देवदार

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

देवदार संज्ञा पुं॰ [सं॰ देवदारु] एक बहुत ऊँचा पेड़ जो हिमालय पर ६००० फुट से ८००० फुट तक की ऊँचाई पर होता है । विशेष—देवदार के पेड़ अस्सी गज तक सीधे ऊँचे चले जाते हैं और पच्छिमी हिमालय पर कुमाऊँ से लेकर काश्मीर तक पाए जाते हैं । देवदार की अनेक जातियाँ संसार के अनेक स्थानों में पाई जाती हैं । हिमालयवाले देवदार के अतिरिक्त एशियाई कोचक (तुर्की का एक भाग) तथा लुबना और साइप्रस टापू के देवदार प्रसिद्ध हैं । हिमालय पर के देवदार की डालियाँ सीधी और कुछ नीचे की और झुकी होती हैं, पत्तियाँ महीन महीन होती हैं । डालियों के सहित सारे पेड़ का घेरा ऊपर की और बराबर कम अर्थात् गवदुम होता जाता है जिससे देखने में यह सरो के आकार का जान पड़ता है । देवदार के पेड़ डेढ़ डेढ़ दो दो सौ वर्ष तक पुराने पाए जाते हैं । ये जितने ही पुराने होते हैं उतने ही विशाल होते हैं । बहुत पुराने पेड़ों के धड़ या तने का घेरा १५—१५ हाथ तक का पाया गया है । इसके तने पर प्रति बर्ष एक मंडल या छल्ला पड़ता है, इसलिये इन छल्लो को गिनकर पेड़ की अवस्था बतलाई जा सकती है । इसकी लकड़ी कड़ी, सुंदर, हलकी, सुगंधित और सफेदी लिए बादामी रंग की होती है और मजबूती के लिये प्रसिद्ध है । इसमें धुन कीड़े कुछ नहीं लगते । यह इमारतों में लगती है और अनेक प्रकार के सामान बनाने के काम आती है । काश्मीर में बहुत से ऐसे मकान हैं जिनमें चार चार सौ बरस की देवदार की घरनें आदि लगी हैं और अभी ज्यों की त्यों हैं । काश्मीर में देवदार की लकड़ी पर नक्काशी बहुत अच्छी होती है । कागड़े में इसे घिसकर चंदन के म्थान पर लगाते है । इससे एक प्रकार का अलकतरा और तारपीन की तरह का तेल भी निकलता है, जो चौपायों के घाव पर लगाया जाता है । देवदार को दियार, केलू और कहीं कहीं केलोन भी कहते हैं । पर्या॰—शक्रपादप । पारिद्रक । भद्रदारु । दुकिलिम । पीड़दारु । दारु । पूतिकाष्ठ । सुरदारु । स्तिग्धदारु । दारुक । अमरदारु । शांभव । भूतहारि । भवदारु । भद्रवत् । इंद्रदारु । देवकाष्ठ ।