आर्या

विक्षनरी से

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

आर्या संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. पार्वती ।

२. सास ।

३. दादी । पितामही । विशेष—इस शब्द का व्यवहार में श्रेष्ठ या बडी बूढी़ स्त्रियों के लिये होता है ।

४. अर्धमात्रिक छंद का नाम । इसके पहले और तीसरे चरण में बारह बारह तथा दूसरे और चौथे चरम में १५ मात्राएँ होती हैं । विशेष—इस छंद में चार मात्राओं के गण को समूह कहते हैं । इसके पहसे, तीसरे, पाँचवें और सातवें चरण में जगण का निषेध है । छठे गण में जगण होना चाहिए । जैसे,— रामा, रामा, रामा, आठौ यामा, जपौ यही नाम । त्यागौ सारे कामा, पैहौ बैकुंठ विश्रामा । आर्य के मुख्य पाँच भेद हैं — (१) आर्या या गाहा, (२) गीति या उग्गाहा (३) उपगीति या गाहू, (४) उद्रगीति या विग्गाहा और (५) आर्यगीति या स्कंधक या रवंधा । यौ॰.—आर्यासप्तशती = गोवर्धनाचार्य का आर्या छंद में निबद्ध लगभग ७०० छंदों का संस्कृत मुक्तक काव्य ।