अन्तर
संज्ञा
- भिन्नता, असमानता
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
अंतर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ अन्तर]
१. फर्क । भेद । विभिन्नता । अलगाव । फेर । उ॰—(क) संत भगवंत अंतर निरंतर नहीं किमपि मति- मलिन कह दास तुलसी ।—तुलसी ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ ४८८ । (ख) इसके और उसके स्वाद में कुछ अंतर नहीं है (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना=फर्क या भेद करना । उ॰—मोहि चंद बरदाय सु अतर मति करयो ।—पृ॰ रा॰ ५८ । १२६ ।—देना ।— पड़ना ।—रखना=भेदभाव रखना । उ॰—ब्रजवासी लोगन सों मैं तो अंतर कछू न राख्यो ।—सूर (शब्द॰) ।—होना ।
२. बीच । मध्य । फासला । दूरी । अवकाश । उ॰—‘यह विचारो कि मथुरा और वृंदावन का अंतर ही क्या है’ ।— प्रेमसागर (शब्द॰) ।
३. दो घटनाओ के बीच का समय । मध्य वर्ती काल । उ॰—(क) इहिं अंतर मधुकर इक आयौ ।— सूर॰, १० । ३४९७ । (ख) ‘इस अंतर में स्तन दूध से भर जाते हैं’ ।—वनिताविनोद (शब्द॰) ।
४. दो वस्तुओं के बीच में पड़ी हुई चीज । ओट । आड़ । परदा । उ॰—कठिन बचन सुनि स्त्रवन जानकी सकी न हिये सँभारि । तृन अंतर दै दृष्टि तरौंधी दई नयन जल ढारि ।—सूर॰, ९ । ७९ । क्रि॰ प्र॰—करना=आड़ करना । उ॰—अपने कुल को कलह क्यों देखहिँ रबि भगवंत । यहै जानि अंतर कियो मानो मही अनंत ।—केशब (शब्द॰) ।—डालना ।—देना=ओट करना । उ॰—पट अतर दै भोग लगायौ आरति करी बनाइ ।—सूर॰, १० । २६१ ।— पड़ना ।
५. छिद्र । छेद । रंध्र । दरार ।
६. भीतर का भाग । उ॰—‘दास’ अँगिराति जमुहाति तकि झुकि जाति, दीने पट, अंतर अनत आप झलकै ।—भिखारी॰ ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ १४३ ।
७. प्रवेश । पहुँच (को॰) ।
८. शेष । बाकी । गणित मे शेषफल (को॰) ।
९. विशेषता । उ॰— अंतरौ एक कैमास सुनि मरन तुच्छ मारन बहुल ।—पृ॰ रा॰, १२ । १६८ ।
१०. निर्बलता (को॰) ।
११. दोष । त्रुटि (को॰) ।
१२. अभाव (को॰) ।
१३. प्रयोजन (को॰) ।
१४. लिहाज (को॰) ।
१५. छिपाव (को॰) ।
१६. निश्चय (को॰) ।
१७. प्रतिनिधि (को॰) ।
१८. वस्त्र (को॰) ।
१९. हृदय । अंतः करण । जी । मन । चित्त । उ॰—जिहि जिहि भाइ करत जब सेवा अंतर की गति जानत ।—सूर॰, १ । १३ । (ख) अंतर प्रेम तासु पहिचाना । मुनि दुरलभ गति दीह्न सुजाना ।—तुलसी (शब्द॰) ।
२०. आत्मा (को॰) ।
२१. परमात्मा (को॰) ।
२२. स्थान (को॰) ।
२३. आशय (को॰) ।
अंतर ^२ वि॰
१. अंतर्धान । गायब । लुप्त । उ॰—कृपा करी हरि कुँवरि जिआई । अंतर आप भए सुरराई ।—महाभारत (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना—होना=अदृश्य होना । उ॰—मोहीं ते परी री चूक अंतर भए हैं जातें तुमसों कहति बातैं मैं ही कियो द्वंदन ।—सूर (शब्द॰) ।
२. दूसरा । अन्य । और । विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः यौगिक शब्दों में मिलता है; जैसे, ग्रंथातर, स्थांनांतर, कालांतर, देशांतर, पाठां- तर, मतांतर, यज्ञांतर इत्यादि ।
३. समीप । आसन्न । निकट (को॰) ।
४. आत्मीय । प्यारा (को॰) ।
५. समान (स्वर या शब्द); (को॰) ।
६. भीतरी । भीतर का (को॰) ।
अंतर ^३ क्रि॰ वि॰
१. दूर । अलग । जुदा । पृथक् । विलग । उ॰— कहाँ गए गिरिधर तजि मोकौं ह्याँ मैं कैसे आई । सूर श्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई ।—सूर (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना=दूर करना । पृथक् करना । उ॰—सूरदास प्रभु को हियरे ते अंतर करौ नही छिनही ।—सूर (शब्द॰) ।—होना ।
२. भीतर । अंतर । उ॰—(क) मोहन मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोइ । बसत सुचित अंतर तऊ प्रतिबिंबित जग होइ ।—बिहारी (शब्द॰) । (ख) चिंता ज्वाल शरीर बन दावा लगि लगि जाइ । प्रगट धुआँ नहिं देखिए उर अंतर धुधुआइ ।—दीनदयाल (शब्द॰) । (ग) बाहर गर लगाइ राखौंगी अंतर करौंगी समाधि ।—हरिश्चंद्र (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना—भीतर करना । ढाँकना । छिपाना । उ॰— फिरि चमक चोप लगाइ चंचल तनहिँ तब अंतर करै (शब्द॰) ।
अंतर ^४ पु संज्ञा पुं॰ दे॰ ‘अंतर’ । उ॰—जवादि केसरं सुरं । पलं सु सत्त अंतरं ।—पृ॰ रा॰, ६६ । ६० ।
अंतर ^५ पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ अन्त्न, प्रा॰ अंत, अप॰ अंत्रडी] आँत । अँतड़ी । उ॰—(क) करंत हक्क हक्कयं । क्रमंत धक्क धक्कयं । चढंत देत दंतरं । अरू अझंत अंतरं ।—पृ॰ रा॰, ९ । १७५ । (ख) बृहंत सार बार पार ता रुरंत अंतरं । ग्रहंत दंत दंत एक कंठ कंठ मंतरं ।—पृ॰ रा॰, ५८ । २४३ ।
अंतर अयण संज्ञा पुं॰ [सं॰ अन्तर+अयण] नीचे जाना । विलोपन [को॰] ।
अंतर अयन संज्ञा पुं॰ [सं॰ अन्तर+अयन]
१. तीर्थों की एक परिक्रमा विशेष अंतर्गृही ।
२. एक देश का नाम ।
३. काशी का मध्य भाग । उ॰—अंतर अयन अयन भल, थन फल, बच्छ बेद विस्वासी ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ ४६४ ।
अंतर वि॰ [ सं॰ अन्तर ] भीतर । बीच में । विशेष—समस्त पदों में इस शब्द के अंतः; अंतर्, अंतश् और अंतस् रूप यथानियम हो जाते हैं ।