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आरती

विक्षनरी से

क्रिया

  1. देवपूजन के समय घी का दीया, धूप आदि जला कर बार-बार घुमाते हुए सामने रखना, नीराजन

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

आरती संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ आरात्रिक]

१. किसी मुर्ति के ऊपर दीपक को घुमाना । नीराजन । दीप । उ॰—चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारी । लिए आरती मंगल थारी ।—मानस, १ ।३०१ । विशेष—इसका विधान यह है कि चार बार चरण, दो बार नाभि, एक बार मुँह के पास तथा सात बार सर्वाग के ऊपर घुमाते हैं । यह दीपक या तो घी से अथवा कपूर रखकर जलाया जाता है । बत्तियों की संख्या एक से कई सौ तक की होती है । विवाह में वर और पूजा में आचार्य आदि की भी आरती की जाती है । क्रि॰ प्र॰—उतारना ।—करना । मुहा॰—आरती लेना=देवता की आरती हो चुकने पर उपस्थित लोगों का उस दीपक पर हाथ फेरकर माथे लगाना ।

२. वह पात्र जिसमें घी की बत्ती रखकर आरती की जाती है ।

३. वह स्तोत्र जो आरती समय गाया या पढ़ा जाता है ।