विष
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]विष संज्ञा पुं॰ [सं॰] वह पदार्थ जो किसी प्राणी के शरीर में किसी प्रकार पहुँचने पर उसके प्राण ले लेता हो अथवा उसका स्वास्थ्य नष्ट करता हो । गरल । जहर । विशेष—वैद्यक में स्थावर और जंगम ये दो प्रकार के विष माने गए हैं । स्थावर विष वृक्षों, पौधों और खानों आदि में से निकला हुआ माना जाता है; औ जंगम विष वह कहलाता है जो अनेक प्रकार के जीवों के शरीर, नख, दाँत या डंग आदि में होता हैं । कुछ विष कृत्रिम भी होते हैं और रासायनिक क्रियाओं से बनाए जाते हैं । चिकित्सा में अनेक विषों का प्रयोग, बहुत थोड़ी मात्रा में, अनेक रोगों को दूर करने और दुर्बल रोगो के शरीर में बल लाने के लिये किया जाता है । मुहा॰—के लिये दे॰ 'जहर' । २वह जो किसी की सुख शांति आदि में बाधक हो । मुहा॰—विष की गाँठ = वह जो अनेक प्रकार के उपद्रव और अपकार आदि करता हो । खराबी पैदा करनेवाला । जैसे—यही तो विष की गाँठ हैं, सब का झगड़ा इन्हीं का खड़ा किया हुआ है ।
३. जल ।
४. पद्यकेशर ।
५. कमल की नाल ।
६. बोल नामक गंध- द्रव्य ।
७. बछनाग । वत्सनाभ (को॰) ।
८. अतीस ।
९. कलिहारी ।
१०. जहरीला तीर । बिषाक्त वाण (को॰) ।
११. तंत्र में 'म' का बोधक शब्द । 'म' की ध्वनि (को॰) ।
१२. अनुचर (को॰) ।
विष व्यवस्था संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. शरीर में विष भिदने की अवस्था ।
२. विष का प्रभाव [को॰] ।