अभिव्यंजनावाद
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]अभिव्यंजनावाद संज्ञा पुं॰ [सं॰ अभिव्यञ्जना + वाद; ( अं॰ एक्सप्रेशनिज्म)] योरप में प्रचलित चिवकला, साहित्य आदि का वह सिद्धांत जिसमें बाह्य वस्तु या विषय को कला का गौण और अपनी या पात्रों की आंतरिक अनुभूतियों के प्रतीकात्मक चित्रण को प्रधान अंग माना जाता है । विशेष— इसमें अभिव्यंजना ही सब कुछ है; जिसकी अभिव्यंजना की जाती है वह कुछ नहीं । इस मत का प्रधान प्रवर्तक इटली का क्रोच है । अभिव्यंजनावादियों के अनुसार जिस रूप मे अभिव्यंजनक होती है उससे भिन्न अर्थ आदि का विचार कला में अनावश्यक है । जैसे— वाल्मीकि रामायण की इस उक्ति में 'न स संकुचित: पंथा: येन बाली हतो गत:', कवि का कथन यही वाक्य है, न कि यह कि जिस प्रकार बाली मारा गया उसी प्रकार तुम भी मारे जा सकते हो । इसी तरह 'भारत के फूटे भाग्य के टुकडों जुड़ते कयों नहीं ? में इतना ही कहना है कि 'हे फूट से अलग हुए भारत- वासियों एकता क्यों नहीं रखते ? यदि तुम एक हो जाओ तो भारत का भाग्योदय हो जाय । साराश यह कि इस मत में ध्वनि या व्यंजना की गुंजाइश नहीं है ।— चिंतामणि, भाग २, पृ॰ ९६ ।