऋचीक मुनि की स्त्री, जो अपने पति के साथ सदेह स्वर्ग गई थी । ३. कोसी नाम की नदी । विशेष—दे० 'कोसी' । ४. एक रागिनी । हनुमत के मत से यह मालकोश राग की आठ भार्याओं में से एक है । कोई कोई इसे पूरिया या अजयपाल आदि के संयोग से उत्पन्न संकर रागिनी भी मानते हैं । ५. काव्य में चार प्रकार की वृत्तियों में से पहली वृत्ति । जहाँ करुण, हास्य और शृंगार रस का वर्णन हो और सरल वर्ण आवे उसे कौशिकी वृत्ति कहते हैं । दे० 'कौशिकी' ।

कौशिकी कान्हडा
संज्ञा पुं० [ हिं० कौशिकी + कान्हडा] एक सकर राग जो कौशिकी और कान्हडे के योग से बचता है । इसमें सब स्वर कोमल लगते हैं ।

कौशिल्य
संज्ञा पुं० [सं० ] एक गोत्रप्रवर्तक ऋषि ।

कौशिल्या
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशल्या] द० 'कौशल्या' । उ०—कौशिल्या तप कर्म जो करिया । कारण कर्म राम औतरिया ।—कबीर सा० पृ० १६० ।

कौशीतकी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'कौषीतकी' ।

कौशीधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह अनाज जो कोश में उत्पन्न होते हैं । जैसे तिल आदि ।

कौशीभैरव
संज्ञा पुं० [सं०] दिन के पहले पहर में गाया जानेवाला एक राग [को०] ।

कौशील
संज्ञा पुं० [सं०] सूत्रधार । नट ।

कौशीलव
संज्ञा पुं० [सं० ] नट या अभिनाता का कार्य [को०] ।

कौशेय (१)
वि० [सं० ] रेशमी । रेशम का । उ०—सिकुडन कौशेय वसन की थी विश्वसुंदरी तन पर. या मादन मृदूतम कंपन छायी संपूर्ण सृजन पर ।—कामयनी, पृ० २९३ ।

कौशैय (२)
संज्ञा पुं० १. रेशमी वस्त्र । २. रेशम ।

कौश्मांडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशमाण्ठी] वेदों की ३४ पवित्र करनेवाली ऋचाओ से से एक ।

कौशाख
संज्ञा पुं० [सं० ] कुषारु मुनि के पुत्र मैत्रेय ।

कौषिक
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'कौशिकी' ।

कौषिकी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. एक देवी । विशेष—इनकी उत्पत्ति काली के शरीर से हुई थी । इनके दस हाथ हैं और इनका वाहन सिंह है । इनकी आठ सखियाँ हैं जो सदा इनके साथ रहती है । २. दे० 'कौशिकी' ।

कौषीतक
संज्ञा पुं० [सं० ] १. कुषीतक ऋषि के पुत्र और ऋग्वेद की एक शाखा के प्रवतक । २. ऋग्वेद के अंतर्गत एक ब्राह्मण ।

कौषीतकी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. अगस्त्य मुनि की पत्नी का नाम । २. ऋग्वेद की शाखा । ३. ऋग्वेद के अंतर्गत एक ब्राह्मण या उपनिषद् ।

कौशीधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कोशीधान्य' [को०] ।

कौषेय (१)
वि०[सं०] रेशम से संबंध रखनेवाला । रेशम का । रेशमी ।

कौषेय (२)
संज्ञा पुं० रेशम का बना हुआ वस्त्र । रेशमी कपडा ।

कौण्ठेयक
संज्ञा पुं० [सं०] वे कर या टैक्स जो खजाने तथा वस्तुभंडार को पूर्ण करने के लिये जनता से समय समय पर लिए जायँ ।

कोसर
संज्ञा पुं० [अ०] स्वर्ग का एक कुंड या हौज । उ०—हर एक कतरा उसका है गौहर मिसाल । के गौहर ते क्या बल्के कौसर मिसाल ।—दक्खिनी०, पृ०२१४ ।

कौसल पु
संज्ञा पुं० [सं० कौशल] दे० 'कौशल' ।

कौसल्या पु०
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशल्या] दे० 'कौशल्या' । यौ.—कौसल्यानंदन = राम ।

कौसिक पु
संज्ञा पुं० [सं० कौशिक ] दे० 'कैशिक' ।

कौसिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का संकर राग (संगीत) ।

कौसिला पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कौशल्या] दे० 'कौशल्या' । उ०—कद्रू विनतहि दीन्ह दुख तुम्हहि कौसिला देव ।—मानस, २ ।१९ ।

कौसीद
वि० [सं० ] सूदखोर । ब्याज लेनेबाला [को०] ।

कौसीद्य
संज्ञा पुं०[सं०] सूदखोरी । ब्याज लेने की वृत्ति । २. आलस्य । अकर्मण्यता । [को०] ।

कौसीस पु
संज्ञा पुं० [सं० कपिशीर्ष] कंगूर । गुंबद । उ०—(क) सोवारी रहटघाट कौसीस मकार पुरविन्यास कथा कहुओ का—कीर्ति०, पृ० १८ । (ख) कंचन कोट जरे कौसीसा ।— पदमावत, पृ० ४० ।६ ।

कौसुंभ (१)
वि० [सं०कौसुम्भ] कुसुंभ पुष्प का । कुसुंभरंजित । कुसुंभयुक्त [को०] ।

कौसुंभ (२)
संज्ञा पुं० १. जंगली कुसुम । बनकुसुम । २. एक प्रकार का साग जो बहुत कोमल होता है ।

कौसुम (१)
वि० [सं०] १. कुसुम निर्मित । पुष्प संबंधी [को०] ।

कौसुम (२)
संज्ञा पुं० १. पराग २. पीतल या जस्ते के भस्म से निर्मित एक आँजन । पुष्पांजन । कुसुमांजन [को०] ।

कौसुरुविंद
संज्ञा पुं० [सं० कौसुरुविन्द] एक प्रकार का यज्ञ जो दस रातों में होता है ।

कौसृतिक पु
संज्ञा पुं० [सं०] १.बाजीगर । जादूगर । ठग । छली । बदमाश । [को०] ।

कौसेय, कौसेव पु
संज्ञा पुं० [सं० कौशेय] रेशमी वस्त्र । कौशेय, उ०—स्त्री निकेत समस्याम पीत कौसेव देय दुति । धूमकेत बर जलद काम उद्दित सु कोट रति ।—पृ० रा, २ ।४१ ।

कौस्तुभ
संज्ञा पुं०[सं०] १. पुराणानुसार एक रत्न जो समुद्र मथने के समय निकला था और जिसे विष्णु अपने वक्षस्थल पर पहने रहते हैं । २. तंत्र के अनुसार एक प्रकार की मुद्रा । ३. घोडे की गर्दन के बाल (को०) ४. एक प्रकार का तेल (क) ।

कौह
संज्ञा पुं० [सं० ककुभ, प्रा० कउह ] अर्जुन वृक्ष ।

कौहर †
संज्ञा पुं० [देश०] इंद्रायन ।

कौहा
संज्ञा पुं० [ देश या हिं० कौवा ] वह लकडी जो बडेरी के सहारे के लिये लगाई जाती है । बहुँवाँ । कौवा ।

क्या (१)
संर्व० [सं० किम्] एक प्रश्नवाचक शब्द जो उपस्थित या अभिप्रेत वस्तु की जिज्ञासा करता है । उस वस्तु को सूचित करने का शब्द, जिसे पूछना रहता है । कौन वस्तु ? कौन बात ? जैसे,—(क) तुम्हारे हाथ में क्या है ? (ख) तुम क्या करने आए थे ? मुहा०—क्या उखाडना =कुछ न कर सकना । कुछ हानि न पहुँचा सकना ।—(बाजारु) । क्या कहना है ? —(१) प्रशंसा सूचक धन्य । साधु साधु । शाबास । वाह वा । बहुत अच्छा है । बहुत बढिया है । (२) (व्यंग्य) प्रशंसा के योग्य नहीं है । बहुत बुरा है । बहुत अनुचित है । बिलकुल ठीक नहीं है । जैसे,—पहला व्यक्ति—वह बहुत अच्छा लिखता है । दूसरा व्यक्ति—क्या कहना है । क्या खूब =दे०'क्या कहना है' । क्या क्या =सब कुछ । बहुत कुछ । क्या कुछ क्या क्या कुछ =सब कुछ । बहुत कुछ । बहुत सी वस्तुएँ । बहुत सी बातें । जैसे—(क) उसने क्या क्या कुछ नहीं दिया ? (ख) तुमने क्या क्या कुछ नहीं कह डाला । क्या यह क्या वह =(१) जसा यह, वैसा वह । दोनों बराबर हैं । जैसे,—(क) उसके लिये क्या अँधेरा और क्या उजाला । (ख) उसका क्या रहना और क्या न रहना । (२) जब इसी को हम कुछ नहीं समझते, तब उसको क्या समझते हैं । दोनों तुच्छ हैं । जैसे,—क्या भेड, क्या भेड की लात! यह क्या करते हो ? =(आश्चर्य और खेदसूचक) यह ठीक नहीं करते । यह बुरा करते हो । यह विलक्षण कार्य करते हो । यह क्या किया ? = दे० 'यह क्या करते हो ?' (किसी की) क्या चलाते हो =क्या प्रसंग लाते हो  ? क्या चर्चा करते हो ? बात ही कुछ औऱ है । दशा ही भिन्न है । बराबरी नहीं कर सकते । जैसे,—उनकी क्या चलाते हो ? वे अमीर हैं चाहे दस घोडें रखे । क्या चिज है ? =नाचीज है । तुच्छ है । (किसी की) क्या चलाई=दे० 'क्या चलाते हो' । क्या जाता है? =क्या नुकसान होता है ? कौन सा हर्ज होता है ? कुछ हानि नहीं । जैसे,—जरा कह देना, तुम्हारा क्या जाता है ? क्या जाने =कुछ नहीं जानते । ज्ञात नहीं । मालूम नहीं । जैसे,—क्या जाने वह कहाँ गया है ? क्या जाती दुनीया देखी? =क्या कारण हुआ (जो स्वाभाविरुद्ध कार्य किया ?) । क्या नाम =नाम स्मरण नहीं आता ।—(जब बातचीत करते समय कोई बात याद नहीं आती, तब इस वाक्य को बीच में बोलकर रुक जाते हैं) । जैसे,—तुम्हार साथ उस दिन वही—क्या नाम ?— मथुराप्रसाद थे न ? । क्या पडना =क्या आवश्यकता होना । कुछ जरुरत न होना । कुछ गरज न होना । जैसे,—हमें क्या पडी है जो हम पूछने जाँय ? क्या पूछना है ?=दे० 'क्या कहना है' । क्या हुआ? = क्या हर्ज है । कुछ हर्ज नहीं है । कुछ परवा नहीं है । क्या बात, क्या बात है —दे० 'क्या कहना है' । क्या से क्या हो गया =बिलकुल बदल गया । और ही दशा हो गई । क्या समझते या गिनते हैं? =कुछ नहीं समझते । तुच्छ समझते हैं । तो फिर क्या है =तो और किसी बात की आवश्यकता नहीं । तो सब पूरा है । तो सब ठीक है । तो बडी अच्छी बात है । जैसे—वे आ जाँय, तो फिर क्या बात है । विशेष—यद्यपि यह शब्द सर्वनाम है, तथापि इसमें वियक्ति नहीं लगती । इसी से वस्तु की जिज्ञासा के लिये दो सर्वनाम हैं—'कौन' और 'क्या' । 'कौन ' मे विभक्ति लग सकती है, क्या में नहीं । 'क्या' के आगे संज्ञा आने से वह विशेषणवत् हो जाता है । जैसे,—क्या वस्तु ? इस शब्द के आगे अधिकतर वस्तु, पदार्थ, चीज आदि सामान्य शब्द विशेष्य रुप से आते हैं, विशेष जाति या व्यक्तिबोधक नहीं ।

क्या (२)
वि० १. कितना ? किस कदर ? जैसे,—इस काम में तुम्हारा क्या खर्च पडा ? २. बहुत अधिक । बहुतायत से । इतना अधिक ऐसा । जैसे,—(क) क्या पानी बरसा कि सब तराबोर हो गए । (ख) क्या भीड थी कि तिल रखने को जगह न थी । ३. कैसा । किस प्रकार का । विलक्षण ढंग का । अपुर्व । विचित्र । जैसे,—(क) वह भी क्या आदमी है । (ख) क्या क्या लोग है । ४. बहुत अच्छा । बहुत उत्तम । कैसा उत्तम । जैसे,—बाबू साहब भी क्या आदमी है कि जो मिलता है, प्रसन्न हो जाता है ।

क्या (३)
क्रि० वि० १. क्यों ? किसलिये ? किस कारण ? जैसे,— (क) तुम मुझसे क्या कहते हो । मै कुछ नहीं कर सकता । (ख) अब हम वहाँ क्या जायँ । मुहां०—ऐसा क्या =ऐसा क्यो ? इसकी क्या आवश्यकता है ? क्या आए, क्या चले ? =बहुत जल्दी जा रहे हो । अभी थोडा और बैठो । (जब कोई किसी के यहाँ आता है और जल्दी जाना चाहता है, तब उसके प्रति यह कहा जाता है) । २. नहीं । जैसे,—जब उसमें दम ही नहीं तो क्या चलेगा ।

क्या (४)
अव्य० केवल प्रश्नसुचक शब्द । जैसे,—क्या वह चला गया ? मुहां०—क्या आग, में डालुँ = इस वस्तु को लेकर क्या करुँ ? यह मेरे किस काम का है ।—(स्त्रियाँ खिझलाकर ऐसा बोल देती है) ।

क्य़ार (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० केदार] आलवाल । थाला । थाँवला । उ०—(क) भूगति भुमी किय क्यार, वेद सिंचिय जल पूरन ।—पृ०, रा०,१ ।४ । (ख) सब विधि भरत मनोरथ क्यार । ब्रज पावस नित दरसत प्यार ।—घनानंद, पृ० १८८ ।

क्यार (२) †
प्रत्य० [अव०] अवध की संबंध कारक की विभक्ति । का ।

क्यारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कियार] दे० 'कियारी' ।

क्यों
क्रि० वि० [सं० किम] १. किसी व्यापार या घटना के कारण की जिज्ञासा करने का शब्द । किस कारण ? किस निमित्त ? किसलिये ? किस वास्ते ? जैसे,—तुम वहाँ क्यों जा रहे हो ? यौ०—क्योंकि = इसलिये कि । इस कारण कि । जैसे,—अब यहाँ से जाओ, क्योंकि वह आता होगा । मुहा०—क्योंकर = किस प्रकार ? कैसे ? जैसे,—मै यहाँ क्योंकर रह सकता हुँ ? उ०—हम क्यों कर उसको बुरा कहें । प्रेमघन०, भा० २, पृ०३३ । क्यों नहीं =(१) ऐसा ही है । ठीक कहते हो । नि?संदेह । बेशक ।—(किसी बात के समर्थन में) । (२) हाँ । जरुर ।—(स्वीकार में) । जैसे०—प्रश्न—तुम वहाँ जाओगे ? उत्तर—क्यों नहीं । (३) ऐसा नहीं है । ठीक नहीं करते हो । —(व्यर्ग) । (४) कभी नहीं । मैं ऐसा नहीं कर सकता ।—(व्यग्य) । क्यों न हो=(१)तुम ऐसे महानुभाव से ऐसा उत्तम कार्य क्यों न हो ? वाह बा क्या खूब ? धन्य हो ? (२) ऐसी विलक्षण बात क्यों न कहोगे ? छि? —(व्यंग्य) । २.पु किस भाँती ? किस प्रकार ? कैसे ? उ०—क्यों बसिए क्यों निबहिए, नीति नेह पुर नाहिं । लगा लगी लोयन करै, नाहक मन बँध जाहिं ।—बिहारी (शब्द०) ।

क्योडा †
संज्ञा पुं० [ हिं० केवडा] दे० 'केवडा' । उ०—अब तुम जाय धरो औतारा । क्योडा केतकी नाम तुम्हारा ।—कबीर सा०, पृ०, ३१ ।

क्योलारी †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोइलारी' ।

क्यौं पु
क्रि० वि० [हिं० क्यों] किसी प्रकार । उ०—क्यौं हू लुकत न लाज निगोडी बिबस सुप्रेम उरैड ।—नंद ग्रं०, पृ० ३८८ ।

क्रंत पु
वि० [सं० कान्त] सुंदर । मनोहर । उ०—बहुरुपी रुपन बनि आवहिं । क्रंत गीत असमंजस गावहिं ।—प० रासो, पृ० २३ ।

क्रंति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रान्ति] दे० 'कांती' ।उ०—तप्यौ हेम ज्यौं देह की क्रंति सोहै । सुजोती रवी कोटि दिव्यंत मोहैं ।— पृ० रा०, २ ।१९० ।

क्रंदन
संज्ञा पुं० [सं० क्रन्दन] १. रोना । विलाप । २. युद्ध के समय बीरों का आह्वान । ३. गर्जन ।उ०—प्यारी अंक दूरी रही ऐसैं, जैसे केहरि क्रंदन सुनी मृगछौनी ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३७३ ।४. माजीर । विडाल ।

क्रंदित (१)
वि० [सं० क्रन्दित] १. ललकारा हुआ । आह्वान किया हुआ । २. रुदित । रोया हुआ [को०] ।

क्रंदित (२)
संज्ञा पुं० १.रोदन । विलाप । २. ललकार । चुनौती [को०] ।

क्रकच
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में एक योग जो उस समय पडता है जब वार और तिथि की संख्या का जोड १३ होता है । विशेष—इसकी गणना के लिये रविवार को पहला, सोमवार को दुसरा, मंगल को तीसरा और इसी प्रकार शनिवार को साँतवाँ दिन मानते और उसी दिन की संख्या को तिथि की संख्या में जोडते हैं । जैसे, यदि शुक्रवार को सप्तमी, बृहस्पती को अष्टमी बुध को नवमी या रवि को द्वादशी हो, तो क्रकच योग होता है । इस योग में कोइ शुभ कार्य करना वर्जित है । २. करील का पेड । ३. आरा । कवत । ४. एक प्रकार का बाजा । ५. एक नरक का नाम । ३. गणित में एक प्रकार की क्रिया जिसके अनुसार लकडी के तख्ते चीरने की मजदुरी स्थिर की जाती है । यौ०—क्रकचच्छद = केतक वृक्ष । क्रकचपत्न = सागौन वृक्ष । क्रकचपृष्ठी = कवई नाम की मछली ।

क्रकचपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरगिट । २. छिपकली

क्रकचव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] लकडियों के ढेर को गिनने का एक प्रकार [को०] ।

क्रकचा
संज्ञा पुं० [सं०] केतकी ।

क्रकर
संज्ञा पुं० [सं०] करील का पेड । २. किलकिला नाम की चिडिया । ३. केकडा । ४. आरा । करवत । ५. दरिद्र । ६. रोग (को०) ।

क्रकरट
संज्ञा पुं० [सं०] भऱत नामक पक्षी [को०] ।

क्रकुच्छंद
संज्ञा पुं० [सं० क्रकुच्छन्द] भद्रकल्प के पाँच बुद्धों में से पहले बुद्ध ।

क्रक्कस पु †
वि० [सं० कर्कश] कठोर । दृढ । उ०— सुनि साहाब वजीर बोलि बल की अप्पानाँ । क्रक्कस करतें पर कमान तानी लगि कानाँ ।—पृ० रा०, १२ ।१४८ ।

क्रतंत पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृतान्त] कृताँत । काल । उ०—हुवै कि हाक हुक्कयं, ,तवै क्रतंत तक्कियं ।—रा० रु०, पृ० ८४ ।

क्रत पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृत] कियी हुआ कार्य । कीर्ति ।उ०— जग में वंश उग्र गुण जोई । क्रत रवि वंश समौ नह कोई ।— रा० रु०, पृ० ८ ।

क्रतक
संज्ञा पुं० [सं०] वासुदेव के पुत्र का नाम ।

क्रतयुग
संज्ञा पुं० [सं० कृतयुग] सत्य युग । प्रथम युग ।उ०— यज्ञ क्रतयुग से भी पहले चलते थे ।—प्रा० भा० प० पृ० ३०० ।

क्रतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. निश्चय । संकल्प । २. इच्छा । अभिलाषा । ३. विवेक । प्रज्ञा । ४. इंद्रिय । ५. जीव । ६. विष्णु ।७. यज्ञ विशेषत? अश्वमेध । यौ०—क्रतुपति = विष्णु । क्रतुपशु = घोडा । क्रतुफन = यज्ञ का फल, स्वर्ग आदि । ८. आषाढ (प्राय? यज्ञ इसी महिने होते हैं) । ९. ब्रम्हा के एक मानस पुत्र । विशेष—ये सप्त ऋषियों में से एक है । इनकी उत्पत्ति ब्रम्हा के हाथ से हुई थी । इनका विवाह कर्दम प्रजापति की कन्या क्रिया के साथ हुआ था, जिसके गर्भ से साठ हजार बालखिल्प ऋषि उत्पन्न हुए थे । १०. विश्वदेवा में से एक । ११. कृष्ण के एक पुत्र का नाम । १२. प्लक्षद्वीप की एक नदी का नाम ।

क्रतुद्रुह
संज्ञा पुं० [सं०] असुर । दैत्य [को०] ।

क्रतुध्वंसी
संज्ञा पुं० [सं०] दक्ष प्रजापति का यक्ष नष्ट करनेवाले, शिव ।

क्रतुपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ करनेवाल व्यक्ति । २. शिव [को०] ।

क्रतुपशु
संज्ञा पुं० [सं०] घोडा । अश्व ।

क्रतुपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'यज्ञपुरुष' ।

क्रतुफल
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ का उद्देश्य या लक्ष्य [को०] ।

कतुभुक्
संज्ञा पुं० [सं० क्रतुभुज] वह पदार्थ जो यज्ञ में देवताओं को अर्पण किया जाता है ।

क्रतुभुज
संज्ञा पुं० [सं०] देवता । सुर ।

क्रतुयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पक्षी ।

क्रतुराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजसुय यज्ञ २. अश्वमेध यज्ञ (को०) ।

क्रतुविक्रयी
संज्ञा पुं० [सं०] धन लेकर यज्ञ का फल बेचनेवाला ।

क्रतुस्थला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अप्सरा जिसका नाम यजुर्वेद में आया है । पुरणानुसार यह चैत्र में सुर्य के रथ पर रहती है ।

क्रतुत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] राजसुय यज्ञ [को०] ।

क्रत्वर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञों अर्थोवाद और विधान जो पुरुषार्थ की़ भाँती कर्ता के इच्छा के अनुसार नहीं, बल्कि शास्त्र के नियम से अनुकूल होता है । जैसे—पौर्ण मास आदि यज्ञों में फल की लिप्सा या अपनी इच्छा से प्रवृत्ति होती है और इस यज्ञ या उसकी फलविधि को पुरुषार्थ कहते हैं । पर उसमें प्रवृत्त होने पर वत्स्यपाकरण, गोदोहन और उपवास आदि यज्ञ के अंग प्रत्यंग संबंधी कर्मों को शास्त्र की विधि और अर्थवाद के अनुकुल ही करना पडता है । इसी विधि और अर्थवाद को क्रत्वर्थ कहते हैं । संपूर्ण यज्ञ जिस निमत्ति किया जाय, वह फलविधि है, और यज्ञ का एक एक अंग, जिस प्रयोजन से किया जाय, वह अर्थवाद है ।

क्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विदर्भ नामक राजा का एक पुत्र और कैशिक का भाई । २. कंद का एक गण । ३. एक असुर का नाम ।

क्रथकैशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रथ और कैशिक का वंश । २. धृत— राष्ट्र के एक पुत्र का नाम ।

क्रथन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवयोनि । २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । ३. वध । हत्या । ४. काटना (को०) ।

क्रथनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद अगर । २. ऊँट ।

क्रद्दम
संज्ञा पुं० [सं० कर्दम] दे० 'कर्दम' ।

क्रन (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण] कान । उ०—करषि मुट्ठि कम्मान तानि क्रन बान छनंकिय । —पृ० रा० १ ।६३९ ।

क्रन (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० किरण] किरण । कर । रशिम । उ०—नाछित्र छिपिग ससि क्रन प्रताप । उज्जास आप घन मार चाप ।— पृ० रा०, २ ।३९५ ।

क्रन्न पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, प्रा० क्रन्न] दे० 'कर्ण' । उ०—कहै ब्यास संभरी क्रन्न इह उत्त प्रमानं । किं जानै किं होइघरी इक घट्टन जान ।—पृ० रा०, १ ।७०२ ।

क्रप
संज्ञा पुं० [सं०] १. दयालु । २. कृपाचार्य ।

क्रपण पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृपण] कृपण । कंजूस । उ०—ऐसे धीर बीर बोले, जिण सुँ सुर बीर रीझे । कातर कपण प्राण आतुर ह्मै छीजै ।—रा० रु०, पृ० ११७ ।

क्रपा †
संज्ञा स्त्री०[सं०कृपा] दे० 'कृपा' ।

क्रपानी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपाणी] दे० 'कृपाणी' ।उ०—सुनी कान बानी क्रपानी ग्रहाए ।—प० रासो, पृ० ४४ ।

क्रपैनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपाणी] दे० कृपाणी । (छोटी) तलवार । २. कतरनी । कैची । कल्पनी । उ०—तुही मध्य बाँरानसी मोक्ष दैनी । कली काल दुष्षं कटन्नं क्रपैनी ।—पृ० रा०, १ ।१६७ ।

क्रम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर रखने की क्रिया । डग भरने की क्रिया । २. वस्तुओं या कार्यों के परस्पर आगे पीछे आदि होने का नियम । पुर्वापर संबंधी व्यवस्था । शैली । प्रणाली । तरतीब । सिससिला ।—जैसे—(क) इन पौधों को किस क्रम में लगाओगे ? (ख) इन शब्दों का क्रम ठीक नहीं है ।मुहा०—क्रम से = क्रमानुसार । क्रि० प्र०—रखना ।—लगाना । ३. किसी कार्य के एक अंग को पुरा करने के उपरांत दुसरे अंग को पुरा करने का नियम । कार्य को उचित रुप से धीरे धीरे करवे का प्रणाली । क्रि० प्र०—बाँधना । मुहा०—क्रम क्रम करके = धीरे धारे । शनै? शनै? । उ०—जो कोउ दूरि चलने को करे । क्रम क्रम करि डग डग पग धरै ।—सुर (शब्द०) । क्रम से, क्रम क्रम से =धीरे धीरे । ४. वेदपाठ की प्रणाली जो दो प्रकार की है—प्रकृति रुप । और विकृत रुप । पकृति रुप के दो भेद हैं—रुढ और योग । जैसे—'अग्निमीलपुरोहितम्' इस प्रकार का पाठ रूढ़ ओर अग्निम् ईळ पुरोहितमं' इस प्रकार का पाठ योग कहलाएगा । विकृत रुप के आठ भेद हैं—जटा, माला, शिख, लेखा, ध्वज, दंड, रथ और घन ।उ०—पढन लग्यो भैंसा तब बेदा । पद- क्रम जठा क्रमहु बिन खेदा ।—रघुराज (शब्द०) । ५. किसी कृत्य के पीछे कौन सा कृत्य करना चाहिये इसकी व्यवस्था । वैदिक विधान । कल्प । ६. आक्रमण । ७. वामन का एक नाम जिन्होंने पृथ्वी तीन डगों में नापा था । ८. वह काव्यालंकार जिसमें प्रथमोक्त वस्तुओं का वर्णन क्रम से किया जाय । इसे संख्यालंकार भी कहते हैं । जैसे—नूतन घन हिम कनक कांतिधर । खगपति बृष मराल बाहन वर । सरितपति गिरि सरसिज आलय । हरिहर विधि जसबँत प्रति पालय ।

क्रमक (१)
वि० [सं०] १. व्यवस्थित । क्रमबद्ध । २. आगे जानेवाला । अग्रगामी । [को०] ।

क्रमक (२)
संज्ञा पुं० १. क्रमानुसार नियमित अध्ययन करनेवाला छात्र । २. वेदमंत्रों के क्रमपाठ की पद्धति को जाननेवाला [को०] ।

क्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पैर । पाँव । २. पारे के अठारह संस्कारों में से एक । ३. घोडा । अश्व (को०) । ४. उल्लंघन (को०) । ५. पग रखना । कदम रखना (को०) ।

क्रमत?
क्रि० वि० [सं० क्रमतस्] दे० 'क्रमश?' [को०] ।

क्रमदंडक
संज्ञा पुं० [सं० क्रमदण्डिक] वेदों के पाठ का एक प्रकार ।

क्रमनाँ पु
क्रि० वि० [सं० कर्मणा] कर्म से । क्रिया द्वारा । व्यवहारत । उ०—भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार । मनसा बाचा क्रमनां कबीर सुमिरण सार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ५ ।

क्रमनासा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कर्मनाशा] दे० 'कर्मनाशा' ।

क्रमपद
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों के पाठ का एक प्रकार ।

क्रमपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों के पाठ का एक प्रकार जिसमें संहिता और पाद दोनों को मिलाकर पाठ करते हैं ।

क्रमपुरक
संज्ञा पुं० [सं०] बकृल वृक्ष । मौलसिरी का पेड ।

क्रमबद्ध
वि० [सं०] क्रमानुसार व्यवस्थित । क्रमयुक्त [को०] ।

क्रमभंग
संज्ञा पुं० [सं० क्रमभड्ग] क्रम या सिलसिला टूट जाना [को०] ।

क्रमविकास
संज्ञा पुं० [सं०] धीरे धीरे होनेवाला विकास । क्रमश? उन्नति [को०] ।

क्रमश?
क्रि० वि० [सं० क्रसशस्] १. क्रम से । सिलसिलेवार । २. धीरे धीरे । थोडा थोडा करके ।

क्रमसंख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रम को व्यक्त करनेवाली संख्या या सिलसिला ।

क्रमसंन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] वह सन्यास जो क्रम से अर्थात् ब्रम्हाचार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम में रह चुकने के बाद लिया जाय ।

क्रमांक
संज्ञा पुं० [सं०क्रमाङ्क] दे० 'क्रमसंख्या' ।

क्रमागत
वि० [सं०] १. क्रमश? किसी रुप को प्राप्त । जो धीरे धीरे होता आया हो । २. जो सदा से होता आया हो । परंपरागत ।

क्रमानुकूल
क्रि० वि० [सं०] श्रेणी के अनुसार । नियमानुसार । क्रम के अनुसार । क्रम से । सिलसिलेवार ।

क्रमानुयायी
वि० [सं० क्रमानुयायिन्] उत्तरवर्ती । परंपराप्राप्त । उ०—चंद्रसेन का उत्तराधिकारी कीर्तिसिंह और क्रमानुयायी रामसिंह (दूसरा) हुआ ।—राज०, पृ० ११८३ ।

क्रमानुसार
क्रि० वि० [सं०] क्रमश? । क्रमानुकुल ।

क्रमान्वय
क्रि० वि० [सं०] क्रम से । एक के बाद एक ।

क्रमि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कीडा । कृमि । २. पेट का एक रोग जिसमें आँतों में छोटे छोटे सफेद कीडे पैदा हो जाते है । इन कीडों को चुन्ना या चुनूना कहते हैं ।

क्रमिक
क्र० वि० [सं०] १. क्रमयुक्त । क्रमागत । २. परंपरागत ।

क्रमिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०क्रमिक+ता] क्रमबद्ध होने की स्थिति । उ०—इस क्रमिकता और परिच्छिन्नता के कारण इसमें प्रेम तत्व अधिक गाढ और आनंदमूलक होता है ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ६३७ ।

क्रमी †
संज्ञा पुं० [सं०कृमि] दे० 'कृमि' । उ०—किल भिसटा भसमी क्रमी, इण नर तन सुँ थाय ।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० ४६ ।

क्रमु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुपारी का वृक्ष [को०] ।

क्रमुक
संज्ञा पुं० [सं०] १.सुपारी का पेड । उ०—घर घर तोरण विमल पता के कंचन कुंभ धराए । क्रमुक रंभ के खंभ विराजत पथ जल सुरभि सिंचाए ।—रघूराज (शब्द०) । २. नागर- मोथा । ३. कपास का फल । ४. शहतुत का पेड । ५. पठानी लोध । ६. एक प्राचीन देश का नाम ।

क्रमकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुपारी का पेड [को०] ।

क्रमेल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्रमेलक' ।

क्रमेलक
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँट । शुतुर । उ०—मनहुँ क्रमेलक पीठ पै धरयो गोल घंटा लसत ।—रस०, पृ० ४९ ।

क्रमोद्वेग
संज्ञा पुं० [सं०] बलीवर्द । वृषभ । बैल [को०] ।

क्रम्म पु
संज्ञा पुं० [सं० कर्म>क्रम पु ] दे० 'कर्म' । उ०—सब सौति कह्यौ दुष सुनहु तुम्म । राजन्न तनय हम सौ न क्रम्म ।— पृ० रा० १ ।३७५ ।

क्रय
संज्ञा पुं० [सं०] मोल लेने की क्रिया । खरीदने का काम । खरीद । क्रयण ।यौ०—क्रयक्रीत =खरीदा या मोल लिया हुआ । क्रयलेख्य = विक्रय पत्र । बैनामा । दानपत्र । क्रयविक्रय = खरीदने और बेचने की क्रिया । व्यापार । क्रयविक्रयिक = व्यापारी । सौदागर ।

क्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] खरीद । क्रय । खरीदना [को०] ।

क्रयलेख्यपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पदार्थ के क्रय विक्रय संबंधी पत्र ।— (शुक्रनीति) ।

क्रयविक्रयानशय
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार अठारह प्रकार के विवादों में से एक । विशेष—दे०'क्रीतानुशय' ।

क्रायारोह
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहाँ खरीदने बेचने का काम होता है । हाट । बाजार । मंडी ।

क्रयिक
वि० पुं० [सं०] १. व्यापारी । बेचनेवाला । २. खरीदने वाला [को०] ।

क्रयिम
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह कर या टैक्स जो माल खरीद या विक्री पर लिया जाय ।

क्रयी
संज्ञा पुं० [सं०क्रयिन्] मोल लेनेवाला । खरिदनेवाला ।

क्रयोपघात
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार पदार्थ के खरिदने को रोकना । पदार्थ के क्रय में रुकावटें डालना ।

क्रय्य
वि० [सं०] जो बिक्री के लिये रखा जाय । जो चीज बेचने के लिये हो ।

क्रवान पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृपाण] कृपाण । तलवार । उ०—चल विचलसान नीसान मुख गहि क्रवान कर में कढिय ।—सुजान०, पृ० २० ।

क्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] मांस । गोश्त ।

क्रव्याद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मांस खानेवाला । वह जो मांस खाता हो । जैसे, राक्षस, गिद्ध, सिंह आदि ।उ०—लंका के क्रव्याद वहाँ आकर चरते थे ।—साकेत, पृ० ४१६ । २. वह आग जिससे शव जलाया जाता है । चिती की आग ।

अशित
वि० [सं०] दुर्बल । क्षीणकाय [को०] ।

क्रशिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुबलापन । क्षीणता [को०] ।

क्रस (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं०कृषि] दे० कृषि । उ०— ज्यों क्रस भंजे तन गलै घण गोलक तन लग्ग ।—रा० रु०, पृ०१०२ ।

क्रस (२)पु
वि० [सं०कृश] दुर्बल । कृश । उ०—वहाँ सु अँबतर रिष्ष इक, क्रत तन अंग सरंग । दव दद्धौ जजु द्रुम कोई, कै कोई भुत भुअंग ।—पृ० रा०, ६ ।१७ ।

कसान पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृशानु] दे० 'कृशानु' । उ०— कियो सदय सुणनिज थुई, टीटभ हुत क्रनान । उणरा बाल उबरिया महामंत्र जस मान ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ५१ ।

क्रसोदर पु
वि० [सं०कृशोदर] दे० 'कृशोदर' । उ०—लौद लचीली लौं लचति घालत नहिं सकुचात । लगि जैहैं वोदर लला वहै क्रसोदर ग्रात ।—स० सप्तक, पृ० २४३ ।

क्रम्न पु †
संज्ञा पुं० [सं० कृष्ण] दे० 'कृष्ण' । अनेकार्थ०, पृ० ९१ ।

क्रस्नाफला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कृष्णफला] काली मिर्च । गोल मिर्च । अनेकार्थ०, पृ० ८० ।

क्रांत (१)
वि० [सं० क्रान्त] १. जिसे कोई वस्तु ऊपर से आकार छेंके हो । जिसे कोई वस्तु ऊपर से छोपे हो । दबा या ढका हुआ । २. जुसपर आक्रमण हुआ हो । ग्रस्त । उ०—महाबली विक्रम विक्रांत क्रांत मंदर गिरि कीन्हे ।—रघुराज (शब्द०) । यौ०—भाराक्रांत । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ३. आगे बढा हुआ । अतीत । यौ०—सीमाक्रांत । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ४. गत । गया हुआ (को०) ।

क्रांत (२)
संज्ञा पुं० १.घोडा । २. पैर । ३. कदम । डग (को०) ।४. जाना । गमन । चलना (को०) ।५.किसी ग्रह के साथ चंद्र का योग होना (को०) ।

क्रांतदर्शी
संज्ञा स्त्री० [सं० कान्तदर्शिन] १. ईश्वर । परमेश्वर । २. त्रिकालदर्शी । सर्वज्ञ ।

क्रांति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रीन्ति] १. डग भरने की क्रिया । कदम रखना । एक स्थान से दुसरे स्थान पर गमन । गति । २. खगोल में वह कल्पित वृत्त, जिसपर सुर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता जान पडता है । पर्या०—अपमंडल । अपवृत्त । अपक्रम । अयम । यौ०—क्रांतिक्षेत्र । क्रांतिज्या । क्रांतिपात । क्रांतिभंग । क्रांति- मंडल । क्रांतिमाला । क्रांतिवलय । क्रांतिवृत्त । ३. खगोलीय नाडीमंडल से किसी नक्षत्र की दूरी । ४. एक दशा से दुसरी दशा में परिवर्तन । फेरफार । उलट फेर । जैसे, राज्यक्रांति ।

क्रांति पु (२)
संज्ञा स्त्री०[ सं० क्रान्ति] शोभा । तेजस्विता । उ०— (क) कहा क्रांति छबि बरनों बरनत बरनि न जाय ।—कबीर श०, भा० ४. पृ० २६ (ख) षोडश मान हंस की क्रांति । अमर चीर पहिरै बहु भाँती ।—कबीर सा०, पृ० १००२ ।

क्रांतिकक्ष
संज्ञा पुं० [दे०क्रान्तिकक्ष] दे० 'क्रांतिवृत्त' ।

क्रांतिकारी (१)
वि० [सं०क्रान्तिकारिन्] किसी व्यवस्था में उलट फेर या परिवर्तन करनेवाला । इनकलाब लानेवाला ।

क्रांतिकारी (२)
संज्ञा पुं० सत्ता को उलट देने का प्रयास करनेवाला व्यक्ति । उ०—क्रांतिकारियों को यह ज्ञात हो जाता कि जो कुछ वे कर रहे थे उसमें उन्हे गाँधी जी का समर्थन प्राप्त न था ।—भारतीय० १९८ ।

क्रांतिक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं० क्रान्तिक्षेत्र] गणित में वह क्षेत्र जो क्रांति निकालने के लिये बनाया जाय ।

क्राँतिज्या
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रान्ति ज्या] क्रांतिवृत्त क्षेत्र में अक्षक्षेत्र का एक अंग । वि० दे० 'ज्या' ।

क्रांतिपात
संज्ञा पुं० [सं० क्रान्तिपात] वे विंदु जिनपर क्रांतिविलय और खगालीय विषुवत की रेखाएँ एक दुसरी को काटती है । विशेष—जब इन विंदुओं पर पृथ्वी आती है, तब रात ओर दिन बराबर होते हैं ।

क्रांतिभाग
संज्ञा पुं० [सं० क्रान्तिभाग] खगोलीय नाडीमंडल से क्रांतिमंडल के किसी बिंदु की दूरी ।

क्रांतिमंडल
संज्ञा पुं० [सं० क्रान्तिमण्डल] वह वृत्त जिसपर सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता हुआ जान पडता है । उ०—विषुब और क्रांतिमंडल के मिलन को क्रांतिपात कहते हैं ।—वृहत्०, पृ०९ ।

क्रांतिवलय
संज्ञा पुं० [सं० क्रान्तिवलय] दे० 'क्रांतिवृत्त' [को०] ।

क्रांतिवृत्त
संज्ञा पुं० [सं० क्रांन्तिबृत्त] सुर्य का मार्ग ।

क्रांतिसाम्य
संज्ञा पुं० [सं०क्रान्तिसाम्य] ज्योतिष में ग्रहों की तुल्यक्रांति । विशेष—यद्दपि सब ग्रहों की तुल्यक्रांति होती है, तथापि सूर्य और चंद्र के क्रांतिसाम्य में मंगलकार्य वर्जित है ।

क्राइस्ट
संज्ञा पुं०[अं०] ईसा मसीह ।

क्राउन
संज्ञा पुं० [अं०] १. राजमुकुट । ताज । २. राजा । सम्राट । शाह । सुल्तान ३. राज्य । ४. छापने के कागज की एक नाप जो १५ इंच चौडी और २० इंच लंबी होती है । यौ०—डबल क्राउन = क्राउन से दूना । ३० इंच लंबा और २० इंच चौडा ।—(छापखाना) ।

क्राउन कालोनी
संज्ञा पुं० [अं०] वह कालोनी या उपनिवेश जो किसी राज्य या साम्राज्य के अधीन हो । राज्य या साम्राज्यां तर्गत उपनिवेश ।

क्राउन प्रिंस
संज्ञा पुं०[अं०] किसी स्वतंत्र राज्य का राजसिंहासन का उत्तराधिकारी । युवराज । जैसे,—अफगनिस्तान के क्राउन प्रिंस ।

क्राकचिक
संज्ञा पुं० [सं०] आरे से लडकी चीरनेवाला आराकश [को०] ।

क्राथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंसा करना २. एक नाग का नाम । ३.एक बंदर का नाम जिसने राम—रावण—युद्ध में सेनापति का काम किया था । ४. एक राजा का नाम जो बाहुग्रह के अवतार माने जाते हैं । उ०—चल्यो क्राथ नरनाथ माथ पर मुकु़ट मनोहर ।—गोपाल (शब्द०) । ५. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम ।

क्रायक, क्रायिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यापारी । व्यवसायी । २. खरीददार । ग्राहक [को०] ।

क्राल पु
वि० [सं०कराल] भयंकर । भयावह ।उ०—काल क्राल की नाहीं सारा । ऊँचे कवल सीस जमु मारा ।—प्राण०, पृ० २१० ।

क्रिकेट
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का अँगरेजी ढंग गेंद का खेल, जो ग्यारह आदमियों के दो पक्ष में खेला जाता है । गेंद । बल्ला । यौ०—क्रिकेट बैट—क्रिकेट खेलने का बल्ला ।

क्रिचयन
संज्ञा पुं० [सं० कृच्छचान्द्रायण] चाँद्रायण व्रत ।

क्रिछ पु †
वि० [सं० कृच्छ] दे० 'कृच्छु' ।उ०—देतिउं काढ कया सों, प्रान होत जो हाथ । बाज प्रान मन बल्लभ , प्रान किछ जिउ साथ ।—इंद्रा०, पृ० १६० ।

क्रित्त पु
संज्ञा पुं० [सं० कृत्य] दे० 'कृत्य' । उ०—पति हित जो क्रिय कृत मान मुक्कै सु मोह धर ।—पृ० रा० २ ।४१३ ।

क्रिम
संज्ञा पुं० [सं० क्रिमि] दे० 'क्रिमि' । उ०—जे गुरुधन हारक संसारा । क्रिम कुप महँ परत निहारा ।—कबीर सा० पृ० ४६५ ।

क्रिमि
संज्ञा पुं० [सं०] १. कीड़ा । कीट । २. पेट का एक रोग । विशेष—दे० 'कृमि' ।

क्रिमिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्रिमि' [को०] ।

क्रिमिकोंड
संज्ञा पुं० [सं० क्रिमिकोण्ड] चोल देश के एक राजा का नाम । विशेष—यह कट्टर शैव था और इसने अपने देश के सब पंडितों से लिखवा लिया था कि शिव सर्वोत्कृष्ट देवता हैं । इसने रामानुज स्वामी को कैद भी करना चाहा था, पर सफलता नहीं हुई ।

क्रिमिध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमराजी [को०] ।

क्रिमिज
संज्ञा पुं० [सं०] अगुरु । अगर [को०] ।

क्रिमिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाख । लाह ।

क्रिमिनल
वि० [अं०] अपराधी ।

क्रिमिनल इनवस्टिगेशन डिपार्टमेंट
संज्ञा पु० [अं०] [संक्षिप्तरुप सी० आई० डी०] सरकार का वह विभाग या महकमा जो अपराधों का गुप्त से अनुसंधान करता है । भेदिया विभाग । खुफिया महकमा । भेदिया पुलिस । खुफिया पुलिस । सी० आई० डी० ।

क्रिमिनल प्रोसीजर कोड
संज्ञा पुं० [अं०] अपराध और दडं संबंधी विधानों का संग्रह । दंडविधान । जाब्ता फौजदारी ।

क्रिमिभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम ।

क्रिमिशैल
संज्ञा पुं० [सं०] वल्मीक । बाँबी [को०] ।

क्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] मेष राशि ।

क्रियमाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो किया जा रहा हो । वह जो हो रहा हो । २. कर्म के चार भेदों में से एक । वि० दे० 'कर्म ।

क्रिया
संज्ञा स्त्री० '[सं०] १. किसी प्रकार का व्यापार । किसी काम का होना या किया जाना । कर्म । २. प्रयत्न । चेष्टा । हिलना । डोलना ३. अनुष्ठान । आरंभ । ४. व्याकरण का वह अंग, जिससे किसी व्यापार का करना या कराना पाया जाय । जैसे, आना, जाना, मारना, इउत्यादि । ५. शौच आदि कर्म । नित्यकर्म । स्नान, संध्या, तर्पण, आदि कृत्य । उ०—प्रात क्रिया करि गे गुरु पाही । महाप्रमोद प्रेम मन माही ।— तुलसी (शब्द०) । ६. श्रांद्ध आदिप्रेतकर्म । उ०—अविरल भगति माँगि बर गीध गयउ हरिधाम । तेहि की क्रिया यथोचित निज कर कीन्हीं राम ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—क्रिया कर्म = मृतक कर्म । अंत्येष्टि क्रिया । ७. प्रायशिच्त आदि कर्म । ९. उपाय । उपचार । चिकित्सा । ९. न्याय या विचार का साधन । मुकदमे की कार्रवाई । १०. अध्रापन । शिक्षण (को०) । ११. किसी कला पर आधिपत्यया उसका ज्ञान (को०) । १२. आचरण । व्यवहार (को०) । १३. कार्य की विधि (को०) । १४. कोइभी साहित्यिक रचना (को०) ।

क्रियाकलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शास्त्रानुसार किए जानेवाले कर्म । २. किसी व्यवसाय का समस्त विवरण [को०] ।

क्रियाकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोगनिदान की एक विशेष पद्धति । चिकित्सा का प्रकारविशेष । २. रोगनिर्णय । ३. काव्यरचना की विधि [को०] ।

क्रियाकांड
संज्ञा पुं० [सं० क्रियाकाण्ड] वह शास्त्र जिसमें यज्ञादि का विधान हो । कर्मकांड ।

क्रियाकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्य करनेवाला व्यक्ति । २. शिक्षा- रंभ करनेवाला छात्र । ३. इकरारनामा [को०] ।

क्रियाक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] क्रायाकर्म । कार्य करने का ढंग । उ०— दादा भाई के क्रियाक्रम को भी जानते थे ।—प्रेमधन०, भा०२, पृ० ३२० ।

क्रियाचतुर
संज्ञा पुं० [सं०] शृंगार रस में नायक का एक भेद । वह नायक जो क्रिया या घात में चतुर हो, और उसकी सहायता से प्रतिकार्य साधै । उ०—करे क्रिया से चातुरी जो नायक रसलीन । क्रियाचतुर ताकौं कहत कवि 'मतिराम' प्रबीन ।— मति० ग्रं०, पृ० ३२९ ।

क्रियाचार
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य और आचरण । अनेक प्रकार के काम । उ०—पा गत संस्कारों के इंगित, ये क्रियाचार करते निशिचत ।—ग्राम्या, पृ० २३ ।

क्रियातंत्र
संज्ञा पुं० [सं० क्रियातन्त्र] १. तंत्र के चार सोपानों में से एक । २. बुद्ध [को०] ।

क्रियातिपत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] वह काव्यालंकार जिसमें प्रकृत से भिन्न कल्पना करके विषय का वर्णन किया जाय । जैसे,—मन्मथ यदि सहस्त्र दृग धरिहै । तुव सुंदरता निर्णय करिहैं । विशेष—कुछ लोग इसे अतिशयोक्ति का एक भेद और कुछ लोग संभावना अलंकार के अंतर्गत मानते है । व्याकरण शास्त्र में भी यह शब्द प्रयुक्त हैं ।

क्रियात्मक
वि० [सं०] व्यावहारिक । उ०—हिंदी के वे सदा ही परम भक्त रहे है और जिन जिन संस्थाओं में वे रहे उन सब में ही हिंदी की प्रगति क्रियात्मक रुप से करते रहे हैं ।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १२ ।

क्रियाद्धेषी
संज्ञा पुं० [सं० क्रियाद्धेषिन्] धर्मशास्त्र में वह प्रतिवादी जो साक्षी और प्रमाण आदि को न माने । विशेष—ऐसा प्रतिवादी पाँच प्रकार के हीन प्रतिवादियों में माना गया है ।

क्रियानिर्दैश
संज्ञा पुं० [सं०] गवाही । साक्षी [को०] ।

क्रियानिष्ठ
वि० [सं०] स्नान, संध्या, तर्पण आदि नित्यकर्म करनेवाला ।

क्रियापंथ
संज्ञा पुं० [सं० क्रिया + पथ] कर्मकांड । उ०—क्रियापंथ श्रृति नें जो भाष्यो सो सब असुर मिटायो । बृहदभानु ह्वै कै हरि प्रगटे क्षण में फिरि प्रगटायो ।—सुर (शब्द०) ।

क्रियापट्
वि० [सं०] कार्यकुशल । काम में दक्ष [को०] ।

क्रियापथ
संज्ञा पु० [सं०] औषधोपचार की रीति । दवा करने का ढंग [को०] ।

क्रियापद
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में क्रिया अथवा क्रियावाचक शब्द० [को०] ।

क्रियापर
वि० [सं०] कर्तव्यनिष्ठ ।

क्रियापवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] क्रिया की पुर्ति । कार्य की समाप्ति [को०] ।

क्रियापाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. शैव दर्शन के अनुसार विद्यापाद आदि चार पादों में से दुसरा पाद, जिसमें दीक्षा विधि का अंग और उपांग सहित प्रदर्शन हो । २. धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवहार (मुकदमे) के चार पादों या विभागों में से एक, जिसमें वादी के कथन और प्रतिवादी के उत्तर लिखाने के उपरांत वादी अपने कथन या दावे के प्रमाण आदि उपस्थित करता है । वि० दे० 'व्यवहार' ।

क्रियाफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदांत की परिभाषा में कर्म के चार फल या परिणाम, अर्थात उत्पत्ति, आत्पि विकृति और संस्कृति । विशेष—मीमांसा के गुणकर्म या उसके फल के भी ये ही चार भेद किए गए हैं ।

कियाब्रह्मा
संज्ञा पुं० [सं० क्रियाब्रह्मन्] ब्रह्ना का वह रुप जो विश्व के सभी कर्मों का संपादन करता है ।

क्रियाभ्युपगम
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार किसी दुसरे का खेत इस शर्त पर जोतने के लिये लेना कि उसमें जो अनाज उत्पन्न हो, वह खेत का मालिक और जोतनेवाला दोनों आधा बाँट लें । अधिया ।

क्रियामातृका दोष
संज्ञा पुं० [सं०] बालकों का एक रोग जिसमें उन्हें जन्म के दसवें दिन, मास या वर्ष ज्वर, कंप और अधिक मल मुत्र होता है ।

क्रियामाधुर्य
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु अथवा कला का निर्माणगत सौंदर्य [को०] ।

क्रियायोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणों के अनुसार देवताओं की पुजा करना और मंदिर आदि बनवाना । २. क्रिया के साथ संबंध ३. तरकीब और साधन का प्रयोग ।

क्रियार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वेद में यज्ञादि कर्म का प्रतिपादक विधि- वाक्य । विशेष—मीमांसा ने ऐसे ही वाक्य के प्रमाण माना है ।

क्रियार्थकसंज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्याकरण के अनुसार वह संज्ञा जो किसी क्रिया का भी काम देती है ।

क्रियालक्षण योग
संज्ञा पुं० [सं०] जप और ध्यानादि द्धारा आत्मा और ईश्वर का संबंध स्थापित करना ।

क्रियालोप
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदु धर्म में विहित प्रमुख संस्कारों या नित्यनैमित्तिक कर्मो का त्याग [को०] ।

क्रियावसन्न
संज्ञा पुं० [सं०] वह वादी जो साक्षी या प्रमाण न देने के कारण हार जाय ।

क्रियावाचक
वि० [सं०] क्रिया का बोध करानेवाला । क्रियार्थक [को०] ।

क्रियावाची
वि० [सं० क्रियावाचित्] दे० 'क्रियावचक' [को०] ।

क्रियावाद
संज्ञा पुं० [सं०] ज्ञान, कर्म और उपासना नामक तीन वैदिक कांडों में से कर्मकांड को मान्यता प्रदान करना । कर्मवाद । कर्म को प्रधानता देनेवाला सिद्धांत । उ०—क्रियावाद वह मत है जिसके अनुसार आत्मा कर्मों से प्रभावित होती है ।—हिंदु० सभ्यता० पृ० २२७ ।

क्रियावादी
संज्ञा पुं० [सं० क्रियावादिन] वादी अभियोक्ता [को०] ।

क्रियावान्
वि० [सं०] कर्मप्रवृत्त । कर्मनिष्ठ । कर्मठ ।

क्रियावाही
वि० [सं० क्रिया+ वाही] कर्म का वहन करनेवाला । कर्म का भार उठानेवाला । उ०—वास्तव में, इतिहास तो मानवी क्रियावाही समर्थताओं तथा उनसे उदभुत कारनामो का, मानसिक शक्तियों से जनित विविध घटनाओं का एवं विकासक्रम के मुल में संयोजित विशेष प्रवृत्तियों का पुंजीभूत आलेखन है ।—आ०, भा०, पृ० ३५ ।

क्रियाविदग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह नायिका जो नायक पर किसी क्रिया द्धारा अपना भाव प्रकट करे ।

क्रियावेशिषण
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण के अनुसार वह शब्द जिससे क्रिया के किसी विशेष काल, भाव या रीति आदि का बोध हो । जैसे, अब, तब, यहाँ, वहाँ, क्रमश? अचानक इत्यादि । जैसे,—(क) वह धीरे धीरे चलता है । (ख) वह अब जायगा ।

क्रियाशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ईशवर से उत्पन्न वह शक्ति जिससे ब्रह्नांड की सृष्टि का होना माना जाता है । सांख्य में इसी को प्रकृति और वेदांत में माया कहा है ।

क्रियाशील
वि० [सं०] क्रियावान् । कर्मठ । कर्मनिष्ठ [को०] ।

क्रियाशुन्य
वि० [सं०] कर्महीन ।

क्रियासंक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रियासङंक्रान्ति] ज्ञानदान । शिक्षण [को०] ।

क्रियास्नान
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र के अनुसार स्नान की एक विधि, जिसके अनुसार स्नान करने से तीर्थस्थान का फल होता है ।

क्रियेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रियेन्द्रिय] कर्मोद्रिय [को०] ।

क्रिश्चन †
संज्ञा पुं० [अं० क्रिश्चियन] दे० 'क्रिस्तान' । उ०—घरवालों का कौतुहल बढ़ चला । इस समय काशी में जोरों से लोग क्रिश्चन बन रहे थे ।—काले०, पृ० ६४ ।

क्रिसन दीपायन पु
संज्ञा पुं० [सं० कृष्णाद्धैपायन] वेदव्यास । उ०— बालकीम रिषराज क्रिसन दीपायन धारिय । कोटि जनम संभवै तोय हरि नाम अपारिय ।—पृ० रा०, २ ।५८६ ।

क्रिसान पु
संज्ञा पुं० [सं० कृशानु] दे० 'कृशानु' उ०—अग्गैं सुंदति पंतिय विरुर । षलकंत अंदु मद झरत भुर । धजनेज चमर बंबर बिमान । मन हु कि पब्ब पल्लव क्रिसान ।—पृ० रा०, १ ।६२४ ।

क्रिस्टल
संज्ञा पुं० [अं०] १. स्फटिक । बिल्लौर । २. शोरे आदि का जमा हुआ रवादार टुकड़ा । कलम ।

क्रिस्तान
संज्ञा पुं० [अं० क्रिश्चियन्] ईसा के मत पर चलनेवाला । ईसाई ।

क्रिस्तानी
वि० [हिं० क्रिस्तान+ ई (प्रत्य०)] १. ईसाइयों का । २. ईसाई मत के अनुसार ।

क्रिखी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कृषि] दे० 'कृषि' । उ०—जैसे क्रीखी करै किसाना । निस आसर तेहि तंतु समाना ।—सं० दरिया, पृ० ६० ।

क्रीज
संज्ञा स्त्री० [अं० क्रीज] १. इस्तरी करके कपड़े पर छोड़ा हुआ निशान । लोहा करते समय पतलुन में पड़ी हुई धारी । उ०— कहीं से बाल बराबर भी क्रीज बिगड़ने नहीं पाई थी ।— सन्यासी, पृ० ३५७. । .२. क्रिकेट के खेल में वह निशान किया हुआ स्थान जिसके अंदर बल्लेवाला खेलता है । यदि खिलाड़ी उसके बाहर हो और गेंद स्टंप पर लग जाय तो खिलाड़ी आउट हो जाता है । ३. सिकुड़न ।

क्रीट पु †
संज्ञा पुं० [सं० किरीट] किरीट नाम का शिरोभुषण । उ०— क्रीट मुकुट शोभा बनी शुभ अंग बनी बनमाल । सुरदास प्रभु गोकुल जनमे, मोहन मदन गोपाल ।—सुर (शब्द०) ।

क्रीटधर पु
वि० [सं० किरीटधर] किरीट धारण करनेवाला (कृष्ण) । उ०—कान्हा कुरम कृपानिधि, केसव कृश्व कृपाल । कुंजबिहारी क्रीटधर, कंसासुर को काल ।—दया० पृ० १८ ।

क्रीड
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेल । क्रीड़ा । २. परिहास । मनोविनोद [को०] ।

क्रीडक
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेलनेवाला । खिलाड़ी । २. द्वाररक्षक । द्वारपाल [को०] ।

क्रीडन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेल । क्रीड़ा । २. खिलौना । खेलने की वस्तु [को०] ।

क्रीडनक
संज्ञा पुं० [सं०] खिलौना [को०] ।

क्रीडनीय, क्रीडनीयक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्रीडक' ।

क्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रीड़ा] १. कल्लोल । केलि । आमोद प्रमोद । खेलकुद । २. ताल के सात मुख्य भेदों में से एक जिस ताल में केवल एक प्लुत हो, उसे क्रीड़ा ताल कहते हैं ।—(संगीत) । ३. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में यगण और एक गुरु (/?/) होता है । उ०—युगौ चारो । हरी तारो । करै कीड़ा । रखौ ब्रीड़ा ।

क्रिड़ाकानन
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ा कानन] दे० 'क्रीड़ावन' [को०] ।

क्रीड़ाकुट
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ा+कुट=पर्वत] दे० 'क्रीड़ाशैल' । उ०—बने मनोहर त्रीड़ाकुट विचित्र ये ।—करुणा०, पृ० ३ ।

क्रीड़ाकोप
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ाकोप] खेल में रुठना । बनावटी गुस्सा [को०] ।

क्रीड़ागिरि
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ागिरि] दे० 'क्रीड़ाशैल' । उ०—क्रीड़ा— गिरि ते अलिन की अवली चली प्रकाश ।—केशव (शब्द०) ।

क्रीड़ागृह
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ागृह] केलिमंदिर [को०] ।

क्रीड़ाचक्र
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ाचक्र] छह यगड़ का एक वृत्त जिसका दुसरा नाम महामोदकारी वृत्त है । उ०—यचौ यो यशोदा जु को लाडिला जो कलापुर्मधारी । जिन्हीं भक्त गावैं सदा चित्त लाये खरारी पुकारी । यही पुरवैगो सवै लालसा तो लला देवकी को । करै गाथ जाको महामोदकरी सबै काव्य नीको ।

क्रीड़ानारी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रीड़ानीरा] वारवनिता । वेश्या [को०] ।

क्रीड़ा भाँड
संज्ञा पुं० [सं० क्रीडा+ भाणड] क्रीड़ा की वस्तु । खिलौना । उ०—जो देखियत यह बिस्व पसारो । सो सब क्रीड़ा भाँड तुम्हारो ।—नंद ग्रं०, पृ० २८२ ।

क्रीड़ामृग
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ामृग] खेल के लिये पाला हुआ हरिना [को०] ।

क्रीड़ारत
वि० [सं० क्रीड़ारत] खेल में लगा हुआ । खिलावाड़ में मग्न । उ०—उमड सृष्टि के अंतहीन अबर से घर से क्रीड़रत बालक से ।—अपरा०, पृ० ३३ ।

क्रीड़ारत्नक
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ारत्न] रति कार्य । मैथुन क्रिया [को०] ।

क्रीड़ारथ
संज्ञा पुं० [सं० क्रीडारथ] फुलों का रथ ।

क्रीड़ावन
संज्ञा पुं० [सं० क्रीडावन] पाई वाग । नजर बाग ।

क्रीड़ाशैल
संज्ञा पुं० [सं० क्रीड़ाशैल] बनावटी पर्वत । नकली पर्वत ।

क्रीड़ित
संज्ञा पुं० [सं० क्रीडित] १ खेल । क्रीड़ा । २. वह जो खेल चुका हो । खेला हुआ [को०] ।

क्रीत (१)
वि० [सं०] क्रय किया हुआ । खरीदा या मोल लिय हुआ ।

क्रीत (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनु के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक जो मोल लिया गया हो । क्रीतक । २. पंद्रह प्रकार के दासों में से एक जो मोल लिया गया हो ।

क्रीत (३)पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कीर्ति] यश । कीर्ति । सुनाम । उ०— महाराज मोता कहुँ क्रीतां सुणे नीतां सुर ।—रघु० रु०, पृ० १४५ ।

क्रीतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक, जो माता पिता को धन देकर उनसे खरीदा गया हो । विशेष—ऐसे पुत्र का केवल अपने मोल लेनेवाले की संपत्ति के अतिरिक्त पैतृक संपत्ति पर किसी प्रकार का अधिकार नहीं होता । आजकल इस प्रकार का पुत्र बनाने का अधिकार नहीं ।

क्रीतक (२)
वि० खरीद करने से प्राप्त । क्रय से प्राप्त [को०] ।

क्रीतदास
संज्ञा पुं० [सं० क्रीत+ दास] खरीदा हुआ दास । गुलाम । उ०—भाइयों के शेर और क्रीतदास तुर्कों के ।—अपार, पृ० ९४ ।

क्रीतानुशय
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र के अनुसार अठारह प्रकार के विवादों में से एक । जब कोई मनुष्य किसी चीज को मोल लेने के बाद, नियमों के विरुद्ध, उसे फेरना चाहता है, तो उस समय जो विवाद उपस्थित होता है, उसे क्रीतानुशय कहते हैं ।

क्रीतारथ पु
वि० [सं० कृतार्थ] दे० 'कृतार्थ' । उ०—रहेउ दोउ कर जोरि चरन चित दीन्हेउ । मोर जन्म हरि आहु क्रीतारथ कीन्हेउ ।—अकबरी०, पृ० ३३९ ।

क्रीन पु †
संज्ञा पुं० [सं० किरण] दे० 'किरण' । उ०—महा मोह तम पुंज अपारा । वचम तुम्हार क्रीन रविधारा ।—कबीर सा०, पृ० ५२० ।

क्रील पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रीड़ा] दे० 'क्रीड़ा' । उ०—तरु पत्त गत्त निय वसन करि सुनि ब्रह्मा संकर हस्यौ । तिन टेर बेर बंसी वजिय रास क्रीत माधव रस्यौ ।—पृ० रा०, २ ।३८४ ।

क्रीलना पु
क्रि० अ० [देश०] खेलना । क्रीड़ा करना ।

क्रीला पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रीड़ा] दे० 'क्रीड़ा' । उ०—सुखसागर क्रीला करै, पुरण परिमिति नाहिं ।—दादु०, पृ० ५८२ ।

क्रुद्ध
वि० [सं०] १. कोपयुक्त । क्रोध में भरा हुआ । २. क्रुर । निर्दय [को०] ।

क्रुमुक
संज्ञा पुं० [सं०] सुपारी ।

क्रुशवा
संज्ञा पुं० [सं० क्रुश्वन्] श्रृगाल । सियार । गीदड़ ।

क्रुष्ट (१)
वि० [सं०] १. आहुत । पुकारा या बुलाया हुआ । २. तिरस्कृत । कोसा हुआ । अपमानित [को०] ।

क्रुष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. चीखना । चिल्लाना । २. रुटन । रोना । ३. शोर गुल । आवाज [को०] ।

क्रुजर
संज्ञा पुं० [अं०] तेज चलनेवाला सशस्त्र या हथियारबंद जहाज जिसका काम अपने देश के जहाजों की रक्षा करना और शत्रु के जहाजों को नष्ट करना या लुटना है । यह युद्ध के अवसर पर भी काम आता है । रक्षक जहाज ।

क्रुर (१)
वि० [सं०] [स्त्री० क्रुरा] १. परपीड़क । दुसरों को कष्ट पहुँचानेवाला । २. निष्ठुर । निर्दय । जालिम । ३. कठिन । ४. तीक्ष्ण । ५. तीखा । ६. उष्ण । गरम । ६. नीच । बुरा । खराब । ७. घोर ।—(डिं०) । ८. अपक्व । कच्चा (को०) । ९. घायल । आहत (को०) । १०. खुनी । हिंसक (को०) । ११. ठोस । कड़ा (को०) ।

क्रुर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पका हुआ चावल । भात । २. लाल कनेर । ३. बाज पक्षी । ४. सफेद चील । कंक । ५. भुतांकुश । गाब— जुवाँ । ६. ज्योतिष में विषम (पहली, तीसरी, पाँचवी, सातवीं नवीं और ग्यारहवीं) राशियाँ । ७. रवि, मंगल, शनि, राहु और केतु ये पाँच ग्रह जिन्हें पापग्रह भी कहते हैं । विशेष—जिस राशि में कोई पापग्रह हो उसमें यदि शुभग्रह आ जाय, तो वह भी क्रुर कहलाता है । पाराशर के मत से लग्न से तीसरे, छठे या ग्यारहवें घर का स्वामी—चाहे जो ग्रह हो—क्रुर या पापग्रह कहलाता है । क्रुरग्रहयुक्त तिथि या नक्षत्र में यात्रा या विवाह आदि शुभ कर्म वर्जित है । ८. वध । हत्या (को०) । ९. आघात । घाव । चोट (को०) । १०. एक प्रकार का घोड़ा जो अशुभ माना गया है (को०) । ११. क्रुरता । निर्दयता । १२. भीषण आकति या रुप (को०) ।

क्रुरकर्मा
संज्ञा पुं० [सं० क्रुरकर्मन्] १. क्रुर काम करनेवाला । २. तितलौकी का पेड़ । ३. सुरजमुखी । अर्कपुष्पी ।

क्रुरकोष्ठ
वि० [सं०] जिसका कोठा बहुत कड़ा हो । जिसका पेट कड़ी दस्तावर दवाओं से भी साफ न हो ।

क्रुरगंध
संज्ञा पुं० [सं० क्रुरगन्ध] गंधक ।

क्रुरग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्रर' ६ और ७ ।

क्रुरचरित
वि० [सं०] निर्दय । क्रुरकर्मा [को०] ।

क्रुरचेष्टित
वि० [सं०] दे० 'क्रुरचरित' [को०] ।

क्रुरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निष्ठुरता । निर्दयता । कठोरता । २. दुष्टता ।

क्रुरदंती
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रुरदन्ती] दुर्गा का एक नाम ।

क्रुरद्दक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनिग्रह । २. मंगल ग्रह ।

क्रुरट्टक (२)
वि० १. दुष्ट । खल । २. बुरी दृष्टिवाला (को०) ।

क्रुरधुर्त
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण धत्तुर । काला धतुर [को०] ।

क्रुररव
संज्ञा पुं० [सं०] स्यार । श्रृगाल [को०] ।

क्रुररावी
संज्ञा पुं० [सं० क्रुरराविन्] द्रोण काक । डोम कौवा [को०] ।

कूरलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शनि ग्रह [को०] ।

क्रुरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लाल फुल की गदहपुर्ना । २. कौड़ी ।

क्रुरा (२)
क्रि० स्त्री० क्रुर स्वभाववाली ।

क्रुराकृति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रावण । दशमुख [को०] ।

क्रुराकृति (२)
वि डरावने रुपवाला [को०] ।

क्रुराचार
वि० [सं०] निर्दय आचरणवाला [को०] ।

क्रुरात्मा (१)
वि० [सं० क्रुरात्मन्] दुष्ट प्रकृति का । दुष्टस्वभाववाला ।

क्रुरात्मा (१)
संज्ञा पुं० शनिग्रह ।

क्रुराशय
वि० [सं०] १. निर्दय या कठोर स्वभाव का । २. भयंकर जीवों से युक्त (नदी, नद आदि) [को०] ।

क्रुस
संज्ञा पुं० [अं० क्रास] ईसाइयों का एक प्रकार का धर्मचिह्यन जिसका आकार त्रिशुल से मिलता जुलता होता है और जिसमें दो रेखाएँ एक दुसरे को काटती हुई होती हैं । यह कई प्रकार का होता है । जैसे,— † † x । सलीब । विशेष—इस चिह्यन अभिप्राय उस सुली से है, जो ईसा के मारने के लिये खड़ी की गई थी और जिसका आकार † था । उन दिनों रोमन लोग इसी प्रकार की सुली पर अपराधियों को चढ़ाते थे ।

क्रेडिट
संज्ञा पुं० [अं०] बाजार में वह मान मर्यादा जिसके कारण मनुष्य लेना देन कर सकता हो । साख । जैसे,—बाजार में अब उनका कोइ क्रेडिट नहीं रहा, अब वे एक पैसे का भी माल नहीं ले सकते ।

क्रेता
संज्ञा पुं० [सं० क्रतृ] खरीदनेवाला । मोल लेनेवाला । खरीददार ।

क्रेतृघसंर्ष
संज्ञा पुं० [सं० क्रेतृडघर्ष] खरीदनेवालों की चढ़ा ऊपरी ।—[को०] ।

क्रेंय
वि० [सं०] खरीदने लायक [को०] ।

क्रेडिन
संज्ञा पुं० [सं०] साकमेध यज्ञ का एक हवि जों मरुत देवता के उद्देशय से दिया जाता है ।

क्रैडिनीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ ।

क्रेंच
संज्ञा पुं० [सं० क्रोन्च] क्रौच पर्वत ।

क्रोड (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आलिंगन में दोनों बाँहों के बीच का भाग । भुजांतर । वक्ष?स्थल । २. गोद । अँकवार । कोला । ३. सुअर । ४. शनिग्रह । ५. वाराहीकंद । ६. किसी वस्तु का मध्य भाग (को०) । ७. कोटर । वृक्ष का खोड़र [को०] ।

क्रोड (१)पु †
वि० [सं० कोटि, हिं० करोड़] करोड़ । उ०—तेंतीस क्रो़ड़ देवता इठ्ठयासी हजार रिषी ।—रघु०, रु०, पृ० २४२ ।

क्रोडकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाराहीकंद [को०] ।

क्रोडचुडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी गोरखमुंड़ी (को०) ।

कोड़पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पत्र जो किसी पुस्तक या समाचारपत्र में उसकी पुर्ति के लिये ऊपर से लगाया जाय । अतिरिक्त पत्र । पुरक । जमीमा ।

क्रोडपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भटकटैया । कटेरी ।

क्रोडपाद
संज्ञा पुं० [सं०] कच्छप । कछुवा [को०] ।

क्रोडांक, क्रोडांध्रि
संज्ञा पुं० [सं० क्रोडाङ्क क्रोडाङिंध्र] दे० 'क्रोडपाद' ।

क्रोडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वारही । शुकरी [को०] ।

क्रोडीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] आलिंगन करना । छाती से लगना [को०] ।

क्रोडोमुख
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'गैडा' [को०] ।

क्रोडेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मोथा ।

क्रोध
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्त का वह तीव्र उद्वेग जो किसी अनुचित और हानिकारक कार्य को होते हुए देखकर उत्पन्न होता है और जिसमें उस हानिकारक कार्य करनेवाले से बदला लेने की इच्छा होती है । कोप । रोष । गुस्सा । विशेष—वैशेषिक में क्रोध को द्वेष का एक भेद माना है और उसे द्रोह आदि की अपेक्षा शीघ्र नष्ट हो जानेवाला कहा है । भगवदगीता के अनुसार जो अभिलाषा पुरी नहीं होती है, वही रजोगुण के कारण बदलकर 'क्रोध' बन जाती है । पुराणानुसार यह शरीरस्थ दुष्ट शत्रुओं में से एक है । साहित्य में इसे रौद्र रस का स्थायी भाव माना है । पर्या०—अमर्ष । प्रतिघ । भीम । क्रुधा । ऱुषा । क्रुत । २. साठ संवत्सरों में से उनसठवाँ संवत्सर । इन संवत्सर में आकु— लता और क्रोध की वृद्धि होती है ।—(ज्योतिष) ।

क्रोधकृत ऋण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो क्रोध में आकर किसी का धन नष्ट कर देने के कारण लेना पड़ा हो ।

क्रोधज
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोध से उत्पन्न, मोह ।

क्रोधन (१)
वि० [सं०] क्रोधी । गुस्सैल । कोप करनेवाला ।

क्रोधन (२)
संज्ञा पुं० १. कोप करना । गुस्साना । २. कौशिक के एक पुत्र का नाम जो गर्ग मुनि के शिष्य थे । ३. अयुत के पुत्र और देवातिथि के पिता का नाम । ४. क्रोध नामक संवस्तर ।

क्रोधना
वि० स्त्री० [सं०] क्रोधी स्वभाववाली । कर्कशा । वामा [को०] ।

क्रोधभवन
संज्ञा पुं० [सं०] कोपभवन ।

क्रोधमुर्छिँत
वि० [सं०] क्रोध के कारण विवेक खो देनेवाला । क्रोध से पागल । आपे से वाहर ।

क्रोधवंत
वि० [हिं० क्रोध+वत=वाला] गुस्से में भरा हुआ । कुपित । उ०—मांडव्य धर्मराज पै आयो । क्रोधवंत यह बचन सुनायो ।—सुर (शब्द०) ।

क्रोधवश (१)
क्रि० वि० [सं०] क्रोधवशत् । क्रोध में । जैसे,—उसने क्रोधवश ऐसा कहा ।

क्रोधवश (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राक्षस का नाम । २. काद्रबेय़ नामक साँपों में से एक ।

क्रोधवशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्ष प्रजापति की एक कन्या और कश्यप प्रजापति की आठ पत्नियों में से एक ।

क्रोधहा
संज्ञा पुं० [सं० क्रोधहन्] विष्णु का एक नाम [को०] ।

क्रोधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दक्ष प्रजापति की एक कन्या [को०] ।

क्रोधालु
वि० [सं०] क्रोधी । गुस्सैल (को०) ।

क्रोधित पु
वि० [हिं० क्रोध] कुपित । क्रुद्ध । क्रोधयुक्त ।

क्रोध (१)
वि० [सं० कोधिन्] [स्त्री० क्रोधिनी] क्रोध करनेवाला । गुस्सावर ।

क्रोधी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रोध नामक सवत्सर । २. महिष । भैंसा (को०) । ३. कुत्ता । श्वान (को०) । ४. गंडक । गैड़ा (को०) ।

क्रोधी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में गंधार स्वर की दो श्रुतियों में से अंतिम श्रुति ।

क्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोस । २. चिल्लाना । चीख । कोलाहल (को०) । ३. रोना । रुदन (को०) । ४. अडतालीस मिनट का समय (को०) ।

क्रोशताल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बड़ा आनद्ध बाजा जिसे ढक्का कहते हैं ।

क्रोशन
संज्ञा पुं० [सं०] चीख । चिल्लाहट । चिल्लाना [को०] ।

क्रोशस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० क्रोश+ स्तम्भ] सड़क के किनारे एक एक कोस की दुरी पर गाड़ा गया वह पत्थर जिसपर किसी स्थान से दुरी का परिमाण अंकित रहता है (अं० माइल स्टोन) । उ०— यदि प्रेमचंद का कथा साहित्य ही क्रोशस्तंभ हो, तो अच्छा होगा ।—प्रेंम०, और गोर्की, पृ० २०९ ।

क्रोशिया
संज्ञा पुं० [अं० क्रोचैट] लोहे, प्लास्टिक आदि की बनी वह सलाई जिससे गंजी, मोजा, स्वेटर आदि बुना जाता है ।

क्रोष्टा
संज्ञा पुं० [सं० क्रोष्ट्ट] शृगाल । स्यार [को०] ।

क्रोष्टु, क्रोष्टुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्रोष्टा' [को०] ।

क्रोष्टुफल
संज्ञा पुं० [सं०] इंगुदी का फल [को०] ।

क्रोष्टुमेखला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पिठवन । पृश्निपर्णिका [को०] ।

क्रोष्टुशिर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्रोष्टुशीर्यक' ।

क्रोष्टुशीर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें वात के कारण घुटनों में पीड़ा और सुजन होती है ।

क्रोष्ट्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्यारिन । श्रृगाली । २. कृष्णभुमि— कुष्मांड । ३. कृष्णविदारी । ४. लांगली [को०] ।

क्रौंच
संज्ञा पुं० [सं० क्रोन्च्च] १. कराँकुल नामक पक्षी । २. हिमालय के अंतर्गत एक पर्वत का नाम जो पुराणानुसार मैनाक का पुत्र है । ३. पुराणानुसार सात द्विपो में से एक । विशेष—विष्णु पुराण के अनुसार यह द्विप दधिमंडोद समुद्र से घिरा हुआ है और द्दतिमान् नामक राजा यहाँ अधिपति था । पर भागवत के अनुसार यह क्षीरसागर से घिरा हुआ है और प्रियव्रत का पुत्र धृतपृष्ठ इसका राजा था । इस द्विप के सात खंड या वर्ष है और प्रत्येक वर्ष में एक नदी और एक पहाड़ है । ४. एक राक्षस का नाम जो मय दानव का पुत्र था और जिसे क्रौंच द्विप में स्कंद भगवान् ने मारा था । यौ०—क्रौचदारण, क्रौचरिपु, क्रौंचशत्रु, क्रौंचसुदन=(१) कार्तिकेय । (२) परशुराम । ५. अर्हतों की एक ध्वजा । ६. एक प्रकार का अस्त्र । उ०—अग्नि अस्त्र अरु पर्वतास्त्र पुनि त्यों पवनास्त्र प्रमाथी । शिर अस्त्र क्रौंच अस्त्रहु पुनि लेहु लषण के साथी—रघुराज (शब्द०) । ७. एकवर्ण वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण सगण, भगण, चार नगण अंत में एक गुरु (ऽ।। ऽऽऽ ।।ऽ ऽ।। ।।। ।।। ।।। ।।। ऽ) होता है । जैसे—भुमि सुभौना चौगुन राजै बसति सुमतियुत जहँ नर अरु ती । शील सनेहा और नय विद्या लखि तिन कर मन हरषत धरुती । पुत जहाँ है मानत माता जनकसहित नित अरचन करि कै । नारि सुशीला क्रौंच समाना पति बचननि सुन तिउ तन धरि कै ।

क्रौंचपदी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रौन्च्चपदी] एक तीर्थ का नाम ।

क्रौचरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० क्रौन्च्चरन्ध्र] हिमालय पर्वत की एक घाटी का नाम । विशेष—पुराणानुसार परशुराम ने क्रौच पर्वत को एक तीर से छेदकर यह घाटी बनाई थी । ऐसा प्रसिद्ध है कि हंस इसी मार्ग से मानसरोवर जाते और वहाँ से आते हैं ।

क्रौचादन
संज्ञा पुं० [सं० क्रौन्चादन] कमलनाल ।

क्रौचादनी
संज्ञा स्त्रीं० [सं० क्रौन्चादनी] कमलगट्टा । कमल का बीज [को०] ।

क्रौचाराति, क्रौंचारि
संज्ञा पुं० [सं० क्रौन्चाराति, क्रौन्चारि] १. कार्तिकेय । २. परशुराम [को०] ।

क्रौचारुण
संज्ञा पुं० [सं० क्रौन्चारुण] एक प्रकार की व्युहरचना ।

क्रौंची
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रौन्ची] १. कश्यप ऋषि की ताम्रा नामक पत्नी से उत्पन्न पाँच कन्याओं में से एक । उलुक आदि पक्षियों की माता थी । २. मादा कराकुल [को०] ।

क्रौर्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्रुरता । हृदयीनता । [को०] ।

क्रौशशतिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सौ कोस चलनेवाला संन्यासी । २. वह व्यक्ति (शिक्षक) जिससे सौ कोस दुर से आकर मिला जाय [को०] ।

क्लब
संज्ञा पुं० [अं०] साहित्य, विज्ञान, राजनीति आदि सार्वजनिक विषयों पर विचार करने अथवा आमोद प्रमोद के लिये संगठित की हुई कुछ लोगों की समिति ।

क्लम
संज्ञा पुं० [सं०] थकावट । श्राति । क्लांति ।

क्लमथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आयास । परिश्रम । मिहनत । २. अधिक परिश्रम या आलस्य के कारण शरीर की थकावट या शिथिलता ।

क्लमथु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्लमथ' ।

क्लर्क
संज्ञा पुं० [अं० क्लार्क] किसी कार्यालय का वह कर्मचारी जो पत्र व्यवहार करने, नकल करने तथा हिसाब आदि रखने का काम करता हो । मुंशी । लेखिया । मुहर्रिर ।

क्लर्की
संज्ञा स्त्री० [हिं० कलर्क+ ई (प्रत्य०)] क्लर्क का काम । लेखक का काम ।

क्लांत
वि० [सं० क्लान्त] १. शका हुआ । श्रांत । २. म्नान । मुरझाया हुआ (को०) । ३. क्षीणकाय । दुबला पतला [को०] ।

क्लांति
संज्ञा स्त्री० [सं० क्लान्ति] १. परिश्रम । २. थकावट । उ०—सरयु कब क्लांति पा रही, अब भी सागर ओर जा रही । साकेत, पृ० ३२४ ।

क्लाउन
संज्ञा पुं० [अं०] सरकस आदि का मसखरा ।

क्लाक
संज्ञा स्त्री० [अं० क्लाँक] बड़ी घड़ी जो लकड़ी आदि के चौखटौं में जड़ी होती है । यह प्राय? लंगर के सहारे चलती और घंटे आदि बजाती है । धरमघड़ी ।

क्लाक टावर
संज्ञा पुं० [अं०] वह मीनार जिसमें सर्वसाधारण को समय बतलाने के लिये बड़ी घड़ी लगी रहती है । घंटाघर ।

क्लारनेट
संज्ञा पुं० [अं० क्लैरिआँनेट] एक प्रकार का अंग्रेजी बाजा जो मुँह से बजाया जाता है । यह शहनाई के आकार और प्रकार का, पर उससे कुछ अधिक लंबा होता है ।

क्लारेट
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार की विलायती शराब जो लाल रंग की होती है ।

क्लास
संज्ञा पुं० [अं०] कक्षा । श्रेणी । दरजा । जमाअत ।

क्लिन्न
वि० [सं०] आर्द्र । तर । गीला । यौ०—क्लिन्नाक्ष =गीली आँखवाला । चौंधियाई आँखवाला ।

क्लिन्नवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०] क्लिष्टवर्त्स नामक आँख का रोग ।

क्लिन्नहृद्
वि० [सं०] आर्द्रहृदय । दयालु [को०] ।

क्लिप
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह कमानी जो चिट्ठियों, कागजों आदि को एकत्र करके उनमें इसलिये लगा दी जाती है कि जिसमें वे इधर उधर न हो जायँ । यह सादी, पंजे के आकार की तथा और कई तरह की होती है । पंजा । चुटकी ।

क्लिशित
वि० [सं०] जिसे बहुत क्लेश हुआ हो ।

क्लिष्ट
वि० [सं०] १. क्लेशयुक्त । क्लिशित । दु?खी । दु?ख सें पीड़ित । २. बेमेल (बात) । पुर्वापरविरुद्ध (वाक्य) । ३. कठिन । मुशकिल । जैसे—क्लिष्ट भाषा । क्लिष्ट शब्द । ४. जो कठिनता से सिद्ध हो । खींच तान का । जैसे,—क्लिष्ट कल्पना । ५. मुरझाया हुआ । म्लान (को०) । ६. क्षतियुक्त (को०) । ७. शर्मिंदा किया हुआ (को०) । यौ०—क्लिष्टवर्त्म ।

क्लिष्टघात
संज्ञा पुं० [सं०] साँसत से मारना । तकलीफ देकर मारना [को०] ।

क्लिष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्लिष्ट का भाव । २. दे० 'क्लिष्टत्व' ।

क्लिष्टत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्लिष्ट का भाव । कठिनता । क्लिष्टता । २. अलंकार शास्त्र के अनुसार काव्य का वह दोष जिसके कारण उसका भाव समझने में कठिनता हो । जैसे—ग्रहपति सुंतहित अनुचर को सुत जारत रहत हमेस ।—सुर (शब्द०) । यहाँ कवि ने सिधे यह न कहकर कि काम सदा जलाया करता हैं, कहा है—ग्रहपति सुर्य के पुत्र सुग्रीव उनके हित (मित्र) रामचंद्र, उनके अनुचर हनुमान और उनका पुत्र मकरध्वज (काम) सदा जलाया करता है । विशेष—यदि काव्य में किसी एकपद का अर्थ लगाने के लिये पहले या पीछे के दो तीन पदों तक जाना पड़े, अथवा उनके साथ उसका अन्वय करना पड़े, तो वह भी 'क्लिष्टत्व' दोष माना जाता है ।

क्लिष्टवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० क्लिष्टर्त्मन्] आँख का एक रोग, जिसमें पलक में लाली और पीड़ा होती है । इस रोग में प्राय? अस्त्र—चिकित्सा कराने की आवश्यकता हुआ करती है ।

क्लिष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पंतजलि के अनुसार वे चित्तवृत्तिया—जिनसे आत्मा को कष्ट पहुँचता हो ।

क्लिष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीड़ा । व्यथा । दु?ख । कष्ट । २. तीमारदारी । सेवा [को०] ।

क्लीत
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसाप कीड़ों की एक जाति जिसकी उत्पत्ति मल मुत्र और सड़ी लाश आदि से होती है और जिनके काटने से पित्त कुपित होता है ।

क्लीतक
संज्ञा पुं० [सं०] मुलहठी । जेठी मधु [को०] ।

क्लीतकिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] नील का पेड़ ।

क्लीतनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुलिका । मुलेठी । २. अतिरसा [को०] ।

क्लीब
वि० पुं० [सं०] दे० 'क्लीव' ।

क्लीबता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कलीवता' ।

क्लीबत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्लीवत्व' ।

क्लीव
वि० पुं० [सं०] १. षंढ । नपुंसक । नामर्द । २. डरपोक । कायर । कमहिम्मत । ३. नीच । अधम (को०) । ४. सुस्त । आलसी (को०) । ५. व्याकरण में नपुंसक लिंग का ।

क्लीवता
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्लीव का भाव । वि० दे० 'नपुंसकता' ।

क्लीवत्व
संज्ञा पुं० [सम०] नपुंसकता । हिजड़ापन । नामर्दी ।

क्लृप्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुकर्रर लगान या महसुल । नियत कर । विशेष—नदियों के किनारे जो गाँव होते थे । उनको चंद्रगुप्त के समय में स्थिर तथा नियत कर देना पड़ता था । २. उपस्थित । तैयार । कृत (को०) । ३. सज्जित । श्रुगारित (को०) । ४. कटा हुआ । कृंतित (को०) । ५. निशिच्त [को०] ।

क्लेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ओदापन । गीलापन । आर्द्रता । २. पसीना । ३. दु?ख । कष्ट (को०) । ४. घाव या फोड़े का स्र्वाव । मवाद । पीव (को०) ।

क्लेदक (१)
वि० [सं०] १. पसीना लानेवाला । २. गीला या नम करने वाला ।

क्लेदक (२)
संज्ञा पुं० शरीर में एक प्रकार का कफ जिससे पसीना उत्पन्न होता है । क्लेदन । ३. शरीर में की दस प्रकार की अग्नियों में से एक ।

क्लेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर में पाँच प्रकार की श्लेष्माओं में से एक । यह आमाशय में उत्पन्न होती, वहीं रहती और भोजन पचाती है । शेष चारों श्लेष्माएँ भी इसी की सहायता से काम करती हैं । २. पसीना लाने का कार्य ।

क्लेदु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्र । २. संनिपात ।

क्लेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. दु?ख । कष्ट । व्यथा । वेदना । क्रि० प्र०—उठाना ।—देना ।—पाना ।—भोगना ।—सहना । विशेष—योग शास्त्रानुसार क्लेश के पाँच भेद हैं—अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश । बोद्ध शास्त्रानुसार क्लेश दस हैं—लोभ द्धेष, मोह, मान, दृष्टि, चिकित्सा, स्थिति, उद्धव्य, अहीक और अनुताप । २. झगड़ा । लड़ाई । टंटा । जैसे,—दिन रात क्लेश करना अच्छा नहीं । क्रि० प्र०—करना ।—मचाना ।—रखना ।

क्लेशक, क्लेशकर
वि० [सं०] कष्ट पहुँचानेवाला । दुखदायी [को०] ।

क्लेशक्षम
वि० [सं०] कष्ट, दुख सहने में समर्थ [को०] ।

क्लेशित
वि० [सं०] जिपे क्लेश हो । दु?खित । पीड़ित ।

क्लेशी
वि० [सं० क्लेशिन्] १. क्लेशकर । दु?खद । २. आहत करनेवाला । चोट पहुँचानेवाला [को०] ।

क्लेष्टा
वि० [सं० क्लेष्ट] कष्ट देनेवाला । क्लेशकर ।

क्लेस पु
संज्ञा पुं० [सं० क्लेश] दे० 'क्लेश' ।

क्लैव्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्लीवता । नपुंसकता । हिजड़ापन । वि० दे० 'नपुंसकता' ।

क्लोम
संज्ञा पुं० [सं०] दाहिनी ओर का फेफड़ा । फुफ्फुस । २. प्यास । पिपासा ।—माधव०, पृ० १७१ ।

क्लोमस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] हृदय का वह स्थान जहाँ प्यास उतप्न्न होती है ।—माधव०, पृ० १०५ ।

क्लोरोफार्म
संज्ञा पुं० [अं० क्लोरोफाँर्म] एक प्रसिद्ध तरल ओषधि जिसमें एक विचित्र मीठी गंध होती है । विशेष—इसका मुख्य उपयोग ऐसे रोगियों को अचेत करने के लिये होता है, जिनके शरीर पर भारी अस्त्रचिकित्सा या इसी प्रकार की शरीर को बहुत अधिक वेदना पहुँचानेवाली कोई और चिकित्सा की जाती है । इसे सुँ धते ही पहले कुछ हलका सा नशा होता है और थोड़ी देर में मनुष्य बिलकुल अचेत हो जाता है और गाढ़ी निद्रा में सोया हुआ मालुम होता है । यदि मात्रा अधिक हो जाय, तो मनुष्य मर भी सकता है । यह देखने में स्वच्छ जल की तरह और भारी होता है और यदि खुला छोड़ दिया जाय, तो शीघ्र उड़ जाता है । इसका स्वाद बहुत मीठा और भला मालुम होता है । खुल स्थान या प्रकाश में रखने से इसमें विकार उत्पन्न हो जाता है । मुहा०—क्लोरफार्म देना=क्लोरोफार्म सुँधना ।

क्वंगु
संज्ञा पुं० [सं० क्वङ्गृ] प्रियंगु । कँगनी [को०] ।

क्व
क्रि वि० [सं०] कहाँ [को०] ।

क्वचित्
क्रि० वि० [सं०] कोई ही । शायद ही कोई । बहुत कम

क्वण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वीणा का शब्द । २. घुँघरु का शब्द । २. ध्वनि । आवाज (को०) ।

क्वणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द । ध्वनि । २. किसी वाद्य या घुँघरु, आभुषण आदि की ध्वनि । ३. मिट्टी का छोटा पात्र [को०] ।

क्वणित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्वणन' ।

क्वणित (२)
वि० [सं०] झंकृत । ध्वनित । शब्दायमान । उ०—कंकण क्वणित रणित नुपुर थे, हिलते थे छाती पर हार ।— कामायनी, पृ० ११ ।

क्वथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्वाथ' ।

क्वथन
संज्ञा पुं० [सं०] काढ़ा पकाना । उबालना [को०] ।

क्वथित
वि० [सं०] १. उबाला हुआ । औटाया हुआ । २. गरम । उष्ण [को०] ।

क्वथिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बैद्यक में एक प्रकार का रसा जो घी में भुनी हुई हल्दी को दुध में पकाने से बनता है । यह बहुत पाचक होता है । २. एक प्रकार का आसव जो शहद से बनता है ।

क्वाँचर
संज्ञा पुं० [सं० कुचर] वह बैल जो काम करते करते बैठ जाय । गरियार बैल ।

क्वाँचर (२)
वि० दुर्बल । कमजोर ।

क्वाँरंडाइन
संज्ञा पुं० [अं०] वह स्थान जहाँ प्लेग या दुपरी छुतवाली बीमारी के दिनों में रेल या जहाज के यात्री कुछ दिनों के लिये सरकार की ओर रोककर रखे जाते है ।

क्वाँर †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुआर' ।

क्वाँरा †
वि० [हिं०] दे० 'क्वारा' ।

क्वाँरापन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'क्वारापन' ।

क्वाचित्क
वि० [सं०] बहुत कम होने या मिलनेवाला । बिरल । अल्पप्राप्य [को०] ।

क्वाड़
संज्ञा पुं० [अं०] दे० 'क्वाड्रेट' ।

क्वाड्रेट
संज्ञा पुं० [अं०] छापे में सीसे का ढला हुआ चौकौर टुकड़ा जो कपोज करने में खाली लाइन आदि भरने के काम में आता है । वह स्पेस से बड़ा और कोटेशन से छोटा होता है । इसकी चौड़ाई टाइप के बराबर और लंबाई १ एम से ४ एम तक होती है । क्वाड़ ।

क्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्वण' (को०) ।

क्वाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी में उबालकर औषधियों का निकाला हुआ गाढ़ा रस । काढ़ा । जोशांदा । विशेष—जिस औषधि का क्वाथ बनाना हो उसे एक पल लेकर सोंलह पल पानी में भिगोकर मिट्टी के बरतन में आग पर चढ़ा देते है, और जब उसका आठवाँ अंश बाकी रह जाता है, तब उतार लेते हैं । यदि औषधि अधिक और तौल में एक कुड़व तक हो, तो उसमें आठगुन जल औऱ यदि एक कुड़व से अधिक हो, तो उसमें चौगुना जल देना चाहिए और क्रम से, आधा और तीन चौथाई बच रहने पर उतार लेना चाहिए । २. व्यसन । ३. बहुत अधिक दु?ख ।

क्वाथोदभव
संज्ञा पुं० [सं०] रसौत ।

क्वान पु
संज्ञा पुं० [सं० क्वाण] दे० 'क्वण' ।

क्वार
संज्ञा पुं० [सं० कुमार] १. अशिवन का महीना । २. दे० 'क्वारा' ।

क्वारछल
संज्ञा पुं० [सं० कुमार, हिं० हिं० क्वारा+ छल] क्वारापन । मुहा०—क्वारछल उतारना =प्रथम समागम करना ।

क्वारपत
संज्ञा पुं० [हिं० क्वार+ पत] दे० 'क्वारछल' या 'क्वारपन' ।

क्वारपन
संज्ञा पुं० [हिं० क्वरा+ पन (प्रत्य०)] क्वारापन । कुमारपन । क्वारा का भाव । मुहा०— क्वारपन उतरना= विवाह होना । क्वारपन उतारना= प्रथम समागम करना । ब्रह्माचर्य खोना ।

क्वारा
संज्ञा पुं० वि० [सं० कुमार] [वि० स्त्री० क्वारी] जिसका विवाह न हुआ हो । कुआरा । बिन व्याहा । उ०—सखि यही जगत की चाल जिती है क्वारी । उनके सबही विधि मात पिता अधिकारी ।—भारतेद्रु ग्रं०, भा०१, पृ० ६८९ ।

क्वारापन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'क्वारपन' ।

क्वार्टर
संज्ञा पुं० [अं०] १. बस्ती । टोला । बाड़ा । जैसे,—कुलियों का क्वार्टर । २. अफसरों और कर्मचारियों के रहने की जगह । जैसे,—रेलवे क्वार्टर । ३. वह स्थान जहाँ पर पलटन ने डेरा डाला हो । डेरा । छावनी । मुकाम ४. चौथाई भाग । चतुर्थ अंश । चौथा हिस्सा (को०) । ५. एक तौल जौ २८ पौंड की होती है (को०) ।

क्वार्टर मास्टर
संज्ञा पुं० [अं०] १. एक फौजी अफसर जिसका पद लेफ्टनेंट के बराबर समझा जाता है और जिसका काम सैनिकों के लिये स्थान, भोजन और वस्त्र आदि आवश्यक सामग्री का प्रबंध करना होता है । २. जहाज का एक अफसर जो रंगीन झंडी, लालटेन या अन्य सकेत दिखलाकर मल्लाहों को जहाज चलाने में सहायता देता और उन्हें समुद्र की गहराई और दिशा आदि गतलाता है । कोट मास्टर ।

क्वासि
वाक्य [सं० क्व+ असि] तु कहाँ है? तु किस स्थान पर है? उ०—गदगद सुर पुलकित विरहानल स्रवन विलोचन नीर । क्वासि क्वासि वृषभानुनंदिनी बिलपत विपिन अधीर ।—सुर (शब्द०) ।

क्विनाइन
संज्ञा पुं० [अं०] कुनैन ।

क्विल
संज्ञा पुं० [अं०] कुछ विशिष्ट पक्षियों के डैनो का पर जो लिखने के लिये कलम बनाने के काम में आता है ।

क्वीन
संज्ञा स्त्री० [अं०] महारानी । राजमहिषी । मलका ।

क्वेशचन
संज्ञा पुं० [अं०] प्रश्न । सवाल । यौ०—क्वेश्चन पेपर ।

क्वेश्चनपेपर
संज्ञा पुं० [अं०] वह छपा हुआ पत्र या पर्ची जिसमें परीक्षाथियों से एक या अधिक प्रश्न किए गए हों । परीक्षा— पत्र । प्रश्नपत्र ।

क्वैला
संज्ञा पुं० [हिं० कोयला] दे० 'कोयला' । उ०—तु भी मुझे जलाकर क्वैला कर दे—हाय रे ईश्वर—श्यामा०, पृ० ७१ ।

क्वैलारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोइलारी' ।

क्वैलिया
संज्ञा स्त्री०[सं० कोकिल, हिं० कोयल, कोइल+ इया (प्रत्य०)] दे० 'कोयल' । उ०—बहु दादुर मोर निनाद मच्यौ तरु क्वौलिया हु करि सोर रही ।—मोहन०, पृ० ७७ ।

क्ष

क्षंतव्य
वि० [सं० क्षन्तव्य] क्षमा करने के योग्य । क्षम्य । उ०— हो नहीं क्षंतव्य जो मेरे विगर्हित पाप, दो वचन अक्षय रहे यह ग्लानि, यह परिताप ।—साम०, पृ० ५० ।

क्षंता
वि० [सं० क्षन्तृ] क्षमाशील । क्षमा करनेवाला ।

क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. विध्वंस । विनाश । २. हानि । अंतर्धान । लोप । ३. खेत । ४. कृषक । किसान । ५. विष्णु का चौथा अवतार । ६. विद्युत । बिजली । ७. एक राक्षस [को०] ।

क्षण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० क्षणिक] १. काला या समय का एक बहुत छोटा भाग । विशेष—क्षण की मात्रा के विषय में बहुत मतभेद है । महा— भाष्यकार पतंजलि के मत से काल का वह छोटा भाग जिसके टुकडे़ या विभाग न ही सकें क्षण है । उसके मतानुसार क्षण का काल के साथ वही संबंध है, जो परमाणु का द्रव्य के साथ है, किसी के मत से पल या निमिष का चतुर्थाश, और किसी के मत से दो दंड या मुहूर्त एक क्षण के बराबर है । अमर के अनुसार तीस कला या मुहूर्त के बारहवें भाग का एक क्षण होता है । पर न्याय के मत से महाकाल नित्य द्रव्य है और उसके भाग या अंश नहीं है सकते, इसलिए क्षण कोई अलग पदार्थ नहीं । यौ०—क्षणमात्र = थोड़ी देर । २. काफ । ३. अवसर । मौका । ४. समय । वक्त । ५. उत्सव । हर्ष । आनंद ।

क्षणतु
संज्ञा पुं० [सं०] घाव । जखम [को०] ।

क्षणद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल । २. ज्योतिषी । ३. वह जिसे रात को दिखाई न पड़ता हो । ४. रात को दिखाई म पड़ने का एक रोग । रतौंधी [को०] ।

क्षणदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात्रि । रात । २. हल्दी ।

क्षणदाकर
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

क्षणद्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत । बिजली ।

क्षणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चोट पहुँचाना । प्रहार करना । २. हनन । वध करना [को०] ।

क्षणनिःश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] सूँस नामक जलचर । शिशुमार [को०] ।

क्षणप्रकाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षणद्युति' ।

क्षणप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली । विद्युत् ।

क्षणभंग
संज्ञा पुं० [सं० क्षणभग्ङ] एक बौद्ध सिद्धांत जिसमें वस्तुओं की स्थिति एक क्षण की मानी गई है । इसे क्षणिकवाद भी कहते हैं । विशेष—दे० 'क्षणिकवाद' । यौ०—क्षणर्भगवाद = क्षणिकवाद (बौद्ध) ।

क्षणभंग (२)पु
वि० [सं० क्षभग्ङुर] क्षण भर में नष्ट होनेवाला । अनित्य । नाशवान् । उ०—समर मरन पुनि सुरसरि तीर । राम काज क्षणभंगु शरीरा ।—तुलसी (शब्द०) ।

क्षणभंगुर
वि० [सं० क्षणाभग्ङुर] शीघ्र नष्ट होनेवाला । क्षण भर में नष्ट होनेवाला । अनित्य । उ०—सूख संपति दारा अंत हय गय हठै सबै समुदाय क्षणभंगुर ए सबै श्याम बिनु अंत नाहिं सँग जॉय ।—सूर (शब्द०) ।

क्षणमूल्य
संज्ञा पुं० [सं०] नगद दाम । तुरंत ही दी जानेवाली कीमत । विशेष—शाम शास्त्री ने इसका अर्थ कमीश न किया है ।

क्षणरामी (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षणरामिन] कपोत । कबूतर ।

क्षणविवंशी (१)
वि० [सं० क्षणविध्वंसिन्] क्षण भर में नष्ट होनेवाला ।

क्षणविध्वंसी (२)
संज्ञा पुं० अनीश्वरवादी दार्शनिकों का एक समुदाय, जो यह मानता है कि संसार प्रति क्षण नष्ट होता और नया जन्म प्राप्त करता है ।

क्षणस्थायी
वि० [सं० क्षमस्थायिन्] क्षणिक । क्षणभंगुर ।

क्षणिक (१)
वि० [सं०] एक क्षण रहनेवाला । क्षणभंगुर । अनित्य ।

क्षणिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षणिकवाद' ।

क्षणिकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षणिक का भाव । क्षणभंगुरता ।

क्षणिकवाद
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों का एक सिद्धांत जिसमें प्रत्येक वस्तु को उसके उत्पत्ति से दूसरे क्षण में नष्ट हो जानेवाला मानते हैं । विशेष—इस मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण कुछन कुछ परिवर्तन होता रहता है और उसकी अवस्था या स्थिति बदलती जाती है । इसे सिद्धांत में सब पदार्थों को अनित्य मानते हैं । इसे क्षणिक या क्षणभंग भी कहते हैं ।

क्षणिकवादी
संज्ञा पुं० [सं० क्षणिकवादिन्] १. क्षणिकवाद पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति । उ०—बौद्ध धर्म से संबंधित । क्षणिकवादी और शून्यवादी मतों का उल्लेख आया है ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २२७ ।

क्षणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बिजली । विद्युत् ।

क्षणिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात । क्षणदा ।

क्षणी
वि० [सं० क्षणिन्] १. अवकाशयुक्त । २. क्षणस्थायी । ३. उत्सव या आनंदवाला [को०] ।

क्षत (१)
वि० [सं०] जिसे क्षति या आघात पहुँचा हो । जो किसी प्रकार टूटा फूटा या चीरी फाडा हो ।

क्षत (२)
संज्ञा पुं० १. घाव । जख्म । २. ब्रण । फोड़ा । ३. एक प्रकार का फोड़ा जो गिरने, दौड़ने या किसी प्रकार का क्रुर कर्म करने से हृदय में हों जाता है । इसमें रोगी को ज्वर आता है और खाँसने से मुँह से रक्त निकलता है । ४. मारना । काटना । ५. क्षति या आघात पहुँचाना । ६. भय । खतरा । डर (को०) । ७. दुःख । कष्ट (को०) ।

क्षतकास
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत या आघात से होनेवाली खाँसी [को०] ।

क्षतघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] कुकरौंधा ।

क्षतघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाख । लाह ।

क्षतज (१)
वि० [सं०] १. क्षत से उत्पन्न । जैसे—क्षतज शोथ, क्षतज विद्रधि । २. लाल । सुर्ख । उ०—क्षतज नयन उर बाहु विशाला । हिमगिरि निभ तनु कछु इक लाल ।—तुलसी (शब्द०) ।

क्षतज (२)
संज्ञा पुं० १. रक्त । रुधिर । खून । २. मवाद । पीब । ३. एक प्रकार की खाँसी जो क्षत रोग में होती है । इसमें खखार के साथ रुधिर निकलता है और शरीर के जोड़ों में पीड़ा होती है । ४. सात प्रकार की प्यास में से एक, जो शरीर में शस्त्रों का घाव लगने या बहुत अधिक रक्त निकल जाने के कारण लगती है । यह प्यास शरीर पर गीला कपड़ा लपेटने से बुझती है ।

क्षतजतृष्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] चोट लगने या शरीर से अधिक रक्त निकल जाने से उत्पन्न प्यास ।—माधव०, पृ० १०७ ।

क्षतजदाह
संज्ञा पुं० [सं०] किसी घाव के कारण होनेवाली जलन जिसमें दाह के कारण मूर्च्छा और प्रलाप आदि उपद्रव होते हैं ।—माधव०, पृ० १२० ।

क्षतयोनि
वि० स्त्री० [सं०] जिस स्त्री का पुरुष के साथ समागम हो चुका हो ।

क्षतरोहण
संज्ञा पुं० [सं०] घाव का पूरा होना । घाव भरना [को०] ।

क्षतविक्षत
वि० [सं०] १. जिसे बहुत चोटें लगी हों । घायल । लहू— लुहान । २. जिसे बहुत आघात पहुँचा हो । जो बहुत नष्ट— भ्रष्ट किया गया हो ।

क्षतवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीविका का नष्ट होना । रोजी का सहारा न रहना [को०] ।

क्षतव्रण
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक से छह प्रकार के फोड़ों में से एक । किसी स्थान के कटने या उसपर चोट लगने के बाद उस स्थान के पक जाने की क्षतव्रण कहते हैं ।

क्षतव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] अवकीर्ण व्रत ।

क्षतसर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] गतिहीनता । गमनशक्ति का नाश [को०] ।

क्षतहर
संज्ञा पुं० [सं०] अगर का पेड़ ।

क्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जिसका विवाह से पहले ही किसी पुरुष से दूषित सबंध हो चुका हो ।

क्षतारि
वि० [सं०] जेता । विजयी । विजेता [को०] ।

क्षताशौच
संज्ञा पुं० [सं०] वह अशौच जो किसी मनुष्य को घायल या जख्मी होने के कारण लगता है । इस अशौच में मनुष्य किसी प्रकार का श्रौत या स्मृत्ति कार्य नहीं कर सकता ।

क्षति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हानि । नुकसान । २. क्षय । नाश । ३. चोट । घाव (को०) । ४. ह्रास । न्यूनता । (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—पहुँचना ।—पहुँचना ।—होना ।

क्षतिग्रस्त
वि० [सं०] किसी प्रकार की क्षति उठानेवाला ।

क्षतिपूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षति या हानि पूरी करना । मुआवजा ।

क्षतोदर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का उदररोग । विशेष—इसमें अन्न के साथ रेत, तिनका, लकडी, हड्डी या काँटा आदि पेट में उतर जाने, अधिक जँभाई आने या कम भोजन करने के कारण आँते छिद जाती हैं और उनमें से जल रसकर गुदा के मार्ग से निकलता है । इसे परिस्राव्युदर भी कहते हैं ।

क्षत्ता
संज्ञा पुं० [सं० क्षतृ] १. द्वारपाल । दरवान । २. मछली । ३. नियोग करनेवाला पुरुष । ४. दासीपुत्र । ५. वह वर्णसंकर जिसकी उत्पत्ति क्षत्रिय माता और शूद्र पिता से हो । ६. ब्रह्मा (को०) । ७. कोचवान । सारथी (को०) । ८. रथ द्वारा युद्ध करनेवाला । रथी (को०) । ९. कोशाध्यक्ष (को०) । १०. क्षत करनेवाला । काटने या घाव करनेवाला (को०) ।

क्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बल । २. राष्ट्र । ३. धन । ४. शरीर । ५. जल । ६. तगर का पेड़ । ७. [स्त्री० क्षत्रानी] क्षत्रिय ।

क्षत्रक्रर्म
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रकर्मन्] क्षत्रियोचित कर्म । वह कर्म जिसका करना क्षत्रियों के लिये आवश्यक हो; जैसे, युद्ध से कभी न हटना, यथाशक्ति दान देना, शत्रुओं का दमन करना, इत्यादि ।

क्षत्रधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रियों का धर्म । य़था—अध्ययन, दान, यज्ञ और प्रजापालन करना, विषय वासनाओँ से दूर रहना, आदि ।

क्षत्रधर्मा
वि० [सं० क्षत्रधर्मन्] १. क्षत्रियों के धर्म को पालन करनेवाला । २. वीर । योद्धा ।

क्षत्रधृति
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो सावन की पूर्णिमा को किया जाता है ।

क्षत्रप
संज्ञा पुं० [सं० या पु० फा़०] ईरान के प्राचीन मांडलिक राजाओं की उपाधि । उ०—साम्राज्य में २१ प्रंत थे जिनपर क्षत्रपों (प्रांतीय शासकों) का शासन था ।—आर्य० भा०, पृ० १९४ । विशेष—आगे चलकर भारत के शक तथा गुजरात के एक प्राचीन वंश से राजाओं ने भी यह उपाधि धारण कर ली थी ।

क्षत्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. शिवाजी की उपाधि ।

क्षत्रबंधु
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रबन्धु] १. क्षत्रिय जाति का व्यक्ति (को०) । २. पतित, नाम मात्र का या कर्त्तव्यरहित क्षत्रिय ।

क्षत्रयोग
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में एक प्रकार का योग । विशेष—दे० 'राजयोग' ।

क्षत्रविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षत्रियों की विद्या । धनुर्विद्या ।

क्षत्रवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मुचुकुंद का पेड़ ।

क्षत्रवृद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] तेरहवें मनु क् पुत्र का नाम ।

क्षत्रवृद्धि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षत्रवृद्ध' ।

क्षत्रवेद
संज्ञा पुं० [सं०] धनुर्वेद ।

क्षत्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] वह यज्ञ आदि जो केवल क्षत्रिय ही कर सकते हों । जैसे, अश्वमेध ।

क्षत्रांतक
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रान्तक] परशुराम ।

क्षत्राणी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षत्रियाणी] १. क्षत्रिय जाति की स्त्री । २. क्षत्रिय की स्त्री । ३. वीर स्त्री [को०] ।

क्षत्रिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मजीठ ।

क्षत्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० क्षत्रिया, क्षत्राणी] १. हिंदुओं के चार वर्णों में से कूसरा वण । विशेष—इस वर्ण के लोगों का काम देश का शासन और शत्रुओं से उसकी रक्षा करना है । मनु के अनुसार इस वर्ण के लोगों का कर्तव्य वेदाध्ययन, प्रजापालन, दान और यज्ञादि करना तथा विषयवासना से दूर रहना है । वशिष्ठ जी ने इस वर्ण के लोगों का मुख्य धर्म अध्ययन, शस्त्राभ्यास और प्रजापालन बतलाया है । वेद में इस वर्ण के लोगों की सृष्टि प्रजापति की बाहु से कही गई है । वेद में जिन क्षत्रिय वंश के नाम हैं, वे पुराणों में दिए हुए अथवा वर्तमान नामों से बिलकुल भिन्न हैं । पुराणों में क्षत्रियों के चंद्र और सूर्य केवल दो ही वंशों के नाम् आए हैं । पीछे से इस वर्ण में अग्नि तथा और कई वंशों की सृष्टि हुई और शक आदि विदेशी लोग आकर मिल गए । आजकल इस वर्ण के बहुत से अवांतर भेद हो गए हैं । इस वर्ण के लोग प्रायः ठाकुर कहलाते हैं । २. इस वर्ण का पुरुष । ३. राजा । ४. बल । शक्ति ।

क्षत्रियका, क्षत्रिया, क्षत्रियिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षत्रिय जाति की स्त्री [को०] ।

क्षत्री
संज्ञा पुं० [सं० क्षत्रिन्] दे० 'क्षत्रिय' ।

क्षदन
संज्ञा पुं० [सं०] दाँत ।

क्षप
संज्ञा पुं० [सं०] जल । पानी ।

क्षपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बौद्ध भिक्षु । २. अशौच । ३. नष्ट करना । दमन करना । ४. उपवास [को०] ।

क्षपणक (१)
वि० [सं०] निर्लज्ज ।

क्षपणक (२)
संज्ञा पुं० १. नंगा रहनेवाला जैन यती । दिगंबर यती । २. बौद्ध संन्यासी या भिक्षु । ३. एक कवि जो विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक माना जाता है । इसने 'अनेकार्थ— ध्वनिमंजरी' नामक एक कोश बनाया था और उणादि— सूत्र पर एक वृति लिखी थी ।

क्षपणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जाल । २. पतवार । नाव खेने का डाँड़ा [को०] ।

क्षपण्यु
संज्ञा पुं० [सं०] अपराध [को०] ।

क्षपांत
संज्ञा पुं० [सं० क्षपान्त] प्रभात । भोर ।

क्षपांध्य
संज्ञा पुं० [सं० क्षपान्ध्य] रात में न दिखाई पड़ना । रतौंधी का रोग [को०] ।

क्षपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात । यौ०—क्षपाकर । क्षपाचर । विशेष—'क्षपा' शब्द के अंत में पति या नाथ वाची शब्द जोड़ने से चंद्रमावाची शब्द बनता है । जैसे, क्षपाधिप, क्षपेश, क्षपाकर, आदि । २. हल्दी । हरिद्रा ।

क्षपाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. कपूर ।

क्षपाघन
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण मेघ । काला बादल [को०] ।

क्षपाचर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० क्षपाचरी] निशाचर । राक्षस ।

क्षपाट
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस ।

क्षपानाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. चद्रमा । उ०—महामीचु दासी सदा पाइ धोवै । प्रताहार ह्वै कै कृपा शूर सावै । क्षपानाथ लीन्हे रहै छत्र जाको । करैगो कहा शत्रु सुग्रीव ताको ।—केशव (शब्द०) । २. कपूर ।

क्षपापति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा । २. कपूर ।

क्षपित
वि० [सं०] नष्ट । विध्वस्त । दमित । दबाया हुआ [को०] ।

क्षम (१)
वि० [सं०] शक्त । योहग्य । समर्थ । उपयुक्त । विशेष—हिंदी में यह शब्द केवल समस्त पद या यौगिक शब्द के अंत में आता है । जैसे, अक्षम, सक्षम, कार्यक्षम आदि ।

क्षम (२)
संज्ञा पुं० शक्ति । बल । २. योग्यता । उपयुक्तता । ३. युद्ध (को०) । ४. शिव (को०) ।

क्षमणीय
वि० [सं०] क्षमा करने योग्य । माफ करने लायक ।

क्षमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग्यता । सामर्थ्य । शक्ति ।

क्षमताशील
वि० [सं० क्षमता + शील] क्षमता वाला । यौग्य । समर्थ । उ०—अक्षय क्षमताशील बने जावें दुविधा, भ्रम ।—युगांत, पृ० १७ ।

क्षमना पु
क्रि० स० [हिं० क्षमा] क्षमा करना । माफ करना । उ०—क्षम अपराध देवकी मेरी लिख्यो न मेटयो जाई । मैं अपराध कियो शिशु मारे कर जोरे बिललाई ।—सूर (शब्द०) ।

क्षमनीय (१)पु
वि० [सं० क्षमणीय] क्षमणीय । क्षमा करने योग्य ।

क्षमनीय (२)
वि० [सं० क्षम] बलवान् । शक्तिशाली । उ०—अंत— रिच्छ गच्छनीनि यच्छन सुलच्छनीनि अच्छी अच्छी अच्चनीनि छवि छमनीय है ।—केशव (शब्द०) ।

क्षमावाना पु
क्रि० स० [हिं० क्षमना] क्षमना का प्रेरणार्थक रूप । क्षमा करना । माफ करना । उ०—बहुरि बिधि जाय क्षमवाय कै रुद्र को विष्णु विधि रुद्र तहँ तुरत आये ।—सूर (शब्द०) ।

क्षमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चित्त की एक प्रकार की वृत्ति जिससे मनुष्य दूसरे द्वार पहुँचाए हुए कष्ट को चुपचाप सह लेता है और उसके प्रतिकार या दंड की इच्छा नहीं करता । यह वृत्ति तितिक्षा के अंतर्गत मानी गई है । क्षांति । २. सहिष्णुता । सहनशीलता । ३. खैर का पेड़ । ४. पृथिवी । ५. एक की संख्या । ६. वेत्रवती या बेतवा नदी का एक नाम । ७. दक्ष की एक कन्या का नाम । ८. दुर्गा का एक नाम । ९. ब्रह्मवैवर्त्त के आनुसार राधिका की एक सखी का नाम । १०. तेरह अक्षरों की एक वर्ण वृत्ति का नाम, जिसमें क्रम से दो नगण, एक जगण, एक तगण, और अंत में एक गुरु (न न ज त गु) होता है और सातवें तथा छठे वर्ण पर यति होती है । जैसे—न निज तिगम सुभाव छाँडै़ खला । यद्यपि नित उठ पाव ताको फला । तिमि न सुजन समाज धारै तमा । जग जिनकर सुसाज नीती क्षमा । ११. चमद्रशेखर के अनुसार आर्या नामक छंद का एक भेद, जिसमें २२ गुरु और १३ लघु मात्राएँ होती हैं ।

क्षमाई पु
संज्ञत्रा स्त्री० [हिं० क्षमा + ई (प्रत्य०) क्षमा करने की क्रिया । उ०—केवल चरण गिरयो उत धाई । करहु माथ अपराध क्षमाई ।—रघुराज (शब्द०) ।

क्षमाज
संज्ञा पुं० [सं०] पृथवी से उत्पन्न—मंगल ग्रह [को०] ।

क्षमातल
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वीतल । जमीन की सतह [को०] ।

क्षमादंश
संज्ञा पुं० [सं०] सहिजन का पेड़ ।

क्षमाना (१)पु
क्रि० स० [हिं० क्षमना] क्षमना का प्रेरणार्थक रूप । क्षमा कराना । माफ कतराना । उ०—संत जाय तिगरे सिर नाये । निज अपराध अगाध क्षमाये ।—रघुराज (शब्द०) ।

क्षमाना (२) पु
क्रि० स० [हिं० क्षमा] क्षमा करना । माफ करना । उ०—तब हरि उनके दोष क्षमाए ।—सूर (शब्द०) ।

क्षमान्वित
वि० [सं०] दे० 'क्षमावान्' [को०] ।

क्षमापन पु †
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षमा करने का काम । माफी । २. माफ कराने का काम । उ०—(क) इस नगर को परित्याग कर दूसरी ठौर इससे उत्तम रीति से कालयापन करें और परमेश्वर से स्वापराध क्षमापन के लिये प्रयत्न करें ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । (ख) सकल ज य ताके पद परहू । निज अपराध क्षमापन करहू ।—रघूराज (शब्द०) ।

क्षमाभूक
संज्ञा पुं० [सं० क्षमाभुज्] पृथ्वीपति । भूपति । राजा [को०] ।

क्षमाभुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल ग्रह । २. दे० 'क्षमाभुक्' [को०] ।

क्षमाभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत । भूभृत् । २. राजकुमार [को०] ।

क्षमामंडल
संज्ञा पुं० [सं० क्षमामण्डल] पृथ्वी का घेरा । अवनि— मंडल [को०] ।

क्षमालु
वि० [सं०] क्षमाशील । क्षमावान् ।

क्षमावना पु
क्रि० स० [हिं० क्षमना का प्रे० रूप] क्षमा करना । माफ कराना । उ०—(क) परी पाँइ अपराध क्षमावत सुनत मिलैगी धाय । सुनत बचन दूतिका बदन ते श्याम चलेअकुलाव ।—सूर (शब्द०) (ख) कह्यो कौन कीन्हों अपराधा । काह क्षमावहु केहि की बाधा ।—रघुराज (शब्द०) ।

क्षमावान्
वि० पुं० [सं० क्षमावत्] [स्त्री० क्षमावती] १. क्षमा करनेवाला । माफ करनेवाला । २. सहनशील । सहिष्णु । गमखोर ।

क्षमाशील
वि० [सं०] १. माफ करनेवाला । क्षमावान् । २. शांतप्रकृति ।

क्षमाष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में चतुर्दश ताल का पक भेद ।

क्षमित
वि० [सं०] क्षमाप्राप्त । जो क्षमा किया गया हो ।

क्षमितव्य
वि० [सं०] क्षमा करने योग्य । जो क्षमा किया जा सके ।

क्षमिता
वि० [सं० क्षमितृ] क्षमा करनेवाला । क्षमाशील [को०] ।

क्षमी
वि० [स० क्षमिन्] १. क्षमाशील । क्षमावान् । माफ करने— वाला । उ०—सुर हरि भक्त असुर हरि द्रोही । सुर अति क्षमी असुर अति कोही ।—सूर (शब्द०) । २. शांतप्रकृति । ३. समर्थ । सशक्त । उ०—मदन बदन लेत लाज को सदन देखि, यदपि जगत जीव मोहिबे को है क्षमी ।—केशव (शब्द०) ।

क्षम्य
वि० [सं०] माफ करने योग्य । जो क्षमा किया जाय ।

क्षयकर
वि० [सं० क्षयङ्कर] नाश करनेवाला । क्षयकारी । नाशक ।

क्षय
संज्ञा पुं० [सं०] [भाव० क्षयित्व] १. धीरे धीरे घटना । ह्रास । अपचय । २. प्रलय । कल्पांत । ३. नाश । ४. घर । मकान । ५. निवासस्थान । रहने की जगह । ६. यक्ष्मा नामक रोग । क्षयी । ७. रोग । बीमारी । ८. अंत । समाप्ति । ९. नीति शास्त्र के अनुसार राजा के ऋषि, बस्ती, दुर्ग, सेतु, हस्तिबंधन, खान, करग्रहण और सेना के समूह (अष्टवर्ग) का ह्रास या नाश । १०. साठ संवत्सरों में से अंतिम संवत्सर का नाम । यह वर्ष बहुत भयानक और उपद्रवकारी होता है । उ०—इस बारहवें युग के पिछले वर्ष का नाम क्षय है । यह क्षयकारक है । —बृहत्, पृ० ५४ । ११. ज्योतिष में एक प्रकार का मास जो शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर अमा— वस्या तक रहता है । विशेष—इस मास में दो संक्रांतियाँ होती हैं और इससे तीन मास पहले और तीन मास पीछे एक एक अधिमास पड़ता है । कार्तिक, अगहन और पूस के अतिरिक्त और कोई महीना क्षयमास नहीं हो सकता । सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार यह मास प्रायः १४१ वर्ष के अंतर पर पड़ता है । इस मास में किसी प्रकार का मंगलकार्य करना निषिद्ध है । कोई कोई इसे अंहंस्यति भी कहते हैं । १२. जाति । वंश (को०) । १३. यमलोक । यसेयति (को०) । १४. गणित में ऋण का चिह्न या राशि (को०) । १५. हाथी के घुटने का एक भाग (को०) ।

क्षयकर
वि० [सं०] दे० 'क्षयंकर' [को०] ।

क्षयकाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रलय काल । संहार का समय [को०] ।

क्षयकास
संज्ञा पुं० [सं०] क्षयो रोग में होनेवाली खाँसी ।

क्षयकासी
वि० [सं० क्षयकासिन्] क्षय रोग की अवस्था में खाँसी से पीड़ित । क्षयरोग से ग्रस्त ।

क्षयण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शांत जलाशय । २. निवास का स्थान । ३. बंदरगाह या खाड़ी [को०] ।

क्षयतरु
संज्ञा पुं० [सं०] स्थाली का वृक्ष । बेलिया । पीपल ।

क्षयतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह चांद्र तिथि जिसमें प्रातःकाल सूर्योदय नहीं होता । तिथि क्रम में इसकी गणना नहीं की जाती । क्षयाह [को०] ।

क्षयथु
संज्ञा पुं० [सं०] खाँसी । कास । क्षय की खाँसी ।

क्षयनाशिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जीवंती या डोडी का वृक्ष ।

क्षयपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णपक्ष । अँधेरा पक्ष ।

क्षयमास
संज्ञा पुं० [सं०] वह चाँद्र मास जिसमें दो संक्रांतियाँ पड़ती हैं । यह मास ३४१ वर्षों के पश्चात आता है । कभी कभी यह उन्नीसवें वर्ष भी पड़ता है [को०] ।

क्षयरोग
संज्ञा पुं० [सं०] यक्ष्मा का रोग । तपेदिक [को०] ।

क्षयरोगी
वि० [सं० क्षयरोगिन्] क्षयरोग से ग्रस्त [को०] ।

क्षयवान्
वि० [सं० क्षयवत्] [स्त्री० क्षयवती] नाशवान् । नष्ट होनेवाला ।

क्षयवायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रलयकाल में चलनेवाली वायु । प्रलय की वायु [को०] ।

क्षयसंपद्
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षयपसम्पत्] विनाश । सर्वनाश [को०] ।

क्षयाह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षयतिथि' [को०] ।

क्षयिक
वि० [सं०] क्षयरोगग्रस्त । क्षयपीड़ित [को०] ।

क्षयित
वि० [सं०] १. नष्ट । २. क्षय रोग से पीड़ित [को०] ।

क्षयित्व
संज्ञा पुं० [सं०] क्षय का भाव ।

क्षयिष्णु
वि० [सं०] क्षय होनेवाला । नष्ट होनेवाला ।

क्षयी (१)
वि० [सं० क्षयिन्] १. क्षय होनेवाला । नष्ट होनेवाला । २. क्षय रोग से ग्रस्त । जिसे क्षय या यक्ष्मा रोग हो ।

क्षयी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा । विशेष—पुराणानुसार दक्ष के शाप से चंद्रमा को क्षय रोग हो गया था इसी से उसे क्षयी कहते हैं ।

क्षयी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षय] अक प्रसिद्ध रोग । यक्ष्मा । राजयक्ष्मा । क्षय । तपेदिक । विशेष—इस रोग में रोगी का फेफड़ा सड़ जाता है और सारा शरीर धीरे धीरे गल जाता है । इसमें रोगी का शरीर गरम रहता है, उसे खाँसी आती है और फसके मुँह से बहुत बदबूदार कफ निकलता है जिसमें रक्त का भी कुछ अंश रहता है । धीरे धीरे रक्त की मात्रा बढ़ने लगती है और रोगी कभी कभी रक्तवमन भी करता है । ऋग्वेद के एक सूक्त का नाम 'यक्ष्माघ्न' है, जिससे जाना जाता है कि वेदिक काम में इसका रोगी मंत्रों से झाड़ा जाता था । चरक ने इस रोग का कारण वेगावरोध, धातुक्षय, दुःसाहस और विषभक्षण आदि बतलाया है; और सुश्रुत के मत से इन कारणों के अतिरिक्त बहुत अधिक या बहुत कम भोजन करने से भी इस रोग की उत्पत्ति होती है, वैद्य लोग इसे महापातकों का फल समझते हैं और इसके रोगी की चिकित्सा करने के पहले उससे प्रयश्चितकरा लेते हैं । मनु जी ने इसे पुरूषानुक्रमिक बतलाया है और इसके रोगी के विवाह आदि संबध का निषेध किया है । डाक्टरी मत से इस रोग की तीन अवस्थाएँ होती हैं । आरं— भिक अवस्था में रोगी को खूनी खाँसी आती है, थकावट मालूम होती है, नाड़ी तोज चलती है और कभी कभी मुँह से कफ से साथ रक्त भी निकलता है । मध्यम अवस्था में खाँसी बढ़ जाती है, रात को ज्वर रहता है, अधिक पसीना होता है, शरीर में बल नही रह जाता, छाती और पसलियों में पीड़ा होती है, मुँह से कफ की पीली गाँठें निकलती हैं और दस्त आने लगता है । इस अवस्था के आरंभ में यदि चिकित्सा का ठीक प्रबंध हो जाय, तो रोगी बच सकता है । अंतिम अवस्था में रोगी का शरीर बिलकुल क्षीण हो जाता है और मुँह से अधिक रक्त निकलने लगता है । उस समय यह रोग बिलकुल असाध्य हो जाता है । यदु अधिक प्रयत्न किया जाय, तो रोगी कुछ काल तक जी सकता है ।

क्षय्य
वि० [सं०] क्षय होने योग्य । जिसका क्षय हो सके ।

क्षर (१)
वि० [सं०] १. नाशवान् । नष्ट होनेवाला । उ०—क्षर देह यहाँ का यहीं रहा ।—साकेत, पृ० १६३ । २. चल । जंगम ।

क्षर (२)
संज्ञा पुं० १. जल । २. मेघ । ३. जीवात्मा । ४. शरीर । ५. अज्ञान । ६. कार्य कारण रूप लस्तु या द्रव्य जिसकी क्षण क्षण अवस्थांतर हुआ करता है ।

क्षरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रस रस के चूना । स्राव होना । रसना । २. झगड़ा । ३. विकार प्राप्त होना । नाश या क्षय होना । ४. छूटना ।

क्षरपत्रा, क्षरपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षवपत्री' ।

क्षरित
वि० [सं०] टपका हुआ । चुआ हुआ । स्रवित [को०] ।

क्षरी
संज्ञा पुं० [सं० क्षरिन्] वर्षाकाल । बरसात ।

क्षव
संज्ञा पुं० [सं०] १. छींक । २. खाँसी । ३. राई [को०] ।

क्षवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपामार्ग । लटजीरा । २. राई । ३. लाही ।

क्षवकृत
संज्ञा पुं० [सं०] नकछिंकनी नामक पौधा ।

क्षवथु
संज्ञा पुं० [सं०] नाक के ३१ प्रकार के रोगों में से एक प्रकार का रोग जिसमें छीक् बहुत अधिक आती हैं । विशेष—सुश्रुत के अनुसार अधिक तीक्ष्ण और चरपरे पदार्थ सूँघने, सूर्य की और देखने और नाक में अधिक बत्ती आदि ठूंसने से उसके अदर का मर्मस्थान दूषित हो जाता है और अधिक छींकें आने लगती है । इसी को क्षवथु कहते हैं ।

क्षवपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षवपत्री' ।

क्षवपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] द्रोणपुष्पी । गूमा । विशेष—द्रोणपुष्पी की पत्ती सूंघने से छींक आती है, इसीलिये उसे क्षवपत्रा कहते हैं । कोई कोई इसे 'क्षरपत्रा' भी कहते हैं ।

क्षविका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बनभंटा । कटाई । बरहंटा । विशेष—देखने में यह भटकटेया से मिलता जुलता होता है । इसके पत्ते वैगन के पत्तों से मिलते हैं और फल भटकटैया के समान, पर उससे कुछ ही बडे़ और चितकबरे होते है । यह खाने में कडुआ, चरपरा और गरम होता है और भटकटैया को समान औषधियाँ में काम आता है । पर्या०—सर्पतनु । पीततंडुला । पुत्रप्रदा । बहुफला । गोधिनी ।

क्षांत (१)
वि० [सं० क्षान्त] [क्षांत] १. क्षमाशील । क्षमा करनेवाला । २. सहनशील । सहिष्णु ।

क्षांत (२)
संज्ञा पुं० १. ऋषि का नाम । २. उन सात व्याधों में से एक जिनेहें अपने गुरु गर्ग मुनि की गौएँ डालने के कारण साप मिला था । ३. महादेव । शिव (को०) ।

क्षांत
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षान्ता] पृथ्वी । भूमि [को०] ।

क्षांति
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षान्ति] १. सहिष्णुता । सहनशीलता । उ०— छाई तत्र नितांत सांति सहिता सर्वत्र ही क्षांति थी ।—शकु०, पृ० १९ । २. क्षमा ।

क्षांतु (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षान्तु] पिता । जनक [को०] ।

क्षांतु (२)
वि० सहिष्णु । क्षमावान् । सहनशील [को०] ।

क्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी ।

क्षात्र (१)
वि० [सं०] क्षत्रिय संबंधी क्षत्रियों का जैसे—क्षात्रतेज, क्षात्रधर्म, क्षात्रगुण, आदि ।

क्षात्र (२)
संज्ञा पुं० क्षत्रियत्व । क्षत्रीपन । क्षत्रिधर्म ।

क्षात्रि
संज्ञा पुं० [सं०] क्षत्रिय पुरुष और अक्षत्रिय स्त्री से जन्मी हुई संतान [को०] ।

क्षाम (१)
वि० [सं०] [स्त्री० क्षमा] १. क्षीण । कृश । दुबलापतला यौ०—क्षामोदरी = पकतली कमरवाली (स्त्री) । २. दुर्बल । बलहीन । कमजोर । ३. अल्प । थोंड़ा ।

क्षाम (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु का एक नाम । २. क्षय । नाश ।

क्षामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । धरती । भूमि [को०] ।

क्षाम्य
वि० [सं०] क्षमा किए जाने योग्य । क्षमणीय ।

क्षार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाहक, जारक, विस्फोटक या इसी प्रकार की और वानस्पत्य औषधियों को जलाकर या खनिज पदार्थों को पानी में घोल और रासायनिक क्रिया द्वारा साफ करके तैयार की हुई राख का नमक । विशेष—यह सूखा साफ चमकीला, मैल काटनेवाला और कलम या रवे के रूप में होता है । डाकटरी मत से क्षार उस पदार्थ को कहते हैं जो पानी में अच्छी तरह घुल सकता हो, अम्ल या तेजाब की शक्ति नष्ट करके उसका नमक बना सकता हो और भिन्न भिन्न वानस्पत्य रंगो को बदल सकता हो । २. चक्रदत के अनुसार एक प्रकार की ओषधि जो मोखा नामक वृक्ष की पत्तियों के क्षार से बनती है । ३. नमक । ४. सज्जी । खार । ५. शोरा । ६. सुहागा । ७. भस्म । राख । ८. काच । शीशा । ९. गुड़ । १०. काला नमक (को०) । ११. जल (को०) । १०. किसी वस्तु का सत या स्वरस (को०) । १३. दुष्ट । ठग । धूर्त (को०) ।

क्षार (२)
वि० १. क्षरणशील । २. खारा । ३. धूर्त ।

क्षारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षार । २. सज्जी । ३. चिड़िया फँसाने का जाल । ४. मछली पकड़ने की खाँची या बोरी । ५. चिड़ियोंका पिंजड़ा (को०) । ६. रस । अर्क (को०) । ७. धोबी । रजक (को०) । ८. मंजरी कलिका (को०) ।

क्षारकर्दम, क्षारकर्द्दम
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम ।

क्षारगुड
संज्ञा पुं० [सं० क्षार + गुड] चक्रदत्त के अनुसार एक ओषधि का नाम । विशेष—यह ओषधि पंचमूलादि के २२ बार फूँके हुए भस्म के गुड़ के पानी में मिलाकर पकाने से बनती है । इसकी गोलियाँ रुद्राक्ष के बराबर बनती और अजीर्ण, पाँडु, प्लीहा, अर्श शोथ, कफादि रोगों में उपकारी मानी जाती है ।

क्षारगुण
संज्ञा पुं० [सं०] खारापन [को०] ।

क्षारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रसेश्वर दर्शन के अनुसार पारे का पंद्रहवाँ संस्कार । २. (विशेषतः व्यभिचार का) दोषारोपण (को०) । ३. क्षार का निर्माण । खार बनाना । ४. टपकना । चुआना (को०) ।

क्षारत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जी, शोरा और सुहागा इन तीन क्षारों का समूह ।

क्षारदशक
संज्ञा पुं० [सं०] दश क्षरों का समूह । सहिंजन, मूली, पलास चूका शाक या तिनपतिया, चित्रक, अद्रक, नीम, ईख, अपामार्ग और केले के क्षारों का समूह ।

क्षारद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] मोरवा नाम का वृक्ष ।

क्षारनदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] (पुराण के अनुसार) नरक की एक नदी का नाम [को०] ।

क्षारपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ नामक साग ।

क्षारपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ नामक साग ।

क्षारपत्रा
संज्ञा पुं० [सं०] चिल्ली नामक साग ।

क्षारपाक
संज्ञा पुं० [सं०] मोथ के पौधे से निकले हिए क्षार को कोरैया, पलाश, बहेड़ा, लोध, केला, चीता, कनेर आदि औष— धियों के साथ जल में पानी से बना हुआ पाक । यह छेदन, भेदन अर्थात् फोड़ा फुंसी के काम में आता है ।

क्षारपाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम ।

क्षारभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊपर जमीन [को०] ।

क्षारमृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] खारी मिट्टी । रेह [को०] ।

क्षारमह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह रोग ।

क्षारलवण
संज्ञा पुं० [सं०] खार नमक । विशेष—वैद्यक में यह पेशाब और दस्त लानेवाला माना गया है ।

क्षारवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जीखार, सोहाग और शोरा इन तीनों का समूह । क्षारत्रय ।

क्षारश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्रक्षार । २. पलास । ३. मोरवा । मुष्कक क्षुप ।

क्षारषट्क
संज्ञा पुं० [सं०] छह प्रकार के क्षारों का समूह । धव, अपामार्ग, कोरैया, लांगली, तिल और मोखा, जिसके भस्म से क्षार निकलता है ।

क्षाराक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] काच की बनी हुई नकली आँख [को०] ।

क्षारक्ष (२)
वि० बनावटी आँख लगानेवाला [को०] ।

क्षारागद
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक औषध । विशेष—यह पलास, नीम, देवदार, धव, आँवला, मिलाँवा, आम आदि कई लकड़ियों के भस्म कों क्षारपाक की रीति से गोमूत्र में मिलाकर पकाने से बनती है । यह औषध अर्श, वातगुल्म, काश, अजीर्ण, संग्रहणी आदि रोगों में दी जाती है ।

क्षाराष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] आठ प्रकार के क्षारों का समूह । विशेष—पलास, हड़जोड़, चिचड़ा, इमली, तिल, मदार, जौ तथा सज्जीखार इस वर्ग के अंतर्गत हैं ।

क्षारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूख । बुभुक्षा [को०] ।

क्षारित
वि० [सं०] १. अपवादग्रस्त । दूषित । २. स्रावित । झरा हुआ ।

क्षारोद
संज्ञा पुं० [सं०] खार समुद्र । लवण समुद्र ।

क्षारोद्रक, क्षारोदधि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षारोद' [को०] ।

क्षाल
संज्ञा पुं० [सं०] क्षालन । धोना । साफ करना [को०] ।

क्षालन
संज्ञा पुं० [सं०] धोना । निर्मल करना । साफ करना [को०] ।

क्षालित
वि० [सं०] धुला हुआ । साफ किया हुआ । उ०—क्षालित शत तरंग तनु पालित अवगाहित निकली दुति निर्मल ।— गीतिका, पृ० ८३ ।

क्षिण पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षण] दे० 'क्षण' । उ०—बज्रहुँ ते तृण क्षिण में होई होई । तृण ते बज्र करै पुनि सोई ।—कबीर बी०, पृ० १३० ।

क्षित (१)
वि० [सं०] १. नष्ट । ध्वस्त । २. क्षीण । छीजा हुआ । ३. दुर्बल किया हुआ । ४. दीन । हीन [को०] ।

क्षित (२)
संज्ञा पुं० १. वध २. आधार । क्षति । प्रहार [को०] ।

क्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । क्षिति [को०] ।

क्षिति
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथिवी । २. वासस्थान । जगह । ३. गोरोचन ४. एक ऋषि का नाम । ५. पंचम स्वर की चार श्रुतियों में से पहली क्षुति । ६. क्षय । ७. प्रलय काल ।

क्षितिक्षम
संज्ञा पुं० [सं०] खैर का पेड़ ।

क्षितिजंतु
संज्ञा पुं० [सं० क्षितिंजन्तु] केंचुआ ।

क्षितिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल ग्रह । २. नरकासुर । ३. केंचुआ । ४. वृक्ष । पेड़ । ५. खगोल में वह तिर्यग् वृत जिसकी दूरी आकाश के मध्य से ९० अंश हो । ऊँचे स्थान पर खडे़ होकर देखने से चारों ओर दिखाई पड़ता हुआ वह वृत्ताकार स्थान जहाँ आकाश और पृथ्वी दोनों मिले जान पड़ते हैं ।

क्षितिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी की कन्या—सीता [को०] ।

क्षितितनय
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह ।

क्षितितल
संज्ञा पुं० [सं०] पृथ्वीतल । धरातल [को०] ।

क्षितिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] भूसुर । ब्राह्मण ।

क्षितिधर
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । भूधर ।

क्षितिप
संज्ञा पुं० [सं०] भूपति । राजा । उ०—सब हर्षनिमग्न हो गए, क्षितियों के मन भग्न हो गए ।—साकेत, पृ० ३५६ ।

क्षितिपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । भूपति [को०] ।

क्षितीश, क्षितीश्वर
संज्ञा पुं० दे० 'क्षितिपपति' [को०] ।

क्षित्यदिति
संज्ञा पुं० [सं०] देवकी का तान, जो भगवान् कृष्ण की माता थीं [को०] ।

क्षित्यधिप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षितिपति' [को०] ।

क्षिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोग । २. सूर्य । ३. सींग ।

क्षिप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकने की क्रिया । क्षेपण । २. अपमानित करना । झिड़कना [को०] ।

क्षिप (२)
वि० १. क्षेपक । फेंकनेवाला । २. अपमान करनेवाला [को०] ।

क्षिपक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० क्षिपिका] योद्धा । धनुर्धर [को०] ।

क्षिपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकना । डालना । २. भेजना । ३. अभियोग करना । भर्त्सना करना [को०] ।

क्षिपणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डाँड । चप्पू । २. अस्त्र । फेंककर प्रहार किया जानेवाला हथियार । जाल । ४. पुरोहित [को०] ।

क्षिपणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाबुक का प्रहार । कशाघात [को०] ।

क्षिपणु
संज्ञा पुं० [सं०] १. हवा । पवन । दे० 'क्षिपणि' [को०] ।

क्षिपण्यु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर २. बसंत ऋतु । ३. सुवास । सुगध [को०] ।

क्षिपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. फेंकना । डालना । २. रात ।

क्षिप्त (१)
वि० [सं०] १. त्यक्त । २. विकीर्ण । उ०—क्षिप्त खिलोने देख हठीले बाल के, रख दे माँ ज्यों उन्हें सँभाल सँभाल के ।— साकेत, पृ० ११५ । ३. अवज्ञात । अपमानित । ४. पतित । ५. वात रोग से ग्रस्त । पागल । ६. स्थापित [को०] ।

क्षिप्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] योग में चित्त की पाँच वृत्तियों या अवस्थाओं में से एक, जिसमें चित्त रजीगण के द्वारा सदा अस्थिर रहता है । कहा गया है, यह अवस्था योग के लिये अनुकूल या उपयुक्त नहीं होती । वि० दे० 'चित्तभूमि' ।

क्षिप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि । रात (को०) ।

क्षिप्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकना । डालना । २. कूट अर्थ को प्रकट करना [को०] ।

क्षिप्र (१)
क्रि० वि० [सं०] १. शीघ्र । जल्दी । २. तत्क्षण । तुरंत ।

क्षिप्र (२)
वि० [सं०] १. तेज । जल्द । जैसे—क्षिप्रहस्त, क्षिप्रहोम । २. चंचल ।

क्षिप्र (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुश्रुत के अनुसार शरीर के एक सौ सात मर्म स्थानों में से एक, जो अँगूठे और दूसरी उँगली के बीच में है । २. एक मुहूर्त का पंद्रहवाँ भाग ।

क्षिप्रकर
वि० [सं०] कुशल । मुस्तैद । उ०—मकरंद तबला के बजाने में क्षिप्रकर था ।—श्यामा०, पृ० १०१ ।

क्षिप्रकारी
वि० [सं० क्षिप्रकारिन्] शीघ्र काम करनेवाला [को०] ।

क्षिप्रचेता
वि० [सं० क्षिप्रचेतस्] सचेत । जागरूक । प्रत्यत्पन्न मति ।

क्षिप्रपाकी
संज्ञा पुं० [सं०] गर्दभांड नाम का वृक्ष । पारस पीपल ।

क्षिप्रमूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रेंद्रिय सबंधी एक प्रकार का रेग ।

क्षिप्रश्येन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की शिकारी चिड़िया ।

क्षिप्रहस्त (१)
वि० [सं०] शीघ्र या तेज काम करनेवाला ।

क्षिप्रहस्त (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि का एक नाम । २. एक राक्षस का नाम ।

क्षिप्रहोम
संज्ञा पुं० [सं०] सायंकाल और प्रातःकाल का होम, जो संक्षिप्त और जल्दी होता है ।

क्षिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विनाश । हानि । बर्बादी । २. आचार का उल्लंघन । अनौचित्य [को०] ।

क्षीण
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० क्षीणा; भाव० संज्ञा क्षीणता, क्षैण्य] १. दुबला । पतला । २. सूक्ष्म । ३. क्षयशील । ४. घटा हुआ । जो कम हो गया हो । जैसे—क्षीणकोष, क्षीणवृत्ति । ५. निर्धन । संकटग्रस्त (को०) । ६. सुकुमार । नाजुक (को०) । ७. मृत । विध्वस्त (को०) ।

क्षीणकंठ
वि० [सं० क्षीणकण्ठ] १. जिसका गला सूख गया हो । सूखे गलेवाला । २. मंद आवाज वाला । उ०—क्षीणकंठ कर रहा पुकार, जलधर से बनकर जलधार ।—वीणा, पृ० ९ ।

क्षीणकाय
वि० [सं०] दुबले पतले शरीरवाला । दुर्बल [को०] ।

क्षीणचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० क्षीणचन्द्र] वह चंद्रमा जिसमें सात या इससे कम कलाएँ हों । (कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक का चंद्रमा 'क्षीणचंद्र' कहलाता है ।)

क्षीणता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्बलता । कमजोरी । २. दुबलापन । पतलापन । ३. सूक्ष्मता ।

क्षीणपाप
वि० [सं०] जिसके पाप नष्ट हो गए हों [को०] ।

क्षीणपुण्य
वि० [सं०] जिसके पुण्य समाप्तप्राय हों । जो पुण्य का फल भोग चुका हो [को०] ।

क्षीणप्रकृति
वि० [सं०] (राजा) जिसकी प्रकृति अर्थात् प्रजा दरिद्र हो । जिसकी प्रजा दिन पर दिन दुर्बल और दरिद्र होती जाती हो ।

क्षीणमध्य
वि० [सं०] पतली कमरवाला [को०] ।

क्षीणवासी
वि० [सं० क्षीणवासिन्] टूटे फूटें घर में रहनेवाला [को०] ।

क्षीणविक्रांत
वि० [सं० क्षीणविक्रान्त] शक्ति या पौरुषहीन [को०] ।

क्षीणवृत्ति
वि० [सं०] गरीब । कंगाल [को०] ।

क्षीणवीर्य
वि० [सं०] शक्तिहीन ।

क्षीणवृत्ति
वि० [सं०] जीविका के साधनों से रहित । बेरोजगार । बेकार [को०] ।

क्षीणसार
वि० [सं०] रसरहित । तत्वहीन । शुक्ल (वृक्षादि) ।

क्षीणार्थ
वि० [सं०] स्वल्प धनवाला । धनरहित [को०] ।

क्षीन पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीण] दे० 'क्षीण' । उ०—उपजत विनलत क्षीन भइ देहा । कलियुग आवै क्षीन सनेहा ।—कबीर सा०, पृ० ५१ ।

क्षीब
वि० [सं०] दे० 'क्षीव' ।

क्षीयमाण
वि० [सं०] १. नित्य घटने या कम होनेवाला । २. नाशवान् ।

क्षीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुध । पय । यौ०—क्षीरसार = मक्खन ।२. द्रव या तरल पदार्थ । ३. जल । पानी । ४. पेड़ों का रस या दूध । निर्यास । ५. खीर । ६. सरल नामक वृक्ष का गोंद ।

क्षीरकंठ, क्षीरकंठक
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरकण्ठ, क्षीरकण्ठक] दुधमुँहा बच्चा [को०] ।

क्षीरकंद
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरकन्द] क्षीरविदारी ।

क्षीरकाडंक
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरकाण्डक] १. थूहड़ । २. मंदार ।

क्षीरकाकोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षीरकाकोली' ।

क्षीरकांकोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की काकोली जड़ी जो हलकी और वीर्यवर्धक होती है और जिसके खाने से स्त्रियों का दूध बढ़ता है । यह अष्टवर्ग के अंतर्गत है ।

क्षीरखर्जूर
संज्ञा पुं० [सं०] पिंडखजूर ।

क्षीरघृत
संज्ञा पुं० [सं०] वह मक्खन जो दूध को मथकर निकाला गया हो । सुश्रुत के अनुसार यह मलरोधक, मूर्च्छा दूर करने— वाला और नेत्रों को हितकारी होता है ।

क्षीरज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. शंख । ३. कमल । ४. दही । ५. मोती । मुक्ता (को०) । ६. समुद्रमंथन से उद्भूत अमृत या मक्खन (को०) । ७. शेषनाग (को०) । ८. समुद्री नमक (को०) ।

क्षीरज (२)
वि० [सं०] दूध से उत्पन्न या बना हुआ ।

क्षीरजा
संज्ञा पुं० [सं०] लक्ष्मी ।

क्षीरतुंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीरतुम्बी] कद्दू । लौकी [को०] ।

क्षीरतैल
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का औषध सिद्धतैल ।

क्षीरदल
संज्ञा पुं० [सं०] मंदार । आक ।

क्षीरद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वत्थ ।

क्षीरधात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूध विलानेवाली धाय [को०] ।

क्षीरधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. क्षीरसागर । दुग्ध का समुद्र [को०] ।

क्षीरधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार एक प्रकार की कल्पित गौ, जो घड़े आदि को स्थापित करके बनाई और दान की जाती है । २. दूध देनेवाली गाय (को०) ।

क्षीरनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. क्षीरसागर [को०] ।

क्षीरनीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. आलिंगन । गले लगाना । २. मिल जाना । ३. दूध और जल (को०) । ४. दूध की तरह का जल (को०) ।

क्षीरप
संज्ञा पुं० [सं०] शिशु । बच्चा । बालक [को०] ।

क्षीरपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मंदार । आक ।

क्षीरपलांडु
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरपलाण्डु] सफेद प्याज ।

क्षीरपाक (१)
वि० [सं०] दूध में पकाया हुआ ।

क्षीरपाक (२)
संज्ञा पुं० वैद्यक में वह ओषधि जो अठगुने दूध और जल में औटाकर तैयार की जाय ।

क्षीरपाकौदन
संज्ञा पुं० [सं० क्षीर + पाक + ओदन] दूध में पकाया हुआ चावल । खीर । जाउर । उ०—क्षीरपाकोदन अर्थात् दूध में पकाए हुए भात (जिसे खीर कहते हैं) का भी उल्लेख है ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ८० ।

क्षीरपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शखपुष्पी [को०] ।

क्षीरभृत
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार वह ग्वाला या चरवाहा जो अपने वेतन स्वरूप केवल दूध ही ले ।

क्षीरवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षीरविदारी [को०] ।

क्षीरविदारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] विदारी कंद से मिलती जुलती एक प्रकार की जड़ी जिसमें से दुध निकलता है । यह शूल और प्रेमह रोगों में उपकारी मानी जाती है । पर्या०—इक्षगंधा । क्षीरवल्ली । पयःकदा । पयोलता ।

क्षीरवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदुंबर । गूलर । ३. अश्वत्थ । ४. खिरनी ।

क्षीरव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] केवल दूध पीकर रहते का व्रत ।

क्षीरशर
संज्ञा पुं० [सं०] मलाई । साढ़ी [को०] ।

क्षीरशाक
संज्ञा पुं० [सं०] कच्चा फटा हुआ दूध । वैद्यक में इसे बहुत बलकारक माना गया है ।

क्षीरषष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] दूध में पकाया हुआ साठी चावल का भात, जो ग्रहयज्ञ में बुध ग्रह को अर्पित किया जाता है ।

क्षीरसंतानिका
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षीरसन्तानिका] एक प्रकार का बिगड़ा हुआ दूध ।

क्षीरस
संज्ञा पुं० [सं०] दूध या दही पर की मलाई ।

क्षीरसागर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सात समुद्रों में से एक, जो दूध से भरा हुआ माना जाता है । नारायण इसी समुद्र में शेषशय्या पर सोते हैं ।

क्षीरसार
संज्ञा पुं० [सं०] नवनीत । मक्खन [को०] ।

क्षीरस्फटिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बढ़िया स्फटिक ।

क्षीरहिंडोर
संज्ञा पुं० [सं० क्षीरहिण्डोर] दूध का फेन [को०] ।

क्षीरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकोली नाम की जड़ी ।

क्षीराद
संज्ञा पुं० [सं०] दुधमुहाँ बच्चा [को०] ।

क्षीराब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरसागर । दूध का समुद्र ।

क्षीरिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सर्प ।

क्षीरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिंड खजूर । २. बंशलोचन । ३. दूध से बना खाद्यपदार्थ (को०) । ४. खिरानी का पेड़ (को०) ।

क्षीरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षीर काकोली । २. खिरनी । ३. दुद्धी नाम कू लता । ४. वराहक्रांता ।

क्षीरी (१)
वि० [सं०] दूध देनेवाला । दूधयुक्त जिससे दूध निकले [को०] ।

क्षीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] खीर ।

क्षीरोद
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरसमुद्र । यौ०—क्षारोदतनय, क्षीरोदनंदन = चंद्रमा । क्षीरोदतनया, क्षीपोदसुता = लक्ष्मी ।

क्षीरोदक
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का रेशमी कपड़ा ।

क्षीरोदतनय
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा जो समुद्र का पुत्र और उससे उत्पन्न माना जाता है ।

क्षीरदतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी जो समुद्र की कन्या और उससे उत्पन्न या निकली हुई मानी जाती है ।

क्षीरोदधि
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरसागर । क्षीरसमुद्र ।

क्षीरौदन
संज्ञा पुं० [सं०] दूध में पकाया चावल । खीर ।

क्षीव
वि० [सं०] मदोन्मत्त । मतवाला । उत्तेजित । मत्त [को०] ।

क्षुण
संज्ञा पुं० [सं०] ठेरी का पेड़ । रीठा [को०] ।

क्षुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] धरती । भूमि [को०] ।

क्षुण्ण
वि० [सं०] १. अभ्यस्त । २. टुकड़े टुकड़े या चूर्ण किया हुआ । ३. जिसका कोई अंग टूट या कट गया हो । खंडित । ४. अनुगत । ५. परजित (को०) ।

क्षुण्णक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ढोल जो अंत्येष्टि के समय बजाया जाता है [को०] ।

क्षुत्
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छींक । २. भूख । क्षुधा । यौ०—क्षुत्क्षाम = भूख से कृश । क्षुप्तिपासा = भूख प्यास । उ०— भाव मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है, वह क्षुत्पिपासा, काम वेग आदि शरीर वेगों से भिन्न है ।—रस०, पृ० १६४ ।

क्षुत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छींक ।

क्षुत (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्, क्षुत्] भूख । उ०—छूटे सबै सबनि के सुख क्षुत पिपासा । विद्वाद्विनोद गुणगीत विधान बासा ।— केशव (शब्द०) ।

क्षुतक
संज्ञा पुं० [सं०] काली सरसों या राई [को०] ।

क्षुतपियास पु
संज्ञा स्त्री० [क्षुत्+पिपासा] भूख प्यास । उ०— हरि अरु मृग जहँ इक सँग चरै । क्षुतपियास नैक न संचरै ।— नंद० ग्रं०, पृ० २६७ ।

क्षुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छींकना । छींक [को०] ।

क्षुद
संज्ञा पुं० [सं०] पिया हुआ गोधूमचूर्ण । चूर्ण । आटा [को०] ।

क्षुद्र (१)
वि० [सं०] १. कृपण । कंजूस । २. अधम । नीच । ३. अल्प । छोटा या थोड़ा । ४. क्रूर । खोटा । ५. दरिद्र । निर्धन ।

क्षुद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चावल का कण । १. मधुमक्खी या बर्रे [को०] ।

क्षद्रक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन देश का नाम जो वर्तमान पंजाब के अंतर्गत है । २. क्षुद्र व्यक्ति । ३. तोला । एक परिमाण । ४. एक प्रकार का बाण (को०) ।

क्षुद्रक
वि० क्षुद्र । निम्न ।

क्षुद्रकुलिश
संज्ञा पुं० [सं०] वैंक्रांतमणि [को०] ।

क्षुद्रघंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्रघण्टिका] १. एक प्रकार का प्राचीन आभूषण जो कमर में पहना जाता था । इसमें घुँघरू या घंटियाँ लगी रहती थीं, जो चलने में बजती थीं । घुँघरूदार करधनी । २. घुँघरू ।

क्षुद्रचंचु
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्रचञ्चु] एक प्रकार का झाड़ [को०] ।

क्षुद्रचंदन
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्रचन्दन] लाल चंदन ।

क्षुद्रजंतु
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्रजन्तु] बहुत छोटा और बिना हड्डी का जंतु या कीड़ा मकोड़ा ।

क्षुद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीचता । कमीनापन । २. ओछापन ।

क्षुद्रतुलसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की बबुई तुलसी ।

क्षुद्रदंशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मक्खी । डाँस [को०] ।

क्षुद्रधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] कँगनी, चेना, कोदों आदि कुधान्य । विशेष—वैद्यक के अनुसार इस प्रकार के धान्य रूखे, कसैले, हलके और वातकारक होते हैं ।

क्षुद्रपति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुबेर । उ०—रुद्रपति, क्षुद्रपति, लोकपति, वोकपति, धरनिपति, गगनपति अगमबानी ।—सूर (शब्द०) ।

क्षुद्रपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमलोनी । नोनिया साग ।

क्षुद्रपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] बच ।

क्षुद्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] लंबाई की एक नाप जो १० अंगुल के बराबर होती है [को०] ।

क्षुद्रपनस
संज्ञा पुं० [सं०] लकुच का पेड़ [को०] ।

क्षुद्रपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] तुलसी [को०] ।

क्षुद्रपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] बनपीपर । बनपिप्पली [को०] ।

क्षुद्रप्रकृति
वि० [सं०] ओछे या खोटे स्वभाववाला । नीच प्रकृति का ।

क्षुद्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूमिजंबु का वृक्ष [को०] ।

क्षुद्रफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जामुन । २. इंद्रायण ।

क्षुद्रबुद्धि
वि० [सं०] १. दुष्ट या नीच बुद्धिवाला । २. नासमझ । मूर्ख ।

क्षुद्रम
संज्ञा पुं० [सं०] धातु आदि तोलने के लिये छह माशे का एक तौल, जिसे 'छदाम' कहते हैं ।

क्षुद्रमुस्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कसेरू ।

क्षुद्ररस
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहद । मधु । २. विषयसुख [को०] ।

क्षुद्ररोग
संज्ञा पुं० [सं०] छोटे रोग, सुश्रुत के अनुसार जिनकी संख्या ४४ (४८) है और जिनमें फोड़ा, फुंसी, मुँहासा, झाई, कुनख आदि संमिलित हैं ।

क्षुद्रल
वि० [सं०] (रोग और जानवर के लिये विशेषतः प्रयुक्त) मामूली । तुच्छ । बहुत छोटा [को०] ।

क्षुद्रवर्वणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भिड़ । बर्रे । २. डाँस [को०] ।

क्षुद्रशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चीनी [को०] ।

क्षुद्रशार्दूल
संज्ञा पुं० [सं०] चीता । चित्रक [को०] ।

क्षुद्रशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] मयूरशिखा नाम का वृक्ष [को०] ।

क्षुद्रश्वास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का श्वास रोग । विशेष—सुश्रुत के अनुसार यह अधिक भोजन या कम परिश्रम करने और दिन को सोने से होता है । माधव निंदान में इसे रूखे पदार्थ खाने से और श्रम करने से प्रकट माना गया है ।

क्षुद्रसुवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल ।

क्षुद्रहा
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्रहन्] शिव का एक नाम ।

क्षुद्रांजन
संज्ञा पुं० [सं० क्षुद्राञ्जन] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का अंजन जो शोधे हुए आँवले आदि से बनाया जाता है ।

क्षुद्रांत्र
[सं० क्षुद्रान्त्र] हृदय के पास की एक छोटी नाड़ी ।

क्षुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्या । २. चँगेरी । अमलोना । लोनी । ३. जटामासी । बालछड़ । ४. एक प्रकार की मधुमक्खी जिसे 'सरघा' कहते हैं । ५. गवेधुक । कौड़ियाला । कोड़िल्ला । ६. कटकारी । ७. हिचकी । ८. प्राचीन काल की एक प्रकार की नाव जो १६ हाथ लंबी, ४ हाथ चौड़ी और ४ हाथ ऊँची होती थी । यह केवल छोटी छोटी नदियों में चलती थी । ९. वेश्या । वारवधू (को०) । १०. लड़ाकू औरत (को०) । ११. विकलांग स्त्री (को०) । १२. नृत्यांगना । नाचनेवाली लड़की (को०) ।

क्षुद्रात्मा
वि० [सं० क्षुद्रात्मन्] निम्न विचार का । निम्न प्रकृति— वाला [को०] ।

क्षुद्रावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुद्रघंटिका । किंकिणी । उ०—अंग अभूषण जनानि उतारति । दुलरी ग्रीव माल मोतिन की केयुर लै भुज श्याम निहारति । क्षुद्रावली उतारति कटि तें सैंति धरति मन ही मन वारति ।—सूर (शब्द०) ।

क्षुद्राशय
वि० [सं०] नीचप्रकृति । कमीना । 'महाशय' का उलटा ।

क्षुद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] करधनी । किंकणी । क्षुद्रघंटिका । उ०— मिलनस्मृति सी रहे यहाँ यह क्षुद्रिका । सीता देने लगीं स्वर्णमणिमुद्रिका ।—साकेत, पृ० १२९ । २. डंस । डाँस (को०) ।

क्षुद्रेंगदी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुद्रेंङ्गुदी] जवासा ।

क्षुधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० क्षुधित, क्षुधालु] भोजन करने की इच्छा । भूख ।

क्षुधाक्षीण
वि० [सं०] भूख से कृश वा दुर्बल ।

क्षुधातुर
वि० [सं०] जिसे भूक लगी हो । भूखा ।

क्षुधानिवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुधा की शांति । भूख का मिटाना । पेट भरना ।

क्षुधार्त
वि० भूक से कातर [को०] ।

क्षुधार्दित
वि० [सं० क्षुधा+अर्दित] भूख से पीड़ित ।

क्षुधालु
वि० [सं०] जिसे सदैव भूख लगी रहती हो । भुक्खड़ ।

क्षुधावंत
वि० [हिं० क्षुधा+वंत (प्रत्य० या सं० क्षुधावान् का बहु० व० क्षुधावन्त] क्षुधा से पीड़ित । भूखा । उ०— क्षुधावंत रजनीचर मेरे ।—तुलसी (शब्द०) ।

क्षुधावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक विशेष प्रकार की तैयार की हुई औषध जिसके सेवन से भूख बढ़ती है ।

क्षुधित
वि० [सं०] जिसे भूख लगी हो । भूखा । बुभुक्षित ।

क्षुध्या पु
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षुधा] दे० 'क्षुधा' उ०—अमृत फल से भोजन करहीं युगन युगन की क्षुध्या हरहीं ।—कबीर सा०, पृ० १००२ ।

क्षुप
संज्ञा पुं० [सं०] १. छोटी डालियोंवाला वृक्ष । पौधा । झाड़ी । २. श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम जिसका जन्म सत्यभामा के गर्भ से हुआ था । ३. महाभारत के अनुसार प्रसंधि के पुत्र और ईक्ष्वाकु के पिता का नाम ।

क्षुपक
संज्ञा पुं० [सं०] झाड़ी । गुल्म [को०] ।

क्षुपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षुपक' ।

क्षुब्ध (१)
वि० [सं०] १. आंदोलित । चंचल । अधीर । २. व्याकुल । विह्वल । ६. भयभीत । डरा हुआ । ४. कुपित । क्रुद्ध ।

क्षुब्ध (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथानी की डंडी । २. एक प्रकार का रतिबंध या कामशास्त्र की क्रिया ।

क्षुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य के एक प्रकार के परिषद् देवता ।

क्षुभित
वि० [सं०] क्षुब्ध ।

क्षुमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० क्षौम] १. बाण । २. एक प्रकार के पौधों की जाती जिनकी डाली पतली और सीधी तथा छाल रेशेदाल और दृढ़ होती है जैसे, अलसी, पटसन, सन, इत्यादि । ३. अलसी । ४. सनई । ५. नील का पौधा ।

क्षुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. छुरा । उस्तरा । यौ०—क्षुरकर्म, क्षुरक्रिया = हजामत । क्षुरचतुष्टय = हजामत के लिये आवश्यक उस्तरा, जल, कुशतृण और ब्रश आदि ४ वस्तुएँ । २. वह बाण जिसकी गाँसी की धार छुरे के सदृश होती है । ३. गोखरू । ४. पशुओं के पावँ का खुर । ५. शय्या का पावा । चारपाई का गोड़ा [को०] ।

क्षुरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षुर' ।

क्षुरधान
संज्ञा पुं० [सं०] नाई की किसबत ।

क्षुरधार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम । २. एक प्रकार का बाण ।

क्षुरधार (२)
संज्ञा पुं० [सं०] जिसकी धार छुरे की तरह तेज हो ।

क्षुरपत्र (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० क्षुरापत्रा, क्षुरापत्री] जिसके पत्ते छुरे की तरह धारदार हों ।

क्षुरपत्र (२)
संज्ञा पुं० १. शर नामक गुच्छ । २. क्षुरधार नामक बाण ।

क्षुरपत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पालकी नामक साग । पालक ।

क्षुरपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पालकी नामक साग । पालक ।

क्षुरपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] बचा । बच ।

क्षुरप्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकार का बाण, जिसकी गाँसी की धार तेज छुरे की धार के समान होती है । २. खुरपा ।

क्षुरभांड
संज्ञा पुं० [सं० क्षुरभाण्ड] दे० 'क्षुरधान' ।

क्षुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छुरी । चाकू । २. पालकी नामक साग । ३. मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार एक यजुर्वेदीय उपनिषद् का नाम । ४. एक प्रकार का मिट्टी का पात्र (को०) ।

क्षुरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाइन । नाई जाति की स्त्री [को०] ।

क्षुरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्षुरिन्] [स्त्री० क्षुरिनी] १. नाई । हज्जाम । २. वह पशु जिसके पाँव में खुर हों ।

क्षुरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छुरी । चाकू ।

क्षुल्ल
वि० [सं०] १. छोटा । २. थोड़ा [को०] ।

क्षुल्लक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'क्षुद' । २. छोटा शंख (को०) ।

क्षुल्लतात
संज्ञा पुं० [सं०] पितृव्य । पिता का छोटा भाई [को०] ।

क्षुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. छींक । २. राई । ३. लाही ।

क्षेतरपाल पु
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्रपाल] दे० 'क्षेत्रपाल' । उ०— कलियुग क्षेतरपाल है क्या भैरो कोई भूत । कबीर मं०, पृ० ५८८ ।

क्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ अन्न बोया जाता हो । खेत । २. समतल भूमि । ३. वह जगह जहाँ कोई चीज पैदा हो । उत्पत्तिस्थान । ४. स्थान । प्रदेश । जैसे, —हरिहर क्षेत्र । कुरुक्षेत्र । ५. पुण्यस्थान । तीर्थस्थान । ६. राशि (मेष आदि) । ७. स्त्री । जोरू । ८. शरीर । बदन । ९. गीता के अनुसार पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ, पाँचों कर्मेंद्रियाँ, मन, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संस्कार चेतनता और धृति । १०. अंतः— करण । ११. वह स्थान जो रेखाओं से घिरा हुआ हो । यौ०—क्षेत्रभक्ति = खेतों का बँटवारा । क्षेत्रमिति = क्षेत्रगणित । क्षेत्ररुहा = एक तरह की ककड़ी । क्षेत्रव्यवहार = किसी क्षेत्र का वर्गफल आदि निकलना । क्षेत्रसंन्यास = किसी स्थानविशेष की सीमा के अंदर रहने का व्रत । १२. बाड़ा । घेरा (को०) । १३. गृह । घर (को०) । १२. रेखाचित्र । रेखांकन (को०) । १४. अन्नसत्र (को०) ।

क्षेत्रकर, क्षेत्रकर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] किसान । खेतिहर (को०) ।

क्षेत्रगणित
संज्ञा पुं० [सं०] गणित विद्या की वह शाखा जिसमें क्षेत्रों के नापने और उनके क्षेत्रफल निकालने की विधि का वर्णन रहता है ।

क्षेत्रज (१)
वि० [सं०] जो क्षेत्र से उत्पन्न हो ।

क्षेत्रज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मानुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक । वह पुत्र जो किसी अयोग्य या असमर्थ पुरुष की बिना संतानवाली स्त्री अथवा मृत पुरुष की बिना संतानवाली विधवा के गर्भ और नियुक्त देवर आदि के वीर्य से उत्पन्न हो । इस प्रकार का पुत्र अपनी माता के पति के स्वत्व का अधिकारी माना जाता है । कलियुग में इस प्रकार का पुत्र उत्पन्न करना वर्जित है ।

क्षेत्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सफेद कंटकारी । २. एक प्रकार की ककड़ी । ३. गोमूत्र तृण । ४. शिल्पिका । शिल्पी घास ।

क्षेत्रजात
वि० [सं०] परपुरुष द्वारा उत्पन्न (संतान) [को०] ।

क्षेत्रज्ञ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का अधिष्ठाता, जीवात्मा । २. परमात्मा । ३. किसान । खेतहर । ४. साक्षी ।

क्षेत्रज्ञ (२)
वि० [सं०] जानकार । ज्ञाता ।

क्षेत्रदूतिका, क्षेत्रदूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्वेतवर्ण की कंठकारी [को०] ।

क्षेत्रपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेत का रखवाला । क्षेत्रपाल २. खेतिहर । काश्तकार । ३. जीवात्मा । ४. परमात्मा ।

क्षेत्रपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. खेत का रखवाला । क्षेत्ररक्षक । २. एक प्रकार के भैरव जो संख्या में ४९ हैं ओर पश्चिम के द्वारपाल माने जाते हैं । ३. द्वारपाल । ४. किसी स्थान का प्रधान प्रबंधकर्ता । स्वयंभू । भूमिया ।

क्षेत्रफल
संज्ञा पुं० [सं०] किसी क्षेत्र का वर्गात्मक परिमाण जो प्रायः उसकी लंबाई और चौड़ाई के घात या गुणन से जाना जाता है । वर्गपरिमाण । रकबा ।

क्षेत्रविद् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जीवात्मा ।

क्षेत्रविद् (२)
वि० [सं०] जिसे स्थानों और मार्गों का पूरा ज्ञान हो ।

क्षेत्रहिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खेत को नुकसान पहुँचाना । विशेष—कौटिल्य के समय में इस संबंध में ये नियम थे—खेत चर जाने पर पशुओं के मालिकों से दुगुना नुकसान लिया जाता था । यवि किसी ने कहकर करवाया हो तो उसपर १२ पण और जो रोज यही करे उसपर २४ पण जुर्माना किया जाता था । रखवालों को आधा दंड मिलता था ।

क्षेत्रजीव
संज्ञा पुं० [सं०] किसान । खेती करनेवाला [को०] ।

क्षेत्रादीपक
संज्ञा पुं० [सं०] खेत में आग लगानेवाला । विशेष—प्राचीन काल में इसका दंड आग लगानेवाले को आग में जला देना था ।

क्षेत्राधिप
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार किसी राशि का स्वामी ।

क्षेत्रानुगत
वि० [सं०] कौटिल्य के अनुसार घाट या बंदरगाह पर लगा हुआ (जहाज) ।

क्षेत्रामलकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भूँइआवला । भूम्यामलकी [को०] ।

क्षेत्रिक
संज्ञा पुं० [सं०] किसान । खेतवाला कृषक ।

क्षेत्रिय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चरागाह । २. परस्त्री से संबंध रखने— वाला पुरुष । ६. असाध्य रोग । कठिन रोग । ४. दवा । ओषधि [को०] ।

क्षेत्रिय (२)
वि० खेत संबंधी या खेत में उत्पन्न । ३. क्षेत्र का अधिकारी । ४. (रोग) असाध्य । कठिन [को०] ।

क्षेत्री
संज्ञा पुं० [सं० क्षेत्रिन्] १. खेत का मालिक । २. नियुक्ता स्त्री का विवाहित पति । नाममात्र का पति । उ०—जब इस गर्भवती के लेने से मुझे क्षेत्री कहलाने का डर है तो क्योंकर इसे स्वीकार कर सकता हूँ ।—शकुंतला, पृ० ९२ । ३. स्वामी । ४. आत्मा (को०) । ५. परमात्मा (को०) । ६. असाध्य वा कठिन रोग (को०) ।

क्षेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. शोक । २. रोदन [को०] ।

क्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकना । २. ठोकर । घात । ३. अक्षांश । शर । ४. निंदा बदनामी कलंक । ५. दूरी । ६. बिताना । गुजारना । जैसे,—कालक्षेप । फूल का गुच्छा । पुष्पस्तवक (को०) । ८. विलंब । देरी (को०) । ९. घमंड । अहंकार (को०) । १०. अनादर । अपमान (को०) । ११. नाव का डाँडा खेना (को०) ।

क्षेपक (१)
वि० [सं०] १. फेंकनेवाला । २. मिलाया हुआ । मिश्रित । ३. निंदनीय ।

क्षेपक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. केवठ । मल्लाह । कर्णधार । ३. (पुस्तक आदि में) ऊपर या पीछे से मिलाया हुआ अंश ।

क्षेपण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फेंकना । २. गिराना । ३. बिताना । काटना । गुजारना । ४. अपवाद । निंदा । ५. फेंकने की वस्तु । फेंकने का साधन (गोफन, ढेलवाँस आदि) । ६. विस्मृत करना भूलना (को०) ।

क्षेपणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चप्पू । डाँड़ । २. मछली पकड़ने का जाल । ३. गोफन । गुलेल । ढेलवाँस [को०] ।

क्षेपणिक
संज्ञा पुं० [सं०] नाव या जहाज चलानेवाला । मल्लाह । केवट ।

क्षेपणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार का अस्त्र जो शत्रु पर फेंका जाता है । २. नाव का डाँड़ । बल्ली । उ०—अपनी इस नौका में मैं ही हूँ एकाकी, मेरे हाथों में है क्षेपणियाँ दुबिधा की ।— अपलक, पृ० ९८ । ३. मछली फँसने का जाल (को०) ।

क्षेपणीय
वि० [सं०] फेंकने योग्य ।

क्षेप्ता
वि० [सं० क्षेप्तृ] १. फेंकनेवाला क्षेपण करनेवाल । २. तिरस्कार करनेवाला [को०] ।

क्षेप्य
वि० [सं०] १. फेकने या कष्ट करने योग्य । २. रखने योग्य । भीतर रखने योग्य । ३. जोड़ने योग्य [को०] ।

क्षेमंकर
वि० [सं० क्षेमङ्कर] शुभ या मंगल करनेवाली । हितावह कल्याणकर [को०] ।

क्षेमंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षेमङ्करी] १. एक प्रकार की चील जिसका गला सफेद होता है । छेमकरी । २. एक देवी का नाम ।

क्षेम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राप्त वस्तु की रक्षा । सुरक्षा । यौ—योगक्षेम । २. कल्याण । कुशल । मंगल । ३. अभ्युदय । ४. सुख । आनंद । ५. मुक्ति । ६. फलित ज्योतिष के अनुसार जन्म के नक्षेत्र से चौथा नक्षत्र । ७. चोवा । ८. धर्म का एक पुत्र जो शांति के गर्भ से उत्पन्न हुआ था । ९. सुरक्षा । बचाव (को०) । १०. आधार (को०) । ११. विश्राम का स्थान (को०) ।

क्षेम (२)
वि० १. सुखी । आनंदयुक्त । २. कल्याणकर । ३. सुरक्षाप्राप्त सुरक्षित । [को०] ।

क्षेमक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्लक्षद्वीप के एक वर्ष का नाम । २. शिव के एक गण का नाम । ३. एक राक्षस का नाम । ४. एक नाग का नाम । ५. एक प्रकार का गंधद्रव्य । चोवा ।

क्षेमकर
वि० [सं०] दे० 'क्षेमंकर' [को०] ।

क्षेमकरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा देवी [को०] ।

क्षेमकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन के पौत्र का नाम, जो जनमेजय का सखा था । कहते हैं, अवध का खेरी या खीरी नामक नगर इसी ने बसाया था ।

क्षेमकल्याण
संज्ञा पुं० [सं० क्षेम+कल्याण] हम्मीर और कल्याण के संयोग से बना हुआ एक संकर राग ।—(संगीत) ।

क्षेमधूर्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम ।—क्षेमधूर्त, देश आदि देश २४-२५-२६ नक्षत्र में विराजमान हैं ।— बृहत्, पृ० ८६ ।

क्षेमधूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम, जिसने महाभारत के युद्ध में दुर्योधन का पक्ष लिया था ।

क्षेमफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] उदुंबर । गूलर ।

क्षेमरात्रि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह रात जिसमें चोरी आदि न हुई हो ।

क्षेमवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नगरी का नाम जिसका वर्णन बौद्ध ग्रंथों में आया है और जो कदाचित् वर्तमान गोरखपुर जिले का क्षेमराजपुर है ।

क्षेमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कात्यायिनी का एक नाम । २. एक अप्सरा का नाम ।

क्षेमासन
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार एक प्रकार का आसन, जिसमें दाहिने हाथ पर दाहिना पैर रखकर बैठते हैं । इस आसन से उपासना करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।

क्षेमी
वि० [सं० क्षेमिन्] १. क्षेम से युक्त । सुरक्षित । निरापद । २. क्षेम कुशल करनेवाला । मंगलकारक । शुभदायक । उ०— जस तस करि हरि पूजन प्रेमी । लियो अंक धरि हरि पद क्षेमी ।—रघुराज (शब्द०) । ३. कुशल चाहनेवाला । भलाई चाहनेवाला । उ०—ज्ञानविराग विवेक तप योग याग जप नेम । प्रेम अधिक सब तें अहै दायक क्षेमिन क्षेम ।— रघुराज (शब्द०) ।

क्षेमेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० क्षेमेन्द्र] काश्मीर का एक प्रसिद्ध संस्कृत कवि, ग्रंथकार और इतिहासकार । यह हिंदू होने पर भी बौद्ध धर्म पर बहुत अनुराग रखता था । इसने कई शैव, वैष्णाव और बौद्ध ग्रंथों की समालोचना की थी । इसका पुरा नाम क्षेमेंद्र व्यास दास था । विशेष—भिन्न भिन्न समयों और स्थानों में क्षेमेंद्र नाम के और भी कई कवि तथा ग्रंथकार हो गए हैं ।

क्षेम्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

क्षेम्य (२)
वि० १. मंगलदायक । हितकर । २. भाग्यवान् । किस्मत— वर । ३. स्वास्थवर्धक [को०] ।

क्षेम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०] ।

क्षेय
वि० [सं०] क्षय किए जाने योग्य ।

क्षैष्य
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीण का भाव । क्षीणता । क्षय ।

क्षैत्र
संज्ञा पुं० [सं०] क्षेत्रसमूह । खेतों का समूह । २. खेत ।

क्षैत्रज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] अध्यात्मिकता । आत्मज्ञान [को०] ।

क्षप्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. त्वरा । शीघ्रता । २. व्याकरण में एक प्रकार की स्वरसंधि [को०] ।

क्षेरेय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० क्षैरेयी] दुध का बना हुआ । दुध युक्त [को०] ।

क्षोड़
संज्ञा पुं० [सं० क्षोड] हाथी बाँधने का खूँटा । आलान ।

क्षोण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर न जा सके । २. एक प्रकार की वीणा ।

क्षोणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । यौ०—क्षेणिदेव =ब्राह्मण । भुसुर । क्षोणिप । क्षोणिपति । क्षोणिपाल = राजा । भूपाल । क्षेणिरुह = वृक्ष । २. एक की संख्या ।

क्षोणिप
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । उ०—क्षोणी में छाँड्यो छप्यो क्षोणिप की छौना छोटो क्षोणिप क्षपण बाँको बिरद बहतु हौं ।—तुलसी (शब्द०) ।

क्षोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी । जमीन । उ०—क्षोण पर जो निज छाप छोड़ते चलते । पदपद्यों में मंजीर मराल मचलते ।— साकेत, पृ० २०४ ।

क्षोणीपति
संज्ञा पुं० [सं०] राजा । नरेश । उ०—क्षोणी में के क्षोणीपति, छाजै जिन्हैं छत्र छाया, क्षोणी क्षोणी छाये क्षिति आये निमिराज के ।—तुलसी (शब्द०) ।

क्षोद
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूर्ण । बुकनी । सफूफ । २. चूर्ण करने या पीसने का काम । ३. जल । पानी । ४. सिल या पत्थर जिसपर चूर्ण पीसा जाय (को०) ।

क्षोदक्षम
वि० [सं०] परीक्षा में टिकने या साहस न छोड़नेवाला पक्का । ठोस [को०] ।

क्षोदित (१)
वि० [सं०] पीसा हुआ । चूर्णित [को०] ।

क्षोदित
संज्ञा पुं० १. चूर्ण । २. धूल । ३. आटा [को०] ।

क्षोदिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० क्षोदिमन्] १. तुच्छता । लघुता । न्यूनता २. सूक्ष्मता । बारीकी [को०] ।

क्षोम
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० क्षुब्ध, क्षुभित] १. विचलिता । खलबली । २. व्याकुलता । घबराहट । ३. भय । डर । ४. रंज । शोक । ५. क्रोध ।

क्षोभक
संज्ञा पुं० [सं०] कामाख्या का एक पहाड़ ।

क्षोभक (२)
वि० [सं०] दे० 'क्षोभण (१)' ।

क्षोभकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] साठ संवत्सरों में से छत्तीसवाँ संवत्सर ।

क्षोभण (१)
वि० [सं०] १. क्षोभित करनेवाला । क्षोभक ।

क्षोभण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काम के पाँच बाणों में से एक । २. विष्णु । ३. शिव ।

क्षोभना पु
क्रि० अ० [सं० क्षोभ] क्षुब्ध होना ।

क्षोभिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में निषाद स्वर की दो श्रुतियों में से अंतिम श्रुति ।

क्षोभित पु
वि० [सं० क्षोभ] १. घबराया हुआ । व्याकुल । २. विचलित । चलायमान । उ०—एक दिवस प्रभु ध्यान लगाय, क्षोभित । चित्त प्रसाद बनाय । —कबीर सा०, पृ० ४०५ । ३. डरा हुआ । भयभीत । ४. क्रुद्ध ।

क्षोभी
वि० [सं० क्षोभिन्] उद्वेगशील । व्याकुल । चंचल । उ०— हरि सुमिरन कीजै जिमि लोभी । निस दिन रहै द्रव्य हित क्षोभी ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

क्षोम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षौम' ।

क्षोहणि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अक्षौहिणी] दे० 'अक्षोहिणी' । उ०— तैंतीस क्षोहणि दल तिन जीता । जनम केर सम्हर पर बीता ।—कबीर सा०, पृ० ४६ ।

क्षौणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'क्षौणी' ।

क्षौणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथिवी । यौ०—क्षैणीप्राचीर = समुद्र । क्षौणीपति = भुपति । क्षौणीधर = पर्वत । २. एक की संख्या ।

क्षौत्र
संज्ञा पुं० [सं०] छुरे, चाकु आदि की धार तेज करने का यंत्र । सान ।

क्षौद्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्षुद्र का भाव । क्षुद्रता । २. छोटी मक्खी का मधु जो पतला, ठंढ़ा, हलका और क्लेदनाशक होता है । क्षुद्रा नामक माक्खियों को इकट्ठा किया हुआ मधु । ३. जल । ४. चंपा का पेड़ । ५. धूल । ६. मागधी माता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति ।

क्षौद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शहद । मधु । २. क्षुद्रक नामक प्राचीन देश जो वर्तमान पंजाब के अंतर्गत था ।

क्षौद्रज
संज्ञा पुं० [सं०] क्षुद्रा मक्खी का मोम ।

क्षौद्रजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शहद की बनी शक्कर । मधु की शर्करा [को०] ।

क्षौद्रधातु
संज्ञा पुं० [सं०] सोना मक्खी ।

क्षौद्रप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] मधुमेह ।

क्षौद्रेय
संज्ञा पुं० [सं०] मोम । क्षौद्रज ।

क्षौम
संज्ञा पुं० [सं०] १. अलसी या सन आदि के रेशों से बुना हुआ कपड़ा । उ०—क्षौम के छत में लटकते गुच्छ हैं, सामने जिनके चमर भी तुच्छ हैं ।—साकेत, पृ० १९ । २. वस्त्र । कपड़ा । ३. घर या अटारी के ऊपर का कमरा । ४. रेशमी या ऊनी वस्त्र (को०) । ५. अलसी (को०) ।

क्षौमक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'क्षौमका' ।

क्षौमका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौवा । एक गंधद्रव्य ।

क्षौमिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सन या अलसी के रेशे के तारोंसे बनी हुई करधनी । २. क्षौम वस्त्र की बनी हुई गुदड़ी या कथरी ।

क्षौमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] टाट की बनी गुदड़ी । २. अलसी [को०] ।

क्षौर
संज्ञा पुं० [सं०] हजामत ।

क्षौरकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] हजामत । क्षौर ।

क्षैरिक
संज्ञा पुं० [सं०] नाई । हजामत ।

क्ष्मा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी । धरती । यौ०—क्ष्माघर = भूधर । पर्वत । क्ष्माधृति, क्ष्मापति, क्ष्मापाल = राजा । २. एक की संख्या ।

क्ष्वेड (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अव्यक्त शब्द या ध्वनि । २. विष । जहर । उ०—गरल हलाहल क्ष्वेड गर कालकूट रस भास । रस में बिरस न घोरि बल चलिये बन करु वास ।—नंददास (शब्द०) । ३. शब्द । ध्वनि । ४. कान का एक रोग जिसमें सनसनाहट भी सुनाई पड़ती है । ५. चिकनाई । चिकनाहट । ६. त्याग ।

क्ष्वेड (२)
वि० [सं०] १. छिछोरा । नीच प्रकृति । २. कुटिल । कपटी ।

क्ष्वेडा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाँस । २. युद्ध की ललकार । ३. सिंहगर्जन [को०] ।

क्ष्वेडित
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह की दहाड़ । सिंहगर्जन [को०] ।

क्ष्वेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्रीड़ा । खेल । हँसी मजाक [को०] ।