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अपान

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

अपान ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. दस वा पाँच प्राणों में से एक । विशेष—निम्नलिखित तीनों वायुओं में से कोइ किसी को और कोई किसी को अपना कहतें हैं—

१. वह वायु जो नासिका द्वारा बाहार से भीतर की ओर खींची जाती है ।

२. गुदास्थ वायु जो मल को बाहार निकालती है ।

३. वह वायु जो तालु से पीठ तक और गुदा से उपस्थ तक व्याप्त है ।

२. वायु जो गुदा से निकले । अधोवायु । गुदस्थ वायु ।

३. गुदा ।

अपान ^३ वि॰

१. सब दुखों को दूर करनेवाला ।

२. ईश्वर का एक विशेषण ।

अपान ^३ पु संज्ञा पुं॰ [प्रा॰ अप्पाण हिं॰अपना]

१. आत्मभाव । आत्मा- तत्व । आत्मज्ञान । उ॰—(क) तुलसी भेडी़ की धँसनि जड़ जनक सनमान । उपजत हिय अपमान भा, खोवन मूढ़ अपान ।— तुलसी ग्र॰, पृ॰ १४५ । (ख) ऋषिराज राजा आज जनक समान को । गाँठि बिनु गुन की कठिन जड़ चेतन की, छोरी अनायास साधु सोधक अपान को ।— तुलसी ग्रं॰, पृ॰३१५ ।

२. आप । आत्मगौरव । भ्रम । उ॰—काहे को अनेक देव सेवत, जागै मसान खोवत अपान, सठ होत हठि प्रेत रे ।— तुसली ग्रं॰, पृ॰२३८ ।

३. सुध । होश हवास । उ॰— (क) भय मगन सब देखनहारे । जनक समान अपान बिसारे ।—मानस, १ ।३२५ । (ख) बरबस लिए उठाइ उर, लाए कृपानिधान । भरत राम की मिलन लखि, बिसरा सबहि अपान ।— मानस, पृ॰ २८५ ।

४. अहं । अभिमान ।

अपान ^४ पु सर्व॰ [हिं॰ अपना] निज का । अपना । उ॰— पहि- चान को केहि जान, सबहि अपान सुधि भोरी भई । — मानस, पृ॰ १ ।३२९ ।

अपान ^५ पु वि॰ [सं॰ अ +पान] जो पाने के योग्य न हो । अपेय । उ॰—माधौ जू मोतैं और न पापी । भच्छि अभच्छ अपान पान करि कबहुँ न मनसा धापी । —सूर॰ १ ।१४० ।