पान
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]पान । उ॰—कनक कलित अहिबेलि बढ़ाई । लखि नहिं परै सपरन सहाई ।—तुलसी (शब्द॰) ।
पान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. किसी द्रव पदार्थ को गले के नीचे घूँट घूँट करके उतारना । पीना । उ॰—(क) रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेही पाना ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) रुधिर पान करि आत माल धरि जब जब शब्द उचारी ।—सूर (शब्द॰) । यौ॰—जलपान । मद्यपान । निषपान, आदि ।
२. मद्यपान । शराब पीना । उ॰—करसि पान सोवसि दिन राती । सुधि नहिं तब सिर पर आराती ।—तुलसी (शब्द॰) ।
३. पीने का पदार्थ । पेप द्रव्य । जैसे, जल, मद्य, आदि ।
४. मद्य । मदिरा । उ॰—सँग ते यती कुमंत्र ते राजा । मान ते ज्ञान पान ते लाजा ।—तुलसी (शब्द॰) ।
५. पानी । उ॰—(क)सीस दीन मैं अगमन प्रेम पान सिर मेलि । अब सो प्रीति निबाहउ चलो सिद्ध होइ खेलि ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) गुरु को मानुष जो गिनै चरणामृत को पान । ते नर नरके जायँगे जन्म जन्म होइ स्वान ।—कबीर (शब्द॰) ।
६. वह चमक जो शस्त्रों को गरम करके द्रव पदार्थ में बुझाने से आती है । पानी । आब ।
७. पीने का पात्र । कटोरा । प्याला ।
८. कुल्या । नहर ।
९. कलवार ।
१०. रक्षा रक्षण ।
११. प्याऊ । पौसाला ।
१२. नि:श्वास ।
१३. जय ।
१४. पीना । चूसना । चूमना । चुंबन । जैसे, अधरपान ।
पान पु ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ प्राण] प्राण । उ॰—पान अपान व्यान उदान और कहियत प्राण समान । तक्षक धनंजय पुनि देवदत्त और पौड्रक संख द्युमान ।—सूर (शब्द॰) ।
पान ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पर्ण, प्रा॰ पणण]
१. पत्ता । पर्ण । उ॰— औषध मूल फूल फल पाना । कहें नाम गनि मंगल जाना ।— तुलसी (शब्द॰) । उ॰—हाथी कौ सौ कान किधौं, पीपर कौ पान किधौं, ध्वजा कौ उड़ान कहौं थिर न रहतु है ।—सुंदर॰ ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ ४५७ ।
२. एक प्रसिद्ध लता जिसके पत्तों का बीड़ा बनाकर खाते हैं । तांबूलवल्ली । तांबूली । नागिनी । नागरवल्ली । विशेष—यह लता सीमांत प्रदेश और पंजाब को छोड़कर संपूर्ण भारतवर्ष तथा सिंहल, जावा, स्याम, आदि उष्ण जलवायुवाले देशों में अधिकता से होती है । भारत में पान का व्यवहार बहुत अधिक है । कत्था, चूना, सुपारी आदि मसालों के योग से बना हुआ इसका बीड़ा खाकर मन प्रसन्न तथा अतिथि आदि का सत्कार करते हैं । देवताओं और पितरों के पूजन में इसे चढ़ाते हैं और इसका रस अनेक रोगों में औषध का अनुपान होता है । पान की जड़ भी, जिसे कुलंजन या कुलींजन कहते हैं, दवाई के काम आती है । उपर्युक्त दो प्रांतों को छोड़कर भारत के सभी प्रांतों में खपत और जलवायु की अनुकूलता के अनुसार न्यूनाधिक मात्रा में इसकी खेती की जाती है । इसकी खेती में बड़ा परिश्रम और झंझट होता है । अत्यंत कोमल होने के कारण अधिक सरदी गरमी यह नहीं सहन कर सकती । इसकी खेती प्रायः तालाब या झील आदि के किनारे भीटा बना कर की जाती है । धूप और हवा के तीखे झोंकों से बचाव के लिये भीटे के ऊपर बाँस, फूस आदि का मंडप छा देते हैं जिसके चारों ओर टट्टियाँ लगा दी जाती हैं । मंडप के भीतर बेलें चढ़ाई जाती हैं । इस मंडप को पान का बँगला, बरेव या बरौजा कहते हैं । इसके छाने में इस बात का ख्याल रखा जाता है कि पौधे तक थोड़ी सी धूप छनकर पहुँच सके । भीटा बीच में ऊँचा, चौरस और अगल बगल, कभी कभी एक ही ओर, ढालू होता है, इससे वर्षा का जल उसपर रुकने नहीं पाता । भीटे पर आधा फुट गहरी और दो फुट चौड़ी सीधी क्यारियाँ बनाई जाती हैं । इन्हीं में थोड़ी थोड़ी दूर पर कलमें रोपी जाती हैं । जो पौधे पूरी बाढ़ को पहुँच चुकते हैं और जिनमें पत्ते निकलना बंद हो जाता है वे ही कलमें तैयार करने के काम आते हैं । उड़ीसा में इससे भी अधिक समय तक उससे अच्छे पत्ते निकलते जाते हैं । इसलिये पान की खेती वहाँ सबसे अधिक लाभदायक है । कहीं कहीं पान की बेलें भीटे पर नहीं किंतु किसी पेड़, अधिकतर सुपारी, के नीचे लगाई जाती हैं । पान की अनेक जातियाँ हैं । जैसे, बँगला, मगही, साँची, कपूरी, महोबी, अछुवा, कलकतिहा, आदि । गया का मगही पान सबसे अच्छा समझा जाता है । इसकी नसें बहुत पतली और मुलायम होती हैं । इसका बीड़ा मुँह में रखते ही गल जाता है । इसके बाद बँगला पान का नंबर है । महोबी पान कड़ा पर मीठा होता है और अच्छे पानों में गिना जाता है । कलकतिहा कड़ा और कड़वा होता है । कपूरी बहुत कड़वा होता है । उसके पत्ते लंबे लंबे होते हैं और उससे कपूर की सी सुगंधि आती है । वैद्यक के अनुसार पान उत्तेजक, दुर्गंधि- नाशक, तीक्ष्ण, उष्ण, कटु, तिक्त, कषाय, कफनाशक, वातघ्न श्रमहारक, शांतिजनक, अंगों को सुंदर करनेवाला और दाँत, जीभ आदि का शोधक है । वेदों, सूत्रग्रंथों, वाल्मीकि रामायण और माहाभारत में पान का नाम नहीं आया है, परंतु पुराणों और वैद्यक ग्रंथों में इसका उल्लेख बार बार मिलता है । विदेशी पर्यटकों नें भारतवासियों की पान खाने की आदत का उल्लेख किया है । अत्यंत प्राचीन ग्रंथों में इसका नाम न आने से यह सूचित होता है कि इसका व्यवहार पहले से पूर्व और दक्षिण में ही था । वैदिक पूजन में पान नहीं है । पर आजकल प्रचलित तांत्रिक पद्धति में पान का काम पड़ता है । यौ॰—पानदान । मुहा॰—पान उठाना = कोई काम करने के लिये प्रतिज्ञाबद्ध होना । बीड़ा उठाना या लेना । पान कमाना = पान को उलटना पुलटना और सड़े अंश या पत्तों का अलग करना । पान चीरना = व्यर्थ के काम करना । ऐसे काम करना जिससे कोई लाभ न हो । पान खिलाना = वर कन्या के ब्याह संबंध में उभय पक्ष का वचनवद्ध होना । मँगनी करना । सगाई करना । पान देना = किसी काम, विशेषत:किसी साहसपूर्ण काम के कर डालने के लिये किसी से हामी भरवाना । बीड़ा देना । उ॰—वाम वियोगिनि के बध कीवे को काम बसंतहिं पान दियो है ।—रघुनाथ (शब्द॰) । पान पत्ता = (१) लगा या बना हुआ पान । (२) तुच्छ, पूजा या भेंट । पान- फूल । पान फूल = (१)सामान्य उपहार या भेंट । (२) अत्यंत कोमल वस्तु । पान फेरना = पान कमाना । पान बनाना = (१) पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि रखकर बीड़ा तैयार करना । (२) दे॰ 'पान कमाना' । पान लेना = किसी काम के कर डालने की प्रतिज्ञा करना या हामी भरना । बीड़ा लेना । उ॰—नृपति कै लै पान मन कियो अभिमान करत अनुमान चहुँपास धाऊँ ।—सूर (शब्द॰) । पान सुपारी = किसी शुभ अवसर पर निमंत्रित जनों का सत्कार करने की रीति ।
३. पान के आकार की चौकी या ताबीज जो हार में रहती है ।
४. जूते में पान के आकार का वह रंगीन या सादे चमड़े का टुकड़ा जो एँड़ी के पीछे लगता है ।
४. ताश के पत्तों के चार भेदों में से एक जिसमें पत्ते पर पान के आकार की लाल लाल बूटियाँ बनी रहती हैं ।
पान पु ^४ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाणि] दे॰ 'पानि' या 'पाणि' । उ॰— बैठी जसन जलूस करि फरस फवी सुखदान । पानदान तैं लै दऐ पान पान प्रति पान ।—स॰ सप्तक, पृ॰ ३६४ ।
पान ^५ संज्ञा पुं॰ [देश॰] लड़ी । गून । (लश॰) ।
पान ^६ संज्ञा स्त्री॰ सूत को माँड़ी से तर करके ताना करना । (जुलाहा) ।