ओर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ओर ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ अवार = किनारा]
२. किसी नियत स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार जिसे दाहिना, बाँया, ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम आदि शब्दों से निश्चित करते हैं । तरफ । दिशा । यौ॰—ओर पास = आस पास । इधर उधर । विशेष—जब इस शब्द के पहले कोई संख्यावाचक शब्द आता है, तब इसका व्यवार पुल्लिंग की तरह होता है । जैसे, —घर के चारों ओर । उसके दोनों ओर । उ॰—नैन ज्यों चक्र फिरै चहुँ ओरा ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ ७५ । २—पक्ष । जैसे,—(क) यह उनकी ओर का आदमी है । (ख) हम आपकी ओर से बहुत कुछ कहेंगे ।
ओर ^२ संज्ञा पुं॰
१. अंत । सिरा । छोर । किनारा । उ॰—(क) देखि हाट कछु सूझ न ओरा । सबै बहुत किछु दीख न थोरा ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ ३१ । (ख) गुन को ओर न तुम बिखै औगुन को मो माहिं ।—ब्रज॰ ग्रं॰, पृ॰ ११ । मुहा॰—ओर आना = नाश का समय आना । उ॰—हँसता ठाकुर खाँसता चोर । इन दोनों का आया ओर । ओंर निभाना या निबाहना = अंत तक अपना कर्तव्य पूरा करना । उ॰— (क) पुरुष गंभीर न बोलहिं काहू । जो बोलहिं तो ओर निबाहू ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) प्रणातपाल पालहि सब काहू । देहु दुहुँ दिसि ओर । निबाहू ।—तुलसी (शब्द॰) ।
२. आदि । आरंभ । जैसे, ओर से छोर तक । उ॰—(क) और दरिया भी कौन जिसका ओर न छोर ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १३० । (ख) ओर तें याने चराई पैहैं अब ब्यानी बराइ मो भागिन आसौं ।—पद्माकर ग्रं॰, पृ॰ ३१८ ।
ओर फिरना । दबाव या आघात से चलना या झुक जाना । घुमाव लेना ।—जैस,—(क) छड़ दाव पड़ी, इससे वह मुड़ गई । (ख) यह तार तो मुड़ता ही नहीं हैं; इसे कैसे लपेटें ।
२. किसी धारदार किनारे या नोक का इस प्रकार झुक जाना कि वह आगे की और न रह जाय । जैसे, छुरी की धार या सुई का मोक मुड़ना ।
३. लकीर की तरह सीधे न जाकर घूमकर किसी ओर झुकना । वक्र होकर भिन्न दिशा में प्रवृत होना । जैसे,—आगे चलकर यह नदी (या सड़क) दक्खिन को ओर मुड़ गई है ।
४. चलते चलते सामने से किसी दूसरी ओर फिर जाना । दाएँ अथवा बाएँ घूम जाना । जैसे,— कुछ दूर जाकर दाहिनी ओर मुड़ जाना, तो उसका घर मिल जायगा ।
५. घूनकर फिर से पीछे की और चल पड़ना । लौटना । सयो॰ क्रि॰—जाना ।