पारस

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

पारस ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ स्पर्श, हिं॰ परस]

१. एक कल्पित पत्थर जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि यदि लोहा उससे छुलाया जाय तो सोना हो जाता है । स्वर्णमणि । उ॰— पारस मनि लिय अप्प कर दिय प्रोहित कह दान ।—प॰ रासो, पृ॰ ३३ । विशेष—इस प्रकार के पत्थर की बात फारस, अरब तथा योरप में भी रसायनियों अर्थात् कीमिया बनानेवालों के बीच प्रसिद्ध थी । योरप में कुछ लोग इसकी खोज में कुछ हैरान भी हुए । इसके रूप रंग आदि तक कुछ लोगों ने लिखे । पर अंत में सब ख्याल ही ख्याल निकला । हिंदुस्तान में अब तक बहुत से लोग नैपाल में इसके होने का विश्वास रखते हैं ।

२. अत्यंत लाभदायक और उपयोगी वस्तु । जैसे,— अच्छा पारस तुम्हारे हाथ लग गया है ।

पारस ^२ वि॰

१. पारस पत्थर के समान स्वच्छ और उत्तम । चंगा । नीरोग । तंदुरुस्त । जैसे,— थोडे़ दिन यह दवा खाओ, देखो देह कैसी पारस हो जाती है ।

२. जो किसी दूसरे को भी अपने समान कर ले । दूसरों को अपने जैसा बनानेवाला । उ॰— पारस जोनि लिलाटहि ओती । दिष्टि जो करै होई तेहि जोती ।— जायसी (शब्द॰) ।

पारस ^३ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ परसना]

१. खाने के लिये लगाया हुआ भोजन । परसा हुआ खाना ।

२. पत्तल जिसमें खाने के लिये पकवान मिठाई, आदि हो । जैसे,— जो लोग बैठकर नहीं खायँगे उन्हें पारस दिया जायगा ।

पारस ^४ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पार्श्व]

१. पास । निकट । समीप । उ॰— (क) भृकुटी कुटिल निकट नैनन के चपल होत यहि भाँति । मनहु तामरस पारस खेलत बाल भृंग की पाँति ।— सूर (शब्द॰) । (ख) उत श्यामा इत सखा मंडली, इत हरि उत ब्रजनारि ।

पारस ^५ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पलास] बादाम या खूबानी की जाति का एक भझोला पहाड़ी पेड़ जो देखने में ढाक के पेड़ सा जान पड़ता है । विशेष— यह हिमालय पर सिंधु के किनारे से लेकर सिक्किम तक होता है । इसमें से एक प्रकार का गोंद और जहरीला तेल निकलता है जो दवा के काम में आता है । इसे गीदड़ ढाक और जामन भी कहते हैं ।

पारस ^६ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पारस्य] हिंदुस्तान के पश्चिम सिंधुनदी और अफगानिस्तान के आगे पड़नेवाला एक देश । प्राचीन कांबोज और वाह्लीक के पश्चिम का देश, जिसका प्रताप प्राचीन काल में बहुत दूर दूर तक विस्तृत था और जो अपनी सभ्यता और शिष्टाचार के लिये प्रसिद्ध चला आता है । विशेष—अत्यंत प्राचीन काल से पारस देश आर्यों की एक शाखा का वासस्थान था जिसका भारतीय आर्यों से घनिष्ट संबंध था । अत्यंत प्राचीन वैदिक युग में तो पारस से लेकर गंगा सरयू के किनारे तक की काली भूमि आर्यभूमि थी, जो अनेक प्रेदशों में विभक्त थी । इन प्रदेशों में भी कुछ के साथ आर्य शब्द लगा था । जिस प्रकार यहाँ आर्यांवर्त एक प्रदेश था उसी प्रकार प्राचीन पारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वींय प्रदेश 'अरियान' या 'ऐर्यान' (यूनानी— एरियाना) कहलाता था जिससे ईरान शब्द बना है । ईरान शब्द आर्यावास के अर्थ में सारे देश के लिये प्रयुक्त होता था । शाशानवंशी सम्राटों ने भी अपने को 'ईरान के शाहंशाह' कहा है । पदाधिकारियों के नामों के साथ भी 'ईरान' शब्द मिलता है ।— जैसे 'ईरान-स्पाहपत' (ईरान के सिपाहपति या सेनापति), 'ईरान अंबारकपत' (ईरान के भंडारी) इत्यादि । प्राचीन पारसी अपने नामों के साथ आर्य शब्द बडे़ गौरव के साथ लगाते थे । प्राचीन सम्राट् दारयवहु (दारा) ने अपने को 'अरियपुत्र' लिखा है । सरदोरों के नामों में भी आर्य शब्द मिलता है, जैसे, अरियशम्न, अरियोवर्जनिस, इत्यादि । प्राचीन पारस जिन कई प्रदेशों में बँटा था उनमें पारस की खाड़ी के पूर्वी तट पर पड़नेवाला पार्स या पारस्य प्रदेश भी था जिसके नाम पर आगे चलकर सारे देश का नाम पड़ा । इसकी प्राचीन राजधानी पारस्यपुर (यूनानी-पार्सिपोलिस) थी, जहाँपर आगे चलकर 'इश्तख' बसाया गया । वैदिक काल में 'पारस' नाम प्रसिद्ध नहीं हुआ था । यह नाम हखामनीय वंश के सम्राटों के समय से, जो पारस्य प्रदेश के थे, सारे देश के लिये व्यवहृत होने लगा । यही कारण है जिससे वेद और रामायण में इस शब्द का पता नहीं लगता । पर महाभारत, रघुवंश, कथासरित्सागर आदि में पारस्य और पारसीकों का उल्लेख बराबर मिलता है । अत्यंत प्राचीन युग के पारसियों और वैदिक आर्यों में उपासना, कर्मकांड आदि में भेद नहीं था । वे अग्नि, सूर्य वायु आदि की उपासना और अग्निहोत्र करते थे । मिथ (मित्र = सूर्य), वायु (= वायु), होम (= सोम), अरमइति (= अमति), अहमन् (= अर्यमन्), नइर्यसंह (= नरार्शस) आदि उनके भी देवता थे । बे भी बडे़ बडे़ यश्न (यज्ञ) करते, सोमपान करते और अथ्रवन (अथर्वन्) नामक याजक काठ से काठ रगड़कर अग्नि उत्पन्न करते थे । उनकी भाषा भी उसी एक मूल आर्यभाषा से उत्पन्न थी जिससे वैदिक और लौकिक संस्कृत निकली हैं । प्राचीन पारसी और वैदिक संस्कृत में कोई विशेष भेद नहीं जान पडता । अवस्ता में भारतीय प्रदेशों और नदियों के नाम भी हैं । जैसे, हप्तहिंदु (सप्तसिंधु = पंजाब), हरख्वेती (सरस्वती), हरयू (सरयू) इत्यादि । वेदों से पता लगता है कि कुछ देवताओं को असुर संज्ञा भी दी जाती थी । वरुण के लिये इस संज्ञा का प्रयोग कई बार हुआ है । सायणाचार्य ने भाष्य में असुर शब्द का अर्थ लिखा है— 'अमुर सर्वेषां प्राणद' । इंद्र के लिये भी इस संज्ञा का प्रयोग दो एक जगह मिलता है, पर यह भी लिखा पाया जाता है कि 'यह पद प्रदान किया हुआ है' । इससे जान पड़ता है कि यह एक विशिष्ट संज्ञा हो गई थी । वेदों में क्रमशः वरुण पीछे पड़ते गए हैं और इंद्र को प्रधानता प्राप्त होती गई है । साथ ही साथ असुर शब्द भी कम होता गया है । पीछे तो असुर शब्द राक्षम, दैत्य के अर्थ में ही मिलता है । इससे जान पड़ता है कि देवोपासक और असुरोपासक ये दो पक्ष आर्यों के बीच हो गए थे । पारस की ओर जरथुस्त्र (आधु॰ फा॰ जरतुश्त) नामक एक ऋषि या ऋत्विक् (जोता सं॰ होता) हुए जो असुरोपासकों के पक्ष के थे । इन्होंने अपनी शाखा ही अलग कर ली और 'जंद अवस्ता' के नाम से उसे चलाया । यही 'जंद अवस्ता' पारसियों का धर्मग्रंथ हुआ । इससे देव शब्द दैत्य के अर्थ में आया है । इंद्र या वृत्रहन् (जंद, वेरेयघ्न) दैत्यों का राजा कहा गया है । शश्रोर्व (शर्व) और नाहंइत्य (नासत्य) भी दैत्य कहे गए हैं । अंघ्र (अंगिरस?) नामक अग्नियाजकों की प्रशंसा की गई है और सोमपान की निंदा । उपास्य अहुरमज्द (सर्वज्ञ असुर) है, जो धर्म और सत्यस्वरूप है । अह्रमन (अर्यमन्) अधर्म और पाप का अधिष्ठाता है । इस प्रकार जरयुस्त्र ने धर्म और अधर्म दो द्वंद्व शक्तियों की सूक्ष्म कल्पना की और शुद्धाचार का उपदेश दिया । जरथुस्त्र के प्रभाव से पारस में कुछ काल के लिये एक अहुर्मज्द की उपासना स्थापित हुई और बहुत से देवताओं की उपासना और कर्मकांड कम हुआ । पर जनता का सतोष इस सूक्ष्म विचारवाले धर्म से पूरा पूरा नहीं हुआ । शाशानों के समय में मग याजकों और पुरोहितों सा प्रभाव बढ़ा तब बहुत से स्थूल देवताओं की उपासना फिर ज्यों की त्यों जारी हो गई और कर्मकांड की जटिलता फिर वही हो गई । ये पिछली पद्धतियाँ भी 'जंद अपस्ता' में बी मिल गई । 'जंद अवस्ता' में भी वेद के समान गाथा (गाथ) और मंथ्र (मंथ) हैं । इसके कई विभाग हैं जिनमें 'गाथ' सबसे प्राचीन और जरथुस्त्र के मुँह से निकला हुआ माना जाता है । एक भाग का नाम 'यश्न' है जो वैदिक 'यज्ञ' शब्द का रूपांतर मात्र है । विस्पर्द, यस्त (वैदिक इष्टि), बंदिदाद् आदि इसके और विभाग हैं । बदिदाद् में जरयुस्त्र और अहुरमज्द का धर्म संबंध में संवाद है । 'अवस्ता' की भाषा, विशेषतः गाथा की, पढ़ने में एक प्रकार की अपभ्रंश वैदिक संस्कृत सी प्रतीत होती है । कुछ मंत्र तो वेदमंत्रों से बिलकुल मिलते जुलते हैं । डाक्टर हाग ने यह समानता उदाहरणों से बताई है और डा॰ मिल्स ने कई गाथाओं का वैदिक संस्कृत में ज्यों का त्यों रूपांतर किया है । जरथुस्त्र ऋषि कब हुए थे इसका निश्चय नहीं हो सका है । पर इसमें संदेह नहीं कि ये अत्यंत प्राचीन काल में हुए थे । शाशानों के समय में जो 'अवस्ता' पर भाष्य स्वरूप अनेक ग्रंथ बने उनमें से एक में व्यास हिंदी का पारस में जाना लिखा है । संभव है वेदव्यास और जरथुस्त्र समकालीन हों ।