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रत्न

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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रत्न संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. कुछ विशिष्ट छोटे, चमकीले, बहुमूल्य पदार्थ, विशेषतः खनिज पदार्थ या पत्थर, जिनका व्यवहार आभूषणों आदि में जड़ने के लिये होता है । मणि । जवाहिर । नगीना । जैसे,—हीरा, लाल, पन्ना, मानिक, मोती आदि । विशेष—हमारे यहाँ हीरा, पन्ना, पुखराज, मानिक, नीलम, गोमेद, लहसुनियाँ, मोती, और मूँगा ये नौरत्न माने गए हैं । कहीं इनकी संख्या पाँच और कहीं चौदह भी कहीं गई है । जैसे, पंचरत्न, नवरत्न, समुद्रमंथनोदुभूत चतुर्दश रत्न । इसके अतिरिक्त पुराणों आदि में भी अनेक रत्न गिनाए गए है, जिनमें से कुछ वास्तविक और कुछ कल्पित हैं । जैसे—गंधशस्य, सूर्यकांत, चंद्रकांत, स्फटिक, ज्योतिरस, राजपट्ट, शंख, सीसा, भुजंग, उत्पल आदि । रत्न धारण करना हमारे यहाँ बहुत पुण्यजनक कहा गया है । ग्रहों आदि का उप्तात होने पर रत्न पहनने और दान करने का विधान है । वैद्यक में इन रत्नों से भी भस्म बनाई जाती है, और अलग अलग रत्नों की भस्म का अलग अलग गुण माना जाता है ।

२. माणिक्य । मानिक । लाल । विशेष—कविता में कभी कभी रत्न शब्द से मानिक का हीं ग्रहण होता है ।

३. वह जो अपने वर्ग या जाति में सबसे उत्तम हो । सर्वश्रेष्ठ । जैसे, नररत्न, ग्रंथरत्न आदि ।

४. जैनों के अनुसार सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र ।

५. पानी । जल (को॰) ।

६. अयस्कांत चुंबक (को॰) ।