भोर

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

भोर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ विभावरी] प्रातःकाल । तड़का । सबेरा । उ॰—जागे भार दौड़ि जननी ने अपने कठ लगायो ।—सूर (शब्द॰) ।

भोर ^२ संज्ञा पुं॰ [देश॰]

१. एक प्रकार का बडा़ पक्षी जिसके पर बहुत सुंदर हाते हैं । विशेष—यह जल तथा हरियाली को बहुत पसंद करता है । यह फल फूल तथा कीड़े मकोड़े खाता और खेतों को बहुत अधिक हानि पहुँचाता है । यह रात के समय ऊँचे वृक्षों पर विश्राम करता है ।

२. खमो नामक सदाबहार वृक्ष । इसे भार और रोई भी कहते हैं । विशेष दे॰ 'खमो' ।

भोर पु †३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ भ्रम] धोखा । भूल । भ्रम । उ॰—(क) की दूहु रानि कौसिलहिं परिगा भोर हो ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) हँसत परस्पर पापु में चली जाहिं जिय भोर ।—सूर (शब्द॰) ।

भोर ^४ वि॰ चकित । स्तंभित । उ॰—सूर प्रभु की निरखि सोभा भई तरुनी भोर ।—सूर (शब्द॰) ।

भोर पु † ^५ वि॰ [हिं॰ भोला] भोला । सीधा । सरल । उ॰—थाती राखि न माँगेउ काऊ । विसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ ।—तुलसी (शब्द॰) ।

भोर क्रि॰ वि॰ [हि॰ भोर (=भूल)] भूल से भी । उ॰—कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । अस परतेति तजहु जनि भोरें ।—मानस, १ । १३८ ।