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विक्षनरी:दादू ग्रन्थावली के शब्दार्थ

विक्षनरी से
दादू ग्रंथावली - डॉ. बलदेव वंशी
शब्दार्थ

अथ श्री गुरुदेव का अंग

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गुरु-परम्परा वेदों से प्रारम्भ हुई। गुरु-परम्परा को मानना वैदिक परम्परा का स्वीकार भी है और आस्तिकता का स्वीकार भी। क्योंकि अध्यात्म रहस्य का विषय है। गूढ़ है। इसलिए गुरु की भूमिका निर्गुणपंथी संतों में अनिवार्य हो जाती है। परमार्थ का और अध्यात्म का ज्ञान देने वाले गुरु की महिमा-वर्णन करने का उपक्रम संत दादूदयालजी ने मंगलाचरण के रूप में किया है :-

1. संत शिरोमणि दादू दयालजी महाराज ने पहले अपने इष्टदेव को बारंबार प्रणाम किया है। यह इष्टदेव मायारहित परब्रह्म है इसलिए निरंजन है। गुरु की कृपा से परब्रह्म प्राप्ति होती है अतः गुरुदेव को भी नमस्कार। सत्संगति के कारण रूप संतों को भी प्रणाम। चौथे चरण में परब्रह्म, गुरु तथा साधु-संतों को सदा प्रणाम किया है जो सुख-दु:ख के क्लेश स्वरूप इस संसार से पार चले गये हैं।

2. अपने इष्ट की पहचान कराई है : जो निराकार, निर्मल और मायादि से परे परब्रह्म हैं, वह ही निरंजन देव मेरे इष्टदेव हैं। उन इष्टदेव को प्रणाम।

3. गैव = राह में जाते, अचानक, अदृश्य लोक। परसाद = कल्याण का आशीष। कर = करुणामय हाथ। दख्या = दिखाया, दीक्षा दी। अगम = इंद्रियों की पहुँच से परे, पर ब्रह्म। अगाध = गहन।

4. निर्धन = दरिद्र, विषयों के कारण सदा अभाव। धनवंत = अध्यात्म ज्ञान के कारण संतोष रूपी धन। दातार = दाता।

5. सहजैं = क्रमशः साधना के सोपान पार करते। दीपक = ज्ञान का दीपक

6. बाट = अध्यात्म-मार्ग। ताला = कर्ममय बंधन, विषय-वासना के पाश। कूँच = ज्ञान की चाभी, अनासक्ति वृत्ति। कपाट = भ्रम, अज्ञानरूपी किवाड़।

7. अंजन = ज्ञानरूपी सुर्मा, ज्ञान का उपदेश। नैन पटल = अंतरात्मा के नयन। बहरे = अंतरात्मा की पुकार सुनने में अक्षम। गूँगे = हरिस्मण में अक्षम।

8. दाता = आत्मस्वरूप की पहचान देने वाला दानी। सौंज = साज-सँभाल

9. अगम गवन = ब्रह्म तक जाने का मार्ग। सैन = संकेत। आप = सत्य-स्वरूप ब्रह्म को। अैन = साक्षात्।

10. फेरिकर = विषयवासना से भगवान की ओर घुमा कर। औरे = और ही, भिन्न। पंचौ = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। अनूप = अपूर्व।

11. साज = मन, इन्द्रियादि को प्रभोन्मुख करके, साज-सँवार कर। नाव = सत्संग एवं ज्ञानरूपी नौका। पार = संसाररूपी सागर से पार।

12. पशु = जो सांसारिक बन्धनों, पाँच इंद्रियों के पाश में बँधा हो, पामर प्राणी। मानुष = मानवीयता के गुणों से सम्पन्न। सिद्ध = आत्मिक सिद्धि प्राप्त व्यक्ति। देवता = दिव्य गति प्राप्त।

13. काल = वासनामय मृत्यु रूप।

14. मृतक = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि वृत्तियों के वशीभूत। चैतन्य = संज्ञा सहित, सचेत।

15. गूँगे = निज-स्वार्थों में आबद्ध, अन्याय देखकर मूक रहने वाले।

16. महर दया = दया-कृपा।

17. केश = सिर के बाल, स्वार्थमय कर्म। पैल = भवसागर।

18. भव सागर = शिव के आठ रूपों-उग्र, रुद्र, ईशान, सर्ब आदि में से एक-पृथ्वी पर व्याप्त दो-तिहाई जल। देह में भी यही अनुपात होता है जल का। इसका केन्द्र हृदय में स्थित है। हृदय में प्रकम्प उठने को भाव कहते हैं। भव से उत्पन्न भाव-क्षेत्र में स्थित प्राणीमात्र एवं सगे-संबंधियों के प्रति दायित्व-मुक्त होना-भव-सागर से पार उतरना है। 'पैली' भी खेतों में ठहरे हुए जल को कहते हैं। अतः पैली-पार भी भव-सागर पार करना है। जन्म-मृत्यु का क्रम।

19. अमर अलेख = जन्म-मृत्यु निरपेक्ष, ब्राह्मी स्थिति।

20. आतम = भक्ति सम्पन्न बुद्धि। पंगुल ज्ञान = सत्, रज, तम-त्रिगुणातीत ज्ञान। कृत्रिम = मायामय, बनावटी, मनुष्यकृत। उलंघि = लाँघ कर, पार करके। निरंजन थान = निरंजन ब्रह्म का स्थान।

21. आत्मबोध = आत्मस्वरूप का ज्ञान। बंझ = निर्विकल्प बुद्धि। गुरुमुख = गुरु में निष्ठा रखने वाला शिष्य। पंगुल = निश्चल-बुद्धि। पंच बिन = पाँच विषयों की आशा से रहित।

22. सहजैं = अनायास ही। प्रीतम = प्रियतम, परमात्मा।

23. शब्द विचार करि = गुरु के उपदेश को सुनना। ज्ञान गहै = समाधि-अवस्था में गुरु-ज्ञान में लय होना। सहज = सहज ब्रह्म स्वरूप।

24. भावै = गुरु यदि चाहें तो। अंतर = अंतःकरण में। आप कहि = स्वयं प्रेरणा जगा कर। अपने अंग लगाय = अपने स्वरूप में लगाकर।

25. सारा देखिए = भक्त बाहरी जीवन-व्यवहार में पूरा दिखता है। भीतर कीया चूर = मन के भीतर वासनादि का विनाश। शब्दों = चैतन्य शब्दों द्वारा। जाण न पावे दूर = परमात्म-अनुभूति से दूर।

26. निरखि-निरखि = लक्ष्य करके। निज ठौर = स्वयं लक्षित करके चित्ता न। आवै और = राम के अतिरिक्त अन्य कोई मन में नहीं आता।

27. साध शब्द = परमार्थ बोध जगाने वाले शब्द। सुधि = स्मरण, याद। सोधि = संशोधित, सुधारकर, शोधन करके। पद निर्वान = मुक्ति दशा, निर्विकल्प स्थिति।

28. दिशंतर = दशों दिशाओं में। ऊबरे = भवसागर में डूबने से बच गये, उबर गये, बच गये।

29. सूर = काम, क्रोधादि शत्रुओं को जीतने वाला शूरवीर।

30. राम रस = आत्म आनंद, ब्रह्मानंद।

31. बिलोवणहार = मन्थन करने वाला। अमृत = तत्वरूपी विचार।

32. घीव दूध में रमि रह्या = जैसे दूध की हर बूँद में घी रमा रहता है, वैसे ही सद्गुरु-शब्द-दूध के प्रत्येक अणु में परमार्थ रूपी घी रमा रहता है। बकता = केवल चर्चा करने वाले। मथि काढे = अन्तर्मुख वृत्ति वाले ध्यान, धारणा द्वारा उनमें से परमार्थ तत्व निकाल लेने वाले।

33. कामधेनु = दूध, घृतादि पंच गव्य के द्वारा कामनाएँ पूरी करने वाली गाय। गोरू = साधारण गाय, पशु (गुरुज्ञान रहित साधारण जीव)।

34. समरथ = अध्यात्म-क्षेत्र में-श्रुति-स्मृति का ज्ञाता। तत = आत्मतत्व। मोटा = महान, बड़ा। महाबल = आंतरिक, आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न।

35. सब घट = ज्ञानेन्द्रियाँ और मन। दीवा = ज्ञान-दीपक।

36. दीयैS ¾ गुरु के ज्ञान रूपी दीपक से। दीवा = शिष्य का ज्ञान-दीपक। गुरुमुख मारग = गुरु के वचनों से दिखाये गये मार्ग।

37. दीया = ज्ञान दीपक। घर में धर्या = अंतःकरण में स्थित आत्मा।

38. दीया चाले साथ = ज्ञान का प्रकाश आत्म-स्वरूप होने से साथ चल कर ब्रह्म में लय होता है।

39. निर्मल गुरु = भ्रम, प्रमाद, आदि मल से रहित। निर्मल भक्ति = निष्कामभक्ति।

40. पंचकर = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ।

41. परापर = परात्पर परमात्मा। पासै = अंतः करण में, एक ही स्थान पर, समीप। कोई = अज्ञानी। ल्यौ लाय = स्थिर, ध्यानवृत्ति।

42. सिरजे = उत्पन्न किया। अरवाह = जीवात्मा।

43. धण = मालिक, परमात्मा।

44. सदिकै = न्यौछावर।

45. सरवर = ब्रह्मचेतनरूपी सरोवर। पंख = प्यासा, अज्ञानी व्यक्ति।

46. मान-सरोवर = अंतःकरणरूपी सरोवर।

47. गरवा = गम्भीर ज्ञानवान। गम = गति होना, ज्ञात होना।

48. सुरति = आत्मनिष्ठ वृत्ति।

49. सो = ब्रह्मनिष्ठ गुरु। धी दाता = आत्मबुद्धि देने वाला। संजोग = पूर्व पुण्यकर्म फलस्वरूप।

50. दर्शन = परमात्मा का साक्षात्कार।

51. किरका = कण। तार = विचारों का तारतम्य। सांधे = साधना, जोडना। वृत्तियों को भंग करने के कारणों से वृत्ति को बचाकर ध्यान में जोड़े रखना। पीर = सिद्ध-पुरुष।

52. मारे = शब्दरूपी बाण से संवेदित। अंग लगाय करि = अपनी आत्मिक वृत्ति से जोड़कर।

53. साचा गुरु = ब्रह्मनिष्ठ गुरु। साचा, साचे = सत्य ब्रह्म। अज्ञानादि दोषों से रहित सत्य स्वरूप आत्मा।

54. सोधिले = खोज कर ले। साध = साधना द्वारा उपलब्ध करना। अगाध = अखंड, गहन।

55. राता = रंगा हुआ, ध्यान में डूबा, अनुरक्त। माता = मस्त।

56. सांई सौं साचा = गर्भावस्था में ईश्वर से किये वादे पर दृढ़। सद्गुरु सौं शूरा = सदगुरु से प्राप्त ज्ञान पर शूरवीर की भाँति अडिग। साधु सौं सन्मुख = संतों के सत्संग के अनुकूल। पूरा = पूर्ण ब्रह्म जैसा।

57. दीदार = स्वरूप दर्शन, साक्षात्कार।

58. सेविये = सेवा करना।

59. आण घर = घर में ला कर। तिमिर = अज्ञानांधकार।

61. आपा = विविध प्रकार का अहंकार। और = परब्रह्म के अतिरिक्त इह संसार। सूक्ष्म होयगा = स्थूल जीवभाव त्यागकर सूक्ष्म आत्मभाव होना।

62. दुहेला = दुर्लभ। दखे = द्रवित होना, पसीजना। नेड़ा = निकट।

63. अंतर = दूरी। अरस-परस = परस्पर अभेद हो जाना, एकमेक।

65. राम कहत जन जाग = सद्गरु द्वारा हाथ में ज्ञान दीपक दिया जाने पर सर्वत्र राम दिखाई देने लगता है और सजग होकर साधक आत्मचिन्तन में लगता है।

66. मन माला = मनरूपी माला। बाना = जाप-ध्यान करने की दीक्षा। जहाँ दिवस न परसे रात = दिवस = सूर्य, रात = चंद्र अर्थात् इंगला-पिंगला (सूर्य और चंद्र स्वर) रहित सुषमना नाड़ी के चलते समय अजपा जाप धारण करे और सहज ही चलावै।

67. आगम = वेदादि आगम ग्रंथ। गुरु तैं गम भया = गुरु की कृपा से वेदादि ज्ञान में प्रवेश हुआ। नूर = शुद्ध चैतन्य प्रकाश।

69. माला मन दिया = सद्गुरु ने अजपाजाप रूपी माला मन को दी, जिसे श्वास-प्रश्वास के तार में वृत्ति द्वारा पिरो कर यह जाप बिना हाथों के निशि-दिन चलता है। यही परम जाप है। सर्वोपरि स्मरण है।

70. भीतर लीया भेख = अंतःकरण में फकीरी-भेष धारण किया। माँगे भीख अलेख = अलेख, जो मन आदि का विषय न हो-निर्गुण ब्रह्म की भीख।

71. निश्चल आसन = एकाग्र चित्ता। अकल पुरुष = शुद्ध चैतन्य, पूर्ण ब्रह्म, अकाल पुरुष।

72. सहज शून्य रस = अनहद अमृत रस, निर्द्वन्द्व अवस्था।

73. जहाँ का था = जिस परमात्मा का अंश था।

74. कलेश = कष्ट, दु:ख (घर में या वन में संन्यासी को होने वाले) मन ही मन = व्यक्ति मन (आत्मा) समष्टि मन (परमात्मा) मेें अभेद रूप से जुड़ गया।

75. यहु मसीत यहु देहुरा = शरीर के भीतर अन्तःकरण ही मस्जिद और मंदिर है। यही सेवा-भक्ति का उपासना-गृह है।

76. मंझे चेला = अध्यात्म चेतना सजग व्यक्ति का श्रद्धालु चित्ता ही शिष्य है। मंझे गुरु = ज्ञानयुक्त मन ही गुरु है। मंझे उपदेश = आत्म-स्वरूप ब्रह्म का विचार ही उपदेश है। बावरे = भ्रमित चित्ता वाले।

77. मन का मस्तक = संकल्प-विकल्प रूपी बुद्धि। काम, क्रोध्, विषय आदि केश हैं। गुरु के उपदेश रूपी उस्तरे से इन्हें मूँड, मुंडन करें। बाहरी केश मूँडने से कोई लाभ नहीं।

78. पड़दा भरम का = सारे शरीर पर विषय भोग आदि का पर्दा पड़ा है। गुरु की कृपा से ही यह भ्रमावरण अनायास हट जाता है।

79. मन लै मारग = मन को परमात्म अनुभूति में विलय करना यही-साधू मार्ग है। इसी से उद्धार है। परमोघ = उपदेश।

80. वेद-कुरानों ना कह्या = वेद-कुरान ने जिसे नेति-नेति-यह नहीं, यह नहीं कहा है।

81. भुवंग = विषयोन्मुख मन सर्प है। गुरु गारुड़ = गुरु गरुड़रूपी पक्षी की भाँति है जो सर्प का शत्रु है, सर्प का विष उतारने वाला।

82. उन्मनि = समाधि की दशा में। पंच = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। दूजा = शारीरिक व्यवहार।

83. जंजालौं = काम-क्रोधिदि। गुरुबाइक अवधूत = गुरु के उपदेश में स्वयं को अडिग रखने वाला।

84. चंचल = मन की चपल वृत्ति। बाइक = गुरु वाक्य, गुरु उपदेश। संधि = संयुक्त करना।

85. उदमद माता = विविध वासनाओं के मद में चूर। फंध = फंदा, पाश।

86. मारया बिन = इंद्रिय निग्रह किये बिना। खड़ग = ज्ञान रूपी तलवार।

87. जहाँ तैं = प्रभु चिंतन, ध्यानावस्था से। लै लीन = ब्रह्म-चिंतन में निर्विकल्प ध्यान में।

88. मल = विषयवासना रूपी गंदगी, पापकर्म। सीख चले = गुरु के उपदेशानुसार चलकर।

89. कच्छब = कछुए की भाँति मन-इंद्रियों को भीतर की ओर-परमात्मा की ओर कर लेना।

90. मतै = मति से, विचार से।

92. सयानप = सयानापन, समझदारी।

93. हलाहल = महा विष

94. घर-घर घट कोल्हू चले = प्रत्येक शरीर रूपी घर में कामवासनादि कोल्हू चल रहा है। अमीं महा रस = श्वास और प्राण तत्व के माध्यम से प्राप्त होने वाला ब्रह्मानंद रूपी अमृत व्यर्थ जा रहा है।

96. बरजे = निषेध करे। बंचे = टले, बचे। पानी फोड़ी पाल = जैसे बंधन- हीन जल के निर्बाध प्रवाह से पाल टूट जाता है और बह जाता है उसी प्रकार सद्गुरु द्वारा दी गयी मर्यादा व उपदेश का उल्लंघन करने से इंद्रियों के आवेगी प्रवाह में मन बिखर जाता है।

99. ठाहर = के स्थान पर। हूं-'मैं हूँ' के स्थान पर 'है'-वह-'प्रभु है' कहो। 'तन'-शरीर के अहंकार के स्थान पर ईश्वर की सत्ता को प्रधानता देते हुए-'तूं' (परमेश्वर) कहो। और 'री' (अविद्या) के स्थान पर 'जी'-चेतना ब्रह्म का स्वरूप है, ऐसा कहो। अतः स्थूल, सूक्ष्म और कारण अविद्या को त्याग कर इन तीनों स्तरों पर चेतना की प्रधानता स्वीकार करो।

100. पंच स्वादी पंच दिशि = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी-अपनी राह में पाँच दिशाओं में लगी हैं।पंचे पंचों बाट = इन पाँचों के पाँच वासनामय मार्ग हैं। तब लग कह्या = जब तक ये विषयवासना के भोग-मार्ग पर चल रही है। गह = ग्रहण करो। घाट = ब्रह्म सरोवर का ब्रह्म-घाट।

101. पंचों एकमत = पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ आत्माभिमुख प्रवृत्ति बन गयीं तो एकमत हो गयीं। पंचूं पूरया साथ = पाँचों का सम्मिलित प्रवाह।

102. तिणे = तिनके, गहन गति-पकड़ने का तरीका, बूझे-पूछें, काम वासना आदि दो सौ से तप हुआ मन रूपी लोहा सामान्य कर्म रूपी तृण से नहीं पकड़ा जा सकता। गुरु के निर्देश से अभ्यास करने पर ही इन दोषों का निवारण है।

103. सयान = सयाना, समझदार।

104. धई = प्रहार, चोट।

105. ताइ अग्नि में बाहि = उसे अग्नि में रख के तपावे।

106. साखि = सीख, शिक्षा।

107. ह्नै बोली हुसियार = सावधान होकर बोलना। कहेगा सो बहेगा = अन्यथा यदि गलत कहा गया तो उसको सहना पड़ेगा।

108. जहाँ लाया तहाँ लाग रहु = गुरु ने जिस कार्य में लगाया उसे निष्ठापूर्वक करते रहो।

109. सैन = संकेत, निर्देश।

110. कहे लखे = गुरु के कहे उपदेश को समझने वाला।

111. बपुरा = अवतारी, विवेकी, सुजान बेचारा।

112. जहँ लाया = अंतर्मुखी वृत्ति।

113. विषय हलाहल = विषयों रूपी जहर।

114. बुरी व्यथा = वासनाओं से उत्पन्न पीड़ा।

115. गुरु अपंग पग पंख बिन = गुरु सत्य और निष्ठा-रूपी पैरों के बिना पंगु है। शिष्य शाखा का भार = शिष्य और शिष्य परम्परा उस गुरु के लिए बोझ समान है।

116. संशा जीव का = जिस गुरु का संसार रूपी संशय नष्ट नहीं हुआ। शिष्य शाखा का साल = शिष्य परम्परा-रूपी कलेश।

117. अंधे अंधा मिल चले = विषय, संशय आदि में अंधे गुरु के शिष्य भी विषय वासना में अंधे। बन्ध कतार = पंक्ति बनाकर।

118. सोधी नहीं शरीर क = स्थूल शरीर (देह) की भी क्रिया आदि का ज्ञान नहीं, सूक्ष्म शरीर (मन) कारण शरीर (आत्मा) का ज्ञान नहीं।

119. जान कहावें बापुड़े = अज्ञत होते हुए भी ानी कहाने की इच्छा। आयुध = शस्त्र

120. माया माँहिं काढि कर = सद्गुरु और असद्गुरु के लक्षण बताते हुए। जो गुरु घर = संसार की माया से शिष्य को निकालकर सम्प्रदाय और मठ आदि के प्रपंच में लगा देता है। एको = संसार और परमार्थ में से एक कार्य भी नहीं।

121. गहि भरमावे आन = अपने प्रभाव में लेकर भगवान से भिन्न संसार में ले जाता है। तत्व = माया रहित ब्रह्म तत्व।

123. दुहि-दुहि पीवे ग्वाल गुरु शिष्य है छेली गाय = ग्वालारूपी स्वार्थी गुरु शिष्यरूपी गाय को अपने स्वार्थ सिद्धि-रूपी दूध के दोहन के स्वार्थ में लगाये रहता है।

124. आनि धण = पुनः ब्रह्म को ही समर्पित कर देना।

125. भरम दिढावें = अन्धे, झूठे गुरु संसार आदि प्रपंचों को दृढ़ कर देते हैं।

126. सन्मुख सिरजनहार = अंतःचक्षुओं के सामने।

128. सीझे नहीं = सिद्ध नहीं होते।

129. भेव = भेद, मर्म।

131. पंथ बतावे पाप का = सकाम कर्म और जन्म-मृत्यु ही पाप है।

132. आपा = अहंकार, दम्भ, सांसारिक प्रपंच आदि।

133. अंग = अन्तःकरण। तातैं दादू ताय = साधनों द्वारा तपा कर अन्तःकरण को शुद्ध कर ले।

134. पेलि = दूर भगाना। दादू काटि करंम = संचित कर्मों के बन्धनों को काटना। निहकरम = निष्क्रिय ब्रह्म।

135. बिन पायन का पंथ = ज्ञान का मार्ग, विवेक और वैराग्य के पैरों से यहाँ चला जाता है, हाड़-मांस के पैरों से नहीं। विकट घाट औघट खरे = मार्ग में काम, क्रोध आदि कठिन घाटियाँ हैं और अभिमान तथा मिथ्या अध्यास-रूपी ऊँचे आकाश को छूते हुए शिखर हैं।

136. मन ताजी चेतन चढे = शुद्ध चेतन मन-रूपी घोडे पर सावधन रह कर। ल्यौ = ब्रह्माकार रूपी वृत्ति को लगाम बनाकर तथा गुरु के शब्दों का चाबुक बना कर चलने पर कोई बुद्धिमान संत ही ब्रह्म-प्राप्ति के स्थान पर पहुँच सकता है।

137. आपा भूल = सब प्रकार के अहं का त्याग। गहि गंभीर गुरु = गंभीर ज्ञान वाले गुरु के उपदेश से।

140. सगे हमारे साध हैं = संत जन ही सच्चे सम्बन्धी हैं।

142. शुध = शुद्ध, निर्मल। बुध = विवेकवान। भृंगी कीट = जैसे भृंगी कीट की ध्वनि से, शब्द की गुंजार को ध्यान से सुनता हुआ भिन्न कीट भी भृंगि कीट बन जाता है, ऐसे ही साधक सद्गुरु के शब्द सुनता हुआ, वैसा ही-गुरु जैसा बन जाता है।

143. सेत = द्वारा; माध्यम से।

144. कच्छप राखे दृष्टि में = कछुवी अपने अंडों की रक्षा दृष्टि द्वारा करती है। कुंजों के मन माँहिं = कुंज पक्षी अपने अंडों की रक्षा मन में उनका ध्यान रख कर करते हैं। सद्गुरु राखे आपणा = वैसे ही सद्गुरु शिष्यों की रक्षा अपनेपन से ज्ञानोपदेश द्वारा करता है।

145. निपजे भाव सूं = भावना से उत्पन्न स्नेह से।

146. जड़े कपाट = संशय, भ्रमादि के तालों से बंद हुए किवाड़ों को। दे कूँची खोले = आत्म-ज्ञान की चाभी से खोल देता है।

147. शिष्य शाखा = शिष्य-परम्परा।

148. सूरज सन्मुख आरस = जैसे सूर्य के सामने आतसी शीशा करने से सूर्य की किरणों से अग्नि प्रकट होती है, वैसे ही सच्चा गुरु मिलने से शिष्य के अन्तःकरण में ब्रह्म-प्रकाश प्रकट हो जाता है।

149. परमोध ले = पाँच ज्ञानेन्द्रियों को सुशिक्षित कर ले, इंद्रिय = निग्रह कर ले।

151. औषधि खाइ न पछ रहे = गुरु-ज्ञान रूपी औषधि-उपदेश तो लिए = पर उन पर आचरण नहीं किया तब सांसारिक दु:खों-रूपी रोग कैसे मिटे?

152. वैद्य व्यथा कहे = रोगी (शिष्य) का विषयासक्ति रोग देखकर वैद्य (गुरु) उपचार बताता है। रोगी रहे रिसाय = किंतु रोगी उपचार (इंद्रिय-निग्रह) का सुझाव सुनकर क्रोध करता है। वह रोगी-साधक विषय-वासना आदि के रोग को मन में बनाये रखता है, त्यागता नहीं।

153. साँच = सत्य पर दृढ़, पक्का। खाटा मीठा चरपरा = विविध प्रकार का विषय-भोग। वाच = जीभ।

154. दुर्लभ दर्शन साधु का = सच्चे साधु का दर्शन-लाभ होना कठिन है, तो सच्चा गुरु और उसका उपदेश प्राप्त होना उससे भी कठिन। यदि गुरु-उपदेश मिल भी जाये तो उस पर आचरण करना कठिन है। और यदि यह भी सम्भव हो जाये तो लेख-बद्ध न होने वाले-अलेख रहने वाले परब्रह्म से मिल कर सदैव परस (एकात्म) बना रहना अत्यन्त कठिन है।

155. अविचल मंत्र = इस मंत्र के जाप से साधक अविचल ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

अमर मंत्र -अमर-अमर जपने वाला साधक अमर ब्रह्म को प्राप्त होता है।

अखै मंत्र -अक्षय, जो क्षय नहीं होता।

अभय मंत्र -निर्भय ब्रह्म को प्राप्त करवा देता है।

राम मंत्र -संसार के प्रत्येक अणु में रमा हुआ होने से ब्रह्म राम है। इस मंत्र से साधक स्वयं राममय हो जाता है।

निज सार -निज स्वरूप और जगत् का सार तत्व होने के कारण ब्रह्म निज सार है। इस मंत्र के जाप से निज स्वरूप-आत्मरूप को प्राप्त करके विश्व का सार रूप हो जाता है।

सजीवन मंत्र -ब्रह्म सदैव जीवित रहने से सजीवन है।

सबीरज मंत्र -ब्रह्म सवीर्य है। इसे जपने से साधक अति बलशाली, अति वीर्यवान हो जाता है।

सुंदर मंत्र -इस मंत्र के प्रभाव से अक्षय सुंदर ब्रह्म को प्राप्त होता है।

शिरोमणि मंत्र -सर्वोपरि होने से ब्रह्म शिरोमणि है। इस मंत्र के जाप से साधक शिरोमणि हो जाता है।

निर्मल मंत्र -अविद्या आदि मल से रहित होने से ब्रह्म निर्मल है। जो साधक इस मंत्र का जाप करता है वह निर्मल हो जाता है और निर्मल ब्रह्म को प्राप्त करता है।

इसी प्रकार शेष मंत्र भी जानें। इनके अर्थ इस प्रकार हैं :-

निराकार -आकार रहित।

अलख - जो इंद्रिय गोचर न हो।

अकल - सभी प्रकार की कलाओं से रहित।

अगाध -जिसकी थाह न पायी जा सके।

अपार - ब्रह्म का पार नहीं पाया जा सकता।

अनंत - उत्पत्ति, विनाश आदि से रहित।

राया -राजा, सब से ऊपर और रक्षक, पालक ब्रह्म स्वरूप।

तेज -तेजरूप ब्रह्म।

ज्योति - सम्पूर्ण ब्रह्मांड को-नक्षत्र आदि को ज्योति देने वाला ब्रह्म स्वरूप।

प्रकाश - ज्ञान रूप होने से अविद्या के अंध्कार को मिटाने वाला।

परम - सर्वोत्कृष्ट, परम ब्रह्म।

पाया - सर्व व्यापक, सर्व-शक्तिमान होने से ब्रह्म आत्मरूप में पाया हुआ है। गुरु के उपदेश द्वारा साधक जिस भाव से ब्रह्म को जपता है, उसे सहज प्राप्त हो जाता है।

156. पशु, पंखी- पशु, पक्षी, वनस्पतियाँ, पर्वत आदि सबको गुरु मान कर इन से विविध उपदेश प्राप्त किये हैं। यह संसार त्रिगुणात्मक है और पंचभूतों से निर्मित है। इन सबके भीतर वह परमब्रह्म स्वयं स्थित है।

157. सद्गुरु- सद्गुरु ने परब्रह्म का जो स्वरूप पहली बार-आरम्भ के समय, बताया था, वह स्वरूप समाधि में आकर अपने ज्ञान-चक्षुओं से अब देखा है और अब परस्पर मिलकर एकरस होकर उसी में समा रहे हैं।

। श्री गुरुदेव का अंग सम्पूर्ण।

अथसुमिरण का अंग

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2. पीव का = पालन करने वाला परमात्मा।

3. साध्क की अवस्थाएँ = साधक की अवस्थाओं का वर्णन है। नाम को सुनना, रसन = जीव द्वारा नाम का उच्चारण। हिरदै से गायन करना चौथी तुर्यावस्था है।

4. नीका = सर्वोत्ताम साधन। रटबौ = स्मरण करना, रटना।

6. सभालतां = साक्षी भाव से देखना। पैंडा = साधना का मार्ग।

7. पाखंड प्रपंच = छल-कपट।

8. आप कहै समझाय = समय-समय पर अवतार लेकर भगवान ने जो स्वयं उपदेश दिये हैं। आरंभ = जीवन-मरण रूप चक्र में निषिद्ध कर्म, सकाम शुभ कर्म आदि का आरम्भ।

10. ठौर = सहारा।

12. सकल करम का नास = संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म-सबका निवारण।

13. गण = सत, रज, तम। पास = पाश, बंधन।

14. जलन = मात्सर्य, द्वेषाग्नि।

15. टेक = संकल्प, प्रतिज्ञा। दूजा = लोकसेवा, योगक्षेम आदि।

16. अगाध = असीम। परिमित नाँहीं पार = प्रमाण तथा ज्ञान का विषय नहीं। अवर्ण = अकारादि, अक्षर तथा लाल, पीत आदि रंगों से रहित है। नाम अधर = ब्रह्म की प्राप्ति का आधार स्वयं ब्रह्म का नाम है।

17. अविगति = इन्द्रियों का अविषय। विलम्ब न होइ = निष्काम भाव से नाम स्मरण करने से ईश्वर कृपा में विलम्ब नहीं होता।

19. अकल = निरवयव आकृतिरहित। अगोचर = इन्द्रियों से परे। विलंबिये = आशय लीजिये।

20. मैदे के पकवान = अल्लाह, राम, समर्थ सांई-ये तीनों अद्वैत ब्रह्म के नाम हैं, जैसे एक मैदे के अनेक व्यंजन बनते हैं।

21. लीन = समझो, लो। का जाणौं का कीन = हरि के स्मरण में अपना मन लगाओ-सगुण-निर्गुण के विवाद में जाना व्यर्थ है। वेद शास्त्र आदि भी इसके आगे कुछ नहीं जानते।

23. औसाण = जैसा अवसर या मौका हो उसी के अनुसार नाम स्मरण करें।

24. दिढावे = दृढ़ निश्चय करना। और = अन्य, भिन्य।

25. निमष = क्षण भर।

29. डाव = दाँव, मौका।

30. संशा = सन्देह।

31. मेरी जीवनि येह = सम्पूर्ण जीवन ही ब्रह्म चिन्तनमय है।

34. साल = घाव, मन की पीड़ा। कालि = सवेरा, अगली घड़ी।

37. साटा = सट्टे की तरह दाँव लगाना।

38. पवना = श्वास, प्राण को आत्माभिमुख द्वै दोवती इक सेर = दो धोती तथा एक सेर अन्न।

39. सुबस काया गाँव = शरीर रूपी गाँव राग-द्वेष आदि से रहित होकर आनन्द से रह सकेगा।

41. न्यारा = अलग।

42. पिंजर = पक्षी का पिंजरा। पिंड = देह। सुवटा = मन रूपी तोता। रमता सेत = व्यापक चेतना से जागृति होकर ब्रह्म में एकमेक होना।

43. इत उत = ऐंद्रिक विषयों में। बहुत बिलाई = अनेक बिल्लियाँ।

44. भावै कंदलि जाय = चाहे कंदरा या गुफा में बैठूँ। गेह = बसाय

45. जलहरि = समुद्र या नदी तट पर।

47. लाहा मूल सहेत = मूल धन सहित लाभ।

48. बहुरि न होय = यह दुर्लभ मानव शरीर पुनः नहीं मिलने का।

49. लार = साथ। ब्रह्म-चिन्तन से जीव भी ब्रह्म के साथ ब्रह्म तत्व को प्राप्त होता है।

50. साफल = जीवन में सफलता।

51. पीछै लागा जाय = नाम स्मरण के पीछे। तिहिं तत = ब्रह्म तत्व।

52. रचि-मचि = नाम में समा जाना। राते माते = अनुरक्त और मतवाले। दीदार = ब्रह्म साक्षात्कार।

53. सांई सेवै = भगवद्भजन में संलग्न रहे।

55. जियरा = जीव।

56. नीकी बरियां = श्रेष्ठ समय।

57. अगम वस्तु = अमूल्य वस्तु। पानैं पड़ = उपलब्ध हुई। राखि मंझि छिपाय = आंतरिक दिव्य शक्तियों में छिपा कर रखो।

58. उज्ज्वल निर्मला = मन ईश्वर के शुद्ध नाम रूपी जल से तथा हरि स्मरण रूपी रंग में अनुरक्त होने से ज्ञान प्रकाश को प्राप्त होता है। पानी सेती धोय = काम-क्रोध वासना रूपी जल से धोना व्यर्थ होता है।

59. शरीर सरोवर = शरीर ही तीर्थ आदि सरोवर है। राम जल = राम नाम रूपी जल। मांहैं संयम सार = सार तत्व रूपी ब्रह्म में मन का संयम करना ही स्नान है।

60. सदा जितः = इन्द्रियों को जीतकर। पंच भू पापं गतः = पाँच विषयों की आसक्ति से होने वाले पाप नष्ट हो जायेंगे।

61. इंद्री निग्रहं = इन्द्रियों को वश में करना। मुच्यते = छूट जाता है। परम पुरुष पुरातनं = पुरातन ब्रह्म। चिन्तते सदा तनः = नित्य प्रति चिन्तन करना।

62. विष = वासना रूपी जहर।

63. निरोग = जीवन-मृत्यु रूपी रोग से मुक्त।

64. माया भक्ति विलाय = सांसारिक आकर्षण नष्ट होते हैं। मल गया = सम्पूर्ण विकार नष्ट होना। ज्यूं रवि तिमिर नशाय = जैसे सूर्य उदय होने से रात का ऍंध्ेरा नष्ट हो जाता है।

65. राता = अनुरक्त।

66. इकतार = लगातार, प्रतिश्वास।

67. है = जो ब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि में विद्यमान है। नहीं = माया, जिसकी वास्तविक सत्ता नहीं है।

68. निज मोहन = राम-नाम स्मरण रूपी मोहनी शक्ति सभी प्राणियों की निजी एवं विशिष्ट है।

69. औषध = जन्म मृत्यु रूपी रोग से मुक्त करने का उपाय।

70. निर्विकार = माया अविद्या से रहित। कृत्रिम = काल माया द्वारा रचा हुआ कालरूप।

71. मन पवना गहि सुरति सौं दादू पावे स्वाद = मन, प्राण और वृत्ति का निरोध करने से आनन्द की प्राप्ति होती है।

72. सपीड़ा = विरह वेदना सहित।

73. प्राण, मन तथा वृत्ति से चिन्तन की दृढ़ता करना। वृत्ति में तदाकारता होने से वृत्ति निरव लेप अवस्था में स्थित हो सकेगी। यही अवस्था ब्रह्म प्राप्ति का निज अर्थात् वास्तविक स्थान है।

74. आत्म कमल विश्राम = जीवात्मा का हृदयरूपी कमल खिलता है। अर्थात् आत्मसाक्षात्कार होता है।

75. पैसे = मिल जाये। मन हठ साधे कौंण = जब सहज स्मरण से मन आत्मराम में लय हो सकता है, तब हठ कौन करता है।

76. यह इकंत त्रय लोक में = वृत्तियों को अन्तरमुख कर लेना ही तीनों लोकों में सबसे बड़ा एकान्त स्थान है। अनत = अन्य किसी स्थान पर।

77. उनमन = चित्ता वृत्ति की लय दशा।

78-79. निर्गुण नाम में जब हृदय प्रवत्ताृ होता है, तब भ्रम कर्म और कलिविष (पाप) माया-मोह की जड़ कट जाती है। काल-जाल, शोक भयानक यमदूत कंपायमान होते हैं, और हर्ष, मोद सद्गुरु श्री परमात्मा के दर्शन प्राप्त होते हैं।

80. पयाल-पाताल। बाहि-रख कर।

81. कहिबे = कहने में, जपने में। विवेक = सावधानी।

82. इस साखी में सपक्ष धर्म उपासना की ओर इशारा किया है। हद = पक्ष, सीमा। बेहद्द = धर्म, पंथ, सम्प्रदाय के पक्षपात बिना।

83. पटंतर = उपमा, समानता, बराबरी। सरीखा = सदृश समान।

85. नेटि = अन्ततः, आखिर। निर्धर = निश्चय किया।

86. नाम = स्वस्वरूप।

87. अगमनिगम = वेद-पुराण। तातैं = तो।

88. अलिफ = अल्लाह का वाचक अक्षर, अलिफ से तात्पर्य सच्चे, सुमिरन से है। कतेबा = वेदादि ग्रंथ। इलम = विद्या।

89. अल्लाह = जिसको लिया नहीं जा सके, पकड़ा नहीं जा सके। हाफिज = कुरानपाठी

91. दशा = अवस्था, भूमिका, मंजिल। आपा भूलै आन सब = सब तरह के अहंकार तथा संसार की मिथ्या आसक्ति को छोड़े।

92. अविगत यहु गति कीजिए = जो देखने में नहीं आता उसकी प्राप्ति का यही उपाय कीजिए।

93. आतम चेतन कीजिए = आतम = अपना अन्तःकरण, उसको चेतन के सन्मुख कीजिए।

94. पाणियाँ = पाणी में।

95. मति वै = उसको, उस अधिष्ठान चेतन को। बीसरि = भूल।

101. आसिरे = भरोसे व विश्वास पर। दादू छिटेक हाथ तैं = यदि बह स्मरण चिन्तन वृत्ति हाथ तै दूर होती है।

102. सजीवन = अमर, मुक्त।

103. चवै = टपकै, नामरूप चिंतन से स्थिरवृत्ति होने पर आनन्द-प्रवाह की प्राप्ति हो।

104. ऊरा = अपूर्ण, कमी वाला। अठसिधि = अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, ऐश्वर्य, वशित्व, प्राप्ति, प्राकाम्य। नौ निधि = कुन्द, पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, नील, वर्च।

106. पदारथ = बहुमूल्य वस्तु, भावभक्ति रूप।

107. संगहि लागा सब फिरे = सब यानी संसार के सम्पूर्ण पदार्थ-ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्गादि राम के नाम के साथ ह = आत्मचिंतन के साथ ही जुड़े हुए चलते हैं अर्थात् आत्मचिंतन से सब प्राप्त हो जाते हैं।

108. आतमा = अंतःकरण।

109. शेष रसातल गगन धू्र = परमेश्वर के सच्चे भक्त। शेष और ध्रुव पाताल तथा स्वर्ग में हैं पर वे भक्तरूप में सबके सम्मुख प्रगट हैं।

111. जे रू कहेगा राम = जो स्वस्वरूप के चिंतन में ही लगा रहेगा वह क्यों छिपेगा?

113. मंत = पूजनीय। परकट = प्रकट, प्रत्यक्ष।

114. अगोचर = अलख, इन्द्रियातीत।

115. पयाल = पाताल लोक। ठाम = स्थान, जगह।

116. संशय = सन्देह।

117. हौंस = तीव्र इच्छा, एक चाहना।

118-121. इन चार साखियों में बिना ईश्वर चिंतन के व्यर्थ है यह प्रतिपादित किया है। ईश्वर चिंतन के बिना सभी प्राणी काल के ग्रास होते हैं। अतः आत्मचिंतन को न भूलें यदि जीवन सफल करना है।

122. सब पाप = सब कुकर्म नामआत्मस्वरूप को भूलने से होते हैं।

123. बीज = बिजली।

124. झ्रपै काल = काल पकड़ लेता है।

125. कँध विनाश = शिर कटना।

126. हाना = घाटा, नुकसान, हानि।

127. साहिबजी के नाम मां = व्यापक चेतन के चिन्तन के लिए, विरहा = वियोग, पीड़ = लगन सहित, पुकार = सुमरण, ताला-बेल = तड़फन, चाह, विलापइन साधनों की आवश्यकता है तभी, दीदार = आत्म साक्षात्कार हो सकता है।

129. साहिबजी के नाम मां = परम तत्व की प्राप्ति के लिए। मति = मनन-वृत्ति। बुधि = निश्चय वृत्ति। प्रेम = परम श्रद्धा। प्रीति = सात्विक वृत्ति। सनेह = रागात्मक राजसीवृत्ति। सुख = निरतिशय स्थिति ये सब साधन पूरे हों तब अपार, ज्योति = अनंत प्रकाशमय व्यापक ब्रह्म का स्वरूप परिचय हो सकता है।

130. सब कुछ = धर्म अर्थ काम मोक्ष, ऋद्धि-सिद्धि, स्वर्ग मुक्ति आदि सम्पूर्ण पदार्थ। नू तेज अनन्त है = उस समष्टि अधिष्ठान रूप अविद्या माया वहित चेतन का विशुद्ध प्रकाश अनंत है-अपार है।

131. जिसमें सब कुछ सो लिया = जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति में संसार के अशेष पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। उसको प्राप्त किया। हिरदै राखिये = अनवरत अभ्यास द्वारा अन्तःकरण में वृत्ति को स्थिर करो। ऐसा स्मरण हो तभी। मैं बलिहारी जाऊँ = बारण, न्यौछावर हो जाऊँ। ।सुमिरण का अंग सम्पूर्ण।

अथ विरह का अंग

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2. रतिवंत = प्रेमप्रधन वृत्ति वाली बुद्धि रतिवंती बुद्धि है सो याचना करती है कि हे राम, मेरे स्नेही मुझ को प्राप्त हो। आपकी प्राप्ति का अवसर मुझे अब मिलै अब मिलै। विरहनि = साधक सन्तपुरुष।

3. पकारे = रैनदिन चिंतन करे। विरहनि = साधक की आत्माभिमुख बुद्धि। ताला-वेल = विरह सहित तड़फन। प्यास = दर्शन की अत्यन्त चाह।

4. चित = शुद्ध बुद्धि। पुरवहु = पूरी करो।

5. कासनि = किससे।

7. शब्द = वाचक। ऊजला = अनन्त प्रकाशमय। चिरिया = साधक शरीर। विरहा की जार = वियोग की अग्नि से जलाई हुई।

8. झूरै = विलाप करै।

9. कुरलै = करुण क्रन्दन करे।

10. पासे = समीप, शरीर में ही। जवाब = उत्तार। तेरे शिर चढे = मेरी हत्या तुम्हारे सिर होगी।

11. ऐन = प्रत्यक्ष, साक्षात्। परस = परिचय।

12. वेदन = पीड़ा, चुभन।

15. वह = प्रिय आत्मा। दारू = औषध, इलाज।

17. अति गति = अत्यन्त, प्रबल। दीदार = दर्शन, स्वरूप।

18. विछोग = वियोगिनी। फिर = फिर भी।

19. सुरति = वृति। समिटे = स्थिर, एकाग्र। निश्चल = अचंचल। परसे = स्पर्श करे।

20. अमल = व्यसनी। संग्राम = युद्ध।

23. लुब्ध = लोभी। वास का = सुगन्धि का। नाद = शब्द। कुरंग = मृग।

24. श्रवणा = कान। राते = मस्त। अनूप = परमात्मा।

25. पियार = प्यारी।

27. भावार्थ = हर श्वास में मैं आतुर हूँ, मेरा पीव परमात्मा मेरी सेज (शरीर के अंदर) है; उसको देखूँ तो आनंद हो। इस प्रकार के प्रेम ही से मेरा जीवन है। दिवान = परमेश्वर। सेज-शय्या = बुद्धरूपी पलंग। सुबहान = सबसे बड़ा।

28. भावार्थ = हरदम मैं दीवाना हो रहा हूँ, दर्द से मैं अपने अंदर पुकार रहा हूँ। जब परमात्मा का दर्शन पाऊँ तब मेरे अंदर का दु:ख जाय। दरूनै = अन्दर, भीतर। दीदार = स्वरूप।

29. भावार्थ-दर्द बंद का भीतरी दर्द दिल से नहीं जाता। क्यों? वह दुखिया दीदार का है। जब दयालु परमात्मा अपना दर्शन दे तो वह दु:ख जाय। दरदवंद = दुखिया, विरही। महरवान = दयालु।

30. मूये = मरे। टुक = जरा सा, झलकती।

31. भिखार = भीख माँगने वाला। मंगता = माँग रहा हूँ।

32. बेहाल = बेचैन। परगट परसन लाल = लाल परमात्मा तिस का दर्शन पर्शन रूप साक्षात्कार।

35. व्यथा = पीड़ा। व्यापै = मालूम हौ।

36. हियडे = अन्तःकरण में। साल = घाव। क्योंहि = कैसे भी नहीं।

37. अपना आप दिखाय = अपना जो माया अविद्या रहित स्वरूप है वह दिखाइए।

38. हूँ देखूँ देखत मिले = मैं अपने स्वरूप को देखूँ और उसी में अपनी वृत्ति को देखते-देखते लीन कर दूँ।

39. वारणै = समर्पित करना। कर दीजै कै बार = यदि तुम तन-मन को तुमपर समर्पित करने से मिलते हो तो इन्हें चाहे जितने बार समर्पित करावें, मैं तैयार हूँ।

40. दीन = धर्म। दुन = संसारी, दुनिया। सदके = निछावर। टुक = थोड़ा। छिन-छिन = खण्ड-खण्ड; भिस्त = बहिश्त, स्वर्ग। दोजख = नर्क। भावार्थ -दुनियावी धर्म का पक्ष आप पर न्यौछावर करता हूँ। थोड़ा सा अपना सच्चा दर्शन दिखाइए। इसके लिए स्वर्ग, नर्क, तन, मन, सब आप पर वार देने को तैयार हूँ।

43. एक टग = एकरस, स्थिरवृत्ति। दिलदार = इष्ट, मित्र।

44. तैसी भक्ति = अखण्ड भक्ति। तैसा प्रेम = अखण्ड प्रेम। तैसी सुरति = अचंचल वृत्ति। तैसा क्षेम = नित्य सुख।

45. सदके = निछावर, अर्पण। भंत = नाना रूप से। भाव = श्रद्ध। हित = स्नेह। प्रेम = पूर्ण विश्वास। खरा = सच्चा, अत्यन्त। पियारा = प्यारा। कंत = पीव।

46. रल = इच्छा, चाह।

47. मीरा = महान्, सर्वोपरि। मिहर = कृपा, करुणा। दर हाल = अभी, इसी समय।

48. ताला-बेल = तड़पन सहित विलाप। प्यास = चाह। क्यों रस पीया जाय = बिना तीव्र चाह के नामस्मरणरूपी रस कैसे पीया जाए?

49. सेत = साथ। विलसे = विलास करे, अनुभव करे।

50. इश्क = अनुराग। मुहब्बत = प्यार, प्रेम। लापर्द = बिना परदे। भावार्थ -हे परमात्मन्, हमें आप अपनी भक्ति, अपने प्रेम का विरहरूपी दर्द दो, वियोग की चाह पैदा करो, जिससे हृदय में तुम्हारी कृपा का, तुम्हारे दर्शन का मुख-आनन्द प्राप्त करें और परस्पर मिलकर खेलें।

51. सपीड़ा = विरह वेदनामय। रमे = खेले।

52. मगन = मस्त। हेत = स्नेह। रुचि = चाह। भाव = भावना।

53. गई दशा सब बाहुड़े = बिना आत्मचिंतन में गया हुआ समय भी वापिस मिल जाय। गई दशा = ब्रह्मभाव, जो जीवभाव से पूर्ण था। बाहुड़े = पीछा आवे। दादू ऊजड़ सब बसे = दादूजी महाराज कहते हैं-आसुरी सम्पत्ति भोग-वासना से उजड़ा हुआ अन्तःकरण दैवी सम्पद् व आत्मपरिचय की प्रबल चाह पैदा होने से फिर बस जाता है, आबाद हो जाता है।

54. हम कसिये = हमको कसने से, अर्थात् दु:ख देने से, कसौटी में दिये, परीक्षा लिये। विड़द = यश, तुम्हारी महिमा।

55. मींयां = मालिक। मैंडा = मेरे। वांढ = दुहागिन। वत्तां = जहाँ-तहाँ। लोइ = भ्रम रहा है। डुखण्डे = दोनों ऑंखें। मुहिंडे = बन्द हो गये। विछोहै = वियोग में। भावार्थ -हे मेरे मालिक मेरे घर आओ। अर्थात् मेरे मन में वास करो। मैं दुहागिन लोक में फिरती हूँ, मेरे दु:ख बढ़ गये हैं और तेरे वियोग से मैं मरती हूँ।

56. निधि = खजाना, परम धन। झूर = कलप-कलपकर, रो-रोकर। है सो निधि नहिं पाइये = अस्ति भाति प्रिय रूप निधि है-खजाना है वह प्राप्त नहीं है। नहिं सु है भरपूर = जो वस्तुतः निधि नहीं है, वह संसार की धन-सम्पत्ति नाम रूप प्रपंच सब जगह भरपूर प्रतीत हो रहा है।

57. घट = अन्तःकरण में। लोह = लोभरूपी रक्त। माँस = ममतारूपी मांस। जक = शान्ति, चैन।

58. रब = परमेश्वर। सुहदाय = साधक, विरहीजन। नाल = संग, साथ।

59. रब (परमेश्वर) का प्रेमी अपने सम्पूर्ण अपनपौ को परमेश्वर को अर्पण करै। और परमेश्वर के वास्ते आपे (अहंकार) को अग्नि (विरह) में साड़ै (जलावै)।

60. भोरे-भोरे = कण-कण। बंडे = बाँट दे। मिठ्ठा = मीठा। कोड़ा = कड़वा साण = साथ। भावार्थ = तन को कण-कण काट कर कुर्बान चढ़ावै और बाँट दे। इतना करने पर मीठा परमेश्वर कड़वा न लगे, तब परमेश्वर (प्राप्त) हो।

62. तैं = तुमने। डीनोंई = सब कुछ दे दिया। जे = अपने। डीये = दे दिये तो।दीदार = दर्शन। उंजे = प्यासे को। अभु = पानी। लहद = प्राप्त हो गया। पसाई दो = दर्शन करा दो। पाण के = स्वस्वरूप के।

63. बीच से सब पर्दा दूर कीजिए, अंदर द्वैत भाव न रहे। दादू एक ही में प्रेम पूर्वक मन लगाय कर रत है।

64. यह साखी अकबरशाह के प्रश्न के उत्तार में कही थी। तात्पर्य यह है कि ईश्वर के प्रेम में मन मस्त रहे और उसके दर्शन की इच्छा बनाये रखे। अपना दोस्त जो परमात्मा उसके सन्मुख दिल हरदम रखे और उसकी याद में होशियार रहे।

65. एक अल्लाह = एक व्यापक आत्मा के, आशिक = प्रेमी हैं वे दुनियावी धर्म पन्थ जाति आश्रम के बन्धनों से।फारिग = मुक्त होते हैं। वे इस शरीर के अध्यास से भी अपने को अलहढ़ा या अलग कर लेते हैं। उन्हीं साधकों का प्रेमियों का। पाक = पवित्र है, सच्चा है। यकीन = निश्चय।

67. भावार्थ-दादूजी कहते हैं नाम चिंतन वैसे अनेक करते हैं पर इश्क अत्यन्त प्रेम की लग्न से कोई नहीं कहता आत्मपरिचय या परमेश्वर की प्राप्ति के लिए पहले। मुहब्बत = तीव्र चाह का दर्द, वियोग प्राप्त करे तभी साहिब। हासिल होय = प्राप्त हो।

68. अल्लाह = परम परमेश्वर के। आशिक = उपासक प्रेमी। कहाँ = जो अपनी साधना से अपने अहंकार तथा शरीराध्यास को मार देते हैं, नष्ट कर देते हैं। आलम = संसारी पुरुष। औजूद = स्थूल शरीर के भरण-पोषण में लगे हुए केवल महात्मापने की बात करते हैं उनकी उन सच्चे साधकों से बराबरी कहाँ?

69. अरवाह = जीवात्मा। सब पड़दा जल जाय = स्थूल सूक्ष्म संघात का तथा ममता वासना का सब पड़दा आवरण। जल जाय = विरहाग्नि में भस्म हो जाय।

70. अरवाहे = जीवात्मा अपने व्यापक रूप परमात्मा को सिजदा। कुनंद = नमस्कार करता है। वजूद रा चि:कार = शरीर का ध्यान या अभ्यास छोड़ दिया है। नूर = जो शुद्ध स्वरूप उसका। दादन = ध्यान उसी से प्राप्त हो रहा है जिससे प्रेमी अपने प्रेम का। दीदार = दर्शन प्राप्त कर रहे हैं।

71. पर जले = प्रदीप्त हो, खूब जले।

72. जालिबा = जलाना। तांई = लिये। आतुर = व्याकुल।

73. हठ = आग्रह।

74. छाड़ि सकल रस भोग = भोगों की वासना के रस का परित्याग कर।

75. सुधि-बुधि = होशहवास। नाठे = दौड़ जाय, भाग जाय। ज्ञान = असत्य में सत्य का ज्ञान। लोक वेद मारग तजे = लौकिक मर्यादा तथा वेदादि प्रतिपादित सकाम कर्म का मार्ग वह साधक छोड़ देता है।

76. विरही जन जीवे नहीं = आत्मजिज्ञासु साधक, जीव नहीं-संसार के भोग पदार्थों की वासना में प्रेम नहीं करता। गहिला = दीवाना।

80. सारा शूरा = परिपूर्ण।

81. अन्तर बैध्या = बिद्ध अन्तःकरण।

82. चिंत्ता = चिन्ता।

83. दृष्टान्त = दादूजी आमेर में, विरही देखे दोइ। तन छूटे हू सुरति सों, पीव पीव नभ होइ ।1।

84. करक = चुभन, रड़क। कलेजे माँहिं = अन्तःकरण में।

85. ज्यों जीवत मृत्ताक कारणे, गत कर नाखे आप = आत्मपरिचय प्राप्ति की भावना वाला साधक अपने लक्ष्य के लिए अपने सब प्रकार के अहंकार को दूर कर अपने को जीते हुए मृतकवत् निरभिमानी बना लेता है।

87. क्यों भरूँ दिन-रात = बिना उसके साक्षात्कार हुए विरह-वेदना में दिन-रात कैसे भरे-पूरे किये जायँ।

91. औरों के आनन्द है, सुख सौं रैनि बिहाय = जो आत्मविमुख संसार के भोग विलास में लगे हुए हैं वे अज्ञान निद्रा में आनन्द से मनुष्य जीवन रूपी रैन व्यतीत कर रहे हैं।

96. जग सगला = बाह्यवृत्ति वाला सब संसार।

97. विरह की तपन में विविध वासना तथा शरीर के अध्यास दाग। दाह-संस्कार कर दिया। जीते हुए ही शरीर को मृत मनुष्य की कबर की तरह शांत बना लिया। जो हमारी वास्तविक जगह है उसी चेतन अधिष्ठान में जीवन समाप्ति से पहिले ही निवास कर लिया स्वस्वरूप में मिल गया।

98. देखे का = देखे हुए का, नाम रूपमय संसार का। अण देखे = बिना देखे का, सत्य स्वरूप स्वात्मा तथा समष्टि आत्मा का।

99. प्रीति प्रकाश = सात्विक वृत्ति की उत्पत्ति। लै लीन मन = मन की निश्छल ध्यानावस्था।

100. सहज संतोषी पाइये = शीतोष्णादि सब द्वन्द्व गुणों पर विजय प्राप्त किये हुए सहज दशा में पहुँचे हुए ऐसे सन्तोषी आत्मनिष्ठ महात्मा की प्राप्ति हो तो भाग सोटे समझने चाहिए।

101. पुणग = फुहार, लघुबन्द।

102. क्षुध = भूख चाह। पाक पूरि = विविध पकवान। नेरा = नजदीक।

103. तरुवर = वृक्ष। त्रिभुवन राया = तीनों लोकों के स्वामी।

105. धह दे = जोर की आवाज से।

106. बार = समय, मनुष्यजन्म।

107. ऊभरै = अंकुरित हो, उत्पन्न हो।

109. बिन ही नैन हुँ रोवणा = विवेक विचाररूपी नेत्रों से रोना। बिन मुख = अन्तर्वृत्ति द्वारा। पीड़ पुकार = स्मरण करना निग्रह तथा ध्यानरूपी हाथों से मन को। पीटणा = स्थिर करना यही साधन। बारंबार = अनवरत करना।

112. कुश्मल = कलुषता, मैलापन। आरस = स्वच्छ दर्पण, हृदयरूपी दर्पण।

113. मंझें = सच्ची भावना से, श्रद्ध से, भीतर, अन्तःकरण में।

115. भावै = सच्ची भावना से, श्रद्ध से। हेजैं = हेत, प्यार अति अनुराग।

116. को सूक्ष्म को सहज में, को मृत्ताक तिहिं बार = साधक को साधना के अनुसार कई दशाएँ होती हैं कोई साधक वृत्ति को मन तक ले गया है, कोई सहज दशा अधिष्ठान तक पहुँचता है, कोई विरह की उत्पत्ति से जीवनमुक्त की दशा में आ जाता है। साधना जैसी होती है उसी के अनुरूप उसकी स्थिति बनती है।

117. बूझे = कहै, जानें।

118. दादू अक्षर प्रेम का = परम अनुराग, अति श्रद्ध से नामचिंतन कोई ही करता है।

119. पात = पाना।

120. खैंचि = खेंचकर, तानकर। सालै = चुभै, खटके।

121. भलका = भाला। मंझि = भीतर। पराण = प्राण।

122. सो शर हमको मारि ले = वह वचन वाण हमें मारिये, लगाइये।

123. जागि है = सचेत होगा, संसार की अविद्या-निद्रा से जागना। बेध्या = घायल, प्रेम में तत्पर। पिंजर = शरीर में।

124. सिसकै = चेतनहीन श्वास ले। प्रीतम = परमेश्वर। दादू जीवैं नाँहि = विषय वासना रूपी जीवन अब नहीं है।

125. भावार्थ-विरह से वियोग वेदना उत्पन्न हो, वियोग वेदना से जीव = अन्तःकरण जागे विवेक विचारमय हो। अन्तःकरण में स्वस्वरूप प्राप्ति के विचार के उदय होने से सुरहितवृत्ति है तब पाँचों। ज्ञानेन्द्रियाँ पीव की-अपने स्वरूपप्राप्ति की पुकार में जगती हैं।

126. मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण = विरही और विरह। दोनों मारने वाले-विरह की पीड़ पैदा करने वाले परमेश्वर में ही मिल जाते हैं।

128. मारणहारा = मारने वाला।

129. तिनको क्या मारे = साधक होकर शरीर के ही अध्यास में क्यों लगा रहे?

132. सहिनाण = चिद्द, लक्षण।

133. रस प्यास = आत्मानन्द रूपी रस की प्यास।

134. पैठ = प्रवेश कर गई।

138. तैसे ही कर रोइए = ऐसा रोना रोइए, ऐसी साधना कीजिए कि जिससे साहिब, परमेश्वर को साक्षात् देख लें।

139. नेत्र हमारे निर्लज्ज हैं, कि उनसे ऑंसुओं के नाले नहीं बहते, जैसे मीन, मेंढकादि तालाब के सूख जाने पर उसी के भीतर गल कर सूख मरते हैं तैसे हम नहीं हुए। सारांश इसका यह है कि हम भक्तिहीन हैं।

140. पंगुल = पोंगला, अचंचल।

142. तातैं पंगु ह्नै रह्या, दादू दर दीदार = मन के विषय-विकार विरहाग्नि में जल जाने से। दर दीदार = आत्मस्वरूप के। दर = दरवाजे सान्निध्य में। पंगुल = गुणातीत होकर ठहरा गया।

143. दरद = प्रेम विरह की वेदना से। कड़वे = अरुचिकर। काम = वासना।

144. जब दरश परस मिल जाइ = अभेदवृत्ति से स्वरूपसामान्य से एक हो जाय।

145. अमल = व्यसनी।

146. परसै = स्पर्श करे, छुए।

147. वही इश्क साधन सच्चा है जिससे माशूक उपास्य है वह आशिक उपासक हो जाय। दादूजी कहते हैं उस साधक माशूक का स्वयं अल्लाह-चिदात्मा है वह आशिक-अनुरागी बन जाता है।

149. जहँ अगम अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ = जो स्वरूप अगम = बुद्धि से परे या अगोचर = इंद्रियातीत था वहाँ विरह बिना = प्रेमाभक्ति बिना कौन ले जाय अर्थात् अन्य सकाम कर्मसाधन से उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं।

150. अंग लगाइ करि = स्वस्वरूप में स्थिर कर।

151. मीत = मित्र, सच्चा हितैषी।

153. चाव = कोड़, उमंग।

154. बाट = मार्ग, रास्ता। पंथ = रास्ता। मारग = राजमार्ग।

156. विरहा वेगा ले मिले, ताला-बेली पीर = यदि अत्यन्त तीव्र चाह के साथ विरह उत्पन्न हो तो वह शीघ्र ही आत्मसाक्षात् करा देता है।

157. दृष्ठांत-सोरठा-आंधी गाँव हि माँहिं, रहे जो दादू दास जी। वर्षा वर्षी नाँहिें करि विनती वर्षाइयो॥ अर्थात् आंधी गाँव में जब दादूजी ने चौमासा किया था और वहाँ वर्षा नहीं हुई थी, तब उन्होंने यह प्रार्थना करके वर्षा वर्षाई थी।

158. वसुध = धरती, वसु-रामरूपी धन की धरक बुद्धि। फूले = भक्ति तथा अनन्य प्रेम से प्रफुल्लित हो।फले = सतज्ञानरूपी फल को प्राप्त कर रही है। पृथ्व = सहनशील बुद्धि उस अनन्त व्यापक अपार असीम आत्मा में स्थिर हो रही है। गगन = अन्तःकरण या हृदयगुहा उसमें ज्ञान की गर्जना हो रही है जिससे। थल = शरीर के सम्पूर्ण कोष्ठक, नौ सो नाड़ी बहत्तार कोठे हरि दर्शन रूपी जल से। भरै = परिपूर्ण हो रहे हैं। दादू जै जैकार = दादूजी महाराज कह रहे हैं ऐसे अपरंपार की अनुकंपा से स्मरण की सार्थकतारूप जय जयकार = परमानन्द की अनुभूति हो रही है। परमानन्द मंगल की प्राप्ति हो रही है।

159. भावार्थ = वासना तथा अध्यासरूपी काल का मुँह काला करिए। हे सांई, आपकी कृपा से नामचिंतनरूप सदा सुकाल प्राप्त हो। हे मेघ! हे ज्ञानधन! आपके तो बरसने के लिए-कृपा करने के लिए बहुत घर हैं। हे दीनदयालो! बरसहु अर्थात् इस अन्तःकरण पर दया की दृष्टि करिए।

(विरह का अंग सम्पूर्ण)

अथ परिचय का अंग

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2. निरंतर = परिपूर्ण । हृदय में , अन्तररहित । पंख = प्राण । उनमनि = ऊँची दशा, लयावस्था । सप्तौ मंडल = सात लोक, सात धतु, सप्तमायिक प्रकाश । देह, इन्द्रिय, मन, प्राण, बुद्धि, अज्ञान, जीव । अष्टैं = आठवाँ, स्वस्वरूप, निर्विकल्प अवस्था ।

3. जहाँ निगम न पहुँचे वेद = गुण क्रिया जाति संबंध वाली वस्तु को ही वर्णात्मक वेद विषय करता है । परब्रह्म में गुणादि हैं नहीं । , निगम स्मृति धर्मशास्त्र तथा वेद उन्हीं वस्तुओं का निरूपण करते हैं जिनमें गुण, क्रिया तथा जाति संबंध होता है । शुद्ध चैतन्य गुण, क्रिया तथा जाति से रहित है । अतः स्मृतिशास्त्र तथा कर्मोपदेशक वेद उसके विषय में कुछ नहीं कह सकते । वहाँ उनकी पहुँच नहीं अर्थात् वह उनका वर्ण्य-विषय नहीं है ।

4. सब सेजों सांई बसे = सब प्राणियों के सेजों अन्तःकरणीरूपी चार पायो । वाली सेज में परमेश्वर निवास कर रहा है अर्थात् सब घटो । में ईश्वर व्यापक है ।

5. हंस = व्यापक विशुद्ध चेतन । परम हंस = साधक का व्यष्टि चेतन । तहँ = पराभक्ति की अवस्था, लयदशा ।

6. रँग भरि = अतिशय प्रेम कर । तहँ = साधक के अन्तःकरण में । रसाल = अनहद शब्दध्वनि । अकलपाट = कल = धर्मरागद्वेषादि से रहित हृदय । लाल = स्वस्वरूप ।

7. निश वासर नहिं तहँ बसे = ज्ञान-अज्ञान वृत्ति वही है रात-दिन वे जिस अन्तःकरण में नहीं है । अर्थात् शुद्ध अंतःकरण है उसी में उसका वास-निवास दिखाई पड़ता है ।

8. रँग भरि खेलौं पीव सौं = प्रेममय भाव से भरपूर हो साक्षात् परचै प्राप्त करूँ । तहँ कबहुँ न होय वियोग = उस साक्षात् परचै दशा में फिर कभी वियोग की बाध नहीं हो सकती ।

9. बारह मास बसंत = परम आनंद की अवस्था है वही वसंतवत्सदा प्रफुल्लित रखती है । जुग-जुग = अखण्ड, सर्वदा । कंत = अपना साध्य, अपना उपास्य, अपना स्वरूप ।

10. काया = देह । अंतरि = शुद्ध अन्तःकरण में । त्रिकुटी केरे तीर = जिस अवस्था में मन, प्राणवृत्ति एक स्थान में स्थित हों वही त्रिकुटीतीर है ।

11. निरधर = स्वयं किसी के आधर में नहीं , सर्वाधर ।

12. अनहद वेणु = सहज शब्द, ध्यानावस्था । शून्य मंडल = वासनारहित अंतःकरण, निर्विकल्प समाधिदशा ।

13. सहजै = निर्विकल्प अवस्था । अलख = स्वयंप्रकाश । अभेव = इयत्ता या विवरण रहित ।

14. भवर = मन । कवल = हृदय । रस = आत्मा । जैसे कमल को भेदन करके उसके रस को पान करता हुआ भंवरा आनंद को प्राप्त होता है, तैसे ही, दयालजी कहते हैं, हमारा मन हृदय कमल को भेदन करके आत्मस्वरूप रस को पान करके आनंद पाता है । दूसरा दृष्टांत = जैसे मानसरोवर का जलपान करके मोती चुग करके और सरोवर के दर्शन से हंस आनंदित होता है, तैसे ही हम पीव के दर्शन करके, राम भजन रूपी मोती चुग के, स्वरूपानन्द का अनुभव करके आनंदित होते हैं।

15. गहे चरण कर हेतु = अति प्रेम कर चेतन आत्मा को ही आधर बना लिया । परसत = तदाकारवृत्ति होते ही । रोम-रोम सब श्वेत = अन्तःकरण चतुष्टय शुद्ध हो गया ।

16. अनत न भरमे जाय = लोक-परलोक के सकाम कर्म न करे । तहाँ वास विलम्बिया = शुद्ध अंतःकरण में वास निवास कर, वहीं विलम्बिया = समाधिस्थ हो गया ।

17. गह = पकड़ी, धरण की । ओट = आश्रय, शरण । कौन करे शिर चोट = उस स्वस्वरूप स्थित वृत्ति की दशा में वासनामय बाणों की चोट कौन कर सकता है अर्थात् कोई नहीं कर सकता ।

18. खोजि = तलाश कर, अनन्य श्रद्ध से । तहाँ = विशुद्ध हृदय में ही । शब्द ऊपने पास = जहाँ से शब्द की उत्पत्ति होती है, अर्थात् नाभिकमल से । एकान्त = ब्रह्मगुहा । ज्योति = ज्ञानमय चेतन ।

19. जहाँ चंद न ऊगे सूर = जहाँ सूर्य चन्द्र दीपकादि प्रकाश की गति नहीं ।

20. जहँ बिन जिह्ना गुण गाय = जहाँ आत्मनिष्ठवृत्ति की दशा में जीभ के बिना केवल सुरतिवृत्ति से ही गुण गाया जाय-आत्मचिंतन किया जाय । अलेख = अचिंन्तय । सहजै = स्वाभाविक अवस्था, माया अविद्या से रहित ।

21. उमंग = तीव्र उत्साह । जहाँ अजरा अमर उमंग = आत्मा को जानने से ही मृत्यु भय का निवारण होता है अतः उसी भावना को अति उत्साह से अपनाओ, तभी उस चेतन अधिष्ठान के साथ रह सकोगे ।

22. हे मानव! तू अपनी वास्तविकता से क्यूँ गफिल है मंझे = भीतर, रब्ब = परमेश्वर या अपना अधिष्ठान निहार ¾ देख । पाण जो = जो आप, पिव = शुद्ध चैतन्य, । मंझेई = भीतर ही है । इसलिए भीतर ही उसकी तलाश कर ।

23. हे मानव, वतैं = उस आत्मा से । छो = क्यों। गाफिल = विमुख । अल्लाह = ईश्वर । मंझि = भीतर ही है; उस परमेश्वर को जो अपने आप में ही मौजूद है सब सुखों का सार, व भीतर ढूँढने ही से प्राप्त हो सकता है ।

24. दरगह = हृदय । दीवान तत = स्वयंप्रकाश, सबका आधर । पाण = स्वयं, आप । पसे = देखे ।

25. तखत रबाण = परमेश्वर का सिंहासन । पेरे = समीप, पास । वसु = रहे, बैठो । तिन्ह = उसी के, तिनके ।

26. हरि = कल्मष, पाप हरने वाला । चिन्तामणि = नामचिंतन । चिन्ततां = स्मरण करता । चिंतामणि = चिंतन की पूर्ति करने वाला ।

27. नैनहुँ = ज्ञानरूपी नेत्रों से । पेखे = देखे ।

28. बिना रसना जहाँ बोलिए = बिना जीभ के सुरतिवृत्ति रसना से अन्तःकरण में बोलिये = ध्यान करें।

29. जहाँ तैं = जिस जगह से, हृदय प्रदेश से । वाण = परावाणी । अनुभव = साक्षात् परिचय । शब्दौं किया निवास = अनाहत शब्द में वृत्ति को लय करना ।

30. सो घर = निवासस्थान, अंतःकरणरूपी घर । तहँ तूँ = उसी अन्तःकरण में ही तू ।

31. जहँ = जहाँ, हतप्रदेश, अन्तःकरण में । सेझा = झरना ।

32. भाव = श्रद्ध । भक्ति = भजन । लै = कार्यकारण की एकता । सो ठाहर = वह जगह, शुद्ध हृदय प्रदेश । निधि = खजाना, अभीष्ट सम्पद् ।

33. जो सदा विशुद्ध अन्तःकरण में प्रकाशमान है निकट = अति समीप, निरंतर = अपने ही में उसकी, ठाम = ठहरने की जगह है । वहीं, निरंजन पूरि ले = मल विक्षेप अध्यास से रहित वृत्ति द्वारा शुद्ध स्वरूप को भर लें इस स्थिति का ही अजरावर नाम है, इस स्थिति में आने पर ही जरा मृत्युभय मिटता है ।

34. क्रीड़ा = अहंधी उपासना, आनन्द प्राप्ति के लिए साधना । तिहि गाँउँ = उस ग्राम, शुद्ध अन्तःकरण । उस ठौर = शुद्ध आत्मा ।

35. पसु = देख । पिंरनि = परमेश्वर । पेही मंझि = पीव बीच । कलूब = हृदय । बैठो आहे = बैठा है, स्थित है । पाण = आप । महबूब = प्रियतम, परमेश्वर

36. नैनहु वाला = ज्ञान सद्विचाररूपी नेत्रवाला ।

37. कत हूँ = किसी ओर, जप तप तीर्थ व्रतादि काम्य कर्मों की ओर ।

38. अन्तरगति = वृत्ति का अन्तः प्रवेश । ल्यौ = ध्यान, लयवृत्ति ।

39. पहली लोचन दीजिए = साधकसद्गुरु से प्रार्थना करता है कि पहले विवेक विचार के नेत्र प्रदान कीजिए ।

40. ऑंधी के आनंद हुआ = विषयासक्त बुद्धि जब विचार-विवेक से शुद्ध हुई तब आनन्द, हर्ष हुआ ।

41. मिहीं महल बारीक है = महल अपना आत्मारूपी महल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म है।

42. जो संसार में लिप्त हो कर तू आत्म रस चखना चाहे, तो यह संभव नहीं , क्योंकि तेरे अन्तःकरण में दो के लिए गुंजाइश नहीं है, उसमें दो नहीं समा सकते, जैसे पुष्प में दूसरी गंध नहीं समाती ।

43. अहंकार मनादि का अस्तित्व त्याग कर योगाभ्यास करो और अपने मानापमान पर कुछ न कहो, केवल परमात्मा में ही मग्न रहो ।

44. तहँ मैं नहीं = उस जगह मलिन वासना का अहंकार नहीं । महल बारीक है = स्वरूप का स्थान सूक्ष्मातिसूक्ष्म है । द्वै = द्वैतभाव, भेदवृत्ति । ठाम = जगह ।

45. मैं नाहीं तहँ मैं गया = अहंकार की निवृत्ति होते ही भेदवृत्ति भी चली जाती है । नाहीं को ठाहर घण = वासना अहंकार से रहित साधक को ठाहर घण = अपने अन्तःकरण में स्थित होने को बहुत जगह है ।

46. एक अलाव = एक ईश्वर, परावचन ।

47. जब यहु आपा मिट गया = जब यह अनित्य में नित्य प्रतीत होने वाला मिथ्याभिमान नष्ट हो गया ।

49. दादू है कूंभैंघणा = वासना और अहंकाररूपी है मौजूद हो तब तक वासना की पूर्ति न होने तथा अभिमान के कारण रागद्वेषजन्य बहुत से भय त्रास दु:ख प्राप्त होते ही रहते हैं।

51. पाँच तत्व पंच तन्मात्रा उनके आकाश, वायु, अग्नि, अप, पृथ्वी ये पाँच भूत हैं। इससे स्थूल शरीर बनता है, सूक्ष्म पंचभूत, अविद्या, वासना तथा कर्म ये आठ तत्व हैं, इन आठ तत्वों का सूक्ष्म शरीर है । इन स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का संयोग तजन्य यह देह है । यही उस निरंजन निर्विकार चेतन आत्मा की हाट = प्राप्ति स्थान है ।

52. जहँ = अज्ञान की दशा में मन भूतों के गुण, इन्द्रियों के व्यापार तथा आकार वाली वस्तुओं को ही ब्रह्म = चेतन समझता रहता है । तहँ = अज्ञानदशा की बदलनी हो तो मन को सबन तैं = उन सब अविद्या के आवरण से सत्य प्रतीत होने वाले त्रिगुणात्मक तथा पंचभूतात्मक पदार्थों से मन को विरचै दूर करे तथा सिरजनहार = अशेष जड़जगत् का आधर रूप चेतन जो सबके अभिव्यक्त का कारण है उसी में मन को रचि रहु = प्रेम से लगा दे ।

53. स्थूल शरीर के अध्यास का विचार से परित्याग, यह काया की शून्यावस्था है, मन की संकल्प, संशय, विपर्यय दशा का परित्याग कर मन को विशुद्ध करना, यह आत्मा मन की शून्यावस्था है जिसमें प्राण का प्रकाश प्रारम्भ होता है । मल विक्षेप अध्यास का निवारण हो वृत्ति का चेतन अधिष्ठान में स्थिर होना, यह परम शून्यदशा है । इसी में स्वस्वरूप का परिचय होता है । भेदनिवृत्ति यह परावस्था है इस अवस्था में केवल विशुद्ध चेतन ही शेष है ।

54. जहाँ = अकेले परमात्मा की तरफ है, अर्थात् उसी परमात्मा से सब सृष्टि उत्पन्न होती है ।

55. जैसे काल और कर्म करके जीव उपजे हैं, तैसे ही माया मन प्राण शरीरादि इन सर्व में परमात्मा सहजभाव से व्यापक रमता है ।

56. सहज शून्य सब ठौर है = सहज शून्य का अभिप्राय है निर्विल्प चेतन, वह सब ठौर है = अशेष देश काल में व्याप्त है । प्रकृति संयोगविहीन या माया अविद्या रहित चेतन की सहज दशा है यही निरंजन ब्रह्म है जिसमें किसी प्रकार के गुण की व्याप्ति नहीं है ।

57. उस सहज सून्यरूपी सरोवर के किनारे, हंसरूपी महात्मा मोती चुनते हैं, अर्थात् आत्मानंद का अनुभव करते हैं, और अनहद सेझे का अमृत रूपी दृष्टि जलपान करते हैं और अनहद शब्द 'सो है हंसा' में मग्न हो जाते हैं।

58. जप = विचार । तप = इन्द्रियोपरति । संयम = मनोनिग्रह ।

59. संगी सबै सुहावणे = सब संगी, मन इन्द्रियों । सुहावणै = विषयविहीन वासनाविहीन होकर सुहावने बन गये हैं। बिन कर बाजै बेन = अन्तरवृत्ति में अखण्ड ध्वनि होना । जिह्वा हीणे गावणे = जिह्वा के बिना सुरतिवृत्तिद्वारा प्रणवध्यान ।

60. चरण कमल चित लाइया = तेजपुंजमय आत्मस्वरूप में मन को लगाया ।

61. सहज सरोवर = निर्विल्प वृत्ति की दशा । हंसा = साधक सन्त । करैं कलोल = आत्म-चिंतन करें। मुक्ता हल = नामपरिचयरूप मोती । मन मोल = मन के मोल में , मन के विषय विकार वासनादि धर्म मोल में दिये ।

62. जित-तित पाणी पीव = जित तित = जिस किसी साधन, भक्ति, योग, वैराग्य, ज्ञान आदि द्वारा आत्मपरिचय रूप विशुद्ध नीर का पान करो । जहाँ- तहाँ = जिस किसी साधन की दशा में । जल अंचतां = आत्मरस पान करता ।

63. उज्ज्वल = माया अविद्या रहित । प्यास बिना = जानने की तीव्र इच्छा बिना ।

64. भावार्थ-शून्य सरोवर = निर्विकल्प शुद्ध चेतन वही सरोवर है, हंस मन = साधक का शुद्ध मनरूपी हंस है, शुद्ध चेतन के वाच्य जो शब्द हैं वे ही मोती हैं, चुगि-चुगि = निरन्तर अभ्यास द्वारा । चंचभरि = बुद्धि की स्थिर वृत्ति में स्वरूप को निश्चय कर । यों= इस तरह । संतजन = परम जिज्ञासु साधक, जीवें= जरा मृत्युभय से मुक्त होवें।

65. विलसिए = भोगिए ।

66. परिमल = सुगन्ध, चैतन्यरूपी मकरन्द ।

68. मंझि = अन्तःकरण में । केलि = कीड़ा, आसपास । मुक्ता हल = नामचिंतन रूप मोती । मुकता = बहुत, अपार । डर नाँहिं= विषयवासना मृत्यु, इनका भय नहीं है ।

69. अखण्ड = एकरस, अखण्डित । अथग = अथाह । नांहि = स्नान करना, ओतप्रोत होना । अब उडि अनत न जांहि = अब पुनः वासनाजन्य कर्मकर जन्म-मृत्यु के बन्धन में नहीं पड़ेगा ।

70. झूलैं= स्नान करे, अरसपरस होवे ।

71. इस विशुद्ध हृदय रूपी दरिया में ही वह चेतन आत्मरूपी माणिक रतन है । डुबकी लगाइये अपने आप में ताकि यहाँ उस अमूल्य रत्न को साक्षात् देख सके ।

72. दादू दूसर नाँहिं= पर आतम और आत्मा वया इस तरह चेतन दो है । आनन्दोपभोग के लिए ही ऐसी भेदवृत्ति हो वस्तुतः इनमें अभेद ही हैं।

73. यहाँ आत्मा शब्द सुरतिवृत्ति का बोधक है ।

74. सोधकर = तलाश कर, मिथ्या में से सत्य को समझ कर ।

75. पीव = पति, स्वामी, साक्षी आत्मारूप पति । पूरा = अखण्ड, माया अविद्या के आवरण से रहित । बाहर भीतर = व्यापक, परिपूर्ण ।

77. परगट = प्रत्यक्ष, साक्षात्, निरावरण । कहाँ बतावे लोग = सकाम कर्म की प्रवृत्ति वाले जप, तप, तीर्थ, यज्ञ, दान, पुण्य आदि में उसको बताते हैं। पर वस्तुतः वह उनमेंनहीं है ।

78. सकल = सर्वत्र, व्यापक, विविध कलामय मानव शरीर में । जाने = मत ।

79. बाहर = ब्रह्माण्ड में । भीतर = हृदय गुहा में ।

80. सन्मुख सांई सार = स्वकीय आत्मा के सम्मुख वृत्ति को रखना यही मानव जीवन का सार है । जीधर देखूँ नैन भरि = ज्ञान विज्ञानमय विचार नेत्रों से जिस ओर देखूँ, ज्ञान, भक्ति, योग, वैराग्य आदि किसी भी साधन में लगँ ।

82. दादू एकै देखिए = विवेक विचार दृष्टि से विविध मिथ्यात्व का त्याग कर एक ही सत्य चेतन को देखिए ।

83. ऐसा ब्रह्म विचार = पानी में दृष्टि खोलने से सर्वत्र पानी ही प्रतीत होता है इसी तरह आत्मा में वृत्ति को लयकर विषय-वासनाहीन वृत्ति को आत्माकारवृत्ति कर देना ऐसा ब्रह्म विचार सार्थक है ।

84. लीन आनन्द में = आनन्दरूपी प्रतिबिंब में विलीन रहें सब जगह माया अविद्या रहित शुद्ध रूप को देखें ।

86. सोवत भी सांई मिले = सुषुप्ति में भी वृत्ति स्वस्वरूप में लीन रहे ।

87. दादू अद्भुत खेल = आत्मसाक्षात्कार का ऐसा आश्चर्यमय खेल है ।

88. लार = संग, साथ, पीछे ।

89. अल्लह = अलह, मन, बुद्धि, वाणी से गृहीत न होने वाला । आली नूर = विशुद्ध व्यापक चेतन ।

91. बादल नहीं = विकार रूपी बादल नहीं , तहँ = वहाँ ही आत्मदर्शनरूपी वर्षा बरसती है । शब्द नहीं = वाणी की बाह्य वृत्ति की निवृत्ति होने पर मौनावस्थामय ध्यान में अनाहत ध्वनिरूप गर्जना सुनाई पड़ती है । बीज नहीं = वासनारूपी चांचल्य चपला नहीं , वहीं ब्रह्मज्योति का प्रकाश होता है । इस स्थिति में पहुँचने ही से परमानन्द की प्राप्ति होती है ।

92. भावार्थ = स्वस्वरूप की ज्योति प्रकाश प्रतिबिंबित हो प्रकाशित हो तभी सहज अनन्त प्रकाश की ज्योति का पुंज प्राप्त होता है, नाचचिंतनरूप अमृत झरता है, उसका पान करिये । इसी तरह ब्रह्मरूपी वृक्ष पर स्थितप्रज्ञ साधक की वृत्ति अमर बेल की तरह छा जाती है, वरण करती है ।

93. अविनाशी अंग तेज का = शुद्ध व्यापक चेतन का अंग अविनाशी है माया अविद्या विकार से रहित है । वही अनूप तत्व है । नैन भरि = ज्ञानविचार विचार से स्थिर कर । सुन्दर = कमनीय । सहज = निर्द्वन्द्व ।

94. परम तेज = विकाररहित चेतन ज्योति ।

95. निज = अपना, साक्षी चेतन । नैनउँ लागा बंद = अन्तर्मुखवृत्ति द्वारा ध्यानावस्था ।

96. भावार्थ = उपमाहीन सजातीय भेदवृत्ति जो अपना चेतन अधिष्ठान है वही अनुपम फल है । उसमें न तो बसनारूपी बीज है, न उसमें वातादि दोषजन्य, सत्व रजआदि गुणजन्म, स्थूल भौतिक आवरणमय बल्कल छाल है; वह फल अविद्या दोषरहित परम मधुर है वही फल हमारे हृदय में ज्ञान विज्ञान नेत्रों द्वारा स्थित है ।

97. हीरे-हीरे तेज के = हीरों के ढेर से भी अधिक स्वच्छ प्रकाशमय । निरखे = देखे । त्रिय लोइ = तीनों लोकों में । संत जन = आत्मजिज्ञासु साधक ।

98. नूर मा = शुद्ध स्वरूप में । नैन = विवेक-विचारमय नेत्र ।

100. अमरा पुरी निवास = निख्रवकल्प समाधि में स्थिति । निज दास = निर्वासी, निष्काम साधक ।

101. लेखै = सफल ।

102. जरै = जरण करै, शुद्ध मायांश को लीन कर लेने वाला । झिलमिल नूर = प्रकाशित शुद्ध स्वरूपी । जरै = जरणायुक्त साधक व चेतन । पुंज = समूह रहंत = सब जगह व्यापक ।

103. बेहद = असीम ।

104. वार पार = आदि अन्त, कार्यकारण भाव से वह वार पार रहित है । कीमत नहिं= तदाधरजन्य जगत् की वस्तुओं का ही मूल्य नहीं है तब उस कर्ता का मूल्य तो किया ही क्या जा सकता है?

105. निर्संध = संबंध रहित ।

106. निज = असक्त चेतन । इकलस = एक रस ।

107. भावार्थ = विशुद्ध चेतन का ही सर्वत्र प्रकाश है उसी शुद्ध स्वरूप अपने में निवास करते हुए साधक सन्त स्वस्वरूप ज्योति का आनन्दोपभोग कर रहा है । नूर, तेज, जोति, यह असंग समष्टि चेतन के अर्थ में प्रयोग किये गये हैं ।

108. दादू खेले सेज = अन्तःकरण की त्रिपुटी रूपी सेज पर सन्तजन साधक खेलते हैं ।

109. इस साखी में तेजपुंज साध्य, साधक, साधन तीनों के विशेषण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । सुन्दर = साधक की वृत्ति । कंत = साध्य, स्वामी । सेज = अन्तः करण । तीनों के विशुद्ध संयोग होने पर ही अखण्ड बसन्त का समय बनता है ।

110. कौतुक = आश्चर्य ।

112. रस ही रस बरषि है = आत्मानन्द प्राप्त होने पर ही परमानन्द की वर्षा होती है ।

113. घन बादल बिन बरषि है = वासना के बादलों के बिना शुद्ध हृदय में मन, प्राण, सुरति की एकता से ज्ञानामृत की वर्षा बरस रही है । साधू = आत्म-अभ्यासी ।

115. अविगत = मन, इन्द्रिय, वाणी से परे । अलख = स्वयंप्रकाश । अनंत = देशकालशून्य ।

116. कामधेनु = कामना की पूर्ति करने वाला परमेश्वर । अकल = कलमधर्म से रहित । एक = सजातीय विजातीय भेदहीन । धर अनेक = कई धराएँ, ज्ञान, भक्ति, योग वैराग्य आदि विविध साधनरूप धराएँ ।

117. प्यास = तीव्र जिज्ञासा, भावना ।

118. सुषमन लागा बन्द = सुषुम्ना नाड़ी द्वारा प्राण स्थिर कर समाधि में मन को बन्द करना ।

119. अगम-अगोचर जाय = अगम = षट्प्रमाण के विषयरहित । अगोचर = इन्द्रियातीत जो तत्व है उसमें वृत्ति लगा । तेज पुंज की गाय = शुद्ध चेतनरूपी कामधेनु ।

120. बछरा = तीव्र जिज्ञासु साधक ।

121. आतम = अन्तःकरण ।

122. भावार्थ = आत्मरूपी वृक्ष शाखा और जड़ रहित है, (साधरण वृक्षों की तरह वह) धरती पर नहीं हैं उसका फल अविचल अमर अनन्त है, सो दयालजी कहते हैं खाइए, अर्थात् हमको खाना चाहिए ।

123. ध्र अम्बर = आकाशादि भूतगण । अविनाश = नित्यस्थायी ।

124. रज वीरज = स्थूल भौतिक उपादान । अजर = जरारहित । अमर = काल रहित । गहिता = ग्रहण करता ।

125. उत्पति = अभिव्यक्ति । परले = लय, विनाश । रहिता = मायादि उपाधि रहित । रमता = समष्टि व्यापक ।

126. प्राण = अन्तःकरण रूपी वृक्ष की सुरतिवृत्ति जड़ है, शुद्ध चेतन उसका आश्रय है; उसी में वृत्ति का विलय होने से आनन्द और अमरतारूपी फल-फूल लगते हैं। इस दशा में पहुँचे हुए साध्क फिर सूखे नांहिं = जन्ममृत्यु नहीं पाते ।

127. ब्राह्मी अवस्था वाले जीवन्मुत्ता, आत्मनिष्ठवृत्ति वाले साधक तथा देहाभिमानी पुरुष के क्या-क्या लक्षण है? सुजान = विज्ञ सद्गुरु बताइए ।

128. देहाभिमानी के लक्षण कहे गये हैं।

129. इसमें आत्मनिष्ठ साधक के लक्षण कहे गये हैं। सहज = निर्द्वन्द्व, दो-दो द्वन्द्वज गुणों का त्याग । शील = अष्टविध मैथुन रहित । संतोष = यथालाभतुष्टि । भाव = श्रद्ध । भक्ति = नवध, राग रहित दृढ़ विश्वास ।

130. इसमें ब्राह्मीभाव प्राप्त पुरुष का लक्षण बताया है । शून्य = अवस्था । दादू देखणहार = इस अवस्था वाला केवल द्रष्टा मात्र है । क्रिया-कर्म का अनुबन्ध द्रष्टा में रहता ।

131. इसमें मुसलमानों की चार अवस्थाओं के विषय में प्रश्न किया है । मौजूद खबर = वर्तमान की अवस्था । माबूद खबर = ब्रह्मवादी के लक्षण । अरवाह खबर = आत्मवादी के लक्षण । वजूद = देहाध्यासी के लक्षण ज्ञात हैं। मकाम = मंजिल या अवस्था । चे चीज = क्या चीज है । सजूद दादन = मैं सेवाभाव से आपके समक्ष इनको जानने को उपस्थित हुआ है हूँ, आप बखसीस करें = इसके लक्षण समझायें।

132. नफ्स = शैतानमन मैं। गालिब = नाना तरह की वासना के विचार । किब्र = चुगली या दूसरे की निन्दा, ये उसके कब्जे में रहते हैं , आप बखसीस करें। गुस्सा = क्रोध । मनी एस्त = अहंकार उपस्थित है । दुई = द्वैतभाव । दरोग = झूठ या द्वेष । हिर्स = चाह । हुज्जत = शैतानी तथा झगड़ने की प्रवृत्ति चालू रहती है । नाम = खुदा की याद । नेक = भलाई ये उसकी नष्ट हो गई हैं।

133. इश्क = प्रेममय सात्विकवृत्ति । इबादत = आत्मचर्चा; बंदग = भक्तिभाव । यगानम = एकता । इखलास = सबके साथ प्रेम व्यवहार । महर = दया, मेहरबानी । मुहब्बत = रागमय स्नेह । खैर = बाँटकर खाना । खूब = शोभा, ख्याति, यश । नाम = आत्मचिंतन । नेक = उपकारमयवृत्ति निवास करती है, अर्थात् आत्मनिष्ठ पुरुष इन गुणों से युक्त होता है ।

134. यके नूर = एक ही शुद्ध स्वरूप जो । खूब खूबां= शोभनीय से भी शोभनीय है जिसके । हैरान = आश्चर्यकारक । दीदन = दर्शन कर रहे हैं। अजब = वचनातीत श्रेष्ठ । चीज = वस्तु । खुरदन = भज रहे हैं , पा रहे हैं। वे इस तरह पियालए = आत्मानन्दरूपी प्रेम के प्याले पी । मस्तान = मस्त हैं , मग्न । उन्हें किसी सुख-दु:ख की भावना नहीं सताती है ।

135. संसार ईश्वर की राह से दूर है अचेत है, पहले शरीयत की अवस्था में लाने के लिए चार उपदेश अच्छी तरह समझने चाहिए । हलाल, हराम, भलाई, बुराई के भेद को ठीक-ठीक जान ले । वे ही बुद्धिमान हैं।

136. कुल फारिक तर्क दुनियां= दुनियावी सब भोग वासनायें त्याग कर दें। हर रोज हरदम याद = सर्वदा सबकाल श्वास-प्रश्वास में आत्मचिंतन करें। अल्लहआली इश्क आशिक = शुद्ध श्रेष्ठ ब्रह्म के रागे रहित प्रेम का आशिक बने । दरूने फरियाद = विशुद्ध अन्तःकरण से वासना रहित वृत्ति द्वारा पुकार करे, ध्यान करे; वही सच्चा आत्मनिष्ठ है ।

137. पानी, आग, आकाश, धरती ये चारों ईश्वर की ही सूरतें हैं जो साध्क अपने साध्य की स्तुति, प्रार्थना करता है वही साधक मारफत मंजलि में है ।

138. भावार्थ = जिस साधक ने अपने शुद्ध स्वरूप का दर्शन कर मानव जीवन का फर्ज अदा किया । जिसने गर्भावस्था की प्रतिज्ञा पूरी कर दी । जिस साधक के शुद्ध अन्तःकरण में समष्टि चेतन का उदय हुआ है । अर्थात् व्यष्टि-समष्टि का सजातीय भेद समाप्त हो गया है । वही साध्क हकीकत में जिल को पहुँचा हुआ ब्राह्मी अवस्था वाला समझना चाहिए ।

139. चहारमंजिल = चारों अवस्था । बयान गुफतम = वर्णन की । दस्त करदः बूद = साधक मानव इस पर ध्यान दें। पीरां= गुरु । मुरीदा = शिष्य । खबर करदः = बतावै । जा = यह । राहे = रास्ता । माबूद = ब्रह्म का है ।

141. अनदिन = तमाम दिन, सर्वदा ।

142. यश कीरति करुणा करै = उसका सुयश, उसी का गुणगान व उसकी प्रार्थना करें।

143. परम तेज = समष्टि चेतन । नैनहुँ = ज्ञान विचार के नेत्रों से ।

144. अस्थान = मंजिल, दशा, अवस्था ।

145. प्रेमी साधक संसार में रहते हुए भी उसी में मस्त रहते हैं। उनकी साधना उनका आहार अपने स्वरूप का परिचय ही है । चार, दश ऐसे चौदह लोक की सम्पत्ति से उन्हें क्या काम जिसको अपना दिलदार मिल गया है ।

146. पुलक = पुलकित, खुश ।

147. विगसि विगसि = प्रफुल्लित हो ।

148. देखि-देखि = विचार के नेत्र से विचार-विचार ।

150. आतम सुमिरण = वृत्तिमय चिन्तन । एक रस = अभेदरूप परिचय । विवेक = ज्ञान ।

151. माटी के मुकाम का = देह की रक्षा का । अरवाह = प्रतीक, ध्यान । आपैं आप = अहंग्रह ध्यान ।

152. अस्थल = अध्यास । सब व्यापैं= वासना विकारजन्य प्रवृत्तियाँ । आगे रस आपै = आत्मनिष्ठा के आगे एक स्वस्वरूप का आनन्दरस ही शेष रहताहै ।

153. सुरति = ध्यान, ख्याल । बिसरे = भूल जाय, त्याग दे ।

154. नीका = भला, अच्छा । फीका = नीरस, सारहीन ।

156. चर्मदृष्टि = नानाभाव से संसार को देखना । आतम दृष्टि = सात्विक ज्ञान, जड़-चेतन सबमें आत्मभाव रखे । परचै = साक्षात् । दादू पलटे दोइ = देहदृष्टि तथा आत्मदृष्टि दोनों में पलटाव हो जाता है । ब्रह्मदृष्टि ही अपरिवर्तनीय है ।

158. जिस साधक को घट परचै = धरणा द्वारा पंचभूत परिचय सम्यक् हो जाता है वह अपने शरीर के सुख-दु:खादियों की तरह अन्य शरीरों के सुख-दु:ख जानने लगता है । जिस साधक के प्राणसिद्धि हो जाती है वह अपनी भूख- प्यास आदि की तरह अन्य शरीरों के भूख-प्यास भी जानने लगता है । जिस साध्क को ब्रह्मपरिचय = आत्मसाक्षात्कार हो जाता है वह औरों को भी आत्मपरिचय कराने में समर्थ हो जाता है । ये तीनों स्थितियाँ आश्चर्यकारक हैं।

159. जल पाषाण ज्यों = भेदवृत्ति के साथ । पाणी लौंण ज्यों= एक रूप, तादात्म्य भाव से ।

160. अलख नाम अंतर कहै = बिना जीभ के सुरति वृत्ति द्वारा वृत्ति में ही आत्मचिंतन करे ।

सिवली ज्यूँ रस पीजिए, जानि सके नाँहिं कोई ।
प्रगट करे मन सूर ज्यूँ, सब जग बैरी होई । 1 ।

161. छाड़ै सुरति शरीर को = वृत्ति देहाध्यास का तथा वासना का परित्याग करे ।

162. पिव के पस्से होइ = पीव साध्य या स्वस्वरूप का साक्षात्कार हो जाने पर सुरति वृत्ति का शरीर भी स्वस्वरूपमय बन जाता है अर्थात् वृत्ति तदाकार हो जाती है । जब इन्द्रियाँ और मन एक दशा में स्थिर हो जाते हैं वहीं सच्चा सुस्मरण समझिए । दादू दास कबीरजी, पीपोजी पुनि सोइ । जहाज तरी पंडों जयो, चंदवो प्रत्यक्ष जोइ । 1 ।

163. आप विसर्जन होइ = देहाध्यास, वासना तथा अहंकार का निवारण हो जाय । मन पवना पंचों बिलै = मन, प्राण, इन्द्रियाँ, स्वासोछ्वास, शब्दादिविषय का विसर्जन कर दे ।

164. जहँ = शुद्ध अन्तःकरण में । अगम = मन वाणी इंद्रियातीत ।

165. कौंण = कौन ।

166. विलै = लीन

167. तन-मन = इन्द्रियाँ अन्तःकरण । आत्म कमल = शुद्ध अन्तःकरण । बंदग = सेवा, साधना ।

168. कोमल कमल = शुद्ध हृदय कमल । पैसि करि = वृत्ति द्वारा मन का प्रवेश कर ।

169. नख-शिख सब सुमरिण करे = अन्तनिष्ठ वृत्ति द्वारा चिन्तन का अभ्यास पूर्ण हो जाय तब सम्पूर्ण शरीर स्मरण करने की अवस्था में आ जाता है । अर्थात् वृत्ति द्वारा अनवरत आत्मचिन्तन होता रहता है यही नख-शिख चिन्तन है । foगसे = प्रसन्न हो ।

170. अंतरगति = अन्तर्मुखवृत्ति । हाजति = चाह ।

171. सहजैं= निर्विकल्वृत्ति से । चित = व्यष्ठि अन्तःकरण । चित = समष्टि अन्तःकरण ।

172. आप अनन्त = उस व्यापक चेतन से । सदा वसन्त = परमानन्द ।

173. शब्द अनाहद हम सुन्या = वृत्ति और प्राण की स्थिरता द्वारा अनहद शब्द को हमने सुना ।

174. भावार्थ = अब एक व्यापक चेतन में मन लग गया । हमारी यही चाह थी । खुदा के काम के लिए ही यानी उस व्यापक चेतन की प्राप्ति के लिए ही दिन-रात ध्यान में लगे हुए हैं।

175. माला सब आकार क = व्यापक समष्टि चेतन की माला ध्यान जप कोई तीव्र जिज्ञासा ही करता है । करणी गर = कर्ता पुरुष ।

176. सब घट सुख रसना करे = सम्पूर्ण शरीर को रसना कर ले-मन इन्द्रियाँ सब अन्तर्मुख कर वृत्ति को स्थिर कर ले । अगम = मन वाणी 'से परे । अगोचर = इन्द्रियातीत । ठाम = स्थान, जगह ।

177. स्थिर = निर्विकल्प । पंचों पूरे सोइ = इन्द्रियों को विषय विरत करे स्वस्वरूप की ओर लगाओ ।

178. आतम आसान राम का = अन्तःकरण विशुद्ध कर राम = स्वस्वरूप का । उसको आसन बनावै । तभी हरि आतम का स्थान परमेश्वर समष्टि चेतन उस अन्तःकरण में प्राप्त होते हैं।

179. यहु आरंभ यहु काम = साध्क स्वस्वरूप या चेतन द्वारा वृत्ति स्थिर करे यही उसका काम है । समष्टि चेतन व्यष्ठि के भ्रम अध्यास वासना की समाप्ति करे यह उसका काम है ।

180. अरस-परस विश्राम = एक ही एक में स्थिति ।

181. अविगति की आराध = उस मन, वणी, इन्द्रियातीत की आराधना से ही साधुजन अपने आपको अनुभूति करते हैं।

182. दीदार = एकत्वाभावरूप ।

183. साधु समाना राम में = साधक का व्यष्ठि समष्ठि में समा गया ।

185. हंस = सन्त साधक ।

186. दादू मीठा हाथ ले = हृदय में अति स्नेह सहित ईश्वरचिन्तन कर ।

187. मीठा = विषयवासना रहित । खारे = विषय वासना ।

188. मीठै-मीठै कर लिये = निरुपाधिक साध्य ने साधक के मन इन्द्रिय प्राण को उनकी चंचलता विषय चाह गति रूप कड़वापन दूर कर मीठे बना लिया । मीठा मांहैं बाहि = ये सब शुद्ध बने हुए, इन्हें अन्तर्मुख करो । इस तरह शुद्ध वृत्ति से स्थिरता प्राप्त कर उस अखण्ड मीठे में मिल जाओ ।

189. परसैं= स्पर्श करे, तादात्म्य हो ।

190. हीरा = मनुष्य शरीर रूपी तरन । पारिख = परीक्षक, विचारशील ।

191. अंधे = विषय-विकार से ज्ञान नेत्र रहित ।

192. मीरां= समष्टि व्यापक शुद्ध चेतन । महर = करुणा, दया । परदे = अज्ञान, अध्यास के आवरण से । लापर्द = अज्ञान अविचार के परदे से रहित । दीदार = स्वस्वरूप । दर्द = वेदना, जन्म मृत्युजन्य पीड़ा ।

195. एक मन = समष्टि व्यापक मन ।

196. तिमर = अज्ञानजन्य अन्धकार । सब जग देखे सोइ = वही सब संसार को आत्मरूप में देखने में सफल होता है ।

197. अरवाह = साधक । ईमान = विश्वास की जगह । साबित = अखण्ड, एकाग्र । रहिमान = अपना रूप ।

198. अल्लह आप ईमान हैं= वह सर्वव्यापक चेतनाशक्ति जो भगवान् है वह हमारे ईमान = दृढ़ विश्वास में है ।

199. प्राण पवन ज्यों पतला = प्राण की क्रिया को प्राणायाम की साधना द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म बनाना अर्थात् कुंभक की स्थिरता की साधना कर समाधि में निरत होना । क्यों ही गह्या न जाय = जब प्राण समाधि में स्थिर हो जाय तो फिर संसार को किसी वासना से गृहित न हो सकेगा ।

200. नूर तेज = परम ज्योति । दृष्टि = काल की दृष्टि में । मुष्टि = माया के बन्धन में ।

201. भावार्थ = उपयुक्त साधना द्वारा सर्वात्मना ब्रह्मीभाव को प्राप्त होने वाले कोई विरले हैं। भेदवृत्ति से सूक्षम शरीर को साथ लेकर मिलने वाले बहुत हैं।

203. अनुभव = स्वसाक्षात्कार । निश्चल = चल स्वभाव रहित । निर्मल = अविद्यादि मल रहित ।निर्वाण = काल कर्मादि प्रहार रहित । अगम = षट्प्रभासे अज्ञात । अगोचर = इन्द्रियातीत । ठाम = उस निर्भय नाम के ये स्थान हैं।

204. अनुभव वाण = ब्रह्म वाणी, परिचयसाक्षात् । अगह गहै = जो अगह है उसको उसी रूप में गहै = समझे । अकह कहै = जो अनिर्वचनीय है उसका उसी रूप में चिन्तन करे । अभेद-भेद = अभेद के निश्चयरूप भेद को पाना ।

205. अकह कहात = अनुभव में स्वस्वरूप का निश्चय प्राप्त कर लेना यही अकह = अकथनीय बात कही जाती है ।

206. भय = सप्त प्रकार के भय । भ्रम = पाँच तरह की भ्रान्ति ।

207. अनुभव = साक्षात् परिचय ।

208. वाणी ब्रह्म क = परा वाणी । राम अकेला रहि गया = अभेद निश्चय ज्ञान होने पर साधक और साधन दोनों समाप्त हो गये । जो स्वस्वरूपी साध्य राम था वही रह गया ।

209. आतमा = जिज्ञासुजन । राखे मूल = मानव शरीररूपी मूल व नामचिंतन रूपी मूल की रक्षा करे । काया कूल = अन्तःकरण रूपी सरोवर के तट पर ।

210. वर्िवत्तावाद का निरूपण है । साखी के तीन चरण परावचन हैं चौथा दादूजी का । में ही मेरा थान = मेरा आश्रय में ही हूँ ।

211. आसरे = आकाश, शून्य ।

212. मेरे तकिये = मेरे अधिष्ठान ।

213. मेरी जाति = जाति तथा जातित्व । अंग = अंगांगी । परसंग = प्रकरण, संवाद ।

214. सारिखा = एकसा, समान ।

215. चैन = शान्ति । ऐन = प्रत्यक्ष स्वरूप है ।

217. सर्वंग = सबका आधरभूत ।

218. ज्योति प्रवानै = चेतन का प्रकाश ही प्रामाणिक है । ऐन = स्वयं , साक्षात् । सोई भल जानै = वही समझदार है, जानकार है जो उस व्यापक शक्ति को इस रूप में जानता है । कोई यहु मानै = कोई सच्चा साधक ही यह समष्टिस्वरूप का परिचय प्राप्त करता है । दादू ध्यानै = दादूजी कहते हैं स्वस्वरूप का समष्टि के साथ इस तरह संबंध मान इसी भावना में निर्भर होता है वही सच्चा ध्यान है ।

220. गहणा = ग्रहण करना । सारे = श्रेष्ठ, सारभूत । ऐन हमारे = बाह्याभ्यन्तर । सँवारे = शृंगार करे, सजावे । खेवे = खेवट, निर्वाहक ।

219. वर = पति, स्वामी, साध्य उपास्य । मंझ = उसी में । बसेरा = निवास । नूर हि खाता दादू तेरा = सच्चा साधक इस तरह समष्टि में आपके स्वरूप को समझ शुद्ध चेतन की ही उपासना में लगता है वही उसकी खुराक है ।

221. नूर = शुद्ध । अरवाह = साधक । माबूदं= शुद्ध चेतन, परमेश्वर ।

222. तहं= उस शुद्ध साधक के हृदय में । खालिक = विशुद्ध समष्टि चेतन । खिदतमगार = विरही साधक, सेवग । हजूरं= हाजिर, सतत अभ्यासरत ।

224. एक पग = एक रस, स्थिरवृत्ति ।

225. तेज = सत्वप्रधन । कमल = कोमल, करुणापूर्ण । दिल = अन्तःकरण । रहमानं = दयालु परमेश्वर । समानं = समझदार ।

226. तहाँ = शुद्ध हृदय में । हजूर = खवासी । सिजदा = प्रणाम, विनय ।

227. खाक = अज्ञान, विषय-विकार से मलिन । नूर = विशुद्ध दिल । मझि = भीतर ।

228. हौज = आनन्दरस का स्थान । गुसल = स्नान । उजू = पंच अवयव, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को विषयविस्त करना वही उजू है । नमाज = निवेदन, प्रार्थना ।

229. पंच जमात = पाँच ज्ञनेन्द्रियाँ, ये ही जमात = नमाज पढ़ने वालो । का समूह है । सिजदा = नमस्कार । तहँ = शुद्ध अन्तःकरण में ।

230. तसबीह = माला । रोजा = व्रत । एक = एकत्वभाव । आपै आप = अपने स्वरूप में अपनी स्थिति ।

231. अठें= आठों , सब समय । इकटग = सब एक तरफ देखते रहना । अर्श = हृदय प्रदेश ।

232. इबादत = पूजा । निर्वाहि = निभाना, पूर्ति करना ।

233. भावार्थ = शुद्ध हृदय में आठों पहर अन्तर्मुख वृत्ति से स्थिर रहना । वे ही साधक अपने स्वरूप को देखते हैं तथा वे ही उस स्वस्वरूप से गाहाये = बाचतीत करते हैं।

234. अर्श = शुद्ध दिल में । पिरी पंसनि = अपने प्रिय आत्मा को देखता है । पसे = दर्शन । लंहनि = ले रहे हैं।

235. जिन्हीं= जिनकी । रूह = आत्मा । रंहनि = रह रहा है । पसे तिन्न के = उनके दर्शन करने चाहिए । गुइँयू गाल्ही कंनि = जो गुप्त अदृश्य आत्मा की बात करते हैं अर्थात् अदृश्य आत्मा को प्राप्त करते हैं।

236. भावार्थ = जो साधक आठों पहर अपने अन्तःकरण में अपने स्वरूप को देखने की चाह में लगे हैं। असां खबरिडीन्ह = जिन्हों ने हमें उस आत्मस्वरूप की खबर यानी उपदेश दिया है । दादू पसेतिन्नके = दादूजी कहते हैं उन्हीं के दर्शन करने चाहिए ।

237. भावार्थ = सब समय अपने शुद्ध दिल में वजी जे गाहीन = वृत्ति को लगाकर अपना अवगाहन कर रहे हैं , उन्हीं के दर्शन करने चाहिए । केतेई आहीन = और दिखावटी साधक तो न मालूम कितने हैं।

238. प्रेम = आसक्ति रहित स्नेह । दर = सत्संग या दर = हृदय में । दीदार = दर्शन दे ।

239. भावार्थ = दरगाह, सत्संग, आत्मशास्त्र, योगभक्ति आदि साधनों द्वरा सलूंना = रस । इश्क = अनासक्त प्रेम, आशिकां= साधक जिज्ञासु को दिया है । दर्द = तड़फन सहित । मुहब्बत = स्वस्वरूप की तीव्र चाह वही है प्रेम रस उसका प्याला = हृदयरूपी प्याला भरकर । पीया = पान किया ।

240. जहाँ = मस्त अवस्था ।

241. भावार्थ = आसिक जिज्ञासु साधक अरस शुद्ध दिल में शुद्ध स्वरूप का प्याला पी रहे हैं। वे सब समय अल्लाहदा = अपने स्वरूप का मुँह देख जीते हैं अर्थात् सर्वदा अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा आत्मनिष्ठ रहते हैं।

242. अमल = साधना के व्यसन वाले । अलख = विशुद्ध व्यापक चेतन । दरीबै = दरबार, कचहरी में ।

243. राते = अनुरक्त । माते = मस्त, दीवाने । ल्यौं लाय = वृत्ति को लय कर समाधिअवस्था में ।

244. अविचल अविनाश = यहाँ भक्त के विशेषण हैं। परकाश = प्रगटी, उत्पन्न हुई ।

245. मित = पार

246. अविगत = लेखे रहित । सहस = हजार । मुखां= मुँह से ।

247. निर्गुण = माया अविद्या अंश रहित । परमाणि = प्रमाण । संत = नारद, दत्तात्रोय, जड़ भरतादि ।

251. सुख = निरतिशय सुख ।

253. अवलम्बन = आधर, आश्रय ।

254. आदि अंत = जन्म, मृत्यु, वृत्ति के उदयकाल में , वृत्ति के लयकाल में । एक = भेद रहित । निज = साक्षी, चेतन । भेव = भेद, खबर ।

255. अपरंपरा = जिससे भिन्न दूसरा नहीं । वार पार = आदि-अंत । छेव = किनारा ।

256. भीतर पैसि कर = वृत्ति अन्तर्मुख कर । घट के जड़ै = इन्द्रियों की प्रवृत्ति रोके । अविगत घाट = परमात्मा या स्वस्वरूप की प्राप्ति का यही रास्ता है ।

257. घट = शुद्ध अन्तःकरण ।

258. पूजणहारे = पूजनीय, उपात्य । माँड = आरम्भ की ।

259. उलट समाना आप में = मन प्राण इन्द्रियों को विलय कर स्वस्वरूप में स्थित हुआ ।

260. बेधे = घायल हुए, विरहयुक्त हुए ।

261. अगम-अगोचर ठाम = जहाँ पहुँच नहीं , इन्द्रियों का विषय नहीं ऐसे ठाम = शुद्ध अन्तःकरण में । जीवण-मरण का नाम = इस स्थिति में पहुँच जाने पर जन्म-मृत्यु नाम शेष ही रहता है ।

263. परिचै = साक्षात् स्वस्वरूप ।

265. बूझै = जाने, समझे । विरला = कोइ एक ।

268. सत्यराम = निर्गुण ब्रह्म है वही सत्य है । जिसका अन्तःकरण स्वस्वरूप की ओर लगा है वही साध्क वैष्णव है ।सुबुद्धि भूमिस्थितप्रज्ञ = बुद्धि है वह शुद्धभूमि है । संतोष स्थान = वासनारहित वृत्ति की दशा वही स्थान-घर है । मूलमन्त्र = समष्टि का आधत्चेतन जो मूल सबका आधर है उसका चिंतन ही मन्त्र है । मनमाला = शुद्ध मन का अन्तःवाह वही माला है । गुरु तिलक = सतगुरु का सत्य उपदेश वही तिलक है । सत्य संयम = साध्क सत्य का अजय कभी न त्यागै वही संयम है ।शील शुच्या = अखण्ड ब्रह्मचर्य की रक्षा यही पवित्रता है । ध्यान धोत = वृत्ति की एकाग्रतारूपी धोती धरण करना ।काया कलश = मानव शरीर है यही पूजा के जल का कलश है । प्रेमजल = इस कलश में आसक्ति रहित शुद्ध प्रेमरूपी जल भरना । मनसा मंदिर = वृत्ति में सं त्वोद्रेक स्थिर करना यही मन्दिर बनाना है । निरं जन देव = इस मन्दिर में माया अविद्या उपाधि रहित शुद्ध चेतन की प्रतिष्ठा करना । आत्मा पात = इन्द्रियों को अन्तर्मुख करना यही तुलसी दल चढ़ाना है ।पहुप प्रीति = अनन्य प्रेम यही पुष्प चढ़ाना है । चेतना चं दन = चित्ता की सचेष्ठता यही चं दन है । नवध नाम = नौ प्रकार की भक्ति यही नाम है । भाव पूजा = अगाध श्रद्ध द्वारा पूजा करना । मति = सं कल्प रहित बुद्धि है वही पूजा के पात्र हैं। सहज समर्पण = वृत्तियों को निर्द्वन्द्व करना यही समर्पण है । शब्द घण्टा = प्रणवध्वनि रूप घण्टा है । आनन्द आरत = आनं द की अनुभूति ही आरती है । दया प्रसाद = स्वस्वरूप का परिचय प्राप्त होने की दया यही प्रसाद है । अनन्य एक दशा = लयवृत्ति की स्थिरता अर्थात् समाधि दशा यही एक दशा है ।तीर्थ सत्सं ग = इस साधक के सन्तसमागम ही तीर्थ हैं। दान उपदेश = आत्मोपदेश ही यहाँ दान है । व्रत स्मरण = आत्मचिन्तन यही इस साधक के लिए व्रत है । षट् गुणज्ञान = अध्ययनाध्यापन दान देना-लेना यज्ञ करना-कराना इन षट्गुणों की जगह सत्य ज्ञान ही षट्गुण स्थानीय है । अजपा जाप = अचं चलवृत्ति में स्वरूपस्थिति यही अजपाजाप हैं। अनुभव आचार = स्वरूपनिश्चय साक्षात् परिचयरूप अनुभव यही साधक के आचार हैं। मर्यादा राम = सार्वभौम आत्मा की उपादेयता से भिन्न किसी कर्म का व्यापार न करना यही मर्यादा है । फलदर्शन = इस पूजा का परिणाम है अपना साक्षात्कार । अभि अन्तर सदा निरन्तर = अन्तःकरण में सर्वदा सब काल । सत्य सौं ज दादू वर्तते = दादू जी महाराज कहते हैं -जो सच्चे साधक हैं उनके यही सच्ची सौं ज सामग्री पूजा की है जिसको सन्तजन उपजाते हैं। अन्तरगत पूजा = अन्तःकरण में पूजा करने की विधि का आत्मा उपदेश; साधक के लिए यही वास्तविक उपदेश है ।

269. जक = आनन्द । सेज = हृदय में । पड़दा = अन्तराय, आवरण ।

270. सेवग बिसरे आपकूं= साधक अपने कर्तृत्व भोक्तृत्वपने को भूल जाय । तत = तत्व ।

271. रसिया = अमली, व्यसनी । एक रस = एकाग्रचित्ता समाधिस्थ ।

272. जहं सेवक तहं साहिब बैठा = सेवक साध्क अपनी साध्ना में निरन्तर लग जाता है तब उस सेवक के अंतःकरण में साध्क साध्यस्वरूप आ बैठता है, प्रगट हो जाता है ।

273. सौं प्या सब परिवार = पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ चारों अन्तःकरण और प्राणरूपी परिवार उसी के समर्पण कर दिया ।

274. विलसणा = भोगना, सहवास में आना । इक ठाम = शुद्ध हृदयकमल में ।

275. मं गल चहुँ दिश = चौदह त्रिपुरी, दश इन्द्रियाँ, चतुविं ध अन्तःकरण ।

276. मस्तक मेरे पाँव धर = मेरे विविध प्रकार के अहं काररूपी मस्तक पर पाँव रख उन्हें दूर कर ।

277. ये चारों पद पिलं ग के = अहंकार की निवृत्ति, अन्तःकरण की शुद्धि, वृत्ति का तादात्म्य और स्वरूप ये उस पलं ग के चार पाये हैं। हेज = अति अनुराग ।

278. आतम = साधक ।

279. पं च पढाइ = पं चेन्द्रियों को अन्तर्मुख कर । तन मन चन्दन = शुद्ध शरीर शुद्ध मनरूपी चन्दन ।

280. देह निरं तर होय = शरीर ही में सब काल की जा कसती है ।

281. सब गुण = सत्व रज तम से । निरं तर = व्यापक ।

282. पियारे राम = परम प्रिय आत्मा को । विलम्ब = देर । तन मन मनसा सौं पि सब = रज तमादि गुणमय शरीर, कामादि विकार युक्त मन, अस्थिर मनसा बुद्धि इन सबके दोष दूर कर उस आत्मा को समर्पित कर ।

283. सान = मिला, एक कर । मति बुद्धि पं चों आतमा = मननवृत्ति निश्चयवृत्ति तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ ।

284. पवन = प्राण । पं च = पं चज्ञानेन्द्रियाँ । अकेला = असं ग । दूजा = द्वैत, भेदवृत्ति ।

285. समेट कर = अंतर्मुखकर । अपूठे = पीछे-भीतर । आणि = लावो । सं ग = सच्चा साथी ।

286. मनचित मनसा आत्मा = मन, चित, प्राण में जो चिदाभास है वही आत्मा है । अपना रूप है, उसी में सहज सुरति = स्थिर वृत्ति करिये । पूरले = भरले, व्याप्त करले । धरती अम्बर = पं चभूतात्मक विकार ।

287. भीगे = तर हो, सराबोर हो ।

288. समाइ ले = विलय कर ले । बाँधि ले = लगा लै ।

289. सहजैं सहज समाइले = सहज समष्टि चेतन में अपना वासना विकार के अनुबन्ध से रहित हुआ सहज चेतन सम्मिलित कर ले ।ज्ञानै बन्ध्या ज्ञान = बन्ध्या विकल्प रहित बुद्धिजन्य स्वस्वरूप ज्ञान को समष्टि ज्ञान में सम्मिलित कर ले । सूत्रौं सूत्र समाइले = समष्टि व्यष्टि के स्वभाव में स्वभाव को मिला ले ।

293. मन तहाँ नैना जाय = शुद्ध अन्तःकरण है वहीं विवेक विचार के नेत्र जाते हैं। आतमा = वृत्ति ।

294. इस साखी में समाधि अवस्था का दिग्दर्शन है-जब वृत्ति अन्तर्मुख हो प्राण के साथ स्थिर हो जाती है तब मन प्राण वाणी के व्यापार रुक जाते हैं। उस स्थिति में एक राम रतन-स्वस्वरूप ही शेष रहता है ।

295. दादू परगट ऐन = जब स्वरूप का प्रत्यक्ष परिचय हो जाता है तब स्थूल सूक्ष्म प्रपं च के अन्य सब व्यापार रुक जाते हैं।

296. दादू अंग अपार = दादूजी कहते हैं इस दृश्य अंग से आगे जो अपना अपार अंग व्यापक चेतन है उसको जान लिया, प्राप्त कर लिया तब और सब वासनायें नि:शेष हो जाती हैं।

298-299. भावार्थ = अन्तर्मुख पाँचों ज्ञानेन्द्रिय पदार्थ रूप हैं , शुद्ध अन्तःकरण रत्न रूप है , स्माधिस्थ प्राण माणिक सम है , स्थिर बुद्धिवृत्ति हीरा है । उस वृत्ति में स्वस्वरूप की वासना मोती है । यह हार अद्भुत और निरूपम है । यह सोई-अपने उपास्य के लायक है । दादूजी महाराज कहते हैं -अपने अधिष्ठान चेतन रूपी राम के गले में यह हार पहनाइये । जहाँ = जिसको इन्द्रिय दृष्टि वाला विकारी देख न सके ।

300-301. भावार्थ = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को अन्तर्मुख कर अन्तःकरण में लाइये । जहाँ अमर अलेख = निर्गुण शुद्ध चेतन का आसन तथा नित्यवासा है । यही अर्थात् जहाँ अपने आराध्य के अधिष्ठान का निवास है वहीं अन्तःकरण में प्राण पवन का अवरोध कर समाधिस्थ दशा में मग्न हो इस तरह परम कारुणिक उस समष्टि अधिष्ठान का = परचा साक्षात् अनुभव कर साधक सहज सुख को प्राप्त करे ।

302. भावार्थ = मन, प्राण, बुद्धि वृत्ति की त्रिपुटी की सन्धि में एकाग्रता में ही उस आत्मा रूपी मणि = विशिष्ट रत्न का निवास है । वही पाँचों इन्द्रियों को अन्तर्वृत्ति कर मन प्राण, बुद्धि की स्थिरता कर उसी के चरणों में बाँध दे = लगा दे ।

303. यूँ लागा सहिये = ऐसे लग जाना चाहिए ।

304. पाहण = चकमक पत्थर । वासदेव = अग्नि ।

305. अगाध = अथाह । अंग = जीवात्मा का स्वरूप ।

306. पाला = बर्फ ।

307. पड़दा = आड़, आवरण, द्वैत भ्रमजन्म पड़दा ।

308. रेख = लकीर । कनक = सोना ।

310. भावार्थ = जैसे पके हुए फल का आहार कर लेने पर उसका बीज फिर उत्पन्न नहीं होता, ऐसे ही साधक पुरुष को आत्मपरिचय हो जाना यही फल है, शरीर अध्यास का परित्याग हो जाना यही बेल को छोड़ना है, व्यष्टि को समष्टि में कर देना यही मुख में छिटकना है- ऐसा साधक फिर जन्म-मृत्यु को प्राप्त नहीं होता ।

311. भावार्थ = मानव शरीर है यही कटोरा है, शुद्ध अन्तःकरण रूपी दूध इस कटोरे में भर अनन्य श्रद्ध से उस प्रभु को यह दूध पिलाने में दूर न करें।

312. टगाटग = समाधिस्थ । जीवन मरण = जन्मपर्यन्त । ब्रह्म बराबर होय = साधक तब निर्गुण स्वरूप की प्राप्ति कर सकता है ।

313. निबरा = निकम्मा ।

314. अहंकारहीन होशियार रहता है, आपा नीचे गिराता है । अपने ख्याल के प्याले का प्रकाश अमूल्य गलतान मस्तानः आनन्द देता है । दृष्टान्त = या साखी सुनि औलिया, चलि आयो आमेरि । कथा करत गुरुदेव के, मुह चालत लियो फेरि ।

315. अंत न आवे जब लगैं = द्वैत भावना जब तक अन्त = समाप्त न हो जाय ।

316. बाकी बहु वैराग = नाम स्मरण व स्वस्वरूप चिन्तन का विशेष राग बाकी रह रहा है । थाके नहीं = थके नहीं , सुस्त न हो ।

318. राम रटन छाड़े नहीं = स्वस्वरूप का चिन्तन ध्यान स्मरण छोड़े नहीं । अटके नहीं = रुके नहीं ।

319. हरिरस = आत्मचिन्तनरूपी ध्यानरस । अरुचि = अनिच्छा । पीवत प्यासा नित नवा = पीते हुए जिसे नित्य नयी प्यास रहे । तात्पर्य = ब्रम्ह के चिन्तन (ध्यान) में नित्य उन्नति करने वाला ।

320. अपार = अगणित ।

324. घर = अन्तःकरण ।

325. मैमंत = मस्त हाथी की तरह ।

326. निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास = माया अविद्यादिदोष रहित निर्मल शुद्ध चेतन रूपी जल, जिसकी वर्षा बारह मास अनवरत होती है । राता = अनुरक्त, हुआ । माता = मस्त ।

328. लाज पति = बड़ाई, इज्जश्त ।

329. ऑंगण एक कलाल के = ब्रह्म के समीप ।

330. रस पीते हुए जब तक चेतन (सचेत) रहे, तब तक रस लेता रहे । जब रस में लीन हो जाय, तब उसे आगे जाने की हाजत नहीं रही ।

331. सौंज सकल ले उद्धरे, निर्मल होय शरीर = बाह्य आभ्यन्तर इन्द्रियसमूह अन्तःकरण उनको अन्तर्मुख व समाधिस्थ कर, उनको वासना रहित बना उनका उद्धर कर लेता है तथा शरीर स्थूलसूक्ष्म निर्मल होता है ।

332. पुणग = फुंहार, लघु बूँद ।

333. दरिया = समुद्र । निघट = कम, थोड़ा । दृष्टान्त = गुरु दादू को दरस करि, अकबर कियो सम्वाद । साख सुनाइ कबीर की, ब्रह्म सुअगम अगाध ।

334. अमल = व्यसनी । रस बिन = परिचयरूपी रस बिना । तलफ = तड़फ ।

335. अघाय = तृप्त होकर ।

336. उज्ज्वल भँवरा = शुद्ध हृदय । हरि कमल रस = स्वस्वरूपी केंवल रस । निर्मल वासना = निष्काम भावना से ।

337. नैनहुँ सौं रस पीजिए = विवेक विचार-रूपी नेत्रों से आत्मरस का पान करिए । सुरति सहेत = प्रेम श्रद्धमय वृत्ति द्वारा । इसी से तन-मन का मंगल उद्धरहै ।

339. नानाविधि पिया राम रस = योग, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि विविध साधनों से आत्मरस का पान किया । बहुत विवेक सूँ आतम अविगत एक = अनेक साधनों द्वारा उस अविगत एक आत्मा का निश्चय किया ।

340. पय = अमृत ।

345. व्यापे = असर न करे, प्राप्त न हो ।

347. अविद्यायुक्त जीव बकरीसम है, मृत्यु व्याघ्ररूप है । यह व्याघ्ररूप काल छेल = जीव के पूर्णजन्म के विविध कर्मों से ही बना है, अर्थात् अविद्याबद्ध जीव से ही काल उत्पन्न हुआ है । जब जीव मल विक्षेप आवरण के बंध्नों से मुक्त हो जाय, शुद्धस्वरूप में आ जाय तब उस काल का कोई बस नहीं चलता ।

348. लवरू = ऊँट ।

350. संषा सुनहां शब्द है संशचरूपी श्वान को यह मार देता है, यहाँ विरोधी रूपक है । आत्मपरिचयपरक शब्द है, वे संशयरूप मिथ्याज्ञान का निवारण करते हैं। इसी तरह दूसरा विरोधभास कह रहे हैं -शंका रूपी सर्प को शुद्ध स्थिर मनरूपी मींडक से मार देना चाहिए ।

351. शुद्ध आत्मज्ञान है वह भेड़ है; चतुर्दश लोक हैं वे वर्तन हैं ; राम भक्ति आत्मचिन्तन रूपी दूध उस भेड़ से दुह कर सब लोक का = अशेष शरीर ग्राम का अमृतवत पोषण किया ।

353. सांई दिया दत्ता घणां= आत्मनिश्चय प्राप्त हुआ तब शील, सन्तोष, सत्य, दया, स्नेह आदि अनेक तरह दत्ता धन घणा = मुकता प्राप्त हुआ । दादूजी महाराज कहते हैं , परिचय द्वारा अखूट आत्मधन की प्राप्ति हुई उसी से भाव भक्ति तथा दर्शन का फल मिल रहा है ।

। इति परिचय का अंग सम्पूर्ण ।

अथ जरणा का अंग

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2. हजारों में कोई एक साधु गुरु वाक्य विचार कर राम नाम रूपी धन सं चय करता है, यह धन गहिलों के हाथ नहीं रहता, जैसे गँवार के हाथ में मरकत मणि नहीं रहती । दृष्टान्त : को साधु राखे राम धन- नृप को चाकर खा गयो, टाँग सुसाकी एक । त्रास दई मुनस्यो नहीं , साध लियो सुठ देख । 1 । गहिला दादू क्यूँ रहै- साध वस्त दई जाट को, हुकामें करि प्यारि । जरी नहीं वकणै लग्यो, और न लई उतारि । 1 ।

4. समझ समाइ रहु = समझ में ही विचार में समझे हुए उपदेश को रखे, धरण करे ।

5. सयाने = चतुर, सावधन ।

6. मन ही मां है ऊपजे = अपने आत्मस्वरूप की अनुभूति शुद्ध मन में उत्पन्न होती है ।

7. लै = ध्यानवृत्ति से । जरता जाय = साधन की प्राप्त सफलता को आत्मसात् करता जाय । उसके अहंकार को उत्पन्न न होने दे । कबहूँ पेट न आफरे = उस साधक के जो जरणा करता है कभी अहंकार रूपी आफरे से पेट नहीं आफरता ।

8. जनि खोवे = मत नष्ट करे । हृदय राखि = अन्तःकरण में ही स्थिर कर । जतन = उपाय ।

9. सोई सेवक सब जरे = सेवक वही है जो देखी-सुनी को पचा लेवे अर्थात् गुप्त बात किसी को न सुनावै यथा:- कही सो दूर्योधन कही, करन ने कही नाँहिं। धुंई धुंऑं न संचरै, रहिपिंचर के माँहिं।

10. रस = नामस्मरण, स्वरूपचिन्तन । गूझ गंभीर का = गुह्य अन्तःकरणनिष्ठवृत्ति का । परकाश = व्यक्त, प्रगट ।

11. अलख लखावा = अदृश्य अगोचर आत्मस्वरूप का अनुभव किया ।

12. सो सुख कस कहै = स्वानुभूति का सुख कहे किससे जब कि एक भिन्न दूसरे की सत्ता नहीं है ।

13. जेता घट परकास = अन्तःकरण में जितना सतोगुण उत्पन्न हो सब जरा जाय ।

14. अजर जरे रस ना झरे = जो साधरण जरणा के योग्य नहीं उसको जरै, अर्थात् पचावै, धरण करै और गुप्त रखे, और धरण भी ऐसे करे कि किसी प्रकार से रस निकल न जाय ।

15. अजर = शुक्रधतु व आत्मपरिचय । जरे = जारणा करे, पचावे । जारे = आत्मसात् कर ले ।

16. राखे रस = आत्मसाक्षात्कार व नामस्मरणरूप रस की रक्षा करे उसके साधनक्रम को शिथिल व भंग न होने दे, इसी तरह शुक्र-धतु की साधना द्वारा ऊध्र्वरेत्स रूप में रक्षा करे उसे पुनः अधोरेत्स की सूरत में न बदलने दे ।

18. जरणा जोग = जरणा करने वाला योगी । झरणा = बहा देने वाला कुयोगी ।

19. जग रहै = जग में रहे ।

20. थिर = स्थिर, टिकाऊ । काल तैं छूटे = जन्म मृत्यु काम क्रोधदिकाल से छुटकारा पावै ।

21. जरणा जोगी जगपति = षट् प्रकार की जरणा वाला साधक जगपति = ईश्वर के समान है ।

22. जरे सु नाथ निरंजन बाबा = जो उक्त षड्विध जरणा सम्पन्न साधक है वह नाथ-सबका स्वामी है, वह निरंजनसम है । वह बाबा = व्यापक अधिष्ठान के समान है ।

23. उपावनहारा = रचने वाला । अनूप = अद्भुत, असदृश, निरूपन ।

24. अविचल = माया अविद्यासंग के चांचल्य से रहित । अविगत = विगत विवरण रहित, अवर्णनीय ।

28. पुंज रहंत = सर्वदा रहने वाला प्रकाशसमूह, ज्योतियों की ज्योति ।

29. परम उजास = अति निर्मल, अति स्वच्छ ज्योति । उदीत = उजाला ।

30. पगार, विकास, प्रभास ये तीनों दिव्य ज्योति के लिए प्रयुक्त हैं।

33. पवन का गुण विषयों में अनासक्ति, जल का गुण शीतलता, सो हमने पान कर लिया है । धरती का गुण क्षमा, आकाश का गुण असंगता, चंद्र का गुण सौम्यता, सूर्य का गुण भगवत भक्ति में सूरवीरता, अग्नि का गुण तेजस्वी पनादि, इन गुणों को हमने ग्रासवत् धरण किया है ।

34. चौदह भुवनों और तीनों लोकों के सम्पूर्ण गुण हमने 'ठूंगे श्वासे श्वास' पूर्ण रूप से धरण किये हैं। इस प्रकार दयालजी कहते हैं कि साधुजन गुण, अवगुण, शीतोष्ण, सुख-दु:ख सब जरे (सहारे) और पाँचों इन्द्रियों के गुणों का एक ग्रास करे ।


। इति जरणा का अंग सम्पूर्ण ।

अथ हैरान का अंग

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2. रतन एक बहु पारिखू = रत्नरूपी परमात्मा है, उसके परिक्षा रूपी अनेक मतवादी हैं , सो उन अन्धें की तरह हैं जो हाथी को पहचानने गये थे और हाथी के एक-एक अंग को ही हाथी मान कर नाना रूप का हाथी बखानते थे ।

3. जाण्या जाइ न जाणिये = जानने में साधक द्वारा सामर्थ्यवान है उनसे भी सम्यकतया जाना नहीं जाता । का कहि कथिये ज्ञान = योग भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदि में से किसके द्वारा आत्मोपलब्धि होती है यह निश्चय नहीं कहा जाता अर्थात् ये सभी साधन उसकी प्राप्ति के हैं।

4. पच मुये = कह-कह थके । कीमत = मूल्य । हैरान = स्तम्भित, चकितगति । गूँगे का गुड़ खाय = गूँगा गुड़ खाकर स्वाद नहीं बतला सकता, केवल मिठास की उत्तामता के इशारे करता है ।

5. सब ही ज्ञानी पंडिता = केवल शास्त्रीय विषयों के ज्ञाता पंडित तथा अविद्यालेशांस व आवरणदोषयुक्त ज्ञानी ये सब ।

6. तहं मेरी गम नाहीं= जहाँ इन्द्रिय अन्तःकरणादि की पहुँच नहीं है वहाँ अहंकारादि वृत्ति से युक्त मेरी भी पहुँच नहीं है ।

7. केते पारिख = अपूर्ण पारषी । मांहीं = अन्तःकरण में ही है ।

8. जीव ब्रह्म सेवा करे = जीव आवरण, मल, विक्षेप से आवृत्ता है, उसको अपने इन दोषों की निवृत्ति के लिए प्रयास करना चाहिए, यह प्रयास ही ब्रह्म की सच्ची सेवा है जो साधक को कर्तव्य है ।

9. एकै नूर है = व्यापक समष्टि चेतन शुद्ध है, एक है ।

11. केतक देहुँ दिखाय = कितने कहते हैं कि मैं दिखा सकता हूँ । कीमत = ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप वा आदि-अन्त ।

12. अपार समुद्र में जाकर कोई घड़ा भर जल लावे, तो कवेल घड़ा ही भर जल ला सकता है, न सम्पूर्ण समुद्र का जल । तैसे ही मनुष्य अपनी शक्ति ही भर अपार परमेश्वर को जान सकता है, न उसके सम्पूर्ण महान स्वरूप को ।

13. पार = अन्त । गूझ = गूह्य ।

15. वेद कतेबां मित नहीं = वेद कुरान आदि से जिनका पार नहीं पाया गया । थकित = थक गये ।

16. परिमित = सीमा, वार-पार ।

19. बलिये = जिसकी बलिहारी जाय उस परमेश्वर की ।

20. बातों नाम न नीकले = बातों में परमेश्वर की महिमा कोई नहीं कह सकता, अर्थात् परमेश्वर अकथ है ।

21. ना कहीं परमेश्वर को देखा है ना उसका आदि-अन्त सुना है और ना कोई उसका कहनेवाला है । ना कोई मरकर ऊपर से लौट आया है जो वहाँ का अथवा मेरे पीछे जो होता है उसका वृत्तान्त कहे । ना परमेश्वर का उरला किनारा है ना परला किनारा है ।

23. न तहाँ चुप ना बोलणा = जहाँ आन्तरिक प्रवृत्तियों का अभाव न होते हुए भी मौन धरण नहीं है । न वहाँ साधनाविहीन साक्षात् अनुभव रहित या बहि: साधनों का प्रधन प्रवृत्ति रूप उपदेश का कथन होता है । अथवा मौन व प्रवचन इन्द्रियव्यापार है ब्रह्म निरिन्द्रिय है अतः वहाँ यह व्यापार साध्य नहीं है । आपा पर नहीं = अहंकार तथा तदुत्पन्न मैं तै वृत्ति नहीं है ।

24. एक कहूँ यानी यदि उसका मैं निरूपण करता हूँ तो मैं तथा वह दो प्रतीत होते हैं। चेतन सामान्य की स्थिति से समष्टि व्यष्टि का कथन किया जाय तो दो के कथन में एकत्व का निरूपण होता है । ऐसे कथन में अदोषता नहीं आती । अतः वह जैसा है उसी रूप में अपने को विलय कर देना ।

25. दादू खरे सयान = जो अपने को खरे = पूरे, सयान = सावधन समझे हुए है । वे भी दीवाने हो रहे हैं।

26. हूँ कर = स्वीकार कर, मान । जानराय = जानने जैसा है तो । परमाण = पर्याप्त है । दृष्टान्त = वादी पूछी कौण हो, गुरु दादू को आइ । या साखी उत्तार दियो, समझि गयो सुख पाइ । 1 ।

27. दृष्टान्त = एक वादी संसार की, उत्पत्ति पूछी आइ । जात उत्तार वाको दियो, या साखी समझाइ । 1 ।

। इति हैरान का अंग सम्पूर्ण ।

अथ लै का अंग

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2. लै = अखण्डाकार वृत्ति एक रस रहे । मूवाँ मंझि समाय = शरीर की परिसमाप्ति पर व्यष्टि का समष्टि में विलय हो जाय ।

3. लै गता = लयहीन । गत ह्नै जाय = निष्फल हो जाय । लै रता = लयलीन ।

4. आकार = देह इन्द्रियादिक । आतम = अन्तःकरण । चेतन = व्यष्टिगत चेतन ।

5. तन = शरीर । मन = अन्तःकरण चतुष्टय । पवना = प्राण । पंच = पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ । गह = स्थिर कर । जहँ आत्म तहँ परमात्मा = जहाँ शुद्ध अन्तःकरण में चिदाभास है वही परमात्मा चेतन का स्वरूप है ।

6. अर्थ = परमपुरुषार्थ । अनूपं= उपमा रहित । और अनरथ भाई = और संसार के पदार्थों की प्राप्ति के लिए जो प्रयास किया जा रहा है, वह बन्धन का कारण होने से सब अनर्थ है ।

7. ज्ञान और भक्ति से सर्व इन्द्रियों के मूल मन को स्थिर करे फिर सहज (आतुरता रहित) प्रेम से लय लगावे, दुनिया की सब वासनाओं को त्याग दे, किसी वासना के संग मन में की न जाने दे ।

8. पहली था सो अब भया = जिन वासनाओं के वशीभूत हो पिछले जन्म में जैसे काम किये उनके फलानुसार तो अब जन्म हुआ तथा फल भोग रहा है ।अब सो आगे होइ = अब जिस तरह के कर्म में लगेगा उसके फलानुसार आगे फल भोगेगा । तीनों ठौर = भूत, वर्तमान, भविष्य । बूझे = जाने ।

9. भावार्थ = योग की क्रियाओं से समाधि दशा तक धीरे-धीरे साधन सिद्धि से पहुँचा जाता है । ज्ञान से भी बाह्याभ्यान्तर साधनों के सफल होने में अन्तःकरण-शुद्धि, बुद्धि स्थैर्य तथा स्वरूप निश्चय में समय लगता है । इहै भक्ति का = यही निष्काम प्रेम । प्रेमाभक्ति का रास्ता है वह मुक्ता = खुला हुआ । द्वारा = दरवाजा है जिससे सहज ही आत्मा के महल में पहुँचा जा सकता है ।

10. शून्य = निर्विकल्प । सहज = निर्द्वन्द्व । इन दोनों अवस्थाओं में मन को लगावे । लै समाधि रस पीजिए = लयवृत्ति द्वारा समाधिस्थ हो आत्म-रस का पान करिए ।

11. इस साखी में प्रश्न है । गर्भ में चेतन की स्थिति क्यों , और कैसे होती है इसमें शास्त्रीय विभिन्न मत है । विविध उपाय से भी इस भेद को वे समझ नहीं पाये हैं।

12. इस साखी में ऊपर के प्रश्न का उत्तर है । संसार के मानव अज्ञानावस्था में आते ही इसी अवस्था में जाते हैं। कोई सावधन साधक ही सुरतिवृत्ति द्वारा चेतन के ठीक मार्ग में प्रवृत्ता होता है । यही मार्ग ठीक है । इसमें ध्यानावस्थित हो जिससे रास्ता तय हो ।

13. भावार्थ :-यह आत्मप्राप्ति का मार्ग उसी का दिखाया हुआ है सहज निर्विकल्प अवस्था में वृत्तिका स्थिर रहना यही सार है । यही मन का मार्ग है = मन को स्थिर करने का रास्ता है । उसकी प्राप्ति का घर अपने ही भीतर है, उपर्युक्त रूप से स्थिर वृत्ति द्वारा चिन्तन करने ही से वह सिरजनहार साथी बनता है ।

14. राम कहै जिस ज्ञान सौं = जिस ज्ञान विचार से आत्मप्राप्ति की चाह पैदा हो वही ज्ञान उत्ताम है ।

15. रसायन = नवीन जीवन बनाने वाली औषध । आतम राम = अपने अधिष्ठान में । त्यों = अखण्डाकारवृत्ति ।

16. समाइ = विलीन कर, स्थिर कर । सन्मुख = सामने, उसी में । जुग-जुग = जन्म-जन्म, सतयुगदि । सूरा = इन्द्रिय मन निग्रह करने में सौर्य पौरुष दिखाने वाला ।

17. नैनहुँ = ज्ञान विचार के नेत्र । उलट = आत्माभिमुखकर । कौतिक = व्यष्टि समष्टि संयोग को ।

18. भावार्थ = नेत्र उस अपने स्वरूप को देखने के लिए आत्माभिमुख हो उसी की ओर लग गये । जहाँ भीतर अपना अधिष्ठान चेतन है वहीं इन दो ज्ञान विचार के नेत्रों से उसका साक्षात्कार हो रहा है ।

19. अपूठा = पीछा, उलटा । शोध = तलाशकर, चिन्तनकर । ढिग = समीप, पास । बावरे = बेजान । बाण = आदत ।

20. आण = लावो, लगाओ । गुरुदेव सौं = गुरुदेव के उपदेश से । सयाण = विचारशील ।

21. जहाँ आत्म = जहाँ शुद्ध अन्तःकरण है ।

22. सुरति = अखण्डवृत्ति । गाय = चिन्तन कर, ध्यान कर । भावै = भावनारूपी, श्रद्धरूपी ।

23. सुरति सौं = अखण्डवृत्ति से । गावे = चिन्तन करे । वाण = परावाणी ।

24. सहज सुरति लै पूर = निर्द्वन्द्व धरणावृत्ति में उसी को परिपूर्ण कर ले भर ले । दृष्टान्त = साध रख्यो नृप बाग में , वतकां चुग गई घर । खर चढि के हेलो दियो, इनसों मिल है ख्वार । 1 ।

25. एक सुरति = ब्रह्माकारवृत्ति । यहु अनुभव = यही अनुभूति है, परिचय है ।

26. अंग = व्यापकतारूपी शरीर । सन्मुख रहिबा = तन्निष्ठवृत्तिविचार ।

27. जहाँ-तहाँ लै लीन = जहाँ स्वस्वरूप प्रतिबिम्बित है वहीं लयवृत्ति से लीन होना ।

28. साबित = अखंडित, निर्द्वन्द्व, निर्विकल्प । मोटे भाग = महान् प्रारब्ध ।

30. बरत = नट की आकाशीय रस्सी । अंग तै = चेतन अधिष्ठान से । छूटे = च्युत हो जाय, दूर हो जाय ।

31. गंगा = उठती स्वास । जमुना = बैठती स्वास ।

32. आत्मा है सोई परमात्मा, जैसे जल और उदक दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। तन, मन ब्रम्ह में ऐसे मिल जाता है जैसे जल में लवण । इसी प्रकार से जीव निर्वाण पद को प्राप्त होता है ।

33. मन ही सौं मन सेविये = कल्मष मन को विचार द्वारा शुद्ध कर ।

34. बिसरे = भूले, त्याग कर दे ।

35. प्राण = जीव, आदि में इसका स्थान ब्रह्म था, उसी में लय लगावै, जैसा ब्रह्म रूप था वैसा ही हो जाएगा, माया किसी तरह से उस पर असर न करेगी ।

37. एक मना = अनन्यमन, एकवृत्ति से ।

38. निबहै = निर्वाह हो, हो सके जितना । परसेगा = प्राप्त होगा । थाके = थके नहीं , उपराम न हो ।

39. मृतक = वासनारहित, निर्वासी षट्ऊर्मीरहित । काया के सब गुण = इन्द्रियों की विषय-वासना ।

40. मन के संकल्पादि, अहंकार देहाध्यास आदि सबका परित्याग कर दिया । टूटे नाहिं धगा = वृत्तिका तादात्म्य भंग न हो, चिन्तनरूप तागा टूटे नहीं । जाण = पहिचानी । जागा = अपना असली स्थान ।

41. जब लग सेवक तन धरे = सेवक-साधक जब तक सेव्य-सेवक भाव से रहे तब तक तन धरण करता है । एक मेक ह्नै मिल रहे = निर्गुण उपासना में एकमेक हो जाता है, अतः शरीरानुबन्ध की आवश्यकता नहीं रहती ।

42. ये दोनों ऐसी कहैं = सगुणनिर्गुण उपासक का उपर्युक्त कथन है । उत्तार देते है । -ना मैं एक न दूसरा ¾ मेरे लिए एकत्व और अन्यत्व की धरणा की आवश्यकता नहीं । दादू रहु ल्यौलाय = मेंरे में ध्यान लगाइए ।

। इति लै का अंग सम्पूर्ण ।

== अथ निहकर्मी पतिव्रता का अंग == ।

2. आसरे = आधर । इहि विश्वास = इसी भरोसे । तोर = तेरा । करण = अपने काम ।

3. रहण = ब्रह्मचर्यादि । राजस = रजोगुण, अहंकार । करण = दान, पुण्य तीर्थ, व्रतादि । आपा = अभिमान ।

4. लै लीन = वासनारहित, स्थिर । जंलाल = उलझन । आपामेट = अध्यास दूर कर ।

5. सिद्धि = आठ प्रकार की । करामात = परचै दिखाना । ऋद्धि = वैभव-भण्डार । आगम = पौरुष, गुप्त धन ।

6. अम्हं चा = हमारे ।

7. पात = तुलसीदल, पत्रपुष्प । जात = यात्री तीर्थ जाने वाला ।

8. नाद = अन्तध्र्वनि । भेद = रहस्य । वेद = ज्ञान ।

9. युक्ति = साधन प्रक्रिया । योग = विरोध । भोग = उपास्य वस्तु ।

10. जीवनि = जीवनशक्ति ।

11. शील = अष्टविधब्रह्मचर्यरक्षा । सन्तोष = तुष्टि । मोक्ष = मृत्यु, जीवननिवृत्ति ।

12. शिव = कल्याण, श्रेम । शक्ति = प्रत्युत्पन्नमति, बुद्धिबल । आगम = स्मृति वेदादि, आत्मोपदेश । उक्ति = सत्य कथन ।

14. जोडबा = मन को स्वस्वरूप में लगाना । राखि = मनुष्यजन्म की टेक रखना ।

15. केशवा = कलेशनाशक । सगा = साथी । सिरजनहार = सबको व्यक्त करने वाला ।

16. सिरजे = पैदा किये, व्यक्त किये ।

17. सन्मुख = आत्माभिमुख ।

18. भेटैं भेंटा होइ = आत्मस्वरूप परिचय प्राप्ति से ही उससे मिलना होता है ।

19. अति मंगल = अति शुभ । भेंटे = प्राप्त हो ।

20. रीझे = आसक्त हो, मोहित हो । अनत = दूसरी जगह । मीठा भावे = अति मधुर भावना से । सोई जन = वही सच्चा मनुष्य है ।

21. दृष्टान्त : बीवी बिसरे राविया, महमद कही जनाइ । राषि रिदै दोस्त हमें , दूजा नाहिं समाइ । 1 ।

23. एक सेज = ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेयकी त्रिपुटी वृत्ति में । गहिला = इन्द्रियभोगों में पागल । आपा = मनुष्यजन्म । दृष्टान्त : - चोखो एक चमार, पंडरपुर वीठल हरी । दोनों जीमत लार, मूढ न जानत तास गति । 1 ।

24. एक = स्वजातीय विजातीय भेद रहित ।

25. निश्चल = ब्रह्म का उपासक । निश्चल = स्थिर । चंचल ¾ मायिक पदार्थों के उपासक ।

26. साहिब राखिए = अभेद चेतन की उपासना है वही रखे, उसमें लगे ।

27. मन, बुद्धि, वृत्ति पलभर की आत्मचिन्तन से हटे नहींं निष्कामभाव से ही चिन्तन में लगा रहे ।

28. नीति = धर्माचरण, इन्द्रियनिग्रह । सदा राम का राज = हृदय में अन्तःकरण में सर्वदा आत्मा का ही ध्यानरूपी राज रहना चाहिए । सीझे काज = तभी अपना कार्य सिद्ध होगा ।

29. खूब = चमत्कार, अच्छाई । सँभार = ध्यान में ला । सुन्दरि = सन्त-बुद्धि । नखशिख = तनमन शुद्ध कर । साज सँवार = हृदय की शुद्धि वृत्ति के चांचल्य का निवारण यह साज सज ।

30. पंच अभूषण = पाँचों इन्द्रियों की विषयनिवृत्ति । सोलह = षोडश कलामय मन की शुद्धि । सब ही ठाम = सब समय ।

31. व्रत = प्रण । सुन्दरि = साधक की शुद्ध बुद्धि । सुहागिनि = स्वरूप परिचय रूप सुहागयुक्त । भावै = अच्छा लगे ।

32. कोई करे = कोई विरले साधक ही । घट-घट = हर मनुष्य ।

33-34. इन दो साखियों में साधक के आत्मसमर्पण का वर्णन है । परिचय प्राप्ति के इच्छुक साधक को अपना सब व्यवहार ईश्वरानुबन्ध पर ही छोड़ देना चाहिए । यही इन दो साखियों का भाव है ।

35. पतिव्रता = पतिपरायणा । गृह = घर । आज्ञाकारी टेव = आज्ञा में रहने का प्रण ।

36. सेवा सार = सेवा में निपुण । सुहागिन = पतिवाली । दृष्टान्त : सदना अरु रैदास को, कुल कारण नहिं कोइ । प्रभु आये सब छोड़िके, विप्र वैष्णव रोइ । 1 ।

37. ता सनि = उसके साथ ।

40. सन्मुख = सामने, आराधना में । नख-शिख = शरीर मन वाणी । जनि यहु बंटया जाय = यह मानव जीवन अनात्म पदार्थ धन, मकान, जमीन, जगह शरीर, खान-पान आदि में ही बँट कर समाप्त न हो जाय ।

41. सारा दिल = पूरा मन, विषयभोग में बँटा हुआ न हो । बँटे = विभक्त करै, खण्ड-खण्ड करे । अयान = बेसमझी ।

42. सारों सौं दिल तोर कर = संसार के विविध भोग वासना कुटुम्ब का मोह, शरीर का अध्यास, अनित्य पदार्थों को सत्य समझना इन सबसे मन को हटाइए । जोरे = लगावे ।

43. राखणा = रखने के लिए, धरोहररूप में । चोरे = चुरावे । सब धन साह का = मानवशरीररूपी, साह = साहूकार का मानवजीवन रूपी सब धन । भूला मत थोरे = हे मन! थोड़े से में विषय बासना में ही गँवा दिया । दृष्टान्त - गोद लियो सुत सेठ, सर्वस सौंप्यौ तासकौ । करी मूढ़मति नेठ, थैली ले न्यारी धरी । 1 ।

44. प्रत्यक्ष = साक्षात् ।

45. भाव = परम श्रद्ध । राव = राजा ।

47. आतुर कारण राम = स्वस्वरूपप्राप्ति के लिए सब में व्यापक रमने वाले राम के लिए ही सर्वदा आतुर रहे । परगट = सामने आकर ।

48. नारी-पुरुषा देखिकर, पुरुषा नारी होय = स्त्री का अपने पति से भिन्न और किसी पुरुष में पुरुषभाव न रहे, ऐसे ही पुरुष का अपनी स्त्री से भिन्न अन्य स्त्री में स्त्री भाव न रहें एक पतिव्रत एक पत्नीव्रत इसी का नाम शील है इसी तरह साधक एक आत्मा या व्यापक चेतन से भिन्न अन्य किसी वस्तु में अपनी वृत्ति को न जाने दे ।

49. रत = आसक्त, लगी हुई । बांझण = बाँझ स्त्री । विगोवे = डुबोवे । निष्फल = बेकाम ।

50. ऐसी सेवा सब करैं = मन को विभिन्न वासना में लगाये हुए मन्दिर जाना, कथा सुनना आदि सेवा सभी करते हैं पर वैसी सेवा फलहीन है ।

51. तब लगैं = तभी तक । परसे आने को = ईश्वरविमुख अन्य भोग पदार्थों तथा वासनाओं में लगे ।

52. वश होइ = अधीन हो । कामणगारी सोइ = छलिया, धोखा देने वाली । दृष्टान्त : हुरम जू गई फकीर पै, मो को जंतर देहु । होत पातशाह मोर बस, साखी लिख दई लेहु । 1 । टामण टूमण हे सखी, भूल करो मत कोइ । पीव कहे व्यूँ कीजिए, आपै ही बस होइ । 2 ।

53. भावता = चाहा, अच्छा लगा । आज्ञाकार = उपदेश, निर्देश ।

55. पतिव्रता = पतिव्रतावत् साधक । मेला = एकता ।

56. एक = एक ही आत्मपरिचय लक्ष्य है । आन = अन्य, दूसरा । पर घर = पराया व घर का ।

57. पुरुष हमारा एक है = हमारा ध्येय या लक्ष्य सब साधकों का एक ही है । हम नारी बहु अंग = विविध साधक योग, भक्ति ज्ञान, वैराग्य आदि वाले ये सब भिन्न-भिन्न नारी रूप हैं।

58. रहता = अविनाशी । बहता = बदलने वाला, निवासी ।

59. जनि = मत । बाझे = धन्धे । काहू कर्म = काम्य कर्म । आरम्भ = शुरूआत,

60. बावें देखि न दाहिणे = भोग तथा सम्पत्ति की ओर प्रवृत मत हो । शरीर और अन्तःकरण सन्मुख = आत्माभिमुख ही रख । साखि = उपदेश । तत्व = असलियत । गह = पकड़, धरण कर ।

61-62. इन दो साखियों में चकोर, मृग, पपीहा, मछली, हिरण, कछुए की विशेष वृत्ति का उदाहरण दे साधक की तद्वत साधना करने का निर्देश है । उपर्युक्त पक्षी और पशुओं की विशेष वृत्ति का अनुसरण कर साधक अपनी उपासना में अनन्यता लाये ।

63. दूजे = दूसरे । अन्तर = फर्क, भेद । आणे = लावे । दृष्टान्त : सन्त जुड़े परब्रह्मसूँ, नृप आयो दीदार । पूछी बुप्रभु क्यूँ एकले, अब लहि हैं घर पार । 1 ।

64. भर्म = भ्रम-तिमर = अन्धकार । भाजे = दूर न जाय । दीपक ¾ ज्ञान का दीपक । साज ले = सँजो ले, प्रदीप्त कर ।

65. वेदन = पीड़ा ।

67. मूल = सबका कारण । गहै = धरण करे । निश्चल = स्थिर वृत्ति । डाल पान भरमत फिरे = सकाम कर्मरूपी विविध डालपात में भ्रान्त हो रहा है । वेदों दिया बहाय = यज्ञादि कर्मविशेष का निर्देश कर वेदों ने मानव के मन को बहा दिया, अचल विचल कर दिया ।

68. सुनहां नाम कुत्तो का है, कुत्तो को जितना चाहे मारो, बाहर निकालो तो भी वह मालिक का घर नहीं छोड़ता है । तैसे दयालजी कहते हैं कि परमेश्वर के भजन में चाहे जितनी विध पड़े तो भी साधक को भक्ति नहीं छोड़नी चाहिए ।

69. दर = दरवाजा ।

70. निष्फल = परिणाम रहित ।

71. विस्तार = डाल, पात आदि सब । बाद = व्यर्थ । बेगार = श्रम ।

74. तृप्ता = तृप्त, तुष्ट । अन्य दिश = दूसरी जगह ।

75. डाल, पान, फल-फूल सब = जप, तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि सब ।

76. टीका = तिलक, ज्ञान, ध्यानादि सब राम नाम के जप के अन्तर्गत है ।

77. पल्लव = पान, पत्तो ।

78. आराध = उपासना । अपराध = कसूर, गलती ।

79. चतुराई देखिए = जालसाजी समझिए । कीजे आन = दूसरा करना-विषय वासना में उलझना । पिछान = पहचान । आपा = अहंकार, सर्वस्व ।

81. बाँछे = चाहे । अमरापुरि = स्वर्गादि । परमगति = बैकुंठलोक ।

82. हेत सौं = अति प्रेम से । प्रकटहु = पैदा करो । केता = कितना, अपार ।

83. प्रेम पियाला = अनन्य अनासक्त प्रेमरूपी प्याला ।

84. का = क्या ।

85. कामना के निवृत्ता हुए पीछे सर्गुण (जीव) निर्गुणब्रह्मरूप हो जाता है ।

86. घट (जीव) अजर-अमर होकर रहता है उसको बन्धन कोई नहीं रहता, मुक्त हो जाता है और चौरासी योनियों का जो संशय है सो मिट जाता है ।

87. जब तक अलख अभेव (परमात्मा) प्राप्त न हो ।

88. इस साखी में चतुख्रवध भक्ति का निरूपण है । अपने अहंके अस्तित्व सहित उपासना है उससे सालोक मुक्ति मिलती है । महत्तव की उपासना से सामीप्य, अध्याकृत अभेदवृत्ति से उपासना से सारूप्य मुक्ति तथा विराट् की उपासना से सायुज्य मुक्ति प्राप्त होती है ।

89. रसिक = प्रेमी ।

90. तातैं = उससे । भला = अच्छा । ऊषर = खारी । बाहिकार = जोतकर ।

91. सुत वित = पुत्र धन । निधि = सम्पत्ति, खजाना ।

95. संभालतां = याद रखते हुए, ध्यान करते हुए । बसंदरा = अग्नि ।

96. कर्मै कर्म काटे नहीं = सकाम कर्म से कर्म बन्धन नहीं छूटता । कर्मै कर्म बँधय = वासनामय कर्म से बन्धन ही बढ़ता है ।

। इति निहकर्मी पतिव्रता का अंग सम्पूर्ण ।

अथ चेतावनी का अंग

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2. लाजे = अपमानित हो । दृष्टान्त : इक वंदे किये तीन सों , गृन्थ रामगुण गाथ । परा शब्द ऐसे भयो, इनसे मोहि न पात ।

3. परहर = छोड़, त्याग ।

4. कीजी रे = करना । पीजी रे = पीना ।

5. बाट = रास्ता । बूझी रे = पूछना । झूझी रे = झूझना, संघर्ष करना, वैराग्य अभ्यास से मनोनिग्रह करना ।

6. अचेत = असावधन । नींद भर = अज्ञानजन्य घोर निद्रा में । जगाय = जागृत कर, सचेष्ट कर ।

7. अनहद = सहज शब्द ।

8. चेतकर = सावधन हो । सार = सार्थक, फलदायी । निखर कमाइ न छूटणा = निषिद्ध कमाई-सकाम उपासना से बन्धनमुक्त नहीं हो सकेगा ।

9. चाकर = निष्काम सेवा । हरि नाम = आत्मचिंतन ।

10. आपा पर = रागद्वेष । अवसर = मानव-जीवन । जाग = साधन में लग ।

11. बहुर = पुनः फिर । अमोलक = अमूल्य ।

12. एकाएक = केवल निर्गुण । अनत = अन्यत्र, दूसरी जगह । और काल का अंग = सकाम उपासना जन्म-मरण का निमित्ता है ।

13. तन-मन के गुण = विषय-वासना काम, क्रोधदि । नियारा = निस्संग, निष्काम ।

14. झांत = देहरूपी झरोखा मिला है उसी में अपनी आत्मा को देख । होण = अब । पाणे बिच्च में = अपने बीच में , भहर न लाहे = उसकी कृपा न छोड़े ।

15. मनुष्य की देह मिली है अतः परमश्ेवर के दर्शन कर देर मत लगा । सब साथी चले गये हैं तू पीछे रहा क्या देख रहा है?

। इति चेतावनी का अंग सम्पूर्ण ।

अथ मन का अंग

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। 10 ।

2. बरज = रोक । घेरि = सीमित कर । माता = उन्मत्ता । राख = राखिए ।

3. बहुत महावत = दायरे में बँधे हुए अनेक साधक ।

5. थोरे-थोरे हट किये = धीरे-धीरे अभ्यास से रोकिए । उनमनि = चेतन की सहज अवस्था, ब्रह्मभाव ।

6. आडा दे दे राम को = वृत्ति को आत्मचिंतन की ओर पुनः-पुनः लगाकर । साखी दे = गुरु-उपदेश । सुस्थिर = बिलकुल अचल ।

7. निमष = पल । पग भरे = विषयवासना की ओर चले । दृष्टान्त : इक कन्यां यह नेम कियो, मोहि परणैव्है सूर । सिंह हतै गजअरि हतै, तिय तज भाज्यो दूर ।

8. मनोरथ = वासनाजन्य संकल्प । वैसे = स्थिर हो ।

9. जब मन बोलने को, सुनने को, देखने को या अन्य इन्द्रियों के विषयों की ओर प्रवृत्ता हो, तो मन को अपने अन्दर आत्मा ही में उरझाओ ।

10. मन गुण = मन के संकल्प वासना अध्यास । इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रियों के विषय ।

11. मन का आसण = मन का संकल्प व वासना । ठौर-ठौर ¾ जड़-चेतन में , समष्टि व्यष्टि में । सूझे = दीखे । आणि = पलट, फेर । एक घर = एक ही निज चेतन में । दृष्टान्त : जसवन्त नूप प्रश्न कियो, आसण आछो कौण । दास नारायण जी कह्यो, गुरु दादू कह्यो सो जाण ।

12. एक रस = आत्मानुभूति रस । निर्वैर = राग-द्वेष रहित । कत झूझे = कहाँ जाय । अंग = साथ ।

13. परस = साक्षात् ।

14. अवलम्बन = आधर । लाय = लगा ।

16. बेध्या = बोधित किया, वासना संकल्प से रहित किया । बीख = एक सी तेज चाल, वासनामय दौड़ में ।

17. उरझा = संलग्न हुआ, लग गया । थाके = थकित हुए ।

18. बोहित = जहाज । उड़-उड़ थाका देख तब = कौआ जब जहाज से उड़ उड़ कर समुद्र में थक जाता है तब निराश हो उसी जहाज पर स्थिर बैठ जाता- है । ऐसे ही चंचल मन को संसार की अनित्य वासना से मोड़-मोड़ निश्चल करना चाहिए ।

20. खीला गार का = मट्टी का कीला स्थायी (दृढ़) नहीं होता । जो सच्चे परमात्मा के चरणों की शरण नहीं लेता भरमता ही रहता है ।

23. फूटे तैं सारा भया = विविध वासनाओं की आसक्ति से भग्न मन आत्माभिमुख होने पर साबित हो गया । संधे- संधि मिलाय = व्यष्टि को समष्टि में , कार्यरूप स्थूल मन को कारणरूप चेतन में मिलाइये । बाहुड़ विषय न भूँचिये = मन को वापिस विषयवासना में न आने दे ।

24. सो गल = विषयवासना की आसक्तिरूप गली । अविगत नाथ = परिपूर्ण ब्रह्म । बाट = राह, मार्ग ।

25. साबित = एकरस, आत्मनिष्ठ । निश्चल होवे हाथ = विषयरहित हो आत्मनिष्ठ रहे ।

26. अनत = बाह्य साधन, सकाम कर्म ।

27. सो कुछ = मानवजीन की सफलता ।

29. जीजिये = जीवत रहे, मृत्युभय से मुक्त हो । धिक् = निन्ध, फालतू ।

30. भरतार = भरण-पोषण करने वाला ।

31. सिरजिया = पैदा किया ।

32. साज = शृंगार । बंदग = सेवा । सरया = सिद्ध हुआ ।

33. बाद हि = फालतू, निरर्थक । जहँ दादू निज सार = जहाँ अपना सारभूत चेतन स्थित है ।

34. विष पीवे = विषय वासना का जहर । बाढे = अधिक हो ।

35. विलसतां = भोगते हुए । सब कुछ = लीन-अलीन, उचित-अनुचित, विहित निषिद्ध । भावता = चाहता ।

36. मन का भावता, मेरी कहै बलाय = मन जैसी इच्छा करे उस तरह मैं मन को छूट नहीं दे सकता ।

37. जे कुछ कीजे आन = आत्मचिंतन को त्याग और जो कुछ किया जाता है वह सब मन की इच्छा के अनुकूल है ।

38. सो तत कह समझाय = वही तत्व वास्तविक सत्य समझाइए ।

39. भावार्थ = पैंडे = सही रास्ते आत्मचिन्तन में लगता नहीं , विषय-विकारों में दौड़ रहा है । आत्मनिष्ठ हो नामचिन्तनरूप रथ में जुड़ता नहीं , विषय भोगरूपी दांणारातब खाने में होशियार है ।

40. परमोधे = उपदेश दे । आन = और । बहिया जात = फिसल रहा है ।

41. पंचों का मुख मूल है = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का मूल मुख है ।

42. दोय गुण = मोह तथा आसक्ति । निपना = शुद्ध, बीजानुकूल ।

43. काचा-पाका = मोह आसक्ति । अंतर = भेदभाव, द्वैतवृत्ति ।

44. सहज = स्वाभाविक । द्वै-द्वै = राग-द्वेष, काम, क्रोध्, लोभ-मोह आदि । ताता शीला = रज सत्तवगुणादि से युक्त । सम भया = गुण रहित हुआ ।

47. सब झांई पड़े = प्रतिबिम्बित हो, प्रतीत हो ।

48. पाका मन = समाधि द्वारा स्थिरता प्राप्त । काचा मन = चंचल मन । चहुँ दिशि = अन्तःकरण चतुष्टय में ।

49. सींप सुध रस ले रहै = जैसे खारे समुद्र में रहकर भी सीप स्वाति बूँद को ग्रहण कर अपने अन्दर समाहित कर लेती है । दादू बंद शरीर = दादूजी कहते हैं हे साधक, सीपी की तरह मन को आत्मा के अधिष्ठान में विलय करने का अभ्यास कर ।

50. पंगुल भया = राग और वासना के पैर रहित । नवजौवन = युवा ।

52. अन्ध किया = ज्ञानविचार के नेत्र ढक भोग के व्यामोह में अन्ध बनाया । देख दिवाना जाय = पागल हुआ दान, व्रत, तीर्थादि में भाग रहा है ।

53. रंक = दरिद्री, कंगाल । जाचे = याचना करे, माँगता फिरे । दारिद दोष = वासना की अपूर्तिजन्य दरिद्रता के दोष ।

54. जीव-जन्तु सब जाचे = खर, कुत्तो, भैरूँ, महामाया, पीपल, तुलसी आदि सबसे माँगनी करता है । तिणे-तिणे के = छोटे से छोटे, नीच जन ।

55. सुस्थिर आतमा = स्थितप्रज्ञ । आसन = हृदय में , स्व-स्वरूप में ।

56. मन मनसा = संकल्प और वासना ।

57. नकट = मलिन वासना से प्रेरित । नकटा = वासनामय मन नाच रहा है ।

59. यह तीनों (इंद्रिय, मन और मनसा) जीते जी (इस लोक में ) सब जगत् की और मरे पीछे (परलोक में ) देवतों को लूटते (ठगते) हैं। दादूजी कहते हैं कि किसको पुकार कर कहें , सब जी जन उन तीनों की सेवा कर-करके मरते जाते हैं।

60. बिछुड़ा = दूर हुआ । बीखर जाय = विविध वासना में फैल जाय ।

61. घर छाड़े = चेतनप्रतिब्रिम्बित हृदयरूपी घर ।

62. तन-मन पसरे जाय = तन क्रिया द्वारा, मन वृत्ति द्वारा पसरे = फैले ।

63. डोरी सहज क = समाधि द्वारा, स्थित प्रज्ञरूपी डोरी से । आणे = लावे ।

64. साधु शब्द = हरि गुरु सन्त वचन । विलामय = भुलाय । बीखर जाय = अनात्याकार हो जाय ।

66. तन में = हृदय प्रदेश में । बाहर = विषयाभिमुख ।

67. चहुँ दिशि = अन्तःकरण चतुष्टय ।

69. बहु बकवाद = अति कथन, नानाविध वासना ।

70. फेर मन = मन को पलट, अन्तर्मुख कर ।

71. जण-जण हाथ न देऊ = नाना प्रकार की विषयवासना में मत उलझने दो ।

72. मन रूपी मृग को सदा मारे (जीते, रोके) तिस के रोकने में आनन्द होता है । जब इस मिठाई के खाने में पुरुष हिल जाय, तब अन्य भोगों से वह उदास हो जाता है ।

73. परिहर = छोड़ दूर कर । काम = बाह्य विषय संकल्प ।

74. निलज्ज = बेशर्म । अकज्ज = अनीति के काम ।

75. मन ही मंजन कीजिए, दादू दरपण देह = मन को ही विषयवासना से रहित कर शुद्ध करिये जिससे शुद्ध अन्तःकरण दर्पणावत् हो जाय । इहिं अवसर = इसी मनुष्य जन्म में ।

76. कारा = सदोष, मैला । सिखवत = सिखाते हुए भी ।

77. पाणी धोवें = तीर्थादि के जल से धोवे ।

78. ध्यान धरे = चिंतवन किये । बग = बगुला । उद्धरै = उद्धर को प्राप्त हो । सीझे कोय = कार्यसिद्ध हो ।

80. काले तैं = मैले से । धेला = विशुद्ध, निर्मल । दिल दरिया में धोय = दिल को आत्मचिंतन रूपी दरिया में धो ।

81. दर्पण ऊजला = मन शुद्ध हो । मैली आरस = मन रूपी आरसी विषयवासना से मैली है ।

82. रँग राता = प्रेम में मस्त । कंचन = शुद्ध स्वर्णवत् निर्मल ।

84. लोह देह का एक-दूसरे से स्पर्श करने से संकोच करते हैं पर मन जगत् में सर्वत्र स्पर्श करता है, उसका विचार कोई नहीं करता ।

85. यतन = उपाय, छुआछूत आदि ।

86. हाडों मुख भरया = मुँह दाँतों से भरा है । जीभ मांस की है उसी से सब कुछ खाया जाता है ।

87. नौओं द्वारे = कान, ऑंख, नाक, मुँहमल-मूत्र्रोन्द्रिय । बहै बलाय = मैला झरता रहता है । शुचि = पवित्र ।

88. भावार्थ-मनुष्य का मन विषय से चंचल हो कहाँ का कहाँ जाता रहता है । इन्द्रियों की प्रवृत्ति विकारों में है ही मानसिक दशा में जब मन शूद्र, चाण्डाल आदि के स्त्री सहवासादि में चला जाता है तब केवल स्थूल शरीर के आचार से छुआछूत से क्या सिद्धि है?

89. दादू जीवे पलक में = विषय की अनुकूलता मिलते ही मन पल भर में उसकी ओर खिंच जाता है । मरतां कल्प बिहाय = मन को वश में करने में कल्प के कल्प बीत जाते हैं। पतियाय = भरोसा करें।

90. मूवा = मरा । मरघट = श्मशान ।

91. यहु मन मारे मोहि = साधना में या साधना के परिपाक के पश्चात् भी यदि मन को विषय से दूर रखने की सावधनी न रक्खे तो मन साधक को मार लेता है, पुनः वियषासक्त कर देता है ।

92. रिंद है = जिंद है, राक्षस है । जनि रु पतीजे कोइ = यह निग्रह में आ गया है इस तरह का भरोसा न करे अपितु मनोनिग्रह के पश्चात् भी मन की स्थिति के बारे में सजग रहे ।

93. मांही सूक्ष्म ह्नै रहे = मन की वासना बाहर से निवृत्त हो जाने पर भी अन्तःकरण में अति सूक्ष्म रूप में छिपी रहती है । पवन लाग पौढा भया = जैसे शिथिल सर्प मृतवत् घायल किया हुआ सर्प । पवन = परवाई हवा लगते ही पौढा = युवा की तरह सबल हो जाता है, इसी तरह निगृहीत मन भी विषय अनुकूलता से तुरन्त विषयासक्त होने की ओर दौड़ पड़ता है ।

94. स्वप्ना तब लग देखिए = स्वप्न जैसे मिथ्या है उसी तरह विषयभोग भी मिथ्या है क्योंकि उनसे कभी तृप्ति नहीं होती । यदि विषयभोग वस्तुतः सच्चे हों तो उनकी प्राप्ति के पश्चात् उपरति हो जानी चाहिए पर होती नहीं अतः जब तक मन विषय भोग में लगा हुआ है तब तक उन मिथ्या भोगों में लगा रहता है ।

95 से 103 तक मन की वासनारूप दशा का वर्णन है । मन में जैसी वासनायें घर किये रहती हैं वैसे ही स्वप्न आते हैं वैसी ही क्रिया तथा कर्म बनते हैं।

96. जाही सेती प्रीत = मन वासनाभिमुख है तो भोगविषयों में प्रीति करेगा, मन अन्तर्मुख है तो आत्मचिन्तन में लगेगा ।

98. सुरति = वृत्ति ।

99. जहँ पहली रह्या समाय = जीवनकाल में मन की वासना जैसे काम में प्रबल थी, मरने पर प्राण का निवास प्रायः वैसे ही काम की प्रवृत्ति वाले शरीर में होता है ।

101. आदि अन्त अस्थान = आदि से अन्त तक मन की वृत्ति जिस ओर प्रबल रहती है, वही मनोवृत्ति का आधर स्थान है ।

103. जहँ जाणे तहँ जाय = जिसमें आसक्ति है, अनुराग है, मनोवृत्ति उसी ओर जाती है ।

104. जब दादू बाणक बण्या = जब कार्यसिद्धि का संयोग बैठने को होता है, तब आशय आसण होइ = तब मन का आसन = बैठना उचित स्थान पर आत्माभिमुख होता है ।

106. गाफिल = असावधन । दादू फिसले पाँव = अपने लक्ष्य से च्युत हो गया ।

107. पंगुल = पांगला विरक्त । अकाश = ब्रह्मभूमि, आत्मनिष्ठा से । धरती आया = नीचे आया, विषय भूमि में ।

108. फिर आवें कलि माँहिं = वापिस काम्य कर्मों की कलन में आ रूपता है ।

110. र् वत्तान = देहरूपी भांड । एकै भाँति = एकसा, पंचभूतात्मक । भिन्नभाव = भेद-भाव ।

111. मोमिनाँ = त्यागी, फकीर । मीर = समृद्धिशाली । साधकों = अच्छे-अच्छे साधक । पीर = पहुँचे हुए ।

112. मुनिवर = बड़े-बड़े मुनि, विश्वामित्रदि । सुर नर = इन्द्रादि ।

113. सिध = गोरखनाथ । योग = मच्छेन्द्रनाथ । यत = सोमकार्तिक । बाहे = चलाये, डिगाये ।

114. पूजा = सेवा । मान = प्रतिष्ठा । बड़ाइयाँ = प्रशंसा । आदर = सत्कार । परिहरे = त्यागे, छोड़े ।

115. हलाहल = काम-क्रोधदि विषयरूपी जहर ।

116. करण = व्यावहारिक काम । किरका = कण, रंच, लेश । कथण = कहनी ।

118. निर्भय घर नहीं = भयरहित आत्माभिमुख स्थिति में नहीं है । भय में = विषय भोग में । बीछुडया = अलग हुआ । कायर = डरपोक ।

119. सब गुण तजे = विषयवासना, अहंकार, देहाध्यास । टूटे नहिं धगा = वृत्तिका प्रवाहरूप धगा आत्मा की ओर से कभी टूटे नहीं ।

120. इन्द्रिय सहित मन एकरस = आत्मचिंतन में लगता है तभी अपने लक्ष्य क = पीव की प्राप्ति होती है ।

123-26. मन की दो दशाओं की स्थिति दिखाई है । मलिन मन है उसी में विषयवासना पनपती है, उसी में भ्रान्ति को आश्रय मिलता है, उसी में जन्म मृत्यु भय बंध्न के कारण बनते रहते हैं , मन की पवित्रता से ही मन की मलिनता निवृत्ता होती है, अध्यास रहित मन की दशा ही माया रहित स्थिति है । मन की स्थिरता से ही जन्म-मृत्युकारक कर्ममय बन्ध्नों से मुक्ति मिलती है । मन की साधना ही मन को स्थिर बनाती है, इस तरह मन को शुद्ध आत्मनिष्ठ स्थिर कर लिया जाय तो मन का जो चांचल्य है वह मन ही में विलीन हो जाता है । यही आत्मस्थिति की दशा है, इस अवस्था में पहुँच जाने पर ही मन की दौड़ भाग समाप्त होती है ।

। इति मन का अंग सम्पूर्ण ।

अथ सूक्ष्म जन्म का अंग

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2. घट माँहिं = घट में । अनेक जन्म दिन के करे = विविध प्रकार की वासना में मन का आना यही विविध जन्म है ।

3. गुण = प्रवृत्ति । व्यापैं = उत्पन्न हो । आवागमन = वृत्ति का व्यवहार ।

4. सब गुण = सब तरह के स्वभाव । घट मांहीं जामे मरे = अन्तःकरण में ही वासना की उत्पत्ति-जन्म, निवृत्ति-मृत्यु होती रहती है । कोई न जाणे = वासना में उलझा हुआ मनुष्य ।

5. भोगवे = भोगे ।

6. रूप = आकृति, जन्म ।

7. निशवासर = रातदिन, अनवरत । सूक्ष्म जीव = संकल्पमय मन की भावना है वही जीवरूप है उसका बार-बार बदलते जाना यह उसका संसार है ।

8. भावार्थ-मन में कभी पावक = क्रोध की वृत्ति । कभी पाण = काम की वृत्ति । कभी धरत = जड़ता की वृत्ति । कभी अंबर = शून्यतावत् विचारहीनता की स्थिति । कभी वाय = वायु की तरह बोलने का बवंडर । कभी कुंजर = काममय वृत्ति, कभी कीडी की तरह छिद्रान्वेषण की भावना ऐसे वासना के बदलाव से विविध, पशुतुल्य आचरण करने की वृत्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं , इसी से मनुष्य पशुवत् हो जाता है ।

। इति सूक्ष्म जन्म का अंग सम्पूर्ण ।

अथ माया का अंग

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2. साहिब है पर हम नहीं = अस्ति भाति निजरूप ब्रह्म है, प्रकृति व उसका कार्य अनित्य है ।

3. पंच दिन = थोड़े से जीवन में । गर्व्यो = अभिमान किया ।

5. अन्तकाल आया-गया = देह के विनाश के साथ ही सब धन आया-गया हो जाता है ।

6. जे नांहीं सो देखिए = जिसकी स्थिति नहीं जो वस्तुतः नहीं है, उसको सच समझ रहे हैं।

7. मृग जल = मृगमरीचिका बालू में पानी की तरह की चमक । चिलका = प्रतिबिम्ब ।

8. जग प्यासा मरे, पशु प्राणीपीया = पशुरूपी प्राणी मरुजलरूपी विषय भोग पीते हैं , तो भी प्यासे ही रहते हैं।

9. छलावा = भूत की कल्पना । स्वप्ना = स्वप्न । बाज = बाजीगरीं इनके भुलावे में ना आना ।

10. ऐसा आप जाणिये = आप-जिन वस्तुओं में अभिमान किया है उन्हें स्वप्नवत् किया है उन्हें स्वप्नवत् मिथ्या जानिए ।

12. दृढ़ गह = मजबूती से ग्रहण कर । आतम मूल = अपने प्राप्त करने का कारण । सेमल फूल = सेमल के फूल में केवल कपास होती है कोई खाने के योग्य वस्तु नहीं होती ।

13. नैनहुँ भर नहिं देखिए = रागमय प्रवृत्ति से स्त्री व सम्पत्ति को न देखे ।

14. हय, वर = घोड़े । फूल्यौ अंग न माइ = फूल कर अंग में नहीं समाता । भेरि दमामा = शहनाई, नगारे बजाना ।

15. बिहड़े = बदले, परिवर्तन हो । अजरावर = जन्म-मृत्यु रहित है ।

17. चौदह भुवन और तीनों लोक सब पाँच भूतों के कार्य हैं , माया में रती मन की मनसा को इनसे उदास करो ।

18. विगास = अति प्रसन्नता । अंत न पूगे आस = इस दशा से अंतिम इच्छा- = सुख शांति उसकी आशा पूरी नहीं होती ।

19. माया के निशान पर मनरूपी बाण को कमान पर (मूठि न मांडिये) संधन न करिये, अर्थात् मन को माया में न लगाइए ।

21. माखण = दया करुणा प्रेम से कोमल मन । पाहण = कठोर, दुराग्रही ।

22. बीगड्या = खराब हुआ ।

23. खूब सौं= सबसे श्रेष्ठ, सबका कारणरूप ईश्वर ।

24. रत = आसक्त ।

25. ते बहुर न आये = वे पलटकर सत्संग में ना आ सके । केते = अनन्त, बेशुमार ।

26. मोट = भारी बोझ । बह-बह = उस बोझ को उठा-उठा । सकई = सकै ।

27. विद्वान पंडित जन भी माया के रूपादि के अनुसार (पीछे) जाते हैं।

28. पग भरे = कदम उठावें , माया की ओर देखता तक नहीं ।

29. अपणे-अपणे घर गये = जैसी प्रवृत्ति थी उसी के अनुसार माया चाहने वाले उसी के लिए जन्म खोकर चले गये, आत्म-परिचय के जिज्ञासु साधना कर जन्म सफल कर चले ।

30. माया मांहीं ले रह = माया ने अपनी चाह में ही उनको लगाये रखा । डूबे काली धर = सर्वथा जन्म को व्यर्थ खोकर जाना पड़ा यही काली धर है ।

31-32. रूप राते = सुन्दर रूप पर रीझे रहे । बदी क = दूसरे की अपकीर्ति । लुब्धि = लोभ । भूख = वासना या चाह ।

33. चैन = सुख । इक राज = एक ही का राज्य । बैसे = बैठे ।

34. निश्चल बास = शान्ति का स्थान । राजा = मन, अन्तःकरण । परजा = इन्द्रियाँ तथा तीन गुण ।

35. कुंजर = हाथी । बँधणा = बन्धन में आया । निकस्या = निकला ।

36. मर्कट = बंदर । फंध = फंदा, फाँसी ।

37. सूवा = तोता । बंध्या = पिंजरे में आया । क्यों ह = कैसे ही । निकसे = निकले ।

38. अंध = विवेक विचार के नेत्र रहित । अज्ञान गृह = अज्ञान के मोह में । बाद = व्यर्थ, फालतू ।

39. बूड रह्या = डूबा हुआ, अतिलिप्त ।

40. जिस संसार को देखते ही प्रलय हो रहा है उसके स्वाद में इंद्रियों के भोगार्थ लग कर और परमात्मा को भूलकर मनुष्य माया में बँधते हैं।

41. विष सुख = विषय जन्म झूठे सुख में । रम-रहे = भूल रहे । ऊबरे = तिरै, बचे । स्वाद छाड = विषय भोग की चाह को त्याग कर ।

42. फूल्यो कहा = क्यों गर्व कर रहा है ।

43. मनमाने = मन उन्हीं में लगा है। धंध = दुनिया का व्यवहार । फंध = जातिकुल कुटुम्ब के नाना संबंध । अंध = ज्ञान, विचारनेत्रहीन । जाचन्ध = जन्म से ही अंध । मग = रास्ता । छाने = छाँट रहा है । दिवाने = झूठे को सच समझने वाले पागल ।

44. विकार = विकृति में । गृह = घर । दारा = स्त्री ।

45. ता कारण = उनके लिए । हति आतमा = अपना विनाश किया । विसरया = भूला ।

46. झूठे के = असत्य माया के । भाग सके = दूर हो सके ।

47. गतं= नाशवान । दारा = स्त्री । सुत = पुत्र । आपा = अहंकार । परा = परभेद वृत्ति । कत रंजनं= कहाँ आसक्त हो रहा है । भजसि = चिंतन कर ।

48. जीवों मांहीं जिव रहै = जिन मनुष्यों का मन सुत, स्त्री, बन्धुवान्धवादि में ही रहता है । सांई सूध सब गया = उनका परमेश्वर प्राप्ति के मौके सहित सब कुछ चला गया । अंदोह = शंका ।

49. माया मगहर खेत खर = माया है वह मगहर की भूमि की तरह है उसी में उलझ मरने वाले खर बनते हैं। सद्गति = उत्तामगति, स्वस्वरूप प्राप्ति । बंचे = बच जाय । सरीखे = समान ।

51. निमष = पलभर । जामन मरण आवरणा = जन्म मृत्यु की आग में झुलसना । दाझे = दग्ध हो, सन्तप्त ही ।

52. विहरे = वेद दे, चीर देता है ।

53. सघन वन = बीहड़ जंगल । मुग्ध = मोहान्ध मनुष्य । गँवार = मूढ, मूर्ख ।

54. घट = अन्तःकरण में । घर फोड़े = वृत्ति को भंग करता है । सोवत साह = मनुष्य संसार की मोहनिद्रा में सो रहा है । ले जात = मानव जीवन रूप है उसको खत्म कर देता है, अथवा काम रूपी चोर, तत्व वस्तु = मनुष्य का शील तथा ब्रह्मचर्य है उसका विनाश कर देता है ।

55. मूसे भरे भंडार = भरे हुए भंडार को चुराता है । चेतन पहरे चार = चारों पहर होशियार रहो ।

56. दादू बारह बाट = कामजन्य भोग की वासना से मनोवृत्ति विविध कामनाओं द्वारा अनेक प्रकार की हो जाती है । यही बारह बाट है ।

57. गिले = पासे, निगल जाय । कर्म गिले = सकाम कर्म इसी तरह मनुष्य को निगल जाता है ।

58. जीव गिले जब कर्म को = तत्वज्ञान करके जीव कर्मों को प्राप्त कर जाता है । जब तत्वज्ञान जीव को होता है तब राम ही राम भरपूर उसको दिखाई देता है ।

59. कर्म कुहाड़ा = वासनामय कर्म कुहाड़े के समान है । अंग बन = मनुष्य जन्मरूपी शरीर वन है ।

60. आपै मरे आप को = यह मन आप ही अनेक वासनाओं में पड़ अपना नाश करता है ।

62. सब ऊपजे = नाना भोग की वासना पैदा होती है ।

63. भावार्थ-काम की प्रवृत्ति के साथ और अनेक विकार अनुबन्धी रहते हैं , इससे काम सब पाप की जड़ है । यह इस स्थूल शरीर के आकार का विनाशकारी है ।

64. यहु ताे = यही तो । दोजख = नरक । आपा = अभिमान ।

65. विषय हलाहल = काम, क्रोध्, लोभादि प्रवृत्तिजन्य विषय भोग ही हलाहल जहर है । मोहरा = जश्हरमुहरारूपी राम नाम ।

66. विषय भोग(वीर्य का पतन करना) एक नर ही हत्या के बराबर कहा है । मनुष्य जीवों में शिरोमणि है ।

67. विषया का रस मद भया = विषयभोग की प्रवृत्ति उसका परिणाम वही मद है । नर नारी का मांस = नर नारी का संयोग है यह मांससदृश है । जो विषयरत होते हैं वे इस मद मांस का सेवन कर जन्म को नष्ट करते हैं।

68. भावै शाकत (शाक्त) हो, भावै भक्त (वैष्णव) हो, पर जो हलाहल (निषिद्ध) विषय भोग में फँसा है तिस के समीप जाना दयाल जी वर्जित करते हैं।

69. लोहखाड़ा एक ग्राम है, उसमें ठग बसते थे । उन्होंने चाहा था कि संतों को निमंत्रण के बहाने बुलाय कर संतों के लटे-पटे छीन लें। यह मनसूबा ठगें का दयालजी ने जान कर यह साखी कही थी ।

70. साँपणि = स्त्री रूपी साँपणी, माया रूपी साँपणी । कहि उपकार कर = किसी सद्गुरु कथन के उपकार से ।

71. राम मंत्र जन गारुड़ = साँप-विष उतारने वाले के सदृश सद्गुरु गारुड़ी राम मंत्र आत्मचिनरूपी स्मरण उपदेश से उस विष का निवारण कर देते हैं। ऐसा संयोग बने तो कोई जीवित हो ।

72. पिव के = परमेश्वर के, स्वस्वरूप की प्राप्ति के लिए । पर जले = प्रज्वलित हो रहा है ।

73. परिहार = दूरकरि ।

74. अग्नि अनन्त = काम, क्रोध्, लोभ, राग, द्वेष आदि की तरह-तरह की आग जलती रहती है ।

75. घट मांहीं= मन के अंदर । घण = बहुत । फाटी कंथा = फकीरी बाना, चोला । चिद्द = साँग, चैन ।

76. काया राखे बंद दे = शरीर का तो नेति, धोती आसनादि द्वारा, पंचधूणी, पंचधरा आदि से निग्रह करता है । माया नहिं मेलै = ऐसे बाहरी दिखावे वाले की माया निवृत्ता नहीं होती । बजार = शहरी लोक ।

77. मंदिर = घर । मीच का = मौत का । पैठा = प्रवेश किया ।

78. इस योगी की आग = परमेश्वर की माया । दूरै बंचिए = दूर से ही रहिए । योगी के संग लाग = ईश्वरचिन्तन में या आत्मपरिचय में लग कर ।

79. ज्यों जल मैंणी माछल = जैसे जल में रहने वाले मछली उसी में रहना चाहती है ।

80. नैन दो = आभ्यन्तर । मेर चढ = माया की मर्यादा को लाँघकर । झाल = झल या ज्वाला ।

81. बिना भुवंगम हम डसे = बिना साँप के जायामाया से या काम रूपी सर्प से हम डसे गये । बिन जल = विषय रूप जल में । बिन ही पावक = शोकाग्नि, चिंताग्नि । बसाय = बस नहीं ।

83. बाजी चिहर रचाय कर = संसार रूप अदभुत बाजीगरी फैलाकर । अपरछन = अदृश्य, ओझल । पट = अज्ञानरूपी पर्दा ।

84. ईश्वर ने जीवों के साथ (ढिग) (ढोरी) चाह लगाकर, उनको जगत् में बाहे (भरमाय) रक्खा है ।

85. बाजी बहुत है = माया रचित भुलावा अपार है ।

86. अरु बहुतेरा आहि = नामरूप प्रपंच बहुत ही बेशुमार है । केता आवे जाहि = कितने संकल्प मायिक प्रवृत्ति से आते हैं और कितने जाते रहते हैं।

87. बाज = बाजीगरी, माया । भुरकी बाहि = भुरकी डाल वश में कर ।

88. दूजा = नामरूप वस्तु । अंधर = अन्धकार, अविद्याजन्य अज्ञान ।

89. सो धन = आत्मपरिचय रूप धन । माया बाँधे = माया में लिप्त हुए । पूरा पडया = सफल हुआ ।

90. माया को संत जन त्यागते हैं , तिस को साधरण जन हाथ फैला कर लेते हैं , परमतत्व को संत जन प्रीति से लेते हैं , उसको साधरण जन डाल देते हैं।

91. हीरा = हरिनाम व स्वस्वरूप । कंकर = अनात्मपदार्थ रूपी पत्थर के टुकड़े । जीवन सौं= संबंधियों से ।

92. बणिजे = व्यापार करे, लाभ प्राप्ति का कार्य । खार खल = विषय, भोग । हीरा = निर्गुणनाम । जौहर = सन्तजिज्ञासु, रतन परीक्षक ।

93. जैसे पुरुष दड़ी (गेंद) को दोट (चोट) लगाकर इधर-उधर भरमता है तैसे माया इस प्रपंच (जीवादि) को त्रिलोकी में भरमाती है धुर (अपने स्वरूप) में ही जीव स्थित हो करके संतोष पाता है, सो उसका मेरू पर चढ़ना (गुणातीत होना) है ।

94. जैसे अनल पक्षी आकाश से उतर कर, इधर-उधर फिरता है, पीछे उलट कर आकाश में अपने स्थान ही में स्थित हो कर सुख पाता है, उसे दादूजी कहते हैं कि माया मेर (प्रपंच) को उलंघ कर, उलटे पंथ (अंतर्मुख वृत्ति द्वारा) अपने स्वरूप में स्थित होवे ।

96. सुर = इन्द्रादि तथा दिक्पाल । नर = मनुष्य । मुनिवर = अगस्त्यादि । हेठ = नीचे ।

97. चेर = दासी, वशवर्ती । दास = सतोगुण द्वारा संतों की सेवा करने वाली । ठकुराण = मालकिन, रजतमः प्रवृत्ति द्वारा प्रेरक ।

98. शाकत = फल विशेष की प्राप्ति वाले साधक ।

99. चार पदार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । मुक्ति = निरन्तर सुखानुबन्ध । विलस = भोगी, सदुपयोग में ली। वितड़ = वितीर्ण की, दानादि द्वारा बांटी । माथे मार = आसक्ति नहीं की ।

100. गहले = पागल, उन्मक्त ।

101. जनि को = कोई नहीं । नरक कर = दुखरूप नरक की दाता ।

102. मति = बुद्धि । चकचाल = चंचल, भ्रान्त । मद पिया = विषय-भोगरूपी वारुणी का पान किया ।

103. सो माथे मार = संत साध्कों ने उस माया का-जिसकी स्थिति पिछले तीन चरणों में दिखाई है । माथे मार = सर्वथा परित्याग किया ।

104. भावार्थ = स्त्रीवशवर्ती मनुष्य मृदंग की तरह दोनों ओट पप्पड़ खाकर बोलते हैं अर्थात् कथन तथा संसर्ग से विविध दुखों के तमाचे खाते रहते हैं। उसी की प्रेरणापूर्ति के लिए मनुष्य जणे-जणे की गुलामी करता है और दर-दर भ्रान्त हुआ डोलता रहता है ।

105. परिहरै = त्याग दे, संबधन करें। गर्भवास = जन्मजन्य दु:ख ।

106. रोक न राखे = संग्रह कर धरे नहीं ।

107. सदिका सिरजनहार का = परमेश्वर का दिया हुआ जो धन प्राप्त हुआ है, वह । केता आवे जाय = कितना अदलबदल होता ही रहता है ।

108-111. इन चार साखियों में माया द्वारा प्राणियों को विविध रूप से ठगने का उल्लेख है । गहे = पकड़े-कब्जे में करे । त्रय = तीन, आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक कलेश । उपावन = उत्पन्न करने वाली । अंग अग्नि = भोग-वासना की चिन्तामय अग्नि । भामिन = स्त्रीरूपधर । बिटंब = विटप, संसाररूपी वृक्ष । परलै किया = डिगा दिया । बिगोया = डुबो दिया ।

112. घर आंगणे = घर के चौक में गृहिणी द्वारा नचाने पर ।

113. माया मंगल गाय = माया अपना साम्राज्य बनाती है ।

114. इस साखी में अंतर्मुख ध्यान से जो आत्म प्रकाश दिखता है वो बतलाया है, अर्थात् ब्रह्म ज्योति कभी झिलमिल तिरवरे की भाँति, कभी दीपक की शिरवावत, कभी सूर्य चंद्र के प्रकाशवत, कभी छलावे के चमकारे की तरह प्रतीत होती है ।

115. दीपक देह का = देशध्यासी का दीपक रजोगुण तमोगुण मय प्रवृत्ति जन्य है । पंखिया = जुगनुवत् जीव प्राणी ।

117. त्रिया पुरुष का अंग = शरीर का निर्माण एक ही भौतिक संघात होते हैं , सह सभी जानते हैं फिर भी, आपा पर भूला नहीं= भोगवासना में फँसा, लिंग भेद से स्त्री को भोगसामग्री के रूप में ही देखता है ।

118. माया के घट साजि द्वै = अविद्या रचित स्थूल शरीर उसको अंग भेद से दो रूप में (स्त्री पुरुष) सजाया गया है ।

119. भावाथर्र्-सच्चे साधक स्त्री-पुरुष के लिंग भेद का परित्याग कर एक ही चेतन अधिष्ठान में उत्पन्न हुए सब शरीरों को एक परिवार के रूप में देखता है । उसमें लिंगभेद की वृत्ति बहन, भाई रहती है । न कि स्त्री-पति की ।

120. पर घर परिहर आपण = यह पराई = दूसरे पुरुष की और यह अपनी स्त्री है, इस भाव को त्यागो । मुग्ध = मोहित ।

122. अवधूत = कर्दमादि ऋषि ।

123. विष का अमृत नाम धर = भोजजन्य वासना विषवत् है उसको अमृतवत् मान सबने-अज्ञानाधीन जनों ने खाया ।

124. व्याध = विविध रोग । विकार = मानसिक बिगाड़ ।

125. जिव = विषयप्रवृत्ता प्राणी ।

126. मैल = मलिन । गुण मई = त्रिगुणात्मक ।

127. खावे = भोगे ।

128. जे विष जारे खाइ कर = जो व्यक्ति वज्रोली आदि क्रिया से शुक्र, आर्तव का पान करते है । वह विष का पान कर जराना है पर इसको सन्त साधन व आत्मयोगी अच्छा नहीं समझते, इसलिए महात्मा कहते हैं , जनि मुख में मैले = विष को खाकर पचाने की क्रिया आते हुए भी विष को खाया ही क्यों जाए?

129. निबेरा = समाप्ति, नाश ।

132. ब्रह्म सरीखा = ब्रह्मसदृश । गुण मेलै = रजतममय वृत्ति द्वारा ।

134. स्वर्ग दयाल = स्वर्गपाताल । सूक्ष्म = अन्तःवासना ।

135. ऊभा सारं= वृत्ति के उत्थान में पुनः वृत्ति को आत्मसार में लगाना । बैठ विचारं= वृत्ति को स्थिर कर आत्मविचार में सतत लगाना । संभारं जागत सूता = जागते-सोते भी आत्मनिश्चय से डिगना नहींं। इसी साधना से सब जाल को हटाकर तीन लोक के तत्वरूप समष्टिचेतन तक पहुँचेगा ।

136. सरीखे = समान, सदृश । बाँछे = चाहे ।

138. ब्रह्मा का वेद = सकाम कर्म यज्ञादि । दूसरे-तीसरे चरण में एकांगी सेवावृत्ति का निरूपण है ।

140. जोनी आवे जाय = उत्पत्ति, विलय से युक्त है, सभी प्राणी तथा देवता ।

142. अंजन किया = साकार बनाया । गुण-निर्गुण जाने = जो गुणातीत = व्यापकआत्म चेतन ईश्वर रूप है, उसको नाना अवतारों का रूप दे सगुण किया गया । धरया दिखावे अधर कर = जो अधर है = आधर-रहित है, उसी को मूर्ति बनाकर धरकर दिखाते हैं।

143. निरंजन = नाम रूप से रहित । अंजन = नाम रूप मय ।

144. पटंतरे = बराबरी ।

145. चिन्तामणि कंकर किया = सकामकर्मरूपी कंकर को निष्काम साधना रूपी चिन्तामणि के समान किया ।

146. पाषाण = पत्थर को । कंचन = सुवर्ण ।

147. सूरज फटिक पाषाण का = स्फटिक पत्थर का सूर्य बनावे तो क्या? उससे अन्धकार का निवारण हो ।

149. विदेश = परदेश में है । कामिणि = स्त्री । उणिहार = उस पुरुष के समान आकार का चित्र ।

150. छत्रपति शिरमौर = कागज के चित्र का चक्रवर्ती राजा बनाया गया ।

152. भावार्थ = आप परब्रह्म परमेश्वर ने पहली उपाय कर = प्रकृति निर्माण कर, अपने को उससे जुदा = स्वतंत्र रख लिया । पश्चात् त्रिगुण प्रधन = तीन देवों की प्रकृति से उत्पत्ति कर, जगत् = संसार के प्रवाद का बंधण = ढाँचा स्थिर कर दिया ।

153. नाम नीति = आत्मचिन्तन है वही नीति है । अनीति सब = और सब व्यापार अनीति है । बाँधे बन्द = वर्णाश्रम के नियमादि सब बन्धन हैं , ये सब स्वार्थभावना से कल्पित हैं। पशू = सत्य ज्ञान शून्य पशुवत् मनुष्य, इस भेद को जानता नहीं । पारध = शिकारी, शास्त्रीय प्रवृत्ति प्रधन पंडितों ने ये विधि निषेधरूपी नियमों के फन्दे रोपे हैं।

154. भावार्थ = यज्ञादि कर्म विधि = वेद के नाम से चला, सकाम कर्म की प्रवृत्ति के भ्रमित कर्मों में उलझा या मर्यादा मांहीं रहैं= वर्ण तथा जाति की सीमित मर्यादा को धर्म का रूप दे, उसी में उलझे रहते हैं। वास्तविक तथ्य का चिन्तन नहीं किया जाता ।

155. माया मीठी बोलण = माया मीठे बोले = छली आदमी की तरह अपनी ओर आकर्षित करती है । कलेजा = शील सन्तोष रूपी हृदय ।

156. डसे = खाये गये । मुये = मरे । निदान = निश्चय । सयान = जानकार ।

157. रत = आसक्त । सर्वस = सद्गुण सद्विचार ।

159. आदि = ब्रह्मा से लेकर । अन्त = वीरूधदि, वृक्षवनस्पति आदि तक ।

160. पैसे = प्रवेश करे, वासना के रूप में ।

162. रोवे जग पतियाय = वासना के परिणाम से विविध दु:ख पा रोते हैं फिर भी उसी वासना का पल्ला पकड़ते हैं।

164. नारी माता होय = प्रकृतिरूप से, स्त्रीरूप से ।

166. गोप = गुप्त हो, अदृश्य हो । छिपाइ = छाने, छिपकर । धीजे = विश्वास करे ।

167. कामनि = स्त्री । गल बाहि = गले में डालते हैं। कटार = कटाक्षरूपी कटार । कर गहै = हाथ में ले, साधन बना ।

170. भँवरा = भोगी पुरुष । वास = भोग का । कमल बाँधना आय = नारी की कमल सदृश मुखाकृति में आ बँध ।

। इति माया का अंग सम्पूर्ण ।

अथ साँच का अंग

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3. महर = दया करुणा । मुहब्बत = स्नेह, प्रेम । वज्र = वज्रवत् । काले = मैले, कलुषित । मोमिन = मेहरवान ।

4. दोजख = नरक, दु:खावस्था ।

5. नाहर सिंह सियाला सब = इन पशुओं की समान प्रकृति वाले । बड़े मियाँ का ज्ञान = मुहम्मदसाहब की कुरान से, अपने मांस खाने का समर्थन करते हैं।

6. येता प्रत्यक्ष काल = मांसाहारी मनुष्य । बक = बगुले, मांजर = बिल्ली , सुनहाँ = कुत्तो, सह = सियाल आदि पशु-पक्षी वृत्ति वाले हैं , वे काल के समान हैं।

7. मुई = मृतवत्, शुशे, कतूबर आदि पशु-पक्षी । मार = हिंसक, जीवहिंसक । माणष = मनुष्य ।

9. भावार्थ = लंगर लोग = मांस खाने के आदी मनुष्य । भीर = पक्ष में । मांसाहारी की वृत्ति सदा जोर-जुल्म करने वाले बटपारे = अच्छे रास्ते से चुकाने वाले दुराचारी मनुष्यों का समर्थन करती है । वे आदि-अन्त सदा उन्हीं के सीर = सांझीदार रहते हैं।

10. ताजीर = उपहास, मसखरी । बड़ि बूझ = बड़ी-बड़ी ज्ञान की बातें। कजा = शिक्षा ।

11. भावार्थ ¾ बे मेहर = निर्दयी । गुमराह = परमेश्वर के मार्ग से विमुख । गाफिल = अचेत; अनजान । गोश्त-खुरदन = मांस खाना । बेदिल = खोटे दिल वाला । बदकार = बुरेकाम करने वाला । आलम = दुनिया में फँसा हुआ । हयात मुरदन = जीते ही मरे हुए जैसा ।

13. दीन गमाय = सच्चा धर्म खोकर । नेकी नाम = भलाई और आत्म-चिंतन । विसार कर = भूलकर । करद = छुरी, घातक शस्त्र ।

14. गल काटे = हि । सा करे । अया = ऐसा । साबित = सच्चा, सही । यकीन = विश्वास ।

15. दुनियां के पीछे पड्या = कुर्बानी आदि झूठे दुनियावी काम के ही पीछे पड़ा हुआ है ।

16. कुफर जे के मन में = काम क्रोध्, हिंसा आदि मन में भरे हैं। दादू पेया झंग में = बहुत दुनियावी झगड़ों में पैदा हुआ है ।

17. आपस को = अपने अहंकार को ।

18. दुन्दर = द्वन्द्व, काम-क्रोध्, लोभ-मोह, राग-द्वेषादि । साहिब क = परमेश्वर की । अरवाह = आत्मा, जीव ।

19. मीयां मुई मार = उन निरीह, गरीब पशु-पक्षियों को क्यों मारना ?

20. बन्दा बन्दग = सच्ची सेवा में लगने वाला ही सच्चा बन्दा है । रोष = क्रोध्, गुस्सा ।

21. दूजा क्या धंध = उस व्यापक परमेश्वर की सेवा त्याग, मन्दिर, पूजा, बांग, कलमा, निमाज आदि अन्य ध्न्ध क्यों किया जाय ?

22. काफिर = पापी, झूठा । काफ = झूठ ।

23. फरमान = आज्ञा, आदेश ।

24. मसकीन = गरीब ।

25. सो काफिर = वह पापी है । दोजख में = दुखा:वस्था में , नरक में ।

27. भावार्थ-शैतान मन को नामचिन्तन से रोकिए । गोशमाल = इन्द्रियों की सँभाल कर सद्वृत्ति, सद्भावना का बन्ध लगा । दूई = द्वैतभाव को दूर कर । तब घर में = अपने अन्तःकरण में ही परम आनन्द प्राप्त होगा ।

28. मान = ईमान, सच्चाई ।

29. दहै = जलन पैदा करे, कष्ट दे । मुवा = मृतक । राह = मनुष्य जीवन का रास्ता । सँवार े = सज्जित करे, सफल करे ।

30. सो मोमिन = वही मोमिन दयालु समझ । सत्य सबूरी वैसे आण = सत्य, सन्तोष को लेकर उसी का आधर रखे, उसी पर दृढ़ रहे । भिश्त के = स्वर्ग के । पाट = किवाड़ ।

32. गुजारते = करते । कहु क्यों फुरमाई = क्या खुदा ने या कुरान ने बंदग = सेवा । सीर में = साझे में करने की कही है ।

33. अमलों= कार्यों, कर्तव्यों।

34. अघाइ = अति तृप्त होकर । खूट = खतम हुई । पूग = पहुंची, समाप्त हुई । आन = और की ।

37. निश्चल = स्थिर मन से ।

38. आवट कूटा = विविध सन्ताप, वासना कलेश ।

40. भावार्थ-अपने शरीर की पौथी करो, तिस में हरि का यश लिखो, उसका पढ़ने वाला अपना प्राण बनाओ, इस प्रकार की उपासना करके अलेख परमात्मा का कथन व ध्यान करो ।

41. कतेब = कुरान । सुबहान = पवित्र परमेश्वर ।

43. गुसल = स्नान । ऊजू = हाथ पैर मुँह पांच अंग धोना ।

44. पंचों संग = पाँचों इन्द्रियों के साथ ।

45. मुवा न एकौ आह सौं = विरह की एक ही आह में मर नहीं सका ।

46. भावार्थ-हे मुल्ला! नित्य परमात्मा की सेवा में लगा रह, दु:ख क्यों उठावै । बाँग वहाँ दीजिए जहाँ परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन हो, बाँग से तात्पर्य अनाहद शब्द से है सो ध्यान में उस समय सुनाई देता है जब वृत्ति परमात्मा में पूर्णरूप से लग जाती है ।

47. दायम दिल = शुद्ध हृदय । साबित = अखंडित । धंध = काम ।

49. दुई दरोग = द्वैत भाव, भेद बुद्धि । कहो धू = किस ओर ।

50. पख पख लीया बांट = व्यापक परब्रह्म को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्धों , जैन आदि विविध ध्र्मों के अनुयायियों ने अपनी-अपनी तरह से बाँट लिया है ।

51. जीते जी विषय वासनाओं से दग्ध रहे । अथवा क्लेश दायक साधनों से दु:खी रहे और कहे कि मरे पीछे मुक्त हो जायेंगे, दयालजी का आशय है कि ऐसे साधन ठीक नहीं , उपाय वह करो जिनसे संसार रूपी पहाड़ की दाह शान्त हो, जैसा कि अगली (52वीं ) साखी में कहा है ।

52. दारू = ओषध, इलाज ।

53. ठाँवड़ा = बर्तन । भूख न भाग = लालसा नहीं मिटती । खाय = उपभोग करे ।

55. चारे = पशुओं के खाने-पीने के पदार्थों में । माँझ = बीच ।

56. चमार की भट्ठी पर भरी (अधौड़ी) कच्ची खाल जैसे फूली हुई लटका करती है, वैसे स्वान शूकर की तरह अनियमित भोजन खाकर जो पेट फुलाते हैं सो अनुभवरूपी औषध नहीं पा सकते ।

57. स्वाद चित्ता दीया = स्वाद में ही भोग में ही चित्ता लगाये रहे । विलंबिया = उलझा ।

59. अपणा = व्यापक परमेश्वर, अपना साध्य । नीका = ठीक तरह । मैं मेरा = अहंकार और भेदभाव ।

60. जाण्या = समझा । रिसाय = गुस्से हों।

61-62. इन दो साखियों में वाचक ज्ञानियों की स्थिति बतलायी । वाचक ज्ञानी साखी शब्द बनाते हैं , लोगों को सुनाते हैं , आत्मानुभूति का ढोल पीटते हैं , अपने को प्राप्त ज्ञान का परचौने रूपेण करते हैं , इस तरह ये अपने अहंकार में अधिकाधिक बँधते जाते हैं।

63. उपज = उपजन, अनुभूति । जण जण = हर मनुष्य को । ज्यौं रसना रस शेष = जैसे शेष सहò जिह्ना से नामचिन्तन का आनन्द लेता है, वैसे ही विवेकी साधक सच्चे महात्मा के उपदेश सुन, उसके रास्ते चल, आनन्द का रस लेता है ।

65. तत्व न चीन्हा सोइ = केवल कथनी की, वस्तुतः उस तात्तिवक परमेश्वर को करणी द्वारा, चीन्हा = जाना नहीं ।

69. श्रोता = सुनने वाला । घर नहीं = अन्तःकरण में स्थिर नहीं । बादि = व्यर्थ, फालतू । वकता श्रोता = कथन करणी । एक रस = समान हो । आदि = असल ।

71. दादू आसण पहल के = पहले की जो वासनामय वृत्ति है, मन फिर-फिर वहीं आता है । अन्तर सुरझे समझ कर = गुरु उपदेश को समझकर, धरण कर, अन्तर सुरझs भीतर = अन्तःकरण की विषमता को सुलझावे । बाहर सुरझे = केवल बाहरी दिखावे में जो सुलझे हुए से दीखते हैं , वे पुनः देखते-देखते उलझे हुए दिखाई पड़ने लगते हैं।

72. आत्मा = अन्तःकरण । आप = आपा, अभिमान । निपजे नहीं = फलीभूत नहीं हो ।

73. मोटा = बड़ा, महान् । झूठा ज्ञान = बनावटी, दिखाऊ ढोंग ।

74. भावार्थ = वह परमात्मा अपना स्वरूप सदा साथ व हृदय प्रदेश के सम्मुख रखता है । गूझ = उस अदृश्य को अज्ञान तथा भ्रान्ति से देख नहीं पाता । बिना भ्रान्ति तथा अज्ञान का निवारण किये उस । अबूझ = आत्मा को कैसे प्राप्त किया जाय ।

75. सेवग नाम बोलाइए = केवल दिखावटी भक्ति से भक्त कहलाने से कोई लाभ नहीं है ।

76. दासातन = सच्चे सेवक भाव से । हजूर = सन्मुख ।

78. अपणी भक्ति का भाव = अपनी प्रसिद्धि अपने महात्मापन की चाह है । दाँव = मौका ।

79. निराल = एक ओर, दूर । वन माँहिं = विषय व्यामोह के वन में ।

80. सो दशा = लोभ बड़ाई । वाद = वासना, अहंकार ।

82. मनसा = लालसा, इच्छा । बन आवे = सफलता हो ।

84. पयाना = चलना । पन्थ = साधक, पथिक ।

85. मनसा वाचा कर्मना तब लागे लेखे = मन वचन कर्म से एक अपनी साधना में लगे । तभी लेखे लागे = ठीक फल प्राप्त करे ।

86. नाँहिं न = नहीं है । अजान = बेसमझ ।

87. भावार्थ-सूना घट = अन्तःकरण आत्मनिष्ठवृत्ति बिना सूना है = खाली है । सोधी नहीं = समझ नहीं , ज्ञान नहीं । पंडित ब्रह्मा पूत = अपने को वशिष्ठादि का वंशज व पंडित माने हुए हैं। आगम निगम = आर्ष वेद, स्मृति । नाचे भूत = अन्तःकरण में वासनारूपी भूत नाच रहे हैं।

88. पढे = केवल पढ़ने से । दादू पीड़ पुकार = अतिनिष्ठा से विरह की पीड़ से उसकी पुकार ।

89. निवरे = खाली, अकर्मण्य ।

91. सोधकर = छानबीन कर, तलाश कर ।

92. कजा = मृत्यु । कतेब = कुरान । भेद = रहस्य, जानकारी ।

93. मसि कागद = स्याही और पन्ने, कागज ।

94. कागज काले कर मुये = केवल कल्पना वाले पंडित कागज काले कर विविध शास्त्र रच कर चले गये । एकै अक्षर पीव का = एक व्यापक परमात्मा का पाठ पढ़े । वही सुजान = चतुर है ।

95. कह सुन राम समाय = कहकर या सुनकर जो स्वयं राम में = राम की प्राप्ति के साधन में लग गया ।

96. भावार्थ - बिना दृढ़ निश्चय के केवल वाणी के व्यापार को रोकने के लिए मौन धरण करें वे । बावरे = पागल हैं , जो केवल ब्रह्मज्ञान की खाली बातें कहते रहते हैं , उपदेश देते हैं वे बोलने वाले भी अनजान हैं।

97. ह्नै कछू न आवा = कुछ बन नहीं पाया ।

98. जिनके ठीक न ठौर = जिनका दृढ़ निश्चय से कोई साधन नहीं है ।

99. अन्तरगत = मन की भावना । मुख रसना = कहने की बात ।

100. समझी मन बौरे = पागल मन केवल कहने से राम नहीं मिलता, यह समझ ।

101. भावार्थ = जैसे नशेबाज, नशे की वस्तु का उपयोग कर, अपने साथियों में बैठ अपनी झूठी महानता मानता है । जैसे बिना एक पैसा पास हुए भी, अपने को नगर सेठ वे बादशाह समझना पागलपन है, वैसे ही बिना साधना के केवल कथन से करणी का फल पाने की धरणा करना पागलपन है ।

102. टोटा = नुकसान । दालिद = दरिद्रपन । पैका = पैसा । सिरै = सर्वोपरि प्रधन ।

107. घुरे = भजे । मीयाँ मीयंनि = मियों का मियाँ । इस साखी का तात्पर्य यह है कि तू अन्य देवताओं को क्यूँ भजता है, मियों के मियाँ परमात्मा को क्यों नहीं भजता ।

108. यह नरतन जो परमेश्वर ने दिया था सो वृथा, व्यर्थ ही गया । इस पागल, गँवार मनुष्य ने स्त्री, पुत्रादि लोगों के कारण परमेश्वर को नहीं देखा ।

109. चिंत = विचार, चिन्तन । मिंत = मित्र, सच्चा दोस्त ।

110. पांति = पंक्ति । भरांति = भेद, अलगाव ।

112. सूप बजायाँ = अयुक्त तुच्छ साधनों से घर की बड़ी बलायें दूर नहीं होतीं। जैसे कोरी बातों से दु:ख निवृत्ता नहीं होता ।

113. भावार्थ = जातीय पक्ष कैसा व्यर्थ है जैसे साँप की लकीर को पीटना । साँप की लकीर को पीटने से साँप नहीं मरता है, वैसे जातीय पक्ष के कारण मन का भेद बुद्धिमान साँप नहीं मरता ।

114. दोन्यों भरम है = जातीय पक्ष से बनाया हिन्दू और मुसलमान का मजहब या ध्र्म दोनों भ्रम हैं। वास्तविक सत्य धर्म दोनों से न्यारा है उसको समझकर ग्रहण करो ।

115. भंजन = वर्तन में । बाहि = भर ।

118. परसंग = सम्बन्ध्, संयोग । सतसंग = सन्तजनों का संग ।

119. बासण = बरतन । आदर मान = सत्कार, प्रतिष्ठा । गर्व गुमान = उनसे गर्व-अभिमान करना ।

120. भावाथर्र् = वासना की आसक्ति से ज्ञान विचारहीन नेत्ररहित अन्धे को दीपक-आत्मोपदेशरूपी दीपक दे, तो भी उसका अज्ञानान्धकार नहीं हटेगा । जिसको स्वशरीर का ही ज्ञान नहीं , उसको आत्मज्ञान कैसे समझ में आवे ।

125. ढूंढ़स = आत्मा को छोड़ अन्य भैरवादि देव पूजे । बाणि = आदत ।

126. पैंडे = मार्ग, रास्ते । चाव = चाह, उमंग ।

128. भावार्थ = आत्मा नाम-रूप-गुण से रहित है, उसमें नाम-रूप-गुण कहना या आरोपित करना मिथ्या है । आवट कूट = अरहर की तरह जीवन-मरण के चक्कर में देवादि तथा सब प्राणी जगत् घूम रहा है, आत्मा को जाने बिना ।

131. ऊपरि आलम सब करैं = बाहर दिखावे की पूजा संसार के अधिकांश प्राणी करते हैं।

132. दादू सब थे एक के = संसार के सभी प्राणी उसी एक चेतना शक्ति से चेतन है उसी को नहीं समझा ।

133. झूठा साँचा कर लिया = अनित्य विषयभोग के पदार्थ दुनियाँ के नकली सम्बन्ध उनको सत्य मान कर संसार के प्राणी दिवाने हो रहे हैं ।

134. सूध = सीध, ठीक ।

135. साँचा नहीं = आत्माभिमुख नहीं । झूठा = झूठे पदार्थों में लगा स्वयं झूठा हो रहा है ।

136‑ साँचा अंग न ठेलिये = जो सत्य है उसे अपनी समझ से परे न करें।

140. धण = मालिक, स्वामी । पाखंड की यहु पृथ्व = यह जगत् पाखंड की मान्यता देने वाला है, वह वास्तविकता तक न पहुँच जो कुछ देखता है उसी की मान्यता करता है ।

141. झूठा परगट = झूठा-मिथ्या संसार व संसार के पदार्थ तथा संबंध उसको परगट सच्चे समझता है । साँचा छाने = जो परमेश्वर-सष्टिचेतन सब में व्याप्त रहा है, उसको छिपा हुआ समझता है ।

142. पाखंड = छल, बनावट । ऊपरि तैं क्यों ही रहो = ऊपरी दिखाने में कैसा ही क्यों न हो?

143. उत्पति परलै होय = जन्म-मृत्यु की उलझन लगी रहती है ।

145. लोचन = ज्ञान-विचार-मय नेत्र । अन्ध = आवृत्ता । मुक्ता = आत्म-चिन्तन रूपी रत्न । फन्ध = फन्दा ।

146. निरबँध = नाम रूपादि बन्धन रहित व्यापक ब्रह्म । द्वै पख = सगुण-निर्गुण रूप ।

147. गहगह = गहरी प्रीति । निबाहि = निर्वाह करे, निभावे ।

148. पयाल = पाताल में , अति एकांत में ।

150. सन्मुख रहणि हजूर = जिनकी निश्चलवृत्ति सदा आत्माभिमुख लगी रहे ।

155. बिच के = अनिश्चयी, संसार और ईश्वर दोनों की ओर झपटने वाले । पूरे = आत्मनिश्चयी । सुध-बुध = निर्दोष, भोले ।

156. दाधे रीगे सोय = जिनके हृदय मात्सर्य की आग से जल रहे हैं। जो दूसरों में विविध अवगुणों का आरोप कर कल्पते हों या अपनी मिथ्या सिद्धियों को बचाने का यत्न करते हों।

157. हाना बाहि = बाध उपस्थित करे, विघ्न डाले । क्यों ह = कैसे ही । बलाइ = आफत ।

159. एक मना आराध = एकाग्रचित्ता से साधना करना ।

162. लंघैगे यह घाट = यह वासनामय संसार का विकट घाट कब पार कर सकेंगे ।

163. सब साधों को पूछ = सब श्रेष्ठ साधक जिसने सही मार्ग पा लिया है, उनसे पूछ कर ।

165. सयानै = जानकार, समझदार । बिच के = संदिग्ध अवस्था वाले ।

167. साक्षी भूत है = साक्षी रूप है ।

168. चोर न भावे चाँदणा = चोर को प्रकाश अच्छा नहीं लगता, इसी तरह विषयरत पुरुष को आध्यात्मिक प्रवृत्ति अच्छी नहीं लगती है ।

169. घट-घट = प्राणी-प्राणी । सीर = साझीदार, भागीदार । साहिब = व्यापक-ईश्वर । सब घट मांहीं = सब प्राणियों में अवलोकन करे-यही सत्य है ।

। इति साँच का अंग सम्पूर्ण ।

अथ भेष का अंग

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2. बूडे = डूब जाय । ज्ञान = लौकिक ज्ञान की प्रवृत्ति । अंजन मंजन = साज-शृंगार ।

3. फीके = असार । अविरथा = व्यर्थ, नि:सार । धियान = ध्यान ।

4. ज्ञानी पंडित = शास्त्र संस्कारी विद्वान् । लाग रह्या = लय ध्यान में संलग्न ।

5. अवांह = कुम्हार का बर्तन पकाने का आवाँ । भावार्थ -कुम्हार की भट्ठी का कोरा घड़ा, चाहे अनेक चित्रदार भी हो पर उसमें कोई वस्तु न हो, तो वह खाली देखने ही का होता हैं तैसे भक्तिहीन भेषधरी केवल देखने ही के होते हैं।

6. भीतर = अन्तःकरण में । वस्तु = आत्मोपलब्धि का अनुभव । अगाध = अथाह । सन्मुख साध = उपर्युक्त श्रेष्ठ महात्माओं के सन्मुख अनुकूल रहना ।

7. भांडा भर धर वस्तु सौं = हृदयरूपी बर्तन को नाम चिन्तन रूप वस्तु से भरे रखे । भेषरूपी भांडे को साधु के यथार्थ लक्षण वाले गुणों से भर रखे । महँगे = अधिक ।

9. वस्तु = गुण, वास्तविकता । वासण = केवल बाहरी रूप ।

10. डाल पान तज = सकाम सपक्ष साधना को त्याग । मूल गह = सब धर्र्मों तथा सब साधनों का मूल ग्रहण कर ।

13. भेष = नाना भेस है ।

14. हीरे = सच्चे सन्त साधक । रीझे = लालायित, अति प्रसन्न । खल = सारहीन, ढाेंगी भेष वाले । स्वांग = बनावटी भेष वाले ।

17. हीरा दूर दिशंतरा = सत्य की शोध में लगे साधु पुरुष कहीं किसी एकान्त देश में प्राप्त होते हैं।

18. शोधि = तलाश कर । परदेशों = दूर देश में । पषाण = पत्थर, बनावटी भेषधरी ।

19. कहँ पाइए = कहीं ही मिल सकता है ।

21. जे साँई का ह्नै रहै = जो अहंकार, वासना तथा देहाध्यास त्याग सर्वात्मना सांई का हो जाय ।

22. स्वांग सगाई = बनावटी भेष का नाता । राच = आसक्त हो ।

25. भक्त भेष = साधु का पहनावा पहन । पर अपवाद = और की बुराई ।

26. भक्त भेष सौं जाय = बनावटी भगत से कोई भी जाकर नाता न जोड़े ।

27. बटाऊ = राहगीर, पथिक । काछा = पहना, बनाया ।

28. कपट न सीझे कोइ = कपट से कोई कार्य नहीं सिद्ध होता है ।

29. पीव न पावे बावर = इस तरह बनावटी ढोंग से अपने स्वामी को नहीं प्राप्त किया जा सकता ।

31. तहँ न सँवारे आपको = उस निर्द्वन्द्व आत्मा की प्राप्ति की ओर अपने को क्यों नहीं तत्पर करता ।

32. सुध-बुध = सीधे साधे, भोले । धिजाइ = विश्वास में ला । माला संकल बाहि = माला रूपी सांकल उनके गले में डाल ।

34. दर्शन सौं = केवल रूप बनाने से । परसन = प्रसन्न । बेली तीर = संसार के चक्कर में ।

35. आपा देख दिखाय = अपने बनावटी भेष को स्वयं देख राजी होता है तथा औरों को दिखा उन्हें धोखा देने का प्रयास करता है ।

36. जे निज देखै माँहिं = जो अपने में अपने को प्राप्त करते हैं।

37. अस्थूल = शरीर को । सूक्षम सहज = सूक्ष्म वास्तविक आत्मा ।

39. परिख = परीक्षा, जानकारी । सराफ = जाँच । ऊपल = ऊपरी, बाहरी । खोटा खाँहिं = धोखा खाते, ठगे जाते ।

41. भावै = चाहे । करवत ऊध्र्व मुख = काशी करवट लेना ।

43. लेयगा = स्वीकार करेगा ।

44. जो कोई मुख से कहता है उस पर ईश्वर ध्यान नहीं देता, किन्तु जो उसके हृदय में हो, उस पर ध्यान देता है ।

45. सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजे आन = उस एक ईश्वर की आराधना को छोड़ जो विविध दिखावटी, तप, भजन, पूजा, त्याग, भेष आदि किये जाते हैं , वे रूप दिखाने की चतुराई मात्र हैं।

48. भावार्थ = ईश्वर का अनन्य अनुराग है, वही करामात है, विरहयुक्त साधक ही दरवेश साधु हैं सन्तोष है वही सिक्का बाना है, जो कलन रहित वासना मोह से निकले हुए महात्मा हैं वे ही पीर = गुरु स्थानीय हैं , उन्हीं का कथन है वह सच्चा उपदेश है ।

। इति भेष का अंग सम्पूर्ण ।

अथ साधु का अंग

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2. निराकार = रूप रहित । सेव = आराधना कर ।

4. संतोषिये = सन्तुष्ट करिये । मांहीं = उनमें। आप = स्वयं परमेश्वर ।

5. भव जल = संसार सागर । बोहिथ = जहाज ।

8. परसे = सहवास में आये ।

9. वनराइ = उपवन, जंगल । बास = गन्ध ।

11. पखाले = धोवे ।

12. त्रिविध = आध्यात्मिक, आधि-भौतिक, आधि-दैविक । ताप = सन्ताप ।

13. बहिया = बहता हुआ । लहरि तरंग = विषयवासना व तृष्णा की तरंगों में । भेरे = नौका । ऊबरे = बचे ।

14. नेड़ा = समीप, अपने ही भीतर ।

16. साबित सन्मुख सोइ = निश्चल अखंड वृत्ति से आत्मा के आराधन में लगने से ।

18. पसाव = अतिकृपा ।

21. प्यास = तीव्रचाह । अविगत = बेहिसाब । पुरवे = पूरी करे ।

22. आनँद मूर = आनन्द का, प्रसन्नता का मूल ।

23. सुरति रस पान = सुरति वृत्ति की स्वस्वरूप में स्थिरताजन्य आनन्द रस पान करे ।

24. सो जन मिलवो आय = ऐसे महात्मा पुरुष आकर मिले ।

26. आन कथा = संसार के सुखभोग की प्रवृत्ति वाला उपदेश । दई = विधता ।

27. जे तुमहि मिलवे आइ = जो महात्मा अपने सहवास से आप-परमेश्वर की प्राप्ति करा सकें।

28. दरवो = करुणा करे, दया करे । दिन प्रति = नित्य-नित्य ।

29. सपीड़ा = पीड़ासहित, विरहयुक्त । मीरां = सबसे महान् ।

30. घट बध = कम ज्यादा । शुध = निर्मल । परसे = मिलै ।

32. ब्रह्म गाइ = व्यापक चेतन है वही गाय है । अस्थन = स्तन । आन = और स्थान पर ।

34. कलाप = तड़फैं।

35. सीझे = सार्थक । शुद्ध = सीध, वास्तविक ।

36. नेड़ा = समीप । अविगत = अवर्णनीय । आराध = आराधना, उपासना ।

37. सर्ग न = न तो स्वर्ग में । चन्द न = न चन्द्रमा के पास ।

38. हेम = हिम, बर्फ ।

42-43. इन दो साखियों में सच्चे साधु का वर्णन है । दरिया = समुद्र । समरथ = शक्तिशाली । मन मस्तक धरिया = मन के चांचल्यरूप मस्तक को काबू में कर लिया । सरिया = सिद्ध हो गया ।

45. सिजदा = नमस्कार, नमन । जम = धरती ।

48. खूटे = खतम, उड़े ।

50. सवारथ = स्वार्थ, अपने मतलब को ।

52. जाती देखी आतमा = संसार के विषय वासना में बहती हुई । टेरे = बुलावे ।

55. शिर नहिं लेवे भार = अपने में कुछ करने का अहंकार न आने दे ।

56. परमारथ को राखिए = परमारथ करने की प्रवृत्ति न छोड़िए ।

57. मैं मेरा मन माँहिं = जब मैं अपने अहंकार की बुद्धि मौजूद है तो उस दशा में सब सुकृत किया हुआ निष्फल जाता है ।

58. नदी पूर पूर आय = संसार के विषय-प्रवाह रूप नदी पर आकर तलाश करिए । संजीवनि साम्हा चढे = जो आत्मसेवी साधक हैं वे ही उस प्रवाह में स्थिर रहते हैं।

59. मणि बसे = आत्म प्राप्ति रूप मणि जिनको प्राप्त हैं।

65. जलत = संताप से तपी हुई । बलत = क्रोध से दग्ध ।

67. असाधु = दुष्ट, असज्जन । अंतर पड़े = भेद, विपरीत भाव ।

68. अम = अमृत । विष फल = संसार के भोगों की मलिन वासना ।

69. शाकत = स्त्रीवशवर्ती । बैसतां = बैठतां। काया तैं = अन्तःकरण से ।

70. दुहाग = पतिरहित, स्वामीहीन । सुहाग = पति सहित, सस्वामी ।

71. हम देखतां = हमारे देखते हुए ।

73. सो भ = साधुसमागमी जन ।

74. अन्तर = हृदय में । निरन्तर = सर्वदा, सब काल । clे = निवास करै ।

76. लीला = रचना । आपा पर एकै भया = मै । तैं का भेद निवृत हो एक ही आत्म संबंध की भावना व्याप गई । भरंत = शंकाएँ ।

77. अडोल = अचल, स्थिर ।

78. घर वन मांहीं राखिए = उपर्युक्त ब्रह्मज्योतिमय दीपक जलाने के पश्चात् साधक चाहे घर में रहे चाहे वन में रहे ।

81. सहेत = सहित या अतिहेत से । हेत = परमप्रेम ।

82. दादू आप नशाय = अहंकार उसको सर्वथा दूर कर । नैनहुँ मांहैं राखिए = ज्ञान-विचार के नेत्रों में ।

83. बिहड़े = पलटे बदले । दृढ़ मति = स्थितप्रज्ञ । हीरा एक रस = वृत्तिलय से एक रस, आत्मचिंतनरूपी हीरा । बाँधि = स्थिर कर ।

84. गरथ = संग्रह कर ।

86. संजम = संयम में , शीलव्रत से । पंक = पाप पंक । कर्म = निषिद्ध कर्म ।

87. शून्य सरोवर हंसला = अन्तःकरण रूपी सरोवर में समाधिस्थ हो अपनी वृत्ति को स्थिर रखने वाले साध्क हंस कोई विरले ही हैं।

88. उनहार = समान आकृति, तत्सम ।

89. साधु कहैं ते अंग = जिन लक्षणों को पहुँचे हुए साधुजन बतलाते हैं वे लक्षण साधक में जब तक न घटित हों।

92. ऊपरि एकै अंग = ऊपरी रूप सैन्धव तथा स्फटिक का एकसा हैं इसी तरह ऊपरी ढंग नकली साधक व असली साधक का एक सा हो सकता है ।

94. जग = वर्णाश्रम अभिमानी, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू धर्माभिमानी ।

95. उस देश का = ब्रह्म या समाधिदेश का । प्रीतम = प्रिय, आत्मस्वरूप ।

97. नीर = निर्मल नामरूप ।

98. दत्ता = परम धन । दरबार का = भगवत समारोह का ।

99. मिलवहु = मिलाइये । आणि = लाय । काणि = उपेक्षा, लापरवाही ।

100. छांटा अमी का = तत्वोपदेश । बाहै आणि = लाकर डाले ।

103. मृत्ताक = वासना में लिप्त, मृतवत् । सुध रस = नामचिन्तनरूपी अमृत । आणि कर = लाय कर ।

104. हरि जल वर्षे = आत्मचिन्तन के आनन्द रस की वर्षा होने पर । बाहिरा = तेज हवा से, वासनारूपी बवंडर से । सूखे काया खेत = सूखा हुआ यह नर जन्मरूपी खेत ।

110. बटपारे = बाट मारने वाले, धड़ेती, ठग । बारहि बाट = सही मार्ग छुडायेंगे ।

111. मत और = दूसरा विचार है, उसकी चाह संसारी पदार्थों की है ।

112. खरा = सच्चा ।

113. सकल साधु = ये सब सच्चे साधु-साधक हैं।

117. एता = इतना । अविगत = बेलेखे ।

120. मिंता = मित्र । उत्ताम = श्रेष्ठ, अतिपवित्र ।

121. काचा = अस्थिर, बार-बार बदलने वाला । कंचन सार = एक रस निर्मल स्थिर ।

122. काया = शरीर के । कर्म = निकृष्ट कर्मजन्य पाप ।

123. मन में मैला होय = जब तक मन शुद्ध नहीं है उसमें वासना तृष्णा का मैल है, तब तक तीर्थस्नान का कोई फल नहीं है ।

124. सुमिरण = नामचिन्तन । संगति साध = आध्यात्मिक जनों का संग । दूजा सब = और सब भौतिक व काम्य कर्म । अपराध = पाप, कसूर ।

। इति साधु का अंग सम्पूर्ण ।

अथ मध्य का अंग

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3. दोन्याें = वासना तथा अहंकार । प्रेम रस = अनन्यभावमय श्रद्ध ।

4. मति-मोट = स्थिरवृत्ति, मति श्रेष्ठ । पख = पक्ष, द्वैतभाव रहित ।

5. कछु न कहावे = किसी प्रकार के आपे अहंकार का अनुबन्ध न रहे । काहू संग = किसी विषय प्रवृत्ति में प्रवृत्ता न हो ।

6. सो मन = वही शुद्ध मन है । सब पूरण = सब प्राप्ति की ।

7. ना हम छाडैं ना गहैं = विविध सपक्ष धर्म है महात्मा उनको न तो ग्रहण करते न छोड़ते तटस्थ वृत्ति से रहते हैं। अथवा-सन्त साधक स्वरूप-चिन्तन व अद्वैतभावना त्यागते नहीं , मायिक पदार्थ व सकाम कर्ममय उपासना को ग्रहण नहीं करते ।

8. आपा मेटे मृत्तिका = स्थूल देह से सम्बन्ध रखने वाले मन से सम्बन्ध रखने वाले अहंकार का निवारण करें। आपा धरे अकास = आकाशवत् शून्य ब्रह्म का व्यापक रूप उसके ध्यान का आपा धरण करे । द्वै = द्वैत, पक्षपात ।

9. इस आकार = इस स्थूल शरीर से । सूक्षम लोक = लिंग शरीर । और है = कारण शरीर । तहँवां = उस जगह ।

10. हद्द छाद्द बेहय में = जाति, वर्ण, आश्रम, सपक्ष धर्म, पन्थ आदि का दायरा त्याग दिया वही निष्पक्ष दशा है । निर्भय निर्पख होय = निष्पक्ष दशा में पहुँचने से ही कालादि भय का निवारण होता है ।

11. निराधर = पक्षरहित । घर = वृत्तिका निवास । विश्वास = अनन्य श्रद्ध में ।

12. अधर = गुणों से रहित । चाल = साधना । आसंध = अपनाई, स्वीकारी । डाके मृग ज्यों = मृग की तरह उनकी चाल का पूरी साधना बिना अनुकरण करते हैं वे उछाल मारते हैं।

13. रहणि = साधना । अधर = त्रिगुण रहित ब्रह्म । झंपे = पकड़े ।

14. निराधर = निर्वासी, आश्रय रहित । निज भक्ति = पराभक्ति ।

15. निराधर = निश्चल वृत्ति । निज = स्वस्वरूप । निराधर निर्मल = वासना अहंकार रहित शुद्ध अन्तःकरण ।

18. तहँ = निर्विकल्प समाधि अवस्था में ।

19. गम नहीं = पहुँच नहीं । सहजैं = सहज दशा, त्रिगुणातीत अवस्था ।

20. व्यापै = आवै, प्रतीत । घर पूर = अन्तःकरण अविनाशी चेतन से परिपूर्णहो ।

21. जम जौरा = मृत्यु का बल ।

22. एक देश = ब्रह्मदेश ।

23. बस्त = वासना विकार का फैलाव । ऊजड़ = तमोजन्य जड़ता ।

24. नहिं नेड़े नाहिं दूर = अज्ञान अवस्था में समीप नहीं , परिपक्व ज्ञानावस्था में दूर नहीं ।

25. निश दिन नांही घाम = कालकर्मजन्य दिन रात नहीं , वासनाजन्य घाम = तपत नहीं ।

26. नीपजे = उत्पन्न हो, फलदायी हो । तहाँ = निर्विकल्प समाधि दशा । सूखा ना पड़े = अनात्म पदार्थों की चाहरूपकाल जहाँ नहीं पड़ता ।

27. तहाँ = आत्मनिष्ठवृत्तिकाल में ।

29. वन ज्यों = उदासीन अवस्था में ।

30. जग = संसार की भोगवासना । एकला = जुदा । देह = शुद्ध अन्तःकरण में ।

34. सालै = गडै, खटकै ।

37. दोन्यों = हिन्दू-मुसलमान, शैव-वैष्णव । निज बाट = सहज पथ । औघट घाट = राजस तामस वृत्तिसमूहजन्य ऊबड़-खाबड़ अवस्था ।

39. द्वै पख तैं न्यारा = ब्रह्म और सन्त ये दोनों पखापखी से रहित रहते हैं। रहिता गुण आकार का = नामरूप गुण से रहित ।

40. बाण = आदत, अभ्यास । सिरजिया = पैदा किया, व्यक्त किया ।

41. यहु सन्तों की रह और = यह सन्त साधकों का मध्यम मार्ग स्वतंत्र है ।

44. तहाँ = उस व्यापक शुद्ध स्वरूप में । रह रीति = किसी मतवाद की वहाँ पद्धति या चलन नहीं है ।

45. दोनों हाथी ह्नै रहे = पखधर्मी हिन्दू-मुसलमान, शैव-वैष्णव आदि हाथी की तरह भेदवादी होकर लड़ते हैं। आपा = पखधर्म का अहंकार ।

46. भावार्थ = दादूजी कहते हैं मेरे निष्पक्ष विचार व व्यवहार को देख दोनों हिन्दू-मुसलमान भयभीत व उत्तोजित हो रहे हैं।

47. जाणे-बूझे = जानते देखते समझते हैं। चाल नहीं = साच को ग्रहण करने की पद्धति नहीं ।

54. द्वै पख = भेदभाव वाले धर्म ।

55. दादू तज संसार सब = संसार के विविध मतवाद वाले धर्म त्याग दें अथवा संसार के विविध अनात्म पदार्थों की चाह का सबका परित्याग कर दे ।

56. कलियुग कूकर कलमुँहां = मायिक पदार्थों की वासना की प्रधनतारूपी कलियुग श्वानवत् है । उठ उठ लागे धय = वे वासनाएँ विफल होते हुए भी पुनः-पुनः उत्पन्न हो प्राणी को प्रवृत्ता करती हैं ; लगती हैं।

57. संसार का = संसारी मनुष्यों का, विचार वृत्तिहीन मनुष्यों का ।

58. भावहीन = वास्तविक विचाररहित । बिहूणा = विहीन, रहित ।

60. काल से बचने के लिए सदा परमात्मा के सुमिरण में लगा रहे संसार के झगड़ों की आग से बचने के निमित्ता चुप रहे या कहे कि मैं नहीं जानता या हाँ में हाँ मिला दे ।

61. पंथ चलैं ते प्राणिया = जो विभिन्न पन्थों में आसक्त हैं वे सामान्य प्राणी हैं बन्धन वाले जीव हैं। तेता कुल व्यवहार = जितने पन्थ उतने ही विभिन्न व्यवहार होते हैं।

। इति मध्य का अंग सम्पूर्ण ।

अथ सारग्राही का अंग

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3. विष में अमृत काढले = संसार के मायिक पदार्थ विषमय है । उनकी प्रवृत्ति छोड़ संसार की समष्टि में समत्वभावरूपी सार अमृत ग्रहण करें।

5. आपै आप = अपनी ही साधना से, अन्तःकरण की निर्मलता से । प्रकाशिया = व्यक्त हुआ ।

6. साधु हंस बिन = आत्मसिद्धिसाधना वाले हंस रूपी साधु के सहवास बिना । भेल सभेले जाय = संसार के चालू प्रवाह में सकाम कर्म सपक्ष भक्ति में हिलता-मिलता चला जाता है ।

7. मन हंसा = निर्मल शुद्ध हंस मन । मोती चुणे = नामपरिचय रूप मोती चुगता है । कंकर = संसार के नाशवान पदार्थरूपी कंकर ।

8. मानसरोवर = सत्संग । बगुला = कपटी, ध्यानी । छीलर = तलैयारूपी कुसंग । मछल = विषय भोग ।

9. काग = कामीजन । करंकां = तुच्छ भोग, निस्सार सूखी खाल ।

10. परखिए = पहिचानिए । उत्ताम करण = सच्ची साधना से ।

11. उज्ज्वल करण = आध्यात्मिक प्रवृत्ति । मैली करण = विषयप्रवृत्ति । मध्यम = नीची । उत्ताम = श्रेष्ठ । भाग = भाग्य ।

12. मैली मध्यम ह्नै गये = मैली करणी वाले मध्यम हो गये । निर्मल करणी वाले सिरजनहार को प्राप्त हुए ।

13. जाति = कुल जाति ।

14. चारों लोचन अन्ध = अत्यन्त मूर्ख । श्रुति, स्मृति और दो चर्मचक्षु, यह चार लोचन कहलाते हैं।

15. गऊ बच्छ का ज्ञान गह = गऊ बच्छ के उदाहरण से सार-पदार्थ ग्रहण करने की ही ओर लगना ।

16. इहिँ विधि = आत्मचिन्तन रूप साधना से ।

17. लोगन सौं मन ऊपल = सांसारिक पुरुषों से ऊपरी व्यवहार तक ही सीमित रहे । मन की मन ही माँहिं = अपनी अन्तरभावना जो आत्मा की ओर लगी है उसको वैसे ही बनाये रहना ।

20. तब द्वन्द्वर दूर नशाय = कामादि द्वन्द्व, वासना अहंकरादि सब दूर हो जाते हैं। बोहिथ = जहाज पर । डूँडे = डोंगी ।

21. परम पदारथ = आत्मपरिचय । कूड़ा काच = झूठा काँच = संसार ।

22. जीवन मूर = जीवन जड़ी । बिसाहि = चाहे ।

23. छीलर = छोटी तलाई ।

24. दिनकर = ज्ञान भानु । निश = अज्ञान अन्धकार । एकै द्वै नहिं = एक ही व्यापक सत्य वस्तु है । द्वै नहिं = दूसरा असत्य संसार नहीं है ।

। इति सारग्राही का अंग सम्पूर्ण ।

अथ विचार का अंग

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3. प्रतिबिम्ब = चिदाभास, प्रतिछाया । ऐसे आतम राम है = ऐसे ही सब जीवों के अन्तःकरण में प्रभु व्यापत है ।

4. दर्पण बिन सूझे नहीं = यदि अन्तःकरण न हो तो संसार भी प्रतीत नहीं होता, जैसे दर्पणरूपी उपाधि बिना प्रतिबिम्ब भाव नहीं होता ।

5. जीये = जैसे । क्षीर = दूध । ईये = ऐसे । रुहन्न = सब प्राणियों में ।

6. जेरो = प्रकाश । सूर = सूर्य । ठंढो = ठंडक, शीतलता । बसन्न = बसती है ।

8. मीत = प्रभु । कने = साथ । पिछाणि = पहचानना ।

12. व्याधि = विषय विकार जनित रोग । गँवार = अज्ञानी ।

13. सब शरीरों में दो निर्गुण और सगुण ज्ञान हैं। सगुण माया रूप काया है और निर्गुण आत्मा ब्रह्म समान है ।

14. तऊ न = तब भी ।

16. कायालोक असंख्य है जिनमें काम, क्रोध्, पाप, पुण्यादि भरे हैं। जिस योनि में जीव जाता है तहाँ वो उसके संग जाते हैं।

17. काया = शरीर । योद्ध = कामक्रोधदि प्रबल शक्तिशाली । दुस्तर = अलंघनीय ।

18. मोटी माया = घर-सम्पत्ति आदि ।

20. गुणातीत = जिसने विविध गुणों के सब धर्म त्याग दिये । सो दर्शन = वह दर्शन के योग्य महात्मा है । डोरी लागा जाय = वृत्ति के आत्मानुबन्धी अभ्यास रूप डोरी से लक्ष्य स्थान तक चला जाता है ।

21. स्थूल शरीर की मुक्ति भोजन छाजन द्वारा सब कोई कर लेता है परन्तु उससे लिंग शरीर की मुक्ति नहीं होती । यह मुक्ति यथार्थ ज्ञान से कोई बिरला ही सद्गुरु देता है ।

22. क्षुध = भूख । तृषा = प्यास । शीत तप्त = देह गुण ।

23. संसार के मायिक पदार्थों में से मन को अलग कर अपने मन को स्वरूप में स्थिर करे ।

25. दर्पण देह = दर्पण के समान अन्तःकरण स्वच्छ होता जाय ।

27. काल झाल = काल की ज्वाला ।

28. काया की संगति = काया का अध्यास ।

30. आत्मनिष्ठ साधक को ना तो तलवार की धर और ना ही विष मार सकता है और ना ही उसमें गुण व्याप्त सकता है ।

31. पसरे नहीं = भोग विषयों की ओर प्रवृत्ता न हो ।

32. अहनिश = सर्वकाल ।

33. मैं नांहीं = अहंकार नहीं ।

34. जब अहंभाव मेरा, तेरा मन से मिट गया, तब जीव सर्व में अपने आप को और अपने में सर्वस्व देखता है ।

35. गुरुमुख ज्ञान अलेख = अलेख अगोचर आत्मा का ज्ञान गुरु उपदेश से समझा । ऊध्र्व कमल में = विशुद्ध हृदय प्रदेश में । आरस = चिदाभास । फिर कर = पलट कर । आपा देख = स्वयं को देख ।

37. जिहिं बरियाँ = जिस समय । यहु सब भया = माया अविद्या का विस्तार हुआ ।

38. ले कर लाइये = मन को अन्तर्मुखकर कर वृत्ति सहित आत्मनिष्ठ करिये ।

40. विषम सुख में दु:ख बहुत हैं , तपादिक में जो दु:ख होता है उसका परिणाम सुख है ।

43. प्राणि = मन में भली प्रकार । पग दीजे = प्रवृत्ता हुइउ ।

44. घाली हाथ = कर्म में प्रवृत्ता हो ।

46. पीछे आवे-जाय = विचार द्वारा सम्यक् समझ लेने पर ही किसी काम में लगा जाय या नहीं यह निश्चय करना ।

। इति विचार का अंग सम्पूर्ण ।

अथ विश्वास का अंग

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4. करण करावण = करने वाला, कराने वाला ।

6. सब सृष्ट = सब जड़-चेतनमय दृश्य-अदृश्य । सिरज = रच, व्यक्त ।

7. करत है = पूर्ति करता है, सँभाल करता है । मिन्त = प्यारा मित्र है ।

8. साहिब का विश्वास = उसी अपने आधर ही का भरोसा रखे ।

12. पूरक पूरा = सब तरह से पूरा करने वाला । हुसियार = सावधन है ।

15. ऊध्र्व मुख क्षीर = माता के पेट में ।

16. कठिन स्थान में जहाँ शरीर को पीड़ा होती है वहाँ । वह परमेश्वर ही साथ रहता है । उस प्रभु से प्रीति और उसका नाम स्मरण करता रह ।

17. भावाथर्र् = जिसने ऑंख, बाणी, कान, सिर, हाथ-पैर दिये हैं इन सबसे उसी को याद कर उसी की सेवा कर ।

18. भान = तोड़, भंग कर । हदीस = मर्यादा ।

19. जनि बीसरे = मत भूले ।

20. राजिक = रोजी देने वाला । रिजक = काम, दाम ।

21. हिरदै = हृदय, शुद्ध मन ।

22. परमात्मा सब जीवों को सेवक की भाँति सभी सुख देता है परन्तु जीव ऐसा मूर्ख है कि प्रभु का नाम भी नहीं लेता ।

24. अनूपम = उपमा रहित । रीत = पद्धति । अतीत = अतिलघु ।

26. छाजन = छाने को, ढकने को । कांइ करेय = क्या करेगा ।

27. टूका = टुकड़ा । मृतक भोजन = याचना से प्राप्त । गुरुमुख = गुरु की आज्ञा मानने वाला ।

28. जितने पदार्थ शरीर के निर्वाह के लिए जरूरी है । उनको ग्रहण करे, जो कुछ परमात्मा के बीच अंतरा डाले, सो सब त्याग दे ।

29. जल, भोजन सभी वस्तुएँ परमेश्वर की उत्पन्न की हुई है । यही समझ कर इनका उपयोग करे ।

31. सीध = बनकर तैयार भोजन ।

32. लोई = सब लोग ।

33. दहणि = सन्ताप, चिन्ता । बोरे = भोले ।

35. मुरदा ह्नै मिस्कीन = दृढ़ता से अहंकार रहित हो ।

36. मर्महि = असली जगह ।

37. खिरा = बिखरा ।

39. अणबाँछ = बिनाचाही । अजगैब = अनायास । गगन गिरास = आकाशवृत्ति से प्राप्त । सत कर = सोच-समझ कर ।

40. मीठे का = ईश्वर पर विश्वास करने वाले का ।

42. निकट निधि = सब सम्पत्ति अपने पास होते हुए भी ।

44. जो होना था वो हो रहा है स्वर्ग की चाह नहीं करनी और नरक से डरना नहीं चाहिए जो नियत हो गया वो होकर रहेगा ।

48. शिर लेह = अपने जिम्मे क्यों ले ।

49. ज्यों जाणौं = जैसा मुझे समझो । डाल = भरोसे रखी । अनत = और जगह ।

50. तुम भावे = तुम्हें अच्छा लगे ।

53. सदेह = देह सहित, साक्षात् ।

54. पोष्या = पालन-पोषण ।

55. पंच इन्द्रियाँ और मतवाला मन एक राम भजन से शान्त किये ।

57. हे प्रभु हमें सत्य, सन्तोष, भाव, भक्ति और विश्वास दें। सिदक, सब्र दे । यही यह दादू दास आपसे माँगता है ।

अथ पीव पहचान का अंग

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3. लालों = रत्नों में श्रेष्ठ रत्न । शिर खूब = सब श्रेष्ठताओं में श्रेष्ठ । शिर पाक = पवित्रओं में परम पवित्र । महबूब = प्यारा मित्र ।

4. एक तत्व ता ऊपरि = एक ब्रह्म जिसके आसरे इतनी सृष्टि है ।

5. तास घर बन्दा = उसी स्वामी के हम सेवक हैं।

6. कर धर = बनाई, व्यक्त की । थम्भ बिन = बिना किसी अन्य स्थूल आश्रयके ।

9. बर वरहूँ = उसी स्वामी को मैं स्वीकार करूँगा ।

10. शोध ले = तलाश कर ले, खोज कर ले ।

12. जीव = साभास अन्तःकरण । साहिब = ब्रह्म ।

13. उठे न बैसे = उत्थान जड़ता रहित । जागे सोवे नाँहिं = जागृत सुषुप्ति से अनावृत । उपज खपे = उत्पन्न विलय ।

15. कृत्रिम = बनाया हुआ ।

17. संसार जो वास्तव में है नहीं सो उपजता सा प्रतीत होता है ब्रह्म वस्तु है सो उपजता नहीं , जो कुछ दृश्य जगत् दिखाई दे रहा है, वह सब माया जन्यहै ।

21. जात = पूज्य । सिफात = पूज्क । असाह = अविद्या आवृत जीव । सिजदा = पूजा ।

22. सदई = सत्य रूप ।

23. अविनाश = कालातीत । जेता कहिए काल मुख = जो विनाशी हैं वे कर्त्ता नहीं कहे जा सकते ।

24. निरंजन = मायारहित । सब आकार = नामरूपवाली सब वस्तुएँ ।

25. राम रटणि = नाम चिन्तन । लै = लय वृत्ति में लगा हुआ । कला कोटि दिखलाय = माया के पदार्थ चाहे जितना आकर्षण करें उनकी आसक्ति में प्रवृत्ता न हो ।

26. उरैंह = सांसारिक भोगों में ही । विलसे = भोगे । अघाय = परिपूर्ण हो ।

28. सेज सुहाग न देह = हृदय में अपनी स्थिति रूप सौभाग्य प्रदान न कर । बाहै = बहकावे । कह दूजा सब लेइ = नाना प्रकार के मायिक पदार्थों की चाह जगाकर ।

29. लोहा = मानव जीवन । माटी मिल रह्या = सांसारिक विषय-वस्तुओं में फँस कर नष्ट हो रहा है ।

31. परसे = मिले । पलटे = बदले । निज कर लेह = अपना लक्ष्य कर ले ।

32. दह दिशि = दसों दिशाओं में । राखणहारा = जीवित रखने वाला । देखणहारा = देखने वाला ।

। इति पीव पहचान का अंग सम्पूर्ण ।

अथ समर्थता का अंग

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2. निमष = पल में ।

3. को मेटे फरमान = उसकी आज्ञा को कौन मेट सकता है ।

4. थल थाप = भूमि की स्थापना कर दे । जलहर = समुद्र ।

5. ठाल = रीते, खाली ।

6. निश ऍंधियार = काली रात को ।

7. काढ = निकाल । अविगत गति = उस बिना विवरण वाले की गति को ।

8. गुप्त = छिपे हुए ।

9. सोइ सही साबित हुआ = वही सकल परिपूर्ण कामना वाला हो जाता है । निवाजे = कृपा करे, पाले, प्रसन्न होवे ।

10. सब ही मारग = साधना के योगादि सभी रास्ते ।

12. औराँ चित्ता न लाउँ = और जो संसार के अनित्य पदार्थ हैं उनको चित्ता में स्थान नहीं देता ।

13. मारग महर का = उसकी दया का मार्ग मिलते ही । अपणे लिये बुलाय = अपनी ओर लगे हुए को अपना लिया ।

14. चिन्तवै = विचारे, चाहे । औरै करि जाय = जो कुछ और ही कर जाता है वही सच्चा कर्ता है ।

15. भावार्थ = एक को अपनी ओर प्रवृत्ता कर अपने में मिला लेता है, एक को अपने पक्ष से हटा संसार के मायिक पदार्थों की ओर लगा देता है ।

18. हुक्म = आज्ञा में चलने वाला । बन्दा = सेवक । सारा = बस ।

20. खंड-खंड = नौ खंडों में । परकाश है = उसकी ही ज्योति है । तूर = शब्द ।

23. दूजा क्यों कहै = आत्मचिन्तन को त्याग कर किसी दूसरी ओर क्यों लगा जाय । बीसरे = भूले ।

25. घट में लहर उठाय = मानव के हृदय में प्रेरणा पैदा करके ।

27. परचा = चमत्कार ।

29. सेर = रास्ता । समझाइने = समझाइए । अण करता = निख्रलप्त ।

32. लिपे = लिप्त न हो । सब करे = जिसके आश्रय ही सबकी अभिव्यक्तिहै ।

33. व्यापे = सब में समाया रहे ।

36. पंचों का रस नाद है = भूतोत्पत्ति में पंचभूतों में प्रथम आकाश है ।

37. पंच ऊपना = पंचभूत व्यक्त हुए । शब्द तैं = आकाश से । शब्द पंच सौं होइ = पंचीकृत पंच तत्वों से ही आकाश उत्पन्न होता है ।

38. है तो रत = अस्तित्व है तो उसी का है । हुक्मैं = संकल्प मात्र से, आशा से ही ।

39. निज तत न्यारा ना किया = दृश्यमान सब पदार्थों से आप न्यारा है उसको किसी ने किया नहीं है ।

40. नहीं = जो किया हुआ नहीं । तहाँ ते सब किया = वहीं से उसी के आश्रय सब कुछ होता है ।

41. खालिक = संसार का मालिक ।

42. लेवे की कुछ नाँहिं = लेने जैसी किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है ।

। इति समर्थता का अंग सम्पूर्ण ।

अथ शब्द का अंग

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2. सब ऊपजे = सब भौतिक सामग्री की उत्पत्ति-अभिव्यक्ति आकाश में है, विलय भी सबका आकाश में है ।

4. शब्दैं ही सुस्थिर भया = नामचिन्तन साधना द्वारा वृत्ति स्थिर कर वृत्ति का विलय कर सूक्ष्म में मिलता है । सहज = निर्द्वन्द्व ।

5. मुक्ता भया = संसार के बन्धन से रहित । शब्दैं ही सूझे सबै = गुरु उपदेश शब्द द्वारा ही सत्य मिथ्या सब सूझने लगता है ।

8. ओंकार = त्रिगुणात्मक प्रकृति रूप, त्रिवर्णात्मक प्रणव शब्द । आप तैं = अपने आधर से । पंच तत्व आकार = पंचभूत ।

15. शब्द जरे = शब्द में वृत्ति को तदू्रप कर ले । कायर = विषयी । मांडे = रोषे । शूरा = दृढ़ साधक ।

16. शब्द विचारे = गुरु उपदेश के शब्द का श्रवण मनन करे । करणी करे = तदनुरूप साधना में लगे । काया मांह = शुद्ध अन्तःकरण में । शोधे सार = मूल तत्व प्राप्त करे ।

17. जे पैके सीझे काम = बिना पाई खर्चे कार्य सिद्ध हो ।

19. कमल विगासे होइ = हृदय कमल आत्मानुभूति होने पर प्रफुल्लित होती है ।

20. भुरक = सिद्धिकारक चुटकी ।

21. शब्द कहै गुरुज्ञान = गुरु के उपदेशमय शब्द हैं वे ही सत्यज्ञान के बताने वाले हैं।

22. शब्दों मांहीं = गुरु उपदेश के वाक्यों में ।

23. पारिख = परीक्षक, साधक जिज्ञासु ।

। इति शब्द का अंग सम्पूर्ण ।

अथ जीवित मृतक का अंग

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3. सांई कारण शिर सहै = सर्व में एक परमात्मा को अवलोकन करता हुआ शब्दापिशब्द सुखदु:खादि को सहन करे ।

4. माटी मिल रहै = मिट्टी की तरह सब तरह के आपे निकाल दे । पहली मर रहै = साधन काल में ही अहंकार रहित हो वासना रहित हो ।

5. जाति, वर्ण, विद्या, रूप, बल, धन इन सबके अहंकार को छोड़ गरीब = निरभिमानता ग्रहण कर आत्मप्राप्ति की साधना में लगे ।

10. मरजीवा = अहंकार त्याग आत्मस्वरूप का परिचय प्राप्त करे ।

11. मेरा वैरी मैं मुवा = सबसे प्रबल शत्रु अपना अहंकार है । मैं ही मुझको मारता = अहंकार है वही जन्म-मृत्यु का कारण है, अहंकार से राग-द्वेष, राग-द्वेष से पाप-पुण्य, पाप-पुण्य फलभोग के लिए जन्म-मृत्यु ।

12. वैर = काम क्रोध मन इंद्रियादिक । इनको मार भी ले, पर जितने काल इनके मार लेने का अभिमान फुरता है तब तक मन में दु:ख अवश्य रहता है ।

13. आप = अहंकार ।

14. आपा = ममभाव । इसकी उत्पत्ति स्फुरित ब्रह्म से है, सो आदि सत्ता ब्रह्म को सहज रूप चिद्द ले ।

15. मैं मेरा सब खोय = अहंकार और ममत्व का अध्यास दूर कर ।

16. मैं ही मेरे पोट शिर = अपना अहंकार ही नाना प्रकार के दु:खों की पोट सिर पर लेने का कारण है । गुरु परसाद = सद्गुरु के उपदेश से ।

17. मेरे आगे मैं खड़ा = अपने अन्तःकरण में छिदाभास के आड़ा अपना अहंकार आया हुआ है ।

18. जीवित मृतक = अभिमान रहित हो । मारग मां हैं = आत्मपरिचय प्राप्ति के रास्ते पर आव ।

19. खरा दुहेला जाण = सही और कठिन है । नीशाण = लक्ष्यपर ।

20. बापुरा = शरीर वाला ।

21. लंघे औघट घाट = रज तममय वृत्तिजन्य ऊबड़-खाबड़ घाट को पार करजाय ।

30. मना मनी सब ले रहे = वासना तथा अहंकार सब लिये हुए है । मन = अहंकार ।

31. मैं मैं = वासना और अहंकार ।

32. दादू खोई आपण = अपना मन खत्म कर दिया । लज्जा कुल की कार = जाति वर्णकुलाभिमान त्यागा ।

33. मैं आइ = अहंकार आया । तब दोय = तब भेदवृत्ति द्वैत भावना होती है ।

34. बन्दों का बन्दा = परमात्मा के साधकों का सेवक ।

35. सीख्यों = केवल सीख से, कहने से । जब लग आप न खोय = जब तक सब तरह का अभिमान नष्ट न हो जाय ।

36. गत भया = सफल हुआ । आपा पर = अहंकार तथा भेदवृत्ति ।

38. तन-मन को अपने बस किये बिना और राम में लय लगाये बिना, जीव के दु:खों का नाश नहीं होता ।

39. तन-मन को बार-बार निग्रह करने से आत्मतत्व का प्रकाश होता है ।

40. मर्दै = मर्दन करे । काढे जन्त्र में = त्याग और निरभिमानता की कसौटी में से निकालता रहे ।

41. भावार्थ = वासना का मूल काट देने पर भी उसको काटते ही रहना दग्ध किये हुए अहंकार को पुनरपिदग्ध करते रहना वासना और अहंकार रूपी पानी अन्तःकरण में न आने देंगे तभी आत्मपरिचय-प्राप्तिरूप तरवर देगा ।

42. सबको संकट एक दिन = अनात्म पदार्थ जितने हैं सबको एक दिन नष्ट होना होगा ।

43. जीवत मृतक ऐसा होय कि माता-पितादि सब जन उससे विरक्त हो जाय और सब कहने लगे निकलो-निकलो और निकालने के बाद आपको याद भी कोई न करे ।

44. सारा गहला ह्नै रहै = अपने आत्मचिन्तन में पूरा सावधन और संसार के पदार्थों से उदासीन होकर रहे ।

47. मोटा मीर = बड़ा महात्मा । दुहेला = कठिन ।

48. दूजा धंध बाद = मायिक पदार्थों की प्राप्ति का प्रयास फालतू है ।

49. सो दीन = वह निरभिमानी साधक सेवक ।

50. हमौं = स्वयं ही ।

51. मांट = पति, स्वामी । द्वै पख दुविध नाँहिं = तब भेद भावना जन्य दुविध नहीं रहेगी ।

। इति जीवित मृतक का अंग सम्पूर्ण ।

अथ शूरातन का अंग

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2. साँचा = दृढ़ निश्चयी साधक । शिर सौं खेल है = अहंकाररूपी मस्तिष्क को काटने का उद्योग करेगा । आसँधे = स्वीकार करे ।

3. सती शूर सम भाय = सती की तरह सर्वस्व होकर, सूर की तरह प्राण देने को उद्यत होकर आत्मचिन्तन की साधना में लगे ।

5. कड़बा कर रहे = अभी तैयारी ही कर रहे हैं। निराला = संसार के बन्धनों से निकला ।

6. मडा = मरा हुआ ।

7. जन्म लगैं = सारा जीवन । नख-शिख = पूरी तरह । धोये अंक = कलंक के अंक धो दिये ।

8. स्वाँग = बनावटी रूप । पोच = डरपोक ।

9. विरह की झाल = विरह की तेज ऑंच में ।

10. सोई सौंपे नारि = पतिव्रता स्त्री की भाँति साधक को भी आत्मसमर्पण करना चाहिए ।

11. मुये मड़े की लार = मरे हुए शरीर के साथ ।

12. मुये मड़े से हेत क्या = मरे हुए से प्रेम स्नेह क्या करना अर्थात् संसार की सब वस्तुएँ नष्ट होने वाली हैं तब उन सबसे प्रेम, लगाव क्यों करना ।

13. सच्चा साधक एक बार प्रभु की साधना में लग जाने के पश्चात् वापसी संसार के माया जाल में पैर नहीं दे सकता ।

16. लालच जीव का = अहंकार सहित अन्तःकरण का लोभ है । काया-माया = शरीर का अध्यास मन की वासना ।

17. चौड़े में = खुले में , भेद रहित निर्मल वृत्ति में ।

18. चौहट चढकर नाच = अन्तःकरण को समष्टि चेतन से मिला वृत्ति में स्वस्वरूप को चढ़ाकर, नाच = अति स्नेह से ध्यान कर ।

21. जूझे = लड़े, संघर्ष करे । खेत में = साधना के मैदान में ।

22. एक पग = दृढ़ निश्चय । तालाबेल = तड़फन-अति विलाप ।

23. अंग न खैंचिये = साधन पथ से विचलित न होइए ।

24. बहुत गया = अति काल चला गया है । मरणा मांड रहु = मरने के लिए तैयार रहो ।

25. जीऊँ का संशय = विषयी पुरुषों का संशय । को काको = कौन किसको ।

26. दिशि धय = आत्मचिन्तन की ओर प्रबल वेग से साधन में लगे । बाहुडे = बदले, फिरे ।

27. साधक सूर आगे आने की पुकार सुनकर आगे ही चलता जाय, पीछे न फिरे, अर्थात् ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख वृत्ति बढ़ती जाय त्यों-त्यों वृत्ति को भीतर ही बढ़ाता जाय, बाह्य विषयों की ओर न उलटने दे ।

28. अगम ठौर = आगम्य स्थान ।

29. पीछा फिरे = पुनः विषय वासना में उलझे । मदीठ = देखने के अयोग्य ।

30. आ रण छाड़े जाय = साधन क्षेत्र का मैदान छोड़ जाता है ।

31. सु मेर उलंघे = वासनाजन्य भोगों का सुमेरू लाँघ जाय । गुण बन्ध्या = गुणों के बन्धनों से । तिणा न टूटे = सामान्य भोग पदार्थ का त्याग भी न हो ।

32. सर्प = काम रूपी साँप । केशरि = क्रोध रूपी सिंह । कुंजर = हाथी । बहु जोध = यह जोध-शूरों के द्वन्द्व पड़े हैं।

33. जब जागे = वासना का जब भी उदय हो । मनसा = वासना । डायण = डाकणी ।

35. काया की कमान से राम नाम का तीर (परमेश्वर) को लक्ष्य करे ।

36. पंचो मिरगला = पंच विषयवृत्ति ।

38. तन-मन = इन्द्रियाँ, अन्तःकरण । करीम = परमात्मा ।

39. ऊरण = ऋण रहित ।

40. चढे = समर्पित ।

42. आरम्भ तज = कल्पना त्याग ।

43. साटे = बदले ।

44. अधर = गुणातीत ।

45. मिलकर मरणा राम सौं = आत्मराम को ज्ञात कर स्वयं को उसी में रमां देना । कलि = संसार ।

46. मरणे थीं = मरने से । मरणा सिरजिया = मरना जो निश्चित किया हुआहै ।

49. मरणा खूब है = वस्तुतः मरना यानी वासना से रहित होना उत्ताम है । निपट = निश्चय ही । व्यभिचार = आत्मा को छोड़कर आन भावना में लगना ।

50. कायर हुआ न छूटिये = कायर बनकर संसार की मायिक वस्तुओं के साथ लग कर अपने लक्ष्य से दूर न होइए ।

52. माँहै = भीतर । जूझ = संघर्ष । भान = तोड़ना ।

54. कसौट = परीक्षा ।

58. अमर झुकेड़े मारिये = मरना ऐसे ही चाहिए जिसमें अमर होना अनिवार्य हो, अर्थात् शरीर की मृत्यु तो होनी ही है फिर क्यों न आत्मानुसंधन में लग, मृत्यु भय से निरत हुआ जाय ।

59. साटे = बदले में ।

60. रिपु = शत्रु ।

61. काया मारण जाँहिं = पंचाग्नि, पंचाधरा, ऊध्र्वबाहु आदि शारीरिक तप द्वारा केवल काया मारने से क्या लाभ?

62. पाखर = कवच ।

63. काछ खड़े = पास खड़े होना ।

64. साँच शेल = सत्यरूपी । शेल = भाला । केते किये सुमार = कितने ही कामादि शत्रु मार गिराये ।

65. जिय = अन्तःकरण में ।

66. सैंतैं = सतावे, दु:खी करे ।

67. महा जोध = सर्वव्यापी परमात्मा ।

68. रहते पहते = राते माते ।

69. काँधे = सहारे । निर्वाहेगा = निभायेगा । ओर = अन्त तक ।

71. वैरी बहुतेरे = काम, क्रोधदि अनेक शत्रु ।

72. बलि = आधर, आश्रय । मीर = महान् । बाव = थोथे हैं।

73. संवाह = सँभाल करेंगे ।

76. जाते जिव तैं = जाते हुए प्राणों से, शरीर से । उपाइया = उत्पन्न किया, पैदा किया । सार करेगा = सहायता करेगा ।

77. पाधरा = सीध, सहायक है । बंका = टेढ़ा ।

78. तती न लागे बाव = गर्म हवा नहीं लगती । पसाव = अनुग्रह, अपनापन ।

81. निर्भय = काल कर्म भयरहित । कुंजर = हस्ती पर । सुनहां = कुत्तो । झख = चिल्ला-चिल्लाकर ।

83. भावार्थ = सच्चे साधक की निन्दा कर-कर अनेक संसारी पुरुष खानवत भौंक-भौंक कर बक-बक कर चले जाते हैं, गरवा = गम्भीर, गुरुमुख = गुरु के उपदेश, मर्यादा में चलने वाला साधक हस्ती की तरह मस्त-मस्त रह उन संसारी पुरुषों की ओर देखता तक नहीं ।

। इति शूरातन का अंग सम्पूर्ण ।

अथ काल का अंग

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2. कन्ध पर = गर्दन पर । चितवे = संकल्प करता रहता है ।

3. बजावै तूर = तुर्रही बजाता रहता, अर्थात् हमें सचेत करता रहता है ।

4. पग धरे = मायिक पदार्थों की चाह करे । तहाँ = उन सब मायिक पदार्थों पर । फन्ध = फन्दा ।

5. काल के ग्रास सभी जन हैं उनकी क्या कहैं , जो कोई काल से बचा हो तो उसकी कहनी चाहिए । सो काल से बचा वही है जो सदा कालरहित परमात्मा के सुमिरन में रत है ।

7. घट काचा = यह शरीर कच्चे मटके की भाँति है । जल भरया = जीवनरूपी जल भरा है ।

8. फूटी काया = शरीर कई जगह से फूटा हुआ है । नव ठाहर = इसके नौ द्वार हैं।

9. बाव भर = श्वास उच्छ्वास वाली । खाल = त्वचामय शरीर ।

10. हम तो = आत्माभिमानी शरीर । मूये माँहिं हैं = मरे हुए की श्रेणी में है । गर्वबा = अभिमान करना । मरंम = मर्म, भेद ।

11. मिरगला = मृग की तरह इन मायिक पदार्थों के पीछे दौड़ रहा है । काल अहेड़ = काल रूप शिकारी इसके पीछे लगा हुआ है ।

12. आपै गह कर दीन्ह = अपने द्वारा पाप-पुण्यमय कर्मों का बन्धन पैदा कर काल के हाथ में दे दिया गया है ।

13. कीट = दीवल की तरह । तन काठ = देहरूपी काठ की ।

14. गिरासे = अपने में मिला ले । लखे न तास = उस काल को कोई लखता नहीं , देखता नहीं ।

15. पग पलक = पैर उठाते, पलक खोलते क्या हो जाय यह पता नहीं।

16. कारव = कच्चे घड़े की तरह ।

17. आसण कुंजर = बैठने को हाथी । शिर छत्र = सिर पर छत्र है ।

19. चाले संग = चेतन के साथ नहीं चल सकती । तऊ = तोभी । भंग = खत्म ।

20. जो जीवात्मा बोलता-सुनता, देखता लेता-देता था वह न मालूम कब किधर निकल गया?

21. सींग = श्वास, सींग का वाद्य जो नाथ रखते हैं। नाद = शब्द ।

25. पाहुणा = दामाद ।

26. पन्थ शिर = जाने की राह पर । रहे बटाऊ होय = राहगीर की तरह रह रहे हैं।

28. संइया = आयु का उत्तार काल । बरियाँ = समय, अवसर ।

29. भावार्थ = ऊँठ रूपी मानव देह में वैराग्य रूपी पिलाणकर कोई सावधन जिज्ञासु साधक चढ़ जाय तो वह दिन-दिन में ही आयु रहते ही परमात्मा से मिल लेता है । वह वृद्धवस्था-रूपी साँझ नहीं पढ़ने देता ।

30. पन्थ दुहेला = मार्ग कठिन ।

31. भावार्थ = लंघण = संसार समुद्र का, लकु घाणा = पाट चौड़ा है । कपर चाटू डीन्ह = नौका चाकू रहित है । अल्लह पांधी पन्ध में = परमात्मा के पथिक पथ में । बिहंदा आहीन = उड़ रहे हैं।

33. जोरा वैर = प्रबल शत्रु । ताणै बाणै = अपनी लेनदेन में गाफिल हैं।

35. बहुत उठावे भार = नानाविध अकर्मकर उनका पाप बोझ उठाता है । करणी काल क = वासनामय कर्म ।

37. विसाहैं = प्राप्त करे । कोटि उपाय = अनेक वासनाजन्य कर्मों द्वारा ।

38. कारण काल के = काल के मुख में जाने के लिए । सकल सँवारै आप = अपने आपको अभिमान में उलझा कर काल के लिए सज्जित करते हैं।

39. विषय हलाहल खाय = निषिद्ध कर्म करते हुए ।

41. छेल = बकरीवत है । कर्द लिये = कर्म फल का छुरा लिये ।

44. ये सज्जन = कुटुम्बी ।

46. ए दिन = मानव जीवन के नये दिन । वे दिन = पलने के दिन ।

48. थिर न रहाय = विनाशी पदार्थ कोई स्थिर नहीं रह सकता ।

54. भावार्थ = संशय, क्रूरता, काम, मन, इन्द्रियाँ, प्रकृति आदि तिस वन में = शरीर रूपी कानन में लूटने को पड़े हुए हैं। फिर भी अचेत चेतता नहीं है ।

55. पूत पिता तैं बीछुटया = ब्रह्मरूपी पिता से अविद्या ग्रसित जीव बिछुड़ गया, अलहदा पड़ गया, संसार के चौरासी के चक्कर में भूल गया ।

57. कर छिटके = हाथ निकला हुआ ।

58. सो दिन = अन्त का दिन । चित्ता न आवह = याद नहीं आ रहा है ।

60. सूता = अज्ञान दशा में ।

61. श्याम वर्ण तैं श्वेत = काले बालों से बदल बाल सफेद हो गये ।

62. झूठे के घर = संसार के मोह में व्यस्त ।

63. पयाना = कूच, गमन । माट = भौतिक देह ।

67. आन क = मायिक पदार्थों की, देवादिकों के ।

69. गोर = कब्र ।

70. झंखें = खाय ।

71. डफान = शैतानी ।

73. पिंड सँवारा = रक्त मांस-हाड़ के देह की कितनी सजावट करता है ।

75. पसारा कर गया = नाना तरह के कार्य व्यापार फैलाये ।

76. बुदबुदा = जलबुदबुद की तरह क्षणिक जीवन वाला है । मेवासी मोटा = नश्वर शरीर में ममता कर अपने में महानता का ममत्व करनेवाला ।

77. बाहर गढ निर्भय करे = बाहरी शत्रुओं से बचने के लिए बड़े-बड़े किले बनाता है ।

80. काल कवल में सोय = हृदय कमल में जितनी विषय विकार की लहर उठती है, वह सब काल के मुँह में जाने की तैयारी है ।

81. कूड़ी करण = विनाशी पदार्थों की प्राप्तिवाली करणी ।

87. ब्रह्मंड खंड परवेश = काल का ब्रह्मांड के सभी नौ खंडों में प्रवेश है । तुम आदेश = आपको नमस्कार है ।

89. तेज के = चंद्र सूर्य तारे देव । माटी के = मनुष्यादि ।

। इति काल का अंग सम्पूर्ण ।

अथ सजीवन का अंग

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3. नाद बिन्दु सौं घट भरे = अनहद शब्द व वीर्य निरोध से शरीर परिपूर्ण करे ।

4. शब्द रहै संसार = महात्माओं के उपदेश वाक्य संसार में रहते हैं।

5. यहु नाहीं उणहार = यही अहंता ममता रहित मोक्ष का स्वरूप है ।

6. नाम कबीर ज्यों = जैसे नामदेव व कबीरजी हुए ।

7. जो जन राम भजन में नहीं लगे, सो इस संसार में आकर वृथा ही गये । जो राम भजन में लग गये सो वृथा नहीं जाते । सो दयाजी कहते हैं कि तन-मन अहं भाव को जीते जी परमेश्वर में लगाना उचित है ।

8. बेधे = घायल हुए ।

9. सब रँग तेरे = जो कुछ प्रतीत हो रहा है वह सब उस चित्शक्ति का रंग है ।

10. द्वन्द्व = कामक्रोधदि । बन्द = ध्यान, समाधि । अमर कन्द = स्वस्वरूपप्राप्ति ।

11. जम जौरा = बली काल । सत खंड = टुकड़े-टुकड़े की जा सके ।

13. लयवृत्ति की परिपाक दशा जिसमें रोम-रोम धुनि हो तब साधक अखंड = अमर हो सकता है । अविनाश = चेतन से एकता प्राप्त हो जाय तब जम का कोई चारा नहीं पहुँचता, जमकाल की व्यर्थता ही उसके लिए दंड है ।

16. जीवत है परमात्मा, उससे अतिरिक्त सब मरा कहलाता है ।

17. साधन = जप तप तीर्थादि ।

18. रहते सेत = सदा रहने वाले प्रभु के साथ ।

19. करण = आचरण ।

20. अमर अमी सौं होइ = नामचिन्तन आत्मचिन्तन रूपी, अम = अमृत उसी से अमर होता है ।

23. जागहु = सावधन होओ । राम सौं = नामचिन्तन से । रैणि = आयु रूपी रात्रि । बिहाण = खतम ।

24. जीवहु = मृत्यु से बचो, सार्थक जीओ । आतम साधन सार = आत्मसाक्षात्कार करना यही जीवन का साधन सार है ।

25. बंचे काल = काल से बच जाय ।

26. लाहा मूल = लाभ सहित मूल ।

28. अनन्त उपाय = जप, तप, तीर्थादि नाना कर्मज उपाय ।

29. संजीवनी साधे नहीं = नामचिन्तन स्वस्वरूप परिचय रूपी संजीवनी की साधना नहीं करता ।

30. लहुडे होंहि सब = जन्म लिया हुआ प्राणी दिन-दिन आयु क्षीण होने से छोटा होता जाता है ।

32. दूस्तर तिरे = गुण विकारमय दुस्तर संसार से पार हो जाय ।

35. भरम सब = असत्य में सत्य की प्रतीतिरूप भ्रान्तियाँ ।

36. मेला = संयोग । परस = ऐक्यभाव । बूडे = डूबे ।

37. दादू ते संसार = वे फिर से संसार में ही उलझेंगे ।

39. पद पाया = निर्भय पद ।

40. छूटे जीवतां = कर्मों का बन्धन जीवन में ही साधन द्वारा काटा जा सकता है । यदि मरना ही कर्मबन्धन की निवृत्ति का कारण हो तो सारा संसार मरता है वह मरने के बाद कर्मबन्धन से मुक्त क्यों न हो जाएं परन्तु ऐसा सम्भव नहीं इसलिए जीवित अवस्था में ही इन सभी बन्धनों से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए ।

42. दादू जग बोरावै = जो धर्मवेत्ता, दान, श्राद्ध, गया श्राद्ध आदि करने से मृत व्यक्ति की मुक्ति का उपदेश देते है । वे संसार के सभी प्राणियों को बहकातेहैं।

44. दोजख = नरक ।

। इति सजीवन का अंग सम्पूर्ण ।

अथ पारिख का अंग

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2. जहँ लागा = विषय वासना, या नामचिन्तन में ।

3. अंतर आतम = अन्तःकरण की प्रवृत्ति

4. पीछे धरिये नाउँ = साधु असाधु नाम पीछे रखना ।

6. मेट उपाधि = चंचलता, वासना । परिहर पंचक = पाँच ज्ञानेन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति दूर कर । राम कहैं = इस तरह आत्मचिन्तन करे ।

7. अर्थ आया = सही काम आया, सार्थक हुआ ।

8. कहबे को = कथनमात्र को । ऊपर क = दिखावे मात्र की ।

9. परकास = आशय ।

11. तन मन आतम एक है = सभी मानवशरीरों में पंचभूत मन तथा चेतना एक से हैं। दुविध्या = संशय ।

13. काया के वश करे = मन इन्द्रिय प्राण पर अपना अधिकार करे ।

14. पूरण ब्रह्म विचारिए = लक्ष्य अर्थ का विचार करे, व्यापक समष्टि शक्ति का विचार करे तो ।

15. माणस = मनुष्य । गियान = ज्ञान ।

16. सब जीव प्राणी भूत है = संसार के माया मोह में उलझे मानव भूत-प्रेत समान हैं।

18. जहँ आतम तहँ परमात्मा = अभेद निश्चय ।

19. काचा उछले ऊफणे = रागादि कषाय युक्त अन्तःकरण काया है उसमें वासना की उछाल अहंकार की ऊफाण होती रहती है ।

21. जौहर = सन्त महात्मा ।

22. श्रवणा = श्रुतज्ञान है । नैना नहीं = विवेक विचार के नेत्र नहीं हैं।

25. हीरे को = निर्द्वन्द्व जिज्ञासु साधक को ।

27. सगुरा = गुरु उपदेश के अनुसार चलने वाला । भूंचे = भोगे ।

28. dl-कस लेइ = भली-भांति परीक्षा कर निश्चय करे ।

32. बाणी बध्ती जाय = महिमा की वृद्धि होती जाय ।

33. परमात्मा अपने अभ्यासी की कड़ी परीक्षा लेता हैं वही सेवक परीक्षा में सफल होता है जो कभी विविध लालच सामने आने पर भी नहीं डिगे ।

34. यहु तति परिमान = कड़ी कसौटी ।

35. ताइ किये तत सार = ज्ञानाग्नि में खूब तपा-तपाकर, सार = तत्व बनादिया ।

। इति पारिख का अंग सम्पूर्ण ।

अथ उपजन का अंग

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6. काया = नाम रूपमयप्रप । च । व्यावर = व्याने वाली, प्रसान पानेवाली ।

8. आत्म बोध = आत्म-परिचय-साधना सिद्ध साधक ।

10. पंगुल ज्ञान = गुण माया में रहित शुद्ध ज्ञान ।

11. बंझ बियाई = बाँझ पुत्र की तरह आत्मज्ञान को पैदा किया । मन राव = अहंकार वासना रहित मन निर्विकल्प रूप वृत्ति वाणी को पाकर आत्मानन्द के प्रेम में मग्न हो रहा है ।

12. ऊजड़ चालते = संसारी पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयास करना । पहुँचे पन्थ चल = निवृत्ति द्वारा प्रेम भक्ति के पन्थ चले तब दुनियावी लोग कहते हैं , यह पगला गए हैं।

14. अनुभव, ऊपज और शब्द यही सार्थक है जिससे सार वस्तु की प्राप्ति हो सके ।

15. परब्रह्म ने हिरण्यगर्भ को उपदेश दिया, हिरण्यगर्भ ने जीवों को उपदेश दिया, इस प्रकार से विष अमृत का उपदेश संसार में चला आया है ।

16. मालिक = समष्टि कूटस्थ चेतन । अरवाह = अन्तःकरण । आलम = संसार । हुकम खबर मौजूद = यह उस मालिक का आदेश है इसमें तत्पर रहो ।

। इति उपजन अंग सम्पूर्ण ।

अथ दया निर्वैरता का अंग

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2. अहंकार का त्याग, तन-मन के सभी विकारों को दूर करना, सब जीवों से प्रेम करना, यही सारमय मार्ग है ।

3. वैरी मंझ विकार = मनुष्य के शत्रु तो उसमें जो कामादि विकार हैं वे ही हैं और कोई शत्रु नहीं ।

4. एकै आतमा = सब में एक ही आत्म तत्व है अतः शत्रुता किससे हो ।

5. दूजा नांहीं आन = सृष्टि में एक ही चेतन है, दूसरा है ही नहींं अतः जीवों से प्रेम व मित्रता और द्वेषता अज्ञान से है ।

6. इहिं संशय भरम भुलान = इस शंका, भेदमय विकल्प ज्ञान से लोग भूल रहे हैं।

8. शंका सम्पन्न बुद्धि से हमें जो भ्रमपूर्ण ज्ञान होता है तभी द्वैत की प्राप्त होती है ।

9. अंग तैं = जिसके अवयव से ।

10. आपा पर = अपने और दूसरों में । चीद्द ले = देख ले ।

14. प्राण पिछाणे = आत्म परिचय करे ।

16. पूरण ब्रह्म = सम्पूर्ण चेतन । दुती भाव = द्वैत वृत्ति ।

17. काँच के मन्दिर में बन्दर अथवा कुत्ता अपनी सूरत काँच में देखकर, और जानवरों के होने का भ्रम करता है वैसे ही मनुष्य अपने आत्मरूप का प्रतिबिम्ब अलग-अलग अन्तःकरणों में देखकर एक-दूसरे से विरोध करते हैं और यह नहीं जानते कि प्रतिबिम्ब रूपी दूसरे जीव अपने ही प्रतिबिम्ब हैं।

18. एक पेट = एक ही प्रकृति से ।

20. एक अनेक ह्नै = एक ही आत्मा शारीरिक उपाधि से अनन्त सूरतों में नजर आने लगती है ।

21. न्यारे नाम धर = वर्ण, धर्म, जात, पन्थ की कल्पना से भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।

23. आतमदेव = सब देवों में चैतन्य आत्मा है वही एक देव है ।

24. जैसे हम अपने को देखते हैं , वैसे ही सभी को देखना चाहिए । इस प्रकार से कोई दु:ख, कलेश नहीं होगा ।

25. दुविध = भेद बुद्धि ।

26. अर्श खुदाय का = अजरावर खुदा का स्थान जीवों का शरीर है ।

27. देहुरा = देव स्थान । जतन्न = उपाय । भाने = तोड़ना ।

28. माणसौं = मनुष्यों ने । ऐन = स्वयं ।

31. करद का = छुरे का । सुबहान क = परमात्मा की । मुग्ध = मोहग्रस्त ।

32. मनी को = अहंकार को ।

34. कुल = सम्पूर्ण, आलम = संसार । यके = एक, दीदम = देखता हूँ, अरवाहे = जीव, इखलास = मित्र हैं, बद अमल = खोटे काम । बदकार = खोटे काम, दुई = द्वैतभाव से होते हैं। पाक (पवित्र-परमेश्वर, यारां = हम मित्रों। पास = समीप हैं।

35. मन को विषयरूपी काल झाल से निकाल कर आत्मा में लगाय कर जीवों पर दया रखें , सोई अमृत का खाना है ।

36. परलै = नाशवान ।

। इति दया निर्वैरता का अंग सम्पूर्ण ।

अथ सुन्दरी का अंग

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2. आरतिवन्त = जन्म-मृत्यु के दु:ख से आरत । सुन्दर = सन्तवृत्ति ।

3. कन्त = स्वस्वरूप । घर = हृदयरूपी गेह में । सुन्दरि सेज पर = स्नेहवती वृत्ति वाली सेज पर ।

4. आतम अन्तर = शुद्ध हृदय प्रदेश में ।

5. कंठ न लाग = अरस परस न हुई । बिच ही गई बिलाइ = आयु बीच में ही समाप्त हो गई ।

6. सुरति (वृत्ति) रूपी सुन्दरी अगम-अगोचर पति के पास जाने की पुकार करती है ।

7. आण बिठाए और = और पुरुष कहिए संसार के विषय भोगों से स्नेह जोड़ लिया ।

8. अवगुण देख पति में सुन्दरी से कृपा वापिस ले ली, तब वह विषय वासना, अहंकारादि विषयों में भटकती फिरी ।

9. क्यों माने भरतार = ऐसी व्यभिचारिणी को भर्तार क्यों स्वीकार करे ।

10. हूँ सुख सूती नींद भर = मैं या मेरी वृत्ति विषय भोग में लग, अज्ञान की घोर निद्रा में प्रसुप्त हैं। जागे नांहीं जीव = यह अन्तःकरण जागता नहीं , विशुद्ध हो आत्मा की ओर प्रवृत्ता होता नहीं ।

11. सखी न खेले सुन्दर = सन्त साधक की वृत्ति अपने आत्म-स्वरूप की ओर तीव्रता से लगती नहीं ।

12. दिहाड़े = दिन । गहल = विषयभोग में पागल ।

13. सख = अन्य जन । सुहागिन = आत्मोपसना में लगी । हूं र = मैं। दुहागिन = अनात्म पदार्थों में उलझी हुई अपने आत्मारूपी पति से त्यागी हुई हूँ । महल = स्वरूप ।

14. कन्त = स्वामी । मर्ूच्छि = मूर्छित हो ।

15. परस न = मिलाप नहीं ।

16. प्रगट = निरावरण होकर । सेज सुहाग = हृदय प्रदेश में दर्शन ।

17. पुरुष पुरातन = विशुद्ध चेतनरूप ब्रह्म । आन के = देवी-देवताओं के । बीछुटया = अलग हो गये ।

18. कन्त = ब्रह्म । मुख सौं नाम न लेय = केवल नामोच्चारण रूपी उपासना भक्ति में ही ना लगे रहे ।

19. सुन्दरि बलि गई = अपने शरीर के स्थूल सूक्ष्म संघात सहित अपने आराध्य को समर्पित करो ।

21. मोहै = मोहित करे । बहुत भाँति = बहुत प्रकार के ।

22. संसार रूपी नदी के जल रूपी विषयों की कामनाओं को त्याग कर, बाह्य विषयों से परे जो परमात्म दृष्टि है, तिसमें वृत्ति को जोड़े ।

23. बिलसे = उपभोग करे ।

24. मोटे भाग = महापुण्यमय दशा ।

25. रात = अनुरागमयी ।

26. निर्मल = विषय वासना अहंकार शून्य । निर्मल प्रेम = निष्काम स्नेह ।

27. एक रस = अभेद स्थिति । ता सम = उसके बराबर ।

। इति सुन्दरी का अंग सम्पूर्ण ।

अथ कस्तूरिया मृग का अंग

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2. घट कस्तूरी मृग के = जिस प्रकार मृग के शरीर में ही कस्तूरी वास करती है उसी प्रकार मनुष्य की देह में ही आत्मा वास करती है । तातैं सूँघे घास = मृग कस्तूरी को घास में सूँघ कर तलाशता रहता है इसी प्रकार मनुष्य भी बाहर विविध देवी-देवादि रूप में अपने परमात्मा को तलाशता रहता है ।

4. बाहिरा = बधिर ।

5. जा कारण = जिसकी चाह से । जग ढूँढिया = संसार में तलाश कर रहे हैं। मैं तै पड़दा भरम का = अहंकार के कारण ।

6. अन्ध यह नहीं बता सकता कि सूर्य कितनी दूर है उसी प्रकार अज्ञानी यह नहीं जानते कि व्यापक परमात्मा कहाँ हैं।

9. राम सनेह = आत्मराम को समझने की तीव्र इच्छा रखनेवाला ।

10. जड़ मति = स्थूल पदार्थों में ही बुद्धि का उपयोग करने वाला ।

11. जागत = सचेत । जे = वे ।

12. जिसका साहिब (मालिक) होशियार होता है, सो सेवक भी सचेत रहता है, गिरता पड़ता सदैव अचेत ही है ।

13. हमारा सांई, प्रभु तो सावधन है परंतु हम स्वयं ही अचेत हैं क्यों कि आत्मतत्व का रक्षण नहीं जानता, इसी से, इसलिए खेत रूपी जीव निष्फल दु:खी होता है ।

14. गोविन्द के गुण बहुत हैं = उस परमात्मा ने हमारे हित में बहुत उपकार किये हैं। जे कुछ कीया पीव = परमेश्वर जो कुछ उपकार करता है उसे वह स्वयं ही जानता है ।

। इति कस्तूरिया मृग का अंग सम्पूर्ण ।

अथ निन्दा का अंग

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2. जो जन साधु में अवगुण बताता है सो रसातल को जाता है ।

3. ऊंधपलट = उल्टा परिणाम बुरा उत्पन्न होता है ।

4. समूल = जड़ सहित ।

5. निन्दा = झूठे अवगुण दोष का आरोप ।

6. निन्दा किये नरक है = किसी मनुष्य की निन्दा करने पर दूसरे मनुष्य में दोष लगाने पर नरक का वासी होना पड़ता है ।

7. पर उपकारी सोय = निन्दा करने वाला दूसरे पर झूठे आरोप कर सच्चे मनुष्य का यश फैलाता है अतः वह सच्चे मनुष्य पर उपकार ही करता है ।

8. साधु शब्द की निन्दा का फल पाप चतुर समझदार मनुष्य समझे जाते हैं।

9. अनदेख्या = बिना स्वयं देखे । अनरथ = झूठ । तब लग करै कलाप = निन्दक पुरुष तब तक दु:ख का संताप सहते हैं।

11. धरहि उठाइ = कैसी झूठी बात चला देते हैं।

12. जाहिंगे किस ठाम = वे किस जगह शान्ति पायेंगे ।

14. साहिब माने नहीं = वह ईश्वरीय शक्ति, सत्य को झूठ और झूठ, को सत्य बताना, इस तरह की हरकत को कभी स्वीकार नहीं करता, ऐसा करने वालों को । अखूट = जिसका अन्त नहीं । ऐसा पाप = अपराध लगता है ।

। इति निन्दा का अंग सम्पूर्ण ।

अथ निगुणा का अंग

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2-3. चन्दन के वृक्ष के नीचे कोई पथिक आ बैठे, वृक्ष की शीतलता से सुख पाया । यह गुण चन्दन में देखकर वह पुरुष फिर आया और पेड़ की सेवा करने के बदले उसको काट गिराया । दयालजी कहते हैं कि ऐसा कृतघ्नी यह संसार है ।

4. भुवंग = संसारी जन सर्परूपी ।

6. शिष का गुण = कृतघ्नी शिष्य का कृतघ्नता का हेय गुण नहीं जाता ।

7. बंसा चन्दन पास = अकृतज्ञ रूप मानव बाँस की तरह चाहे जितने मलयागिरि रूप महात्मा के सत्संग में रहे, बाँस की तरह मलिन वासना वाला मानव अपनी मलिनता त्यागता नहीं ।

8. आडा अंग है = पत्थर में जाडयता रूपी आड है उसी प्रकार अज्ञानजन्य तम की जड़ता से वह अकृतज्ञ मानव गृहीत है ।

10. मांहीं वासना = भीतर मलिन वासना रहने पर । मेला होय = आत्म-परिचय का मेला समागम नहीं होता ।

11. भावार्थ-संसारी जन मूँसे की तरह संसार के तापों से जलता देख सन्त महात्मा हँस रूप अपने सदुपदेश से उस मूँसे रूप मानव को मानसरोवर = शुद्ध हृदय सरोवर की ओर चले, पर वह अकृतज्ञ मानव उन्हीं के पंख काटने लगा-उनके उपदेश रूप वचन पंखों को खंडित करने लगा ।

12. कूप में = वासनाजन्य दु:खों के कूते में ।

13. दूध = आत्मोपदेश रूपी पय । ता ही को दुख देय = उसी अकृतज्ञ मानव के क्लेश का कारण होता है ।

14. पावक = अग्नि के बिना । सूखे सींचताँ = वर्षा का जल पाते हुए, उपदेशरूपी जल पाते हुए अकृतज्ञ पुरुष जवासे की तरह ।

15. सुफल वृक्ष = सन्त जन सुफल वाले वृक्ष रूप हैं।

16. सगुणा = हरि गुरु की मान्यता वाला, श्रद्धलु । निगुणा = वासनामय, संसारी ।

19. सगुणा गुण केते करै = सगुण-कृतज्ञ पुरुष अपने पर किये गये उपकार को बहुत बढ़ावा देता है ।

22. निगुणा न माने नीच = अकृतज्ञ पुरुष अपने पर किये गये हित को नहीं मानता ।

23. काढैं काल मुख = जीवन मृत्यु के इस चक्कर से निकालना चाहते हैं।

25. दादू परलै राखिले = जीवन विनाश से रक्षा करना चाहते हैं ।

26. सद्गुरु आडा देय = महात्मा जन की आड से परमात्मा ।

27. बिलसे = उपभोग करे । वितड़े = बाँटें।

। इति निगुणा का अंग सम्पूर्ण ।

अथ विनती का अंग

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2. रोष = क्रोध । समाई का धण = अतिगम्भीर ।

4. सेवा चोर में = उस परमात्मा की सेवा का मैं चोर हूँ ।

5. तिल-तिल = राई-राई, क्षण-क्षण, पद-पद ।

7. बे मरयादा = सीमा रहित ।

8. कलंक = पाप ।

9. शोध सब = सब तलाश करके ।

10. स्वाद सबै = सब विषयों से ।

11. खीन = क्षीण ।

12. बहु बन्ध्न = विषय वासना, अहंकारादि ।

13. दीवान = न्यायकारी । मीराँ महरवान = मेरा रक्षणहार ।

14. अन्तर = अन्तःकरण । कालिमा = मलिनता ।

15. सब कुछ व्यापे = कामादि दोष व अहंकार । कुछ छूटा नाहीं = लोभ, मोह, वासना, क्रोध कोई विकार छूटा नहीं ।

16. साल = चुभन । बिसर = भूलना ।

17. यहु मन मेरा राखि = मेरे मन को शुद्ध रखिए ।

19. रत = श्रद्ध । सूता = अज्ञानी, सोया हुआ । जागे = सचेत हो ।

20. आपै देखे आपकाे = अन्तःकरण सिर्फ आत्मस्वरूप को देखे । सो नैना = ऐसे ज्ञानी नेत्र ।

21. ठाहर लाय = मन को उचित प्रवृत्ति में न लगा पाए, मनुष्य जन्म का सार्थक उपभोग न कर सके ।

22. नवतम = नवीन ।

23. भान = तोड़ । दुविध्या = भ्रमजनित द्वैत वृत्ति को । समता = आत्मदृष्टि ।

24. संसार जो वास्तव में है नहीं सो प्रकट हो रहा है । जो परमात्मा है सो छुप रहा है । हे सांई! अविद्यारूपी परदा दूर कर और तू आप प्रकट होकर दर्शन दे ।

26. दूजा हरि सब लेवे = सब तरह के भेदभाव की वृत्ति का निवारण कर देता है ।

30. फूटा फेरि सँवार कर = विषय प्रवृत्तियों में छिन्न-भिन्न हुए मन को विषय वासना से हटा आत्माभिमुख कर एक आत्मचिन्तन दशा में लगा दे । ले पहुँचावे ओर = अन्त तक वृत्ति को सुस्थिर कर आत्मसाक्षात् तक की अवस्था को प्राप्त करा दे । बहोर = बहुत ।

31. सँवारे = अन्तःकरण के दोष हटा आत्मचिन्तन में सँवारे । बूढ़े तैं बाला करे = अज्ञानरूपी वृद्धवस्था से बाहर निकाल कर ज्ञान रूपी बाल्याकाल में पहुँचा दे ।

32. गलै विलै = परमात्मा में लयलीन । होकर एकमेक = सब प्रपंच से मन को मोड़कर एकाग्रचित से । अरस परस = प्रत्यक्ष परमात्मा के सन्मुख करुणा पूर्वक विनती करे, तब दादूजी कहते हैं दास ब्रह्म रस में मग्न हो ।

33. अजा सिंह ज्यों भय घणा = बकरी को जैसे सिंह से भय लगता है ।

34. सह = निश्चय ।

36. बाहर चढे = मदद करे, सहायक ।

37. औघट = ऊबड़-खाबड़ घाट ।

38. भेरा = बाँस की नाव ।

39. पिंड = मानव शरीर । परोहन = सामान्य छोटी नौका ।

40. घट = शरीर । बोहित = बहता है । धर में = वासना की धरा में ।

42. काया के वश = देह में बँध हुआ । आतम राम बिन = आत्म-ज्ञान बिना ।

43. नीधणि = बिना स्वामी के ।

46. आवटे = नानाविध क्लेश ।

48. काल झाल = काल की अग्नि ।

51. मारणहार = काम, क्रोध्, लोभ-मोह, विषय वासना, अनेक प्रवृत्तियों से काम कर्म बन्धन ये सब जन्म-मृत्यु के निमित्ता बनते रहते हैं ।

54. गरक = खराब, ग्रसित । रसातल = नरक । अवलम्बन = आश्रय ।

55. दौं लाग = दावाग्नि भभक उठी । परजले = जल रही है ।

56. निहोरा = अनुकम्पा, मेहरबानी ।

57. अर्श = आकाश । जमीं = धरती । औजूद = हमारा शरीर । अफताब = सूर्य, वासना रूप सूरज ।

58. निर्विष = शुद्ध । पड़दा = अज्ञानीरूपी परदा ।

59. आतमा = बुद्धि ।

60. धोर = बोझवाहक । निवाहिं = निभाओ । बिड़द = कीर्ति, यश ।

61. धर = धैर्य । छंडे = त्याग दे । मंडे = माँडे ।

64. बल = शारीरिक बल । पौरुष = मानसिक शक्ति ।

65. संग = साथी, अन्तःकरण । वशाय = बस में।

66. जक = चैन, शान्ति ।

68. सदके = बारणै ।

71. प्यासा = अनुरागी । प्याला = बुद्धि ।

73. जनि परिहरे = मत त्यागे, दूर करे ।

74. दर हाल = तुरन्त, तत्काल ।

76. खरी दुहेली देह = सचमुच ही यह शरीर बिना परमात्मा के प्रेम स्नेह के परम दु:खदायी है ।

80. भावै = चाहे । बख्शिये = माफ करे ।

81. लेखा = हिसाब । फिल किया = क्षमादान दिया ।

। इति विनती का अंग सम्पूर्ण ।

अथ साक्षी भूत का अंग

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2. अन्तर पूरे साखि = मनुष्य के अन्तःकरण में परमेश्वर साक्षी देता है । वो ही सही प्रमाण है ।

3. मोंही तै = अन्तःकरण से । दूजा धन्ध है = संसार के वासनामय तथा सकाम कर्म । सब धन्ध है = व्यर्थ है ।

4. साक्षी भूत = अन्तर्यामी । कौतिकहारा = विराट्, एकान्तद्रष्टा । अण करता = कूटस्थ चेतन । अवधूत = सूत्रत्मा ।

6. इस साखी में भक्तिपक्ष, ज्ञानपक्ष व वेदान्त पक्ष से गोपी कान्ह, ब्रह्म जीव से उस चित् शक्ति का निरूपण है जो सम्पूर्ण जड़-चेतन में व्याप्त है ।

7. सान कर = मिलाकर ।

8. भावार्थ-सद्गुरु ने समझाया कि जीवन को किस ओर लगाना चाहिए । संसार में विष, अमृत, शुभ, अशुभ, हित, अहित क्या है । जिसने अपने मन, वचन, कर्म को जिस ओर लगाया वही फल प्राप्त किया ।

10. होवे इस ही माँहिं = अन्तःकरण ही में सब भला व बुरा पैदा होता है ।

11. कर्मों के बस जीव है सो जीव कर्म के बन्धन में तभी आता है जब कत्तर होने का अभिमान रख के कर्म करता है । ज्ञानी ऐसा अभिमान नहीं रखता, इसलिए कर्म से बँधता नहीं ।

15. औजूद = यह मानव शरीर । बन्दा = जीव ।

16. सिरजे = पैदा किये । सब लोइ = चौदक लोक रचे ।

17. परमात्मा परमेश्वर बाजी खेल रहा है जिसको अज्ञानान्धकार से युक्त मनुष्य लख नहीं पाते । वह कूटस्थ चेतन सब कुछ जीतकर बैठा है किसी भी बन्धन में स्वयं बँध नहीं हुआ है ।

। इति साक्षी भूत का अंग सम्पूर्ण ।

अथ बेली का अंग

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2. जैसे धरती धीरे-धीरे जल सोखती है, तैसे सहजैं सहज समाधि में अपने जीव को अमृतरूपी अनाहद से पोषण करे ।

3. असत्य में सत्य की कल्पना, सत्य में असत्य की कल्पना का धोखे में कभी न आये ।

4. जिज्ञासु की बुद्धि रूपी बेली के सहज समाधिस्थ होंगे पर भजन रूप फल और ज्ञान रूपी फल लगते हैं। सद्गुरु शनै:-शनै: इस वेलि को अपने अनुभवी उपदेश द्वारा उपर्युक्त फल फूल वाली बनाने का प्रयास करते रहते हैं। सद्गुरु के इस उपदेश को कोई विरला ही समझता है ।

5. सींचे नहीं = दया अनुग्रह के पानी से सींचे नहीं।

6. हरि रूपी वृक्ष पर बुद्धिरूपी बेली को फैलावे, तो उस बेल में अमर फल (मोक्ष) लगे, यदि साध्ू बेली को सींचता रहे ।

7. सू फल = ज्ञान रूपी फल से फलीभूत हो ।

8. हरिया = भक्ति रूप हरियाली वाला । ताप = जन्म-मृत्यु रूपी सन्ताप ।

9. अम = नामरूपी अमृत । अघाय = तृप्त कर ।

10. अमर बेलि = शुद्ध बुद्धि । खार समुद्राँ = संसार सागर में। खारे नीर सौं = विषय वासना के पानी से ।

12. मीठी धरती बाहि = सत्संग रूपी अच्छी भूमि में लगाई हुई । मीठा पान = चिन्तन रूपी जल ।

13. मुवा न सुणिया कोइ = आत्मचिन्तन में लगा साधक भोगवासना में पुनः लिप्त हो कोई मरा हुआ नहीं सुना ।

14. विष की बेल = कुसंग में प्रवृत्ति वासनामय बुद्धि बेलि । विष फल = चौरासी लाख योनि ।

15. नीपजे = फलवती हो ।

16. सत सौं = सत रूपी जल से । फूले = भक्तिमय वृत्ति बने । फले = बैराग फल फलित हो । खाय = प्राप्त करे, भोगे ।

। इति बेली का अंग सम्पूर्ण ।

अथ अबिहड़ का अंग

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2. संग = साथी । अजरावर = जरा मृत्यु रहित । बीछूटै = दूर हो, न्यारा हो ।

3. सुस्थिर = बिलकुल स्थिर, सर्वदा सर्वकाल रहने वाला । खिरे = खंडित हो । खपैं = विलीन हो, नष्ट हो ।

5. बिहड़े नहीं = पलटे नहीं। तासन = उसी से ।

6. अबिहड = अपरर्िवत्तित, न बदलने वाला ।

7. आदि-अन्त बिहड़े नहीं = आरम्भ से अन्त तक चेतन शक्ति कभी बदलती नहीं, कालपरिणाम का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता ।

8. जो दीसे सो जाय = नाम, रूप, आकार वाली सब वस्तुएँ काल प्रभाव से समाप्त हो जाती हैं।

10. अबिहड़ अंग = कूटस्थ चेतन । अघट = कमी-बेशी से रहित ।

11. गुण व्यापैं = रजोगुण, तमोगुण, विषय वासना, अहंकारादि । अपणे = स्वस्वरूप प्राप्ति के लिए । निबाह्यो = निभाया । पण = प्रतिज्ञा, प्रण ।

। इति अबिहड़ का अंग सम्पूर्ण ।

। इति अंग भाग सम्पूर्ण ।

अथ श्री स्वामी दादू दयाल जी की ग्रंथावली

शब्द भाग

अथ राग गौड़ी

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1. निकट जिव जाई = रामजी के पास मेरा जीवन जाएगा । जीवण मूरि = जीवन मूल । बजाई = ध्वनि पैदा करना ।

2. निर्मल = निष्पाप । जनि छाडहु = नहीं छौड़े । कुश्मल = मलिन, पाप । तत = तत्व ।

3. नीेके = ठीक प्रकार । राशि = संग । निबहो = निभ सकना । निछेदन = नाश करने वाला । दहो = जलावो ।

4. नैन निकट = ज्ञान के नेत्रों के साथ । तलफे = तड़पे ।

5. अब के = नर तन में। गोप्य = गुप्त । अपरछन = अदृश्य । रैणि = आयुरूपी रात्रि ।

6. निकसै = निकले । चितवत = एक टक देखते ।

7. शोधन = वह स्त्री । पतीजे = भरोसा करें। अह निश = दिन-रात ।

9. मोह्यो = मोह लेना । अवरन = दूसरों से । तिलहि = पलभर भी । भोरैं = भोलेपन में। अनत = दूसरी जगह । राज = शोभा, महत्तव ।

10. चीरा = वस्त्र । नवसत = सोलह शृंगार । गेह = घर ।

11. वाइ = विरह की भाप । भीना = भीगा । विष तजे = भोग वासना छोड़े ।

12. नख शिख = सिर से पैर तक, मन, कर्म, वचन । गरवा = बड़ा, महान ।

13. दुहेल = कठिन समय । मंझ = बीच । बूडे = डूबे । बाज = बिना । भेरा = नौका, नाव । परोहन = जहाज ।

14. दूभर = अत्यधिक मुश्किल । पैरत = तैरते हुए । खेवट = पार उतारने वाला ।

15. जन को = सन्त आत्मा को । परिहर = छोड़कर । नियारे = न्यारे । गरवा = गम्भीर ।

16. मोकौं = मुझे । यहु विषिया = यह विषय भोग की चाह । दह दिशि = संसार के नाना पदार्थों की ओर । नियरे = पास । छीजे = शान्त ।

17. नवका = नौका । करणी कठिन = हठयोग आदि की करणी । हलाहल = विष, जहर । कूप = कुऑं ।

18. तो लग = तब तक । चीन्हे = जानें।

20. मेल्हूँ = छोड़ूँ, त्यागूँ । शोधि लीधों = तलाश लिया । तालाबेल = विकल । हवे = अब । जाशे = जाएगा । चरण समानो = दीर्घ काल को । केवी पेरे = किस विधि । काढौ = बिताऊँ । राखिश = रखूँगा । दुहिले पाम्यों = कठिनाई से पाया ।

21. चाहना = चाहता हूँ ।

22. तुम पै आहि = तुमको ही आता, तुम्हारे पास ही है ।

23. कृत = उपकारी काम । उपाइ = उत्पन्न कर ।

24. जीवी जे = जीवन सफल हो । उजास = उजियाला ।

25. सार = तत्व ।

26. जानि जारै = मत जलावे । हेजैं = अति प्रेम से ।

28. मन कोयला = मैला मन । भुवंगा = सर्प, साँप ।

29. भुरक = मोहनी ।

30. रमसि = खेलेगा । अघाई = तृप्त हो ।

31. सेमल = सेमल के पुष्प की तरह । डहकावे = भ्रमै ।

32. उदमद = विषयासक्त । फन्ध्यो = फन्दा । चाइ = चाह ।

33. सारंग प्राण = सब रंगों का रंग, सब प्राणों का प्राण ।

34. थात = सम्पत्ति, खजाना ।

35. आकाश धरणि धरीजै = निर्विकल्प अवस्था प्राप्त करिये । साइर = सांई, प्रभु । हितारथ = हेत, उपकार ।

37. साध = साधना । पाले = बर्फ । वज्र = कठोर । धिक् = धिक्कार ।

40. खालिक = खलक-संसार का मालिक । अयाना = अज्ञानी ।

(राग जंगली गौड़ी)

41. रत्ता = आसक्त । नाल वे = साथ । निखूटा = चला गया । डेवण = देने में। भेरा भग्गा = धैर्य रूपी नौका टूट गई । वियाप = छा गई ।

42. डफाँण = पाखंड, शैतानी । गोर = कब्र । उपावनहार = पैदा करने वाला ।

43. अन्तर है जे जाणे सोई = जो हमारे अन्तर में चेतन है उसको हम जान जाएँ तो । तत्व = सार । जतन-जतन कर = वृत्ति को आत्माभिमुख रख । इब = मनुष्य देह में ।

44. क्षीणा = नष्ट । इहिं बाज = संसार की बाजीगरी में । बाद = व्यर्थ । येता = इतना भी ।

45. अन्धर = अज्ञान का अन्धकार ।

46. बौरावे = पागल हो गया है ।

47. झखैं = बकवाद करें।

48. अण मांग्या = बिना चाहा । झूरे = रोना । दरहाल = उसी समय ।

49. आर्थिन = अर्थ की राशि ।

50. मैं मैं मेरातिन शिर भारा = जो अपने अन्धकार में उलझते हैं उन्हीं पर सुख-दुख का अधिक भार पड़ता है । गया विलाइ = निष्फल चला गया ।

51. लीन भये = उसी में लवलीन हुए ।

53. कादिर = परमपिता । रहगाना = दयालु ईश्वर ।

54. परिमाण = माप तोल । परिमिति = परिधि, अन्त ।

55. कौण परखणहार = प्राणपारखू जौहरी । कौण सुज्ञाता = आत्मज्ञाता । कौण गियान = हंसवृत्ति ज्ञान ।

58. सिध = महेन्द्र, गोरख, भर्तृ आदि । योग = दत्तात्रोय आदि । यत = भीष्म हनुमान आदि । सत = हरिश्चन्द्र आदि ।

60. अमल = व्यसनी ।

61. भेष = बनावटी । डिंभपणैं = पाखण्डी, नकली रूप से । रीझे = राजी हो । धन = स्त्री ।

62. सेज = अन्तःकरण रूपी शैया । नाह = पति, स्वामी । बान = आदत ।

64. साँची मति = सत्यबुद्धि । दुतिया दुर्मति = द्वैध भाव की भावना ।

65. पतीना = विश्वास किया ।

66. द्वै पख = हिन्दू-मुसलमानपन । अवरण = अरूप । काम कल्पना = विषय की चाह ।

67. मन्दिर = हृदयमन्दिर । है = जो नित्य सत्य है । सो = वह । निरन्तर = अलग ।

68. घर ही में = अपने ही भीतर । महल = हृदय । थिर सुस्थान = अधिष्ठान ब्रह्म । आदि अनन्त = आरम्भ से अन्त तक ।

69. इत है = इस ओर, आत्म उपासना में। तिहिं तट = त्रिकुटि तीर ।

70. कथो = कहो । रंग = प्रेम । बास = निवास । अघाइ = तृप्त हों )

71. त्रिकुट = मन, प्राण, सुरति । संगम = संयुक्त, एकलक्ष्य निहित । जतन जतन कर = संसार के पदार्थों से वृत्ति को हटाकर । छावर जावे = तृप्त हो जाय ।

72. नीके = सावधनी पूर्वक । बपुरा = अभिमान रहित साधक ।

73. कामधेनु = मनसा । सरवैं = झरावे । पोषंतां = वासना को विषयसुख देना । दूणाँ = द्विगुण । मुकता मेल्यों मारे = वासना को चाह के विषय भोग देने पर विनाश करती है । अजरावर कन्दा = नित्य आनन्द ।

74. वर वर = समान

75. साले = चुभे । बहुर = फिर । निकसे = अलग हो ।

76. ढोर = लगनमय वृत्ति । हौंस = चाह ।

77. गवना = चलना । भवना = हृदय रूपी स्थान । रवना = रहना । तारा = तारने वाला । पारा = पार पहुँचना । मेला = आत्मसंयोग ।

78. हेरा = खोजा ।

79. सकल करा = सृष्टि कर्ता से । नेरा = पास ।

। इति राग गौड़ी सम्पूर्ण ।

अथ राग माली गौड़

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80. अगम ठाम = ब्रह्म देश । कलि विष = पाप ।

81. खेव नांहीं = नाविक नहीं । घाट नांहीं बाट नांहीं = ज्ञान का रास्ता नहीं।

82. सखी सयान = सावधन साधक । खरी दुहेल = बहुत दु:खी ।

83. लाहड़ा = फायदा, लाभ ।

84. खसम = प्रियतम, स्वामी । शूल सुलाको = विरह वेदना । शुहदा = वियोगी ।

85. हुक्म = आज्ञा मानने वाला ।

87. गइला = गया । मेरा कृत = मेरा काम,र् कत्ताव्य ।

88. सांधे = चढ़ाये । मूल = नर तन । बाट बसेरा = राहगीर ।

89. वैन = व्यथा, दु:ख ।

90. अखई = अक्षय ।

91. बाबा मर्दों में मर्द उसको कहां , जिसने दुई को त्याग करके अपने मन को पवित्र कर लिया है । दुनिया में अपने कत्तव्यों के निश्चिन्त होकर, केवल परमात्मा में मिल रहे, ऐसा बुद्धिमानों का काम है । अपने अहंकार, ईर्ष्या, कामनाओं को पैरों से मसल डाल । बदी को बुराई को त्याग कर नेकी की राह पकड़ । जीवन को समाप्त हुआ मान कर परमात्मा का हृदय रूपी गुफा में स्मरण कर । ऐसा करने वाले साध्कों को साधना का फल मिल जाता है ।

92. साइर = समुद्र । सोहे = सुहावने लगे ।

93. अकथ = कहने में न आना । साधंता = साधना में लग । सहज समाऊँ = काम को करने में लगे रहना ।

94. सिदक साबित = पूरा निश्चय । तालिबा = अति विरही । गैब = अदृश्य, अचानक, सहसा । खालिक = संसार का स्वामी । ऐन वे = अरस परस है । सैंन = इशारा । दाना = होशियार ।

95. कृत्रिम = बनावटी, नकली ।

। इति राग माली गौड़ सम्पूर्ण ।

अथ राग कल्याण

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96. चेत = सावधन हो । सँवार = सज्जित कर । बाट = राह । विषम = कठिन । सूत = मेल ।

97. बसेरा = निवास । सुस्थाना = जगह ।

। इति राग कल्याण सम्पूर्ण ।

अथ राग कान्हड़ा

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98. जक = चैन, शान्ति । दुराऊँ = गुप्त रखूँ, छिपा कर । पीरों = वेदनाओं , तकलीफों। पिंजर = शरीर ।

99. सलौने = सुन्दर । आह = दुराशीस, श्राप ।

100. धन = स्त्री, सम्पत्ति । बाट = साधनपथ ।

101. सजण = साजन, प्रिय । मैंडा = मेरा । असाडे = हमारे । नाल = साथ । डेवां = देना । इत्थांई = इधर ।

103. मति = नहीं। हींण धरे = गन्दे विचार करे । कूड़े = झूठ ।

104. गह = पकड़ ।

105. अयाना = बेसमझ । मुदित = खुश । पयाना = चलना ।

107. हीण = गरीब । न्यातं = बिरादरी ।

108. सारा = साररूप ।

109. ऐन = साक्षात् । ठाड़ा = खड़ा ।

110. परवाह = गरज ।

। इति राग कान्हड़ा सम्पूर्ण ।

अथ राग अडाणा

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अथ राग केदार

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111. अविचल = स्थितप्रज्ञ । त्रिभुवन = तीनों लोकों में ।

112. भान = तोड़कर । निपाया = बनाया ।

113. रुड़ौ थामे = भला होता है । अणसरिये = निरूपण करिये । मूक = त्यागना, छोड़ना । लीधो = लिया । कीधो = किया ।

114. मीच = मृत्यु ।

115. तीन तिमिर = तीनों रूप का अन्धकार ।

116. कथसि = कहते हो । साना = मिलाया । थिति = स्थिति ।

। इति राग अडाणा सम्पूर्ण ।

अथ राग केदार

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117. लेवाड़ = लेना । वाण = प्रभु नाम । चिंतवन = ध्यान । मांहेला = मेरे अन्दर । मल = मैल । जीव्यानाे = जीवन का । कापे = काटे ।

118. कन्था = गूदड़ी । गालूँ = गला दूँ ।

120. देखणहार = देखने वाला ।

121. असां = हमारा । लालड़े = हे ईश्वर । मंझे = मेरे अन्दर । बराला = जली हुई है । भाहिडे = जलन । मुच थईला = त्याग कर । कै = किस । धहड़े = पुकार ।

122. नवेला = पुराना ।

123. वेदन = विरह सन्ताप । सीदाण = मुरझा रही है । निखूटया = घट गया । ताणी रे = खिंच रहा है ।

124. गृह छात = अपने हृदय रूपी घर में। तिसज = प्यास । तिसह = आत्मस्वरूपकी ।

125. वाहला = प्यारे । जोवा ने = देखने को । आकुल = व्याकुल । थाये = हो रहा है ।ठरूँ = शान्ति पाऊँ । थइ ने = होकर । पाखे = बिना । दुहेला = मुश्किल । वरूँ = स्वामी बनाऊँ ।

126. अंदोहे = व्यर्थ ।

127. घाइ = आघात कर । गह्या = ग्रहण किया ।

128. निमिष = एक पल । नाह = प्रिय । छेलो = आखिरी । एकलड़ = अकेली । अ दत्ता = यह फल । उधर = उद्धर ।

129. पालवे = पल्ले । आंतरे = दूर । खल्यो = भटका । जेटला = जितना । दाध = जलना, जलती । थाशे = होगा ।

130. थई रह्यो = हो रहा ।

131. रखपाल = रक्षक ।

132. बसाइ = वश, जोर ।

133. कारणैं = लिए । आवे तान = आनन्द आये ।

134. मूल = नर तन ।

135. कत = कहाँ । मैं बड़ = अपना अभिमान ।

136. मूसे = लूटे ।

138. गमि आये = नजर आये ।

139. निरखण = साक्षात् देखने का ।

140. बाह्या = बहकाया । धूतो रे = ठगा है । परस = स्पर्श । येणी परि = अपनी तरफ । तेड़े = बुलाना ।

141. परले = प्रलय, विनाश ।

142. चितायो = सावधन करना ।

। इति राग केदार सम्पूर्ण ।

अथ राग मारू

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143. खूटे = खत्म हो गये ।

144. कन्ध = सिर पर ।

145. नीझर = प्रेमरूपी झरणें से ।

148. तुम्हारड़िया = तुम्हारी । अपरछन = छुपे हुए । आड़ा = परदा । पाड़े = डाले । कापे = काटे ।

149. बूझे = पूछे । कवण = कौन । कत = कहाँ ।

152. आड़ड़ी आन निवार = परदे को आकर उठा दे । अनदिन = रोज, प्रतिदिन ।

153. जे बरजैं ते वारि रे = जो विघ्न-बाधएँ हों उनको तुम टालो ।

154. भरमाड़ = भरमाना । बेगलो = जल्दी, शीघ्र ।

155. पहूँता = पहुँचा । जौरा वैर = जबर्दस्ती ।

156. गरा से = खाए ।

157. जरा = वृद्धपना, बुढ़ापा ।

158. अने रे = फालतू । बिमासणि = कसौटी ।

159. पड़शे = पड़ेगा । सोधस = तलाश करेंगे ।

160. जनि = मत ।

162. तिमर = ऍंधेरा ।

163. जुगंता = युक्तिवाला ।

164. सुख सागर = आत्मानन्द समुद्र में।

165. आत्या = आया । वरत्या = हुए । विरद = रिद्धि, अच्छा । वधवणा = बधई । माइ = समाये । भण = तरफ । धण = मालिक ।

166. बीनवे = प्रशंसा करना ।

। इति राग मारू (मारवा) सम्पूर्ण ।

अथ राग रामकली

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167. गुरु वाइक = गुरु वचनों से ।

169. कंठड़े = गले । हियड़े = हृदय में।

170. पिर = प्यारे । पांण = आप । पसाइडे = दिखाई दो । भाहिड़े = आग लगना । पांधी-पंथी । वींदो = बन्दा । निकरीला = निकल रहा है । असांसाण = हमारे साथ । गल्हाइड़े = बात करो । सिकां = इच्छा, चाह । गुझ = गुप्त गलि = बात । पसा । = देखैं। सिक = इच्छा । लाहिड़े = पूर्ण कर दो । काइड़े = कोई दूसरी चाह नहीं है ।

171. मेड़ = मिलाये । सुहार = सुन्दर, शोभनीय । डीहु = दिन । संद = साथ । पांधीड़ा = पन्थ । कड़ = कब । डीदों = दो गे । सांण = साथ ।

172. खंडना = खंडन करने वाला । महीमान = संसार का सबसे बड़ा ।

173. बटपारे = लुटेरे ।

174. अंतर पट = परदा पड़ जाना ।

175. भेटिया = मिला । अघाई = तृप्त हो ।

176. चोट = सहारे । अहेड़ = शिकारी ।

177. प्रतिपाला = रक्षा ।

178. सौं = क्या । थावा = होना । रुड़ौ = अच्छा । कोड़ = रोड़ों। । आपै = दे । अवलम्बन = मदद ।

179. कूड़ो = झूठा । रुड़ो = अच्छा । बीजो = दूसरा ।

181. भाने = नष्ट करें। घड़े = उत्पन्न, पैदा करें। अरि = बाह्य शत्रु । रिपु = काम, क्रोध आदि अन्तर के शत्रु ।

182. मीच = मृत्यु, काल ।

183. नीके = श्रेष्ठ

184. बहुर = फिर ।

185. पन्थ शिरानैं = रास्ते चल रहे हैं।

186. तेऊ = तो भी । रीता = खाली । विलूध = लगा, चिपटा । तिल = पल । ताड़ीजै = चलाइए ।

187. भइला = हुए । गइला = गये । चीन्हा = जाणा । कर लाई = हाथ पकड़ ।

188. घण घावों = बहुत सारे घावों से । साटा = बदला ।

189. भाखे = कहे ।

190. दौं = आग । काई = मैल । बिलाई = विलीन हुआ ।

191. कसण = कसौटी ।

192. काच = झूठी, मिथ्या ।

194. तृषा = तृष्णा । सो जल = आत्म रस ।

195. पाहण = पत्थर । मेदन = भूमि पर ।

196. स्थावर = जड़ । जंगम = चेतनप्राणी । महियल = आकाश ।

197. सिरजिया = बनाया । कमड़े कापड़ = कमरी आदि कपड़ों के भेषधरी ।

198. चौक पुराऊँ = हृदय को सजाऊँ । लाहा = लाभ ।

199. आन = अन्य वस्तुएँ । प्रीतड़ = परम आदि ।

202. बेल = शुद्ध प्रेम । बाही बेल = बेल लगाई ।

203. मिरग = मृग । पैसि = प्रवेश करना । पंक = मैले ।

204. थान = जगह । परमिति = अन्तवाली ।

206. मंगलाचार = आनन्दोत्सव ।

207. बिलाण = कर्ता-हर्ता

208. वरण = रूप ।

209. अंजन = अनित्य । विवर्जित = दूर । लिपे = बन्धे । बाँछे = चाहे ।

210. ठाहर = जगह ।

211. थिर = निश्चल । परमोधं = समझाना ।

212. मूनै येह अचम्भो = मुझे यह अचम्भा । थाये = हो रहा है कि, कीड़ीये = चींटी रूपी मन्सा ने । हस्त = हाथी रूपी मन को मार गिराया और उसको बैठकर खाती है । जाण = जानकार जो मन था सो हार बैठा । अजाण = अन्जान जो मनोकामनाएँ थीं उन्होंने मन को ठग लिया ।

। इति राग रामकली सम्पूर्ण ।

अथ राग आसावरी

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213. मंझार = मध्य में।

214. भव पारा = संसार से पार उतरना ।

215. आगम = आगे का ।

218. अविरथा = फालतू, निष्फल ।

219. रैणि = रात । विहान = गई ।

220. नाठ = भाग गई ।

223. बोरे = बेसमझ ।

224. उपावणहारा = रचने वाला । उपान = पैदा हुउ । भूचणहारा = भोगनेवाला ।

225. मरे जे कोई = गुण विकार से रहित हो जाय ।

226. मोटे = महान ।

227. बिलाई = विलीन हो ।

228. वासुकि = शेषनाग । आराह = आराधना करना ।

229. चेला = मन ।

230. उनमनि लागा = निराश्रय ध्यान में।

231. मैंगल = हाथी की ।

232. मोपै = मेरे ।

233. लोइ न लीये = देख न सके ।

235. मंडित माया = माया का फैला हुआ ।

236. भवन गवन = अपनी ठीक जगह जाना ।

237. आब = पानी । बाद = वायु । बातिन = गुप्त ।

238. खुमार = नशा । छाके = तृप्त हो गये ।

240. नैन बिन = प्रज्ञा नेत्र बिना ।

241. तूरा पूरा सूरा = शूरवीर ।

242. द्वै कर = द्वैतकर ।

243. थकित = हैरान । साइर बूँद = समुद्र, जलबिन्दु ।

244. उनमान = अनुमान । रटैं = जपें।

245. खरे सयाने = सच्चे, होशियार ।

। इति राग आसावरी सम्पूर्ण ।

अथ राग सिन्दूरा

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246. हंस = निर्मल सन्त ।

247. कुश्मल = कामादि मैल ।

248. ते = उसमें।

249. तेहनों = तेरा । निज = साक्षी ।

250. भाजे = दौड़ना । भन्ता = भाँति ।

251. किमि = क्यों। भिड़े = सामना करे । पियड़ो = पति, स्वामी ।

252. बिहावण = डरावणी । बिहूँणो = बिना । तेहज = वही ।

253. रंग कसूंभ के = संसार के नाशवान पदार्थों के रंग में भूला है । निर्बन्धों = बन्धन रहित । सिखावण = शिक्षा ।

। इति राग सिन्दूरा सम्पूर्ण ।

अथ राग देवगान्धर

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254. जाइ जरे = नाना प्रकार की आराधनाओं में लग जीवन समाप्त कर लेना ।

255. बौर = पागल होना ।

256. छूटक = छुटकारा । डहकायो = भरमायो ।

। इति राग देवगांधर सम्पूर्ण ।

अथ राग कालिंगड़ा

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257. ओलेखियो = जाना-पहचाना हुआ । पायू = पाऊँ । येणीं पेरें = इस रीति से । एवैं = ऐसे । पूरब = पूर्ण कर ।

258. पामियाे = पायो । एह्नो = ऐसा । कीधो = कियो । वारयोरे = मना किया । हारयो रे = खोयो । भणीजे = कही जे ।

। इति राग कालिंगड़ा सम्पूर्ण ।


अथ राग परजिया

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259. लाहा = लाभ । सूरिया = शूरवीर ।

। इति राग परजिया (परज) सम्पूर्ण ।

अथ राग भाँणमली

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260. रहेश = रहूँगी । लहेश = लूँगी । तणों = का । मेल्हूँ = छोड़ूँ । वहीश = आज्ञा में बह जाऊँगी । दहीश = जल जाऊँगी ।

261. देखाड़ = दिखा । येज = यही । मलो रे सहिए = मिला चाहिए । जेणी पेरें = जैसे । आलो जाण = अपना प्रिय ।

262. के व = किय । ते तणों = तिसका । साँभल = सुन ।

263. संभारयो = सँभाल (चिन्तन) से । वेला ये अवार = किसी भी समय । तेम = वैसे ।

। इति राग भाँणमली : आधुनिक (भवानी) सम्पूर्ण ।

अथ राग सारंग

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264. भवन गवन गवन भवन = वृत्ति का परमात्मा में मन द्वारा गमनागमन । रवन हवन = रमन, लय लीन । क्षीर नीर = ब्रह्म का संशोधन रूप खोज ।

265. निबहै = निभेगा ।

266. ऊभे = खड़े ।

। इति राग सारंग सम्पूर्ण ।

अथ राग टोडी

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269. सुषुमन = कुं। भक करके । नीका = ठीक प्रकार । भाखे = स्मरण करे । निमष = पल ।

271. राय = राजा । अघाइ = तृप्तकर ।

272. इक टक = स्थिर वृत्ति से । छाक परे = तृप्त हो गये ।

273. कीधेला = किया । वारया = मना किया । मेल्ह = छोड़, त्याग । अणसरिये = प्रवृत्ता हो । मूक = छोड़ं आन = और । सांभल्युं = सँभाला । आन दीठो = सत्य आत्मा को असत्य । अमृत = आत्मचिंतन । कड़वो = खारो ।

274. कारी करो = सहायता करो ।

275. दीवान = सर्वज्ञ । मौज = आनन्द, खुशी । कायम = स्थिर । खैर खुदाइ = परमात्मा की कृपा । मैं शिकस्तः = हारा हुआ ।

277. नेटि रे = अन्त में।

278. आहि = मिला, प्राप्त हुआ । शिर भाग = श्रेष्ठ भाग ।

281. दहणा = जलाना । बहायला = बहा देना । लोक राता = संसार में लगा हुआ ।

284. माधइयो = मुक्त, सन्त कहते हैं। माहवो = भीतर ही ।

285. द्वन्द्व = गुण विकार । निर्वान = मुक्ति ।

286. बिड़द = महत्तवर् कीत्ति । भान झेरा = दूरकर उलझन ।

। इति राग टोडी (तोडी) सम्पूर्ण ।

अथ राग हुसेनी बंगाल

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289. खाना = कबीला । मादर पिदर = माता-पिता । आलम = संसार । बेगाना = पराया । शिरताज = शिरोमणि । सुलताना = महाराजा । नूर चश्म जिंद मेरे = आपकी ज्योति ही मेरे नेत्रों का लक्ष्य है । एकै असनाब = एक तू ही साथी है । जानिबा = प्रिय । महर = दया ।

290. सुलक्षण पीव = अच्छे लक्षण वाला प्रिय । हिक तिल = एक पल । हेत सौं = अति स्नेह से ।

। इति राग हुसेनी बंगाल सम्पूर्ण ।

अथ राग नट नारायण

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291. कलप = युगयुगान्तर । महूरत = घड़ी मेंं बाढ़े = काटे । जाल न रालै = जंजाल दूर कर देता है ।

292. सवेरा = जल्दी ।

293. अनेर = बुरी, खराब । करम कर = कृपा कर ।

294. देत बजाई = नाम चिन्तन से ध्वनित करे ।

295. हस्त कमल = करुणाकर । छोत = छूत । ढरे = कृपाकर । सिरे = पूर्ति हो ।

296. अकल = निर्गुण । जल = शुक्र बिन्दु से । चित्र = शरीर ।

297. बपरी मति = देहाभिमानी बुद्धि । दृष्टि = इन्द्रिय । सुरति = वृत्ति । उनमन = लयवृत्ति । अगह = गृहीत न हो सकने वाला । गहन = पकड़ में।

। इति राग नट नारायण सम्पूर्ण ।

अथ राग सोरठ

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298. कोल = जीव । साल = हृदय देश । घावर = आवरण । एक मना = एकाग्रचित ।

299. बपु = शरीर । जित तित = सब शास्त्रों में ।

301. दारा = स्त्री ।

302. बादि = व्यर्थ ।

303. पयाना = कूच कर गया, चला गया ।

304. जेबड़ = रस्सी । सूता = अज्ञान नींद में।

305. चेटक = मोहनीमाया ।

307. कुल के मारग = वंश परम्परा ।

308. चीन्हा = पहिचाना ।

309. पाइन = चरणों के ।

310. टांच = बनाया गया ।

311. लखावे = मालूम हो । अपने अंग क = अपने पन की । दीन = निरभिमानी । अछोप = अछूत ।

। इति राग सोरठ सम्पूर्ण ।

अथ राग गुंड

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313. आपै = आरम्भ से ही, स्वयं ही ।

314. खांत = लगन । दुहेल = दुखी । उरो आव = नजदीक आ, हृदय में।

315. परस = एकता ।

316. बाण = आदत, स्वभाव ।

317. पंथी बूझे = रास्ते चलने वालों को पूछे ।

318. सदके करूँ = समर्पण करूँ ।

319. यूँ रहै = इस तरह परमात्मा में रह सकते हैं। इकलस = एकरूप ।

320. वाचापालना = अपनी भक्तवत्सलता का पालन करो ।

321. यह = मन इन्द्रियों । बसाइ = बस ।

322. कायर = भयभीत । कंपे = डरै । यहु दरिया = संसार सागर ।

323. अघ = पाप । दारुण = कठिन ।

324. बारे = टालै । बाह्या = चलाया । येन्हा = मन के । उदमद = उन्मत्ता । दाझे = जलै । बाझे = भागे । बाहे = बहकावे ।

325. पोच = हलकी, बुरी ।

326. नाद बागा = शब्द बजा ।

327. मेरु शिखर चढ = माया की प्रवृत्तियों को वश में कर ज्ञान के शिखर पर आरूढ़ हो । गाढ = स्थिर ।

328. राचे नहीं = आसक्त नहीं हो ।

329. भीना = राजी, प्रसन्न । तेरड़े = तुम्हारे ।

330. साटे = बदले के ।

332. वनराय = वनस्पति ।

। इति राग गुंड (गौंड) सम्पूर्ण ।

अथ राग बिलावल

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333. प्राणि बल = अपनी शक्ति । कला कर = उपाय कर ।

334. गुनहीं = अपराधी । अमल बद विसियार = बुरी आदतों के वश में हूँ । सत्तार = निस्तारक ।दरदवंद = दु:खी । फरामोश नेकी बद = भलाई बुराई को भूलता हूँ । सैल = स्वतः सहज । फिल कर देहु = माफष् कर दो ।

335. कमींण = नीच ।

336. पच्छिम जाना = अधोगति में गया ।

337. डहकावे = बहकै ।

340. घर घाले = घर नष्ट किये ।

341. हिम हरते = हिमालय में , बर्फ में ।

345. परमोध = उपदेश दिया ।

346. तोरैं पात = तुलसी के पत्तो तोड़ते फिरते हैं।

347. आपा पर अन्तर नहीं = भेदभाव के विचार नहीं ।

348. शून्य विचारे = सहज अवस्था प्राप्त करे ।

349. द्वितिया दोइ = मैं तू का भेद । कसाने = उखाड़ फेंके ।

352. अर्श = मन । रब्बदा = ईश्वर का । ईथांई = यहीं। सुबहान = खुदा । कंगुरेला = शुद्ध अन्तःकरणयुक्त । वंजाइ = पवित्र ।

353. सिद्धों दा = सिद्ध दत्तात्रोयादि ।

। इति राग बिलावल सम्पूर्ण ।

अथ राग सूहा

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355. पहली शीश = पहले आत्मसमर्पण करने से ।

अथ काया बेली ग्रन्थ

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356-363. परमेश्वर सब जगह विद्यमान है, परन्तु वह गुरु की कृपा के बिना प्राप्त नहीं होता । संसार में जो भी वस्तु है वह सभी सद्गुरु काया में ही दिखा देते हैं। जैसे ओंकार से सम्पूर्ण शब्द सृष्टि होती है हमारे प्राण भी उसी से गतिमान हैं। जैसे महाकाश में संसार के सब पदार्थ आश्रय पाते हैं, वैसे ही सन्त साधक का समभाव है वही आकाश है । जैसे पृथ्वी अति सहनशील है वैसे ही सन्त-महात्मा क्षमारूप धरती को शरीर में धरण करते हैं। जैसे बाहरी संसार में हवा प्राणदायक है वैसे ही शरीर में भी प्राणवायु जीवन का प्रकाशक है । जैसे बाहरी संसार में जल से हरियाली है, सरसता है, आनंद है, वैसे ही काया में भी ज्ञान रूपी जल से सरसता व आनन्द की प्राप्ति होती है । जैसे बाह्म संसार में सूर्य और चाँद प्रकाश फैलाते है । उसी प्रकार मन और प्राण आत्मामय होकर शरीर लोक को प्रकाशित करते हैं। जैसे तीनों देवों -ब्रह्मा, विष्णु, महेश की प्रमुखता है वैसे ही काया में -सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण की प्रमुखता है । लोक में जैसे माया अविद्या रहित समष्टि चेतन व्यास है वैसे ही गुणातीत चेतन इस काया में अलख अभेव रूप में विद्यमान हैं जैसे लोक में चारों वेद प्रसिद्ध हैं काया में भी नामचिन्तनरूप, जरणारूप, सहनशीलतारूप और अनुभव-रूप प्रसिद्ध हैं। जैसे अविद्या-उपाधि से लोक में नानात्व है उसी तरह काया-उपाधि से भेदज्ञान होता है औपाधिक भेदज्ञान की निवृत्ति इस शरीर द्वारा साधन कर सत्य ज्ञान की प्राप्ति से होती है अतः इस काया ही से ज्ञान का रहस्य प्राप्त होता है ।

जैसे लोक में जरायुज, अंडज, उदि्भन, स्वेदज चतुर्विध प्राणी सृष्टि है उसी प्रकार इस काया में आत्मा, मन, प्रकृति, शरीर तथा नाड़ी, नेत्र, रोमकूप, अस्थियाँ ऐसे चतुर्विध सृष्टि है । जिस प्रकार ब्रह्मवाणी परा, देववाणी पश्यन्ती, पशु-पक्षियों की वाणी मध्यमा, मनुष्यों की वाणी बैखरी है, वैसे ही काया लोक में नाभि, हृदय, कंठ, मुख की क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी वाणी हैं। जिस प्रकार लोक में उत्पत्ति और मृत्यु का प्रवाह बराबर चलता रहता है, वैसे ही काया में भी अन्तःकरण में अनन्त वृत्तियों की तरंग रूप में उत्पत्ति तथा विलय का क्रम चलता रहता है । शरीर में मन के मनोरथ उत्पन्न और नष्ट होते है । विविध भावनाओं में मन का गमनागमन ही चौरासी में फिरना है । जैसे ध्र्म स्थान के लिए ब्रह्मांड में ईश्वर बारं बार नृसिंहादि अवतार लेते हैं , वैसे ही शरीर में मर्यादा स्थापना के लिए विवेकादि दिव्य गुण बारंबार प्रकट होते रहते हैं। लोक में जैसे सूर्य के उदय तथा अस्त से रात-दिन का एक तार लगा रहता है, वैसे ही इस काया लोक में भी ज्ञान और अज्ञान दशा से दिन-रात का अनुबन्ध चलता रहता है । जब हमने परम गुरुब्रह्म को उसी की कृपा से प्राप्त किया, तब शरीर में ही अद्वैत निष्ठा द्वारा संपूर्ण द्वैत का अद्वैत रूप में ही दर्शन किया ।

357. त्रिताल जैसे ब्रह्मांड में विविध लीलाओं के फैलाव हैं , वैसे ही काया में भी मन, बुद्धि, चित्ता अहंकार, इन्द्रियादि के विविध व्यवहार ही विविध लीलाओं के फैलाव हैं -नि:शं क निर्भय मनोवृत्ति ही राजा है, अन्य वृत्तियाँ प्रजा हैं , सन्तोष धन, आशा दरिद्रता है, दैवी गुण उत्ताम जन हैं , आसुर गुण अधम जन है । इत्यादि सभी विस्तार शरीर में हैं। जैसे ब्रह्मांड का आधर ईश्वर चेतन है वैसे ही काया में प्राणों का आधर जीव चेतन हैं जैसे ब्रह्मांड में अठारह भार वनस्पति हैं , वैसे ही शरीर रोमावली ही अठारह भार वनस्पति हैं। बीस पंसेरी का माप एक भार कहलाता है । प्रत्येक वनस्पति का एक-एक पत्ता लेकर तौलने से अठारह भार बोझ होता है, इसीलिए वनस्पतियो । को अठारह भार कहते हैं।

जैसे ब्रह्मांड का उत्पन्न करने वाला ईश्वर ब्रह्मांड में है, वैसे ही स्वप्नादि रूप जीव सृष्टि का उत्पन्न करने वाला जीव चेतन शरीर में स्थित है । जैसे लोक में विविध वन है उसी प्रकार काया में सिर-केश, मन-प्राण इन्द्रियाँ आदि वनों का एक ही वन चेतन आत्मा है । लोक में जैसे प्राणी घर बना कर निवास करते हैं। ऐसे ही काया लोक में हृदयरूपी घर में साधक आत्मचिन्तन करते हैं। जैसे लोक में साधक विविध गुफाओं में तथा हिमालय के कैलाशादि स्थानों में निवास कर आत्मचिन्तन करते हैं वैसे ही काया लोक में हृदयरूपी गुफा तथा इन्द्रियाधर मस्तिष्करूपी कैलाश में वृत्ति को विलय कर साधक साधना करते हैं।

शरीर में ब्रह्म-वृक्ष है तथा सुख ही उसकी छाया है, माया-मोहित जीव ही ब्रह्म-वृक्ष पर रहने वाला पक्षी है । लोक में सभी वस्तु का आदि और अन्त है । सारा लोक ईश्वर से व्याप्त है । इसी तरह कायालोक भी त्रिगुणात्मक प्रकृति उसका आदि है । त्रिगुणात्मक विविध प्रवृत्तियाँ है । उनका रूप भी अनन्त है । उन सबसे परे या आगे अधिष्ठान चेतन है वही कूटस्थ-अपना आत्मा-भगवत्स्वरूप है । शरीर में आत्म रूप से भगवान स्थित हैं। जैसे तीनों लोक (स्वर्ग, मृत्यु, पाताल) में प्रभु समाया हुआ है शरीर में स्थित प्राणी अपनी भावनानुसार वृत्ति द्वारा माया वा ब्रह्म में समाये रहते हैं। जैसे ब्रह्मांड में चौदह लोक माने गये हैं उसी प्रकार शरीर में चौदह लोक मौजूद हैं। ब्रह्मांड के चौदह भुवन और योगानुसार शरीर के भुवनों के नाम निम्न प्रकार हैं-

लोक निवासी कार्य स्थान

1. भू: मनुष्य, पशु नाभि

2. भुवः भूत, पक्षी उर (हृदय)

3. स्वः देवता उदर

4. महर ऋषि छाती

5. जन सकामी भक्त कंठ

6. तप सूर, सती, संन्यासी नासिका

7. सत्य ज्ञानी, संन्यासी दशम द्वार

8. अतल महादेव कुक्षि

9. वितल बाणासुर कमर

10. सुतल मय नामा जंघा

11. तलातल बलि घुटने

12. महातल वासुकित नाग पिंडली

13. रसातल शेष टखने

14. पाताल कदु्र के पुत्र पगतली मन का एक स्थान से आना और दूसरे पर जाना शरीर में आवागमन है । ब्रह्माण्ड में चौदह भुवन, इक्कीस स्वर्ग तथा नवखंड के विभाजन द्वारा किया गया है । (1) आसुरी स्वर्ग, (2) भूत, (3) यम, (4) किन्नर, (5) ब्रह्म राक्षस, (6) राक्षस, (7) काल, (8) चित्रगुप्त, (9) योगिनी, (10) गन्धर्व, (11) अर्यमा, (12) महा स्वर्ग, (13) तप, (14) जन, (15) सत्य, (16) दवि, (17) सुरलोक, (18) देवस्वर्ग, (19) पयाली, (20) विश्वकर्मा, (21) खंड स्वर्ग ।

अग्निपुराण में नाम भेद से निम्न प्रकार बताये हैं -(1) आनन्द, (2) प्रमोद, (3) सौख्य, (4) निर्मल, (5) त्रिविष्टप, (6) नाकपृष्ठ, (7) निर्वृत्ति, (8) पौष्टिक, (9) सौभाग्य, (10) अप्सरस, (11) निरहंकार, (12) शान्तिक, (13) अमल, (14) पुण्याय, (15) मंगल, (16) श्वेत, (17) मन्मथ, (18) उपसोहन, (19) शान्ति, (20) निर्वेद, (21) अभेद ।

शरीर मेंमेरु दंड की 21 गाँठें हैं वे ही 21 स्वर्ग हैं। इसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्मांड भेद काया में स्थित हैं ब्राह्म-लोक के नवखंडों की तरह काया लोक में भी नवखंड हैं। उनके नाम इस प्रकार है -

चक्रनाम पंखुड़ी अक्षर देवता स्थान

आधर 4 4 गणेश गुदा

स्वाधिष्ठान 8 8 ब्रह्मा लिंग

मणिपूर 10 10 वायु नाभि

निरंजन 8 8 मन उदर

उद्यद 12 12 सूर्य हृदय

विशुद्ध 16 16 चन्द्रमा कंठ

बत्ताीसा 32 32 विष्णु तालु

आज्ञा 2 2 महादेव मस्तक

ब्रह्मरंध्र 1000 1000 दशों दिशा दशम द्वार

काया में ही दशम द्वार स्वर्ग, उदर मृत्युलोक, पदतल पाताल हैं। अन्य भी 14 भुवन, 21 स्वर्गादि सभी ब्रह्मांड के स्थानादि काया में ही दिखा दिये है । किन्तु हम मन-कर्म-वचन से कहते हैं -गुरु-उपदेश के बिना यह बाहरी ब्रह्मांड शरीर में नहीं देखा जा सकता ।

358. भौतिक लोक में जैसे 7 द्वीपों के 7 सागर हैं वैसे ही काया लोक में भी सप्त सागर है । जैसे (1) जम्बूद्वीप में क्षार समुद्र, (2) प्लक्ष में ईक्षुरस समुद्र, (3) कुश में क्षीर सागर, (4) शाल्मलि में सुरा सागर, (5) क्रौंच में दधि सागर, (6) शाक में घृत सागर, (7) पुष्कर में सुध सागर है, वैसे ही शरीर में - (1) श्रवण, (2) हस्त, (3) उदर, (4) नासिका, (5) मुख, (6) नेत्र, (7) पद इन सात द्वीपों में उक्त सात समुद्र हैं -रस, रक्त, मां स, मेद, मज्जा, अस्थि, शुक्र-ये सात सागर हैं। जैसे लोक में एक अवर्णनीय अलक्षित शक्ति सर्वत्र काम करती है पर प्रतीत नहीं होती, इसी प्रकार काया लोक में भी इस स्थूल प्रपंच से भिन्न एक अविगत-विवरण रहित एक शक्ति कार्य करती है । जैसे ब्रह्मांड में विशुद्ध जल युक्त विविध नदियाँ प्रवाहित हैं। वैसे ही शरीर में प्रेम जल से परिपूर्ण हृदय-सरोवर है । ब्रह्मांड में जैसे विशेष ज्ञानयुक्त व्यक्ति बसता है, वैसे ही काया में विशेष ज्ञानयुक्त बुद्धि बसती है । ब्राह्म लोक में जैसे गंगा-जमुना तरंगित हैं। इसी तरह काया नगरी में भी पिंगला नाड़ी में स्वर का प्रवहण गंगा, इड़ा नाड़ी में प्राण का सं वहन जमुना की तरंगित दिशा है । सुषुम्ना नाड़ी रूप सरस्वती काया में है । जैसे ब्रह्मांड में द्वारिका पुरी है, वैसे ही काया में सहòार चक्र द्वारिका है । जैसे इस लोक में काशी है वैसे की शरीर में आत्मा काशी ही है । काया में आत्मचिन्तन रूप स्नान संत जन करते हैं। जैसे बाह्य पूजा होती है, वैसे ही काया में मानव पूजा होती है । बाहर पूजा के समय तुलसी पत्र चढ़ाते हैं , वैसे ही मानस पूजा में प्रेम रूप तुलसी पत्र चढ़ाया जाता है, जैसे जनता तीर्थों में जाती है, वैसे ही काया में वृत्ति तीर्थों में जाती है । जैसे भारत में केदार, गंगासागर, गया, प्रयाग और काशी पंच तीर्थ प्रधन है । वैसे ही काया में शिर-केदार, कंठ-गया, नाभि-प्रयाग, उपस्थ-गंगासागर, और चेतन ही काशी है । जैसे बाह्य मुनिवरों का सम्मेलन होता है, वैसे ही मननशील मन इन्द्रियों का एकाग्रता रूप सम्मेलन शरीर में होता है । जैसे ब्रह्मांड में ब्रह्म सब में रहकर भी सबसे अलग ही रहता है वैसे ही शरीर में भी जीव चेतन सबसे अलग अकेला ही रहता है । काया में अजपा जाप निरंतर जपा ही जाता है । जैसे ब्रह्मांड में ब्रह्म है वैसे ही काया में भी आत्म रूप से स्वयं आप ही स्थित हैं जैसे ब्रह्मांड में नाना निधियाँ हैं , वैसे ही काया नगर में दया, धर्म, क्षमा, सन्तोष, शील, प्रेम, ज्ञानादि निधियों का कोष है । जैसे ब्रह्मांड में नाना खेल होते हैं वैसे ही काया में भी नाना वृत्ति व्यापार और वृत्ति स्थैर्य रूप खेल होते ही रहते हैं वा भगवत् प्राप्ति रूप अदभुत खेल होता है । साधक सद्गुरु के सत्संग द्वारा आन्तर साधना से उस प्रभु को ही प्राप्त करे, भ्रमवश उसे भूल कर ब्राह्म तीर्थादि भ्रमण में ही कोई न पड़े ।

359. जैसे ब्रह्मांड में बदरी, केदारनाथ, अमरनाथ, गंगासागर आदि तीर्थ स्थानों का बड़ा कठिन मार्ग है, वैसे ही काया में ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग अति कठिन है । जैसे बदरीनाथादि के मार्ग में दुर्गम घाटियाँ होती हैं , वैसे ही शरीर में ज्ञान के मार्ग में काम, क्रोधदिक दुर्गम घाटियाँ हैं। ब्रह्मांड में जैसे पाटलीपुत्र आदि विशाल नगर हैं और उनमें अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं , वैसे ही काया में प्रभु-प्रेम, विचारादि नगर हैं , उनमें प्रभु द्वारा सब कुछ प्राप्त होता है, वा जैसे ब्रह्मांड में कोई ग्राम पट्टण हो जाता है, वैसे ही काया में भी कोई विचार नष्ट हो जाता है । ब्रह्मांड में जैसे वैकुण्ठादि उत्ताम स्थान हैं , वहाँ विष्णु आदि के दर्शन होते हैं , वैसे काया में अष्टदल-कमलादि उत्ताम स्थान हैं , उनमें भगवान् के दर्शन होते हैं। जैसे ब्रह्मांड में लोग मंडप बनाकर उसमें बैठते है । वैसे ही काया में मन वासनाओं का मंडप बनाकर उसमें स्थित रहता है वा काया में मन साधना रूप मंडप बनाता है, उसमें स्वयं भगवान् विराजते हैं। जैसे ब्रह्मांड में महल होते हैं , वैसे ही काया में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आनन्दमय में पंच कोश ही महल हैं। ब्रह्मांड में जैसे लोग काशी में कल्याणार्थ स्थिर निवास करते हैं , वैसे ही काया में ब्रह्म में वृत्ति स्थिरता रूप निश्चल निवास होता है । जैसे लोक में राज द्वार होता है, उस द्वार से राजा के पास जाते हैं वैसे ही काया में दशम द्वार राज द्वार है, उसके द्वारा ही बह्य रूप राजा को प्राप्त होते हैं। जैसे ब्रह्मांड में वक्ता होते हैं वैसे ही काया में बोलने वाला वाक् इन्द्रिय है वा उसका प्रेरक आत्मा है । जैसे लोक में नाना पदार्थों के भं डार भरे रहते हैं , वैसे ही काया में भी सब कला-गुण-ज्ञानादि के भंडार भरे हैं किन्तु उनके अज्ञान रूप ताले लगे हैं जो कलाज्ञ, गुणज्ञ और ज्ञानी लोगों द्वारा खोले जाते हैं , तब सब काया में ही मिलते हैं। जैसे ब्रह्मांड में अपार वस्तुएँ हैं वैसे ही काया में भी सप्तधतु, दैवीगुण, आसुर-गुण आदि अनन्त वस्तुएँ हैं वा जिसका पार नहीं आता ऐसी परब्रह्म वस्तु जैसे ब्रह्मांड में है, वैसे ही काया में भी है । जैसे ब्रह्मांड में 1‑पर् ि2ं. महाप,र्ं ि3. श । ख, 4. मकर, 5. कच्छप, 6. मुकुन्द, 7. कुन्द, 8‑ नील, 9. बर्च्चः, ये नौ निधि हैं। वैसे ही काया में 1. श्रवण, 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पाद-सेवन, 5 अर्चना, 6. वंदना, 7. दास्य, 8. सख्य 9. आत्म-निवेदन, ये नवध भक्ति ही नवनिधि हैं। जैसे ब्रह्मांड में 1. अणिमा, 2. महिमा, 3. लघिमा, 4. गरिमा, 5. प्राप्ति, 6. प्रकाम्य 7. ईशत्व, 8. वशित्व, ये अष्ट सिद्धि है । , वैसे ही काया में मन, बुद्धि, चित्ता और पंच ज्ञानेन्द्रिय ये अष्ट सिद्धि हैं। जैसे लोक में अन्य 1. सर्वज्ञता, 2. दूर श्रवण, 3. पर काय प्रवेश, 4. वाक् सिद्धि, 5. कल्प वृक्षत्व, 6. सृजन शक्ति, 7. संहार शक्ति, 8. ईशता, 9. अमरत्व, 10. सर्त्वांग, में दश सिद्धियां हैं , वैसे ही काया में 1. इड़ा, 2. पिंगला, 3. सुषुम्ना, 4. गान्धरी, 5. हस्तिजिह्ना, 6. पूषा, 7. यज्ञस्विनी, 8. अलम्बुषा, 9. कुहू 10 शंखिनी, ये नाड़ियाँ ही दश सिद्धियां हैं। इनके स्थान क्रम से-1. वाम नासिका, 2. दक्षिण नासिका, 3. दोनों नासिका का मध्य भाग, 4. वाम नेत्र, 5. दक्षिण नेत्र, 6. दाहिना कान, 7. वाम कान, 8. मुख, 9. लिंग, 10. गुदा हैं। ये अभ्यास के द्वारा सिद्धि प्रदाता होने से सिद्धियाँ हैं। जैसे लोक में हीरों की दुकान होती है, वैसे ही काया में विचार रूप हीरों का साल बुद्धि है । लोक में खानियों से लाल निपजते हैं वैसे ही काया में भजनादि द्वारा इन्द्रियों की श्रेष्ठता, एकाग्रतादि लाल उत्पन्न होते हैं अर्थात् जैसे पत्थरों की खान से लाल निकलते हैं वैसे ही मन इन्द्रिय विषयों से निकल कर हरि की ओर लगता है तब लाल रूप ही हो जाता है । जैसे लोक में जौहरियों की पेटियों में माणिक्य भरे रहते हैं , वैसे ही काया में भी श्वास रूप माणिक्य भरे हैं। जैसे लोक में ब्राह्म पदार्थों को ले-लेकर घर में रखते हैं वैसे ही साधक सन्त विचारों को लेकर काया की बुद्धि में रखते हैं जैसे लोक में अमूल्य रत्न होता है, उसका कोई मोल नहीं होता, वैसे ही काया में ज्ञान रूप अमूल्य रत्न है जिसका कोई मोल नहीं जैसे ब्रह्माण्ड में -1. लक्ष्मी, 2. कौस्तुभ, 3. पारिजात, 4. सुरा, 5. धन्वन्तरि, 6. चन्द्रमा, 7. कामधेनु, 8. ऐरावत हाथी, 9. रंभा, 10. सप्तमुखी उच्चै:श्रवा अश्व, 11­‑विष, 12. हरि धनुष, 13. शंख, 14. अमृत, ये 14. रत्न हैं। वैसे ही काया में -1. भक्ति, 2. शांति, 3. ज्ञान, 4. सत्य बुद्धि, 5. श्रेष्ठ वचन, 6. अहंबुद्धि, 7. अनाहत नाद, 8. अष्टांग योग, 9. सन्तोष, 10. काम, 11. मन, 12. धैर्य, 13. युक्ति, 14‑ गुरु शब्द ये 14. रत्न हैं। जैसे ब्रह्मांड में सृष्टि कर्ता ईश्वर है, वैसे ही काया में भी जीव सृष्टि का कर्ता जीव चेतन स्थित है । किन्तु सम्पूर्ण सुखों के कोश उसके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता, इसी से जन्मादि क्लेश भोगता है । काया में सभी कुछ है किन्तु गुरुमुख द्वारा उसका परिचय प्राप्त करके खोजने से ही सब कुछ प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं ।

360. जैसे बाह्य लोक में सर्वोपरि परमेश्वर है वही सब दृश्यादृश्य का आधर है । इसी प्रकार इस काया में भी इन्द्रियाँ मन, वासना, बुद्धि आदि से रचा हुआ नानात्व है वह सब उस आत्मा के आधर से है । सब विविधताओं में उसी को जानना चाहिए । सत्यासत्य में , नित्यानित्य में , आधर आधेय में , सत्य नित्य आधर को इस काया में ही पहचानो । जैसे लोक में लोक का विस्तार असीम है और अनन्त है वैसे ही कायालोक में भी काया का जो मूलाधर आत्मा है वह असीम और अपार है । जैसे जगत् में उस अगम अगाध की खोज करने वाले जगत् में ही निपजते हैं , इसी तरह कायालोक में भी उस अगम अगाध की खोज करने वाले सन्तजन उत्पन्न होते हैं ।

बाह्य संसार के रचयिता जो संसार में रहते हैं फिर भी उनका यथातथ्य वर्णन नहीं किया जाता है; उसको प्राप्त करने की इच्छा वाले उसी में लयलीन होने का प्रयास करते हैं। ऐसे ही कायालोक का आधर चेतन काया में ही निवास करता है पर उसके स्वरूप का यथार्थ कथन नहीं किया जाता । साधक सन्त काया में ही हृदय प्रदेश में वृत्ति को स्थिर कर उसमें तल्लीन होने का प्रयास करते हैं । ब्रह्मचिन्तन रूप सार-साधन भी काया में ही होता है । विचारक सन्त काया में ही बुद्धि द्वारा ब्रह्म विचार करते हैं। अहंकार रहित प्रिय, ब्रह्म विचार सम्पन्न, अमरत्तव प्रदान करने वाली, अमृत वाणी भी शरीर में है, तभी सन्तों के मुख द्वारा बोली जाती है । काया में सारंग और प्राणधरी जीव दोनों ही स्थित है काया में संत प्राणी परमेश्वर के साक्षात्कार जन्म आनंद का अनुभव रूप खेल खेलते हैं। काल-कर्म के बाणाघात से रहित निर्वाण पद स्वरूप आत्मा काया में स्थित है । सबका मूल ब्रह्म वा शब्द सृष्टि का मूल आंेकार उसको संत काया में ही ग्रहण करके उसी में स्थिर रहते हैं। साधक काया में ही ब्रह्म-चिन्तन रूप चिन्तामणि से सब कुछ प्राप्त करते हैं। काया में ही विचार द्वारा निज स्वरूप का निर्णय करो, वह अपरम्पार स्वरूप कूटस्थ काया में ही है । सन्तजन काया में ही परब्रह्म की सेवा-पूजा करते हैं। काया में निरन्तर तालु मूल से अमृत झरता रहता है वा उक्त प्रकार सेवा-पूजा करने वालों को प्रभु-प्रेमामृत वा आनन्दामृत निरन्तर प्राप्त रहता है । काया में स्थित प्रभु के स्वरूप में वृत्ति द्वारा निवास करते हुए, और निरन्तर ब्रह्माकार वृत्ति रखते हुए स्थिर रहना चाहिए । यह मार्ग हमको सद्गुरु ने दिखाया है और हमने निरन्तर ब्रह्माकार वृत्ति रखते हुए ब्रह्म रूप अपना आदि स्थान प्राप्त किया है ।

361. काया में ही विश्व के सार परब्रह्म का अनुभव होता है । काया में ही बुद्धि द्वारा ब्रह्म विचार करते रहना चाहिए । काया में ही आत्मज्ञान की उत्पत्ति होती है । काया में ही ब्रह्म का ध्यान लगता है । काया में निर्विकल्प समाधि ही अमर स्थान है । निर्विकल्प समाधि में स्थित को काल नहीं मार सकता । काया के आत्मराम को पहचान, वृत्ति से भोगवासना का निवारण कर हृदयप्रदेश में वृत्ति की स्थिरता से जीवन-मृत्यु से रहित ऐसे आत्मस्थान को प्राप्त करते रहते हैं। जैसे लोक में गीत, वाद्य, नृत्य आदि कामशास्त्र की

64 कला तथा अन्य अनेक कलाएँ हैं , वैसे ही शरीर में भी इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि अनेक कला हैं। जैसे ब्रह्मांड में प्रेरककत्तर एक ईश्वर ही हैं , वैसे ही काया में भी वह एक ही प्रेरककत्तर है । परमेश्वर की भक्ति रूप-रंग-काया में ही लगता है । ईश्वर व्यापक होने से काया में जीव के साथ ही है ।

लोक में जैसे सुन्दर सरोवर तथा शुक्र, मैना आदि सुन्दर पक्षी मन का हरण करते हैं , ऐसे ही कायालोक में भी सबसे सुन्दर सुखदायी हृदय-सरोवर है । काया में ही मनरूपी शुक्र और वृत्तिरूपी मैना मौजूद है ।

बाह्य लोक में साधक जैसे कच्छपवृत्ति से अन्तर्मुख ध्यान व कुंज वाणी से सुरति साधना द्वारा ब्रह्मप्राप्ति की जाती है, ऐसे ही कायालोक में अन्तर्मुखवृत्ति से सुरति को ब्रह्म में आत्मस्वरूप में स्थिर कर आत्मपरिचय प्राप्त किया जाता है । साधन-सूर्य की किरणों से काया में हृदय-कमल खिलता है । उक्त कमल की ब्रह्म रूप सुगन्ध का अनुभव मन-भ्रमर काया में रहता है । जैसे लोक में नाद पर मृग मोहित होता है, वैसे ही काया में शब्द से श्रवण इन्द्रिय रूप मृग मोहित होता है । जैसे लोक में ज्योति पर पतंग मोहित होता है, वैसे ही काया में नेत्र रूप पतंग रूप ज्योति पर मोहित होता है । जैसे स्वाति बिन्दु के लिए चातक पुकारता है, वैसे ही काया में इच्छित वस्तु के लिए मन रूप चातक पुकारता है । जैसे बादल से जलवृष्टि के लिए मोर पुकारते हैं वैसे ही काया में प्राण रूप मोर जल के लिए पुकारते हैं। जैसे चन्द्रमा पर चकोर दृष्टि स्थिर रखता है, वैसे ही काया में सन्त चित्ता रूप चकोर, ब्रह्म रूप चन्द्रमा पर चिन्तन रूप दृष्टि सदा रखता है । काया में ही इन्द्रियों द्वारा प्रभु से प्रीति करो । शरीर में ही मन द्वारा प्रभु से स्नेह करो । शरीर में ही प्रभु-प्रेम रस प्राप्त होता है । ये उक्त सभी बातें गुरुमुख द्वारा जानकर साधन करने से काया में प्रत्यक्ष भासती है ।

362. संसार सिन्धु से तारने वाला परमात्मा आत्मरूप से काया में है । साधक काया में रहते ही भक्ति-ज्ञानादि द्वारा संसार के पार गये हैं। काया में रहते ही साधक वैराग्यादि साधन द्वारा अपने को दुस्तर भोगाशा से तारता है । काया में रहते ही साधन द्वारा जीवात्मा स्वयं ही अपना पतन से उद्धर करता है । काया में रहते हुए ईश्वर कृपा से साधक काम-क्रोधदि से तिरते हैं। पूर्वकाल को साधक मनुष्य शरीर में ही हरि में अनुरक्त होकर मुक्त हुए हैं। विषयों से लौटकर मन साधन में आता है, तब शरीर में ही ज्ञानादि उत्पन्न होते हैं।

ज्ञानादि की उत्पत्ति के अनन्तर शरीरस्थ चेतन में ही वृत्ति समाई रहती हैं पूर्वकालीन साधकों के अज्ञान कपाट काया में रहते ही खुले हैं। काया में ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । ब्रह्म साक्षात्कार करने वाला जीवात्मा भी काया में ही है । भक्तजन राम-भक्ति-रंग में अनुरक्त भी काया में रहते ही होते हैं। काया में रहते हुए ही सं त प्रभु-प्रेम में मस्त होते हैं। शरीर रहते हुए ही साधक के मन, बुद्धि आदि स्थिर हुए हैं। काया में ही जीव जीवित कहलाता है । सन्तो । ने काया में ही प्रभु को प्राप्त किया है । पदार्थ प्राप्ति जन्य आनन्द सदा काया में ही मिलता है । ब्रह्म प्राप्तिजन्य परमानन्द भी काया में ही मिलता है । काया में जो ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है, वह हमने समाधि अवस्था में आकर प्रत्यक्ष अनुभव किया है । वह ब्रह्मानन्द गुरुमुख से उपदेश श्रावण करके मनन, निदिध्यासान द्वारा प्राप्त किया जाता है, ऐसा ही सन्तजन समझा-समझा कर कहते रहते हैं।

363. सन्तों ने ब्रह्म स्वरूप का साक्षात्कार काया में ही किया है । ब्रह्म व्यापक होने से काया के नख से शिखा पर्यन्त रोम-रोम में परिपूर्ण है । ऋषियों ने ब्रह्म-तेज भी काया में रहते ही पाया था । शरीर में ही सबसे अधिक सुन्दर हृदय शय्या है । साधन द्वारा काया में ही प्रकाश राशि भासती है । शरीर में सदा ज्ञान रूप प्रकाश रहता है । शरीर में ध्यानावस्था के समय विश्व के सार ब्रह्म ज्योति की झिलमिलाहट देखने में आती है, अतः शरीर में ही है । ब्रह्मात्मा काया में रहकर भी सबसे अलग ही है । जिसका अन्त नहीं आवे, ऐसी आत्मज्योति काया में ही है । शरीर में ब्रह्म साक्षात्कार होने पर सदा वसन्त के समान आनन्दोत्सव ही रहता है । सन्तजन काया में ही अपने प्रियतम प्रभु से परम प्रेम रूप फाग का खेल खेलते हैं। जैसे ब्रह्मांड में नन्दनवनादि हैं वैसे ही शरीर में संकल्पवन-मन, विचार-वन बुद्धि इत्यादि सब वन और ज्ञान-बाग शरीर में है । साक्षी चेतन रूप कृष्ण और वृत्ति रूप गोपिकाएँ शरीर में रास खेलते हैं। शब्दानन्द, रूपानन्द, गन्धनन्द रसनान्द आदि विविध भाँति के सुख काया में हैं। अखंड नाम चिन्तन रूप बाजे सन्तों के रोम-रोम में बजते हैं । काया में ही अनाहत ध्वनि सजाई जाती है अर्थात् क्रम से स्थूल ध्वनियों से सूक्ष्म ध्वनियों में मन लगाया जाता है । शरीर में ही हृदय शय्या पर प्रभु साक्षात्कार रूप सुहाग सुख होता है । काया में साधन करने से मानव बड़ भागी बनता है । ब्रह्म प्राप्ति होने पर काया में अति आनन्द रूप मंगल का ही व्यवहार होता है । काया में ही आसुर गुणों को विजय करने पर जय-जयकार वाली ध्वनि होने लगती है । जैसे ब्रह्मांड अगम अगाध है, वैसे ही काया भी अगम अगाध है । हमने काया में ही अनाहत ध्वनि रूप नगाड़ा बजाकर मन को स्थिर किया, तब काया में ही प्रत्यक्ष रूप से प्रभु की प्राप्ति हुई है । इस प्रकार गुरुमुख द्वारा श्रवण करीपद्धति से साधन करके शरीर में ही हम प्रभु से मिले और उसी में वृत्ति द्वारा समा रहे हैं।

। इति राग सूहा (काया-बेली ग्रन्थ) सम्पूर्ण ।

अथ राग बसन्त

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364. जोध = धैर्य, त्याग, विनय आदि ।

365. मूने = मुझे । बेलो = पास । एने रे = विरह वियोग के ।

366. द्वन्द्वर = द्वन्द्व ।

367. मातो = मस्त, दिवाना । मधुकर = भ्रमर । लुब्ध = लोभी ।

368. पाखें = सहारे बिना । खड़ भड़ = अनवस्था । गाँव-गाँव = मन, बुद्धि, इन्द्रिय में । जाम = आठों पहर । प्राम = प्राप्त कर ।

369. संगियन = इन्द्रिय, प्राण, अन्तःकरण । तिहिं तरवर = साधक हृदय में ।

370. माल = कायावाड़ी का रखवाला । रास = खेल ।

371. मूंस = चुराकर । बाणि = आदत ।

372. मतिवाले = शुद्ध बुद्धि वाले । थकित भये = निश्चल हुए ।

। इति राग बसन्त सम्पूर्ण ।

अथ राग भैरूँ

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373. राता = लगा ।

374. सँभार = धरण कर ।

375. बिन्दु = वीर्य । त्रिया = पतिव्रता स्त्री । बरत = रस्सा । बान = आदत । कुरलि = शब्द, पुकार ।

376. व्याधि = रोग । तीनों ताप = आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक दु:ख । कम्प न काइर्र् = तल विक्षेप ।

377. आइ बण = आपसे ही लक्ष्यसिद्धि हो सकती है ।

378. इहै विभासण = यही डर । क्या शिर होइ = अन्त क्या होगा?

379. कर्म कहान = अपने किये हुए कर्माें की कथा ।

380. पंच पसारे = पाँचों इन्द्रियों को विषयों की ओर अधिक बढ़ने दिया । कच्छप ज्यों = मन इन्द्रियों का निग्रह, समेटना । भृंगी कीट = भ्रमण कीट की तरह एकाग्रवृत्ति से चिन्तन ।

381. कमीन = नीच । मोटे महल = परमात्मा का निवास स्थान ।

382. छाने = अच्छा लगे । निवाजे = प्रसन्न हो ।

383. कागा रे करंक पर बोले = काग की तरह यह मन करंक-हव्यिों के ढाँचे की तरह विषयवासनाओं में लगा रहता है ।

384. विषम व्याधि = जन्म-मरण ।

385. झक = व्यर्थ बोलना ।

386. आपण में = अपने ही अन्तःकरण में । मह = दही । मन मथियाँ = मन को शुद्ध किया । हुताशन = आग । अवन = भूमि में ।

387. उनमनि लागे = वृत्ति सहज अवस्था में लगे । द्वै पख छेद = एकत्व भाव ।

388. रती रत = खंड-खंड । खंड-खंड = चूर-चूर । शूरा = दृढ़ साधक ।

389. शंक = काण । निशंक = निर्भय ।

390. कलै नहिं = लिप्त न हो ।

391. सेऊँ = सेवा करूँ । कीरति करणा = यश गाना । मेटै आन = मर्यादा नहीं खोई ।

392. मैं मैं = अहंकार । मेटि = निवारण कर । भेटि = मिलाप ।

393. हम नाँहीं रे = यह शरीर जो दिख रहा है वह सत्य नहीं है । प्रजारा = प्रकाश । बाज = संसार रूपी तमाशा । कौतिक हारा = बाजीगर ।

394. मूल गहो = व्यापक तत्व पकड़ो । निबहो = नि योग ।

395. धन = शरीर रूपी सम्पत्ति ।

396. शेख = फकीर । खबर = सच्चा भेद ।

397. निन्दत = निन्दा करे । निरसंशय = बिनासंशय । द्वS पख = धर्म जाति का पक्षपात । तासन = उसको । तोले = मापै ।

398. म्हारूँ = मेरा । सूं = क्या है । जेहूं = जिसको । आपू = देबूं। ताहरूँ = तेरा ही । थापूं = अर्पण करूँ । तैं दीधो = तुमने ही पैदा किया । सहुवें = सभी ।

399. अवधू = निर्व्यसनी सन्त साधक । निरन्तर = अलग, दूर ।

400. सार = खींच । dl-कस = परीक्षा कर कर ।

401. दुर्मति = कुमति । पेड़ पकर = मूल ग्रहण कर ।

402. हाजिरां = परमात्मा की हाजिरी में रहने वालों के । मनी मेटि = मन की चंचलता मिटा । महल = अन्तःकरण में। हिर्स = चाह । दरोगे = झूठ, द्वेष ।

404. अगम निगम = वेद स्मृति निरुपति । पंच वायु = पाँच विषय प्रवृत्ति । आंणे = लावे । सूर = पिंगला । बंकनालि = तालु मूल से । विकसे = खिलै, प्रसन्न हो । बैस गुफा = हृदय गुहा में बृत्ति स्थिर कर ।

405. मूर = जड़ी ।

406. गोप = सद्बुद्धि । कान्ह = साक्षी आत्मा । अन्तर वेद = हृदय में जान । परसेद = प्रेम प्रवाह ।

। इति राग भैरू सम्पूर्ण ।

अथ राग ललित

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407. निहोरा = विनय, प्रार्थना ।

408. अम्हं चा = हमारा ।

409. एहज ठाम = यही जगह । सद्गुरु शरणे अणसरे = सद्गुरु की कृपा बिना काम रुका हुआ है ।

410. पिव पिव करे = नाम चिन्तन में रत रहे । हेत = अति प्रेम ।

411. आब = पानी । बाद = हवा । खाक = जमीन । आतिश = आग । आदम = खुदा के । मादर पिदर = माता-पिता । परदः पोश = अविद्या के परदे से ढका हुआ । दस्त गहै = हाथ पकड़ै ।

। इति राग ललित सम्पूर्ण ।

अथ राग जैतश्री

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412. बलि कीत = वारण लिया ।

413. जाण राइ = घट-घट की जानने वालों का स्वामी । दुराइ = छिपावे । दरश पियास = दर्शनों की प्यासी । सिराइ = शीतल करो ।

। इति राग जैतश्री सम्पूर्ण ।

अथ राग धनाश्री

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414. अपनो = गहरो, उघड़ने वाला । चौलो = अन्तःकरण में । अमोलो = बेश-कीमती । सुर úों = गहरो ।

415. अचला सौं = निश्चल व्यापक आत्मा । डुलाये = डोले, फनींद्र = सर्प । परिमल = सुगन्ध ।

417. सिरानों = बीतता, खतम होता ।

418. कीहै = कैसे । पार लहाउँ = पार पाऊँ । हिक कहाण = एक कथा । बाझें = बिना । डेवै = देवे । सो हौं = वह मैं। शीश सहांउं = सब सहन करूँ ।

419. अनल दहै = विरह अग्नि जला रही है ।

420. खूहि = कूवे में। पये = पड़े । जन तिहुँरा = जिन्नत । बहिशत = स्वर्ग । भाहि लगे = आग लगो । भाट्ठ पयें = भाड़ में पड़े ।

421. आशिकाँ = आशिक । ईमान = भरोसा है । चे कारे = क्या करिये । मीर मीर = बड़ों के बेड़े । फरिश्तः = सिद्धों के सिद्ध । आब, आतिश, अर्श, कुर्सी = पानी, आग, आकाश, जमीन । दीदनीदीवान = तेरे ही दर्शन होते हैं। हर दो आलम खलक खाना = सम्पूर्ण संसार ।

422. दायम दरबार तेरे = तेरे दरबार के भक्त जन । जर खरीद = मोल लिये हुए ।

423. धेनु = आशा रूपी गाय । बेनु = परावाणी वैखरी । गोप = अन्तर्निष्ठ बुद्धि । भावन = प्यारे । दुरित = पाप कर्म ।

424. कोटि किये = सकाम कर्म करोड़ों करने पर भी ।

425. जिन छाडे = मत त्यागिये ।

426. विखम बार = कठिन समय । भीड़ भंजन = दु:खनाशन । अन्त अधर = आखिर का आश्रय ।

427. साजनियाँ = प्रिय स्वामी । नीका = अच्छा । तृषा = प्यास ।

428. काइमां = सर्वदा मौजूद रहने वाले परमात्मा । कीर्ति करूँल = तेरा गुणगान करूँगा । सिरजिया = बनाया ।

429. अब थैं = अभी ।

430. गढ़ = किला । भेलस = तोड़ेगा । देखतड़ां = देखते-देखते । नाइक = जीव-रक्षक । नगर = शरीर । किम थाई = क्या हो । निवांणां = नीची जगह । बाँधो पालो = शमदमादि की पाल बाँध कर मन को रोको ।

431. बनिजन = जीवन का सौदा । जिन डहकावे = डावाँ डोल मत हो ।

432. ता थै = उससे । निकट बुलावे = अपनी ओर लगावे । काचे पाके = पक्के साधकों को काचे कर दिये । शशिहर = चन्द्र से ।

433. एक अंग = अद्वितीय ब्रह्म ।

434. ल्यौ = ध्यान । जाते दुख = सब क्लेश मिटै ।

435. अघाई = भरपूर । जक = शान्ति । एक मेक = एकत्व भाव ।

436. बान = भेष । बरण = रंग, जाति । आलेखिए = देखिए । शून्य मंडल = निख्रवकल्प हृदय प्रदेश में । सु लखणहार = निष्काम दृढ़वती साधकं श्री रंग = सर्वोपरि रंग से । रंग लागा = प्रेम लगा ।

437. चन्द सूर मध्य = इड़ा पिंगला सुषुम्न्ना में या श्वास-प्रश्वास के स्थैर्य में । गंग जुमना के तीर = इड़ा पिंगला के किनारे । त्रिवेण = मन, प्राण, सुरति । संगम = एकता । विलसि विलसि = उपभोग कर कर ।

439. काल झाल = कामादि वासना का सन्ताप सब भागे । वपु नाहीं = शरीर का अध्यास नहीं रहा । परम रास = एकत्वलीला ।

440. पाँचों पात = पाँचों इन्द्रियों की स्थिरता । यही पत्ता = तुलसीदल है।

441. चित चांबर = शुद्ध अन्तःकरण ही वह चंबर है । हेत = अति अनुराग । पुहुप प्रीति = प्रेम के पुष्प ।

442. मीच = मृत्यु । पार पहुँचे = वासना के समुद्र से पार निकल गये । थिर कर थापे = मन वृत्ति को स्थिर कर आत्मचिन्तन में लगाये ।

443. अनन्त भुवन = चौदह लोक के । राइ = स्वामी ।

444. लंघे पार = संसार समुद्र से पार ।

। इति राग धनाश्री सम्पूर्ण ।

स्रोत

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