रूखा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]रूखा ^१ वि॰ [सं॰ रुक्ष, रूक्ष, प्रा॰ रुक्ख]
१. जो चिकना न हो । जिसमें चिकनाहट का अभाव हो । चिकना का उलटा । अस्निग्ध । जैसे,—रूखा बाल, रूखा शरीर ।
२. जिसमें घी, तेल आदि चिकने पदार्थ न पड़े हों । जैसे—रूखी रोटी, रूखी दाल ।
३. जो चटपटा न हो । जो खाने में रुचिकर और स्वादिष्ट न हो । सीठा । उ॰—(क) कैसे सहब खिनहिं खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) साँच झूठ करि माया जोरी आपुन रूखो खातो । सूरदास कछु थिर नहिं रहिहैं जो आयो सो जातो ।—सूर (शब्द॰) । मुहा॰—रूखा सूखा = जिसमें चिकना और चरपरा पदार्थ न हो । बिना घी और चटपटे पदार्थो के । जेसे,—रूखा सूखा जो मिला वही, खाकर पड़ रहा ।
४. जिसमें रस न हो । सूखा । शुष्क । नीरस ।
५. जिसका तल सम न हो । वरदरा । जैसे,—यह कागज कुछ रूखा दिखाई पड़ता है । यौ॰—रूखा माल = नक्काशी किया हुआ बरतन (कसेरा) ।
६. जिसमें प्रेम न हो । स्नेहरहित । नीरस फोका । उदासीन । उ॰—(क) रूखे सूखे जे रहत नेह बास नहिं लेत । उनतें वे अखियाँ भली नेह परसि जिय देत ।—रसनिधि (शब्द॰) । (ख) सतर भाँह रूखे वचन करत कठित मन नीठि । कहा करौं ह्वै जाति हरि हेरि हंसौही दिठि ।—बिहारी (शब्द॰) । (ग) वे ही नैन रूखे से लगत और लोगन को वेई नैन लागत सनेह भरे नाह कै ।—मतिराम (शब्द॰) ।
७. परुप । कठोर । उ॰—(क) मुख रूखी बातें कहै जिस में पी की भूख । धीर अधीरा जानिए जैसे मीठी ऊख ।—केशव (शब्द॰) । (ख) उतर न देइ दुसह रिस रूखी । मृगिन्ह चितव जस बधिन भूखी ।—तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰—रूखा पड़ना या होना = (१) वेमुरौवती करना । शील संकोच का त्याग करना । (२) क्रुद्ध होना । नाराज होना रोष प्रकट करना । तीखा पड़ना । उ॰—पूछि क्यों रूखों पड़ति सग- बग रही सनेह । मनमोहन छबि पर कटी कहै कटयानी देह ।— बिहारी (शब्द॰) । (ख) भोजन देहु भए वे भूखे । यह सुनिकै ह्वँगे वे रूखे ।—सूर (शब्द॰) ।
८. उदासीन । विरक्त । उ॰—(क) नाहिन राम राज के भूखे । धरम धुरीन विषय रस रूखे ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) सजल नयन कछु मुख करि रूखा । चितइ मातु लागी अति भूखा ।—तुलसी (शब्द॰) । (ग) नेह लगे से ये बदन चिकने सरस दिखाई । नेह लगाए भावतो क्यों रूखो हाइ जाइ ।—रसानिधि (शब्द्॰) ।
रूखा ^२ संज्ञा पुं॰ एक प्रकार की छेनी ।