पलास

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पलास संज्ञा पुं॰ [सं॰ पलाश] प्रसिद्ध वृक्ष जो भरातवर्ष के सभी प्रदेशों और सभी स्थानों में पाया जाता है । पलाश । ढाक । टेसू । केसू । धारा । काँवरिया । उ॰—प्रफुलित भए पलास दसौं दिसि दव सी दहकत ।—व्रज॰ ग्रं॰, पृ॰ १०१ । विशेष—पलास का वृक्ष मैदानों और जंगलों ही में नहीं, ४००० फुट ऊँची पहाड़ियों की चोटियों तक पर किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है । यह तीन रूपों में पाया जाता है—वृक्ष रूप में, क्षुप रूप में और लता रूप में । बगीचों में यह वृक्ष रूप में और जंगलों और पहाड़ों में अधिकतर क्षुप रूप में पाया जाता है । लता रूप में यह कम मिलता है । पत्ते, फूल और फल तीनों भेदों के समान ही होते हैं । वृक्ष बहुत ऊँचा नहीं होता, मझोले आकार का होता है । क्षुप झाड़ियों के रूप में अर्थात् एक स्थान पर पास पास बहुत से उगते हैं । पत्ते इसके गोल और बीच में कुछ नुकीले होते हैं जिनका रंग पीठ की ओर सफेद और सामने की ओर हरा होता है । पत्ते सीकों में निकलते हैं और एक में तीन तीन होते हैं । इसकी छाल मोटी और रेशेदार होती है । लकड़ी बड़ी टेढ़ी मेढ़ी होती है । कठिनाई से चार पाँच हाथ सीधी मिलती है । इसका फूल छोटा, अर्धचंद्राकार और गहरा लाल होता है । फूल को प्रायः टेसू कहते हैं और उसके गहरे लाल होने के कारण अन्य गहरी लाला वस्तुओं को 'लाल टेसू' कह देते हैं । फूल फागुन के अंत और चैत के आरंभ में लगते हैं । उस समय पत्ते तो सबके सब झड़ जाते हैं और पेड़ फूलों से लद जाता है जो देखने में बहुत ही भला मालूम होता है । फूल झड़ जाने पर चौड़ी चौ़ड़ी फलियाँ लगती है जिनमें गोल और चिपटे बीज होते हैं । फलियों को 'पलास पापड़ा' या 'पलास पापड़ी' और बीजों को 'पलास- बीज' कहते हैं । इसके पत्ते प्रायः पत्तल और दोने आदि के बनाने के काम आते हैं । राजपूताने और बंगाल में इनसे तंबाकू की बीड़ियाँ भी बनाते हैं । फूल और बीज ओषधिरूप में व्यवहृत होते हैं । वीज में पेट के कीड़े मारने का गु ण विशेष रूप से है । फूल को उबालने से एक प्रकार का ललाई लिए हुए पीला रंगा भी निकलता है जिसका खासकर होली के अवसर पर व्यवहार किया जाता है । फली की बुकनी कर लेने से वह भी अबीर का काम देती है । छाल से एक प्रकार का रेशा निकलता है जिसको जहाज के पटरों की दरारों में भरकर भीतर पानी आने की रोक की जाती है । जड़ की छाल से जो रेशा निकलता है उसकी रस्सियाँ बटी जाती हैं । दरी और कागज भी इससे बनाया जाता है । इसकी पतली डालियों को उबालकर एक प्रकार का कत्था तैयार किया जाता है जो कुछ घटिया होता है और बंगाल में अधिक खाया जाता है । मोटी डालियों और तनों को जलाकर कायला तैयार करते हैं । छाल पर बछने लगाने से एक प्रकार का गोंद भी निकलता है जिसको 'चुनियाँ गोंद' या पलास का गोंद कहते हैं । वैद्यक में इसके फूल को स्वादु, कड़वा, गरम, कसैला, वातवर्धक शीतज, चरपरा, मलरोधक तृषा, दाह, पित्त कफ, रुधिरविकार, कुष्ठ और मूत्रकृच्छ का नाशक; फल को रूखा, हलका गरम, पाक में चरपरा, कफ, वात, उदररोग, कृमि, कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, बवासीर और शूल का नाशक; बीज को स्तिग्ध, चरपरा गरम, कफ और कृमि का नाशक और गोंद को मलरोधक, ग्रहणी, मुखरोग, खाँसी और पसीने को दूर करनेवाला लिखा है । यह वृक्ष हिंदुओं के पवित्र माने हुए वृक्षों में से हैं । इसका उल्लेख वेदों तक में मिलता है । श्रोत्रसूत्रों में कई यज्ञ- पात्रों के इसी की लकड़ी से बनाने की विधि है । गृह्वासूत्र के अनुसार उपनयन के समय में ब्राह्मणकुमार को इसी की लकड़ी का दंड ग्रहण करने की विधि है । वसंत में इसका पत्रहीन पर लाल फूलों से लदा हुआ वृक्ष अत्यंत नेत्रसुखद हेता है । संस्कृत और हिंदी के कवियों ने इस समय के इसके सौंदर्य पर कितनी ही उत्तम उत्तम कल्पनाएँ की हैं । इसका फूल अत्यंत सुंदर तो होता है पर उसमें गंध नहीं होते । इस विशेषता पर भी बहुत सी उक्तियाँ कही गई हैं । पर्याय—किंसुक । पर्ण । याज्ञिक । रक्तपुष्पक । क्षारश्रेष्ठ । वात- पोथ । ब्रह्मावृक्ष । ब्रह्मावृक्षक । ब्रह्मोपनेता । समिद्धर । करक । त्रिपत्रक । ब्रह्मपादप । पलाशक । त्रिपर्ण । रक्तपुष्प । पुतद्रु । काष्ठद्रु । बीजस्नेह । कृमिघ्न । वक्रपुष्पक । सुपर्णी ।

२. एक मांसाहारी पक्षी जो गीध की जाति का होता है ।

पलास ^२ संज्ञा पुं॰ [अं॰ स्प्लाइस] वह गाँठ जो दो रस्सियो या एक ही रस्सी के दो छोरों या भागों को परस्पर जोड़ने के लिये दी जाय । (लश॰) । क्रि॰ प्र॰—करना ।

पलास ^३ संज्ञा पुं॰ [?] कनवास नाम का एक मोटा कपड़ा । वि॰ दे॰ 'कनवास' ।

पलास पापड़ा संज्ञा पुं॰ [हिं॰ पलास + पापड़ा]

१. पलास की फली जो औषध के काम में आती है । पलास पापड़ी । ढकपन्ना । वि॰ दे॰ 'पलास' ।

पलास पापड़ी संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ पलास + पापड़ी] दे॰ 'पलास पापड़ा' ।