विक्षनरी:हिन्दी-हिन्दी/घ

विक्षनरी से


हिंदी वर्णमाला के व्यंजनों में से कवर्ग का चौथा व्यंजन जिसका उच्चारण जिह्वामूल या कंठ से होता है । यह स्पर्श वर्ण हैं । इसमें घोष, नाद, संवार और महाप्राण प्रयत्न होते हैं ।

घंघर पु †
संज्ञा पुं० [अनु० घुनघुन + रव] दे० 'घुँघरू' । उ०— किंकिन सु पाइ घंघर सु गज राज निसाँन सबद्द प्रति ।— पृ० रा०, २५ ।२७९ ।

घंट (१)
संज्ञा पुं० [सं० घण्ट] १. शिव का एक नाम । २. एक प्रकार का व्यंजन । चटनी [को०] ।

घंट (२)
संज्ञा पुं० [सं० घट] १. घड़ा । २. मृतक की क्रिया में वह जलपात्र जो पीपल में बाँधा जाता है ।

घंट (३)
संज्ञा पुं० [सं० घण्टा] दे० 'घंटा' । उ०—घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरौ करहिं पाइक फहराहीं ।—मानस, १ ।३०२ । यौ०—घंटघड़ियाल ।

घंटक
संज्ञा पुं० [सं० घण्टक] एक क्षुप जिसका मूल कफनाशक है । घंटाकर्ण [को०] ।

घंटा
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अल्पा० घंटी] १. धातु का एक बाजा जो केवल ध्वनि उत्पन्न करने के लिये होता है, राग बजाने के लिये नहीं । विशेष—यह दो प्रकार का होता है । एक तो औंधे बरतन के आकार का जिसमें एक लंगर लटकता रहता है और जो लंगर के हिलने से बजता है । दूसरा जिसे घड़ियाल कहते हैं थाली की तरह गोल होता है मुँगरी से ठोंककर बजाया जाता है । क्रि० प्र०—बजाना ।मुहा०—घंटे मोरछल से उठाना= अत्यंत वृद्ध के शव को बाजे गाजे के साथ श्मशान पर ले जाना । २. वह घड़ियाल जो समय की सूचना देने के लिये बजाया जाता है । ३. घंटा बजने का शब्द । घंटे की ध्वनि । जैसे— घंटा सुनते ही सब लोग चल पड़े । क्रि० प्र०—होना । ४. दिन रात का चौबीसवाँ भाग । साठ मिनट या ढाई घड़ी का समय । ५. लिंगेंद्रिय—(बाजारू) । ६. ठेंगा । मुहा०—घंटा दिखाना = किसी माँगने या चाहनेवाले को कोई वस्तु न देना । किसी माँगी या चाही हुई वस्तु का अभाव बताना । जैसे,—रुपया माँगने जाओगे तो वह घंटा दिखा देगा । घंटा हिलाना = व्यर्थ का काम करना । झख मारना । सिर पटकना । हाथ मलना । जैसे,—तुम समय पर तो यहाँ पहुँचे नहीं; अब घंटा हिलाओ ।

घंटाक
संज्ञा पुं० [सं० घण्टाक] सं० 'घंटक' । र

घंटाकरन
संज्ञा पुं० [सं० घण्टाकर्ण] एक घास का पौधा जिसके पत्ते घीए या अरुई की तरह के होते हैं ।

घंटाकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव के एक उपासक का नाम जो कान में इसलिये घंटा बाँधे रहता था कि जब कहीं राम या विष्णु का नाम लिया जाय, तब वह अपना सिर हिला दे और घंटे के शब्द के कारण वह नाम न सुने । २. एक पौधा । घंटक । घंटाकरन ।

घंटाघर
संज्ञा पुं० [हिं० घंटा+ घर] वह उँचा धौरहर जिसपर एक ऐसी बड़ी धर्मघड़ी लगी हो जो चारों ओर से दूर तक दिखाई देता हो और जिसका घंटा दूर तक सुनाई देता है ।

घंटाताड
वि० [सं० घण्टाताड] घंटा बजानेवाला । घंटावादक । घंटिक [को०] ।

घंटानाद
संज्ञा पुं० [सं० घण्टानाद] १. घंटे की ध्वनि । २. कुबेर के एक मंत्री का नाम [को०] ।

घंटापथ
संज्ञा पुं० [सं० घण्टापथ] १. वह सड़क जो १० धनुष चौड़ी हो । नगर की मुख्य सड़क । राजमार्ग । २. भारवि के किरातार्जुनीय महाकाव्य पर माल्लिनाय की टीका का नाम [को०] ।

घंटापाटलि
संज्ञा पुं० [सं० घण्टापाटलि] मुष्कक वृक्ष [को०] । पर्या०—गोलीढ । झाटल । मोक्ष । मुष्क्क । काष्ठपाटलि ।

घंटाबीज
संज्ञा पुं० [सं० घण्टाबीज] जमालगोटे का पैधा और उसका बीज [को०] ।

घंटारष
संज्ञा पुं० [सं० घण्टारव] १. घंटे की ध्वनि । २. सनई का पौधा । शणपुष्पिका [को०] ।

घंटारवा
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टारवा] सनई । शणपुष्पिका [को०] ।

घंटावादक
वि० [सं० घण्टावादक] दे० 'घंटाताड' ।

घंटाशब्द
संज्ञा पुं० [सं० घण्टाशब्द] १. घंटे की ध्वनि । २. कांस्य । काँसा [को०] ।

घंटास्वन
संज्ञा पुं० [सं० घण्टास्वन] दे० 'घंटारव' ।

घंटिक
संज्ञा पुं० [सं० घण्टिक] नक्र । मगर । घड़ियाल [को०] ।

घंटिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टिका] १. बहुत छोटा घंटा । २. घंटी । घाँटी । ललरी । ३. घुँघुरू । यौ०—क्षुद्रघंटिका । छुद्रघंटिका ।

घंटिका (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टिका] छोटे छोटे लंबे घड़े जो रहँट में लगे रहते हैं । घरिया । उ०—श्रवणकूप की रहँट घटिका राजन सुभग समाज ।—सूर (शब्द०) ।

घंटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टिका] पीतल या फूल की छोटी लोटिया ।

घंटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टा या घण्टिका] १. बहुत छोटा घंटा । विशेष—यह औंधे बरतन के आकार का होता है ओर जिसके अंदर लंगर बँधा रहता है । घंटी कई कामों के लिये बजाई जाती है । लोग प्रायः पूजा के समय घंटी बजाते हैं । अब नौकरों को बुलाने तथा लोगों को सावधान करने के लिये भी घंटी बजाई जाती है । २. घंटी बजने का शब्द । क्रि० प्र०—होना । ३. घुँघरू । चौरासी । ३. गले की नाल का वह भाग जो अधिक उभड़ा रहता है । गले की हड्डी की वह गुरिया जो अधिक निकली रहती है । ५. गले के अंदर मांस की वह छोटी पिंडी जो जीभ की जड़ के पास लटकती रहती है । कौआ । मुहा०—घंटी उठाना या बैठाना = गले की घंटी की सूजन को दबाकर मिटाना ।

घंटी (३)
वि० [सं० घण्टिन्] १. जिसमें घंटियाँ लगी हों । २. घंटे की भाँति बजनेवाला ।

घंटी (४)
संज्ञा पुं० शिव का एक नाम [को०] ।

घंटील
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक घास जो चारे के काम में आती है और जमीन पर दूर तक फैलती है । गधे इसे बहुत खाते हैं । यह पंजाब के मुजफ्फरगढ़, झंग आदि स्थानों में बहुत होती है ।

घंटु
संज्ञा पुं० [सं० घण्टु] १. ताप । प्रकाश । ज्योति । २. हाथी की सजावट में उसकी छाती पर बाँधी जानेवाछी घूँघरूदार पट्टी । ३. गजघंटा [को०] ।

घंड
संज्ञा पुं० [सं० घण्ड] मधुमक्खी [को०] ।

घंड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घंटी] घाँटी । गले का कौआ । उ०—घंडी तले बंकतालि बनाई । घंट तले कछु स्वाद न पाई ।—प्राण०, पृ० ७५ ।

घँगोल †
संज्ञा पुं० [देश०] कुमुद । कोई ।

घँघरा
संज्ञा पुं० [हिं० घाँघरा] दे० 'घघरा' । उ०—स्त्रियों का पहिरावा ओढ़ना, घँघरा या छोटेपन में सुथना है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ६ ।

घँघराघोर †
संज्ञा पुं० [हिं० घघरा + घोर] छुआछूत के विचार का अभाव । भ्रष्टाचार । घालमेल ।

घँघरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाँघरा] दे० 'घघरी' । उ०—घँघरी लाल जरकसी सारी सोंधे भीनी चोली जू ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०२, पृ० ४४६ ।

घँघोरना †
क्रि० स० [हिं० घन + घोरना] दे० 'घँघोलना' ।

घघोलना
क्रि० स० [हिं० घन+ घोलना] १. हिलाकर घोलना । पानी को हिलाकर उसमें कुछ मिलाना । संयो० क्रि०—देना । २. पानी को हिलाकर मैला करना । संयो क्रि०—डालना ।

घँटियार †
संज्ञा पुं० [हिं० घाँटी] पशुओं के गले का एक रोग जिसमें उनकते गले में काँटे से पड़ जाते हैं और वे चारा नहीं निगल सकते ।

घँसना
क्रि० [हिं० घिसना] दे० 'घिसना' ।

घइलिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० धैला] छोटा घड़ा । गागर । उ०— काच माटी कै घइलिया भरि लै पनिहार ।—धरम०, पृ० ८ ।

घइली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घैला] गगरी । छोटा घड़ा ।

घई पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गम्भीर] १. गंभीर भँवर । पानी का चक्कर । उ०—आये सदा सुधारि गोसाई जन ते बिगरि गई है । थके बचन पैरत सनेह सरि परे मानो घोर घई है ।— तुलसी (शब्द०) । २. थूनी । टेक । ३. वह दरार जो जोलाहों के तुर में ११/२ अंगुल गहरी और इतनी ही चौड़ी और गज भर लंबी खुदी होती है ।

घई पु (२)
वि० जिसकी थाह न लग सके । अत्यंत गंभीर । बहुत गहरा । अथाह । उ०—प्रीति प्रतीत रीति शोभा सरि थाहत जहँ तहँ घई ।—तुलसी (शब्द०) ।

घउरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] फलों का गुच्छा । और । घवरि । उ०— ओनह रही केरन्ह की घउरी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३४ ।

घघरबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुँघराला + बेल] एक प्रकार की लता । बंदाल ।

घघरा
संज्ञा पुं० [हिं० घन + घेरा] [स्त्री० घघरी] स्त्रियों का एक चुननदार पहनावा जो कटि से लेकर पैर तक का शरीर ढाकने के लिये होता है । लहँगा ।

घघरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घघरा] छोटा लहँगा ।

घचाघच
संज्ञा स्त्री० [अनु०] नरम चीज में किसी धारदार या नुकीली वस्तु के चुभने या धँसने का शब्द ।

घट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घड़ा । जलपात्र । कलसा । २. पिंड । शरीर । उ०—वा घट के सौ टूक दीजै नदीं बहाय । नेह भरेहू पै जिन्हें दौरि रुखाई जाय ।—रसनिधि (शब्द०) । ३. मन । हृदय । जैसे,—अंतरयामी घट घट बासी । ४. कुंभक प्राणायाम (को०) । ५. कुंभ राशि । ६. एक तौल । २० द्रोण की तौल । ७. हाथी का कुंभ । ८. किनारा । ९. नौ प्रकार के द्रव्यों में एक जिसे तुला भी कहते हैं । वि० दे० 'तुलापरीक्षा' । मुहा०—घट में बसना या बैठना = (१) हृदय में स्थापित होना । मन में बसना । ध्यान पर चढ़ा रहना । जैसे—जिसके घट में राम बसते हैं, वही कुछ देता है । (२) किसी बात का मन में बैठना । हृदयंगम होना ।

घट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घटा] मेघ । बादल । घटा । उ०—सहनाइ नफेरिय नेक बजं । सु मनों घट भद्दव मास गजं ।—पृ० रा०, २४ ।१८२ ।

घट (३)
वि० [हिं० घटना] घटा हुआ । कम । थोड़ा । छोटा । मध्यम । उ०—घट बढ़ रकम बनाई कै सिसुता करी तगीर ।—रसनिधि (शब्द०) । विशेष—इस शब्द का प्रयोग 'बढ़' के साथ ही अधिकतर होता है । अकेले इसका क्रियावत् प्रयोग 'घटकर' ही होता है । जैसे,—वह कपड़ा इससे कुछ घटकर है ।

घटकंचुकी
संज्ञा स्त्री० [सं० घटकञ्चुकी] तांत्रिकों की एक रीति । विशेष—इसमें भैरवी चक्र में संमिलित स्त्रियों की कंचुकियाँ लेकर एक घड़ में भर दी जाती हैं । फिर एक एक पुरुष बारी बारी से एक एक कंचुकी निकालता है । जिस पुरुष के हाथ में जिस स्त्री की कंचुकी (चोली) आती है, उसी के साथ वह संभोग कर सकता है ।

घटक (१)
वि० [सं०] १. दो पक्षों में बातचीत करानेवाला । बीच में पड़नेवाला । मध्यस्थ । २. मिलानेवाला । योजक ।

घटक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विवाह संबंध तय करानेवाला व्यक्ति । बरेखिया । २. दलाल । ३. काम पूरा करनेवाला । चतुर व्यक्ति । ४. वंशपरंपरा बतलानेवाला । चारण । ५. वह सामग्री जिसके मेल कोई पदार्थ बना हो । अवयवभूत वस्तु । उपादान वस्तु । ६. बिना फूल लगे फल देनेवाला बृक्ष । जैसे, गूलर । ७. घड़ा ।

घटकना पु
क्रि० स० [अनु० घटक्] १. उदरस्थ करना । २. दे० 'गटकना' ।

घटकरन पु
संज्ञा पुं० [सं० घटकर्ण] दे० 'घटकर्ण' । उ०—जयति दसकंठ घटकरन बारिदनाद कदन कारन कालनेमि हंता ।—तुलसी (शब्द०) ।

घटकर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में एक प्रकार का ताल ।

घटकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कुंभकर्ण ।

घटकर्पर
संज्ञा पुं० [सं०] विक्रम की सभा के नवरत्नों में एक कवि का नाम । विशेष—इनका नाम कालिदास के साथ विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में आता है । इनका बनाया नीतिसार नामक एक ग्रंथ मिलता है जिसे 'घटकर्पर काव्य' भी कहते हैं । इनका छोटा सा काव्य यमक अलंकार से परिपूर्ण है । 'यदि कोई इससे सुंदंर' यमकालंकारयुक्त कविता करे तो मैं फूटे घड़े के टुकड़े से जल भरूँगा इस प्रतिज्ञा के कारण इनका नाम घटकर्पर या घटखर्पर पड़ा है ।

घटका
संज्ञा पुं० [सं० घटक(=शरीर) अथवा अनु० घर्र घर्र शब्द] मरने के पहले की वह अवस्था जिसमें साँप रुक रुककर घरघराहट के साथ निकलती है । कफ छेंकने की अवस्था । घर्रा । क्रि० प्र०—घटका लगना = मरते समय कफ छेंकना ।

घटकार
संज्ञा पुं० [सं०] कुम्हार ।

घटग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] जल भरनेवाला व्यक्ति । पनहारा [को०] ।

घटज
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य मुनि । उ०—कुसमउ देखि सनेहु सँभारा । बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा ।—मानस, २ ।९६ ।

घटजोनी पु
संज्ञा पुं० [सं० घटयोनि] दे० 'घटयोनि' । उ०— बालमीकि नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ।—मानस, १ ।३ ।

घटती
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटना] १. कमी । कसर । न्यूनता । अवनति । 'बढ़ती' का उलटा । मुहा०—घटती का पहरा = अवनति के दिन । बुरा जमाना । २. हीनता । अप्रतिष्ठा । उ०—गटती होई जाहि ते अपनी ताको कीजै त्याग ।—सूर (शब्द०) ।

घटदासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नायक और नायिका का सम्मिलन करा देनेवाला दासी । २. कुटनी ।

घटन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० घटनीय, घटित] १. गढ़ा जाना । रूप या आकार देना । २. होना । उपस्थित होना । ३. मिलाना । जोड़ना । ४. प्रयास । गति । प्रयत्न । ५. कलह विरोध ।

घटना (१)
क्रि० अ० [सं० घटन] १. उपस्थित होना । वाकै होना । होना । जैसे,—वहाँ ऐसी घटना घटी कि सब लोग आश्चर्य में आ गए । २. लगना । सटीक बैठना । आरोप होना । मेल में होना । मेल मिल जाना । जैसे,—यह कहावत उनपर ठीक घटती है । उ०—अब तो तात दुरावौ तोहीं । दारुण दोष भटइ अति मोहीं । —तुलसी (शब्द०) । ३. उपयोग में आना । काम आना । उ०—लाभ कहा मानुष तन पाए । काम बचन मन सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराए ।—तुलसी (शब्द०) ।

घटना (२)
क्रि० अ० [हिं० कटना] कम होना । छोटा होना । क्षीण होना । जैसे,—कूएँ का पानी घट रहा है । उ०—श्रवण घटहु पुनि दृग घटहु, घटौ सकल बल देह । इते गटे घटिहै कहा, जो न घटै हरि नेह ।—तुलसी (शब्द०) ।

घटना (३)
क्रि० स० [सं० घटन] १. बनाना । रचना । २. पूरा करना । उ०—सखा सोच त्यागहु बल मोरें । सब बिधि घटब काज मैं तोरें ।—मानस, ४ ।६ ।

घटना (४)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोई बाज जो हो जाय । वाकआ । हादसा । वारदात । जैसे,—यहाँ ऐसी बड़ी घटना कभी नहीं हुई थी । उ०—अघट घटना सुघट, विघटन, विकट भूमि पाताल जल गगन गंता—तुलसी (शब्द०) । यौ०—घटनाक्रम । घटनाचक्र = घटनाओं की परंपरा या उनका सिलसिला । घटनावली = घटनाओं का समूह । घटनास्थल = वह स्थान घटना घटित हुई हो । २. योजना । ३. समूहीकरण ४. गजघटा । गजयूथ ।

घटनाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़नई] दे० 'घड़नई' ।

घटपल्लव
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु विद्या (इमारत) में वह खंभा जिसका सिरा घड़े और पल्लव के आकार का बना हो ।

घटपर्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रायश्चित न करने और जाति में संमिलित न होनेवाले, पतित व्यक्ति का प्रेतकर्म जो उसकी जीवितावस्था में ही उसके परिजनों द्वारा संपन्न होता है [को०] ।

घटबढ़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटना+ बढ़ना] १. कमीबेशी । न्यूनधिकता । २. नृत्य की एक क्रिया । ।

घटबढ़ (२)
वि० कमबेश । अपोक्षित से अधिक या कम ।

घटयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य मुनि ।

घटभेदनक
संज्ञा पुं० [सं०] बर्तन बनाने का एक उपकरण [को०] ।

घटराशि
संज्ञा पुं० [सं०] एक द्रोण का मान लगभग सोलह सेर का होता है ।

घटवाई (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घाट+ वाई] १. घाटवाला । घाट का कर लेनेवाला । २. बिना कर लिए या तलाशी लिए न जाने देनेवाला । रोकनेवाला । उ०—आवन जान न पावत कोऊ तुम मग में घटवाई । सूरश्याम हमकी बिरमावत खीझत बगिनी माई ।—सूर (शब्द०) ।

घटवाई (२)
संज्ञा स्त्री० वह कर या महसूल जो घाट का अधिकारी यात्रियों से घाट पर उतरने चढ़ने के बदले लेता है ।

घटवाई (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटवाना] कम करवाई । कम करवाने की क्रिया या पारिश्रमिक ।

घटवादन
संज्ञा पुं० [सं०] संगीत में मिट्टी के घड़े को औधा करके बजाने की क्रिया ।

घटवाना
क्रि० स० [हिं० घटाना का प्रे० रूप] घटाने का काम कराना । कम कराना ।

घटवार
संज्ञा पुं० [हिं० घाट + पाल या वाला] १. घाट का महसूल लेनेवाला । उ०—ये घटवार घाट घट रोकै धोखैं धार बहावै ।—तुलसी श०, पृ० ३०८ । २. मल्लाह । केवट । ३. घाट पर बैठकर दान लेनेवाला ब्राह्मण । घटिया । ४. घाट का देवता ।

घटवारिया
संज्ञा पुं० [हिं० घाट + वाला] दे० 'घटवालिया' ।

घटवाल
संज्ञा पुं० [हिं० घाट+ पाल] दे० 'घटवार' ।

घटवालिया
संज्ञा पुं० [हिं० घाट+ वाला] तीर्थस्थानों में नदीं या सरोवर के घाट पर बैठकर दान लेनेवाला पंडा । तीर्थपंडा । घाटिया ।

घटवाह
संज्ञा पुं० [हिं० घाट + वाह (प्रत्य०)] घाट का ठेकेदार । घाट का कर वसूल करनेवाला ।

घटवाही
संज्ञा पुं० स्त्री० [हिं० घाट+ वाही] दे० 'घटवाई' ।

घटसंभव
संज्ञा पुं० [सं० घटसम्भव] अगस्त्य मुनि ।

घटस्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी मंगल कार्य या पूजन आदि के समय, विशेषतः नवरात्र में, घड़े में जल भरकर रखना जो कल्याणाकारक समझा जाता है । २. नवरात्र का आरंभ या पहला दिन जिसमें घट की स्थापना होती है ।

घटहा †
संज्ञा पुं० [हिमं० घाट+ हा (प्रत्य०)] १. घाट का ठेकेदार । २. वह नाव जो इस पार से उस पार जाती हो ।

घटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मोघों का घना समूह । उभड़े हुए बादलों का ढेर । मेघमाला । कादंबिनी । उ०—त्यों पदमाकर बारहि बार सुबार बगारि घटा करती हौ ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १५८ । क्रि० प्र०—उठना ।—उनवना ।—उमड़ना ।—घिरना ।—छाना ।—झूनना । २. समूह । झुंड । उ०—रजनीचर मत्त गयंद घटा विघटैं मृगराज के साज लगै । झप़ै भट कोटि महीं पटकै गरजै रघुबीर की सौह करै ।—तुलसी (शब्द०) ३. चेष्टा । प्रयत्न । प्रयास (को०) । ४. सैनिक कार्य के लिये एकत्र हाथियों का झुंड (को०) । ५. सभा । गोष्ठी (को०) ।

घटाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटना + ई (प्रत्य०)] १. हीनता । अप्रतिष्ठा । बेइज्जती । उ०—भूप मन आई यह निपट घटाई होति भक्ति सरसाई नहीं जानै घटी प्रीति है ।— प्रिया (शब्द०) । २. घटाने की क्रिया ।

घटाकाश
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश का उतना भाग जितना एक घड़े के अंदर आ जाय । घड़े के अंदर की खाली जगह । उ०— देह को संयोग पाइ जीव ऐसो नाम भयो, घट के संयोग घटाकाश ज्यौं कहायौ है ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६०८ ।

घटाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तुस्तंभ का अष्टमं भाग । वास्तु विद्या में खंभे के नौ विभागों में से आठवाँ विभाग ।—बृहत्०, पृ० २३० ।

घटाटोप
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादलों की घटा जो चारों ओर से घेरे हों । २. गाड़ी या बहली को ढक लेनेवाला ओहार । पालकी या पीनस का ओहार । किसी वस्तु को पुर्णतः ढक लेनेवाला कपड़ा । ३. बादलों की भाँति चारों ओर से गेर लेनेवाला दल वा समूह । उ०—घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी । मुखहि निसान बजावहिं बेरी ।—मानस ६ ।३८ । ४. आडंबर ।

घटाना
क्रि० स० [हिं० घटना] १. कम करना । क्षीण करना । २. बाकी निकालना । काटना । जैसे,—सौ रुपये में से पचास घटा दो । ३. अप्रतिष्ठा करना । बेकदरी करना । जैसे,—तुमने आप अपने को घटाया है ।

घटाव
संज्ञा पुं० [हिं० घटना] १. कम होने का बाव । न्यूनता । कमी । २. अवनति । तनज्जुली । यौ०—घटाव बढ़ाव = कमी बेशी । न्यूनता और वृद्धि । ३. नदी की बाढ़ की कमी । 'चढाव' का उलटा । मुहा०—घटाव पर होना = बाढ़ का कम होना ।

घटावना †
क्रि० स० [हिं० घटाव + ना] दे० 'घटाना' ।

घटिंधम
संज्ञा पुं० [सं० घटिन्धम] कुंभकार । कुम्हार [को०] ।

घटि (१)
वि० [हिं०] दे० 'घट' ।

घटि (२) †
क्रि० वि० घटकर ।

घटि (३) †
संज्ञा स्त्री० घटी । कमी ।

घटिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घंटा पूरा होने पर घड़ियाल बजानेवाला व्यक्ति । घंटा बजानेवाला सिपाही । घड़ियाली । २. घड़नई के सहारे जलाशय या नदी को पार करानेवाला । ३. नितंब ।

घटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घटी यंत्र । टाइमपीस । घड़ी । २. एक घड़ी का समय । २४ मिनट का समय । ३. छोटा घड़ा । गगरी । ४. एक प्रकार का जल का घड़ा जिससे दिन की घड़ियों का ज्ञान होता था (को०) । ५. घुटना । जानु (को०) । यौ०—घटिकायंत्र । घटिकावधान । घटिकाशतक । घटिकास्थान ।

घटिकायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० घटिकायन्त्र] दे० 'घटीयंत्र' ।

घटिकावधान
संज्ञा पुं० [सं०] एक घड़ी में कई काम करनेवाला व्यक्ति ।

घटिकाशतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक घड़ी में सौ श्लोक बनानेवाला कवि । २. एक घड़ी में एक साथ सौ काम करनेवाला व्यक्ति । विशेष—बहुत से लोग ऐसी साधना करते है कि वे एक साथ शतरंज खेलते जाते, पद्य बनाते जाते तथा गणित करते जाते हैं और इस प्रकार एक घंटे भीतर सब काम पूरा उतार देते हैं ।

घटिकास्थान
संज्ञा पुं० [सं०] यात्रियों के ठहरने का स्थान । पथिकशाला । चट्टी । सराय ।

घटिघट
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।

घटित
वि० [सं०] १. बना हुआ । रचा हुआ । रचित । निर्मित । २. जो हुआ हो । जो एक बार हो गया हो (को०) ।

घटिताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटना] कमी । न्यूनता । त्रुटि ।

घटिया
वि० [हिं० घट + इया (प्रत्य०)] १. जो अच्छे मोल का न हो । कम मोल का । खराब । सस्ता । 'बढ़िया' का उलटा । २. अधम । तुच्छ । नीचे । जैसे,—वह बड़ घटिया आदमी है ।

घटियारी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसे खवी भी कहते हैं । यह पंजाब में होती है और इसमें अदरक की सी महक होती है ।

घटिहा पु †
वि० [हिं० घात+ हा (प्रत्य)] १. घात लगानेवाला । घात पाकर अपना स्वार्थ साधनेवाला । २. चालाक । मक्कार । ३. धोखेबाज । बेईमान । ४. व्यभिचारी । लंपट । ५. दुष्ट । दुःखदायी । खल । उ०—कह गिरधर कविराय सुनो हो निर्दय पपिहा । नेक रहन दे मोहिं चोंच मुँदे रहु घटिहा । गिरधर (शब्द०) ।

घटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. २४ मिनट का समय । घड़ी । मुहूर्त । २. समयसूचत यंत्र । टाइमसीप । क्लाक । ३. छोटा घड़ा । कलसी । गगरी । ४. रँहट की घरिया । ५. प्राचीन काल में समय जानने के काम में आनेवाला एक विशेष जलपात्र । यौ०—घटोकार = कुम्हार । घटीग्रह, घटीग्राह = पानी भरनेवाला व्यक्ति ।

घटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घटना] १. कमी । न्यूनता । २. हानि । क्षति । नुकसान । घाटा । मुहा०—घटी आना या पड़ना = व्यवसाय में हानि होना ।

घटी (३)
संज्ञा पुं० [सं० घटिन्] १. कुंभराशि । २. शिव ।

घटीघट
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

घटीयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० घटीयन्त्र] १. समयसूचक यंत्र । घड़ी । २. संग्रहणी रोग का एक भेद जो असाध्य माना जाता है । ३. रँहट जिससे कूँए से पानी निकाला जाता है । ४. दिन का समय जानने का जलपात्र (को०) ।

घटूका पु
संज्ञा पुं० [सं० घटोत्कच] भीमसेन का घटोत्कच नामक पुत्र जो हिंडिंबा राक्षसी से पैदा हुआ था । उ०—कहत नाइ सिर बचन घटूका । सुनिये नाथ क्षमा करि चूका ।—सबल (शब्द०) ।

घटेरुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० घाटी+ सं० रुज] पशुओं का एक प्रकार का रोग जिसमें उनका गला फूल आता है ।

घटोत्कच
संज्ञा पुं० [सं०] हिंडिंबा राक्षसी से उत्पन्न भीमसेन का पुत्र जिसे महाभारत युद्ध में कर्ण ने मारा था ।

घटोदभव
संज्ञा पुं० [सं०] अगस्त्य मुनि ।

घटोर पु †
संज्ञा पुं० [सं० घटोदर] मेढ़ा । मेष ।—(डिं०) ।

घट्ट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घाट । चुंगी या महसूल लेना का स्थान । ३. क्षुब्ध करना । क्षोभण ।

घट्ठ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० घट] शरीर । उ०—उत्तर आज स उत्तरउ सीय पड़ेसी घट्ट । सोहागिम घर आँगणइ दोहागिण रइ घट्ट ।—ढोला०, दु० २९० ।

घढ्ढ (३)
संज्ञा पुं० [हिं० घाट] घाटी । तलहटी । उ०—अति आणँद उमाहियउ लिइ ज पूगल बट्ट । त्रीजइ पुहरि उलाँघियउ आडवलारउ घट्ट ।—ढोला०, दू० ४२४ ।

घट्ट (४) पु
संज्ञा पुं० [सं० घट = घड़ा] घड़ा । कुंभ । उ०—सहसं गौ मँगाइ सवच्छिय, देइ द्रव्य लै अच्छी अच्छिय; सहस घट्ट शिव ऊपर कीनौ, तीन उपास नेम तब लीनौ ।—पृ० रा०, १ ।४०२ ।

घट्टकुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] चुंगी की चैकी [को०] ।

घट्टजीवी
संज्ञा पुं० [सं० घट्टजीविन्] १. घाट के महसूल से जीविको— पार्जन करनेवाला व्यक्ति । २. वैश्या स्त्री में रजक से उत्पन्न एक वर्णासंकर जाति [को०] ।

घट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाना डुलाना । चलाना । २. संघटन । संयोजन [को०] ।

घट्टना
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिलाना । डुलाना । चलाना । २. रगड़ना । घोटना । मलना । ४. जीविका । वृत्ति (को०) ।

घट्ट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घटना] १. घाटा । घटी । कमी । टोटा । २. दरार । छेद । जैसे—सिर पर ऐसी लाठी पड़ी कि घट्टा खुल गया । मुहा०—घटटा खुलना =दरार हो जाना । फट जाना ।

घट्टा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० घृष्ट, प्रा० घट्ट] दे० 'घट्ठा' ।उ०—धनु खींचत घट्टा पड़े दूजे काके हाथ ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १ पृ० १०५ ।

घट्टा (३) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घटा] दे० 'घटा' । उ०—प्रलय काल के जनु घन घट्टा ।—मानस, ६, ८६ ।

घट्टित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नृत्य में पैर चलाने का एक प्रकार जिसमें एँड़ी को जमीन पर दबाकर पंजा नीचे ऊपर हिलाते हैं ।

घट्टित (२)
वि० [सं०] १. हिलाया डुलाया हुआ । २. निर्मित । ३. रगड़कर चिकनाया हुआ । ४. दबाया हुआ [को०] ।

घट्टी †
संज्ञा स्त्रि० [हिं० घटना] घटी । कमी ।

घट्ठ
स्त्री० पुं० [सं० घट्टन] संघटन । जमावड़ा ।

घट्ठा
संज्ञा पुं० [सं० घृष्टक, प्रा० घटठ] शरीर पर वह उभड़ा हुआ चिह्न जो किसी वस्तु की रगड़ लगते लगते पड़ जाता है । जैसे —तलवार की मूठ पकड़ते उसकी उँगलियों में घट्ठे पड़ गए हैं । क्रि० प्र०—पड़ना । मुहा०—घट्ठा पड़ना = अभ्यास होना । मश्क होना ।

घड़ †
संज्ञा स्त्री० [सं० घट्ट या घट] १. दल । समुह । सेना । २. दे० 'घटा' । उ०— आज धुरा दस ऊनम्यउ काली घड़ सखराँह । उवा धड़ देसी ओलँबा कर कर लाँबी बाँह ।— ढोला०, दू० २७१ ।

घड़घड़
संज्ञा पुं० [अनु०] बादल गरजने, गाड़ी चलने आदि का शब्द ।

घड़घड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] गड़गड़ या घड़घड़ शब्द करना । बादल गरजने या गाड़ी आदि चलने का शब्द होना । गड़ग- ड़ाना जैसे,— बादल घड़घड़ा रहे हैं ।

घड़घड़ाना (२)
क्रि० स० [अनु०] किसी वस्तु को चलाना या खींचना जिससे घड़घ़ड़ शब्द हो । जैसे,—वह गाड़ी घ़ड़घड़ाता आ पहुँचता ।

घड़घड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [अमु घड़घड़] १. घड़घड़ शब्द होने का भाव । २. बादल या गाड़ी चलने का शब्द ।

घड़त
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गढ़त' ।

घड़न
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गढ़न' ।

घड़नई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + नैया] दे० 'घड़नैल' ।

घड़ना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गढ़ना' । उ०—पाथरी घड़ीयों के भीघट लोह ।—बीसल०, रास, पृ० ६४ ।

घड़नाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + नैया] दे० 'घड़नैल' । उ०— सुरहुर पुर कौ बहुरौं फिरे । चढ़ि घड़नाई सरिता तिरै ।— अर्ध, पृ०, ४३ ।

घड़नैल
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा + नैया(= नाव)] बाँस में घड़े बाँध— कर बनाया हुआ ढाँचा जिससे छोटी छोटी नदियाँ पार करते हैं ।

घड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० घट अथवा सं० घट + क (प्रत्य०)] मिट्टी का बना हुआ गगरा । जलपात्र । बड़ी गगरी । कलसा । घैला । कुंभ । ठिल्ला । मुहा०—घड़ों पानी पड़ जाना =अत्यंतलज्जित होना । लज्जा के मारे गड़ जाना । जैसे—जब मैंने मुँह पर यह बात कही तो उसपर घड़ों पानी पड़ गया ।

घड़ा (२) पु
वि० [हिं० घना] अधिक । उ०—अवर जनम थारे घड़ा हो नरेस ।—बी० रासो, पृ० ६५ ।

घड़ा (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० घट्ट] सेना । उ०— तुरक घड़ा नव तेरही तेरह साख कबंध ।—रा० रू०, पृ० ७० ।

घड़ाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गढ़ाई' ।

घड़ाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'गढ़ाना' । उ०—लड़की के लिये दो एक चीज चाँदी की घड़ाना जरूरी है ।—पिंजरे० पृ० १०५ ।

घड़ामोड़ पु †
वि० [हिं० घड़ा (= सेना) + मोड़ना] शुरवीर ।—पराक्रमी (डिं०) ।

घड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० घटिका] १. मिट्टी का बरतन जिसमें रखकर सोनार लोग सोना चाँदी गलाते हैं । २. मिट्टी का छोटा प्याला । ३. शहद का छत्ता । ४. बच्चादानी । गर्भाशय । ५. मिट्टी की नाँद जिसमें लोहार लोहा गलाते हैं । ६. रहँट में लगी हुई छोटी छोटी ठिलियाँ जिनमें पानी भरकर आता है ।

घड़ियाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० घटिकालि, प्रा० घड़िआलि = घंटों का समूह] वह घंटा जो पूजा में या समय की सूचना के लिये बजाया जाता है । विशेष—दिल्ली में इस शब्द को स्त्रीलिंग बोलते हैं ।

घड़ियाल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा और हिंसक जलजंतु । ग्राह । विशेष—घड़ियाल आठ दस हाथ लंबा और गोह या छिपकली के आकार का होता है । इसकी पीठ पर का चमड़ा काला और कड़ा होता है । इसकी ठोर का ऊपरी भाग लोटे के आकार का होता है जिसे तूँबी या मटुक कहते हैं ।

घड़ियाली (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ियाल] १. समय की सूचना के लिये घंटा बजानेवाला । २. घंटा बजानेवाला ।

घड़ियाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ियाल] एक प्रकार का घंटा जो पूजन के समयदेवालयआदि में बजाया जाता है । विजयघंटा ।

घड़िला †
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा] छोटा घड़ा ।

घड़ी (१)
संज्ञा [सं० घटी] १. काल का एक मान । दिन रात का ३२ वाँ भाग । २४ मिनट का समय । वि० दे० मुहा० 'घड़ी कूकना' । मुहा०—घड़ी घड़ी = बार बार । थोड़ी थोड़ी देर पर । घड़ी तोला, घड़ी माशा = कभी कुछ, कभी कुछ । एक क्षण में एक बात, दूसरे क्षण मे दूसरी बात । अस्थिर बात या व्यवहार । जैले—उनकी बात का क्या ठिकाना, घड़ी तोला, घड़ी माशा । घड़ी गिनना = (१) किसी बात का बड़ी उत्सुकता के साथ आसरा देखना । अत्यंत उत्कंठित होकर प्रतीक्षा करना । (२) मृत्यु का आसारा देखना । मरने के निकट होना । घड़ी में घड़ियाल है = (१) जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं । न जाने कब काल आए । (२) क्षण भर में न जाने क्या से क्या हो जाता है । दशा पलटते देर नहीं लगती । विशेष— बहुत बुड्ढे आदमी के मरने पर उसे लोग घंटा बजाते हुए श्मशान पर ले जाते हैं, इसी यह मुहावरा बना है । घड़ी देना = मुहूर्त्ता बतलाना । सायत बतलाना । उ० भरै गो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घड़ी को देई ।—जायसी (शब्द०) । घड़ी भर = थोड़ी देर । थोड़ा समय । जैसे— घड़ी भर ठहरो, हम आए । घड़ी सायत पर होना = मरन के निकट होना । २. समय । काल । उ०— जिस घड़ी जो होना होता है, वह हो ही जाता है । ३. अवसर । उपयुक्त समय । जैसे,—जब घड़ी आएगी तब काम होते देर न लगेगी । ४. समयसूचक यंत्र । जैसे—क्लाक, टाइम पीस, वाच आदि । यौ०—घड़ीसाज । धर्मघड़ी । धूपघड़ी । मुहा०—घड़ी कूकना—घड़ी की ताली ऐंठना जिससे कमानी कस जाये ओर झटके से पुरजे चलने लगें । घड़ी में चाभी देना । विशेष—प्राचीन काल में समय के विभाग जानने के लिये भिन्न भिन्न युक्तियाँ काम में लाते थे । कही किसी पटल पर बने वृत्त की परिधि के विभाग करके और उसके केंद्र पर एक शंकु या सूई खड़ी कर के उसकी (धूप में पड़ी हुई) । छाया के द्बारा समय का पता लगाते थे । कहीं नाँद में पानी भरकर उसपर एक तैरता हुआ कटोरा रखते थे । कटोरे की पेंदी में महीन छेद होता था जिससे क्रम क्रम से पानी आकर कटोरा भरता था । जब नियत चिह्न पर पानी आ जाता था, तब कटोरा डूब जाता था । इस नाँद को धर्मघड़ी कहते थे । घटी या घड़ी नाम इसी नाँद का सूचक है । भारतवर्ष में इसका व्यवहार अधिक होता था ।

घड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घट] घड़ा का स्त्रीलिंग और अल्पार्थक रूप । छोटा घड़ा ।

घड़िदिआ
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ी + दीआ = दीपक] वह घड़ा जो घर के किसी प्राणी के मरने पर घर में रखा जाता है और १०—१२ दिनों तक रहता है । घड़े के पेंदे में बहुत छोटा छेद कर दिया जाता है जिसमें से होकर बूँद—बूँद पानी टपकता हैं और मुँह पर एक दीपक जलाकर रख दिया जात है । इसे घंट भी कहते हैं । क्रि० प्र०—बांधना ।

घड़ीसाज
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ी + फा० साज] घड़ी की मरम्मत करनेवाला ।

घड़ीसाजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ी +फा० साजी] घड़ी की मरम्मत का कार्य या व्यवसाय ।

घड़ुवा †
संज्ञा पुं० [सं० कमणडल अथवा हिं० गेरवा + उवा (प्रत्य०) = गेरुवा] दे० 'गड़ुवा' । उ०— कच्ची माटी के घड़ुवा हो रस बूँदन सान । —संतवाणी, भा०, २, पृ० ३८ ।

घड़ैला
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा + ऐला (प्रत्य०)] दे० 'बड़ोला' । उ०—एकै मिट्टी के घड़ा घड़ैला एकै कोहरा सोना ।—कबीर श०, पृ० ९२ ।

घड़ोला
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा + ओला (प्रत्य०)] छोटा घड़ा । झंझर ।

घड़ौची
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + औंची (प्रत्य०)] पानी से भरा घड़ा रखने की तिपाई या ऊँची जगह । लटकत । पलहँडा ।

घढ़ना †पु
क्रि० स० [सं० घटन] दे० 'गढ़ना' । उ०—मोद बितोद भरी मृदु मूरति का विरंचि या घाट घढ़ी ।—घनानंद, पृ० ४६४ ।

घण (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० घन] दे० 'घन' । उ०—जब ही बरसइ घण घणउ तबही कहइ प्रियाव ।—ढोला०, दू० २७ ।

घण (२) †
वि० दे० 'घन' । उ०—दादुर मोर टवक्क घण बीजलड़ी तरवारि ।—ढोला०, दू० ४८ ।

घणकठा †
संज्ञा पुं० [देश०] डिंगल के अनुसार एकलवैणँ नामक छंद का एक भेद । उ०—दूसरे एकल वैणाँ गीत को घणकठा भी कहते हैं ।—रघु० रू०, पृ० ११९ ।

घणा
वि० [सं० घन] दे० 'घना' । उ०—तिण पइ घोड़ा अति घणा बेच्या लाख लवंत ।—ढोला०, दू० ८३ ।

घणीअर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घन + कर] हथौड़ा धारण करनेवाला । लोहार । उ०—घणीअर मारे तित ताल ज्यों कहैं लोहारू ।— प्राण०, पृ० २८५ ।

घणीरी †
वि० [हिं] दे० 'घनेरी' । उ०—बसत घणोरी बरतन ओछा कहो गुरु क्या कीजै ।—रामानंद०, पृ० १४ ।

घत †
संज्ञा पुं० [हिं० घात] १.घात । २. ढंग ।

घतर †
संज्ञा पुं० [देश०] प्रभात काल । तड़का । भोरहरी ।

घतिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घात] दाँव । घात । उ०—बन के घरही बिरहीजन के रिपु बोलि उठे अपनी घतियाँ ।—गंग० ग्रं०, पृ० ६९ ।

घतिया (२)
वि० [हिं० घात + इया (प्रत्य०)] घात करनेवाला । धोखा देनेवाला ।

घतियाना
क्रि० स० [हिं० घात + इयाना (प्रत्य०)] १. अपनी घात या दाँव में लाना । मतलब पर चढ़ाना । २. चुराना । छिपाना ।

घन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । उ०—बरषा ऋतु आई हरि न मिले माई । गगन गरजिघन दइ दामिनी दिखाई ।—सूर० १० । ३३१७ । २. लोहारों का बड़ा हथौड़ा जिससे वे गरम लोहा पीटते हैं । उ०—चोट अनेक परै घन की सीर लोह बधै कछु पावक नाहीं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ०, ६०० । क्रि० प्र०—चलाना । यौ०—घन की चोट = बड़ा भारी आघात । ३.लोह । (डिं०) ।४. मुख । (डिं०) । ५. समूह । झुंड । ६. कपूर । उ०—न जक धरत हरि हिय धरे नाजुक कमला बाल । भजत भार भयभीत ह्वै घन चंदन वन माल ।— बिहारी (शब्द०) । ७. घंटा । घड़ियाल । ८. वह गुणनफल जो किसी अंक को उसी अंक से दो बार गुणा करने से लब्ध हो । जैसे,—३*३*३=२७ अर्थात् २७ तीन का घन है ।—(गणित) । ९. लंबाई ,चौड़ई और मोटाई (ऊँचाई या गहराई) तीनों का विस्तार । उ०—धन दृढ़ धन विस्तार पुनि घनजेहिं गढ़त लोहार । घन अंबुद घन सघन धन घनरुचि नंदकुमार । —नंददास (शब्द०) । १०. एक सुगंधित घास ११. अभ्रक । अवरक । १२. कफ । खँखार । १३. नुत्य का एक भेद । १४. धातु का, ढालकर बनाया हुआ बाजा जो प्रायः ताल देने के काम आता है । जैसे—झाँझ, मँजीरा, करताल इत्यादि । १५. वेदमंत्रों के पाठ की एक विधि । १६. त्वचा । छाल । १७. शरीर । उ०—कंप छुट्यो घन स्वेद बढ्यो तनु रोम उठयों अँखियाँ भरि आई ।— मतिराम (शब्द०) ।

घन (२)
वि० १ घना । गझिन । मुहा०—घन का = बहुत घना । जैसे,—घन के बाल, घन का जंगल । २. जिसके अणु परस्पर खूब मिले हों । गठा हुआ । ठोसा । ३. दृढ़ । मजबूत । भारी । ४. बहुत अधिक । प्रचुर ।ज्यादा । ५. शुभ । भाग्यशाली (को०) । ६. विस्तुत (को०) ।

घनक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घन] १. गड़गड़ाहट । २. चोट । प्रहार ।

घनकना (१)
क्रि० अ० [हिं० घनक] गरजना । तेज आवाज करना । गड़गड़ाना । घहरना ।

घनकना (२)
क्रि० स० चोट करना । प्रहार करना ।

घनकफ
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षोपल । करका । ओला (को०) ।

घनकारा पु
वि० [हिं० घनक] गर्जन करनेवाला । ऊँची आवाज करनेवाला ।

घनकाल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु । बरसात का मौसम ।

घनकोदंड
संज्ञा पुं० [सं० घनकोदण्ड] इंद्रधनुष । मदाइन । उ०— कुटिल कच भ्रुव तिलक रेखा शीशा शिखी शिखंड । मदन धनु मनो शर सँधाने देखि घनकोदंड ।—सूर (शब्द०) । विशेष— मेघ और धनुषवाची शब्दों के संयोग से जो शब्द बनेगें, उनका यही अर्थ होगा ।

घनक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं० घन + क्षेत्र] लंबाई चौड़ाई और गहराई का विस्तार ।

घनगरज
संज्ञा स्त्री० [हिं० घन + गर्जन] १. बादल के गरजने की ध्वनि । २. एक प्रकार की तोप । ३. एक प्रकार की खुभी जो असाढ़ या वर्षारंभ में उत्पन्न होती है । विशेष—लोग ऐसा मानते हैं कि जब बादल गरजते हैं, तब इसके बीज जो भूमि के अंदर रहते हैं, भूमि फोड़कर गाँठ के रूप में निकल पड़ते हैं । इसकी तरकारी बनाई जाती है । अवध में इसे भुइँफोड़ और पंजाब में ढिंगरी कहते हैं ।

घनगर्जित
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघगर्जन । बादलों का गरजना । २. कड़कड़ाती प्रचंड ध्वनि या गरज [को०] ।

घनगोलक
संज्ञा पुं० [सं०] सोने ओर चाँदी का मिश्रण [को०] ।

घनघटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों का जमघट । गहरी काली घटा ।

घनघत
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घंटे की घन् घन् की ध्वनि । उ०—रथ का घर्घर । घंटों की घनघन ।—अपरा, पृ० २११ ।

घनघनाना (१)
क्री० अ० [अनु०] घन् घन् शब्द होना । घंटे की सी ध्वनि निकलना । उ०—घघघनात घंटा चहुँ औरा ।— जायसी (शब्द०) ।

घनघनाना (२)
क्रि० स० [अनु०] घन घन शब्द करना ।

घनघनाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घन घन शब्द निकलने का भाव । घन् घन् की ध्वनि ।

घनघोर (१)
संज्ञा पुं० [सं० घन + घोर] १.घनघनाहट । भीषण ध्वनि । उ०—संख शब्द० घोर, घनघोर घने घंटन को, झालर की झुरमुट, झाँझन की झनकार ।—गोपाल (शब्द०) । २. बादल की गरज ।

घनघोर (२)
वि० १. बहुत घना । गहरा । उ०—अंधकार उदगीरण करता अंधकार घनघोर अपार ।—अपरा०, पृ० १५४ । २. जिसे देख और सुनकर जी दहल जाय । जिसका दर्शन और श्रवण भयानक हो । भीषण । भयावना । जैसे, घनघोर, शब्द, घनघोर युद्ध । यौ०—घनघोर घटा=बड़ी गहरी काली घटा । बादलों का घना समूह ।

घनचक्कर (१)
वि० [हिं० घन + चक्र] १. मूर्ख । बेवकूफ । मूढ़ । २. निठल्ला । आवारागर्द ।

घनचक्कर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घन + चक्र] १. वह व्यक्ति जिसकी बुद्धि सदैव चंचल रहे । चंचल बुद्धि का आदमी । २. वह जो व्यर्थ इधर उधर फिरा करे । ३. एक प्रकार की आतिशबाजी । चकरी । चरखी । ४. सूर्यमुखी का फूल । ५. गर्दिश । चक्कर । ६. फेरफार । जंजाल । मुहा०,—घनचक्कर में आना या पड़ना = फेर में फँसना । संकट में पड़ना । उ०—मैं बड़ै घनचक्कर में पड़ गया पर इसकी क्या चिंता ।—श्यामा०, पृ० १११ ।

घनजंबाल
संज्ञा पुं० [सं० घनजम्बाल] घना दलदल [को०] ।

घनज्वाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत् । बिजली [को०] ।

घनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.घना होने का भाव । घनापन । २. ठोसपन । ३. लंबाई, चौड़ाई और मोटाई का भाव । ४. दृढ़ता । मजबूती ।

घनताल
संज्ञा पुं० [सं०] १. चातक पक्षी । पपीहा । २. करताल ।

घनतोल
संज्ञा पुं० [सं०] चातक । पपीहा ।

घनत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. घना होने का भाव । घनापन । सघनता २. लंबाई, चोड़ाई और मोटाई तोनों का भाव । ३. अणुओं का परस्पर मिलान । गठाव । ठोसपन ।

घनदार
वि० [सं० घन + फा० दार (प्रत्य०)] घना । गुंजान ।

घनद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] विकंटक का क्षप । जवासा । २. गोखरू [को०] ।

घनधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] छिलके आदि के भीतर का रस । वसा । लसीका [को०] ।

घनध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बादलों की गरज । २.गंभीर और मंद्र आवाज ।

घननाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादलों की गरज । २. रावण का पुत्र, मेघनाद । उ०—निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार । कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ।—मानस, ७ । ६७ ।

घननाभि
संज्ञा पुं० [सं०] बादलों का मुख्य अवयव । धूम [को०] ।

घनपटल
संज्ञा पुं० [सं० घन = पटल + आवरण] मेघाडबर । बादलों का समूह या आवरण । उ०—जथा गगन घनपटल निहारी । झाँपेउ भानु कहहि कुविचारी ।—मानस १ । ११७ ।

घनपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र, जो मेधों के अधिपति कहे जाते हैं ।

घनपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुनर्नवा । गदहपूरना [को०] ।

घनपद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'घनमूल' [को०] ।

घनपदवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेघों का मार्ग । आकाश [को०] ।

घनपाषंड
संज्ञा पुं० [सं० घनपाषणड] मयूर । मोर [को०] ।

घनप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १.मोर । मयूर । २. एक घास जिसकी पत्तियाँ डंठल की ओर पतली और ऊपर की ओर चौड़ी होती हैं । यह पहाड़ों पर मिलती है और औषध के काम में आती है । मोरशिखा ।

घनफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. लंबाई, चौड़ाई और मोटाई (गहराई या ऊँचाई) तीनों का गुणनफल । २. वह गुणनफल जो किसी संख्या को उसी संख्या से दो बार गुणा करने से प्राप्त हो । दे० 'घन' । ३. दे० 'घनद्रुम' ।

घनबहेड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० घन + बहेड़ा] अमलतास ।

घनबा पु
संज्ञा पुं० [हिं घन + बाण] एक प्रकार का बाण । उ०—चले चंदबान, घनबान और कुहूकबान चलत कमान धूम आसमान छवै रहो ।—भूषण (शब्द०) ।

घनबास पु
संज्ञा पुं० [सं० घन + हिं० वास(=निवास)] आकाश । उ०—अंबर पुस्कर नभ बिथत अंतरिच्छ घनबास ।—नंद० ग्रं० पृ० १० ।

घनबेल पु
वि० [हिं० घन + बेल] जिसमें बेलबूटे बने हों । बेलबूटेदार । उ०—कहुँ कहुँ कुचन पर दरकी अँगिया घनबेलि ।—सूर (शब्द०) ।

घनबेली
संज्ञा स्त्री० [सं० घन + हिं० बेल] एक प्रकार का बेला । उ०—बहुत फूली फूली घनबेली । केवड़ा चंपा कुंद चमेली ।— जायसी (शब्द०) ।

घनबोध
वि० [सं० घन + बोध] १. अत्यंत ज्ञानवान् । परम ज्ञानी । २. जिसको जान सकना अत्यंत दुरूह हो । उ०—कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध । सिव बिरंचि जेहि सेवहिं तासो कवन विरोध ।—मानस, ६ । ४७ ।

घनमान
संज्ञा पुं० [सं०] किसी पदार्थ की लंबाई, चौड़ाई और मोटाई का संमिलित मान [को०] ।

घनमूल
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में किसी घन (राशि) का मूल अंक । जैसे,—२७ का घनमूल ३ होगा, क्योंकि ३ का घन २७ है ।

घरनव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'घननाद' ।

घनरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल । पानी । २. कपूर । ३. हाथी का एक रोग जिसमें उसका खून बिगड़ जाता है, पैर के नाखून गलने लगते हैं और पाँव लँगड़ाने लगता है । इस रोग को हथियों का कोढ़ समझना चाहिए । ४. घना या गाढ़ा सत (को०) । ५. मोरट नाम का पौधा जिसका रस गाढ़ा होता है (को०) । ६. पीलुपर्णी ।

घनरूपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जमाई हुई शर्करा । मिसरी [को०] ।

घनवर
संज्ञा पुं० [सं०] मुखाकृति । चेहरा [को०] ।

घनवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में घन का वर्ग [को०] ।

घनवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश । अंतरिक्ष [को०] ।

घनवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] धातुओं को पीटकर बढ़ाने की क्रिया ।

घनवल्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत् । बिजली [को०] ।

घनवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमृतस्रवा नामक लता । २. बिजली । क्षणप्रभा । विद्युत् [को०] ।

घनवास
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्मांड । कोंहड़ा [को०] ।

घनवाह
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । पवन ।

घनवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र, जिसका वाहन मेघ है । २. शिव, जिनका वाहन घन की तरह श्वेत है ।

घनवाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० घन + वाही (प्रत्य०)] १. लोहे का घन से कूटने का काम । २. वह गड्ढा या स्थान जहाँ घन चलानेवाला खड़ा होता है ।

घनवीथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बादलों का मार्ग आकाश [को०] ।

घनश्याम (१)
वि० [स] बादलों के समान काला ।

घनश्याम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काला बादल । २. श्रीकृष्ण । ३. रामचंद्र जी । उ०—शोक की आग लगी परिपूरन आइ गए घनश्याम बिहाने ।—केशव (शब्द०) ।

घनश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेघमाला [को०] ।

घनसमै पु
संज्ञा पुं० [सं० घनसमय] वर्षाऋतु । बरसात । उ०— घनसमै मानहु घुमरि करि घनपटल गलगाजहीं ।—भूषण ग्रं०, पृ० १२ ।

घनसाँवरो पु
वि० [हिं०] मेघ की तरह काला । उ०—कमलनयन घनसाँवरों बपु बाहु बिसाल ।—छीत०, पृ० ४ ।

घनसाँवल पु
वि० [हिं०] दे० 'घनसाँवरो' । उ०—श्री रघुपति जदुपति घनसाँवल फुनि जन सरन परे ।—छोत०, पृ० १२ ।

घनसार
संज्ञा पुं० [सं०] १.जल । पानी । २. कपूर । उ०— गारि राख्यो चंदन बगारि राख्यो घनसार ।—मतिराम (शब्द०) । ३. महा मेघ । घना बादल । ४. पारद । पारा (को०) । ५. चंदन (को०) ।

घनसारी
वि० स्त्री० [सं० घनसार] बादल के समान (काली । उ० घनसारी कारी बरुनी राजत प्यारी झपकारी ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४५७ ।

घनस्याम पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० घनश्याम] दे० 'घनश्याम' ।

घनस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] मेघगर्जन [को०] ।

घनहर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० घन + घर, प्रा० घराहर, घणयर] मेघ । बादल । उ०—घनहर गरजें बजें नगारा । —कबीर श०, पृ० ५७ ।

घनहर † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घान + हारा (प्रत्य०)] घानवाला । एक घान अन्न भुनानेवाला । दाना भुनाने के लिये भड़भूँजे के पास जानेवाला ।

घनहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा और एक हाथ गहरा या मोटा पिंड वा क्षेत्र । २. अन्न आदि नापने का एक मान जो एक हाथ लंबा, एक हाथ चौड़ा, और एक हाथ गहरा होता है । खारी । खारिका ।

घनांजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० घनाञ्जनी] दुर्गा [को०] ।

घनांत
संज्ञा पुं० [सं० घनान्त] १. वर्षा का समाप्तिकाल । २. शरद् ऋतु । ३. वेद मंत्रों के 'घन' नामक विकृति पाठ के कर्ता । यौ०—घनांत पाठी = वे वेदपाठी जो घनपाठ नामक अष्टवि कृतियों के पाठ = निष्णांत हों ।

घनांधकार
संज्ञा पुं० [सं० घनान्धकार] गहरा अंधेरा । निबिड़अंधकार ।

घना † (१)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० घणा] स्त्री । उ०—तिहारी घना ने भैया बदनि बदी ई तुमैं र्दुगी गरे की दुलरी औरु कमारी की तगड़ी ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१५ ।

घना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रुद्रजटा । २. भाषपर्णी । ३. एक प्रकार का वाद्य ।

घना (३) †
संज्ञा पुं० [सं० घन] पेड़ों का समूह । जंगल ।

घना (४)
वि० [सं० घन] [स्त्री० घनी] १. जिसके अवयव या अश पास पास सटे हों । पास पास स्थित । सघन । गझिन । गुंजान । जैसे—घना जंगल, घने बाल, घनी बुनावट । २. घनिष्ठ । नजदीकी । निकट का । जैसे,—हमारा उनका बहुत घना संबंध है । ३. बहुत अधिक । ज्यादा । उ०— उतै रुखाई है धनी, थोरी मुख पै नेह ।—रसनिधि (शब्द०) । ४. गाढ़ा । प्रगाढ । उ०—अति कड़ुआ खट्टा घना रे वाको रस है भाई ।—धरम०, पृ० ५ । विशेष—संख्या थी अधिकता सुचित करने के लिये इस शब्द के बहुवचन रूप 'घने' का प्रयोग होता है । वि० दे० 'घने' ।

घनाकर, घनागम
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु । बरसात ।

घनाक्षरी
संज्ञा पुं० [सं०] दंडक या मनहर छंद जिसे साधारण लोग कवित्त कहते हैं । विशेष—यह छंद ध्रुपद राग में गाया जा सकता है । १६—१५ के विश्राम से प्रत्येक चरण में ३१ अक्षर होते हैं । अंत में प्रायः गुरु वर्ण होता है । शेष के लिये लघु गुरू का कोई नियम नहीं है ।

घनाघन
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र । २. मस्त हाथी । ३. बरसनेवाला बादल । उ०—गगन अगन घनाघन तैं सघन तम सेनापति नैंकहू न नैन मटकत हैं ।—कवित्त०, पृ० ६३ ।

घनात्मक
वि० [सं०] १. जिसकी लंबाई, चौड़ाई और मोटाई, (ऊँचाई वा गहराई) बराबर हो । २. जो लंबाई, चौड़ाई और मोटाई को गुणा करने से निकला हो (आयतन के लिये) ।

घनात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] शरद् ऋतु [को०] ।

घनानंद
संज्ञा पुं० [सं० घनानन्द] १.गद्य काव्य का एक भेद । २. हिंदी के एक प्रसिद्ध कवि का नाम जिनको आनंदघन भी कहते हैं ।

घनामय
संज्ञा पुं० [सं०] खजूर [को०] ।

घनामल
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ का साग । वास्तुक शाक [को०] ।

घनाली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घन + अपली] मेघपंक्ति । बादलों का समूह । उ०—करने लगी मैं अनुकरण स्वनूपरों में चंचला थी चमकी, घनाली घहराई थी ।—साकेत, पृ० २७४ ।

घनाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश [को०] ।

घनिष्ठ
वि० [सं०] १. गाढ़ा घना । बहुत अधिक । २. सबसे अधिक घना । सबसे अधिक निकट । अत्यंत निकट । पास का । निकटस्थ । नजदीकी । जैसे, घनिष्ठ संबंध ।

घनिष्ठता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घनिष्ठ होने की स्थिति का भाव । २. गाढ़ी मैत्री । घनी दोस्ती ।

घनीभवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जमकर गाढ़ा होना । २. ठोस बनना । ३. केंद्रीभूत होना [को०] ।

घनीभाव
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'घनीभवन' ।

घनीभूत
वि० [सं०] अत्यंत गाढ़ । प्रगाढ़ । सघन । केंद्रीभूत । उ०—घनीभूत हो उठे पवन, फिर शवासों की गति होती रुद्ब ।—कामायनी, पृ० १७ ।

घने
वि० [सं० घन] १. बहुत । अनेक—(सख्या में) उ०— बापुरो बिभीषण पुकारि बार बार कहयौ बानर बड़ी बलाइ घने घर घलिहैं ।—तुलसी (शब्द०) । २. सघन ।

घनेतर
वि० [सं०] १.जो ठोस न हो । मृदु । २. तरल [को०] ।

घनेरा पु †
वि० [हिं० घना+एरा (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० घनेरी] बहुत अधिक । अतिशय । उ०—(क) कोपि कपिन दुरघट गढ़ घेरा । नगर कोलाहल भयो घनेरा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सुनु मुनि बरनी कबिन धनेरी ।—मानस, १ । १२४ । विशेष—संख्या की अधिकता सूचित करने के लिये इस शब्द के बहुवचन रूप 'घनेरे' का प्रयोग होता है । दे० 'घनेरे' ।

घनेरे
वि० [हिं० घने] १.बहुत । अधिक । अगणित ।—(संख्या में) । उ०—(क) वन प्रदेश मुनि वास घनेरे । जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) निपट बसेरे अघ औगुन घनेरे नर नारिऊ अनेरे जगदंब चेरी चेरे हैं ।—तुलसी (शब्द०) । २. सघन ।

घनो—पु †
वि० [हिं०] दे० 'घना' । उ०—हाट बाट हाटक पिघलि चल्पौ धी सी घनो, करक कराही लक तलफतताय सो ।—तुलसी (शब्द०) ।

घनोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] मुखाकृति । मुखड़ा । चेहरा । [को०] ।

घनोदधि
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम [को०] ।

घनोदय
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षाकाल । वर्षा ऋतु का प्रारंभ [को०] ।

घनोपल
संज्ञा पुं० [सं०] ओला । करका । पत्थर । बिनौरी ।

घनौची †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'घड़ौची' । उ०—देहली नाघ कर, दहलीज के उधर, घनौची पर सुघर घड़े रक्खे बरन ।—आराधना, पृ० ७८ ।

घन्नई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + नाव] मिट्टी के घड़ों और लकड़ी के लट्ठों को जोड़कर बनाया हुआ बेड़ा जिससे छोटी छोटी नदियाँ पार करते हैं । घरनई । घरनैली ।

घपचिआना † (१)
क्रि० अ० [हिं० घपची] १. चक्कर में आना । २. घबराना ।

घपचिआना † (२)
क्रि० स० १. किसी को चक्कर में डालना । २. घबराहट पैदा करना ।

घपची
संज्ञा स्त्री० [हिं० घन + पंच] किसी वस्तु को पकड़कर घेर रखने के लिये दोनों हाथों के पंजों की गठन । दोनों हाथों की मजबूत पकड़ । उ०—कितना ही उसने मुझको छुड़ाया झिड़क झिड़क । पर मैं तो घपची बाँध के उसको चिमट गया—नजीर (शब्द०) । क्रि० प्र०—बाँधना । मुहा०—घपची बाँधकर पानी में कूदना = दोनों घुटनों को छाती से सटाकर और उन्हें दोनों हाथों के घेरे में कसकर पानी में कूदना ।

घपला
संज्ञा पुं० [अनु०] १. दो परस्पर भिन्न वस्तुओं की ऐसी मिलावट जिसमें एक से दूसरे को अलग करना कठिन हो । २. गड़बड़ । गोलमाल । क्रि० प्र०—करना ।—डालना ।—पड़ना । यौ०—घपलेबाज = घपला या गड़बड़ी करनेवाला । घपले- बाजी= घपला या गोलमाल करना ।

घपुआ †
वि० [हिं० भकुआ] मूर्ख । जड़ । नासमझ । उल्लू । भकुआ ।

घपूचंद
संज्ञा पुं० [हिं० घप्पू + चंद] मूर्ख । जड़ । नासमझ ।

घपोका †
वि० [हिं०] दे० 'घपुआ' ।

घपोकानंदन
संज्ञा पुं० [हिं० घपुआ + नंदन] मूर्ख । जड़ । नासमझ ।

घप्पू †
वि० [हिं०] दे० 'घपुआ' ।

घबड़ाना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घबराना' ।

घबड़ाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घबराहट' ।

घबर
संज्ञा स्त्री०[हिं० गहबर] दे० 'घबराहट' । उ०—सबर राख कुसमै समै, कासूँ घबर करीस । खिण खिण ले जगची खबर जबर सगत जगदीस ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३. पृ० ६१ ।

घबराट †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घबराहट' । उ०—एक अजीब किस्म की वहशत और घबराट पैदा करती है ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५५ ।

घबराना (१)
क्रि० अ० [सं० गह्वर > हिं० गहबर या हिं० गड़बड़ाना] १. व्याकुल होना । अधीर या अशांत होना । चंचल होना ।भय या आशंक से आतुर होना । उद्विग्न होना । जैसे,—(क) उसकी बीमारी का हाल सुन सब घबरा गए । (ख) सेना को आते देख नगरवाले घबराकर भागने लगे । २. सकप काना । भौंचक्का होना । किंकर्तव्यविमूढ़ होना । ऐसी अवस्था में होना जिसमें यह न सूझ पड़े कि क्या कहें या क्या करें । हक्काबक्का होना । सिटपिटाना । जैसे,—वकील की जिरह से गवाह घबरा गया । ३. हड़बड़ाना । उतावली में होना । जल्दी मचाना । आतुर होना । जैसे,—घबराओ मत, थोड़ी देर में चलते हैं । ३. जी न लगना । उचाट होना । ऊबना । जैसे,— यहाँ अकेले बैठे बैठे जी घबराता है । संयो क्रि०—उठना । जाना ।

घबराना (२)
क्रि० स० १. व्याकुल करना । अधिर करना । शांति भंग करना । जैसे,—तुमने तो आकर मुझे घबरा दिया । २. भौंचक्का करना । ऐसी अवस्था में डालना जिससे कर्त्तव् न सूझ पड़े । ३. जलदी में डालना । हड़बड़ी में डालना । जैसे,— उसको घबराओ मत, धीरे धीरे काम करने दो । ४. हैरान करना । नाकों दस करना । ५. उचाट करना ।

घबराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० घबराना] १. व्याकुलता अधीरता । उद्विग्नता । अशांति । २. किंकर्त्तव्यविमूढ़ता । ऐसी अवस्था जिसमें क्या कहना या करना चाहिए, यह न सूझ पड़े । ३. हड़बड़ी । उतावली ।

घमंकना पु †
क्रि० अ० [अनु०] घम् की ध्वनि करना । घमकना । उ०—घूघर घमंकि पाइन बिसाल । नृत्तंत जननि जनु अग्ग बाल ।—पृ० रा०, ६ । ४९ ।

घसंका पु †
संज्ञा पुं० [अनु०] १. घूँसा । मुष्टिकाप्रहार । क्रि० प्र०—जड़ना ।—देना ।—पड़ना । २. वह प्रहार या जोट जिसके पड़ने से 'धम्' शब्द हो ।

घमंड
संज्ञा पुं० [सं० गर्व?] १. अभिमान । गरूर । शेखी । अहं— कार । गर्व । क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—होना । मुहा० —घमंड पर आना या होना = अभिमान करना । इतराना । घमंड निकलना = घमंड दूर होना । गर्व चूर्ण होना । घमंड टूटना = मान ध्वस्त होना । ग्रव चूर्ण होना । २. बल । वीरता । जोर । भरोसा । सहारा । आसरा । जैसे,— तुम किसके घमंड पर इतना कूदते हो ? उ०—जासु घमंड बदति नहिं काहुहि कहा दूरावति मोसों ।—सूर (शब्द०) ।

घमंडना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुमड़ना' । उ०—घन घमंड नभ गर्जत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।—मानस ४ । १४ ।

घमंडिन
वि० स्त्री० [हिं० घमंड + इन (प्रत्य०) ] दे० 'घमंडी' ।

घमंडी
वि० [हिं० घमंड] [वि० स्त्री घमंडिन] अहंकारी । अभिमानी । मगरूर । शेखीबाज ।

घम (१)
संज्ञा पुं० [सं० घर्म, हिं० घाम] धूप । धाम । विशेष—समस्त शब्दों में ही इसके प्रयोग मिलते हैं, जैसे— घमघमा, घमछैयाँ आदि ।

घम (२)
संज्ञा पुं० [अनु०] वह शब्द जो कोमल तल पर कड़ा आघात लगने से होता है । जैसे,—पीठ पर घम से मुक्का लगा ।

घमक
संज्ञा स्त्री० [अनु०] घम् घम् की आवाज । गर्जन । गभीर ध्वनि ।

घमकना (१)
क्रि० अ० [अनु० घम्] घम् घम् या और किसी प्रकार का गंभीर शब्द होना । घहराना । गरजना । उ०—सुकवि घुमड़िघनघटा बाँधि घमकत पावस घन ।—व्यास (शब्द०) ।

घमजना † (२)
क्रि० स० १. घम् से घूँसा मारना । मुष्टिका प्रहार करना । २. घम् घम् की आवाज करना ।

घमका (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] प्रहार का शब्द । चोट की आवाज । गदा या घूँसा पड़ने का शब्द । आघात की ध्वनि । उ०— (क) घाइन के घमके उठैं; दियो डमरु हर डार । नचे जटा फटकारि कै, भुज पसारि ततकार ।—लाल (शब्द०) । (ख) घाइन घमके मचे घनेरे । बखतरपोस गिरे बहुतेरे । सूदन (शब्द०) ।

घमका (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घाम] ऊमस । घमसा ।

घमकाना पु
क्रि० स० [हिं० घमकना] १. घम् घम् की ध्वनि । उत्पन्न करना । २. बजाना ।

घसखोर †
वि० [हिं० घाम + फा० खोर (रखानेवाल)] घाम खानोवाला । जो धूप में रह सके ।

घमघमा †
संज्ञा पुं० [हिं० घाम] १. धूप । २. दिन का वह समय जिसमें धूप हो ।

घमघमाना (१)
क्रि० स० [हिं० घाम] घाम लेना । धूप से शरीर गर्म करना । किसी व्यक्ति या वस्तु को धूप की गरमी से प्रभावित करना ।

घमघमाना (२)
क्रि० अ० [अनु०] घम घम शब्द करना । गंभीर शब्द करना ।

घमघमाना (३)
क्रि० स० १. प्रहार करना । भारी आघात लगाना । २. घूँसा मारना ।

घमछैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाम + छाँह] कुछ कुछ घाम और छाया अथवा वह जगह जहाँ कुछ घामछाँह हो । उ०— कहा गई कान्ह । तुम्हारी गैयाँ ? हाय । कहाँ जमुना की कूलैं कुंजन की घमछैयाँ ।—पूर्ण०, पृ० २८० ।

घमर
संज्ञा पुं० [अनु०] नगाड़े ढोल आदि का भारी शब्द । गंभीर ध्वनि । उ०—माखन खात पराए घर को । नित प्रति सहस मथानी मथिए मेघ शब्द दधि माट घमर को ।—सूर (शब्द०) ।

घमरा
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गराज] भृंगराज नाम की बूटी । भंगरा । भँगरैया ।

घमरौल
संज्ञा स्त्री० [अनु० घम् घम्] १. हल्ला गुल्ला । ऊधम । २. गड़ ड़ । घोटाला ।

घमस
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घमसा' ।

घमसा
संज्ञा पुं० [हिं० घाम] १. वह गरमी जो अधिक धूप और हवा रुकने के कारण होती है । धूप की गरमी । ऊमस २. घनापन । सघनता । आधिक्य ।

घमसान
संज्ञा पुं० [अनु० घम + सान (प्रत्य०)] भयंकर युद्ध । घोर रण । गहरी लड़ाई । उ०—(क) हरि को आयुध अवशि धरैतौं ठानि घोर घमसान ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) सान धरें फरमाल लिये घमसान करैं ।—सूदन (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।— होना । यौ०—घमसान का = घोर । भयंकर । जैसे,—घमासान की लड़ाई ।

घमाका
संज्ञा पुं० [अनु० घम्] 'घम्' का शब्द । भारी आघात का शब्द ।

घमाघम (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० घम्] १. घम् घम् की ध्वनि । २. घूमधाम । चहल पहल । ३. भारी आघात का शब्द ।

घमाघम (२)
क्रि० वि० घम् घम् शब्द के साथ । भारी आघात के शब्द के साथ । जैसे,—उसने घमाघम चार घूँसे जमा दिए ।

घमाघमी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. दे० 'घमाघम' । २. मारपीट ।

घमाना (१) †
क्रि० अ० [हिं० घाम] १. घाम लेना । सरदी हटाने के लिये धूप में बैठना । २. धूप खाना । धूप ऊपर पड़ ने देना । ३. फल आदि का घाम लगकर पीला होना ।

घमाना (२) †
क्रि० स० धूप दिखाना । किसी चीज को सुखाने के लिये घाम में रखाना ।

घमायल †
वि० [हिं० घमाना] घाम की गरमी से पका हुआ । घाम के प्रभाव से युक्त । (प्रायः फल के लिये प्रयुक्त) ।

घमासान
देश० पुं० [हिं०] दे० 'घमसान' ।

घमाह †
संज्ञा पुं० [हिं० घाम] वह बैल जो धूप में काम करने से जल्दी हाँपने लगे । वह बैल जो धूप न सह सके ।

घमीला
वि० [हिं० घाम] घाम खाय़ा हुआ । घाम या धूल लगने से मुरझाया हुआ ।

घमूह
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास । विशेष— प्रायः करील आदि की झाड़ियों के नीचे यह बहुत होती है । इसका स्वाद कुछ कड़ुवापन लिये नमकीन होता है । इसके नरम कल्लों ही को चौपाए खाते हैं । यह घास मथूरा, आगरा, फीरोजपुर, झंग आदि स्थानों में होती है ।

घमोई †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कटंगी बाँस का एक प्रकार का रोग जिसके पैदा होने से उस बाँस में नए कल्ले नहीं निकलने पाते । इस बाँस की जड़ों में बहुत से पतले और घने अंकुर निकलते है जो बाँस की बाढ़ और नए कल्लों की उत्पत्ति रोक देते हैं । उ०—अब ही ते मन संसय होई । बेनु मूल सुत भएहु घमोई ।—मानस, ६ । १० ।

घमोय †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक छोटा पौधा जो गोभी की तरह का होता है । विशेष—इसके पत्ते कटावदार तथा काँटों से भरे होते हैं । पत्तों के पीछे तथा कटान की नोकों पर काँटे होते है । इसमें केवल एक डंठल ऊपर की ओर जाता है, इधर इधर टहनियाँ नहीं फैलतीं । फूल पीछे और प्याले के आकर के होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर कँटीले बीजकोश रह जाते हैं । इसके डंठलों और पत्तों से एक प्रकार का पीला रस निकलता है जो आँख के रोगों में उपकारी माना जाता है । यह पौधा उजाड़ स्थानों में आपके आप बहुत उगता है । पर्या०—स्वर्ण क्षीरी । सत्यनाशी । भड़भाँड़ ।

घमौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाम] दे० 'अम्हौरी' ।

घयलवा पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घैला' । उ०—भरल घयलवा ढरकि गए, धन ठाढ़ी पछितात ।—कबीर श०, पृ० ६२ ।

घर
संज्ञा पुं० [सं० गृह प्रा० हर > घर] [वि० घराऊ घरू, घरेलू] १. मनुष्यों के रहने का स्थान जी दीवार आदि से घेरकर बनाया जाता है । निवासस्थान । आवास । मकान । यौ०—घरकत्ती । घरघालन । घरघुसना । घरजमाई । घरजोत । घरदासी । घरद्वार । घरफोरी घरबसा । घरवसी । घरबार । घरबैसी । मुहा०—अपना घर समझना =आराम की जगह समझना । संकोच का स्थान न समझना ऐसा स्थान समझना जहाँ घर का सा व्यवहार हो । जैसे,—इसे आप अपना घर समझिए, जो जरूरत हो, माँग लीजिए । घर आबाद होना = दे० 'घर बसना' । घर उठना = घर बनना । घर उजड़ना = (१) परिवार की दशा बिगड़ना । कूल की समृद्धि नष्ट होना । घर पर तबाही आना । घर की संपत्ति नष्ट होना । (२) परिवार पर विपत्ति आना । घर के प्राणियों का तितर बितर होना या मर जाना । घर करना = (१) बसना । रहना । निवास करना । घर बनाना । जैसे,—उन्होंने अब जंगल में अपना घर किया है । (२) किसी पस्तु का जमने या ठहरने के लिये जगह बनाना । समाने या अँटने के लिये स्थान निकालना । जैसे,—पैर ने जूते में अभी घर नहीं किया है; इसी से जूता कसा मालुम होता है । (३) किसी वस्तु का जमने या ठहरने के लिये गड्ढा करना । घुसना । धँसना । बिल बनाना । छेद करना । जैसे—(क) फोड़े पर जो पट्टी रखी है, वह चार दिन में घर करके सब मवाद निकाल देगी । (ख) कीड़े काठ में घर करते हैं । (४) घर का प्रबंध करना । घर सँभालना । किफायत से चलना । जैसे,—अब तुम बड़े हुए, घर करना सीखो । (स्त्री का) घर करना = पत्नी भाव से किसी के घर में रहना । खसम करना । आँख में घर करना = (१) इतना पसंद आना कि उसका ध्यान सदा बना रहे । जँचना । (२) प्रिय होना । पेरमपात्र होना । चित्त, मन या हृदय में घर करना = इतना पसंद आना कि उसका ध्यान सदा बना रहे । जँचना । अत्यंत प्रिय होना । प्रेमपात्र होना । दीआ घर करना = दीपक बुझाना । घर का = (१) निज का । अपना । जैसे—घर का मकान, घर का पैसा, घर का बगीचा । (२) आपस का । पराए का नहीं । संबंधियों या आत्मीय जनों के बीच का । जैसे,—(क) घर का मामला, घर की बात, घर का वास्ता । (ख) उनका हमारा तो घर मामला है । (३)अपने परिवार या कुटुंब का प्राणी । संबंधी । भाई बंधु । सुहृद् । उ०— तीन बुलाए तेरह आए, नए गाँव की रीत । बाहरवालेखा गए घर के गावें गीत ।—लोकोक्ति । (४) पति । स्वामी । भर्त्तार । उ०—घर के हमारे परदेश को सिधारे यातें दया करि बूझी हम रीति राहवारे की ।—कविंद (शब्द०) । घर का अच्छा = समृद्ध कुल का । अच्छे खानदान का । खाने पीने से खुश । घर का आदमी—अपने कुटुंब का प्राणी । भाई बंधु । इष्ट मित्र । जैसे आप दो घर के आदमी हैं; आपसे छिपाना क्या ? घर का आँगन हो जाना = (१) घर खँडहर हो जाना । घर उजड़ जाना । घर पर तबाही आना । (२) स्त्री को बच्चा होना । घर में संतान उत्पन्न होना । घर का उजाला = (१) कुलदीपक । कुल की समृद्धि करनेवाला । कुल की कीर्ति बढ़ानेवाला । भाग्यवान् । (२) वह जिसे देखकर घर के सब प्राणी प्रफुल्लित हों । अत्यंत प्रिय । लाडला । बहुत प्यारा । (३) बहुत सुंदर । रूपवान् । घर का चिराग = दे० 'घर का उजाला' । घर का चिराग गुल होना = (१) घर का सर्वनाश हो जाना । (२) इकलौते पुत्र का मर जाना । जैसे—उनके घर का चिराग ही गुल हो गया ।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ५८० । घरवा या घरौना करना = घर उजाड़ना । घर सत्यानाश करना । घर का बोझ उठाना या सँभालना = घर का प्रबंध करना । गृहस्थी का कामकाज देखना । घर का भेदिया या भेदी = घर का सब भेद जाननेवाला । ऐसा निकटस्थ मनुष्य जो सब रहस्य जानता हो । जैसे—घर का (भेदी) भेदिया लंका दाह । घर का भोला = अपने परिवार में सबसे मूर्ख । बिलकुल सीधा सादा । जैसे—वह ऐसा ही तो घर का भोला है जो इतने में ही तुम्हें दे देगा । घर का काट खाना या काटने दौड़ना = घर में रहना अच्छा न लगना । घर में जी न लगना । घर उजाड़ और भयानक लगना । घर में उदासी छाना । विशेष—जब घर का गोई प्राणि कहीं चला जाता है या मर जाता है, तब ऐसा बैलते हैं । घर का न घाट का = (१) जिसके रहने का कोई निश्चित स्थान न हो । (२) निकम्मा । बेकाम । घर का हिसाब = (१) अपने लेन देन का लेखा । निज का लेखा । (२) अपने इच्छानुसार किया हुआ हिसाब । मनमाना लेखा । घर का रास्ता =सीधा या सहज काम । जैसे—इस काम को घर का रास्ता न समझना । घर का मर्द, शेर, वीर या बहादुर = अपने ही खर में बल दिखाने वा बढ़ बढ़करे बोलने— वाला । परोक्ष में शेखी बघारनेवाला और मुकाबिले के लिये सामने न आनेवाला । घर (घरहिं या घर ही) के बाढ़े=घर ही में बढ़ बढ़कर बात करनेवाला । बाहर कुछ पुरुषार्थ न दिखानेवाला । पीठ पीछे शेखी बघारनेवाला । सामने न आने वाला । उ०—(क) मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घरहिं के बाढ़े । तुलसी (शब्द०) । (ख) ग्वालिनि हैं घर ही की बाढ़ी । निसि अरु दिन प्रति देखति हौं, आपनैं ही आँगन ढाढ़ी ।—सूर०, १० ।७७४ । घर का नाम उछालना या डुबोना = कुल को कलंकित करना । अपने भ्रष्ट और निष्कृष्ट आचरण से अपने परिवार की प्रतिष्ठा खोना । घर की = घरवाली । गृहिणी । स्त्री । घर की बात = (१) कुल से संबंध रखनेवाली बात । (२) आपस की बात । आत्मीय जनों के बीच की बात । घर की पूँजी = अपने पास की संपत्ति । निज का धन । घर की तरह बैठना = प्राराम से बैठना । खूब फैलकर बैठना । बैठने में किसी प्रकार का संकोच न करना । घर की तरह बैठो= सिमट कर बैठो । ऐसा बैठो कि औरों के लिये भी बैठने की जगह रहे । घर की तरह रहना = आराम से रहना । अपना घर समझकर रहना । घर की खेती = अपनी ही वस्तु । अपने यहाँ होने या मिलने वाली चीज । जैसे—इसके लिये क्या बात है । यह तो घर की खेती है, जितनी कहिए उतनी भेज दें । घर की मुर्घी साग बराबर = घर की अच्छी वस्तु की भी इज्जत नहीं होती है । घर के घर =(१) भीतर ही भीतर । गुप्त रीति से । बिना और लोगों को सुचना दिए । जैसे—तुमने तो घर के घर सौदा कर लिया, हमें बतलाया तक नहीं । (२) बहुत से घर । जैसे,—हैजे में घर साफ हो गए । घर के घर रहना = किसी व्यवसाय में न हानि उठाना न लाभ । बराबर रहना । जैसे,—इस सौदे में हम घर के घर रहे । घर से घर बंद होना = बहुत से घरों का उजड़ जाना । बहुत से घरों के रहनेवालों का मर जाना या कहीं चला जाना । घर खोज मिटा = जिसके घर का चिह्न तक न रह जाय । जिसका कुछ क्षय हो जाय । नष्ट । निगोड़ा—(स्त्रियों का अभिशाप या गाली) । घर खोना =वर सत्यानाश करना । घर उजाड़ना । घर की संपत्ति नष्ट करना । उ०—चूकते ही चुकते तो सब गया । चूककर खोना न अब घर चाहिए ।—चुभते०, पृ० ३८ । घर गई = घर उजड़ी । निगोड़ी ।—(स्त्रीयों का अभिशाप या गाली) । घर घर = हर एक घर में । सबके यहाँ । जैसे,—घर घर यही हाल है । घर घर के हो जाना = तितर बितर हो जाना । इधर उधर हो जाना । मारे मारे फिरना । बेठिकाने हो जना । उ०—तेरे मारे यातुधान भए घर घर के ।—तुलसी (शब्द०) । घर घलना = (१) घर बिगड़ना । घर उजड़ना । परिवार की बुरी दशा होना । (२) कुल में कलंक लगना । उ०—कहे ही बीना घर केते घले जू ।—देव (शब्द०) । घर घाट = (१) रंग ढंग । चाल ढाल । गति और अवस्था । जैसे,—पहले उनका घर घाट देख लो, तब कुछ करो । (२) ढंग । ढब । प्रकृति । जैसे,—वह और ही घर घाट का आदमी है । (३) ठौर ठिकाना । घर द्वार । स्थिति । जैसे—घर घाट देखकर संबंध किया जाता है । घर घाट मालूम होना = रंग ढंग मालूम होना । सारी अवस्था विदित होना । कोई बात छिपी न रहना । घर घालना =(१) घर बिगाड़ना । परिवार मे अशांति या दुःख फैलाना । परिवार को हानि पहुंचाना । जैसे,—इस जूए ने जाने कितने घर घाले हैं । (२) कुल को दूषित करना । कुल की मर्यादा भ्रष्ट करना । कुल में कलंक लगना । जैसे,—इस कुटनी ने न जाने कितने घर घाले हैं । (३) लोगों को मोहित करके वश में करना । प्रेम से व्यथित करना । जैसे—अभी इसे सयानी तो होने दो, न जाने कितने घर घालेगी ।—(बाजारू) ।घरघुसना = घर में घुसा रहनेवाला । हर घड़ी अंतःपुर में पड़ा रहनेवाला । सदा स्त्रीयों के बिच में बैठा रहनेवाला । बाहर निकलकर काम काज न करनेवाला । घर चढ़कर लडने आना = लड़ाई करने के लिये किसी के घर पर जाना । घर चलना = गृहस्थी का निर्वाह होना । घर का खर्च बर्च चलना । घर चलाना = गृहस्थी का निर्वाह करना । घर डुबोना = (१) घर की संपत्ति रष्ट करना । घर तबाह करना । (२) कुल में कलंक लगाना । घर डूबना = (१) घर तबाह होना । (२) कुल में कलंक लगना । घर जमना = गृहस्थी ठीक होना । घर का समान इकट्ठा होना । घर जाना = घर का बिगड़ ना । कुल का नाश होना । घरत जुगु = गृहस्थी का प्रबंध । घर झँकनी = एक घर से दूसरे घर घूमनेवाली । अपने घर न बैठनेवाली । घर तक पहुँचना = माँ बहन की गाली देना । बाप दादों तक चढ़ जाना । बाप दादे बखानना । घर घाम में छवाना = (१) कष्ट देना । (२) धमकी देना । घर तक पहुँचना = (१) समाप्तितक पहुँचाना । ठिकाने तक ले जाना । संपूर्ण करना । पूरा उतारना । जैसे ,—जिस काम को उठाओ, उसे घर तक पहुँचाओ । (२) बुद्धि ठिकाने ले आना । बात को ठीक ठीक समझा देना । कायल करना । जैसे,—झूठे को घर तक पहुँचा दिया । घर दामाद लेना = दामाद को अपने घर रखना । घर देखना = किसी के घर कुछ माँगने जाना । जैसे, यहाँ कुछ न मिलेगा दूसरा घर देखो । घर देखना, देख लेना या पाना = रास्ता देखलेना । परचजाना । ढर्रा निकाल लेना जैसे,—(क) तुम और किसी से तो कुछ माँगते नहीं; सीधा हमारा घरदेख पाया है । (ख) बुढ़िया के मरने का सोच नहीं, यम के घर देख लेने का सोच है । किसी के घर पड़ना = किसी के घर में पत्नी भाव से जाना । (किसी वस्तु का) घर पड़ना= घर में आना । प्राप्त होना । मिलना । मोल मिलना । जैसे,—यह चीज क्या भाव घर पड़ी ? घर पर गंगा आना = बिना परिश्रम के कार्य पूरा हो जाना । उ०—आलसी घर गगा आई मिटि गई गर्मी भई सियराई ।—कबीर सा०, पृ० ५४५ । घर पीछे = एक एक घर में । एक एक घर से । जैसे,—घर पीछे एक रुपया वसूल करो । घर फटना = (१) मकान की दीवार आदि में दरार पड़ना । (२) घर में बच्चा उत्पन्न होना । (३) छाती फटना । बुरा लगना । असह्वा होना । न भाना । जैसे,—लेने को तो रुपया ले लिया, अब देते हुए क्यों घर फटना है ? (४) घर में बिगाड़ होना । घरफूँक तमाशा या मामला = घर का सत्यानाश करने वाली बात । ऐसी बात जिससे घर की संपत्ति नष्ट हो । घर पर तबाही लानेवाली चाल ढाल । घर फूँक तमाशा देखना = घर की संपत्ति लष्ट करके अपना मनोरंजन करना । अपनी हानि करके मौज उडना । जैसे,—रोजोशब यही चरचे यही कहकहे, यही चहचहे घर फूँक तमाशा देखा ।—फिसाना०, भा० २, पृ० ६ । घर फोड़ना = घर में विग्रह उत्पन्न करना । परिवार में झगड़ा लगाना । परिवार में उपद्रव खड़ा करना । घर बंद होना = (१) घर में ताला लगना ।(२) घर में प्राणी न रह जाना । घर का कोई मालिक न रहना । घर के प्राणियों का तितर बितर होना । (३) किसी घर से कोई संबंध न रह जाना । घर बिगाड़ना = (१) घर उजाड़ना । घर सी समृद्धि नष्ट करना । घर तबाह करना । परिवार की हानि करना । (२) घर में फूट फैलाना । घर में झगड़ा खड़ा करना । घर के प्राणियों में परस्पर लड़ाई कराना । (३) कुलवती को बहकाना । घर की बहू बेटी को बुरे मार्ग पर ले जाना । घर बनना = (१) मकान तैयार होना । (२) घर की आर्थिक स्थिति अच्छी होना । घर संपन्न होना । घर भरा पूरा होना । घर बनाना = (१) मकान तैयार करना । (२) निवासस्थान करना । जमकर रहना । बसना । (३) घर भरना । घर को धनधान्य मे पूर्ण करना । घर की आर्थिक दशा सुधारना । अपना लाभ करना । जैसे,—नौकरों पर कोई आँख रखनेवाला नहीं है, वे अपना घर बना रहे हैं । घर बरबाद होना= घर बिगड़ना । घर की समृद्धि नष्ट होना । परिवार की दशा बिगड़ना । घर बसना = (१) घर आबाद होना । घर में प्राणियों का होना । (२) घर की दशा सुधरना । घर में धनधान्य होना । (३) घर में स्त्री या बहू आना । ब्याह होना । (४) दुलहा दुलहिन का समागम होना । घर बसाना = (१) घर आबाद करना । घर में नए प्राणी लाना । (२) घर की दशा सुधारना । घर को धनधान्य से पूरित करना । (३) घर में स्त्री या बहू लाना । विवाह करना । घर बेचिराग हो जाना = नामलेवा न रह जाना । एकलौते बेटे का मर जाना । घर बैठना = (१) घर में बैठना । एकांत सेवन करना । (२) काम पर न जाना । काम छोड़ना । नौकरी छोड़ना । जैसे,—(क) वह चार दिन कोई काम करता है, फिर घर बैठ रहता है । (ख) तुमसे काम नहीं होता, तुम घर बैठो । (३) कोई काम न मिनला । बेकार रहना । बेरोजगार रहना । जीविका न रहना । जैसे,—आजकल वह घर बैठा है; उसे कोई काम दिलओ । अधिक वर्षा से मकान का गिरना । जैसे,—लगातार बारह घंटे पानी बरसने से कई घर बैठ गए । (किसी स्त्री का किसी पुरुष के)घर बैठना= किसी के घर पत्नी भाव से चली जाना । किसी को खसम बनाना । घर बैठे रोटी = बिना मेहनत की रोटी । बिना परिश्रम की जीविका । घर बैठे = (१) बिना कुछ काम किए । बिना हाथ पैर डुलाए । बिना परिश्रम । जैसे,— घर बैठे १०० रुपया महीना मिलता है, कम है ? (२) बिना कहीं गए आए । बिना कुछ देखे भाले । बिना बाहर जाकर सब बातों का पता लगाए । विना देश काल की अवस्था जाने । जैसे,—घर बैठे बातें करते हो, बाहर जाकर देखो तो जान पड़े । (३) बिना कहीं गए आए । एक ही स्थान पर रहते हुए । बिना यात्रा आदि का कष्ट उठाए । जैसे,—इस पुस्तक को पढ़ो और घर बैठे देश देशांतरों का वृत्तांत जानो । घर बैठे की नौकरी = बिना परिश्रम कीनौकरी । घर बैठे बैर दौड़ाना = मंत्र के बल से अपने पास किसी वस्तु या व्यक्ति को बुला लेना । मोहन करना । मूठ चलाना । घर भर = घर के सव प्राणी । सारा परिवार । जैसे,—घर भर यहाँ आया है । घर भरना = (१) घर को धनधान्य से पूर्ण करना । घर में धन इकट्ठा करना । अपना लाभ करना । माल अपने घर में रखना । (२) (अकर्मक प्रयोग) घाटा परा होना । हानि की पूर्ति होना । (३) घर का प्राणियों से भरना । घर मे मेहमानों और कुटुंबवालों का इकट्ठा होना । घर में = स्त्री । जोरू । घरवाली । जैसे,— उनके घर में बीमार हैं ।—(बोल०) । घर भाँय भाँय करना = घर का सूनापन खलना । सूनेपन के कारण घर का डरावना लगना । कुछ घर में आना = अपना लाभ होना । प्राप्ति होना । जैसे,—उनकी नौकरी जाने से घर में क्या आ जायग । (किसी स्त्री को) घर में डालना = रख लेना । रखेली बनाना । जोरू बनाना । (किसी स्त्री का) घर में पड़ना = किसी के घर पत्नी भाव से जाना । किसी की घरवाली होना । घर सिर पर उठा लेना = बहुत अधिक शोर करना । ऊधम मचाना । घरसे = (१) पास से । पल्ले से जैसे—तुम्हारे घर से क्या गया । (२) पति । स्वामी । (३) स्त्री । पत्नी ।—(बोल०) । घर से पाँव निकालना = इधर उधर बहुत घूमना । शासन में न रहना । स्वेच्छाचार करना । मर्यादा के बाह चलना । जैसे,—तुमने बहुत घर से पाँव निकाले हैं; में अभी जाकर कहता हूँ । घर से बाहर पाँव निकालना= वित्त से बाहर काम करना । कमाई से अधिक खर्च करना । घर से देना = (१) अपने पास से देना । अपनी गाँठ से देना । जैसे—जब वह तुम्हारा रुपया देता ही नहीं है तब क्या मैं तुम्हें अपने घर से दूँगा ? (२) अपना रुपया खोना । स्वयं हानि उठाना । जैसे तुम इनकी जमानत न करो, नहीं तो घर से देना होगा । घर सेना = (१) घर में पड़े रहना । बाहल न निकलना । (२) बेकार बैठे रहना । इधर उधर काम धंधे के लिये न जाना । घर होना =(१) गृहस्थी चलना । निबाह होना । घर का काम चलना । जैसे,—ऐसे करतबों से कहीं घर होता है ? (२) घर के प्राणियों में मेलजोल होना । घर में सुख शांति होना । स्त्री पुरुष में बनना । २. जन्मस्थान । जन्मभूमी । स्वदेश । ३. घराना । कुल । वंश । खानदान । जैसे,—किसी अच्छे या बड़े घर लड़की ब्याहेंगे । वह अच्छे घर का लड़का है । उ०—जो घर बर कूल होय अनूपा । करिय विवाह सुता अनुरूपा ।—तुलसी (शब्द०) । ४. कार्यालय । कारखाना । आफिस । दफ्तर । जैसे,—डाकघर, तारघर, पुतलीघर, रेलघर, बंकघर इत्यादि । ५. कोठरी । कमरा । जैसे,—ऊपर के खंड में केवल चार घर हैं । ६. आड़ी खड़ी खिंची हुई रेखाओं से घिरा स्थान । कोठा । खाना । जैसे,—कुंडली या यंत्र का घर । ७. शतरंज आदि का चौकोर खाना । कोठा । मुहा०—घर बंद होना = गोटी शतरंज के मुहरे आदि चलने का रास्ता न रहना । ८. कोई वस्तु रखने का डिब्बा या चोंगा । कोश । खाना । केस । जैसे, —चशमें का घर, तलवार का घर । ९. पटरी आदि से घिरा हुआ स्थान । खाना । कोठा । जैसे, —आलमारी के घर, संदूक के घर । १०. ग्रहों की राशि । ११. किसी वस्तु के अँटने या सामने का स्थान । छोटा गड्ढा । जैसे, —पानी ने स्थान स्थान पर घर लिया है । क्रि० प्र०—करना । १२. किसी वस्तु (नगीना आदि) को जमाने या बैठाने का स्थान । जैसे, —नगीने का घर । १३. छेद । बिल । सूराख । जैसे, —छलनी के घर । बटन के घर । मुहा०—घर भरना = छेद मूँदना । बिल बंद करना । १४. राग का स्थान । मुकाम । स्वर । जैसे,—यह चिड़िया कई घर बोलती है । मुहा०—घर में कहना = (१) ठीक ठीक स्वर ग्राम के साथ गाना । घर से कहना = (२) ठीक ठीक स्वर के साथ गाना । (२) चिड़ियों का अच्छी बोली बोलना । कोकिल आदि का मधुर स्वर से बोलना । १५. उत्पत्ति स्थान । मूल कारण । उत्पन्न करनेवाला । जैसे,— (क) रोग का घर खाँसी । (ख) खीरा रोग का घर है । १६. गृहस्थी । घरबार । जैसे,—घर देखकर चलो । १७. घर का असबाब । गृहस्थी का सामान । जैसे,—वह अपना इधर उधर घूमता है; मै घर लिए बैठी रहती हूँ ।—(स्त्री०) । १८. भग या गुगेंद्रियों । —(बादारू) । क्रि० प्र०—चिरना ।—फटना । १९. चोट मारने का स्थान । वार करने का स्थान या अवसर । मुहा०—घर खाली छोड़ना या देना = वार न करना । वार चूक जाना । २०. आँख का गोलक या गड्ढा । २१. चौखटा । फ्रेम । जैसे,— तसवीर का घर । २२. वह स्थान जहाँ कोई वस्तु बहुतायत से हो । भांडार । खजाना । जैसे,—काश्मीर मेवों का घर है । २३. दाँव । पेंच । युक्ति । जैसे,—वह कुश्ती के सब घर जानता है । २४. केले, मूँज या बाँस का समूह जो एकत्र घने होकर उगते हैं । यौ०—घर घाट = दाँव पेंच ।

घरइया †
वि० [हिं० घर + ऐया (प्रत्य०)] दे० 'घरैया' ।

घरऊ †
वि० [हिं० घर] दे० 'घराऊ' या 'घरु' । उ०—इस प्रांत के निवासियों की घरऊ बातचीत ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४९ ।

घरगिरस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घरगृहस्थी' । उ०—मैं तो घर- गिरस्ती के बीच में हूँ ।—सुनीता, पृ० २५ ।

घरगृहस्थ
संज्ञा पुं० [हिं० घर + सं० गृहस्थ] परिवार के साथ रहनेवाल व्यक्ति जो गृहस्थी के निर्वाह के लिये धनोपार्जन करता है ।

घरगृहस्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + गृहस्थी] परिवार के सबी सदस्य तथा उनके उपभोग की सभी वस्तुएँ ।

घर घराना (१)
क्रि० अ० [अनुध्व०] घर्र घर्र शब्द करना । कफ के कारण गले से साँस लेते समय शब्द निकलना ।

घर घराना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घर + घराना] कुल परिवार । वंश । जैसे,—अंधा बाँटे शीरनी घर घराने खाँय ।

घरघराहट
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व० घर्र घर्र] १. घर्र घर्र शब्द निकलने का भाव । २. कफ के कारण गले से साँस लेते समय निकला हुआ शब्द ।

घरघलू †पु
वि० [हिं० घर + घालना] दे० 'घरघाल' । उ०— घरघलू बँसुरिया कों कोउ हटकै । बैठी रहन न देति घरी घर गौंहन घरी है निपट कै ।—घनानंद, पृ० ४८८ ।

घरघाल
वि० [हिं० घर + घालना] घर बिगाड़नेवाला । कुल की समृद्धि नष्ट करनेवाला । पिरवार की बुरी दशा करनेवाला । कुल में कलंक लगानेवाला । उ०—घरघाल चालक कलहप्रिय कहियत परम परमारथी ।—तुलसी (शब्द०) ।

घरघालक
वि० [हिं०] दे० 'घरघाल' । उ०—(क) पर घराघालक लाज न भीरा । बाँझ कि जान प्रसव के पीरा ।—मानस, १ । ९७ । (ख) छाँडत क्यों है भूखो बालक । जनपालक ऐसे घरघालक । नंद ग्रं०, पृ० २८ ।

घरघालणी †
वि० [हिं० घरघालन] घर उजाड़नेवाली । घर का नाश करनेवाली । उ०—घणी बुरी घरघरणी पातर सूँ ह्वै पाम ।—बाँकी ग्रं०, भा०२, पृ० ५ ।

घरघालन
वि० [हिं० घर + घालन] [वि० स्त्री० घरघारणी] घर बिगाड़नेवाला । परिवार में दुःख या अशांति फैलानेवाला । परिवार की दशा बिगाड़नेवाला । कुल में कलंक लगानेवाला । उ०—ये बड़े नैन दिखाय दे नेक तू ए घरघालनी घटवाली ।—(शब्द०) ।

घरघुस, घरघुसड़ू, घरघुसा, घरघुस्सू
वि० [हिं० घर + घुसना] दे० 'घर' शब्द के अंतर्गत । मुहा० 'घरघुसना' । उ०—अब भी मैं अपने घरघुस्सू स्वभाव के कारण उन्हें छुट्टी नहीं दे पाती ।—जिप्सी, पृ० ७४ ।

घरचित्ता
संज्ञा पुं० [हिं० घर + चीतर] एक प्रकार का साँप जो प्रायः मनुष्यों के घर में रहा करता है ।

घरजँवाई
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घरजमाई' ।

घरजमाई
संज्ञा पुं० [हिं० घर + मं० जमाता, हिं० जँवाई, जमाई] समुराल में स्थायी रूप से रहनेवाला दामाद । घरदामाद ।

घरजाया
संज्ञा पुं० [हि० घर + जाया = उत्पन्न] [स्त्री० घरजाई] दास । गुलाम । उ०—(क) राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै बलि, तुलसी तिहारो घरजायउ है घर को ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) हौ राधा की राधा मेरी । कीरति की घरजाई चेरी ।—घनानंद, पृ० २७८ ।

घरटिया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० घरट्टिका] चक्की । जाँता । उ०— पूजोनी घर री घरटिया जग पीस रु खाय ।—राम०, धर्म०, पृ० ५३ ।

घरटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घरट्टिका, प्रा० घरट्टिया] दे० 'घरट्टिका' । उ०—घरटी उडया अन्न ज्यों कै पीसा कइ पीस ।—राम० धर्म०, ६४ ।

घरट्ट, घरट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] चक्की । जाँता ।

घरट्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चक्की । जाँता [को०] ।

घरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसकी पास गृह या घर हो । † २. दे० 'घरनी' ।

घरदारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + फा० दारी] घर का काम काज । गृहस्थी का व्यवस्था ।

घरदासी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + सं० दासी] गृहणी । भार्या । पत्नी ।

घरद्वार
संज्ञा पुं० [हिं० घर+ सं० द्वार] १. रहने का स्थान । ठौर । ठिकाना । जैसे,—बिना इनका घर द्वारा जाने हम इनके विषय में क्या कह सकते हैं । २. गृहस्थी । घर का आयोजन । जैसे,—जब वह बाहर जाता है, तब उसे घर द्वार की कुछ भी सुध नहीं रहती । ३. निज की सारी संपत्ति । जैसे,—हम अपना घरद्वार बेचकार तुम्हारा रुपया चुका देंगे ।

घरद्वारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घरद्वार + ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का कर जो पहले घर पीछे लिया जाता था ।

घरद्वारी (२)
संज्ञा पुं० दे० 'घरबारी' ।

घरन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की पहाड़ी भेड़ जिसे जुँबली भी कहते हैं ।

घरनई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घन्नई' ।

घरनाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + नाली] एक प्रकार की पुरानी तोप । रहकला ।

घरनाव (१)
संज्ञा पुं० [सं० घरनी + आव (प्रत्य०)] गृहणीत्व । पत्नीत्व । घरनीपन ।

घरनाव (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ा + नाव] दे० 'घन्नई' । उ०— नहिं नावक, घरनाव, नहिं मलाह नहिं तूमरा ।—नट० पृ० १४८ ।

घरनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घरनी' । उ०—देखि विवस वृषभानु घरनि यौं हँसति हँसति तहँ आई ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३८४ ।

घरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० गृहणी, प्रा०, घरणी] घरवाली । भार्या । गृहिणी । उ०—(क) गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरैगी मेरी प्रभु सों निषाद ह्वै कै बाद न बढ़ाइहौं ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तरनिहु मुनि घरनी होई जाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) बिन घरनी घर भूत का डेरा ।— (कहा०) ।

घरनैली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घरनई + एली (प्रत्य०)] दे० 'घन्नई' ।

घरपत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + पत्ती = भाग] वह चंदा जो घर पीछे लगाया जाय । बेहरी ।

घरपरना
संज्ञा पुं० [सं० घर + परना(= बनाना)] कच्ची मिट्टी का गोल पिंडा जिसपर ठठेरे घरिया बनाते हैं ।

घरपोई †
वि० [हिं० घर + पोना] घर की पकाई हुई । उ०— तुम अबहीं जेई घरपोई ।—जायसी ग्रं०, (गुप्त), पृ० १२३ ।

घरप्रांतर
संज्ञा पुं० [सिं० घर + प्रांतर] १. घर और पड़ोस ।२. घर का पड़ोस । उ०—पार हुए घरप्रांतप अंतर में निरव- मान ।—अर्चना, पृ० ८० ।

घरफुँकना †
वि० [हिं० घर + फूँकना] घर फूँकनेवाला । घर बर्बाद करनेवाला ।

घरफोड़ना
वि० [हिं० घर + फोड़ना] घर में झगड़ा लगानेवाला । घर के प्राणियों में बिगाड़ करानेवाला ।

घरफोरन † घरफोरना
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० घरफोरनी] दे० 'घरफोड़ना' ।

घरफोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + फोड़ना] परिवार में कलह फैलानेवाली । घर के प्राणियों में बिगाड़ करानेवाली । उ०— (क) धरयो मोर घरफोरी नाऊँ ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी । थब धरि जीब कढ़ावौं तोरी ।—मानस, २१४ ।

घरबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + बंदी] चित्रकला में पहले छोटे छेटे चिन्हों से स्थान घेरकर अलग अलग पदार्थों को अंकित करने के लिये स्थान नियत करना ।

घरबसा
संज्ञा पुं० [हिं० घर + बसना] [स्त्री० घरबसी] उपपति । यार । उ०—ए हो घरबसे आजु कौन घर बसे हौ ।—घनानद (शब्द०) ।

घरबसी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + बसना] रखेली स्त्री । उपपत्नी । सुरैतिन । उ०—तेरे घाले घर जात घरी औ न घर आज तू तौ घरबसी उर बसी उरबसी सी ।—गंग ग्रं०, पृ० ४७ ।

घरबसी (२)
वि० स्त्री० १. घर बसानेवाली । घर की समृद्धि करनेवाली । भाग्यवती । २. (व्यंग्य) घर उजाड़नेवाली । सत्यानाश करनेवाली । उ०—ललित लाल निहारि महरि मन बिचारि डारि दे घरबसी लकुट बेगि कर ते ।—तुलसी (शब्द०) ।

घरबार
संज्ञा पुं० [हिं० घर + बार < सं० द्वार] [वि० घरबारी] १. रहने का स्थान । ठौर ठिकाना । २. घर का जंजाल । गृहस्थी । जैसे,—वह घरबार छोड़कर साधु हो गया । ३. निज की सारी संपत्ति । जैसे,—घरबार बेचकर हमारा रुपया दो ।

घरबारी
संज्ञा पुं० [हिं० घर + बार] बाल बच्चोंवाला । गृहस्थ । कुटुंबी । उ०—अब तो श्याम भये घरबारी ।—सूर (शब्द०) ।

घरबैसी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + बैठना] 'घरबसी' ।

घरम †
संज्ञा पुं० [सं० घर्म] १. घाम । धूप । २. स्वेद । उ०— कहइत नाम पेमे भये भोर । पुलक कंप तनु घरमहि नोर ।— विद्यापति, पृ० ९३३ ।

घरमकर †
संज्ञा पुं० [सं० घर्मकर] सूर्य ।

घरयार पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घरियार' । उ०—घरी बजी घरयार सुन बजिकै कहत बजाइ । बहुरि न पैहै यह हरि चरनन चित लाइ ।—सं० सप्तक, पृ० १७४ ।

घरर घरर
संज्ञा पुं० [अनु०] वह शब्द जो किसी कड़ी वस्तु को दूसरी कड़ी वस्तु पर रगड़ने से होता है । घिसने का शब्द ।

घररना (१)
क्रि० अ० [अनुध्व० घरर घरर] घरर घरर ध्वनि होना ।

घररना (२)
क्रि० स० १. रगड़ना । घिसना । घँसना । २. घरर घरर ध्वनि पैदा करना ।

घरराट †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] गर्जना । ध्वनि । उ०—अमरष लीधाँ उछफै घण हंदै घरराट ।—बाँकी० ग्रं०, भा०१, पृ० १६ ।

घरवा
संज्ञा पुं० [हिं० घर + वा (प्रत्य०)] १. छोटा मोटा घर । कुटी । उ०—जो घरवा में बोलै भाई । काहिनामतोहि कहुहु बुझाई ।—कबीर सा०, पृ० ३९७९ । २. घरौंदा ।

घरवात पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घरू + वात (प्रत्य) अथवा सं० वस्तु > हिं० वात] घर की संपत्ति । घर का सामान । गृहस्थी । उ०—कृश गात ललात जो रोटिन को घरवात घरै खुरपी खरिया । तुलसी (शब्द०) ।

घरवाला
संज्ञा पुं० [हिं० घर + वाला (प्रत्य०)] [स्त्री० घरवाली] १. घर का मालिक । २. प्रति । स्वामी ।

घरवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + वाली (प्रत्य०)] गृहिणी । भार्या । पत्नी ।

घरवाहा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घरवा' ।

घरवैया
संज्ञा पुं० [हिं० घरैया] घराती । घर के लोग । उ०— बस गाँब का और कोई नहीं था । जो थे घरवैया थे ।—नई०, पृ० ५१ ।

घरसा †
संज्ञा पुं० [सं० घर्ष] रगड़ा । उ०—जोग न लोग लुगाइन के सँग, भोग न रोगन के घरसा में ।—मतिराम (शब्द०) ।

घरह पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + ह (प्रत्य०)] घरवाली । घरनी । पत्नी । उ०—सषिन ओट सलषह षरह दूलह दुति दृग देखि ।—पृ० रा०, १४ ।३३ ।

घरहराना (१)
क्रि० सं० [अनुध्व०] दे० 'घहराना' । उ०—घरहराइ अति बरखा करई ।—नंद ग्रं०, पृ० १९२ ।

घरहराना (२)
क्रि० अ० [सं० गह्वर] गहबर होना । ब्याकुल होना । उ०—यौं कहि कुँवरि ग्रीव जब गोई । घरहराइ तब कहचरि रोई ।—नंद ग्रं०, पृ० १४१ ।

घरहराना (२)
क्रि० अ० [हिं० घड़ाघड़ाना] गर्जन करना । कड़कना । उ०—तड़तड़ाहिं तड़ि वज्र से परैं । घरहराहि घन ऊधम करैं । नंद ग्रं०, पृ० ३०७ ।

घरहाँई (१) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर + सं० घानी > हिं० घाई] १. घर घालनेवाली । घर में विरोध करानेवाली स्त्री । इधर का उधर लगानेवाली । चुगुलखोर स्त्री । २. वह स्त्री जो किसी के घर की बुराई सबसे कहती फिरे । अपकीर्ति फैलानेवाली । निंदा फैलानेवाली । लांछन लगानेवाली । चबाव करनेवाली । उ०—(क) घरहाई चवाव न जो करतीं तो भलो औ बुरो पहिचानती मैं ।—हनुमान कवि । (शब्द०) । (ख) घरहाइन की घैरु हू लाज न सकी बचाय । अरी हरी चित लै गयो लोचन चारु नचाय ।—श्रृ० सत० (शब्द०) । (ग) घरहाइन चरचैं चलैं चातुर सैन । तदपि सनेह सने लगैं ललकि दुहूँ के नैन ।—श्रृ० सत० (शब्द०) ।

घरहाँई (२) पु †
वि० बदनामी फैलानीवाली । कंलक की बात चाचो ओर कहनेवाली । चववाइन । चुगुलखोर । उ०—ये घरहाईं लुगाई सबै निस द्यौस नेवाज हमै दहती हैं । प्राण पियारे तिहारे लिये सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं ।—नेवाज (शब्द०) ।

घराँव
संज्ञा पुं० [हिं० घर + आँव (प्रत्य०)] घर का सा संबंध । घनिष्ठता । परस्पर मेलजोल का भाव ।

घरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ा] दे० 'घड़ा' । उ०—पगी प्रेम नँदलाल के भरन आपु जल जाइ । घरी घर के तरें घरनि देति ढरकाइ ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४५ ।

घराऊ
वि० [हिं० घर + आउ (प्रत्य०)] १. घर का । घर से संबंध रखनेवाला । गृहस्थी संबंध । जैसे,—घराऊ झगड़ा । २. आपस का । निज का । घर के प्राणियों या इष्ट मित्रों के बीच का ।

घराड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर] १. दे० 'डीह' । २. दे० 'गड़ारी' ।

घराती
संज्ञा पुं० [हिं० घर + आती (प्रत्य०)] विवाह में कन्या की ओर के लोग । कन्या के पक्ष के लोग । उ०—एक ओर सब बैठ बराती । एक ओर सब लगैं घराती ।—रघुराज (शब्द०) ।

घराना
संज्ञा पुं० [हिं० घर + आना (प्रत्य०) खानदान । वंश । कुल । जैसे,—वह अच्छे घराने का आदमी है, उस घराने की गायकी प्रसिद्ध है ।

घरारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घररना (= घिसना)] रगड़ खाकर घिसने के कारण बनी लकीर, चिह्न या निशान ।

घरिआर †
संज्ञा पुं० [हिं० घड़ियाल] दे० 'घड़ियाल' ।

घरिआरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घड़ियाली' ।

घरिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घरनी । पत्नी ।

घरियक पु
क्रि० वि० [हिं० घड़ी + एक] घड़ी भर । थोड़े समय तक । कुछ देर तक ।

घरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घड़िया' । उ०—यह संसार ऱहट की घरिया ।—कबीर सा०, पृ० ५८८ ।

घरियाना †
क्रि० स० [हिं० घरी (=तह)] घरी लगाना । कपड़े को तह लगाकर लपेटना ।

घरियार पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घड़ियाल' । उ०—तहाँ घरनि घरियार बजावैं ।—कबीर सा०, पृ० १५४८ ।

घरियारी †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घड़ियाली' । उ०—मनसिज घरि- यारी अरी गजर बजावै बाल ।—राम० धर्म०, पृ० २४८ ।

घरी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घड़ी] समय । काल । घड़ी । उ०— (क) मानहु मीचु घरी गनि लेई ।—मानस, २ । ४० । (ख) धन्य है वह घरी जिसमें इस आनंद की लूट हुई ।— श्यामा०, पृ० १०६ ।

घरी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घर (= कोठा, खाना) ] तह । परत । लपेट । उ०—राखौं घरी बनाय, ह्वैं आवों नृपद्धार लौं । तब लीजो पट आय, जो चाहो दीजियो ।—(शब्द०) ।

घरी (३)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घड़िया' । उ०—लागी घरी रहट कै सीचहिं अमृत बेल ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३ ।

घरीक पु †
क्रि० वि० [हिं० घड़ी + एक] कुछ देर । एक घड़ी भर । थोड़ी देर । उ०—(क) जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ पिय छाँह घरीक ह्वै छाढे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १६४ । (ख) बिरह दहन लागी दहन घर न घरीक थिराति । रहत घड़ी सी ती भई बुड़ति औ उतराति ।—शृं० सत० (शब्द०)

घरूआ (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० घर + उवा (प्रत्य०)] १. घर का अच्छा प्रबंध । गृहस्थी का ठीक ठीक निर्वाह । गृहस्थी का बँधा खर्च बर्च । २. वह व्यक्ति जो गृहस्थी का प्रबंध समझबूझ से करे । घरूआदार ।

घरूआ (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० घर] छोटा घर । उ०—बलुआ के घरूआ में बसते फुलवत देह अपाने ।—कबीर ग्रं०, पृ० २७६ ।

घरूआदार †
संज्ञा पुं० [हिं० घर + फा़० दार] [स्त्री० घरूआदारिन] घर या गृहस्थी का उत्तम प्रबंध करनेवाला । वह मनुष्य जो समझ बूझकर गृहस्थी का खर्च चलावे ।

घरूआदारी †
संज्ञा स्त्री० [हि० घर + दारी] घर का उत्तम प्रबंध करने का भाव । गृहस्थी का निर्वाह ।

घरूवा
संज्ञा पुं० वि० [हिं० घर] १. दे० 'घरूआ' । २. 'घरू' ।

घरू †
वि० [हिं० घर + उ (प्रत्य०)] जिसका संबंध घर गृहस्थी से हो । घर का । घराऊ । उ०—सब समाचार लिखि पत्र से एक घरू मनुष्य पठायो ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १४८ ।

घरेला
वि० [हिं० घर + एला (प्रत्य०)] दे० 'घरेलू' ।

घरेलू
वि० [हिं० घर + एलू (प्रत्य०)] १. जो घर में आदमियों के पास रहे । पालतू । पालू ।—(पशुओं के लिये) । जैसे,— घरेलू कुत्ता । २. घर का । निज का । घरू । खानगी । ३. घर का बना हुआ ।

घरैया (१) †
वि० [हिं० घर + ऐया (प्रत्य०)] घर का । अपने कुटंब का । अत्यंत घनिष्ठ संबंधी ।

घरैया (२) †
संज्ञा पुं० १. घर का आदमी । घर का प्राणी । निकटस्थ संबंधी । उ०—द्रौपदी विचारै रघुराज आजजाति लाज, सब है गरैया पै न टेर के सुनैया हैं ।—रघुराज (शब्द०) । २. दे० 'घराती' ।

घरो पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घड़ा' । उ०—बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ।—तुलसी (शब्द०) ।

घरौदा
संज्ञा पुं० [हिं० घर + औंदा (प्रत्य०)] १. कागज, मिट्टी, धूल आदि का बना हुआ छोटा घर जिसे छोटे बच्चे खेलने के लिये बनाते हैं । २. छोटा मोटा घर ।

घरौंधा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घरौंदा' । उ०—(क) पवि को पहार कियो ख्याल ही कृपाल राम बापुरो विभीषण घरौंधा हुतो बाल को ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०१ । (ख) अब हम दोनों जरा जरा से बच्चे नहीं हैं कि कागज का घरौंधा बनावैं ।— शिवप्रसाद (शब्द०) ।

घरौना
संज्ञा पुं० [हिं० घर+ औना (प्रत्य०)] १. घर । मकान । निवासस्थान । उ०—तजि के घरौना काहु रूखन की छाया तरे सोये ह्वै हैं छोना द्वै बिछौना करि पात के ।—हनुमान (शब्द०) । २. मिट्टी, धूल आदि का बना हुआ छोटा घर जिसे बच्चे खेलने के लिये बनाते हैं । घरौंदा ।

घर्घर
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राचीन काल का एक बाजा जिससे ताल दिया जाता था । २. गाड़ी आदि के चलने का गंभीर शब्द । घड़घड़ाहट । उ०—रथ का घर्घर घंटों की घनघन ।—अणिमा,पृ० ३६ । २. घरघर शब्द । ३. हास । अट्ठहास । हँसी । ४. भूसी की आग । तुषाग्नि । ५. उलूक । ६ परदा । ७. द्वार । ८. पर्वत का दर्रा । ९. लकड़ी आदि के चटकने की आवाज । १०. मथानी के चलाने का शब्द । ११. मथानी । १२. घाघरा नदी ।

घर्घरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर्घर ध्वनि । २. घाघरा नदी [को०] ।

घर्घरा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्षुद्रघंटिका । करधनी । २. घोड़े के गले में पहनाई जानेवाली छोट घंटी । ३. गंगा । ४. घुघँरू । ५. एक प्रकार की प्राचीन काल की वीणा [को०] ।

घर्घरिका
संज्ञा पुं० [सं०] १. आभूषणों में प्रयुक्त घुँघरू । क्षुद्रघं— टिका । नूपुर । २. एक प्रकार का बाजा । ३. लावा [को०] ।

घघरित
संज्ञा पुं० [सं०] सूअर के घुरघुराने की ध्वनि [को०] ।

घर्घरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'घर्घरा' ।

घर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. घास । धूप । सूर्यातप । २. एक प्रकार का यज्ञपात्र । ३. ग्रीष्म काल । ४. स्वेद । पसीना । यौ०—घर्मचर्चिका, घर्मविचर्चिका = अम्हौरी । घमौरी । घर्मजल, घमतोय = प्रस्वेद । पसीना । घर्मदीघिति, घर्मगुति, घर्मरश्मि = सूर्य । घर्मविंदु । घर्मविंदु । घर्मांबु । घर्माशु । घर्माद्र = पसीने से तर । घर्मोदक = पसीना ।

घर्मविंदु
संज्ञा पुं० [सं० घर्मविन्दु] पसीना ।

घर्मस्वेद
वि० [सं०] ताप के कारण जिसके शरीर से पसीना निकल रहा हो ।

घर्मांत
संज्ञा पुं० [सं० घर्मान्त] ग्रीष्म ऋतु का अंत । वर्षा का आरंभ ।

घर्मांबु
संज्ञा पुं० [सं० घर्मांम्बु] स्वेद । पसीना ।

घर्मांशु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । उ०—जयति घर्मांशु संदग्ध संपाति नव पक्ष लोचन, दिव्य देह दाता ।—तुलसी (शब्द०) ।

घर्माक्ति
वि० [सं०] धूप से तप्त । स्वेदयुक्त । पसीने से लथपथ । उ०—घर्माक्त विरक्त पार्श्वदर्शन से खींच नयन ।—अपरा, पृ० ६२ ।

घर्रा
संज्ञा पुं० [अनुध्व०, घररघरर (= घिसने या रगड़ने का शब्द)] १. एक प्रकार का अजन जो अफीम, फिटकिरी, घी, कपूर, हड़, जल बत्ती, इलायची, नीम की पत्ती इत्यागि को एक में घिस— कर बनाया जाता है । यह अंजन आँख आने पर लगाया जाता है । २. गले की घरघराहट जो कफ के कारण होता है । मुहा०—घर्रा चलना = मरते समय कफ छेंकने के कारण साँस का घरघराहट के साथ रुक रुककर निकलना । घुँघरू बोलना । घटका लगना । घर्रा लगना = दे० 'घर्रा चलना' । २. कूएँ आदि की मिट्टी अथवा जल को व्यक्तियों द्वारा बैल की तरह खींचने का काम ।

घर्राटा
संज्ञा पुं० [अनुध्व० घर्र + आटा (प्रत्य०)] घर्र घर्र का शब्द । वह शब्द जो गहरी नींद में साँस लेते समय नाक से निकलना । मुहा०—घर्राटा मारना=(१) गहरी नींद में नाक से घर्र घर्र शब्द निकलना । जैसे,—वह घर्राटा मारकर सो रहा है । (२) गहरी नींद में सोना । घर्राटा लेना = दे० 'घर्राटा मारना' ।

घर्रामी
संज्ञा पुं० [हिं० घर+ आमी (प्रत्य०)] छप्पर छाने का काम करनेवाला । छपरबंद ।

घर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. रगड़ । घर्षण । २. पीसना । चूर्ण करना । [को०] ।

घर्षक
वि० [सं०] १. रगड़नेवाला । पीसनेवाला । माँजने, चमकाने या पालिश करनेवाला [को०] ।

घर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. रगड़ । घिस्सा । २. पेषण । चूर्णीकरण ।

घर्षणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिद्रा । हलदी ।

घर्षित
वि० [सं०] [वि० स्त्री० घर्षिता] १. घिसा, पिसा अथवा रगड़ा हुआ । २. अच्छी तरह साफ किया हुआ । माँजा हुआ [को०] ।

घलना †
क्रि० अ० [हिं० घालना] १. छूटकर गिर पड़ना । फेंका जाना । २. हथियार का चल जाना । जैसे,—तीर घलगया । उ०—इक ओर बानन की जु आवली अरि थलिन तुरतहिं घली ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १३ । ३. मारपीट हो जाना । जैसे—आज बाजार में उन दोनों से घल गई । संयो क्रि०—जाना ।—पड़ना ।

घलाहल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घलना] १. मारपीट । आघात प्रति- घात । उ०—नैननही की घलाघल कै घने घायल को कछु तेल नहीं फिर ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १५६ । २. डालना । फेंकना । उ०—लाल गुलाल घलाघल में दृग ठोकर दै गई रूप अगाधा ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० २०९ ।

घलाघली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घलाघल' । उ०—बर बान तीर तुपक्क तोपन की भई जु घलाघली ।—पद्याकर ग्रं०, पृ० १७ ।

घलुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० घाल या सं० लघुक > लघुआ] वह अधिक वस्तु जो खरीदार को उचित तौल के अतिरिक्त दी जाय । घेलौना । घाल ।

घवद पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'गौद', 'घौद' ।

घवरि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० गह्वर] फलों या पत्तियों का गुच्छा । घौंरा । उ०—विरचे कनकमय रंभखंभ अचंभ अरु मणिपात जू । तिमि घवरि घनि फणि पोहि लोहित सुमन मंजु लखान जू ।—विश्राम (शब्द०) । (ख) हेम बौर मरकत गवरि लसत पाटमय डोरि ।—तुलसी (शब्द०) ।

घवहा †
वि० [हिं० घाव + हा (प्रत्य०)] चोटीला । घायल । उ०—पागल और घवहा कुत्ते की तरह वह भौंकने लगा ।— नई०, पृ० ५८ ।

घवाहिल †
वि० [हिं०] दे० 'घवहा' ।

घवैल
वि० [हिं०] दे० 'घवहा' । उ०—तब नकली बम हो चाहे असली हाथ से छुट जाने पर कुछ न कुछ घवैल तो जरूर करेगा ।—मैला०, पृ० २९५ ।

घसकना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खिसकना' ।

घसखुदा
संज्ञा पुं० [हिं० घास खोदना] १. घसियारा । वह व्यक्ति जो घास काटने का काम करे । घास खोदनेवाला । २. अनाड़ी या मूर्ख व्यक्ति ।

घसत
संज्ञा पुं० [?] बकरा । अज । (डिं०) ।

घसन
संज्ञा पुं० [घर्षण] रगड़ । उ०—छरा हू उतारि घरे पायक गसन ते ।—नट०, पृ० ७३ ।

घसना (१) †पु
क्रि० अ० [सं० घर्षण] रगड़ना । घिसना । उ०— मुँह धोवति एँड़ी घसति हँरसति अनँगवति तीर । धँसति न इंदीवर नयनि कालिंदी के नीर ।—बिराही (शब्द०) ।

घसना (२)
क्रि० स० [सं० घसन] खाना । भक्षण करना ।—(डिं०) ।

घसिटना
क्रि० अ० [सं० घर्षित + ना (प्रत्य०)] किसी वस्तु का इस प्रकार खिंचना कि वह भूमि से रगड़ खाती हुई एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाय ।

घसियारा
संज्ञा पुं० [हिं० घास + आरा (प्रत्य०)] [स्त्री० घसियारी या घसियारिन] घास बेचनेवाला । घास छीलकर लानेवाला ।

घसियारिन
संज्ञा स्त्री० [हिं० घसियारा] घास बेचनेवाली स्त्री । उ०—ख्या रानी क्या दीन घसियारिनी ।—प्रेमघन०, भा०,२, पृ० ३३५ ।

घसियारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घसियारा] घास बेचनेवाली स्त्री ।

घसोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० घसीटना] १. जल्दी जल्दी लिखने का भाव । २. जल्दी का लिखा हुआ लेख । ३. घसीटने का भाव । ४. वह मोटा फीता या इसी प्रकार की और कोई पट्टी जिसकी सहायता से हवा में उड़ते हुए पालों को मस्तूल आदि सेट बाँधते हैं ।—(लश०) ।

घसीटना
क्रि० स० [सं० घृष्ट, प्रा० घस्ट + ना (प्रत्य०)] १. किसी वस्तु को इस प्रकार खींचना कि वह भूमि से रगड़ खाती हुई एक स्थान से दूसरे स्थान को जाय । कढ़ोरना । उ०—सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी । लगे घसीटन धरि धरि झोटी ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—घसीटनाघसीटी =खींचातानी । खींचतान । खीचाखाँची । २. जल्दी जल्दी लिखना । जल्दी जल्दी लिखकर चलता करना । जैसे,—चार अक्षर घसीट दो । ३. किसी मामले में डालना । किसी काम में जबरदस्ती शामिल करना । जैसे,—तुम्हारे जो जी में आए करो, अपने साथ औरों को क्यों घसीटते हो । ४. खींचकर ले जाना । इच्छा के विरुद्ध ले आना । उ०— राजभवन से अपने डेरे में घसीट लाए ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४३८ ।

घस्मर
वि० [सं०] १. पेटू । भक्षक । २. विध्वंसक । विनाशक [को०] ।

घस्र (१)
वि० [सं०] क्षतिकारक । हानिकर । घातक [को०] ।

घस्र् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन । दिवस । २. सूर्य । ३. गर्मी । ४. शिव । ५. कुंकुंम [को०] ।

घस्सा
संज्ञा पुं० [सं० घृष्ट] दे० 'घिस्सा' ।

घहघह पु †
संज्ञा पुं० [सं० घर्घर] घहर घहर की ध्वनि । उ०— गहगह सुगौरिय गंग घहघह सु घुमड़ि तरंग ।—प० रासो, पृ० ८० ।

घहनाना (१) पु †
क्रि० अ० [अनुध्व०] धातुखंड पर आघात लगने से शब्द होना । घंटे आदि की ध्वनि निकलना । घहराना । उ०—झेलने की झनकार मची तहँ घन घंटा घहनाने । नदत नाग माते मग जाते दिगदंती सकुचाने ।—रघुराज (शब्द०) ।

घहनाना (२) पु †
क्रि० सं० घंटा आदि बजाना । बजाकर ध्वनि उत्पन्न करना ।

घहरना
क्रि० अ० [अनु०] गरजने का सा शब्द करना । गंभीर ध्वनि निकालना । घोर शब्द करना । उ०—जहँ के तहैं समाय रहे अस वेद नगारा घहरत है ।—देवस्वामी (शब्द०) ।

घहराना
क्रि० अ० [अनु०] १. गरजने का सा शब्द करना । गंभीर शब्द करना । गरजना । चिग्घाड़ना । उ०—(क) धौंसा लगे घहरान । शंख लगे हहरान । छत्र लगे थहरान । केतु लगे फहरान ।—गोपाल (शब्द०) । (ख) हय हिहिनात भागे जात घहरात गज, भारी भीर ठेलि पेलि रौंदि खौंदि डारहीं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७४ । २. घिरना । फैलना । छाना । उ०—(क) चारिहू ओर ते पौन झकोर झकोरन घोर घटा घहरानी ।—पद्माकर (शब्द०) । (ख) अंबर में पावन होम धूम घहराये ।—साकेत, पृ० २१७ ।

घहराति †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घहराना] १. गभीर ध्वनि । तुमुल शब्द । गरज । उ०—सुनत घहरानि ब्रज लोग चकित बए ।—सूर० (राधा०), २०६० । २. घहराने की क्रिया या भाव ।

घहरारा (१) पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घहराना] घोर शब्द । गंभीर ध्वनि । गरज । उ०—एक ओर जलद के माचे घहरारे मेजु एक ओर नाकन के नदत नगारे हैं ।—रघुराज (शब्द०) ।

घहरारा (२) पु †
वि० गरजनेवाला । घोर शब्द करनेवाला ।

घहरारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घहराना] गंभीर ध्वनि । घोर शब्द । गरज । उ०—पुर ते छबि भारी कढ़ी सवारी भै घहरारी चाकन की ।—रघुराज (शब्द०) ।

घांटिक
संज्ञा पुं० [सं० घाणिटक] १. स्तुतिपाठक । २. घंटा बजानेवाला । ३. धतूरा [को०] ।

घाँ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० खा या हिं० घाट (=ओर)] १. दिशा । दिक् । २. ओर । तरफ । उ०—सूर तबहिं हम सों जो तेरी घाँ ह्वै लरती ।—सूर (शब्द०) ।

घाँघरा
संज्ञा पुं० [देशी घग्धर; अथवा सं० घर्घर (= क्षुद्रघंटिका)] [स्त्री० अल्पा० घाँघरी] १. वह चुननदार और घेरदार पहनावा जो स्त्रियाँ कमर में पहनती हैं और जो पैर तक लटकता रहता है । लहँगा । लोबिया । बोड़ा । बजरबट्टू ।

घाँघरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घाँघरा' । उ०—इसी रीति घाँघरी घरी कसकर ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १६ ।

घाँघरो †पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घाँघरा' । उ०—घाँघरो झीन सों सारी मिहिन सों पीन नितंबनि भार उठै खचि ।— भिखारी ग्रं०, भा०२, पृ० १०६ ।

घांघल †
संज्ञा पुं० [अप० घंघल] झगड़ा । बखेड़ा । कष्ट । उ०— थाह निहालइ, दिन गिणइ, मारू आसालुध्ध । परदेसे घाँघल घड़ा बिखउ न जाउइ मुध्ध ।—ढोला०, दू० १७ ।

घाँची † पु
संज्ञा पुं० [देशी घंचिय; गुज घांची या हिं० घान + ची] तेली ।—(ड़िं०) ।

घाँटी †
संज्ञा स्त्री० [सं० घण्टिका] १. गले के अंदर की घंटी । कौआ । ललरी । मुहा०—घाँटी बैठाना = गले की घंटी की सूजन को दबाकर मिटाना । विशेष—यह रोग बच्चों को बहुत होता है । दे० 'कौवा' । २. गला । जैसे,—उतरा घाँटी, हुआ माटी ।

घाँटो
संज्ञा पुं० [हिं० घट] एक प्रकार का चलता गाना जो चैत के महीने में गाया जाता है ।

घाँह पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घाँ] तरफ । ओर । उ०—छकी अछेह उछाह मत तनक तकी यहि घाँह । दै छतिया छद छोभ हद गई छुवावत छाँहँ—शृं० सत० (शब्द०) ।

घाँही †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घाँह' ।

घा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ख अथवा हिं० घाट (= ओर)] ओर । तरफ । जैसे,—चहूँघा ।

घाइ पु
संज्ञा पुं० [सं० घात, प्रा० घाइ] दे० 'घाव' । उ०—धीर न धरति घरी देखे बिनु जाति ऐसी कछ् करी दियो घाइनि में नौन है ।—गंग ग्रं०, पृ० ५३ ।

घाइबो †पु
क्रि० स० [ब्रज०] दे० 'घाना' ।

घाइल पु †
वि० [हिं० घाय] दे० 'घायल' । उ०—प्रथम नगरि नूपुर रही जुरत सुरत रन गोल । घाइल ह्वै सोभा बढ़त कुच भर अधर कपोल ।—स० सप्तक, पृ० ३७३ ।

घाई पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाँ या घा] ओर । तरफ । अलंग । उ०—(क) प्यारी लजाय रही मुख फेरि दियो हँसि हेरि सखीन की घाई । सुंदरीसर्वस्व (शब्द०) । (ख) हँसै कुंद हे मुकुंद सहैं बन बागन में करैं चहुँ घाई कीर कोकिला चवाई हैं ।—दीनदयाल (शब्द०) । २. दो वस्तुओं के बीच का स्थान । संधि । उ०—चुरियानहु में चपि चूर भयो दबि छंद पछोलिन घाई कहूँ ।—हरिसेवक (शब्द०) । ३. बार । दफा । ४. पानी में पड़नेवाला भँवर । गिरदाब ।

घाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गभस्ति (= उँगली)] १. दो उँगलियों के के बीच की संधि । अँगूठे और उँगली के मध्य का कोण । अंटी । २. पेड़ी और डाल के बीच का कोना ।

घाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाव] १. चोट । आघात । मार । प्रहार । वार । उ०—जदपि गदा की बड़ी बड़ाई । पै कछु और चक्र की घाई ।—लाल (शब्द०) । २. पटेबाजी की विशेष चोट । जैसे,—दो की घाई, चार की घाई । ३. धोखा । चाल- बाजी । उ०—दई घोर अँध्यार में घोर घाई । कभू सामुहें दाहिने बाम घाई ।—सूदन (शब्द०) । मुहा०—घाइयाँ बताना = झाँसा देना । टालटूल करना ।

घाई (३) पु
वि० [सं० घाव्रिन] दे० 'घाती' । उ०—संशय सावज शरिर महँ सगहि खेल जुआर । ऐसा घाई बापुरा जीवहिं मारै झार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८८ ।

घाई (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० गाही] पाँच वस्तुओं का समूह । पँच- करी । गाही ।

घाउ †
संज्ञा पुं० [सं० घात, प्रा० घाय] १. दे० 'घाव' । २. प्रहार । चोट । उ०—परेउ निसानहिं घाउ राउ अवधहिं चले । सुरगन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ६१ ।

घाउघप
वि० [हिं० खाऊ + गप या घप] १. चुपचाप माल हजम करनेवाला । गुप्त रूप से दूसरे का धन खानेवाला । उ०— कौड़ी लाभै देनचा बगुचा घाऊघप्प ।—संतवाणी०, पृ० १५४ । २. चुपचाप अपना मतलब निकालनेवाला । जिसकी चाल जल्दी न खुले । जिसका भेद कोई न पावे । चुप्पा ।

घाएँ † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश० अथवा सं० घात] १. ओर । तरफ । २. अवसर । बार । दफा ।

घाएँ (२)
क्रि वि० ओर से । तरफ से ।

घाग
संज्ञा पुं० [हिं०] १. चतुर । काइयाँ । खुर्राट । उ०—अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे पुराने धुराने डाग बड़े घाग यह खटराग लाए ।—ठेठ०, पृ० २ । २. दे० 'घाघ' ।

घागरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० गगरी] दे० 'घड़ा' । उ०—हस्त विनोद देत करताली । चित सो घागरी राखिला ।—दक्खनी०, पृ० ३३ ।

घागही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] सनई । पटसन ।

घाघ (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. गोंड़े के रहनेवाले एक बड़े चतुर और अनुभवी व्यक्ति का नाम जिनकी कही बहुत सी कहावतें उत्तरीय भारत में प्रसिद्ध हैं । खेती बारी, ऋतुकाल तथा लग्न मुहूर्त आदि के संबंध में इनकी विलक्षण उक्तियाँ किसान तथा सर्वसाधारण लोग बहुत कहा करते हैं । जैसे—मुए चाम से चाम कटावे, सकरी भुइँयाँ सोवैं, कहे घाघ ये तीनों भकुआ, उढ़रि जाय औ रोवै । २. अत्यंत चतुर मनु्ष्य । अनुभवी । गहरा । चालाक । खुर्राट । सयाना । ३. इंद्रजाली । जादूगर । बाजीगर । उ०—जैसो तुम कहत उठायो एक गिरिवर ऐसे कोटि कपिन के बालक उठावहीं । काटे जो कहत सीस, काटत घनेरे घाघ, भगर के खेले भट पद पावहीं ।—केशव (शब्द०) ।

घाघ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घुग्घु] उल्लू की जाति का एक पक्षी जो चील के बराबर होता है । घाघस ।

घाघरइ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घाघरा] लहँगा । घाघरा । उ०— घम्म घमंतइ घागरइ उलट्यउ जाँण गयंद । मारू चाली मंदिरे झीणे बादल चंद ।—ढोला०, दू० ५३७ ।

घाघरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० घर्घर (= क्षुद्रघंटिका)] [स्त्री० अल्पा० घाघरी] वह चुननदार और घेरदार पहनावा जिसे स्त्रियाँ कमर में पहनती हैं और जिससे कमर से लेकर एँड़ी तक का अंग ढका रहता है । लहँगा । यौ०—घाघरा पलटन=औरतों का दल या झुंड ।—(बोल०) ।

घाघरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० घर्घर (= उल्लू] एक प्रकार का कबूतर ।

घाघर (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पौधे का नाम ।

घाघरा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० घर्घर] सरजू नदी का नाम ।

घाघरा पलटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाघरा + अं० प्लैटून] स्काटलैंड देश के पहाड़ी गोरों की सेना जिनका पहनावा कमर से घुटने तक लँहगे की तरह का होता है ।

घाघस (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घाघ (२)' ।

घाघस (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की बढ़िया और बड़ी मुरगी ।

घाघी
संज्ञा स्त्री० [सं० घर्घर] मछली फँसाने का बड़ा जाल ।

घाट (१)
संज्ञा पुं० [सं० घट्ट] १. नदी, सरोवर या और किसी जलाशय का वह स्थान जहाँ लोग पानी भरते या नहाते धोते हैं । नदी, झील आदि का वह किनारा जिसपर पानी तक उतरने के लिये सीढ़ियाँ आदि बनी हों । मुहा०—घाट घाट का पानी पीना = (१) चारों ओर देश— देशांतर में घूमकर अनुभव प्राप्त करना । अनेक स्थानों में या अनेक प्रकार के व्यापारों में रहकर जानकर होना । (२) इधर उदर मारे मारे फिरना । २. नदी या जलाशय के किनारे का वह स्थान जहाँ धोबी कपड़े धोते हैं । जैसे,—धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का । ३. नदी या जलाशय के किनारे का वह स्थान जहाँ नाव पर चढ़कर या पानी में हलकर लोग पार उतरते हैं । मुहा०—घाट धरना = राह छेंकना । जबरदस्ती करने के लिये रास्ते में खड़े होना । उ०—घाट धरयो तुम यहै जानि कै करत ठगन के छंद ।—सूर (शब्द०) । घाट मारना = नदी की उतराई न देना । नाव या पुल का महसूल बिना दिए चले जाना । घाट लगना = नदी के किनारे बहुत से आदमियों का पार उतरने के लिये इकट्ठा होना । नाव का घाट लगना = नाव का किनारे पर पहुँचना । (किसी का) किसी घाट लगना = कहीं ठिकाना पाना । कहीं आश्रय पाना । घाट नहाना = किसी के मरने पर उदकक्रिया करना । ४. तंग पहाड़ी रास्ता । चढ़ाव उतार का पहाड़ी मार्ग । उ०— (क) घाट छोड़ि कस औघट रेंगहू कैसे लगिहहु पारा हो ।— कबीर (शब्द०) । (ख) है आगे परबत की बाटैं । विषम पहार अगम सुठि घाटैं ।—जायस (शब्द०) । ५. पहाड़ । पर्वत । ६. ओर । तरफ । दिशा । ७. रंगढंग । चालढाल । डौल । ढब । चौर तरीका । भेद । मर्म । उ०—जो करनी अंतर बसै, निकसै मुँह की बाट । बोलत ही पहिचानिए, चोर साहु को घाट ।—कबीर (शब्द०) । ८. तलवार की धार जिसमें उतार चढ़ाव होता है । तलवार की बाढ़ का ऊपरी भाग । ९. अँगिया का गला । १०. जौ की गिरी । ११. मोठ और बाजरे की खिचड़ी । उ०—उस जाट की स्त्री ने गरम घाट उसके सामने रख दी ।—राज०, इति० पृ० ६०२ । १२. दुलहिन का लहँगा । १३. ठाट बाट । उ०—प्राण गए तें रहै न कोऊ सकल देखतें घाट बिलाबै ।—सुदंर ग्रं०, भा०२, पृ० ६०१ । १४. गठन । आकृति । रूपरेखा । उ०—मृगनयणी मृगपति मुखी मृगमद तिलक निलाट । मृगरिपु कटि सुंदर वणी मारू अइहइ घाट ।— ढोला०, दू० ४६६ ।

घाट (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० घात या हिं० घट (= कम)] १. धोखा । छल । कपट । उ०—जान बंधु विरोध कीन्हों । घाट भई अब मोहि सों ।—कबीर सा०, पृ० ५१ । २. खोटपन । बुराई । कुकर्म ।

घाट (३) †
वि० [हिं० घट] कम । थो़ड़ा । उ०—निसदिन तोलै पूर घाट अब सुपनेहु नाहीं ।—पलटू० पृ० ३९ ।

घाट (४)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० घाटी, घटिका] १. गरदन का पिछला भाग । २. नाव आदि पर चढ़ने या उतरने का स्थान । ३. कलश । घट (को०) ।

घाटकप्तान
संज्ञा पुं० [हिं० घाट + अं० कैपटेन] बंदरगाह का प्रधान अध्यक्ष या अधिकारी ।

घाटना पु
क्रि० स० [हिं० घटा या सं० √ घट् (= मिलना एकमेल करना)] पाट देना । घटा की तरह फैला देना । उ०—घाटी अवनि अकास सर, डाटौ दुज्जन जाल । काटौ दस दसकंध के, मुंड आज बिकराल ।—स० सप्तक, पृ० ३६७ ।

घाटबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाट + बंदी] १. नाव या जहाज खोलने की मनाही । किश्ती खोलने या चलाने को मुमानियत । २. घाट बँधने या रुकने का भाव या क्रिया ।

घाटवाल
संज्ञा पुं० [हिं० घाट + वाला (प्रत्य०)] घाट पर बैठने— वाला ब्राह्मण जो स्नान करनेवालों से दान लेता है । घाटिया । गंगापुत्र ।

घाटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घटना] घटी । हानि । नुकसान । जैसे,— इस, व्यवसाय में उन्हें बड़ा घाट आया । क्रि० प्र०—आना ।—पड़ना ।—होना ।—उठना ।—देना ।— सहना ।—बैठना ।—खाना । मुहा०—घाटा उठाना = हानि सहना । नुकसान में पड़ना । घाटा भरना—(१) नुकसान भरना । अपने पल्ले से रुपया देना । (२) नुकसान पूरा करना । हानि की कसर निकालना । कमी पूरी करना ।

घाटा पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घट्ट] घाटी । उ०—साद करे किम सुदुर है, पुलि पुलि थक्के पाँव । सयणे घाटा बउलिया बइरि जु हआ वाव ।—ढोला०, दू०, ३८५ ।

घाटा (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घड़ा । २. गरदन के पीछे का हिस्सा । ३. नाव आदि से उतरने के लिये किनारे का स्थान [को०] ।

घाटारोह †
संज्ञा पुं० [हिं० घाट+ सं० अवरोध] घाट का रोकना । घाट से किसी को उतरने न देना । उ०—(क) च्यारि दरा घाटी जिती कीने घाटारोह ।—ह० रासो, पृ० १३० । (ख) हथवासहु बोरहु तरनि कीजै घाटारोह ।—तुलसी (शब्द०) ।

घाटि पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घटना] कम । न्यून । उ०—भुगते बिन न घाटि ह्वै जाही । कब भुगतै यह मो मन माही ।— नंद ग्रं०, पृ० ३१८ ।

घाटि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घात, हिं० घट (= कम)] नीच कर्म । पाप । बुराई । उ०—रावन घाटि रची जग माहीं ।—तुलसी (शब्द०) ।

घाटि † (३)
क्रि० वि० किसी की तुलना में कम । घटकर ।

घाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] गरदन का पिछला भाग । गरदन और रीढ़ का संधिभाग ।

घाटिया
संज्ञा पुं० [सं० घाट + इया (प्रत्य०)] तीर्थस्थानों के घाटों पर बैठकर स्नान करनेवालों से दक्षिण लेनेवाला ब्राह्मण । गंगापुत्र ।

घाटी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाट] १. पर्वतों के बीज की भूमि । पहाड़ों के बीच का मैदान । पर्वतों के बीच का सँकरा मार्ग । दर्रा । उ०—है आगे परबत की पाटी । विषम पहार अगम सुठि घाटी ।—जायसी (शब्द०) । २. पहाड़ की ढाल । चढ़ाव उतार का पहाड़ी मार्ग । उ०—चलूँ चलूँ सब कोइ कहैं पहुँचै बिरला कोय । एक कनक इक कामिनी, दुर्गम घाटी दोय ।—कबीर (शब्द०) । ३. महसूली वस्तुओं को ले जाने का आज्ञापत्र । रास्ते का कर या महसूल चुकाने का स्वीकारपत्र ।

घाटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] गले का पिछला भाग ।

घाटी (३)
वि० [हिं० घाटि] कम । न्यून । उ०—कंचन चाहि अधिक कए कएलह काचहुँ तह भेल घाटी ।—विद्यापति, पृ० ३९७ ।

घोटा (१) पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घाटा' ।

घाटो (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घट] एक प्रकार का गीत जो चैत बैसाख में गाया जाता है । घाँटो ।

घाटो (३)
वि० [हिं० घटना] दरिद्र ।—(डिं०) ।

घात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० घाती] १. प्रहार । चोट । मार । धक्का । जरब । उ०—(क) चुकै न घात मार मुठ भेरी ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) कपीश कूद्यो बात घात बारिधि हिलोरि कै ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—चलना ।—होना । मुहा०—घात चलाना = मारण, मोहन आदि प्रयोग करना । मूठ चलाना । जादू टोना करना । २. वध । हत्या । यौ०—गोघात । नरघात । विश्वासघात । ३. अहित । बुराई । उ०—हित की कहौ न, कहौ अंत समय घात की ।—प्रताप (शब्द०) । ४. (गणित में) गुणनफल । ५. (ज्योतिष में) प्रवेश । संक्रांति । यौ०—घाततिथि । घातवार । ६. बाण । तीर । इषु ।

घात (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिप्राय सिद्ध करने का उपयुक्त स्थान और अवसर । कोई कार्य करने के लिये अनुकुल स्थिति । दाँव । सुयोग । उ०—आप अपनी घात निरखत खेल जम्यो बनाइ ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—तकना । मुहा०—घात पर चढ़ना = किसी को ऐसी स्थिति होना जिससे दूसरे का मतलब सिद्ध हो । अभिप्राय साधन के अनुकूल होना । दाँव पर चढ़ना । वश में आना । हत्थे चढ़ना । घात में आना = दे० 'घात पर चढ़ना' । घात में पाना = किसी को एसी स्थिति में पाना जिससे कोई अर्थ सिद्ध हो । वश में पाना । घात लगना = सुयोग मिलना । किसी कार्य के लिये अनुकूल स्थिति होना । उ०—हमरिउ लागी घात तब हमहूँ देब कलक ।—विश्राम (शब्द०) । घात लगाना = अवसर हाथ में लेना । युक्ति भिड़ाना । तदबीर करना । काम निकालने का ढर्रा निकालना । उ०—केलि कै राति अवाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई ।—मतिराम (शब्द०) । २. किसी पर आक्रमण करने या किसी के विरुद्ध और कोई कार्य करने के लिये अनुकूल अवसर की खोज । किसी कार्य सिद्धि के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा । ताक । जैसे,—शेर या बिल्ली का शिकार की घात में रहना । मुहा०—घात में फिरना = ताक में घूमना । अनिष्टसाधने के लिये अनुकूल अवसर ढ़ूँढ़ते फिरना । उ०—उससे बचे रहना; वह बहुत दिनों से तुम्हारी घात में फिर रहा है । घात में बैठना = आक्रमण करने या मारने के लिये छिपकर बैठना । किसी के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिये गुप्त रूप से तैयार रहना । उ०—चित्रकूट अचल अहेरी बैठो घात मानो पातक के ब्रात घोर सावज सँघारिहैं ।—तुलसी (शब्द०) । घात में रहना = किसी के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिये अनुकूल अवसर ढूँढते रहना । ताक में रहना । घात में होना = किसी के विरुद्ध कार्य करने की ताक में होना । घात लगाना = किसी कार्य के लिये अनुकूल अवसर ढूँढ़ना । मौका ताकना । जैसे, वह बहुत देर से घात लगाए बैठा है । ३. दाँवपेच । चाल । छल । चालबाजी । कपट युक्ति । उ०— मोसों कहति श्याम हैं कैसे ऐसी मिलई घातैं ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—(किसी के बल पर) घात करना = किसी के उकसाने या भरोसे पर चाल करना । बहलाना । उ०—ताकैं बल करि मो सो घाती । रहिहैं गोय कहाँ किहि भाँती ।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३०७ । घातें बनाना = (१) चाल सिखाना । (२) चालबाजी करना । रास्ता बताना । बहलाना । ४. रंग ढंग । तौर तरीका । ढब । धज ।

घातक (१)
वि० [सं०] १. घात करनेवाला । २. मार डालनेवाला । हत्यारा । हिंसक । ३. हानिकर ।

घातक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घात करनेवाला व्यक्ति । २. जल्लाद । वधिक । ३. फलित ज्योतिष में वह योग जिसका फल किसी की मृत्यु हो । ४. शत्रु । दुश्मन ।

घातकी
संज्ञा पुं० [सं० घातक] दे० 'घातक' ।

घातकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] शार्ङ्गधर संहिता में वर्णित एक प्रकार का मूत्ररोग [को०] ।

घातचंद्र
संज्ञा पुं० [सं० घातचन्द्र] अशुभ राशि का चंद्रमा । अशुभ राशि पर स्थित चंद्रमा [को०] ।

घाततिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अशुभ तिथि [को०] ।

घातन (१)
वि० [सं०] वध करनेवाला । कत्ल करनेवाला [को०] ।

घातन (२)
संज्ञा पुं० १. घात । प्रहार । २. वध । कत्ल । ३. बलिदान । पशुबलि करना [को०] ।

घातनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अशुभ फल देनेवाले नक्षत्र [को०] ।

घातवर्त्तना
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोहल मुनि के मत से नृत्य में एक प्रकार की वर्त्तना ।

घातवार
संज्ञा पुं० [सं०] घातक दिन । अशुभ दिन [को०] ।

घातस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वधस्थान । बूचड़खाना [को०] ।

घाता
संज्ञा पुं० [हिं० घात या घाल] वह थोड़ी सी चीज जो सौदा खरीदने के बाद ऊपर से ली या दी जाती है । घाल । घलुआ ।

घाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आघात । वध । २. पक्षियों को जाल में फँसाना या मारना । ३. चिड़िया फँसाने का जाल [को०] ।

घातिक
संज्ञा पुं० [सं० घातक] दे० 'घातक' ।

घातिनी
वि० स्त्री० [सं०] १. मारनेवाली । वध करनेवाली । २. नाश करनेवाली । यौ०—बालघातिनी = छोटी शिशुओं को मारनेवाली । उ०—बड़ी विकराल बालघातिनी न जात कहि, बाहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ।—तुलसी (शब्द०) ।

घातिया
संज्ञा पुं० [सं० गात + इया (प्रत्य०)] दे० 'घाती' ।

घाती (१)
वि० [सं० घातिन्] [वि० स्त्री० घातिनी] १. वध करनेवाला । मारनेवाला । घातक । संहारक । उ०—हम जड़ जीव जीव गण घाती । कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ।—तुलसी (शब्द०) । २. नाश करनेवाला ।

घाती (२)
वि० पुं० [हिं० गात = (धोखा, छल)] १. छली । विश्वास— घाती । २. घात में रहनेवाला ।

घातुक
वि० [सं०] १. हिंसक । नाशकारी । २. क्रूर । निष्ठुर । अनिष्ठकारी ।

घात्य
वि० [सं०] मारे जाने के योग्य । वध्य [को०] ।

घान (१)
संज्ञा पुं० [सं० घन (=समूह)] १. उतनी वस्तु जितनी एक बार डालकर कोल्हू में पेरी जाय । जैसे,—पहले घान का तेल अच्छा नहीं होता । २. उतनी वस्तु जितनी एक बार चक्की में डालकर पीसी जाय । ३. उतनी वस्तु जितनी एक बार में पकाई या भूनी जाय । जैसे,—दो घान पूरियाँ निकालकर अलग रख दो । मुहा०—घान उतरना = (१) कोल्हू में एक बार डाली हुई वस्तु से तेल या रस आदि निकलना । (२) कड़ाही में से पकवान का निकलना । घान उतारना = कोल्हू में से तेल, रस आदि या कड़ाही में से पकवान निकालना । घात डालना = (१) कोल्हू में पेरने या कढ़ाई में एक बार में तलने के लिये कोई वस्तु डालना । (२) किसी काम में हाथ लगाना । घान पड़ना = कोल्हू में पेरने या कड़ाही में पकाने के लिये वस्तु का डाला जाना । घान पड़ जाना = किसी काम में हाथ लग जाना । किसी कार्य का आरंभ हो जाना । घान लगना = घान का कार्य आरंभ होना ।

घान (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घना = बड़ा हथौड़ा] १. प्रहार । चोट । आघात । उ०—मंद मंद उर पै अनंद ही के आँसुन की, बरसैं सुबूं दैं मुकतान ही के दाने सी । कहै पद्माकर प्रपंची पचबानन न, कानन की भान पै परी त्यों घोर घाने सी ।— पद्माकर (शब्द०) । २. हथौड़ा ।

घाना (१) पु †
क्रि० स० [सं० घात, प्रा० घाय + ना (प्रत्य०)] मारना । संहार करना । नाश करना । उ०—बाग तोरि खाइ, बल आपनो जनाइताको एक पूतघाइ तब सिंधु पार जाइहौं ।—हनुमान (शब्द०) । विशेष—इस शब्द का प्रयोग ब्रजभाषा में घायबों, घैबो आदि रूपों में ही मिलता है ।

घाना पु (२)
क्रि० स० [हिं० गहना (= पकड़ना)] पकड़ना ।

घाना पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं० घना] संहार । युद्ध । संघर्ष । उ०— मिलै फौज दोउ मेघ मानौ । तहाँ खान जादौ करै घोर घानौ ।—सुजान०, पृ० २१ ।

घाना पु (४) †
वि० [हिं०] दे० 'घना' । उ०—जायपापसुखदीहौं घाना । निस्चय बचन कबीर क माना ।—कबीर बी०, पृ० २१२ ।

घानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घ्राण] सुगंध । उ०—तुम घर कौल सो उपना तिहुपुर पसरी घानि ।—चित्रा०, पृ० १३८ ।

घानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घान] १. उतनी वस्तु जितनी एक बार में चक्की में डालकर पीसी या कोल्हू में डालकर पेरी जा सके । वि० दे० 'पेकी डारे सुभट घालि घनी ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सुकृत सुमन तिल मोद बास बिधि जतन यंत्र भरि घानी ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—उतरना ।—उतारना ।—डालना ।—पड़ना । मुहा०—घाती करना = पेरना । २. ढेर । समूह ।

घानी की सवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मालखंभ की एक कसरत जिसमें एक हाथ में मोगरा पकड़कर मलखंभ के चारों ओर घानी या कोल्हू के बैल के समान चक्कर देते हैं ।

घापट †
संज्ञा पुं० [हिं० घात] छल । धोखा । घपला । उ०—चापट साहेब धापट कीहेन ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३४३ ।

घाम †
संज्ञा पुं० [सं० घर्म, प्रा० घम्म] धूप । सूर्यातप । उ०—घाम घरीक निवारिये कलित ललित अलिपुंज । जमुना तीर तमाल तरु निखति मालती कुंज ।—बिहारी (शब्द०) । क्रि० प्र०—चढ़ना ।—निकलना ।—लगना ।—होना । मुहा०—घाम खाना = (१) गरमी के लिये धूप में रहना । (२) ऐसे स्थान पर रहना जहाँ धूप या सुर्य की गरमी का प्रभाव पड़े । घाम लगना = लू लगना । घर घाम में छाना = आफत में डालना । विपत्ति में डालना । घर में घाम आना = बड़ी कठिनता का सामना होना । बड़ी मुसीबत होना । जैसे,—इस काम को करना सहज नहीं है, घर में घाम आ जायगा ।

घामड़
वि० [हिं० घाम + ड़ (प्रत्य०)] १. घाम या धूप से व्याकुल (चौपाया) । धूप लग जाने के कारण हर समय हाँफनेवाला (चौपाया) । २. जिसके होश ठिकाने न हों । नासमझ । मूर्ख । जड़ । गावदी । बोदा । ३. आलसी । अहदी ।

घामनिधि पु
संज्ञा पुं० [सं० घर्म, प्रा, घम्म, हिं० घाम + सं० निधि] सूर्य ।

घाय पु †
संज्ञा पुं० [सं० घात, प्रा० घाय] [वि० घायल] घाव । जख्म । उ०—जिनके घाय अघाय युवक जन भरत उसासैं ।— प्रेमघन०, भा०१, पृ० १८० ।

घायक
वि० [सं० घातक] १. विनाशक । मारनेवाला । उ०—दुर्जन दल घायक श्री रघुनायक सुखदायक त्रिभुवन शासन ।—केशव (शब्द०) । २. घायल करनेवाला । जिसे घाव हो जाय ।

घायल (१)
वि० [हिं० घाय + ल (प्रत्य०)] जिसको घाव लगा हो । चोट खाया हुआ । चुटैल । जख्मी । आहत ।

घायल † (२)
संज्ञा पुं० कनकौए के एक रंग का नाम ।

घार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छिड़कना । तर करने की क्रिया । आर्द्र करना । सिंचन [को०] ।

घार † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गर्त्त] पानी के बहाव से कटकर बना हुआ मार्ग या गड्ढा ।

घारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खरिक] घास फूस से छाया हुआ वह मकान जहाँ बाँधे जाते हैं । खरका ।

घाल (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० घालना] सौदे की उतनी वस्तु जितनी गाहक का तौल या गिनती के ऊपर दी जाय । घलुआ । मुहा०—घाल न गिनना—पसँगे बराबर भी न समझना । तुच्छ समझना । हेय समझना । उ०—(क) रघुबीर बल गर्वित विभीषण घाल नहिं ता कहँ गनै ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चढ़हिं कुँवर मन करैं उछाहू । आगे घाल गनै नहिं काहू ।—जायसी (शब्द०) ।

घाल † (२)
संज्ञा पुं० [सं० घाल, या प्रा० √ घल्ल (= फेंजना)] आघात । प्रहार ।

घालक
वि० संज्ञा पुं० [हिं० घालना] [स्त्री, घालिका] १. मारने— वाला । उ०—जौ प्रभु भेष धरैं नहिं बालक कैसें होहिं पूतना घालक ।—सूर १० ।११०४ । २. नाश करेनावाल । उ०— बोले बचन नीते प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ।—मानस ६ ।५० ।

घालकता पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घालक + ता (प्रत्य०)] मारने का काम । विनाश करने की क्रिया । उ०— अति कोमल कै सब बालकता । बहु दुष्कर राक्षस घालकता ।—केशव (शब्द०) ।

घालना †
क्रि० स० [सं० घटन, प्रा० घडन या घलन] १. किसी वस्तु के भीतर या ऊपर रखना । डालना । रखना । उ०— (क) को अस हाथ सिंह मुख घालै । को यह बात पिता सों चालै ।—जायसी (शब्द०) । (ख) सो भुजबल राख्यो उर घाली । जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) स्यंदन घालि तुरत गृह आना । —तुलसी (शब्द०) । २. फेंकना । चलाना । छोड़ना । उ०—(क) जिन नैनन बसत हैं रसनिधि मोहनलाल । तिनमें क्यों घालत अरी तैं भरि मुठ गुलाल ।—रसनिधि (शब्द०) । (ख) पहिल घाव घालौ तुम आछे । हिये हौस रहि जैहे पाछे ।—लाल (शब्द०) । ३. कर डालना । उ०—केहि के बल घालेसि बन खीसा—तुलसी (शब्द०) । विशेष—पूर्वी हिंदी (प्रांतिक) में 'घालना' क्रिया का प्रयोग 'डालना' के समान संयो० क्रि० के रूप में भी होता है । जैसे, 'कइ घालेसि' । ४. बिगाड़ना । नाश करना । जैसे,—घर घालना । उ०—चित्र केतु कर घर इन घाला ।—तुलसी (शब्द०) । ४. मार डालना । वध करना । ४. दे० 'नाखना', 'नंखना' ।

घालमेल
संज्ञा पुं० [हिं० घालना+मेल] कई भिन्न प्रकार की वस्तु की एक साथ मिलावट । गड्डबड्ड । २. मेल जोल । घनिष्टता । क्रि० प्र०—करना ।—रखना । बढ़ाना ।

घालिका
वि०, संज्ञा स्त्री० [हिं० घालक] नष्ट करनेवाली । विनाश करनेवाली ।

घालिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घालना] नाश करनेवाली । मार डालनेवाली ।

घाव
संज्ञा पुं० [सं० घात, प्रा० घाअ, घाय] शरीर पर का वह स्थान जो कट या चिर गया हो । क्षत । जख्म । चोटा । २. आघात । प्रहार । मुहा०—घाव खाना=जख्मी होना । घायल होना । घाव पर नमक या नोन छिड़कना=दुख के समय और दुःख देना । शोक पर और शोक उत्पन्न करना । घाव देना=दुःख पहुँचाना । शोक में डालना । घाव पूजना या भरना=घाव का अच्छा होना ।

घावपत्ता
संज्ञा पुं० [हिं० घाव+पत्ता] ओषधि कार्य में प्रयुक्त होनेवाली एक प्रकार की लता । विशेष—इसके पत्ते पान के आकार के, प्रायः एक बालिश्त लंबे और ८-१० अंगुल चौड़े होते हैं और नीचे की और कुछ सफेदी लिए होते हैं । यह घावों पर उनको सुखाने ओर फोड़ों पर उनको बहाने के लिये बाँधा जाता है । ऐसा प्रसिद्ध है कि यदि यह सीधा बाँधा जाय तो कच्चा फोड़ा पककर फूट जाता है; और यदि उलटा बाँधा जाय तो बहता हुआ फोड़ा सूख जाता है । मालवा में इसे 'ताँबेसर' कहते हैं ।

घावर †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घाव' । उ०—(क) कोली साल न छाड़ै रे सब घावर काढ़ै रे ।—दादू० बानी, पृ० ६०९ । (ख) देह कौं कृपान लगे देह ही कौं घावरौ ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५८५ ।

घावरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा पेड़ जो बहुत ऊँचा और सुंदर होता है । विशेष—इसकी छाल चिकनी और सफेद होती है और हीर की लकड़ी बहुत चमकीली तथा दृढ़ होती है । यह पेड़ हिमालय पर ३००० फुट की उँचाई पर होता है । इसकी लकड़ी नाव, जहाज तथा खेती के समान बनाने के काम में आती है । इसकी पात्तियों से चमड़ा सिझाया और कमाया जाता है ।

घावरिया पु †
संज्ञा पुं० [हिं०घाव+वरिया](वाला) हिं० घावर+ इया (प्रत्य०)] घावों की चिकित्सा करनेवाला । सतिया । जगहि । उ०—तब चाल्यो लै लाठी कर में । पहुँच्यो घावरिया के घर में । ताहि कह्यो फोहा अस दीजै । घाव पाँव को तुरत भरीजै ।—निश्चल (शब्द०) ।

घावेस पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घाव + सं० ईश] आघात करनेवाला । वध करनेवाला । मारनेवाला । उ०—गुणरा गहर गुरडरा गामीं घरा नामा मुररा घावेस ।—रघु० रू०, पृ० १४८ ।

घास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १ आहार । खाद्यपदार्थ । २. चार । तृण । यौ०—घासकुंद, घासस्था=चरागाह । घासकूट=पुआल की गाँज । तृणस्तूप ।

घास (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० घासि] १. पृथ्वी पर उगनेवाले छोटे छोटे उदिभद् जिन्हें चौपाए चरते हैं । तृण । चारा । क्रि० प्र०—काटना ।—चरना ।—छीलना । यौ०—घास पात=(१) तृण और वनस्पति । (२) खर पतवार । कूड़ा करकट । घास फूस=(१) कूड़ा करकट । खर पतवार । (२) बेकाम चीज । मुहा०—घास काटना या खोदना=(१) तुच्छ काम करना । छोटा और सहज काम करना । (२) व्यर्थ काम करना । निरर्थक प्रयत्न करना । उ०—तुम सों प्रेमकथा को कहिबो मनो काटिबो घास ।—सूर (शब्द०) । (३) किसी काम को बेपरवाही से जल्दी जल्दी करना । घास खाना=पशु बनना । पशु के समान हो जाना । घास छीलना=(१) खुरपे से घास को जड़ के पास से काटना । (२) दे० 'घास काटना' । २. एक प्रकार का रेशमी कपड़ा । ३. कागज पन्नी आदि के महीन कटे हुए टुकड़े जो ताजिए या और किसी वस्तु पर सजावट के लिये चिपकाए जाती हैं ।

घासलेट
संज्ञा पुं० [अं० गैस लाइट] १. मिट्टी का तेल । २. अग्राह्य वस्तु ।

घासलेटो
वि० [हिं० घासलेट+ई (प्रत्य०)] निकृष्ट । अश्लील । गंदा । यौ०—घासलेटी साहित्य ।

घासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अग्नि । २. घास [को०] ।

घासी †
संज्ञा स्त्री० [सं० घासी] घास । चारा । तृण । उ०— चारितु चरति करम कुकरम कर मरत जीवगन घासी ।— तुलसी (शब्द०) ।

घाह (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं० गभस्ति(=उँगली)] उँगलियों के बीच की सधि । गावा । घाई । उ०—धारै बान, कूल धनु भूपण जलकर, भँवर सुभग सब घाहैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

घाह (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० घा(=और)] दिशा । और ।

घिघेच पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घींचना] खोंचतान । उ०—गा घिंघेच यह जीउ हमारा । बंद तोहार बंद मो डारा ।—इंद्रा०, पृ० ८९ ।

घिअ †
संज्ञा पुं० [सं० घृत, प्रा० घिअ] दे० 'घी' ।

घिआँड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० घृतभाण्ड या हिं० घी+हंडा] घी रखने का मिट्टी का बरतन । घृतपात्र । अमृतबान ।

घिआ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घिया' ।

घिउ †
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० घी' ।

घिग्गी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] दे० 'घिग्घी' । उ०—जिस ममय मुझसे कोई धमका कर पूछता है उस समय डर के मारे मेरी घिग्गौ बँघ जाती है ।—श्रीनिबास ग्रं०, पृ० ६५ ।

घिग्घो
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. साँस लेने में वह रुकावट जो रोते रोते पड़ने लगती है । हिचकी । सुबकी । २. डर के मारे मुँह से स्पष्ट शब्द न निकलना । बोलने में रुकावट जो भय के मारे पड़ती है । मुहा०—घिग्घी बंधना=(१) रोते रोते साँस का रुक रुककर निकालना और स्पष्ट शब्द मुँह से बाहर न होना । हिचकी वँधना । (२) डर के मारे मुँह से साफ बोली न निकलना ।

घिघियाना
क्रि० अ० [हिं० घिग्घी] १. रो रोकर बिनती करना । करुण स्वर से प्रार्थना करना । गिड़गिड़ाना । उ०— एक आध बार कैसे भी मगर घिघिया पुतिया कर बेदाग निकल गए ।—मान०, भा० ५ ५ पृ० १५८ । † २. चिल्लाना ।

घिपपिच (१)
संज्ञा स्त्री० [अनु० या सं० घृष्ट पिष्ट] १. स्थान की संकीर्णता । जगह की तंगी । सँकरापन । २. थोड़े स्थान में बहुत से व्यक्तियों या वस्तुओं का समूह । ३. किसी काम को करने के समय आगा पीछा करना ।

घिचपिच (२)
वि० जो साफ न हो । अस्पष्ट । जैसे,—बड़ी घिचपिच लिखावट है, साफ पढ़ी नहीं जाती ।

घिचपिचाना
क्रि० अ० [हिं० घिचपिच] इधर उधर करना । आगापीछा करना । हिचकिचाना ।

घिन
संज्ञा स्त्री० [सं० घृणा अथवा घृणि(=अप्रिय)] [क्रि० घिनाना । वि० घिनौना] १. चित्त की वह खिन्नता जो किसी बुरी या कुत्सित वस्तु को देख या सुन कर उत्पन्न होती है । अरुचि । नफरत । घृण । २. किसी गंदी चीज को देख सुन कर जी मचलाने की सी अवस्था । जी बिगड़ना । क्रि० प्र०—आना ।—लगना । मुहा०—घिन खाना=घृणा करना । नफरत करना ।

घिनाना
क्रि० अ० [हिं० घिन से नामिक धातु] घृणा करना नफरत करना । उ०—ज्ञान गहीरिन सो रुचि माने अहीरिन सों घनश्याम घिनाने ।—रसकुसुमाकर (शब्द०) ।

घिनावना
वि० [हिं० घिन+आवना (प्रत्य०)] [स्त्री० विनावनी] । जिसे देखकर घिन लगे । घृणित । बुरा गंदा । घिनौना ।

घिनौची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घिड़ौंची' ।

घिनौना †
वि० [हिं० घिन+औना > आवना (प्रत्य०)] दे० 'घिनावना' । उ०—जो सुनने में आनंद लाने के स्थान पर अत्यंत विरुद्ध और घिनौने वरंच कभी कभी भयावने भी प्रतीत होते हैं ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३६२ ।

घिनौरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिन] ग्वालिन नाम का कीड़ा ।

घिन्नी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'घिरनी' । २. दे० 'गिन्नी' ।

घिय †
संज्ञा पुं० [सं० घृत, प्रा० घिय] दे० 'घी' ।

घियरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घिय+रा (प्रत्य०)] दे० 'घी' । उ०—असुवनि जल सों अधिक जगति जोति परेखनि होत मनौ घियरा ।—घनानंद, पृ० ४१८ ।

घिया (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घिय] घृत । घी । उ०—चाँद सुरुज दोऊ बने अहीरा, घोर दहिया घिया काढ़ा हो ।—कबीर सा० सं०, पृ० ५० ।

घिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घी] १. एक प्रकार की बेल जिसके फलों की तरकारी होती है । विशेष—इसके पत्ते कुम्हड़े की तरह के गोल गोल और फूल सफेद रंग के होते हैं । घिया दो प्रकार का होता है—एक लंबे फल का और दूसरा गोल फल का, जिसे कददू कहते हैं । इसकी एक जाति कड़ुई भी होती है जिसे तितलौकी कहते हैं । घिया बहुत मुलायम होता है तथा गुणा में शीतल और रोगी के लिये पथ्य माना जाता है । इसके बीज का तेल (कद्दू का तेल) सिर का दर्द दूर करने के लिये लगाया जाता है । इसे लौकी या लौआ भी कहते हैं । २. घियातोरी । निनुआँ ।

घियाकश
संज्ञा पुं० [हिं० घिया+फा० कश] चौकी के आकार की एक वस्तु जिसमें उभड़ें हुए छेद घिया, कददू पेठे आदि की बारीक छीलने के लिये बने रहते हैं । कद् दूकश ।

घियातरोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिया+तरोई] दे० 'घियातोरी' ।

घियातोरई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] 'घियातोरी' ।

घियातोरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिया+तोरी] एक प्रकार की बेल जिसके लंबे लंबे फलों की तरकारी होती है । विशेष—इसके पत्ते गोल और फूल पीले रंग के होते हैं । फल लंबाई में ८-१० अगुल और मोटाई में दो ढाई अंगुल होते हैं । पूरब में इसे नेनुआँ कहते हैं । इसके दो भैद होते हैं । एक साधारण, जिसके फल लंबे और बड़े होते है; और दूसरा सतपुतिया जो घौद में फलती और छोटे फलोंवाली होती है ।

घियापत्थर †
संज्ञा पुं० [घृतप्तस्तर] एक प्रकार का मुलायम और पिघलने वाला पत्थर । उ०—घिया पत्थर (एस्टीटाइट) से मुहरे और मूर्तिवाँ बनाते थे ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १९ ।

घिरत पु †
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० 'घृत' । उ०—(क) घेरत अति घिरत चभोरे । लै खाँड़ सरस बोरे ।—सूर०, १० । १८३ । (ख) साह की बातैं सुणैं त्यों उमंग प्रकासै । घिरत का कुंभ सींचै होम ज्याँ उजासै ।—रा० रू०, पृ० ११९ ।

घिरन
संज्ञा पुं० [हिं० घेरना] गले से एँड़ी तक का लंबा चोंगा । उ०—उनके शरीर पर घिरन क्या सिर की टोपी के लिये ही कपड़ा नहीं था ।—फूलो०, पृ० ८१ ।

घिरनई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घरनई' ।

घिरना
क्रि० अ० [सं० ग्रहण] १. किसी चारों ओर फैली हुई वस्तु के बीच में पड़ना । किसी बस्तु से चारों ओर व्याप्त होना । सब और से छेंका जाना । आवृत होना । आवेष्टित होना । घेरे में आना । जैसे,—वह चारों और शत्रुओं से घिर गया । २. चारों ओर छाना । चारों ओर इकट्ठा होना । जैसे,—वटा घिरना । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग घटा और बादल के ही साथ प्राप्त होता है ।

घिरनाई †
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'घरनई' ।

घिरनी
संज्ञा स्त्री० [सं० घूर्णन] १. गराड़ी । चरखी । २. चक्कर । फेरा । मुहा०—घिरनी खाना=चक्कर लगाना । चारो ओर फिरना । ३. रस्सी बटने की चरखी । ४. दे० 'गिन्नी' । ५. एक जलपक्षो जो जल के ऊपर फड़फड़ाता रहता है और मछली देखते ही चट से टूट पड़ता है । कौड़ियाला । किलकिला । ६. लोटन कबूतर ।

घिरवाना
क्रि० स० [हि० घेरना] किसी से घेरने का काम कराना । २. एक जगह इकट्ठा कराना ।

घिराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घेरना] १. घेरने की क्रिया या भाव । २. पशुओं को चराने का काम । ३. पशुओं को चराने की उजरत या मजदूरी ।

घिरायँद
संज्ञा पुं० [सं० क्षार, हिं० खार, खरायँद] मूत्र की दुर्गंध ।

घिराव
संज्ञा पुं० [हिं० घेरना] १. घेरने या घिरने की क्रिया या भाव । २. घेरा । ३. किसी मिल आदि पर सार्वजनिक या सरकारी अधिकार या नियंत्रण करने के लिये छोटे कर्म- चारियों और मजदूर वर्ग द्वारा घेरा डालने का आंदोलन । घेराव ।

घिरावदार
वि० [हिं० घिराव+फा० दार] घेरेवाला । घेरादार ।

घिरित पु †
संज्ञा पुं० [सं० घृत] घृत । घी । उ०—अपने हाथ देव नहवावा । कलस सहस इक घिरित भरावा ।—जायसी (शब्द०) ।

घिरिनपरेवा †
संज्ञा पुं० [हिं० घिरन(=चक्कर)+परेवा] १. गिरहबाज कबूतर । २. कौड़ियाला पक्षी जो मछली के लिये पानी के ऊपर मँडराता रहता है । उ०—(क) कहँ वह भौंर कँवल रस लेवा । आइ परै होइ घिरिन परेवा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) घिरिनपरेवा गीउ उठावा । चहै बोल तमचूर सुनावा ।—जायसी (शब्द०) ।

घिरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिरना] १. मनुष्यों का घेरा जो शिकार को घेरने के लिये बनाया जाय । मुहा०—घिरिया में घिरना=असमंजस या कठिनता में पड़ना । ऐसी अवस्था में पड़ना जिसमे निस्तार कठिन हो । † २. दे० 'घरिया' ।

घिरौंची
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घड़ौची' ।

घिरौना †
संज्ञा पुं० [देश०] कूड़ा जाम करने का घेरेदार बड़ा पात्र । उ०—कूड़े डालने के निमित्त जो ऊँचे ऊँचे बर्तन (घिरौने) मिलते हैं, वे उस स्थान के लोगों की स्वच्छता तथा सौंदर्य— प्रियता के द्योतक हैं ।—आर्य० भा० पृ० ४४ ।

घिरौरा †
संज्ञा पुं० [देश०] घूस का बिल । उ०—माछी कहै अपनो घर माछरू मूओ कहै अपनो घर ऐसो । कोने घुसी कहै घूस घिरौरा, बिलारि औ ब्याल बिले मुँह वैसो ।—केशव (शब्द०) ।

घिराना †
क्रि० स० [अनु० घर्र] रगड़ना । घिसना ।

घिर्त †पु
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० 'घृत' । उ०—घर का घिर्त रेत में डारै छाछ ढूँढ़ता डोलै ।—कबीर० श०, भा, ४, पृ० २४ ।

घिर्राना †
क्रि० स० [अनु० घिर घिर] १. घसीटना (पू० हिं०) । २. घिघियाना । गिड़गिड़ाना (बुंदेल०) ।

घिर्री
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार की घास । २. दे० 'घिरनी' । ३. दे० 'गिन्नी' ।

घिलवा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घलुआ' । उ०—मैंने फिर देखा नौकर ने उसकी झोली में अन्न दिया, और घिलवे में सूखे गालों पर दिया, एक पूरा चाँटा ।—मानव०, पृ० ९४ ।

घिव †
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० 'घी' ।

घिवहा †
वि० [हिं० घिव+हो (प्रत्य०)] १. घी का बना हुआ । २. घी से संबंधित ।

घिसकना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'खसकना' ।

घिसघिस
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिसना] १. वह देर जो सुस्ती के कारण हो । कार्य में शिथिलता । अनुचित विलंब । अतत्परता । जैसे,—इसी तुम्हारी घिसघिस में बारह बज गए । २. कोई बात स्थिर करने में व्यर्थ का बिलंब । अनिश्चय । गड़बड़ी ।

घिसटना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घासिटना' ।

घिसन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिसना] १. रगड़ । २. घिसने के कारण होनेवाली कमी या छीज ।

घिसना (१)
क्रि० स० [सं० घर्षण, प्रा० घसण] १. एक वस्तु को दूसरी वस्तु पर रखकर खूब दबाते हूए इधर उधर फिराना । रगड़ना । जैसे,—इसको पत्थर पर घिस दो, तो चिकना हो जायगा । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । मुहा०—घिस घिस कर चलना=बहुत दिनों तक खूब काम में लाया जाना और चलना । २. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु पर इस प्रकार रगड़ना कि उसका कुछ अंश छूटकर अलग हो जाय । जैसे—चंदन घिसना । मुहा०—घिस लगाने को नहीं=घिसकर तिलक या अंजन लगाने भर को भी नहीं । लेशमात्र नहीं । ३. संभोग करना (बाजारू) ।

घिसना (२)
क्रि० अ० रगड़ खाकर कम होना या छीजना । जैसे— जूते की एँड़ी चलते चलते घिस गई । संयो० क्रि०—जाना । उठना ।

घिसपिस †
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. दे० 'घिस घिस' । २. सट्टा बट्टा । मेल जोल ।

घिसवाना
क्रि० स० [हिं० घिसना का प्रे० रूप] घिसने का काम कराना । रगड़वाना ।

घिसा
वि० [हिं० घिसना] १. घिसा हुआ । रगड़ा हुआ । २. पुराना । जीर्ण ।

घिसाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिसना] १. घिसने की क्रिया । २. घिसने की मजदूरी । ३. घिसने का भाव ।

घिसाना
क्रि० स० [हिं० घिसना का प्रे० रूप] रगड़ना ।

घिसाव
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिसना] १. रगड़ । घिसन । २. कमी । छीजन ।

घिसावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० घिसना] १. रगड़ । घिसना । २. घिसने की मजदूरी । घिसाई ।

घिसिआना †, घिसियाना
क्रि० स० [सं० घर्षण] घसीटना ।

घिरपिसिर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घिसपिस' ।

घिसोहर †
वि० [हिं० घिस+ओहर(प्रत्य०)] जमीन को स्पर्श करनेवाला (वस्त्र) । उ०—वह इतना लंबा और घिसोहर है ।—प्रेमघन० भा० २, पृ० २६८ ।

घिस्टपिस्ट
संज्ञा पुं० [सं० घृष्ट पिष्ट] १. गहरा मेल जोल । प्रगाढ़ मित्रता । गहरी घनिष्ठता । २. अनुचित संबंध । अपवित्र संबंध ।

घिस्समघिस्सा
संज्ञा पुं० [हिं० घिसना] १. गहरा धक्का । खूब भीड़ भाड़ । २. लड़कों का एक खेल जिसमें एक अपनी डोरी या नख को दूसरे की नख या डोरी में फँसाकर झटका देता या रगड़ता है जिसमें दूसरे की डोरी कट जाय ।

घिस्सा
संज्ञा पुं० [हिं० घिसना] रगड़ा । जैसे,—घिस्सा लगते ही कनकौआ कट गया । क्रि० प्र०—पड़ना ।—बैठना ।—लगना । २. धक्का । ठोकर । ३. वह आघात जो पहलवान अपनी कुहनी और कलाई के बीच की हड़्डी की रगड़ से देते हैं । कुंदा । रद्दा । ४. लड़कों का एक खेल जिसमें एक अपनी नख या डोरी की रगड़ से दूसरे की नख या डोरी को काटने का यत्न करता है ।

घींच †
संज्ञा स्त्री० [हिं०घीचना या सं० ग्रीव] गरदन । ग्रीवा । उ०—घींच मैं मीच न नीचहिं सूझत मोह की कीच फँस्यो है ।—ठाकुर०, पृ० १२ ।

घींचना †
क्रि० स० [सं० कर्षण, हिं० खींचना] खींचना । ऐंचना ।

घींचाघींची
संज्ञा स्त्री० [हिं० घींचना] दे० 'खींचतान' । उ०—एक हाड दुइ कुत्ता लागे घोंचाघींचीं करते ।—सं० दरिया, पृ० १३४ ।

घी
संज्ञा पुं० [पुं० घृत, प्रा० घीअ] दूध का चिकना सार जिसमें से जल का अंश तपाकर निकाल दिया गया हो । तपाया हुआ मक्खन । घृत । मुहा०—घी कड़कड़ाना=साफ और सोंधा करने के लिये घी को तपाना । घी का कुप्पा लुंढ़ना या लुढ़काना=(१) किसी बहुत बड़े धनी का मर जाना । किसी बड़े आदमी की मृत्यु होना । (२) भारी हानि होना । बहुत नुकसान होना । घी के कुप्पे से जा लगाना=किसी ऐसे स्थान तक पहुंच जाना जहाँ खूब प्राप्ति हो । किसी ऐसे धनी तक पहुंच होना जहाँ खूब माल मिले । घी के चीराग जलाना=दे० 'घी के दीए जलना' । उ०—यह कहो कि आज ठाकुर साहब घी के चिराग जलाएँगे । फिसाना०, भा० ३, पृ० १९६ । घी का डोर=घी की धार जो दाल आदि में डालते समय बँध जाती है । घी का डोरा डालना=किसी के भोजन में तपाया हुआ घी डालना । घी के जलना=दे० 'घी के दीए जलना' । घी के दीए जलना= (१) कामना पूरी होना । मनोरथ सफल होना । (२) आनंद मंगल होना । उत्सब होना । (३) सुख सौभाग्य की दशा होना । धन धान्य की पूर्णाता होना । समृद्धि होना । ऐश्वर्य होना । घी के दिए जलाना=(१) आनंद मंगल मनाना । उत्सव मनाना । २. सुख संपत्ति का भोग करना । बड़े सुख चैन से रहना । घी के दिए (दीप) भरना=(१) आनंदमंगल मनाना । उत्सव मनाना । उ०—भूप गहे ऋषिराज के पाय कहयो अब दीप भरो सब घी के ।—हनुमान (शब्द०) (२) सुख संपत्ति का भोग करना । बड़े सुख चैन से रहना । घी खिचड़ी=खूब मिला जुला । घी खिचड़ी होना=खूब मिल जुल जाना । अभिन्न हृदय होना । (किसी की) पाँचों उँगलियाँ घो में होना=खूब अराम चैन का मौका मिलना । सुख भोग का अवसर मिलना । खूब लाभ होना । घी गुड़ देना=अच्छी खातिर करना । उ०—आगत का स्वागत समुचित है, पर क्या आँसू लेकर ? प्रिय होते तो ले लेती उसको मैं घी गुड़ देकर ।—साकेत पृ० २८२ ।

घीउ, घींऊ
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० 'घी' ।

घीकुआर
संज्ञा पुं० [सं० घृतकुमारी] एक प्रसिद्ध क्षुप जो खीरी रेतीली जमीन पर अथवा नदियों के किनारे अधिकता से होता है । विशेष—इसके पत्ते ३-४ अंगुल चौड़े, हाथ डेढ़ हाथ लंबे, दोनों किनारों पर अनीदार, बहुत मोटे और गूदेदार होते हैं जिनके अंदर हरे रंग का और लसीला गूदा होता है । यह गूदा बहुत पुष्टिकारक समझा जाता है और कई रोगों में व्यवहृत होता है । एलुआ इसी के रस से बनाया जाता है । वैद्यक में यह शीतल, कडुआ, कफनाशक और पित्त, खाँसी, विष, श्वास तथा कुष्ठ आदि को दूर करनेवाला माना गया है । पत्तों के बीच से एक मोटा डंडा या मूसला निकलता है जो मधुर और कृमि तथा पित्त नाशक कहा गया है । इसी डंडे में लाल फूल निकलता है जो भारी होता है और वात, पित्त तथा कृमिॉ का नाशक बतलाया गया है ।

घीकुवाँर
संज्ञा पुं० [सं० घृतकुमारी] ग्वारपाठा । गोंडपट्ठा ।

घीपक पु †
वि० [सं० घृतपक्व] घी में पका हुआ । घी से निर्मित । उ०—घीपक जलपक जेते गने । कटुआ बटुवा ते सब गने । चित्रा०, पृ० १०३ ।

घीव पु
संज्ञा पुं० [सं० घृत] दे० 'घी' उ०—दूध के बीच में घीव जैसे, ऐसे फूल के बीच में बास हे जी—कबीर० रे०, पृ० २७ ।

घीस पु
संज्ञा पुं० [देश०] एक बड़ा चूहा । घूस । उ०—बैठि सिंघ घट पान लगावहि घीस गल्योरे लावै ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३०७ ।

घीसना †
क्रि० स० [हिं० घिसना] १. रगड़ना । २. घसीटना ।

घोसा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घिसना] घिसने या रगड़ने की क्रिया । रगड़ । माँजा । उ०—घरिका लाइ करै तन घीसू । नियर न होइ करै इबलीसू ।—जायसी (शब्द०) ।

घुंघट †, घुघट्ट पु
संज्ञा पुं० [हिं० घूँघट] दे० 'घूँघट' । उ०— (क) इक करन पलटि इक करन लंत । घुंघट्ट बदल लज्जा सुभंत ।—पृ० रा० १४ । २८ । (ख) जब नानक मुख ते बोला । तब कौंसे ने घुंघट खोला ।—प्राण०, पृ० ११९ ।

घुंट
संज्ञा पुं० [सं० घुण्ट] गुल्फ । टखना [को०] ।

घुंटक
संज्ञा पुं० [सं० घुण्टक] [स्त्री० घुंटिका] दे० घुट' ।

घुंटिक
संज्ञा पुं० [सं० घुणिटक] [स्त्री० घुंटिका] कंड़ा [को०] ।

घुंटित पु
वि० [हिं० घोंटना] घोंटा हुआ । चिकना । उ०—पट्टिय घुंटित मेन तिमिर कज्जल छबि छोंनिय । भुअं जुग गोस धुनष्ष वदन राका रुचि भोंनिय ।—पृ० रा०, १४ ।७४ ।

घुंड़
संज्ञा पुं० [सं० घुण्ड] भ्रमर । भौंरा [को०] ।

घुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० ग्रन्थि] १. कपड़े की सिली हुई मटर के आकार की छोटी गोली जिसे अँगरखे या कुरते आदि का पल्ला बंद करने के लिये टाँकते हैं । कपड़े का गोल बटन । गोपक । मुहा०—घुंडी लगाना=(१) घुंडी टाँकना । (२) घुंडी में तुकमे से अंगरखे आदि का पल्ला अटकना । जी की घुंडी खोलना=हृदय की गाँठ खोलना । चित्त से दुर्भाव या द्वेष निकालना । दिल की घुंडी खोलना पु=दे० 'जी की घुंडी खोलना' । उ०—प्रान पपीहौं दे आनंद घन दिल की घुंडी खोल ।—घनानंद पृ० ४२१ । २. हाथ या पैर में पहनने के कड़े के दोनों छोरों पर की गाँठ जो कई आकार की बनाई जाती है । ३. बाजू, जोशन, आदि गहनों में लगी हुई धातु की गोल गाँठ जिसे सूत के घर में डालकर गहनों को कसते हैं । यह घुंडी प्रायः लटकती रहती है । ४. एक प्रकार की घास । ५. धान का अंकुर जो खेत कटने पर जड़ से फूटकर निकलता है । दोहला ।

घुंडीदार (१)
वि० [हिं० घुंडी+फा० दार] जिसमें घुंडी लगी हो ।

घंडीदार (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार की सिलाई जिसमें एक टाँके के बाद दूसरा टाँका फंदा डाल कर लगाते जाते हैं ।

घुंसा
संज्ञा पुं० [देश०] वह लकड़े जिसके सहारे से जाठ उठाकर कोल्हू में डालते हैं ।

घइँयाँ
संज्ञा स्त्री० [देश०] अरुई नाम की तरकारी ।

घुँगची
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घुँघची' ।

घुँघची
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा, प्रा० गुंचा] १. एक प्रकार की मोटी बेल जो प्रायः जंगलों में बड़ी बड़ी झाड़ियों के ऊपर फैली हुई पाई जाती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ इमली की पत्तियों की सी और खाने में कुछ मीठी होती हैं और फूल सेम के फूलों के समान होते हैं । फूलों के झड़ जाने पर मटर की तरह की फलियाँ गुच्छों में लगती हैं जो जाड़े में सूखकर फट जाती हैं और जिनके अंदर के लाल लाल बीज दिखाई पड़ते हैं । ये ही बीज घुँघची या गुंजा के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनका सारा अंग लाल होता है केवल मुखपर छोटा सा काला छोंटा रहता है जो बहुत सुंदर लगता है । सफेद रंगकी घुँघची भी होती है, जिसके मुँह पर काला दाग नहीं होता । मुलेठी या जेठी मघु इसी घूँघची की जड़ है । वैद्यक में घुंघची कड़ुई, बलकारक, केश और त्वचा को हितकारी तथा व्रण, कुष्ट, गंज इत्यादि को दूर करनेवाली मानी जाती है । जड़ और पत्ते विषनाशक कहे जाते हैं । सफेद घुँघची वशीकरण की सामग्री मानी जाती है । २. इस लता का बीज । उ०—कंचन घुंघची आनि तुला एकै मैं तौले ।—पलटू०, पृ० ७१ । पर्या०—रक्तिका । गुंजिका । कृष्णला । काकिनी । कक्षा ।कनीची । काकचिंची । कांची । सौम्या । शिखंडी । अरुणा । कांबोजी । काकशिंबी । चटकी ।

घुँघनी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भिगोकर घी या तेल में तला हुआ चना, मटर या और कोई अन्न । घुघरी । मुहा०—घुँघनिया या घुघनी मुँह में रखकर बैठना=चुपचाप बैठना । मौन होकर रहना ।

घुँघर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घूँघर' उ०—ताही घुँघर मत गत भ्रमर भ्रमरत ऐसो । बनी है छबि बिसाल प्रेम जाल गोलक जैसो । नंद ग्रं०, पृ० ३९६ ।

घुँघरारे पु †
वि० [हिं० घुमरना+वारे] घुघराले । घूँघरली । उ०—मृगमद मलय अलक घुँघरारे । उन मोहन मन हरे हमारे ।—सूर (शब्द०) ।

घुँघराले
वि० [हिं० घुमरना+वाले] [वि० स्त्री० घुघराली] घूमे हुए (बाल) । टेढ़े और बल खाए हुए (बाल) । छल्लेदार । घूँघरवाले । कुंचित ।

घुँघरू
संज्ञा पुं० [अनु० घुन् घुन्+स० रव या रू] १. किसी धातु की बनी हुई गोल और पोली गुरिया किसके अंदर 'घन घन' बजने के लिये कंकड़ भर देते हैं । चौरासी । मंजीर । मुहा०—घुँघरू सा लदना=शरीर में बहुत अधिक फुंसियाँ, चेचक या छाले आदि निकलना । २. ऐसी गुरियों का बना हुआ पैर का गहना जो बच्चे या नाचने— वाले पहनते हैं । मुहा०—घुंघरू बाँधना=(१) नाचने में चेला करना । (२) नाचने के लिये तैयार होना । ३. गले का वह घुर घुर शब्द जो मरते समय कफ छेकने के कारण निकलता है । घटका । घटुका । मुहा०—घुघरू बोलना=घर्रा लगना । घटका लगना । मरते समय कफ छंकना । ४. वह कोशजिसके अंदर चने का दाना रहता है । बूट के ऊपर की खोल । ५. सनई का फल जिसके अंदर बीज रहते हैं । विशेष—सूखने पर ये सनई के फल बजते हैं जिसके कारण लड़के इन्हें खेल के लिये पाँव में बाँधते हैं । संस्कृत एवं प्राकृतिक गाथाओं में भी इसके प्रयोग मिलते हैं; यथा—'शणफल बज्जुन पयसा' ।—पृ० रा०, १ ।

घुँघरूदार
वि० [हिं० घुँघरू+फा० दार] जिसमें घुँघरू लगे हों ।

घुँघरूबंद
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुँघरू+सं० बन्ध, फा० बंद] वह वेश्या जो नाचने गाने का काम करती हो ।

घुँघरू मोतिया
संज्ञा पुं० [हिं० घुँघरू+मोतिया] एक प्रकार का मोतिया बेला ।

घुँघुवारे पु
वि० [हिं०] [वि० स्त्री० घुँघुवारी] दे० 'घुँघराले' । उ०—घुँघुवारी लटैं लटकैं मुख ऊपर ।—तुलसी (शब्द०) ।

घुँट
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली पेड़ जिसे घोंट भी कहते हैं । इसकी छाल और फलियों से चमड़ा सिझाया जाता है ।

घुँटना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुटना' ।

घुआ
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घूआ' ।

घइयाँ
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घुइयाँ' ।

घुइरना †
क्रि० स० [हिं० घूरना] सं० 'घूरना' ।

घुइस †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घूस' ।

घुकुआ, घुकुवा
संज्ञा पुं० [हिं० घूआ] दे० 'घूका' ।

घुग्घी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. तिकोना लपेटा हुआ कंबल आदि दिसे किसान या गड़ेरिए धूप, पानी और शीत से बचने के लिये सिर पर डालते हैं । घोंघी । खड़ुआ । २. कपोत जाति की एक चिड़िया जिसका रंग खूब पकी ईंट की तरह का होता है । इसकी बोली कबूतर से भिन्न होती है । टुटरू । पेंड़की । पंडुक । फाख्ता ।

घुग्घू
संज्ञा पुं० [सं० घूक] १. उल्लू नाम की चिड़िया । उलूक । २. मिट्टी का एक खिलौना जो फूँकने से बजता है ।

घुघुआ
संज्ञा पुं० [हिं० घुग्घू+आ (प्रत्य०)] दे० 'घुग्घू' ।

घुघुआना
क्रि० अ० [हिं० घुग्घू] १. उल्लू पक्षी का बोलना । २. बिल्ली का गुर्राना ३. उल्लू की तरह बोलना । ४. बिल्ली की तरह गुर्राना ।

घुघुनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घुँघनी' । उ०—बाँटैं घुघुनी चना मिठाई जूब गृह आवै ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २९ ।

घुघुरारे
वि० [हिं०] दे० 'घुँघराले' । उ०—फिर घुघुरारे बार फिर वह बड़ी आँखें, फिर मीठी मुसकिराहट । ठेठ०, पृ० २६ ।

घुघुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'घुँघंरू' । २. दे० 'घुँघनी' ।

घुघुवाना
क्रि० अ० [हिं० घूग्घु] दे० 'घुघुआना' ।

घुघुवार पु
वि० [हिं०] दे० 'घुँघराले' । उ०—बिथुरे सुथरे चीकने घने घने घुघुवार । रसिकन को जंजीर से बाला तेरे बार ।— अकबरी०, पृ० ५१ ।

घुघ्घू
संज्ञा स्त्री [हिं०] उल्लू । घुघ्घू । उ०—चीख उठा घुघ्घु डालों में लोगों ने पट दिए द्वार पर ।—ग्राम्या, पृ० ६७ ।

घुटकना
क्रि० स० [हिं० घूँट+करना] १. घूँट घूँट करके पी जाना । पी जाना । पान करना । उ०—नृपसिंधुर सिंधु रसै घुटकै । गोपाल (शब्द०) । २. निगल जाना ।

घुटकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुटकना] गले की वह नली जिसके द्वारा खाना पानी आदिं पेट में जाते हैं । घुटकने की नली ।

घुटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुटना] १. दम घुटने की सी स्थिति या भाव । २. मन में घबराहट होने की स्थिति ।

घुटना (१)
संज्ञा पुं० [सं० घुण्टक] पाँव के मध्य का भाग या जोड़ । जाँघ के नीचे और टाँग के ऊपर का जोड़ । टाँग और जाँघ के बीच की गाँठ । जैसे,—मारूँ घुटना फूटे आँख ।—(कहावत) । मुहा०—घुटना टेकना=(१) घुटनों के बल बैठना (२) पराजित होना । पराजय होने से लज्जित होना । घुटनों चलना= बैयाँ बैथाँ चलना । घुटनों के बल चलना=दे० 'घुटनों चलना । घुटनों में सिर देना=(१) सिर नीचा किए चिंतित या उदास होना । (२) लज्जित होना । सिर नीचा करना । घुटनों से लगकर बैठना=हर घड़ी पास रहना । घुटनों से लगा कर बैठाना=पास बैठाए रखना । दूर न जाने देना ।विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग प्रायः माता पिता बच्चों के लिये करते हैं ।

घुटना (२)
क्रि० अ० [हिं० घूँटना या घोरटना] १. साँस का भीतर ही दब जाना, बाहर न निकलना । रुकना । फँसना । जैसे,— वहाँ तो इतना धूआँ है कि दम घुटता है । मुहा०—घुट घुटकर मरना=दम तोड़ते हुए साँसत से मरना । उ० घुट घुट के मर जाऊँ यह मरजी मेरे सैयाद की है ।— फिसाना०, भा० ३, पृ० १०९ । २. उलझकर कड़ा पड़ जाना । फँसना । उ०—हठ न हठीली कर सकै, वहि पावस ऋतु पाइ । आन गाँठ घुटि जाय त्यों मान गाँठ छुटि जाय ।—बिहारी (शब्द०) ।

घुटना (३)
क्रि० अ० [हिं० घोटना] १. घोटा जाना । पीसा जाना । जैसे,—वहाँ रोज भाँग घुटा करती है । मुहा०—घुटा हुआ=छँटा हुआ । चालाकी में मँजा हुआ । भारी चालाक । २. रगड़ खाकर चिकना होना । रगड़से चिकना और चमकीला होना । जैसे,—तुम्हारी पट्ठी घुट गई कि अभी नहीं । ३. घनिष्ठता होना । मेलजोल होना । जैसे,—दोनों में आजकल खूब घुटती है । ४. मिल जुलकर बात होना । ५. किसी काय का इसलिये बार बार होना जिसमें उसका खूब अभ्यास हो जाय । ६. (सर के) बालों का पूरी तौर से मूँड़ा जाना ।

घुटना (४) †
क्रि० स० [अनु०; तुल० पं० घुट्टना] जोर से पकड़ना या कसना । उ०—फिरहिं दुऔ सन फेर घुटै कै । सातहु फेर गाँठि सो एकै ।—जायसी (शब्द०) ।

घुटनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुटना] दे० 'घुटना (१)' ।

घुटन्ना
संज्ञा पुं० [हिं० घुटना] १. घुटनों तक का पायजामा । २. पतली मोहरी का पायजामा (पंजाबी) ।

घुटरघुटर
संज्ञा पुं० [अनु०] घर्र घर्र । रुँधे हुए गले की आवाज । उ०—घुटर घुटर जब करने लागा । चेतनता । सब तन का भागा । सहजो०, पृ० ३२ ।

घुटरनि पु
क्रि० वि० [हिं० घुटना] घुटनों के बल । उ०—केचित् अन्न गऊ मुख खाहीं । घुटरनि परहिं अकल कछु नाहीं ।— सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ९१ ।

घुटरूँ †
संज्ञा पुं० [सं० घुट+हिं० रू] पाँव के मध्य भाग का जोड़ । घुटना ।

घुटवाना
क्रि० स० [हिं० घोटना का प्रे० रूप] १. घोटने का काम कराना । २. बाल मुँड़ाना ।

घुटा
वि० [हिं० घुटना] १. मुंडित । जैसे—घुटा सिर । २. चतुर । चालाक । जैसे,—घुटा आदमी ।

घुटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुटना] १. घोटने या रगड़ने का भाव या क्रिया । २. रगड़कर चिकना और चमकीला बनाने का भाव या क्रिया । जैसे,—इस कपड़े पर खूब घुटाई हुई है । ३. रगड़ कर चिकना और चमकीला करने की मजदूरी ।

घुटाना
क्रि० स० [हिं० घोटना का प्रे० रूप] घोटने का काम कराना ।

घुटाला
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घोटाला' ।

घुटो
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घु्ट्टी' ।

घुटुरुआँ
संज्ञा पुं० [हिं० घुटरू] घुटनों के बल चलने की क्रिया ।

घुटुरुन
क्रि० वि० [हिं०] घुटनों के बल । उ०—घुटुरुनि चलत अजिर मह बिहरत मुख मंडित नवनीत । सूर० १० । ९७ ।

घुटुरू पु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घुटना (१)' ।

घुटुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० घुटना (१)' ।

घुटे घुटाए
वि० [हिं० घुटना] दे० 'घुटा' । उ०—पाँच छः आदमी एक चबूतरे पर शतरंज खेलते नजर आए मगर वह सब भी घुटे घुटाए तब तो फकीर को ताज्जुब हुआ ।—फिसाना०, भा० ३. पृ० १४५ ।

घुट्टमघुट्ट
वि० [हिं० घुटना] घुटा हुआ । मुंडित । जिसके सिर के बाल मूड़ लिए गए हों । उ०—ब्रह्मचारी हौ क्योंकि बटु हौ । गृहस्थ हौ चूना रूप से संन्यासी हौ क्योंकि घुट्ठमघुट्ट हौ ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० ३. पृ० ८५३ ।

घुट्टा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घोटा' ।

घुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूँट] वह दवा जो छोटे बच्चों को पाचन के लिये पिलाई जाती है । क्रि० प्र०—देना ।—पिलाना । मुहा०—घुट्टी में पड़ना=स्वभाव के अंतर्गत होना । जैसे,— झूठ बोलना तो इनकी घुट्टी में पड़ा है । उ०—बेवफाई तो तुम लोगों की घुट्टी में पड़ी है ।—सैर०, पृ० ४४ ।

घुड़
संज्ञा पुं० [हिं० घोड़ा] घोड़ा का लघु रूप जो यौगिक शब्दों के आरंभ में प्रयुक्त होता है । जैसे,—घुड़चढ़ा, घुड़साल आदि ।

घुड़कना
क्रि० स० [सं० घुर] किसी पर कुद्ध होकर उसे डराने के लिये जोर से कोई बात कहना । कड़ककर बोलना । डाँटना । जैसे,—जो लड़के घुड़कने से नहीं मानते, वे मार को भी कुछ नहीं समझते ।

घुड़की
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुड़कना] १. वह बात जो क्रोध में आकर डराने के लिये जोर से कही जाय । डाँट । डपट । फटकार । २. घुडकने की क्रिया । यौ०—बंदरघुडकी=झूठ मूठ डर दिखाना ।

घड़चढ़ा
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा+चढ़ना] १. सवार । अश्वारोही । २. एक प्रकार का स्वाँग जिसमें एक मनुष्य अपने पेट के सामने घोड़े के मुँह का और पीछे दुम आदि का आकार बनाकर जोड़ता है, जिससे वह देखने में घोड़े पर सवार जान पड़ता है । गाजी मियाँ की सवारी की नकल दिखाकर भीख माँगने के लिये प्रायः डफाली ऐसा स्वाँग बनाते हैं । इसे लिल्ली घोड़ी भी कहते हैं ।

घुड़चढ़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+चढ़ना] १. विवाह की एक रीति जिसमें दल्हा घोड़े पर चढ़कर दुलहिन के घर जाता है । २. देहाती रंडी या तवायफ जो प्रायः घोड़ों पर चढ़करएक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती है । निकृष्ट श्रेणी की गानेवाली वेश्या । ३. एक प्रकार की छोटी तोप जो घोड़े पर रखकर चलाई जाती है । ४. दे० 'घोड़ाचोली' ।

घुड़दौड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+दौड़] १. घोड़ों की दौड़ । २. एक प्रकार का जुए का खेल जिसमें कई एक मनुष्य एक स्थान से अपने अपने घोड़े दौड़ाते हैं । जिसका घोड़ा सबसे आगे निकलकर निश्चित स्थान पर पहले पहुँच जाय, उसकी जीत समझी जाती है । ३. घोड़े दौड़ाने का स्थान या सड़क । ४. एक प्रकार की नाव जिसका अगला भाग घोड़े के मुँह के आकार का बना होता है । इसके बीच में बैठने के लिये बँगला रहता है । ५. अश्वारोही सेना की परेड या कवायद ।

घुड़दौड़ (२)
क्रि० वि० [हिं० घोड़ा+दौड़] बड़ी तेजी से । अति— शीघ्रता से । जैसे—(क) आज घुड़दौड़ कहाँ चले जा रहे हो ? (ख) घुड़ दौड़ मत चलो; नहीं तो ठोकर लगेगी ।

घुड़दौर (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घुड़दौड़' (१) ।

घुड़दौर (२) †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'घुड़दौड़' (२) ।

घुड़ना पु †
क्रि० अ० [हिं० घुड़+ना] भिड़ना । डटना । उ०— जुड़ै पड़ै लड़ै मुड़ै घुड़ै अनेक जंग में ।—रा० रू०, पृ० ६० ।

घुड़नाल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+नाल] एक प्रकार की तोप जो घोड़ों पर चलती है ।

घुड़बहल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+बहल] [स्त्री० घुड़बहली] वह रथ जिसमें घोड़ै जुतते हों ।

घुड़मक्खी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+मक्खी] एक प्रकार की भूरे रंग की मक्खी जो घोड़ों को काटती है ।

घुड़मुहाँ
संज्ञा पुं० [हिं० घोड़ा+मुँह] १. एक कल्पित मनुष्य जाति जिसका सारा धड़ मनुष्य का सा और मुँह घोड़े का सा माना जाता है । २. वह मनुष्य जिसका मुँह लंबा और बेढ़ंगा हो । लंबे मुँहवाला मनुष्य ।

घुड़मुहाँ (२)
वि० जिसका मुँह घोड़े की तरह लंबा हो ।

घुड़रोजा †, घुड़रोझ् †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घोड़रोज' ।

घुडला
संज्ञा पुं० [हिं० घोड़ा+ला (प्रत्य०)] १. मिट्टी या किसी धातु या मिठाई का बना हुआ घोड़े के आकार का खिलौना । २. छोटा घोडा । ३. कोई छोटी रस्सी या पतली जंजीर जिससे जहाजवाले अनेक काम लेते हैं और जिसे अंगरेजी में लैन यार्ड कहते हैं ।

घड़सवार
संज्ञा पुं० [हिं० घोड़ा+सवार] अश्वारोही । घोड़सवार ।

घुड़सार †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घड़साल' । उ०—सो ये दोऊ जने अपनी स्त्री लरिका लै कै वा घुड़सार में आइ रहे ।— दो सौ बावन०, पृ० २४० ।

घुड़साल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोड़ा+शाला] घोड़ों के बाँधने का स्थान । अस्तबल । पैड़ा । उ० घोड़ा घुड़साल बष बैलै । छुटे रथ बाज सब खेला ।—संत तुरसी०, पृ० ५७ ।

घड़िया
संज्ञा स्त्री० [सं० घोटिका, हिं० घोड़ी का अल्पा०] १. छोटी घोड़ी । २. दे० 'घोड़िया' ।

घुड़िला पु
संज्ञा पुं० [हिं० धुड+इला(प्रत्य०)] छोटा घोड़ा । उ०—साज सहित इक घुड़िला लैयो, गैया दूध अतीली जू । सुंदर सों इक हाथी लैयो हथनी संग अमोली जू ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३७ ।

घुड़ुकना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'घुड़कना' ।

घुण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'धुन' । घौ०—घुणलिपि=दे० 'घुणाक्षर' ।

घुणाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसी कृति या रचना जो अनजान में उसी प्रकार हो जाय, जिस प्रकार घुनों खाते खाते लकड़ी में अक्षर की तरह के बहुत से चिह्न या लकीरें बन जाती हैं । यौ०—घुणाक्षर न्याय=अकस्मात् किसी अनभीष्ट एवं अज्ञात कार्य का बिना प्रयत्न के हो जाना । उ०—यदि वहघुणाक्षर न्याय से किसी प्रकार अपने कर्तव्य कार्य को . . . . ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७६ । विशेष—इस न्याय या उक्ति का प्रयोग ऐसे स्थलों पर करते हैं जहाँ किसी के द्वारा ऐसा आकास्मिक कार्य हो जाता है जो उसे ज्ञान या अभीष्ट न रहा हो ।

घुन
संज्ञा पुं० [सं० घुण] एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो अनाज, पौधे और लकड़ी आदि में लगता है । विशेष—इस कीड़े की कई जातियाँ होती हैं । लकड़ी का घुन अनाज के घुन से भिन्न होता है । जिस लकड़ी या अनाज में यह लगता है, उसे अंदर ही अदर खाते खाते खोखला कर डालता है । इस कीड़े के भी रेशम के कीड़ी के समान कई रूपांतर होते हैं । यह भी पहले गंडेदार लबे ढोले के रूप में रहता है । मुहा०—घुन लगाना=(१) घुन का अनाज या लकड़ी को खाना । (२) अदर ही अंदर किसी वस्तु का क्षीण होना । धीरे धीरे अप्रत्यक्ष रूप में किसी वस्तु का ह्रास होना । अदर ही अंदर छीजना या नष्ट होना । जैसे,—शरीर में घुन लगना । रोजगार में घुन लगाना । जवानी में घुन लगना । उ०—कीट मनोरथ दारु शरीरा । जेहि न लाग घुन को अस धीरा ।—मानस, ७ ।७१ । घुन झड़ना=घुन की खाई हुई लकड़ी का चूर गिरना ।

घुनघुना
संज्ञा पुं० [अनु०] लकड़ी, पीतल इत्यादि का बना हुआ एक छोटा सा खिलौना, जिसे लड़के हाथ में लेकर बजाया करते हैं । इसका आकार गोल या लंबोतरा गोल होता है । इसमें एक और एक दस्ता लगा होता है, जिसे हाथ में पकड़ते हैं । झुनझुना ।

घुनना
क्रि० स० [हिं० घुन] १. घुन के द्वारा लकड़ी आदि का खाया जाना । घुन के खाने से खोखला और कमजोर हो जाना । जैसे,—लकड़ी घुनना, अनाज घुनना । २. किसी दोष के कारण किसी चीज का अंदर ही अंदर छीजना । जैसे,—शरीर घुनना । उ०—(क) दारु सरीर, कीट पहिले सुख, सुमिरि सुमिरि बासर निसि धुनिए ।—तुलसी ग्रं०,पृ० ४४३ । (ख) मोहन का बेनु सुनै धुनै सीस मन ही मन मैं । घुपै भीरी सोच गुनै गहि बूड़ै़ सोक है ।—घनानंद, पृ० २०७ । संयो० क्रि०—जाना ।

घुना
वि० [हिं० घुनना] १. घुना हुआ । जिसमें घुन लगा हो । २. छीजा हुआ ।

घुनाक्षरन्याय पु
संज्ञा पुं० [सं० घुणाक्षर न्याय] दे० 'घुणाक्षर न्याय' । उ०—कहत कठिन समुझत कठिन साध्रत कठिन विवेक । होइ घुनाक्षर न्याय जौ पुनि प्रत्यूह अनेक ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०५ ।

घुन्ना
वि० [अनु० घुनघुनाना] [वि० स्त्री० घुन्नी] जो अपने क्रोध द्वेष आदि भावों को मन ही में रक्खे और चुपचाप उनके अनुसार कार्य करे । मन ही मन बुरा माननेवाला । चुप्पा ।

घुन्नी (१)
वि० स्त्री० [हिं० घुन्ना] अपने मन का भाव गुप्त रखनेवाली । चुप्पी (स्त्री) ।

घुन्नी (२)
संज्ञा स्त्री० चुप्पी । मौन । क्रि० प्र०—साधना ।

घुप
वि० [सं० कूप या अनु०] गहरा (अधैरा) । निविड़ (अंधकार) विशेष—इस शब्द का प्रयोग 'अँधैरा' शब्द ही के साथ होता है । जैसे, अँधेरा घुप ।

घुमंड पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुमड़ना] दे० 'घुमड़' । उ०—अबिर गुलाल की घुमंड ब्रजनिधि छए हो हो होरी कहत हँसत देत तारी हैं ।—ब्रज०, ग्रं०, पृ० ३० ।

घुमंतू
वि० [हिं० घूमना] बराबर इधर उधर घूमनेवाला । उ०— जाड़ों को नीचे बिताकर अब यह घुमंतू महिषपाल हिमांचल की ऊपरी चारागाहों की ओर जा रहे थे ।—किन्नर०, पृ० ३० ।

घुमँड़ना †
क्रि० अ० [हिं० घुमड़ना] दे० 'घुमड़ना' । उ०—निर्भै ह्वै कुरम नृपति पाछैं चल्यौ घुमंडि ।—सुजान०, पृ० २९ ।

घुमघु †
संज्ञा स्त्री०[हिं०] दे० 'घुमड़' ।

घुमक्कड़
वि० [हिं० घूमना+अक्कड़(प्रत्य०)] बहुत घूमनेवाला ।

घुमची †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा] दे० 'घुँघची' ।

घुमट †
संज्ञा पुं० [फा०गुबद] दे० 'गुमटी' । उ०—घुमट पर एक के ऊपर दूसरी तीन छतरियाँ और हर्मिका है ।—शुक्ल० अभि० ग्रं०, पृ० १८२ ।

घुमटा
संज्ञा पुं० [हिं० घूमना+टा (प्रत्य०)] सिर का चक्कर जिस में आँख के सामने अँधेरा सा जान पड़ता है और आदमी खड़ा नहीं रह सकता । क्रि० प्र०—आना ।

घुमड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुमड़ना] १. बरसनेवाले बादलों की घेरघार । २. छाना । घिराव । इकट्ठा होना ।

घुमड़नि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुमड़ना] दे० 'घुमड़' । उ०—घन घुमड़नि मधि चाय सुरेस । बिनु गुन सोभित भयो सुदेस ।— नंद० ग्रं०, पृ० २९० ।

घुमड़ना
क्रि० अ० [हिं० घूम+अटना] १. बादलों का घूम घूमकर इक्ट्ठा । होना । घने मेघों का छाना । बादलों का इधर उधर घने होकर जमना । उ०—(क) घुमड़ि घुमड़ि घटा घन की घनेरी अबै गरज गई ती फेर गरजन लागी री ।—पद्माकर (शब्द०) । (ख) उमड़ि घुमड़ि घन बरसन लागे ।—गीत । २. इकट्ठा होना । छा जाना । उ०—देव लला गए सोवत ते मुख माहिं महा सुखमा घुमड़ी सी ।—देव । (शब्द०) ।

घमड़ाना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० घुमड़ना' । उ०—कहीं भभूके आदि दै धूँवाँ घुमड़ाया ।—सूदन (शब्द०) ।

घुमड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूमना] १. किसी केंद्र पर स्थिर रहकर चारों ओर फिरने की क्रिया । कुम्हार के चाक की तरह घूमने की क्रिया । क्रि० प्र०—लगाना । लेना । २. वह चक्कर जो इस प्रकार घूमने से लोगों के सिर में आता है । क्रि० प्र०—आना । ३. सिर में चक्कर आने का रोग जिसमें आँख के सामने अँधेरा सा जान पड़ता है । ४. किसी वस्तु के चारों ओर फेरा लगाने की क्रिया । परिक्रमा । ५. पशुओं का एक रोग । घुमनी ।

घुमना †
वि० [हिं० घूमना] [स्त्री० घुमनी] इधर उधर बहुत फिरनेवाला । घूमनेवाला । घुमक्कड़ ।

घुमनी (१)
वि० स्त्री० [हिं० घूमना] जो इधर उधर घूमती फिरे । जैसे,—मेलाघुमनी, घरघुमनी ।

घुमनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूमना] १. पशुओं का एक रोग जिसमें उनके पेट में पीड़ा होती है और वे इधर उधर चक्कर लगाकर गिर जाते हैं । इसे 'घुमड़ी' भी कहते हैं । २. दे० 'घुमड़ी' ।

घुमरना (१)
क्रि० अ० [अनु० घम् घम्] १. घोर शब्द करना । ऊँचे शब्द से बजना । वि० दे० 'घुरना' । उ०—(क) पुर नर नारिन कौं सुख दीन्हौ जो जैसो फल सोइ लह्यौ ।—सूर धन्य जदुबंस उजागर धन्य धन्य धुनिधुमरि रह्यौ ।—सूर०, १० । ३०८० । (ख) मारे मल्ल एक नहिं उबरे । पटकत घरनि स्रवन नृप घुमरे ।—सूर०, १० । ३१०९ ।

घुमरना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० घुमड़ना] १. दे० 'घुमड़ना' । उ०— काम क्रोध की लहर उठतु है मोह पवन झकझोरी । लोभ मोरे हिरदे घुमरतु है सागर वाट न पारी ।—धरम०, पृ० ४३ । †२. दे० 'घूमना' ।

घुमराई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुमराना] इधर उधर घूमने की स्थिति । उ०—दृग भरि आए री, मैं कही री कछुक तेरी प्रीति की रीति, आना कानी में भई घुमराई में गए दिन ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५९ ।

घुमराना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुमरना' । उ०—गरजि घुमरात मद मार गंडनि स्रवत पवन तै वेग तिहिं समय चीन्हौं ।— सूर०, १० । ३०५५ ।

घुमरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूम] १. दे० 'घुमड़ी' । उ०—घर आँगन मोहिं नाहिं सुहावै, बैठतही घुमरी सी आवै ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३७३ । २. पानी का भँवर । ३. घुमनी नाम का रोग जो चौपायों को होता है ।

घुमाँ †
संज्ञा पुं० [हिं० घूमना या देश०] पंजाब में जमीन की एक नाप जो दो बीघों के बराबर होती है । उ०—आठ दस भैंसे हैं, दस बारह घुमाँ जमीन है ।—पिंजरे०, पृ० ६१ ।

घुमाऊ (१) †
वि० [हिं० घूमना] १. घुमानेवाला । २. घूमनेवाला । घुमंतू ।

घुमाऊ (२) †
संज्ञा पुं० रास्ते का मोड़ । घुमाव ।

घुमाना (१)
क्रि० स० [घूमना] १. चक्कर देना । चारो ओर फिराना । २. इधर उधर टहलाना । सैर कराना । ३. किसी ओर प्रवृत्त करना । किसी विषय की ओर लगाना । जैसे; — उनका क्या, जिधर घुमाओ, उधर घूम जायँगे । ४. ऐंठना । मरोड़ना । जैसे,—कल घुमाना ।

घुमाना (२)
क्रि० अ० [हिं० घूम (=नींद)] शयन करना । सोना ।

घुमारा (१) †
वि० [हिं० घूम+आरा (प्रत्य०)] घूमनेवला । २. घूमता हुआ ।

घुमारा (२)पु
वि० [हिं० घूम(=नींद)] १. उनींदा । २. मत्त । मतवाला । ३. घेरेदार ।

घुमाव
संज्ञा पुं० [हिं० घूम+आव (प्रत्य०)] १. घूमने या घुमाने का भाव । २. फेर । चक्कर । यौ०—घुमावदार । घुमावाफिराव । मुहा०—घुमावफिराव की बात=पेचीली बात । हेरफेर की बात । अस्पष्ट एवं चक्करदार बात । ३. उतनी भूमि जितनी एक जोड़ी बैल से एक दिन में जोती जाय । ४. रास्ते का मोड़ । ५. † दे० 'घुमाँ' ।

घुमावदार
वि० [हिं० घुमाव+दार] जिसमें कुछ घुमाव फिराव हो । चक्करदार ।

घुमेर पु
संज्ञा पुं० [हिं० घूम (=निद्रा)+एर (प्रत्य०)] [स्त्री० घुमेरी] फेर । चक्कर । बेसुधी । उ०—निसिद्यौस घुमेरनि भौंरि परचौ आभिलाष महोदधि हेरि हिरै ।—घनानंद, पृ० १३८ ।

घुम्मरना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुमरना' । उ०—निदरि घनहिं घुम्मरहिं निसाना । निज पराइ कछु सुनिय न काना ।— तुलसी (शब्द०) ।

घुर
संज्ञा पुं० [हिं०] 'घूर' का समस्त रूप । जैसे,—घुरबिन, घुर— बिनियाँ, आदि ।

घुरकना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुड़कना' । उ०—बृद्ध बाघ सम सबहि गुरेरत घुरकत सबहिन ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १६ ।

घुरका
संज्ञा पुं० [हिं० घुरघुराना] चौपायों की एक बीमारी ।

घुरघुर
संज्ञा पु० [अनु०] घुरघुर शब्द जो बिल्ली, सूअर आदि के गले से तथा कफ छेंकने के कारण मनुष्य के गले से भी साँस लेते समय निकलता है ।

घुरघुरा् †
संज्ञा पुं० [हिं० घुर घुर से अनु०] झींगुर नाम का कीड़ा । २. गले का एक लोग । कंठमाला ।

घुरघुराना
क्रि० अ० [अनु० घुरघुर] गले से घुर घुर शब्द निकालना ।

घुरघुराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुरघुराना] घुरघुर शब्द निकालने का भाव ।

घुरचा †
संज्ञा पुं० [हिं० घूरना=घूमना] कपास ओटने की चरखी । (अलमोड़ा) ।

घुरड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० घुड़(=घोड़ा)] नील गाय । उ०—घुरड़ है, रीछ है, कभी बाघ भी होता है, चीता बहुत है ।—फूलो०, पृ० १४ ।

घुरड़ोजा †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'घुरड़' ।

घुरण
संज्ञा पुं० [सं०] घुर घुर की ध्वनि [को०] ।

घुरना (१)पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुलना' ।

घुरना (२)
क्रि० अ० [सं० घुर] शब्द करना । बजना । उ०—(क) अवधपुर आए दसरथ राइ । राम लषन अरु भरत सत्रुघन सोभित चारौ भाइ । घुरत निसान मृदंग शंख धुनि भेरि झाँझ सहनाइ । उमगे लोग नगर के निरखत अतिसुख सबहिनि पाइ ।—सूर०, ९ ।२९ । (ख) डंकन के शोर चहुँ ओर महा घोर घुरे मानो घनघोर घोरि उठे भुव ओर तें ।—सूदन (शब्द०) ।

घुरना (३)पु
क्रि० स० [हिं० घुलना(=मिलना)] भेंटना । आलिंगन करना । मिलना । उ०—(क) धाइ धुरि गई जसुमति मैया । इत हँसि दौरि घुरचौ बल भैया ।—नंद० ग्रं०, पृ० २८३ । (ख) छबीले दृग घुरि घुरि हसि मुरि जात ।—नागरी (शब्द०) ।

घुरबिन †
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० घूर+बीनना] घूरे पर से दाना इत्यादि चुननेवाला । गली कूचों में से टूटी फूटी चीजों के टुकड़े आदि एकत्र करनेवाला ।

घुरबिनिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूरा+बीनना] १. घूरे पर से दाना इत्यादि बीन बोनकर एकत्र करने का काम । २. गली कूचों में से टूटी फूटी चीजों के टुकड़े चुन चुनकर एकत्र करने का काम । उ०—राम गरीबनिवाज हैं राज देत जन जानि । तुलसी मन परिहरत नहिं वुरबिनिया की बानि ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८८ ।

घुरसाल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घुड़सार' । उ०—सुंदर घर ताजी बँधे तुरकिन की घुरसाल ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७३७ ।

घुरहुरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० खुर+हर (प्रत्य०)] १. जंगल में पशुओं के चलने से बना हुआ तंग रास्ते का सा निशान । २. वह तंग रास्ता जिसपर केवल एक ही मनु्ष्य चल सके । पगडंडी ।

घुराना †
क्रि० अ० [हिं० घुरना] चारों ओर छा जाना । घर जाना ।

घुरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] घुर् घुर् की आवाज । खर्राटा [को०] ।

घुरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूअर का मुँह या थूथन [को०] ।

घुरुहरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घुरहुरी' ।

घुर्घुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. घुर घुर की ध्वनि । २. शूकर या श्वान की आवाज । २. चीलर । यमकीट [को०] ।

घुर्घरक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० घुर्घुरिका] कल कल ध्वनि या गड़गड़ाहट की ध्वनि [को०] ।

घुर्मित
क्रि० वि० [सं० घूर्णित] घूमता हुआ । चक्कर खाता हुआ । उ०—पुनि उठि तेहि मारेहु हनुमंता । घुर्मित भूतल परयों तुरंता ।—तुलसी (शब्द०) ।

घुर्राना †
क्रि० अ० [हिं० घर्र अनु०] दे० 'गुर्राना' ।

घुर्रुवा
संज्ञा पुं० [देश०] जानवरों का एक रोग । विशेष—यह रोग एक पशु से उड़कर दूसरे में जा व्यापता है और कठिनाई से दूर होता है । इसकी उत्पत्ति एक प्रकार के जहर से होती है जो पशुओं के रुधिर में पैदा हो जाता है । इसमें पशुओं का गला सूज आता है और ज्वर बड़े जोर से चढ़ता है ।

घुलंच
संज्ञा पुं० [सं० घुल़ञ्च] एक प्रकार का तृणधान्य । कसेई । गवेधुक [को०] ।

घुलघुलारव
संज्ञा पुं० [सं०] गुटुर गूँ शब्द करनेवाला एक प्रकार का कबूतर [को०] ।

घुलना
क्रि० अ० [सं० घूर्णन, प्रा० घुलन] १. पानी, दूध आदि पतली चीजों में खूल हिल मिल जाना । किसी द्रव पदार्थ में मिश्रित हो जाना । हल होना । जैसे,—चीनी को अभी हिलाओ जिसमें पानी में घुल जाय । संयो० क्रि०—जाना । यौ०—घुलना मिलना । मुहा०—घुल घुलकर बातें करना=खूब मिल जुलकर बाते करना । अभिन्नहृदय होकर बातें करना । बड़ी घनिष्ठता के साथ बातें करना । उ०—अबासी से और उनसे घुल घुल के बातें होने लगीं—फिसाना०, भा० ३, पृ० २८ । घुल मिलकर=खूब मेलजोल के साथ । नजर या आँखें घुलना=प्रेमपूर्वक आँख से आँख मिलाना । कलम का घुल जाना=कलम का स्याही में रहते रहते नरम हो जाना जिससे वह खूब चले । २. जल आदि के संयोग से किसी पदार्थ के अणुओं का अलग अलग होना । द्रवित होना । गलना । ३. पककर पिलापिला होना । नरम होना । जैसे,—खूब घुले घुले आम लाना । ४. रोग आदि से शरीर का क्षीण होना । दुर्बल होना । मुहा०—घुला हुआ=बुडढा । वृद्ध । घुल घुलकर काँटा होना= बहुत दुबला हो जाना । इतना हो जाना कि शरीर हडि्डयाँ दिखाई दें । घुल घुलकर मरना=बहुत दिनों तक कष्ट भोगकर मरना । ५. दाँव का हाथ से निकल जाना या जाता रहना । (जुआरी) । ६. (समय) बीतना । व्यतीत होना । गुजरना । जैसे,—जरा से काम में महीनों घुल गए ।

घुलवाना (१)
क्रि० स० [हिं० घुलाना का प्रे० रूप] १. गलवाना । द्रवित कराना । २. आँख में सुरमा लगावाना ।

घुलवाना (२)
कि० स० [हिं० घोलना का प्रे० रूप] किसी द्रव पदार्थ में मिश्रित कराना । हल कराना ।

घुलाना
क्रि० स० [हिं० घुलना] १. गलाना । पिघलाना । द्रवित करना । २. शरीर दुर्बल करना । शरीर क्षीण करना । ३. मुँह में रखकर धीरे धीरे गलाना । चुभलाना । ४. पकाकर पिलपिला करना । गरमी या दाब पहुंचाकर नकम करना । ५. (सुरमा या काजल) लगाना । सारना । ६. (समय) बिताना । व्यतित करना । गुजारना । जैसे, — इस सुनार को मत दो, यह बरसों घुला देगा । ७. दाब पहुँचाकर या रगड़ के द्वारा एकदिल करना । जैसे, — पाल घुलाना ।

घुलावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुलना] घुलने का भाव या क्रिया ।

घुवा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घूआ' । उ०— ज्यों सेमर सूवा साखि भुलाना । टोंट देत पुनि घुवा उड़ाना ।— घट० पृ० ३०२ ।

घुषित
वि० [सं०] जिसकी घोषणा की गई हो । घोषित । ध्वनित । कथित [को०] ।

घुष्ट
वि० [सं०] दे० 'घुषित' ।

घुष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] गाडी । शकट [को०] ।

घुसड़ना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'घुसना' ।

घुसना
क्रि० अ० [सं० कुश(= आलिंगन करना, घेरना) अथवा घर्षण अथवा अयुकरणमूलक देश०] १. कुछ वेगपूर्वक अथवा दुसरे की इच्छा का विरोध करते हुए अंदर जाना । अंदर पैठना । प्रवेश करना । संयो० क्रि०—आना ।—जाना ।—पड़ना ।—बैठना ।— यौ०—घुसपैठ । घुसपैठिया । मुहा०—घुसकर बैठना —(१) छिप रहना । सामने न आना । (२) पास पास बैठना । सटकर बैठना । २. धँमना । चुभना । गडना । ३. किसी काम में दखल देना । अनधिकार चर्चा या कार्य करना । जैसे,— तुम क्यों हर एक काम में घुस पड़ते हो । ४. मनोनिवेश करना । किसी विषय की और खूब ध्यान लगाना । ५. दूर हो जाना । जाता रहना । जैसे—एक थप्पड़ लगावेंगे; सारी बदमाशी घुस जायगी ।

घुसपैठ
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुसना+पैठना] १. पहुंच । गति । प्रवेश । रसाई २. तखल । हस्तक्षेप ।

घुसपैठिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० घुसपैठ+इया (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो बिना नागरिकता प्राप्त किए शत्रु राष्ट्र में चोरी छिपे रहता हो और वहाँ की खबर अपने राज्य को देता हो । भेदिया । (अ० ईन्ट्रयूडर) :

घुसवाना
क्रि० स० [हिं० घुसना का प्रे० रूप] घुसाने का काम कराना ।

घुसाना
क्रि० स० [हिं० घुसना] १. भीतर घुसेड़ना । अदर पैठाना । २. चुभाना । धँसाना । संयो० क्रि०—देना ।

घुसृण
संज्ञा पुं० [सं०] कुंकुम । केशर । जाफरान [को०] ।

घुसेडना
क्रि० स० [हिं० घुस+एड(स्वा० प्रत्य०)] १. घुसाना । पैठाना । २. धँसाना । चुभाना । संयो० क्रि०—देना ।

घूँगची †
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्जा] दे० 'घुँघची' ।

घूँघट
संज्ञा पुं० [सं० गुणठ] १. स्त्रियों की साडी या चादर के किनारे का वह भाग जिसे वे लज्जावश या परदे के लिये सिर पर से नीचे बढाकर मुँह पर डाले रहती हैं । वस्त्र का वह भाग जिससे कुलवधू का मुँह ढँका रहता है । उ०—भावत ना छिन भौन को बैठिबो घूँघट कौन को लाज कहाँ की ।— ठाकुर० पृ० ६ । क्रि० प्र०— खोलना ।—घालना ।—डालना । मुहा०—घूँघट उठाना =(१) घूँघट को ऊपर की ओर खसकाना जिससे मुँह खुल जाय । (२) परदा दूर करना । (३) नई आई हुई वधू का सबके सामने मुँह खोलना । घूँघट उलटना=दे० 'घूँघट उठाना' । घूँघट करना=(१) घूँघट डालना । (२) लज्जा करना । शर्म करना । (३) घोडे़ का पीछे की ओर गरदन मोड़ना । (सवार) । घूँघट काढ़ना = घूँघट डालना । मुँह को घूँघट से ढकना । घूँघट खाना= लड़ाई के मैदान से मुँह मोड़ना । मेना का युद्धस्थल से पीछे की ओर भागना । लड़ाई में सेना का पीठ दिखाना । घूँघट निकालना=दे० 'घूँघट काढना' । घूँघट मारना=दे० 'घूँघट काढ़ना' । २. परदे की वह दीवार जो बाहरी दरवाजे के सामने इसलिये रहती है, जिसमें चौक या आँगन बाहर से दिखाई न पडे़ । गुलामगर्दिश । ओट । ३. घोडे़ की आँखों पर की पट्टी । अँधेरी ।

घूँघर
संज्ञा पुं० [हिं० घुमरना] बालों में पडे हुए छल्ले या मरोड़ । उ०— कुंडल मंडित गंड सुदेस । मनिमय मुकट सु घूँघर केस० ।—नंद ग्रं०, पृ० २६७ । यौ०—घूँघरवाले ।

घूँघरवारे पु
वि० [हिं०] दे० 'घूँघरवाले' । उ०— मनिगन कँठला कंठ मद्धि केहरि नख सोहत । घूँघरवारे चिहुर रुचिर बानी मन मोहत ।—पृ० रा० १ ।७१७ ।

घूँघरवाले
वि० [हिं० घूँघर] टेढे़ छल्लेदार या कुंचित(केश) । झबरीले (बाल) ।

घूँघरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाजा ।

घूँघरी †
संज्ञा स्त्री० [अनु० घुन+घुर] नूपुर । नेउर । घुँघरू । उ०— (क) पद पदम की शुभ घूँघऱी, मणि नील हाटक सों जरी । — केशव (शब्द०) । (ख) बिछिया अनौट बाँके घूँघरी, जराय जरी, जेहरि छबीली क्षुद्र घंटिका की जालिका ।— केशव (शब्द०) ।

घुँघरू †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घुँघरू' । उ०—गोविंददास घूँघरू बाँधि कै श्री नवनीत प्रिय जी आगें नृत्य करें । दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २८९ ।

घूँघुट पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घूँघट'१ । उ०— पेखि परौसी कौं पिया घूँघट में मुसिक्याइ । — मत्ति ग्रं०, पृ० ४४४ ।

घूँचा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घूँसा' ।

घूँट (१)
संज्ञा पुं० [अनु० घुट घुट — गले के नीचे पानी आदि उतरने का शब्द] १. पानी या और किसी द्रव पदार्थ का उतना अंश जितना एक बार में गले के नीचे उतारा जाय । चुसकी । जैसे,— ऊपर से दो घूँट पानी पी लो । मुहा० — घूँट फेंकना=किसी पीने की वस्तु का बहुत थोडा सा अंश पीने के पहले पृथ्वी पर गिराना, जिसमें नजर न लगे या किसी देवी देवता का अंश निकल जाय । घूँट लेना=घूँट घूँट करके पीना । बहुत थोड़ा थोड़ा करके पीना । जैसे,— घूँट मत लो, एक साँस में सब दवा पी जाओ । घूँट घूटकर मारना— तंग करके मारना । दुःख पहुँचा पहुँचाकर मारना ।

घूँट (२)
संज्ञा पुं० [सं० घुट] पहाड़ी टट्टुओं की एक जाति जिसे गूँठ या गुंठा भी कहते हैं ।

घूँट (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पेड़ या झाड़ जो बंगाल को छोड़कर भारतवर्ष के बहुत से स्थानों में होता है । विशेष—इसकी पत्तियाँ चार पाँच अंगुल लंबी, गहरे हरे रंग की और नीचे की और कुछ रोएँदार होती हैं । यह बैसाख जेठ में फूलती है और जाडे़ में फलती है । इसके फल खाए नहीं जाते, पर उनकी गुठलियाँ खाने के काम में आती हैं । पत्तियाँ चारे के काम में आती हैं । छाल और सूखे फल चमड़ा रँगने के काम में आते हैं ।

घूँटक
संज्ञा पुं० [हिं० घूँट + एक ] एक घूँट । उ०—तुलसी चातक माँगनो एक सबै घन दानि । देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि ।—तुलसी ग्रं० पृ० १०६ ।

घूँटना (१)
क्रि० स० [हिं० घूँट] पानी या और किसी द्रव पदार्थ को गले के नीचे उतारना । पीना । उ०—तजि और उपाय अनेक सखी अब तो हमको बिष घूटनो हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ३४ । संयो० क्रि०—जाना ।—लेना ।

घूँटना (२)पु
क्रि० स० [हिं०]दे० 'घोंटना' । उ०—पवन रूखो बहयो सबनु नाहीं कहयौ । कंठ मानौं किहूँ आन घूँट्यो ।— सुजान०, पृ० १६ ।

घूँटा †
संज्ञा सं० [सं० घुण्टक, हिं० घुटना] टाँग और जाँघ के बीच का जोड़ । घुटना । उ०—मुहु पखारि मुड़हरु भिजै सीस सजल कर छ्वाइ । मौरु उचै घूँ टेनु तैं नारि सरोवर न्हाइ ।—बिहारी (शब्द०) ।

घूँटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूँट] एक औषध जो स्वास्थ्यकर और पाचक होने के कारण छोटे बच्चों को नित्य पिलाई जाती है । मुहा०—जनम घूँटी= वह घूँटी जो बच्चे को उसका पेट साफ करने के लिये जन्म के दूसरे ही दिन दी जाती है । जब तक यह घूँटी पिलाकर बच्चे का पेट साफ नहीं कर लिया जाता, तब तक उसे माता का दूध नहीं पिलाया जाता ।

घूँठन पु
क्रि० वि० [हिं० घुटना] घुटने के बल । उ०—रज रंजित अंजित नयन घूँठन डोलत भूमि । लेत बलैया मात लखि भरि कपोल मुख चूमि ।—पृ० रा०, १ ।७१८ ।

घूँस
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घूस' । उ०—जाकी आस रहै मदिर में होकर घूँस बसै सो घर में ।—सहजो०, पृ० २४ ।

घूँसा
संज्ञा पुं० [हिं० घिस्सा या अनु०] १. बँधी हुई मुट्ठी जो मारने के लिये उठाई जाय । मुक्का । डुक । धमाका । जैसे—घूँसा तानना । २. बँधी हुई मुट्ठी का प्रहार । उ०—विटपों से भट मार, शत्रु का तोड़ दिया घूँसों से वक्ष ।—साकेत, पृ० ३८९ । क्रि० प्र०—खाना ।—चलाना ।—जड़ना ।—तानना ।— मारना ।—लगाना । यौ०—घूसेबाज ।घूँसेबाजी= घूँसों की लडा़ई । मुष्टियुद्ध । (अं० बाक्सिंग) ।मुहा०—घुसों का क्या उधार ? = मार का बदला मार से लेने में क्या देर ! मारपीट का बदला तुरंत ले ।

घूँसेबाज
वि० [हिं० घूसा + फा० बाज] १. घूँसा मारनेवाला । २. घूँसेबाजी का खेल खेलनेवाला । (अं० बाक्सर) ।

घूआ
संज्ञा पुं० [देश०] १. काँस, मूँज या सरकंडे आदि का रुई की तरह का फूल जो लंबे सींकों में लगता है । २. पानी के किनारे मिट्टी में रहनेवाला एक कीडा़ जिसे बुलबुल आदि पक्षी खाते हैं । रेवाँ । ३. दरवाजे में ऊपर या नीचे का वह छेद जिसमें किवाडे़ की चूल अटकाई जाती है ।

घूक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० घूकी] घूग्घू । उल्लू पक्षी । रुरुआ । उ०—काक कोकनद सोकहत दुख कुबलय कुलटानि । तारा ओषधि दीप ससि घूक चोर तम हानि ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १३५ ।

घूकनादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा [को०] ।

घूका
संज्ञा पुं० [हिं० घूआ] बाँस, वेंत, रहटे या मूँज इत्यादि का बना हुआ तंग मुँह का बर्तन या डलिया । घकुवा ।

घूकारि
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू का शत्रु कौआ [को०] ।

घूगस †
संज्ञा पुं० [देश०] ऊँचा बूर्ज । गरगज ।

घूघ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोघी या फा० खोद] लोहे या पीतल की बनी टोपी जो लडा़ई में सिर को चोट से बचाने के लिये पहनी जाती है । उ०—अरुन रंग आनन छबि लीने । माथे घूघ लोह की दीने ।—लाल कवि (शब्द०) ।

घूघ (२) †
संज्ञा पुं० [सं० घूक] उल्लू ।

घूघर पु
संज्ञा पुं० [हिं० घूघ + हिं घूप+हिंर(प्रत्य०) ] दे० 'घूग्घू' । उ०—घूघर जुत्थ बैठ एक ठाऊँ ।—घट०, पृ० ४१ ।

घूघरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घुँघरू' । उ०—सुरति निरति का पहर घूघरा साहिब में मिलि जाऊँ ।—रा० धर्म०, पृ० ४४ ।

घूघस †
संज्ञा पुं० [देश०] किले के भीतर जाने का मार्ग (राज०) ।

घूघी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. थैली । २. जेब । घीसा । ३. घूग्घी । पंडुक । पेडुकी । फाख्ता ।

घूघुअ पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घुग्घू' । उ०—बोलि घूघुअ साद दीविय महमती सुर उफ्फस्यौ ।—पृ० रा० १५ ।६ ।

घूघू
संज्ञा पुं० [सं० घूक, हिं० घुग्घु] दे० 'घुग्घू' ।

घूठना †
क्रि० स० [हिं० घुटना] साँस रोकना या दबाना । जैसे,— गला घूटना ।

घून †
क्री० वि० [देश०] दे० 'घूँठन' ।

घूडा़ †
संज्ञा पुं० [हिं० घूरा] दे० 'घूरा (१)' । उ०—दिन बारह वर्षों में घूडे़ के भी सुने गए हैं फिरते ।—साकेत, पृ० ३०७ ।

घूनम †
संज्ञा स्त्री० [देश०] ब्याह की पगड़ी में लटकनेवाला झब्बा ।

घूना †
वि० [देश०] १. चतुर । अनुभवी । खुर्राट । २. दे० 'घुन्ना' ।

घूम
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूमना ] १. घूमने का भाव । घुमाव । फेर । चक्कर । २. वह स्थान जहाँ से किसी ओर मुड़ना पडे़ । मोड । ३. निद्रा । उ०—प्रिय फिरो, फिरो हा ! फिरो फिरो ! न इस मोह की घूम से घिरो ।—साकेत, पृ० ३१२ ।

घूमघुमारा
वि० [हिं० घूमना] १. बडे़ घेरे का । घेरदार । जैसे,— घूमघुमारा लहँगा । २. उनींदा । ३. घूर्णित । मत्त । उ०— (क) रस के माते घूमघुमारे ललचौंहे दृग हैं कजरारे ।— ब्रज० वर्णन, पृ० २२ । (ख) कृष्ण रसासव पान अलस कछु घूमघुमारै । नंद० ग्रं०, पृ० ३ ।

घूमघुमाव
वि० [हिं० घूमना] चक्करदार ।

घूमघुमौआ
वि० [हिं० घूम + घुमाव] वक्र । टेढा़ । चक्करदार । उ०—सड़क घूमघुमौआ थी । —किन्नर० पृ० ४८ ।

घूमना
क्रि० अ० [सं० घूर्णान] १. चारों ओर फिरना । चक्कर खाना । एक ही धुरी पर चारों ओर भ्रमण करना । २. सैर करना । टहलना । ३. देशांतर में भ्रमण करना । सफर करना । ४. एक वृत्त की परिधि में गमन करना । कावा काटना । मँड़राना । ५. किसी ओर को मुड़ना । जैसे,— वहाँ से वह रास्ता पश्चिम को घूम गया है । ६. वापस आना या जाना । लौटना । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । मुहा०—घूम जाना = गायब हो जाना । चंपत होना । रफूचक्कर होना । घूम पड़ना (१) सहसा क्रुद्ध हो जाना । बिगड़ उठना । जैसे,—मैं तो उन्हें समझाने गया था, वे उलटे मेरे ही ऊपर घूम पडे़ । (२) विपरीत हो जाना । अपने अनुकूल न रहना । †पु७. उन्मत्त होना । मतवाला होना । उ०—बिहँसि बुलाय बिलोकि उत प्रौढ़ तिया रस घूमि । पुलांक पसीजति पूत पिय चूमो मुख चूमि ।—बिहारी (शब्द०) ।

घुमनि पु
संज्ञा स्त्री [हिं० घूमना] घूमने का भाव या स्थिति । उ०—कच लट गहि बदनन की चूमनि । नख नाराचन घायल घूमनि । नंद० ग्रं०, पृ० ३२२ ।

घूमनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूमना] सिर का चक्कर । घुमटा ।

घूमर पु †,घूमरा पु
वि० [हिं० घूमना] १. मत्त । मतवाला । उ०— रूप मतवारी घन आनँत सुजान प्यारी घूमरे कटाछि धूम करै कौन पै धिर ।—घनानंद, पृ० ४१ । २. हिलने वाला । घूमनेवाला । उ०—बहुरि अनेक अगाध जु सरवर । रस झूमरे घूमरे तरवर ।—नँद० ग्रं०, पृ० २८५ ।

घूर
संज्ञा पुं० [सं० कूट, हिं० कूरा] १. वह जगह जहाँ कूडा़ करकट फेंका जाय । करकट कूडा़, कतवार आदि फेकने या एकत्र करने का स्थान । २. कूडे़ का ढेर । ३. किसी पोली चीज में उसको भारी करने के लिये भरा हआ बालू और सुहागा आदि ।—(सोनार) ।

घूरघार
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूरना] दे० घूराघारी ।

घूरन पु
वि० [सं० घूर्ण] घुर्णित । मत्त । उ०—कृस्न रसासव अनिस पान तें घूरन पूरन काम खरे ।—घनानंद, पृ० ३६२ ।

घूरनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घूर्णन] घूरना । देखने की क्रिया । उ०— चुषनि चुवावनि चाटनि चूमनि । नहि कहि परति प्रेम की घुरनि ।—नंद ग्रं०, पृ० २६६ ।

घूरना
क्रि० अ० [सं० घूर्णन (= इधर उधर फिरना)] १. बार बार आँख गडा़कर बुरे भाव से देखना । बुरी नीयत से एक टक देखना । जैसे,—स्त्री घूरना । २. क्रोधपूर्वक एकटक देखना ।कुपित दृष्टि से ताकना । आँख निकालना । †३. घूमना । टहलना । (बिहार) ।

घूरा
संज्ञा पुं० [सं० कूट, हिं० कूरा ] १. कुडे़ करकट का ढेर । २. वह स्थान जहाँ कूडा़ नरकट फेंका जाता हो । कतवारखाना । उ०—मल से उपजा मल लिपटा मतिमलीन तू घूरा है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५५४ ।

घूराघारो
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूरना + घारना(अनु०)] घूरने की क्रिया । उ०—तुम अपने मुल्क की तरफ से लड़ने आए हो या घूराघारी करने आए हो ।—फिसाना०, भा० ३. पृ० १०३ ।

घूर्ण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घूमना । फिरना । चक्कर खाना । हिलना डुलना [को०] ।

घुर्ण (२)
वि० [सं०] घूमता हुआ । चक्कर खाता हुआ । २. भ्रांत । मत्त [को०] । यौ०—घूर्णवायु = चक्करदार हवा । बवंडर । घूर्णावर्त=भँवर उ०—शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़ ।—अनामिका, पृ १५३ ।

घूर्णन
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० घुर्णना] १. घूमना । चक्कर खाना । २. भ्रमण । घुमाना [को०] ।

घुर्णि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दे० 'घूर्णन' [को०] ।

घुर्णित
वि० [सं०] १. घूमता हुआ । चकराता हुआ । २. भ्रमित । उ०—कई यूगों से संतत, विचलित, मेरा नैशाकाश । दिशाशून्य, उडुरहित, तमोमय घूर्णित, व्यथित, निराश ।— अपलक, पृ० ३८ । यौ०—घूर्णित जल =आवत । भँवर । घूर्णित वायु= बवंडर ।

घूर्न पु
वि० [सं० घूर्ण] दे० घूर्ण (२) । उ०—बारुनी बस घूर्न लोचन बिहरत बन सचुपाए ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २५७ ।

घूर्मिल
वि० [सं० घूर्ण, हिं० घूर्म+इल (प्रत्य०)] घूमता हुआ । घुर्मित । उ०—भीड़ से शतमोह घूर्मिल ।—अर्चना, पृ० ७३ ।

घूस (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुहाशय (गुहा + शय) (=चूहा)] चूहे के वर्ग का एक बडा जंतु जो प्रायः पृथ्वी के अंदर बडे़ लंबे बिल खोदकर रहता है । एक प्रकार का बडा़ चूहा । घूँस । घुँइस ।

घूस (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० गुह्याशय (गुह्य + आशय) (गुप्त अभिप्राय से दिया हुआ घन)] वह द्रव्य जो किसी को अपने अनुकूल कोई कार्य कराने के लिये अनुचित रूप से दिया । रिशवत । उत्कोच । लाँच । जैसे—वह घूस देकर अपना काम निकालता है । उ०—कहैं करनेस अब घूस खात लाज नहीं रोजा औ निमाज अंत काम नहीं आवेंगे ।— अकंबरी०, पृ० ३३ । क्रि० प्र०—खाना ।—देना ।—लेना । यौ०—घूसखोर । घूसघास । घूस पच्चड़ = रिशवत ।

घूसखोर
वि० [हिं० घूस + फा० खोर ] घूस लेनेवाला । रिश्वती ।

घृणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [सं० घृणित] १. घिन । नफरत । २. वीभत्स रस का स्थायी भाव । ३. दया । करुणा । तरस ।

घृणालु
वि० [सं०] दयालु । करुणावाला [को०] ।

घृणावास
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्मांड । कोहँडा़ ।

घृणास्पद
वि० [सं०] घृणा करने योग्य [को०] ।

घृणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश की किरण । २. गर्मी । धूप । ज्वाला । ३. तरंग । लहर । ४. जल । ५. क्रोध । कोप । ६. सूर्य [को०] ।

घृणि (२)
वि० [सं०] १. चमकीला । २. अप्रिय [को०] ।

घृणिनिधि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] तरणि । सूर्य [को०] ।

घृणिनिधि (२)
संज्ञा स्त्री० गंगा नदी [को०] ।

घृणित
वि० [सं०] १. घृणा करने योग्य । २. जिसे देखकर या सुनकर घृणा पैदा हो । ३. तिरस्कृत । निंदित ।

घृणी
वि० [सं० घृणिन्] १. घृणा करनेवाला । २. कृपालु । दयालु । ३. प्रकाशमान् । दीप्त [को०] ।

घृण्य
वि० [सं०] दे० 'घृणित' ।

घृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घी । तपाया हुआ मक्खन । २. मक्खन (को०) । ३. जल । ४. तेजस । शक्ति (को०) । यौ० = घृतकरंज, घृतपर्ण, घृतपूर्णक = एक प्रकार का करंज वृक्ष । घृतकेश, घृतदीधिति, घृतप्रतीक, घृतप्रयस, घृतप्रसत्त = अग्नि ।

घृत (२)
वि० [सं०] १. आर्द्र किया हुआ । सिंचित । तर । २. घोतित । आलोकित [को०] ।

घृतकुमारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] घीकुवार । गुआरपाठा । गोंड़पट्ठा ।

घृतकुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. घी की कृत्रिम छोटी नदी । २. घी की धारा [को०] ।

घृतकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १ अग्नि । वह जिसकी दृष्टि स्निग्ध और सहानुभूतियुक्त हो [को०] ।

घृतधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घी की धारा । २. पश्चिम देश की एक नदी । ३. पुराणानुसार कुश द्वीप की एक नदी ।

घृतप
संज्ञा पुं० [सं०] १. आज्यप नाम के पितृगण । २. वह जो घृत पीए । घी पीनेवाला [को०] ।

घृतपूर
संज्ञा पुं० [सं०] घेवर नामक पकवान । वि० दे० 'घेवर' ।

घृतप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमेह रोग का एक प्रकार जिसमें मूत्र घी के समान गाढा़ और विकता हैता है ।

घृतमंड
संज्ञा पुं० [सं० घृत + मणड] घी का मैल जो मक्खन तपाने से निकलता है [को०] ।

घृतमंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० घृतमणडा] काकमाची । मकोय [को०] ।

घृतयाज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] घी की आहुति देते समय पढा़ जानेवाला मंत्र [को०] ।

घृतयोनि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि ।

घृतलेखनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काठ की बनी हुई घी निकालने की कलछी [को०] ।

घृतवत्
वि० [सं०] अतिशय चिक्कण । बहुत चिकना [को०] ।

घृतवर
संज्ञा पुं० [सं०] घेवर नामक मिठाई [को०] ।

घृतहेतु
संज्ञा पुं० [सं०] घी का कारण या मूल । मक्खन [को०] ।

घृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] काकमाची । मकोय [को०] ।

घृताक्त
वि० [सं०] घी से तर । घी चूपडा़ हुआ [को०] ।

घृताची
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वर्ग की एक अप्सरा । २. वह करछुली जिससे यज्ञों में घी अग्नि में डाला जाता है । श्रुवा । ३. कुशनाभ नामक एक प्राचीन राजा की रानी का नाम । ४. गायत्रीस्वरुपा देवी (को०) । यौ०— घृताचीगर्भसंभवा = बडी इलायची ।

घृतान्न
संज्ञा पुं० [सं० ] १. घृतयुक्त अन्न । २. प्रज्वलित अग्नि [को०] ।

घृतार्चि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रज्वलित अग्नि [को०] ।

घृताहवन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि [को०] ।

घृताहुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवन के समय अग्नि में घी डालने की क्रिया । घी की आहुति ।

घृताह्व
संज्ञा पुं० [सं०] तरल नाम का एक वृक्ष [को०] ।

घृती
वि० [सं० घृतिन्] घी से युक्त । घी से तर । घृताक्त [को०] ।

घृतेली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का कीडा । घी का कीडा । तैलपायिक । तेलचट्टा [को०] ।

घृतोदंक
संज्ञा पुं० [घृतोदङ्क] घी रखने का कुप्पा [को०] ।

घृतोद
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणों में वर्णित सात महासागरों में से एक । घृतसमुद्र ।

घृती
वि० [सं० घृणिन्] दयालु ।

घृष्ट
वि० [सं०] घिसा या रगडा हुआ [को०] ।

घृष्टि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घर्षण । रग़डा । २. विष्णुकांता । अपरा जिता । ३. होड । स्पर्द्धा [को०] ।

घृष्टि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा स्त्री० घृष्टी] शूकर । सूअर [को०] ।

घृष्ठला
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुश्निपर्णी । पिठवन [को०] ।

घृष्व
संज्ञा [सं०] १. शूकर । सूअर । २. घर्षण [को०] ।

घेंघ
संज्ञा पुं० [देश] १. एक प्रकार का भोजन जो चने की बहुरि को चावलों में मिलाकर पकाने से बनता है । २. गले का एक रोग । घेघा ।

घेँघा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घेघा' ।

घेँट †
संज्ञा पुं० [हिं० घाँटी] गला । गरदन ।

घेँटा
संज्ञा पुं० [अनु० घें घें] [स्त्री० घेंटी] सूअर का बच्चा ।

घेँटी † (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चने की फली जिसके अंदर बीज रूप से चना होता है । २. चने की फली के आकार की कोई वस्तु । ३. एक पक्षी ।

घेँटी † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाँटी या सं० कृकाटिका ] गले और कंधें का जोड़ ।

घेँटुला †
संज्ञा पुं० [हिं० घेंटा] [स्त्री० घेंटुलिया] सूअर का छोटा बच्चा ।

घेँडी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घी+हंडी] मिट्टी का पात्र जिसमें घी रखा जाता है । घिवहँड ।

घेघा
संज्ञा पुं० [देश०] १. गले की नली जिससे भोजन या पानी पेट में जाता है । २. गले का एक रोग जिसमें गले में सूजन होकर बतौडा़ सा निकल आता है । विशेष— यह रोग गोरखपुर, बस्ती आदि जिलों के निवासियों को बहुधा हुआ करता है ।

घेडौंची
संज्ञा स्त्री० [ देश०] दे० 'घनौंची' ।

घेतल
संज्ञा पुं० [ देश०] एक प्रकार का भद्दा जूता जिसका पंजा चपटा और मुडा हुआ होता है । इसे महाराष्ट्र या दक्षिणी अधिक पहनते हैं ।

घेतला
संज्ञा पुं० [ देश०] दे० 'घेतल' ।

घेमौची †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'घनौंची' ।

घेपना †
क्रि० स० [हिं० घोपना] १. हाथ पैर से रौदकर मिलाना । एक में लथपथ करना । २. खुरचना । छीलना । ३. स्त्री० प्रसंग करना ।— (बाजारु) ।

घेर
संज्ञा पुं० [हिं० घेरना] १. चारों ओर का फैलाव । घैरा । परिधि । २. घेरने की क्रिया या भाव । यौ०— घेरघार ।घेरदार ।

घेरघार
संज्ञा स्त्री० [हिं० घेरना] १. चारों ओर से घेरने या छा जाने की क्रिया । जैसे, — बादलों की घेरघार देखने से जान पडता है कि पानी बरसेगा । उ०— सब ओर सन्नाटा इस पर बादलों की घेरघार, पसारने पर हाथ भी नहीं सूझता ।— ठेठ, पृ० ३२ । २. चारों ओर का फैलाव । विस्तार । ३. किसी कार्य के लिये किसी के पास बार बार उपस्थित होने का कार्य । किसी के पास जाकर बार बार अनुरोध या विनय करने का कार्य । खुशामद । विनती । जैसे, — बिना घेरघार किए आजकल जगह नहीं मिलती ।

घेरदार
वि० [हिं० घेर + फा० दार] बडे घेरेवाला । बडे घेरे का । चौडा । जैसे, — घेरदार पायजाना ।

घेरना
क्रि० स० [सं०ग्रहण] १. चारो ओर से हो जाना । चारों ओर से छेंकना । सब ओर से आबद्ध करके मंडल या सीमा के अंदर लाना । बाँधना । जैसे, — (क) इस स्थान को टट्टियों से घेर दो । (ख) दुर्ग को खाई चारो ओर से घेरे है । (ग) इतना अंश लकीर से घेर दो । २. चारो ओर से रोकना । आक्रांत करना । छेंकना । ग्रसना । उ०— (क) धरम सनेह उभय मति घेरी । भइ गति साँप छुछुंदरि केरी । — मानस, २ ।५५ । (ख) गैयन घेरि सखा सब जाए । — सूर (शब्द०) । (ग) बाल बिहाल वियोग की घेरी ।— पद्माकर (शब्द०) । ३. गाय आदि चौपायों की चराई करना । चराने का काम अपने उपर लेना । चराना । ४. किसी स्थान को अपने अधिकार में रखना । स्थान छेंकना या फँसाए रखा ।५. सेना का शत्रु के किसी नगर या दुर्ग के चारों ओर आक्रमण के लिये स्थित होना । चारों ओर से अधिकार करने के लिये छेंकना । ६. किसी कार्य के लिये किसी के पास बार बार जाकर अनुरोध या विनय करना । खुशामद करना । जैसे,— हमको क्यों घेरते हो; हम इस मामले में कुछ भी नहीं कर सकते । यौ०— घरना घारना ।

घेरा
संज्ञा पुं० [हिं० घेरना] १. चारों ओर की सीमा । किसी तल के सब ओर के बाहरी किनारे । लंबाई चौडाई आदि का सारा विस्तार या फैलाव । परिधि । जैसे—(क) वह बगीचा दो मील के घेरे में है । (ख) उस घेरे के अंदर मत जाओ ।(ग) इस अँगरखे का घेरा बहुत कम है । २. चारों ओर की सीमा की माप का जोड । परिधि का मान । जैसे,— इस बगीचे का घेरा दो मील है । ३. वह वस्तु जो किसी स्थान के चारों ओर हो (जैसे दीवार आदि) वह जो किसी जगह को चारों ओर से घेरे हो । ४. घिरा हुआ । स्थान । हाता । मंडल । जैसे, — उस घेरे के अंदर मत जाना । ५. किसी लंबे ओर घन पदार्थ की चौडाई और मोटाई का विस्तार । पेटा । जैसे— इस धरन का घेरा ५० इंच है । ६. सेना का किसी दुर्ग या गढ को चारों ओर से छेंकने का काम । चारों ओर मे आक्रमण । मुहासरा । क्रि० प्र०— डालना । पडना ।

घेराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० ?/घेर + आई (प्रत्य०) ] दे० 'घिराई' ।

घेराबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घेरा +फा बंदी ] किसी के चारों ओर घेरा जालने की स्थिति या भाव ।

घेराव
संज्ञा पुं० [हिं० घेर + आव (प्रत्य०) ] दे० 'घिराव' ।

घेरुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० घेरना] वह छोटा गड्ढा जो नाली आदि में पानी रोकने के लिये बनाया जाता है । झिर्री ।

घेरेदार
वि० [हिं०] चारो ओर से धिरा हुआ । घेरेदार । उ०— इनके समाज में पत्थर के घेरेदार कुछ मकान भी संभवतः बनाए जाते थे ।— प्रा० भा० प०, पृ० ९६ ।

घेलुआ †
संज्ञा पुं० [हिं० घाअ] दे० 'घेलौना' ।

घेलौना †
संज्ञा पुं० [हिं० घाल] थोडे मूल्य की वस्तुओं की बिक्री में उतनी वस्तु जितनी सौदे के ऊपर दी जाती है । वह अधिक वस्तु जो ग्राहक को उचित तौल के अतिरिक्त दी जाय । घाल । घलुआ ।

घेवर
संज्ञा पु० [सं० घृतपूर, या घृतवर, प्रा० घयबर या हिं० घी + पूर] एक प्रकार की मिठाई जो पतले घुले हुए मैदे, घी और चीनी से बनाई जाती है और बडी टिकिया या खजले के आकार की और सूराखदार होती है । उ०— (क) सु ते बर घेवर पैसल लागि । लखै चख फेरि गई उर आगि ।— पृ० रा० ६३ ।७४ । (ख) घेवर अति घिरत चभोरे । लै खाँड सरस बोरे । — सूर० १० ।१८३ ।

घेवरनापु
क्रि० स० [सं० घृतवर] लगाना । पोतना । लेपकरना । उ०(क) सेंदुर सीस चढाएँ चंदन घेवरें देह । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ४६४ । (ख) हिआ देखि सो चंदन घेवरा मिलि कै लिखा बिछोव । — जायसी ग्रं (गुप्त) , पृ० २५५ ।

घेसी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का देवदार जो हिमालय में होता है । इसकी लकडी भूरे रंग की होती है । बरचर ।

घैंचनापु †
क्रि० स० [सं० कर्षण, प्रा० खंचण] दे० 'घींचना' । उ०— उनहूँ कै घैच मारि जम वाना । — दे० सागर, पृ० ४७ ।

घैंटा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घेंटुला' ।

घैंसाहर पु
संज्ञा स्त्री० [देश०?] फौज । सेना । लशकर ।—(डिं०) ।

घैया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० घी या सं० घात अथवा देश०] १. गाय के थन से निकली हुई दूध की धार जो मुँह लगाकर पी जाय । उ०— आई छाक अवार भई हैं नैंसुक घैया पिएउ सबरे ।—सूर० १ ।४६३ । २. ताजे और बिना मथे हुए दूध के ऊपर उतराते हुए मक्खन को काछकर इकट्ठा करने की क्रिया । उ०—(क) कजरी धौरी सेंदुरी धुमरी मेरी गैया । दुहि ल्याऊँ मैं तुरत ही तू करि दे घैया ।—सूर० १० ।७२५ । २. किसी पेड़ या लकडी़ आदि को काटने अथवा उसमें से रस आदि निकालने के लिये शस्त्र से पहुँचाया हुआ आघात ।

घैया (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घाई या घा] ओर । तरफ । दिशा । उ०—सोहर शोर मनोहर नोहर माचि रह्यौ चहुँ घैया ।— रघुराज (शब्द०) ।

घैर †पु
संज्ञा पुं० [देश०] १. निंदामय चर्चा । बदनामी । अपयश । (गुप्त) उपहास । उ०—चलत घैर घर घर तऊ घरी न घर ठहराइ ।—बिहारी (शब्द०) । २. चुगली । गुप्त शिकायत । उ०—तोहि न रूसनो योग बलाय ल्यौं घैर किये मत काहू के लागही । रघुनाथ (शब्द०) ।

घैरो †
वि० [हिं० घैर] बदनामी करनेवाला । उ०—है री वह बैरी घैरी उघंरयौ विगोवनि पै ओछौ जरि गयो गोवै महा भेद बात कों ।—घनानंद, पृ० ६२ ।

घैरु †पु, घैरो †पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घैर' ।

घैला †
संज्ञा सं० [ सं० घट] [स्त्री० अल्पा० घैली] घडा़ । कलसा । गगरा ।

घैहल †
वि० [हिं० घाव, घायल या घात ] जिसको घाव लगा हो । जख्मी । घायल ।

धैहा †
वि० [हिं० घाव] घायल । जख्मी । चुटीला ।

घोंघ
संज्ञा पुं० [सं० घोङ्घ] बीच का अंतर या अवकाश [को०] ।

घोंटा, घोंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० घोण्टा, घोण्टी] १. उन्नाव का वृक्ष । २. कर्कंधू । बदरी वृक्ष या फल । ३. सुपारी का वृक्ष [को०] ।

घोंगा †पु
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घोंघा' । उ०—हमरे राम नाम बस्तू है खलक लेन चहे घोंगा ।—गुलाल०, पृ० २७ ।

घोघा
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का पक्षी ।

घोंघची पु
संज्ञा स्त्री० [सं० गुञ्चा देश०] दे० 'घुँघची' ।

घोंघा (१)
संज्ञा पुं० [अनुकरणात्मक देश०] [स्त्री० घोंघी] १. शंख की तरह का एक कीडा़ जो प्रायः नदियों तालाबो तथा अन्य जलाशयों में पाया जाता है । विशेष—इसकी बनावट घुमावदार होती है, पर इसका मुँह गोल होता है, जो खुल सकता और बंद हो सकता है । इसके ऊपर का अस्थिकोश शंख से बहुत पतला होता है । वैद्यक में घोंघे का मांस मधुर और पित्तनाशक माना जाता है । घोंघे का चूना भी बनता है । पर्या०—शंबु । शंबुक । शंबुक्क । २. गेहुँ की बाल में वह त्रोश या कोथली जिसमें दाना रहता है ।

घोँघा (२)
वि० १. जिसमें कुछ सार न हो । सारहीन । २. मूर्ख । जड़ । बेवकूफ । गावदी । यौ०—घोंघा बसंत = महामूर्ख । गावदी ।

घोँघी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घोंघा' । उ०—हंस चुगैं ना घोंघी, सिंह चरै न घास ।—पलटू०, पृ० १७७ । † २ दे 'घुग्घं' ।

घोँचवा †
संज्ञा पुं० [देश० या हिं० घोंचा+वा (स्वा० प्रत्य०)] एक प्रकार का बैल । घोघा ।

घोँचा
संज्ञा सं० [ हिं० गुच्छा] १. गौद । गुच्छा । घौद । स्तवक । २. वह बैल जिसके सींग मुडकर कान से जा लगे हों ।

घोँची
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोंचा ] वह गाय जिसके सींग कानों की ओर मुडे़ हों ।

घोँचुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घोंसुआ' ।

घोँचू †
वि० [देश०] मूर्ख । गदाई ।

घोँट
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक जंगली वृक्ष जो बहुत बडा़ होता है । इसकी लकडी़ मजबूत होती है और किसानी के औजार बनाने के काम में आती है । २. घूँट नामक वृक्ष ।

घोँटना (१) †
क्रि० स० [हिं० घूँट पूर्वी हिं० घोंट] १. घूँटघूँट करके पीना । पानी या और किसी द्रव पदार्थ को थोडा़ थोडा़ करके गले के नीचे उतारना । पीना । उ०—नाम पियाला घोंटि कै कछु और न मोहि चही—जग० बानी०, पृ० ९ । २. किसी दूसरे का वस्तु लेकर न लौटाना । हजम करना । पचाना ।

घोँटना (२)
क्रि० स० [सं० घूट] १. (गला) इस प्रकार दबाना कि दम रुक जाय । (गला) मरोड़ना । जैसे—चोर ने लड़के का गला घोंट दिया । २. दे० 'घोटना' ।

घोँटा (१)
संज्ञा पुं० [सं० घोण्टा ] १सुपारी । उ०—घोंटा क्रमुक गुवाक पुनि पूग सुपारी आहि ।—अनेकार्थ०, पृ० १०१ । २. दे० 'घोंटा' ।

घोटा (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० घूँट] [स्त्री० घोंटी] दे० 'घूँट' । उ०— (क) बिजया जीव मिलाइ कै निर्मल घोंटा लेई ।—भीखा० श०, पृ० ९९ । (ख) नारी घोंटी अमल की अमली सब संसार ।—मलूक०, पृ० ९९ ।

घोंटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूँट] दे० 'घूट्टी' ।

घोँटू †
वि० [हिं० घोंटना ] १. घोटनेवाला । जैसे,—गलाघोंटू, दम— घोंटू । २. रटनेवाला । रट्टु ।

घोँपना
क्रि० स० [अनु० घप्] १. भोंकना । धँसाना । चुभाना । गडा़ना । २. बुरी तरह सीना । गाँठना ।

घोँरि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० घौंर] दे० 'घौद' । उ०—कनकलता मानहुँ फली मरकत मनि की घोंरि ।—स० सप्तक, पृ० २६९ ।

घोँसना †पु
क्रि० स० [देश०] दे० 'कोसना' । उ०—अनेक जनों को तो घोंस घोंसकर आपने मार ही डाला ।—प्रेमघन०, भा० २. पृ० ८० ।

घोँसला
संज्ञा पुं० [देश० अथवा सं० कुशालय] वृक्ष, पुरानी दीवार के मोखे आदि पर खर, पत्ते, घास फूस और तिनके आदि से बना हुआ वह स्थान जिसमें पक्षी रहते हैं । चिड़ियों के रहने और अंडे देने का स्थान । नीड़ । खोता । क्रि० प्र०—बनाना ।—रखना ।—लगाना ।

घोंसुआ †पु
संज्ञा पुं० [हिं० घोंसला ] घोंसला । खोता । उ०—बचै न बडी सबील हू चील घोंसुआ माँस ।—बिहारी (शब्द०) ।

घोक †पु
संज्ञा पुं० [सं० घोष] शब्द । ध्वनि । उ०—बडे घोक चावाँ । घडी दोय घावाँ ।—रा० रू०, पृ० १९२ ।

घोखना
क्रि० स० [सं० √ घुष्] धारणा के लिये बार बार पढना । स्मरण रखने के लिये बार बार उच्चारण करना । पाठ की बार बार आवृत्ति करना । रटना । घोटना ।

घोखवाना
क्रि० स० [हिं० घोखना का प्रे० रूप ] बार बार कह — लाना । याद कराना । रटवाना ।

घोखाना
क्रि० स० [हिं० घोखना ] दे० 'घोखवाना' ।

घोखू
वि० [हिं० घोखना] बार बार पाठ य़ाद करनेवाला । रट्ठू । उ०—परीक्षा का फल प्रगट होते होते उसके अधिकांश रट्ठू और घोखू मित्र उससे मीलों पीछे छूट जाते ।—शराबी, पृ० ३७ ।

घोगर
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड । वि० दे० 'खरपत' ।

घोघ †
संज्ञा पुं० [देश०] बटेर फँसाने का जाल ।

घोघट †पु
संज्ञा पुं० [सं० अवगुण्ठन] दे० 'घुँघट' । उ०—खने खने घोघट विघट समाज । खने खने अब हकारलि लाज ।— विद्यापति, पृ० ६ ।

घोघा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का छोटा कीडा जो चने की फसल को हानि पहुँचाता है । य़ह कीडा सरदी से पैदा होता और चने की घेंटियों के अंदर घुसकर दाने खा जाता है, जिससे खाली घेंटी ही घेंटी रह जाती है ।

घोघी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घुग्घी' । उ०—पौला सबके पगन । सीस घोघी के छतरी । प्रेमघन०, भा० १. पृ० ४८ ।

घेचिल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिडिया ।

घोट (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. घोडा । अश्व ।२. (लाक्षणिक) घोडे के समानअर्थात् युवक । युवा पुरुष । उ०—उत्तर आज स उत्तरइ ऊपडिया सी कोट । कार्य रहेसई पोयणी कार्य कुवाँरा घोट ।—ढोला०, दू० २९६ ।

घोट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घोंटना] घोंटने की क्रिया या भाव ।

घोटक
संज्ञा पुं० [सं०] घोडा । अश्व । यौ०—घोटकमुख = दे० 'घुडमुहाँ' ।

घोटकारि
स्त्री० पुं० [सं० ] घोडे का शत्रु । भैंसा । महिष [को०] ।

घोटडा †
संज्ञा पुं० [हिं० घोट + डा (प्रत्य०) ] युवक । उ०—उज्जल दंता घोटडा करहइ चढियउ जाहिं । ढोला०, दू० १३६ ।

घोटना
क्रि स० [सं० √ घुट् = आवर्तन या प्रतिघात करना ] १. किसी वस्तु को दूसरी वस्तु पर इसलिये बार बार रगडना कि वह दूसरी वस्तु चिकनी और चमकीली हो जाय । जैसे,— कपडा घोटना, तख्ती घोटना, दीवार घोटना । कागज घोटना । २. किसी वस्तु को बट्टे या और दूसरी वस्तु से इसलिये बार बार रगड़ना कि वह बहुत बारीक पिस जाय । रगड़ना । जैसे,—भाँग घोटना, सुरमा घोटना । विशेष—घिसने और घोटने में यह अंतर है कि घिसने का प्रभाव, जो वस्तु ऊपर रखकर फिराई जाती हे, उसपर वांछित होता है । जैसे—चंदन घिसना; पर घोटने का प्रभाव आधार (जैसे,— कपडा, कागज आदि) या उसपर रखी हुई किसी वस्तु (जैसे, सिल पर रखी हुई बादाम, भाँग आदि) पर वांछित होता है । जैसे,—कपडा घोटना, भाँग घोटना । पीसने का प्रभाव केवल आधार पर रखी हूई वस्तु ही पर वांछित होता है । जैसे,—भाँग पीसना, आटा पीसना । रगड़ने और घोटने में भी वही अंतर है, जो घिसने और घोटने में है । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । ३. किसी पात्र में रखकर कई वस्तुओं को बट्टे आदि से रगड़कर परस्पर मिलाना । हल करना । ४. कोई कार्य, विशेषतः लिखने पढ़ने का कार्य, इसलिये बार बार करना कि उसका अभ्यास हो जाय । अभ्यास करना । मश्क करना । जैसे,—सबक घोटना, पट्टी या तख्ती घोटना । ५. डाँटना । फटकारना । बहुत बिगड़ना । जैसे,—अफसर ने बुलाकर उन्हें खूब घोटा । ६. छूरा या उस्तरा फेरकर शरीर के बाल दूर करना । मूडना । ७. (गला) इस प्रकार दबाना कि साँस रुक जाय । (गला) मरोड़ना । मुहा—गला घोटना = दे० 'गला' में मुहा० ।

घोटना (२)
संज्ञा पुं० १. घोटने का औजार । वह वस्तु जिससे कुछ घोटा जाय । जैसे—भँगघोटना । उ०—काया कुंडी करै पवन का घोटना । पल्टू—पृ० ९४ । २. रँगरेजों का लकडी का वह कुंदा जो जमीन में कुछ गडा रहता है और जिस पर रखकर रँगे कपडे घोटे जाते हैं ।

घोटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोटना] वह छोटी वस्तु जिसमें या जिससे कोई वस्तु घोटी जाय ।

घोटवाना
क्रि० स० [हिं० घोटना का प्रे० रुप] १. रगडवाना । घोटकर चिकना करना । २. पालिश कराना । ३. कुंदी कराना । ४. सिर या दाढी आदि के बाल बनवा डालना ।

घोटा
संज्ञा पुं० [हिं० घोटना ] १. वह वस्तु जिससे घोटने का काम किया जाय । २. रँगरेजों का एक औजार जिसे वे रँगे हुए कपडों पर चमक लाने के लिये रगडते हैं । दुवाली । मोहरा । ३. घुटा हुआ चमकीला कपडा । ४. भाँग घोटने का सोंटा या डंडा । ५. बाँस का वह चोंगा जिससे घोडों, बैलों आदि पशुओं को नमक, तेल या ओर कोई औषध पिलाई जाती है । ६. नग जडियों का एक औजार जिससे वे डाँक को चमकीला बनाते हैं । विशेष—इस औजार में बाँस की नली में लाखदेकर गोरा पत्थर का एक टूकडा जिपकाया रहता है । इसी से जाँक को रगडकर चमकदार करते हैं । ७. रगडा । घुडाई । घोटने का काम । ८. क्षौर । हजामत । क्रि० प्र०—फिरवाना ।

घोटाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोटाना + आई (प्रत्य०) ] १. घोटने का भाव । २. घोटने की क्रिया । ३. घोटने की मडदूरी ।

घोटाघौवा
संज्ञा पुं० [देश०] रेंवदचीनी की जाति का एक पेड़ । कनकुटकी । रेवाचीनी । सीरा । विशेष—यह वृक्ष खासिया की पहाडियों, पूरबी बंगाल तथा लंका आदि में विशेष होता है । इसमें से एक प्रकार की राल निकलती है, जो रँगाई तथा दवा के काम में आति है ।

घोटाला
संज्ञा पुं० [देश०] घपला । गडवड । गोलमाल । यौ०—गडबड घोटाला । क्रि प्र०—करना ।—डालना ।—पडना । मुहा०—घोटाले में पडना = निश्चित या ठीक न होना । अस्थिर रहना ।

घोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोडी [को०] ।

घोटी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'घोटिका' ।

घोटी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० घूट] दे० 'घुट्टी' । उ०—यह कंठी माला पहना देना और यह बीडा जन्म घोटी में पिला देना । — भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ५३९ । यौ०—जन्म घोटी ।

घोटू †
संज्ञा पुं० [हिं० घोटना ] १. वह जो घोटे । घोटनेवाला । २. घोटने का औजार । घोटा ।

घोटू (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घुटना] पैर की गाँठ । घुटना ।

घोठ
संज्ञा पुं० [सं० गोष्ठ] गोठ । गोष्ठ ।

घोड †
संज्ञा पुं० [सं० घोटक ] घोडा । यौ०—घोडचढा ।घोडदौड आदि ।

घोडचढा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घुडचढा' ।

घोडदौड
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घुडदौड' ।

घोडबच
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + बच ] बच नाम की ओषधि की एक किस्म जो घोडों को ही दी जाती है ।

घोडमुहा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'घुडमुहाँ ।

घोडराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + राई] वह राई जिसके दाने कुछ बडे बडे होते हैं । यह मसाले के साथ घोडों को खिलाई जाती है ।

घोड़ रासन
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा + रासन] एक प्रकार का रासन या रास्ना । वि० दे० 'रास्ना' ।

घोड़राज
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा + रोज] एक प्रकार का रोज या नीलगाय । विशेष—यह घोडे की भाँति बहुत तेज भागता है । कहीँ कहीं लोग इसे पालतू बनाकर गाडियों में भी जोतते हैं । इसको घोडरोछ, घोडरोझ भी कहते हैं ।

घोड़ला पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घोड + ला (प्रत्य०)] घोडा । उ०—ज्ञान को घोडला सून्य में दौरिया, सुरति है सब्द सारा । —सं० दरिया, पृ० ७६ ।

घोड़सन
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा + सन] एक प्रकार का सन ।

घोडसार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + शाला] घोडा बाँधने का स्थान । अस्तबल । पैंड़ा ।

घोडसाल †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'घोडसार' ।

घोड़ा
संज्ञा पुं० [सं० घोटक, प्रा० घोडा] [स्त्री० घोड़ा] १. चार पैरोंवाला एक प्रसिद्ध और बडा पशु । अश्व । वाजि । तुरंग । विशेष—इसके पैरों में पंजे नहीं होते, गोलाकार सुम (टाप) होते हैं । यह उसी जाति का पशु है, जिस जाति का गदहाहै, पर गदहे से यह मजबूत, बडा और तेज होता है । इसके कान भी गदहे के कानों से छोटे और खडे होते हैं । इसकी गरदन पर लंबे लंबे बाल होते हैं और पूँछ नीचे से ऊपर तक बहुत लंबे बालों से ढकी होती है । टापो के ऊपर और घुटनों के नीचे एक प्रकार के घट्टे या गाँठे होती हैं । घोडे बहुत रंगों के होते हैं जिनमें से कुछ के नाम ये हैं— लाल, सुरंग, कुम्मैत, सब्जा, मुश्की, नुकरा, गर्रा, बादामी, चीनी, गुलदार, अबलक इत्यादि । बहुत प्राचीन काल से मनुष्य घोडे से सवारी का काम लेते आ रेह हैं, जिसका कारण उसकी मजबूती और तेज चाल है । पोइया, दुलकी, सरपट, कदम, रहवाल, लँगूरी आदि इसकी कई चालें प्रसिद्ध हैं । घोडे की बोली को हिनहिनाना कहते हैं । जिसमें घोडों की पहचान चाल, लक्षण आदि का वर्णन होता है; उस विद्या को शालिहोत्र कहते हैं । शालिहोत्र ग्रंथों में घोडों के कई प्रकार से कई भेद किए गए हैं । जैसे,—देशभेद से उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और नीच; जातिभेद से ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र, तथा गुणभेद से सात्विक, राजसी और तामसी । इनकी अवस्था का अनुमान इनके दाँतों से किया जाता है । इससे दाँतों की गिनती और रंग आदि के अनुसार भी घोडों के आठ भेद माने गए हैं—कालिका, हरिणी, शुक्ला, काचा, मक्षिका शंख, मुशलक और चलता । प्राचीन भारतवासियों को जिन जिन देशों के घोडों का ज्ञान था, उनके अनुसार उन्होंने, उत्तम, मध्यम आदि भेद किए हैं । जैसे,—ताजिक, तुषार और खुरासान के घोडों का उत्तम; गोजिकाण केकाण और प्रौढाहार के घोडों का मध्यम, गाँधार, साध्यवास और सिंधुद्वार के घोडों को कनिष्ठ कहा है । आजकल अरब, स्पेन, पलैइर्स, नारफाक आदि के घोडे बहुत अच्छी जाति हे गिने जाते हैं । नैपाल और बरमा के टाँगन भी प्रसिद्ध है । भारतवर्ष में कच्छ, काठिया- वाड और (पाकिस्तान में) सिंध के घोडे उत्तम गिने जाते हैं । शालिहोत्र में रंग, नाम और भँवरी आदि के अनुसार घोडे स्वामियों के लिये शुभ या अशुभ फल देनेवाले समझे जाते हैं । जैसे,—जिसके चारों पैर दोनों आँखें सफेद हों, कान और पूँछ छोटी हो, उसे चक्रवाक कहते हैं । यह बहुत प्रभुभक्त और मंगलदा यक समझा जाता है । इसी प्रकार मल्लिक, कल्याणपंचक, गजदंत, उष्ट्रदंत आदि बहुत से भेद किए गए हैं । गरदन पर अयाल के नीचे या पीठ पर जो भौरी (घूमे हुए रोएँ) होती है, उसे साँपिन कहते हैं । उसका मुँह यदि घोडे के मुँह की ओर हो, तो वह बहुत अशुभ मानी जाती है । भौंरियों के भी कई नाम हैं । जैसे,— भुजबल (जो अगले पैरों के उपर होती है), छत्रभंग (जो पीठ या रीढ के पास होती है और बहुत अशुभ मानी जाती है), गंगापाट (तंग के नीचे) आदि । घोडों के शुभाशुभ लक्षण फारसवाले भी मानते हैं; इससे हिंदुस्तान में घोडे से संबंध रखनेवाले जो शब्द प्रचलित हैं, उनमें से बहुत से फारसी के भी हैं । जैसे,—स्याहतालू, गावकोहान आदि । पर्या०—घोटक । तुरग । अश्व । बाजी । बाहु । तुरंगम । गंधर्व । हय । सैंधव । हरि । वीती । जवन । शालिहोत्र । प्रकीर्णव । वातायन । चामरी । मरुद्रथ । राजस्कंध । विमानक । वह्नि । दधिका । उच्चैःश्रवा । आशु । अरुष । पतंग । नर । सुपर्णसु । मुहा०—घोडा उठाना = घोडे को तेज दौडाना । घोडा उलाँगना = किसी नए घोडे पर पहले पहल सवार होना । घोडा कसना = घोडे पर सवारी के लिये जीन या चारजामा कसना । घोडा खोलना = (१) घोडे का साज या चारजामा उतारना । (२) घोडे को बंधमुक्त करना । (३) घोडा चुराना या छीनना । जैसे,—चोर घोडा खोल ले गए । घोडा छोडना = (१) किसी ओर घौडा दौडाना । किसी के पीछे घोडा दौडाना । (२) घोडे को घोडी से जोडा खाने के लिये छोडना । घोडे का घोडी से समागम करना । (३) घोडे को उसके इच्छानुसार चलने देना । (४) दिग्विजय के लिये अश्वमेध का घोडा छोडना कि वह जहाँ चाहे वहाँ जाय । (५) घोडे का साज या चारजामा उतारना । दे० 'घोडा खोलना' ।(६) मजाक करना । कोई ऐसी भोंडी बात कहना जिससे लोग हँसें । विशेष—भाँडों के खेल तमाशे में अभिनेता शुरु शुरु में अपने काल्पनिक घोडे की हास्यपरक प्रशस्ति करते हुए अपना अपना परिचय देते हैं । इसी से इस अर्थ में यह मुहावरा बोलचाल में प्रचलित है । घोडा डालना = किसी ओर वेग से घोडा बढाना । जैसे,—उसने हिरन के पीछे घोडा डाला । घोडा देना = घोडी को घोडे से जोडा खिलाना । घोडा निकालना = (१) घोडे को सिखलाकर सवारी के योग्य बनाना । (२) घोडे को आगे बढा ले जाना । घोडे पर चढे आना = किसी स्थान पर पहुँचकर वहाँ से लौटने के लिये जल्दी मचाना । घोडा पलाना = घोडे पर काठी या जीन कसना । घोडा फेँकना = वेग से घोडा दौडाना । घोडा फेरना = (१) घोडे को सिखाकर सवारी के योग्य बनाना । (२) घोडे को दौडने का अभ्यास कराने के लिये एक वृत्त में घुमाना । कावा देना । घोडा बेचकर सोना = खूव निश्चित होकर सोना । गहरी नींद में सोना । घोडा भर जाना = चलते चलते घोडे का दस भर जाना । घोडे का थक जाना । घोडा मारना = घोडे को तेज दौडाने के लिये मारना । घोडे को मार मारकर खूब तेज बढाना । २. घोडे के मुख के आकार का वह पेंच या खटका जिसके दबाने से बंदूक में रंजकलगती है और गोली चलती है । उ०—तोडा सुलगत चढे रहैं घोडा बंदूकन ।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ५२४ । क्रि० प्र०—चढाना । दबाना । ३. घोडे के मुख के आकार का टोटा जो भार सँभालने के लिये छज्जे के नीचे दीवार में लगाया जाता है । यह काठ का भी होता है और पत्थर का भी । ४. शतरंज का एक मोहरा जो ढाई घर चलता है । ५. कसरत के लिये लकडी का एक मोटा कुंदा जो चार पायों पर ठहरा होता है और जिसे लड़के दौड़कर लाँघते हैं । ६. कपडे आदि टाँगने की खूँटी ।

कोडा करंज
संज्ञा पुं० [सं० घृतकरञ्ज ] एक प्रकार का करंज जोचर्मरोग और बवासीर तथा विष को दूर करनेवाला माना जाता है ।

घोडागाडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + गाडी] १. वह गाडी जो घोडे द्वारा चलाई जाती है । २. वह गाडी जो डाक के थैले ऐसी जगह पहुँचाती हैं, जहाँ रेल इत्यादि नहीं गई रहती । बहुधा इस गाडी में घोडे ही जोते जाते हैं । डाकगाडी । मेल कार्ट ।

घोडाचोली
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + चोला (= शरीर)] वैद्यक की एक प्रसिद्ध ओषधि जो अनुपान के भेद से बहुत से रोगों पर दी जाती है ।

घोडानस
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + नस] वह मोटी नस जो पैर में एडी से ऊपर की ओर गई होती है । विशेष—कहते हैं, यह नस कट जाने पर आदमी या पशु मर जाता है क्योंकि शरीर का प्रायः सारा रक्त इसी के मार्ग से निकल जाता है ।

घोडानीम
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + नीम] बकाइन वृक्ष ।

घोडापलास
संज्ञा पुं० [देश०] मालखंभ की एक कसरत । विशेष—इसमें एक हाथ मालखंभ पर उलटा ऐंठकर सामने रखते हैं और दूसरे से मोगरे को पकडते हैं । जिधर का हाथ मोगरे पर होता है, उसी ओर का पाँव मालखंभ पर फेंककर सवारी बाँधते हैं और दोनों हाथ निकाले हुए ताल ठोकते हैं । इसमें मुँह फूटने का डर रहता है ।

घोडाबच
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + बच] खुरासानी बच जो सफेद होती है और जिसमें बडी उग्र गंध होती है ।

घोडाबाँस
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा + बाँस ] एक प्रकार का बाँस जो पूर्वी बंगाल और आसाम में बहुत होता है ।

घोडाबेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा + बेल] एक लिपटनेवाली लता जिसकी जडे गँठीली होती हैं । विशेष—इसकी पत्तियाँ एक बालिश्त के सींकों में लगती हैं और पतझड में झड जाती हैं । चैत, बैशाख में यह बैल घनी मंजरी के रूप में फूलती है । यह बैल बुंदेलखंड तथा उत्तरीय भारत के कई भागों में मिलती है । बिलाईकंद इसी की जड है । इसे सुराल और सरवाला भी कहते हैं ।

घोडिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडी + इया (प्रत्य०)] १. छोटी घोडी । २. दीवार गडी हुई खूँटी जिससे कपडे लटकाए जाते हैं । ३. छोटा घोडा । ४. जुलाहों का एक औजार । वि० दे० 'घोडी' ।

घोडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० घोडा] घोडे की मादा । २. पायों पर खडी काठ की लबी पटरी जो पानी के घडे रखने, गोटे पट्टे की बुनाई में तार कसने, सेंवई पूरने, सेव बनाने आदि बहुत से कामों में आती है । पाटा । ३. दूर दूर रखे हुए दो जोडे बाँसों के बीच में बंधी हुई डोरी या अलगनी जिसपर धोबी कपडे सुखाते हैं । ४. विवाह की वह रीति जिसमें दूल्हा घोडी पर चढकर दुलहिन के घर जाता है । मुहा—घोडी चढना = दूल्हे का बारात कै साथ दुलहिन के घर जाना । ५. वे गीत जो विवाह में वरपक्ष की ओर से गाए जाते है । ६. खेल में वह लडका जिसकी पीठ पर दूसरे लडके सवार होते हैं । ७. जुलाहों का एक औजार जिसमें दोहरे पायों के बीच में एक डंडा लगा रहता है । विशेष—कपडा बुनते बुनते जब बहुत थोडा रह जाता है, तब वह झुकने लगता है । उसी को ऊँचा करने के लिये यह काम में लाया जाता है । ८. हाथी दाँत आदि का वह छोटा लंबोतरा टुकडा जो तंबूरे, सारंगी, सितार आदि में तूँबे के ऊपर लगा हूआ होता है और जिस पर से होते हूए उसके तार टिके रहते हैं । जवारी ।

घोण (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बहुत प्राचीन काल का एक बाजा जिसमें तार लगे रहते थे । उन्हीं तारों को छेडने से यह बजता था ।

घोण (२) †पु
संज्ञा [सं० घोणा] नासिका । नाक ।—(डिं०) ।

घोणस
संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार का साँप [को०] ।

घोणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नासिका । नाक । २. घोडे या सूअर का थूथन । ३. ऊल्लू पक्षी की चोंच । ४. एक पौधा [को०] ।

घोणी
संज्ञा पुं० [सं० घोणिन्] शूकर । सूअर [को०] ।

घोनस
संज्ञा पु० [सं०] दे० 'घोणस' ।

घोमसा
संज्ञा [देश०] एक प्रकार की घास ।

घोर (१)
वि० [सं०] भयंकर । भयानक । डरावना । विकराल । २. सघन । घना । दुर्गम । जैसे—घोर वन । ३. कठिन । कडा । जैसे—घोर गर्जन, घोर शब्द । ४. गहरा । गाढा । जैसे—घोर निद्रा । ५. बुरा । अति बुरा । जैसे,—घोर कर्म, घोर पाप । ६. बहुत अधिक । बहुत ज्यादा । बहुत भारी । उ०—ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहती हैं ।—भूषण (शब्द०) ।

घोर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव का एक नाम । २. विष (को०) । ३. भय । डर (को०) । ४. पूज्य भाव (को०) । ५. जाफरान (को०) । ६. स्कंद के पारिषदगण की उपाधि । उ०—स्कंद के परिषदगण घोर कहे कए हैं । प्रा० भा० प्र० पृ० १०८ ।

घोर (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० धुर] शब्द । गर्जन । ध्वनि । आवाज । उ०—(क) कहि काकी मन रहत श्रवण सुनि सरस मधुर मुरली की घोर ।—सूर (शब्द०) । (ख) घिर कर तेरे चारों ओर, करते हैं घन क्या ही घोर ।—साकेत, पृ० २५५ ।

घोर (४)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा] दे० 'घोडा' ।उ०—(क) चोर मोर घोर पानी पीयें बडे भोर ।—(कहा०) । (ख) हस्ति घोर और कापर सबहिं दीन्ह नव साज ।—जायसी ग्रं० पृ० १४६ ।

घोर (५)पु
संज्ञा पुं० [फा० गोर] कब्र । समाधि । उ०—परयौं हुसेन सुपाच सुनि चिंतिय चित्त इमांन । सजौं घोर हुस्सेन सथ करौं प्रवंस अपांन ।—पृ० रा० ९ ।२०८ ।

घोर (६) †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'घोल' ।

घोर
७ क्रि० वि० अत्यंत । बहुत । जैसे—घोर निर्दय ।

घोरघुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कांस्य । काँसा । २. पीतल [को०] ।

घोरघोरतर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

घोरदंष्ट्र
वि० [सं०] जिसके दाँतो को देखकर भय उत्पन्न हो । भयावने दाँतवाला [को०] ।

घोरदर्शन (१)
वि० [सं०] विकराल । भयानक [को०] ।

घोरदर्शन (२)
संज्ञा १. उल्लू । उलूक । २. चीते की जाति का एक मांसाहारी पशु [को०] ।

घोरना (१) †पु
क्रि० स० [हिं० घोलना] दे० 'घोलना' । उ०—(क) जो गिरिपति मसि घोरि उदधि मैं, लै सुरतरु बिधि हाथ । ममकृत दोष लिखै बसुधा भंरि तऊ नहीं मिति नाथ ।—सूर०, १ ।१११ । (क) ठाकुर कहत देखो याके राखिबे के हेत नीम करु भेषज सु घोरि पीजियतु है ।—ठाकुर०, पृ० ३६ ।

घोरना (२) †
क्रि० अ० भारी शब्द करना । गरजना । उ०—फिर फिर सुंदर ग्रीवा मोरत । देखन रथ पाछे जो घोरत ।—शकुंतला, पृ० ७ ।

घोरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'घोरपुष्प' ।

घोररास, घोररासो
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल । गीदड [को०] ।

घोररूप
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

घोरवास, घोरवासी
संज्ञा पुं० [सं०] श्रृगाल । गीदड [को०] ।

घोरसार पु
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'घुडसार' । उ०—हाथी हथिसार जरे घोरे घोरसार ही ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १७७ ।

घोरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रवण चित्रा, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में बुध की गति । २. रात्रि रात (को०) ।

घोरा †पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घोडा] १. घोडा । उ०—जहिं लख्ख घोरा मअंगा हजारी ।—कीर्ति०, पृ० ३८ । २. खूँटा । ३. टोडा ।

घोराकार, घोराकृत्ति
वि० [सं०] भयानक । डरावना [को०] ।

घोरारा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गन्ना ।

घोरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घोडिया' ।

घोरिला †पु
संज्ञा पुं० [हिं० घोडी] १. मिट्टी का बना हुआ लडकों के खेलने का घोडा । उ०—जो प्रभु समर सुरासुर धावत खगपति पीठ सवारा । तेहि घोरिला चढाइ नृप रानी करवावैं संचारा ।—रघुराज (शब्द०) ।२. वह खूँटा जिसका मुँह घोडे के आकार का होता है । उ०—फूलन के विविध हार घोरिलनि उरमत उदार बिच बिच मणि श्यामहार उपमा शुक भाषी ।—केशव (शब्द०) ।

घोरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. दे० 'अघोरी' । २. दे० 'घोडी' । ३. दे० 'अगौरा' ।

घोल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मथा हुआ दही जिसमें पानी न डाला गया हो । तक्र । २. लस्सी । २. घोलकर बनाई हुई वस्तु [को०] ।

घोल †पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० घोड] घोडा । उ०—काहुं कापल काहु धौल, काहु संबल देल थोल ।—कीर्ति० पृ० २४ ।

घोलदही
संज्ञा पुं० [हिं० घोलना + दही] मट्ठा ।

घोलना
क्रि० स० [हिं० घुलना] पानी या और किसी द्रव पदार्थ में किसी वस्तु को हिलाकर मिलाना । किसी वस्तु को इस प्रकार पानी आदि में डालकर हिलाना कि उसके कण पृथक् पृथक् होकर पानी में फैल जायँ । हल करना । जैसे,— चीनी घोलना, शरबत घोलना । संयो० क्रि०—डालना ।—देना । मुहा०—घोल पीना = (१) शरबत की तरह पी जाना । (२) सहज में मार डालना । सहज में नष्ट कर देना । (३) कुछ न समझना । तृण समझना । घोलकर पी जाना = (१) सहज में मार डालना । देखते देखते नाश कर डालना । (२) कुछ न गिनना । (३) किसी विषय में पूर्णतः निष्णत होना । पारंगत होना ।

घोलमघोल पु †
संज्ञा पुं० [हिं० घोल] घालमेल । घोटाला । ड०—हाहा हूहू मैं मुवौ करि करि घालमघोल ।—सुंदर० ग्रं० भा० १, पृ० ३१६ ।

घोला
संज्ञा पुं० [हिं० घोलना] २. वह जो घोलकर बना हो । जैसे,—घोली हुई अफीम । मुहा०—घोले में डालना = (१) खटाई में डालना । रोक रखना । फँसा रखना । उलझन में डाल रखना । किसी काम में बहुत देर लगाना । (२) किसी काम में टालमटूल करना । घोले में पड़ना = बखेड़े में पड़ना । उलझन में फँसना । ऐसे काम में फँसना जो जल्दी न निपटे । २. नाली जिसके द्वारा खेत सींचने के लिये पानी ले जाते हैं । बरहा ।

घोलुवा † (१)
वि० [हिं० घोलना + उवा (प्रत्य०)] घोला हुआ । जो घोलकर बना हुआ हो ।

घोलुवा † (२)
संज्ञा पुं० १. घोली हुई पतली दवा । अर्क । २. रसा । शोरबा । ३. पानी में घोली हुई अफीम । मुहा०—घोलुवा पीना = कड़ुई वस्तु (दवा आदि) पीना । घोलुवा घोलना = किसी कार्य में बहुत देर करना ।

घोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. आभीरपल्ली । अहीरों की बस्ती । उ०— बकी जो गई घोष में छल करि यसुदा की गति दीनी ।— सूर०, १ । १२२ । २. अहीर । ३. बंगाली कायस्थों का एक भेद । ४. गोशाला । उ०—(क) आजु कन्हैया बहुत बच्यो री । खेलत रह्यौ घोष के बाहर कोढ आयो शिशु रूप रच्यो री ।— सूर (शब्द०) । ५. तट । किनारा । ६. ईशान कोण का एक देश । ७. शब्द । आवाज । नाद । उ०—होन लग्यो ब्रजगलिन में हुरिहारन को घोष ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ९९ । ८. गरजने का शब्द । ९. ताल के ६० मुख्य भेदों में से एक । १०. शब्दों के उच्चारण में ११ बाह्य प्रयत्नों में से एक । इस प्रयत्न से वर्ण बोले जाते हैं—ग, घ, ज, झ, ल, ढ द, ध, ब, भ, ङ, ञ ण, न म, य, र, ल, व, और ह । ११. शिव । १२. जनश्रुति । अफवाह (को०) । १३. कुटी । झोपड़ी (को०) । १४. कांस्य । काँसा (को०) ।

घोषक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] घोषण या मुनादी करनेवाला [को०] ।

घोषक (२)
वि० घोष करनेवाला [को०] ।

घोषकुमारी
संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका । गोपिका । उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ६०६ ।

घोषण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'घोषण' [को०] ।

घोषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उच्च स्वर से किसी बात की सूचना । २. राजाज्ञा आदि का प्रचार । मुनादी । डुग्गी ।यौ०—घोषणापत्र = वह पत्र जिसमें सर्वसाधारण के सूचनार्थ राजाज्ञा आदि लिखी हो । सूचनापत्र । विज्ञप्ति । ३. गर्जन । ध्वनि । शब्द । आवाज ।

घोषयित्नु
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोकिल । २. ब्राह्माण । ३. घोषण या मुनादी करनेवाला । ४. चारण [को०] ।

घोषलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कड़ई तोरई ।

घोषवत्
संज्ञा पुं० [सं०] वह शब्द जिसमें घोष प्रयत्नवाले अक्षर अधिक हों ।

घोषवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वीणा ।

घोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंफ । २. कर्कटशृंगी (को०) ।

घोषाल
संज्ञा पुं० [स० घोष] बंगाली ब्राह्मणों की एक जाति ।

घोसना (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घोषणा' ।

घोसना (२) †
संज्ञा स० [सं० घोषण] घोषित करना । उच्चारित करना ।

घोसिनि †
संज्ञा स्त्री० [सं० घोष + इनि (प्रत्य०)] ग्वालिन । गोपी । उ०—दिन दिन अगे सखि ऐसनि होय । वह घोसिनि घोरक मूले ।—विद्यापति, पृ० २३५ ।

घोसी
संज्ञा पुं० [सं० घोष] अहीर । ग्वाला । दूध बेचनेवाला । विशेष—जो अहीर मुसलमान होते हैं वे घोसी कहलाते हैं ।

घौंटना पु †
क्रि० स० [देश०] दे० 'घूँटना' । उ०—धी सौ घौंटि रह्यौ घट भीतर सुख सौं सोवै सुंदरदास ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० १५३ ।

घौंटु †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'घुटना' । उ०—घौंटुन लौं भई कीच रपटि रपटि सगरे परै ।—नंद ग्रं०, पृ० ३२४ ।

घौंर, घौंरा
संज्ञा पुं० [हिं० घवरि] दे० 'घौद' ।

घौद
संज्ञा पुं० [देश०] फलों का गुच्छा । गौदा जैसे,—केले का घौद ।

घौर
संज्ञा पुं० [हिं० घवर] दे० 'घौद' । उ०—एक एक घौर में हजार केले फले हैं ।—मैला०, पृ० ७६ ।

घोरना पु
क्रि० स० [हिं० घोर] दे० 'घोरना' । उ०—अमी रस मैं रस घौरत काह ।—ह० रासो, पृ० ५४ ।

घौरा †
संज्ञा [हिं०] पुं० दे० 'घौर' ।

घौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'घौद' । उ०—लागि सुहाई हरफारचोरी । उनै रही केरा कै घौरी ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३ ।

घौहा (१) †
संज्ञा पुं० [हिं० घाव + हा (प्रत्य०)] चुटैला आम या कोई फल । वह फल जिसको कुछ चोट लग चुकी हो ।

घोहा (२) †
वि० जिसे घाव लगा हो । चुटीला । घायल ।

घ्न
वि० [सं०] नष्ट करनेवाला । नाश करनेवाला । विशेष—यौगिक शब्दों के अंत में इसका प्रयोग होता है; जैसे,— वातघ्न, विषघ्न, पुण्यघ्न आदि ।

घ्यूँट †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'घूँट' ।

घ्राण
संज्ञ स्त्री० [सं०] [वि० घ्रेथ] १. नाक । उ०—श्रोत्र त्वक चक्षु घ्राण रसना रस को ज्ञान ।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ५८८ । यौ०—घ्राणोंद्रिय । २. सूँघने की शक्ति या क्रिया । ३. गंध । सुगंध ।

घ्राणक
संज्ञा पुं० [देश०] उतना तेलहन जितना एक बार में पेरने के लिये कोल्हु में डाला जाय । घानी । विशेष—इस शब्द का प्रयोग संवत् १००२ के एक शिलालेख में आया है जिसमें लिखा है कि 'हर घ्राणक पीछे नारायणदेव आदि ने एक एक पली तेल मंदिर के लिये दिया' । इस शब्द की व्युत्पत्ति का सस्कृत में पता नहीं लगता, यद्यपि 'घानी' या 'घान' शब्द अबतक इसी अर्थ में बोला जाता है ।

घ्राणचक्षु
वि० [सं० घ्राणचक्षुस्] १. सूँघकर किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करनेवाला (पशु) । २. अंधा [को०] ।

घ्राणातर्पण (१)
वि० [सं०] १. घ्राणेंद्रिय को तृप्ति देनेवाला । २. सुगधित । सुगंधयुक्त [को०] ।

घ्राणतर्पण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] खुशबू । सौरभ । सुगंध [को०] ।

घ्राणपाक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक में होनेवाला एक रोग [को०] ।

घ्राणपुटक
संज्ञा पुं० [सं०] नाक के छिद्र । नासारंध्र [को०] ।

घ्राणेंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० घ्राणोन्द्रिय] नासिका । नाक [को०] ।

घ्रात
वि० [सं०] सूँघा हुआ [को०] ।

घ्रातव्य
वि० [सं०] सूँघने योग्य । जिसे सूँघा जा सके [को०] ।

घ्राता
वि० [सं० घ्रातृ] सूँघनेवाला [को०] ।

घ्राति
संज्ञा संज्ञा [सं० घ्राण] १. सूँघने की क्रिया । २. सौरभ । सुगंध । ३. नाक । नासिका [को०] ।

घ्रानि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० घ्राण] सुगंध । उ०—सोरह दला कमल बिगसाई । मधुकर घ्रानि रहा लपटाई ।—सं० दरिया, पृ० ९ ।

घ्रेय
वि० [सं०] सूँघने योग्य [को०] ।


व्यंजन वर्ण का पाँचवाँ और कवर्ग का अंतिम अक्षर । यह स्पर्श वर्ण है, और इसका उच्चारण स्थान कंठ और नासिका है । इसमें संवार, नाद, घोष और अल्पप्राण नामक प्रयत्न लगते हैं ।


संज्ञा पुं० [सं०] १. सूँघने की शक्ति । २. गंध । सुगंध । ३. शिव का एक नाम । भैरव । ४. इंद्रियों का विष्य । इंद्रिय— विषय (को०) । ५. इच्छा । आकांक्षा । स्पृहा (को०) ।