आरोह

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

आरोह संज्ञा पुं॰ [सं॰][वि॰ आरोहा]

१. ऊपर की ओर गमन । चढ़ाव ।

२. आक्रमण । चढ़ाई ।

३. घोड़े, हाथी आदि पर चढ़ना । सवारी ।

४. वेदांत में क्रमानुसार जीवात्मा की ऊर्ध्वगतिया क्रमश: उत्तमोत्तम योनियों की प्राप्त होना ।

५. कारण से कार्य का प्रादुर्भाव या पदार्थों की एक ग्रवस्था से दूसरी अवस्था की प्राप्ति । जैसे, -बीज से अंकुर, अंकुर से वृक्ष, या अंडे से बच्चे का निकलना ।

६. क्षुद्र और अल्प चेतनावाले जीवों से क्रमानुसार उन्नत प्राणियों की उत्पत्ति । आविर्भाव । विकास । विशेष—आधुनिक सृष्टितत्वविदों की धारणा है कि मनुष्य आदि सब प्राणियों की उत्पत्ति आदि में एक या कई साधारण अवयवियों से हुई है जिनमें चेतना बहुत सूक्ष्म थी । यह सिद्धांत इस सिद्धांत का विराधी है कि संसार के सब जीव जिस रूप में आजकल हैं उसी रूप में उत्पन्न किए गए । निरव- यव जड़ तत्व क्रमश: कई सावयव रूपों में सामने आया, जिनमें, भिन्न भिन्न मात्राओं की चेतनता आती गई । इस प्रकार अत्यंत सामान्य अवयवियों से जटिल अवयववाले उन्नत जीव उत्पन्न हुए । योरप में इस सिद्धांत के बनानेवाले डार्विन साहब है जिनके अनुसार आरोह की निम्नलिखित विधि है- (क) देश काल के अनुसार परिवर्तित होते रहने की इच्छा । (ख) जीवनसंग्राम में उपयोगी अंगों की रक्षा और उनकी परीपूर्णता । (ग) सुदृढ़ांग जीवों की स्थिति और दुर्बलांगों का विनाश । (घ) प्राकृतिक प्रतिग्रह या संवरण जिसमें दंपति- प्रतिग्रह प्रधान समझा जाता है । (च) यह साधारण नियम कि किसी प्राणी का वर्तमान रूप उपर्युक्त शक्तियों का, जो समान आकृति उत्पादन की पैतृक प्रवृत्ति के विरुद्ध कार्य करती है, परिणाम है ।

७. संगीत में स्वरों का चढ़ाव या नीचे स्वर से क्रमश: ऊँचा स्वर निकालना । जैसे, —सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा ।

८. चूतड़ । नितंब ।

९. ग्रहण के दस भेदों में से एक । विशेष—इस ग्रहण में ग्रस्त ग्रह को आवृत करनेवाला ग्रह (राहु) वर्तुलाकर ग्रहमंडल को आवृत करके पुन: दिखाई पड़ता है । फलित ज्योतिष के अनुसार इस प्रकार के ग्रहण के फलस्वरूप राजाओं में परस्पर संदेह और विरोध उत्पन्न होता है ।