सामग्री पर जाएँ

रूप

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

[सम्पादन]

शब्दसागर

[सम्पादन]

रूप ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. किसी पदार्थ का वह गुण जिसका बोध द्रष्टा । को चक्षुरिंद्रिय द्बारा होता है । पदार्थ के वर्णो और आकृति का योग जिसका ज्ञान आँखों को होता है । शकल । सूरत । आकार । विशेष—पदार्थों में एक शक्ति रहती है, जिससे तेज इस प्रकार विकृत होता है कि जव वह आँखों पर लगाता है, तब द्रष्टा को उस पदार्थ की आकृति । वर्णादि का ज्ञान होता है । इस शक्ति को भी । रूप ही कहते हैं । दर्शन शास्ञों में रूप को चक्षुरिंद्रिय का विषय माना है । वैशेषिक, दर्शन में यह गुण माना गया है । सांख्य ने इसे पंचतन्ञाओं में एक तन्माञा माना है । बौद्ध दर्शन में इसे पाँच स्कंधों में पहला स्कंध कहा है । महाभारत में सोलह प्रकार के गुण (ह्लस्व ,दीर्घ, स्थूल, चतुरस्त्र, वृत्त, शुक्ल, कृष्ण, नीलारूण, रक्त, पीत, कठिन, विक्कण, श्लक्ष्ण, पिच्छल, मृदु और दारुण) रूप के भेद या प्रकार माने गए हैं । वेदांत दर्शन ने इसका एक प्रकार की उपाधि माना है और अविद्याजनित लिखा है । यौ॰—रूपरेखा = आकार । शकल ।

२. स्वभाव । प्रकृति ।

३. सौदर्य । सुंदरता । उ॰—मुनि मन हरप रूप अति मोरे । मोहि तजि आनहिं तरहि न भोरे ।—तुलसी (शब्द॰) ।

रूप ^१ वि॰

१. रूपवाला । रूपवान । खूबसूरत । उ॰—समय समय सुंदर सबै रूप कुरूप न कोइ । मन की रुचि जेती जिते तितै तिती रुचि होइ ।—बिहारी (शब्द॰) ।

२. समान । तद्रुप । अनुरूप । उ॰—पारस रूपी जीव है लोह रूप संसार । पारस ते पारस भया परखा भया टकसार ।—कबीर (शब्द॰) ।