नस
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]नस ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ स्नायु, तुलनीय अ॰ नसा ( = वह रग जो कमर के नीचे से टखने तक है)]
१. शरीर के भीतर तंतुओं का वह बंध या लच्छा जो पेशियों के छोर पर उन्हें दूसरी पेशियों या अस्थि आदि कडे़ स्थानों से जोड़ने के लिये होता है (जैसे, घोडा़ नस) । साधारण बोलचाल में कोई शरीर- तंतु या रक्तवाहिनी नली । विशेष—नसों के ततु दृढ़ और चीमड़ होते हैं, लचीले नहीं होते । वे खींचने से बढ़ते नहीं । नसें शरीर की सबसे दृढ और मजबूत सामग्री हैं । कभी कभी वे ऐसे आघात से घी नहीं टूटतीं जिनेसे हड्डियाँ टूट जाती और पेशियाँ कट जाती हैं । मुहा॰—नस चढ़ना या नस पर नस चढ़ना = खिंचाव, दबाब या झटके आदि के कारण शरीर में किसी स्थान की, विशेषतः पैर का पिंडली या बाँह की किसी नस का अपने स्थान से इधर उधर हो जाना या बल खा जाना जिसके कारण उस स्थान पर तनाव और पीडा़ होती है और कभी कभी सूजन भी हो जाती है । नसें ढीली होना = थकावट आना । शिथिलता होना । पस्त होना । नस नस में = सारे शरीर में । सर्वांग में । जैसे,—उनसी नस नस में शरारत भरी पडी़ है । नस नस फड़क उठना = बहुत अधिक प्रसन्नता होना । अति आनंद होना । उमंग होना । जैसे,— आपके चुटकुले सुनकर तो नस नस फड़क उठती है । नस भड़कना = (१) दे॰ 'नस चढना' । (२) विक्षिप्त होना । पागल होना । यौ॰—घोडा़नस = पैर की वह बडी़ नस जो पीछे की ओर पिंडली के नीचे होती है । इसके कट जाने से बहुत अधिक खून बहता है जिससे लोग कहते हैं, आदमी मर जाता है ।
२. लिंग । पुरुष की मूत्रेंद्रिय । (क्व॰) । मुहा॰—नम या नसें ढीली पड़ जाना = लिंगेंद्रिय का शिथिल हो जाना । पुंसत्व की कमी हो जाना ।
३. पतले रेशे वा तंतु जो पत्तों बीच बीच में होते हैं ।
नस पु ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ निश] दे॰ 'निशा' । उ॰—लागे सा व सुहाँमणउ, नस भर कुंझड़ियाँह । जल पोइणिए छाइयउ, कहउ त पूगल जाँह ।—ढोला॰, दू॰ २४५ ।