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प्राकृत

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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प्राकृत ^१ वि॰ [सं॰]

१. प्रकृति से उत्पन्न या प्रकृति संबंधी ।

२. स्वाभाविक । नैसर्गिक ।

३. भौतिक ।

४. स्वाभाविक । सहज ।

५. साधारण । मामूली ।

६. संसारी । लौकिक ।

७. नीच । असंस्कृत । अनपढ़ । ग्रामीण । फूहड़ ।

प्राकृत ^२ संज्ञा स्त्री॰

१. बोलचाल की भाषा जिसका प्रचार किसी समय किसी प्रांत में हो अथवा रहा हो । उ॰—जे प्राकृत कवि परम सयाने । भाषा जिन हरिकथा बखाने ।—तुलसी (शब्द॰) ।

२. एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचार प्राचीन काल में भारत में था और जो प्राचीन संस्कृत नाटकों आदि में स्त्रियों, सेवकों और साधारण व्यक्तियों की बोलचाल में तथा अलग ग्रंथों में पाई जाती है । भारत की बालचाल की भाषाएँ बोलचाल की प्राकृतों से बनी हैं । विशेष—हेमचंद्र ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सूचित किया है कि प्राकृत संस्कृत से निकलती है, पर प्रकृति का यह अर्थ नहीं है । केवल संस्कृत का आधार रखकर प्राकृत व्याकरण की रचना हुई है । पर अनुमान है कि ईसवी सने से प्रायः ३०० वर्ष पहलै यह भाषा प्राकृत रूप में आ चुकी थी । उस समय इसके पश्चिमी और पूर्वी दो भेद थे । यह पूर्वी प्राकृत ही पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई (दे॰ 'पाली') । बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ इस मागधी या पाली भाषा की बहुत अधिक उन्नति हुई, क्योंकि पहले उस धर्म के सभी ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए । धीरे धीरे प्राचीन प्राकृतों के विकास से आज से प्रायः १००० वर्ष पहले देश- भाषाओं का जन्म हुआ था । जिस प्रकार संस्कृत भाषा का सबसे पुराना रूप वैदिक भाषा है, उसी प्रकार प्राकृत भाष ा का भी जो पूराना रूप मिलता है उसे आर्ष प्राकृत कहते हैं । कुछ बौद्ध तथा जैन विद्वानों का मत है कि पाणिनि ने इस आर्ष प्राकृत का भी एक व्याकरण बनाया था । पर कुछ लोगों को यह संदेह है कि कदाचित् पाणिनि के समय प्राकृत भाषा का जन्म ही नहीं हुआ था । मार्कडेय ने प्राकृत के इस प्रकार भेद किए हैं—(१) भाषा (महाराष्ट्रा, शौरसेनी, प्राच्या, आवंती, मागधी, अद्धंमागधी), (२) विभाषा (शाकारी, चांडाली, शावरी, आभीरी, टाक्की, औड्री, द्रविडी), (३) अपभ्रंश, और (४) पैशाची । चूलिका पैशाची आदि कुछ निम्न श्रेणी की प्राकृतें भी हैं । सबसे प्राचीन काल में मागधी की भाषा पाली के नाम से साहित्य की ओर अग्रसर हुई । बौद्ध ग्रंथ पहले इसी भाषा में लिखे गए । यह मागधी व्याकरणों की मागधी से पृथक् और प्राचीन भाषा है । पीछे जैनों के द्वारा अद्धमागधी और महाराष्ट्री का आदर हुआ । महाराष्ट्री साहित्य की प्राकृत हुई जिसके एक कृत्रिम रूप का व्यवहार संस्कृत के नाटकों में हुआ । इन प्राकृतों से आगे चलकर और घिसकर जो रूप हुआ वह अपभ्रंश कहलाया । इसी अपभ्रंश के नाना रूपों से आजकल की आर्य शाखा की देशभाषाएँ निकली हैं । इसके अतिरिक्त ललितविस्तर में एक प्रकार की और प्राकृत मिलती है जो संस्कृत से बहुत कुछ मिलती जुलती है । प्राकृत भाषा में द्विवचन नहीं है और उसकी वर्णमाला में ऋ ऋ लृ लृ ऐ और औ स्वर तथा श ष और विसर्ग नहीं हैं ।

३. पराशर मुनि के मत से बुध ग्रह की सात प्रकार की गतियों में पहली और उस समय की गति जब वह स्वाती भरणी और कृत्तिका में रहता है । यह चालीस दिन की होती है और इसमें आरोग्य, वृष्टि, धान्य की वृद्धि और मंगल होता है ।