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ब्रह्म

विक्षनरी से

ब्रह्मचर्या = ब्रह्म प्राप्ति की चर्या प्राप्त /करना ब्रह्मचारी =ब्रह्म चारण(प्राप्त)आशय ब्रह्मचर्य= गृहस्त, सन्यस्त, वानप्रस्ति, तपस, योगस, दर्श(दर्शन युक्त ) चर्या =(यत्न चेतस कर्म इन्द्रियाणां )आचरण, कर्तव्य, साधन वह सन्यासी, गृहस्त,कोई भी इति सूक्ष्म सूत्रम नैव प्रकाशन बोध बुद्धत्वं शोधं शुद्धत्वं कर्म कर्म कारकत्वं कारणत्वं वाणी वागत्वं

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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ब्रह्म संज्ञा पुं॰ [सं॰ ब्रह्मन्]

१. एक मात्र नित्य चेतन सता जो जगत् का कारण हे । सत्, चित्, आनंद स्वरुप तत्व जिसके अतिरिक्त और जो कुछ प्रतीत होता है, सब असत्य़ और मिथ्या है । विशेष— ब्रह्मा जगत् का कारण है, यह ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है । ब्रह्म सच्चिदानंद अंखंड़ नित्य निर्गुण अद्बितीय इत्यादि है । यह उसका स्वरुपलक्षण है । जगन् का कारण होने पर भी जैसी कि सांख्य़ की प्रकृति या बैशिषिक ता परमाणु है, उस प्रकार ब्रह्म परिणामी या आरंभक नहीं । वह जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान-विवात कराण है, जैस, मकड़ी, जो जाले का निमित्त और उपादान दोनों कहीं जा सकती है । सारंश यह कि जगत् ब्रह्म का परिणाम या विकार नहीं है, । किसी वस्तु का कुछ और हो जाना विकार या परिणाम है । उसका और कुछ प्रतीत होना विवर्त है । जैसे, दूध का दही हो जाना विका र है, रस्सी का साँप प्रतीत होना विवर्त है । यह जगत् ब्रह्म का विवर्त है, अतः मिथ्या या भ्रम रुप है । ब्रह्मा के अतिरिक्त और कुछ सत्य नहीं है । और जो कुछ दिखाई पड़ता है, उसकी पारिमार्थिक सत्ता नहीं है । चैतन्य आत्मवस्तु के अतिरिक्त और किसी वस्तु की सत्ता न स्वागत भेद के रुप में, न सजानीय भेद के रूप में औऱ न विजातीय भेद के रूप में सिद्ध हो सकती है । अतः शुद्ध अद्वैत द्दष्टि में जीवात्मा ब्रह्म का अंश (स्वगत भेद) नहीं है, अपने को परिच्छन्न और मायाविशिष्ट समझना हुआ ब्रह्म ही है । सत् पदार्थ केवल एक ही हो सकता है । दो सत् पदार्थ मानने से दोनों को देश या काल से परिच्छन्न मानना पड़ेगा । नाम और रुप की उत्पत्ति का नाम ही सृष्टि है । नाम और रुप ब्रह्म के अवयव नहीं, क्योंकि वह तीनों प्रकार के भेदों से रहित है । अतः अद्वैत ज्ञान ही सत्य ज्ञान है । द्वैत या नानात्व ज्ञान अज्ञान है, भ्रम है । 'ब्रह्य' का सम्यक् निरुपण करनेवाले आदिग्रंथ उपनिषद् है । उनमें 'नेति' नेति' (यह नहीं, यह नहीं) कहकर ब्रह्य प्रपंचों से परे कहा गया है । 'तत्वमसि' इस वाक्य द्वारा आत्मा और ब्रह्म का अभेद व्यंजित किया गया है । ब्रह्मसंबंधी इस ज्ञान का प्राचीन नाम ब्रह्मविद्या है, जिसका उपदेश उपनिषदों में स्थान स्थान पर है । पीछे ब्रह्मतत्व का व्यवस्थित रुप में प्रतिपादन व्यास द्वारा ब्रह्मसूत्र में हुआ,जो वेदांत दर्शन का आधार हुआ । दे॰ 'वेदांत' ।

२. ईश्वर । परमात्मा ।

३. आत्मा । चैतन्य । जैसे,—जैसा तुम्हारा ब्रह्म कहे, वैसा करो ।

४. ब्राह्मण (विशेषतः समस्तपदों में प्राप्त) । जैसे ब्रह्मद्रोही, ब्रह्माहत्या । उ॰— चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई । सत्य कहौं दोउ भुजा उठाई ।—तुलसी (शब्द॰) ।

५. ब्रह्मा (अधिकतर समास में) । जैसे, ब्रह्मसुता, ब्रह्मकन्यका । उ॰—(क) मोर बचन सबके मनमाना । साधु साधु करि ब्रह्म बखाना ।—मानस, १ ।१८५ । (ख) ब्रह्म रचै पुरुषोतम पोसत संकर सृष्टि सँहरान हारे ।— भुषण ग्रं॰, पृ॰ ५१ ।

६. ब्राह्मण जो मरकर प्रेत हुआ हो । ब्राह्मण भुत । ब्रह्मराक्षस । मुहा॰—ब्रह्म लगना =किसी के ऊपर ब्राह्मण प्रेत का अधिकार होना । उ॰—तासु सुता रहि सुछबि विशाला । ताहि लग्यो इक ब्रह्य कराला ।—रघुराज (शब्द॰) ।

७. वैद ।

८. एक की संख्या ।

९. फलित ज्योतिष में २७ योगों में से पचीसवाँ योग जो सब कार्यों के लिये शुभ कहा गया है ।

१०. संगीत में ताल के चार भेदों में से पक (को॰) ।

१२. ब्राह्मणत्व (को॰) ।

१३. प्रणव । ओंकर (को॰) ।

१४. सत्य (को॰) ।

१५. धन (को॰) ।

१६. भोजन (को॰) ।