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देवता

विक्षनरी से
देवता

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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देवता संज्ञा पुं॰ [सं॰] स्वर्ग में रहनेवाला अमर प्राणी । विशेष—वेदों में देवता से कई प्रकार के भाव लिए गए हैं । साधारणत:वेदमंत्रों के जितने विषय हैं वे देवता कहलाते हैं । सिल, लोढ़े, मूसल, ओखली, नदी पहाड़ इत्यादि से लेकर घोड़े, मेंढक, मनुष्य (नाराशंस), इंद्र, वरुण, आदित्य इत्यादि तक वेदमंत्रों के देवता हैं । कात्यायन ने अनुक्रमणिका में मंत्र के वाच्य विषेय को ही उसका देवता कहा है । निरुक्तकार यास्क ने 'देवता शब्द को दान, दोपन और द्युस्थान- गत होने से निकाला है । देवताओं के संबंध में प्राचीनों के चार मत पाए जाते हैं—ऐतिहासिक, याज्ञिक, नैरुक्तिक और आध्यात्मिक । ऐतिहासिकों के मत से प्रत्येक मंत्र भिन्न भिन्न घटनाओं या पदार्थों को लेकर बना है । याज्ञिक लोग मंत्र ही को देवता मानते हैं जैसा जैमिनि ने मीमांसा में स्पष्ट किया है । मीमांसा दर्शन के अनुसार देवताओं का कोई रूपविग्रह आदि नहीं, वे मंत्रात्मक हैं । याजिकों ने देवताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया है ।—सीमप और असीमप । अष्टुवसु, एकादश रुद्र, द्बादश आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ये ३३ सोमप देवता कहलाते है । एकादश प्रयाजा, एकादश अनुयाजा और एकदश उपयाजा ये अमोमय देवता कहलाते है । सोमपायी देवता सोम से संतुष्ट हो जाते है और असीमपयी यज्ञपशु सें संतुष्ट होते है । नैरुक्तक लोग स्थान के अनुसार देवता लेते है और तीन ही देवता मानते हैं; अर्थात् पृथिवी का अग्नि, अंतरिक्ष का इंद्ग या वायु और द्युस्थान का सूर्य । बाकी देवता या तो इन्हीं तीनों के अंतर्भूत हैं अथवा होता, अध्वर्यु , ब्रह्या, उग्दाता आदि के कर्मभेद के लिये इन्हीं तीनें के अलग अलग निम हैं । ऋवेद में कुछ ऐसे मंत्र भी हैं जिनमें भिन्न देवताओं की एक ही के अनेक नाम कहा है, जैसे, बृद्धिमान लोग इंद्र, मित्र, वरुण और अग्नि कहते है.. । इनके एक होने पर भी इन्हें बहुत बतलाते हैं । (ऋग्वेद १ । १६४ । ४६) ये ही मंत्र आध्यात्मिक पक्ष या वेदांत के मूल बीज है । उपनिषदों में इन्हीं के अनुसार एक ब्रह्म की भावना की गई है । प्रकृति के बीच जो वस्तुएँ प्रकाशमान, ध्यान देने योग्य और उपकारी देख पड़ीं उनकी स्तुति या वर्णन ऋषियों ने मंत्रों द्बारा किया । जिन देवताओं को प्रसन्न करने के लिये यज्ञ आदि होते थे उनकी कुछ विशेष स्थिति हुई । उनसे लोग धनधान्य युद्ब में जय, शत्रुओं का नाश आदि चाहते थे । क्रमश: देवता शब्द से ऐसी ही अगोचर सत्ताओं का भाव समझा जाने लगा और धीरे धीरे पौराणिक काल में रुचि के अनुसार और भी अनेक देवताओं की कल्पना की गई । ऋग्वेद में जिन देवताओं के नाम आए हैं अनमें से कुछ ये हैं—अग्नि,वायु, इंद्र, मित्र , वरुण, अशिवद्वय, विश्वेदेवा, मरुदगण, ऋतुगण, ब्रह्मणस्पति, सोम, त्वष्टा, सूर्य, विष्णु, /?/, यम, पर्जन्य, अर्यमा, पूषा, रुद्रगण, वसुगण, आदित्यमण, उशना, त्रित, त्रैलन, अहिर्बुध्न, अज, एकपात, ऋमुक्षा, गुरुत्मान इत्यादि । कुछ देवियों के नाम भी आए हैं, जैसे,—सरस्वती, सुनृता, इला, इंद्राणी, होत्रा, पृथिवी, उषा, आत्री, रोदसी, राका, सिनीवाली, इत्यादि । ऋग्बेद में मुख्य देवता ३३ माने गए हैं—८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य तथा इंद्र और प्रजापति । ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं की संख्या ३३३९ कही गई है । (३ । ९ । ९) । शतपथ ब्राह्मण और सांख्यायन श्रीतसूत्र में भी यह संख्या दी हुई है । इसपर सायण कहते है कि देवता ३३ ही हैं, ३३३९ नाम महिमा प्रकाशंक है । देवता मनुष्यों से भिन्न अमर प्राणी माने जाते थे । इसकी उल्लेख ऋवेद में स्पष्ट है—असुर वरुण ! देवता हों या मर्त्य (मनुष्य) हों, तुम सबके राजा हो । (ऋक् २ । २७ । १०) । पीछे पौराणिक काम में, जिसका थोड़ा बहुत सूत्रपात शुक और सूत के समय में हो चुका था, वेद के ३३ देवताओं से ३३ कोटि देवताओं की कल्पना की गई । इंद्र, विष्णु, रुद्र, प्रजापति, इत्यादि वैदिक देवताओं के रूप रंग, कुटुंब आदि की भी कल्पना की गई । द्युस्थान के वैदिक देवता विष्णु (जो १२ आदित्यों में थे) आगे चलकर चतुर्भुज, शंखचक्र- गदापद्यधारी, लक्षमी के पति हो गए । वैदिक रुद्र जटी त्रिशूल- धारी, पार्वती के पति गणेश और स्कद के पिता हो गए, और वैदिक प्रजापति वेद के वक्ता, चार मुँहवाले ब्रह्मा हो गए । देवताओं की भावना और उपासना में यह मेद महाभारत के समय से ही कुछ कुछ पड़ने लगा । कृष्ण के समय तक वैदिक इंद्र की पूजा हीती थी जो पीछे बंद हो गई, यद्यपि इंद्र देवताओं के राजा और स्वर्ग के स्वामी बने रहे । आजकल हिंदुओं में उपासना के लिये पाँच देवता मुख्य माने गए हैं—विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश और दुर्गा । ये पंचदेव कहे जाते हैं । यजुवेंद, सामवेद, अथवंवेद और पुराणों के अनुसार इंद्र, चंद्र आदि देवता कश्यप से उत्पन्न हुए । पुराणों में लिखा है कि कश्यप की दिति नाम की स्त्री से दैत्य और अदिति नाम की स्त्री से देवता उत्पन्न हुए । बौद्ध और जैन लोग भी देवताओं की साधारण आदमी मानते हैं और इसी पौराणिक रूप मे; भेद केवल इतना ही है कि वे देवताओं को बुद्ब, बोधिसत्व या तीर्थकरों से निम्न श्रेणी का मानते हैं । बौद्ब लोग भी देवताओं के कई गण या वर्ण मानते हैं, जैसे—चातुरमहाराजिक, तुषिक आदि । जैन लोग चार प्रकार के देवता मानते हैं—वैमानिक या कल्पभव, कल्पातीत, ग्रँवेयक और अनुत्तर । वैमानिक १२ हैं— सौधर्म, ईशान, सनन्कुमार, महेंद्र, ब्रह्मा, अंतक, शुक्र, सह- स्रार, नत, प्राणत, आरण और अच्युत ।