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आड़ा

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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आड़ा ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ आलि=रेखा प्रा॰ आल, आड़ अथवा सं॰ अराला प्रा॰ *आल] [स्त्री॰ आड़ी]

१. एक धारीदार कपड़ा ।

२. जहाज का लट्ठा । शहतीर ।

६. नाव या जहाज में लगे हुए बगली तख्ते ।

४. जुलाहो का लकड़ी का वह समान जिसपर सूत फैलाया जाता है ।

आड़ा ^२ वि॰

१. आँखों के समानांतर दाहिनी ओर से बाई ओर को बाईं ओर से दाहिनी ओर को गया हुआ ।

२. वार से पार तक रखा हुआ । मुहा॰—आड़े आना=(१) रुकावट डालना । बाधक होना । जैसे,—जो काम हम शुरु करते हैं, उसी में तुम बेहतर आड़े आते हो । (२) कठिन समय में काम आना । गाढ़ें में काम आना । संकट में खड़ा होना । उ॰—कमरी थोड़े दाम की आवै बहुतै काम । खासा मलमल बाफता उनकर राखै मान । उनकर राखै मान बुँद जहँ आड़े आवै । वकुचा बाँधै मोट राति को झारि बिछावै ।-गिरधर (शब्द॰) । आड़ा तिरछा होना= बिगड़ना । मिजाज बदलना । जैसे,—आड़े तिरछे क्यों होतो हो, सीधे सीधे बातें करो । आड़े पड़ना=बीच में पड़ना । रुकावटट डालना । उ॰—कबीरा करनी आपनी कबहुँ न निष्फल जाय । सात समुद्र आड़ा परै मिलै अगाऊ आय ।—कबीर (शब्द॰) । आड़े हाथों लेना=किसी को व्यंग्यक्ति द्वारा लज्जित करना । जैसे,—बात ही बात में उन्होनें बलदेव को ऐसा आड़े हाथों लिया कि वह भी याद करेगा । आड़ा होना=रुकावट डालना । आगे न बढ़ने देना ।—मैं पीछे मुनि धीय के, चह्वयौ चलन करि चाव । मर्यादा आड़ी भई, आगे दियो न राव ।— लक्ष्मण (शब्द॰) ।

आड़ा ^३ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ अड्ड़ा] दे॰ 'अड्ड़ा' । उ॰—होइ निचिंत बैठे तेहि आड़ा । तब जाना खोंचा हिय गाड़ ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ २८ ।