उबरना

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

उबरना क्रि॰ अ॰ [सं॰ उद्+वृ; प्रा॰ उब्वर]

१. उद्धार पाना । निस्तार पाना । मुक्त होना । उ॰—(क) आपुहि मूल फूल फुलवारी, आपुहि चुनि चुनि खाई । कहैं कबीर तेई जन उबरे जेहि गुरु लियो जगाई ।—कबीर (शब्द॰) । (ख) भवसागर जो उबरन चाहे साई नाम जिन छोड़े ।— (शब्द॰) ।

२. छूटना । बचना । उ॰—धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे । जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महु ।—मानस, १ ।८५ ।

३. शेष रहना । बाकी बचना । उ॰—(क) फोरे सब बासन घर के दधि माखन खायो जो उबरयो सो डारयो रिस कारिकै ।—सूर (शब्द॰) । (ख) देव दनुज मुनि नाग मनुज नहिं जाँचत कोउ उबरयो ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ ५०५ ।