शर्म
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]शर्म ^१ संज्ञा स्त्री॰ [फा॰] दे॰ 'शरम' । उ॰—मुद्रा संतोष शर्म पति झोली । गुरमुखि जोगी तत्तु विरोली ।—प्राण॰, पृ॰ १०९ । मुहा॰—शर्म आना, शर्म करना=लाज या लिहाज करना । शर्म की बात= लज्जाकारक कार्य । शर्म से गठरी हो जाना= (१) नई बहू का लाज से सिकुड़कर बैठना । (२) लज्जा से गड़ जाना । शर्म और दया भून खाना= शर्म को जान बूझकर छोड़ देना । उ॰—उस छोकरी ने तीखी चितवन करके कहा—ओ मरदूये शर्म और हय भून खाई । आँखें बंद कर ले ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १४६ । यौ॰—शर्मगाह=(१) गोपनीय या आवृत किए जानेवाले अंग । भग । योनि । शर्मानाक= लज्जाजनक । शरमिंदा करनेवाला । उ॰—प्रत्येक शर्मनाक और जलील स्थिति में वह मनुष्य की निकृष्ट से निकृष्ट भावनाओं का एक कलाकार की पैनी दृष्टि से विश्लेषण करता था ।—प्रेम॰ और गोर्की, पृ॰ १० । शर्मसार= लज्जित । शरमिंदा । उ॰—हव्वा और होर आदम कहे यूँ पुकार । हमें तो मेरे मुक सूँ है शर्मसार ।—दक्खिनी॰, पृ॰ ३३४ । शर्मेहजूर, शर्महुजूरी= दे॰ 'शरम हजूरी' ।
शर्म ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. सुख । आनंद ।
२. वह जो सुखी हो ।
३. गृह । घर ।
४. आशीर्वाद । दुआ । (को॰) ।
५. रक्षण । रक्षा । आश्रय (को॰) ।