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आल

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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आल ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] हरताल ।

आल ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ अल=भूषित करना] १एक पौधा जिसकी खेती पहले रंग के लिये बहुत होती थी । विशेष—यह पौधा प्रत्येक दूसरे वर्ष बोया जाता है और दो फुट ऊँचा होता है । इसका मूल रूप ३०-४० फूट का पूरा पेड़ होता है । इसके दो भेद हैं— एक मोटी आल और दूसरी छोटी आल । छोटी आल फसल के बीच से बोई जाती है और मोटी आल बड़े पेडों के बीज से आषाढ में बोई जाती है । इसकी छाल और जड गडाँसे से काटकर हौज में सड़ने के लिये डाल दी जाती है और कई दिनों में रंग तैयार होता है । कहते हैं, इससे रंगे हुए कपडे़ में दीमक महीं लगती ।

२. इस पौधे से बना हुआ रंग ।

आल ^३ संज्ञा स्त्री॰ [देश.]

१. एक कीडा़ जो सरसों की फसल को हानि पहुँचाता है । माहो ।

२. प्याज का हरा डंठल ।

३. कद्दू । लौकी ।

आल ^४ संज्ञा पुं॰ [आनुध्व.] झंझट । बखेडा । उ॰—(क) आठ पहर गया, यौं ही माया मोह के आल । राम नाम हिरदय नहीं, जीत लिया जमजाल । —कबीर (शब्द॰) । यौ॰—आल जंजाल, आल जंजाल, = झंझट । बखेडा़ । उ॰— कंचन केवल हरिभजन, दूजा काथ कथीर । झूठा आल जंजाल तजि, पकडाय साँच कबीर । —कबीर (शब्द॰) । आलजाल = (१) बे सिर पैर की बात । इधर उधर की बात (२) अंड बंड या इधर उधऱ की वस्तु ।

आल ^५ संज्ञा पुं॰ [सं॰ ओल या आर्द्र]

१. गीलापन । तरी । जैसे,— ऐसा बरसा कि आल से आल मिल गई ।

२. आँसू । उ॰— सिसक्यो जल किन लेत दृग, भर पलकन मैं आल । बिचलत खैंचत लाज कौ मचलत लखि नँदलाल ।—स॰ सप्तक, पृ॰ १९२ ।

आल ^६ संज्ञा स्त्री॰ [अ॰]

१. बेटी की संतति । यौ॰—आल औलाद = बाल बच्चे ।

२. वंश । कुल । खानदान ।

आल † ^७ संज्ञा पुं॰[देश॰] गाँव का एक भाग ।

आल ^८ वि॰ [सं॰ ओल या आर्द्र] गीला । कच्चा । हरा । उ॰— आलहि बाँस कटाइन इँडिया फदाइन हो साधो ।— पलटू॰, भा॰ ३, पृ॰ १२ ।

आल ^९ संज्ञा पुं॰ [देश॰.] एक प्रकार का कँटीला पौधा । स्याह कांटा किंगरई । वि॰ दे॰ 'किंगरई' ।

आल संज्ञा पुं॰ [सं॰ आलु] एक प्रकार प्रसिद्ध कंद । विशेष—क्वार कार्तिक में क्यारियों के वीच मेंड बनाकर आलू बोए जाते हैं जो पूस में तैयार हो जाता हैं । एक पौधे की जड़ में पाव भर के लगभग आलू निकलता हैं । भारतवर्ष में अब आलू की खेती जारो ओर होने लगी है, पर पटना, नैनीताल और चीरापूँची इसके लिये प्रसिद्ध स्थान हैं । नैनीताल के पहाड़ी आलू बहुत बडे़ होते हैं । आलू दो तरह के होते हैं लाल और सफेद । यह पौधा वास्तव में अमेरिका का है । वहाँ से सन् १५८० ई॰ में यह युरोप में गया । भारतवर्ष में इसका उल्लेख सबसे पहले उस भोज के विवरण में आता है जो सन् १६१५ ई॰ में सर टामस रो को आसफ खाँ की ओर से अजमेर में दिया गया था । जब पहले पहल आलू भारतवर्ष में आया या तब हिंदू लोग उसे नहीं खाते थे; केवल मुसलमान और अँगरेज ही खाते थे । पर धीरे धीरे इसका खूब प्रचार हुआ और अब हिंदू व्रत के दीनों में भी इसे खाते हैं । 'आलू' शब्द पहले कई प्रकार के कंदों के लिये व्यवहृत होता था, विशेषकर 'अरूआ' के लिये । फारसी में कुछ गोल फलों के लिये भी आलू शब्द का व्यभहार होता है, जैसे,—आलूबुखारा, शफतालू आलूवा । यौ॰—रतालू । शफतालू ।