कहवा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]कहवा संज्ञा पुं॰ [अ॰ कह़वा]
१. पेड़ का बीज । विशेष—यह पेड़ अरब, मिस्त्र, हबस आदि देशो में होता है । इसकी खेती भी उन देशों में में की जाती है । पेड़ सोलह स े अठारह फुट तक ऊँचा होता है, पर फल तोड़ने के सुभीते के लिये इसे आठ नौ फुट से अधिक बढ़ने नहीं देते और इसकी फुनगी कुतर लेते हैं । इसकी पत्तियाँ दो दो आमने सामने होती हैं । पेड़ का तना सीधा होता है जिसपर हलके भूरे रंग की छाल होती है । फरवरी मार्च में पत्तियों की जड़ों में गुच्छे के गुच्छे सफेद लंबे फूल लगते हैं, जिसमें पाँच पंखुड़ियाँ होती हैं । फूल की गंध अच्छी होती है । फूलों के झड़ जाने पर मकोय के बराबर फल गुच्छों में लगते हैं । फल पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं । गूदे के भीतर पतली झिल्ली में लिपटे हुए बीज होते है । पकने पर फल हिलाकर ये गिरा लिए जाते हैं । फिर उन्हें मलकर बीज अलग किए जाते हैं । फिर बीजों को भूनते हैं और उनके छिलके अलग करते हैं । इन्ही बीजों को पीसकर गरम पानी में दूध आदि मिलाकर पीते हैं । अरब आदि देशों में इसके पीने की बहुत चाल है । युरोप में भी चाय के पहुँचने के पूर्व इसकी प्रथा थी । हिंदुस्तान में इसका बीज पहले पहल दो ढाई सौ वर्ष हुए, मैसूर में बाबा बूढ़न लाए थे । वे मक्का गए थे, वही से सात दाने छिपाकर ले आए थे । अब इसकी खेती हिंदुस्तान में कई जगह होती है । इसके लिये गरम देश की बलुई दोमट भूमि अच्छी होती है तथा सब्जी, हड्डी, खली आदि की खाद उपकारी होत है । इसके बीज को पहले अलग बोते हैं । फिर एक साल के बाद इसे चार से आठ फुट की दुरी पर पंक्तियों में बैंठाते हैं । तीसरे वर्ष इसकी फुनगी कपट दी जाती है जिससे इसकी बाढ़ बंद हो जाती है । इसके लिये अधिक वृष्टि तथा वायु हानिकारक होती है । बहुत तेज धूप में इसे बाँसों की टट्टियों से छा देते हैं या इसे पहले ही से बड़े बड़ें पेड़ों के नीचे लगाते हैं । सुमात्रा में इसकी पत्तियों को चाय की तरह उबालकर पीते हैं । मुख्खा का कहवा बहुत अच्छा माना जाता है । भारत में कहवे की खेती नीलगिरि पर होती है । भारत कि सिवाय लंका, ब्राजील, मध्य अमेरिका आदि में भी इसकी खेती होती है । कहवा पीने में कुछ उत्तेजक होता है ।
२. कहवे का पेड़ ।
३. कहवा के बीजों से बना हुआ शरबत । यौ॰—कहवादान ।